________________ म लोमहरिसणेसु गिरभिरामे मु, निप्पडियार बाहिरोग जरापिलिए मु, अईवणिचंधयार तमिसेसु पतिभएसु वगए गहचंदसरणखत्त जोइसेसु, मेय वसामंस पडल पुच्चड पूइ रुधिर रुक्किण विलीण चिक्कणरसिया वावण्ण कुहिय चिक्खल कदमेसु, कुकुला नलपलित जालमुम्मुर असिखर करवतधारासु निसित विच्छुयदंडकं णिवातोवम्म, फारस, अतिदुस्सहेसु अताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेमु, अणुबंध रौद्र, भयंकर, महागंभीर, देखने से ही रोम खडे होवे वैसे, अदर्शनीय और उत्पन्न हुए पीछे पूर्ण स्थिति में भोगरे विना नहीं नीकल सके वैसे हैं. वहां के जीव सदैव ब्याधि रोग व वृद्धावस्था मे पीडित रहते हैं. वहां 5 के स्थान संदेव अंधकार होने से तिमिस्रगुफा समान चारो ओर भयंकर ओचाट उत्पन्न करनेवाले हैं. वहां नरक में द्र, मर्य, गृह नक्षत्र व तारा वगैरह ज्योतिषी नहीं हैं. नरक स्थान मेंद, चरबी, मांस इत्यादि समुह से 12 पारपूर्ण है, आम रूधिर इस से मीश्रित है. दुगंछावाले अत्यंत चिक्कने 'रस से व्याप्त हैं. सडा हुवा, बिगडकर विद्रूप दधिमय कर्दम बहा रहा हुवा है. वहां नरक में कुंभार की भट्टी जैसी जाज्वल्यमान अनि नथा भोमर रूप (राव से ढकी हुई) अग्नि है. वहां वैक्रय किये खड्ग, छूरा, करवत इत्यादि शस्त्र अती ही तीक्ष्ण हैं, दृच्छिककी पूंछ जैसा वक्र और विषमय कंटक समान है. संडासादि शास्त्र से खींचकर नैरयिकोंको नीचे पटकते हैं. उन को नरक का स्पर्श अति दुःसह होताहै,उन का कोई त्राण शरण दुःख निवारक नहीं है,अत्यंत दुःखपद ...परितापाले पूकृित कर्म प्राप्त होने से निरंतर वेदना भोगते हुवे रहते हैं. वहां परमाधर्मी देव परिताप उत्पन्न रण सूत्र-प्रथम अश्रद्वार * दशम ङ्ग-पना हिला नामक प्रथम अध्ययन,H