________________ TU 173 सूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 4.3 दशमङ्ग-प्रश्वव्याकरण पीलाकरं सावजं तहभोत्तव्वं जहसे, तइयंवयं नसीयइ, साहरण पिंडवाय / लाभेसुहुमे आदिण्णदाणवय नियम वेरमणे, एवं साहारण पिंडवाय लाभे समिइ जोगेण .. भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिगरण कणकरावण पायकम्माविरते दत्तमण्णुण्णाय उग्गहरुइ // 10 // पंचमगं साहम्मिए सुविणओपउंजियवो उवयारण पारणास विणओ पउंजियव्यो, वायण परियटणासु विणओ पउंजियन्वो, दाणग्गहण पुच्छणासुविण यपउं जियव्यो निक्खमण पवेसणास विणओ पउंजियव्यो,अण्णेसुय एवमाइएसु बहुसुकारणसतेसु खावे नहीं, आरंभ की प्रशंसा कर सावद्य बनावे नहीं, इत्यादि दोषों को टालता हुवा जैसे साधु के तीसरे व्रत में दोप लगे नहीं वैसे बहुत माधु के लिये लाया हुवा साधारण पिण्ड में यह सूक्ष्म अदत्तादान रहा हुवा है. इस से निवर्तनेवाला उक्त रीति अनुमार साधारण पिण्ड ग्रहण कर समिति युक्त सदैव आधेकरण रहेत स्वधर्मियों ने दी हुई आज्ञा युक्त ग्रहण करे // 10 // पांववी भाना साधर्मियों का विनय करना. ग्लानि, उपकारी, तपस्वी और ज्ञानी का विनय करना. वाचनावार्य-सूत्र पहाने पाले पास सूत्रार्थ ग्रहण 3 करते और ज्ञान की चिंतयना करते विनय करना. आना लाया हु। आहार वस्त्रादि स्वपर्मियों को देना, उन का ल. या हुवा ग्रहण करना. और भी प्रश्नादि पूछो, विजय पतो, गुरु के सर पे बाहिर 4884 दत्तव्रत नायक तृतीय अ ध्ययन 484 /