________________ त्र मुाने श्री अमोलक ऋषिजी हासं, परपीलाकारगंच हास, भेयविमुत्ति कारगंच हासं, अण्णोण्ण जणियंचहुजह सं, अन्नोग्णगमणंचहोज ममं, अण्णोणगमगंच होज कम्म,कंदप्पाभिओग गमणं चहोज हासं, आसुरियं किव्विसत्तं च णिज हासं, तम्हा हासनसीवयव्यं,एवं माणेणय भाबिओ भवइ अंतरप्पा, सजय'कर चरण णयण वयणो सु। सच्चजव संपन्नो // 13 // एवमेणं संवरस्सदारं सम्मं संवरियहोई, सुप्पणिहियं इमेहिं पंचाह कारणेहिं मणवयकाय परिरक्खिएहि, निच्चं आमरणतंच एसो जोगोनेयव्यो, धिइमया मइमया अणासो गुन का नाश करता है, परस्पर का हास्य प्रथम अच्छा होता है परंतु पीछे से क्लेश कराता है. नीच. जाती के देव में हास्य करने से उत्पन्न होना पडता है. ऐसा मनुष्य भवनपति, परमार्थी, व्यतर किल्विषी इत्यादि देवता में उत्पन्न होता है, इस लिये हास्य का सेवन करना नहीं. हास्य कषाय का उदय होनेपर 3 पौन रखना. इस तरह मौन भाव में भावता हुवा अंतरात्मा हाथ, पांव, आंख व मुख में शूरवीर और सत्य व ऋजुता को प्राप्त होता है // 13 // यों पूर्वोक्त प्रकार से संबर द्वार से सम्यक प्रक र संवर युक्त हे ना उमे अच्छी तरह कहा है. इन पांचों ही कारन से मन वचन और कायाको अच्छी तरह गोपकर रख, में मृत्यु प्राप्त होवे नहीं वहां लग इस योग पूर्वक पांचों भावना का निर्वाह करे. घृति-धैर्ययंत, मति-बुद्धि सहित आश्रव व कलुषता राहत, कर्म जल आने के छिद्र रहित क्लेश रहित शुद्ध रीति से श्री जिनेश्वर तीर्थ करा * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी .