________________ देशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय संघरद्वार 488 अमणुण्यपावएसु नतसु समणेण रुसियव्यं जाव नदुग्गंच्छा वत्तियावि लब्भा उप्पाएओ एवं चक्ख इदिय भावणा भाविओ भवइ अंतरप्पा जाव चरेजघम्मं // 16 // तइयं घाणिदिएण अग्घाइय गंधाई मण्णुण, भद्दगाई, किं ते जलय थलय सरस पुष्फ फल पाण भोयण कोट्ट तगर पत्त चोय दमण कमरूयएलारस पिक्कमर्सि गोसीस सरस चंदण कप्पूर लवंग अगर कुंकम कंकोल उसीर सेय चंदण सुगंध सारंगजुत्ति वरधूव वासेउउय बिडिमणीहारि सुगंधिएसु,अण्णेसुय एवमाइएसु गधेसु मणुण्ण मद्दएसु नतसु- समणण सजियव्य, नगझियव्वं नगिझियव्वं नमुज्झिव्वं, नविनिग्याय मावजियवं, वाडेबाला, सहा हुवा; चांदा पडा हुवा, और भी अन्य अपनोज पापकारी रूप पर मन से भी रोष करे नहीं. य..त् दुगंछा करे नहीं इस प्रकार चा इन्द्रिय गुप्ति रूप भाव से अंतरात्मा को भावता हुआ . धर्म में में विचरे // 16 // अब तीसरी भावना करते हैं-मनोज अच्छा घाणेन्द्रिय संबंधी गंध ग्रहण करे. जल के उत्पन्न हुए; स्थल के उत्पन्न हुए; तत्क.ल के उत्पन्न हुए, पुष्प फल, पानी, भजन, कोष्टक. तगर, Vतमा.पत्र, सुगं.चे छाल, दमन, मरुंआ, एलायचो रस, पाल, गोप चंदन, तत्काल का घीमा हुवा चंदन, 2. पूर; लवंग, अगर: कुंकुमः ककोल; उसीर, खसखस, श्वेत चंदन, सुगंधी साग दले युक्त प्रधान धूप, ऋतु / योन्य धूप, धूप , अकृष्ट गंध और भी इस प्रकर की पनं ज्ञ सुपंध में 'अस होये __ in निष्पपरिग्रह नापक पंचम अध्ययन HEN /