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________________ *पकाइक-वहादुरशाला अनुपदक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी णिरंतर वेदणेसुः जमपरिससंकुलेसु. तत्थय अंतीमुहुत्त लद्धि भवपच्चएण निबत्तीतिय / ते सरीरं हुंड बिभत्थ दरिमाणिजं बीहणगं, . अटिहारुणह गमवज्जियं, असुभग दुक्खविपहंति तत्तीय पजत्ति मुरगता इंदिएहि पंचहि वेदेति असुभाए वेदणाए उज्जलं बलविउल तिउल उक्कड खरफरस पयडधीरे बीहणग दारुणाए।१४। किं ते कंदु महाकुंभिकरते हैं. + वे अनेक प्रकार के विकराल रूप बनाते हैं, वैसे ही शस्त्र कुशस्त्र का वैक्रेय बनाकर विविध प्रकार के दःख देते हैं. इससे व नैरयिक अती अ.कुल, व्याकल हो रहे हैं. नरक में उत्पन्न हुए पीछे अंतर्मुहर में उन का केवल की प्राप्ति होती है इस में वे अपना शरीर बनाते हैं. वे शरीर हुंडक. संस्थानवाले होने हैं. बीभत्म दुगंछा उत्पन्न करे वैमे होते हैं. उन को स्वतः को ही भयंकर दीखते हैं. उन में हड्डी, स्नायु, माडियों जाल वगैरह कच्छ भी नहीं है, अशुभ दुःख सहन करने में शक्तिवंत होते हैं, वहां आहारादि पांचों पर्याप्त पूर्ण बांध पीछे वहां के दुःखों का अनुभव पूर्णपने करते हैं. जैसी वहां की अशुष उनल, वेदना होती है वह कहते हैं. उस नरककी जमीनका उत्कृष्ट खरखरा अग्नि समान तप्त दुःख दायक. पांच के सार्श मात्र से मस्तक पर्यंत वेदना होवे वैसा (बिच्छु के सपान.) स्पर्श है. एसी घोर दारुण वेदना वहां के जाच अनुभमने हैं, यहां के जीव तो वहां तत्काल ही मृत्यु प्राप्त हो जावे एमा विषम स्थान है. // 14 // + तीन नरक पर्यंत परमाधर्मी देव जाते हैं, हायची बाजपमादजी*
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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