________________ 4.18 44 देवाङ्गिप्रश्नकरण सुश-प्रथम-आश्रयद्वार: पल्हव,मालव,सहुर,आभासिय, अणक्ख चीण लासिय खसखासिय नेटर,मरहट्ठ,मुट्टिय, आरब डोबिलग कुहण केकय हणरोमग रुरु मरुग चिलाय विसय वासीय पात्रमाणा जलयर थलयर सणफ तोरग खहचर संडाणनोंडजीवोव घायाजीवासण्णीय असणिणोय पजत्ता अभलेस्तपरिणामाए ते अण्णेय एवमाइकरइ पाणाइवाय करणं पावापावाभिगमा - पावरुइ पाणबहं करयइ पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुटा पावं करिओ . 21 पोकण, 22 गंध, 23 हारग, 24 वाहलिक, 25 जल्ल, 26 रोप, 27 मोष, 28 बकुश, 29 मलय, 30 चूचक 31 चूलिक, 32 कोकन, 33 मेद, 34 पल्लव, 35 मालव, 36 मटा, 37 आमासिक 38 खख 39 सिंक, 40 नष्टर, 41 महाराष्ट्र, 42 मौष्टिक, 43 आरब, 44 डेबिलग, 45 अहण, 146 के कय, 47 परोप, 48 रुरु, 41 मरुक और 50 चिलात. इत्यादि अनार्य देश में उत्पन्न होनेवाल पापिष्ट वुद्धिवाले जीवों घात करते हैं. और भी जचर, स्थलचर, सण्डपद, नखवाले, उरपरिसर्प, खेचर, मंडामी जैसे मुखवाले, जीवों की घात से ही आजीविका करनेवाले, ऐमे, संज्ञी, असंझी, पर्याप्त अपर्याप्त अशुभ लेश्या व परिणामवाले वगैरह अनेक प्रकार के प्राणवध करते हैं. वे जीवों पापी, पाप में 1o आनंद माननेवाले, पाप में रुचिवाले, पापकारी कार्य में रनिवाले, पाणवध रूप अनुष्टानबाडे, प्राणघ रूप समा में रमण करनेवाले पाप कार्य में संतुष्ट रहते हैं // 13 // पाप के फल भविष्यत् को भोगने + हिमा नायक थप अध्ययन Hin /