________________ - 44.8 27 तिरियवसहिं दुक्खत्ताणंसु दारुणं जम्मण मरणजया वाहि परियणारहट्ठ; जल थल / खहचर, परोप्पर विहिंसणपवंच. इमच जगपागडं वरागा दुक्खं पावलि. दीहकाल किं ते सीअ उण्ह तण्ह खुहवेयण अप्पडीकार अडविजम्मणं, णिच्च भउविग्गवास जगाण वध बंधग तालण कण्ण निवायण अद्विभंजण नासाभदप्पहार दमण छविछेयण अभिउगपारण कसं कुसार निवाय दमणाणि वाहणाणिय मायपिय विप्पउग सोय परिपीलणाणिय, सत्यग्गि विसाभिघात गलगवलावलणमारणाणिय से नीकल कर बहुत जीव तिर्यंच योनि में आते हैं. वहां भी महा दुःख पाते हैं जिस का स्वरूप कहते हैं. इस में जन्म मरण का दुःख बडा ही दारुण है इस में अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पर्यंत अरहघटिका iवत् जन्म मरण व्याधि वेदना वगैरह अनेक प्रकार के दुःख पाते हैं. जलचर, स्थलचर व खचरपने परस्पर अनेक प्रकार की हिंसा करते हैं. और भी जैसे आगे कहेंगे वैसे वे दीन जीव दीर्घ काल पर्यंत दुःख प्राप्त करते हैं. शिष्य प्रश्न करता है कि तिर्यंच में कैमा दुःख है ? गुरु उत्तर देते हैं कि वहां परवशपने शीत, ऊष्ण, क्षुधा वेदना, रोगोपचार, अटवि में घूमना, और वहां ही जन्म लेना, सदैव उद्वेग केयुक्त रहना, जगते रहना, मार खाना, बंध। में पडना, पिंजर में बंध होना, अपने यूथ का वियोग होना, 420 देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार हिसा नामक प्रथम अध्ययन 48.8+ -