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________________ mmmnaammam 186 दशमाङ्ग-मनमाकरण पूत्र-द्वितीय संवरद्वार 48 सयणासण घर दुवार अंगण आगास गवक्ख साला अहिलोयण पच्छ्वत्थुग पासाहण कण्हाणिका वगासा अवगासा जेय वेसियाणं अत्थतिय जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोह दोस रइराग वड़णाओ कहितिय कहाओ बहु विहाओ तेहु वजणिज्जा इत्थि संसत्त सकिलिट्रा, अण्णेविय एवमाइय अवगासा तेहुबजणिजा, जत्थमणो विन्भमोहा भंगोवा भंसणावा अंडरुदंच हुजझाणं तं तंच वाजिजवज भीरू अणायतणं अंतपंत वासी एवमसं सत्तवा सवसही समिइ जोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरएगाम - ब्रह्मचर्य नायक चतुर्थ अध्ययन आकाश और आश्रयस्थ न इत्यादे स्थान में जहां स्त्री रहती हं.वे और वहां वारंवार मोह दोष अज्ञान वा कामराग और विरह की वृद्धि हाती. हो अथवा जहां स्त्रियों के शृंगार की कथा होवे, वैसे स्थानका सग Eकरना, स्त्रीके समर्ग से परिणाम मलिन होते हैं. और भी जहां मनविधान को प्रप्त होरे, ब्रह्मचर्य का भंग होके, व्रत भ्रष्ट हव आर्यध्यान शैद्रध्यान की प्राप्ति होवे वैसे स्थान का भी त्याग करना. ऐमे}. स्थानों से बचता हुआ ब्रह्मचर्य की रक्ष के लिये जहां विषयरोगे की उत्पत्ति होवे नहीं वैसा अंत स्थान, स्त्री आदिसे सेवित नही होवे वैसा पंत स्थान, और अखण्डित वैराग्य भार वारहे वैसा आश्रयों सामिति र गों के भार से भवता हुआ अंगत्या को, किसी पदार्थ में लुब्ध नहीं होता हुआ, इन्द्रिय धर्म से /
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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