________________ सूत्र री मुनि श्री अमालक ऋषिजी निभच्छण दीण वयण विमणा कुभोयण कुवाससा कुबसहीसु कि लिस्संति नेवसुहं नवनिव्वुइ उवलभंति अचंत विपुल दुक्खसय संपलिता // एसोसो अलिय बयणस्स फलविवाग); इहलोइओ पग्लोइओ अप्पसुहो बहु दुक्खो, महब्भओ बहुरयप्पगाढो, दारुणा कक्कसो अमाओ वासंसहस्सहिं मुञ्चतिणय अवदइत्ता अत्थिहु मोक्खोति, एवमाहसु नायकुल नंदणो महप्पा जिणाओ वीरवरणामधज्जो कहेसीय अलिय वयणस्म फलविवागो // 8 // एयंतं बितियंपि अलियवयणं लहसग लहुचवल भाभियं, भयंकर, दुहंकर, अयसकर, वेरकरणं अरति रति रागदोस सदैव दीन रंक चिन्ताग्रस्त, सदैव कुभोजन भोगी, खराब वस्त्र पहिननेवाले, खराब स्थान में रहनेवाले, अविश्वास और लश के स्थानक, शीत तापादि अनेक क्लशवाले, सुख स्थापना से वंचित, सदैव उपालम्भ मुननेवाले, अचिंत्य विस्तीर्ण दुःख संतापवाले जीव अलिक वचन के फल इस लोक और परलोक में अल्प मुख व बहुत दुःख, महा भय, बहुत कर्म रज युक्त, दारुण कर्कश अमाता सहस्रों वर्ष पर्यंत भोगते हुए भी है मुक्त नहीं होते हैं. असत्य के फल पूर्णतया भोगन से ही मुक्ति होती है. ऐमा श्री ज्ञान नंदन, श्री महावीर स्वापीने कहा है // 8.5 यह अलिक वचन भयंका, दुःख व अपयश, वैर, रति, अराते, राम, द्वेष का कर्ता, निवड माया का स्थान, सद्योग रहित, द्रोह का कारन, नीच जनों से सेवित, अतीतकरनेवाला,* प्रकाशक-राजाबहादर लाल पुच्चदवमहायजी ज्वालापमादजा * अनुवादक-डाला