________________ 214 मंडलतलव्व पागडभावेण सुद्धभावे,सोंडीरोकुंजरोब्व, वसभीव जायथामे, सीहोव जहा मिगाहिवेहोइ दुप्पधरिसो,सारय सलिलंव सुद्धहियए, भारंडेचव अप्पमत्ते,खगविसाणं चेव एगजाए,खाणूचिव उड्डकाए,सुण्णागारोव अप्पडिकम्मे,सुण्णागारावण्णस्संता निवाय , सरणप्पदीव झाणमिवनिप्पकंपे, जहा क्खरोचिव एगधारे, जहा अहीचिव एगेदिट्री, आगासेचित्रनिरालंबे, विहंगे विवसब्बओ विप्पमुक्के, कयपरिनिलए जहाचेव उरए और कीर्ति रूप सुगंध युक्त,१४ द्रहके पानी जैसे समभावी१५घसकर साफ किया हु रा कांच जैसे निर्मल 16 हाथी समान निर्भय,१७वृषभ समान संयम भार के निर्वाहक, १८सिंह जैसे परिषद सहनमें दुर्धर,१९शरद ऋतु के पानी छ समान निर्मल, 20 भारंड पक्षी समान अप्रमादी, 21 खगोंडा एक शृंगवाला होता है वैसे ही राग व रहित अकेले, 22 गाडा हुआ खूटे समान स्थिर, 23 शून्य गृह की जैसे कोई संभाल नहीं करता है। वैसे शरीर की संभाल नहीं करनेवाले, 24 जैसे चारों तरफ से बंध किया हुवे घर में दीपक नहीं कम्पा है वैसे ही ध्यान से नहीं कंपनेवाले, 25 छुरी जैसे न्याय में एक धारा से चलनेवाले, 26 सर्प समान मोक्ष तरफ एक दृष्टिवाले, 27 आकाश जैसे निगलम्ब, 28 पक्षी समान रूब स्थान परिभ्रमण करनेवाले 1529 जैसे सर्प अन्य के किये बिल में रहता है वैसे ही अन्य के लिये बनाये हुवे स्थान में रहनेवाले और मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *पकायाक-राजाबहादुर ला-सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* + अनुवादक बालब्रह्मचार