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________________ R . P . दशाङ्ग:पश्नव्यरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार केइजति // 4 // इड्डी रस साया गारवपरा बहवे करणालंसा परूवेति धम्मवीमं . 4 सएणमोसं, अवरे अधम्माउरायदुटुं. अब्भक्खाणं भणंति, अलिये चोरोति, अचोरियं करंति, डमराओति वियइ मेव उदासीणं दुस्सीलोतिय परदारं गच्छतिति, है मइलेति सीलकलियं, अयंपिगुरु तप्पओति अण्णे, एवमेव भणंति उवहणंति मित्त कलत्ताई सेवति, अयंपि लुत्तधम्मो, इमोवि विसंभघायवओ पावकम्मकारी // 4 // ऋद्धि के गर्व में, रसके गमें, और साता के गर्ष में उन्मत्त बने हुवे क्रिया करने में अलसी होने से धर्म कर्म को पिथ्या प्ररूपते हैं. कितनेक अधर्म अंगीकार करके राजा विरुद्ध अभ्याख्यान [ चूगली ] करते हैं, अचोर को चोर कहे, उदासीन को विरोधि कहे, सुशील को दुःशल कहे, यह परदार गमन करने वाला है, इस तरह शीलवंत को कहे, यह गुरु द्रोही अविनीत है इत्यादि अनेक प्रकार के असभ्य वचन बोलकर आजीविका करते है. यह पित्र की स्त्री से सेवन करता है, यह धर्म से भ्रष्ट हुआ है, यह वेश्या गमन करने वाला है,यह विश्वास घाती है,यह बहिन पुषी साथ कुशील सेक्ने वाला है.यह दूराचारी है. यह चोरी आदि बहुत पाप करने वाला है, यों बोलते मत्सर भाव से भराये हुए अन्य के गुण कीनि सहन नहीं करने से उन का आच्छादन करते हैं. यों भद्र पुरुषों का अपमान करने वाले अलिक वचन बोलने में दक्ष व मुखरी है. अन्यको दुःख देने में प्रसन्न रहते हैं, वे अपनी आत्मा को कष्टदेते हैं. किसी का मृषा नापक द्वितीय अध्ययन .. /
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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