________________ - *पकाशक-राजाबहादु 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलक ऋपित्री कया हारा नदप्पणं नबहुसो ननितिक नसायसूपाईंक न खद्ध तहा नभोत्तम्व, जहा से जायामायाए भवइ, नयभवति विन्भमो भंसणाय धम्मस्स, एवं पणिहारा विरइ समइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आहय मणविरय गामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते // 11 // एवं मिणं संवरस्सादारं सम्मं सवरियं होइ सुप्पणिहियं,इमेहिं पंचहिकारणेहिं मणवयण काय परिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतंच एसो जोगो नेययो, धिइमया मइमया अणासवो अक्कलुसो अच्छिद्दो अपरिरसाती असकिलिट्ठो सुद्धो, सव्वजिण मण्णुग्णाओ॥ मदिरा, माम वगैरह विगय का त्यग करे. काम पर्दत होवे वैमा आ.र करे नहीं. एक दिन में वारंवार आहार करे नहीं, सदैव सरस आहार करे नहीं, सालन दाल विशेष भोगवे नह, जिप्स आहार से ब्रह्मचारी की यात्रा मात्रा का निर्वाह होवे वैसा आहार कापीका चित्त अशक्त होवे वैसा के फी, और वीर्य वर्धक आहार भोगवे नहीं. इस प्रकार स्निग्ध आहार का त्याग करने वाला अंतरात्मा को समाधि भाव से भावता हुआ, और इन्द्रियों के विषय से निवर्तता हुआ ब्रह्मचर्य व्रत सहित रहें. // 11 // इस तरह इस संवर द्वार को सम्यक् प्रकार से आचरे, प्रधान निधान की तरह रक्षा करे. उक्त प्रकार के पांच भावनाका से मन वचन और क.या के योगों से रक्षण करता * हायजीवालाप्रसादजी*