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________________ 177 दशमाङ्ग-मश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय संवरद्वार महापुरिस धीर वीर सूर धम्मिय, धिइमता णयसूया, सुबिसुद्ध,भव्वंभव्वजणाणु समुचरियं, निसंकियं निब्भयं नितुसं निरापासं,निरुवलेवे,निव्वुइघरं,नियमविप्पकंप,तवसंयममूल दलियनेम्म, पंचमहव्वयसु रक्खियं, समिइगुतिगुत्तं, झाणवरकवाडसुकयरक्खणं, अज्झप्प दिण्णफलिहं सन्नद्दबद्धोच्छमिय तव दुग्गतिपहं सुगइपहं देसगंच लोगुतमंच वयणमिणं, ब्रह्मचर्य को कल्याण का करना ज नकर आचरन किया है, इस ब्रह्मचर्य व्रत में शंका स्थ न नहीं है. इस में किसी प्रकार का भय नहीं है, शुद्ध पान्यरूप है, सारभूत है, खेद रहित है, चित्त स्वास्थ्य का घर है, सच्चा अभिग्रह है, अन्य को कम्पाने वाला नहीं है, तपसंयम का मूल है, पांचो महावत की। रक्षा करने में राजा समान है, पांच ममिति तीन गुप्ति अथवा नववाड गुप्ति इत्यादि गुनों का रक्षण करने में अच्छे अर्गलवाला ध्यान रूप कपाट हैं. सन्नध बद्ध बने हुवे और शस्त्र धारन करनेव ले पापी जीव भी दुर्गति के अधिकारी बने हैं वे भी ब्रह्मचर्य के पालने से स्वर्गादि सुगति के अधिकारी बनते हैं. सब लोक में उत्तम व्रत ब्रह्मचर्य ही है. जैसे पद्म कपलों से आच्छादित पानी के सरोवर का पाली से रक्षण होता है 1 ब्रह्मचारी स्त्री पशुपंडग रहित स्थान में रहे, 2 स्त्री की कथा करे नहीं, 3 स्त्री के अंगोपांग नीरखे नहीं, 4 स्त्री पुरुष एक आसन पर बैठे नहीं, 5 भित्ति आदि के अंतर से विषय के शब्दसुने नहीं, 6 पूर्वकृत काम क्रीडा यादकरे नहीं.७ नित्य सरस आहार करे नहीं, 8 प्रमाणसे अधिक आहार करे नहीं और 9 शरीरका शगार करे नहीं. यह 9 बाड. 1. ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन 43
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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