________________ - / मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। 4. अनुवादक- बब्रह्मच दुग्गवासी काल हरिय रत्तपीता सुकिल अगसयं चिंधपटबंधा परिविसए अभिहणति लुद्धा धणस्सकजे // 4 // रयणागर सागरंच उम्मीसहस्समाला कुलवितोय पोतकलकलंत कालयं पातालकलसपहस्सा, वायवसवेग लिल उदम्ममाण दगरय ग्यंधकारं वरफेणपउर धवलं पुलं पुल समुट्ठयहामं मारुय, विच्छुसमाण पाणिय जलमालुपीलहलिय तपियममतो खुभिय लुलित खो खुम्भमाण पक्खिलियं चलियं विपुल जल चकवाल महानदीवेग तुरित अपूरमाणा गंभीर विपुल आवत्त वहां अन्य द्रव्य के इच्छक अन्य पापी चारों के माथ कटक का स्वामी. चोरे के वृन्द में प्रवर्तक अटवि में रहने वाले, विषप जल स्थल में रहने वाले, कृष्ण, नीर, रक्त, पीत और श्वेत इत्यादि वर्ण वाले ध्वनीद चिन्ह के धारक अन्य देशमें सन्मुख जाकर घात करनेवाले और दौरे के द्रव्य लोलक चौकी करते है. // 4 // अब यहां समुद्र का वर्णन करते हैं क्यों कि कितनेक ममुद्र में जहाजों पर रहे हुवे लोगों का घात करते हैं. हजारों उर्मियों की माला से अ'कुल व्याकुल, जहाज के कला कलाट शब्द हो रहे हैं, हजारों प ताल कलश के गायु वेग में समुद्र का पानी उछलता है जिस पानी के कन से अंधकार होजाता है है. श्रेष्ट फेन से अती श्वेत दीखाइ देता है, निरंतर उद्धत हुग व हास्य करता हुवा बायु मे समुद्र का पानी शोभित होता हुआ शीघ्रमेव चारो ओर भूपिपर पडता है. और पानी के साथ नीकले हुवे जलचर वगैरह जीव'* * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रमादजी *