________________ 4 दशाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 30 मुञ्चतिय, अमित्तमज्झाहिं निइंति, अणहायसच्चवादी सादिव्याणियं देवयाउकरेति, सच्चवयणे रयाणं // 2 // तंसच्चं भगवंतं तित्थगर सुभासियं दसविहं,चौदस्सपुवीहि पाहुडत्थशिदत्तं महारिसीणय समयप्पदिण्णं देविंदनरिंद भायियत्थं, वेमाणियसाहिय,महत्थमंतो सहिविजासाहणटुं चारगणसमणसिद्धविजं, मणुयगणाणं वंदणिज्जं,अमरगणाणंच अञ्चणिजं, असुरगणाणंच पूणिजं, अणेगपासंड परिग्गाहियं जंतंलोगभि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुदाओ थिरतरंग, मेरु पव्वयाओ सोमतरं चंदमंडलाओदित्ततरं सूर है. अमित्र की तरफ से की हुई शस्त्रादि पीडा भी शांत हेती है, सत्यशन के पास देव रहते हैं और देवभी सत्य वचन में रक्त रहते हैं. // 2 // श्री तीर्थंकर भगवानने सत्य वचन के दश भेद कहे है ! चौदह पूर्व घाग्न करने वालो ने चौदह पर्व में रहे हवे अंश को सत्य वचन से जाना. परिषियों को सिद्धांत का पठन कग्नेको मत्य वचनादेया.देवेन्द्र और नरेन्द्रकसम्ख सत्य वचनसे जीवाहिककाकथन किया,वैमानिक देवताओंकी उपदेशपने मरूपा,विद्याधारक मुनियोंको मंत्र औषधि और विद्या साधन के लिये सत्यही श्रेष्ट है, यह सत्य है.. मनुष्य के समुद्र को वंदनिक है देवताओं के समुहको अर्चना योग्य है, अमुरगणको पूजने योग्य है,इस सत्यको अनेक पाखंडियने भी पाचन किया है,सब लोकमें सारभूत यहसत्यही है,यह सत्य महा समुद्रसे भी अतिगंभीर है. मिपति से भी अति ऊंचा है, चंद्रसे अतीव सै.म्यकारी है. मूर्यसे अतितेजवंत है. सरदस्तु के आकाशसे भी / - सत्य वचन नामक द्वितीय अध्ययन 4.18+