________________ 26. 4 अनुवादक-बाल ब्रह्मचरी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी - - संपत्त, नड नहग जल मल्ल मुट्टिय वलंगकहकपवग लासग आइख लख भेख तू इल्ल तूंब वीणीय तालायर पमरणाणिय बहुणिसुक्यण णिय. अण्णेसुय एवमाइएसु रूवेसु मण्णुण्णभदएसुनतेसुसममेणनसाजयवं,नरजियचं नगिझियव्वं,नमुझियव्य नविनिग्धा "यमावजियन्वं, नलुभियन्वं नरुसियव्व नहसियव्वं नग्इंच मइंच तत्थकुजा, पुणराव चक्खुईदिएण पासियरूवाणि अमणुण्णपावगाई,किंते गडिकोढिय कुगिउदाकछूल पइल कुज्ज पंगुल वामण अंधिल्लग, एगचक्खु विणिहय, साप्पसलग वाहिरोग पीलीयं विगयाणिय मयग कलेवराणिय सकिमिण कुहियं चदम्बरा से अण्णसुय एवमाहिएस बहुत प्रकार के अच्छे पने ज्ञ प्रधान भद्रकारी रूप में माधु आक्त होवे नहीं, रक्त होरे नहीं, गृद्ध हे वै नहीं, मूच्छित होवें नहीं, रूप से ध्य धात पारे नहीं, लोभित होवे नहीं, संपुष्ठ हे वे नहीं, हस नहीं, और उस में बुद्धि परिणपावे नहीं, यह अच्छे रूप का कथन हुवा. अब खगब रूप का कथन करते हैं: आंखों से अपनोज्ञ खरब रूप देखे. जैसे गंडमाल' गंग बाला, कोड रोग वाला, गर्भ के दंप से एक पात्र छेटा एक पांव बडा ऐमा कुणिम गेमवाला, जलोदर का रोगवाला, श्रीपलु गंगवाला. वैसे ही कुन्नपना. पंगुलपना, वामनपना, अन्धापना, एक आंख से काना, मर्मिरोग, सलग-पिशाचा दे . लगा होषे वैसा.रोग, व्याधि, तात्काल मरे ऐसा रोग, पीलीया रोग, विकृत रूपवाला रोग; मृत कलेवर* *प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालापमादी * म