________________ पुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सयंचनिम्मिओ, एवं एते अलियं पयावईणा, इस्सरेणय कयति कोई, एवं विण्हुमय : . भूयाणसयंच निम्मिओ कसिणमेव जगति केइ एवमेके वांति मोसं एको आया अकारकाय' वेदकोय सुक्यस्सय दुक्कयरसय करणानिकारणाणि सव्वहा सवहिंच मिचीय णिकिओ निग्गुणोय अणोवल्लेवओ त्तियविय एवं मासु असब्भावं,॥ जंपि इहं किंचि .. जीवलोको दीसति सुकयंवा दुक्कयंवा एवं जदिच्छाएवा सहावेणवाविदयिववप्पभाव : ओवावि भवतिनत्यत्थि, किंचिंकयकत. तं लक्खण विहाण नीतिय कास्यिा एवं .. कोई असत्य बोलते हैं. कितनेक सब जगत् में एक ही आत्या व्यापक ऐसा कहकर झूठ बोलते हैं, ऐमा है। हने से आत्मा मुकृत्य दुष्कृत्य का भोक्ता नहीं है. कितनेक जीव को मर्वथा प्रकार से शाश्वत नित्य, #क्रिया रहित सत्व, रजम् और तमोगुन गहित कहते हैं. और जीव को कर्म क भेद भी नहीं लगता है। ऐमा प्ररूपते हैं. इस प्रकार असद् पाव की स्थापना करते हैं. इस लाक में जा जवलोक दीखने में आता हैं, सकृत्य-अच्छाअनुष्टान, दुष्कृत्य-खराब अनुष्ठ न वगैरह सब अपने स्वभाव से ही होता है अथवा देवता के प्रभाव से ही होता है. मनुष्य का किया हुवा कुछ भी नहीं होता है. वस्तु स्वरूप 13 विविध प्रकार का है. सुख दुःख रूप लक्षपनिपात स्वभाव से है. इस तरह कितनेक असत्य बोलते हैं *प्रकाशक राजावादुर लाला सुखखदेवसहायजी ज्वालापमादा*