________________ अनुवादक-चा ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलक ऋषिजी - 'सूरसंख चक्क वरसोस्थिय विभत्तसुविरइयं पणिलेहा पीणुण्णय कक्खच्छिपरदेस, पडिपुण्णगलकपोला, वैउरंगुलसुप्पमाण कंबुवर सरिसगीवा, मंसल संठिया पसत्थहणुया, दाडिमपुप्फप्पकास पीवर, पलंबकोचियवरधरा, सुंदरोत्तरोटा, दधिदगरय कुंदचंद वासंति मउल अश्छिद्द विमल दसणा. रत्तुप्पलरत्तपउमपत्त सकुमाल तालु जीहा, कणग वीरमउल कुडिल अब्भुण्णय उज्जतुंगनासा, सारदनव कमल कुमुय कुवलयदल निगर सरिस लक्खण पसत्थ निम्मलकंत नयणा, आनामिय चावरुइल, किण्हराई संगय सुजाय तणुकसिणं निह भमगा अल्लीणपमाणुजुत्त सवणा सुस्सवणा, पीणमट गंडलेहा, चउरं गुलविसाल समनिडाला, कोमुदिरय E छिद्र रहित निर्मल दांत हैं. रक्त त्पल पद्मपष समान सुकुमाल त लु और जिव्हा है. सुवर्ण समन माकुली जैसी उन्नत मरल ऊंची नासिका है. शरद काल के उत्पन्न हुए सूर्य विकासी कमल, चंद्र विकासी कमल, नीलोत्पल कमल, सोपांखडियों के कपल, समान शुभ लक्षण युक्त निर्मल कान्तकारी चक्षु हैं. किाचेत् नमे हुए धनुष्य समान पनाम कृष्ण बदल की रानी समान लम्बे सुस्थित भ्रपर हैं. अलीनसुंदर प्रमाणोपेत कर्ण हैं, पुष्ट घटारे हुए गंडस्थल हैं. चार अंगु उ प्रमाण विस्तीर्ण ललाट हैं, कार्तिक पूर्णिमा के चंद्रमा समान निर्मल प्रतिपूर्ण सौम्यवदन है. छत्र समान मस्तक है, अत्यंत कृष्ण वर्णवाले * प्रकाशक-राजाबहादुर काला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *