________________ श्री अमानक ऋपनी असायं सारीरं माणमंचतिव्वं दुविहं वेए बेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम सागरोवमाणि कलुगं पालेति ते अहाउयं जमकाति,तासिताय सदकोति भीया, किंते आविभव सामिभायवप्पताय जियवं मुयमे मरामि,दुबलो बाहिपीलितोहं किंदाणिसि, एवं दारुणो णिद्दओय मादेहिमि पहारे उस्मासेत मुहत्तगं मेदेहि, पसायं करेह, मारुसविसमामि गेविज मुयमेमरामि गाढं : // तपहाइउ अहं देहिपाणियंता हापियइ. मंजल विमल लोहमय कंटकवाल पथ में चलाते हैं, अर पापिन् ! यह तेरे स्वयं कन कर्म हैं इस से इसे अवश्यमेव भोगना होगा, यों कहकर उन को बिछुड़ते हैं, चैर की तरह भाप में खड़ाकर गाडते हैं, नरक की महान अग्निमें वे जलते हैं, अत्यंत गाढा प्रहार सहत हैं, तद्रूप बदना है. वह वेदना वेदते महाभयको उत्पादक, कश कठि ; अमाता वेदनीय कप के उदय रूप नथा. शारीरिक और मानसिक यथोचित बंध अनुसार भोगते हुन / रहते हैं, उन को ऐमी दुःसह वेदना पापकर्म से उदय से आइ हुई है. बहुत पल्योपम तथा सागरोपम पर्यंत इस प्रकार दुःख भोगत ही रहते हैं, वे परमाधर्षी म त्राम पाये हुए आर्त स्वर में आनंद करते हुवे और भय भ्रान्त वन हुए चिल्लाते हैं, कि अहो शक्तिपान ! स्वापिन् ! भ्रात, तात् ! तुम जयवंत रहो : मैं मर रहा हूं मुझे छोड दा, मैं दुल हू, व्याधि से पंडित बना हुवा हूँ थोडी देर के लिये तो मुझे छोडो, यो दारुण रौद्र स्वर सचिल्लते हैं, अरेरे मुझे तो मारो, अहो थोडो दर ठर, मुझ वाम लन दो विश्राम लेने दो मुहूई मात्र काशक-राजाबहादुरलाला मुखदवसहायजी भाडामाजा. 4अनुवादक-सलमा