________________ 227 देशमाङ्ग-मनष्याकरण भूत्र-द्वितीय संबरद्वार अणुपालियं अणाए आराहियं मवइ, एवं नायमागिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्विवरं सासणमिणं अघवियं सुदेसियं पसत्थं, पंचमं संवरदारं सम्मत्तं त्तिबामे // इति पंचम संवर दार अज्झयणं सम्मत्तं // 5 // . . // उपसंहार // एयाइं वयाइं पंचविसुव्वय महन्वयाई हेउ सय विचित्त पुक्खलाई कहिया अरिहंतसासणे पंचममासेणं संवरा वित्थरेणउ प्पणवसिइ सीमइ सहियं सबुडे, सया जयण घडण सुविसद्ध दंसणो, एए अणुचरिय संजए चरिम सरीर.. धरे भाविस्सइति // पण्ह वागरणेणं एगसुयक्खंधो दस अज्झयणं एकं सरगा रहित शुद्ध जिनाज्ञ नुसार पाले, इस प्रकार पांचग संवर द्वार को पाले, स्पर्श, शुद्ध, रखे, पार पहुंचने की युक्त आगधे वह जिन ज्ञाका आराधक होवे, ऐसा ज्ञात नंदन श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामीने प्ररूपा हैं, प्रसिद्ध किया है, सिद्ध गति देने वाली प्रधान हित शिक्षा दी है. is और यह प्रशस्त है. यह पांचवा मंबर द्वार जैसे मैं ने श्री श्रमण भगवान महावी स्वामी से सुना वैती तुझसे कहा है. यह पांचवा संवर द्वार संपूर्ण हुग // 5 // * * "}, उपसंहार-उक्त पांच सुव्रत महाव्रत अनेक प्रकार के हेतु से विस्तार युक्त निर्दोष कहे हैं. अरिहंत के शासन में पांच प्रकार के संबर की विस्तार पूर्वक 25 भावना कही है. इस से संयुक्त बनकर प्राप्त संयप की यत्वा और असंभात हानादिक्की विशुद्धता दर्शन से प्राप्ति करना. इस अनुसार चलनेशला समिति युक्त +साधु परिम शरीर भाराधक होगा. अर्थात् उस ही भव में मोक्ष प्राप्त करेगा। इस प्रश्न व्याकरण सूत्र का > निष्परिग्रहनामक पंचम अध्ययन 46+