SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी+ हिंसा मांस मदत्तं अबंभ परिगह चैव // 2 // जारिसओं जं नामा, जय' को.. जारिस फलदिति॥जेविय करिति पावा, पाणवहं तं निसामेह // 3 // पाणवहो नामएम. निच्चं जिणहिं भणिओ पावो, चंडो,रुद्दो,खुद्दो. साहसिओ,अणारिओ,निग्घिणो णिस्संसो जीवों में किसी जीव की अपेक्षा अंत भी है. इन के नाम कहते हैं-, हिंसा आश्रव-एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों का घात करे सो, 2 मृषा आश्रय-असत्य बोले सो, 3 अदत्त आश्रय-विना दी हुई किसी की वस्तु ग्रहण करे सो,४ अब्रह्म आश्रव-मैथुन सेवन करे सो और 5 परिग्रह आश्रव-द्रव्य रखे सो 5 अथम उसमें ममत्व करे सो॥२॥इन पांव आश्रवके पांच अध्ययन कहे हैं. जिस में के प्रथम अध्ययन में पांच द्वार कहे हैं. तद्यथा-१ पहिल द्वार में जैसा हिंसा का स्वरूप है सो कहना, 2 दूसरे द्वार में हिंसा के नाम, 3 तीसरे में जिस कारनसे हिंमा होती है सो 4 चौथे में हिंसाका जो फल होता है सो और 5 पांचवे में जो पापी पाणवध करते हैं सो. यो पांच प्रकार के द्वारवाला इस अध्ययन में आश्रन का स्वरूप कहता हूं सो मुनो // 3 // श्री जिनेश्वर भगवान ने इस प्राणवध को सदैव पापकारी अर्थात् पाप प्रकृति का बंधन करनेवाला, चंड-क्रोध का कारन, रौद्र-भयंकर, क्षुद्र-द्रोह कर्ता, साहसिक-सहमात्कार विना 1 यद्यपि सूत्र में अंत शब्द का प्रयोग नहीं है. तथापि जैसे संसारी जीवों का आदि अंत नहीं है वैसे यहां आश्रय आश्रिय नहीं जानना, परंतु आश्रव अभव्य की अपेक्षा अनादि अनंत है और भन्म की अपेक्षा अनादि सान्त भी होता है. प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी लाप्रसादजी.
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy