________________ 202 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी 2. बत्तीसा सुरिंदाआदि एक्काइयं करेंत्ता,एकुत्तरियाए बुड्डिएसुरतेतीसाओ जावो भवेतिकाहि... का विरतीपणीहीसुअ विरइसुय अण्णसुय,एवमादिएसु बहुसुटाणेमु जिणपत्थेसु अवितहेस } सासयभावेसु अवट्ठिएसु संक कंखं निराकरित्ता, सादहइ // 2 // सासणं भगवओ व्यग्रता होवे और शिष्य उस अर्थ की लोपना करे, 26 गुरु कथावार्ता कहते भूलगये होवे तो शिष्य कहे कि तूम भूलगये हो इसे ऐसे कहना चाहिए, 26 गुरु धर्य कथा कहते होवे उस में शिष्य छेद भेद करे, 27 गुरु सभामे धर्मोपदेश करते गोचरीआदि का समय हो गया हो तो परिषदा में भेद करे, 28 जिसपरिषदा में गुरु ने उपदेश दिया होवे उस ही परिषदा में पुनःशिष्य विस्तार से धर्म कथा कहे, 39 गुरु E आदिके आनन को पाँव से संघट्टा करे, 30 गुरु के आसपर शिष्य बैठे, 31 शिष्य अपना आमन गुरु के आसन से ऊंचा रखे, 32 गुरु के बरावर आसन से शिष्य बैठे और 33 गुरु शिष्य से कुछ पूछे तो आसन पर बैठ ही उत्सर देवे यह तेतीस असातना कही // इन तेत्तीस बोल,बत्तीस सूगेन्द्र,एक बोल से लगाकर तेंतीस बोल पर्यंत व्रत की वृद्धि करते हुए अवृत से निवृतते हुवे और भी ऐसे अन्य बहन प्रशस्त, सत्य, शाश्वत और अवस्थित भाबे में शंका कक्षा रहित श्रद्धा रखे. // 2 // यह भगवान का शासन नियाणा रहित, गर्व रहिव लुब्धता रहित और * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * / -