________________ 44:दशमाङ्ग-प्रश्रव्याकरण मूत्र-प्रथम आश्रवद्वार: झामझुसिरा निन्छायालल विफलवाया, अमंकय मसक्कया अगंधणा 'अचेतणा दुभगा अर्कता, कास्सिरा, हीणघे।सा भिन्नघोसा विहिंसा जड बहिर अंध मयाय मम्मणा अकंतविकंतकरणाणीया णीयजणनिसे वणो लायारहणिज्जा, भिच्चा असरिसजणस्स पेसा, दुम्मेहा लोगवदे अझप्प समयसुति वजिय नरा, .. धम्मबुद्धिवियला, अलिफ्णय तेणय डझमाणा असंतए अवमाणण पट्टिमंसासहिक्खेव, पिसुण भेयण गुरु बंधव सयणमित्त वक्खारमादियाई अब्भक्खवाणाइ बहु विहाई पावंति अमणो. रमाई हिययमणदूमगाई जावजीव बहुदुद्धराइ, अणि? खर फरस वयण तजण वचनवाने, संस्कार रहित, सदैव दुर्भागी, दुगंधी, अपेतक, जिते ही मुरदा सपान, अकांतकारी, काक स्वरवाले, हीन दोन स्वरवाले, लोक में हिंसक, मूर्ख, बहिरे, अन्धे, गुंगे, बोबडे, असुखकारी, विद्रूप, हीन इन्द्रियवाले, नीच मनुष्यों की मेवा योग्य, लोगों में निन्दनीय, सब के सेवक, नीच जाति के दास, दुर्बुद्धि,31 लोक प्रेम समय और श्रुति से परिवजित, धर्मबुद्धि रहित, लौकिक लोकोत्तर दोनों रहिस, अपमान से जाजाल्यमान, सदैव अशांतचित्तवाले, पृष्ट मांस भक्षाक-अर्थात् निंदक, पिशुन, गुरु के वध करनेवाले, स्वज-25 नादि की निन्दा करनेवाले, आल चढानेशले, बहुत प्रकार के विरोध करनेवाले, दुष्ट. हृदय व मन को दुःखकारी, अन्य का भार कठिनता से उठानेवाले, अनिष्ट दुष्ट स्पर्श से - तजिन, निर्भयता कराये हुए REषा नायक द्वितीय अध्ययन -