________________ श्री अमोलक' ऋषि: अकम्मकारी, अगम्मगामी, . अयंदुरप्पा, बहुएसु पावगेसुय . जुत्तोति एवं जति मच्छरी महकेवागुणकित्ति, नेह परलोग निप्पिवासा, एवं एते अलिय वयण दक्खा, परदोसुप्पायण संसत्ता अक्खइय वीएण अप्पाण कम्म. वधणेणं मुहरी असमिक्खियप्पलावी निक्खवे अवहरंति, पररस अत्यंमि गढियगिडा, अभिज्जुतिय परं असंतएहि लुहाय करेंति,कूडसक्खित्तणं असच्चा अत्थालियं कन्नालियं भोमालियं प्रकार के कर्मक्षय नहीं करते हैं, अपनी आत्याको कर्मरूप निबंड बंधन से बांधते है, विना विचारे वचन बोलमें वाले होते हैं. थापणमोसा करने वाले होते हैं, अन्यकी रखे हुइ थापन दबाने वाले होते हैं, अन्य के द्रव्यमें गद्धता अन्य को असाता, दुःख के पंथमें जोडने वाल महागोभी, झूठी साक्षी भरने वाले और जीवो का आहत करने वाल इत्यादी प्रकार मृषा बोले. और भी कन्या के लिये मृषा बोले, भूमि के लिये मृषा बोले.. गो आद पशु के लिये मृषा बोले, महा असत्य-असंभव कारी वचन बोलने वाले और नरकादि गति। में गमन करने वाले मृषा बोले. और भी जानि-मातृ पक्ष आश्री माया करे कुल पितृपक्ष आश्री माश करे प्रवचन शस्त्र आश्री माया करे. इत्यादिक माया में निष्पन्न होवे. मन वचन और काया के योगो का चपल, पिशुन चुगल-खोर, परम अर्थ ओक्ष मार्ग का प्राताति, सब प्रकार के योगो का *प्रकाशक-राज बिहारका मुखदिक सहायजी चालाप्रसाइजो*