________________ अट्ठहिं, अटुकम्मगट्ठी विमोयगे, अट्ठमय महणे स समय कुसलेये भवइ, सुहदुक्ख निविसेसे, अभितर बाहिरंमिसुया, तवो वाहणमिय सुहुजुए खंते दंतेय हियनिरए इरिया समिए, भासा समिए, एसणा समिए, आयाणभंडमत मिक्खेवणा समिए, उच्चार पासवण खल सिंघाण जल्ल परिट्ठावणियासमिए, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते, .. गुत्तिादेए, गुत्तबंभचारी, चाइलज्जु धण्णो तबस्सी, खंतिरखमे जिइंदिए सोहिए : मुना श्री अमोलक ऋषिजी - अनुवादक-बाऊब्रह्मचारी गह्य शुद्धि वाले, तप रूप उपधान वाले, क्षमावंत, दण्तेिन्द्रिय और हृदय की पात्रता वाले होते हैं. 1 और भी साधु के गुण कहते है-ईर्या समिति-देखकर चले, 2 भाषा समिति-विचार कर बोले, 3 एषणा समिति निर्दोष आहार वस्त्र पात्र भोगवे, 4 आदान भंडपत्त निक्षपना समिति-यत्ना पूर्वक भंडोपकरण ग्रहण करे व रखे और 5 उच्चार प्रसवण खेल जल्ल परिस्थापनीय समिति-यत्ना पूर्वक रघुनीत बहीनीत वगैरह परिठावे. यह पांच समिति, मन गुप्ति-मन को पाप से गोपत्रे, वचन गुप्ति-बचन को पाप से गोपये, और काया गुप्ति-काया को पाप मे गोपवे, यह तीन गुप्त, गुप्तिन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मवारी, सब संगके परित्यागी, लज्जावंत, तप रूप धन बाले, क्षमा भाव से उपसर्ग सहन करने वाले, जोतेन्द्रिय बनकर परिषड सहन करने वाल, शुद्ध हृदय वाले, सरल स्वभावी, कृत कर्म के फल की इच्छा रहित, संयम से बाहिर परिणाम * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *