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नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरूभ्यो
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आगम-सागर-कोष:
[मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज
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(प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह)
____कोष-रचयिता
XOXO
मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज
[M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि
XXXXOXOXOXOXOXOXOXOOOAAAAAAVAVVVVAAAAAAAA XXXXXXXXXXXXXXAAAAAAVAN AAAAAAVAVAVAAAAAAXXXXXXXXXXXXXXXXXXX.XXXAAAAAVANAVANAVAVAVANAVAV
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः ( भाग :- ३)
[Type text]
नमो नमो निम्मलदसणस्स
पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगुरुभ्यो नमः
आगम-सागर- कोष : - ३
[मूल शब्दसंकलनकर्ता :- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी .. पूज्यपाद् आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज..
(प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष- रचयिता
मुनिश्री दीपरत्नसागरजी महाराज
[M.Com.,M.Ed.,Ph.D.,श्रुतमहर्षि]
12/11/2018 सोमवार, २०७५ कारलक सुद ५.
Type Setting: - आशुतोष प्रिन्टर्स, जेतपुर Mobile: 9925146223 It's a Net publication of ‘jainelibrary.org' [North America] मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[2]
"आगम - सागर - कोषः "
[3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
"आगम-सागर-कोष:” विषयक किञ्चित् स्पष्टीकरण पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने अपने युगमे आगमो के बहोत से शब्दो एवं उन की व्याखाओ का चयन किया था, किन्तु ईसे शब्दकोष के रुपमे संकलन और मुद्रण पूज्य आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजी आदिने करवाया | ईस कोष का नाम 'अल्प-परिचित-सैद्धान्ति-शब्दकोष:' रक्खा. परन्तु इसमे शब्दार्थ भी है, बहोत स्थान पर शब्दो की आगमिक व्याख्याए भी है और शब्दो के बीच अनेक स्थान पर खास नाम भी है |
पूज्य गच्छाधिपति आचार्य सूर्योदयसागरसूरिजी कि सूचना एवं उनसे हुए विचार-विमर्श अनुसार हमने ईस 'कोष' के अध्ययनमे देखा की -कई जगह पर सिर्फ शब्द है, कई जगह शब्द और संदर्भ है मगर अर्थ नहि है, कई जगह पर संदर्भ के नाम है मगर पृष्ठांक नहि है तो कहीं कहीं शब्दो के अ-कारादि क्रममे गलति दिखी है | ऐसी अनेक मर्यादाओ का उल्लेख स्वयम् आचार्यश्री कंचनसागरसूरिजीने 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष' भाग -१ मे किया है |
हमने ईस कोष की रचना करते वक्त सिर्फ पूज्यपाद आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराज दवारा संचित शब्दो एवं व्याख्याओ को ध्यानमे ले कर ईस 'कोष' की रचना की है | रचना करते वक्त विशेषावश्यकभाष्य, उपदेशमाला, तत्त्वार्थसूत्र और पउमचरियं के शब्द निकाल कर सिर्फ आगमो के शब्दो को हि स्थान दिया है । अनेक स्थानो पर प्रत्यय या विभक्ति को हटा कर 'शब्दकोष' के नियमानुसार मूल शब्द रख दिये है, परिणाम स्वरुप जहा जहा समान शब्द प्राप्त हए, उन शब्दो को एकसाथ रख कर उन के संदर्भ वहि नीचे जोड दिये है, कहीं कहीं एक हि शब्द की व्याख्या से पता चलता है की ये शब्द भले एक है मगर 'अर्थ' कि द्रष्टि से वे शब्द भिन्न भिन्न है, तो उन शब्दो को अलग अलग भी कर दिया है | जहा प्राकृत और संस्कृत दोनो शब्द है, वहा प्राकृत शब्द को पीछे से आगे ले कर बोल्ड टाईपमे रक्खे है | ऐसे अनेक परिवर्तन कर के कोष का उपोगिता मूल्य बढाकर हमने ईस कोष की रचना की है | हमने ईस 'कोष' का नाम "आगम-सागर-कोष:” पसंद किया है | यहा सिर्फ़ आगमिक शब्दो को हि स्थान दिया है इसिलिए 'आगम' शब्द पसंद किया, सागरजी महाराज दवारा शब्द संचित हुए इसिलिए 'सागर' शब्द लिया, ईस कोषमे शब्द, खासनाम और व्याखयाए तिनो का समावेश हुआ है इसिलिए शब्दकोष नाम कि जगह सिर्फ कोष [Dictionary] शब्द रक्खा है |
ईस 'कोष' को हमने पांच भागोमे प्रगट किया है, करीब 1200 पृष्ठोमें रहे हए ईस ग्रन्थमे 41,000से ज्यादा शब्दो [+नामो+धातु का समावेश हुआ है | अनेक शब्दो की व्याख्याए भी है और इन शब्दो या व्याख्याओ के आगमसंदर्भ भी दिये है | इस के साथ हम एक मर्यादा का भी स्वीकार कर लेते है- इस कोष के मूल संपादनमे बहोत से शब्द और अनेक व्याख्याए समाविष्ट नहीं हुई है, इसिलिए यहा पर भी अनेक शब्द और व्याख्याए छुट गए है | शब्दो और खास-नामो के लिए आप हमारा [१] आगम सद्दकोसो भाग १ से ४ और [२] आगम नाम एवं कहाकोसो देख शकते है, और व्याख्याओ के लिए हम भविष्यमें 'जैन आगम कोष:' बनाने का आयोजन कर रहे है | परमात्मा की कृपा हुइ तो मेरे पांच-सो नब्बे [590] प्रकाशनो की तरह 'जैन-आगम-कोष:' भी अवश्य आप के कर-कमलोमें समर्पित हो जायेगा |
...मुनि दीपरत्नसागर.....
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
संक्षेप
०४
चतु. आतु महाप. भक्त. तन्दु संस्ता . गच्छा . गणि
०६
देवे.
३३
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
“संक्षेप-सूचि, क्रम आगम का नाम संक्षेप क्रम
आगम का नाम ०१ । आचाराङ्ग
आचा. ।। २४ | चत:शरणप्रकीर्णक सूत्रकृताङ्ग
सूत्र. | २५ | आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक ०३ स्थानाङ्ग
स्था . २६ | महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक समवायाङ्ग
सम. २७ भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक ०५ | भगवती(अङ्ग)
भग. | २८ तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक ज्ञाताधर्मकथाङग
ज्ञाता. | २९ । संस्तारकप्रकीर्णक ०७ उपासकदशाङ्ग
उपा.
| गच्छाचारप्रकीर्णक अन्तकृद्दशाङ्ग
अन्त. ३१ | गणिविदयाप्रकीर्णक | अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग अनुत्त 1 ३२ | देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक १० | प्रश्नव्याकरणाङ्ग
प्रश्न
| मरणसमाधिप्रकीर्णक ११ विपाकश्रुताङ्ग
विपा. | ३४ | निशीथछेदसूत्र १२ | औपपातिकोपाङ्ग
औप. | ३५ बृहत्कल्पछेदसूत्र १३ | राजप्रश्नीयोपाग
राज. | ३६ | व्यवहारछेदसूत्र १४ जीवाजीवाभिगमोपाङग
जीवा.
| ३७ | दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र १५ | प्रज्ञापनोपाङ्ग
प्रज्ञा ३८ जीतकल्पछेदसत्र १६ | सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग
सूर्यः ।। ३९ । महानिशीथछेदसूत्र १७ | चन्द्रप्रज्ञप्त्यपाङ्ग
चन्द्र० ।। ४० आवश्यकमूलसूत्र १८ | | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग जम्बू० ।। ४१ ओघनियुक्तिमूलसूत्र | निरयावलियकोपाङ्ग
निर. | ४१ पिण्डनियुक्तिमूलसूत्र कल्पवतन्सिकोपाङ्ग
कल्प. | ४२ | दशवैकालिकमूलसूत्र पुष्पिकोपाङ्ग
पुष्पि .
| ४३ | उत्तराध्ययनमूलसूत्र २२ पुष्पचूलिकोपाङ्ग
पुष्प० ।। ४४ | नन्दीचूलिकासूत्र | वृष्णिदशोपाङ्ग
वृष्णि . | ४५ अनुयोगद्वारचूलिकासूत्र देशीय शब्द
चूर्णि
मरण. निशी
बृह.
व्यव०
दशाश्रुः
१९ कि
जीत. महानि आव. ओघ. पिण्ड दशवै. उत्त नन्दी अनुओ०
२०
दे
सूचना- [१] उपरोक्त ४५ आगमो के जो शब्द या व्याख्या संदर्भ ईस कोषमे शामिल किये है, उसमें ६ छेदसूत्रो और चन्द्रप्रज्ञप्ति के अलावा बाकी सभी आगमो श्री सागरानन्दरिजी महाराज संपादित प्रतो से है, चन्द्रप्रज्ञप्ति के संदर्भ सूर्यप्रज्ञप्ति अनुसार है, सिर्फ ६ सूत्र के संदर्भ हस्तपोथी से लिए है
[२] यहां आगमो के जो संदर्भ दिये है, वे उन आगमो की प्रत या पोथी के पृष्ठ-अंक है | __ [३] हमारा प्रकाशन “सवृत्तिक आगम सुत्ताणि” भाग १ से ४० मे ये सभी आगम मुद्रित है।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text )
आगम - सागर-कोषः (भाग:- ३)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य-आनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
टकारः
टंक- उपकरणविशेषः। प्रज्ञा० २७| टङ्कं नतिदोषे दृष्टान्तः । आव० ५२६ | छिन्नटकम् । अनुयो० १७३ | छिन्नतटं टकम् । नन्दी० २२८१ टङ्क:- छिन्नटकः । आव० ९९| भग० २३८ | एकदिशि छिन्नः । ज्ञाता० ६७ । टंकण- अनार्यविशेषः। भग० १७० टड्कणः
मिलेच्छविशेषः । सूत्र- ९३॥
टंकणओ— टङ्कणकः-म्लेच्छजातिविशेषः, आचार्यशिष्य योईष्टान्ते नामविशेषः । आव० ९६| टंकणा - टङ्कणा-उत्तरापथे टकणानामानो म्लेच्छाः । आव० ९९|
टकारठकारडकारढकारणकारप्रविभक्तिनामा सप्तदशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ |
टक्करा— खड्डुका। उचत्त०६२। टगकं अवचूलम् । औप ६३३
टप्पर - अनालीनः । प्रश्र्न० ८२ | जीवा० २७३ | जम्बू० ११३ | टाल- टालं-अबद्धास्थि, कोमलफलादि । दश- २१९| टाला- टालानि अनवबद्धास्थीनि कोमलास्थीनि । आचा० २९१ |
टिंटियावेति- आस्फालयति । आव० १२३
टिडिआविंति परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्ति । जम्बू• ३९२
टिट्टियावेति- शब्दायमानं करोति । ज्ञाता० ९६ । कणा - चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषाः । जीवा० ३२ | टेम्बरूपं फलविशेषः । आचा० ३४९| टोप्परिया टोप्परिका । आव० ४१२१ टोलगइ टोलगति टोलगतयः- उष्ट्रादिसमप्रचाराः । भग० ३८1 येन तिड्डवदुत्प्लुत्यप्लुत्यलु विसंस्थुलं वन्दते तत् । कृति कर्मणि पञ्चमो दोषः आव० ५४३, ५१२१ टोलगति टोलाकृतयः अप्रशस्ताकाराः। जम्बू १७01 टोलागइ- टोलाकृतिः-अप्रशस्ताकारः । भग० ३०८ | टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः । जम्बू० १७० | डाइ- तिष्ठति । आव ०७
ट्ठाण - स्थानं अवस्थारूपकालः । व्यव० ४४९ अ ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[5]
- X - X - X - X어
[Type text]
ठप्पाइं- स्थाप्यानि-असंव्यवहार्याणि । अमुखराणि स्वस्व-रूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थानि । गुर्वनधीनत्वेनोद्देशाद्यविषयभूतानि । अनुयो० ३। ठवण- पात्रकं च निक्षिप्यते एकदेशे स्थाप्यते। ओघ.
११८ |
ठवणकुला सेज्झातरमामगाइ कुला ठवणकुला। निशी. २०७ अ स्थापनाकुलानि, लोके गर्हितानि कुलानि । व्यव० १६० अ । स्थापनाकुलानि । ओघ ०६५। ठवणकुलापुच्छणया स्थापनाकुलानि पृच्छति मिक्षार्थम् ओघ० ५६ |
ठवणसच्चा- स्थापनासत्या
पर्याप्तिकसत्याभाषायास्तृतीयो भेदः । प्रज्ञा० २५६ । ठेवणा- पज्जुसणा, वासावासो, पढमं समोसरणं, जेडोग्गहो । निशी. २३६ आ अणागाढजोगणिक्खेवो । निशी० १९८ आ । स्थाप्यत इति स्थापना । सत्याभाषायास्तृतीयो भेदः । स्था० ४८९। प्रज्ञापनामात्रम् | निशी० २८३ अ व्यवस्था बृह० १४७ अ स्थापना वस्तुसं स्थानरूपा । जम्बू० ११ । स्थापनाउदाहरणस्य तृतीयो भेदः । दशकै 341 स्थापना-लक्षणं-लकारादिवर्णानामा-कारविशेषः । आव ० २८१। सद्भावासद्भावरूपा प्रतिकृतिः स्थापना। आचा०
९१ |
ठवणाकप्पो स्थापनाकल्पः । बृह० २६० आ ठवणाकम्मे - स्थापनं प्रतिष्ठापन स्थापना तस्याः कर्म्म-करणं स्थापनाकर्म्म येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा स्वम-तस्थापना क्रियते तत् स्थापनाकर्म ।
स्था० २५३|
ठवणापाहुडिया या भिक्षाचरेभ्यः स्थापिता भिक्षा स्थापनाप्राभृतिका आव० ५७५
ठवणादिणं पर्युषणादिवसः । बृह• २७७ अ ठवणिज्जा- परुवणिज्जा निशी० १३२ अ ठवणिज्जाई - स्थापनीयानि अनधिकृतानि । अनुयो० ३ ठवयंति - पर्यवासयति । निशी० ३२२ आ ठविंतगदोसो - स्थापनादोषः । आव० ८३८ | ठवि अगदोसा- स्थापनाकृताश्चैवं दोषा भवन्ति । ओघ
१४८
"आगम- सागर-कोषः " [3]
Page #6
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
ठविएल्लग-स्थितः। आव०६९८१
पर्यायः। आव०६६१। कायोत्सर्गः। आव० ७३४ ठवितं-न्यस्तम्। उत्त० ३४८१
ऊर्दध्वस्थानम्। आव०७८० व्यवहारतः सिद्धक्षेत्र, ठवियं-स्थापितम्। भग. २३११ स्थापितं-प्रयोजने निश्च-यतो यथाऽवस्थितं स्वं स्वरूपम्। जीवा० २५६|
याचितं गृहस्थेन च तदर्थं स्थापितं यत्। प्रश्न. १५४। स्थानं-आलयः। दशवै.७६। स्थानं-एकत्रैव स्थितिः। ठविय-यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तत्तस्य स्थापितं कृतं, न दशवै० १५५ तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं-सामान्य वाह-यितुमारब्ध इत्यर्थः। स्था० ३२५)
यथैकवर्ण द्विवर्णमित्यादि। भग० २० आसनम्। भग. ठवियगो-विस्मृतः। आव०४१६)
१२५ भेदः। भग० २३६। उत्कटादि। पिण्ड. १२९। ठविया-आवण्णो। निशी० १३९ आ। मासादीय छद्धं, जं स्थानम्। आचा०४२४। कार-णम्। स्था० १८७) पुण भासादी आवण्णं णिक्खित्तंति वेयावच्चट्ठया कायोत्सर्ग उपवेशनं वा। स्था० ३१४ ठवियं कज्जति सा| निशी० १३९ ।
ठाणइल्ला- गोमिया। निशी० ११ आ। ठवेति- गृण्हाति। निशी. ३३७ अ।
ठाणगुणे-स्थानं वा स्थितिर्गणः-कार्य यस्य स ठाइउं-स्थातुम्। आव० ७७८।
स्थानगुणः, स हि स्थिति परिणतानां ठाओ- अवकाशः। बृह. २९३ | निशी० ५११
जीवादिनामपेक्षाकारणतया स्थानं-कार्यं करोति, स्थाने ठागं-अवकाशम्। बृह. ६अ।
वा स्थितौ गुणः-उपकारो यस्मात् स तथा। स्था० ३३४| ठाणं-स्थानम्। सम० ३९। स्थापनं एषणा दोष इत्यर्थः। | ठाणपदे- स्थानपदं-प्रज्ञापनायां दवितीयपदम्। भग. निशी० २०२। कायोत्सर्गः। बृह. ११२।
१४२, ९६१, ६४। कायोत्सर्गः। ओघ. ५८ तिष्ठत्यनेनेति स्थानं ठाणपयं-स्थानपदं-प्रज्ञापनायां द्वितीयं पदम्। जीवा. कारणम्। प्रज्ञा. २९०१ स्थानं-ऊर्दध्वस्थानं,
१६३ निषीदनस्थानं, त्वग्वतनस्थानं च। प्रश्न. १०७ ठाणा-स्थानानि-स्वस्थानादीनि। प्रज्ञा०७२ तिष्ठन्त्येऽतेषु सत्सु शाश्वते स्थाने प्राणिन इति ठाणाई-स्थानानि-पज्ञापनायां दवितीयं पदम्। प्रज्ञा०६। स्थानानि महाव्रतानि। आव. २६४। स्थानं-ऊध्वस्थानं | ठाणाइए-स्थानं कायोत्सर्गादिकमतिशयेन ददाति कायोत्सर्गः। आव. २६६। स्थीयते-ऽस्मिन्निति स्थानं गच्छतीति वा स्थानातिदः, स्थानातिगः। भग. ९२४। दुर्गतिगमनादिकम्। पक्षमभ्युपगतमिर्थः। सूत्र० १५२। ठाणाइया-ऊर्दध्वस्थानं निषीदस्थानं त्वग्वतनस्थानं तिष्ठन्ति-विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्म्। प्रज्ञा० | तद-भिग्रहविशेषेणाददति विदधति। प्रश्न. १७२। ५०२। कायोत्सर्गः। औप०४० तिष्ठत्यस्मिन्निति ठाणातिते-स्थानायतिकः स्थानातिगः, स्थानातिदो वा स्थानं क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा। औप. | कायोत्सर्गकारी। स्था० ३९७ १५ का-योत्सर्गस्थानं निषीदनस्थानं वा। ज्ञाता० २०६। । | ठाणुक्कुडुए-स्थानं-आसनमुत्कुटुकं-आधारे पदार्थः, सङ्ख्यास्थानं वा। प्रज्ञा० १४७ तिष्ठतिविशेषा पुतालगनरूपं यस्यासौ स्थानोत्कुटुकः। भग० १२५) अस्मिन्निति स्थानं सामान्यमेकवर्णं दविवर्ण ठाणुप्पाइयमहो- अपूर्वः कोप्युत्सवः। ज्ञाता०७३। बृह. त्रिवर्णमित्यादि रूपम्। जीवा. १९। उस्सग्गो। निशी० २८१ आ। ५६ आ। दारं। निशी० ६७ । तिष्ठति
ठामि-तिष्ठामि-करोमि। आव० ७७९। अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदा-ऽवस्थितो भवति | ठायंतओ-तिष्ठन्। आव०६३१| यत्र तत् स्थानं-क्षीणकर्मणो जीवस्य स्व-रूपं लोकाग्रं ठायंति-स्वपन्ति। ओघ. ९२२ वा। भग०७ स्थान-प्रदेशवृध्याविभागः। भग०७१। ठावका-स्थापकाः-गृहस्थधर्मे दारादिसङ्ग्रहणात्। पादन्यासविशेषलक्षणम्। भग० ३२३। अवगाहः। पिण्ड. ज्ञाता०२४२ २२। ऊवस्थानम्। आव० ५२९। अवकाश-लक्षणम्। | ठावणं-अपनर्ग्रहणं तथा स्थापनं, न्यासः, परित्यागः। आव० ५९२ आश्रयः। आव० ६४५। निमित्तं, भेदः, | जम्बू० १४८५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #7
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
ठासि-स्थितवान्। आव० २२८१
अहिंसाया दवाविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९९। ठाहि-स्थितिः स्थानम्। आव० ७०८१
ठितीओ-स्थितः। आव० ८३८१ ठिअप्पाण-स्थितात्मा-महासत्त्व। दशवै० २०३। ठितिणाम-यदयस्मिन् भवे उदयमागतमवतिष्ठते तद ठिइ-स्थितिशब्देन देवभवो जीवितं च। जम्बू. १५४। गतिजा-तिशरीरपञ्चकादिव्यतिरिक्तं स्थितिनाम। स्थितिः क्वचिद्विवक्षित भवे जीवेनायुः कर्मणा वा यत् प्रज्ञा० २१७ स्था-तव्यं सा। भग. २८ स्थितिः
ठितीणामनिहत्ताउए-स्थितिर्यत्तेन भवेन स्थातव्यं आहारयोग्यस्कन्धपरिणामे-नावस्थानम्। भग. २०| तत्प्रधानं नाम तेन सह निधत्तमायुः ठिइचरमे- स्थितिचरमः। प्रज्ञा० २४५)
स्थितिनामनिधत्तायः। प्रज्ञा० २१७ ठिइपदं- प्रज्ञापनायां चतुर्थं पदम्। भग. ५३५।
ठितीपए- स्थितिपदं-प्रज्ञापनायां चतुर्थं पदम्। जीवा. ठिएपागो-स्थितिपाको नामानभागः। प्रज्ञा० ३३०
३८५ ठिइबंधज्झवसाण-स्थितिबन्धस्य कारणभूताध्यवसाय- | ठितो-णिसण्णो, उब्भतो। निशी. ३५ आ। स्थानम्। अनुयो० २४०।
ठिय-ऊर्दध्वस्थित उपविष्टो वा। बृह. ३२ आ। ठिइवडिया-स्थितौ-कुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता या ठियकप्प-स्थितकल्पः प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थकालः। प्रक्रिया पुत्रजन्मोत्सवसम्बन्धिनी सा स्थितिपतिता। प्रज्ञा०६४। ज्ञाता०४१। स्थितिपतिता-कुलक्रमागता
ठियनिसन्नो-स्थितनिषण्णः। उत्त० २१९। वर्द्धमानकादिका पुत्रज-न्मक्रिया। विपा०५१।
ठियप्पा-स्थित आत्मा यस्याऽसौ स्थितात्मा। आव. ठिइवडियावाए- स्थितू-कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां | ૭૮ર. पति-तागता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा स्थितिपतिता। | ठियलेसा-स्थितलेश्या- अवस्थिततेजोलेश्याकाः। भग० ५४४॥
प्रज्ञा. ९९। ठिई-स्थितिः-अभावः। जीवा० ३४६। जम्बू० ४६२। सूर्यः | ठियलेस्सा-स्थिलेश्या-अवस्थिततेजोलेश्याकाः। जीवा. २८१। स्थितिः-वेदनाकालः। प्रज्ञा० ६०२। मर्यादा। भग० ।
१७५ १४५ स्थितिः-प्रज्ञापनायाश्चतर्थं पदम्। प्रज्ञा०६। | ठियल्लओ-स्थितः। उत्त. १६८१ स्थीयते-अवस्थीयते अनया आयुः
-x-x-x-x
ड कर्मानुभूत्येतिस्थितिः, आयुः कर्मानुभूति जीवनमिति। प्रज्ञा० १६९। आहारयोग्य
डंको-डकः-भक्षणदेशः। आव० ६०५ स्कन्धपरिणामत्वेनावस्थानम्। प्रज्ञा. ५०१।
इंगरा- लाकुटिधारकाः स्तेनाः। बृह. २७३ आ। निशी. ठिओ-स्थितः-कायोत्सर्गेणेषन्नतादिता। आव० ५९४१
३५८ आ। ठिक्किरिय-ठिक्करिका-कपालम्। आव. ३९६)
डंड- डण्डः-दण्डिकः। आव० ६९०। बाहुप्पमाणो। निशी. ठिच्चा-स्थाता-आसीनो भवति। सम. ५९
२१३ । ठितकप्पा-स्थितकल्पिकाः-प्रथमचरमजिनसाधवः।
इंडगि-उत्तरापथे कुंभकारकडस्स णगरे रण्णो। निशी. बृह. २५४ आ।
४४ आ। ठिति-ठिति-नरकावस्थानरूपा नरकायष्करूपा। भग.
इंडपती-डंडउग्गमेति जो सो डंडपती। निशी. १५८
डंडपरिहारो-महंता जण्णकंबली सरडिता डंडपरिहारो। ६४३ ठितिपए- प्रज्ञापनायाश्चतुर्थपदम्। भग० २६, ८४२१
निशी. २२६ आ। ठितिपकप्पं-स्थितौ-अवस्थाने बलिचञ्चाविषये
इंडाइए-दण्डायतिकः-दण्डस्येवायतं-संस्थानं यस्यास्ति प्रकल्पः-संकल्पः स्थितिप्रकल्पः। भग० १६७
सः दण्डायतिकः। प्रश्न. १०७ ठिती- साद्यपर्यवसितमुक्तिस्थितेर्हेतुत्वात्। स्थितिः, ।
| ठंठारक्खितो- रण्णो वयणेण इत्थिं पुरिसं वा अंतेपुरं
णीणंती, पवेसेति वा एस डंडारक्खिओ। निशी. २७१ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[7]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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________________
[Type text]
डंडिए - राजा | निशी० १५१ आ ।
डंडिमं - दण्डेन - निग्रहेण निर्वृत्तं-राजदेयतया व्यवस्थापितं दण्डिमम्। विपा० ६३ | डंबइल्ला- देशविदेशः आव- १४७
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
भा-यैरग्निप्रतापितैर्लोहशलाकादिभिः परशरीरेऽङ्क उत्पा दयते तानि दम्भकानि। विपा० ७१| दम्भः
मायाप्रयोगः । प्रश्न० १०९ |
डक्को - दष्टः । उत्त० २१३ | निशी० ५२अ | आव० ५६६ । sri- बोलं | निशी० १३२ आ ।
डगलं अदीहं विसमं चक्कलियागारेण जं खंडं तं डगलं भण्णति । निशी० ३४४ अ । निशी० १२४ आ । निशी० ३५७ आ।
।
डागलका - इष्टकाखण्डाः ओघ० १२३ | पुतनिर्लेपनाय लेष्टुकाः । बृह० ६८ आ अधिष्ठानप्रोञ्छानार्थमिष्टकाखण्डका लघुपाषाणकाः । ओघ १२२२ प्रोञ्छनलेष्टुकाः बृह• २०६ अ
डगलग- डगलकः
पुरीषोत्सर्गानन्तरमपानप्रोञ्छनकपाषाणा-दिखण्डरूपः । पिण्ड० ९| डगलक:- अपानप्रोञ्छनार्थ लघु-पाषाणः । ओघ १३०
डगलगा- उवलमादि। निशी० ७३अ ।
डगला पुतप्रोञ्छनोपयोगिनो लेष्टवः । बृह. २५३ अ इत्ति - ड इति । आव ०७८२
डब्ब - वामः । बृह० १४८ अ
डमर - स्वराष्ट्रक्षोभः । सूत्र० २७८ । परराजकृत उपद्रवः । जीवा० २८३। कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनम् । आव ० ३९९| दुरितविशेषः । भग० ८ परकीययामादिदाहकर णरतिकं राज्यम् बृह• ८१ आ प्राणिघातादिभिस्तवर्जकः । उत्त० ३५७| विड्वरस्थानम्। प्रश्न० ३९॥ राजकुमारादिकृतवैराज्यादि । विश्वरः । औप- १२ डमरः - स्वदेशोत्थो विप्लवः । व्यव० १७२ अ डमर:विड्वरः । प्रश्न० ४३ । डमराणि परराजकृतोपद्रवाः । जम्बू॰ ६६। राजकुमारादिकृतविड्वराः। ज्ञाता० ६। निरया ० ४ डमरः एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवः । भग० १९८१ राज
कुमारादिकृतविकृतविड्वराः । राज० ११ ।
डमरकर - विश्वरकारिणः । भग० ४७९ ॥ परस्परेण कलह
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[8]
[Type text]
विधायकाः। ज्ञाता० ५८ | डमरकरः- विड्वरकारी । औप० ६९| कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनकरणशीलः । आव ०
४९९|
डमराई- डमरकानि अशोभनानि आव. ५५७ डमराणि - कुमारादिव्युत्थानादीनि । स्था० ४६३ । डल्ला - गवां चरणार्थं यद्वंशदलमयं महद्भाजनं डल्ले प्रसिद्धं तद् गोकलिञ्चमुच्यते । जम्बू पा
डसू- पच्चंतिया आरुद्वा दंतेहिं दसति तेण इस्। निशी.
४३ अ
डसेज्जा- दशेत् । आव० ४०५ |
उहणं- दहनं उल्मुकादिभिः । आव० ५८८ डहणो- दहनः आचारविषये हुताशनब्राहमणलघुपुत्रो मायाब-हुलः । आव ०७०७
डहर लघुतरम्। बृह० १५८ आ। डहरकम् ओघ० २१५१ लघुः । सूत्र० ३५६। डहरः- अपरणितः बालः । दशवै० २४४ | आषोडशवर्षीयः व्यव• २४५ क्षुल्लकः ओघ ७
लघवः । कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा सूत्र. २२३| डहरए डहरकं लघु। ओघ० १६९॥ -
डहरओ - डहरकः । ओघ० १५९ | लघुः । आव० ३०२, ३७१, ४१५ |
डहरणं यावत् परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशाद्वर्षादर्वाक् वा तड्डहरकम्। व्यव• २४५ अ आसोलसगं त डहरगं जन्मपर्यायेण व्यव० ११२ आ डहरकः- बालकः । उत्त० ३९५ | डहरकः । ओघ० १६३ । व्यव० २४८ अ । क्षुल्लकः । आव० ८२३ | डहरतरतो - लघुतरः । निशी० ३५० आ । डहरिआ लघ्वी आक० ६६६।
डाइणि- डाकिनी शाकिनी। प्रश्न० ५२॥ डाए डायं शाकम् पिण्ड ८४
डाग- शाकम्। आचा० ३३९ । डालप्रधानं शाकम्। आचा ४११ |
डागो - पत्तसागो। निशी० १२८ आ, १९२ आ । वस्तुलादिभर्जिका। प्रश्र्न० १६३ । डाकः- वास्तुलकादिभजिंका। भग- ३२६|
डामरिओ डामरिक विग्रहकारी प्रश्न ३६|
डायं - पत्रशाकः । आव० ७२६ ।
डालं वृक्षशाखा दशकै PH
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
५५
डालंडालिओ-इओ इओ पडिहिंडइ डालंडालिओ। निशी. | बिलं। निशी० ७० अ। निशी० ४२आ। डुङ्गराः२८७ आ।
शिलोच्चयमात्ररूपाः। जम्बू. १६८ डोङ्गरः-पर्वतः। डालगं-आम्रलक्ष्णखण्डानि। आचा०४०५ शाखेकदेशः। ओघ.२०१ आचा० ३५४१
डोंडिणि-ब्राह्मणी, नोआगमेऽप्रशस्ते दृष्टान्तः। आव. डाला-वृक्षशाखा। दशवै २१८१ डिंगरा-पादमूलिया। निशी. १४४ अ।
डोंब-डोम्बः-मातङ्गः। उत्त० १०२ मंठो। निशी. १०७ डिंडिम-कंशकांस्यभाजनम्। आचा० ३५७ डिण्डिमः
। प्रथमप्रस्तावनासूचकः। पणवविशेषः। जम्बू०१०१। डोंबा- जातिभेदः। नि०४३। येषां गृहाणि सन्ति गीतं च जीवा० २६६। प्रथमप्रस्तावनास्तम्बकः पणवविशेषः। गायन्ति ते। व्यव० २३१। डोम्बाः-लखकाः-चाण्डालराज० ५०| गर्भः। बृह. २५८ आ।
विशेषगायकाः। व्यव. ४१९ आ। डिंडीर- फेनः प्रचुरधवलः। प्रश्न. ५०|
डोंबिल-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ डिंडीरोत्कर- फेनपञ्जः। जम्बू० ५५
डोए-दर्वी-वर्द्धकिः। कर्मजायां बुद्धौ चतुर्थो दृष्टान्तः। डिंब-स्वदेशोत्थो विप्लवः। जीवा० २८३। डिम्बानि-स्वदे- नन्दी० १६५। डोयः-बृहदारुमस्तकः। महांश्चटुकः। शोत्थविप्लवाः। जम्बू०६६। डिम्बः-परानीकश्रृगालिकः। | पिण्ड० ८४। सूत्र० २७८। डिम्बः। औप० १२ ज्ञाता०६। भग० १९८५ डोओ- डोवः-कुण्डिका। आव० ४२७। स्था० ४६३। राज० १११
डोग्गरं- पव्वओ। निशी. २६३ आ। डिंभ-डिक्करूवं। निशी० १३अ। अर्भकरूपाणि। ओघ. | डोडकिता- वल्लयः, फलाभिमुखवल्लयः। जम्बू० २०९।
५११ अर्भकः। ओघ०५१। डिम्भः-लघुबालः। आव०७१७ डोडिणि-ब्राह्मणी अप्रशस्तभावोपक्रमे दृष्टान्तः। डिभक्खोभ- डिभक्षोभः-गन्त्रीक्षोभः। ओघ० १४२
अनुयो० ४९ डिक्करिका-दारिका। आचा०४१३।
डोडिनी-अप्रशस्तभावोक्रमे दृष्टान्तः। स्था० १५५ डिक्करओ-पुत्रः। आव०८९३।
डोब-डोम्बः-चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न०१४। डिक्करूवं- डिंभो। निशी० १३अ। डिम्भरूपम्। उत्त. डोबा- हस्तिमिंठः। बृह० २५६ आ। ३०१
डोबिलग- डोबिलकः-चिलातदेशवासीम्लेच्छविशेषः। डित्थं-अनर्थकं शब्दं निरर्थकममिधीयते तत्। आव. प्रश्न.१४॥
डोल-तिड्डकाः। बृह० २५६ आ। डुंग-डुङ्गः-शिलावृन्दं, चौरवृन्दं वा। भग० ३०७। जम्बू. | चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२। १६८१
चतुरिन्द्रियजन्तुभेदः। उत्त० ६९६। डुंब- सुस्वराः। जम्बू. १६९। डुम्बो-मिष्ठः। पिण्ड० ११५॥ डोल्लति-कम्पते। निशी० ३४६ अ। डूसग- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥
डोवलियं-दी। आव० ८४४। इगुदीतैलान्वितम्। आव० डेपनं- लङ्घनम्। व्यव० २२३ अ।
८५७ डेरगं- लघु। आव० ४०४।
डोहलो-दोहदः-स्त्रिया गर्भस्थितौ या इच्छा। आव० ५०४। डेवण-उत्पलवनम्। गच्छ० लङ्घनम्। ओघ० ३४।
-x-x-x-x
ढ देहल्या-देः उल्लंघनम्। ठमणा०४०९। डेविंती- गच्छन्ति-परिभंजन्ति। बृह. ३९ आ।
ढंक-काकः। भग० ३०९। ढङ्कः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा. डेवेमि-लङ्घयामि-अतिक्रमामि। आव. २६४।
४१। ढङ्कः-प्रियदर्शनाप्रतिबोधकः कुम्भकारविशेषः।
उत्त. १५६। ढङ्कः-कुम्भकारविशेषो यः श्रमणोपासको डोंगर-डुङ्गराः-डुङ्गनां-शिलावृन्दानां चौरवन्दानां
जातः। प्रियदर्शनाप्रतिबोधकः। आव०३१३ चास्ति-त्वात् इङ्गराः-शिलोच्चयमात्ररूपाः। भग० ३०७)
ढंकयित्वा-पिधाय। ओघ. १५०
३७५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[9]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आ।
ढंका- ढङ्कारः-काकविशेषः। जम्बू. १७२। लोमपक्षि- ३०३। निश्चिये। प्रज्ञा०३०३। तम्। बृह० १२३ विशेषः। प्रज्ञा०४९।
णंगलई-साधारणबादरवनस्पतिकायः। प्रज्ञा० ३४। ढंकादी- ढङ्कादिः। आव० ३४८१
णंगला-नङ्गला-ग्रामविशेषः। आव. २०५१ ढंकिउं- छादित्वा। आव०६६१।
णंगलिअ-लाङ्गुलिकाढंकुण-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा०४२।
गलकावलम्बितसुवर्णादिमयहलधारिणो भट्टविशेषः। ढंढो-ढण्ढः- ढण्ढकुमारः, जन्मान्तरनाम्ना कृषिपारासरः जम्बू. १४२
वासुदेवसुतः, अलाभपरीषहे दृष्टान्तः। उत्त० ११८ णंगोला- नाङ्गोलिक नामा अन्तरद्वीपः। प्रज्ञा० ५०| ढक्का -भेरी। राज०२७।।
णंगोलाभंगसिरोधरे- लाङ्गलाभङ्गवत्ढक्किंत- ढक्कयताम्। बृह. २५आ।
सिंहादिपुच्छवक्रीकर-णमिव शिरोधरा ग्रीवा यस्य स। ढक्कितो-स्थागितदवारः। व्यव. १३८ अ।
ज्ञाता०९६| ढक्कियं-स्थगितम्। दशवै. ९४१
णतं- (देशी०) वस्त्रशिल्पम्। आव० १३२ ढक्केंति-स्थगयन्ति। ब्रह. १६७ अ।
णतंए- गच्छमपेक्ष्य सदौपग्रहिकं नन्तकंढक्केउं-स्थगयित्वा। आव० ६५१।
मृताच्छादनसमर्थं वस्त्रम्। आव०६२९। ढड्ढरं- यत् महता शब्देनोच्चारयन् वन्दते, कृति णंतगं-अणंतगं-कम्बलादिवस्त्रम्। ओघ० ३४। वस्त्रम्। कर्मणि एकत्रिंशत्तमो दोषः। आव० ५४४१
बृह. ६८ आ। ढड्ढरं-महान्तं स्वरम्। ओघ० १३७।
| णंद-नन्दः-पाटलीपुत्रे राजा। उत्त० १०५। राजगृहे ढड्ढरसरो- ढड्ढरस्वरः-महास्वरेण भाषकः। बृह. ५४ मणिकारश्रेष्ठी। ज्ञाता० १७८ नन्दः-कुसुमपुरराजा।
दशवै०५२। नन्दः-चन्द्रगुप्तनिष्काशितः। दशवै. ९१| ढड्ढराभासा- ढड्ढरभाषा-स्थूरस्वरभाषा| व्यव० ५४ आ। नन्दः-गङ्गायां नाविकविशेषः। आव० ३८९। नन्दःढड्ढरेण-उच्चैः। ओघ. १७७
परिणामिकी-बुद्धिदृष्टान्ते वणिग्विशेषः। आव० ४३६। ढिंक-ढिङ्कः पक्षिविशेषः। प्रश्न.1
सम० २९। ज्ञाता० १७८, १५२| ढिंकणे- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। उत्त० ६९६। णंदग-नन्दकः-खङ्गविशेषः। प्रश्न ७७ ढिंकुणा-ढिंकुणा, मत्कुणाः। जम्बू० १२४।
णंदण-सप्तमो बलदेवः। आव० १५९| मायोदाहरणे ढुक्कड़-ढौकत। आव० ३६९।
कोशलपुरे श्रीमतीकान्तिमती पिता। आव० ३९४१ जम्बू. ढुक्काहि-व्रज। आव०३९६|
३५९ ढक्को- स्पृष्टः। आव० ३५१। आश्रितः। आव. ३९९| | णंदणवण-नन्दनवनं-विजयपुरनगर उद्यानम्। विपा० ढक्कोमि-आगतोऽस्मि। आव० ८१२१
९५। रैवतके उद्यानम्। ज्ञाता०९९| ढेक्कियं-दृप्तम्। आव०७१९।
णंदनवणकूडे-नन्दनवनकूटं, नन्दनवनकूटनाम। जम्बू. ढेणिकालः- तिड्डः। अनुत्त०४।
३६७ ढेणिया- ढेणिका-ककढेणिका, पक्षिविशेषः। अनुत्त०४१ | णंदणवने-नन्दनवनं, नन्दयति-आनन्दयति ढेणियालग-ढेणिकालकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न०८1
देवादीनिति नन्दनम्। ढोंढसिवा-हेलना। आव. २१९।
णंदा-नन्दति नन्दयतीति वा नन्दः-समृद्धः ढोक्कति- ढोकयति। बृह० ७८ अ।
समृद्धिप्रापको वा। ज्ञाता० ५५ स्था० २३०, २३१। नन्दाढायं- गमनं-मिलितम्। आव० ३८३।
पूर्वदिग्रूचकवास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। नन्दा-x-x-x-x
सुगुप्ता-मात्यपत्नी मृगावतीवयस्या च। आव० २२२
नन्दा-अच-लभातमाता। आव० २५५ नन्दाणं- एनम्। आव० १७५पिण्ड० १२२॥ एत्तम्। उत्त० १८५
दक्षिणदिग्भाव्यञ्जनपर्व-तस्य दक्षिणस्यां पुष्करिणी। इमं भरतराजा इत्यर्थः। जम्बू० २३३। निश्चितम्। प्रज्ञा० |
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[10]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
६
जीवा० ३६४। नन्दा-उत्तर-पूर्वरतिकरपर्वतस्य | णंदुत्तरा-नन्दुत्तरा पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या दिक्कुमारी। दक्षिणस्यामीशानदेवेन्द्रस्य कृष्णराजस्य राजधानी। आव० १२ नन्दोत्तरा-पौरस्त्य रूचकवास्तव्या प्रथमा जीवा० ३६५ नन्दापौरस्त्यरूचकवास्तव्या दवितीया दिक्कुमारी। जम्बू. २९१। स्था० २३०, २३१| दिक्कुमारी। जम्बू० ३९१|
णंदोत्तरा-नन्दोत्तरा-दक्षिणदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य णंदावत्त-महाशुक्र कल्पे विमानम्। सम० २९। दृष्टिवादे पूर्वस्यां दिशि पुष्करिणी। जीवा० २६४। सूत्रस्य द्वादशमभेदः। सम० १२८ निशी. ५५अ। उत्तरपूर्वरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यामीशानदेवेन्द्रस्य नन्द्यावर्तः-गृहविशेषः। जम्बू० २०९। नन्द्यावतः- कृष्णाऽभिधानमहिष्याः राजधानी। जीवा० ३६५। अष्टम-ङ्गलेषु अष्टमं मङ्गलम्। जम्बू० ४१९। ण- वाक्यालङ्कारे। उत्त. १८११ णगारो देसिवयणेण णंदि-द्वादशतूर्यसङ्घातः। जम्बू. ५३। नन्दिः। राज. पाद-पूरणे। निशी० २१ अ।
णउलओ-नकुलकः। दशवै० ३५) णंदिआवत्त-नन्द्यावतः-प्रासादविशेषः। जम्बू. १०६। | णउलगं- नकुलकम्। उत्त० २७६। नन्द्यावतः जम्बू०४०५४
णउलो- नकुलः। प्रश्न. ८1 णंदिकर-नन्दिकरः-वृद्धिकरः ज्ञाता० १८१
णओ-नयः। प्रज्ञा० २८४। णंदिघोसा-नन्दिघोषा-स्तनितकुमाराणां घण्टा। जम्बू० णकरं-ण करा जत्थ तं णकरं। निशी० ७०आ। ४०७
णक्का-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। णंदिकला-वृक्षविशेषाः। ज्ञाता० १९४।
णक्खत्तं-नक्षत्राणि। सूर्य. १०० नक्षत्रं-राज्याभिषेकोणंदियगो-नन्दितकः। उत्त० २७२।
पयोगि श्रुत्यादित्रयोदशनक्षत्राणामन्यतरत्। जम्बू० णंदिरुक्खे-नन्दिवृक्षः-बहबीजकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ | २७३। णंदिवद्धणा-नन्दिवर्धना पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या णक्खत्तविजये-विचयनं-विचयो नक्षत्रविचयःदिक्कुमारी। आव० १२२। नन्दिवर्धना
नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णयः। सर्य. १७५ पौरस्त्यरुचकवास्तव्यां चतुर्थी दिक्कमारी। जम्ब० ३९। | णक्खत्तसंवच्छरे-यावता कालेनाष्टाविंशत्यपि नक्षत्रैः नन्दिवर्द्धना-दक्षिण-दिग्भाव्य-जनपर्वतस्योतरस्यां सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो पुष्करिणी। जीवा० ३६४
द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः। सूर्य. १५३। स्था० णंदिवद्धणे- नन्दिवर्द्धनः-श्रीदामराजस्य कुमारः। विपा० ३४४१ ७०।
णक्खत्तसीमच्छेए-नक्षत्रसीमाछेदः। सूर्य. २४७। णंदिस्सरा-नन्दिस्वरा-वायुकुमाराणां घण्टा। जम्बू णक्खत्ता-नक्षत्राणि-अश्विन्यादिरेवत्यन्तानि, ४०७|
सोमस्याज्ञोप-पातवचननिर्देशवर्तिन्यो देवताः। भग. णंदी-नन्दी-भगवत्प्रियमित्रम्। आव. २२२ स्था० ३९३। १९५५ णंदीतूरं-नन्दीतूर्य-मङ्गलतूर्यम्। उत्त० ३०२।
णगधारा-पर्वतनितम्बः। निशी० ३४५आ। णंदीफले- नन्दीफलं षष्ठाङ्गे पञ्चदशं ज्ञातम्। उत्त० । णगरं-करो जत्थ न विज्झति णगरं। निशी. २२९। अ। ६१४।
नगरम्। सूत्र० ३०९ णंदीसरो-नन्द्या-समृध्याईश्वरः-स्फातिमान् णगरगुत्तिय-नगरगुप्तिकः। विपा० ५२॥ नन्दीश्वरः। जीवा० ३६५।
णगररक्खिओ-कोटवालो। निशी. १९५। णंदीसरोदे-नन्दीश्वरोदः-नन्दीश्वरे द्वीपे समुद्रः। णगरविणट्ठ-नगरविनष्टः। आव०६६। नन्दीश्व-रयोरुदकं यत्रासौ, नन्दीश्वरवरं द्वीप णगराति-नैतेष करोऽस्तीति नकराणि। स्था०८६) परिवेष्ट्य स्थित इति, नन्दीश्वरं प्रतिलग्नमदकं यस्या णगा- पव्वता। निशी. १९ आ। सौ वा। जीवा० ३६५
णगारमग्गे-अनगारमार्गः-उत्तराध्ययनेष
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[11]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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________________
[Type text )
पञ्चत्रिंशत्तममध्यय-नम् । उत्त० ९।
णग्गई- न्यग्गतिः- क्षत्रीयपरिव्राजके तृतीयः । औप० ९१ । णग्गती - नग्गतिः- द्रव्यव्युत्सर्गे गान्धारजनपदे पुरिमपुरनगरेऽधिपतिः यः पुष्पितामं दृष्ट्वा सम्बुद्धः
सः | आव० ७२०
णग्गोधपरिमंडलं- न्यग्रोधपरिमण्डलं न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य यथा न्यबोध उपरिसम्पूर्णः प्रमाणोऽधस्तुहीनस्तद्वत् यत्संस्थानं नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तु न तथा उपरिविस्तार बहुलमिति भावः, द्वितीयं संस्थानम् । जीवा० ४२ |
1
णग्गोह- न्यग्रोधः, वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ भग० ८०३ 1
सम० १५२
णग्गोहमंडले– न्यग्रोधमण्डलं-विस्तारबहुलं संस्थानम्।
आव० ३३७ |
णच्चाविय- नर्त्तयितव्यः | ओघ० १०८ ।
णज्जति - ज्ञायते । आव० ३०० |
णह गीतेण विरहितं । निशी० ।। नटाः नाटयि तारः । नृत्यन्ति स्म नृत्ताः नृतविधायिनः । जम्बू.
१२३|
णट्टमालए- नृत्तमालकः खण्डप्रपाताधिपतिः । जम्बू
७४ |
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
णट्टमालगे- नाट्यमालकः, नृत्तमालकः । जम्बू. २५पा णमाला - नृत्तमालाः । जम्बू. १८१ एकोरुकद्वीपेवृक्षविशेषः । जीवा० १४५ | णट्टवाइत्तं- नर्त्तकीत्वम् । बृह० २४७ आ ।
विही- नाट्यविधिः- सामान्यतो नर्त्तनविधिः । जीवा० २४७| नृत्यविधिः- नाट्यकरणप्रकारः । जम्बू० २५९ | हिं- द्वात्रिंशत्पात्रोपलक्षितैनाट्यैः उत्त• ३८६६ णमतीते चक्षुर्ज्ञानस्य विषयानिश्चायकत्वात् । ज्ञाता०
२३०|
सणे - नष्टसंज्ञो मनसो भ्रान्तत्वात् । ज्ञाता० २३० | सुतीते नष्टश्रुतिको निर्यामकशास्त्रेण
दिगादिविवेचनस्य करणे अशक्तत्वात् । ज्ञाता० २३० | ण्डवेलंब- बालरोदनादि निशी. १०६ अ
डा- गाडगाणि णट्टे वा । निशी० ४३ आ । निशी० २८४
-
अ।
पडेड़- णडेड़-बाधते आव० २१८८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[12]
[Type text]
णत्तंभागा- नक्तंभागानि चन्द्रस्य समयोगीनि स्था०
३६८|
णत्ता- नप्ता-पुत्रपुत्रः । जम्बू० १४९ । णत्तिणो- गिलाणो निशी ८२ आ णत्ती- ज्ञप्तिः, आदेशः । बृह० १९२ आ णत्तुणिअत्ति नप्तः। दशवे. २१५ णत्थं न्यस्तं साध्वर्थमुपकल्पितं अर्द्धदत्तं वा। सूत्र
१०९|
णदिणिसेज्जा - नदीतीरे नैषेधिकी। मरण० |
दीमहो- नदीमहः - नदीसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ | णपुंसगवेदो
तणकट्ठमहासंचयचिविधिघणघोरजणियमणुवसंतो तत्तलक्खणो महाणगरड्डाहसमाणो निशी० ३१| णपुंसगवेय नपुंसकवेदः स्त्रीपुंसोरप्यभिलाषः । जीवा०
१८|
णभसेणो नभः सेन: उग्रसेनपुत्रः । आव ९४१ मंस - नमस्यति प्रणमति । जम्बू० १५९ | णमंसण नमस्यनं प्रणमन्। ज्ञाता० ४५॥ णमंसमाणे- नमस्यन् प्रणमनम् अभिमुखः । ज्ञाता० १०| णमइ- नमति- प्रवीभवति। उत्त० ६५ णमि नमिः श्रीऋषभस्वामि महासामन्तकच्छसुतः । जम्बू. २५२ आव. १५१ नमि:परीषहोपसर्गादिनमनात् एक- विंशतितमो जिनः । आव ०
५०६ |
णमिपव्वज्जा- नमिप्रव्रज्या - उत्तराध्ययनेषु
नवममध्ययनम् । उत्त० ९१
णमोक्कार - नमस्कार: नमस्करणम् णमो अरहंताणं' अयम्। दशवें• १८०१ आव. ६८५ णमोक्कारसहिता नमस्कारसहितः आव० ८३८० णयगई— नयगतिः-यन्नयानां नैगमादीनां स्वस्वमतपोषणं यद्वा यन्नयानां सर्वोषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापनं सा ।
प्रज्ञा० ३२९|
णयणकंता- नयनकान्ताः-लोचनाभिरामाः परिणयनभर्तारो वा प्रश्नः ७० |
णयमाला - एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा. १४५॥ णयरगुत्तिय नगरगुप्तिकः । आव० ३७१।
"आगम- सागर- कोष" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
णयरमयहरो-नगरमहत्तरः। आव० ४२६।
णवणीतं- नवनीतं-म्रक्षणम्। जीवा. १९२२ णयरिबाहिरिया-नगरीबाहिरिका। आव० ४२६।
णवणीयं-नवनीतं-म्रक्षणम्। सूर्य. २९३। णयवादसुहमया-णेगमादिसत्तणया एक्केक्कते णवपज्जए-नवं-प्रत्यग्रं प्रतापितस्यायोधनकुट्टनेन सत्तविधो तेहिं सभेदा जा दव्वपरूवणा दिद्विवाए तीक्ष्णं कृतस्य पायनं-जलनिबोलनं यस्य कज्जति। निशी० ६७आ।
तन्नवपायनम्। भग०६५० णरकन्ता- नरकान्तानदीदेवीकूटम्। जम्बू० ३८० णवपज्जणए-नवं-प्रत्यग्रंपायनं-लोहकारेण तापितं णरवाम- पुरुषव्यामः-सुप्रसारितः। जम्बू० २९।
कट्टितं तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां जले निबोलनं णरसीहरूव-नरसिंहरूपः। ज्ञाता०२१९।
यस्य तत्। ज्ञाता० ११६ णल-पर्वतविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥
णवमिआ-नवमिका-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या षष्ठी णलगिरि-प्रयोतनस्य हस्तिः । निशी. ३४८ आ। दिक्कुमा-रीमहत्तरीका। जम्बू० ३९१| णलदाम-नलदामा कुसुमरे कोलिकः। दशवै० ५२ णवमिका-नवमिका-पश्चिमरूचकवास्तव्या षष्ठी णलिअंगे- नलिनाङ्ग-चतुरशीत्या लक्षैः पौः। अनुयो० दिवक्कुमारी। आव०१२२१ १००
णवमिया-नवमिका णलिणंग-नलिनाङ्ग-चतुरशीतिः पद्मशतसहस्त्राणि। दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्यापरस्यां जीवा० ३४५
गोस्तूपराजधान्यधिष्ठात्री शक्रदेवेन्द्रस्य णलिण- नलिनं-ईषद्रक्तं पद्मम्। राज० ८ नलिनं चतुर- तृतीयाऽग्रमहिषी। जीवा० ३६५ नवमोत्क्षेपस्य शीतिर्नलिनाङ्गशतसहस्राणि। जीवा० ३४५ नलिनं- षष्ठमध्ययननाम। ज्ञाता०२५३। चतुर-शीत्या लक्षैनलिनाङ्गः। अन्यो. १०० नलिनो णवमीपक्ख-नवमीपक्षः-अष्टमीदिवसः, नवमीदिवसः विजयः। जम्बू. ३५७। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० २३।
जम्बू० १४१ णलिणकूड-नलिनकूटं वक्षस्कारपर्वतः। जम्बू. ३४६। | णवयए-नवत्वक्-दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चके चतुर्थो नलिनकूटं नाम वक्षस्कारपर्वतः। जम्बू० ३४६। स्था० भेदः। आव०६५२ ३२६।
णवरी-केवल इत्यर्थः। निशी० १० अ। णलिणा-नलिना, पुष्करिणी नाम। जम्बू० ३३५। स्था० णवायए-नवायतः-नव हस्तायतः। ज्ञाता०६६। ८०| जम्बू० ३६०
णविया-नविकाः-अग्रेतन भवभाविनी। ज्ञाता० २४१| णलिणावई-नलिनावती विजयः। सलिलावतीति पर्यायः। | णहसिहा-नखाग्राः। निशी. १९० अ। जम्बू. ३५७
णहा-नखा-नखराः। ज्ञाता० १३९। णलिणिगम्म-नलिनिगल्म-सौधर्मकल्पे विमानविशेषः। | णांगोली-नाङ्गोलिकः-अन्तरदवीपविशेषः। जीवा. १४४। उत्त० १६०। आव० ३१६। पुष्कलावतीविजये
णाइ-ज्ञातिः-सजातीयः। भग. १६३। ज्ञातिः-समानजापुण्डरीकिणीनगामुद्यानविशेषः। उत्त० ३२६। तीयाः। विपा० ५८१ णलिणिवणे- पुण्डरीकिणीनगर्यां उद्यानविशेषः। ज्ञाता० । | णाइए-नादितं, प्रतिरवः। जम्बू. १९२ २४२।
णाइलो-नागिलः-श्रमणोपासकः, चम्पायां पल्लग-नल्लकः। जम्बू० १०१।
सुवर्णकारकुमार-नन्दिनो मित्रम्। आव० २९६। णावं-नवं-अभिनवम्। सूर्य. १८१
णाई- ज्ञातिः-मातुलादिस्वजनः। औप० ८९। ज्ञातिःणवंतेपुरं-जोव्वणयुत भंजमाणीओ। निशी. २७१। सजातीयः। औप. १०३। ज्ञाताः-क्षत्रिया ज्ञातं वा वस्तुणवग- पासत्थादि पंच काहिकादी चउरो। निशी. ९२ जातं विद्यते यस्य स ज्ञाती, विदित समस्तवेद्य इति। णवग्गाई-प्रत्यासन्नानि। बृह. ४३ अ।
सूत्र० ३९६| णवणीइआगुम्मा-नवनीतिका गुल्माः। जम्बू. ९८५ णाए- ज्ञातं-प्रसिद्धं दृष्टान्तभूतं प्रधानं वा। सूत्र० १५०|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[13]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
णाओ - निश्चये नायनं विशिष्टस्थानप्राप्तिलक्षणं यस्मिन् सति सः न्यायः- सम्यक्चारित्रावाप्तिरूपः चारित्रयोगः । सूत्र. १९७१
३५७
नाग दुमविशेषः । जम्बु ४६| नागः- भवनपति विशेषः । जम्बू० १२३ | नागो वक्षस्कारः पर्वत। जम्बू० 39७| नाग:- दुमविशेषः । जीवा० २००| नागः- द्वीपविशेषः । समुद्रविशेषश्च जीवा० ३७० | नागः नागवंशप्रसूतिः । औप० २७|
-
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
नानात्वम् । भग० ७४१ |
णाणनाणोपगए ज्ञानज्ञानोपगतः ज्ञानमिह श्रुतज्ञानं तेन ज्ञानं अवगमः प्रक्रमाद् यथावत्क्रियाकलापस्य तेनोपगतो युक्तः । उत्तः पटण
णाणपवायं (ज्ञान प्रवादः) पञ्चमं पूर्वनाम स्था० १९९| णाणपुलात ज्ञानपुलाकः- पुलाकस्य प्रथमो भेदः, ज्ञाननिस्सारत्वं य उपैति स पुलाकः । उत्त० २५६ । स्खलितमिलितादिभिरतिचारैर्ज्ञानमाश्रित्यात्मानं असारं कुर्वन् ज्ञान- पुलाकः । स्था० ३३७|
नागदंतगा- नर्कुटिक, अङ्कुलिकौ । जम्बू० ५०|
णागदंत- नागदन्तः- अकुटकः । राज० ६४ जीवा. ३६१। णाणमोहे- ज्ञानं मोहयति आगच्छतीति ज्ञानमहः
नागदत्ता- सम० १५१।
ज्ञानावर णोदयः । स्था० २६|
नागदत्ते - नागदत्तः- मणिपुरनगरे गाथापतिः। विपा०
९५|
नागनत्तु - नागनप्ता वरुणनामा । भग० ३२० | नागपुर नगरविशेषः । जाता० २५१
नागपुप्फ- नागुष्पं नागकेसरकुसुमम्। जम्बू. १८३ नागभद्दो- नागभद्रः- नागवीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा०
३७०|
णागमहाभहो- नागमहाभद्रः नागवीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः जीवा. ३७०।
णागमहावरी नागमहावर:
नागसमुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा• ३७०|
गरगो- नागरः । पौरः । आव० ४०९ |
णागलया - लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२| वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२
णागवरो- नागवरः- नागसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा.
३७०१
गाडइज्जो नाटकीयः- नाटकप्रतिबद्धपात्रः ज्ञाता० ४०|
आव० ३५६ ।
णाडगविही- नाटकविधिः
अभिनयप्रबन्धप्रपञ्चनप्रकारः जम्बू. २५९ ॥ ढाइ- नाद्रियते । आव० ३७४ | गाणं- ज्ञानम् । आव० ७९३ । णाण- ज्ञानं-2 -श्रुतज्ञानम् । स्था० ६४ | ज्ञातम्। स्था० ३२७| णाणकुशील कषायकुशीलोऽप्यवं नवरं क्रोधादिना
विषयादि ज्ञानं प्रयुञ्जानो ज्ञानकुशीलः स्था• ३३७ णाणत्तं विसेसो निशी० १३३ आ वर्णादिकृतं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[14]
[Type text]
णाणसंकिलेसे ज्ञानस्य सङ्क्लेशः अविशुद्ध्यमानतास
जान सक्लेशः । स्था० ४८९ । णाणविण ज्ञानविनयो-मत्यादिज्ञानानां
श्रद्धानभक्तिबहु-मानतद्
दृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः भग० ९२४
णाणायरे ज्ञानाचारः श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययविनयध्यानादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा । सम० १०८ | णाणायारे आचरणमाचारः व्यवहारो ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः । स्था० ६४| आचर णमाचारो ज्ञानादिविषयाऽसेवेत्यर्थः । ज्ञानाचारः-कालादिर-ष्टधा । स्था० ३२९ । णाणिंदे- ज्ञानेन्द्र:- ज्ञानेन ज्ञानस्य जाने वा इन्द्रः परमेश्वरो ज्ञानेन्द्रः
-
अतिशयवच्छ्रुतायनज्ञान्तरवशविवेचितवस्तुविस्तारः केवली वा । स्था० १०४ |
णाणिड्ढी– ज्ञानर्द्धिः-विशिष्टश्रुतसम्पत्। स्था० १७३ णाणुप्पायं ज्ञानस्योत्पादनमुत्पत् ज्ञानोत्पत् । उत्तः ३२२, २८४, ३०६ |
णात - दृष्टान्तः | निशी० २८५आ। ज्ञातं ज्ञायते अस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे कप्रत्त्योपादानात् ज्ञातं आख्यानकरूपं उपमानमात्रं उपमिति मात्राम् । स्था० २५४|
णातगं ज्ञातकं स्वजनम्। बृह• १८८ आ णाता- समत्थो गीयत्थो वा । निशी० २२१ |
-
णाभी- लोकनाभिः, मेरुनाम जम्बू• ३७५1 ऋषभदेवपिता । सम० १५० | नाभिः मध्यः आव० ४३७ नाभि:
*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
કરા.
चतुर्दशं कुलकरनाम। जम्बू. १३२। सगडरहाइण भवइ। | णारायं-नाराचम्। जीवा० ११७। नाराचाः-सर्वलोहबाणः। दशवै०१११।
जम्बू० २०६। णाभोगे- अनाभोगः-विस्मृतिः। स्था० ४८४।
णारायणो-कमलामेलोदाहरणे दवारकाधिपतिः, णाम- यथाभूतार्थनिरपेक्षमभिधानमात्रं नाम। आचा. ९११ नारायणः-कृष्णः । आव० ९४। नामपदं-अव्युत्पन्नेतरभेदाद दविधा। प्रश्न० ११७५ णारी-नारीकुटं-नारीकान्तानदीसुरीकूटम्। जम्बू० ३७७) नामकर्म-णउत्तरप्रकृतिविशेषरूप। प्रज्ञा० २१७। णारीकन्ता-नारीकान्ता-नदीविशेषः। जम्बू. ३७९) विभक्तिपरिणामेन नाम्नेति। जम्बू. १५ प्राकृतत्वात् णारीकन्ताए-नारीकान्तायाः। जम्बू. ३७९ विभक्तिपरिणामेन नाम्ना। जम्बू. ४७। नाम
णालंद-सूत्रकृताङ्गस्य त्रयोविंशमध्ययनम्। उत्त० ६१६। शास्त्रीयउपक्रमः। आचा० ३। णाम इति पादपूरणे, अहवा | णालंदइज्जं- सूत्रकृताङ्गङ्गे त्रयोविंशमध्ययनम्। सम० णाम इत्युपसर्गः अयं वार्थविशेषे। निशी. ९९। पादपुरणे, अवधारणे। निशी० २१२ शिष्यामन्त्रणे। णालंदा-नालंदा-राजगृहे शाखापुरम्। आव० १९९) जम्बू. ३११
णालबद्धा- माता-पिता-भ्राता आदि। निशी० ३० अ। णामगं-नामकं प्रतिज्ञा। उत्त० १०१।
णालातिबद्धणं-निशी० २११ आ। णामधेज्जा-सार्थकाणीत्यर्थः। निशी० ५।
णालिआ-नालिका-यष्टिविशेषः। जम्बू. ९४। णाय-निश्चित आयः। लाभः न्यायः मुक्तिः। उत्त० णालिएरिवणं-नालिकेरवनम्। जीवा० १४५ २१३। ज्ञातं-सामान्येनावगतम्। भग०६५ ज्ञातं णालिएरी-वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३। सामान्यतः। भग. ३१६| ज्ञातं-ग्रन्थः। आव०६७७) णालि-घडिया। निशी. २२ आ। उदाहरणम्। ज्ञाता० १० दृष्टान्तः। बृह. २६ अ। ज्ञातः- णालिआ-नालिका। आव० ३६० इक्ष्वाक्-वंशविशेष-भूतः। औप० २७। ज्ञातः
णालिउ-घडिउदग गलेणो व लक्खितो कालो। निशी. उदारक्षत्रियः। उत्त०२७० नावः। उत्त० १५०
११८ आ। णायए- णायकः प्रणेता,
णाले-नालं-कन्दोपरिमध्यवर्त्यवयवः। जम्बू. २८४। यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रणेतृत्वम् च। सूत्र० २५४। णावणिज्जुत्तीए- एतेहिं सत्तपदेहिं सव्वे प्रधानः न्यायको वा। ज्ञाता०६७। ज्ञातिब-न्धः। सूत्र० | उग्गमुप्पादणएसणा दोसा य सूचिता तेण| निशी० ६३ १७१। ज्ञातकः-स्वजातीयः यदवा ज्ञातकः-संवासादिना ज्ञातः-सहज परिचितः। जम्बू० १२३।
णावत्ति-पसत्ती। निशी० १२१आ। णायग-स्वामिनो ज्ञानादि प्रापका वा। व्यव. २३५) णावमज्जे- (णायमेज्जा) नाचमेत-न निर्लेपनं कुर्यात्। णायगो-स्वजनः। निशी० २६८ आ। स्वजनः नात- सूत्र० १८१ गोप्रज्ञायमानः। निशी. २५अ।
णावाकडए-नावाकटकं-नौशकलम्। आव०४०१। णायज्झयणा- ज्ञातानि
णावाकडओ-नावाकटकं नौशकलम्। आव० २१४१ दृष्टान्तास्तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि
णावागती-नावागतिः। यन्नावा महानदयादौ गमनं, षष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्तीनि। सम० ३७
विहायोगतेः सप्तमो भेदः। प्रज्ञा० ३२७ णायपुत्ते- ज्ञातपुत्रः-वर्तमानतीर्थाधिपतिर्महावीर इति। | णावाभूयं- नौभूतं-नौतुल्यम्। जम्बू० २२० उत्त० २७०
णावावाणियगा-नौवाणिजकाः-पोतवणिजः। ज्ञाता० णाया- ज्ञाताः-उदारक्षत्रियाः। बृह० १५२ अ। कुलार्यभेदः। | १३६ प्रज्ञा०५६।
णावासंठिते-नौसंस्थितम्। सूर्य. १३०| णारए- नारदः। आव० ९१|
णाविय-णाविकः-कैवतः। ज्ञाता० १५९। णारदो-द्वारकायां ऋषिः। आव. ९४१
णाविया-नौका-द्रोणिका। भग० २१९|
।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[15]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
५७९।
आ।
णासकरणं-णासारिसादिरोगणासणत्थं णासकरणं। नि० | णिकाईयं-निकाचितम्। उत्त. १७४। ८९ ।
णिकायकाय-निकायकायः षडजीवनिकायः। दशवै. णासिऊणं-नंष्ट्वा । दशवे. ११॥
१३४॥ णासिक्कं-नासिक्यं, पारिणामिकीबद्धिदृष्टान्ते नगरम्। | णिक्कंकड-निष्कवचा, निरावरणाः। जम्बू. २११ निष्कआव०४३६।
कटाः- निष्कवचा, निरावरणाः। औप. ११५) णासो-नियतं निश्चितं वाऽऽसनं-नामादिरचनात्मकं णिक्कंतारं-निर्गतः क्षेपणं न्यासः-निक्षेपः। उत्त०७२।
कान्तारान्निष्कान्तारस्तन्निष्क्रमितारं वा। स्था० १९८१ णाह-नाथः-योगक्षेमकारिन्। ज्ञाता०१६७।
णिक्क-सर्वथा विगतमलः। ज्ञाता०५३ णाहरा-सणप्फया। निशी० ८ आ।
णिक्का-सारणी। निशी. ७२आ। अन्नेकवाडसंज-त्ताओ णित-निर्गच्छन्। ओघ. ९० निन्तो निर्गच्छन्। आव। णिक्का। निशी०७०आ। आव. २६५
णिक्किव-निष्कृपः-मम दुःखिताया अप्रतीकारत्। णिताणं-निर्गच्छत्। निशी० १२० आ।
ज्ञाता० १६७ णिंदणया-निन्दनं-आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम्। उत्त० | णिक्कोडणं-निष्कोटनं-बन्धनविशेषः। प्रश्न. ५६।
णिक्कोरणं-मुहस्स अवणयणं णिक्कोरणं। निशी० १२१ जिंदुयं-निर्दृतं निर्यातं, मृतमिति। विपा० ५१। णिंदू-निन्दुः-म्रियमाणप्रजनिका स्त्री। आव० २०५१ णिक्खमइ-निक्षिप्यते। दशवै. १४१ निन्दुः-मृतापत्यप्रयूः। आव० ३६७।
णिक्खमणं-निष्क्रमणम्। आव०५१४। णिप्फेडणं। णिंब- निम्बः, एकास्थिकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| निशी० २५८ आ। किंवोलियाए-निम्बगुलिका-निम्बफलं, निर्बोलिता णिक्खमे-निष्क्रमेत्-गच्छत्। उत्त० ५९। निमज्जि-ता। ज्ञाता० १९९।
णिक्खित्तं- णाम गरलिगाबद्धं स्थापयति। निशी० ८३ णिअंसेइ-निवासयति-परिधापयति। जम्बू. १६१| णिक्खित्तचरगा-गोचरचर्यायामभिग्रहविशेषः। निशी. णिअग-निजकाः-मातापितृभ्रात्रादयः। जम्बू० २७०
१२आ। णिअमो-नियमः शौचादिः। जम्बू. ५२२१
णिक्खिवति- गोपयति। निशी० ८३ आ। पहे मुञ्चति। णिअल्लओ-निजकः। दशवै.१११
निशी० २१३ अ। गोपयति। नि० ८३ अ। णिइंति-निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति। प्रश्न. ११५
णिक्खुडं- निष्कुटं भागम्। जम्बू० २५५ निष्कुटकोणवणिइयं-नैत्यिक-सार्वदिकमवस्थितं
र्तिभरतक्षेत्रखण्डरूपम्। जम्बू. २१८१ मनुष्यपोषादिप्रमाणम्। प्रश्न० १५४
णिक्खुडाणि-निष्कुटानि-अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि। णिउडुक्कुडिया-निकृत्युत्कटता। आव २०६।
जम्बू० २१८१ णिउण-निपुणम्। प्रश्न० ३६। सुहुमो। निशी० १३ अ। णिक्खेवगणिक्खित्तं-निक्षेपकनिक्षितम्। आव०६७। णिउत्तो-नियुक्तः। आव० ८१९)
णिगओ-निगमः-वणिग्जननिवासः। प्रश्न. ५२। निगमः णिउर-वृक्षविशेषः। ज्ञाता० १६१।
कारणिकः, वणिग् वा। औप०१४। निगमःणिओइओ-चोदितो। निशी० ९१ अ।
प्रभूततरवणिग्वर्गावासः। प्रज्ञा०४७ णिओगी-नियोगी-कृत्यकरः। उत्त० ३०५१
णिगमण-निगमनं-प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमनम्। णिओगे-नियोगः-उपकरणम्। जम्बू०४०३।
दशवै०६२ णिओदणं-भिक्खकरो। निशी० ३२८ अ।
णिगमा-निगमः-कारणिकाः, वणिजः। जम्बू. ११० णिकट्ठा-निकृष्टा-कोशावहिष्कता असियष्टिः। ज्ञाता० | वणिग्विशेषाः। बृह. ४५अ।
णिगरिअ-निगरितं-सारिकृतम्। जम्बू. १११|
२३९
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[16]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
।
णिगिणं- णग्गं| निशी० ३८ अ।
णिच्छल्लेति-त्वचं अवणेति, महामणिं प्रकाशयति। णिगिणाउ-मुक्तपरिधाना। आच० ३७१।
निशी० ११६ आ। णिगिणिणं-नाग्न्यम्। उत्त० २५०।
णिच्छाणं-निःस्थान-स्थानवर्णितम। विपा. १७ णिगुंजमाणी- निगुञ्जन्ती-अव्यक्तशब्दं कुर्वन्ती। | णिच्छुब्भते-आददाति-तुदति। आव० १०२। ज्ञाता० १५८१
णिच्छुहति-निस्पृशति। उत्त० २७७ णिगुणं-निगुणं-निहतग्णम्। प्रश्न. ३६|
णिच्छुढं- निष्ठ्यूतम्। दशवै० ३८१ निगुहिज्जा-अवगृहयेत्-पच्छादयेत्। आचा० ३५४। णिछुभति-धाडयति। निशी० ३०३ अ। णिगोय-निगोदाः-कुटुम्बानि। जम्बू० १७१। | णिजुता-नियुक्ता-स्थापिता। जम्बू० २१२१ णिग्गंथा-खमणा। निशी. ९८ अ।
णिजुद्धं-नियुद्धम्। उत्त. १९२१ सव्वसंधिविक्खोवणं णिग्गम-वणिया जत्थ केवला वसंति तं निग्गम। निशी. | णिजुद्धं। निशी० ७१ अ। २२९ ।
णिज्जंतो-नीयमानः। आव०६३१| णिग्गमए- प्रस्थानम्। निशी. १५८ अ।
| णिज्जरापोग्गलो- निर्जरापुद्गलः-अपगतकर्मभावः- परणिग्गयरिणो-कृतप्रत्युपकारा। निशी० २९२ आ।
माणुः। प्रज्ञा० ३०३। णिग्गया-निर्गता-जे तवं वोलीणा छेदादिपत्ता। निशी० णिज्जाणं-णगर गाम वा जं ठियं तं। निशी. २६५ अ। १२२ ।
निर्याणं-अनावृत्तिकगमनम्। औप० ८० णिग्गिलिओ-निर्गिलितः। आव० ३९५१
णिज्जणियकेणाइ-नगरनिर्गमगृहाणि। भग०६१७। णिग्गुणा-निर्गुणाः-उत्तरगुणविकलाः। जम्बू. १७१। | णिज्जाणिया-रायादियाण निग्गमणं ठाणं। निशी. २६५ णिग्गू- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ णिग्गोहवरपायव-न्यग्रोधवरपादपः। जम्बू. १५०। णिज्जामिय-निर्यामितः। उत्त० १३३॥ णिग्घरिस-कषपटः। निशी. २४२ आ।
णिज्जास-निर्यासः रसः। जम्बू. १०० निर्यासः। ओघ. णिग्घाए- निर्घातः-वैक्रियाशनिप्रपातः। प्रज्ञा. २९| १०० णिग्घाएति- गालयति। निशी० ११७ आ।
णिज्जाहि-निर्यास्यति-निर्गमिष्यति। स्था० ४५९। णिग्घाओ-निर्घातः-गगने व्यन्तरकृतो महाध्वनिः। णिज्जिए-निर्जितः भग्नबलम्। जम्बू० २७७। प्रश्न. ५१।
णिज्जितं- उपार्जितम्। निशी. १०६अ। णिग्घायण-निर्घातनं-विश्लेषणम्। जम्बू. १५० | णिज्जुत्ती- नियुक्तिः निश्चयेन आदौ वा युक्ता णिग्घिण-निघृणः-निर्दयः। ज्ञाता० १६७।
अर्थास्तेषां यक्तिः निर्यक्तार्थव्याख्या वा। आव०६७ णिग्योसो-निर्घोषः महाध्वनिः। औप०७३। निर्घोषः णिज्जूढा-कालावधीए जे ठप्पा कया ते णिज्जूढा। महाध्वनिः। प्रश्न. २०
निशी. १९९ । जे ठप्पा कया। निशी. ४५आ। णिच्चणियंसणं-जं दिया रातो य परिहिज्जेह। निशी । णिज्जूह- गवक्खो। निशी. ८४ अ। निर्यहोदवारो१६२ ।
परितनपार्श्वविनिर्गतदारुः। जम्बू. १०७। णिज्जूहकंणिच्चालोए-अष्टाशीतौ महाग्रहे चतुष्षष्ठितमः। स्था० निर्वृहकं-द्वारपार्चविनिर्गतदारुः। ७९
| णिज्जूहिंतो- परित्यजन्। पिण्ड० १७६। णिच्चालोयं-नित्यमालोको-दर्शनं-दृश्यमानता यस्य तत् | णिज्जूहिऊण- परित्यज्य। उत्त०६६८१ नित्यालोकम्। जीवा० ३९९।
णिज्झर-निज्झराः-गिरितटादकस्याधः पतनानि णिच्छउ-परमार्थः। निशी० ९७ अ।
तान्येव सदावस्थायीनि। जम्बू०६६। णिच्छय- निश्चयः-निर्णयः निर्गतकर्मचयो निश्चयः- | णिज्झवणा-निः-आधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां मोक्षः। प्रश्न. शतत्त्वानां निर्णयः। ज्ञाता०७१ निर्याता-निर्गच्छतां प्रयोजकत्वं निर्यापना,
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[17]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #18
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
९६|
प्राणवधस्याष्टाविंशतितमः पर्यायः। प्रश्न०६। | णिदाणा-भवान्तरीयाः धर्मोत्साहपराकृताः णिहवियं-निष्ठितम्। आव० ५५८१
प्रार्थनाविशेषाः-दुर्लभबोध्यादिफलाः नवभेदाः दशा। णिद्ववेतित्ति-मारेज्जा। निशी. १३३ आ।
णिदाहो- निदाघः एकादशं मासनाम। सूर्य. १५३| णिहाणं-णिप्फत्ती। निशी. ३३आ। जं सव्वगुणोववेयं | णिदोच्चं-निभर्यम्। निशी० ७१ अ। सव्व संभरसंभियं तं। दशवै. १२२१
णिद्दा-निद्रा-सुखप्रतिबोधलक्षणा। भग० २१८। णिट्ठाणकहा- निष्ठानकथा शतपञ्चशतरूपका, निष्ठानं । | णिहारो-निर्धारः। आव० ८५५१ यावत् शतसहस्रमिति, भक्तकथायाश्चतुर्थभेदः। आव० | णिद्देज्जं-पुव्वं पडिहारितो दत्तो इदाणिं णिद्देज्जं ५८१
देहित्ति। निशी. १७७ आ। णिहावेति-व्यापादयति। निशी. ३०३ अ।
णिद्ध-स्निग्ध-मनोहरम्। जीवा. २६७ स्निग्धंणिहिए-निष्ठितोऽपनेतव्यद्रव्यापनयनमाश्रित्य निष्ठां | स्नेहलम्। जीवा. २६९। गतः वि-शिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत्। जम्बू. णिबंधस-अत्यन्तमैहिकाष्मिकापायशङ्काविकलः
अत्यन्तं जन्तुबाधनिपेक्षो व परिणामोऽध्यवसायो वा। णिट्ठियं-परिसमत्तणं। दशवै. ११२ आ।
उत्त०६५६| णिट्ठिया-कालगता। निशी. २०७आ।
णिद्धमा- पासत्थ। निशी. ७६ आ। णिहति-निष्ठीवति। उत्त० ३५६)
णिद्धबंधणपरिणामे- स्निग्धबन्धनपरिणामः-स्निग्धस्य णिणाए-निनादः-प्रतिशब्दः। औप०७३। निनादः- सतो बन्धनपरिणामः। प्रश्न. २८८ प्रतिध्वनिः। जम्बू. १९२ अ।
णिद्धमण-निर्धमनम्। आव०६४। णिण्णं-खड्डा। निशी० १२९ अ।
णिवायविणीयववहाराणिण्णओ-निर्नयः-निर्वचनम्। बह. १२५ अ।
घृतगुडसवसतिविनयादिजा-तपक्षव्यवहाराः। व्यव० णिण्णय- निर्णयः। आव. ९७।
२५३। णिण्णाइं-(देशी) अधोगच्छति। उत्त. २९३।
णिद्धम्मो-निर्गतो धर्मात-श्रतचारित्रलक्षणादिति णिण्हवो-जो पुच्छिओ संतो सव्वहा अवलवइ। दशवै. निर्धर्मः। प्रश्न १२४१
णिद्धा-स्निग्धा। आव. २६२ णितंब-नितम्बः-कटकः। जम्बू. २४२
णिद्धाइऊण-निर्गत्य। आव० २१६ णितावादी-नियतं-नित्यं वस्तु वदति यःस। स्था० ४२५१ | णिद्धाइस्संति-निभविष्यन्ति-शीघ्रया गत्या णितितो-णिच्चमवत्थाणातो णितितो। निशी० ९१ आ। निर्गमिष्यन्ति। जम्बू. १७११ निर्गमिष्यन्ति। जम्ब० एते संथारगादि दव्वे कालदगातीतं अपहिरंतो। निशी. १७६| १४३ ।
णिझुणे-निर्धनोति-निततरामपनयति। उत्त० १८५ णितियं-धुवं, सासतं। निशी० १४२। णिच्चणिमंतं। णिद्धो-स्निग्धः स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुत्कटः। जीवा.
निशी. ९०आ। णितियादि-नित्यवासादि। ओघ०५६
णिधणं-निधनं पर्यवसानम्। प्रश्न. ५ णित्थक्क-अनवसरज्ञ अनरक्ता य ममाकाण्डे एव णिन्नामए-निश्चयेन नामयेत निर्नामयेत-अपनयेत। त्यागा दित्यर्द्धम्। जता० १६७)
सूत्र. २३७। णित्थरहल्लेज्ज-फोडणं। निशी०५७ अ।
णिपुरो-नन्दीवृक्षः। आचा० ३४८१ णित्थरिउं- पारं प्राप्तम्। महाप०|
णिप्पंका-कलकविकला कईमरहिता वा। जम्बू. २१| णित्थरिहिह-ज्ञाता० २४०
णिप्पंको-निष्पड़कः-आर्द्रमलरहितः अकलड़को वा। औप. णित्थारणा निस्तारणा-तत्पारप्रापणा। जम्बू. २३७ | ११५१
اوا}
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[18]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #19
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासा
निर्ग्रन्थः। भग० ८९० अभिंतरबाहिरगंथणिग्गतो। निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासा-असत्पौरुष्यादिनियमा उत्त० २७७१ अविदयमानाष्टम्यादिपर्वोपवासाश्चे-त्यर्थः। जम्ब० णियंसेइ-नियस्ते-परिधत्ते। जीवा. २५३। १७१|
णियइयाओ-नैयतिवयः-नियता न तु त्रिप्रभृतय इति णिप्पडिकम्मया-प्रशस्तयोगसङ्ग्रहायैव
पञ्चैवेत्यर्थः। भग० ४४१ निष्प्रतिकर्मशरीरता सेवनीया, योगसङ्ग्रहे षष्ठो योगः। | णियए-नियतः एकस्वरूपत्वात्। भग० ११९। आव०६६३।
णियगो-निजकः। उत्त०२२६। निजकः-गोत्रीयः। औप. णिप्पिवासो- निर्गतः पिपासाया वध्य प्रति स्नेहरूपाया ८९| इति निष्पिपासः। प्रश्न. ५
णियच्छति-नियच्छति निश्चयेन यच्छति-अवतरतिणिक्कडइ-निःसरति। दशवै०६११
युज्यते। सूत्र० ३५। गच्छति-प्राप्नोति। बृह० ७९ आ। णिप्फाव-औषधिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। निष्पावाः-वल्लाः। । णियट्टिबायरो-क्षपकश्रेण्यन्तर्गतः क्षीणदर्शनसप्तको
जम्बु. १२४॥ वल्ला। निशी. १४४ आ। निशी. १२० अ। जीवाग्रामो निवृत्तिबादरः, भूताग्रामस्याष्टमं णिप्फिडति-निस्सरति। आव० ९६।
गुणस्थानम्। आव० ६५० णिप्फिडिओ-निष्काशितः। आव०४२६
णियडि-निकृतिः-बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणेन णिप्फिडिता-निर्गता। आव० ३४०
दम्भप्रधानव-णिक्श्नोत्रीयसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थं णिप्फिडिया-निर्गता। दशवै० ९८१
गलकतकानामिवाव स्थानम्। सूत्र० ३२९। परस्य णिप्फेडओ-निस्फेटः स्थानं स्वातन्त्र्यं वा। आव० ५१५ व्यञ्जकत्वेन अधि कायक्रिया णियडी। निशी० २८९ णिप्फेडियं- निष्कासितं भूमौ पातितम्। आव० ३६९। आ। णिप्फेडो-निर्गमः। आव० ३५५
णियमपगंप-नियमप्रकम्पः-कायोत्सर्गः। 5. १३०आ। णिब्बंधो-निर्बन्धः। आव. ५६५
णियमसा-नियमेन-अवश्यभावेन। उत्त०६५१, ५३५, णिब्बुडो-निमग्नः। आव० १८२ णिब्भरा-मत्ता। निशी० २२आ।
णियमसो-नियमशः-नियमात्। उत्त०७६) णिमग्गजला-निमग्नं जलं यस्यां सा निमग्नजला। णियमारक्खिओ-सव्वपगईओ जो रक्खति सो णियमारजम्बू० २३०
क्खिओ। निशी. १९५अ। णिमित्त-निमितं-अङ्गस्फूरितादि। प्रश्न. ४० निमित्तं | णियमो-निगमः-वणिग्जनप्रधानस्थानम्। प्रश्न०६९। अनागतार्थपरिज्ञानहेतर्ग्रन्थः। ओघ०१४|
नियमः-पिण्डविशुद्ध्यादिउत्तरगुणः। णिमित्तिं-नैमित्तिकः। आव. ५६०
द्रव्याद्यभिग्रहः। प्रश्न. १३२। अवश्यम्भावी। प्रश्न णिम्मंसा-निर्मांसा। ज्ञाता० ३३॥ णिम्मला-निर्मला-आगन्तुकमलरहिता। जम्बू. २१| णिययवित्ती-नियतवृत्तिः। व्यव० ३९१ अ।
फुल्ला। निशी० १०३आ। अमिला। निशी० २५५ अ। | णियया-सदैव स्वस्वरूपा। व्यव० २७। णिम्मलो-निर्मलः-कठिनमलरहितः। औप० ११५ णियाग-णियगः-स्वजनः। निशी. १४०आ। नियागःणिम्माया-निष्णाता-निपुणा। आव० ६७४।
मोक्षमार्गः सत्संयमो वा। सूत्र. २६६। संयमो विमोक्षो णिम्मिय-न्यस्तः। ज्ञाता०१४|
वा। सूत्र० ३०२। णिम्मेरा-निर्मर्यादाः-अविदयमानकलादिमर्यादाः। जम्ब० | णियाणमरणे- ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं तत्पूर्वक १७१।
मरणं निदानमरणम्। स्था० ९३। णिम्मोअणं-संठवणं। निशी० १२३ अ।
णियोग-नियोगः-आज्ञा जम्बू. १६९। णियंठ-निर्गतो ग्रन्थात्-मोहनीयकर्माख्यादिति। णिरंगणो- निरञ्जनः-कौशाम्ब्यां राजमल्लः। उत्त.
५४४
१३३
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[19]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१९३।
| णिरुवहत-ण अजणखजणोवलित्तं ण वा णिरंतरता-निरन्तरभूमिस्पर्शिता। बृह. २२३ आ। अग्गिविदड्ढं मूसगखइयं वा। निशी. १३८ आ। णिरई-निरति देवानन्दाया नामान्तरम्। जम्बू०४९२।। णिरुवहय-निरुपहतः-स्फोटादिदोषविरहतः। ज्ञाता०६७। णिरक्किय-निराकृता-अपास्ता। उत्त० ३१९।
णिलुक्क-निल्लुकः-अन्तर्हितः। ज्ञाता० १५३| णिरणुग्गहकसिणं- छम्मासिए पट्ठविए पंचमासा चउवीसं | णिलुक्का-निलीनाः। आव. ९० च दिवसा वूढा, ताहे अण्णं छम्मासियं आवणो ताहे तं । | णिल्लेव-निर्लेपःवहति पुविल्लिस्स छद्दिणा जो सो। निशी० १३५आ। अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापणिरति-निसृजति। बृह. १४४ आ।
हारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत्। जम्बू. ९६। णिरभिग्गहो-दंसणसावगो। निशी० १२० ।
णिल्लेवगो-रजकः। आव. ५६२। रयगो। निशी. १२६) णिरयपडिरूविया-निरयप्रतिरूपिका नरकसदृशी। ज्ञाता० | णिल्लेवणं-णिग्गंध। निशी० २२२ अ। દરા.
णिल्लेवेति-धोवति। निशी० २११ । णिरयविभत्ति-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चममध्ययनम्। णिवज्जंति-निष्पदयन्ते। मरण। उत्त०६१४
णिवज्जे-स्वपिति। ओघ० ८४॥ णिरवच्चो-निरपत्यः-शिष्यगणरहितः। आव. २४० णिवण्णेति-अवलोकयति-पश्यति। आव०६८८ णिरवलावे-निरपलापः-आचार्यस्यापरिश्रावित्वम्। प्रश्न | णिवन्ना-निवन्नाः-स्प्ताः। ज्ञाता० १२६। १४६|
णिवाणतडं-निपानतटम्। दशवै. ९४१ णिरवेक्खो-निरपेक्षः। आव० ८२०
णिवाय-निपातः-पतनम्। ज्ञाता० २६) णिरालए-निरालयः-वसतिप्रतिबन्धवन्ध्यः , यथोचितं णिवायगंभीरा-निवाता-वायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं सत-तविहारित्वात्। जं०प०१४९।
निवातं प्रायो न भवति तत आह निवातगम्भीरा, णिरालोआ-निरालोकाः-निरस्तप्रकाशा
निवाता सती गम्भीरा निवातगम्भीरा, निवाता सती निरस्तदृष्टिप्रसरा वा। जम्बू. १६७।
विशाला इत्यर्थः। राज० ५८१ णिभिऊण-निरुध्य। महाप०
णिवारणं- नितरां वार्यते-निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति णिरुच्चारो- निरुच्चारः-निरुद्धप्रीषोत्सर्गः,
निवारणं सौधादि। वस्त्रादि वा। उत्त०८८1 अविद्यमानस-ञ्चरणः नष्टवचनोच्चारणो वा। प्रश्न | णिवारितो-निवारयन्तम्। उत्त० ३०५। १७। प्राकारस्योर्ध्वं जनप्रवेशनिर्गमवर्जितः। उच्चारः- | णिविज्जए- शेते। उत्त० ५५११ परीषं तदविसगार्थं यज्ज-नानां बहिर्निगमनं तदपि सः।। णिविज्जणं-निर्विजनम्। आव. ५०६) ज्ञाता० १४९।
णिविट्टो-परिणीओ। निशी. १४५अ। णिरुद्धपरियागो-जस्स तिण्णि वरिसाणि परियायस्स णिविण्णो-निर्विर्णः-निविष्टः। उत्त. २२४। संप-प्रणाणि| निशी० ८४ अ।
णिवज्झमाणि-अश्वादीनां नीयमाना। आचा० ४१३। णिरुद्धा-निरुद्धा। आव० ३४५। निरुद्धा-मूर्छिता निरुद्ध- णिवढित्ता-निर्वेष्ट्य-हापयित्वा। सूर्य. १२ चेष्टा। उत्त० १६०
णिवुड्ढेमाणे-निर्वेष्टयन्-हापयन्। सूर्य. १२, ३८१ णिरुवकिट्ठ-निरुपक्लिष्टः-व्याधिना प्राक् साम्प्रतं वाs- णिवेएति-समर्पयति। निशी० ३३२ अ। नभिभूतः। जम्बू.९०
णिवेदनं-आख्यानम्। निशी० ७३ आ। णिरुवद्दवा-निरुपद्रवा-अविदयमानराजादिकतोपद्रवा। णिवेदे-निवेदयित्वा। ओघ. १७५ औप.श
णिवेसण-महाघरस्स परिवाघरा णिवेसणं। निशी. १८७ णिरुवमा-णिग्गया उवमा जत्थ दृष्टान्ताभावः। निशी. अ। आसमंतावसा समादि सत्थट्ठाणं। निशी० २२९ अ। १४६ आ।
| निशी० १२७ आ। गृहम्। निशी० ७३ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[20]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #21
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________________
[Type text]
णिव्वक्खा णिल्लज्जा निशी० १७ अ
णिव्वण निर्वणः छिद्रयन्ध्यादिदोषरहितः जम्बू० २४११ णिव्वत्तणाहिकरणिया यच्चादितस्तयोर्निर्वर्तनं सा निर्वर्त्तनाधिकरणिकी। स्था० ४९%
णिव्वया - निर्व्रताः महाव्रताणुव्रतविकलाः । जम्बू० १७१ । णिव्ववितियं उपहवेऊण निशी. ६० अ
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
णिव्वहणा - निर्वहणा-वधूवरम् । बृह० २४आ। णिव्वहति- विफलीभवति। निशी० ८अ । णिव्वाघाइमं- णिरुअस्स-अखुतदेहस्स णिव्वाघाइमं । निशी० ५३अ निर्व्याघातिमं व्याघातिमान्निर्गतं स्वाभाविकम्। सूर्य० ३६६ |
णिव्वाण- घनघातिकर्मतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः ।
सूत्र० ९९८ । सम० १५४ |
णिव्वाय निर्वातः- निर्व्याघातः । ज्ञाता० ४१॥ णिव्वाव- निर्वापकथा-दशपञ्चरूप्यका इयञ्च व्यञ्जनभेदादिरिति प्रशंसनं द्वेषणं वा । भक्तकथाया द्वितीयो भेदः । आव० ५८१| निशी० ३३ आ । णिव्वावकहा पक्वापक्वान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति
निर्वापकथा। स्था० २०९ | निव्विनं निर्व्विष्टं ससेवम्। दशवे. १८१ णिव्विट्ठकप्पट्ठिती- निर्व्विष्टा आसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितिर्यथा प्रतिदिनमायाममात्रं तपो भिक्षा तथैवेति स्था० १६७ णिव्विण्णकामभोगो - निर्विण्णकामभोगः । आव० ५१२ | निव्विण्णो निर्विण्णः आव० ३४३५
निव्विन्नवरा निर्विण्णा वराः परिणेतारो यस्याः सा निर्विण्ण वराः। जाता० २५०१ णिव्वियतिए निर्विकृतिकः-निर्गतघृतादिविकृतिकः ॥
औप० ४०%
निव्विसओ- निर्विषयः आव• ५२
निव्विसताणि निर्विषयीकृतौ आक ३५१| णिव्विसति - प्रविशति । निशी० २९४ आ । णिव्विसमाणो पच्छित्तं वहतो निशी० १३९ अ णिव्विस्सो अमंसमक्खी निशी. १४० अ णिव्वूs - निर्वृतिहेतुत्वात् । निर्वृत्तिः क्षीणमोहावस्थेति । सूत्र १९७ निर्वृत्तिः- निर्वाणं सकलकर्ममलापगमनेन स्वस्वरुपलोभतः परमं स्वास्थ्यं तद्धेतुः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[21]
[Type text]
सम्यग्दर्शनादद्यपि कारणे कार्योपचारात् निर्वृत्तिः ।
प्रज्ञा० ४ |
णिव्वुड्ढी निर्वृद्धि वृद्धेरभावः । जम्बू- ४३७| णिव्वुती- निर्वृतिः- मथुरायां पर्वतराज्ञाः सुता । आव•
३४४ |
णिव्वुतो - निर्वृतः मुक्तिपद्वीमधिरुढः । बृह० २३१अ णिव्वुया - निर्वृता स्वस्थीभूतेन्द्रिया। बृह० २१७ अ णिव्वेढेड़- निर्वेष्टयति-मुञ्चति । सूर्य- ४९। निव्वेडेडं उत्तरं दातुम् आक ७०६। णिसंतं निशान्तं अवधारितम् । सूत्र- १४४१ णिसंत- णिरय नि०यू २०८ आ ।
णिसंते- नितरां अतिशयेन शान्तः- उपशमवान्, अन्तः क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निः शान्तः । उत्त० ४६ |
णिसंतपडिणिसंत- निशान्तप्रतिनिशान्ते- अत्यन्तं भ्रमणाद्वि-रते निशान्तेषु वा गृहेषु प्रतिनिशान्तेविश्रान्ते - निलीने अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थः । ज्ञाता० ९८
णिसग्ग- पारिड्डावणियासमिती निशी० ३१ अ णिसज्जण जंघा निशी. १५५ आ णिसज्जा- निषधा-समपुतोपवेशनादिका प्रश्न. १०७। सिट्ठे- दत्तं । निशी० २४६ आ, २९१ अ । जं णिदेज्जं दिण्णं तं णिस निशी० १०५आ।
णिसङ्कतेण अक्कंतिया वेला अवहरति । निशी. १६| णिसट्ठा - खरा । निशी० २४५ आ । निसृष्टा निर्लज्जा । बृह
१७९आ।
णिसढे- निषधः वृषभः । जम्बू० ३०८ | यादवविशेषः । ज्ञाता० २०३ | निषधः वर्षधरपर्वतः । जम्बू• ३०८१ णिसण्णो- निषण्णः- उपविष्टः ओघ २ णिसम्म - निशम्य - हृदये परिणमय्य । जीवा० २४३ | णिसह - निषध:-: ः-उत्तरकुरौ प्रथमद्रहनाम। जम्बू० ३५५, ३०४५ नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो-वृषभः, तत्संधानसंस्थितानिवृषभसंस्थितानि निषधाश्चत्र देवाधिपत्यं परिपालयति, तेन निषधाकारकूट-योगान्निषधदेवयोगाद्वा निषधः । जम्बू. ३१०१ णिसहकुडे- निषधकूटं-नन्दनवनकूटनाम जम्बू० ३६७
* आगम- सागर - कोष : " [३]
Page #22
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निषधवर्षधराधिपवासकूटम्। जम्बू. ३०८।
विहिंसन मनागपि न शकते, निशंतो वा परप्रशंसा णिसा-निशेव नित्यान्धकारत्वात् निशा-नर्कभूमिः। सूत्र | रहितः। उत्त०६५६। ४०१
णिस्सरणं- प्रस्खलम्। बृह. १५८ आ। णिसाओ-निषादः-ब्राह्मणेन शूद्रयां जातिः। उत्त० १८२ णिस्सरणणंदी-निःसरणेन-गच्छादेर्निर्गमेन नन्दति यो णिसाते-निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः। स्था० नन्दिा यस्य सः। स्था० २१७ ३९३
णिस्साकरउ-जो किंचि अववादपदं लभिता मुसलं णिसामिअ-निशम्य-आकर्ण्य
पक्खिवइ। निशी. १४९ अ। तत्राक्षिप्तचित्ततयेतिभावः। उत्त०४३४।
णिस्साणं-आलंबणं। निशी० १०२ आ। णिसासमणो-निःश्वसन्तीव अधोगमनसाधर्म्यात् णिस्सारो-निस्सारः। आव० ३५३। तदगतज-ननिःश्वाससाधादवा निःश्वसन्ती। ज्ञाता० | णिस्सासनिरंभण- निःश्वासं निरुणद्धि-नासिकां दृढं १५८
गण्हाति निःश्वासनिरोधार्थम्। ओघ० ८४१ णिसिटुं- निषेधनं-निषेधम्। बृह. २२३ आ। निसृष्टम्। णिस्सीला- निश्शीलाः-गताचाराः। जम्बू. १७१ आव० ३६७। अनुज्ञातम्। पिण्ड० ११३।
णिस्सेस-निःश्रेयसो-मोक्षः। उत्त० ३०५ निःश्रेयसःणिसिरणा-परिट्ठावणिया। निशी० ८७ आ।
निश्चितकल्याणः। राज०१०२ णिसिरामो-प्रयच्छामः। आचा० ३५०|
णिहए-निहतः-अपहतसर्वसमृद्धिः। जम्बू. २७७। णिसिरिय-निसृज्ज-पातयित्वा। सूत्र० ३१४|
णिहह-निहत्य-निवेश्य। जम्बू. १८७। णिसीयणं-उवविसणं| निशी०६०।
णिहणाहि-निजहि। आव० ३९६| णिसीयति-निषीदति-उपविशति। जीवा. २०११ णिहणिऊण-निहत्य। दशवै. ५९| णिसीयव्वं-निषीदितव्यं-उपवेष्टव्यं
णिहया-णिक्खाया। निशी० ७२ आ। संदंशकभूमिप्रमार्जनादि-न्यायेनेत्यर्थः। ज्ञाता०६१। णिहरति-निर्हरति-अपनयति उद्धरति। सूत्र० ३१३| णिसीहं-अप्रकाशम्। निशी. २३ अ, १८७ अ।
णिहा- कोहमाणादि। दशवै० ३३आ। णिसीहादि- छेदसुत्तं। निशी० ३० आ।
णिहाणपउत्तं-निधानप्रयुक्तम्। आव० ३५७। णिसीहिया-समणट्ठाण णिमित्तं णिसीहिया। निशी. णिहाय-निधाय-परित्यज्य। सूत्र. २४०, ४१०
२२३ । नैषेधिकी-निषीदनस्थानम्। जीवा. २०५। णिहालेयव्वं-निभालयितव्यः। उत्त०५१। निषदनस्थानम्। जम्बू०५१।
णिहिअ-निहितः-उप्तः। जम्बू. २४३। णिसुदंते-आद्रीभवत्स्। निशी. २४५आ।
णिहिणि-निहितम्। उत्त० २२१। णिसेगो-शुक्रपद्गलाहरणलक्षण ओजः। बृह. १०४ ।। णिहितं-पक्खितं। निशी० ८२आ। णिसेज्जणा-पुत्ता। निशी० २४७ अ।
णिहिरण्णो-निर्हिरण्यः-असारः। ओघ. १८८1 णिसेज्जा-निषद्या। आव० २२७। निषद्या स्त्रीभिः-कृता | णिहुए- निभृतः-अनुयुक्तः। सूत्र०१७३। माया, स्त्रीव सती वा। सूत्र. ११० निषदया-प्रणिपत्य | णिहुओ- प्रशान्तवृत्तिः। औप० ४८१ पृच्छा (गौतमस्य तिसुः अनियताः शोषाणां। आव०) णिहुय-उपशान्तः। प्रश्न० ४३। एगाए निसज्जाए एक्कारस अंगा चोद्दसहिं। | णिहुया-करचरणिदिएसु जे सत्था अच्छंति ते णिह्या। चोद्दसपूव्वाणि नं०)
निशी. ९। णिस्संचार-द्वारापद्वारैः जनप्रवेशनिर्गमवर्जितः। जिहे-निहा-माया। सूत्र. १७३। ज्ञाता०१४९।
णिहोडणा-निवारणम्। व्यव. २४३। णिस्संसो-नृशंसाः-निःशूकः, निष्क्रान्तो वा शंसायाः णीअवारं-नीचदवारं-नीचनिर्गमप्रवेशः। दशवै. १६७। श्लाघाया इति। प्रश्न. ५ नृशंसः-निस्तूंशो जीवान्। णीइ-निर्गच्छति। ओघ. १५९। निरेति-निर्गच्छति।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[22]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #23
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१५९
आव० ११२। निस्सरति। आव० १०२
७९ णीइआ- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२
णीवातय-वनस्पतिविशेषः। भग०८०३ णीणवेति-प्रापयन्ति। बृह. १४२ आ।
णीवट्टमाणो- निवर्तमानः। उत्त० १३९। णीणाविता-आनायिता। आव० ३५७।
णीवारे- निवारः-सूकरादीनां पशूनां णीणावितो-निष्काशितः-दापितः। उत्त० १६८ निष्का- वध्यस्थानप्रवेशनभूतो-भक्ष्यविशेषः। सूत्र० २५८॥ शितः। आव० ३१८
निवारः-भक्ष्यविशेषः। सूत्र. ११४| णीणाविय-अपनायितः। आव०४३४।
णोसंक- निशकं-अविदयमानसन्देहम्। भग. ५४ णीणिओ-नीतः। आव. २०४१
णीसह-निसृष्ट-प्रकामम्। बृह. १२९ आ। निसृष्टः-नारणीणितो-णिव्वूढो-घाडितेत्यर्थः। निशी. ३१ आ। केर्विमुक्त आत्यन्तिको वा। प्रश्न. २०| णीणियं-निष्काशितम्। आव०४०९। आनीतम्। उत्त. णीसन्दं-निष्पन्दः। प्रज्ञा०६।
णीसरइ-निःसरति। दशवै०६१ णीणिया- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषाः। प्रज्ञा० ४२॥ णीसवमाणो-निश्रवयन्-यस्मात्सामायिकं प्रतिपद्यते णीणेइ-निष्काशयति। उत्त० ४५५।
तदावरण कर्मनिर्जयन्। आव० ३४० णीणेऊण- निष्काश्य। उत्त. १९८१
णीसहो-निस्सहः। उत्त. १९३। णीणेति-निष्काशयति। आव० २९७१
णीहट्ट-निःसार्य। आचा० ४०१। णीणेतुं-निर्गमितुम्। आव० ३४८१
णीहारि-निर्हारि-प्रबलो गन्धप्रसरः व्यापि वा। आव. णीणेहि-व्यपनय। आव० २२६।
२३१| णीता-नेत्रा-स्वस्थानं प्रापिता। ज्ञाता० २२१।
णीहारिम-निहारिमा-दूरदेशगामिनी। औप० ८। णीति-णिग्गच्छति। निशी० ३४ आ।
यद्वसतेरेक-देशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात्णीती-नीतिः निर्गमप्रवेशरूपा। आव० ३४६।
निस्सारणान्निर्हा-रिमम्। स्था० ९४१ णीध-निर्गच्छत। आव. १९११
यत्पादपोपगमनमाश्रयस्यैकदेशे विधी-यते णीमे-नीपः, वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२
तन्निर्हारिमम्। भग०६२५१ णीरए-नीरजाः निर्गतरजः
णीहारी-नीहारी-अतिक्रामी। औप०७८। कल्पसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत्। णीहि-निर्गच्छ। आव. ३९४१ जम्बू० ९६
णीह-अनन्तकायभेदः। भग० ३००, ८०४। णील-नीलः, मरकतमणिः। जम्बू. ११३।
णीय- कन्दविशेषः। उत्त०६९१। णीलवंतहहे- उत्तरकुरुषु नीलवद्व्हो नाम द्रहः। जम्बू. णीहया- निर्व्यापारा। व्यव० २५४। ३२९।
णुज्झ-नुद्य-सौंदर्यम्। व्यव० १७३ अ। णीलवंते- नीलवान् दिग्हस्तिकूटं द्वितीयः। जम्बू. ३६०। | णुवन्नो- अनुपन्नस्त्वग्वर्तितः। बृह० २३७ आ। जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवन्नाम्ना द्वितीयः
णुवोहेज्जा-उपळहयेत्-परिणामवृद्धि कुर्यात्। दशवै० ४८१ वर्षधरपर्वतः। जम्बू० २७७।
णूणं- नूनं एवमर्थे। भग० १४। नूनंणीली- गच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२
उपमानावधारणतर्कप्रश्न-हेतुषु। प्रज्ञा० २४६। णीलीगुलिया-नीलीगुलिका-नीलीगुटिका। जम्बू. ३३। निश्चितम्। ज्ञाता०६६। णीलीभेए-नीलीभेदो-नीलीच्छेदः। जम्बू. ३३ | णूमं-दवियं, भिन्नं। निशी० ७० आ। माया। सूत्र० ३४॥ णीले-अष्टाशीतौ महाग्रहे पञ्चविंशतितमः। स्था० ७९। गहनं, मायेति। सूत्र. ५२। प्रच्छन्नं गिरिगहादिकम्। नीलवत्कुट-नीलवद्वक्षस्काराधिपकूटम्। जम्बू. ३७७ सूत्र० ८९,३०७। न्यवमम्। सम०७१। सूत्र० ३०७। णीलोभासे-अष्टाशीतौ महाग्रहे पञ्चविंशतितमः। स्था० | णमए-आच्छादयेत्। बृह. १७७ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[23]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #24
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
णूमगिह-भूमिघरं। निशी० ६९ आ।
णेमिपासेसु-नेमिपार्श्वेषु। जम्बू० २०९। णूमियं- गोपितम्। उत्त० ११५
णेमी-नेमिः-कृतिकर्मदृष्टान्ते भगवान्। आव० ५१५१ णूमेति-नूमन्ति-गोपयन्ति। ज्ञाता० २२७।
नेमिः-धारा। जम्बू० २०४। णूमेस्सति-स्थापयिष्यति। निशी. १५४ अ।
णेम्म-निभ-सदृशम्। प्रश्न. १३४। विज्जादिएहिं णेति-निर्गच्छन्ति। आव०६३२१
रुक्खादी णमिज्जंतीति णेम्मं वर्ल्ड सिक्खा विज्जंतस्स णे-आत्मनिर्देशः। निशी० ३३०| अस्माकम्। बृह० ८८१ | अंगाणि णमि-ज्जति। निशी० ७१ । नो-अस्माकम्। सूत्र० ११३। नः। भग० १००
णेयगहणत्तणं- ज्ञायते इति ज्ञेयं-धर्मास्तिकायादि णेउणिअ-नैपुण्यं-आलेख्यादिकला लक्षणम्। दशवै. तगहनत्वं गह्वरत्वं ज्ञेयगहनत्वम्। आव०५९७। २४९।
णेयव्वं-नेतव्यं-संवेदनविषयतां प्रापणीयं प्रापयितव्यम्। णेउणियवत्थु-निपुणं वस्तु-अनुप्रवादपूर्वे
उत्त० ८। नेतव्यं-स्मृतिपथं प्रापणीयः। जम्बू. २७। आलापकविशेषः। उत्त. १६३।
णेयाउय-न्यायेन चरति-प्रवर्तत इति नैयायिकःणेउरं- नुपुरं-पादभूषणम्। आव० ३४९।
न्यायोपपन्नः। उत्त. १८५। निश्चित आयो-लाभो णेउरपंडिया- नुपुरपण्डिता। उत्त० ४९६|
न्यायः-मुक्तिरित्यर्थः स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः। णेउरा-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४१|
उत्त० २१३ णेक्कंतितो-व्यतिक्रमः| निशी. २०२ अ।
णेवत्थं-नेपथ्यं-देशनेपथ्यंणेक्कारो-जुगुच्छितो, कोलिगजातिभेदो णेक्कारो। स्त्रीपुरुषाणामाभूषणसम्बन्धीवि-चारः। निशी० ४३ आ।
देशकथायाश्चतुर्थो भेदः। आव० ५८१। णेगम-वणियवग्गो जत्थ वसति तं णेगमं| निशी७० । णेवत्थकहा-तासामेव अन्यतमायाः आ। निगमेषु वा भवो नैगमः, निगमाः
कच्छाबन्धादिनेपथ्यस्य यत्प्रशंसादि नेपथ्यकथा। पदार्थपरिच्छेदाः। आव. २८३। न एकं नैकं-प्रभूतानि, स्था० २०९। नैकैर्मानैः-महासत्ता-सामान्यविशेषज्ञानैर्मिमीते णेवालं-नेपालं-देशविदेषः। उत्त. १०६। मिनोतीति वा नैकमः। आव. २८३। नैकेन
णेसज्जिते-नैषयिकः-समपदप्तादिनिषद्योपवेशी। सामान्यविशेषग्राहकत्वात् तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति- | स्था० ३९७९
तीति नैकमः, अथवा निगमाः-निश्चिता- सत्थिएस-सालिमादियं पोतिएस्। निशी० ३२७ आ। र्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अथवा नैको गमः- | णेसप्प-निधौ नैसर्पनामनि। जम्ब० १५८ नैसर्पः-नवअर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः। स्था० १५२। निधौ प्रथमः। स्था०४४८१ नैगमः। प्रज्ञा० २८४। नयविशेषः। प्रज्ञा० ३२७
णेहावगाढ-स्नेहावगाढं-स्नेहव्याप्तम्। ज्ञाता० १९९। णेगामोसा-न एके आमर्शाः अनेकामर्शाः, अनेकस्पर्शाः। | हिं-तैः-एतैः। उत्त० ३५६। तैः। आव० ११६| ओघ० ११०
णोइंदियओ-मणो। निशी० ८५आ। णेड्डं-नीडम्। आव० १८९। गृहम्। आव० ३९५) णोमालिआगुम्मा-नवमालिकागुल्माः। जम्बू. ९८१ णेति-उत्पादयति, करेति। निशी० २०५आ।
णोमालिय- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२ णेत्तं-नेत्रम्। सूत्र० ३१२
णोल्लिय-नोदिता-स्वदेशगमनवैमख्येन णेदूर-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५
यमपुरीगमनाभिमु-खीकृता। ज्ञाता० १६८1 णेमा-भमेरूज़ निष्क्रामन्तः प्रदेशाः। जम्ब० ४शणेमा | णोसअ-नोश्रुतं प्रत्याख्यानम्। आव० ४७९। नाम भूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः। जम्बू० २३) । | ण्हं-निपातः पूरणार्थो वर्तते। आव० १६७। वाक्यालङ्कारे णेमी- बाह्यपरिधिः। जम्बू. ३७। नेमिः-बाह्यपरिधिः। अवधारणे वा। सूत्र. ४१० प्रश्न. २०| जीवा० १९२
| ण्हवणं-स्नपनं-सौभाग्यपुत्राद्यर्थं वध्वादेर्मज्जनम्।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[24]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #25
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३५१
प्रश्न. ३९
तंत-तन्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति तन्त्रम्। ण्हाण-स्ननम्। आव० ४१, ८३१। रथयात्रा स्नानं वा। आव० ८६। तन्त्र-तुरीवेमादिः। भग० २५४। तान्तः-कायेन
बृह. १८७ अ। अर्हत्प्रतिमास्नपनम्। बृह. ६१ आ। खेदवान्। ज्ञाता० १३९। तान्तः-तरकाण्डकाङ्क्षावान्। ण्हाणगोल्लो-स्नानीयाः। उत्त. २१९।
ज्ञाता०२२७। तान्ता-मनःखेदेन। विपा०४१। ण्हाणपीढं-स्नानपीठम्। आव० ३५६। ओवारा, कामजलं। | तंतमस्सति-आक्रन्दति। दशवै. १११ निशी० ८३ आ। स्नानपीढं-स्नानयोग्यं आसनम्। तंतयं-तन्त्रं-वेमविलेखन्याञ्छनिकादि, तस्माज्जातं जम्बू. १८९
तन्त्रजं, उभयत्र वस्त्रं कम्बलो वा। उत्त. १२२ ण्हाणमल्लिआ-स्नानयोग्या मल्लिकाविशेषः। जम्बू० | तंतवा-चतुरिन्दियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ प्रज्ञा०४२
तंतिसमं-नट्टभेओ। निशी. १ । तन्त्रीसम-वीणाण्हाणाई-स्नानादि। ओघ. १५१।
दितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च। स्था० ३९४। ण्हाणि-स्नापय। णिण्ड ० १२४॥
तंती-तन्त्री वीणा। जम्बू०६१। सूर्य० २६७ प्रज्ञा० ८९। ण्हाणिओ-स्नपितः। आव. २५८१
जीवा. २१७। तन्त्री-वीणाविशेषः। प्रश्न. १५९। ण्हाणोवदाइ-स्नानोदकदायिका। ज्ञाता० ११७ तंतु-तन्यते भवोऽनेनेति तन्तुः-भवतृष्णा। उत्त० ५०५ ण्हारु-स्नायवः शरीरान्तर्वर्धाः। ज्ञाता० २२२। भग० ४६९। | तंतुअं- तन्तुकम्। आव० ३५५।
स्नायूनि। सम० १५० स्नाय्-शेषशिरा। जीवा० ३४। | तंतुग्गयं-तूरिवेमादेरुतीर्णमात्रम्। भग० ३७६। ण्हारुणि-स्नायुः। प्रश्न० ८ स्नायवः-शरीरान्तर्वर्धाः। तंतुवाए- तन्तुवायः। अनुयो० १४९। जम्बू० २०१।
तंतुवाय-पटकारकः। प्रश्न. ३०| तन्तुवायःपहाविई-नापिती। आव० ३९६|
शाटिकाकारः। आव०४२११ पहाविओ-नापितः-क्षौरकारः। आव० ४२६।
तंतुवायसाला- कुविन्दशाला। भग० ६६३। हाविता-कम्म—गिताविसेसो। निशी० ४३ आ। तंतुवाया- तन्तुवायाः-कुविन्दाः। प्रज्ञा० ५६। पहाविय-नापितः-। आव० २२४। नापितः-मण्डनकारः। | तंतू-सूत्राष्टिका। बृह. ९आ। दशवै. १०५ निशी. ९आ।
तंदुल- तन्दुलं-औषधिः। आव० १३१। तन्दुला-निस्त्वपहावियसालिग-नापितशाला। आव० ३९०
चितकाणाः। जम्बू. १०४५ ण्डया-स्नुषा-वधूः। दशवै. ९७
तंदुलकणिया- तन्दुलकणिका। आव० ८५५। ण्हे-अनयोः। उत्त० ३९४।
तंदुलपलम्ब-भुग्नशाल्यादितन्दुलानिति। आचा० ३५७। ण्होरगं-निहोरकम्। बृह. १२ अ।
तंदुलमच्छा-तन्दुलमत्स्यः मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६। -x-x-x-x
जलचरविशेषः। जीवा. १२९। प्रज्ञा०४४।
तंदलीयकं- हरितभेदः। आचा० ५७। हरितविशेषः। जीवा. त-तावत्। प्रज्ञा०७। तदा। आव० ३५८। तंगधं-तद्गन्धं तादृग्गन्धवत्। ओघ० २२३।
तंदलेज्जग-वनस्पतिविशेषः। भग०८०२ तंजहा- तद्यथा-वक्ष्यमाणभेदकथनप्रकाशनार्थः। प्रज्ञा०
तंदुलेज्जगतणे- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। ७। तदयथा-प्रतिज्ञातार्थोदाहरणम्। आचा. १३
तंदुलेयकं- हरितविशेषः। उत्त० ६९२ तदयथा। सम० १५० तदयथा-उपप्रदर्शनार्थः। आचा.
| तंदुलोदयं-तन्दुलोदकम्। आव० ६२०| १३०
तंब-ताम्र-शुभं(शूल्वं)। प्रश्न० १५२। ताम्र-पृथिवीभेदः। तंडवेति-ताण्डवयति ताण्डवरूपं नृत्यं करोति। जीवा.
आचा० २९। ताम्रा-रक्ताः । जम्बू० ११० ताम्रम्। प्रज्ञा. २४७
२७ तंडुल- यूपविशेषः। सूर्य. २९३
तंबकरोडयं- ताम्रकरोटकम्। प्रज्ञा० ३६०। तंडुलीयक- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३११
२६)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[25]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #26
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________________
[Type text]
तंबगाइ - चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ ॥ तंबागर- ताम्राकरः-यस्मिन्निरन्तरं महामूषास्वयोदलं प्रक्षिप्य ताम्रमुत्पाट्यते सः । जीवा० १२३ ॥
तंबायं तम्बाकं ग्रामः । आव० २०७ ।
तंबिता - ताम्रमयाः । निशी० ४३ आ ।
तंबिया - ताम्राः । आव० ३५६ ।
तंबे - ताम्रम् । प्रज्ञा० ३६० |
तंबोलिआ - नारुकाया नवमभेदः । जम्बू० १९३ तंबोली- ताम्बूली-नागवल्ली। जम्बू० ४६ । जीवा० २०० तंससण्ठाणपरिणया ज्यससंस्थानपरिणताः। प्रज्ञा० ११। तसे संस्थानविशेषः । भग० ८५८) यस संस्थानविशेषः । प्रज्ञा० २४२॥
तअ ततः विस्तीर्णः, विस्तृतनामकः । जम्बू० २१९ | तइओ - तृतीयः । बृह० २२५ अ तड़यकसाया तृतीयकषायाः अप्रत्याख्यानावरणः आव०
७८
तइया - सञ्जातत्वचः । ज्ञाता० ११९ |
तउअ - पृथिवीभेदः। आचा० २९|
तउयं त्रपुकं वङ्गम् प्रश्नः १५२। त्रपु प्रजा० २७ तउस प्रपुषः। दशवं. ६१| पुषम्। प्रज्ञा० ३७॥
-
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
तउणमिंजगा - त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । उत्त० ३९५ तउसमिंजिया - त्रपुषभिञ्जिका प्रीन्द्रियजन्तुविशेषः ।
जीवा० ३२
तउसी - वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ |
तओ - तकः । उत्त० ८६ । तदनन्तरं तको वा प्राणी । उत्तः १८२
तओसिमिजिया- प्रीन्द्रियजन्तुविशेषः प्रज्ञा० ४२१ तकारथकारदकारधकारनकारप्रविभक्ति नामा
अष्टादशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ | तकेत - परम्परतो। निशी० २१ आ ।
तक्क- तर्कः- विमर्शः । भग० ५९ । स्था० ४६६ । तर्कर्णं तर्को-विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्रायः शिरः कण्डूयनादयः पुरुषधर्म्मा । स्था० २१ | तक्रं-तक्राख्यम्। पिण्ड० १६८
तक्कणं तर्कणं प्रार्थनम्। बृह ३१२अ
तक्कर- तस्कराः सर्वदा चौर्यकारिणः । जम्बू० ६६ । चौरः ।
-
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[26]
[Type text]
ज्ञाता०८० | तदेविक्कं करोतीति तक्करो। निशी० ३८ आ तदेव कुर्वन्तीति तस्कराः सर्वकालं चौर्यकारिणः ।
उत्त० ३१२
तक्करधराणि तस्करगृहाणि तस्करनिवासान् शृङ्गाटकादीनि प्राग् व्याख्यातानिः । उत्त० ८१| तक्करट्ठाणाणि - तस्करस्थानानि -
शून्यदेवकुलागारादीनि । जाता० ८१|
तक्करत्तणं- तस्करत्वं-अधर्मद्वारस्य नवम नाम ।
प्रश्न० ४३ |
तक्करपओगे- तक्करप्रयोगः चौराणां हरणक्रिया प्रेरणम् आव०८२२
तक्कलि वलनाकारवृक्षविशेषः। भग. ८०३। तक्कलिमत्थए- तक्कली - कन्दली तन्मस्तकं
तन्मध्यवत्तीगर्भः । आचा• ३४९
तक्कली- वलयविशेषः । आचा० ५७ प्रज्ञा० ३३ | कन्दली ।
आचा० ३४९ |
तक्कसेणे- अतीतायां उत्सर्पिण्यां पञ्चमः कुलकरः । स्था० ५१८|
तक्का - तर्का स्वकीयविकल्पना सूत्र० ३७॥ तर्कः एवमेव चायमर्थ उपपद्यते इत्यादिरूपा दशवं. १२५
तक्कारो - तदेव चौर्य करोतीत्येवंशीलः तस्करः प्रश्न०
४६|
तक्कि याञ्चा। बृह० १८० अ
तक्किया- तर्कयित्वा पर्यालोच्च । आचा० २३७ | तक्की उपजीवकः । बृह० २४९ अ
तक्कोयणं- तक्रोदनं तक्रसहितमोदनम् । ओघ० ४९ । तक्खणओलुग्ग- तत्क्षणमेव प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एव अवरुग्णं म्लानम्। भग० ४६७। तक्खलम्हासती - तत्स्थानवर्ती । निशी० २०८ अ तक्षः- रथः । उत्त• ४९३ सूत्रधारः अनुयो० २२३ तक्षकः - रथकारः । अनुयो० ४१३)
तगर- सुगन्धिद्रव्यम्। अनुयो० १५४
तगए- गन्धद्रव्यविशेषः । भग० ७१३ | प्रश्न० १६२ | ज्ञाता० २३२॥ गन्धद्रव्यम्। जीवा. १९१| जम्बू, उपा तगरसमुग्गयं तगरसमुद्गकम्। जीवा० २३४ | तगरा सुव्यवहारकाचार्यस्थानम् व्यव० २५७ अ नगरीविशेषः । उत्त० ९०, १००%
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"आगम- सागर- कोषः " [३]
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तगरायडं- तगरासमीपं नगरम् । अनुयो० १४९ | तग्गयं तद्गतं तत्संसूचकम्। जीवा० २६९॥
तच्चपि त्रिरपि । आव० २६१
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आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
तच्च तथ्यां-अविपरिता उत्त० ४७रा अवितथा उत्त [999] तत्त्वरूपः ऐदम्पर्यसमन्वितः । ज्ञाता० १७७ तच्चकम्म- तथ्यानि - सत्फलानि अव्यभिचारितया यानि कर्माणि क्रियास्तत् । उपा० ४०|
तच्चणिओ - तच्चनीकः बौद्धः । दशवै० ५४ | आव० ४११ | तच्चणिय- तच्चनीकः बौद्धः । दशवै० ४७ | तच्चणियसड्ढो- तच्चनीकश्राद्धः । आव० ७९९| तच्चण्णिओ- तच्चनीकः बौद्धः आव० ४१९ । तच्चनीकः बौद्धः आव• २९५ दशकै० ५३॥
तच्चनिक:- बौद्ध आव० ५६५९ तच्चन्नि - तच्चनीकः बौद्धः । औप० ७४ ॥ तच्चा- तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि । स्था० ४९१ । तच्चावातो- तत्त्ववादी- शतानीकराज्ञो धर्मपाठकः । आव ०
၃၃၃
तच्चावातेति तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि तेषां वादस्त-त्त्ववादः, तथ्यो वादः सत्यो वादस्तथ्यवादः ।
स्था० ४९१ |
तच्चासत्तराइंदिया- सप्तरात्रिन्दिवानि अहोरात्राणि यासु ताः सप्तरात्रिन्दिवास्ताश्च तिस्रो भवन्तीति । सम० २१| तच्चिण्णगा- चरगविसेसो । निशी० ३१ अ
तच्चित्ते तस्यामेव चित्तं भावमनः सामान्येन वा मनो यस्य स तच्चित्तः । विपा० ५३ |
तच्छण- तक्षणं क्षुरादिना त्वचस्तनूकरणम् । विपा० ४१ । त्वचः-क्षुरप्रादिना तनुकरणम्। ज्ञात० १८३। तच्छमान— तक्ष्णुवान्-तनूकुर्वन्। अनुयो० २२३। तच्छिओ- तक्षितः त्वगपनयनतः । उत्त० ४६१ । तजाए– तज्जातः सदृक् शब्दैः आचार्य प्रत्युत्तरदाता शिष्याः । आव ० ७२६|
तज्जइ— तर्जयति-अङ्गुलिशिरश्चालनेन तिरस्करोति ।
भग० १६६ |
तज्जण तर्जनं ज्ञास्यसि रे इत्यादि वचनम्, वचनविशेषः । प्रश्न० ५६ | परं प्रति ज्ञास्यसि रे! जाल्मेत्यादि भणनम्। औप. १०७।
तज्जणा - तर्जना-शिरोऽडगुल्यादिस्फोरणतो ज्ञास्यसित
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[27]
[Type text]
रे जाल्मेत्यादिभणनम्। औप० १०३ ॥ तर्जनाअसूयादिभिः । दशवै० २६७। ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादि भणनम्। अन्तः १८१ तर्जना तर्जनीचालनेन जास्यसि रे दुष्ट इत्यादि भणनरूपा । प्रन० १०९ । तज्जना तर्जना - अंगुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा । उत्तः
४६५|
तज्जमाणे- कृतावष्टम्भान् तर्जयन् ज्ञास्यथ रे यन्मम इदं च इदं च न दत्स्वेत्येव भेषयन् । विपा० ४०| तज्जा- तर्जी हस्तादिना चौर्य प्रति प्रेषणादि संज्ञाकरणम् । प्रश्न० ५८ |
तज्जाइणी - तज्जातीया त्वग्दोषा आव० ७१०| तज्जातं - वेच्चं । राज० ३७ | द्रव्यप्रकारः । स्था० २९८ | तज्जातदोसे- तस्य गुर्वादेर्जात-जातिः प्रकारो वा जन्ममर्म-कर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दुषणमितिकृत्वा दोषस्तज्जा-तदोषः, तथाविधकुलादिना दूषणमित्यर्थः अथवा तस्मात्प्रतिवादद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मखस्तम्भादिलक्षणो दोषस्तज्जातदोषः । स्था०
४९२
तज्जातपारिस्थापनिकी पारिस्थापनिक्याः प्रथमो भेदः आव० ६१९ |
तज्जातीयरूवं- तज्जातीयरूपम् । आव० ६७६ । तज्जायं तज्जातं तुल्यजातीयम् आव०६२रा तज्जायसंसकप्पिय यत्प्रकारं देयं द्रव्यं तज्ज्ञातेन तत्प्र-कारेण-द्रव्येण ये संसृष्टे हस्तभाजने ताभ्यां दीयमानं ग्राहयमित्येवंरूपः कल्पः समाचारो यस्य सः तज्जातसंसृष्टक-ल्पिकः । प्रश्न० १०६ । तज्जायसंसइचरए तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत् संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं यश्चरति स तज्जातसंसृष्टचरकः । औप- १९
तज्जओ - तर्जितः भर्त्सितोऽत्यन्तपीडित इति । उत्त
८९ ।
तज्जियं - तर्जितं यत् न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव इवेत्यादि तर्जयन् निर्भर्त्सयत् वन्दते, अंगुल्यादिभिर्वा तर्जयन्, कृति कर्मणि एकोनविंशतितमो दोषः । आव० ५४४ | तज्जिय- तर्जियित्वा भयमुपदर्श्य आव० ३४१।
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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तज्जेज्जा-तर्जयामि। उपा० ४२।
तण-तृणं। विरणादि। उत्त० ३७०| तृणानि-कुशजंजुकाsतज्जेंति-ज्ञास्यसि पापे! इत्यादि भणनतः। ज्ञाता० र्जुनादीनि। प्रज्ञा० ३० तृणं दर्भादि। दशवै० २२९। आचा. २००।
३०| वीरणादि। भग० ३०६) तत्झंतिया-समानकुलगणसंघवर्तिन्यः भगिनी वा। तणइओ- तनूजः। आव० ३४४१ व्यव. २४८1
तणकट्ठ-तृणकाष्ठः। आव०४२३। तटाक-कासारः। नन्दी. १५३
तणगं- तृणविशेषः। सूत्र. ३०९। तट्ट-तट्ट-स्थालम्। प्रज्ञा०७६|
तणपणए-तृणपञ्चकं-शालि १ व्रीहि २ कोद्रव ३ रालको ४ तट्ट- त्वष्टा-द्वादशं मुहूर्त्तनाम। सूर्य. १४६। तष्टं- ५रण्यतृणलक्षम्। आव०६५२ घट्टितम्। सूत्र० १६५त्वष्टा-त्वष्टनामको देवस्तेन तणपणगं-तृणपञ्चकम्। स्था० २३४। त्वाष्ट्री चित्रेत्य-परनाम। जम्बू०४९९।
तणपिडिगा- तृणपिण्डिका-तृणभारः, तृणभारः, तडं-तीरं-निशी. ९८ ।
तृणपूलिका वा। आव०६६७। तडउडा-तडवडा-आउली। जम्बू० ३४१
तणपिंडियं-तृणपिण्डिका। आव०६८२। तडउडाकुसुमं-आउली तस्याः कुसुमं तडवडाकुसुमम्। तणपीढगं-पलालमयं तणपीढगं| निशी० ६२आ। जम्बू० ३४१
तणपूलिअं-तृणपूलम्। आव० १५२ तडतडं- वटवटत्। उत्त० ११३॥
तणफासा- तृणस्पर्शः अशुषिरतणस्य दर्भादेः परिभोगः, तडतडेंत-तटतटायमानाः-तथाविध ध्वनिं विदधानाः। सप्तदशपरीषहः। आव० ६५७। ज्ञाता० १५९।
तणबेंटका-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा. ३२१ तडफडता-भृशं आकुलतया गमनागमनं कुर्वाणाः। बृहः । तणबेटिया-त्रीन्द्रियजन्विशेषः। प्रज्ञा० ४२। तडफडा- गमनैः। बृह० ५५ आ।
तणमूल-तृणमूलम्। प्रज्ञा० ३४। तडफडेति-विवदति। निशी० ११२ ।
तणयं-सत्कम्। आव० ३१४। उत्त० १६०| तडवडा-आउली। जीवा. १९१| राज० ३३
तणवणस्सइकाइए- तृणवनस्पतिकायिकाः तडाग-खननसम्पन्नमुत्तानविस्तीर्णजलस्थानम्। बादरवनस्पति-कायिकान्। जम्बू. १६८१ उपा०१०
तणवणस्सइकाइय-तृणवनस्पतिकायिकाःतडागं-तडागं। प्रज्ञा० २६७। सरः। जम्बू. १२३। जीवा. बादरवनस्पतयः। भग० ३०६] १८९| तडागः-कासारः। भग. २३७।
तणवणस्सइगणो-तृणवनस्पतिगणः-बादरवनस्पतीनां तडागमहो-तडाकमहः-तडाकसत्क उत्सवः। जीवा० २८१। सम-दायः। प्रश्न०१२ तडि-तटी-पाश्र्चम्। अनुत्त०६|
तणवणस्सति-तृणवद्वनस्पतयः तृणवनस्पतयः। स्था० तडिओ-आरामिकः। आव० २९५। बद्धः। आव० ४२११ ५२१। बादरावनस्पतयोऽग्रबीजादयः। क्रमेण कोरण्टका तडिग-तटिकः। आव. ३८४
उत्पलकन्दा वंशाः शल्लक्यो वटा एवमादयः। स्था० तडिगा-उपानहौ। ओघ० ३४|
३२५ तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः। स्था० १२२ तडिगादिडेवणय-उपानहौ परिधाय डेवनं-लङ्घनमग्नेः । तणवणस्सतिकातिता- वनस्पतिः स एव कायः शरीरं कृत्वा व्रजति। ओघ० ३४।
येषां ते वनस्पतिकायाः त एव वनस्पतिकायिकाः तडितं-पिंजितं रुतं। बृह. ११६ आ।
तणप्रकारा वनस्पनिकायिकास्तुणवनस्पतिकायिका तडियकप्पडिओ- तटिककार्पटिकः। आव० ११५॥
बादरा इत्यर्थः। स्था० १८६) तडी-चिंचणी। बृह० ३० । तटी-नयादीनां तटम्। तणवत्थल- वनस्पतिविशेषः। भग०८०२।
ज्ञाता०६७ आव. २७४। छिण्णटेका। निशी. ३० तणसाला-दब्भादितणट्ठाणं अवोपगासं तणसाला। तड्डेति- लाएति। निशी० १२४ आ।
निशी० २६५।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[28]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तणसूए-तृणसूकं-तृणाग्रम्। भग० ६७७)
द्रव्यादिविषया। उत्त० ५९०। सति मुर्छा। उत्त० ६२३। तणसूर्य-तृणाग्रम। भग० ३७६)
तण्हाइओ-तृष्णार्दितः-पिपासितः। प्रश्न. १९। तणसोल्लिअ-मल्लिकापुष्पम्। जम्बू० २१२। ज्ञाता० तण्हाएत्तो- तृषितः। उत्त०८७) રરરા
तण्हागेहि-तृष्णागुद्धिः-तुष्णा-प्राप्ताद्रव्यस्याव्येच्छा तणहार-तृणहारकः त्रीन्द्रियजीवभेदः, त्रीन्द्रियजन्तु गृद्धिः अप्राप्तस्य प्राप्तिर्वाञ्छा, जीवा० ३२। उत्त०६९५ प्रज्ञा०४२
तृतीयाधर्मद्वारस्याष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न० ४४। तणहारिगो-तृणहारकः। आव० ६७९।
तण्हावुच्छेअणं-तृड्व्यच्छेदनंतणु-तनु-तनुकम्। तनवः प्रतलाः। जम्बू. ११० तद्विषयावभिलाषनिवृत्तिः। आव० ८५१| तणुअंतं-प्रश्रवणपरिणामि। तन्दु०।
तत-तत वीणादि। प्रश्न 1 ततं-वादित्रविशेषः। जम्बू० तणुअ- तन्तुकः-सूक्ष्मोर्णा। जम्बू. १०७।
४१२। आउज्जविसेसो। निशी. १ । तन्त्रीवर्धादितणुइ-तन्वी-शेषपृथिव्यपेक्षयाऽतितनुत्वात्,
बद्धमातोद्यम्। स्था०६३। वीणा-विपञ्चीबद्धीसकादि ईषत्प्राम्भाराया तृतीयं नाम। प्रज्ञा० १०७।
तन्त्रीवादयम्। आचा०४१२। ततं-वीणादिकम्। जम्ब. तणुए-तनुकं लघु सुजरम्। ज्ञाता० १७७।
१०। तकः ततो वा। उत्त० २५६। ततः-तको बालः। तणुओ-तनुकः-कृशम्। आव० ७६४।
उत्त० २८०। तत्र। उत्त० १५६) तणुतणूड्-अतितनुत्वात्तनुतनुरिति,
ततगइ-ततस्य ग्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन ईषत्प्राग्भारायाश्चतुर्थं नाम। स्था० ४४०। तनुभ्योऽपि तच्चाप्राप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्तमानतया तन्वी मक्षिकापत्रतोऽपि पर्यन्तदेशेऽतितनत्वात् प्रसारितक्रमतया च विस्तारं गतस्य गतिस्ततगतिः, तनुतन्वी, ईषत्प्राग्भारायाश्चतुर्थं नाम। प्रज्ञा० १०७ ततो वाऽवधिभूतग्रामादेनगरादौ गतिः। भग० ३८११ तणुनमियं-तनु-कृशं नतं तनुनतमीषन्नतम्। जीवा. ततगती-तता-विस्तीर्णा सा चासौ गतिश्च ततगतिः, यं રાછા
ग्रामं सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं तणुय-तनुकं, सुजरम्। भग० ६७२। तन्कः -दरिद्रः। भग० ग्रामादिकं यावद-दयापि न प्राप्नोति तावदन्तरा पथि १०१। प्रतलम्। ज्ञाता० १३८१
एकैकस्मिन् पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा तणुया-तनुः-शरीरं तत्र जाता तनुजा। उत्त०४०७ गतिरस्तीति ततगतिः। प्रज्ञा० ३२६। तणुल- तनुः-शरीरं सुखस्पर्शतया लाति-अनुगृह्णाति तता-विस्तीर्णा। प्रज्ञा० ३२८१ इति तनुलं तनु सुखादि। जम्बू. १०७
ततोपाए-ततः प्रभृति। ओघ०७३। तणुवाए- तनुवातः-विरलपरिणामो घनवातस्याधस्थायी। | ततोहुत्तो- ततः सकाशात्। उत्त० १५६।
जीवा०२९। तनवातः-विरलपरिणामो घनवातस्याधs- तत्-सर्वलिङ्गवचनेष्वव्ययम्। प्रज्ञा०८1 स्थायी। प्रज्ञा० ३०१
तत्करा-आसङ्गः सम्बन्धः-तत्कराः-रागद्वेषकारिणः। तणू- तनुः-बोन्दिः शरीरम्। प्रज्ञा० १०८1
आचा० २१९। तणूति-तनुः-ईषत्प्राग्भारायास्तृतीयं नाम। स्था० ४४०। । | तत-तप्तं-तापितम्। ज्ञाता०९। तप्तं-तापितम्। विपा० तण्डुल- युष उपयोगी। सूर्य २९३।
३४| तत्त्वं-वस्तुस्वरूपम्। प्रश्न० ३५ तप्तं तण्णगाई-तर्णकाणि-वत्सरूपाणि। बृह० ३१७ अ। संक्रान्ततापम्। भग. १६६। तापः। भग. ३०७| तण्हा-तृष्णा-प्राप्तानामव्ययेच्छा। भग० ५७३। तत्तजला-तप्तजला, अन्तरनदी नाम। जम्बू. ३५२। धनाद्या-कांक्षापरिग्रहस्य सप्तविंशतितमं नाम। प्रश्न. स्था०८० ९२ तृष्णा-द्रव्याव्ययेच्छा। प्रश्न. ९७। तृष्णा
तत्तजुत्त-तोत्रयोन्क्रः-प्राजनकबन्धनविशेषः। विद्यमानद्रव्याव्ययेच्छा। प्रश्न. १२४
माघट्टनाह-नाभ्यामिति। उत्त०४६० प्राप्तद्रव्यस्याव्ययेच्छा। प्रश्न०४४। तृष्णा
| तत्तडिया-सरचनाका। गच्छा ०|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[29]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #30
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१८५
तत्ततवो-तप्तं तपो येन स तप्ततपाः। सूर्य.४। तथाज्ञानः-जानत्प्रश्नः। स्था० ३७६। तत्तऽनिव्वुडं-तप्तानिवृतं-अप्रवृत्तत्रिदण्डम्। दशवै. तथाभव्यत्वं- भव्यत्वभेदः। प्रज्ञा० ११२
तथारूपः-तथाविधोऽविज्ञातव्रतविशेष इत्यर्थः। भग० तत्तफासुअ- तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिडण्डोवृत्तं,
नोष्णोदकमात्र, प्रतिगृह्णीयाद वृत्त्यर्थम्। दशवै. २२८१ | तदंतरे- यवनिकान्तर इत्यर्थः। उत्त०४२५॥ तत्तमासगाइओ- तप्तमाषकादिः-द्रव्यप्रत्ययः। आव. तदज्झवसाणे-तस्यामेवाध्यवसानं૨૮૦.
भोगक्रियाप्रयत्नविशेष-रूपं यस्य स तदध्यवसानः। तत्तवती- अर्जुनराज्ञी। विपा० ९५
विपा०५३ तत्तानिव्वुडभोइत्तं-तप्तानिर्वतभोजित्वं-तप्तञ्च तदहोवउत्ते- तदर्थ-तत्प्राप्तये उपयुक्तः-उपयोगवान् यः तदनिर्वृतञ्च-अत्रिदण्डोवृत्तं चेति विग्रहः, उदकमिति | स तदर्थोपयुक्तः । विपा० ५३। विशेषणान्यथान-पपत्त्या गम्यते, तदभोजित्वं- तदन्नं-तदन्यत्-तस्मात् घृतादेः अन्यत्-क्षीरगडादि। मिश्रसचित्तोदकभोजित्वम्। दशवै०११७
ओघ. १७० तत्ति-तप्तिः । पिण्ड०७३। व्यापारः। बृह. ४० अ। तदन्नवत्थुते-तस्मात्-परोपन्यस्ताद् तत्तिला-अर्थिनः। ओघ०७१॥ यत्नवती, परायणा। वस्तुतोऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स नन्दी०६४।
तदन्यवस्तुकः। स्था० २५४१ तत्तिल्लो-दक्षः। आव० २११।
तदन्नवयणे- तदन्यवचनम्, तस्माद्तत्ती-तप्तिः चिन्ता। आव० ६८३। तप्तिः-तापः। उत्त० | विवक्षितघटादेरन्यः पटादिस्तस्य वचनम्। स्था० १४१। ४३३। गवेषणं पालनं वा। प्रश्न०६७ तप्तिः -सारा। तदप्पियकरणे-तस्यामेवार्पितानि-ढौकतानि करणानि व्यव० १७१ ।
इन्द्रियाणि येन स तदर्पितकरणः। विपा० ५३। तत्त्वज्ञः-सर्वज्ञस्तीर्थकृत्। आवः ।
तदुपरि-तत्र जङ्घार्द्धप्रमाणे उदकसंस्पर्श संघट्टः, तत्त्वानुरूपं- विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता, पञ्चदशो नाभिप्रमाणे उदकसंस्पर्श लेपः, तत उपरि उदकसंस्पर्श वचना-तिशयः। सम०६३
तदुपरि। व्यव० २५आ। तत्थ-तस्मात्। व्यव० ७७ आ। त्रस्तः-न उद्विग्नः। तदुब्भवो-तदुद्भवः-शरीरोद्भवो गण्डादिः। आव०७६४ उत्त०४६१। त्रस्तम्। भग०१६६|
तदुभयपतिहिए- तदुभयप्रतिष्ठितःतत्थगए-तत्रगतः। आव०७२६|
आत्मपररूपोभयप्रति-ष्ठितः। प्रज्ञा० २९०। तत्था-वस्ता उद्विग्नाः-सजातभया
तदेक्कदेसभाए- तदेकदेशभागे मंदरादिवाप्यादिषु। प्रज्ञा. भयप्रकर्षाभिधानायै-कार्थाः। विपा०४३। ज्ञाता०९४। नष्टाः । जम्बू० २३९।
तदेक्कदेसो- तदेकदेशः। द्रव्यहेतुभूतः। आव० ३२७। तत्पदं-तस्य पदयते-गम्यते येनार्थस्तत्पदं-अभिधानम्।। तद्दवं-तद्रव्यं-पटादेद्रव्यं तन्त्वादि। आव. २७८५ आचा०२३१
तद्दव्वसुद्धी- यद् द्रव्यमन्येन द्रव्येण सहासंयुक्तं तच्छुद्धं तत्परं-तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रुपतयैव वर्तमानं
भवति क्षीरं दधि वा असौ तदद्रव्यशद्धिः। दशवै. २११। परमन्यत्तत्परम्। आचा० ४१५
तद्दव्वकरणं-तद्रव्यमिति तस्यैव पटादेर्द्रव्यं तद्रव्यंतत्रस्था-स्वरूपस्था। आव० ३३८1
तन्त्वादि, तदेव कारणमिति द्रष्टव्यम्। आव० २७८। तथा-आनन्तर्ये। आव०१०
तद्व्यनानाता- द्रव्यनानाताया भेदः। आव० २८१। अवधिज्ञानसारूप्यप्रदर्शनार्थः। आव०८।
तद्दिही-तस्य आचार्यस्य दृष्टिस्तद्वृष्टिः। सततं तथाकारः- गुर्वादिषु ब्रुवाणेषु यथाऽदिशत यूयं तथैवेति वर्तितव्यं हेयोपादेयार्थेष, यदि वा तस्मिन् संयभे भणनम्। बृह. २२२ ।
दृष्टिस्तदृ ष्टिः स एव वाऽऽगमो दृष्टिस्तदृष्टिः।
७९
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[30]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आचा० २१५।
तप्पक्खिय-तप्पाक्षिकः-तस्य सोमस्य प्रयोजनेषु तद्दिवसं-प्रतिदिनम्। बृह. २९३ अ। प्रतिदिवस-दिने दिन | सहायः। भग. १९६। तत्पाक्षिकः-केवलिपाक्षिकः इत्यर्थः। व्यव. २९७ आ।
स्वयंबुद्धः। भग० २२२॥ तद्देक्कदेसेणं-तेषां-द्रव्याणामेकदेशेन इत्यर्थः। स्था० तप्पडिरूवगववहारे-तत्प्रतिरूपकव्यवहारः-अधिकृतेन २९०
सदृशस्य प्रक्षेपः। आव० ८२२१ तद्देसे-तस्य देशस्तद्देशः। दशवै. ३५
तप्पढम-तत्प्रथमं तत्कालम्। जीवा० २७१। तद्दोस-त्वग्दोषः-कृष्टी। ओघ. १६३। तद्दोषः। दशः ३५ | तप्पण- वण्णवलादिणिमित्तं घयादिणेहपाणं तप्पणं। निशी. १८८ आ।
निशी० ८१ अ। तर्पणं-स्नेहादिभिः शरीरबंहणम्। विपा. तद्दोसाई-त्वग दोषा त्वग्दोष क्षयव्याध्यादिः। व्यव० ४१। स्नेहद्रव्यविशेषैर्ब्रहणम्। ज्ञाता० १८३। १९० आ।
तप्पणादूयालिया-मथ्यमानसाक्तकः। दशवै०५९। तद्दोसी-त्वग्दोषी-कुष्ठी। पिण्ड० १३९।
तप्पती-तप्यते-पीड्यते क्लेशभाग्भवति। सूत्र. १८३। तद्धितो- तद्धितः-तस्य हितः। आव० १५५
तप्पागारे-तप्राकारः-उडुपकाकारः। आव० ४१। तद्धिय-तद्धितः-तस्मै हितं तद्धितमित्यादयर्थाभिधायको तप्पूरक्कारे- पुरस्करणं पुरस्कारः-सर्वकार्येष्वग्रतः यः प्रत्ययः। प्रश्न. ११७
स्थापनं, तस्य-आचार्यस्य पुरस्कारस्तत्पुरस्कारः। तयुक्तं-बलीवादिभिः। स्था० २४०
आचा० २१५ तनु-स्तोकं मन्दं यतनयेति। उत्त० ४११।
तप्रादिरूप-आकारविशेषः। प्रज्ञा० ५३६। तनुवर्गणा
तबरि-गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ भेदाभेदपरिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यताऽभिमुखा। तब्भत्तिय-तद्भक्तिकः-तत्र सोमे भक्तिः-सेवा बहमानो आचा० ३५१
वा यस्य स तद्भक्तिकः। भग. १९६| तन्नगं-बालवच्छं। निशी० ५९ अ।
तब्भवं-तद्भवमरणं, मरणस्य सप्तमो भेदः। उत्त. २३० तन्त्रपालः-दण्डनायकः। भग० ३१८१
तस्मिन् भवे जीवितं तद्भवजीवितम्। आव० ४८० तन्निवेसणे- तस्य-गोर्निवेशनं-स्थानं यस्यासौ
तत्थेवकाए उब्भवो। निशी. १८८ आ। तन्निवेशनः, सदागुरुकुलवासी। आचा० २१५)
तब्भवजीवियं-तद्भवजीवितं तस्यैव पूर्वभवस्य तपआचारः-अनशनादिभेदो द्वादशधा। स्था० ३२५, ६५ | समानजाती-यतया सम्बन्धि जीवितम्। स्था०७ तपः- सिद्धत्वे दशमः भेदः। स्था० २५ लिङ्गः। स्था० तद्भवजीवितम्। दशवै. १२२॥ ३३७। तपःप्रायश्चित्तः-त्रिविधे प्रायश्चिते दवितीयम्। तब्भवजीवो-तद्भवजीवः तद्भव एवोत्पन्नः। दशवै० १२११ बृह. ४८ आ।
तब्भवमरणं-जंमि भवे वट्टइ तस्सेव भवस्स हेउसु तपःक्षपणं
वट्टमाणो आउयं बंधित्ता पुणो तत्थोववज्जिउकामस्स सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमि- जं मरणं तब्भ-वमरणं। निशी० ५२ आ। यस्मिन् त्तप्रक्रमेणापरिक्लेशम्। दशवै. २७४।
भवेतिर्यग्मनुष्य-भवलक्षणे वर्तते तपति-दुनोति। स्था० ३६४।
जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वापुनः तत्क्षयेण तपसढं-जं बहुदेवसियं। दशवै० ८१ आ।
म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्धवा तपोऽहं- प्रायश्चित्तविशेषः। व्यव. १८७आ।
पुनर्मिमा-णस्य मरणं तद्भवमरणम्। स्था०९३। तप्प-तप्रः काष्ठसमुदायविशेषः। प्रज्ञा० ५४२ नन्दी. तब्भविय-तद्धविकमरणं-यस्मिन्नेव मनुष्यभवादौ ८८। उडुपकः। भग० ५२४। तपः-मत्स्य ग्रहणार्थं
मृतः। पुनस्तस्मिन्नेवोत्पदय यन्मियते इति। उत्त. तरकाण्ड-विशेषः। प्रश्न. १३ तप्पक्खिओ-तपाक्षिकः-तस्य हितैषी। बृह. १९५। । तब्भारिया-तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या अत्यन्तं
२३०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[31]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text )
वश्य-त्वात्पोषणीयत्वाच्चैति तद्भार्याः, तद्भारो वा येषां वोढव्यतयाऽस्ति ते तद्भारिकाः । भग० १९६ । तब्भाव- तद्भावः। स्था० ३३१ | तस्य भावस्तद्भावः पुंवेदः ।
व्यव० १७५ आ ।
आगम-सागर- कोषः (भाग:- ३)
तब्भावणाभाविए- तद्भावनया - कामध्वजाचिन्तया
भावितो वासितो यः स तद्भावनाभावितः । विपा० ५३ | तमंतमेति तमस्तमा यतः प्रबलान्धकारतया परिणमते । बृह० १९७ आ ।
तमंपविट्ठ- तमः प्रविष्ट इव तमः प्रविष्टः । भग० ३१२ | तमंपविट्ठा - तमः प्रविष्टाः- अज्ञानमग्नाः । प्रश्न० ९८ तम- तमयिति खेदयति जनलोचनानीति तमः । उत्त ३८ दुःखसमुद्घातेन सदसद्विवेक प्रध्वसित्वाद्यातनास्थानम् । अज्ञानरूपं, ज्ञानावरणादिरूप महत्तरं तमः । सूत्र० २२| कण्हचउद्दसीए राओ भासरदव्वाभावो निशी० ३०२ आ तमः अज्ञानम्, बद्धस्पृष्टनिद्यत्तं ज्ञानावरणीयं वा। आव० ७८८। अप्कायपरिणामरूपोऽन्धकारः । स्था० २१७। तमः-अंधकाररूपत्वात् । भग० २६९ | नरकः । उत्त ४००| कृष्णचतुर्दशी रात्री ध्वान्तम्। बृह० १५४ आ । न किञ्चित्पश्यतीत्यर्थः । निशी० ३०२ आ ।
तमतमप्पभा- तमः तमः प्रभा । प्रज्ञा० ४३ |
तमतमा अतिशयतमोरूपद्रव्ययुक्ता पृथ्वी अनुयो ८९। प्रकृष्टं तमस्तमस्तमः । तमस्तमः प्रभेत्यर्थः । भग ६८। तमस्तमः-प्रभा नाम्नी सप्तमी पृथिवी । भग० ६८ तमतिमिरं- रातो जदा रयरेणु धूमिगा भवति तदा
तमतिमिरं । निशी. ३०२ आ सरजो धूमिकादिकं कृष्णचतुर्दशी रात्रि तमः। बृह० १५४आ। तमतिमिरपडलं समेध दुर्दिनरजोधूमकादिकं कृष्णचतुर्दशी-रात्रिध्वान्तं तदा तमतमिरपडलम् । बृह० १५४ आ। रातीए रायादिआ मेह दुद्दिणं व भवति, अंधकारविशेषः। निशी० ३०२ आ
तमतिमिरपडलविदंसणं तमस्तिमिरपटलविध्वंसन
अज्ञानतिमिरवृन्दविनाशनम् । आव ०७८८ ॥ तमपडलमोहजालपडिच्छन्न- तमः पटलमिव तमः पटलं. ज्ञानावरणं मोहो-मोहनीयं तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां प्रतिच्छन्ना आच्छादिता ये ते तमःपटलमोहजालप्रतिच्छिन्नाः । भग० ३१२|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[32]
[Type text]
तमप्पभा- तमः प्रभा । प्रज्ञा० ४३|
तमबलपलज्जणे तमो बलेन अन्धकारबलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति तमोबलप्रलज्जनः प्रकाशचारी स्था० २४९। तमो-मिथ्याज्ञानं अन्धकारं वा तदेव बलं तत्र वा अथवा तमसि उक्तरूपे बले च सामर्थ्य प्ररज्यतेरति करोति इति तमोबलप्ररञ्जनः । स्था० २४९ | तमस्य - तमोरजसी अज्ञानपातके । सम० ११५| तमस - तमसं तमोवत् । दशवै० १६७ । तमःप्रभा— नरकपृथ्वी। आव० ३६३ । कृष्णद्रव्योपलक्षिता पृथ्वी। अनुयो० ८९|
तमा रात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः । भग० ४९३ । स्था० १३३॥ तमा- अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यत्वादधोदिशश्च स्था० ४७८ अधोदिक्। आव० २१५ तमोरुपद्रव्ययुक्ता पृथ्वी अनुयो० ८९| तमाल- वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ | तमालपत्तं- तमालपत्रम्। उत्त० १४२| तमालपत्र - पत्रविशेषः । जीवा० २३६ | तमाले - वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | तमिसगुहा तमिश्रगुहा। आव० १५० तमुए भगवतीसूत्रस्य षष्ठशतकस्य
तमस्कायार्थनिरूपणार्थः पञ्चमः । पञ्चमोद्देशकः । भग०
२५०/
तमुका - तमस्कायः अन्धकारराशिरूपत्वात् । भग० २७०१
तमुक्काए- तमसां-तमिश्रपुद्ग कायोराशिस्तमस्का। भग- २६८
तमुक्कातेति तमसः
अपकायपरिणामरूपस्यान्धकारस्य काय:
प्रचयस्तमस्कायः । स्था० २१७ |
तमूयत्ता- तमस्त्वं अत्यन्तान्धतमसत्वं जात्यन्धता, अत्यन्ताज्ञानवृतता वा सूत्र० ३१६ |
तमोकसिय- तमसि काषी तमसि कषितुं शीलं यस्य सः । पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः। सूत्र० ३१३। तमोरुवत्ता- तमोरूपता - अन्धबधिरता । सूत्र० ४२२ | तम्मण - तन्मनाः द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा । विपा. ५३१ औफ० ६०१ तत्रैव अर्यादी मन:विशेषोपयोगरूपं यस्य सः भग० ८९
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तम्मुत्ती- तेनोक्ता सर्वसङ्गेभ्यो विरतिर्मुक्तिः। आचा० | हायनः-संवत्सरो वर्तते येषां ते तया यौवनवन्तः। भग. २१५
४८० जम्बू. २६५ तम्मुहो- तन्मुखः। आव०४११।
तरसि-शक्नोषि। आव० ३०५ तय-ततं-मृदङ्गपटहादि। जीवा० २४७। ततं-वीणादिकम्। | तरा-त्वरा-मानसौत्सुक्यम्। जम्बू० ३८८1 भग. २१७। जीवा. २६६। ततं-विस्तीर्णम्। उत्त०४०७। तरामि-शक्नोमि। दशवै.७९| त्वक्-वल्कलम्। औप०७। बाह्यवल्कम्। स्था० १८६। तरियव्वो-तरणीयः। ज्ञाता० १६९। तिलतुसतिभागमेत्तं। निशी० ३५५ अ।
तरी-तरिका-उडुपः। पिण्ड० १०२ तया-त्वक्-छल्ली। जम्बू. २९। त्वचः-छल्लयः। प्रज्ञा० तरुगणा-तरुगणाः नालिकेर्यादयारामाः। दशवै० १९३। ३१॥ त्वक्। सूत्र० ३१त्वक्-त्वगिवासारं
तरुगणगणो- तरुगणगणः-वृक्षगुच्छादिवृन्दसमूहः। भोक्तव्यमित्य-र्थसूचकत्वात् त्वगुच्यते,
प्रश्न.२४॥ सायौरूपमानम्। दशवै० १८॥ त्वक्-चातुर्जातकाङ्गम्। तरुण- प्रवर्द्धमानवयाः। अनयो० १७६। नवम्। जीवा. उत्त० १४२। त्वचासनादिकम्। जम्बू. १४७।
२७१। प्रत्यग्रः। ज्ञाता० २२२। तरुणः-उद्गच्छत्। जम्बू. तयाहारा-तृणाहाराः। निर०२५
१८३| तरुणः-प्रवर्द्धमानवयाः तयाविस-त्वग्विषः। आव० २७४, ४२६)
विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं वस्तुजातम्। जीवा. तयाविसा- त्वचि विषं येषां ते त्वग्विषाः। जीवा० ३९। १२१। यद् द्रव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपे-तमभिनवं च प्रज्ञा०४६।
तत्तरुणम्। राय० २१ वर्धमानवयाः, वर्णादितरंगवती- कामकथायां अनुभूतमधिकृत्य
गुणोपचितः। उपा०४६। अर्वाक चत्वारिंशतो वर्षेभ्यः। निजानुभवनिवेद-यित्री। दशवै. १९०
व्यव. २४५। चत्ता सत्तरुणो। व्यव० ११२आ। जन्ममिश्रकथाव्याख्याने स्त्री। दशवै०११४| धर्मकथाविशेषः। पर्यायेण षोडशवर्षाण्यारभ्य यावच्चत्त्वारिंशद्वर्षाणि व्यव० ११३आ। बृह. १६अ।
तावत्त-रुणः। व्यव. २४५ अ। तरुणः-प्रथमकुमारत्वे तरंड-पोतः। ओघ.३१|
वर्तमानः। व्यव० १४३ अ। तरंति-शक्नुवन्ति। ओघ०७५
तरुणइत्ते- तरुणः युवा। दशवै० १०५ तर-तरः वेगो बलं वा। जम्बू०५३०| भग० ४८० औप० | तरुणगं- अभिनवम्। भग० ६८४१ अणुट्ठियं। दशवै० ८६। ७० शय्यातरः। बृह. १४७आ।
तरुणदिवायरनयणो- तरुणदिवाकरनयनः-रक्ताक्षः। तरई-तरति-क्षेमेण वर्तते। पिण्ड० १२३।
आव०५६६| तरच्छ-तरक्षवः मृगादनाः। जम्बू. १२४। तरक्षुः व्याघ्र- | तरुणधम्मो-तस्य तावन्तं कालमसमापयन तरुणधर्मा विशेषः। भग० १९१, ३०९। ज्ञाता०७०। तरक्षुः-व्याघ्र- अविपक्वपर्यायः। ब्रह. १२९ आ। जस्स वा सुत्तस्स जो जातिविशेषः। प्रज्ञा० २५४। तरक्षः-व्याघ्रविशेषः। प्रश्न. कालो भणितो तं अपरेंतो तरुणधम्मो भवति। निशी ७। तरक्षः-सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० ३८५ ८१। तरच्छ-वनजीवाः। मरण |
तरुणा-तरुणा अभिनवा कोमलेति। अनुत्त० ४। तरणं- बाहू। आव० ५९। णित्थारणं। निशी० ९५अ। तरुणरहस-रोगः। ओघ०६४। तरणीयं- उडुप नद्यादि। आव० ५९।
तरुणसहयरि-तरुणसहचरी-युवतिमयूरा। ज्ञाता० २६। तरति-शक्नोति। निशी. २७
तरुणा-असञ्चता। दशवै० १८५ तरपण्णं-तरपण्यम्। बृह. १६० आ।
तरुणिमानः-तारुण्यम्। नन्दी.१६१ तरपन्नं-तारणमूल्यम्। निशी० ७८ अ।
तरुणी-अपरिपक्वा। आचा० ३२३ तरमल्लिहायणा-तरो-वेगो बलं वा तथा
तरुणीपरिकम्म-तरुणीपरिकर्म यवतीनामङ्गसत्क्रिया 'मल्लमल्लिधारणे' ततश्च तरो धारको वेगादिकृत् वर्णा-दिवृद्धिरूपा। जम्बू० १३८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[33]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तरुपडणे-तरुपतनम्। स्था० ९३।
प्रभुस्थानीयो नगरादिचिन्तकः। उत्त० ३४३। तलवरःतरुपतनस्थानानि-यत्र ममर्षव एवानशनेन
परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषितः। तरुवत्पतितास्ति-ष्ठन्ति तरुभ्यो वा गत्र पतन्ति। राजस्थानीयः। प्रज्ञा० ३२७। भग० ३१८, ४६३। तलवरःस्था०।
प्रतुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धः-विभूषितो राजस्थातरोमल्लिन-बलाधायिनो वेगाधायिनो वा। ज्ञाता०५८। नीयः। भग० ११५ तलवरःतरोमल्लिहायणे-तरोमल्लिहायनः तरोधारको
सन्तुष्टनरपतिप्रदत्तसौवर्णपवेगादिधारको हायनः संवत्सरो यस्य सः यौवनवानिति। डालकृतशिरस्कचौरादिशुद्धयधिकारी। जम्बू. १२२॥ जम्बू० १३०
तलवर:-राजवल्लभः, राजसमानः। अन्त०१६। राजप्रतरोमल्लो-तरोधारकः वेगादिकृत्। जम्बू. २६५)
तिमाचामर-विहितो तलवारो। निशी० २७० अ। तलवरःतर्कणं-मनसा यदि मह्यमसौ ददातीति विकल्पनम्। परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषितः। औप०१४। उत्त० ५८७
तलवरः- परितुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषितः। तर्कुकः- वनीपकः। प्रश्न. १५४।
राजस्थानीयः। औप० ५८ तलवरः-कृतपट्टबन्धराजतर्पणालोडिकयेति-सक्त्वालोडनेन
स्थानीयः। प्रश्न० ९६। तलवरः- राजप्रसादवानु जलादयालोडितसक्तु-भिरित्यर्थः। स्था० २६१।
राजोत्था-सनिकः। विपा० ४० तलवरःतर्ष- तृष्णा। उत्त० १८३।
परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्ना-लङ्कृतसौवर्णपट्ट तलं-रूपम्। औप०१६। उपरितनो भागः। जीवा० १८९।। विभूषितशिराः। जीवा० २८०। परितुष्टनप्रतिष्ठानम्। प्रश्न०६३। हस्तप्टम्। जीवा. २६६। रपतिदत्तसौवर्णतलवर-पट्टालंकृतशिरस्कः। बृह. २५५ भूमिका। जीवा० १०३। तालवृक्षः। अनुयो० १७७)
आ। राजवल्लभः। भग०४६३। घटिकाकालः। बृह० ७। हस्ततलः। जम्बू० ६३। तलः- तलवरा-तलवराः-परितुष्टनृपदत्तपट्टबन्धविभूषिता तालवृक्षः। जीवा० १२२। तलः-हस्तकः। जीवा० १६०| राजस्था-नीयाः। जम्बू. १९०| तलः-हस्ततलः। जीवा० २१७। तलः-उपरितनो भागः- परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभू-षिताः। राज० १३१| सूर्य०६९।
तला- तलौ-हस्ततलौ। जीवा० १६२ प्रज्ञा०८९। हस्तकाः। तलउदाडा-गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२
प्रज्ञा० ८६। सम० १३८1 जम्बू०७६। औप०५१ तलणं- तलनम्। प्रश्न०१४|
तलंभूमिका। प्रज्ञा० ८० हस्ततालाः। प्रश्न. १५९) तलताला- हस्तमालाः। सूर्य० २६७। ज्ञाता० २३३। प्रश्न | तलाग- तडागः। प्रश्न० ८। तडागः-पुरुषादिकृतो १५९
जलाशय-विशेषः। प्रश्न. १३४। तडागः-कृतको तलपत्त-तलपत्राणि-तालाभिघानवक्षवर्णानि। ज्ञाता० जलाशयविशेषः। प्रश्न० १६१। तडागः-खानितो २३१॥
जलाशयविशेषः। अनुयो० १५९। तलभंगय-तलभङ्गकम्। औप० ५५ तलभङ्गकं- तलागाति-तडागादीनि। स्था०८६| भूषणविधि-विशेषः। जीवा. २६९। तलभगकं
तलानि-मध्यखण्डानि। स्था० ४३५ बाह्वाभरणम्। औप०४९। तलभङ्गकः
तलाय-तडागम्। प्रज्ञा० ७२ तडागः-कृत्रिमजलाशयबाह्वाभरणविशेषः। प्रज्ञा० ९१। जीवा० १६४।
विशेषः। भग० ३७३। तलभगकं-बाह्वाभरणम्। जम्बू. १०६|
तलिगा-सोपानत्काः उपानद्रूढपादाः। ओघ०५५। तलवर
तलिका-चर्मपञ्चके प्रथमो भेदः। आव० ६५२। परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्नालङ्कृतसौवर्णपट्टविभूषि- तलिणो-तलिनः प्रतलः। औप० १९| जीवा० २७२१ प्रश्न. तशिराः। अनुयो० २३
८१ परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धभूषितः। स्था० ४६३। | तलिना-सूक्ष्मा। बृह. ११३ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[34]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
तलिय - तल्पं शयनीयः । ज्ञाता० २०५ |
तलिया- उवाहणा । निशी० ६० अ । तलिका । स्था० २३४ | तलिका उपानहः । बृह० १०१ अ पात्रीवि शेषाः । भग०
५४८
तल्लग - तल्लक:- सुराविशेषः । जम्बू० १००| तलिच्छा तत्तद्विवक्षितं वस्तु लब्धुमिच्छत इति तल्लिप्सुः । ज्ञाता० ९८
तल्लेश्य:- प्रत्युपेक्षणाभिमुखः । औघ० ११६ ॥ तल्लेस- तल्लेश्यः कामध्वजा शुभात्मपरिणामविशेषः । विपा० ५३३ तल्लेश्यः तच्चितः। ओघ० ११७ तल्लेश्य:भगव-वचनगतशुभात्मपरिणामविशेषः । लेश्यादिकृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणामः। ऑप.
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
६० |
तव तपः अनशनादि । प्रश्न. १३२२ तपः- उत्तराध्ययनेषु त्रिंशत्तममध्ययनम् । उत्तः १ तपः भद्रमहाभद्रादि । उत्त॰ १२८। तपोमदः यत्तपसो मानम् । आव० ६४६ । तपस्त्या-गयोः सतो निर्वर्तितवान् । ज्ञाता० १२३ | स्था० २००१ तपः अनशनादिपूर्वकर्मनिर्जरणफलम्। प्रश्नः १०२॥ तपः- धर्म्मध्यानादि सूर्य० ४॥ तपः अनशनादि । सूर्य- ४ जम्बू. ५२१ दशवे. ११०] तपःभक्तपरिजानादिकमशनम्। उत्तः ४०७ तपःधर्मध्यानादि भग० १२] तपः पृथिव्यादिसंघट्टनादाँ निर्विग (कृ) तिकादि। आव० ६७४ । तपः- ध्यानम् । ज्ञाता०
९।
तवए- तक्कं-सुकुमारिकादितलनभाजनम्। विपा० ५८ तवकरणं तपःकरणं तपः कृतिः । आव• ४६६ । तवगं तापिका प्रश्न. १४
तवणा- तपनं रविकरनिकरसन्तापरूपम् । उत्त० ५९९ । तवणि घृतपात्रविशेषः । ऑप० ९९| तवणिज्जं तपनीयं- आरक्तं सुवर्णम्। जम्बू• २४1 जीवा. १८१, ८६४। तपनीयं-सुवर्णविशेषः । सूर्य० २६४ | प्रज्ञा० ९९| जीवा० २७३, १७५| तपनीयं रक्तसुवर्णम् । जम्बू०
५४ |
तवणिज्जपट्ट- तपनीयपट्टः रक्तस्वर्णमयपट्टकाः लोके महलू इति प्रसिद्धौ । जम्बू० २११ | तवणिज्जमया- तपनीयमयानि रक्तस्वर्णमयानि। जम्बू० २८म
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[35]
[Type text]
तवणिज्जुज्जल्लंबूसगं - तपनीयोज्ज्वललम्बूसकम् ।
आव० १२४ |
तवणीयपवरलंबूस- पलम्बन्तमुत्तदामम्। आचा० ४२३ | तवति तपति तप्तो भवति जीवा० २४८ तवतेणे तपस्तेनः क्षपकरूपकल्पः । दशकै १८९१ तपस्ते-नः- परसम्बन्धि तप आत्मनि परप्रतिपत्तितः सम्पादयंस्त-पस्तेनः । प्रश्न० १२५ | तवतेयसिरी- तपस्तेजः श्रीः । आव० ७९३ । तवनियम - तपोनियमो - नियत्रितं तपः । सम० ११७ तवविणय- तपोविनयः- अपनयति तपसा तमः अज्ञानं उपनयति च स्वर्ग-मोक्षं यः स विनयः । दशवै० २४१| तवसंजमपडियारं तपः संयमप्रतिकारः- तपः संयमावेव प्रतिकारः । आव० ५८६ ।
तवसंजमो- तपः संयमः तपः प्रधानः संयमः । आव० ३२६ तपः संयमः- तपः-अनशनादिस्तत्प्रधानः संयमः पञ्चाश्रव - विरमणादिः । उत्त० १४४ | तवसमाही- तपः समाधिः तृतीयं विनयसमाधिस्थानम् । दशवै० २५५|
तवसा अनशनादिना । जम्बू० १६ ।
तवस्सी - विकिद्वतवकारी निशी. १४ आ अनशनादि विचित्रतो युक्ताः सामान्यसाधवो व ज्ञाता० १२३ तपस्वी उग्रतपश्चरणरतः । दशवै० ३१॥ तपस्वीविकृष्टक्षपकः । दशकै २०५ तपस्वी तपोऽस्यास्तीति, विकृष्टाष्टमादि तपोऽनुष्ठानवान्। उत्त॰ ८४| तपस्वीनिदानादिविरहिततया प्रशस्ततपोऽन्वितः । उत्त॰ १८५| करवीरलताभ्रामकः कश्चित् । उत्त० २९५| शिष्यः । औप० ३३॥ विचित्रानशनादिलक्षणं तपोविद्यते यस्य सः सामान्यसाधुर्वा । आव० ११९ । तवाइसओ- तपोऽतिशयः। दशवै० १०५ तवारिहे तपोऽहं निर्विकृतादिकं तपः । औप- ४२ ॥ निर्विकृ-तिकादि तल्लक्षणां शुद्धिं यदर्हत्यतिचारजातं तत्ततोऽहम्। भग० ९२०
तवेंति- तापयन्ति। सूर्य • ६ ३ | तपन्ति मन्दाङ्गाररूपतां प्रतिपद्यन्ते । जम्बू० ४१९ |
तवे तपति अपनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्मं पिपीलिकादि दृश्यते तथा करोति। भग ७ तवोकम्मं तवः कर्म आव० १८८॥ तपः कर्म
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
तपोऽनुष्ठानम् । दशवै० १९९ ।
तवोवहाणे तपउपधानं विशिष्टतपोविशेषः । सूत्र. १४९| तपउपधानं अनशनादिकम् बृह० २१५ आ तपउपा धानं द्वादशविधं तपः । सम० १०७ तव्वं (च्चं)णिगि- रत्तपडा । निशी० ७७आ। तव्वइरित्तदंसणे- तद्व्यतिरिक्तदर्श अभिग्रहीतमिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकीक्रियायाः द्वितीयो भेदः । आव० ६१२|
तब्वज्जं तद्वर्जः बुदबुदवर्ज-वर्षम्। आव ०७३३| तव्वणिय- रक्तपट्टलिङ्गः । आव० ६२८ । तवर्णिकः, तच्च ण्णिकः- बौद्धः आव०६३६| तव्वण्णिगिणी - तद्वर्णिकी आव०६४०१
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
तव्वण्णियसढगा - तच्चनिकश्राद्धी आव० ७९९, ८०० | तव्वत्थुए– तदेव-परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति-उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः । स्था०
२५९|
तव्वत्थूपन्नास तदवस्तूपन्यासः, उपन्यासस्य प्रथमो भेदः। दशवें ५५
तव्विवरीए यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीतस्यार्थस्य जाग रणे यत्र पाप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नो यथा कश्चिदात्मनं मेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कञ्चन प्राप्नोतीति । भग० ७०९ |
तव्विहायरियविरहो
तद्विधःसम्यगविपरीततत्त्वप्रतिपादन-कुशलः आचर्यतेऽसावित्याचार्यः सूत्रार्थावगमार्थ मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः, तस्य विरहः अभावः
तद्विधाचार्यविरहः आव० ५९७
तसरेणु - त्रस्यति पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः अनुयो० १६३३ पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः । स्था॰ ४३५। त्रस्यति-पौरस्त्यादिवायुप्रे-रितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः। भग० २७७| जम्बू० ९४ तसवाइया— त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ तसा जसा तेजोवायुद्धीन्द्रियादिकाः । सू० १५५ साःसन्ति अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्दध्वमध- स्तिर्यक् चलन्तीति बसा तेजोवायवो
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[36]
[Type text]
वीन्द्रियादयश्च । जीवा० ९ | तसा त्रसन्तिउष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षि तस्थानादुद्द्विजन्ते गच्छन्ति च छायायासेनार्थ स्थानान्तर मिति त्रसा:वीन्द्रियादयाः । प्रज्ञा० ४७४१ त्रस्यन्तीति त्रसाःचलनधम्र्माणः बसनामकर्मोदयवर्त्तित्वात् चसाः स्था० १३४ प्रस्यन्तिर-तापाद्युपतप्तौ छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसाः-वीन्द्रियादयः । उत्त० २४४ । त्रसाःतेजोवायवो गतियोगात् त्रसाः । स्था० १२४| तसिए- शुष्कः-आनन्दरसशोषात्। ज्ञाता०६८। तसिया- त्रसनं त्रस्तं-दुःखदुद्वेजनम्। दशवे. १४१॥ उद्वीग्नः । ज्ञाता० ९४ | भग० १६६ । तस्करावस्कन्दः- चौरावपातः । नन्दी० ६३ | तस्सन्नी- तस्य संज्ञा तत्संज्ञा तज्ज्ञानम्। आचा० २१५| तस्साभवइ- तस्या भवति । आव० २२५| तस्सेवी यमपराधमालोचयिष्यति तमेवासेवते यो गुरुः स तत्सेवी तस्मै यदालोचनं तदपि तत्सेवीति । भग ९१९। य दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालो चनं स तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः ॥
स्था० ४८४ |
तह तथा तथैव। भग० १२१। सेवकः सन् यथैवादिष्यते तथैव यः प्रवर्तते सः । स्था० २२४, २१४| तहक्कार- सूत्रव्याख्यानादाँ प्रस्तुते गुरुभिः कस्मिंश्चिद् वचस्युदिरिते सति यथा भवन्तिः प्रतिपादयन्ति तथैवैतदित्येवं करणं तथाकारः अविकल्पगुर्वाज्ञाभ्युपगमः । अनुयो० १०३ | म गच्छा० १२०| तथाकरणं तथाकारः स च सूत्रप्रना - दिगोचरः, यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदमित्येवं स्वरूपः वाचनाप्रतिश्रवणयोः उपदेशे सूत्रार्थ कथने अवितथमेतदिति तथाकार: प्रतिश्रवणे च तथाकारः । स्था० ४९९ |
तहणा-यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानं सम्यदृष्टि जीवद्रव्यं तस्यैवावितथज्ञानत्वात्, अथवा यथा तद्वस्तु तथैव ज्ञानं-अवबोधः प्रतीतिर्यस्मिंस्तत्तथाज्ञानम्। स्था० ४८१।
तहत्ति यथापूर्वसाधवो गृहणन्ति। ओघ० १५५१ तहनाणे यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छक- स्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानः
जानत्प्रश्नः । स्था० ३७६ ।
"आगम- सागर- कोष" [३]
Page #37
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तहमेय- यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः। ज्ञाता० तात्पर्य-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात्। आचा०
४७। आप्तवचनावगतपूर्वाभिमतप्रकारवत्। भग०४६७ | १९८१ तहा-तथाशब्दः-अनुक्तसमुच्चयार्थः। उत्त० ५१५ तथा | तान-तता तन्त्री तानी भण्यते। स्था० ३९७। अनुयो. निर्देशे। आव० ४६६।
१३३ तहाकारो-तथाकारः-सूत्रप्रश्नगोचरः यथा भवद्भिरुक्तं ताप-सविता। स्था० १३३| तथेद-मित्येवंस्वरूपः। आव० ३५९।
तापक्षेत्रं- उदयास्तान्तरं, प्रकाशक्षेत्रम्। जम्बू०४५५। तहाभाव- यथा वस्तु तथा भावः-अभिसन्धि यत्र ज्ञाने उदयास्तान्तरम्। जम्बू. ४४२। तत्तथा भावं, अथवा यथैव संवेदयते तथैव भावो-बाह्य | तापिका-कटकद्वितयोपेता लोहस्थाली(तवी)। भग० ८५१ वस्तु यत्र तत्तथाभावम्। भग० १९३।
तामरसे- जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३। तहामुत्ति-तथामूर्ति-कथञ्चित्तत्स्वरूपम्। दशवै. तामलि-तापसविशेषः। उत्त०६८ भग. ५१४१ २१४१
तामालित्त-ताम्रलिप्तः-ईशानेन्द्रस्य तहारूवं-तथारूपं तथाविधस्वभावं
वैक्रियरूपकरणादिसा-मोपदर्शने बालतपस्वी। भग. भक्तिदानोचितपात्रमि-त्यर्थः। भग. २२६। तथारूप
१६४१ तथारूप उचितस्वभावः कञ्चनपुरुषः श्रमणा वा तामलित्तग-तामलित्तिकः सैन्धवः। व्यव. २०४ अ। तपोयुक्तः। उपलक्षणत्वादस्योत्तरग-णवान्नित्यर्थः। | तामलित्ती-सिन्धुसौवीरदेशे नगरी। बृह. २२९ आ। भग०१४१।
वङ्गेषु ताम्रलिप्ती आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५१ तहारुव-तथारूप सङ्गतरूपम्। भग० १५५)
ताम्रलिप्तीईशाने-न्द्रस्य तहारुवा-तत्प्रकारस्वभावाः – महाफलजननस्वभावाः। वैक्रियरूपकरणादिसामोपदर्शकतापसनगरी। भग० निर०७ तहिंतहिं-तत्र यत्र देशे एकः। जीवा० १८१। तस्यैव देशस्य तामली-तामलिप्तनगर्यां गाथापतिः। भग० १६१| तत्र-तत्रैकदेशे। जम्बू०४४१
तामसबाणाः- यः पर्यन्ते सकलसंग्रामभूमिव्यापि तहिए-तथ्याः-सत्याः। ज्ञाता० १७७
महान्धत-मसरूपतया परिणमन्ते। जीवा० २८३। तहिया-तथ्याः-अवितथा निरूपचरितवृत्तयः। उत्त० सकलसंग्रामभू-मिव्यापि महान्धसरूपतया परिणताः
प्रतिवैरिवाहिनीषु विघ्नोत्पादका भवति। जम्बू. १२५ ता-तावत्-क्रमार्थः। सूर्य. ९।
तामलिप्ति-नगरविशेषः। उत्त०६०५। ताइ-त्राता-आत्मारामः साधुः। दशवै. २०६।
तायओ-तायते-सन्तानं करोति पालयति च सर्वापदभ्य ताइणं- तायिनां त्रायिणां वा। उत्त० ४९९।
इति तातः स एव तातकः। उत्त० ३९८१ ताई-तायी त्रायी वा। उत्त. ३५३। तायी वा त्रायीमोक्षम्। | तायत्तीस-त्रायस्त्रिंशः महत्तरकल्पः पूज्यस्थानीयः। भगवान् सर्वस्य परित्राणशीलः। सूत्र. ३९४|
औप. ५३ ताए-तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः । दशवै० २६२।
तायत्तीसए-त्रायस्त्रिंशकः गुरुस्थानीयाः देवाः। जम्बू. ताओ-तातेत्यामन्त्रणम्। ज्ञाता० ३४।
१५९| ताडणं- ताडनं उरःशिरःकुट्टनकेशलुञ्चनादि। आव० ५८७ | तायत्तीसगा-त्रायस्त्रिंशाः मन्त्रिविकल्पाः। भग० ५०२। ताडनं- वधः। आव० ५८८
मन्त्रिकल्पाः। भग० १५४। महत्तरकल्पाः पूज्याः। स्था० ताडिओ-ताडितः-आहतः। उत्त०४६१|
११७ ताणं-त्राणं-बन्धुभिः पालनं जरातो वा रक्षणम्। उत्त० | तायत्तीसा-त्रायस्त्रिंशाः पूज्या महत्तरकल्पाः। उपा० १९३। त्राणं-स्वकृतकर्मणो रक्षणम्। उत्त० २२१। तानः- | २७ तानकः। भग० १४२। आव०६६१।
तार-ताराः तारकाः अर्धचन्द्राः। जम्बू० २१९।
१६१
५६२
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[37]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #38
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तारए-संसारसागरमिति गम्यते तेन तथा तारयति तत-स्तालवज्जङ्घ यस्य तत्। ज्ञाता० १३७ परानप्युपदेशवर्तिन इति तारकः। सम. ५
तालणा-ताडना चपेटादिदानानि। औप० १०३। ताराओ-तारकः-अन्यांस्तारयतीति। जीवा० २५६। चपेटादिदा-नम्। प्रश्न० १०९। ताडनातारगा- पूर्णभद्रयक्षेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी। स्था० करादिभिराहननम्। उत्त० ४५६। २०४१
तालतोयाणि- तालतोयानि। बृह. १७३ अ। तार(य)ग्गं-ताराग्रं तारापरिमाणमभिधेयम्। सूर्य. ९। तालनं-चपेटादिना हननम्। औप० १०७। तारग्गहा-तारकाकाराग्रहाः तारकग्रहाः। स्था० ३५५) तालपलंब- फलविशेषः। आचा० ३४८। तालप्रलम्बः। भग० तारय-तारकः-विपृष्ठवासुदेवशत्रुः। आव० १५९।
३६९। तारया- यक्षेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी। भग० ५०४। तालपिशाच-पिशाचविशेषः। स्था० ५०२ पिशाचभेदवितारा-ताराः-ज्योतिष्कभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। ताराः शेषः। प्रज्ञा०७० अश्विन्यादिनक्षत्राणि। सूत्र० ४०२। सुभूममाता। आव० तालपिसाय-तालवृक्षाकारोऽतिदीर्घत्वेन पिशाचः तालपि१६१| कार्तवीर्यपत्नी। आव. ३९२
शाचः। ज्ञाता० १३७ ज्योतिष्कविमानानि
तालपुट-विषविशेषः। उत्त० ३१८ सयो घाति यत्रौष्ठअधिकारान्नक्षत्रजातीयज्योतिष्कानां विमानानीत्यर्थः पुटान्तर्वर्तिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युपजायते जम्बू.४९९। ज्योतिर्विमानरूपा। स्था० ३६। भग. १९५५ तत्। उत्त० ४२९। भरतक्षेत्रे सप्तमचक्रवर्तिमातृनाम। सम० १५२। तालपुडं- तालपुटं विषविशेषः। आव० ३७४। जेणं ताला तारारूपाणि-तारका एव। सम० १४०
संपुडिज्जइ तेणं भरेणं मारयतीति। दशवै० १२७ अ। तारारूव-तारारूप-तारकजातीयम्। सम० १६ स्था० तालफलं- प्रलम्बं फलविशेषः। दशवै. १७६। ४४८। तारारूपाः-तारिकारूपाः। जम्बू० २९२ तार- तालवेंट-तालपत्राशाखेत्यर्थः। निशी० ६० आ। कमात्रम्। स्था० ११५ तारारूपः तारिकारूपः। जीवा. तालयंट-तालवन्तं वायूदीरकमेव दविपटादि। प्रश्न०८। १९९|
तालवंट-तालवृन्तं तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्तछोट तारावलि-पञ्चमनाट्यभेदः। जम्बू०४१६|
इत्यर्थः। ज्ञाता०४८१ तारूवत्ता- तद्रूपता-नीललेश्यास्वभावः। भग० २०५१ तालवृन्तं- वीजनकम्। उत्त० ९० व्यजनम्। जम्बू० ताल-तालाभिधान एकः। भग० ३६९। कंशिकादिशब्दवि- | ४१११
शेषः। स्था० ३९६। वृक्षविशेषः। स्था० १८५, ५०० तालवेंट-तालवन्तं विद्याविशेषः। व्यव० १३३ आ। भग. हस्ततालः। स्था०६३। हस्तताला समुत्थ उपचारा- ४७४। च्छब्दः। अनुयो० १३२ तालवृक्षफलविशेषः। बृह. १३५ | तालसम-नट्टविशेषः। निशी. १यत्परस्पराहतहआ। तालः-हस्तगमः। दशवै०८८1 ताडः। सम०८०३।। स्ततालस्वरानुवति भवति तत् तालसमम्। स्था० कंशिका जम्बू०६३। गीतादिमानकालः। जम्बू. १३७ ३९६। यत्परस्पराभिहतहस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण तालः-घनवाद्यविशेषः। जम्ब० २०६। वलयविशेषः। गीयते तत्। अनुयो० १३२॥ प्रज्ञा० ३३। तालः। जीवा० २६६। कंसिका। जीवा० १६२, तालसुसंपउत्तं- परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवति यद् २१७। प्रज्ञा० ८९।
गीतं तत्, यद् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां तालउड-तालपटं
यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन तालमात्रव्यापात्तिकरविषकल्पमहितमिति।
समं तत् तालसुसंप्रयु-क्तम्। जम्बू० ४०।। विषविशेषः। दशवै. २३७। ज्ञाता० १९०|
तालसुसंप्रयुक्तं-परस्पराहतहस्तताल-स्वरानुवर्ति यद् तालए-आवत्तणपेढियाए। निशी. ५९ आ।
गीतं तत्। यत् मुरजकंसिकादीनामातोद्या-नामाहतानां तालजंघ-तालो वृक्षविशेषः। स च दीर्घस्कन्धो भवति यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[38]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #39
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
समं तद्वा। जीवा० १९५१
परिशटितपत्रादयुपभोग-वान बालतपस्वी। प्रज्ञा०४०५) ताला-कंसिकाः। प्रश्न. १५९|
पतितपत्राद्युपभोगवान् बालतपस्वी। भग० ५०| तालाचरा-तालादयादिभिः विदयाविशेषैः चरन्ति तावसपल्लि-तापसपल्ली। आव० ३९१| तालाचरा। निशी. १६७आ। तालादानेन प्रेक्षाकारिणः। । तावसा- भिक्षुविशेषः। निशी० ९८ अ। राज०२। ज्ञाता०४०| प्रेक्षाकारी। विपा०६३।
ताविया-तापिका। आव०८५४| तालाद्यादि-विद्याविशेषः। निशी. १६७ आ।
तावेइ-तापयति अपनीतशीतं करोति। जम्बू० ४६१। तालायर-तालाचरः-तालादानेन प्रेक्षाकारी। औप. ३। निशी०१५। तालाचरा नटाः। बृह. १०३ अ। तालाचरः तालादानेन | तासणं-त्रासनं फेत्कारादिवचनं भयकारि। प्रश्न. १६०| प्रेक्षाकारी दण्डपाशिको वा। औप०७२ तालाचरः प्रेक्षा- तासणओ-त्रासः आकस्मिकं भयं कारिविशेषः। प्रश्न. १४११
अक्रमोत्पन्नशरीरकम्पमनः तालायरा-तालाचराः प्रेक्षाकारिविशेषः। जम्बू. ११४| क्षोभादिलिगितत्कारकत्वात् त्रासनकः। प्रश्न. ५ चारणाः। औघ० २२३। नर्तकचट्टादयः। बृह. २७३। आ। | ताहो- तदा तस्मिन् काले। ओघ. ११५ भडचेडणडादिया। निशी. ३६८ अ।
तिता-उल्ला। निशी० ४६अ। भिन्ना क्लिन्ना आर्द्रा। तालिअटे-तालवृन्तं व्यजनविशेषः। दशवै० १५४, २२८॥ दशवै. ९६। जम्बू. १९१|
तितिण-सखेदं वचनम्। भग० ९१९। तालिज्जंताणं-ताडनम्। राज०६२
तितिणि-तिंतिणी यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे तालियंट-तालवन्तं-मयूरपिच्छकृतव्यजनमित्यर्थः। करकरायणं। व्यव. २३० अ।
आचा० ३४५। तालाभिधानवृक्षपत्रं वृन्तं तत्पत्रच्छोट |तितिणिए-तिन्तिणिकोऽलाभे सति खेदाद् यत् इत्थर्यः। भग० ४६८1 तालवृन्तं-व्यजनकम्। आव० १२२ | किञ्चनाभि-धायी। स्था० ३७४। तालवृन्तं-वीजनकम्। प्रश्न. १६३।
तितो-क्लिन्नः। निशी० ८१ आ। तालियंटक-तालवृन्तकं व्यजनविशेषः। प्रश्न० १५२ तिंदुग- एकादशतीर्थङ्करस्य चैत्यवृक्षनाम। सम० १५२। तालु-काकुदम्। जीवा० २७३। काकन्दम्। ज्ञाता० १३८1 तेन्दुकः- त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त०६९५ आचा० ३८१
| तिंदुगुज्जाणं-तिन्दुकोद्यानं श्रावस्त्यामुद्यानविशेषः। तालुग्घाडणीए-विद्याविशेषः। निशी० ७६ अ।
उत्त. १५३| तालेइ-ताडयति हस्तादिना। भग. १६६।
| तिंदुयं-तिन्दुकं तेन्दुरुकीफलम्। दशवै. १७६। प्रज्ञा० तालोदा-तालोदकानि।। बृह. १७३ अ।
३६४। तिन्दुकं श्रीवस्त्यामुद्यानविशेषः। उत्त० ४९८१ ताव- तावत्। स्था० ४९७। तापः-आतापनामकर्मोदया- फलविशेषः। प्रज्ञा० ३७, ३२८1 वनस्पतिविशेषः। भग. द्रविमण्डलानामुष्णः प्रकाशः। जम्बू० ४३३।
८०३ तावखित्तं- तापक्षेत्रं सूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डम्। जम्बू. | तिंदुसय- तेन्दूसकः। आव. १८१। ज्ञाता० १८४। ४५३
ति-तृतीया सप्तरात्रिकी। आव०६४७। तावखेत्तपुव्व-तापक्षेत्रपूर्व आदित्योदयमधिकृत्य यत्र तिअं-त्रिकं-कटिभागः। उत्त० ४७४। या पूर्वादिक्। दशवै० ८५
तिउद्दई-त्रुट्यति अपगच्छति। आचा० २९० तावणिज्जं-तापीनयं-तापसहम्। भग० ६७२।
तिउड- त्रिकूटनामवक्षस्कारपर्वतः। जम्बू. ३५२ तावण्णत्ता-तस्या इव नीललेश्या इव वर्णो यस्याः सा | तिउडग-त्रिपुटकाः धान्यविशेषः। दशवै. १९३। तवर्णा तद्भावस्तत्ता तदवर्णता। भग० २०५१ | तिउण-त्रिगुणं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य। आव० २३३। तावस-तवेडिओ। दशवै० ३३आ। तापसः-कौशाम्ब्यां | तिउलं-त्रीन् मनः प्रभृतीन्-तुलयति तुलामारोपयति श्रेष्ठिविशेषः। उत्त०९९। तापसः
कष्टा-वस्थीकरोतीति त्रितुलम्। प्रश्न. १५६। तोदकः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[39]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #40
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[Type text]
व्यथकः । उत्त० ४७५ |
तिउला- तीन् मनोवाक्कायांस्तुलयति अभिभवति या सा जितुला प्रश्न. १७। त्रीनपि मनोवाक्कायलक्षणानर्थास्तु-लयति जयति तुलारूढानिव वा करोति त्रितुला जाता० ६८ तिकडु इतिकृत्वा आव० ७९३१ तिकडुय- त्रिकटुकं शुण्ठीमरिचपिप्पल्यात्मकम्। उत्तः
६५३|
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
तिकणइयाइं - नयत्रिकाभिप्रायाच्चिन्त्यन्ते यानि तानि नयत्रि-कवन्तीति त्रिकनयिकानि । सम• ४ तिकूडा- शीतामहानादयाः दक्षिणतटे स्थितः
तीक्ष्णाछेदकरणात्मकम्। दश० २०११ तीक्ष्णा
निशिताः । उत्त० ३४९ |
तिक्खदाढ - तीक्ष्णाः निशिता दंष्ट्रा एव यस्य स तीक्ष्ण दंष्ट्रः । उत्त० ३४९|
तिक्खसिंगे- तीक्ष्णे निशिताये शृङ्गे विषाणे यस्य स तीक्ष्ण- शृङ्गः । उत्त• ३४९१
तिक्खा - परुषा । भग० ७६७ ।
तिक्खुत्तो- त्रिः कृत्वः । आव० १२४, ३५९। त्रीन् वारान् त्रिकृत्वा । भग० १४१
तिखुत्तो- तिण्णिवारा निशी २१८ अ तिग- त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति । औप० ४ | त्रिकम् । आव० १३६ | त्रिकं यत्र स्थाने रथ्यात्रयमीलको भवति । औप० ५७ त्रिकं रथ्यात्रयमीलनस्थानम्। भग० १३७, २००, २३८ | त्रिकः - जीवाजीवनोजीवराशित्रयं तदभ्युपगन्तरोपि तथैव त्रिकाः। उत्त० १५२१ त्रैराशिक:राशित्रयख्यापकः । आव० ३११। त्रिकं-त्रिपथसमागमः । अनुयो० १५१ | यत्र रध्यानां त्रयं मिलति । स्था० २९४ कटिभागम् । उत्त० ४७५ ।
तिगडुगाईयं - त्रिकटुकादिकं सुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकम्। पिण्ड० ६५|
तिगपरिहीणो- त्रिकेण ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेन हीनः ।
ओघ १७३१
तिमिति किंजल्कः स्था० ४८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
वक्षस्कारपर्वत-विशेषः । स्था० ८०
५००|
तिक्ख तीक्ष्णा भेदिका । भग० १४०। तीक्ष्णः कटुः । उत्तः तिमिच्छि- प्राकृते पुष्परजः शब्दस्य तिगिंछि इति ६५३ | तीक्ष्णा वेगवती । भग० ३०६ | निपातः देशी शब्दो वा । जम्बू० ३०७ | तिमिच्छिकूट- शिखरिणिवर्षधरे एकादशकूटनाम स्था० ७२| उत्पातपर्वतः। प्रश्र्न० ९६ । उत्पातपर्वतः । स्था० ३७६ चमरेन्द्रस्य उत्पातपर्वतनाम स्था० ४८२ सम ३३॥ तिगिच्छिद्रहपतिकूटम्। जम्बू• ३८१। तिमिच्छिद्दह- तिगिछिः पौष्परजस्तत्प्रधानो द्रहस्तिगछिद्रहो नाम द्रहः । जम्बू• २०६ | तिगिच्छिते— चैकित्सिकं आयुर्वेदः । स्था० ४५१ । तिमिच्छी नगरीविशेषः जितशत्रुराजधानी विपा० ९५ तिगुणं - तिस्रवाः । ओघ० ११७
तिगुणुक्कंडो - त्रिगुणं त्रीन् वारान् यावत् उत्-प्राबल्येन कण्डवं-छटनं यस्य स त्रिगुणोत्कण्डः। पिण्ड॰ ६५। तिघरंतरं गृहत्रयात्परतः तृतीयान्तरात्परतः। निशी.
१८७ |
तिचक्खू - त्रिचक्षुः उत्पन्नमावरणक्षयोपशमेन ज्ञानं च श्रुत्वा वधिरूपं दर्शनं च अवधिदर्शनरूपं यो धारयति वहति स तथा य एवंभूतः सः चक्षुरिन्द्रियपरमश्रुतावधिभिरिति वक्तव्यं स्यात् । स्था०
[Type text]
तिगिंधिकूडे तिगिंछीकिंञ्जल्कस्तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिंच्छि-कूटः। स्था॰
४८२
[40]
तिमिच्छविमानविशेषः सम• ३८८ चिकित्सा ज्ञाता०
११३ आव० ३४८ \
तिगिच्छकूडे उत्पातपर्वतः । भग. १७२२
तिमिच्छा - रोगप्रतिकारः । निशी० ६५आ। रोगप्रतिकारः । पिण्ड० १२१, १३२| चिकित्सा। व्यव० १९५अ । मतिविभ्रमः । आव ० ८१५ प्रश्न० १०९ | तिमिच्छायणसगोत्ते- ज्येष्ठागोत्रनाम् । सूर्य० १५० तिमिच्छायणे- चिकित्सायनं ज्येष्ठागोत्रम् । जम्बू०
१७१ |
तिजमलपदं - त्रयाणां यमलपदानां
समाहारस्त्रियमलपदम्, चतुर्विंशत्यङ्कस्थानलक्षणं अथवा तृतीयं यमलपदं षोडशा नामङ्कस्थानानामुपरितनाइकाष्टकलक्षणमिति वर्गषट्कलक्षणम्। अनुयो० २०६ |
"आगम- सागर- कोषः " [३]
Page #41
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तिहइ-तिष्ठति वर्तते आसेवते। दशवै. २४३। | तित्तगं- निशी० १९५। तिक्तकं एलुकवालुकादि। तिहाणं-तिस्त्रो वाराः। ओघ. १९३। मणिबन्धहस्ततल- दशवै. १८० भूमिकालक्षणम्। बृह० १०७ आ। तिस्रो वाराः आ| आव० | तित्तालाउयं-कटुकतुम्बकम्। ज्ञाता० १९९|
तित्तिय-तित्तिकः चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। तिहाणकरणसूद्ध-त्रीणि स्थानानि उरःप्रभृतीनि तेष् प्रश्न. १४१ करणेन क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्धम्। जीवा. १९५४ तित्तिर- तित्तिरः पक्षिविशेषः। प्रश्न०८। त्रीणि स्थानानि उरःप्रभृतीनि तेषु करणेन क्रियया तित्तिरा-लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। प्रज्ञा०४९। विशुद्धम्। अथवा उरःकण्ठशिरस्स् श्लेष्मणा तित्ती-तृप्तिः तृप्तहेतुत्वात्तृप्तिः अहिंसाया दशमं अध्व्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यद्गीयते
नाम। प्रश्न. ९९। तृप्तिः ध्राणिः। स्था० १३ तदुरःकण्ठशिरोविशुद्धत्वात् त्रिस्थान-करणविशुद्धम्। | तित्थंकरो-तीर्थकरः जिनः प्रशस्तभावकरविशेषः। जम्बू०४०
आव०४९९ तिहाणकरणसुद्धा-त्रिस्थानकरणशुद्धाः
तित्थं-जन्मजरामरणसलिलसम्भृतं आदिमध्यावसान-रूपेषु त्रिषु स्थानेषु करणेन क्रियया मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीमकषायपातालं यथोक्तवाहनक्रियया शुद्धा अवदाता न
दुरवगाहमहामोहावतभीषणं रागदवे-षपवनविक्षोभित्तं पुनरवस्थानव्यापारणरुपदोषलेशेनापि कलकि-ताः। विविधानिष्टेष्टसंयोगवियोगवीचीनिचयसलं जीवा०३६६।
उच्चस्तरमनोरथसहस्रवेलाकलितं संसारसागरं तरन्ति तिणय-त्रिनतं मध्यपार्श्वद्वयलक्षणे स्थानत्रयेऽवनतम्। येन तत्तीर्थं। सकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं भग०१९४१
अत्यन्तावऱ्या तिणहत्थय-तृणपूलकः। भग० ९८४)
शेषतीर्थान्तरीयाविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं तिणिस-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धि। भग०४८११ सकलत्रैलोक्यातिनिशः वृक्षविशेषः। स्था० २१९। तैनिशं
न्तर्गतविशुद्धधर्मसंपत्समन्वितमहापुरुषाश्रयमविसंवा तिनिशदारुसम्बन्धि। जीवा. १९२
दि प्रवचनम्। नन्दी. २१। तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम्। स्था० तिनिशद्रुमसम्बन्धि। जम्बू. ३७। वृक्ष-विशेषः। निशी ३श तीर्थ-घट्टः। जम्बू. २००| तीर्थं तीर्यतेऽनेनेति १४४ आ। तिनिशः वृक्षविशेषः। दशवै० २३९। उत्त०१७ प्रवचनं सङ्घो वा। आव०८६। तीर्यते तिण्ण-तीर्णः भवार्णवं स्वयमवतरितः। जीवा० २५६) संसारसागरोऽनेनेति तीर्थं
तीर्णः शक्तः। आव०६१७। तीण इव तीर्णः। सम०४। यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमतितिक्खइ-तितिक्षते दैन्याभावात क्रमेण वा
गुरुप्रणीतं प्रवचनम्, तच्च निराधारं न भवति इति मनःप्रभृतिभिः। भग०४९८१
सङ्घः प्रथमगणधरो वा। प्रज्ञा० १९। त्रिष् वा तितिक्खया-तितिक्षार्थं सहनार्थम्। ओघ. १९०
क्रोधाग्निदाहोतितिक्खसि-तितक्षसे दैन्यावलम्बनेन। ज्ञाता०७१। पशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक्षणेष तितिक्खा-तितिक्षा परीषहजयः। प्रश्न. १४६। तितिक्षा ज्ञानादिलक्ष-णेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम्। स्था०
परीषहजयः, योगसङ्ग्रहे नवमो योगः। आव०६६४। ३३। तीर्थं पवित्र-ताहेतः, तरणोपायश्च। प्रश्न. १३६। तितिक्खेमि-तितिक्षामि। स्था० २४७
तीर्थभूतदेवद्रोण्यादि। ज्ञाता०८१। तीर्थम् चात्वर्णः तित्त-तिक्तः कोसातक्यादिवत्। उत्त०६७६)
श्रमणसङ्घः। आव० १३४। तीर्थं गणधरः। आव० २३३। श्लेष्मनाश-कृत् तिक्तः। स्था० २६। तिक्तः-यद्दयात्। तीर्थं वा गणधरः। आव० २८७। तरन्ति तेन जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनम् सङ्घः। भग०७) तिक्तरसनाम। प्रज्ञा०४७३।
चाउवण्णो समणसंघो वालसंघं वा गणिपिडगं। निशी
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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७७ । तीर्थम्, त्रिस्थम् व्यथं वा, जनं तरन्ति येन तिदंड-त्रिदण्डः। भग० ११३॥ संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनं सङ्घः। सम० ३। तिदंडी-त्रिदण्डी सुवर्णपुरुषकारीपरिव्राजकः। आव०४५२। पुण्यक्षेत्रम्। उत्त. ३७३| गणधरः प्रवचनं श्रुतमित्यर्थः। | तिदिसं पगासगा-त्रिदिशं प्रकाशकानि। आचा०४३० उत्त० ५८४। तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ- तिदिसिं-त्रिदिशि तिसृष् दिक्षु। जीवा. २३६। यथावस्थि-तसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं तिदुला-तौदिका-त्रीन्-प्रस्तावात् मनोवाक्कायान् परमगुरुप्रणीतं प्रवचनं सङ्घः प्रथमगणधरो वा। नन्दी | दोलतीव स्वरूपचलनेन त्रिदुला। उत्त० १२१| १३०| त्रयो वा क्रोधाग्नि-दाहोपशमादयार्थाः कलानि | तिनयं-त्रिनतं आदिमध्यावसानेषु नमनभावात्। जीवा० यस्य तत् व्यर्थम्, त्रयो-ज्ञानादयोऽर्थाः वस्तूनि यस्य २५९। तत् व्यर्थम्। स्था० ३३
तिनिशलता-सञ्ज्वलनमानभेदः। दशवै.१०१। जीवाजीवादिपदार्थसार्थअत्यन्तानवदयशेषतीर्थान्त- । तिन्नं-तिस्रो वाराः। ओघ. २१७ स्तिमित आर्द्धतां गतः। रीयाविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं त्रैलोक्यान्तर्गतविशुद्ध- ज्ञाता० ११४१ धर्मसम्पत्समन्वितमहापुरुषाश्रययं अविसं-वादि तिपट्ट- एकः संस्तारकपट्टकः दवितीय उत्तरपट्टकः प्रवचनं च। तीर्थं श्रुतज्ञानम्। आव० २३५। तीर्यते
तृतीयश्चो-लपट्टकः। ओघ० १३२ संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थं प्रवचनम्। राज०१०९। तिपरियल्लं-त्रिःपरिवर्त त्रयः परावर्तकाः वेष्टनानि। तित्थगर-तीर्थ-प्रवचनं तदव्यतिरेकाच्चेह सङ्घस्तीर्थं । ओघ० २१४। तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरः। भग०७ तीर्थकरः तीर्यते | तिपासियं- त्रिपासितं त्रीणि वेष्टनानि दवरकेन संसारसागरसमुद्रोऽनेनेति तीर्थं तत्करणशीलः। जीवा० । दत्त्वापासितं पाशबन्धेन। ओघ. २१४। २५५। तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनं तिपुड-धान्यविशेषः। दशवै. ९२॥ तदव्य-तिरेकादिह सङ्घस्तीर्थं तस्य
तिप्पंति-प्रतिजागरति। गच्छा करणशीलत्वात्तीर्थंकरः। सम० ३। तीर्थकरः
तिप्पड़-तेपते क्षरति ददाति। पिण्ड० ९३। द्वादशाङ्गप्रणायकः। प्रश्न. १०४।
तिप्पइय-त्रिपदिका। जीवा० २४७। तित्थगरनाम- यद्दयवशात्
तिप्पणया-परिदेवनता। सूत्र. ३६८१ दशवै. १५ अष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिं-शदतिशयाः तिप्पति-तिप्यति सुखाच्च्यावयति। सूत्र० ३२५ प्रादुष्यन्ति तत् तीर्थकरनाम। प्रज्ञा० ४७५)
तिप्पमाण-भयात् प्रस्वेदलालादि तर्पन्। ज्ञाता०१५९। तीर्थकरनामगोत्रं-तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम तिप्पयंतो-निन्दयन्। सम० ५४। तच्च गोत्रं च-कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात
तिप्पावणया-तेपापना तिपृष्टे पृक्षरणार्थौ इति वचनात् तीर्थकरनामेति गोत्रं-अभिधानं यस्य तत्। स्था० ४५५१ | शोकातिरेकादेवाश्रुलालादिक्षरणप्रापणा। भग. १८४। तित्थगरपडिरुवं-तीर्थकरप्रतिरूपम्। आव० १२४ तिभाग-त्रिसंख्या भागाम्रिभागाः। जम्बू०६८1 तित्थधम्म-तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्मः-आचारः तिमासिआ- द्वादशे तृतीयभिक्षुप्रतिमा। सम० २११ श्रुतधर्मप्र-दानलक्षणस्तीर्थधर्मः, यदि वा तीर्थं प्रवचनं । | तिमिंगल-तिमिङ्गलः महामत्स्यतमः। प्रश्न०७ श्रुतमित्यर्थस्त-द्धर्मः स्वाध्यायः। उत्त० ५९४। तिमि-तिमिः महामत्स्यः। प्रश्न ७ तित्थभेय-तीर्थभेदः तीर्थमोचकः। प्रश्न. ४६। तिमितिमिगिला-मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा०४४। तित्थभेयए-णाणाइमग्गविराहणाहत्थंति भणियं होइ। तिमिरं-तिमिरसम्पाद्यो भ्रमः। प्रज्ञा० ३५६। आव०६६२
पित्तदयविकारेण दव्वचरिवंदियस्य सवलीकरणं। तित्था-तीर्थानि चक्रवर्तिनः
निशी० ३०२ आ। वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। तिमिरं समुद्रशीतादिमहानद्यवतारलक्ष-णानि तन्नामक निकाचितं ज्ञानावर-णीयम्। आव० ७८८ पर्वगविशेषः। देवनिवासभूतानि। स्था० १२३॥
प्रज्ञा० ३३|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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तिमिरविद्धसे- तिमिरं अन्धकारं विध्वंसयति अपनयति तिमिरविध्वंसः । उत्त० ३५१1 तिमिश्र गुहा गुहाविशेषः । नन्दी० २२८
तिमिसंधयारं तमिस्रान्धकारं अत्यन्ततमः प्रश्न. ९० तिमिसगुह- तमिश्रगुहा आक० १५०, ६८७। तिमिसगुहा वैताढ्यनवकूटे सप्तमः । जम्बू• ३४१॥ तिमिसगुहाकूड तमिस्रगुहाधिपदेवस्य निवासभूतं कूटं तिमि खगुहाकूटम् । जम्बू० जणा
तिमिसा तमिस्रा रजनी प्रश्न० ९८१
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
तिमिस्स तमिस्रगुहा प्रश्न. १६३ तिमिस्सयावेएड् शल्यायते आव० ४२२
तिमीतिमिंगिलामच्छो- मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । तिम्मणं व्यञ्जनम् ओघ० १३३१
तिम्मिअ-तीमित । आव० १३१ |
तिय- त्रिपथयुक्तं स्थानं त्रिकम् । ज्ञाता० २८| त्रिकं रथ्या त्रयमीलनस्थानम्। प्रश्न० ५८1 त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं
मिलति तत् । जीवा० २५८ |
तियचउक्कं त्रिकचतुष्कम् । आव. ६७५ तियभंगो- त्रिकरूपो भङ्गः त्रिकभङ्गः भङ्गत्रयम्। भग० ८६।
तिरंजली तिरोहिताञ्जलिः । व्यव० २३७ आ तिरखंडिय - त्रिखण्डिकः स्तेनः । दशवै० ५२ | तिरासिय- त्रैराशिकः गोशालकमतानुसारी
निह्णवविशेषः। सूत्र० ४५|
तिरिअवेइया - तिर्यग्वेदिका यत्र सण्डासमध्ये हस्तौ नीत्वा प्रतिलिख्यते सा । ओघ० ११० | तिरिक्खजोणिया- तिर्यग्गतिप्रायतिर्यग्लोके योनयस्तत्र जाताः तिर्यग्लोके योनयः- उत्पत्तिस्थानानि ये ते तिर्यग्योनिजाः । जीवा० 331 तिरिघट्टना तिर्यग्धट्टना प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण तिर्यक् कुट्यादि घट्टयति। ओघ० १०९ । तिरिच्छसंपाइ - तिर्यक् सम्पततीति तिर्यक्संपातः
पतङ्गादिः । दश० १६४
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
तिरियंकरेइ तिर्यक्करोति । सूर्य- ४६॥ तिरियंभित्ति- तिर्यग्भित्तिः शकटोर्दिवदादौ सड़कटामग्रतो विस्तीर्णा आचा० ३०२ तिरिय-नो प्रतिकुलं नो अनुकुलं वितिरिच्छ तिरियं । निशी० ६३ आ । तिर्यक् । सूर्य० ४५। तिर्यक्भित्तिप्रदेशः । जीवा० २०६। तिर्यक् दिशः अनुदिशश्च आचा० ६३॥ तीरितं तीरं पारं प्रापितम् । प्रश्न० ११३ | तिरियलोए - रुचकस्याधस्तान्नवयोजनशतानि
[43]
रुचकस्योपरिष्टान्नवयोजनशतानि तिर्यग्लोकः ।
प्रज्ञा० १४४ |
तिरियलोयतह तह स्थालं तिर्यग्लोके तङ्गमिव तिर्यग्लोकतट्टे तस्मिंश्च
स्वयम्भूरमणसमुद्रवेदिकापर्यन्ते अष्टादशयोजनशतबाहल्ये समस्ततिर्यग्लोके च प्रज्ञा० ७६ । तिरियलोयपयरं
रुचकसमाद्भूतलभागान्नवयोजनशतानिगत्वा
यज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितनं तिर्यग्लोकसम्बन्धि एकप्रादेशिकमा काशप्रतरं तत् तिर्यग्लोकप्रतरम् । प्रज्ञा० १४४ |
तिरियवाए तिर्यगुद्गच्छन् यो वाति वातः स तिर्यग्वातः । प्रज्ञा० ३०| यस्तिर्यग्वाति वातः स तिर्यग्वातः जीवा. २९
अ।
तिरीडपट्टते वृक्षत्वङ्मयम् । स्था० ३३८ तिरीडो- वृक्षविशेषः । बृह- २०१ अ
तिरीलोपट्टो तिरीडस्क्खस्स वागो तस्स तंतू पट्टसरिसो सो तिरीलोपट्टो । निशी २५४ आ
तिरो - तिरोहितम् । बृह० १५९ अ
तिरिच्छा तिरिश्चीना अननुकूला
तिर्यक् पार्श्वतः | ओघ० १६८०
सदनुष्ठानप्रतिघातिका सूत्र० ३१९|
तिर्यगानुपूर्वी द्वितीयानुपूर्वी नाम प्रजा० ४७३॥
तिरियंकडु - तिर्यक्कृत्वा अपहस्त्य, हस्तयित्वा वा सूत्र तिर्यग्गामिनी नदीति तिर्यक् छिनत्ति सा। व्यव० २५
९० |
आ ।
तिरीडंति - किरिटं च मुकुटं धारयन्ति ये ते सम० १५८) तिरीड - तिरीटं मुकुटम्। प्रश्र्न० ७७ तिरीटं शिखरत्रयोपेतं मुकुटमेव। प्रश्र्न० ४८। किरीटानि मुकुट शिखरत्रयोपेतानि जम्बू. २०५१
तिरडपट्टए - वृक्षविशेषस्यवल्कभववस्त्रम् बृहः २०१
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तिर्यग्मनुजान्- जातमात्रबालकान् तिरश्च
तिलपिट्ठ-तिलपिष्टः। तिललोट्टः। दशवै. १८५ अश्र्ववत्सकादीन्। ओघ. १६६।
तिलपीलगचक्क-तिला कीडगा वा छुट्टेज्जा। निशी०६१ तिर्यग्वेदिका-जानुनोः पार्श्वतो हस्तौ नीत्वा
आ। वेदिकायास्तृतीयः प्रकारः। स्था० ३६२|
तिलपुप्फवण्णे-अष्टाशितौ महाग्रहे दवात्रिंशत्तमः। तिलंतिलं-तिलशः। विपा०४७।
जम्बू. ५३५ स्था०७९ तिलंबणा-त्रिलम्बनः त्रिकवलः कवलत्रयप्रमाणः। ओघ० | तिलमक्खियं-तैलम्रक्षितम्। औघ०१४० १९०१
तिलय-तिलकं एकोरुकदवीपे वृक्षविशेषः। जीवा. १४५ तिल-तिलाः धान्यविशेषः। दशवै० १९३। औषधिविशेषः। तिलको विशेषको भूषकत्वात्। भग. ५४१। तिलकाः प्रज्ञा० ३३। तिलः अष्टाशितौ महाग्रहे एकत्रिंशत्तमः। भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि। सम० १३९। तिलकः वृक्षविशेषः। जम्बू. ५३५ स्था० ७९। वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२। जीवा० २२९। तिलए- तिलकः वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२। तिलकः तिलयवणं-तिलकवनम्। आव० १८६) सप्तदश-तीर्थंकरस्य चैत्यवृक्षनाम। सम० १५२। तिललोम-तिलखलः। व्यव० ४०५। भविष्यकालिनः प्रथमवासुदेवस्य प्रतिशत्रुः। सम० १५४ | | तिलसंगुलिया-तिलफलिका। भग० ६६४। तिलकः भित्त्यादिषु पुण्ड्रम्। सूर्य. २६४। प्रज्ञा० ९९। । तिलसक्कुलिया-तिलशकलिका तिलप्रधाना तिलकः। अनुयो० २१२
पिष्टमयपो-लिका। आचा०५८। तिलओ-तिलकः भित्त्यादिष पण्डम। जीवा.१७५.३७११ | तिलसिंगा-तिलफलिका उत्कटिकाभेदे तिस्रः। प्रज्ञा तिलकंटओ-तैलकण्टकः कोकिलच्छदः प्रज्ञा० ३६२। ર૬ધા. तिलक-धान्यवान् श्रेष्ठी। सूत्र. १९४१ आधायाः तिलसेंगलिया-तिलशिम्बा। आव २१२२ परावर्तित-द्वारे श्रेष्ठी, वसन्तपुरे श्रेष्ठिविशेषः। पिण्ड. तिलहारगकपट्ठगो-तिलहारकशिशुः। आव० ७६८। १००१
तिलुक्क- त्रैलोक्यं तिलकीडय-तिलकीटकः तिलकृमिः। आव० ६२४। भवनपतिव्यन्तरनरविद्याधरवैमानिकादितिलक्खागिया-तिलखादिका। आव०६९७१
समुदायलक्षणः। अनुयो० ३७| तिलग-तिलकं वृक्षविशेषः। आव० ५१३|
तिलोदक-तत्प्रक्षालनजलम्। स्था० १४७ वनस्पतिविशेषः। भग० ८०३| निशी० ६१ अ। तिलकः | तिलोदगं-तिलोदकं तिलैः केनचित्प्रकारेण विशेषको ललाटाभरणाम। औप०५५।
प्रासुकीकृतमुद-कम्। आचा० ३४६। तिलगचोदसं-तिलकं ललाटाभरणं रत्नमयं चतुर्दशं यत्र | तिल्लपूयं- तैलप्रधानं पूपम्। आचा० ३५२॥ तत्तिलकचतुर्दशम्। जम्बू० २१७
तिवइ-त्रिपदी। आव. १६८ त्रिपदी भमौ पदत्रयः न्यायः तिलगचोद्दसगं-तिलकचतुर्दशकं अलङ्कारविशेषः।। पदत्रयस्योन्नमनं वा। जम्ब० २६५ त्रयाणां पदानां
आव०६५। तिलकचतुर्दशकं आभरणविशेषः। आव० ९८१ समाहारस्रिपदी-मल्लस्येव रङ्गभूमौ तिलगरयण-तिलकरत्नं पुण्ड्रविशेषाः। जीवा० २०५ पदत्रयविन्यासविशेषः। अन्त०१६) भित्त्यादिषु पुण्ड्रविशेषाः। जम्बू. ५४। पुण्ड्रविशेषः। तिवई-त्रिपदी मल्लस्येव रङ्गभूम्यां गतिविशेषः। जम्बू०४९।
ज्ञाता० २३२॥ तिलगबणे-तिलकवनम्। भग० ३६)
तिवग्गो-त्रिवर्गः त्रैलोक्यं धर्मार्थकामा वा। आव०४२३ तिलत्थंबओ-तिलस्तम्बः। आव० २१२।
वत्थव्वगसंजूया संजेतोओ आगंतुगसंजता यतिवग्गा। तिलपप्पडओ-जो आगमेहि तिलेहि कीरइ। दशवै०८६ | निशी० १५५ आ। तिलपप्पडग-तिलपर्पटः पिष्टतिलमयः। दशवै. १८५। तिवतिं-त्रायाणां पदानां समाहारस्त्रिपदी-मल्लस्येव तिलपर्पटिका-शष्कुलिः। दशवै. १७६|
रङ्गभूमौ पदत्रयविन्यासविशेषस्ताम्। अन्त०१६॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[44]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तिवलिय-त्रिवलिका। भग. १६७
विदेहदिन्ना प्रियकारिणी महावीरस्वामिनः माता। तिवायणं-त्रिपातनं-त्रीणि कायवाङ्मनांसि यद्वा त्रीणि आचा० ४२२ त्रिशला सिद्धार्थक्षत्रियपत्नी। आचा. ४२११ देहायु-रिन्द्रियलक्षणानि पातनं चातिपातो-विनाशः । आव. १७९| त्रिशला वर्द्धमानमाता। आव० १६० त्रिशला त्रयाणां काय-वाङ्मनसां पातनं-विनशनं त्रयाणां
महा-वीरजननी। भग० २६८1 देहायुरिन्द्रियरूपाणां पातनं वा विनाशनम्। पिण्ड. ३७ तिसाइओ-तृषितः। आव० ४२६) तिवायणा-त्रयाणां मनोवाक्कायानां त्रिभ्यो वा
तिसाकालो-गिम्हो। निशी० ७५आ। देहायुष्केन्द्रि-यलक्षणेभ्यः प्राणेभ्यः पातना-जीवस्य । | तिसामासो-ज्येष्ठ आषाढो वा। बृह. १४३ आ। भंसना त्रिपातना अतिशयवती यातना प्राणेभ्यो जीवस्य | तिसालयं-त्रिशालकं। जीवा. २६९। वेति, प्राणवधस्य दशमः पर्यायः प्रश्न. ५
तिसिरा-त्रिशालकम् मत्स्यबन्धविशेषः। विपा. ८१ तिविट्ठ-त्रिपृष्ठः सिंहमारकः। व्यव० १६६ आ। त्रिपृष्ठः । तिसूलं-त्रिशूलं प्रसिद्ध शस्त्रविशेषः। आव०६५१| श्रेयांसजिनकालभावि प्रथमवासुदेवः सम०८८ त्रिपृष्ठः | तिसोवाण-त्रयाणां सोपानानां समाहारः त्रिसोपानम्। जनपजोपद्रवकारी विषमगिरिगुहावासी
जम्बू०४२॥ महाकेसरीमारकः। प्रश्न०७५
तिसोवाणपडिरूवगं-त्रिसोपानप्रतिरूपकं त्रिसोपानं च तत् तिविहू- भविष्यकालभावी नवमो वासुदेवः। सम० १५४१ प्रतिरूपकं-प्रतिविशिष्टरूपं यस्य तत् च। जीवा. १९८१ त्रिपृष्ठः प्रथमवासुदेवः। आव० १५९।
त्रिसोपानप्रतिरूपकं प्रतिविशिष्टरूपकं त्रिसोपानम्। तिव्व-तीव्रा झगिति शरीरव्यापिका। भग. २३१। तीव्रः जीवा० २८९। दुःसहः। आचा० १५०। बृहद्द्वारोपेतम्। आचा० ३३३। तिसोवाणपडिरूवग- एकद्वार प्रति निगामप्रवेशार्थं तीव्रः विशुद्धः। आव २८1 तीव्र तिक्तं निम्बादिद्रव्यं त्रिदिगभिम-खास्तिस्रः सोपानपङक्तयः। स्था० २३२ तदिव तीव्रः। भग०४८४।
तिहि-तिथिः रिक्तार्केन्दुदग्धादिदुष्टतिथिभ्यो भिन्ना तिव्वदेसिय-तीव्र बृहद्दवारोपेतं देशिकं बृहत्क्षेत्रव्यापि तिथिः। जम्बू० २७३ तीव्र च तद्देशिकं तीव्रदेशिकम्, तीव्रदेशिका
तिहिपव्वणी-तिथिपर्व। आव०४२२१ महतिदेशेऽन्धकारोपेता। आचा० ३३३|
तिही-तिथिः मदनत्रयोदश्यादिः। प्रश्न० १५५ तिव्वप्परिणामा-तीव्रपरिणामाः प्रबलाविर्भूतस्वरूपाः। मदनत्रयोद-श्यादितिथिषु। भग० ४३७। ज्ञाता० ८१। आचा० १५०
मदनत्रयोदशीप्र-भृतिः। ज्ञाता०५६। तिव्वलज्ज-तीव्रलज्जः उत्कृष्टसंयमः। दशवै. १९०।। तीतं-अतीतम्। भग०६६। तिव्ववेर-तीव्रवैरः अनबद्धविशेषः। ज्ञाता०८१| तीतद्धा-अनादावतीतः कलः। भग० ४७ तिव्वा-तीव्रारौद्राः। आव. १९१। तीव्राः। जीवा. १८७) तीताए-अतीता। स्था० ७६| तीव्रा-तीव्रानभागबन्धजनिता। प्रश्न. १९।
तीमनं-शाकः। पिण्ड० १३५ तिव्वाभिलासे-तीव्राभिलाषः अध्यवसायित्वम्। आव० तीयं- त्रैतं त्रिकम्। सूत्र०६७ ८२५१
तीरं-तीरावर्तिजलापूरितं स्थानम्। जीवा० १९७। तटम्। तिव्विटुं-अप्पफलं। दशवै. ८३ आ।
जीवा० १२३। तिसंधि-त्रिसन्धि आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावात्। तीरइ- शक्यते। आव० ३२४॥ जीवा० २५९।
तीरइत्ता-तीरयित्वा पारं नीत्वा। उत्त. १७ तीरयित्वा तिसंधिय-त्रिसन्धितं त्रिषु स्थानकेषु कृतसन्धिकं अध्ययनादिना परिसमाप्य। उत्त० ५७२। नैकाङ्गि-कमित्यर्थः। भग० १९४
तीरही-संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी तीरार्थी। सूत्र० २९८१ तिसरय-त्रिसरिकम्। ज्ञाता०२२
तीरं पारं भवार्णवस्यर्थं यत इत्येवं शीलस्तीरार्थी तिसला-चतुर्विंशतितमतीर्थकरस्य माता। सम० १५१| तीरस्थायी वा तीरस्थितिः। स्था० १८१।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[45]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #46
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तीरावेति-तीरयति समर्थं करोति। व्यव० १४७ अ।
रवः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० तीरियं- पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन | तुंबवण-तुम्बवनं। उत्त० ३२१। तुम्बवनं तीरितं। आव०८५१।
सन्निवेशविशेषः। आव० २८६। तीरियकज्ज-तिरिकार्यः समाप्तकार्यः। व्यव० १४५अ। | तुंबवीणा- तुम्बा युक्ता वीणा येषां ते तुम्बवीणः तीरिया-तीरं पारं नीता। स्था० ३८८
तुम्बवीणावा-दकः। जीवा० २८१| तीरेइ-तीरयति पूर्णेऽपि तदवधौ स्तोककालावस्थानात्। | तुंबवीणिय-तुम्बवीणिकः। औप० ३। प्रश्न. १४१। भग० १२४। पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात्।
___ अनुयो०४६। ज्ञाता०७३। पूर्णेऽपि कालावधावनुबन्धात्यागात्। उपा० | तुंबा-तुम्बा ज्योतिष्केन्द्रसूर्यस्याभ्यन्तरिका पर्षत्। १५
जीवा. १७६| तीर्थ- श्रुतम्। भग०६।
तुंबाग-तुम्बाकं त्वग्मिज्जान्तर्वर्ति आर्द्रा वा तीसइ-त्रिंशत्। आव० ६३४।।
तुलसीवेत्यन्ये। दशवै० १७६ तीसए- तिष्यकः शक्रसामानिकविकर्वणाविवरणे तुंबी-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा. ३२ वनस्पतिविशेषः। भग. अनागारः तिष्यकाभिधानोऽनगारः। भग. १५८
८०३ तीसगुत्त-तिष्यगुप्तः जीवप्रदेशिका सम्बन्धी निह्नवः। | तुंबेणउरेपडिअं-तुम्बेनोरसि पतितम्। आव० १७६)
स्था० ४१०। तिष्यगुप्तः श्रीमहावीरशासने चतुर्थो तूंबेति-मच्छियजालसरिसं जालं काऊण अलाबुगाण निह्नवः। उत्त. १५३। तिष्यगुप्तः वस्वाचार्यशिष्यः। | भरिज्जति। निशी. ४५अ। उत्त० १५८ तिष्यगुप्तः यस्माज्जीवप्रदेशाउत्पन्नाः स | तु- भव्यकर्मविशेषणार्थः। आव० ४३८ पुनः। आव० आचार्यविशेषः। आव० ३११। तिष्यगुप्तः
२८५। पुनः। आचा० २२९। तु शब्दो भाषामात्रार्थः। सम० चतुर्दशपूर्विवसुनामाचार्यशिष्यः। आव० ३१४|
१२७। हेतौ। व्यव० ४७ आ। तुः भाषामात्रः। प्रश्न. १५६। तिष्यगुप्तः वसूनामाचार्यशिष्यः। आव० ३१५
अधिकारार्थसंसूचनार्थे। प्रज्ञा० ५५४। तुंगारो-तुङ्गारः दक्षिणपूर्वो वातविशेषः। आव० ३८६।। | तुअटुंति-त्वग्दर्शनं कुर्वन्ति वामपार्श्वतः परावृत्य तुंगिक-तुङ्गिकगणो व्याघ्रापत्यगोत्रम्। नन्दी०४९। दक्षिणपा-āनावतिष्ठन्ते दक्षिणपार्श्वतो वा परावृत्य तुंगीय-तुङ्गिकः सन्निवेशविशेषः। आव० २५५) वामपाइँनावतिष्ठन्ते इति। जम्बू. ४६। तुंगीया-नगरीविशेषः। भग० १३४, १३६।
तुअट्टणं-त्वग्वर्तनं निमज्जनम्। ओघ०५८ तुंगीसिहरं-तुङ्गिशिखरम्। उत्त० ११७
तुच्छं- अल्पम्। प्रश्न०६३, १०६। ज्ञाता० ११३। अल्पं तुंडं- मुखम्। आव० ९३
रिक्तम्। आव०६४३। द्रमकस्य काष्ठहारकादेः कथ्यते, तुंडिय-तुण्डिकः यात्रासिद्धो वणिग्विशेषः। आव० ४१४॥ अथवा पूर्णो जातिकुलरूपायुपेतस्तविपरितस्तुच्छो, तुंडिलः-जातबृहज्जठरः। उत्त० २७५)
विज्ञा-नवान्। वा पूर्णस्ततो अन्यस्तुच्छः। आचा० १४५ तुंब- ज्ञातायां षष्ठाध्ययनम्। आव०६५३। तम्बं
तुच्छः उन्मादः। सूत्र. २५० तच्छः यदृच्छाभिधायितया अरकनिवे-शस्थानम्। जम्बू० २०४। तुम्बं-षष्ठाझे षष्ठं | निःसारः। उत्त० २२७ ज्ञातम्। सम० ३६। उत्त० ६१४। तुम्ब-अलाबुः। ज्ञाता० । | तुच्छकुलं-असारकुलम्। आव० १७८१ १० तम्बं फलविशेषः। प्रज्ञा० ३७
तुच्छकुलानि-अल्पमानषाणि अगम्भीराशयानि वा। तुंबक-तुम्बकः-अलाबुतुम्बयोर्लम्बत्ववृत्तत्वकृतभेदः। स्था० ४२० जम्बू० २४४।
तुच्छत्तं-तुच्छत्वं निःसारता। प्रज्ञा० ३०३। तुंबभूओ-तुम्बभृतः। आव २६३।
तुच्छत्ता-निस्सारता। भग० ७४२। तुंबभूयं-तुम्बभूतं आधारसामर्थ्यान्नाभिकल्पम्। प्रश्न. तुच्छोसहिभक्खणया-त्च्छौषधिभक्षणता १३४।
असारौषधिभक्ष-णता। आव०८२८।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[46]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #47
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आगम-सागर-कोषः ( भाग :- ३)
[Type text]
तुज्झतो- त्वदीयः । आव ०७०८ तुज्झ - भवन्तः । ओघ० ८० |
तुज्झच्चयं - तावकीनम् । आव ० ९९ ।
तुट्ट - तुष्टाः आन्तरप्रीतिभाजः । उत्त० ४४१ । तुष्टः-तोषं कृतवान् । जीवा० २४३ | तुष्टः हृष्टः सन्तोषवत्। भग० ११९|
तुट्ठा- तुष्टा हृष्टा । दशवै० २५०| तुट्ठि - तुष्टि इच्छानिवृत्तिः । जम्बू० १५१ | आचा० ४२४ | तुडिअंग - त्रुटिताङ्ग द्रुमगणविशेषः । जम्बू० १०२ । चतुरशीत्या लक्षौः पूर्वेः गुणितं। त्रुटिताङ्गम् । अनुयो० १००| तुडिए- चतुरशीत्या गुणितं लक्षैस्त्रुटिताङ्गैःत्रुटितम्। अनुयो० १०० | सूर्य० ९९| भग० २१०, २७५, ८८८ तुटिकम् अन्तःपुरम्। सूर्य० २६७॥ जीवा० ३८४ ॥ तुडिकं नाम वर्गः । भग० ५०५।
तुडिय– त्रुटिकः बाहुरक्षिकः। भग० १३२, ४४७| त्रुटिका शेषतूर्यम्। सूर्य० २६७। भग० १५४, ५०६ । वादित्रसमुदयो त्रुटि: । निशी ० ७१ आ । सूर्यमणीमादयं तुडियं । निशी० २५४ अ । थिग्गलं देसी भासाए सामयिगी वा एस पडिभासा। निशी० १२४अ । तुटितं बाहुरक्षिकः । प्रज्ञा० ८८| वादित्रम्। जीवा० २१७ आतोद्यम् । जीवा० २२७ तं भूषणविधिविशेषः । जीवा० ३६९ । प्रज्ञा० ९१| हितं बारक्षकः । जीवा० १६२, १६४, १५३ । चतुरशीतिस्त्रुटि-ताङ्गशतसहस्राणि एकं त्रुटितम्। जीवा० ३४५। त्रुटिताङ्गः । आव० ११० | तुटी बाहुरक्षकाः। उपा० २६।
तुडिया- असुरकुमारस्य लोकपालानां द्वितीयाऽग्रमहिषी, धर-णस्य लोकपालनां द्वितीया अग्रमहिषी । स्था०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
१२७| तुटीकाः बाहुरक्षिकाः । औप० ४९| प्रश्र्न० ७१| त्रुटिता-पिशाचकुमारेन्द्रस्य मध्यमिकापर्षत्। जीवा॰ १७१| त्रुटिता-ज्योतिष्केन्द्रसूर्यस्य मध्यमिका पर्षत्। जीवा० १७६ ।
[47]
तुडियाणि - त्रुटितानि मृणालिकाः । आचा० ३६३ | तुणगं- वत्थच्छिद्दे पुणण्णवकरणं तुडियं । निशी० १०४ | तुण्णए– तूणकः तान्त्रिकः तन्त्रीवादकः । अनुयो० १४९ तुण्णाओ - तन्तुवायः । आव० ४२७ ।
तुण्णाग– सीवनकर्म्मकर्त्ता । नन्दी० १६५ | तुन्नवायः।
आव० १८७।
तुडिओ - तुटिकः अभ्यन्तरपर्षत्सत्कस्त्रीजनः । जम्बू०
५५२
तुडतंगा - त्रुटितानि तूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गाः । तुन्दपरिमृजः- द्रमकः। आचा० ३१४। तूर्य-दायिनः । स्था० ५१७। तुन्नणं- तोदणम् । आव० ६५१ |
तुडियंग - चतुरशीत्या लक्षैः । पूर्वैः गुणितं त्रुटिताङ्गम् । सूर्य० ९९| भग० २१०, ८८८] चतुरशीतिः पूर्ववर्षशतसहस्राणि एकं त्रुटिताङ्गम्। जीवा॰ ३४५| तुडियंगा - तूर्याङ्गसम्पादकाः । सम०१८ तुडयंगति- पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि। स्था॰ ८६|
तुण्णागदारए– तूर्णकदारकः सूचिकः । अनुयो० १७६| तुण्णागा- तुन्नाकाः सूच्याजीविनः । प्रज्ञा० ५६| हक्को - तूष्णीकः । आव० १८८, २६२॥ तुत्त - तोत्रं प्राजनकः । उत्त० ५४८ । तुत्तगो- पाइणगो । आव० ७९७ । तुत्ततो- भग्गो | निशी० ३५१ अ ।
तुन्निए- कलाकौशलत- पूरितच्छिद्रम् । बृह० ९२अ । तुपट्टणं- संस्तारकेशयनम् । बृह० २०७ आ। तप्प - पुणमयकलेवरवसा | निशी० ४७ आ । तुप्पतरयं - स्निग्धतरम् । ओघ० १९६ । तुप्पियं स्नेहितम् । विपा० ४७। तुप्पोट्ठ- मृष्ठः । ओघ० ५५| तुप्पोट्ठा - तुप्रा म्रक्षिता मदनेन वा वेष्टिताः शीतरक्षादिनिमित्त-मोष्ठा येषां ते तुप्रोष्ठाः । अनुयो०
२७ ।
बरं कषायद्रव्यं आमलकादि। जम्बू० ४११। तुब्भच्चया- त्वदीया । आव० ६३२ | तुमतुम- तुमन्तुमः हृदयस्थः कोषविशेषः एव । भग० ९२४| तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोच्चारणयोग्ये। सूत्र० १८३ । तुयट्टंतं- त्वग्वर्त्तनं स्वपनम् । दशवै० १५५। तुति-निषण्णा आसते । भग० ६१८ । तुट्टणं- त्वग्वर्त्तनम् । आव ० ६५४ | निमजनं क्रियते । ओघ० १३० आव० ६५४ | शयनम् । ओघ० २१४ | यति - त्वग्वर्त्तनं करोति । जीवा० २०१ |
“आगम-सागर-कोषः " [३]
Page #48
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तुयट्टियव्वं-त्वग्वतितव्यं शयनीयं,
तुरुमिणिणगरी-नगरीविशेषः। निशी० २५८१ सामायिकायुच्चारणपूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय तुरुविणी-तुरुमिणी नगरी, यत्रजितशत्रुराजा। आव० संस्तारकोत्तरपट्टयोर्बाहपधानेन वाम-पार्श्वत
३६९। इत्यादिना न्यायेनेत्यर्थः। ज्ञाता०६१।
तुलयति-अभिभवति। प्रश्न. १७ जयतीति। स्था०४६९। तुयट्टेज्ज-शयीत। भग. ९०|
तुलसी-भूतानां चैत्यवृक्षः। स्था० ४४२। भग० ८०२। तुयर-कुसुमोदकादि। बृह. २४६ आ।
गच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२| आचा०५७) तुयावइत्त-तोदं कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या तुलसे- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३ प्रव्रज्या दीयते। स्था० २७६, १२९।
तुला- इयत्तापरिच्छेदहेतुः। उत्त० ६८७ अनुयो० १५४। तुरंतो- त्वरयन्। आव० ६१७। त्वरितम्। निशी० ३१९ आ। | तुलाकोटिकानि-नूपुराणि। औप० ५५। तुरमाणभोज्जं-त्वराभोज्यम्। तन्दु ।
तुलासंठिए- तुलासंस्थितं पुनर्वसुनत्रस्थानम्। सूर्य. १३०| तुरमिणी-नगरीविशेषः। बृह. ११३ अ।
तुलिया-तोलयित्वा गुणदोषवत्तया परिभाव्य। उत्त. तुरली- णालिया अपव्वा। निशी० ६० आ।
२८९। परीक्षात्मानं धृतिदाढ्यादिगुणान्वितमिति। उत्त तुरिओ-त्वरितः। ओघ. १५५
२५३। तुरितं-त्वरितं शीघ्रम्। आव. ९६॥ त्वरितः शीघ्रम्। तुल्यं- समचतुरस्रम्। जीवा० ४२। ज्ञाता०३५
तुल्लविसेसाहियं-परस्परापेक्षया तुल्यत्वेन विशेषण तरिमिणि-णगरीविसेसो। निशी० २५८ अ।
असोय-भागादिनाऽधिकं तुरियं चवलं-त्वरितचपलं अतिचट्लतया। ज्ञाता० १६२ पूर्वकालबद्धकर्मापेक्षयाऽधिकतरं तुल्यविशे-षाधिकम्। तुरियं-त्वरिता-आकुला न स्वाभाविक्या आन्तराकूततः। भग० ९६१| ज्ञाता० ३६। त्वरितं-वचनचापल्यतः। प्रश्न. १२० तुवरं-सकषायम्। उत्त० ६५३। त्वरि-तत्वं मनस औत्युक्यात्। ज्ञाता०९९। त्वरितत्वं तुवर-धान्यविशेषः। निशी० ५२ आ। मनसम-खक्षेपे। प्रश्न. १२९।
तुवरपत्ते- पलाशपत्रादीनि। बृह० १०६ अ। तुरियकरणं-त्वरितकार्यं जातम्। ओघ. १७७
तुवरफल-हरीतक्यादयः। निशी० ४७ आ। तुरियगई-त्वरितगतिः मानसौत्सुक्यप्रवर्तित तुवरफला-हरीतकीप्रभृतीनि। बृह० १०६ अ। वेगवद्गतिः। भग० १७८१
तुवरिका- सौराष्ट्रिका। दशवै० १७०| तुरियणिद्दा-त्वरितनिद्रा मरणनिद्रा। आव० ३४६) तुवरिमट्टिया-ते पुढविपरिणामा वण्णिया जेण सवण्णं तरिया-त्वरिता-आकला। भग० ५२७। त्वरिता-आकुलता | वणि-ज्जाति, सोरट्ठिया त्वरिमट्टिया भण्णति। निशी. न स्वभावजेत्यर्थः। भग० १६७। त्वरितः त्वरावान्। भग० | २१८१ १७८
तुवरी- तुवरी-धान्यविशेषः। दशवै. १९३। भग० ८०२। तुरी-वस्त्रवननोपकरणः। आचा० २२८।
तुषमुखं- बीजसूक्ष्मम्। स्था० ४३०| तुरुक्कं-तुरुष्कं सिल्हकम्। प्रश्न० ७७। जीवा० १६०, तुषाग्निः- तुषसत्कोऽग्निः। जीवा० १२३॥
२०६। जम्बू. ५१, १४४। प्रज्ञा० ८७ औप० ५। ज्ञाता०४०। तुष्टः- महितः। आव० ७५९। शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यम्। सम०६१|
तुससाला-सालिमादितुसवाणं तुससाला। निशी० २६५ तुरुक्कधूव-सेल्हकलक्षणो धूपः। उपा०५१
। तुरुक्का-तुरुष्कः सुगन्धिद्रव्यविशेषः। आव० १०१। तुसा- क्रोद्रवादीनि। स्था० ४१९। तुरुक्ख- गंधदव्वम्। निशी. २७६ आ।
तुसारं-तुषारं हिमम्। ज्ञाता०६९। जीवा० ११९| तुरुतुंबगा- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२।
तुसार-तुषारः हिमम्। आव. २०४१ तुरुमिणिदत्त-दारुणमिथ्यात्वः। भक्त० । | तुसारपुंज-तुषारपुञ्जम्। जीवा० ११९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[48]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #49
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तुसिओ-तुषितः। आव० १३५
वा तूली। निशी. ६१ अ। तुसिणिया-तूष्णीका मूका। दशवै० १०८1
तूवरो- तुवरः कषायः। जीवा. २४४॥ तुसिणी-तूष्णी मूकता। आव० ५४८।
तूष्णीकाः-पिशाचभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७० तुसिता-सुप्रतिष्ठाभविमानवासी षष्ठो लोकान्तिकदेवः। | तूसीणिए-तूष्णीको वचनरहितः। ज्ञाता०८५१ स्था० ४३२॥
तूहं-तीर्थम्। बृह. ३० आ। तीर्थ गवां जलपानस्थानं तुसिय-तुष्टः सुप्रतिष्ठाभविमानवासी षष्ठो
निपानमित्यर्थः। बृह० ६२आ। लोकान्तिकदेवः। भग०२७१। ज्ञाता० १५३
तेंदु-तिन्दुकः बहुबीजकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ तुसोदए-तुषोदकं व्रीयुदकम्। स्था० १४७
तेंदुओ- गन्धर्वाणां चैत्यवृक्षनाम। स्था० ४४२। तुसोदगं- तुषोदकं पानकभेदः। आचा० ३४६। | तेंदगं-तिन्दकं वाणारस्यां तिन्दकवनोदयाने तुहगा-कन्दविशेषः। उत्त०६९१।
यक्षायतननाम। उत्त० ३५६। तिन्दुकं तुह-तावकीनम्। आव० ५६५
श्रावस्त्यामद्यानः। आव० ३१२ तुहिनं-हिमम्। स्था० २८७।
तेंदुयं-टेम्बरूयम्। आचा० ३४९। तूडिअ-त्रुटिकं बाह्वाभरणम्। जम्बू. १०६। तेंदुयवणं-तिन्दुकवनं वाणारस्यामुद्यानविशेषः। उत्त. तूणइल्ल-तूणाभिधानवादयविशेषवान्। औप. ३, ४॥ ३५६) प्रश्न० १४१। अनुयो० ४६। जीवा० २८१।
तेंदूसं-तिन्दुसं-फलविशेषः। प्रज्ञा० ३७। तेंदूसए-कन्दुकः। तूणइल्ला- तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः। राज०२ ज्ञाता० १५८ ज्ञाता०४०
तेंबुरुमिंजिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ तूणक-वाद्यविशेषः। प्रश्न. १५९।
तेअ-तेजः-परासहनीयः पुण्यः, प्रतापः। जम्बू. १८२। तूणीराः-तूणाः। जम्बू० २०६|
तेजसः-शारीरम्। जम्बू. २१९| तूमणया-देशी०स्थगनम्। व्यव० १२१ आ।
तेअतली-तेजस्तलीनः जातिवाचकः शब्दः। जम्बू. १२८१ तूयरी- तुवरी आढकी। पिण्ड० १६८१
तेआ-तेजाः त्रयोदशीरात्रिनाम। जम्बू० ४९१। तुरंतो- त्वरयन्। मरण| त्वरमाणः। ओघ०६५ तेउ-तेजः उष्णः। आचा० २४५ बृह. ३०९ आ। तूर- वाद्य। आव० १४५
तेउफासे-तेजःस्पर्शाः-उष्णस्पर्शाः। आचा० ३१० तूरपत्ति- निशी. १६७आ।
तेउलेसा- तेजोरूपालेश्या येषां ते तेजोलेश्याः। स्था० १०० तूरपइ-तूर्यपतिः नटमहत्तरः। बृह० १०३ आ। तेउलेसे-तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तूल-तूलः अर्कतूलः। सूर्य. २९३। अर्कतूलम्। ज्ञाता०६। ते-जोज्वाला यस्य सः। सर्य. ५ तेजोलेश्या अर्कतूलम्। जम्बू० ५५1 जीवा० २१०॥
विशिष्टतपोज-न्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला। तूलकं-तूलम्। उत्त०६५३
जम्बू०१६) तूलकडं-अर्कादितूलनिष्पन्नम्। आचा० ३९३। | तेउलेस्से-तेजोलेश्या तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं तूलि-तूलिका। स्था० २३४॥
तैजसशरीर-परिणतिरूपं महाज्वालाकल्पम्। स्था. तूलिअं-तूलिका। गच्छा ।
१४९| तूलिया-तूली संस्कृतरुतादिभृताऽर्कतूलादिभृता वा। बृह० | तेउसिहे- अग्निशिखस्य द्वितीयो लोगपालः। स्था०
२२० आ। तूलियाओ-तूलिका बालमध्यश्चित्रलेखाकूर्चिकाः। तेऊ-अग्निशिखस्य प्रथमो लोगपालः। स्था० १९७। तेजोज्ञाता०१४४१
योगात्तेजांसि-अग्नयस्तदवर्तिनो जीवा अपि। उत्त. तूली-तूली अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके प्रथमः। आव० ६९३ ६५२। एगबहुकमेरगा तुल्ली, अक्कडोड्डगाइतूलभरिया | तेऊलेसा- तेजो-वह्निस्तवर्णालेश्या लोहितवर्णीत्यर्थः
१९७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[49]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #50
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
तेजो-लेश्या। स्था० १७५।।
ओघ० १४६। तेए-तेजः तेजोलेश्या। भग०६७३। तेजः
तेणाहडे-स्तेनाहृतं चौरानीतम्। उपा०७ शरीरस्थकान्तिः। स्था० ४२११ तेजः तपोमाहात्म्यम्। तेणिक्कं-स्तैनिक्यं स्तेयं, तृतीयाधर्मदवारस्य त्रयोदशं उत्त. ३६५। तेजः शरीरार्चिः। भग० १३२ तेजः
नाम। प्रश्न. ४३ शरीरप्रभवम्। प्रज्ञा०८८ तेजः-तजसं-उष्मलिङ्गं तेणियं-स्तैन्यं यत्परेभ्यः खल्वात्मनं गृहयन स्तेनक भक्ताहारपरिणमनकारणम्। प्रज्ञा०४०९। तेजः-ज्ञानं, | इव वन्दते, कृतिकर्मणि षोडशो दोषः। आव. १४४१ भावतमो विनाशकत्वात्। प्रश्न. १५८ तेजः
तेणेव- तेन तस्मिन्। सूर्य०६| शरीरसम्बन्धिरोचिः प्रभावो वा। औप. ५०
तेतलि-वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। तेएण-तेजसा कान्त्या। उपा० २६।
तेतलिपुरं- यत्र कनकरथो राजा। आव० ३७३। तेओगकडजुम्मे- त्र्योजःकृतयुग्मे द्वादशादयः। भग० | तेतलिसुओ-तेतलिसुतः कनकरथराज्ञोऽमात्यः। आव० ९६४१
३७३। तेओगकलिओए-त्र्योजकल्योजे त्रयोदशादयः। भग. तेतलिस्तः-अमात्यविशेषः। विपा० ८८ ९६४।
तेतलीतिय-तेतलिस्तः। स्था० ५१० तेओगतेओगे- त्र्योजत्र्योजराशौ तु पञ्चदशादयः। भग० तेत्तली-षष्ठाङ्गे चतुर्दशं ज्ञातम्। सम० ३६। ९६४।
तेनाहडे-स्तेनाहृतं-चौरानीतम्। आव०८२२ तेओगदावरजुम्मे- त्र्योजद्वापरे तु चतुर्दशादयः। भग. तेनिस-तैनिशं-तिनिशानिधानवृक्षसम्बन्धिः। भग. ९६४
૩રરા तेओय- त्रेतौजः। सूर्य. १६७१
तेपते-क्षरति सञ्चलति मर्यादातो भ्रश्यति निर्मर्यादो तेगिच्छि-चिकित्सकः वैदयः। ओघ. ५३
भवतीति यावत्। आचा० १३६। तेगिच्छिपुत्तो- चिकित्सकपुत्रः चिकित्सामात्रक्शलस्य तेपन्नता-तेपनता तिपे:-क्षरणार्थत्वादविमोचनम। पुत्रः। विपा०४०।
स्था० १८९। तेगिच्छियसाला-चिकित्साशालं आरोगशाला। ज्ञाता० तेप्पिऊण-कल्पयित्वा। ओघ. १२२१ १८०
तेवरणमिजिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा०४२। तेगिच्छी-चिकित्सकः चिकित्सामात्रकुशलः। विपा० ४० | तेमासिए- त्रैमासिकः। आचा० ३२७।। तेज-विशिष्टसंवेदनप्रभवा धर्मदेशना। नं० अनुयो | तेयंसी-दीप्तशरीरत्वात्। सम० १५६। तेजस्वी-तेजः तेजितं-उपचितम्। प्रज्ञा० ९११
शरीर-प्रभा तवास्तेजस्वी। ज्ञाता०६ तेजस्विनः तेण-स्तेनाः उपकरणापहारिणः। व्यव० १४ अ। यः। शरीरप्रभायुक्ताः । भग० १३६।
स्था०७। स्तेनः-चौरः। ओघ० २३॥ स्तेनाः चौराः। जम्बू | तेय-तेजः शरीरप्रभवम्। जीवा. १६२। माहात्म्यम्। बृह. ६६। स्तेनः-भगवददत्तग्रहाणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा २१२आ। न मां कश्चिज्जानातीति भावयन् चौरोऽसौ। दशवै. तेयए-तेजसोविकारः तैजसम्। प्रज्ञा० २६८। तैजसं-तेजः१८८1
पुद्गलानां विकारः। जीवा० १४। तेजसोभावस्तैजसं तेणतेणो-अपड्प्पन्नं बालं हरंतो तेणो स तेणो तं सेहं उष्मा-दिलिङ्गसिद्धम्। स्था० २९५) बाहिं गामादियाण ठवेत्ता अप्पणा भिक्खस्स पविट्ठो रसाद्याहारपाकजननं तेजो-निसर्गलब्धिनिबन्धनं च एत्थंतरे जो तं सेहं अण्णो उप्पोसेत्ता हरति सो
तेजसो विकारस्तैजसम्। अन्यो० १९६। तेणतेणो। निशी. ४५।
तेयतली-तेजश्च तलं च रूपं येषां ते तेजस्तलिनः, तेणयबंधो-यत्रमध्येनैव पात्रककाष्ठस्य दवरके याति | भारतवर्षे मनुष्यभेदः। भग० २७६) तावद् यावत्सा राजिः सीविता भवति सः स्तेनकबन्धः। | तेयते- तेजते-दीप्यते। उत्त० १८६)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[50]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
(Type text]
तेयनिसग्ग-तेजोनिसर्गः। आव. २१४। भगवत्यां | तेलसमुग्गए-तैलसमुद्गकः सुगन्धितैलाधारविशेषः। पञ्चदशशते प्रकरणम्। भग०६९५४
जीवा० २१४। तेयफासं-तेजःस्पर्शः-उष्णरूपतापरिणतनरककुडयादि- । तेल्लं-तैलम्। आव० ८३१ स्पर्शः। जीवा. १२८
तेल्लकुडो-तैलकुम्भः । आव० ३१०| तेयलिपुत्त-कनकरथभूपस्यामात्यः। ज्ञाता०१८४ तेल्लकेला-तैलकेला तैलाश्रयो भाजनविशेषः। भग. तेयलिपुर-कनकरथनृपस्य नगरी। ज्ञाता० १८४। ६९४। तैलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धो मन्मयस्तैलस्य तेयली-तेतलिसुताभिधानोऽमात्यः। ज्ञाता०१०। ज्ञातायां | भाजनविशेषः। निर०४, ३४। ज्ञाता० १४। चतुर्दशाध्ययनम्। आव० ६५३। तेतलिः-षष्ठाङ्गे तेल्लचम्म-तैलाभ्यक्तस्य यत्र स्थितस्य सम्बाधना चतुर्दशं ज्ञातम्। उत्त०६१४
क्रियते तत् तैलचर्म। ओप०६५ तेयलेसे-तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेल्लदोणी-तैलद्रोणी। आव २२७। तेजो-ज्वाला। भग १२
तेल्लभायणं-तैलभाजनम्। आव०६४१| तेयलेस्स-तेजोलेश्या सुखासिका। भग० ६५७) शरीरदीप्तं | तेल्लसमुग्गया-तैलसमुद्गको सुगन्धितैलाधारविशेषौ। सुखासिकां वा। स्था० १४५
जम्बू. ५९ तेयलेस्सा-तेजोलेश्या
तेल्लियं-तैलिकं तिलपीडनकर्म। आव०८२९। विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभावा तेजोज्वाला। औप० | तेल्लिया-तेल्लं। निशी० २४४ अ। ८४१
तेलुक्क-त्रयोलोकास्रिलोकाः तेयल्लेसे-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविषयप्रभवा
भवनपतिव्यन्तरविदयाधरज्यो-तिष्कवैमानिकाः तेजोज्वाला। ज्ञाता०७
त्रिलोका एव त्रैलोक्यम्। नन्दी. १९२१ तेयसं-तैजसं यदयात्तैजसशरीरप्रायोग्यान्
तेवच्छिवाडिया- कृष्णलेश्याया वर्णदृष्टान्तः। प्रज्ञा० पुद्गलानादाय तैजसशरीररूपतया परिणमयति
३६० परिणम्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानगमरूपतया तैजसबन्धनं- यदुदयात् तैजसपुद्गलानां गृहीतानां सम्बधयति तत्। प्रज्ञा० ४६९। तेजसं-तेजःपुद्गलानां गृह्यमा-णानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैः सह विकारः तैजसम्। प्रज्ञा० ४०९।
सम्बन्धस्तत्तैजसबन्ध-ननाम। प्रज्ञा० ४७०| तेयस्सि- तेजस्वी दीप्तिमान्। आचा० ३६४।
तैजससङ्घातनाम- यदुदयवशात् तेया-तेजोमयं तेजसम्। आव० ३६। तेजा
तैजसशरीररचनाऽनुकारिस-ङ्घातरूपा जायते त्रयोदशीरात्रिनाम्। सूर्य. १४७
ततैजससङ्घातनाम। प्रज्ञा०४७० तेयालगपट्टण- पट्टणविसेसो। निशी ४४ आ।
तैजससमुद्घातः-तैजसेन हेतुभूतेन समुद्घातः तेयाहिय-ज्वरविशेषः। भग. १९८१
तैजसशरीर-नामकर्माश्रयः। जीवा. १७१ तेयोए-यस्त त्रिपर्यवसितः स योजः। स्था० २३७) | तैतिलं-स्त्रीविलोचना परनाम, चतुर्थं करणम्। जम्बू तेयोगे-त्रिभिरादितः एव कृतयग्मादवोपरिवर्तिभिरोजो | ४९४१ विषम-राशि विशेषस्त्र्योजः। भग०७४४।
तैलाग्निः- तैलसत्कोऽग्निः। जीवा० १२३। तेरासि- त्रैराशिकः नपंसकः। पिण्ड० १५७)
तोंड-तुण्डं मुखविभागो भल्लीरूपः। जम्बू० २०१। तेरासिओ- त्रैराशिकः नपंसकम्। बृह. २५२ अ। तोए-तोयं सम्बन्धहेतुः स्नेहः। प्रश्न० १५७। तेरासिय-त्रिनीराशिभिर्दिव्यन्ति जिगीषन्तीति तोट्टा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२। त्रैराशिकाः। उत्त. १५३
तोडे- पल्लवौ। निशी. १७९ आ। तेरासिया-त्रीन् राशीन् जीवाजीवनोजीवरूपान् वदन्ति ये | तोड़डकरूपे-यत्रागतावचलतया तिष्ठत इति। जम्बू. ते त्रैराशिकाः । औप. १०६|
રર૪)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[51]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
၃၃
तोण- इषुधिः। निर० १८१ इषुधिः-भस्त्रकम्। औप०७१। | तोसलिविसए- देशविशेषः। निशी० ३१५, २५४। बाणाश्रयः। जीवा० १९३। तोणः-शरधिः। भग० ३२२१ तोसलिविसयं-देशविषयः। निशी. १५२ अ। तूणाः-तूणीराः। जम्बू. २०६। भस्त्रकाः। जम्बू. २१२। तोसलीए-नगरविशेषः। निशी. १५अ। तूणः-शर-भस्त्रादिः। ज्ञाता०२३९| बाणाश्रयाः। जम्बू. तोहाडिका-खरमुही। आचा०४१२। ३७। तोणशरधिः। प्रश्न. ४८। तोणीरः-शरधिः। प्रश्न. त्तिकट्ट-इतिकृत्वा-इतिनिश्चयं विधाय सम्प्रलग्नाः ४७
योद्धमिति। ज्ञाता० २२१। इतिकृत्वा-उच्चार्य। जम्बू. तोत्त-तुद्यते-व्यथ्यतेऽनेनेति तोत्रं प्राजनको
१४३ व्यथोपजनकं वचनं वा। उत्त०६२ जम्बू. २२५/ त्थिक्को-विश्रान्तः। आव०४०८ तोत्तए-तोत्रकम्। दशवै० ८९।
त्थिग्गलयं-पडिया। निशी० १२५ आ। तोत्तगवेसए-तोत्रं प्राजनको व्यथोपजनकं वा
त्थिमिए-स्तिमितं-निर्भयम। विपा०३९। गवेषयतिः-अन्वेषयतीति तोत्रगवेषकः। उत्त०६२। त्थिमिय- स्तिमितं-स्थिरं तोत्र-निहन्यमानानामश्वानां शब्दः। जम्बू. २०६। स्वचक्रपरचक्रादिभयवर्जितत्वात्। भग०७ स्तिमिता तोमर- तोमरः-बाणविशेषः। प्रश्न. २१। तोमरम्। जीवा. भयवर्जितत्वेन स्थिरा। ज्ञाता०१। स्तिमिता११७ तोमरः- गदाकारशस्त्रविशेषः। आव०६५१। तोमरं- स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरोदिसमुत्थभयकल्लोलआयुधविशेषः। भग० १८२। तोमराः-बाणविशेषः। जम्बू मालाविवर्जिता। सूर्यः ।
त्थोभं-स्तोभकः निपातः। आव० ३७६| तोमरग्गं-तोमराग्रम्। जीवा० १०६।
त्यक्तं-उज्झितं छदितम्। पिण्ड. १६९। तोयं- पूर्वाषाढा। जम्बू. ४९९। स्नेहः। औप० ३५, १९| त्यक्तद्रव्यसम्यक्-जढं परित्यक्तं तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं स्नेहः। स्था०४६४।
यद्धारादितत्त्यक्तद्रव्यसम्यक्। आचा० १७६) तोयधारा-पञ्चमा दिक्कुमारी। जम्बू० ३८३।
त्यागः-तपः। सम० १२११ ऊवलोक-वास्तव्या दिक्कुमारी। आव० १२२। त्रपुषफलं-खादिमे फलविशेषः। आव०८११| तोयपटुं-तोयपृष्ठं जलोपरितनभागः। औप०४६। प्रश्न. त्रपुषी-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३० जीवा. २६, १३६। उत्त. ६१|
६९२ आचा० ३० तोयली- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३|
त्रप्वाकरः- यस्मिन्निरन्तरं महामूषास्वयोदलं प्रक्षिप्य तोरणं- प्रश्न दवारादिसम्बन्धि। जीवा० २५८। त्रपउ-त्पाट्यते सः। जीवा० १२३ तोरणानि प्रतोलीद्वारेष। प्रज्ञा० ८६। तोरणम्। अन्यो. वसनाम-वसन्ति उष्णादयभितप्ताः सन्नो १७। तोरणः द्वारादिसम्बन्धिः । प्रज्ञा०७१।
विवक्षितस्थानाद्वि-जन्ते-गच्छन्ति च तोरणसंठिओ-तोरणसंस्थितः। जीवा. २७९।
छायाद्यासेवनार्थं स्थानान्तरमिति त्रसाःतोसलि-आचार्यविशेषः। आचा. २६२। देशविशेषः। द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्यायपरिणतिवेदयं नामकर्मापि निशी० २१ आ। बृह. १७५अ। नगरविशेषः। बृह. २६७ वसनाम। प्रज्ञा०४७४ । तोसलिग्राम। आव० २१९।
त्रसरितन्तुः- कौसेयम्। जीवा० २६९। तोसलिओ-तौसलिकः मणिप्रतिमारक्षको राजा। व्यव. | त्रिकल्पपर्युषितः- स्थविरकल्पिको जिनकल्पिको वा। १५४ ॥
आचा० २८० तोसलिपुत्तो-तोसलिपुत्रः आचार्यः। आव० ३०१। त्रिपिटकादिसमयवृत्तयः- सामायिकाः। दशवै० १२७। तोसलिपुत्ता-तोसलिपुत्राः आर्यरक्षितधर्माचार्याः। आव० | त्रियाम- पूर्वरात्रमध्यरात्रापररात्रलक्षणो यमाश्रित्य २९६। आर्यरक्षितस्याचार्याः। उत्त. ९६
रात्रिस्त्रिया-मेत्युच्यते। स्था० १२८१ तोसलिविषयं-देशविशेषः। ब्रह. १७५ आ।
| त्रिलोकरेखा-आज्ञाराधनखण्डनादोषदोषदृष्टान्ते
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[52]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
चन्दावतं-सान्तःपुरिका। पिण्ड०७६)
जातः, हनुयन्त्रादि। आव० ४०५१ त्रिवासरवटकं- कथितस्वस्वभावचलिते दृष्टान्तः। जीवा. | थंभय-स्तम्भकः- आदर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशः, ૨૮રા.
आदर्शक-गण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्यः प्रदेशः। जीवा० त्रिशला- वर्द्धमानस्वामिनः मातृनाम। सम० ८९।
२१३ त्रिशूल- शक्तिः । सम० १५७।
थंभिज्जा-स्तभ्नीयात्-स्तब्धो भवेत् मादयेदित्यर्थः। त्रिशूलानि-वरशक्तयः। जम्बू. २१२।
स्था०४७३ त्रुटितं-वादित्रम्। जीवा. १६२१
थंभुग्गया-स्तम्भोगता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जीवा. त्रेहः-अवश्यायः। प्रज्ञा० २८ दशवै० १५३। जीवा० २५४ २२७, ३५९। उसा। निशी० ८३।
थ-निपातः। आव० १३७। वाक्यालङ्कारे। ज्ञाता० १४९। त्रैराशिकः- राशित्रयम्। सूर्य. १४१
निपातः पादपूरणे। बृह. १७१ आ। त्रैराशिककरणं- प्रज्ञा० ४८०
थक्क-स्थितम्। ओघ० १३२। अवसरः। आव० ४००। विद्यब्राह्मणः- सामज्ञो ब्राह्मणः। औ० २०४। उत्त. २१४। थक्कः-देशः। काले। निशी. १७८ अ। विद्यवृद्धः- वैदिकः। दशवै० १२७।
निशी० ६आ। प्रस्तावः। व्यव० १३६ आ। त्वंगनिका-बाधाविशेषः। उत्त० ७८
थक्कारेति- थक्कइत्येवं महता शब्देन करोति। जीवा. त्वक्- छविः। जीवा० ११४| छल्ली। जीवा. १८७)
२४८१ त्वग्विष- चर्मविषः। नन्दी. १६३|
थक्केथक्कावडियं-अवसरे अवसरानुरूपमापतति तत्। त्वचा-त्वग्विशेषः। जीवा० १३६)
पिण्ड०६३ -x-x-x-x
थण-स्तनम्। आव०७६८1 स्तनम्। आव० ५७८। थ
थणदुद्धगंधियमुहो- बालः। निशी. ८० आ। थंडिल-छारचितीवज्जितं केवलं मडयदद्वद्वाणं। निशी
थणियकुमारा-स्तनितकुमाराः-भवनपतिभेदविशेषः। १९२ आ। स्थण्डिलं उच्चारभूमिः। आव० ५७८। अचित
प्रज्ञा०६९। स्तनितकुमाराःभूमी। निशी० ३८ आ। यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवे
वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवतिनो देवाः। भग. कविकलत्वात्स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिलः-क्रोधः।
१९९| सूत्र.१८०
थणियकुमारीओ-स्तनितकुमार्यः थंडिल्लं-स्थाण्डिलं-भूभागः। आव० ६४२ स्थण्डिलम्।
वरुणस्याज्ञोपपातवचननि-र्देशवतिन्यो देव्यः। भग० आव० ३४८ स्थण्डिलः। आव. १९५१
१९९। थंभ-स्तम्भं जात्यादयभिमानम। आव० ३४६। स्तम्भः
थंड-स्तब्धं जात्यादिमदस्तब्ध-कृतिकर्मणि द्वितीयोः मानः। दशवै० २४श स्तम्भः। आव० १९६। स्तम्भः
दोषः। आव० ५४३॥ स्तब्धं-सुदृढम्। जम्बू० २३५) मानः। आव० ८४८। जात्यादिसमुत्थोऽहङ्कारः। उत्त०
स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभंशकारिणे। १५१
सूर्य. २९६ थंभण-ग्रीवायां धमण्यादीनां तिष्ठतो
थप्पगा-स्थाप्या अवन्दनीयाः। बृह. ३०५। वाऽऽत्मनोऽङ्गप्रदेशानां स्तम्भनम्। प्रज्ञा० ३२९|
थरथरंत-कम्पमानः। पिण्ड० १६३। भृशं कम्पमानः। थंमणता-स्तम्भनता स्तम्भनया या यथा तावदुपविष्टः
बृह. ७१ । स्थितो यावत् सुप्तः पादादिः स्तब्धो जातः। स्था०
थल-स्थलं आकाशः। ओघ० ३२। आकाशः। बृह० १६१| ૨૮૦૧
आ। इह कवलप्रक्षेपणाय मुखे विड्विंते यदाकाशं भवति थंमणया-स्तम्भनं ऊर्वीकरणम्। औप. ९३।
तत् स्थलम्। व्यव० ३३३ आ। आगासं। निशी० ४६ आ। स्तम्भनताव-कगतेवितीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२८।
जलपरिहारेण स्थितो नदि-कूर्परपथः। ब्रह. १६२ अ। स्तम्भनता-तावदुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः स्तब्धो ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[53]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२५१
स्थलं-धुल्युच्छ्रयरूपम्। भग० ३०७
थालीपागो-स्थालीपाकः। जीवा० २८१। थलचर-स्थलचरः मनुष्यादिकः। दशवै०५५।
थालीपागसुद्ध-स्थालीपाकशुद्धं स्थाल्यां उखायां पाको थलपट्टणं-थलेण जस्सभंडं आगच्छति। निशी. ७०आ। यस्य तत्स्थालीपाकं, अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वा न आनंदपुराति। निशी० २२९ । स्थलपत्तनं-यत्र
तथाविधं स्या-दितीदं विशेषणं, शुद्धं-भक्तदोषवर्जितं, स्थलपथेन भाण्डानामागमस्तद्, द्वितीयं पत्तनम्। ततःकर्मधारयः स्थालीपाकेन वा शुद्धम्। भग० ३२६। प्रश्न०३८
स्था० ११७ थवयं-स्थलजं कोरण्टकादि। जीवा० १३६|
थालीसंठितो-स्थालीसंस्थितः- आवलिकाबाह्यस्य षष्ठं विचिकिलादि। जम्बू. ३९०
संस्थानं, उषा संस्थितः। जीवा० १०४। थलयरं-स्थलचरजं पुदगलविशेषः। आव०८५४। थावग-स्थापकः विकल्पभेदः। दशवै० ५७) थलयर-स्थले चरन्तीति स्थलचराः। प्रज्ञा० ४३। थावच्चस्ता-बारवइवणिया। निशी. १०४ आ। थलाई-स्थलानि तटभूमयः। जम्बू. १७१|
थावच्चा-द्वारवत्यां गाथापत्ती। ज्ञाता० १०० थली-देवद्रोणी। नि०७५आ। निशी० १४३ आ। बृह. थावच्चापुत्ते-थावच्चापुत्रः। अनुत्त० ३। द्वारवत्यां
१६५ अ। स्थलिका-देवद्रोणी। बृह. ९१ अ, १३० आ। सार्थवाह-पुत्रः। ज्ञाता० १०० अनुत्त० ३। थवइय-स्तबकवान्। ज्ञाता०५ औप०७। स्तबकितं | थावते-स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् सजातपुष्पस्तबकम्। भग० ३७
समर्थ-यति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं थवइयाओ-स्तबकिताः सञ्जातपुष्पस्तवकाः। जम्बू० बहफलं भवति तञ्चाहमेव जानामीति मायया
प्रतिग्राममन्यान्यं लोकमध्यं प्ररूपयति सति थवईरयणे-स्थपतिरत्नं वर्धकिरत्नम्। जम्बू. २१० तन्निग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैक-त्वात् थाइणि-स्थायिणि प्रतिवर्षप्रसविनी वडया। बृह० २३६) कथं बहुषु ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपत्त्या थाणइल्लग-प्राहरिकः। आव०६९०|
त्वद्दर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष थाणइल्ला-आरक्षकाः। निशी. ११४ आ।
स्थापितवा-निति स्थापकः। स्था० २५४। थाणयं-स्थानम्। आव. ९०
थावरं- स्थावरं अप्रतिहारिकम्। बृह. २४४ आ। स्थावरं च थाणु-स्थाणुः। जीवा० २८२।
यद्भवति न परकीयोपस्करवद्याचितं थामवं-स्थामवान् बलवान् शीतातपादिसहनं प्रति कतिपयदिनस्थायि। ओघ. २१११ सामर्थ्य-वान्। उत्त०६५, ११०
थावरा-उष्णादयभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः थामो- प्राणः। ओघ. १८९।
सन्त-स्तितष्ठन्तीत्येवं शीलाः स्थावराः पृथिव्यादयः। थारुकिणिया-थारुकिनिकाः। जम्बू० १०१|
जीवा०९| थाल-स्थालः। जीवा० २३४, २७६। जम्बू०४१० थालः। थासग-स्थासकाः-दर्पणाकारा अश्वालङ्काराः। जम्बू.
जम्बू० १०१। स्थालं-अन्तःपरिधिरूपम्। जम्बू० २०४। २६५। स्थासकाः-दर्पणाकारा अश्वालङ्कारविशेषः। थालइ- गृहितभाण्डाः । औप० ९०। भग० ४१९।
जम्बू. २३५ स्थासकः-आदर्शकाकारः। औप०७०| थालगं-स्थालकं कोशकादि। सत्र. ३२४१
स्थासकः-दर्पणः। विपा०४७। स्थासकः-दर्पणाकार थालपाणए-स्थालं त्र तत्पानकमिव दाहोपशमहेत्त्वात् आभरणविशेषः। जम्बू० ५३० स्थालपानकम्। भग०६८०
थासय-स्थासकः दर्पणकृतिः स्फुरकादिषु भवति। थालिपागाइ-स्थालीपाकः। जम्बू० १२३।
अनुत्त०५१ थाली-स्थाली। आव. २००| उषा। जीवा० १०५। उखा। थाह-जत्थ णासिया ण बुड्डति तं थाह। निशी. ७८1 आ। भग. ३२६। स्थाली पिठरी। सर्य.२९३ स्थाली-बृहद- स्ताघं-अर्वाक् नासिकाया यत् जलं। यत्र मासिका न भाजनविशेषः। ओघ० १६९।
बुड्डति तत् स्थाघम्। बृह. १६१ अ। स्ताघः। आव.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[54]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३७४।
जीवा० १२१ स्थिरः प्रकृतपटं पाटयतोऽकम्पोऽग्रहस्तोथिइ-स्त्री पुरुषादि। भग० २५३।
हस्ताग्रं यस्य सः। अनुयो० १७५। थिग्गल-आकाशथिग्गलविषयम्। प्रज्ञा. २९३। थिरपइन्नो-स्थिरप्रतिज्ञः-यो न भवितमन्यथा करोति। प्रदेशपतित-संस्कृतम्। आचा० ३४१। जं घरस्स दारं आव०८६० पुव्वमासातपडि-पूरियं दारं। दारमेव संधारवत्तं थिरपरिवाडी-स्थिरपरिपाटी स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रं पडिढक्किययं। दशवै. ७६ आ। थिग्गलं चित्तं
न गलति। दशवै. ५ स्थिरपरिपाटिः, परिचितग्रन्थस्य दवारादि। दशवै. १६६। शकलम्। मरण| गिम्हे
सूत्रार्थ-गलनासम्भवात्। आचा. २ वातागमट्ठा गवक्खादिछिड्डे करेंति। निशी० २३२आ। थिरीकरण- स्थिरीकरणं-धर्माद विषीदतां तत्रैव थिबुकं-बिंदु। निशी० पह०६७आ।
स्थापनम्। प्रज्ञा० ५६ स्थिरीकरणं-धर्मादविषीदतां सतां थिबगो-स्तिबकः उस्साबिंद। आव० ८४५।
तत्रैव स्था-पनम्। दशवै. १०२ थिबुय-स्तिबुकम्। प्रज्ञा० ४११।
थिरुगा-अनन्तकायभेदः। भग० ३०० थिमिओदयं-स्तिमितोदकं यस्याधःकर्दमो नास्ति। थिल्लिथिल्ली-वाहनविशेषः। उत्त० ४३८ लाटानां औप. ९४१
यदड्ड-पल्लाणं रूढं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते। थिमित-स्तिमितं-स्थिरं कायचापल्यादिरहितं च। प्रश्न. अनुयो.१५९। वेसरादिदवयविनिर्मितो यानविशेषः। १३३। स्तिमितः-अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य पञ्चमम- जम्बू. १२३। थिल्ली-वेगसराद्वयविनिर्मितो ध्ययनम्। अन्त०१॥
यानविशेषः। सूत्र० ३३०| थिल्ली- लाटानां थिमिया-स्तिमिता
यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते। भग. स्वचक्रपरचक्रादिसमुत्थभयकल्लोलमा-लावर्जिता। १८७, २३७। लाटानां यद अड्डपल्लाणं रूढं तदन्य-विषये जम्बू०१४
थिल्लिरित्युच्यते। जीवा० २८२। थिमियमेयणीया-स्तिमितमेदनीका निर्भयत्वेन थिल्लीओ-लाटानां यानि अड्डपल्यानानि स्थिरविश्व-म्भराश्रितजना। प्रश्न०६९।
| तान्यन्यविषयेष थिल्लीओ। भग. ५४७। थिमियमेइणीय-स्तिमितमेदनीकं
थिविथिवंत-गुंजन्। तन्दु० । अतिशयेन। तन्दु०। निर्भयमेदिनीनिवासिजनम्। प्रश्न. ९२
थिवथिवित-अनुकरणशब्दोऽयम्। विपा०७४। थिमिया- स्तिमिता भयवर्जितत्वेन स्थिरा। औप०११ | थिचोरो-स्त्रियाः आकाशात् स्त्रियमेव वा चोरयति थिर-सप्रतिष्ठानं दृढं वा। बृह० २४४ आ। दढसंघयणो। | स्त्रीरूपो वा यश्वौरः स स्त्रीचौरः। प्रश्न.४६। निशी. ५६अ। स्थिरः-दृढसंहननः। ओघ० ३४ स्थिरः- | थिणं-स्त्यानर्द्धिः स्त्याना-चैतन्यऋद्धिर्यस्यां सा असङ्ख्येकालावस्थायी। सूत्र०६। स्थिरः-संह
स्त्याना। आव० ८४। इदं चित्तं तं थीणं। निशी. ३६अ। ननतिभ्यां बलवान्। पौनःपन्यकरणेन परिचितो वा | थीणद्धी-स्त्याना-पिण्डीभूता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा कृत-योगः। आव. ५९३। धितिसंघयणेहिं बलवं अहवा यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानर्द्धिः। प्रज्ञा० ४६७। इत्थं दरिसणे पव्वज्जाए वा धिरो अचलेत्यर्थः। निशी. १३१ चित्तं तं थीणं जस्स अच्चंत दरिसावरणकम्मोदया सा आ। यथास्थितम्। ओघ० १०८1 अप्रकम्पः । ज्ञाता० १६॥ थीणद्धी। निशी. ३६अ। स्थिरं च यद्भवति सुप्रतिष्ठानं तत्। ओघ० २११। स्थैर्य- थीणा-स्त्याना-पिण्डीभता। प्रज्ञा० ४६७। अभ्युप-गतापरित्यागः। दशवै. ३९ स्थिरः निष्पन्नः। थीणागेद्धी-स्था० ४४७१ दशवै० २१९। स्थिरः-धृतिसंहननाभ्यां बलवान्। व्यव० थीपरिणा-स्त्रीपरिज्ञा-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे ११३॥
चतुर्थम-ध्ययनम्। आव० ६५१। उत्त०६१४| थिरइ-स्थिरति स्थिरीभवति। व्यव० १९ आ। | थीपुरिससंजोए-अशुचिस्थानभेदः। प्रज्ञा० ५०| थिरग्गहत्थे-स्थिरौ अग्रहस्तौ यस्य सः स्थिराग्रहस्तः। थीविलोअणं-स्त्रीविलोचनं तैतिलमिति वा, चतर्थं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[55]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #56
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
करणम्। जम्बू०४९३।
स्थूलभद्रः-स्त्रीपरीषहे दृष्टान्तः। उत्त०१०४ थीह-अनन्तकायभेदः। भग. ३००| कन्दविशेषः। उत्त. योगसंग्रह-शिक्षादृष्टान्ते कल्पकवंशप्रसूतस्य ६९१। भग०८०४।
नवमनन्दराजमन्त्रिशक-टालस्य ज्येष्ठः पुत्रः यः धुंडइ- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२
शिक्षायोगवान् आचार्यो जातः। आव० ६७०| संभूअस्स थुई-स्तीतिः। आव० ७९९।
सीसो। निशी. २४३ अ। स्थूलभद्रःथुडं- खन्धः । राज०६।
बहश्रुतआचार्यविशेषः। उत्त० १३०| स्थूल-भद्रःथुल्ल-स्थूलः। ओघ० २१६।
कल्पकवंशप्रसूतशकटालज्येष्ठपुत्रः। आव०६९३। थुल्लतो-स्थूरः। उत्त० ३२५१
स्त्रिया अजेता मुनिः। मरण। थुल्लसमणओ-स्थूल श्रवणकः गौतमः। आव० २८७। थूलभद्दसामो-स्थूलभद्रस्वामी। आव० ४२५। थवंति-स्तयन्ते-अभिष्ट्रयन्ते अभिनन्दयते। भग०६७० | थलवया-स्थलं-अनिपणं यतस्ततो भाषितया व थूणं- लेपं। निशी. ३३६ अ।
सः स्थूलवचाः। उत्त० ४९। थूणा- वेली। निशी० ८३ आ। स्थूणा। प्रज्ञा० २९३। स्थूणा थूला-स्थूला । आव० ८५५ नगरी। आव० १७१। स्थूणा-ऊर्ध्वतिर्यक्करणयो- थूलेसरो-स्थूलेश्वरः-इहलोकगणविषये व्यन्तरविशेषः। गात्सङ्घातशाटविरहादुभयशून्या। आव० ४६२।
आव०८२४१ थूणामंडव-स्थूणाप्रधानो वस्त्राच्छादितो मण्डपः थूल्लं-स्थूलम्। आव. ९० स्थूणाम-ण्डपः। ज्ञाता०९३।
थूह-स्तूपम्। आव०५०५ थूभं-स्तूपम्। ओघ० १३। स्तूपः-पीठविशेषः। जम्बू थेज्जे-स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः। भग० १२२१ १२३। इट्टगादिचिया विच्चा थूमो। निशी. १९२ अ। थेर-सद्विवरिसे विसेसेणं जन्नसरीरे। निशी०६५। स्तूपः-चितिविशेषः। प्रश्न० ८। स्तूपः-चैत्यस्तूपः। स्थविरः-यो गच्छस्य संस्थितिं करोति। जाति(जन्म) राज० १२११
श्रुतपर्यायैर्वा स्थविरः। दशवै० ३१। स्थविरः-सीदतां थूभकरंडं- स्तूपकरण्डं ऋषभपुरे उद्यानम्। विपा० ९४। स्थि-रीकरणहेतुः। दशवै. २४२। स्थविरःथूभमहो-स्तूपमहः स्तूपसत्क उत्सवः। जीवा० २८१| श्रुतपर्यायवृद्धः। प्रव-चनगुरुः। दशवै० २८४। स्थविरःआव० ३२८१
जातिश्रुतपर्यायभेदाभिन्नः। आव० ११९। चरगादिएहिं थूभसंठिओ-स्तूपसंस्थितः। जीवा० २७९।
दंसणातो परीसहोवसग्गेहिं वा चरणातो थूभिंदे-स्तूपः-पारिणामिकबद्धौ एकविंशतितमो
अतिकक्खडपच्छित्तछणेण वा भावतो ण चालि-जति दृष्टान्तः। नंदि० १६५
सो थिरो। निशी. १४३ आ। स्थेरः आचार्यो गुरुर्वा। थूभिया-स्तूपिका शिखरम्। राज० ३६।
आव०६५४ स्थविरः-स्थविरकल्पिकः। ओघ. १६५ थूभियाए-स्तूपिका-शिखरम्। जम्बू०४७। जीवा० ३७९| धर्मपरिणत्या निवृत्तासमञ्जसक्रियामतिः। स्थविर इव प्रज्ञा० ९९। सूर्य २६४। स्तूपिका-लघुशिखररूपा। जीवा० स्थविरः, परिणतसाधुभाव आचार्यः। जीवा० ४॥ २०५, ३६०
स्थविरः। प्रज्ञा० ३२७। श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः। थूभियागे-स्तूपिका लघुशिखररूपा। जम्बू० ४९। ज्ञाता०७। स्थाविरः-श्रुत वृद्धः। भग० १३६। जातिश्रुतपथूलते- उच्चारपरिणामि। तन्दु०।
र्यायभेदभिन्नाः स्थविरः। ज्ञाता० १२३॥ स्थविरःथूल-स्थूलः अत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः। दशवैः गणधरः। दशवै. २५५ स्थविरः-महावीरजिनशिष्यः २१७। स्थूल-एरण्डकाष्ठादि। दशवै० १४७)
श्रुतवृद्धः। भग० १०० सीदमानान् साधन थूलगं- परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः ऐहिकामष्मिकापायप्रदर्शनतो मोक्षमार्गे स्थिरी स्थूलः। आव० ८२०
करोतीति स्थविरः। व्यव० १७२ अ। थूलभद्द- अन्तिमचतुर्दशपूर्वधरः। निशी० १४६ आ। | प्रवर्तिव्यापारितेष्वर्थेषु यो यत्र यतिः सीदति सत्
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[56]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text )
विद्यमानं बलं यस्य स सद्द्बलः तथाभूतः सन् प्रचोदयति स स्थिरकणात् स्थविरः । व्यव० १७२ अ स्थविर - एकसप्तत्या दिवर्षः व्यव० २४५ । थेरकंचुझ्ज्ज- स्थविरकञ्चुकी- अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकः प्रतीहारो वा । भग० ४६०
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
थेरकप्पट्ठित- स्थविरकल्पस्थितः । आव० २९२ थेरा- स्थविरा-गच्छ्वासिनः । बृह० २३० अ । आयरिया। निशी० ३०८अ । आचार्यः । बृह० ११२ आ । स्थविराःआचार्याः। बृह० २६० आ । आचार्याः
वयः श्रुतपर्यायस्थविराः । भग० ६७५१ थेरी संजतीविसेसा | निशी० १३२ आ । स्थविरा आव० २२०
थेरोवधाई स्थविरा:- आचार्यादिगुरवः तानाचारदोषेणशील-दोषेण च ज्ञानादिभिर्वोपहन्तीत्येवंशीलः स एव चेति स्थवि रोपघातिकः । सम• ३७। स्थेरोपघाती - आचार्योपघाती,
षष्ठमसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ |
थेव्वणं उपमर्दनम् । बृह० २४१ आ
थेहा दटठूणं निशी० ६३ आ
थोर स्थूलः ज्ञाता० ६८
थोवंदे स्तोकं ददस्व-स्वल्पं प्रयच्छ ओघ०६७ थोव स्तोकम् भग० २८१ स्तोकः स्वल्पः आव० ५६८ स्तोकः सप्तप्राणप्रमाणः । भग० २११ | स्तोकःसप्तप्राणाः उच्छ्वासनिःश्वास य इति गम्यते स स्तोकः । भग० २७६ । सप्तप्राणाः उच्छ्वासनिःश्र्वास य इति गम्यते स स्तोकः । जम्बू० ९०। सप्तोच्छ्वासरूपः । ज्ञाता० १०४। सप्तानप्राणप्र-माणः स्तोकः । सूर्य० २९२ स्तोकः सप्तप्राणा एकः स्तोकः । जीवा० ३४४ | थोवय- स्तोककाः चातकाः । ज्ञाता० २७| थोवावसेस - स्तोकावशेषा- कालवेला उद्घाटावशेषा ।
आव० ७३२
थोवेति- स्था० ८५
- X - × - x -x
द
दंड- प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः परितापकारी आचा० २७४१ दण्डनं दण्डः- अपराधिनामनुशासनम् । स्था० ३९९| सूत्रार्थकरणम्। ओघ० २०२१ दण्डनं दण्डःअतिपातात्मकः। उत्त० २९३ । आज्ञा अपराधे दण्डनं वा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[57]
[Type text]
सैन्यं वा स्था० ३४३१ विनाशनम् सम० २५१ बाहुप्प माणो । निशी. १२३ आ अपराधानुसारेण राजग्राहयं द्रव्यम्। भग० १४४ दण्डः ऊर्ध्वाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशः । जम्बू० २७१। दण्डः दण्ड इव दण्डः ऊर्ध्वाधआयतः शरीबाहल्यो
जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः । भग० १५४ ज्ञाता० ३४| तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः । ज्ञाता० ११ दण्डः वंशयष्टादिः । कूर्पराभिघातः उत्त० ३६४५ दण्डिकः । आव० ३६९ दण्ड इव दण्डः ऊर्ध्वाधआयतः शरीबाहल्यो जीवप्रदेशसमूहः । जीवा २४४ दण्डः । सामान्यग्रामाधिपः। आव० ८१९ | दण्डयति पीडामुत्पादयतीति दण्डः दुःखविशेषः । सूत्र. १३२ शरीरधनयोरपहारः । विपा० ६५। दण्डयतीति दण्ड:पापोपादानसंकल्पः । सूत्र० ३०६ | दण्डनायकः । विपा० ६१। बृह० २३६ आ दण्ड: योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते अनगारविशेषः । आव० ६६७ । यमुनावक्रे ऋषिः । संस्तान बाणघातसहो मुनिः । मरण०| प्रायश्चित्तम् । व्यव० १७२ अ । दण्डः । प्रश्न. १८१ दण्डिकः- राजदण्डधारी द्वारपालकः । उत्त० १७९॥ दण्डकः ओघ० २१८० आव० २७३॥ चतुर्हस्तमानः | अनुयो० १५४) दण्ड-सङ्घट्टनपरिता पनादिलक्षणः । दशवे. १४३ यथापराधं राजग्राह्यं द्रव्यम्। जम्बू. १९४ दण्डः- उत्कालः । पिण्ड० १० दण्ड:षण्णवत्यङ्गुलप्रमाणः । भग० २४५१ दण्डो हि चतुः कर उक्तः, करश्चतुर्विंशत्यङ्गुलः एवं चतुर्विंशत चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादे वेति । सम० ९८० दंडई- कुम्भकारकडे नगरे राया। बृह० १५३ अ । दंडईरण्णो दण्डकीराजा जितशत्रुराजजामाता उत्त
१४४|
दंड - दण्डकः । ओघ० २१७ |
दंडिओ नृपः। बृह० ३१३ आ
।
दंडकारण्यं - अरण्यविशेषः । प्रश्न० ८७ दंडग- चित्रलतादण्डकैः ओघ० ५५५ दंडगपमज्जणी- दण्डकप्रमार्जणी वसतिप्रमार्जनाय रजोहर णविशेषः । बृह० २५३अ
दंडणायग- दण्डनायकः - तन्त्रपालः । राज० १४० | दण्डनायकाः-तन्त्रपालाः। जम्बू० १९०
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
[Type text]
दंडणीई दण्डनीतिः सामादिश्चतुर्विधा । जम्बू• २५श दंडनायए दण्डनायकः तन्त्रपालः । औफ १४४ दंडनायक प्रतिनियतकटकनायकः प्रश्नः ७९ । दंडनायग - दण्डनायकः - तन्त्रपालकः । भग० ४६३ | तन्त्रपालः । भग० ३१८। आरक्षकः । दशवै० १६६ । दंडनीई - दण्डनीतिः हक्कारमक्कारधिक्कारभेदभिन्ना । आव० ११३ |
दंडनीति- दण्डनं दण्ड: अपराधिनामनुशासनं तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः - नयो दण्डनीतिः । स्था० ३९८ | दंडपयारो - दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं । दण्डप्रकारो वा आज्ञा - विशेषः । प्रश्न० ७४ ॥
दंडपरिहार महती जीर्णकम्बलिका। बृह. ११३आ दंडपो दण्डपथः गोदण्डमार्गः, लघुमार्गः, -
,
प्रमुखोज्ज्वलो वा सूत्र. २३४॥
दंडपासगो– दंडपाशकः- खरकार्मिकः । ओघ० ८९ | दंडप्पयारा- दण्डप्रकारः आज्ञाविशेषो नीतिभेदविशेषो वा । दण्डप्रचाराः सैन्यविचरणम् । सम० १५३ |
दंडफरूस- दंडपारुष्य व्यसनं अनपराधे स्वल्पे वापराधे अत्युग्रदण्डं निर्वर्त्तयति तत् । बृह० १५७ अ दंडभडओइओ दण्डभटभोजिकः । आव० ३४४, ३७८ दंडमाइया दण्डादिका घरणिपातच्छुप्ताकयुद्धप्रभृतयः । पिण्ड- १३०|
दंडय - दण्डकिः- कुम्भकारकृतनगरे राजा व्यवः ४३२ | दंडयगहियग्गहत्थो - गृहीतदंडाग्रहस्तः । उत्त० १३५ | दंडयत्ता- दंडयात्रा आव० ३७८१
दंडरक्खो दण्डरक्षः आव- ४०१
दंडरयणे चक्रवर्त्तिनश्चतुर्थं रत्नम् । स्था० ३९८ ॥ दंडवई- कटुककृतगोष्ठीणन्डोद्ग्राहकः । बृह. १९१ अ दंडवासत्थाणं- दण्डावासस्थानम् । आव० ६७१ | दंडवासिया- गामिया निशी. १९४ अ
दंडविरिए दण्डवीर्य पुरुषयुगे दृष्टान्तः स्था० ४३० दंडसंपुच्छणि- दण्डसंपुञ्छनी दण्डयुक्ता सम्मार्जनी | जम्बू० ३८८
दंडसमादाणे- समादीयते कर्म्म एभिरिति समादानानि कर्मों-पादनहेतवः, दण्डा एव मनोदण्डादयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानि दण्डसमादानानि । जीवा० १२१ ॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
[58]
दंडातिते दण्डायतिकः प्रसारितदेहः स्था० ३९७१ दंडादिपणगं- दंडविदंडयष्टिवियष्टिनालिकारूपं
दंडादिपञ्चकम्। बृह० २५३ अ
दंडायतिते - दण्डस्येवायतिः दीर्घत्वं पादप्रसारणेन यस्य स दण्डायतिकः । स्था० २९९॥
दंडिअ - दण्डिकः । आव० ९१, ६३६ ।
दंडिका - राजकुलानुगता। बृह०प०६५ अ दंडिखंडवसणं- दण्डिखण्डवसनम्। विपा. ७४१
दंडिय - दण्डिकः । ओघ० ११८ \ आव० ७३८ \ उत्त० १३९ | दंडिकः करणपतिः । व्यव• ६३ आ
दंडिया- दण्डिका- मुद्रा बृह० 33 आ । दण्डिका:। ३३ अन्यराजानः । ओघ० ११९ ।
दंडी - दण्डी - कृतसन्धानं जीर्णवस्त्रम् । ज्ञाता० २००| दंडे - शकटावयवविशेषः दण्डः । षण्णवतिरङ्गुलानि । जम्बू० ९४५
दंत - दान्तः य इन्द्रियनोइन्द्रियाणि दमयति । दशवै० १५७| दान्तः-उपशमं नीतिः । ज्ञाता० ७०| दशवै० ११९ । दन्तः । आव ० १९२ । गजादीनां दन्ताः । दशवै० १९३ । दान्तः क्रोधादिदमनाद्द्वयन्तो वा रागद्वेषयोरन्तार्थं प्रवृत्तत्वात् । भग० १२३॥ दान्तः दमं ग्राहितः, असमञ्जसचेष्टया व्यावर्णितः । उत्त० ५३1 गुरुभिर्दमंग्राहितः विनयितः औप- 331 दान्तःइन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तः । सूत्र० २९८ ॥ दंतकम् - दन्तकर्म-गजविषाणविषया रूपनिर्माणक्रिया । प्रश्न० १६० |
दंतकम्माणि दन्तकर्माणि दन्तपुत्तलिकादीनि । आचा
४१४ |
दंतकारे शिल्पभेदः अनुयो० १४९॥
दंतखज्जयं- मोदगासोगवट्टिमादी निशी० ३७ आ दंतचक्को दंतपुरणगरे राया। निशी १२८ अ दन्त-पुरे नृपः । व्यव० १०७ अ । दन्तचक्रः, द्रव्यव्युत्सर्गे दन्तपुरनरेशः । आव• ७१७ दन्तचक्रः, योगसंग्रहे निरप-लापदृष्टान्ते दन्तपुरनगराधिपतिः । आव० ६६६। दन्तचक्रो दन्तपुरनृपतिः । उत्त० ३०१। दंतनिवाय दन्तनिपातः दशनच्छेदविधिः, संप्राप्तकामस्य षष्ठो भेदः। दशकै १e दंत होयणा दंतप्रधावनं अड्गुल्यादिना क्षालनम्।
"आगम- सागर- कोषः " [3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दशवै०११७
सामान्यप्रहणात्मको बोधः। प्रज्ञा० ४५३। दर्शनंदंतपुरं- दन्तपुरं द्रव्यव्युत्सर्गे नगरम्। आव० ७१७। आकारः। जीवा० २०७। दर्शनं सम्यग्दर्शनम्। आव. दन्तपुरं-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तचक्रराज्ञो ५८० दशवै०१०१ओघ०९। दर्शनम्। आव०७९३। नगरम्। आव०६६६। णगरविसेसो। निशी. १२८ अ। दर्शनं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यावबोधः दंतचक्क-रायाए नगरं। व्यव० १०७ अ। दन्तपुरं- रूपसामान्यपरिच्छेदः। जीवा० १८ दर्शन-सम्यक्त्वम्। दन्तचक्रराज-धानी। उत्त० ३०१
स्था०६५। भग. ५१। दर्शनं-वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारः। दंतमणि-दन्तमणिः-प्रधानदन्तः, हस्तिप्रभृतीनां दशवै० १७७। दर्शनं-प्रस्थातुर्दृष्टिपथः। जम्बू० २६२। दन्तजो वा मणिः। प्रश्न. १५३|
दर्शनं-सामान्योपलब्धिरूपं दंतमाला-दन्तमालाः भरते द्रुमगणविशेषः। जं०प०९८१ चक्षुरचरक्षुरवधिकेवलाख्यम्। आचा० ६८ दर्शनप्रतिमा एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः। जीवा० १४५
श्रावकस्य प्रथमा प्रतिज्ञा। आव०६४६। दर्शनं-रुचिरूप दंतवक्के-दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स आत्मनः परिणामः। भग. ३५०| अनुभवनम्। भग. दान्तवाक्यः चक्रवर्ती। सूत्र० १५०|
७१० ईहावग्रहौ हि दर्शनं-सामान्यग्राहकत्वात् दंतवणं-दन्तवेदम्। ओघ० १७२।
श्रद्धानम्। स्था० २३। दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था दंतवाणिज्ज-दन्तवाणिज्यं
अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनं-दर्शनमो-हनीयस्य क्षयः हस्तिदन्तादिक्रयविक्रयक्रिया। आव० ८२९)
क्षयोपशमो वा दृष्टिर्वा दर्शनं-दर्शनमोहनीदंतवेयणा-दन्तदेवना-दशनपीडा। भग० १९७५
यक्षयायाविर्भूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः। दंतारा-शिल्पार्यभेदः। प्रज्ञा० ५६)
स्था० २४। दृष्टिः-रूचिस्तत्त्वानि प्रति। स्था० ३०| दंतिक्कं- पुण्णो तंदुलोट्ठो। निशी. ३९ आ। तंद्ला, सव्वं शुद्धाशुद्ध-मिश्रपुजत्रयरूपंमिथ्यात्वमोहनीयम्। स्था० वा दंतखज्जयं। निशी० ३७ अ। मोदकादिकं दन्तखादयं १५१| अभिप्रायो यदि वा दृश्यते यथावस्थितं तन्दुलचूर्णो वा। मोदकमण्डकादिकं यद्बहुविधं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनं उपदेशः। आचा०१७२। दन्तखाद्यकं तद्दन्तिकम्। बृह० १२६ अ। तन्दुलचूर्णः। अभिप्रायः। आचा० २२७। दर्शनं-रूपम्। निर० ४। राज० बृह. १२९ ।
११ दर्शनम्। स्था० ३३७ प्रमेयस्य परिच्छेदनम्। भग. दंतिक्कचूण्णं- तन्दुललोट्टः। बृह. १२९ अ।
६५९। दर्शनं क्षायिक-भावापन्नं सम्यक्त्वम्। जम्बू० दंतिलगं- दन्तुरः। आव० २११।
१६|| सेवनम्। बृह. २०३ अ। दृश्यते दंतलिया-दन्तिलिका-स्कन्ददासी। आव २०१।
तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम्। उत्त० ५५६। दृष्टिदर्शनंदंतो-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। तत्त्वेष रुचिः। स्था० ४८१ दर्शनं-प्रकाशनं दंतक्खलिय- फलभोजी। औप. ९० भग० ४१९|
उपनिबन्धनम्। सम० ११६ आकारः। जम्बू०५२। फलभोजिनः। निर०२५१
दंसणकसायकुसील-दर्शनमाश्रित्य कषायकुशीलो दंते-ददति। पिण्ड. १६२
दर्शनक-षायकुशीलः। भग० ८९०/ दंदिखंडो-दण्डीखण्डः। आव०४२६|
दंसणपक्खो-दर्शनपक्षः-योऽप्रत्याख्यानकषायोदयवति दंशः- चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। प्रज्ञा० २३।
श्रावके भवति। आव० ५३३ दंष्ट्रा-आशी। प्रज्ञा० ४७। क्षुल्लहिमवदंष्ट्रा। जीवा० १४५५ | दंसणपरीसह-दर्शनं-सम्यग्दर्शनं, सहनं चास्य दंस-दर्शनं दर्शः। आव० ८२ पञ्चमः परीषहः। आव. क्रियादिवा-दिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया ६५६।
धारणम्। सम० ४०। दर्शनपरीषहः-दर्शन-सम्यग्दर्शनं दंसणं-दर्शन-स्वस्वविषये सामान्यग्रहणं
तदेव क्रियादिवादिना विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यक् रूपसामान्यग्रहण-लक्षणम्। प्रज्ञा० ५२७। दर्शनं-रूपम्। परिषह्यमाणं निश्चलचित्ततया धार्यमाणं परीषहः, ज्ञाता० ११। सामा-न्यविशेषात्मके वस्तुनि
दर्शनं दर्शनव्यामोहहेतरैहिकामष्मिकफ
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[59]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
लानुपलम्भादिः स एव परीषहः। उत्त० ८३।
भग०७११ दंसणपुलाए-दर्शनमाश्रित्य प्लाकस्तस्यासारताकारी | दंसेति- तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन दर्शयति। विरा-धको दर्शनपुलाकः। भग० ८९०
स्था०५०२ दंसणपुलाते- कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः। स्था० दइअ-दतिकः। अनुयो० १५२ ३३७
दइउ-दतिउ-चक्खल्लाउडुओ जेण तरिज्जइ। ओघ० ३३॥ दंसणबलिया- परैरक्षोभ्यदर्शनाः। औप० २८५
दइए- दृतिकः। स्था० ३३९। दयितः-वल्लभः। उत्त०४५१| दंसणमोहणिज्ज-दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयं दइओ-ऊर्ध्वमपाटितेनापनीतमस्तकेन मिथ्यात्व-मिश्रसम्यक्त्वभेदम्। स्था. ९७।
निकर्षितचर्मान्तर्वदंसणवापन्नग-दर्शन-सम्यक्त्वं व्यापन्नं-भ्रष्टं यस्य स तिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगि दर्शन-व्यापन्नकः-निह्नवः। भग. ५११
तापान-च्छिद्रेण दंसणविणए-दर्शनविनयः-सम्यग्दर्शनगुणाधिकेषु सङ्कीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यतस्य शुश्रुषादि-रूपः। भग० ९२४।
शरीरेण निष्पन्नश्चर्ममयः। प्रसेवकः दंसणविणय-दर्शनविनयः विनयस्य प्रथमो भेदः। दशवै. | कोत्थलकापरपर्यायो दृतिः। पिण्ड. १८१
३१। श्रद्धानः कर्म विनयति यस्माद् दर्शनविनयः, दइत-दयितः-वल्लभः। ज्ञाता०१६७। दर्शनाविनयः दर्शनविनयः। दशवै० २४१।
दउदरे- दकोदरं-जलोदरम्। ज्ञाता० १९३। दसणसंकिलेसे- दर्शनस्य सङ्क्लेशः-अविशुद्ध्यमानता दओधसि-उदकौघे वा स दर्शनसक्लेशः। स्था०४८९।
गङ्गादिनामुन्मार्गगामित्वेनागच्छति सति तेन दंसणसावए-दर्शन-सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको प्लाव्यमानानामित्यर्थः। स्था० ३०९।
दर्शनश्रा-वकः, श्राद्धानां प्रथमा प्रतिमा। सम. १९| दओदराइ–दकोदरं-जलोदरम्। जम्बू. १२५ दंसणा-दर्शना-उपदर्शका। सम० ११६)
दकभवणं-उदकचवनं-उदकगृहम्। आचा० ३४१| दंसणायारे-दर्शन-सम्यक्त्वं तदाचारो
दकरय-दकरजः-उदककणः। जीवा० २७२। निःशकितादिरष्टधैव दर्शनाचारः। स्था० ३२५ दकवारकः-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। दंसणिंदे-दर्शनेन्द्रः-क्षायिकसम्यग्दर्शनी। स्था० १०४॥ दक्खं-दक्षस्य भावो दाक्ष्यं-अविलम्बितकारित्वम्। दंसणिज्ज-दर्शनीयं-द्रष्टुं योग्य, दर्शनेन
उत्त०४९। सिञ्चं करेति। निशी० ३३२ आ। स्था० ३०२। तृप्तिरसम्भवात्। सूर्य. २६४। दर्शनीयं दर्शनयोग्यम्। दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी। औप०६५ जीवा. प्रज्ञा० ८७। आदेय-दर्शनः। ज्ञाता० ३५०
१२२१ जम्बू. ३८८। शीघ्रकारी। अन्यो० १७७भग. दंसणिड्ढी-दर्शनर्द्धिः प्रशमादिरूपा। दशवै. ११३ ६३१। दक्षः-उत्तरत्यानां धरणेन्द्रस्य दर्शनर्द्धिः-प्रवचने निःशड़कितादित्वं प्रवचनप्रभावक- पादत्राणीकाधिपतिः औत्तराहाणं बलिवर्जितानां दक्षो शास्त्रसम्पद्वा। स्था० १७३।
नाम्ना पदातिपतिः। जम्बू. ४०८। दंसणेण अइभद्दए-भद्रदर्शनः। ज्ञाता० २२०
दक्खत्तं-दक्षत्वं-आशुकारित्वम्। आव० ३४६। उत्त. दंसमसग-दंशाश्च मशकाश्च दंशमशका, उभयेऽप्येते १४४॥
चतुरि-न्द्रिया महत्त्वामहत्त्वकृतश्चैषां विशेषोऽथवा दक्खिण-दक्षिणा। आव. २००० दंशो दंशनं-भक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका | दक्षिणकलग-यैर्गङगाया दक्षिणकल एव। भग. ५१९। दंशमशकाः। पञ्चमः परीषहः। सम०४१।
दक्षि-णकूलकः थैर्गङ्गया दक्षिणकूल एव वस्तव्यम्। दंसिज्जंति-उपमामात्रतः दर्श्यन्ते। सम० १०९।
औप०९० दंसिय-दर्शिता-श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टा। प्रज्ञा०४॥ दक्खिणकूला-यैर्गङ्गादक्षिणकल एव वस्तव्यम्। निर० दंसेइ-तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन दर्शयति। । २५१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[60]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दक्खिणा-दक्षिणा। आव०६३० दक्षिणा-दक्षिण-मथुरा। | दगपहो-जेण जणो दगस्स सो दगपहो। निशी. २६५ आव०६८
दगपिप्पली-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३। दक्खिणावहो-दक्षिणापथः। आव. १७४। बृह. २२७ ।। दगभवण-उदकभवनं-पानीयगृहम्। दशवै. १६६। दक्षिणपथः-दक्षिणादिग्विभागः। आव. ९९।
दगभवनं-उदकभवनं-उदकगृहम्। आचा० ३४० दक्खिण्णे-दक्षिणा। उत्त. २८६)
दगमंडवगा-दकमण्डपकाः-स्फटिकमण्डपकाः। जम्बू० दक्खु-पश्यतीति पश्यः-सर्वज्ञः। दक्षो वा निप्णः। सूत्र० | ४४। जीवा० २००१ ७३। द्रष्ट्रा-अतीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदर्शी। सूत्र | दगमंडवा-स्फाटिका मण्डपाः। राज०७९| ७४।
दगमंडवो-उदकमण्डपः-उदकक्षरणयुक्तः। प्रश्न. १६३। दक्षिण-दक्षिणपार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति। दगमग्गो-दगवाहो। निशी. २६५अ। स्था० २१६। दक्षिणत्वं-सरलत्वम्,
दगमट्टि-दममृत्तिका चिक्खलम्। आव०६७३। पञ्चत्रिंशद्वचनातिशये षष्ठः। सम०६३।
दगमट्टिआ- दकसंयुक्तमृत्तिका दक्षिणपूर्व-आग्नेयकोणः। सूर्य २२
विवेचकद्रव्यप्रयोगपूर्विका तद्विवेचनकलाप्युपचाराद् दगंगुलिगा-वक्को। निशी० ४५आ।
दृकमृत्तिका। जम्बू० १३७। उद-कमृत्तिका दग-अष्टाशीतौ महाग्रहे त्रयत्रिंशत्तमः। जम्बू.५३५ अचिराप्कायार्दीकृता मृत्तिका। आचा० २८५। स्था० ७९। दकं-अप्कायः। आव० ५७३। उदकम्। प्रज्ञा० उदकप्रधाना मृत्तिका। आचा० ३२२ चिक्खल्ला। ३६१। उदकं-जङ्घार्द्धप्रमाणम्। ओघ० ३२पाणि-यघरं निशी० ८३। प्रवादि। निशी. १० आ। उदकं-जङ्घार्द्धप्रमा-णम्। ओघ० दगमास- वासा। निशी. १०९। ३
दगरए-उदकरजः-उदकगणाः। प्रज्ञा० ३६१| जीवा० २१० दगकलस-दककलशम्। जम्बू० ३८९)
पानीयकणाः। जीवा. १६४१ दकरजः-उदकबिन्दुः। ब्रह. दगकुम्भयं-दककुम्भकम्। जम्बू० ३८९।
१९२ आ। दगगब्भा-दकस्य-उदकस्य गर्भा इव गर्भा दकगर्भाः- दगरक्खसो-उदकराक्षसःकाला-न्तरे जलवर्षणस्य हेतवस्तत्संसूचका इति जलमानुषाकृतिर्जलचरविशेषः। सूत्र० १६०| तत्त्वमिति। स्था० २८७
दगरय-दकरजः-लक्ष्णोदककणिका। आव० ४४३। दगघट्ठो-जत्थ अद्धजंघा जाव उदगं| निशी. ३४११ दगलेव-उदकलेपो-नाभिप्रमाणजलावगाहनम्। सम० ३९। दगच्छड्डणमत्तए-उदकप्रतिष्ठापनमात्रकं
दगवण्णो-दकवर्णः अष्टाशीतौ महाग्रहे चस्त्रिंशत्तमः। उपकरणधावनोद-कप्रक्षेपस्थानम। आचा० ३४०
जम्बू० ५३५ दगतीरं-दगब्भासं। निशी. २६५। सिंचनवीचिस्प- दगवार-उदककुम्भः -पानीयघटः। दशवै०१७२ ष्टानि न नयनदृष्टपूराणि मनुष्यादिस्थानं त्ववश्यं दगवारओ-पाणयगड्डयओ। दशवै० ७९| सिंचनवीचि-स्पृष्टलक्षणानि दगतीरम्। मनुष्यास्त्रियो दगवारग- दगवारकः-जलघटः। जम्बू. १०१। वा जलार्थिन आगच्छन्तः साधुं यत्र स्थितं दृष्ट्वा दगवाहो-दगमग्गो। निशी० २६५अ। तिष्ठन्ति निवर्तते वा तङ्कतीरम्। बृह. ३० अ। दगसंसद्हडा-दगसंसृष्ठाहृता-उदकसम्बद्धानीता दगतुंडो-दकत्ण्डः पक्षिविशेषः। प्रश्न० ८।
हस्तमा-त्रोदकसंसृष्टा वा भावना। आव. १७६) दगतूर-उदके मुरवादितूर्याणां शब्दकरणम्। बृह० ३२ । | | दगसीम-वेलंधरनागराजस्य चतुर्थ आवासपर्वतः। स्था० दगथालगं-दकस्थालकं-कांस्यादिमयं जलपात्रम्। जम्बू. २२६। दकसीमः-मनःशीलाकभुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः। ३८९|
जीवा० ३११| दगपंचवण्णे- अष्टाशीतौ महाग्रहे चतुस्त्रिंशत्तमः। स्था० । दगसुगरिया-परिव्वायगा। निशी. १७२ अ।
दगसोकरो-परिव्राजकः। आव० ४००।
७९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
दच्छतरो- सांयात्रिकयानपात्रेभ्यः सकाशात् दक्षतरो वेगवान्नित्यर्थः । प्रश्न. ५१|
दच्छिसि द्रक्ष्यसि। आव० ५०९ | भग० ११३ | दट्ठा– दंष्ट्राः। व्यव॰ २८ अ ।
दड्ढ - दाहः कर्मदलिकदारूणां ध्यानाग्निता तद्रूपापनयनमक- र्मत्वजननम् । भग. १६॥ दग्धं
स्वस्वभावापनयनेन भस्मीकृतम् । आव० ५८२| दाहःअग्निना दार्वा (यर्या)-दिविषयो दाहः भग. १९१ दड़्ढच्छवी– दग्धच्छविः-शीतादिभिरूपहतत्वक् । प्रश्न
५२
प्रतिज्ञः । अग०६५३|
दड्ढप्पण्णो दढिल्लयं दग्धम् । आव० ८३९|
दढ दृढ विश्रोतसिकारहितः परीषहोपसर्गः निष्प्रकम्पो वा। आचा० १२२। गाढः । उत्त० ३४९ । निष्प्रकम्पम् । नन्दी० ४६ | षण्मास यावद् शक्यभोगम् षण्मासान् यावत् ध्रियते तद् ईदृशं दृढम् । बृह० २३८ अ । दृढंअतिनिबिडच-यापन्नम् । जीवा० १२१ |
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
दढक्खमाइया - महाश्र्वपत्यादयः । व्यव० १७६ आ । दढघणू- आगामियन्यामुत्सर्पिण्यां भरतक्षेत्रे अष्टमः कुलकरः । स्था० ५९८८ आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां ऐरावतक्षेत्रे षष्ठः कुलकरः । सम० १५३॥ धम्म- दृढो धर्म्मो यस्य, आपद्यपि तत्परिणामाविचलनात् अक्षोभत्वादित्यर्थः स दृढधर्म्मोति। स्था० २४२ । दृढधर्म्मा य आपद्यपि धर्मान्न चलतीति। स्था० ४८४१ दृढ-स्थिरो निश्चलो धम्र्म्मो यस्य स ओघ० २०२१
दढनेमी- दृढनेमिः अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य दशममध्यय-नम् । अन्त० १४ । दृढनेमि:समुद्रविजयस्य चतुर्थः सुतः । उत्त० ४९६ । दढपइन्न दृढप्रतिज्ञः । भग. ५४४, ६९५६ अन्तरम विपा० ५१। दृढप्रतिज्ञः-भव्यविशेषः । विपा० ४४ | दढप्पहारी- दृढप्रहारी - कौशाम्ब्यां रथिकः । उत्त० २१४ |
गाढप्रहारः । ज्ञाता० २३९|
दढभूमि- हदभूमिः । आव० २१६ |
दढमित्तो- दृढमित्र:- योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तपुरनगरे धनमित्रवणिजमित्रम् । आव ०६६६ । धणमित्तस्स आलावं तस्स वयंसो निशी० १२८ अ
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
धणदत्त सार्थवाहस्य मित्रम् । व्यव० १०७ अ दढरह- निरयावलया पञ्चमवर्गेऽष्टममध्ययनम् । निर० ३९ भरतक्षेत्रे अतीतायामुत्सर्पिण्यां अष्टमः कुलकरः । स्था० ५१८| भरतक्षेत्रे अतीतायामवसर्पिण्यां अष्टमः कुलकरः । सम० १५० | शीतलजिनपिता। आव० १६१। सम० १५१। लोकपालाग्रमहिषीणां तृतीया पर्षत्। स्थान १२७ दृढरथा-पिशाचकुमारेन्द्रस्य बाह्या पर्षत् । जीवा.
१७१।
[62]
दढाउ - दाढादालः । जीवा० १२१ |
दढाउणा— दृढायुरप्रतीतः । स्था० ४५६ । दढाऊ - आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतिकायां पञ्चमतीर्थ करस्य पूर्वभवनाम । सम. १५४1
दण्ड- दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामात्रं वा एकत्वं चास्य सामान्यनयोदेशाद् एवं सर्वत्रैकत्वमवसेयम् ।
सम० ५|
दण्डपाल:- नगररक्षकः । उत्त० ४९५ | दण्डपाशिकः- राजप्रेष्यः । आचा० ३३४ |
दण्डाः- दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणः । प्रश्न.९७% दण्डिकः- राजा ओघ० १२०१
दतिए वायफुण्णो दतितो निशी ४५ अ दत्त - क्रीडनधात्रीदोषविवरणे सिंहाचार्यशिष्यः । पिण्ड० १२५ भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सत्सर्पिण्यां पञ्चमः कुलकरः । सम० १५३। स्था० ३९८। दत्तःसङ्गमस्थविराचार्यस्य शिष्यः । उत्तः १०८॥ दत्तःतगरानगर्यां वास्तव्यो वणिक् । उत्त० ९० दत्तःभद्राभिधधिग्जातीयपुत्रः धिग्जातिनृपतिः । आव० ३६९ ॥ दत्तः- नित्यवासदृष्टान्ते सङ्गमस्थविरशिष्यः । आव० ५३६। सङ्गमथेराणामायरियाणं सीसो निशी. ९५आ। कुल्लइरपुरे दुश्शिष्यः । मरण० निरयावल्यां तृतीयवर्गे सप्तममध्ययनम् । निर० २१, ३६। दत्तः सप्तमो वासुदेवः । आव० १५९ | मेतार्यपिता आव० २५५| दत्तःरोहीटकनगरे गाथापतिः। विपा. ८२] दत्तः चम्पानगर्या नृपतिः । विपा० ९५|
दत्ताणुन्नायसंवरो दत्तं च वितीर्णमन्नादिकमनुज्ञातं च-प्रति-हारिकपीठफलकादि ग्राह्यं इत्येवरूपः संवरो दत्तानुज्ञातसं वरः प्रश्न. १२३
दत्ति- दत्तिः सकृद्भक्तादिपात्रपातलक्षणा प्रश्न. १०६ |
"आगम- सागर-कोषः " [3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दत्तिआ-दत्ता च कन्या पित्रादिना परिणीयत इति। । दद्दरेति- बध्नाति। निशी० २। आव० १२९|
दहु - दद्रुः-क्षुकुष्ठविशेषः। भग० ३०८। जम्बू. १७०| दत्तिते-दत्तयः-सकृद्धक्तादिक्षेपलक्षणा। स्था० २९८१ दद्दर-मणिकारश्रेष्ठिजीवः। भक्त राहोः पञ्चमनाम। दत्तिय-दात्रिका। आचा०६१।
भग० ५७५। देवविशेषः। ज्ञाता० १७८। दुर्दुरट:दत्तिलायरिअ-आचार्यविशेषः। दशवै०७।
चर्मावनद्धमुखः कलशः। प्रश्न० १५९। दत्ती- यत्सिक्थकमप्येकशः क्षिपति एका दत्तिः। आव. | दद्दरवडिंसए-सौधर्मकल्पे विमानविशेषः। ज्ञाता०१७८
८४४| दत्तिः -एकक्षेपभिक्षालक्षणा। औप० ३९। दद्ध-पसिद्धं । निशी० १२७ आ। तब्भवो दोसो। निशी दत्तीओ-दत्तयः-एकप्रक्षेपप्रदानरूपाः। स्था० १३९। १८८आ। दत्तिः -सकृत्प्रक्षेपलक्षणा। स्था० १५०|
दद्रू-सप्तमं महाकुष्ठम्। प्रश्न. ३६१। महाष्ठविशेषः। दत्तेसणा-दत्तं दानं तस्मिन्
आचा. २३५। त्वयोगविशेषः। पिण्ड. ९| एषणातगतदोषान्वेषणात्मिका दत्तैषणा। उत्त०५९। | | दधिघणो-दधिघनः-घनीभूतं दधि। जम्बू० ४९। जीवा० दद्दर-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखम्। जम्बू. ४९। २०५१ दईरः-बहलः, दर्दराभिधानाद्रिजातश्रीखण्डो वा दधिमुहा- पर्वतविशेषः। सम० ७७। चपेटारूपः। ज्ञाता०४० घनं-चपेटाभिघातः,
दधिवासुया-दधिवासुका-वनस्पतिविशेषः। जम्बू०४५। सोपानवीथीः। सम० १३८। गलदर्दरःवचनाटोप इत्यर्थः। | जीवा० २००। प्रश्न. ४६। दईरः-आच्छादनम्। आव० ६२५) बहलं दधिवाहणो-दधिवाहनः-चम्पानगर्यधिपतिः। आव. चपेटाकारः। राज०३६। मुखे घनेन चीवरेण बन्धनम्।
રરરર बह. २९९ अ। दईरः-वादयविशेषः। जीवा० १०५। बहलः | दधी-दधि। प्रज्ञा० ३६१। चपेटाप्रकारो वा। जीवा० १६०, २२७ औप.५ प्रज्ञा०८६| दन्तपुत्तलिका-दन्तकर्मणि दृष्टान्तः। आचा० ४१४। दईरः-चीवारावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखम्। जीवा. दन्तवण-दन्तपावनं-दन्तमलापकर्षणकाष्ठम्। उपा०४। २१४, २४४। लघुपटहः। जीवा० ३६६, २६९। पर्वतविशेषः। दन्ताः- दशनाः। आचा० ३८५ ज्ञाता० २२२ चन्द-नोत्पत्तिखानिभूतः पर्वतः। जम्बू० दप्प- व्यायामवल्गनादिष् व्याप्ततया यो ४१२। दईरः-निर-न्तरकाष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः। | निष्कारणेऽनादर उपस्थापनायाः स दर्पः। व्यव०६५ पिण्ड० ११०
अ। दर्पिका-या कारणमंतरेण प्रतिसेवा क्रियते सा। दद्दरए-दईरकः-मुखबन्धनं वस्त्रखण्डम्। पिण्ड० १०५ व्यव० ४७ आ। दर्पः। मनस्विनीमानदलनोत्थो गर्वः। ददरओवीलको-दर्दरेणोपपीडयति-जातमनो बाधं
उत्त०४२८। अकत्तव्वं। निशी० २५आ। दर्पःकरोतीति दईरोपपीडकः। प्रश्न.४६
देहदृप्तता। सोभाग्यादयभिमानः। अब्रह्मणोऽष्टमं दद्दरओवीलग-दर्दरेण गलदर्दरेण-वचनाटोपेन
नाम। प्रश्न०६६। दर्पः-वल्गनादिः। भग. ९१९। स्था० अपव्रीडयति-गोपायन्तमात्मस्वरूपपरं
४९४। दर्पः-दृप्तता। भग० ५७२ विलज्जीकरोतीति स दर्दरापती-डकः। प्रश्न०४६। दप्पणं-दर्पणं अष्टममङ्गले प्रथमम्। जम्बू०४१९। दद्दरग- दईरिको-यस्य चतुर्भिश्चरणैरवस्थानं भुवि स । दर्पणकः-आदर्शकदण्डः। औप० २०१ दर्पणः-दर्पणगण्डः। गोधा-चर्मावनद्धो वाद्यविशेषः। जम्बू. १०१।
जीवा. १७०१ प्रश्न० ८० दद्दरपिहण-दर्दरपिधानं-वस्त्रबन्धनम्। बृह. २७ अ। दप्पणिज्जं-दर्पणीयं-बलकरः। औप०६५। उत्साहवृद्धिहेदद्दरमलयसुगंधे- दर्दरमलयसुगन्धः। जम्बू० ४१०। तुत्वाद् दर्पणीयम्। जीवा० २७८१ दद्दरयसंठिय-दर्दरसंस्थितः-आवलिका बाह्यस्य षोडशं दप्पणिज्जे- दर्पणीयमुत्साहवृद्धिहेतुत्वात्। जम्बू० ११९। संस्थानम्। जीवा० १०४।
दर्पणीयं-बलकरमुत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति। स्था० दद्दरियं-लिप्तम्। निशी० ५९ आ।
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मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
दप्पायमाणो-दायमाणः। उत्त०२११
दर-द्रुतम्। बृह० १०५आ। अर्धम्। बृह. १२१ आ। अद्धं । दप्पिया-दप्परागदोसाणुगया दप्पिया। निशी० ७९ । निशी० ७७ । ईषद्। व्यव० ४९ | दब्भ-समूलम्। निर० २६। दर्भः-मूलसहितः दर्भः। भग० | दरदर- शीघ्रम्। निशी० १६अ।
२९०, ८०२। कुशः। प्रश्न० १२८। समूलः। विपा०७२। दरहिंडिए-अर्द्धहिण्डिते। ओघ. १०४| दर्भमयी। प्रश्न. १३। अग्रभूतः। ज्ञाता० ११४१ दरि-दरी-पर्वतकन्दरा गुहा। भग० १७४। शृगालादिकृत दब्भकम्मताणि-दर्भकर्मान्तानि। आचा० ३६६।
भूविवरविशेषः। भग० ६८३। दर्यो-गुहाः। जम्बू०६६। दब्भकुरा-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। भग० ८०२।
दरिअ-निम्नतरप्रदेशः अधोग्रामादिः। भग०४३६। दब्भपुप्फय-दर्भपुष्पः-दर्वीकरसर्पविशेषः। प्रश्न० ८। दरिद्दथेरा-दरिद्रस्थविराः नाम पाषण्डस्थाः। आव २०४। दब्भा-दार्भायनं-चित्रानक्षत्रस्य गोत्रम्। जम्बू. ५००० दरिद्दो- फल्लो। निशी. ४५अ। दब्भेया-विदयाविशेषः। अन्या दर्भे-दर्भविषया भवति दरिय-द्रप्तः-बलोन्मतः। आव०७१९। गर्विष्ठः। आचा० विद्या यथा दब्भैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। ७५ व्यव० १३३ आ।
दरिसण-दर्शनं सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि दमओ- द्रमकः। आव० ४२११
सामान्यग्रहणा-त्मको बोधः। स्था० ४४७ मतं। निशी. दमगभत्तं-दमगा-आरम्म्का तेसिं भत्तं दमगभत्तं। ११ आ। दर्शन-आगमः। सूत्र० ३७ निशी० २७२।
दरिसणपुलाओ-दर्शनपुलाकः, पुलाकस्य द्वितीयो भेदः। दमगा-जे पढमं विणयं गोहेंति ते दमगा। निशी. २७७ उत्त०२५६। दमगो-दरिदो। निशी. ३५० । दरिद्रः। निशी. १६७। | दरिसणावरणिज्ज-दर्शनावरणीयंदमण-दमनं-शिक्षाग्राहणम्। प्रश्न. २२॥
दर्शनमोहनीयमभिगृह्यते। भग० ४३२१ दमणको-दमनकः-पुष्पजातिविशेषः। प्रश्न० १६२ दरिसणिज्जं-दर्शनीयं-दर्शनयोग्यम। जीवा० १६१। दर्शदमणग-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३|
नीयः-नयनमनोहारी। जीवा० ३४३। दमणगपुड- पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता० २३२१
दरिसणिज्जा-दर्शनयोग्या, यां पश्यतश्चक्षुषी श्रमं न दमदंत- पांडवकौरवसाम्यवान्। मरण| दमदन्तः- गच्छतः। जम्बू. २१॥ यां पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति। ज्ञाता०
हस्तिशी-र्षनगरे राजा। ज्ञाता० २०८। आव० ३६५) दमसेणे-दमसेनः-कृष्णवासुदेवधर्माचार्यः। आव० १६३। | दरिसावं-दर्शनम्। दशवे. १०३| निशी. १५अ। व्यव० दमिलि- द्राविडी। भग० ४६०। ज्ञाता०४१।
१७॥ दमीसरे-दमिनः-उद्धतदमनशीलास्ते च
दरिसावेउ- दर्शयतु। दशवै. ४१। राजानस्तेषामीश्वरः-प्रभः। यद्वा दमिनः
दरी-कुसाराती। निशी० १२९ अ। मूषिकादिकृता लघ्वी उपशमिनस्तेषां सहजोपशमभावत ईश्वरो दमीश्वरः। खड्डा। जीवा० २८२। जम्बू० १२४। श्रुगालादिउउत्त० ४५१।
त्कीर्णभूमिविशेषः। ज्ञाता० ३६। कन्दरविशेषः। ज्ञाता० दम्मतो-दमितः। उत्त०५३
६७ दरी-सुरङ्गा गुफा च। आव० ६७७। आचा० ४११। दम्म- दम्यः-दमनयोग्यः। आचा० ३९१।
दर्दरिका- गोधिका-वाद्यविशेषः। अन्यो० १२९। दम्मा–दम्यः-दमनीयः (गोरथकः)। दशवै० २१७ दईर- पर्वतविशेषः। भग० ४७७ दयइ-दयते-पालयति। आचा. २७५
दईरिका-वाद्यविशेषः। स्था० ३९५१ दया-देहिरक्षा, अहिंसाया एकादशं नाम। प्रश्न. ९९। दर्पण-कार्याभावे। बृह० २२२ आ। दयाधम्म-दयाप्रधानो धर्मो दयाधर्मः,
दर्भ-तृणविशेषः। आचा० २८५४ दशविधयतिधर्मरूपः यतिधर्मः। उत्त. २५३।
दर्वी- वर्द्धकिः। नन्दी. १६५ दयामनका- वराकका। ओघ १५७।
दर्वीकरः- सर्पविशेषः। सम० १३५ प्रश्न. १०
१३
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[64]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #65
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[Type text]
दर्शन - आर्यभेदः । सम० १३५ दृष्टिः चक्षुर्ज्ञानं नयमतं
वा। स्था० १८३ |
दर्शनतः दर्शनयन्यं प्रयुञ्जानो दर्शनतः स्था० ३३७१ दर्शनलालसं अवलोकचलम् आव• ७८४
दर्शनानि - नयाः स्था० १९९|
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
दर्शनोपसम्पत्- दर्शनप्रभावनीयशास्त्रपरिज्ञानार्थमेव दर्शनोप- सम्पदिति । आव० २७०
दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिशास्त्र विषया । स्था० ५०१ |
दलं- चूर्णम् । जम्बू. ४२२
दलंति प्रयच्छति। बृह. २८१ अ दलए - दलिकं कारणम्। भग० ६६५।
दलज्ज - दद्यात्। आचा० २८० दलनिकर दलवृन्दम्। ज्ञाता० १६८१ दलयमाणे ददत् न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति । स्था०
११९ |
दलामि- दलयामि-तुभ्यं ददामि। ज्ञाता० ३६। दलाह- ददध्वम् । उत्त० ३६१ | दत-प्रयच्छत । ज्ञाता० ११९|
दलिअं द्रव्यं वस्तु वा ओघ० ३७॥ दलियं दलिकं- परममेधावी आचार्यपदयोग्यः बृह
१३४ |
दवः- द्रवः- जलम् । पिण्ड० १२ द्रवः परिहासः । औप० ५१ | जीवा० १७२ प्रज्ञा० ९६ | द्रव विकृतिविशेषः । आव ० ८५४| द्रवः-कर्मग्रन्थिद्रावणाद् द्रवः संयमः । सूत्र० ३१६ । द्रव-द्रुतार्थवाचकः। बृह॰ १२४ अ । द्रवं पानकम् । ओघ०
१०१| पानीयः। पिण्ड० १७५। सौवीर द्रवादिकं अलेपकृतं, दुग्धतैलवसाद्रवघृतादि च । बृह० २०६ आ । द्रवः- संयमः । आचा- ७ १९३ द्रव तण्डुलधावनादि । पिण्ड० ९२१
दवउदगं- द्रहवोदकम् । निशी० ४५अ । दवकारगा- द्रवकारकाः केलिकराः । जम्बू० २६४१ दवकारिओ परिहासकारिणीः । भग० ५४८ दवगुडो- दवगुडगुडभेद्र, द्रवीभूतो गुडविशेषः । आव ०
८५४|
दवग्गिदावणया- दवाग्निदापनता त्रयोदशं कर्मादानम् । आव० ८२९|
दवदव- द्रुतं द्रुतं तथाविधालम्बनं विना त्वरितम्। उत्त
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[65]
[Type text]
४३४। द्रुतं द्रुतं। बृह० २८८ आ| अन्त०२० दवदवचार द्रुतदुतचार विंशत्यसमाधौ प्रथमं स्थानम् । आव० ६५३ |
दवदवचारि दुतंदुतं चरति गच्छति सोऽनुकरणशब्दतो दवदवचारि, असमाधौ प्रथमं स्थानम्। समः ३७॥ दवदवस्सं - अब्भुयं । दुयं । दशकै०७६।
दवदव्व- द्रुतंद्रुतं त्वरितम् । दशवै० १६६ । दवरक:- सूत्रम् जीवा० २३७॥ दवरिका - जीवा-प्रत्यञ्चा। सूर्य० २३३ | दवविरोह- द्रवेण काञ्जिकेन सह विरोधः । द्रवविरोधः द्रवं उदकं तेन निर्लेपनं करोति सागारिकपुरत इति । विनाशः ओघ ४८८
दवसील - द्रवशीलं भासइ दुयं दुयं गच्छए य दरिउव्व गोविसासरए सव्व दुयदुयकारी फुट्ट व ठिओवि दप्पेण । बृह० २१३ अ । द्रवशीलः-दर्पाद् द्रुतगमनभाषणादि स्थान राज्या
दविए- रागादिभावरहितत्वाद् द्रव्यं, द्रवति-गच्छति तांस्तान् ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यं साधोरुपमानम्। दशव CM द्रव्यकाय त्र्यादिघटादिद्रव्यसमुदायः । दशवै० १३४। द्रव्य-काय ः- रागद्वेषरहितः भिक्षुपर्यायः । दशवै० २६२॥ द्रव्य - द्रव्यानुयोगः दशकै दविए जीवि - द्रव्यमेव सचेतनादिभेदं जीवितव्यहेतुत्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितम् स्था० ७ रागदोसविमुक्को दशक १४५१
1
दविय वीर्य णूमं । निशी० ४० आ द्रविकं समुदायः भग० ९२| विशिनष्टि-रागद्वेषविरहाद्-द्रव्यभूतः कर्म्मय-न्थिद्रावणाद्वा द्रवः संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः । आचा० ३०९ | द्रव्यं संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः । आचा० २९२॥ द्रव्यः - भव्यःमुक्तिगमनयोग्यः । आचा० २४६ |
दवियणुजोगे - द्रवतीति द्रव्यं तस्यानुयोगः द्रव्यानुयोग:सदसत्पर्यालोचनारूपः । ओघ० ८
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-
दविया- द्रविका नाम रागद्वेषनिर्मुक्ताः, द्रवः-संयमः सप्तदशविधानः कर्म्मकाठिन्यद्रवणकारित्वाद्विलयहेतुत्वात् स येषां विद्यते ते द्रविकाः । आचा• ७७ दवियाणि- अटव्यां घासार्थं राजकुलावरुद्धभूमयः । आचा०
३८२
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]] आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text] दवियाणुओगे- अनुयोजनं-सूत्रस्यार्थेन सम्बन्धनं | दव्वगुणो- द्रव्यगुणः-द्रव्यम्। आचा० ८५
अनुरूपो-ऽनुकूलो वा योगः-सूत्रस्याभिधेयार्थं प्रति दव्वचरणं-गतिचरणं भक्खणाचरणं आचरणाचरणं च। व्यापारोऽनयोगः, व्याख्यानमिति भावः, द्रव्यस्य- निशी. १। जीवादेरनयोगो-विचारो द्रव्यानयोगः, यज्जीवादेर्द्रव्यत्वं | दव्वट्ट- शकटादिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टो विचार्यते स द्रव्यानुयोगः, द्रवति-गच्छति तांस्तान् दीयते स द्रव्यातः। आचा० ३५ पर्यायान् द्रूयते वा तैस्तैः पर्यारिति द्रव्यं
दव्वट्ठया-द्रव्यमेवार्थस्तस्य भावः द्रव्यत्वं वा द्रव्यार्थता। गुणपर्यायवानर्थः, तत्र सन्ति जीवे ज्ञानादयः सहभा- अनुयो०६७ द्रव्यं च तदर्थश्चेति द्रव्यार्थस्तस्य भावो वित्वलक्षणा गुणाः न हि तदवियुक्तो जीवः कदाचनापि द्रव्या-र्थता प्रदेशगुणपर्याधारता अवयविद्रव्यतेति सम्भ-वति, जीवत्वहानेः, तथा पर्याया अपि
यावत्। स्था० १०॥ द्रव्यार्थता-द्रव्यास्तिकनयमतम्। मानुषत्वबाल्यादयः कालकृतावस्थालक्षणस्तत्र जीवा. १८३। द्रव्यमेवार्थः तात्त्विकः पदार्थः प्रतिज्ञायां सन्त्येवेति, अतो भवत्यसौ गुण-पर्यायवत्त्वात् यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थःद्रव्यमित्यादि द्रव्यानुयोगः। स्था० ४८१।
द्रव्यमात्रास्तिवत्वप्रतिपादको नयविशेषः। तद्भावो दविल-द्रविडः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. द्रव्यार्थता, द्रव्यमात्रास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्राय इति १४|
यावत्। जम्बू० २६॥ दव्वंतो- द्रव्यायमाणः। उत्त० २७९।
दव्वट्ठाणाउय-द्रव्यं-पुद्गलद्रव्यं तस्य स्थानं-भेदः परमादव्व-द्रव्यं-वस्तु। आव० ७६८1 द्रव्यं-ओदनादि। आव० णुद्विप्रदेशिकादि तस्यायुः-स्थितिः, अथवा ८४४। द्रव्यं-त्रिकालानुगतिलक्षणं पुद्गलादिवस्तु। द्रव्यस्याणुत्वा-दिभावेन यत्स्थानं तद्रूपमायुः प्रश्न. ११७। द्रव्यं-रिक्थम्। प्रश्न०५३। द्रव्यं
द्रव्यस्थानायुः। भग० २३६) सामान्यम्। जीवा० ९८। इह द्रव्यतस्तुल्यत्व वदता दव्वट्ठो- द्रवति गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति संमूर्छिमसर्वप्रभेदनिर्भेद-बीजं
वा द्रव्यमिति व्युत्पत्तेर्द्रव्यमेवार्थः तात्त्विकः पदार्थो मयूराण्डकरसवदनभिव्यक्तदेशकालक्रमं प्रत्यवबद्धवि- यस्य न तु पर्यायः स द्रव्यार्थःशेषभेदपरिणतेर्योग्यं द्रव्यम्। प्रज्ञा० १८४१
द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकोनयविशेषः। जीवा. ९८१ वतनादिलक्षणो द्रव्यकालः। आव० २५७।
दव्वणुमणं-द्रव्यगोपनम्। उत्त० २२१। द्रव्यजीवितंसच्चित्तादि। आव०४७९। द्रव्यः-भव्यो दव्वतिंतिण- द्रव्यतितिणिकः। बृह. १२६। जं अग्गीए मुक्तिगमनयोग्यः, रागद्वेषविर-हावा
दढं तिडितिडेति तं दव्वतिंतिणं। निशी० ८० अ। द्रव्यभूतोऽकषायी। सूत्र० १७०| सर्वत्रान्वयि सामान्य- |दव्वतित्थ-द्रव्यतीर्थ-मागधवरदामादि। आव०४९८१ मुच्यते द्रवति-गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति | दव्वथओ-द्रव्यस्तवः-पुष्पगन्धधूपादिः। आव० ४९२। वा द्रव्यम्। जम्बू. २६। द्रव्य-पूर्वोपात्तं कर्म। दशवै०६८।। | दव्वदेवो-यो हि पुरुषादिम॒त्वा देवत्वं प्राप्स्यति द्रव्यं-जीवाजीवभेदः। अनयो० १०५ यत्रस्थास्त बद्घायुष्कः अभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वाद् उत्पद्यन्ते उत्पद्य चावतिष्ठन्ते प्रलीयन्ते च तद् द्रव्यदेवः। आव० ६७८१ द्रव्यम्। उत्त०५५७। द्रव्यं-हिरण्यम्। निशी. ४५६ ।। | दव्वधम्म- द्रव्यधर्मः। दशवै २१। द्रव्यधर्मःद्रवति-गच्छति तांस्तान्पर्यायानिति द्रव्यं-अतीत- धर्मास्तिकायः तिक्तादिर्वा द्रव्यस्वभावः गम्यादि भविष्यद्भावकारणं अनु-भूत
धर्मः कृतीर्थिको वा धर्मः। आव० ४९७। विवक्षितभावमनभविष्यद्विव-क्षितभावं वा
दव्वपडिबद्धा-द्रव्यप्रतिबद्धा। निशी० १०६ आ। वस्त्वित्यर्थः। अनुयो० १४
दव्वपरंपरा-द्रव्यपरम्परा। दशवै०४९। दव्वकाल-द्वयर्द्ध सार्द्धम्। स्था० ३६८1 द्रव्यकालः-वत- दव्वपाणा-द्रव्यप्राणाः-आयःप्रभतयः। जीवा० १४० नादिलक्षणः। दशवै०९।
| दब्वभावभासा-तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तौर्या भाष्यते सा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[66]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #67
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
द्रव्यभावभाषा। भावषाभाषाभेदः। दशवै० २०८।
९२ द्रव्यं-ओदनादिकं शुद्धं उदगमादिदोषरहितं यत्र दाने दव्वभावसंकोयणपयत्थो-द्रव्यसड़कोचनं करशिरः तत्। भग०६६१। पादादिस-कोचः, भावसङ्कोचनं विशुद्धस्य मनसो दव्वहलिया-हणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ नियोगः, द्रव्यभावस-कोचन-प्रधानः पदार्थः दव्वापाय- अपायस्य प्रथमः प्रकारः। द्रव्यादपायो द्रव्यभावसकोचनपदार्थः। आव० ३७९।
द्रव्यापायः, अपायः-अनिष्टप्राप्तिः द्रव्यमेव वा अपायो दव्वभिक्खु- क्रियाविशिष्टविदारणादिदारुसमन्वितो, द्रव्यपायः अपाय-हेतुत्वादित्यर्थः। दशवै० ३५ द्रव्यं भिनत्तीति कृत्वा। द्रव्यभिक्षुः-अपारमार्थिकः। दव्वाभिओगो-द्रव्याभियोगः-द्रव्यसंयोगज-चूर्णः। ओघ. दशवै० २६०
१९३ दव्वभूतो-अणुवओत्तो, भावशून्येत्यर्थः। निशी० ६४ अ। | दव्वाभिग्गहचरएदव्वमंद- द्रव्यमन्दः-अतिस्थूलोऽतिकृशो वा। आचा० ७०| भिक्षाचर्यायास्तद्वतश्चाभेदविवक्षणाद् द्रव्यादव्वमूढो- बाहिरितो धूमेणाकुलितो मुज्झति, अंतो भिग्रहचरको भिक्षचर्या। भग. ९२१| धत्तूरगेण मदणकोद्दवोदणेण ववा भुत्तेण मुज्झति।। | दव्वायंके-द्रव्यातकः-आतङ्कभेदः। आचा० ७५। जो वा पूव्वदिटुं दव्वं कालंतरेण दिद्वम्मि ण याणति सो | दव्वायार-आचरणं आचारः, द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, दव्वमूढो। निशी० ४१ आ।
द्रव्य-स्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण दव्वरूवं- यत् मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो
परिणमनभित्यर्थः। दशवै.१०११ मनःप्रायोग्यवर्ग णादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमनं | दव्वासण्णं-द्रव्यासन्नं-जं धवलघरआरामाईणं आसपणे तत् द्रव्यरूपं मनः। प्रज्ञा० ३१११
वोसिरइ। ओघ० १२३ दव्वलेसं-द्रव्यलेश्यावर्णः। भग. १७४।
दव्विंदियाई- द्रव्येन्द्रियाणि-निवृत्त्युपकरणलक्षणानि। दव्ववग्गण-समानजातीयद्रव्याणां राशिद्रव्यवर्गणा। भग० ८७ भग० २४१
दव्वी-दर्वी-फणा। जीवा० ३९। प्रज्ञा०४७। दर्वीलधीयानदव्वविसेसो-द्रव्यविशेषः-द्रव्यपरिणामः। भग० २३७। दारुहस्तकः। पिण्ड० ८४। दर्वी-डोवसदृशा। दशवै. १७० दव्वविहंगम-धारयत्येवं तद्रव्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गमं हस्तिविशेषः। प्रज्ञा० ३३दर्वी। आचा० ३४२श इति, द्रव्यं च तद् विहङ्गमश्चेति द्रव्यविहङ्गमः। दव्वीकरा-दर्वीकराः-फणभृतः। प्रश्न० ३७दर्वीव दशवै०६९।
दर्विफणा तत् कारणशीला दीकराः, अहिभेदविशेषः। दव्वसंकोयणं-द्रव्यसकोचनं करशिरःपादादिसंकोचः। प्रज्ञा०४६। जम्बू. १० आव० ३७९।
दव्ववहाण-उप-सामीप्येन धीयते-व्यवस्थाप्यत दव्वसम्म- यथा अवयवलक्षणनिष्पत्तेः
इत्युपधानं द्रव्यभूतमपद्यानं द्रव्योपधानम्। आचा० कर्तुःतन्निमित्तचित्त-स्वास्थ्योत्पत्तेः यदर्थं वा कृतं २९७ तस्य शोभनानुकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा दव्वोवरम- द्रव्योपरमः-द्रव्यान्यथात्वम्। भग० २३६) द्रव्यसम्यम्। आचा० १७५
दव्वोवाय-द्रव्योपायः, उपायभेदः। दशवै०४०। दव्वसाम-द्रव्यसाम। उत्त०५३३।
दव्वोसह- द्रव्यौषधं पिप्पल्यादि। दशवै० १९३। दव्वसारो- द्रव्यसारः-द्रव्यलक्षणसारः, परिग्रहस्य दशमं दशकन्धरः- रावणः। प्रश्न०८७ नाम। प्रश्न. ९२
दशदशकिकायाः- शतम्। व्यव० ३४७ आ। दव्वसीले-तीच्छीलः-यो हि फलनिरपेक्षस्तत्स्वभावादेव दशधासामाचारी-इच्छामिच्छत्यादिका। ओघ. १। क्रियास् प्रवर्तते सः तच्छीलः-द्रव्यशीलः,
दशरथः- अयोध्याधिपतिः, रामपिता। प्रश्न. ८७। प्रावरणाभरण-भोजनादिषु। सूत्र० १५३।
दशविध-चक्रवालसमाचारो, सामाचारीविशेषः। व्यव. दव्वसुद्धं- द्रव्यशुद्धं द्रव्यतः शुद्धेन प्राशुकादिनेति। विपा० | १९।।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[67]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #68
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[Type text]
दशा- दशाध्ययनप्रतिबद्धा ग्रन्थ पद्धतयः । प्रश्न० १ | दशारादय: करुपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणः दशवै० २४७१
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
दशार्णभद्र:- दशार्णपूरे राजा स्था० ५१०|
दसंग - दशानामङ्गानां समाहारो दशाड़गी। उत्त० १८७ दशा-ङ्गानि - भोगोपकरणानि वक्ष्यमाणान्यस्येति
दशाङ्गः । उत्त० १८७
दस- दशा - भागः । उत्तः १४४|
दसउरं- दशपुरं, प्रयोतनमोचने नगरम्। उत्त० ९६ । दसकालिअं दशवैकालिकम् आव० ६१। दसगुण- दशगुणः- एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः ।
स्था० ५२७ |
दसण्णकूड- दशार्णकूटं गजाद्यपदोत्पत्तौ यत्र महावीरस्य समवसरणं जातम् । आव• ६६९१ दशार्णकूट:
पर्वतविशेषः । आक० ३५९ |
दसण्णपुरं- दशार्णपुरं दशार्णभद्रराजधानी । आव० ३६९ । दशार्णपुरं यत् परावर्त्य एडकाक्षनाम नगरं जातम्।
आव० ६६९ |
दसण्णभद्दो- दशार्णभद्रः दशार्णपुरनगरे राजा आव० ३५९। दशार्णभद्रः गजाग्रपदोत्पत्तिविषये दशार्णपुरगनराधिपतिः । आव० ६६९ | दसण्ण- दशार्णः, देशविशेषः । उत्त० ४४८ दसण्णा - दशार्णाः जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ | दसतीण - औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३॥ दसदसमिया- दशदशमिका भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्तः २९| दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका। सम० १००।
दसवण्णं दशार्द्धवर्ण-पञ्चवर्णम्। जम्बू• ९८१ दशार्द्धवकुसुमविशेषः आव० २३१|
दधणू - निरयावल्यां पञ्चमवर्गे एकादशममध्ययनम् । निर० ३९। स्था० ५१८| ऐरवतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां षष्ठः कुलकरः सम• १५३| दसपलयं दशपलमानम् । आव० १९४१ दसपुर दशपुरम् । व्यव. ३१९ आ णगरविसेसो निशी. १०९ अ दशपुरं- आर्यरक्षितविहारस्थानम् । उत्तः १७३॥ दशपुरं पुरविशेषः आव० २९२ सोमदेवब्राह्मणवासतव्यं नगरम् आव० २९६ दशपुरं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[68]
[Type text]
अबद्धिकनिह्नवोत्पत्तिस्थानम् । आव० ३१२ दसमुद्दिताणंतकं दशमुद्रिकानन्तकं. हस्ताङ्गुलिसम्बन्धिमुद्रिकादशकम्। जीवा० २५३1 दसमुद्दियाणंतयं दशमुद्रिकानन्तकं. हस्ताङ्गुलिमुद्रिकादश-शकम्। भग० ४७७। दसरह निरयावल्यां पञ्चमवर्गे सप्तममध्ययनम् । निर० ३९॥ भरतक्षेत्रेऽतीतायामवसर्पिण्यां नवमः कुलकरः। सम॰ १५०। दशरथः नारायणवासुदेवपिता । सम० १५२ | आव० १६३ | भरतक्षेत्रेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां नवमः कुलकरः । स्था० ५१८ |
दसहा- दशविधाइच्छाकारादिलक्षणा सामाचारी आव
२५८
दसा - दशा आव ६१ अनुभागेन युक्तो विभागो दशा । निशी० २८ आ । दशा-वर्तिः । जम्बू० १०२ दशाअवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा । नन्दी० २०८१ दसाउ- वर्षदशकप्रमाणः कालकृता अवस्थाः । स्था० ५१९ | दशाधिकाराभिधायकत्वादृशा इति स्था० ५०६ | दसार दशार्हाः समुद्रविजयादयो दशवसुदेवान्ताः सम० १३२ | दशाराः वासुदेवाः । सम० १५६ । दशारः त्रिपृष्ठवंशः । आव० १६७। दशाह बलदेववासुदेवाः। वासुदेवाः । जम्बू० १६६ । वासुदेवः । ज्ञाता० २२० | दसारकुलनंदणो- दशारकुलनन्दन। ओध० १७९१ दसारचक्क - दशार्हचक्रं-यदुसमुहः । उत्त० ४९०। दसारवग्ग– दशारवर्गः-दशारसमुदायः हरिवंशराजानः ।
दश० ३६|
दसारसीह-दशारसिंह: अरिष्टनेमिपितृव्यपुत्रः । प्रधानदर्शन-वतोऽपि चारित्रेण विनाऽवरगतिप्राप्तिः । आव• ५३२ दशा सिंह कृष्णः । उत्त० ६९॥ दसारा- दसाराः समयभाषया वासुदेवाः । स्था० ७६ । दशारा - हरिवंशकुलोद्भवाः सूत्र २६९। दशाह समुद्रविजयादिकाः। अन्त० २ ज्ञाता० १००, २२० | दशार्हाः
उत्त० ४९२ ॥
दसुगाययणाणि दस्यूनां चौराणामायतनाति स्थानानि ।
आचा० ३७७ ॥
दसुय- दस्युः-देशप्रत्यन्तवासी चौरः । उत्त० ३६६। दसेज्ज- दशेत्। आव. ४०५
दस्युः- अदत्तहारः । आचा० १२३ ।
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
Page #69
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
८०
दह- ह्रदः-नद्यादीनां निम्नतरः प्रदेशः। उपा० १०॥ हृदः- | दहियं-दधि। आव० १९८१ पद्मदादि। प्रज्ञा० ७२ह्रदा। प्रज्ञा० २६७। भग० ९२, दहिवण्णो-धर्मनाथजिनस्य चैत्यवृक्षः। सम० १५२। २३७। सूत्र० ३०७। ज्ञाता०३६)
दहिवन्न-दीपकुमारस्य चैत्यवृक्षः। स्था० ४८७। भग. दहगालणं- ह्रदगलनं-हदस्य मध्ये मत्स्यादिग्रहणार्थं ८०३। दधिपर्ण-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२१ भ्रमणं, जननिःसारणं वा। विपा० ८०
दहिवासुया-दधिवासुका-वनस्पतिविशेषः। राज०८० दहण- शरीराद्यवयवस्य वाताद्यपनयनार्थं दहनम्। दहिवाहणो-दधिवाहनः-चम्पानगर्यां नृपतिः। उत्त. आचा० ५०
३००। दधिवाहनः-द्रव्यव्यत्सर्गे चम्पानरेशः दहनं-केवलिसमुद्घातध्यानाग्निना वेदनीयस्य करकण्डुपिता च। आव०७१६) भस्मसात्कक-रणं, शेषस्य च
दाइंति-दर्शयन्ति। बृह० १०४आ। दग्धरज्जुतुल्यत्वापादनम्। आचा० २९८।
दाइंतुच्चाराई-उच्चारप्रश्रवणस्थानानि। ओघ०७७ दहपती- ह्रदपतिः-नदप्रधानो महाह्रदः। प्रश्न. ९६| दाह-विकल्पार्थो निपातः। ब्रह. २४१ आ। अभिप्रायदहपवहणं- ह्रदपवहणं ह्रदजलस्य प्रकृष्टं वहनम्। विपा. दर्शनम्। निशी. १३८ ।
दाइआ-दर्शिता। आव० १५१। दायिका-गोत्रिकाः। जम्बू० दहमलणं- हृदमलनं हृदस्य मध्ये पौनःपुन्येन परिभ्रमणं, | १४२ जले वा निःसारिते पङ्कमर्दनं थोहरादिप्रक्षेपेण दाइओ-दर्शितः। आव० ३९८१ हृदजलस्य विक्रि-याकरणम्। विपा. ८०
दाइगो-दायादः। आव०४८७। दहमह- ह्रदमहः-हृदसत्क उत्सवः। जीवा० २८१। आचा० दाइतो-दर्शितः। उत्त० ३०३। ૨૨૮
दाइय-दर्शितम्। आव०६४,७००। दायदाः-पत्रादयः। दहमहणं- ह्रदमथनं-ह्रदजलस्य
ज्ञाता०५१ तरुशाखादिभिर्विलोडनम्। विपा. ८०
दाइयविप्परतो-दायादधाटितः। आव० ५५७। दहवहणं- ह्रदवहनं-स्वत एव हृदाज्जलनिर्गमः। विपा० दाउं-स्वहस्तेन दातम्। व्यव. २२७ आ। ८०
दाए-दानम्। ज्ञाता० ३९॥ दहाति-द्रहाः-ह्रदः। स्था०८६)
दाएइ-दर्शयति। आव० १६७ दहावई- द्रहावती, कुण्डनाम। जम्बू० ३४६।
दाएज्जसु-दर्शयेः। उत्त० २१६। दहावती-द्रहा-अगाधजलाशयाः सन्त्यस्यामिति द्रहावती | दाएति-दर्शयति। आव० ३४८१ महानदीनाम। जम्बू. ३४६।
दाएह-दर्शयत। उत्त० १०० दहिकूर-दधिकूरम्। आव० ४३४॥
दाकलसं-कलशस्त् लघुतरः। भग०६८४१ दहिघणे-दधिघनः-दधिपिण्डः। प्रज्ञा० ३६१|
दाकुंभग-दह कुम्भो महान्। भग० ६८४। दहिफोल्लइ-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥
दाक्षपानक-पानकभेदः। आचा० ३४६। दहिमुहे-दधिमुखाः-प्रत्येकमञ्जनकानां
दाडिम-फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६५ भग०८०३। दिक्चतुष्टयव्यवस्थि-तपुष्करिणीमध्यवर्तिनः दाढा-दंष्ट्रा-आसीः। आव०५६६। दंष्ट्राः-आस्यः। आव. षोडशेति। स्था० ४८०। दधि-मुखः-वरुणस्य पुत्रस्थानीयो | १६६। सक्थि। जम्बू. १६२। देवः। भग० १९९। दधिमु-खाः-दधिवदुज्वलवर्ण मुखं- दाढि-दंष्ट्रा-दशनविशेषः। प्रश्न० ८। शिखरं रजतमयत्वाद् येषां ते। जम्बू. १६३।
दाढिआलि-दाढिकालि-सदशवस्त्रपरिधानरूपा दृश्यमाना पर्वतविशेषः। ज्ञाता० १५५१ दधिम्खाः
धौतपोतं वा। बृह. २२० । अञ्जनकचतुष्टयपार्श्ववर्तिपुष्करिणीषोडशमध्यभाग | दाढिगाली-दंष्ट्रागाली, दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चके वर्तिनः पर्वताः। प्रश्न. ९६।
पञ्चमो भेदः। आव०६५२। स्था० २३४|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[69]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
दाढियाए - उत्तरौष्ठस्य । भग० ६८४ | दाढीयाली धोयपुत्ती निशी ६१अ दाढुढिअ- उद्धृतदंष्ट्रम् उत्खातदंष्ट्रम् । दश० २७६ | दाणंतराइए- यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुः नोत्सहते तद्दा- नान्तरायम्। प्रज्ञा- ४७ दाणं- दानं अशनादिप्रदानम् । आव० ६०४ | दानं लब्धस्यान्नादेग्लनादिभ्यो वितरणम् । प्रश्न० १२९ | दानं - स्वपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानम् । सूत्र० १५० दानं दानं श्राद्धकः ओध- ४७%
दाणकम्मे दानकर्म-अङ्कनार्थ गिरिकरक्तसूत्रेण
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आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
रेखादानम्। जम्बू. २०१३
दाणा दानार्थ साधुवादनिमित्तं यो ददाति । दशव
१७३ |
दाणमाणसंगहीता दानमानसंगृहीता आव० ६८८ दाणमाणसंगहीया दानमानसंगृहीता आव० ३४९ दाणरुई दानरुची आव० ११०।
दाव-दानवः भुवनपतयः । उत्त० ४३० | दाणवयं दानव्रतं वितरणनियमः प्रश्नः ३२ दाणविप्पणासो दानविप्रणाशः दत्तापलापः प्रश्नः १२५|
दाणस - दाणरूयी। निशी० १९९ आ, २८२अ दाणा- दाणसड्ढा निशी० ८९ आ
दाणामा- दानमयी । भग० १७४ |
दाणिं - इदानीं - सम्प्रति । भग० १७६ । इदानीम् । मरण० । इदानीम् । उत्त० ३८७
दाणिसिं देशीयभाषयेदानीम् उत्त० ३८
दाथालगं- उदकार्द्र- स्थालकम् । भग० ६८० दाथालय - उदकार्द्र स्थालकम् । भग० ६८४ दानं शुद्धिः । भग ७६९ | शिष्येभ्यो निसर्गः आव ६८ दानव भवनपतिदेवविशेषः । स्था० ४५९ |
दानश्राद्ध - श्रावकविशेषः । उत्त० ६६७ । आव० ८४६ । दाम- पुष्पदामं रत्नविचित्रम्, चतुर्दशस्वप्ने पञ्चमः
स्वप्नः । आव० १७८ । ज्ञाता० २० |
दामओ रज्जुः आव. १८८
दामकं दामकं रज्जुमयपादसंयमनम्। प्रश्न ५६ । दामगंठी दामग्रन्थिः- रज्जुयन्थिः । आव० ८२० |
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[70]
दामड्ढो - कुञ्जरानीकाधिपतिविशेषः । स्था० २०३| दामणि- दामनी-पशुबन्धनम् । सूर्य० १३० दामणिसंठिते- दामनिसंस्थितम् । सूर्य० १३०| दामणी दामनि: पशुरज्जुसंस्थानम् । जम्बू. ५०१।
प्रश्न० ८४ | दामण्णगो- दामन्नकः- परलोकफलविषये
मणिकार श्रेष्ठिपुत्रस्य उदाहरणम् आक• ८३३ | दामनी - द्वात्रिंशतलक्षणेषु लक्षमणम्। जीवा० २७६। दामा - दामा - पाशकविशेषः । विपा० ५९ | दामिओ- दामितः । आव० ३९९ ।
दामिणि दामिनी। प्रश्न ७० गवादीनां बन्धविशेषभूता रज्जुः । भग० ७१२ |
दाय- दायः-सामान्यदानम् । औप० ६ | दानम् । विपा० ७७ । पर्वदिवसादौ दानम् । ज्ञाता० ८३ दायं धनविभागम् । जम्बू. १४२
दायग- दायकं दायकदोषदुष्टं, षष्ठ एषणादोषः पिण्ड १४७ दाता-बालवृद्धादययोग्यः । एषणादोषायाः षष्ठो भेदः । आचा० ३४५|
[Type text]
दायगसुद्ध दायकशुद्धं यत्र दाता औदार्यादिगुणान्वितः । विपा. १२१ यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् दायकः शुद्धः । भग० ६६१ |
दायणा- दापना दर्शना दापना वा, प्ररूपणाविशेषः । आव ० ३८२
दायणे - दर्शयति। ओघ० ५३ |
दारं- अपत्यादिसमुदाओ । निशी० १४७ आ । द्वारम् । जीवा॰ २६९। द्वारं-प्रासादादीनान् । जीवा० २५८ \ प्रश्न० ८ द्वारं प्रतोलिः । आव० १३६ । ज्ञाता० ८१| द्वारंउपायः । प्रश्न. ११२ द्वारं प्रवेशमुखम्। प्रश्न. १३६, दश० १४१ द्वारं व्याख्यानमुखम्। उत्त० ७३॥ द्वारंप्राकारद्वारिकाः । औप- 31 द्वारम् ओघ० २३१ द्वारं। खडक्किका भग० २३८ द्वारं ग्रामस्य मुखं, ग्रामप्रवेशः। बृह॰ १अ। द्वारं विजयादि । प्रज्ञा० ७१ | द्वारं-प्रवेशमुखम्। दशवै० ४। द्वारं शाखामयम् । दशवै०
१८४ |
दारए - दारयति स्फोटयति । ज्ञाता० ८१| दारगएवं दारकरूपम् । आव० ३४३१ दारगसाला लेखशाला । बृह० १०७ अ ।
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दारगोउर- गोपुरद्वाराणि। सम० १३८।
दारुपव्वयगा-दारुनिर्मापिता इव पर्वतकः। जम्बू. ४४। दारचेडाओ-द्वारपिण्ड्यो -दवारशाखे। जम्बू०४८। दारुमडे- भरतक्षेत्रे आगामिन्यां चतुर्विंशतिकायां दारपाए-द्वारपातः-रन्ध्रकरणम्। पिण्ड० ९४।
दवाविंशति-तमतीर्थंकरस्य पूर्वभवनाम। सम०१५४| दारपिंडी-द्वारपिण्डी-दवारशाखा। जीवा० ३५९। दारुसंकम-दारुसङ्क्रमः। आचा० २०२। दारवालो-द्वारपालः। आव० १७३।
दालः-सूपः। प्रश्न. १४११ दारसाहा-दवारशाखा-दवारपिण्डी। जीवा० ३५९| दालाणि-अवदृढिगाणि। दशवै० ११११ दारा-अणुओगा। निशी० ७९ आ। द्वाराणीव द्वाराणि- | दालित्ता- विदार्य। प्रज्ञा० ४८१ दलयित्वा-विदार्य। जीवा. प्रवेशमुखानि, एकस्थानकाध्ययनप्रस्यार्थाधिगमोपाया ४० इत्यर्थः। स्था० ४। द्वाराणि-उपायाः। स्था० ३१६| दालिम-दाडिम-फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८ दाडिम-वृक्षअर्थागमस्योपायः। सम० १११ द्वाराणि। अनयो० १७११ | विशेषः। प्रज्ञा० ३२ दाराइं- प्रवेशमुखानि। जम्बू. ५१
दालिमपाणगं- पानकभेदः। आचा० ३४७। दारिद्र्यं-दरिद्रता। नन्दी० १५५१
दालियंब-दालिकाम्लं इइडरिकादि। प्रश्न. १६३ दारिय-दारिका-डिक्करिका। आचा०४१३। दारिका। आव० दालिय–विदार्य। आचा० ३२९। ३७१|
दाली-राजिः । ओघ० १२६। दारुआ-दारुकं-काष्ठकम्। जम्बू० ३६)
दावए- दद्यात् दापयेद्धा। भग० ३७५) दारूए-दारूकः। उत्त० ३७९। दारूकः-अन्तकृद्दशानां दावणं-दापयति। ओघ०४३।
तृतीयवर्गस्य द्वादशममध्ययनम्। अन्त० ३। दावदए- षष्ठाङ्गे एकादश ज्ञातम्। ज्ञातम्। उत्त०६१४१ दारुकम्मगारो-दारुकर्मकरः-वर्धक्यादिः। दशवैः ३६० दावदविओ-द्रावद्रविकाः-द्रुतद्रुतगामी। बृह० १२४ अ। दारूग-दारूकं-काष्ठम्। उत्त०४१३। दारूकः। उत्त. दावद्दवे-षष्ठागे एकादशं ज्ञातम्। सम०३६। आव. ११८
६५३। ज्ञाता० १० समुद्रतटे वृक्षविशेषः। ज्ञाता० १० दारूगदंडे- दारूदण्डकम्। बृह. १७३ आ।
दावर-द्वापरः-समयपरिभाषया द्वितीयकलिः। बृह. दारुण-दारूणं-अनिष्टम्। दशवै० २३२ रौद्रः। ज्ञाता० १८०आ। द्वापरं-द्विकम्। सूत्र०६७ ८० असह्यम्। आचा० १९४। दारूणसील-दारूणं दावारंग-उदकवारकम्। भग० ६८० कक्कसं वा। दशवै० १२३
दावरजुम्म-द्वाभ्यामादित एव दारूणपरिणामो-दारूणपरिणामः-पापानां कर्मणां चौर्यादि कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिभ्यां यदपरं यग्मं कृतानामशुभविपाकः। दशवै० ११३॥
कृतयुग्मादन्यत्तन्निपातनविधे द्वापरयुग्मम्। भग. दारूणा-दारयन्ति जनमनांसीति दारूणाः
७४४। विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः। स्था० २३७। विलपिताऽऽक्र-न्दितादयः। उत्त० ३०८ दारयन्ति द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः । सूर्य. १६७। मन्दसत्वानां संयमवि-षयां धृतिमितिदारूणाः। उत्त० | दावरजुम्मकडजुम्मे- द्वापरकृतयुग्मेऽष्टादयः। भग० ११२
९६४। दारूते- दारूकः-वासुदेवस्य पत्रः, अरिष्ठनेमिनाथस्य दावरजुम्मकलियोगे- द्वापरकल्योजे नवादयः। भग० शिष्यः। स्था०४५७
९६४। दारुदंडयं- आग्रभागे उर्णिकादशायुतो दण्डः, दावरजुम्मतेओए-द्वापरयोजराशावेकादशादयः। भग० दण्डस्याग्रभागे ऊर्णिकादशिका बध्यन्ते तत्
९६४॥ दारुदण्डकम्। बृह० १०३
दावरजुम्मदावरजुम्मे-द्वापरद्वापरे दशादयः। भग. दारुपव्वय-दारुनिर्मापित इव पर्वतकः दारुपर्वतकः। ९६४ जीवा० २००
दास-दासः-आजन्मावधिकिड़करः। व्यव० ३३७ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[71]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #72
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[Type text]
अङ्कितः । व्यव० २७८ | दासः । उत्त० २२५ | दास्यतेदीयतेऽस्मै इति दासः- पोष्यवर्गरूपः उत्त० १८८८ दासः आमरणं क्रयक्रीतः । जीवा० २८०१ दासा:गृहजातादयः । उत्त० २६५१ चेटकः। प्रश्न. ३८ दासचेड - दासचेटः । उत्त० १४८ आव० ३४३ | दासचेडए दासस्य भृतकविशेषस्य चेट: कुमारकः दासचेटः । ज्ञाता० ८०1
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
दासा- दासीपुत्रादयः । स्था० ११४ | गृहदासीपुत्रः । ज्ञाता० ८१| गृहजातकाः । बृह० ६० आ ।
दासि गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा १२
दासी- चेटिका प्रश्न. ३८१ घटयोषित् । सूत्र० १०९ । दास्यः अङ्कपतिताः । उत्तः २६२॥
दासेड़ दासः आमरणं क्रयक्रीतः, गृहदासी पुत्रो वा । जम्बू० १२२ ॥
दाह- कषायाः । आव० ५९| दाहः । भग० १९७ । दाहज्जरो- दाहज्वरः । आव ० ९८
दाहवक्कंती - दाहव्युत्क्रान्तिः दाहोत्पत्तिः । ज्ञाता० २००१ दाहा प्रहरणविशेषः, दीर्घवंशाग्रन्यस्तदात्ररूपः । विद्या.
५९|
दाहिण दक्षिणादिग्भावी दक्षिणः सूर्य. १६| दाहिणं दक्षिणार्द्ध दक्षिणभागः । जम्बू• ४८२ दाहिणड्ढरहकूडे दक्षिणार्धभरतनाम्ना देवस्य
निवासभूतं कूटं, दक्षिणार्धभरतकूटम्। जम्बू. ७७ दाहिणतुंगारो - दक्षिणतुङ्गारः दक्षिणपूर्ववातभेदः । आव ०
३८७
दाहिणपच्चत्थिमेल्लं दक्षिणपश्र्चिमे सूर्य० २१| दाहिणपुरत्थि दक्षिणपौरस्त्यः दक्षिणपूर्वः, आग्नेयकोण इत्यर्थः । सूर्य २श दाहिणभयंते दक्षिणभुजान्तः दक्षिणपार्श्वः । सूर्य० २८७ दाहिणवाए- यो दक्षिणदिशः समागच्छति वातः स दक्षिण- वातः । प्रज्ञा० ३०| दक्षिणवातः यो दक्षिणवाया दिशः समागच्छति वातः सः । जीवा० २९| दाहिणवियावो- दक्षिणवीजायः । आव० ३८७ । दाहिणवेयालो दक्षिणवैतालो दक्षिणसमुद्रतीरम् । प्रज्ञा
३२७|
दाहिणहुत्तो दक्षिणमुखः आव० २१५ दाहिणा- दक्षिणा वाचाला सन्निवेशः । आव० १९५१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text )
मथुरापुरीद्वयमध्ये एका आव०४५६ | दिइय दृतिः । आव. ६२११ दिक्करिगा- दुहिता आव० ४०० | दिक्खति पश्यन्ति । निशी• २०५ अ दिक्खिाओ- त्ति वृत्तं भवति । निशी० ६७ आ दिगम्बर- मतविशेषः । प्रज्ञा० ६० ।
[72]
दिगाई - दिशामादिः प्रभवो दिगादिः । सूर्य० ७८ दिगाचार्यः- आचार्यस्य द्वितीयो भेदः । स्था० २९९ । दिगिंच्छा - बुभक्षा (देशी ०) । उत्त० ८२ | दिगंछा - बुभुक्षा | भग० ३८९ | बृह० ७३ आ । बृह० २०१ आ आचा० ३१४५ क्षुधा गृह. १३१ आ दिगिंछापरीसहे- दिगिंञ्छा बुभुक्षा सैव मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषह्यते इति परिषहो दिगिञ्छापरीषहः । सम० ४०|
दिच्छसि द्रक्ष्यसि। उत्त० ४९५|
दिज्जह- दद्यात्। दशवै० १०३ | दद्याः । दशवै० ५७ | दिनंत दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, - अतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः । दशकै० ३४१ दृष्ट:- अन्तः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र सः दृष्टान्तः । प्रज्ञा० ५३२ | दृष्टान्तःउदाहरणम्। दशकै ३३ दिट्ठतपरिणामगो- दृष्टान्तेन विवक्षितमर्थं परिणामयत्यात्मबु-द्धावारोपयतीति दृष्टान्तपरिणामकः । व्यव० ४५० अ । दिट्ठतिओ - दान्तिकः- दृष्टान्तपरिच्छेद्यः । आव ० ८६२रा
दिनंतिओ दान्तिकः- प्रथमोऽभिनयविधिः । जीवा. | - २४७ दृष्टान्तिकं अभिनयविशेषः । जम्बु० ४१२१ दिट्ठ– दृष्टः-प्रतिपादितः। बृह० १५९ आ । दर्शितः । उत्त ३५६। दृष्टः- उपलब्धः। ओघ० १४१ दृष्टं साक्षात् स्वयमुपलब्धः । औत्पात्तिक्यादिबुद्धिः । भग० १००| दृष्टःवैद्य-वद्दष्टक्रियः। क्रियाकुशलः। ओघ० ४२।
उपलभ्यस्व-रूपः । ज्ञाता० २०५ |
दिपाठी - दृष्ट:- उपलब्धश्चरकसुश्रुतादि येन स दृष्टापाठी ओघ० ४२रा आधीतवेज्जक इति । निशी.
२११ अ
"आगम- सागर-कोषः " [3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दिहमदिलु- दृष्टादृष्ट, यत् तमसि व्यवहितो वा न एवेहाख्यायन्तः। सम. १२९। श्रोत्रपेक्षया
वन्दते, कृतिकर्मणि त्रयोविंशतितमो दोषः। आव. १४४। सूक्ष्मजीवादिभावकथनं-अन्ये त्वभि-दधति। दिहलाभिते- दृष्टस्यैव भक्तादेर्लामस्तेन चरतीति तथैव आचारादयो ग्रन्था एव परिगृहयन्ते आचाराद्यभिदृष्टलाभिकः। स्था० २८९।
धानम्। दशवै० ११०१ दिठ्ठलाभिय-यो दृश्यमानस्थानादानीतं गृह्णाति सः दिद्विवातअक्खेवणी-दृष्टिवादः-श्रोत्रपेक्षया नयानुसारेण दृष्टिला-भिकः। प्रश्न. १०६।
सूक्ष्मजीवादिभावकथम्, आचारादयो ग्रन्था एव दिवसारा-सारः-विवक्षितः परमार्थः, उपयोगेन दृष्टः परिगृह्यन्ते आचाराद्यभिधानादिति। स्था० २१० सारो यथा सः दृष्टसारः। नन्दी. १६४|
दिहिवातेति- दृष्टीयो-दर्शनानि वदनं-वादो दृष्टीनां वादो दिवसाहम्मवं- दृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्य दृष्टीवादः दृष्टीनां वा पालो यस्मिन्नसौ दृष्टिपातः। दृष्टसाधर्म्यं तद्गमकत्वेन विद्यते यत्र तद्
स्था०४९११ दृष्टसाधर्म्यवत्। अनुयो० २१६।
दिद्विवादीयं- दृष्टिवादिकं-ग्रंथविशेषः। आव०६१७ दिहा- दृष्टा-साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा। दशवै० १९६।। दिहिविपरिआसिआदंडे- दृष्टेः-बुद्धेर्विपर्यासिका दृष्टाः-विहितत्वेनोपलब्धा। उत्त० ५३२
विपर्यसिता वा दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा दिहाभट्ठ- दृष्टाभाषितः। भग० १६७
मतिभ्रम इत्यर्थः तया दण्डो प्राणिवधो दिद्वि-दर्शनवान् दर्शनी दर्शनमस्यातीति। आव० ५३० दृष्टिविपर्यासिकादण्डो दृष्टिविपर्या-सितादण्डो वा। दृष्टिः -स्वविषये लोचनप्रसारणलक्षणा। आव. ५३० सम०२५ विलोकितम्। ज्ञाता० १६८५ मतम्। ज्ञाता० ११० दिद्विविसो- दृष्टिविषः। आव. १९५१ दिद्विपडिघाय-दृष्टिप्रतिघातः-दर्शनाभावः। भग. १७५ | दिडिंसंपन्नया- दृष्टिसम्पन्नता-सम्यग्दृष्टिता। स्था. दिद्विपण्हव- दृष्टिप्रश्नवं ईषदश्रुविमोचनम्। पिण्ड० १४० | १२०, ५२४। दिद्विपरिचितो-जो एसणा विधिं जाणति सो दिट्ठि दिट्ठी- दृष्टिः चक्षुर्दवारोत्पन्नदर्शनरूपा। अनुयो०१८२। परिचितो भणति, अहवा सावगो गहियाण्व्वओ, अवती दृष्टिः दर्शनं, रुचिः तत्त्वानि प्रति। स्था० ३०| दृष्टिःवा सम्मदिट्ठी दिट्ठी परिचितो भण्णति। निशी० ११५ दर्शनं स्वतत्त्वमिति। राज०१३३। दृष्टिःआ।
सम्यग्दर्शनात्मका हेतु-भूताबुद्धिः। उत्त० ४४७। दृष्टिःदिहिप्पहाणे- दृष्टिप्रधानः-यगप्रधानः। व्यव० ३३७ आ। सम्यग्दर्शनरूपा। दशवै० १०२। दृष्टिः -द्धिः। सम० २५१ दिहिया-दष्टिः-दर्शनं श्रद्धानं येषां ते दृष्टिकाः,
भग० ४७१। उत्त० १५१। दृष्टिः-अन्तःकरणप्रवृत्तिः। रुचितजिनव-चनाः। स्था० ३० दृष्टिजा
सूत्र. ३१८ दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिः। विंशतिक्रियामध्ये षष्ठी। आव०६१२
जीवा. १८ प्रज्ञा० ३८७। दृष्टिविपर्यासक्रिया। क्रियायाः अश्वादिचित्रकर्मादिदर्शनार्थं गमनरूपा। स्था० ३१७ पञ्चमो भेदः। आव०६४८१ दृष्टेर्जाता दृष्टिजा दृष्ट-दर्शनं वस्तु वा निमित्तया | दिहीएसंपाओ- दृष्टेः पुनःसंपातः- स्त्रीणां यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थं वा गतिक्रिया, कुचाद्यवलोकनम्, संप्राप्तकामस्य प्रथमो भेदः। दशवै. दर्शनाद वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा। स्था० | १९४१ ४२
दिहीवाय- दृष्टिवादः। आव० ३०१ दिहिवाइयं- दृष्टिवादिकं-पर्वविशेषः। आव०६१८ दिट्ठीविप्परिआसि-दृष्टिविपर्यासदण्डः-यो दिद्विवाए- दृष्टयो-दर्शनानि-नयाः पतन्ति-अवतरन्ति मित्रस्याप्यमित्रो-ऽयमितिबदध्यावधः। स्था० ३१६) यस्मिन्नसौ दृष्टिपातः-द्वादशमङ्गम्। स्था० १९९। | दिहीविप्परियासो-स्त्रीदर्शनानुरागतस्तदावलोकनं दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः, । दृष्टिविपर्यासः। आव० ५७५१ दृष्टीनां वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः सर्वनयदृष्टय | दिट्ठीविस- दृष्टिविषः-नेत्रविषः, उरःपरिसर्पविशेषः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[73]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #74
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
जीवा० ३९
दित्ताई-दीप्तानि-प्रसिद्धानि दृप्तानि वा-दर्पवन्ति। दिट्ठीविसलखिओ- दृष्टिविषलब्धिमान्। आव० २८९। स्था० ४२११ दिट्ठीविसा- दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः। जीवा० ३९। दित्ती-दीप्तिः -दीपनम्। ज्ञाता० १७०। प्रज्ञा०४६|
दिन-अहोरात्रवाची। जम्बू. १५०| दिहीसूल- दृष्टिशूलः-नेत्रशूलम्। ज्ञाता० १८३।
दिनारो-दीनारः-सुवर्णमुद्रा। आव० ४२२। दिट्ठीसेवा- दृष्टिसेवा-भावसारं तदृष्टेदृष्टिमेलनम, दिन्न-दत्तः-न्यस्तः ज्ञाता०४०। उत्त० ३२१|
संप्राप्तका-मस्य द्वितीयो भेदः। दशवै. १९४१ दिप्पणिज्जे-दीपनीयं-अग्निवृद्धिकर, दीपयति दिणयर-चतुर्दशस्वप्ने सप्तमम्। ज्ञाता० २०
जठराग्निमिति दीपनीयम्। जम्बू. ११९) दिणारो-दीनारः-सुवर्णनिष्कविशेषः। आव० ६७१। दियग्गं-दिवाग्रं दिवपरिमाणम्। सूर्य. ११॥ दिण्ण-दत्तः-तापसविशेषः। आव. २८७। पार्श्वजिनस्य दियह-दिवसः। आव. २९२१ प्रथमः शिष्यः। सम० १५२ दत्तं-वितीर्ण
दिया-द्विजः-पक्षी। आचा० २४८ विजाःभृतिभक्तलक्षणं द्रव्यभोजनस्वरूपम्। ज्ञाता० १५३| संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः उत्त० ५२३। श्रेयांसतीर्थंकरस्य पूर्व-भवनाम। सम० १५१। दत्तः- दियापोए-दविजः-पक्षी तस्य पोतः-शिशः दविजपोतः। नमिजिनप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१। आव०१४७। आचा०२४८१ दिण्णवियारे-दत्तविचार-यत्र कार्पटिकादिर्न कोऽपि दिरिकयपयारो-जं दिक्खियेण आयरियव्वंति। दशवै. वार्यते तत्। व्यव० ३०१ अ।
३२ दिण्णेय-चन्द्रप्रभजिनस्य प्रथमः शिष्यः। सम० १५२ दिलि- ग्राहभेदः। सम० १३५ दित्तं-दीप्तम्। जीवा० ३८६। दीप्तः-तेजस्वी दृप्तो वा दिलिवेढय-दिलिवेष्टः-ग्राहभेदः। प्रश्न. ७ दर्प-वान्। भग० ४५९। रक्तम्। ज्ञाता०८०। दृप्तः- दिली- ग्राहविशेषः। प्रज्ञा०४४। जीवा० ३६। उन्मत्तः। पिण्ड. १६३। दीप्तः, दृप्तःमारकः। ओघ० दिवड्ढ़-दवे च अधिकमर्थं तस्मिन् तद अध्यर्धं १२०१ दीप्तः-तेजस्वी। सत्र०४०७। दृप्ताः -मदो
व्यर्द्धम्। आव० ३९। न्मत्ततया दर्पाध्माताः। जीवा० १८८1 दीप्तः-दीप्यते | दिवड्ढखेत्तं-सार्द्धक्षेत्रम्। आव० ६३४| पत्तलकद्वयं स्म भास्करः। जीवा० ३४१। दीप्तः-प्रसिद्धः दृप्तो वा। उत्तरात्रयं पुनर्वसुरोहिणीविशाखा इति दर्पितो वा। भग० १३४१
षट्पञ्चचत्वारिंशत्मुहूर्तानि नक्ष-त्राणि। दित्तचित्ते- दृप्तचित्तः-पुत्रजन्मादिना दर्पवच्चित्तः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तभोग्यम्। बृह. १४८ अ। उन्मत्त एवेति। स्था० ३०५ दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात्। । दिवड्ढखेत्ता-द्वितीयमपार्द्ध यत्र तत् व्यपार्द्ध स्था० ३१५
सार्द्धमित्यर्थः क्षेत्रं येषां तानि। स्था० ३६७। दित्तचित्ता-लाभादिमदेन परवशीभूतदया।
दिवस-दिवसः-चतुष्प्रहरात्मकः यद्वा हर्षातिरेकेणा-पहतचित्ता सा दीप्तचित्ता। बृह. २१० आकाशखण्डमादित्येन स्वभाभिाप्तं तत् दिवसः। अ। बृह. २३६ ।
आव. २५७। अहोरात्रं सूर्य-प्रकाशवतः कालविशेषः। दित्ततवो-दीप्तं जाज्वल्यमानदहन इव
जम्बू० ४९११ कर्मवनमहनदहनस-मर्थतया ज्वलितं तपो
दिवसखेत्तं-दिसक्षेत्रम्। सूर्य १२॥ धर्मध्यानादि यस्य सो दीप्ततपः। सूर्य ४। दिवसखेत्तस्स-दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दित्तरूवे-दीप्तं रूपमस्येति दीप्तरूपः। उत्त० ३५८। दिवसस्यैवेत्यर्थः। सम० ८६। दित्तवयणं-दीप्तवचनं-कुपितवचनम्। प्रश्न. १६० दिवसचरिम-दिवसचरमम्। आव० ८५३। दित्ता-दीप्ता-रोषणा। आव० ७१९। दीप्ता-उज्वला दिवसतिही-तिथेर्यः पूर्वार्द्धभागः स दिवसतिथिः। सर्य. ज्वालाकराला वा। उत्त०४५७)
१४९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[74]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #75
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दिवसदेवसिअं- दिवसदैवसिकम्। आव० ५२
दिसाकमारा-दिक्कमाराःदिवसदेवसिया-दिवसदैवसिको। आव० ४१६
वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देश-वर्तिनो देवाः। भग. दिवसभयत-प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणार्थं यो | १९९। भवनपतिभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। प्रज्ञा०६९। गृह्यते स दिवसभृतकः। स्था० २०३।
दिसाकुमारीओ-दिक्कुमार्यःदिवा-दिवसः। भग० २४७
वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्तिन्यो देव्यः। भग. दिवागरे-दिवाकरः। सूर्यः। उत्त० ३५१|
१९९। दिविच्चिगा- दवैप्या-द्वीपसम्बन्धिनः। भग० २१२। दिसाचक्कवाल- एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि दिविट्ठ-द्विपृष्ठः-द्वितीयो वासुदेवः। आव० १५९। फलादीनि तान्याहृत्य भुङ्क्ते, द्वितीये तु दिविय-द्वीपिनं-चित्रकम्। आचा० ३३८1
दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्र-वालेन तत्र तपःकर्मणि दिव्व-द्यौः स्वर्गः तद्वासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र पारणककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्र-वालम्। निर०२६। भवो दिव्यो वैमानिकसम्बन्धी। स्था० २७४। दिव्यः- एकत्रपारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य देवभवः। भग० ६७३। दिवि भवः दिव्यः अतिप्रधानः भुङ्क्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन इत्यर्थः। सूर्य २६७। दिव्यः-स्वर्गसम्बन्धी प्रधान यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म इत्यर्थः। स्था० ४२११ दिव्यम्। आव. १८८ दिवि भवं । दिक्चक्रवालेन। भग० ५२० | दिव्यम्, प्रधानं च। जीवा० १६२। ज्ञाता० १३१। दिव्यं- | दिसाचरा-दिशं-मेरां चरन्ति-यान्ति मन्यन्ते भगवतो व्यन्तराद्यदृट्टहासादिविषयम्। आव०६६०| देवीनामिदं | वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा। भग०६५९| दैवं, अप्सरोऽमरसम्बन्धि। दशवै०१४८1
दिसाजत्ता-दिग्यात्रा। आव० ५५५ दिग्यात्रा-व्यवहारः। दिव्वचूण्णं-दिव्यचूर्णम्। आव. २७७।
आव०६८८, ७०५ दिव्वतुडियं-दिव्यत्रुटितं-दिव्यतूर्यम्। जीवा० २४५) | दिसाणुवाए- दिशामनुपातो-दिगनुपातः दिगनुसरणं दिव्वरयणपज्जत्तो-दिव्यरत्नपर्याप्तः। आव०४१३ दिशोऽ-धिकृत्य वा। प्रज्ञा० ११४॥ दिव्वा-दिव्वा स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा। स्था० १४४। दिसादाहा-दिग्दाहाः-अन्यतरस्यां दिशि दिव्वा-प्रधाना। भग. १६७ देवगतिः। ज्ञाता०३६। छिन्नमूलज्वलन-ज्वालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपः। दिव्वाइं- दिव्वानि। भग० ६६२ अतिप्रधानाः। जम्बू०६३। अनुयो० १२१। जीवा० २८३। दिशो दिशि वा दाहो दिव्वागा-मुकुलीअहिभेदविशेषः। प्रज्ञा० ४६।
दिग्दाहः। दिव्वाणुभाव- देवानुभावः-भाग्यमहिमाऽथवा दिसादीअ-दिशामाहिः-प्रभवो दिगादिः, तथाहि दिव्येनदेवसम्ब-न्धिनाऽनुभावः
रुचकाद्दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको अचिन्त्यवैक्रियादिकरणमहिमा। जम्बू. २०२।
मेरुमध्यवर्ती ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते, मेरोः दिशं-आचार्यलक्षणाम्। व्यव. २०४ आ।
पञ्चदशमनाम। जम्बू० ३७५। दिसंतु- प्रयच्छन्तु। आव० ४१०
दिसापालो-दिक्पालः। आव० ४०० दिस-दिशेति व्यपदेशः प्रव्रजनकाले उपस्थानाकाले वा य | दिसापेक्खिणो-उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि
आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा समुच्चिन्वन्ति। औप० ९० इत्यर्थः। निशी. २९० अ। भगवत्या दशमशतके प्रथम | दिसापोक्खिणो-उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि सम्उद्दे-शकः। भग० ४९२।
पचिन्वन्ति। भग. ५१९। उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपदिसमूढो-विवरीतदिसा गेण्हति। निशी० ४१ आ। ष्पादि समच्चिन्वन्ति। निर०२५१ दिसा-दिसादाहकरणं-दिग्दाहकरणम्। आव०७३५॥ दिसापोक्खियतावसो-दिक्प्रोक्षिततापसः। आव० ३५६। दिशतीति दिक, अतिसृजति व्यपदिशति द्रव्यं द्रव्यभागं | दिसाबंध-दिग्बन्धः-पदे स्थाप्यमानः। व्यव. २१२आ। वा। आचा०१३।
निशी० २६५।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[75]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #76
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३८१
दिसायत्तिए-दिग्यात्रा-देशान्तरगमनं प्रयोजनं येषां दिसिपडिवज्जावणं-दिक्प्रतिपादनं तानि दिग्यात्रिकानि। उपा० ३।
अचित्तसंयतपारिष्ठापनि-कीविधि प्रतिदिक्प्रदर्शनम। दिसायरिओ-दिशाचार्यः-आचार्यविशेषः। दशवै. ३१| आव० ६३९। दिसावाणिज्जं-दिशावाणिज्यम्। उत्त. २१०
दिसिविभागो-दिग्विभागः-अचित्तसंयतपारिष्ठापनिकी दिसाविचारिणो-दिशास विशेषेण-मेरुप्रादक्षिण्यनित्यचा- | प्रति दिक्प्रदर्शनं दिक्प्रतिपादनम्। आव०६३९। रितालक्षणेन चरन्ति-परिभ्रमन्तीत्येवंशीलाः विचारिणः | दिसिभाए-दिशां भागः दिग्रुपो वा भागो उत्त० ७०२
गगनमण्डलस्य दिग्भागः। भग०६। दिसासोत्थिअ-दिक्स्वस्तिकः-दक्षिणावर्तस्वस्तिकः। | दिसोदिसं-दिशाश्च विदिसाश्च दिसोदिसं। निशी० २०४ औप. १९।
आ। एकस्या दिशः सकाशादन्यां दिशं दिशोदिशम्। दिसासोवत्थिअ-दिक्सौवस्तिको-दिक्प्रोक्षकः-दिक्प्रधानः प्रश्न. १९। दिशोदिश-सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु। स्वस्तिको, दक्षिणावर्तः स्वस्तिक इत्यन्ये। जम्बू. आचा०४३०१ ११ दिक्प्रधानः स्वस्तिको दिक्स्वस्तिको
दिसोदिसि-दिशः सकाशादन्यस्यां दिशि अभिमतदिक दक्षिणावतः प्रश्न० ८१। दिक्सौवस्तिकः-दिक्प्रोक्षको | त्या-गाद्दिगन्तराभिमुखेनेत्यर्थः दिशोदिशः, अथवा दक्षिणावर्तः। स्वस्ति-कः। जीवा० २७२।
दिगेवोपदिग् नाशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने दिसासोवत्थियं- आरणकल्पे देवविमानविशेषः। सम० तद्दिगपदिक्। भग० ३१९॥
दिस्स- दृष्ट्वा-अवलोक्य। उत्त० ४९० दिसासोवत्थिया- दिक्प्रधानाः स्वस्तिकाः। जम्बू०४५ दीण-दीनः-द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्य म्लानवदनः। दशवै. दिसासोवत्थियासणं- यस्याधोभागे दिक्सौवस्तिका १८६। दीन-दीनः-शृगालत्वविहारी। आचा० २५३। आलि-खिताः सन्ति तद् दिक्सौवस्तिकासनम्। जीवा. | दीणाजाती-दीनं-दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्यवद्वा यथा भवति २००
तथा याचत इत्येवंशीलो दीनयाची दीनं वा, यातीति दिसासोवत्थियासणाई-येषामधोभागे
दीनयायी दीना वा-हीना जातिरस्येति दीनजातिः। स्था० दिक्सौवस्तिकादिक्प्र-धानाः स्वस्तिकाः आलिखिताः २०६। सन्ति। जम्बू. ५६|
दीणपन्ने-दीनप्रज्ञः-हीनसूक्ष्मालोचनः। स्था० २०७। दिसाहत्थिकूडा-दिक्षु ऐसान्यादिविदिक्प्रभृतिषु | दीणमणे-दीनमनाः-स्वभावत एवानुन्नतचेताः। स्था० हस्त्याकाराणि कुटानि दिग्हस्तिकूटानि। जम्बू. ३६०।। २०७४ शीताशातोदयो-रूभयकूलवर्तीनि पूर्वादिषु दिक्षु दीणरुवे-दीनरूपः-मलीनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया। हस्त्याकाराणि कूटानि दिशाहस्तिकूटानि। स्था० ४३९) स्था० २०७४ दिसिदाघे- एकतरदिग्विभागे महानगरप्रदीपनकमिव य | दीणववहारे-दीनव्यवहारःउद्योतो भूमावप्रतिष्ठितो गगनतलवर्ती स दिग्दाहः। दीनान्योऽन्यदानप्रतिदानादिक्रिय हीनविवादो वा। स्था. स्था०४७९
२०७। दिसिदाह-अन्यतमदिगन्तरविभागे उपरि
दीणसंकप्पे-दीनसङ्कल्पः-उन्नतचित्तस्वाभाव्येऽपि प्रकाशोऽधस्ता-दन्धकार ईदृक् छिन्नभलो दिग्दाहः। कथञ्चि-द्धीनविमर्शः। स्था० २०७४ आव० ७३५ दिग्दाहः-अन्यतमस्यां दिशि
दीणसीलाचारे-दीनशीलसमाचारः-हीनधर्मानुष्ठानः। अधोऽन्धकाराः उपरि च प्रकाशात्माका
स्था० २०७१ दह्यमानमहानगर प्रकाशलल्याः। भग० १९६। दिशि दीणा-दीना-दैन्यवती। विपा०४९। पूर्वादिकायां च्छिन्नमुलो दाहः प्रज्वलनदिग्दाहः। व्यव० | | दीणार-दीनारं-सुवर्णमुद्रा। दशवै० ३७। २४१ आ।
दीणारमालिया-दीनारमालिका-भषणविधिविशेषः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[761
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #77
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[Type text]
जीवा० ३६९| दीणारो- दीनारः आव० ३४९१ निशी. ३३० अ दीणोभासी दीनवदवभासते प्रतिभाति अवभाषते वा याचत इत्येवंशीलो दीनावभासी दीनावभाषी वा स्था० २०७
दीनदिडी- दीनदृष्टि :- विच्छायत्तक्षुः । स्था० २०७ दीपिया - द्वीपिकाः-चित्रकाः । ज्ञाता० ७०| दीप्तिमान् - पराधृष्यः । आचा० ३। दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपी - बहुरतः आव० ३११ दीर्घकालिक सञ्ज्ञायास्तृतीयो भेदः सम० १८० दीर्घबाहु नामविशेषः । सम० १५९|
दीर्घसेन :- नामविशेषः । सम० १५९ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
दीर्घा स्थूला जम्बू.
दीव - द्वीपः । प्रज्ञा० ७१| प्रदीपः- ज्योतिः | निशी० ४८ अ द्वीपः दीपो वा । प्रन० १०३ | जीवा० २२१ । द्वाभ्यां मुखेन करेण च पिबतीति द्वीपः हस्त्येव । जीवा० १२२ ॥ द्वीपः- जलेनावृतं क्षेत्रम् । जम्बू० २९३ । दीप्यत इति दीपः। उत्त॰ २१२। द्वीपम् । जम्बू० ५३८ । मोहनीयस् स्थाने पञ्चमम् । आव० ६६१। सुराष्ट्राद्दक्षिणसमुद्रे स्थलम् । बृह० २२७ अ दीप प्रकाशकं वस्तु। स्था० ५१७। दीप शाखा: प्रदीपकार्यकारिणः समः १८ द्विर्गता आपोs - स्मिन्निति द्वीपः । आचा० २४७ | द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युत्वलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति
द्वीपाः- जन्त्वावासभूतक्षेत्रविशेषः । अनुयो० ९०। दीवकुमारा द्वीपकुमाराः भवनपतिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६९। द्वीपकुमाराःवैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्त्तिनो देवाः । भग०
१९९|
दीवकुमारीओ वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्त्तिन्यो देव्यः । भग० १९९|
दीवगं दीपकं रथवीरपुर उद्यानम् । उत्तः १७८ दीपकरथवीरपुरे उद्यानविशेषः । आव० ३२३ ।
अधिकार्थोद्दीपकम् । व्यव० २५१ ।
दीवगचंपए दीपकचम्पकः दीपाच्छादनं कोशिकः । भग० ३१३। दीपस्थगनकम् । भग० ३७७ ।
दीवचंपए दीपचम्पकः- दीपस्थगनकम् राज० १४१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[77]
[Type text )
दीवणं- आगमनकार्याविर्भावनम् ओघ० ४०| दीवणिज्ज- दीपनीयं अग्निवृद्धिकरं दीपयति हि जठराग्नि-मिति वा । जीवा० २७८१ दीपनीयंअग्निबलजनकम् । स्था० ३७५१ दीवत्तं द्विधागतलवणोदस्य आपोऽस्मादिति अन्वर्यवशाद् दीपत्वम्। जम्बू. ९
दीप्पण - प्रकर्षेण नष्टो दृष्ट्यगोचरतां गतः प्रणष्टो दीपोऽस्येति प्रनष्टदीपः । उत्त० २१२ ॥
दीवसिहा- दीपशिखा इव दीपशिखाः । जम्बू० १०२ | दीपशिखाः- द्रुगमणविशेषः । जीवा० २६६ । जम्बू० १०२ दीपशिखा :- ब्रह्मदत्तराजी सागरदत्तसुता उत्त० ३७९१ दीवा - द्वीपाः । अनुयो० १७१ । दीवाति दवीपाः स्था० ८६
दीवायण - द्वैपायनः- महर्षिर्यः शीतोदकबीजहरितादिपरि भोगात्सिद्धः । सू० ९५| आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतिकायां विंशतितमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५४। द्वैपायनः परिव्राजकविशेषः । औप. ९१| दीवि- द्वीपि चित्रकः प्रश्न. १६२२ दीविए- चित्रकविशेषः । प्रज्ञा० २५३| दीविग - द्वीपिन:- चित्रकः । जम्बू० १२४| दीविच्चगा दुवैप्या द्वीपसम्भवाः । ज्ञाता० १७२ दीवित- द्वीपिक:-चित्रको मृगमारणाय प्रश्न. १३ दीवियमि- दीपिते कथिते। ओघ० ९३ । दीविय- द्वीपः-चित्रकः श्वापदविशेषः । जीवा० १०७ | द्वीपी - चित्रकः । जम्बू० ३१ | शाकुनिकपुरुषसम्बन्धीपञ्जरस्थति-त्तिरो द्वीपिका उच्यते। ज्ञाता० २३३ | द्वीपिक:- चित्रकः । जीवा० २८२ द्वीपिकेन चित्रकेण चरतीति द्वीपकः प्रश्न. १५१ द्वीपिकः- चित्रकाभिधानोनाखरविशेषः प्रश्नः ७ पीपीलिय:- पिपीलिकः पीपीतिकारिकः पक्षिविशेषः । प्रश्नः [८] चतुष्पदविशेषः । भग० १९१ | दीवियमडे- द्वीपिमृतः मृतचित्रकदेहः । जीवा० १०६ । दीविया - सनखपदश्चतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ | जीवा० ३८ | निशी० ८८ अ
दीवियाचक्कवालवंद ह्रस्वो दीपो दीपिका तासां चक्रवालं-सर्वं परिमण्डलरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्दम्। जीवा० २६६ |
"आगम- सागर- कोष" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
दीवेइ-दीपयति। आव. २६०
विविधबाधाविधायितया दीर्घामयास्तेभ्यो विप्रमुक्तो दीवेत्ता-दीपयित्वा-निवेदय। ओघ. १५६)
दीर्घामयविप्रमुक्तः। उत्त०६३९। दीवेह-दीपयत-कथयत प्रकाशयत। व्यव० १३४ आ। दीहासणं-दीर्घासनं-शय्यारूपमासनम्। जीवा० २०० दीहंवेगे-दीर्घहस्वयोः। स्था०४३।
दीहासणाई- शय्यारूपाणि। जम्बू.४५ दीह-दीर्घो दीर्घवर्णाश्रितो दूरश्रव्यो वा मेघादिशब्दवत्। दीहिया-दीर्घिका-ऋजुलघूनदी। प्रज्ञा० ७२श दीर्घिका
स्था० ४७१। दीर्घः-दीर्घपृष्ठः। उत्त० ३७७। दीर्घ-अनादौ सारणी। भग. २३८ औप० ३, ९३ अनयो० १५९। जीवा. केषाञ्चिदपर्यवसिते चेति। उत्त० २३३॥ दूरम्। व्यव० १९७। जम्बू. ४१। ऋजुसारिणी। औप० प्रश्न१६० ३१२ । दीर्घ-अल्पपृथुलं बहुच्छ्रयम। बृह. २४९ अ। जीवा. १८८। जम्बू. ३० ज्ञाता० ५। दीर्घिकाउलंबगं| निशी. १४ आ।
ऋज्वीनदी। प्रज्ञा० २६७। दीहगइपरिणामः- दीर्घगतिपरिणामः।
दुंदुभए- दुन्दुभकः-अष्टाशितौ महाग्रहे अष्टादशः। जम्बू. विप्रकृष्टदेशान्तरप्रा-प्तिपरिणामः। प्रज्ञा० २८९। ५३४। स्था० ७८ दीहजाइओ-दीर्घजातीयः। दशवै०५०
दुंदुभि-दुन्दुभिः-भेर्याकारा सङ्कटमुखी। राज० २५१ दीहडक्को -सर्पदृष्टः। आव०७८३।
भेर्याकारा कङ्कटमुखी देवातोयविशेषः। राज० ४९। दीहदंते-भरतक्षेत्रे आगामिन्यामत्सर्पिण्यां
दुंदुभिसर- दुन्दुभिस्वरः-वर्चस्वरो नादः। सम० १५८५ द्वितीयश्चक्रवर्ती। सम० १५४। दीर्घदन्तः
दुंदुभी-भेरी। प्रश्न. ४८० अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथम-वर्गस्य
दुंदुहि-दुन्दुभी-भेक्काविशेषः। भग० ४७६। दुन्दुभिःषष्ठममध्ययनम्। अनुत्त०१।
देववाद्यम्। जम्बू० १९२। दुन्दुभिः देववाद्यविशेषः। दीहपिट्ठ-यवोनामराजानस्य सचिवः। बृह. १९१ अ। भग० २१६ दीहबाहु- चन्द्रप्रभजिनस्य पूर्वभभवनाम। सम० १५१। | दुंदुहिस्सरो-दुन्दुभिवत्स्वरो यस्य स दुन्दुभिस्वरः। सम० १५४।
जीवा० २०७१ दीहमद्धं- दीर्घार्द्ध-दीर्घकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम्। प्रश्न | दुंदुही-दुन्दुभिः मेर्याकारा सङ्कटमुखी। जीवा० २४५।
९१। ज्ञाता० ८९। दीर्घाद्ध-दीर्घकालं दी? वाऽध्वा तप्प- | दुंदुहीओ- दुन्दुभयो देवानकाः। उत्त० ३६९। रिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गो यस्मिंस्तत्। उत्त० ५८५
इन्द्भः , सर्पविशेषः। उत्त० ३५४। भग. ५७२। दीर्घाद्धं दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घाखं, | दुः-अभावार्थे। आचा० १३६। मका-रआगमिकः, दो? वाऽध्वा मार्गो
दुःख- उष्णम्। आचा० १५११ यस्मिंस्तद्दीर्घाध्वम्। स्था० ४४। दीर्घालु जीर्घकालं दुःखासिका-वेदना। स्था० १८१। परितापना ओघ० ६५ दीर्घाकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम्। भागच्छा० ३४। आचा० १३९ दीहरत्तं-दीर्घरात्रं-यावज्जीवम्। सूत्र. १५२
दुःप्रसभः-तीर्थव्यवच्छेदकाले सरिः। व्यव. ४०२ अ। दीहराय-दीर्घरात्रः-मोक्षः। आव०६५८॥ दीर्घरात्रां दुःसंहृतं- दुःखेन संह्रियते-मील्यते स्मेति। उत्त० ३७५। यावज्जीवम्। आचा० २०८१
दुअं- द्रुतं-यत् त्वरितं गीयते त्वरितगाने हि दीहलोग-दीर्घलोकः-वनस्पतिः। आचा० ५। दीर्घोलोकः- रागतानादिपुष्टि-रक्षरव्यक्तिश्च न भवति। जम्बू०४०। पृथिव्यादिः। आचा० ५३
द्रुतनाम नाट्यं, द्रुतमिति शीघ्रं दीहसत्तं- णामकत्तति। निशी. २२६ अ।
गीतवाद्यशब्दयोर्यमकसमकप्रपातेन पादतदीहसेणे-दीर्घसेनः-अनत्तरोपपातिकदशानां
लशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् दूतं दवितीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। अनुत्त०२
नाट्यम्। जम्बू० ३१७ दीहामयव्विप्पमुक्को-दीर्घाणि यानि-स्थितितः दुअक्खरिआ-यक्षरिका। उत्त. १०७ प्रक्रमात्क-र्माणि तान्यामया इव-रोगा इव | दुअद्धखित्त-व्यर्धक्षेत्रम्। जम्बू० ४७८। द्वितीयमर्द्ध
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[78]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #79
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[Type text]
आगम- सागर - कोषः (भाग:- ३)
दुक्खाययणं– दुःखायतनम्। उत्त० ३२९|
यस्य तत् द्व्यर्द्धं - सार्धमित्यर्थः, द्व्यर्द्धमर्द्धाधिकं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोगयोग्यं येषां द्व्यर्द्धक्षेत्राणि । दुक्खावणा - दुःखापना- मरणलक्षणदुःखप्रापणा, अथवा सूर्य० १७७ । इष्ट वियोगादिदुःखहेतुप्रापणा । भग० १८४ । दुक्खाविज्जइ - दुःख्यते । आव० ४०५ |
दुआइक्ख- दुराख्येयं-कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वम्। स्था०
२९६
दुक्खुव्वेअ - दुःखाद् उद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः । आचा०
दुइओ - द्वितीयः । उत्त० २२३ |
११९|
दुइज्जतो- द्वितीयान्तः - पाषण्डी गृहस्थः । आव० १८९ | दुइज्जमाणा - द्रवन्ति इतस्ततो दोलायमानानि । जम्बू०
२३५|
दुकूलं- वस्त्रविशेषः । भग० ४६० | कार्पासिकं -
अतसीमयम्। भग० ५४०। वृक्षविशेषः । भग० ४६०| दुकोडी - विसोहिकोडी अविसोहीकोडी | निशी० ९१ | दुक्कडगरिहा- ऐहिकान्यभविकपापनिंदम्। चतु॰। दुक्करं दुःखेन क्रियत इति दुष्करं दुरनुष्ठानम् । उत्तः ११६। दुष्करं-अपूर्वकरणतो ग्रन्थिभेदः । भग० २८९ | दुक्कराई - दुःखेन क्रियन्ते करोतेः सर्वधात्वर्थत्वाच्छक्यन्ते दुष्कराणि दुःशकानि । उत्त
६६५ |
दुक्काल- दुष्कालः धनधान्यादिसमृद्धिहीनःकाल । भग० १९९| दुष्कालो-धान्यमहार्घतादिना दुष्टः कालः । जम्बू०
६६।
दुक्कुट्टिओ - दुष्कृष्टः । आव० ६२२
दुक्खं दुःखं दुःखकारणं वा कर्म्म लोकसंयोगात्मकं वा । आचा० १४५| अज्ञानं मोहनीयं वा । आचा० १५३ । दुःखयतीति दुःखं संसारः । उत्त० ६२१ । दुःखहेतुम् । उत्त ६२४। दुःखयतीति दुःखं-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वाऽसातोदयादिरूपम्। सूत्र० १३। दुःखयतीति दुःखं पापं कर्म्म। उत्त॰ २६२| सांसारिकं सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति दुःख-हेतुत्वाद् दुःख कर्म। भग० ३८ दुःखं दुःख कर्म | भग० २९० | दुःखहेतुः । भग० ४८४ । दुःखं दुःखविषयको भग-वत्याः प्रथमशतके द्वितीय उद्देशकः। भग॰ ६। दुःखयतीति दुःखः। उत्त॰ ११९| दुःखानि कर्माणि। उत्त० २९३ | दुक्खसंभवा- दुःखं पापकर्म ततः संभवः उत्पत्तिर्येषां ते दुःखसम्भवाः । उत्त० २६२॥ इहान्यजन्मनि च
दुःखभाजनम् । उत्त० २६८ दुक्खसावयाइण्ण- दुःखश्वापदाकीर्णः । ज्ञाता० १६९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[79]
[Type text]
दुखुरा - द्विखुराः- गवादयः । उत्त० ६९९। द्विखुराःउष्ट्रादि-चतुष्पदाः । जीवा० ३८ | दुगंछे- जुगुप्साकर्म्म-यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तत् । स्था० ४६९ । दुगंधी - दुर्गन्धी-सुनन्दश्रावकस्य द्वितीयो भवः । उत्त
१२३|
दुग - क्रियाविषयमेकसमयमनुभूयमानं उपचारात्तत्प्रतिज्ञाताऽपि द्विकः । उत्त० १५२ एकसमये वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं त-दधीयते तद्वेदी वा वैक्रियः, कालभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपी । आव० ३११। दुगाउयं द्विगव्यूतं-क्रोशद्वयम् । ओघ० ७८ । दुगुरुणा - जुगुप्सा | आचा० ७५ | दुगुंछमाण - जुगुप्समानः- निन्दन्परिहरन्। आचा० ११४। जुगुप्समानः । उत्त० २२८
दुगंछा - जुगुप्सा प्रवचनखिंसा । स्था० १३८ । विचिकित्सा अनेषणीयशङ्का। आचा० ३३२| जुगुप्साअस्नानादिमलि-नतनुसाधुहीलना । उत्त० ३६१। दुगुंछामि - जुगुप्सामि-निन्दामि । आव० ३६४। दुगुंछामोहणिज्जं - यदुदयवशात् पुनः शुभमशुभं वा वस्तु जुगुप्सते तत्, जुगुप्साजनकं मोहन जुगुप्सामोहनीयम् । प्रज्ञा० ४६९ | दुर्गाच्छिय- जुगुप्सितं - छिम्पकादि। ओघ० १५६। दुर्गाच्छिया - जुगुप्सिकताः-निन्दिताः। ओघ० १२० दुगुल्ल- दुकुलं-कार्पासिकं वस्त्रम्। राज० ३७। दुकूलं गौडवि-षयविशिष्टकार्पासिकम्। आचा० ३९४। कार्पासिकं वस्त्रम्। जीवा० २१० | कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रम्। सूर्य० २९३। वस्त्रम्। जम्बू॰ २८५| ज्ञाता० २७| जीवा० २३२। वृक्षविशेषः । तद्वल्कलाज्जातं दुकुलंवस्त्रविशेषः। ज्ञाता० २७। दुकूलानीति दुकूलो वृक्षविशेषः, तस्य वल्कं गृहीत्वा उदूखले जलेन सह
“आगम-सागर-कोषः " [३]
Page #80
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
कुट्टयित्वा बुसीकृत्य सूत्रीकृत्य च वूयन्ते यानि तानि। | दुग्घासं-दुर्गासं-दुर्भिक्षम्। बृह. २३ । प्रश्न०७० दुकूलः-वृक्षविशेषः। प्रश्न०७०| ज्ञाता०२७ | दुघण-द्रुघणम्। राज०२२ जीवा० १२१। द्रुघणः-मुद्गरुक्खो। निशी. २५४ आ। दुकूलं-वस्त्रजातिविशेषः। रविशेषः। प्रश्न. ४८1 जीवा. २६९।
दुचक्कगं-द्विचक्रकं-शकटम्। बृह. ७७आ। द्विचक्रंदुगूल- गौडविषयविशिष्टं कार्पासिकं दुकूलम्।
गन्त्रिका। ओघ०१४० वृक्षविशेषस्तस्य वल्कं गृहीत्वा उदूखले जलेन सह दुचक्कलेवो-द्विचक्रलेपः-शकटलेपः। बृह० ८२ अ। कुट्टयित्वा बुसीकृत्य च व्यूयते यत्तद् दुकूलम्। जम्बू. | | दुचक्का-विचक्रा-गडिआ। ओघ० १३५ १०७
दुच्चय-दुष्टः-कर्मद्रव्यसञ्चयः। भग० २८९। दुगोत्तफुसिया- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२
दुच्चिण्ण-दुश्चीर्णः-परस्त्रीगमनादिदुराचारः। बृह. ९८ दग्ग-दर्गाणि-जलदुर्गाणि, पर्वता एव दुर्गाणि। बृह. १८६ | । दुश्चीर्ण-दुश्चरितं मृषावादनपारदार्यादि। ज्ञाता० अ। कष्टसाध्यः। भग० ४८४। दुगाणि-खातवलयप्राकारा- २०५५ दिदुर्गमाणि। जम्बू. १६८1 दुरधिगमाः। सम० १११। जं | दुच्चिन्न- प्रमादकषायजदुश्चरितजनितं दुश्चरितं, अटविमज्झे भिल्लपुलिंदचाउव्वन्नजणवयमिस्सं दुश्चरितहेतु वा, मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादि वा। दुग्गं। निशी० २१ । दुर्गम-स्थानम्। बृह० २२९ अ। दशवै० २७४। दुर्गदुष्प्रवेशम्। विपा०६२। दुर्ग-जलस्थलदुर्गरूपम्। | दुजडी-अष्ठाशीतौ महाग्रहे चतुरशीतितमः। स्था० ७९| प्रश्न० ५०| दुर्ग-व्यसनम्। प्रश्न० ६३। दुर्ग-प्रकारः। | दुज्जंतु-दूयन्तां-लूयन्ताम्। प्रश्न० ३९| आव० ७३२दुर्ग-दुःखाश्रयणीयम्। भग० २३१। दुर्गः- | दज्जम्मजात-दर्जन्मजातः। आव. ५७८ जलदुर्गा-दिकः। भग० १७४। दुर्ग
दुज्जोहण-दुर्योधनः। ज्ञाता० २०८। खातवलयप्राकारादिदुर्गमम्। भग० ३०७।
दुज्झाओ-दुष्टो ध्यातो दुर्ध्यातः-आतरौद्रलक्षणः दुग्गइवड्ढणं-दुर्गतिवर्धनं-संसारवर्धनम्। दशवै. २००९ एकाग्रचि-त्ततया। आव० ५७१, ७७८1 दुग्गए-दुर्गतः-दरिद्रः। स्था० २४९।
दुहगंडो-दुष्टव्रणः-कुष्ठी। उत्त० २१८॥ दुग्गओ-दुगौः-गलिबलिवईः। दशवै० २५०| दुहस्सो- दुष्टाश्वो गर्दभः। बृह० २४० अ। दुग्गता-दुर्गताः-दुःस्था। स्था० १४७।
दुहुऽस्स-दुष्टाश्वः गर्दभः। ओघ०७१॥ दुग्गतिप्पवाओ-दुर्गतौ नरकादिकायां कर्तारं- | दुह्राण-द्विः। स्था० ३३०| प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः, दुर्गतौ वा प्रपातो यस्मात् । दुढे- दुष्टः-विष्टः तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति, स सः, प्राणवधस्या-ष्टादशमः पर्यायः। प्रश्न० ५।
चाप्रज्ञापनीयो, दवेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः। स्था० १६५ दुग्गम-दुःखेन गम्यत इति दुर्गमं भावसाधनोऽयं, | दुणापाणियं-दुर्गन्धपानीयम्। आव० ५५६। कृच्छ्रवृत्ति-रित्यर्थः। स्था० २९६। दुर्गमः-कृच्छ्रगतिकः।। | दुणिसीहिया-दुर्निषीधिका-कष्टस्वाध्यायभूमिः। प्रश्न प्रश्न. २०
१६४। दुग्गय-दुर्गतः-दरिद्रः। उत्त० २२६।
दुतं-द्रुतं त्वरितम्। स्था० ३९६। जम्बू०४१७ दुग्गा-दुर्गा-कोट्टक्रिया सैव महिषारूढरूपा। ज्ञाता० १३९। | दुइंतदोस-दुष्टं दमनं दुर्दान्तं तच्च प्रक्रमाच्चक्षुषस्तदेव दुर्गा-महिषारूढाऽऽर्या। अनुयो० २६।
दोषो दुर्दान्तदोषः। उत्त० ६३१। दुग्गासे- दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासः-दुर्भिक्षम्। पिण्ड० दुद्दाइ-अवसंपण्णाणवि न देइ। निशी० ८३ ८८1
दुद्धं-दुग्धम्। आव० १९८१ दुग्गुच्चपव्वओ-दुर्गोच्चपर्वतः। आव० ३८४। दुखकाओ-दुग्धकायो नाम दुग्धघटकस्य कापोती। आव० दुग्गूढं- दुर्गुढं-दुष्प्रावृतम्। बृह. ५५आ। दुग्घट्टा-दुर्घटा-दुराच्छादा। प्रश्न० ६०|
| दुद्धजाई-दुग्धजातिः-आस्वादतः क्षीरसदृशी। जीवा०
५५५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[80]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #81
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२६५
४३६॥ दुद्धर-दुर्द्धराणि-प्राणातिपातादिनिर्वृतिलक्षानि। पञ्च | दुप्पउत्तकायकिरिया- दुष्टं प्रयुक्तो दुष्प्रयुक्तः स चासौ महाव्र-तानि। प्रज्ञा० ५। दुर्द्धर-गहनम्। स्था० ३६४। कायश्च दुष्प्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुद्धरः- प्रतिस्पर्द्धिनामनिवार्यः। प्रश्न०७३।
दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, दुष्टं प्रयुक्तं-प्रयोगो यस्य स दद्धरिसं-दुर्द्धर्ष-अनभिभवनीयम्। प्रश्न. १३६।
दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायक्रियादुष्प्रयुक्त काय-क्रिया। भग० दुद्धरिसतरा- दुष्प्रघृष्यतरौ-भवतः-दुःखेन परिभूयेते १८२रा दुष्प्रयुक्तस्य-दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहिदुर्जय-तरौ। ओघ० १४९।
तस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक् दुधोयतराए- दुष्करतरधावनप्रक्रियम्। भग० २५१।। संवेगनिर्वेद-गमनेन, तथा दुनाम-द्विरूपं सत् सर्वस्य नाम दविनाम। अन्यो० अनिन्द्रियमाश्रित्यशुभमनःसङ्कल्पद्वारेणाप-वर्गमार्ग १०९। द्वयोर्वा नाम्नोः समाहार दविनामं वा। अन्यो. प्रतिर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः काय-क्रिया १०९|
दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। स्था० ४११ दुन्नरा- दुर्नयः-स्त्र्यादिसंसत्कस्थानवासः। बृह. ५आ। | दुप्पउलि- दुष्पक्वः-अस्विन्नः। आव० ८२८१ दुन्निक्कमा-दुःखेन नितरां क्रमः, क्रमणं यस्यां सा दुप्पउलिओसहिभक्खणया-दुष्पक्वौषधिभक्षणतादुनिष्क्रमा दुरतिक्रमणिया। जम्बू. १६९।
अस्वि-न्नौषधिभक्षणता। आव० ८२८। दुन्नामधिज्ज-दुर्नामधेयं-पुराणः प्रतित इति
दुप्पए- अधोभागाप्रतिष्ठिते- प्रतिष्ठा नरहिते। ओघ० कुत्सितनामधेयं च। दशवै० २७६।
२११॥ दुपओआरं-द्वयोः पदयोः-स्थानयोः
दुप्पट्ठियसुप्पट्ठिओ-दुष्टं प्रस्थितः-प्रवृत्तो दुष्प्रस्थितः पक्षयोर्विवक्षितवस्तुत-विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य दुरा-चारविधातेतियावत् सुष्ठु प्रस्थितः सुप्रस्थितः तद् द्विपदावतारम्। स्था० ३९।
सदनुष्ठानक-तेति। उत्त० ४७७। दुपक्ख-दवौ पक्षावस्येति दविपक्ष-कर्मबन्धनिर्जरणं | दुप्पडिकंत-मिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितं प्रतिपक्ष-दवयसमाश्रयणात्। सप्रतिपक्षमनैकान्तिकं, दुष्परा-क्रान्तं, दुष्पराक्रान्तं, दुष्पराक्रान्त हेतु वा, पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायीतया विरोधिवचनमिति। सूत्र० वधबन्धनादि वा। दशवै० २७४। २१६। दृष्टः पक्षो दुष्पक्षः असत्प्रतिज्ञाभ्युपगम्। सूत्र० । | दुप्पडिक्कंतो- दुष्प्रतिक्रान्तः-दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन ९१
प्रायश्चि-त्तप्रतिपत्त्यादिना-अप्रतिक्रान्तःदुपडोयार-द्वयोः प्रत्यवतरो यस्य तत्
अनिवतितविपाक इति विपा० ३८1 द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थः। | दुप्पडिताणंदे-दुष्प्रत्यानन्दः-उपकृतेन कृतमुपकारं यो स्था० ३९। द्विप्रकाराः जीवाश्चाजीवाश्च। आव० ४७७। | नाभिमन्यते। स्था० २४९। दुपमज्जिय- दुष्प्रमार्जितं-तृतीयमसमाधिस्थानम्। आव० | दुप्पडिबोहिणि- सद्धम्मे दुक्खं बुज्झंति। निशी० ४३।
दुप्पडियाणंदे- दुष्प्रत्यानन्दः-साधुदर्शनादिना दुपयं-द्विपदं-शकटम्। ओघ० १४१। दासीमयूरहंसादि। नानान्यत इति। विपा० ३९। आव० ८२६
दुप्पडियारं-दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते कृतोपकारेण दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे
| पुंसा-प्रत्युपक्रियत इति खलप्रत्यये सति दुष्प्रतिकरंद्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः। आव० ८२५१
प्रत्युपकर्तु-मशक्यमिति यावत्। स्था० ११७) दुप्पउत्त-अकुसलमणो। दशवै. ६० दुष्प्रयुक्तः-दुःसा- | दुप्पडिलेह-दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चकम्, दूष्यपञ्चकस्य धितः। ओघ० २२७।
द्वितीयो भेदः। दुप्पउत्तकाइया-दुष्टं प्रयुक्तं-प्रयोगः कायादीनां यस्य स पल्हवी कौतपी पावर इनवत्वकदंष्ट्रागाली भेदभिदुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी। प्रज्ञा० । न्नम्। आव० ६५२।
६५३
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[81]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #82
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[Type text]
दुप्पडिलेहणा- दुष्प्रत्युपेक्षणा- दुर्निरीक्षणा। आव० ५७६| दुप्पडिलेहियदूस– दुष्प्रतिलेखितमदुष्यम्। स्था० २३४ दुप्पणिहिआ - दुष्प्रणिहिताः - अनिरुद्धा । दशवै० २२६ । दुप्पडिहियजोगी - दुष्प्रणिहितयोगी-सुप्रणिधिरहितः प्रव्रजितः । दशवै० २२६ |
आगम- सागर- कोषः ( भाग : - ३ )
दुप्पण्णवणिज्जा- दुक्खचरणकरणजातामाताओत्तिए धम्मं पण्णविज्जति । निशी० ४३ अ । दुप्पन्नवणिज्जाणि - दुष्प्रज्ञाप्यानि - दुःखेन धर्मसञ्ज्ञोपदेशेना- नार्यसङ्कल्पान्निवर्त्यन्ते। आचा
३७७ |
दुप्पमज्जणा - दुष्प्रमार्जना- अविधिना प्रमार्जना। आव०
५७३।
दुप्पमज्जियचारि - दुष्प्रमार्जितचारी,
तृतीयमसमाधिस्थानम् । सम० ३७ | दुप्पयं-न पुष्पकमूले स्थितम्। बृह॰ २४१ अ। दुप्परक्कंत- दुष्पराक्रान्तं
प्राणिघातादत्तापहारादिकृतानां प्रकृत्यादिभेदेन । भग०
२०५/
दुप्परिकम्मतराए - दुष्परिकर्मतरंकष्टकर्तव्यतेजोजननभङ्ग-करणादिप्रक्रियम्। भग०
२५१|
दुप्पस्स– दुःखेन दर्श्यते इति दुर्दशं, उपपत्तिभिर्दःशकंशि-ष्याणां प्रतीता वारोपयितुं तत्त्वमिति । स्था० २९७ |
दुप्पहंस - दुःखेन प्रघर्ण्यन्ते-पराभूयन्ते केनापीति दुष्प्रघर्षाः। उत्त॰ ३५३। दुष्प्रघर्षकः-अन्यैर्दुरभिभवः।
उत्त० ३४९|
दुप्पुत्तं - पुप्फगमूलेसु न पइट्ठितं । निशी० ४१ आ । जं ठविज्जंतं उद्धं ठायति चालियं पुण पलोदृति नं दुप्पुत्तं। निशी० १२५आ।
दुब्बल– दुर्बलः-वाध्यादिरोगाक्रान्तः। ओघ० ५०| दुब्बलदेहो– दुर्बलदेहः-कृशशरीरः। ओघ० ७१। दुब्बलपच्चामित्ते - अबलप्रातिवेशिकराजः । स्था० ४६३ । दुब्बलयरो- दुर्बलतरः। आव० ४१६ ।
दुब्बलसरीरो - रोगपीडिओ दुब्बलसरीरो तवसोसियसरीरो वा | निशी० ६५ अ ।
दुब्बलि- दुर्बलिका । आव० २३८ \
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
दुब्बलिय— दौर्बल्यं-श्रमम्। आचा० ३८०। विद्यायां योग्यः | निशी० ७९ अ । दुब्बलियपूसमित्तो- दुर्बलिकापुष्पमित्रः । आव० ३०८ | दुब्बलियापूसमित्त- दुर्बलिकापुष्पमित्रः । उत्त० १७३ | दुब्भगाकरा - सुभगमपि दुर्भगमाकरोतीति दुर्भगाकरा, विद्या - विशेषः । सूत्र० ३१९ ।
दुब्भपुप्फो- उरः परिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ | दुभि - अशुभः- मनोज्ञो यो न भवति । स्था० २५| दुब्भिक्ख- दुर्भिक्षं-भिक्षाचराणां भिक्षादुर्लभत्वम् । जम्बू०
६६।
दुभिक्खभत्तं - दुर्भिक्षकाले भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं दुर्भिक्षभक्तम् यद् विहितं भक्तं तद् । भग० २३१ | यद् भिक्षुकार्थं दुर्भिक्षे संस्क्रियते तत् । औप० १०१। दुर्भिक्षभक्तम् । स्था० ४६०
दुभिक्खया- दुर्भिक्षता दुर्भिक्षभावः । आव० ८४४। दुब्भिगंध- दुरभिगन्धः-तीव्रतरदुष्टगन्धः। ज्ञाता० १७७ दुब्भिसद्द - अशुभशब्दः । प्रज्ञा० २८९ |
दुब्भिसद्दत्ता- दुष्टशब्दता। ज्ञाता० १७७।
दुभिसद्दपरिणामे - अशुभः शब्दपरिणामः । जीवा० ३७३ | दुभी- अभं रसेण उववेयं पि भोयणं दुब्भिगंध ण पूजितं दुब्भिं। निशी॰।
दुब्भुतिया - कृष्णवासुदेवस्य तृतीया भेरी । बृह० ५६ अ । दुब्भूइ- दुर्भूतिः- अशिवम् । बृह० २६३अ । दुब्भूए– दुः इति निन्दितं भूतं-भवनमस्येति दुर्भूतः दुराचार तया निन्द्यो भूतः । उत्त० ४३६ । दुब्भूय - दुर्भूतं- अशिवम् | जीवा० २८४ | दुष्टाः जन धान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद् भूताः सत्त्वा यूकानत्कुणोन्दुरतिड्डप्र-भृतयो दुर्भूता इतय इत्यर्थः ।
[82]
भग० १९८
दुभगणामे- दुर्भगनाम यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यः तत् । प्रज्ञा० ४७४ |
दुभाग - ऊनोदरतायास्तृतीयो भेदः, त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत् षोडश तावद् विभागोनोदरता । दशवै० २७ विभागा। स्था० १४९| दुभागपत्तोमोअरिया- द्विभागप्राप्तावमोदरिका । औप०
३८
दुभागप्पत्ते - द्विभागः अर्द्धं तत्प्राप्तो विभागप्राप्तः
“आगम-सागर-कोषः " [३]
Page #83
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आहारः दविभागो वा प्राप्तोऽनेनेति दविभागप्राप्तः दुयगाणि-वे। आव० ३५०| साधुः। भग० २९३
द्यग्गावि- (देशीपदं) प्रक्रमाच्च दवावपि दम्पती। उत्त. दुभिक्ख-दुर्भिक्षं-दुष्कालः भिक्षुकाणां भिक्षाचर्याऽक्षमः- ३९४१ कालः। भग० २००१
द्यड्ढपोरिसी-दव्यर्द्धपौरुषी-सार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया। दुभिक्खभत्तं- अडविणिग्गयाणं भुक्खत्ताणं जं
सूर्य. ९१। दुब्भिक्खे राया देति। तं। निशी० २७२ अ।
| दुयादुयं-अतिशयद्रुतम्। तन्दु । दुम-असुरकुमारेन्द्रस्य सप्तमः सैन्याधिपतिः। स्था.
| दुरंत-दुरन्तं-दुष्टफलम्। प्रश्न०६६। दुःखेनान्तः-पर्यन्तो ४०६। द्रुमः-अनुत्तरोपपातिकदशानां दवितीयवर्गस्य यस्य तद् दुरन्तम्। उत्त० २३३। दुरन्तानिसप्तममध्ययनम्। अनुत्त०२ पदान्यनीकाधिपतिः। दुष्टावसानानि। भग. १७४। जम्बू०४०७। दोसु माओ मो। निशी० १० आ। दुरंतपंतलक्खणे-दुरन्तप्रान्तलक्षणः-दन्तानिआनतकल्पे देवविमान-विशेषः। सम० ३५
दुष्टावसा-नानि अत एव प्रान्तानि अमनोज्ञानि दुमणं-दुवनमुपतापनम्। प्रश्न० ३८१
लक्षणानि यस्य सः। भग० १७४। दुरन्तानिदुमपत्तयं- द्रुमपत्रकं-उत्तराध्ययनेषु दशममध्ययनम्। दुष्टपर्यन्तानि प्रान्तानि-अपसदानि लक्षणानि यस्य उत्त० ९, ३३३। सम०६४
सः। ज्ञाता० १३९ दुमपुफिया-द्रुमपुष्पिका-दशवैकालिके
दुरणुपालओ-दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः, स एव प्रथममध्ययनम्। दशवै०१५। दुमपुष्पिका-धम्मो
दुरनु-पालकः। उत्त० ५०२ मंगलं। ओघ. २०३। दोस् माओ दुमो पुप्फ विकसणे दुरत्थाया- (देशी) बहिराभिधायकम्। बृह. १७० अ। दुमस्स पुप्फ दुमपुप्फ तेणदुम-पुप्फेण जत्थ उवमा दुरप्पा-दुरात्मता-दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपः। उत्त० ४७९| कीरइ तमज्झयणं दुमपुप्फिया। निशी. १० आ। दुरभिगंध- मृतकलेवरादिवत्। जीवा० २८२। दुष्टगन्धः दुमसेणे-नवमबलदेववासुदेवयोः पूर्व भवीयधर्माचार्यः। ज्ञाता० १६१। तीव्रतरदुष्टगन्धः। आव० ७७१। ज्ञाता० सम० १५३| द्रुमसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशानां
१७७ द्वितीयवर्गस्य अष्टममध्ययनम्। अनुत्त० २। दुरभिगंधनामे-दुरभिगन्धः-यदुदयाद् दुरभिगन्धः दुमा-भूमीयआगास य दोस् माया। दशवै० ५। शरीरेष-पजायते यथा लशूनादिनां तत्। प्रज्ञा० ४७३। दुम्मण-दुर्मना-दैन्यादिमान् विष्ट इत्यर्थः। स्था० | दुरहिद्विअ-दुरधिष्ठिं-दुराश्रयम्। दशवै० १९२। १३१|
दुरहियास-दुरधिसह्या। भग० २३१। दुरधिसह्यः। भग० दुम्मणिअ-दौर्मनस्यं-दुष्टमनोभावः। दशवै० २५४। ४८४॥ दुम्मेह-घोसंतस्स वि जस्स गंथो न ठायति स दुम्मेहो। | दुरारद्धं- दुरारब्धम्। आव० ३८७ निशी० ३६ आ। अन्तकृद्दशानां तृतीयावर्गस्य दुरासय-दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदः दशममध्य-यनम्। अन्त० ३। द्रव्यव्यत्सर्गे
दुरभिभवः। दशवै० ९५ पाञ्चालजनपदे काम्पील्यन-गराधिपतिः य इन्द्रकेत | दुरासया-दुःखेनाश्रीयन्ते अभिभवबुद्धयाऽऽसाद्यन्ते वा दृष्ट्वा संबुद्धः। आव०७१६। उत्त० २९९, ३०३। ज्ञाता० जेतुं सम्भावयन्त केनापीति दुराश्रया दुरासदा वा। उत्त. २१३। प्रश्न०७३।
३५३ दुम्मेहा-दुर्मेधसः-दुर्बुद्धयः। उत्त० ५३०|
दरिद्व- दरष्टिं दर्नक्षत्रं दर्यजनं वा। दशवै०६५। द्य-द्रुतं-यत्त्वरितं गीयते, गीतस्य द्वितीयो दोषः। दुरूक्कं- ईषत्पिष्टम्। आचा० ३४८१ जीवा. १९४१
दुरुत्तर-दुरत्तारः-अकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घः। द्यओ-द्विका-विपरिणामो दविपदो वा। भग० ३३११ दशवै. २०६। दुयक्खर-दासः। आव०६९०
| दुरुवणियं-दुरुपनीतं-दुष्टमुपनीतं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[83]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३०६।
निगमितमस्मिन्निति। दशवै. ५२
१५४ दुरुवणीए-दुष्टम्पनीतं-निगमितं-योजितमस्मिन्निति | दुवित्तए- द्रोतुं विहर्तुम्। बृह. १५२ आ। दुरुपनीतं परिव्राजकवाक्यवत्। स्था० २५९।
दुविहनियत्ती- श्रावकत्वप्रव्रजतित्वाभ्यां निवृत्तिरिति। दुरुहइ-आरोहति। राज०४१॥
स्था० ३३० दुरुहिउं- आरोढुम्। आव० २६२
दुव्वए-दुर्वतः-व्रतवर्जितः। विपा० ३९| असम्यग्व्रताऽथवा दुय-दुरूपाणि-विरूपाणि। ज्ञाता०५१
दुर्व्ययः आयनिरपेक्षव्ययः कुस्थानव्ययो वा। स्था० दुरूवा-दुःस्वभावाः। भग० ३०८४
ર૪૮) दुरूहिज्जा -आरुहेत्। आचा० ३७९|
दुव्वण्ण-दुर्वर्णः-दुष्टशरीरच्छविः। जम्बू. ११६) दुरोदरं- दयुतम्। उत्त० ४२६|
एकस्मि-न्नपि न पतति इत्यर्थः। निशी. १२५ आ। दुर्ध्यातः- दुष्टचिन्ताविषयीकृतः। ज्ञाता० १९२। दुव्वलचरित्तो-विणा कारणेन मुलुत्तरगुणपडिसेवणं दुर्भिक्षं-दुरितविशेषः। भग०८
करोति। निशी. १०२ आ। दुलुड्डलेमो- भ्राम्यामः। निशी० २९२आ।
दुव्वा-वीया। निशी. २५५आ। दूर्वा-हरितविशेषः। भग० दुल्लंभ-दुर्लभं-अनिवृत्तिकरणम्। भग० २८९। दुर्लभे दुर्भिक्षे। ओघ० १५०।
दुव्विअड्ढा-दुर्विदग्धा-मिथ्याऽहङ्कारविडम्बिता। दुल्लभदव्वं-सतपागसहस्सपागादि वा त्रिकटुकादि वा। नन्दी०६४। निशी. ९६।
दुव्विचिंतिओ-दुर्विचिन्तितः। आव० ७७८१ दुल्ललियगोडी-दुर्ललितगोष्ठी। आव० ३५३।
दुष्टोविचिन्तितो दुर्विचिन्तितः चलचित्ततयाऽशुभ दुल्लहलंभ-दुर्लभलाभः। आव० ३४५
एव। आव० ५७१। दुल्लु लेमि- गवेषयामि। निशी. १७७ अ।
दुव्वियडा- दुर्विवृता-परिधानवर्जिता। बृह० २५८ अ। दुवए-कांपिल्यपुरे राजा। ज्ञाता० २०७।
विवृता-अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुवक्खरग-दासः। निशी०६५।
दुःशब्देन विशेष्यते विवृता-दुर्विवृतावक्खरियाओ- वेसस्त्रिया। निशी० ११८ आ।
परिधानवर्जिता, विवृतोरुका दुर्विवृता। स्था० ३१३। दुवक्खरिया व्यक्षरिका वेश्या। आव० ४२९। | दुव्विवद्दिया-दुर्विदग्धा। बृह० ५८ अ। दुवग्गोवि- (देशीवचनत्वात्) द्वावपि। बृह. २६०। | दुव्विसुज्झो- दुःखेन विशोध्यो-विशोधयितुं निर्मलतां नेतुं दुवामतराए- दुर्वाम्यतरकं-दुस्त्याज्यतरकलङ्कम्। भग० | शक्यो दुर्विशोध्यः। उत्त० ५०२। २५१
| दुव्वुट्ठी-दुर्वृष्टिः-धान्याद्यनिष्पत्तिहेतुः। भग० १९९। द्वार-द्वारम्। निशी. ९५आ। सीसवारिया। निशी. दुष्प्रणिहितकायिकी-प्रमत्तसंयतस्य क्रिया। १९१ ।
कायिकीक्रियाया द्वितीयो भेदः। आव०६११। दुवारपिंडो-द्वारपिण्डः-द्वारशाखा। जीवा० २०४। | दुष्प्रत्युपेक्षणं-दुष्टं-उद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणम्। आव. दुवारबाह-द्वारभागः। आचा० ३३८१
८३६। दुवारवयण-द्वारमेव वदनं-मुखं द्वारवदनम्। भग० दुष्प्रभः-कार्पटिकः। पिण्ड०७१।
दुष्प्रमार्जितचारित्वं-तृतीयमसमाधिस्थानम्। प्रश्न दुवारा- गौपुच्छिकम्। व्यव० १६५ अ।
१४४५ दुवालसंगे- द्वादशाङ्गानि-आचारदीति यस्मिंस्तद दुष्टव्रणादि-नोकर्मद्रव्यदोषो-दृष्टव्रणादिः। आव० ३८९। द्वादशाङ्गम्। सम० १०७।
दुसन्नप्पाणि-दुःसज्ञाप्यानि-दुःखेनार्यसञ्ज्ञां दवासपरियाए-दविवर्षपर्यायः। ज्ञाता० १५५
ज्ञाप्यन्ते। आचा० ३७७।। दुविदु-आगमिन्यामुत्सर्पिण्या अष्टमो वासुदेवः। सम० | दुसमयहिईयं- द्वौ समयौ यस्याः सा द्विसमया
३१३|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[84]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम- सागर- कोषः (भाग:- ३)
[Type text]
तथाविधा स्थितिरस्येति, द्विसमयस्थितिकम् । उत्तः
५९५|
दुसालयं - विशालकं- द्रुमगणविशेषः । जीवा० २६९ | दुस्संबोध - दुःखेन सम्बोध्यते-धर्मचरणप्रतिपत्तिं कार्यत इति दुस्सम्बोधः । आचा० ३५ |
दुस्सण्णप्पा- जदा सट्ठा तदा दुक्खं सण्णविज्जंति दुस्सण्णप्पा | निशी० ४३ आ ।
दुस्समसुसम - दुष्पमसुषमादुष्षमानुभावबहुलाऽल्पसुषमा-नुभावेति । जम्बू० ८९ | दुस्समा - दुष्षमा अधमकालः । दशवै० २७२ दुस्साहs - दुःखेनात्मनः परेषां च दुःखकरणेन सुष्ठु आदरा-तिशयेनाहृतं उपार्जितं दुःस्वाहृतम्। उत्त० २७५ दुस्सील - दुःशीलः- शुभस्वभावहीनः। विपा० ३९। दुष्टमिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं-स्वभावः समाधिराचारो वा यस्या सौ दुःशीलः । उत्त० ४५ दुस्सीलंपरियागयं - दुःशीलमेव दुष्टशीलात्मकः पर्यायस्तमागतं दुःशीलपर्यायागतम्। उत्त॰ २५०। दुस्सीला - दुःशीला - पारदारिकाः । बृह० ३११ अ । दुह - दुःखं तापानुभवरूपं दुःखम् । दशवै० ३९। दोह । बृह०
६२ आ। दुखं-प्रकृत्यैवासुन्दरा दुःखजननी । दशवै० २७७ | दुहओ - द्वौ । स्था० ५२२| उभयतः । ज्ञाता० १९२ | रागद्वेषाभ्यां हतः-द्विहतः। आचा० १६९ | दुष्टं हतो दुर्हतः ।
आचा० १६९ |
दुहओखहा - नाड्या वामपार्श्वादेर्नाडीं प्रविश्य तदेव गत्वाऽ–स्या एव दक्षिणपाश्र्र्वादौ ययोत्पद्यते सा द्विधाखा। भग॰ ८६६। उभयतोऽङ्कुशाकारा । स्था०
४०७ |
दुहओवंका– यस्यां वारद्वयं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा। भग० ८६६ | उभयतो वक्रा । स्था० ४०७ | दुहओवत्ता - द्वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । दुहओवि- द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्विधा, न शुद्धतादिना स्वसम्ब-न्धिगुणलक्षणेनैकेनैव प्रकारेण, किन्तु स्वसम्बन्ध्याश्रयस-म्बन्धिगुणद्वयलक्षणेन। प्रकारद्वयेनापीत्यपिशब्दार्थः । उत्त० ३४८|
दुहओवेइया - यत्र बाहवोरन्तारा वे जानुनी कृत्वा प्रतिलिख्यते सा द्विघातो वेदिका । ओघ० ११० दुहट्ट - दुर्घटो दुःस्थगो दुर्निरोधः । उपा० २३ | ज्ञाता० १३९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[85]
[Type text]
दुःखितः-दुःखार्तो देहेन। विपा० ४१| दुःखार्त्तः-देहेन दुःखितः। विपा॰ ४१।
दुहण - द्रुघणम् । अनुयो० १७७ । द्रुघणो मुद्गरः । प्रश्न० २१। उपा० ४७। द्रुहणः-टक्करः। प्रश्र्न० ४८। दुहत्ता - दुःखिता - दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकत्वं
वा । स्था० ३९९|
दुहतोणंत - द्विधा - आयामविस्ताराभ्यामनन्तकं । द्विधानन्तकं प्रतरक्षेत्रम् । स्था० ३४७ । दुहतोनिसहसंठिया - उभयतो निषधसंस्थिता । उभयतोरथ-स्योभयोः पार्श्वयोर्यौ निषधौ । बलीवद्द तयोरिव संस्थितं संस्थानं यस्या । सा । सूर्य० ७१ | दुहतोवत्तो- द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३१। दुहतोऽवि - द्वावपि । उत्त० ५१७|
दुहसिज्ज - दुःखशय्यातः नरकादिभवात् । आचा० ४३१ | दुहसेज्जा - दुःखदाः शय्या दुःखशय्याः ताश्च द्रव्यतोऽतथा-विधखट्वादिरूपाः भावतस्तु
दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणता-स्वभावाः-प्रवचनाश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४ विशेषिताः । स्था० २४७ |
दुहिलं- दुहिलं-द्रोहस्वभावम् । सूत्रदोष विशेषः । कलुषं वा येन पुण्यपापयोः समताऽऽपाद्यते। आव० ३७५। द्रोहवत्। प्रश्र्न० ११७| द्रोहणशीलो- द्रोग्धा । उत्त० ३४६ । दुआ- दूताः अन्येषां राज्यं गत्वा राजादेशनिवेदकाः । जम्बू० १९० |
दूइ - दूती-परसन्दिष्टार्थकथिका, उद्पादनादोषे द्वितीय । पिण्ड० १२१ ॥
दूइजित्तए - द्रोतुं विहर्तुमित्युत्सर्गः । स्था॰ ३१०| दूइजित्ता - विहृत्य । सूत्र० ४१८ |
दूइज्जत - परिभ्रमन्। उत्त० ४३१ | द्रवन् वसन् । औप० ४८।
दूइज्जंतयगामं - द्वितीयान्तकग्रामपाखण्डिगृहस्थग्रामम्। आव० १८९ । दूइज्जइ - विहरति । ओघ० ६० | दूइज्जति - रीइज्जति । निशी० १४६ अ ।
दूइज्जमाण- द्रवन् गच्छन् । भग० १० | आचा० ३२४, ३२६। विहरन्। सूत्र० ८७| गच्छन्। ज्ञाता० ८। दूयमानःअनेकार्थत्वाद्धातूनां विहरन्, एकाकीनः साधुः । आचा०
“आगम-सागर-कोषः " [३]
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[Type text]
२१४ | गच्छन् । व्यव० २२अ ।
दुइपलासए वणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । उपा० । दुइपलासे वणिग्यामे उद्यानविशेषः । विपा० ४५१ दूपक्काए दूतकार्यम् । आव० २१४
दूओ दूतः उत्त० ३०२
दूढा - दुग्धा । व्यव० ३४५आ।
दूता- दुवन्तः ग्रामानुग्रामं गच्छन्तः । बृह० १८४ अ दूतिपलास - वणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । भग० ५०१, ७५८ दूतिपलासते वणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । अन्त० २३ दूतिपलासे वणिग्यामे चैत्यविशेषः । भग- ४३९, ५२३३ दूतिपिंडो- गिहिसंदेसगं णेति आणेति वा जं तं णिमित्तं पिंड लभति सो दूतिपिंडो। निशी ९६ अ दूब्बलियासमित्तो- दुर्बलिकापुष्पमित्रः । आव० ३०७ । दूर्भाग- अणवकारी वि दूभगणामकम्मोदयातो परस्स अरुइकरो दूभगो। निशी० ११७ अ
दूभगसत्ताए दुर्भगः सत्त्वः प्राणी यस्याः सा ज्ञाता०
१९९ |
-
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
दूर्भागनिंबोलियाए- निम्बगुलिकेव- निम्बफलमिव अत्यनादेय-त्वसाधर्म्यात् दुर्भगाणां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनिम्बगुलिगा दुर्भगानां मध्ये निर्दोलितानिमज्जिता दुर्भगनिबलिता । ज्ञाता० १९९॥ दूमगं- दावकं उपतापकम्। प्रश्न ४१। दूमण- दवनं- उपतापः । प्रश्र्न० २२| दुर्मनसः - दुष्टमनः कारिण उपतापकारिणो वा शब्दादयो विषयाः । सूत्र० ६८ ।
धवलनम्। व्यव० ७ अ ।
दुमिय दुमितं धवलितम् । भग० १४०१ सुधापङ्कधवलितम्। सूर्य० २९३ ।
दूमिया- सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या सेटिकया धवली कृतकुड्या च बृह० ९२ अ
दूय- दूतः अन्येषां राजादेशनिवेदकः । भग० ३१९ |
दूयत्ता - दूतता । उत्त० ११५ |
दूयेत्- गच्छेद् । आचा० ३८२
दूर अत्यर्थम् । प्रश्न० ६३ । दूरं विप्रकृष्टम् । भग० १३ | विप्रकर्षः । ज्ञाता० ९|
दूरगती दूरगतिः । भगः १३२ |
दूरमूलं अनादिकम्। भग० २१७८ दूरमोगाडे दूरमधोऽवगाह्य ओघ० १२३३
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[86]
दूरल्लकूविए दूरीयकूपिका- भृगृकच्छहरण्यां
ग्रामविशेषः आव० ६६४
[Type text]
दूरालय दूरे सर्वहेयधम्र्मेभ्य इत्यालयो दूरालयः मोक्षः ।
आचा० १६९ |
दूरुल्लकूविया दूरीयकूपिका- भृगुकच्छहरण्यां ग्रामविशेषः आव० ६६५%
दूरुव- दूरूपं विरूपम् । भग० ४७०।
दूर्वा हरितविशेषः आचा० २८५
दूसं वस्त्रम् आचा० ३४७ भग० ७९१ दूष्यं वस्त्रजातिः । जीवा० २८०॥ वत्थं । निशी. १९८
दूसणा- दूषणा-आम्लरसता । बृह० १९४आ । दूसएणयं - दूष्यपञ्चकम् । आव ०६५२ ।
दूसमसमा दुःषमदुः षमः एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः
कालः । भग० २७६।
दूसमसूसमं- दुष्षमसुषमा चतुर्थारकप्रतिभागः । स्था०
७७ ।
दूसमसूसमा दुःषमसुषमः। भगः २७५
दूसमा- दुष्ठु समा दुष्षमा दुःखरूपा। स्था० २७| दुःषमःएकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः कालः । भग० २७६ |
-
दूसरनाम दुःस्वरनाम यदुदयवशात् स्वर श्रोतॄणामप्रीयते तत् । प्रज्ञा० ४७४१ दूसरयण दूष्यरत्नं- प्रधानवस्त्रम्। जम्बू. १८९ दूसहनिसड्ड- दुस्सहदत्त । मरण० । दूसि - देशी ० दूष्यं मथितं तक्रम्। प्रज्ञा० ३५९ | दूसिकादि- अच्छिमलो। निशी० १९० आ दूसियं दूषितं कलुषितम्। आक• ८४८
दूसी दूषितः नपुंसकपुरुषयोः नपुंसकस्त्रीवेदयोर्निन्दकः । बृह० ७ आ । दूसितो वेदो जस्स स दूसी भण्णति, दोस वा थीपुरिसवेदेसु रज्जति जो सो वा दूसी, दो वा
थी पुरिसवेदे सेवति जो सो दूसी, जो थीपुरिसवेदो दूसति सो वा दूसी निशी० ३१ अ
दूसेड़- दूष्यं वस्त्रजातिः । जम्बू• १२२
दृतिः- बस्तिः । भगः ८
दृतिकाराः देयडाः । प्रज्ञा० ५८००
दृप्तः- मत्तः । उत्तः २४६ ।
दृढप्रहारि- कर्मवशकारके दृष्टान्तः । बृह• ७० अ दृढमित्र:- धनमित्रसार्थवाहस्य मित्रम् बृह० ३०८ आ
* आगम-सागर-कोषः " [3]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दृषत्-शिला। उत्त०६८९। दृष्टपरमार्थसारः- दृष्टः-उपलब्धः परमार्थाय-मोक्षाय सारः प्रस्तावात्क्षान्त्यादिरूपः प्रधानोपायः परमार्थानां वा-ज्ञाना-दीनां सारः-प्रधानं येनासौ दृष्टपरमार्थसारः। उत्त५३२ दृष्टपाठी- दृष्टः-उपलब्धश्चरकसुश्रुषादिर्येन स। ओघ.
४२,७४१ दृष्टसाधर्म्यवत्-त्रिविधानुमाने तृतीयमनुमानम्। भग०
રરા दृष्टिपथप्राप्तता- चक्षुर्विषयः, चक्षुःस्पर्शः पुरुषच्छाया इत्ये-कार्थाः। जम्बू० ४४२ दृष्टिपात-नानाविद्यास्थानं शास्त्रम्। आचा० ४१९। दृष्टिरागः-अप्रशस्तपरिणामविशेषः, प्रावादुकशतानामात्मी-यात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः।
आव० ३८७ दृष्टिवाद-सज्ञाया द्वितीयो भेदः। सम०१८ दृष्टिविपर्यासिका- दृष्टेः-बुद्धेर्विपर्यासिका
दृष्टिविपर्यासिका मतिभ्रम इत्यर्थः। सम० २५ दृष्टिविपर्यासिता- दृष्टेः-बद्धेर्विपर्यासिता
दृष्टिविपर्यासिता मतिभ्रम इत्यर्थः। सम. २५) दृष्टिविपर्यासितादण्डः- मित्रादेरमित्रादिबुद्धया विनाशनम्। प्रश्न. १४३। देउल- देवकुलम्। व्यव० २०५अ। देउलदरिसणं-देवकुलदर्शनं यद्धप्रवेशे चामुण्डाप्रतिमाप्र
णमनम्। पिण्ड० १२९। देउलिअ- देवकुलपरिपालिका वेषमात्रधारिणः। ओघ.
୧୩ देउलिया-देवकुलिकाः-यक्षादीनामायतनं तत् पार्श्ववतिनो वा मठाः। बृह. २३५आ। देवकुलिका।
आव० ३१४१ देज्जं-देयं-अनाभवदवातव्यम्। विपा० ३९| देज्जा- दद्यात्-तदग्रतो ढौकयेत्। उत्त० २७२। देमो-दद्मोभवदभिमतेभ्यः। भग०४७६ देयडा-देयडाः-दृतिकाराः। प्रज्ञा० ५६। देवंधकार-तमस्कायस्य सप्तमं नाम। देवानामति तत्रोद्योता-भावेनान्धकारात्मकत्वाद् देवान्धकारम्। भग०२७०
देवंधगार- देवानामप्यन्धकारोऽसौ तच्छरीरप्रभाया अपि
तत्राभवतादिति देवान्धकारः। स्था० २१७। देव- भगवत्याः त्रयोदशशते देवप्ररुपणार्थो द्वितीय उद्देशकः। भग० ५९६। दीव्यन्ति-स्वेच्छया क्रीडन्तीति देवाः। प्रज्ञा०४३। देवाः-वैमानिकाः। भग. १३५ दैवःवैमानिकः ज्योतिष्कः। दशवै.२४९। असंयतभाषायां दृष्टान्तः। आचा० ३८९। देवशब्देन दवा देव्यश्च गृहीता। सम०६। भगवत्याः दवादशशते देवभेदविषयो नवम उद्देशकः। भग० ५५२ वैमा-निको ज्योतिष्को वा। ब्रह. २६४ । सामान्यः। अन्यो० २५। राजा। नन्दी. १५१॥ देवो गन्धिलविजये वक्षस्कारः। जम्बू. ३५७। देवः अकम्पितपिता। आव० २५५ देवई- देवकी-कुष्णवासुदेवमाता। सम० १५२। आव० १६२। देवकी-वासुदेवमाता। आव० २७२। आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां एकादशस्य तीर्थङ्करस्यप पूर्वभवनाम। सम० १५४। देवकी-वसुदेवस्य दवितीया राज्ञी। उत्त. ४८९ देवउत्ते- जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावते
आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां तीर्थ-करः। सम० १५४। देवउल- देवकुलम्। आव० १९०। देवकुलं-देवस्थानम्।
भग. २३७ देवकम्म- देवकर्म-पूर्वसाङ्गतिकदेवप्रयुक्ता क्रिया।
जीवा० १३० देवकम्मणा- देवकर्मणा-देवक्रियया देवतानभावेन शक्त्युप-घातः स्यादिति शेषः। देवश्च कार्मणं च तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकार्मणम। स्था० ३९४। देवकम्मविहि-देवकर्मविधिः-देवकृत्यप्रकारः चिन्तितमात्र-कार्यकरणरूपः। जम्ब० २१० देवकहकह- प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्बोलः- कोलाहलो देवकहकहः। जीवा. २४८१ देवकहकहते-देवप्रमोदकलकलः। स्था० २४५। देवकामा-काम्यन्ते-अभिलष्यन्त इति कामा देवानां कामाः देवकामाः-दिव्याङ्गनाङ्गस्पर्शादयः। उत्त. १८७ देवकिब्बिस-देवानां मध्ये किल्बिषाः-पापा अत एवास्पृश्या-श्चण्डालप्रायास्तेषामियं दैवकिल्बिषी। बह.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[87]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #88
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२१२आ। देवकिल्बिषभावनाजनितो दैवकिल्बिषः। देवज्जय-देवार्यः। आव. १९११ स्था० २६४।
देवड-जुगुप्सणीयः। व्यव० ४१९ आ। देवडिङ्गरः। व्यव० देवकी-वसुदेवपत्नी। सूत्र० ३०८। कृष्णमाता। प्रश्न०७३। । २३४ । परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे धनदत्तहिता। पिण्ड. १२७ | देवतमिस्से-देवतमिश्र-अन्धकारम्, तमस्कायस्याष्टमं देवकुंडि- देवकुलिका। आव० ४३२॥
नाम। भग० २७०। देवकुरा-दक्षिणेन देवकुरवः। स्था०६९। देवकुरवो नाम | देवती- देवकी-वसुदेवराज्ञी। अन्त०५ कुरवः। जम्बू० ३५४। उत्तरपूर्वरतिकरपर्वतस्योत्तरस्या- | देवदत्त-धायाः-परावर्तितदद्वारे निलयश्रेष्ठितः। पिण्ड. मीशानदेवेन्द्रस्य रामरक्षिताया अग्रमहिष्या राजधानी। | १०० अपध्यानाचरिते श्रावकोदाहरणम्। आव० ८३० जीवा० ३६५ स्था० २३१। मेरोर्जम्बूदवीपगतः दक्षिणतः देवदत्ता-रोहितनगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता। स्था० देवकुरु-नामा विदेहः। जम्बू० ३१०
५०८ रोहीतकनगरे दत्तगाथापतिसता। विपा० ८२ देवकुरु– वापीनाम। जम्बू. ३७०| देवकुरं-देवकुरुन्। चम्पानगर्यां गणिका। ज्ञाता० ९२। गृहपतिसुता,
जम्बू. ३०८1 देवकुरुः द्रहनाम। जम्बू० ३५५। देवकुरुकूटं अन्तकुद्दशास् दुःख-विपाकानां नवममध्ययनम। विपा. सौमनसवक्षस्कारपर्वते चतुर्थं कूटनाम। जम्बू. ३५३) ३५। उदायनदेवीप्रभाव-तीसत्का दासी देवकुरुविद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते तृतीय कूटः। जम्बू० सुवर्णलिकाऽपरनामा। प्रश्न. ८९। उज्ज-यिन्यां ३५५। देवकुरुः द्रहनाम। जम्बू. ३०८। नमिजिनस्य गणिका। उत्त० २१८ वीतभये प्रभावत्या दासी। उत्त. दीक्षाशिबिका। सम० १५१। देवकुरुः-कर्मभूमिविशेषः। ९६। देवदत्ता-पुरुषदवेषिणी गणिकाविशेषः। दशवै. प्रज्ञा०५०
१०८१ देवकुरुकूडे-देवकुरूनाम्ना कूटं विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते देवदारे-सिद्धायतनस्य प्रथमं दवारनाम। स्था० २३० तृतीयं कूटनाम। जम्बू. ३५५५
देवदालि- फलविशेषः। भग०८०३। देवकुरुदहे- देवकुरौ द्वितीयो महद्हः । स्था० ३२६। देवदाली-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ वृक्षविशेषः। प्रज्ञा देवकुलं-देवकुलं-दवालयः। आव० ५८१। देवकुलं
३। रोहिणी। प्रज्ञा० ३६४१ वनगयारम्। ओघ० ५३। देवक्लं-सशिखरदेवप्रासादः। | देवदालीपुप्फं- देवदालीपुष्प-रोहिणीपुष्पम्। प्रज्ञा० ३६४१ प्रश्न प्रज्ञा० २७
देवदिन्न-धनसार्थवाहपुत्रः। ज्ञाता० ८३। देवकूलिया- देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका। | देवदिन्ना-देवेन-दत्ताः-सुलसापुत्राः-देवदत्ताः। आव० जीवा० २४८५
६७६| देवकूपः- अमरकूपसदृशमतीवोंडं कूपम्। व्यव० २२४ अ। | | देवदीवो-देवद्वीपः-द्वीपविशेषः। जीवा० ३२११ देवगुत्ते- देवगुप्तः-परिव्राजकविशेषः। औप० ९१। | देवदुंदुहिसणाहो- देवदुन्दुभिसनाथः-दिव्यः शब्दविशेषः। देवच्छंदए-देवच्छन्दको देवोपवेशस्थानम्। जम्बू०७९| आव० ४८८ देवच्छन्दकः। जीवा. २३४
देवदुहुदुदुकं- देवानुकरणवचनम्। जीवा० २४८१ देवजण्णगो- देवयज्ञः। आव० ६७५
देवदूसजुयलं- देवदुष्ययुगलं-देववस्त्रयुग्मम्। जीवा० देवजसे- अन्तकृदृशानां तृतीयवर्गस्य पञ्चममध्ययनम्। २५३। जम्बू० ४२० अन्त०३
देवदेव-देवदेवः। आव. २२११ शक्रादिः। आव०७९०, २२११ देवजाणरहो- देवयानरथः। आव० ७४०।
देवपडिक्खोभे-देवप्रतिक्षोभः, परिक्षोभहेत्त्वात् देवजुती- देवानां-सुराणां द्युतिः-दीप्तिः
तमकायस्य द्वादशमं नाम। भग० २७१। शरीराभरणादिस-म्भवा। युतिर्वा
देवपलिक्खोभेति-कृष्णराजेरष्टमं नाम। स्था० ४३२१ यक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा। स्था० १४२ | देवपलिहे- कृष्णराजेः सप्तमं नाम। स्था० ४३२ देवज्जगो-देवार्यकः। आव. २००
| देवपव्वते- चतुर्थो वक्षस्कारपर्वतः। स्था० ३२६।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[88]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #89
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
देवपव्वया- पर्वतविशेषः। स्था० ८०
देवलोक-परिगृहितः। जीवा. २८४। देवफलिहे- देवपरिघः देवानां भयोत्पादकत्वात् देववरो- देववरः-देवसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा. तमकायस्य एकादशमं नाम। भग. २७१।
३७० देवभद्दो-देवभद्रः-देवे दवीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० । | देववूढा-देवानां व्यूहः सागरादिसाङ्ग्रामिकव्यूह इव यो ३७०
दुरधिगम्यत्वात् स देवव्यूहः। स्था० २१७ देवभूयं-मरणम्। स्था० ४२३।
देववूहे-देवानां दुर्भेदत्वाद व्यूह इव चक्रादिव्यूह इव देवमणि-देवमणिनामा हयानां महालक्षणतया प्रसिद्धः। | देवव्यूहः। भग० २७० जम्बू० २३७
देवशर्मा- द्रव्यपूतिनिरूपणे समिल्लपुरे यक्षपूजकः। देवमल्ले-देवानां सम्बन्धि माल्यं देवमाल्यं वल्यादि। पिण्ड० ८३॥ योगद्वारविवरणे कुलपतिः। पिण्ड० १४४। आव. २३०
देवशर्मा-आधाया-अभ्याहृतविवरणे शालिग्रामे मड़खः। देवमहाभद्दो-देवमहाभद्रः देवे दवीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। पिण्ड० ९७ जीवा० ३७०
देवसंनिवायं-देवानां संनिपातः-समागमो रमणीयत्वाद देवमहावरो- देवमहावरः देवे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। यत्र स तथा तं देवसन्निपातः-देवसमागमः। भग. १२७ जीवा० ३७०
देवसंमो-देवशर्मा ब्रह्मणविशेषः। आव० ४२८१ देवयं- देवभावो देवता सैव दैवतम्। उत्त० २८२। दैवतं- | देवसन्नती-देवसंज्ञप्तिः-देवप्रतिबोधनाद्या सा। स्था० पर-मदेवता। सूर्य. २६७।
४७४। देवयपूआ-देवतापूजा यथाभक्तिबल्यादयुपचाररूपा। देवसन्निपाते-देवसन्निपातो-देवसमवायः। स्था० २४५) दशवै० २४०
देवसमुद्दो- देवसमुद्रः। जीवा० ३२११ देवयाभिओगो-देवताभियोगः। आव०८११।
देवसम्म-जंबूद्वीपे ऐरवतक्षेत्रे अस्यामवसर्पिण्यां देवर-देवा। आव० ३४५। देवा-पतिलघुभ्राता। आव० ८२४। द्वादशः तीर्थङ्करः। सम० १५३| देवरई-साकेतपुरेशः, नदीक्षिप्तः। भक्त।
देवसिओ-दैवसिकः। आव०७७८1 देवरन्नेति-देवानामरण्यमिव बलवदयेन
देवसिणाए- देवस्नातकः-देवरेष्ठो बहूनामुपजीव्यः। सूत्र० नाशनस्थानत्वाद् यः स देवारण्यमिति। स्था० २१७५
३२६॥ देवरमणं-साहजनीनगर्यामदयानम्। विपा०६५ देवसेण- नृपतिविशेषः। भग०६८८१ स्था० ४५९। सुघोषनगरे उद्यानम्। विपा० ९५१
देवस्सुए- जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां देवराजः-आधायाः प्रामित्यदवारविवरणे कोशलाविषयये | षष्ठः तीर्थकरः। सम० १५३ कुटु-म्बी, सम्मतसाधुजननः। पिण्ड० ९८५
देवा-दिवं-आगासं तंमि जे वसंति ते। दशवै. 1 देवराय- देवराजः-इन्द्रः। आव० ५६६)
वैमानिकज्योतिष्कलक्षणाः। स्था० ४६५। ज्योतिष्कवै देवर्द्धिः-देवनामिव ऋद्धिर्देवस्य वा राज्ञ ऋद्धिः देवर्द्धिः। मानिकाः। उत्त०४३० दीव्यन्ति इति देवाः वैमानिकजम्बू० २४६।
ज्योतिष्काः। स्था० २२, १४२। दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवा देवलासुओ-देवलासुतः-सर्वकामविरक्तताविषये भवनपत्यादयः। यदि वा दीव्यन्ते स्तूयन्ते उज्जयिनी-पतिः। आव०७१४|
जगत्त्रयेणापीति अर्हन्तः। उत्त०६१६। दीव्यन्ति क्रीडां देवलोए- देवलोकः-भवनपत्याद्याश्रयरूपः। जम्बू. १२७५ कुर्वन्ति दीव्यन्ते वा स्तूयन्त वाऽऽराध्यतयेति देवाः। देवलोग-देवलोकः-देवाश्रयः। भग० ३७
भग० ५८५। वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा। स्था० देवलोगपरिग्गहिय-देवलोकः
१०४| देवाः-देवासुराः। दशवै. २२२। आराध्याः भवनपत्याद्याश्रयरूपस्तथाक्षे
क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा। भग० ५८५। त्रस्वाभाव्यतस्तद्योग्यायुर्बन्धनेन परिगृहीतो येन स | देवाइदेवा- देवान् शेषानतिक्रान्ताः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[89]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #90
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
बृह. ९३।
पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवाः देवातिदेवाः। भग० ५८५) देवुक्कलिताते-देवोत्कालिका देवलहरिः। स्था० २४५। देवाणंदे- जम्बूद्वीपे ऐरवतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां | देवेन्द्रावग्रहः-अवग्रहस्य प्रथमो भेदः। आव० १५६) चतुर्विशः तीर्थङ्करः। सम० १५४॥
आचा० १६४। देवाणंदा-देवानन्दा श्रीमहावीर-प्रथममाता। अन्त०६ | देवोववाए-जम्बूदवीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भग. ३१८, ५५७। चतुर्शदरात्रीनाम। जम्बू०४९१। त्रयो-विंशः तीर्थकरः। सम. १५४| देवानन्दा पञ्चदशी रात्रिनाम। सूर्य. १४७ निर० ३५ देशकाङ्क्षा- एकं दिगम्बरादिदर्शनमभिकाइझते प्रज्ञा. देवाणुप्पिआ-देवानुप्रिया-ऋजुस्वभावाः। जम्बू० २३२१ ६० देवान्-स्वामिनोऽनुकूलाचरणेन अनुप्रीणन्ति इति । देशकालाव्यतीतं-देशकालाव्यतीतत्वं। प्रस्तावोचितता, देवानु-प्रियाः। जम्बू. १६१|
चतुर्दशो वचनातिशयः। सम०६३। देवाणुप्पिए- देवानुप्रियाः वन्यपादाः। जम्बू० २०३। देशदर्शनावरणीयं-चक्षुचक्षुरवधिदर्शनावरणीयम्। स्था० देवाणुप्पिया-प्रियामन्त्रणम्। भग० १०१। देवानुप्रियः
___९७५ सरलस्वभावः। औप० २४१
देशमूलगुणप्रत्याख्यानम्- पञ्चाणुव्रतानि। आव० ८०४। देवातिदेवा-देवानां मध्ये अतिशयवन्तो देवाः
देशशका-देशविषया शङ्का। आव० ८१४। समाने देवाधिदेवाः-अर्हन्तः। स्था० ३०३।।
जीवत्वे कथमेको भव्योऽपरस्त्वभव्य इति शङ्का। देवानंदा-ऋषभदत्तब्राह्यणस्य भार्या। आचा०४२११ दशवै. १०१ प्रज्ञा०६० निरत्यपरनाम पञ्चदशी रात्रिनाम। जम्बू०४९२ देशिककुटी- यच्च बहुनामागंतुकानां जनानां स्थानम्। ऋषभद-त्तब्राहमणपत्नी। सम०८९। आव० १७७। देवानुपूर्वी-आनुपूर्वीविशेषः। प्रज्ञा० ४७३।
देशीभाषा-देशभेदेन वर्णावलीरूपा। ज्ञाता०४२ देवानुभावं-उत्तमवैक्रियकरणादिप्रभावम्। सम० १८ देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानंदेवामेव-देवानेव भवनवास्यादीनेव। स्था० ३८४
गुणव्रतत्रयशिक्षाव्रतचतुष्टयभेद-भिन्नम्। आव० ८०४। देवारन्ने- देवारण्यं अन्धकारम्। तमःकायस्य नवमं देस- षड्भागः। बृह. ८५आ। देशः-खण्डांशः। भग० २७८। नाम। भग० २७०
देशे-स्थाने। जम्बू० ३३९। देशः-मण्डलम्। पिण्ड० १६२ देवावासंतरा-देवावासविशेषाः। भग०४९९।
हत्थसयं। निशी. १८७ आ। एक्का-पसती दो वा तिण्णि देवाहिदेवा-देवानां इन्द्रादीनामधिका देवाः
वा पसतीतो देसो भण्णति। निशी० ११२ । देशःपूज्यत्वाद्देवाधि-देवाः। सम०४३। देवानामधिकाः नानाव्रीहिकोद्रवकङ्ग-गोधूमादिनिष्प-त्तिभाक्। आव. पारमार्थिकदेवत्वयोगाद देवा देवाधिदेवाः। भग. ५८३। ८३७। देशः-प्रदेशः। सूर्य. ९८1 देशः-लघु। आव० ६३६| देवाहिवई-देवाधिपतिः देवानां स्वामी। उत्त० ३५०| हस्तशतप्रमितं क्षेत्रम्। पिण्ड० १०५ दशः-भूभागः। देविंदामरभवणं-देवेन्द्रस्येव अमरभवनं
आव० ७७४। दिश्यतेप्रदेशापेक्षया सामानदेवेन्द्रामरभवनम्। आव० ३७२।
परिणतरूपत्वेऽपि देशापेक्षायां देवि- भगवत्याः दशमे शते चमरादयग्रमहिषीप्ररूपणार्थः असमानपरिणतिमाश्रित्य विशिष्टरूपतया विवक्ष्यतेपञ्चम उद्देशकः। भग० ४९२।
उप-दिश्यत इति देशः-त्रिभा-गचतुर्भागादिः। उत्त० देविले-देविलः ऋषिर्यः
६७२। देशः-द्रव्यदेशः। भग० ८५| भूमेर्महत्खण्डम्। भग. शीतोदकबीजहरितादिपरिभोगादेव सिद्धः। सूत्र. ९५१ ३८११ देशास्तु लघवः भागाः। जम्बू० १४४१ देवी-देविलः अरजिनमाता। आव० १६०। अरचक्रिमाता। | देसकंखा- देशकाङ्क्षा एकं दर्शनं काङ्क्षति
आव० १६१। समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणधार- | दिगम्बरदर्शनादि। दशवै. १०२। णात्। सूर्य. श अग्रमहिषी। उत्त०४५० कृताभिषेका देसकहा- लाटादिदेशसम्बन्धेन स्त्रीणां वर्णनं देशकथा। पट्टराज्ञी। जम्बू. १४| गृहिणी। उत्त०४८४
प्रश्न. १३९। देशस्य जनपदस्य कथा देशकथा। स्था०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[90]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #91
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२०९।
२०९| आव० ५८१।
वप्रकृपादि-देवकुलभवनादिविशेषश्च तस्य कथा देसकालंमि-देशकाले भिक्षावेलायां प्राप्तार्या। ओघ. देशविकल्पकथा। स्था० २०९। १५५
देसवित्थारणंतए-क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया देसकाल-देशकालः देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्यायः पूर्वादयन्यतरदि-ग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो इत्यनर्थान्तरं अभिष्टवस्त्ववाप्त्यवसरः कालः। दशवै. विष्कम्भस्तस्य प्रदेशशापेक्षया अनन्तकं ९। प्रस्तावः। ज्ञाता० १३६। देशकालः। आव. २०३। देशविस्तारानन्तकम्। स्था० ३४७। देसग्गं-देशान्तम्। ज्ञाता० १९५१
देसविरए- देशविरतः-संयतासंयतः। प्रज्ञा० ३९२ देसच्चागी- अवराहेण पडिसेवित्तेण
देसविहिकहा-देशे मगधादौ विधिः-विरचना णाणदंसणचरित्ताण किंचि धरति सा वि देसच्चागी। भोजनमणिभू-मिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र निशी. १००।
प्रथमतयेति देशविधिस्तत्कथा देशविधिकथा। स्था० देसच्छंदकहा-देशे छन्दो-गम्यागम्यविभागः तस्य कथा देशच्छन्दकथा। स्था० २१०|
देससंका- देशशङ्का तु किं विद्यन्ते अप्कायादयो जीवाः देसजई-देशयतिः श्रवाकः। आतु०|
?| आचा०४३ देसण्णाणे-देशज्ञानं-विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न देससामंतोवणिवाइया-देशसामन्तोपनिपातिकी प्रेक्षकान जानाति देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्। स्था० १५४।
प्रति यत्रैकदेशेनागमो भवत्यसंयतानां सा क्रिया। आव. देसतेणो-सदेसपरदेसे वहरंतो। निशी० ३८ आ।
६१३ देसदेस-हत्थसता आरतो देसदेसो। निशी. १८७ आ। देससिणाण-देशस्न्नानं जीवा० १४०। दशभागः। ब्रह० ८५आ। देशदेशः
अधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्रक्षा-लनम्। दशवै. हस्तशतादाराद्धस्तशतमध्यदेशः। पिण्ड० १०५
११६ देसधम्मो-देशधर्मः देशाचारः। स च प्रतिनियत एव देसा-आदेशाः। सूत्र. २६७। नेपथ्यादिलिङ्गभेदः। दशवैः २२१
देसारक्खिओ-चोरोद्धरणिकः। निशी. १९५आ। देसनाणावरणिज्जे-देशज्ञानावरणीयं देशं
विषयारक्षिकः। निशी० १७६ आ। ज्ञानस्याऽऽभिनि-बोधिकादिमावृणोतीति
देसारक्खी-देशारक्षकः-महाबलाधिकृतः। बृह. ३३ अ। मत्याद्यावरणं तु घनातिच्छादितादि
देसावगसियं-देशे-दिग्व्रतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य त्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य
विभागे अवकाशः-अवस्थानमवतारो विषयो यस्य कटकूट्यादिरूपावर-णतुल्यमिति देशावरणम्। स्था० तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिकं-दिग्व्रतगृहीतस्य
दिक्परिमाणस्य प्रति-दिनं सड़क्षेपकरणलक्षणं देसनेवत्थकहा- देशे नेपथ्यं स्त्रीपुरुषाणां वेषः सर्वव्रतसक्षेपकरणलक्षणं वा। स्था० २३७। स्वाभाविको विभूषाप्रत्ययश्च तस्य कथा
दिग्व्रतग्रहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशः-अंशस्तस्मिन्नवदेशनेपथ्यकथा। स्था० २१०
काशः-गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निवृत्तम् देशबंध-द्वितीयादिषु समयेषु तान् गृह्णाति विसृजति देशावकाशिकम्। आव० ८३५१ चेत्येवं देशबन्धः । भग० ४०००
देसि- देशविशेषः। बृह. २०३ अ। देसभाए- देशभागः-विभागः। अनुत्त०६)
देसिअत्तं-देशिकत्वं-निपुणमार्गज्ञत्वम्। आव० ३८३। देसभाग-देशभागः-देशविशेषः। जीवा. १५९। देशभागाः देसिआ-दर्शिता देशिता वा। दशवे. १८०
देशविशेषाः। प्रज्ञा० ८६। देशभागाः देशा एव। औप.५।। देसिए-देशिता देशनं देशः कथनमित्यर्थः तदस्यास्तीति देसयं-देशकं प्रवर्तकम्। प्रश्न. ११५१
देशिकः। आव० ९६| देसविकप्पकहा-देशे विकल्पः-सस्यनिष्पत्तिः | देसिओ-देशिकः-निपुणमार्गज्ञः। आव० ३८४। देशिकः
९७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[91]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #92
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________________
[Type text]
अग्रयायी । आव० ७७५ |
देसिक्कदेसविर देशैकदेशविरति देश:स्थूरप्राणातिपातः एकदेशः तस्यैव यथादृश्यवनस्पतिकायाद्यतिपातयोर्विरतिः- निवृतिः ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
आव० ७८
देसितो- परदेशवासी । निशी० ३४८ अ । देसिनेवत्थं- देशीनेपथ्यम् । प्रज्ञा० ९६ । देसिय- दैवसिकं-दिवसनिर्वृत्तं प्रतिक्रमणम् । आव ० ५६३ | दैवसिकम्। उत्त० १४५१ देशिकं बृहत्क्षेत्रव्यापि ।
आचा० ३३३|
देसिल्लगं देसविशेषोद्भवम्। बृह० २४१ आ देसी - देशीत्यङ्गष्टः व्यव• २८६ अ देशविशेषः । बृह.
२२८ अ
देसे - दर्शयति । ज्ञाता० १६९ |
देसेण- विवक्षितशब्दसमूहापेक्षया देशेन देशतः
६१५ |
देसोहि— अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाश अवधिर्देशावधिः सम० १४५१
देसोही - देशावधिः सर्वजघन्यो मध्यमः । प्रज्ञा० ५३८ । देहतर - देहान्तरः देहस्यावस्थाविशेषः । आचा० १३७ । देहबलिया- देहबलिमित्येतस्याख्यानं देहबलिका ज्ञाता० २००१
कांश्चिदित्यर्थः स्था० ४७२१
देसेण सव्वं- देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं देशेन सर्वम्, देशेन स्वावयवेन सर्वतः सर्वात्मना। भग-८४म देसोवघायसमुदाणकिरिया - देशोपद्यातसमुदानक्रिया यत्र दोक्खरो- द्वयक्षरः- दासः । व्यव० ८७ आ
देशोपघातेन समुदानक्रिया क्रियते, यथा कश्चित्कस्यचिद् इन्द्रियदेशोपघातं करोतीति । आव ०
देह आहारपरिणतिजनित उपचयः अनुयो० २०१ देह:अभेदविवक्षया देही । भग० २९३ |
देहए- देहति पश्यति। सूत्र० ३३ | देहजइडसुद्धी- देहजाइयशुद्धिः श्लेष्मादिप्रहाणतः । आव ०
६६३ |
देहपलोयणा- देहप्रलोकनं आदर्शादानाचरितम् । दशवै
११७ |
देहप्परिणाम देहपरिणामः प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः ।
आचा० ५०|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
देहबलिया- देहबलिका वृत्तिविशेषः। विपा. ७४ आव०
३०४|
देहमाणी प्रेक्षमाणा । भग० ४६० |
देहलाघवं शरीरलाघवं यन्नातिकृशो जातिस्थूलः शरीरेण । व्यव० १०२ आ ।
देहव्वावी- देहव्वापी शरीरमात्रं व्याप्तुं शीलमस्येति आत्मा । दशवै० १३३ |
[92]
देहाः- पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० | देहाणिं देहीदानीम् उत्त० ३८१। देही - जीवाः । अनुयो० २४४ | दैवविनियोगः- कर्म्मव्यापारः । नन्दी० ७श दोउयरियं जलोदरिकम्। विपा. ७४
किरिता वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तवेदिनो वा वैक्रियाः कालाभेदन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिणः । स्था० ४१० |
दोकिरिया वे क्रिये शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र समये जीवोऽनुभवतीत्येवं वदन्ति ये ते क्रियाः । औप० १०६ ।
दोगच्चं दारिदुं । निशी. ८१ आ। दौर्गत्यम् । आव• ३८५ दोगुछी- जुगुप्सी। उत्तः ८६ जुगुप्सते आत्मानमाहारं विना धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशीलो जुगुप्सी उत्त
२६६|
दोगुंदगो प्रायस्त्रिंशाः । उत्त ४५१|
दोच्चं चोरातिभयं निशी. १३७ आ चौरादिभयं । बृह २२४ आ ।
दोच्चंग द्वितीयाङ्गं मात्रकः । व्यव० १७४ आ तीमनंद्रवितरसम् । ओघ १९२
दोच्चपि द्विरपि। आव० २६२२ दोच्चपिउग्गहं- केचिदाचार्या गृहस्यविषयं
द्वितीयमवग्रहमि-च्छन्ति। बृह० ८९अ।
दोच्चा- भयम् । बृह० १०९ अ । भयेन । ओघ० ५२ दोच्चासतराइंदिया- नवमी भिक्षुप्रतिमा समः २१ दोच्चोग्गहो- ततो अम्हे पुणो आगंतुं तुब्भे दोच्चं जग्गहं अणु-ण्णवेस्सामो, एसो दोच्चोग्गहो। निशी. १७० आ पुव्वं पडिहारितो दत्तो इदाणिं णिदेज्ज देहित्ति, एस दोच्चो-ग्गहो । निशी. १७७ आ
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
(Type text]
दोणमुह- दोणमुखं प्रायेण जलनिर्गमप्रवेशम्। जीवा०४०। दोस-दवेषः-अप्रीतिलक्षणः। आव० ८४८। दोषः-मालिन्यद्रोणमुखं-बाहल्येन जलनिर्गमप्रवेशम्। प्रज्ञा० ४८१ करणम्। औप०१६। दोषः रोगादिकः। सूर्य. २९७। दोषःजीवा० २७९। जलस्थलनिर्गमप्रवेशम्। आचा० २८५४ मालिन्यकारिणी चेष्टा। जीवा० २७७। द्वेषः-अप्रीतिः। जलपथ-स्थलपथोपेतम्। अनयो० १४२। द्रोण्यो-नावो आव० ५९७। अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपमप्रीतिमात्रं मुखमस्येति द्रोणमुखं-जलस्थलनिर्गमप्रवेशम्। उत्त. द्वेषः। भग० ८० दोषः गणेतरः स ६०५। द्रोणमुखं जलस्थलपथयुक्तम्। प्रश्न०६४| जलेण चातितादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः। स्था०४९२। थलेण दोसुवि मुहं दोणमुहं। निशी. २२९ अ। जलपथेन वेषः। औप० ७९। अन्यथास्थिते हि वस्त्न्य न्यथा स्थलपथेन द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति भाषणं दोषः। प्रज्ञा० २५५। दवैषे निश्चितं मत्सरिणां तद्द्वयोः पथोर्मुख-मिति निरुक्त्यत्वात् द्रोणमुखम्। गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि। स्था० ४८९। द्वेषणं बृह. १८१ । द्रोणमुखः। सूत्र० ३०९।
द्वेषः दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणजलपथस्थलपथोपेतम्। औप०७४ भग० ३६। ज्ञाता० भेदस्वभावो-Sप्रीतिमात्रम्। स्था० २६। दोषः-रागादिकः १४०१
पूर्वकृतं पापं वा द्वेषो वा। भग० १०० अप्रीतिमात्रम्। दोणमुहमारी- मारीविशेषः। भग० १९७५
ज्ञाता० ७७। दूषयति विशुद्धमप्यात्मनं विकृति नयतीति दोणमुहरूवं- भग० १९३
दोषः कर्म। उत्त० ३७३। आत्मनः परस्य वा दूषणम्। दोणमुहाति- दोणमुखानि येषां
भग० ५७२। दोषः-दोषवान्। उत्त० ३०५। दोषः-दूषणः। जलस्थलपथावभावातस्तः। स्था० ८६)
ज्ञाता० २०५१ दोणाचार्यः- आचार्यविशेषः। ज्ञाता० २५४।
दोसकलिया- द्वेषयुक्ता। जता० १६७। दोणा-द्रोणाः-चतुःसेतिकाप्रमाणः। जम्बू. २४४। द्रोणः- दोसट्टियरुवज्झाया-दोषार्तेत्तरोपाध्यायौ। आव०४६५ आढकचतुष्टयनिष्पन्नः। अनुयो० १५१।
दोसनिस्सिआ- द्वेषनिसृता, मृषाभाषाभेदः। आव० २०९। दोणि- द्रोणी नौः। प्रश्न.1
दवेषनिसृता यत्प्रतिनिविष्टस्तीर्थकरादीनामप्यवर्ण दोद्धियं-तम्बं। निशी. २९६ आ।
भाषते। प्रज्ञा० २५६। दोद्धियकं- तुम्बघटितं। निशी० १२३ अ।
दोसपउस-दोषप्रदोषाः दोषाः इहैव मनस्तापादयः दोब-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५
प्रदोषाश्च परत्र नरकगत्यादयः। उत्त. २९० दोभासिअ-वैभाषिकः। आव०६१४|
दोसमहलो- द्वेषमलिनः द्वेषाक्रान्तमूर्तिः। आव० ५८५ दोमणंसिया-दौर्मनस्यं-शोकादयस्ति यस्याः सा दोसमासकयं-द्वाभ्यां विसङ्ख्याभ्यां माषाभ्यां दौर्मनस्यिका तद्वा सञ्जातमस्या इति दौर्मनस्यिता। पञ्चरक्तिका-मानाभ्यां क्रियते-निष्पाद्यत इति स्था० ३१३॥
द्विमाषकृतम्। उत्त० २९७ दोमिलिवी- लिपिविशेषः। प्रज्ञा. १६)
दोसवत्तिया- दवेषप्रत्ययिकी, विंशतिक्रियामध्ये दोर- सूत्रदवरकम्। आव० ४७४। दवरकः। ओघ० ९२ । एकोनविंशति-तमा। आव०६१ दोला- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। प्रज्ञा० ४२
दोसा- पारलौकिका अपायाः। बृह. २०४ आ। दोवई- द्रौपदी-द्रुपदनृपस्य पुत्री। ज्ञाता० २०७। प्रज्ञा० ४०६। | दोसापुरिया- लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। दोवारिए-दौवारिकः-प्रतीहारः राजदौवारिको वा। औप. | दोसिए- दूष्यं पण्यमस्येति दौषिकः दूष्यव्यवहारी।
अनुयो० १४९। दोवारिय-दौवारिकः, प्रतीहारः। भग० ३१८१
| दोसिणं- पर्युषितम्। ओघ. १०४, २५३। दोवारिया-बारवाला। निशी. २७२ । दारे चेव णिविड्ढा दोसिणा- चन्द्रिका। प्रश्न. १६३ रक्खंति। निशी. २७१ अ।
दोसिणाति-ज्योत्सना। स्था० ८६। दोषपदः-अपराधस्थानः। उत्त. २९०
| दोसिणापक्खो- ज्योत्सनापक्षः शुक्लपक्षः। सूर्य २३४॥
१४॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[93]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
दोसिणाभा- अष्टमोत्क्षेपस्य द्वितीयमध्ययनम्। ज्ञाता० | द्रव्यगर्दा- मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेश्च २५२सूर्यस्य दवितीयाग्रमहिषी। स्था० २०४।
द्रव्यगर्हा, अप्र-धानगर्हेत्यर्थः। स्था०४३। ज्योत्सनाभा चंद्र-स्य ज्योतिषेन्द्रस्य
| द्रव्यचूडा- व्यतिरिक्ता सचिता कुर्कुटस्य अचित्ता द्वितीयाऽग्रमहिषी। जीवा० ३८४। भग० ५०५। चन्द्रस्य मुकुटस्य चूडामणिः मिश्रा मयूरस्य। आचा० ३२० दवितीयाग्रमहिषी। स्था० २०४| ज्योत्सना भा चन्द्रस्य | दव्यतीर्थता- द्रव्यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो द्वितीयाऽग्रमहिषी। जम्बू० ५३२।
भौतादिप्रवचनं वा। स्था० ३३। दोसिया- कार्यभेदविशेषः। प्रज्ञा० १६। वस्त्रवणिजः। | द्रव्यनिवृत्तिः- हलकृष्टादिनिवृत्तिः। आव० ५५३| निशी. २४४ अ। वत्थाणिविक्कया दोसिया। निशी. ४५ | द्रव्यप्रत्ययः- द्रव्यं च तत्प्रत्याय्यप्रतीतिहेतुत्वात् । दौषिकाः। व्यव० ३४० आ।
प्रत्ययश्च द्रव्यप्रत्ययः-तप्तमाषकादिः। आव० २८० दोसिल्ल-दोषयुक्तः। भक्त।
द्रव्यप्रत्युपेक्षणादोसीण- पर्युषिते। ओघ०६७। निशी० ७६ । दोषीनं- वस्त्रपात्रायुपकरणानामनशनपानाद्याहाराणां च मध्याह्नम्। ओघ० १४८। दोषान्नं रात्रिपर्युषितम्। चक्षुनिरीक्षणरूपा। स्था० ३६१। प्रश्न. १६३। पर्युषितम्। आव० २२०, ४६२।
द्रव्यप्राण-इन्द्रियादयः। प्रज्ञा०७) पर्युषितान्नम्। आव० २०११
द्रव्यमहद्-अचित्तमहास्कन्धो दण्डादिकरणेन दोसीणवेला- प्रभातवेला उषःकालः। दशवै० ३८५
यश्चतुर्भिः समयैः सकललोकमापूरयति। उत्त० २५५। दोहणं- दोहनम्। आव० २२६।
द्रव्यलेश्या- कृष्णादिद्रव्याण्येव। स्था० ३२। जीवस्य दोहणवाडगो- गोवीओ जत्थ दुज्झंति सा| निशी. १५९ शुभाशुभपरिणामरूपा। बृह० २५६ आ। ।
द्रव्यश्रुतम्-अक्षरश्रुतम्। नन्दी० १८८१ दोहल-दोहदो-मनोरथः। ज्ञाता० २५
द्रव्यसुप्ताः-निद्राप्रमादवन्तो द्रव्यस्प्ताः । आचा०१५२| दोहारच्छेयणेणं-द्वौ हारौ-भागौ यत्र छेदने द्विधा वा द्रव्यस्थानम्-आकाशम्। उत्त०४२२। कारः-करणं यत्र तद्दविहारं वा। भग० ५३५
द्रव्यानुयोग- अर्हद्वचनानुयोग तृतीयो भेदः-पूर्वाणि दौवारिकः- प्रतिहारः। उत्त० ३५४ नन्दी०७३।
सम्मत्या-दिकश्च। आचा० १। दयूतव्यसनं- यत्त्तु युतविनोदेऽनवरतं दीव्यते तत्। द्रव्यावधिमरणं- यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयः बृह. १५७ ।
कर्मद-लिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय
मरिष्यति तदा तद द्रव्यावधिमरणम। उत्त. २३२॥ १५६। ग्राममाश्रितस्तुन्दपरिभूजः। आचा० ३१४। द्रव्यावीचिमरणंद्रमिला- देशविशेषः। व्यव. २८ अ।
यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृद्रवं-पानकम्। ओघ. १०११
तिनिजनिजायुः द्रवकारिकाः- परिहासकारिकाः। ज्ञाता०४४।
कर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनाविचटनं तत्। द्रविडदेशजाः- द्रविड्यः। जम्बू०१४१|
उत्त. २३१। द्रव्यं- ओदनादिकम्। भग०६६३।
द्रव्यास्तिकः-नयविशेषः। सम०४२॥ द्रव्यकायः- द्रव्यमाश्रित्य कायः। आव०७६७।
द्रव्येन्द्रियाणि- निर्वत्त्युपकरणरूपाणि। प्रज्ञा० २३। द्रव्यकानम्-अशेषपर्याययुक्तम्। उत्त० ५५७) द्रव्योपक्रमः- द्रव्यस्य नटादेः कालान्तरभाविनाऽपि द्रव्यकेतनं- चालिनी परिपूर्णकः समुद्रो वेति। आचा० पर्यायेण सहेदानीमेवोपायविशेषतः संयोजनं, द्रव्येण १६३
घृतादिना द्रव्ये भूम्यादौ द्रव्यतः घृतादेर्वा उपक्रमः। द्रव्यक्षणः- द्रव्यात्मकोऽवसरो। आचा० १०९।
अनुयो०४५ सचेतनाद्रव्यक्षुल्लकः- परमाणुः। दशवै० १००/
चेतनमिश्रद्विपदचतुष्पदापदरूपस्य द्रव्यस्य परिकम
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[94]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
विना-शश्चेति। स्था०४१
दवारिका- कृष्णवासुदेवराजधानी। प्रश्न ८८ द्रव्यौधः-नदीपूरादिकः। आचा० १२४। सलिलप्रवेशः। द्विखुरः- चतुष्पदभेदः। सम० १३५। आचा०४३१|
द्वितीयावग्रहः- गृहस्थहस्ताद् वस्त्रं गृहीत्वा द्राक्षापानकं-पानकविशेषः। सर्य. २९३।
गुरुमूलमागम्य तेषां समर्प्य यदि ते तस्यैव प्रयच्छन्ति द्रतद्रुतगन्तृत्वं-असमाधिस्थानं दवदवः। आव०६५४| तदायत्ते भूयोऽप्यवग्रहम-नुज्ञाप्यन्त एष द्रुतचारित्वं-प्रथममसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४। द्वितीयावग्रहः। बृह० ८९ । द्रुतनामा- द्वाविंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७। विदैवतं-विशाखायाः नाम। जम्बू. ४९९। द्रुतविलम्बितं
द्विधाऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयग
रागदवेषप्रकारदवयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामष्मिकार्थं जविलसिताभिनयरूपं एकादशं नाट्यम्। जम्बू०४१६) वा। आचा. १६९। दवाविंशतितमं नाट्यम्। ४१७१
विधातश्चक्रवालं-द्वयो परस्परभिमुखदिशोर्जेयम्। द्रुतविलम्बितनामा- चतुर्विंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा० नाट्ये प्रकारः। जम्बू० ४१५५ २४७
द्विधातोवर्क- द्वयोः परस्परभिमुखदिशोः द्रुपदः- काम्पिल्यपुरपतिः द्रौपदीपिता। प्रश्न० ८७। धनुराकारश्रेण्या नर्तनम्। जम्बू० ४१५॥ द्रुपमत्रकं- उत्तराध्ययनानां दशममध्ययनम्। उत्त. द्विधावेदिका-बाणोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा। ३२०
स्था० ३६२ द्रौणं-त्रिटकसौवर्णिकगणनापेक्षया
द्विप्रभृतिरानवभ्यः-पृथक्त्वम्। आव० ३१| द्वात्रिंशत्शेरप्रमाणम्। जम्बू. २५२।
द्विपं- जलपथेन नावादि वाहनारूढं भाण्डमुपैति तत् द्रोणमुखं- जलस्थलपथावुभावपि तद्। स्था० २९४। जलप-त्तनम्। बृह. १८१ आ। जलनिर्गमप्रवेशम्। राज० ११४१
द्वीपी- चित्रकः। जीवा० १८९। द्रोणमुखानि- सिन्धुवेलावलयितानि। जम्बू० १२१। दवेषझञ्झा- अनिष्टाप्राप्तौ दवेषझञ्झा। आचा० १७० द्रोणिका-नौका। भग० २१९।
द्वेषाक्रान्तमूर्तिः- द्वेषमलिनः। आव० ५८५) द्रोणी- जलपरिपूर्णा महती कुण्डिका। अनुयो० १५७। नौः। वैधाभावमापन्नः- एवमिदं न चैवमितिमतिकः। स्था० दशवै २२० उत्त० ५०९।।
१७६| द्रौपदी- द्रुपदचुलनीसुता धृष्टार्जुनकनिष्ठा। प्रश्न० ८७। | द्वैपायनः- द्वैपायनऋषिः, व्यासः। दशवै० ३६ द्वन्द्वः - कलहः। सूत्र० २३४।।
द्वेषदृष्टान्तः। व्यव० १२अ। द्वादशावतः- बारसावयं सूत्राभिधानगर्माः
द्वौ- मूलधारणौ। बृह. ९२। कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद द्वयक्षरकः- अक्षरकः, दासः। पिण्ड० ११० द्वादशावतम्। सम० २४१
दवयर्द्ध-दवितीयं द्धिमस्येति। सम०६९। दवादशाङ्ग-दवादशाङ्गानि यस्मिंस्तद। सम०५१
-x-x-x-xदवात्रिंशद्दडिका- लौकिकं त्वबद्धं श्रुतम्। उत्त. २०४। द्वारं- अर्थागमस्योपायम्। सम० ५३।
धंत-बाढम्। महाप०अचित्तस्य दवितीयो भेदः। धंतो द्वारघटना- वदनोपपत्तिः । जम्बू. २५९।
दति-याइस्। ओघ. १३३| ध्मातः-अग्निसम्पर्केण
निर्मलीकृतः, अग्निसंयोगो वा। जीवा. १९१। यस्त द्वारमुण्डकं- द्वारशिरः। जीवा० २२६। द्वारवती- द्वारिका। नन्दी. १६१।
ध्माते इत्यादौ स ध्मातः। स्था० ३३६। णिरायं। निशी दवारविधिः- दवाराणां विधानम्। आव०८६)
३२७ अ। अतिशयेन (देशी)। बृह. २९७ अ। बृह. १३ दवारस्थगनं- कपाटमाश्रित्य। आचा० ३६९।
अ। बाढम्। आव०४०७। ध्मातः- अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः। प्रज्ञा० ३६३।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[95]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
धंतधोयरुप्पट्टे-ध्मातः- अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः
४३० धौतो भूमिखरण्टिहस्तसम्मार्जनेनातिनिशितीकृतो यो | धणदेव-धनदेवः मण्डिकपुत्र पिता। आव. २५५। राजगृहे रूप्यमयः पट्टः स ध्मातधौतरूप्यपट्टः। प्रणा० ३६१। धन्यसार्थवाहपुत्रः। ज्ञाता०११५ धनदेवः-वर्द्धमानपुरे धट्ठज्जुण- युवराजविशेषः। द्रुपदचुलण्योः पुत्रः। ज्ञाता० सार्थवाहः। विपा० ८८ वणिक्विशेषः। आव० १८९। उत्त. २०७
३७९ धणंजए- धनञ्जयः-सत्योदाहरणे शौर्यपुरे श्रेष्ठी। आव० धणधन्नपमाणाइक्कमे-धनाधान्यप्रमाणातिक्रमः। ७०५। धनञ्जयः-नवम दिवसनाम। सूर्य. १४७ जम्बू० आव० ८२४, ८२८, २८५ ४९०| धनञ्जयः-उत्तराभाद्रपदगोत्रम्। जम्बू.५०० धणपती- धनपतिः विपादकशानां दवितीयश्रुतस्कन्धे धणंजयसगोत्ते- धनञ्जयसगोत्रम्। सूर्य. १५०
षष्ठमम-ध्ययनम्। विपा०८९। धणंतरी- धन्वन्तरिः-अप्रतिपतितविभङ्गः
धणपाल-धनपालः इभ्यविशेषः। आव. २८९। राजगृहे सप्तमपृथिवीनरक-गमनविषये व्यक्तिविशेषः। जीवा० धन्यसार्थवाहपुत्रः। ज्ञाता० ११५| धनपालः ४६०
कौशाम्बीनगर्या अधिपतिः। विपा० ९५१ धण-दवाविंशतीर्थंकरस्य प्रथमभिक्षादाता। सम.१५१ | धणमित्त-धनमित्रः-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते धनः-राजगृहनगरे सार्थवाहः। आव० ३७०| धनः-चक्षु- दन्तपुरनगरे वणिग्विशेषः। आव०६६६। धनमित्रःरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते चम्पायां माहेश्वरः
संवेगोदाहरणे चम्पायां सार्थवाहः। आव०७०९। सार्थवाहविशेषः। आव० ३९९। धनः-वसन्तपुरे
धनमित्रः-व्यक्तपिता। आव० २५५| धनमित्र:सार्थवाहः। आव० ३८४| धनः-पाटलिपुत्रे श्रेष्ठी। आव० । उज्जयिन्यां वणिक्। उत्त० ८७। दंतपुरे सत्थवाहो। ९३॥ धनं-सुवर्णादि। आव० २०८, ६६२। धनं-ग्डशर्करादि, निशी० १२८ । गोमहिष्यजाविकाकरभ-तुरगादि वा। आव० ८२६। धनं- | धणरक्खिए- राजगृहे धन्यसार्थवाहपुत्रः। ज्ञाता० ११५५ गवादि, गणिमादि वा। औप. २७। सेट्ठिविसेसो। निशी० धणवंता- कोटिसङख्यया हिरण्यं ३५१ आ। तंतुहिं समं| निशी० १३८ आ। धनं
मणिमुक्ताशिलाप्रवालर-त्नानि च गणिमादिकम्। भग० १३५। धनं-नरके दशमः
मणयश्चन्द्रकान्तायाः मुक्तामुक्तफलानि विद्रुमाणि परमाधार्मिकः। आव०६५०
रत्नानि कर्केतनादीनि ते ईदृशाः भवन्ति धनवन्तः। धणगिरी- धनगिरिः-इभ्यपुत्रः। आव०| धनगिरिः
व्यव० १७१ । तुम्बवन-सन्निवेसे गाथापतिः। उत्त० ३३३, ३२१| धणवइ-धनपतिः-वैश्रमणः। ज्ञाता० १०० धणगुत्त- धनगुप्तः-महागिरिशिष्यः। आव० ३१७। धणवई- धनपतिः-वसन्तपुरे श्रेष्ठिविशेषः। आव० ३९३।
धनगुप्तः-महागिर्याचार्याणां शिष्यः। उत्त० १६५ धनपतिः-शतद्वारनगरेऽधिपतिः। विपा० ३९। धणगुत्ता- धनगुप्ताः-प्रायश्चित्तकरणविषये आचार्याः। | धणसंताणगो- अपेहिए लूतापुडगं संबंज्झति। निशी. आव०७२४१
१८२ आ। धणगोत्र- राजगृहे धनसार्थवाहपुत्रः। ज्ञाता० ११५) धणसत्थवाहो- धनसार्थवाहः। आव० ११४| धणदत्त- दन्तपुरे सार्थवाहः। व्यव० १०७ अ। धनदत्तः- | धणसम्मो- धनशर्मा-उज्जयिन्यां धनमित्रवणिक्पत्रः। परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे कुटुम्बी। पिण्ड० १२७। उत्त०८७ आधायाः परावर्तितद्वारे तिलकवेष्ठिपुत्रः। पिण्ड. धणसिट्ठो- धनश्रेष्ठि, श्रेष्ठिविशेषः। उत्त० २८६। १००। मूलद्वारविव-रणे चन्द्राननार्यां सार्थवाहः। धणसिरी- धनश्रीः, संवेगोदाहरणे धनमित्रसार्थवाहभार्या। पिण्ड० १४४। सुंसुमायाः पिता। नन्दी० १६६। धनदत्तः आव०७०९। धनश्रीः-वसन्परे धनपतिधनवाहभगिनी। स्वयम्भूवासुदेवपूर्वभवः। आव० १६३। सम० १५३। आव० ३९३। धनदत्तभार्या। व्यव० १०७ अ। योगसंग्रहे धनदत्तः-पारिणामिक्यां बुद्धौ सुसुमायाः पिता। आव० | निरपलाभदृष्टान्ते दन्तपुरनगरे धनमित्रवणिजो
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[96]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text )
धनश्रीर्भार्या आव• ६६६। धणमित्तसत्थवाहस्स पढमा भज्जा | निशी० १२८अ ।
धणस्सेणे- धनसेन नन्दनबलदेवपूर्वनाम आव० १६३ | धणावह- धनावहः ऋषभपुरनृपतिः। विपा० ९४५ धनावहःकौशाम्ब्यां श्रेष्ठी आव० २२२२ धनावहः- राजगृहनगरे प्रधानः आव० ३५३३ धनावहः वसन्तपुरे श्रेष्ठिविशेषः ।
आव० ३९३ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
धणिउज्जालियं धणिओज्ज्वालितंअत्यर्थमुज्ज्वालितम् । जीवा० २६७
धणिओ धनिकः व्यवहारकः । बृह० ७० अ धणिट्ठा- द्वाविंशतितमो नक्षत्रः स्था० ७७ धनिष्ठाश्रविष्ठा । सूर्य. १११। जम्बू० १०६ । तृतीयं नक्षत्रम् । सूर्य० 2301
धणितं बाढम् आव• ८२०
धणिय- अत्यर्थम् । ओघ० २२७ | जीवा० २६७॥ सम० १२६ । प्रश्न० ५१ | आव० ५८४ | धनिकाः-स्वामिनः । सम० ११६ | गाढम्। प्रश्र्न० ५९। अत्यर्थम्। बृह॰ २१९आ।
गाढतरम्। बृह० २२१ अ बाढम् । आतुः । धणियतरागं- बाढम् । आव० ३९१ । बाढतरम् । आव० ७०९ । धणियबंधण गाढतरबन्धना, बद्धावस्था, निधत्तावस्था निकाचिता वा । भग० ३४|
धणु- धनुश्चतुर्हस्तम्। प्रज्ञा- ४८१ धनुः दशमः परमाधार्मिकः । सूत्र० १२४| सम० २९| धनुः- कोदण्डम्। उत्त० ३११| धनुः- शस्त्रविशेषः । आक- ६१३२ धनुः कुक्षिव
· आव०
यनिष्पन्नम्। अनुयो० १५६ | धनुः
दण्डगुणादिसमुदायः भग. २३०
हस्तचतुष्टयप्रमाणम्। जीवा० ४०। पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु दशमः । उत्तः ६१४
धणुओ- धनुष्कः- ब्रह्मदत्तस्य सेनापतिः । उत्तः ३७७ धणुक्क धनुष्कं चतुर्हस्तः। अनुयो० १५४॥ धणुग्गह- धनुर्ग्रहः । जीवा० २८४ जम्बू. १२५ धनुर्यहःवातविशेषः । बृह० २१९ अ । व्यव० १३८ अ । धणुपिट्ठ- मण्डलखण्डाकारं क्षेत्रम् । सम०७४ | धणुपुट्ठे- धनुःस्पृष्टम् । भग० २२९| धणुव्वेओ धनुर्वेदः आव० ४२२१
धणू षण्णवतिरइगुलानि धनुः । सम० ९८० जम्बू. ९४ भग० २७५ धनुः। निर० १०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
धण्ण- राजगृहीनगरे धनश्रेष्ठी । व्यव० २६ आ । धन्यःपार्श्वजिनप्रथमभिक्षादाता। आव १४७। धन्यःअनुत्तरो- पपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य
"
प्रथमाध्ययनम् । अनुत्तः स धन्यं धर्मधनलब्ध। भग. ११९| राजगृहे सार्थवाहः । ज्ञाता० ७९| चम्पानगर्या सार्थवाहः । ज्ञाता० १९३ |
धण्णकs - विमलविनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव ० १४६ |
धण्णा- धान्या-धान्यापत्राणि । जम्बू ० २४४ |
धत्त- डित्थवदव्युत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः । आव० ४७७ । धत्तरिग धार्त्तराष्ट्रकः कृष्णचरणाननो हंस एव ।
[97]
प्रश्न० 1
धनः- धनः- मूलद्वारविवरणे श्रेष्ठः। पिण्ड. १४४ चतुष्पदादि। उत्त० ३३९, ३६० हिरण्यादि। उत्त• २६१| धनकं- यद्गृहस्थस्य बहिरवस्थितगृहकुट्यादि । ओघ
५७ |
धनद- उत्तरद्वारपालनाम। जम्बू० २०९ | धनदेवः- विद्यामन्त्रद्वारविवरणं गन्धसमृद्धे नगरे भिक्षूपासकः। पिण्ड १४९)
धनप्रिया मूलद्वारविवरणे धनश्रेष्ठिपत्नी। पिण्ड १४४५ धनमित्त- धनमित्रः- सार्थवाहः (दन्तानायी) । बृह० ३०८ धनवती- आधायाः निशीथसम्भवे धनावहश्रावकपत्नी । पिण्ड० १०३ । विपा० ९५|
धनशर्म- तृषापरिषहजेता । मरण० | धन श्रेष्ठीस्नुषापरीक्षकः । व्यव० ३६ आ
धनसार्थवाहः- नामविशेषः । प्रज्ञा- ३२९
धनावहः- आधाया निशीथसम्भवे श्रावकः । पिण्ड० १०३ | धनु :- वरधनुपिता व्यक० १९८ आ धनोत्सर्गः- धनसम्पत् । स्था० १५२ |
धनोहसंचय - धनं- कनकादिद्रव्यं, तस्यौघः -२ :- समूहस्तस्य सञ्चयो - राशीकरणं धनोघसञ्चयः । उत्तः ३३९॥ धन्नंतरी धन्वन्तरी, कृष्णवासुदेववैद्यौऽभव्यः । आव ० ३४७। धन्वन्तरीः-कनकरथराज्ञोः राजवैद्यः । विपा० ७५| धन्वन्तरी-तापसभक्तः । आव० ३९१ | धन्न- धन्यः । भग० ६६२ | धन्यः- धर्मधनलब्धा । भग १२२॥ धन्यः - धनंलब्धा । प्रश्न० ११६ | धन्यः - ऋषभ
पुरस्य स्तूपकरण्डोद्याने यक्षः विपा० ९४ धन्यः- ज्ञान
"आगम- सागर- कोषः " [3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
दर्शनचारित्रधनः साध्वादिः। आव० ४०७ धान्य-व्रीहि- चारित्ररूपः। जीवा० २५६। धर्मः पर्यायो गणो विशेषश्च। कोद्रवमूदगमाषतिलगोधूमयवादि। आव० ८२६। धन्यः। प्रज्ञा० १७९| धार्म्य-न्यायः। व्यव० २०१ अ। आव०६६७। धन्यः- भद्रासार्थवाह्याः पुत्रः। अनुत्त०३
धर्मास्तिकायः। सम०६। धर्मः-धर्मास्तिकायो धान्य-चतुर्विंशतिभेदम्। दशवै. १९३१
गत्युपष्टम्भगुणः। स्था०४०| धर्म लोकधर्मम्। ओघ. धन्यःधनावहत्वात्। ज्ञाता०७६)
७२| धर्मः-श्रुतचारित्रात्मकः दुर्गतिधन्नग-धान्यकं-कस्तम्भरी। दशवै. १९३।
प्रपतज्जन्तुधारणस्वभावः। सम०४। धन्नदरा-धण्णवासणा। निशी० १४७ आ।
श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम। स्था. १८८ धर्मःधन्नपुलागं- निष्पावावल्लादीनि धान्यानि। बृह. २११ प्रक्रमाद् गृहस्थधर्मः सम्यअ।
ग्दृष्टयादिशिष्टाचारिताचारलक्षणः। उत्त० ३९१। धन्नासालिभद्दा- उपनालंदं वैभारेऽनशनिनौ। मरण। धर्मादनपेतं धन॑ एषणीयम्। उत्त०४२८१ धर्मः-विशेष धन्ना-सुरादेवगाथापतेर्भार्या। उपा० ३४॥
पादपोपगमन-रूपो मरणविशेषः। आचा. २९४| धर्मःधन्यक- शालिभद्रभगिनीपतिः। स्था० ४७४।
धारयतीति दुर्गतौ प्रपततो जीवान् धारयतिसुगतौ वा धमण-धमन-महिष्यादीनां वायपूरणादि। प्रश्न. २२१ तान् स्थापयति इति धर्मः, श्रुतचारित्र-लक्षणः। स्था० ध्मानं महिष्यादीनां वायुपूरणम्। प्रश्न० ३८भस्त्रा २१। धर्मः-विषयाभि-लाषः। स्था० ५१६। धर्मः-समाचारो ध्मातः। आचा०७४।
व्यवस्था। स्था० ५१५। धर्मः-जिनाज्ञारूपः, धमणि-धमनिः-नाडी। प्रश्न.1
चारित्रलक्षणः। स्था० २४१। धर्मः-चेतनाचेतन धमणिसंताए- धमनीसन्ततः-नाडीव्याप्तः। भग० १२६। द्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा। आचा० १५४। धर्मः ज्ञाता० ७६। धमनयः-शिरास्ताभिः सन्ततो व्याप्तो अविपरीतार्थम्। आचा० २५८१ धर्मः चारित्र-रूपः। दशवै. धमनि-सन्ततः। उत्त० ८४|
२७१। दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। दशवै. धमणी-धमनिः कोष्ठकहड्डान्तरम्। विपा० ४२१
१३। धर्मार्जनव्यापारपरः साधुर्धर्मपुरुषः। आव० २७७। धमधमंतो-धमधमायमानः। आव० १९६|
धर्मः-श्रुतधर्मादिः। दशवै २४२। श्रुतचारित्रात्मकम्। धमनं- फूत्कारणम्। दशवै. १५४१
ज्ञाता०४६। जीवपर्यायः। ज्ञाता०६९। धर्म:धमाससारे-धमासासारः। प्रज्ञा० ३६०
वस्तुस्वभावः आचारो वा। उत्त० १२८। धर्म्यधम्मंतेवासी-धर्मान्तेवासी-धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः, धर्म्यध्यानम्। आव० ५९० धर्मार्थितयोपसम्पन्नो वा। स्था० २४२। अन्ते-समीपे जिनप्रणीतभावश्रद्धानादिलक्षणं धर्म्यम्। आव० ५८२। वस्तुं शीलमस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी
धर्म-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कंधे नवममध्ययनम्। आव. धर्मान्तेवासी शिष्यः-इत्यर्थः। स्था० ५१६)
६५१। दसविहसमणधम्मसमणगतं। दशवै० १४॥ धर्म:धम्म-धर्मः-दर्गतौ प्रयतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति, पुण्यम्। बृह. १९८ अ। धर्मकारणं यत्तद्धर्मदनं धर्मे धर्मः पञ्चदशो जिनः, यस्मिन् गर्भगते सति जननी एव वा। स्था० ४९६। सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धे नवमदानदयादिके-ष्वधिकारेषु जाती सुधम्र्मेति तेन मध्ययनम् सम० ३१। धर्मे-अस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादौ धर्मजिनः। आव० ५०४॥ धर्मः-लोल्पतया
वा। प्रज्ञा० ५९। धर्मः-व्यवहारः। जम्बू१६७ धर्मःतद्विषयग्रहणस्वभावः। प्रश्न. १३८1 धर्मादनपेतः धर्मकथानयोगः। दशवै० ४। झाणे। भग० ९२३। धर्मःधर्म्यः-न धर्मातिक्रान्तः। उत्त० ६४। दुर्गतौ
श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च। प्रज्ञा० ३९९। प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। आव० १३४, २३६। | धम्मकहा-धर्मकथा व्याख्यानरूपा। उत्त० ५८५। धर्मस्यजीवस्य स्वभावः धर्मः। दशवै० १२६। धर्म:
श्रुतस्वरूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथा। स्था० ३४९। लोकश्रुतिः। पिण्ड० १४५। धर्मः-श्रुतचारित्रलक्षणः। भग. धर्मस्य-अहिंसादिलक्षणधर्मस्य कथा धर्मकथा९०। धर्मः-श्रुतचारित्रात्मकः। उत्त० १७। धर्मः
आख्यान-कानि। सम० ११९। धर्मकथा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[98]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
अहिंसादिधर्मप्ररूपणस्व-रूपा। अन्यो. १६)
ताभिश्च व्यवहरन्ति ये ते धर्मचिन्तकाः। अनुयो. २५१ पारत्रिककर्मविपाकदर्शनम्। ब्रह. १०३।
धम्मचिंता-धर्मा-जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्पादादयः योऽहिंसादिलक्षणं सर्वज्ञप्रणीतं धर्ममनुयोगं वा कथयति स्वभा-वात्तेषां चिन्ता-अनुप्रेक्षा धर्मस्य वाएषा धर्मकथा। दशवै. ३२ धर्मप्रधाना कथा धर्म-कथा। श्रुतचरित्रात्मकस्य, सर्वज्ञभाषितस्य ज्ञाता० १०॥ इह परत्र सप्रपञ्चं कर्मविपाकोपदर्शनं सा हरिहरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽयमित्येवं चिन्ता धर्मकथा। बृह. १०३ । धर्मप्रधाना आख्यायिकाः धर्मचिन्ता। सम०१७। धर्मध्यानचिन्ता श्रुतधर्म-चिन्ता उत्तराध्ययनाद्यन्तर्गता आक्षेपण्यादयो वा। बृह. वा। उत्त०५४३ १०२
धम्मजस- वत्सगाचलेऽनशनी। मरण | धर्मयशःधम्मकही-क्षीराश्रवादियुतो वैराग्यकथी। बृह. ३५ आ। उत्तरगु-णप्रत्याख्याने वाराणस्यां मासक्षपकोऽनगारः। धर्मकथकः। ज्ञाता० १६९। चतुर्विधां धर्मकथां कथयन्। आव०७१६। धर्मयशाः-सत्योदाहरणे सर्वशुचिविषये क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्नतया वैराग्यजननीं धर्मकथां स्वामिलघुशिष्यः। आव०७०५। धर्मयशाःविदधाति धर्मकथी। बृह. ३५आ।
अज्ञातोदाहरणे कोशाम्ब्यामाचार्य-धर्मवसोर्लघशिष्यः। धम्मकाम-धर्मकामो-निर्जरार्थम्। दशवै० २४६। सूत्रकृता- आव० ६९९।
ङ्गस्य नवममध्ययनम्। उत्त० ६१४। सम० १५३। धम्मजागरिय-धर्मजागरिका। भग० १२६। धम्मकाय-धर्मकायः। दशवै. १६१।।
धम्मजीवी-धर्मजीवी संयमैकजीवी। दशवै० २०३। धम्मघोसे- धर्मघोषः महाघोषनगरे गाथापतिः। विपा. धम्मज्जियं-धर्मेण क्षान्त्यादिरूपेणार्जितं-उपार्जितं ९५ धर्मघोषः-आचार्यविशेषः। आचा० ७६। धर्मघोषः- धर्मार्जि-तम्। उत्त०६४। संवेगो-दाहरणेऽमात्यः। आव० ७०९। धर्मघोषः- धम्मज्झए- ऐरवतक्षेत्रे आगमिष्यन्त्यां उत्सर्पिण्यां सत्वोदाहरणे सर्वशुचिविषये स्वामिज्येष्ठशिष्यः। आव. पञ्चमस्ती-र्थकरः। सम० सम० १५४१ ७०५। विमलार्हतः प्रशिष्यः। अनगारविशेषः। भग० धम्मज्झयं-धर्मध्वजम्। आव २९० ५४८ आचार्यविशेषः। आव०३९३स्थविरविशेषः। धम्मट्ठ-धर्मार्थं कुशलानुबन्धिपुण्योपार्जनार्थम्। बृह. विपा० ९१। ज्ञाता०८९, १९६। धर्मघोषः-योगसङ्ग्रहे ८८आ। आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते आपत्स् दृढधर्मवान् धम्मद्वय-धर्मार्थ-तत्त्वार्थबोधतस्तेषां धर्मः अनगारविशेषः। आव०६६७। धर्मघोषः
स्यादित्येवमर्थम्। उत्त. २८७१ उत्तरगुणप्रत्याख्याने वाराणस्यां मासक्षपकोऽनगारः। धम्मण्णग-धर्मान्वगः तगरायामाचार्यशिष्यः। व्यव० आव० ७१६। धर्मघोषः-अज्ञातोदाहरणे
२५६। कोशाम्ब्यामाचार्यधर्मवस-ज्येष्ठशिष्यः। आव०६९९। धम्मणग-धर्मान्वगं सद्व्यवहारकाचार्यः। व्यव० १। धम्मघोससीसो-धर्मघोषशिष्यः। उत्त. ९२२
धम्मतित्थ-धर्म एव तीर्यते भवाम्भोधिरनेनेति तीर्थं धम्मचक्के- तक्षशिलायां धमचक्रः दर्शनशुद्धो दृष्टान्तः। धर्मती-र्थम्। उत्त० ४९८१ आचा०४१८१
धम्मत्थकामा-धर्मार्थकामाः मुमुक्षवः। दशवै० ४९२। धम्मचरणं-धर्मचरणं
आयारकहा। निशी०६५। बाह्यवेषपरिकरितप्रव्रज्याप्रतिपतिः। जीवा० ७७। धम्मत्थिकाए- तत्र जीवपदगलानां स्वत एव धर्मचरण-चरणधर्मसेवनम्। जीवा० ५५
गतिक्रियापरिण-तानां तत्स्वभावधारणाद्धर्मः, धम्मचिंतका- धर्मचिन्तका धर्मशास्त्रपाठकाः सभासदाः। अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायः-सङ्घातोऽस्तिकायः औप. ९०
धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्ति-कायः। धम्मचिंतग
सकललोकव्याप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्ययाज्ञवल्क्यप्रभृतिऋषिप्रणीतधर्मसंहिताचिन्त-यन्ति । विशेषः। अनुयो०७४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[99]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #100
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
धम्मद-धर्म-चारित्ररूपं ददातीति धर्मदेशकः। जीवा. धर्मरुचिः-सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते जितशत्रुकुमारः। २५६।
आचा० २११ धर्मरुचिः-अनगारविशेषः। ज्ञाता० १९७५ धम्मदए-धर्म-श्रुतचारित्रात्मक
आव० ३८९| धर्मरुचिः- जितशत्रुधारिण्योः पुत्रः। आव० दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधारणस्व-भावं दयते-ददातीति ३७२। धर्मरुचिः-उदयो मारणान्तिक इति विषयेऽनगारः धर्मदयः। सम०४।
यस्य कटुकं दौग्धिके मरणम्। आव०७२३। धर्मरुचिः धम्मदेवा-धर्मदेवाः-धर्मप्रधाना देवाः चारित्रवन्तः। उत्कृष्ट समितिदृष्टान्ते पारिष्ठापनिकीसमित्यपयुक्तः
स्था० ३०३। धर्मेण-श्रुतादिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा साधुविशेषः। आव०६१८ धर्मः-अस्तिकायधर्म धर्मदेवाः। भग. ५८३
श्रुतधर्मादौ वा रुचि-र्यस्य स धर्मरुचिः। प्रज्ञा० ५६। धम्मदेसए-धर्मदेशकः धर्मम् उक्तलक्षणं देशयति- धर्मघोषसूरिशिष्यः। प्रज्ञा० १९७५ कथयतीति धर्मदेशकः। सम०४॥ धर्म-श्रतचारित्रात्मकं धम्मरुक्खे- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३। देशयतीति धर्मदेशकः। भग०७
धम्मरुची-धर्मरुचिः अनगारविशेषः। विपा. ९५१ धम्मदेसगो-धर्म-चारित्ररूपं दिशतीति धर्मदेशकः। जीवा० | धम्मरुती-धर्म-श्रुतादौ रुचिर्यस्य स, यो हि धर्मास्तिकायं २५६।
श्रुतधर्म चारित्रधर्मं च जिनोक्तं श्रद्धत्ते स धर्मरुचिः। धम्मनायग-धर्मस्य-क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य स्था० ५०३३ नायकः-स्वामी यथावत्पालनाद्धर्मनायकः। सम०४। धम्मलातो- भिल्लमाले णाणकं। निशी. ३३० अ। धर्मस्य नायकः
धम्मलेसा-धर्मलेश्याः-प्रधानलेश्याः। उत्त०६६१। स्वामिनस्तद्वशीकरणात्तत्फलपरिभोगाच्च धम्मव- दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्मनायकाः। जीवा० २५६)
धर्म वेत्तीति धर्मवित्। आचा० १५४| धम्मनियत्तमईया - धर्मः-चारित्रधर्मः परिगृह्यते | धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी- धर्म एव वरं-प्रधानं तस्मात् निवृत्ता मतिर्येषां ते धर्मनिवृत्तमतः। आव. चतुरन्तहेतु-त्वाच्चतुरन्तं चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन ५३११
वर्तितुं शीलं यस्य सः धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती। धम्मपण्णत्ती- श्रुतधर्मप्ररूपणा। उपा० ३८।
जीवा० २५६। त्रयः समुद्रा-चतुर्थो हिमवान् एते चत्वारः धम्मपन्नत्ति-धर्मप्रज्ञप्तिः षड्जीवनिका। दशवै० १२ अन्ताः-पर्यन्ता-स्तेषु स्वा-मितया भवतीति चातुरन्तः धम्मपय-धर्मपदं-धर्मफलं सिद्धान्तपदम। दशवै. २४५) स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्त-चक्रवर्ती वरश्चासौ धर्मपद-क्षान्त्यादिकम्। आचा० ४३०॥
पृथिव्याः चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचाधम्मपरिसा-धर्म:-क्षायिकचारित्रादिस्तदर्जनपराः तुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः धर्मविषये पुरुषाः धर्मपुरुषाः। स्था० १९३।
वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती। सम० धम्मफल-धर्मफलं अनुत्तरज्ञानादि। दशवै० १२०| ४। त्रयः समुद्राश्चतुर्थश्चहिम-वान् एते चत्वारोऽन्ताः धम्मबार-धर्मद्वारम्। आव० ४३५)
पृथिव्यन्ताः एतेषु स्वामितया भव-तीति चातुरन्तः स धम्ममाण-ध्मायमानः भस्त्रावातेनोद्दीप्यमानः। उपा० चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती वर-श्वासौ २५
चातुरन्तचक्रवर्ती च वरचात्रन्तचक्रवर्ती-राजातिधम्ममित्त- षष्ठतीर्थंकरस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१।। शयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धम्मयाते- धर्मतया। आव०७५८१
धर्मवरचातुरन्तचक्र-वर्ती, धर्म एव धम्मरुइ-हट्ठकज्जे उदाहरणं। निशी. १०० अ।
वरमितरचक्रापेक्षया वा चतरन्तं-दानादिभेदेन धम्मरुई-धर्मः-श्रुतधर्मादिस्तेष रुचिर्यस्य स धर्मरूचिः। चतुर्विभागं चतसृणां वा उत्त. १६३। धर्मरुचिः-मालापहृतवारविवरणे संयतः। नरनारकादिगतीनामन्तकारित्वाच्च-तुरन्तं तदेव पिण्ड० १०८1 धर्मरुचिः- आषाढभूतेर्गुरुः। पिण्ड० १३७ | चातुरन्तं यच्चक्रं भवारातिच्छेदात् तेन वर्तितुं शीलं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[100]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #101
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
यस्य स धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती। भग०७
धम्मिढे- इष्टधर्मा अतिशयेन धर्मवान्। उत्त० २८५ धम्मवसू-धर्मवसुः-अज्ञातोदाहरणे कोशाम्ब्यामाचार्यः। धम्मियं-धार्मिकं धर्मानुगतम्। जीवा० २५४१ आव०६९९|
धम्मिल-धर्मिलः सुधर्मपिता। आव० २५५) धम्मवीरिये-धर्मवीर्यः-अनगारविशेषः। विपा० ९५ धम्मिल्ल-विशिष्टतपश्चरणफलवान्। सूत्र. २९९। धम्मसण्णा- धर्मश्रद्धा। जम्बू. १७०| भग० ३०८।
इहलोकफले दृष्टान्तः। जम्बू. १९७। केशहस्तः। भग. धम्मसन्ना- धर्मसंज्ञा आगमद्धिर्मिथ्यात्वम्। स्था० ४६८1 धम्मि-ल्लः इहलोकफले उदाहरणम्। आव० ८६३। ४८७
धम्मुत्तरं-धर्मोत्तरं-चारित्रधर्मोत्तरं। आव० ७८९| धम्मसद्धिओ-धर्मश्रद्धिकः(तः)। आव० ५२
धम्मोवाओ- दुर्गतौ प्रपततमात्मानं धारयतीति धर्मः, धम्मसारहि-धर्मस्य सारथिर्धर्मसारथि, यथा रथस्य तस्य उपायो-द्वादशाङ्ग प्रवचनं अथवा पूर्वाणि सारथी रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं
धर्मोपायः। आव० १३५। प्रवचनं पूर्वाणि वा। आव० १४० भगवांश्चारित्रधर्माङ्गानां संयमा-त्मप्रवचनाख्यानां सामायिका च जीवनिकायभावना वा। आव० १४०। रक्षणोपदेशार्द्धसारथिर्भवति इति धर्मसा-रथिः। सम०४ | धयप्पडागा-ध्वज एव पताका ध्वजपताका। ओघ०७४। धम्मसारही-धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धरंति-ध्रियन्ते तिष्ठन्ति। आव०६९२ धर्मसारथिः। भग०७।
धर-धरः पद्मप्रभप्रभुपिता। सम० १५०| आव० १६१| धम्मसाहण-धर्मसाधनं धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादिकम। ज्ञाता०२०८१ उत्त०५०३
धरइ-धरति-वारयति। जीवा. ३०९। ध्रियते-तिष्ठति। धम्मसीहे- चतुर्थतीर्थंकरस्य पूर्वभवनाम। सम० १५१।। दशवै. १२२ धर्मसिंहः-अनगारविशेषः। विपा० ९५। धर्मसिंहः-धर्म- धरच्छ- धराक्षम्। औप० ५५ जिनप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१। आव० १४७) धरण- नृपविशेषः। ज्ञाता० १२१। अन्तकृद्दशायां प्रथमवर्गे धम्मा- धाः -समाचाराः। बृह. १६६ | धर्माः- षष्ठममध्ययनम्। अन्त० ३। धरणः अन्तकृद्दशानां निर्जराहेतवः। स्था० ३८१। ज्ञाता० २५३।
द्वितीय-वर्गस्य षष्ठममध्ययनम्। अन्त० ३। धरणः धम्माओ भंसेज्जा-धर्माद भ्रश्येत् मिथ्यादृष्टिर्वा भवेत्। रोहीतकनगरस्य पृथ्व्यवतंसकोद्याने यक्षः। विपा० ८२। आव ७५९।
धरणः-नागकुमा-रेन्द्रः। स्था० ८४। जीवा० १७० धम्माणुजोगचिंता-धर्मार्थमनुयोगस्य-व्याख्यानस्य द्वितीयो दक्षिणनिका-येन्द्रः। भग० १५७। ब्रह्मव्रते चिन्ता धर्मानुयोगस्य वा धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता उपमा। प्रश्न. १३५। आव. २२१। धर्मानुयोगचिन्ता। ज्ञाता०६२।
नागकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। अनिक्षिप्तम्। धम्माणुराग-धर्मानुरागः-धर्मबहमानः। भग० ९०| ओघ० ११८ अपायानन्तरमवगतस्यार्थस्याविच्यत्याऽधम्मायरिए- धर्माचार्यः-प्रतिबोधकः। स्था० २४२
न्तर्महत कालं यावद्धरणम्। नन्दी. १७७ अर्थानां धम्मायरिय-धर्मः-उक्तप्ररूपणादिलक्षणः
धृतिः, परिच्छिन्नस्य श्रुतधर्मस्तत्प्र-धानाः प्रणायकत्वेनाचार्या
वस्तुनोऽविच्युतिस्मृतिवासनारूपम्। आव० १०| धरणः धर्माचार्यास्तन्मतोपदेष्टारः। स्था० ४१०
दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्रः। स्था० २०५१ धम्मारामे- धर्म श्रुतधर्मादौ आङित्यभिव्याप्त्या रमते- धरणपरिहरणं- यत्किमप्यपकरणं सङगोपयति रतिमान् भवतीति धर्मारामः धर्म एव
प्रतिलेखति च न परिभूते। व्यव० ४५ अ। सततमानन्दहेतुतया प्रति भव-तिपाल्यतया वा आरामो धरणप्पभे- स्था०४८२।। धर्मारामः। उत्त० ९९।
धरणा- अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा। दशवै० १२५ धम्मावतेति-धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा धरणिकिलए-धरण्याः पृथिव्याः कीलक इव चारित्रस्य वादो धर्मवादः। स्था० ४९११
धरणिकीलकः। सूर्य ७८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[101]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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७०११
धरणिगोयरो-धरणीगोचरः। आव. २८७।
धर्मरुचिः- वाणारसीवास्तव्यनपः। नन्दी. १६६) धरणिधरा-त्रयोदशतीर्थंकरस्य प्रथमा शिष्या। सम. धर्माणां- श्रुतभेदानां। स्था०४४१। १५२
धर्मात्- श्रुतचारित्रलक्षणात्। स्था० १५० धरणिसिंगे- धरण्याः शृङ्गमिव धरणिशृङ्गः। सूर्य ७८।। धर्मिलः- तपः समाधौ लब्ध्यादिवाञ्छया धरणी- पृथ्वी। ओघ. १०० ज्ञाता०२५१। दवादश
अनशनादिरूप-तपःकर्ता। दशवै० २५७। तीर्थकरस्य प्रथमा शिष्या। सम० १५२
धवः- मनुष्यः। ओघ० १५०| धवः बबीजकवृक्षविशेषः। धरितो-धृतः। आव० ३१०
प्रज्ञा० ३२। भग० ८०३। धारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन धरिम- ऋणद्रव्यम्। विपा०६३। जम्बू. १९४। ज्ञाता०४०। । पुंसा वा स्त्री दधाति सर्वात्मना पुष्णाति वा तेन कारणेन सुवर्णकादि। उत्त० ४८४। आव० १८९।
निरुक्तिवशात् धव इति। व्यव० २७७ आ। धरिसिया-धर्षिता। आव०६४।
धवलगिह-धवलगृहं। जीवा. २६९। धरिसिंयामो- धर्षिताः। आव. ३१४। अपभ्राजिताः। आव० धवलगृहादि- वास्तु। आचा० १२१॥
धवलधरं-धवलगृहम्। आव० ४४७। प्रज्ञा० १११| धरिसेइ-धर्षयति-पराभवति। उत्त०६२६।
धवलपुप्फं- धवलपुष्पं कुन्दकलिका। प्रज्ञा० ९१। धरिसेहि-धर्षयति। दशवै.४१।
धवलय- पाण्डुरं श्वेतम्। ज्ञाता०१५) धरेइ-धारयति, सङ्घट्टयति। ओघ० ७९।
धवलवलयानि- तथाविधकटकानि। भग० ४६८। धरेतुं- खमिठ। निशी. ३२ अ।
धवलहर-धवलगृहं सौधम्। जम्बू. १०७। धर्म-स्वभावः बोधश्च। आव०८७ सदाचारो दशविधो वा धवला-सिता। ज्ञाता०१६२ यतिधर्मः। उत्त० ३६८1
धाइपिंडो- धात्रीपिण्डः-धात्रीवबाललालनात् लब्धपिण्डः। धर्मकथानुयोगः- अर्हद्वचनानुयोगभेदः
आव० ५३६| उत्तराध्ययनादिकः। आचा० १।
धाई-धात्री-बालकपरिपालिका। पिण्ड० १२१| धर्मकायः- भगवद्देहः। दशवै. १९९।
धाउ- धातुः गैरिकं लोहादिर्वा। प्रश्न. ३८॥ यस्मिन् धर्मघोषः- आचार्यविशेषः। सूत्र. ३८७। छर्दितदोषदृष्टान्ते धम्यमाने सुवर्णपतते स धातुः। निशी० ८६ आ। धातुःसाधः। पिण्ड० १९६।
पाषा-णधात्वादिः। उत्त०६५३। गैरिका। दशवै० १७०| धर्मध्वजः- रजोहरणम्। पिण्ड० ४।
धाउबिलं-धातुवादः स्वर्णरसादिकः-धातुसिद्धः। आव० धर्मवान्- धर्मिष्ठः। उत्त० २८५१
४३४१ धर्मसिंह- कोल्लपरे गृध्रपृष्ठकारी। संस्ता।
धाउरत्ता-साटिका। भग०११६| धर्माः- पर्यया पर्यवा वा भेदाः
धाऊ-धारकत्वात्पोषकत्वाच्च धातुत्वम्। सूत्र. २६। बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकाराः। स्था० ३४८१ पर्यवाः धाडणी- ध्राडनी, नाशनी। प्रश्न.७६| गुणाः विशेषाः। भग०८८९|
धाडिउ- वयंसो। निशी० ३०० आ। धर्मार्थकामाः- धर्मार्थं ये कामयन्ति मोक्षमिति। दशवैः धाडिए- धाटिकः-मित्रम्। बृह. १७६ अ। ९१।
धाडिओ- धाटिकः-मित्रम्। बृह. ६आ। निर्धाटितः। आव. धर्मे- कर्मणि। बृह. २४३ अ।
६६। निष्काशितः। आव० ३६९। धाटितः। आव० ९८१ धर्मोपकरणं- वर्षाकल्पादिकम्। उत्त० ५०३।
धाडिभएण-धाटीभयेन। आव०७१। धर्मोपग्रहः- दानविशेषः। प्रश्न. १३५१
धाडियंत- धाड्यमानः-प्रेर्यमानः। प्रश्न० ५९। धर्मः- परिणामः पर्यायः स्वभावः। स्था० ३७५) धाडी-धाटी। आव. २१९, ६९० धर्मकथानुयोगः- अनुयोगस्य द्वितीयो भेदः। स्था० । धोडेंति-धाटयन्ति। आव०६५०| प्रेरयन्ति ४८१
स्थानात्स्थाना-न्तरं प्रापयन्ति। सूत्र. १२५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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धाडे - धाटयन्ति। आव० १९६ ।
धाणं धाणं- सुभिक्षं विभवो वा उत्त० १४५१ धाणगा पंडरचवलगा निशी. १४४ आ धाणि धाणिः। दशवे. ८९
धातकीखण्ड: लवणसमुद्रानन्तरं द्वीपः प्रज्ञा० ३०७॥ धातगं धातं सुभिक्षम्। बृह० १५१ अ
धाताय हननाय । भग० ६८४ |
धाती- बालं धारयतीति धाती तेण बालेण धोयते धाती पीयतेत्यर्थः सो वा बालो तं धवतीति धाती, तं
पिबतीत्यर्थः। निशी. ९३ आ
धातुखोभे धातुवैषम्यम् ओघ० १३१
धातुमहिया महिया जोगजुत्ता अजुत्ता वा धम्ममाणा सवण्णादि भवति सा धातुमट्टिया निशी. ८७अ धातुव्वाओ धातुर्वादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो
द्रव्योपायः दशकै ४ण
धात्री स्वापविबोधवत्यौषधिदः । आचा० ६६ |
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
धाधाकया- शवाः कृताः, हाहारवः कृतः । उत्त० २०७ धानं परिच्छेदः । उत्त. १५७। पोषणम्। जीवा० १९ ॥ धान्यमानं सेतिकाकुड्वादि। जम्बू० २२७| सेतकादि ।
स्था० १९८
धाम- धर्मः । उत्त० ५२५ |
धाय धातं सुभिक्षम्। दशकै २२ आक• ३४१| भातनित्यतृप्तः । गृह० २३५ आ धाता दाक्षिणात्यपणपन्निकव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ९८०
धायइ- धातकी-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । लवणसमुद्रं परिक्षिप्य स्थितो पातकीवृक्षखण्डोपलक्षितो द्वीपः । अनुयो० ९०
धायइपत्तरससारो धातकीपत्ररससार धातकीपत्रासवः ॥ जीवा० ३५१
धायइस्क्ख पूर्वार्द्धं उत्तकुरुषु नीलवद्द्गिरिसमीपे धातकीनाम वृक्षः । जीवा० ३२८ भग० ८०३ | त्रयोविंशति तीर्थंकरस्य चैत्यवृक्षः । सम० १५२
धायइसंडे धातकीनां खण्डानि यस्मिन् स धातकीखण्डः, एतादृशो द्वीपविशेषः । आव० ७८८ \ ज्ञाता० २१३ | धायगत्ता - मारकता । भग० ५८१ ।
धारए धारकोऽधीतानामेषां धारणात्। भग० ११२१ धारण धारणा विधेयेषु निवर्तनलक्षणा स्था० ३३१|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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धारणाअनुभूतार्थवासनाया अविच्युतिः । जम्बू० १८२ धारणगं धमर्णम् आव० ८३२२
धारणा- यथास्वमत्यवस्थानम् । भग० ३८४ | अवगतार्थवि शेषधरणं धारणा भग- ३४४५ बलहरणाधारभूते स्थूणे । भगः २७६ अप्रच्युतिः, अविस्मृतिः । आव• ६८ अर्हद्गुणाविष्करणरूपा। आव ० ७८६ । उपभोगः । आव० ३२५ | गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदन्यस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा, वैयावृत्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणा स्था० ३१८ | अवगतार्थविशेषधरणं धारणा । आव० १० | निर्णीतार्थधरणम्। अविच्युतिः १ वासना २ स्मृतिश्च ३ नन्दी० १६८० असकृदालोचनादानेन यत्प्रायश्चित्तविशेषधारणं सा । स्था० ३०१ | गृहीतस्याविस्मरणे निर्वृतिः। निशी० २५४ आ अवगतार्थविशेषधारणं धारणा । राज० १३१ । दृढस्मृतिः । निशी० २७८ अ
धारणापरिहारो जं संगोविज्जति पडिलेहिज्जति य ण य परिभुज्जति । निशी. ८९आ। धारणाभेधावी- पूर्वाधीतयोः प्रभूतयोरपि सूत्रार्थयोश्चिरमवधारणाबुद्धिमान् । बृह० १२५ आ। धारणाया कुकुभरीउ दशवै० ९२ धारणाववहार-धारणाव्यवहारो नाम गीतार्थेन संविग्नेनाचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्चावलोक्य यस्मिन्नपराधे यत् प्रायश्चित्तमदायि तत्सर्वमन्यो दृष्ट्वा तेष्वेव द्रव्यादिषु तादृश एवापराधे तदेव प्रायश्चित ददाति एष धारणाव्यवहारः, वैयावृत्यकरस्य गच्छोपग्राहिणः स्पर्द्धकस्वामिनो वा देशदर्शनसहायस्य वा संविग्नस्योचितप्रायश्चित्तदानं धारणामेष धारणाव्यवहारः । व्यव० ५आ ।
धारणि- धारिणी जितशत्रुराज्ञी। उत्त० ११४। श्रेयांसनाथस्य प्रथमा शिष्या सम० १५1 धारणिओ धारणिकः ऋणधारकः । वृह० ७० अ धारणिज्जं लक्खणजुत्तं खंडाखंडिकरणं । निशी. २४४
आ।
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"आगम- सागर- कोषः " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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धारणी- श्वेतनृपस्य राज्ञी। राज०९। जितशत्रुराज्ञी। धारेमाणे-धारयन् स्थिरीकर्वन। भग०५४ आचा. २११ धारिणी-महासेनराज्ञी। विपा० ८२
धारोदय- गिरिनिर्झरजलं आन्तरिक्षं वा। ब्रह. १७१ अ। श्रेणिकस्य राज्ञी। ज्ञाता० १२। अदीनशत्रुराजस्य धालिया-धारिता। उत्त. १३७५ पट्टराज्ञी। विपा. ९०| बलनृपस्य राज्ञी। ज्ञाता० १२१।। धावं-धावनम्। आव० १९८१ धारा- देवछत्रधारकाः। बृह. २७३ आ। सततपातजनिता धावणं- धावनं शीघ्रमृजुगमनम्। जम्बू०५३०वेगवद्
सन्ततिः। उत्त० ३६९। धारेव धारा-क्रिया। भग० ४७१। गमनम्। ज्ञाता०२३२ दशवै० १०० शीघ्रगमनम्। धारिज्जंति-धार्यन्ते आसेव्यन्ते। उत्त०६०७)
जम्बू० २६५ धारिणि-धारिणी-अज्ञातोदाहरणे युवराजराष्ट्रवर्धनपत्नी। | धावणओ- लेखहारकः। बृह. २४८ अ। आव० ६९९|
धावनं- कल्पत्रयप्रदानम्। बृह. २६८ अ। प्रक्षालनम्। धारिणी- धनञ्जयनृपपन्ती। आव० १७७। श्रेणिकराज्ञी। आचा० २७७) अनुत्त० | वसन्तपुरे जितशत्रुराज्ञी। आव० ३७८१ वज्र- | धाविय- धावनं-अश्वकलाविशेषः। उत्त० २२३। सेनराज्ञी। आव० ११७ अन्धकवृष्णिराज्ञी। अन्त०२ | धाहं- धावनम्। उत्त.१०२। चन्द्रावतंसकराज्ञी। उत्त० ३७५। सकलगुणधारणात् धिइ-धृतिः-मानसाऽवष्टम्भलक्षणा, निश्चला। बृह. धारिणी-जितशत्रुनपपत्नी। सूर्य. २
२१९आ। मूलोत्तरगुणविषयः प्रतिदिवसमुत्सहमान विशाखभूतियुवराज-पत्नी। आव० १७२। बलदेवराज्ञी। आत्मपरिणा-मविशेषः। नन्दी० ४५ चित्तस्वास्थ्यम्। अन्त०१४। जितशत्रो राज्ञी। जम्बू. ९।
सम० ११७। संयम प्रति चित्तस्वास्थ्यम्। उत्त० २३५१ एषणासमितिदृष्टान्ते धिग्जातीयचक्रक-रगौतमपत्ती। | धृतिः-चित्तस्वास्थ्यम्। जीवा० १२३॥ आव०६१६। संवेगोदाहरणे चम्पायां मित्रप्रभ-राज्ञी। धिइदुब्बल- दुर्बलधृतयो धर्मानुष्ठानं प्रतीति। उत्त० ५५२ आव०७०९। अज्ञातोदाहरणे कोशाम्ब्यामजितसेन- धिइमई-धृतिमतिः धृतिप्रधाना मतिधृतिमतिःराज्ञी। आव०६९९। दधिवाहनराज्ञी। आव० १२३। जित- | अदैन्यम्। सम० ५८१ शत्रुराज्ञी। ओघ० १५८ शिवराज्ञो राजी। भग० ५१४॥ धिइल्लिया- शालभजिका। आव० ३४४। वृष्णिराजपत्नी। अन्त० ३१ चम्पायां कोणिकराज्ञी। धिई- मानसाऽवष्टम्भरूपा। बृह. १४ अ। धृतिः-चित्तप्रश्न. १। जितशत्रुराजपत्नी। आव० ३७२।
स्वास्थ्यमनुद्विग्नत्वम्। उत्त० ६२२। समाधानं संयमे। चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे-मथुराधिपतिजितशत्रुराज्ञी। आव० | आचा० ४३१। धृतिः- पल्योपमस्थितिका देवा। जम्बू. ३९८1 श्रावस्तिनगर्यां रुक्मिनृपस्य राज्ञी। ज्ञाता० १४०। ३०६। काम्पिल्यपुरस्य जित-शत्रो राज्ञी। ज्ञाता० १४४| | धिईकूडे-धृतिःतिगिंछिद्रहसुरी तस्याः कूटम्। जम्बू अन्धकवृष्णेर्दैवी। अन्त० २। अन्धकवृष्णेर्देवी। अन्त० ३०८1 । बलदेवस्य देवी। अन्त०१४। जियसत्तुदेवी। निशी. | धिईमई-धृतिमतिः-अदैन्यम्। प्रश्न० १४६। धृतिर्मतिः३५१ आ।
धृतिप्रधाना मतिः। योगसंग्रहे षोडशो योगः। आव. धारित्तए- धारयितुं परिग्रहे धर्तुम्। बृह० २०१ अ। દ૬૪ उवभोगो। स्था० १३८1 धर्तुं परिग्रहे। स्था० १३८॥ धिक्कार-धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धारिया-धारकाः। आव० ३५७)
धिक्कारः। स्था० ३९९। धारिवारिय-धाराप्रधानं वारि जलं येषु तानि
धिक्कारिज्जमाणी-धिक्क्रियमाणा धारावारिकाणि। भग०६१७
धिक्शब्दविषयीक्रियमाणा। ज्ञाता० २००१ धारेइ-धारयति आत्मनि लीनं धत्ते। दशवै.६८ धिग्जातीयः-नीचपुरुषः। नन्दी० १५२। आचा० १३२ धारेज्ज-धारयेत् व्यापारयेत्। भग० २२३।
धिग्वर्ण-मरुकः। दशवै० २५९। उत्त०६१। धिग्जातीयःधारेमाणीओ- धारयन्त्यः-वीजयन्त्यः। जम्बू० ८२ ब्राह्मणः। दशवै०१८४
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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५९
धिज्जाइ-धिग्जातीयः-ब्राह्मणः। आव० ६१६)
दुःखसुखकारणतया-ऽवधारय। आचा० १६० धिज्जाइओ-धिग्जातीयः। आव. २७३, ३५९।
व्रतपरिपालने स्थिरः। नन्दी० २५०। व्रतानुपालने धिग्जातिकः। आव. १८७
स्थिरः। आव. २६। धीमान् परीषहा-दयक्षोभ्यो वा। धिज्जाय-धिग्जातः-ब्राह्मणः। ओघ. २०४।
उत्त० २८५। धी:-बुद्धिस्तया राजते इति-धीरः। प्रज्ञा०५१ धिति-धृतिः-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेव नान्यथेति आव० ६१९। धीरः-बुद्धिमान् स्थिरो वा। दशवै० ११९। मन-सोऽवष्टम्भः । सूर्य २९६। चतुर्थवर्गे
धीरः-संयतः। दशवै० २२ धीरः-तीर्थकर-गणधरः। तृतीयमध्ययनम्। निर० ३७५
दशवै. ८६| धितिधरे-धृतिधरः अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य धीरपुरिस- एकान्ततो वीर्यान्तरायापगमाद धीरपुरुषः षष्ठमध्यय-नम्। अन्त०१८४
तीर्थ-करो-गणधरश्च। आव० ६१९। धितिबलिया-धृतिः वज्रकुड्यवदभेद्यं चित्तप्रणिधानं | धीरपुरिसपन्नतं-धीरपुरुषप्रज्ञप्तंतया बलिकाः-बलवन्तः। बृहः ।
तीर्थकरगणधरप्ररूपितम्। आव० ८४३। धितिम-धृतिमान् स्वस्थचित्तः। प्रश्न० ११३॥ | धीरपुरिसा- धीरेष्वेवैतेषु च ते पुरुषाः-पुरुषकारवन्तो न धितिहरे-धृतिधरः-काकन्यां गाथापतिः। अन्त० २३॥ कातरेष्विति धीरपुरुषाः। सम० १५७। धिती-धारणं-धृतिः सम्यग्दर्शने सति चारित्रावस्थानम्। | धीरा-सत्त्ववन्तः। उत्त०४०७। स्थिरा अक्षोभा वा। सूत्र० १९७। धृतिः-चित्तदायं
प्रश्न. १०७ तत्परिपालनीयत्वादहिंसाया धृतिरेव अहिंसाया धीवर- अष्टादशश्रेणिनाम। जम्बू. १९४१ अष्टादशमं नाम। प्रश्न. ९९| चित्तस्वा-स्थ्यम्। ज्ञाता० | धुंधुमारे-धुन्धुमारः संवेगोदाहरणे शिशुमारपुराधिपतिः।
आव०७०९। धिम्मरगो-धीवरः। आव०८२९।
धुअं- ध्रुवाः तथाविधपुस्तकवैशिष्टरूपस्यापरिहाणेः। धियारो-अधिकारः। आव०४२७
जम्बू. २५७ धिसरा-मत्स्यबन्धविशेषः। विपा० ८१
धुआवणं- दव्वावणं। निशी. १७६ अ। धी- धीः बुद्धिः। उत्त० २१६।
धुण-धुनीहि-विवेचय पृथक्कुरु तदुपरि ममत्वं मा धीईधणियनिप्पकंपो- धृतिरज्जबन्धनेन धनिकं-अत्यर्थं | विधत्स्वेति भावार्थः। आचा० १४४। निष्प्रकम्पः-अविचलो यः स धृतिधनिकनिष्प्रकम्पः। | धुणइ-धुनोति पातयति। दशवै० १५९। धुनातिऔप०४८
प्रस्फोटयति। ओघ० १११। धीउल्लिका- पुस्तकर्मविशेषः। ओघ. १२९। अनयो०१३ | | धुणण-धूननं-भिन्नग्रन्थेरनिवर्तिकरणेन धीउल्लिया- शालभञ्जिका। उत्त. १४९।
सम्यक्त्वावस्थानम्। आचा० २९८१ धीयते- परिच्छिदयते। प्रज्ञा० ५२७।
धुणति-धूनाति। आव० २०९। धीया- दुहिता। आव० ४२४१
धुतकम्मसे-धुतं-अपनीतं 'कम्मंसित्तिधीयार- धिक्कारः। आव. २००१ निशी. १३४ अ। निशी. कार्मग्रन्थिकपरि-भाषया सत्कर्मानेनेति धुतकर्माशः। १८६ आ। निशी० १३आ।
धुताः कर्मणोs शाभागायेन सः। उत्त० १८८ धीर- असहाओ लुद्धगो। निशी. २०० | पंडिओ धुता- धूताः संस्कारापेक्षया त्यक्ताः। प्रश्न० १०७ तवकरणसूरो वा। दशवै० १६५ धिया राजत इति धीरः, | धुत्त-धूर्तः युत्तकारः। उत्त० २४८१ अक्षोभ्यो वा। उत्त० ५५। धीरः-अनन्तज्ञानी। आव. | धुत्तिमा- धूर्तिमा। ओघ० १५८१ ८४५। अक्षोभ्यः सम्यक्सोढेति। उत्त० ४१५। धीः द्धि- | धुन्नं-धूयते रेणुवद्वायुना संसारचक्रवाले भ्राम्यते येन स्तया राजते स च तीर्थकदगणधरो वा। आचा० २०५१ तद्भूतं कर्म। सूत्र० ३२६। धून्नं-पापम्। दशवै० २२४। अक्षोम्यो। धीविराजितो वा विवेकेन
| धुय- ध्रुवं संयमः। सूत्र० १४१। धूतं-धूयतेऽष्टप्रकारं कर्मेति । धुय-ध्रुव सयम र
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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तद्भूतं-संयमानुष्ठानम्, कर्म वा। सूत्र०६९। | धुववन्नं-ध्रुवः अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं धूयरए- धुयरजस्कः । ओघ० २२६। सम०४४।
ध्रुवा। आचा. २९५ धुयसीलया- अट्ठारससीलंगसहस्सेस् सययं उज्जुत्ता। धुवसीलया-ध्रुवशीलता दशवै० १२४।
अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपा। दशवै० २३५) धुरए- धुरकः। जम्बू० ५३५)
धुवा- धूवा ध्रुवत्वात् त्रिकालभाविनी। जीवा० ९९। धुरतुण्डे- धुरि। दशवै० १०५
त्रिकाला-वस्थायित्वात् ध्रुवा। जम्बू. २७) धुवं- ध्रुवमव्यन्तं सर्वदेत्यर्थः। स्था० ३६३। ध्रुवं कर्म धुसुलिंती- दध्यादिमश्नती। पिण्ड० १५७ संसारो वा। अनुयो० ३११
धूः- चिन्ता। पिण्ड० ३६। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावः। सूत्र० ३७०| ध्रुवं- धूआ- पुत्री। जम्बू. १४९। धूता सुता। आव० १५४। आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कंधस्य षष्ठम-ध्ययनम्। धुतं- धनातीति धृतं चारित्रम्। आचा० १२२॥ प्रश्न. १४५। धूवं-आचाराङ्गस्य षष्ठमध्ययनम्। उत्त | धूमो-दोसो। निशी० ४९ अ। धूमः भोजने दोष-विशेषः। ६१६ नित्यं-संपूर्णं सर्वत्रप्रधानोपसर्जनभावेन वा। भग. १२२१ हिंग्वादिसत्को वघारः। पिण्ड० ८४| दशवै० २३५। निश्चितः अचलत्वाद ध्रुवः नित्यतरूपः। आन्तप्रान्तादाताहारद्वेषाच्चारित्रस्याभिघूमनाद् भग० ११९। ध्रुवत्वं सर्वदैवं भावान्नियतो
धूम्रदोषः। आचा० ३५१। अभिभवे। बृह. ४९ अ। त्रिकालभावित्वाद् ध्रुवः। स्था० ३३३। दढं थिरं। निशी. मनःशिलादि-सम्बन्धि। उत्त० ४१७) २४४ आ। षष्ठम-आचारप्रकल्पः । आव०६६०| ध्रुवं- चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वात् धूमः दवेषः। भग० २९२। पर्वतिथिभाविभोज्यम्। बृह. १९२ आ।
धूमइंगाल-धूमाङ्गारकं द्वेषरागौ। ओघ० १८७। धुवकडुच्छुयं-धूपकइच्छुकम्। जीवा० २३५
धूमकेउ-धूमकेतुः धूमचिह्नो धूमध्वजः नोल्कादिरूपः। धुवकम्मिओ- ध्रुवकर्मिको लोहकारादिः। ओघ० ७७। । दशवै० ९५ धुवकम्मी- लोहकारो रहकारो कुंभकारो तंतुकारो। निशी० । धूमकेऊ-धूमकेतुः अष्टात्रिंशत्तमो महाग्रहः। स्था०७९| ३६० आ। काष्ठसूत्रधारादयः। बृह. १० अ।
जम्बू०५३५ धुवगंडिया- ध्रुवगण्डिका। दशवै० १४०
धूमपलिआमं- णाम जहा खड्डं खणित्ता तत्थकारी सो धुवघडी- धूपघटी धूपघटिका। जीवा० २०६।
छब्भती तीसे खड्डाए परिपरंतेहिं अण्णाओ खड्डाओ धुवचारिणो- ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं खणित्ताओ सुतेंदुआदीणि फलाणि छुभित्ता जा सा
तदाचरितुं शीलं येषां ते ध्रुवचारिणः। आचा० १२२।। करीसग खड्डगा तत्थ अग्गी छब्भति तासिंच धुवण- ग्लानस्य धावनं प्रक्षालनम्। ओघ० ४१। धावनम्। तेंदुगखड्डाणं सो आतंकारी स खड्ड मिलिया ताहे धूमो स्था० ३३९। धुवनं धावनं
तेहिं सो तेहिं पिविसन्ता ताणि फलाणि पाथेति तेणं ते शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्ग-लानां
पच्चंति तत्थ जे अपक्का ते धुमपलियाम भण्णति। सम्यक्त्वभावसंजनमिति। आचा. २९८१
निशी० १२५आ। धुवनिग्गहो- अत्रानाचित्वात् क्वचिदपर्यवसितत्वाश्च ध्रुवं | धूमप्पभा- धूमप्रभा। प्रज्ञा० ४३। कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो धूमप्रभा- धूमाभद्रव्योपलक्षिता पृथ्वी। अन्यो० ८९। ध्रुवनिग्रहः। अनुयो० ३१॥
धूमवदि-धूमवर्ति धूमश्रेणिम्। जम्बू. १९३) धुवरासी-ध्रुवराशिः। सूर्य०४९।
धूमवण्णा-धूम्रवर्णाः पाण्ड्राः। ज्ञाता० २३१। धुवराहु- यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स | धूमाहिति-धूमायिष्यन्ते धूममुद्वमिष्यन्ति। जम्बू. ध्रुव-राहुः। सूर्य० २९०। भग० ५७६|
१६७। भग० ३०६| धुवलोअ-ध्रुवलोचः ध्रुवः प्रतिदिनभावी लोचः। बृह० २२३ | धूमिआ-धूमिका रूक्षा प्रविरला धूमाभा। अनुयो० १२११ अ। दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। निशी० ३४३। धूमिता-धूमिका महिकाभेदो वर्णतो धूमिका धूमाकारा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[106]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #107
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[Type text]
ध्रुमेत्यर्थः । स्था० ४७६ । धूमिया धूमिका रुक्षा प्रविरला धूमाभा । जीवा २८३ | धूमिका धूम्रवर्णा धूसरः । भग० १९६ ॥ धूयं धूतं सङ्गानां त्यजनं तत्प्रतिपादकं धूतम् । स्था० ४४४। धूयत इति धूतं प्राग्बद्धं कर्म । सूत्र० ३३१। धूयवाद- धूतं अष्टप्रकारकर्म्म धूननं ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादः धूतवादः । आचा० २३९ ।
धूया दोग्धि च केवलं जननीं स्तन्यार्थमिति दुहिता । उत्तः ३ दुहिता पुत्र पिण्ड १४०१
धूलि - धूलिः पाशुः । जम्बू. १६९। धूलिणायं धूलीज्ञातम् उत्त० १२८ धूली- धूलिः | ओघ० २१५ | धूली पांशुः । भग० ३०७ । धूलीजंधी- धूलिधूसरजंघः । व्यव० २५३ अ धूलीवासं धुलिवर्षः आव० ७३४
धूव धूपः दशाङ्गादिः गन्धद्रव्यसंयोगजः । जम्बू० ५१,
१४४ |
आगम - सागर-कोषः (भाग:- ३)
धूवग्गहणं धूपग्रहणं धूपभाजनम्। आव० ६८६ धूवणे आत्मवस्त्रादेर्धूपनम्, अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते दश. १९८१ धूपडिग्गहं धूपप्रतिग्रहं धूपभाजनम् । आव• ७९० धूसर- ईषद्धवलम्। आचा० २९१
धृतपूर्ण योग्यं पानम् । बृह• ५५अ धृतिः- निषधवर्षधरपर्वते षष्ठं कूटम्। स्था० ७२। तिगिंचद्रह देवताविशेषः । स्था० ७३॥ धुष्टार्जुनः- द्रुपदचुलनीसुतः द्रौपदीज्येष्ठभ्राता। प्रश्र्न॰
८७
धेज्जं - धैर्यं धुष्टता । प्रश्न० ११६ | सत्त्वम् । प्रश्न० १२१ धेज्जा- ध्येया । विपा० ४२ |
धैवए धैवतः रैवतः अभिसन्धयतेऽनुसन्धयति शेषस्वरानिति धैवतः षष्ठः स्वरः । अनुयो० १२७ | धैवते - अभिसन्धयते अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिव-शाद् धौवतः । स्था० ३९३ । धो-धो भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातितेजितः शोधितः ३५ | धौतानि शाणोत्तारेण दीप्तिमन्ति कृतानि। जम्बू॰ २४२|
जम्बू.
धोअणे- धावनं प्रक्षालनम्। आचा० ४१ धोडग धोटकः अजात्योऽश्वः । दशकै १९४
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
धोयं धौतं निर्मलम् जीवा० १६४ धौतं प्रक्षालितमलम् । प्रश्न० ८२| धौतम् । आव० ६२० धौतं प्रक्षालितम् । भग० २५४१ धौतं शोधितं तप्तं च जीवा० २६७ | धौत- भूतिखरंटितहस्तसम्मार्जनेनातिनिशितीकृतः। प्रज्ञा० २६३२ जीवा० १९१| धौतः शोधितः । जीवा० १९१| धौतः शोधितः । राज० ३३|
धोयपुत्ती भूरिभेदा दाढीयाली | निशी० ६१ अ धोया धौतानां शुद्धस्वरूपाः स्था० ४४९| धोरण- गतिचातुर्यम्। जम्बू० २६५, ५३०। चतुरत्वं गतिविषयम् । ज्ञाता० २३२ |
धोरिगिणी नटीमुख्याः । आक० ७०१ धोरुगिणि- धौरुकिनिकाः । ज्ञाता० ४१ | धोरेयसिला - धुरि वहन्ति धौरेयास्तेषामिव शीलं उत्क्षिप्तभार-वाहिता लक्षणं स्वभावो येषां ते धौरेयशीलाः । उत्त० ४०७ | धोवंति उद्वर्त्तयन्ती आव० ३४९१ धोवण धावनं वस्त्राद्युपकरणचर्मकोश कटाहादिभण्डकविष-यम्। आचा० ४२। धावितं फोडितं निशी० १२८ आ धोव्वाण सर्वेषां प्रक्षालनविधीनाम्। जम्बू. २५त ध्यातं भस्मीकृतम्। प्रज्ञा० ११२ दग्धम् । प्रजा० २ ध्यानशतकं ध्यानव्यासार्थप्ररूपकं शास्त्रम् आक पट ध्यामकं - गन्धद्रव्यविशेषः । उत्त० १४२ | ध्यामतेजाः - भ्रष्टतेजाः । भग० ६८४ | ध्यामलं- अस्पष्टम् । आव ०७२५ | ध्रुवः- य एकास्पदप्रतिबद्धः । उत्त० २८९ | ध्रुवं नित्यम् । व्यव० ३९१ अ ।
ध्रुवयं ध्रुवकं सङ्गीते रागविशेषः । उत्त० २८९॥ ध्रुववर्गणा ध्रुवानित्याः सर्वकालावस्थायिन्यः आक
३५|
ध्रुवा - ध्रुववर्गणा। आव० ३५|
ध्रुवानन्तरा प्रदेशोत्तरा आव० ३५१ ध्वजा- केतुः । जीवा० १८९ |
- X - X - x-x
न
नंगल- लाङ्गलम्, हलम् । दशवै० २१८। लाङ्गलं शीरम् । प्रश्न ८ लाङ्गलं हलम्, क्षेत्रोपक्रमणविशेषः । दशवै० ४०|
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"आगम- सागर-कोषः " [3]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नंगलिय- नाङ्गलिकः
नंदमाणग-नन्दमानकः पक्षिविशेषः। प्रश्न. ८1 गलावलम्बितसुवर्णादिमयलागलाका-रधारीभट्टविशेषः | नंदमित्ते- द्वितीयः विष्णुः। सम० १५४१ कर्षको वा। औप०७३।
नंदसिरी- नन्दश्रीः संवरोदाहरणे भद्रसेनहिता। आव. नंगलिया
७१३ गलावलम्बितसुवर्णादिमयलागलप्रतिकृतिधारिणो | नंदसेणिया- नन्दसेनिका अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य भट्टविशेषाः कर्षका वा। भग०४८१।
चतुर्थ-मध्ययनम्। अन्त०२५ नंतिक्क-नंतिक्ताः छिपाः। व्यव० ४१९ आ।
नंदा- नन्दति समृद्धो भवतीति नन्दः तस्यामन्त्रणमिदं नंद-नन्दः योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते पाटलिपुत्रस्य राजा। इह च दीर्घत्वं प्राकृत्वात्। जम्बू. १४३। नन्दति
आव०६७० नन्दो मौर्याणां वंशजातः। व्यव० २८० शीतलजिन-माता। आव. १६० नन्दा एतदभिधाना नन्दः नृपतिविशेषः। व्यव० १४० आ। नन्दः पाटलिपुत्रे शाश्वतीपुष्करिणी। जम्बू०४१७। नन्दा अन्तकृद्दशानां राजा। उत्त. १०४। नन्दः-उदायिराज्ञो मन्त्री। वृत्तं सप्तमवर्गस्य प्रथम-मध्ययनम्। अन्त०२७ नन्दा लोहा-सनम्। ज्ञाता०४३। नन्दं-मङ्गलवस्तु, वृत्तं नन्दयति समृद्धि नयतीति नन्दा, लोहासनम्। भग० ५४७। स्थूलभद्रस्वामिनः पितामारितो अहिंसायाश्चतुर्विंशतितमं नाम। प्रश्न. ९९। नन्दा नृपः। नन्दी. १६७। नन्दं वृत्तलोहासनम्। जम्बू० ४२३। संवरोदाहरणे वाराणस्यां जीर्णश्रेष्ठिनो भद्रसेनस्य नन्दिनामकं सन्निवेशम्। उत्त० ३७९। नन्दः
भार्या। आव०७१३। नन्दा पुष्करिणीविशेषः। जीवा. ब्राह्मणग्रामे उपनन्दस्य भ्राता। आव. २०१। भरतक्षेत्रे २२९। सम० १५०१ श्रेणिकस्य राज्ञी। निर०९। ज्ञाता० भावितीर्थकरस्य पूर्वभवनाम। सम० १५४। नन्दः- ११। अभय-कुमाररस्य माता। ज्ञाता०११। पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते पाटलिपुत्रे शल्लीपतिः। आव० | नंदावत्त- चतुरिन्द्रियजीवविशेषः। जीवा० ३२ प्रज्ञा० १, ४३३॥
४। नन्दावतः चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त० ६९६) नंदगोवं- नंदगोपः। व्यव. २४०
नंदी- नन्दी अतिशयेन महान्। व्यव० ३२४१ नंदिः तुष्टिः नंदण-नन्दनं भमरस्य विकर्वणा विषयकोद्देशके प्रमोदः। आचा० १४३। नन्दन्ति प्राणिनोऽनेनास्मिन् मोचानगर्यां चैत्यम्। भग० १५३। मल्लिनाथजिनस्य वेति वा नन्दिः -इदमेव प्रस्तुततमध्यनं नन्दनं नन्दि पूर्वभवनाम महा-वीरस्वामिनः पूर्वभवनाम। सम० १५१| प्रमोदो हर्षः इत्यर्थः। ज्ञानपञ्चकाभिधायकाध्ययनमपि रधाणिताधिपती। स्था० ४०६। भरतक्षेत्रे भावि सप्तमो नन्दिः। नन्दी.१। नन्दिः आविष्टलिंगः। नन्दी.१। वासुदेवः। सम०१५४१
दवादशतुर्यसङ्घाते नन्दिः। जीवा. २०७। नन्दीः नंदणं-नन्दयति आनन्दयति देवादीनिति नन्दनं
द्वादशतूर्यनिर्घोषः। प्रश्न. १५९। क्रीडा। आचा० १५९। देववनम्। जम्ब० ३६३। नन्दनः लक्षणोपेततया नंदिआवत्तं- देवविमानविशेषः। सम० ३२ नन्द्यावतः। समृद्धिजनकः। उत्त०४५१। द्वितीयवर्गे
ब्रह्मलोके देवविमानविशेषः। औप. ५२ आव. २१७। दशमममध्ययनम्। निर० १९।
नंदिए- नन्दितः समृद्धतरताम्पागतः। भग० ११९। नंदणवणं- नंदनवनं दवारवत्यां वनविशेषः। अन्त०१८ नंदिगाम- नन्दीग्रामः भगवतो वर्धमानस्वामिनः नंदनवनं मेरुसम्बन्धी उत्तमवनविशेषः। प्रश्न. १३५ पिर्मित्रस्य ग्रामः। आव. २२२॥ नंदनवनं रैवतपर्वते वनविशेषः। अन्त० ११ नंदनवनं। नंदिघोस- देवविमानविशेषः। सम०१७ तूर्यनादः। ज्ञाता० मेरो-द्वितीयवनम्। प्रश्न० ८५। रैवतकपर्वतस्य ५८। द्वादशतूर्यसङ्गातो नन्दी तस्य घोषः। उत्त. उद्यानविशेषः। निर० ३९। नन्दन्ति
३०५ नन्दीघोषः-द्वादशतूर्यनिनादः। जीवा. १९२ सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तन्नन्दनं वनं
नंदिघोसेण- नन्दीघोषेण द्वादशतूर्यनिनादात्मकेन यद्वा अशोकसहकारादिपादपवृन्दं च तदवनं च नन्दनवनम्। आशीर्वचनानि नान्दी जीयास्त्वमित्यादीनि तदघोषण नन्दी०४६।
बन्दिकोला-हलात्मकेन। उत्त० ३४९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[108]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #109
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
नंदिणीपिय-उपासकदशांगे नवममध्ययनम्, | नंदिसेणा-नन्दिषणा पूर्वस्यां दिशि नन्दिनीपितृना-मकस्य श्रावस्तीवास्तव्यस्य भगवता पूर्वदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य पुष्करिणी विशेषः। जीवा. बोधितस्य संलेखना-दिगतस्य
३६४। वक्तव्यतानिबन्धनान्नंदिनीपितृनामकमिति। स्था. नंदिसेन- शिष्यविशेषः। निशी० २०९ आ। ५०९।
नंदिस्सरो- नन्दिस्वरः दवादशतुर्यसङ्घातवत्स्वरो यस्य नंदिपडिग्गहि- रोधगट्ठाणगादिसु उववज्जति। निशी. स। जीवा. २०७४ १११ आ।
नंदी- प्रमोदः। आचा० १६३। नन्दी-गान्धारस्वरस्यप्रथमा नंदिपुर- नन्दिपुरं शाण्डिल्यजनपदे आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा. मूर्छना। जीवा० १९३। द्वादशतूर्यसङ्घातः। उत्त० ३०५। ५५ नन्दिपुरं मित्रराजधानी। विपा० ७९।
नन्दी-दवादशतर्यसमुदायः। भग० ४८१। नन्दीवर्द्धनः नंदिफले- नन्दिवृक्षाभिधानतरुफलानि। ज्ञाता०१० राजकुमारविशेषः, अन्तकृद्दशासु दुःखविपाकानां ज्ञातायां पञ्चदशममध्ययनम्। सम० ३६। ज्ञाता०१० षष्ठमम-ध्ययनम्। विपा० ३५ नन्दीआव० ६५३)
महेश्वरलघुशिष्यः। आव० ६८६| नन्दीः समृद्धिः। आव० नंदिमुयंगसंठिय- नन्दीमृदङ्गसंस्थितः, आवलिका ७८९। समृद्धिः-हेतुः अकृ-शताहेतुः अदीनताहेतुः बाह्यस्य त्रयोदशं संस्थानम्। जीवा. १०४।
समृद्धताहेतुर्वा। बृह. १०५आ। येनाभ्यवहृतेन तवे नंदिमुयंगो- नन्दीमृदङ्गः द्वादशविधतूर्यान्तर्गतो संजमे वा नंदति स एव नंदी येनाभ्यव-हृतेन न द्रुतं मृदङ्गः। जीवा० १०५
यंति स नंदी, समयसण्णाए वा संथरणं णंदी। निशी. नंदिय-नन्दितः समृद्धितरताम्पगतः। भग० ३१७।
२१ । नंदियावत्त- वीन्द्रियजीवविशेषः। जीवा. ३१| प्रज्ञा. नंदीभाणं- नन्दीभाजनं नन्दीपात्रम्। ओघ. २१० ४१नन्द्यावतः-नवकोणः स्वस्तिकविशेषः। प्रश्न. | नंदीभायणं-नन्दीभाजनम्। बृह० २४४ आ। महत्पात्रम्। ७०| नन्द्या-वतः। राज०८ नन्द्यावतः
निशी. १८ आ। प्रतिदिग्नवकोणः स्वस्तिक-विशेषो रुढिगम्यः। औप. | नंदीभासणं- नंदीभाषणं ज्ञानपंचकोच्चारणम्। व्यव. २३ १०
नंदीमुह- नन्दीमुखः पक्षिविशेषः। प्रश्न. ८1 नंदिरागे-समृद्धौ सत्यां रागो-हर्षो नन्दिरागः। भग. ५७३। | नंदीसर- द्वीपविशेषः नन्दी समृद्धिस्तया ईश्वरो द्वीपो नंदिराय- नृपविशेषः। ज्ञाता० २०८१
नन्दी-श्वरः। अनुयो० ९०| अष्टमो द्वीपः। सम० ९० नंदिरुक्ख-वृक्षविशेषः। भग० ८०३।
ज्ञाता० १२७। प्रश्न. ९६। इक्षुवरसम्द्रानन्तरं । नंदिवद्धण- नन्दिवर्द्धनः एषणासमितिदृष्टान्ते आचार्यः। द्वीपस्तदनन्तरं समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७। नंदीश्वरः
आव०६१६ वर्धमानस्वामिनो ज्येष्ठभ्राता। आचा. महेश्वरज्येष्ठशिष्यः। आव० ६८६। नन्या४२
पर्वतपुष्करिणीप्रमुखपदार्थसार्थसमुद्भूतात्यद्भूतसमुद्ध्या नंदिवद्धणा- अञ्जनकपर्वते पुष्करिणीविशेषः। स्था० ईश्वरः-स्फातिमान्नन्दीश्वरः। जम्बू. १६३। २३०
नंदीसरवरो- नन्दीश्वरवरः दवीपविशेषः। जीवा० ३५८१ नंदिसेण- मथुरायां श्रीदामराजसुतः। स्था० ५०८ नन्दि- ज्ञाता० १२७ आव०८१५० षेणः ग्लानवैव्यावृत्त्ये श्रद्धावान् साविशेषः। आव० नंदीस्सरवरदीव- नन्दीश्वरवरद्वीपः। आव० २१६। ६१७। पार्वापत्यः स्थविरः। आव. २०७। नन्दिषेणः नंदुत्तरे- भूतानंदनागकुमारेन्द्रस्य रथानिकाधिपतिदेवः। पारिणा-मिकीबुद्धयैदृष्टान्तः। आव० ४३०। नन्दिषेण | स्था० ३०२
। श्रेणिक-पुत्रसाधुः। आव० ४३०| श्रेणिकपुत्रः। आव०६८२ | नंदोत्तरा- अन्तकद्दशानां सप्तमवर्गस्य जम्बूद्वीपे ऐरवते अवसर्पिण्यांच र्थो जिनः। सम. तृतीयमध्ययनम्। अन्त० २५५ १५३
नइ-नदी सरित्। आव० ५८११
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[109]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
८८
नइमह- लौकीकपूजास्थाने दृष्टान्तः। आचा० ३२८॥ नक्कय-पायकाः। संस्ता०। नइयायतणे-नदयायतनानि यत्र तीर्थस्थानेष लोका निक्का- नासिका। आव० ८२० पुण्यार्थं स्नानादि कुर्वन्ति। आचा० ४११।
नक्कुडिअ- नर्कटिकः नागदन्तकः अङ्कुटिकः। जम्बू० नई-नदी गिरिनद्यादिका। प्रज्ञा० २६७।
५०| नउअंगे- चतुरशीत्या लक्षरयुतेः नयुताङ्ग,
नक्खच्चणी- नखार्चणी नखहरणिका। बृह. १०१ अ। कालमानविशेषः। अनुयो० १००। सूर्य. ९१।
नक्खत्तमासे- एकोनितनक्षत्रपर्याययोग एको नउए- चतुरशीत्या लक्षैर्नयुताङ्गः नयुतम्
नक्षत्रमासः। सूर्य. १५३। कालमानविशेषः। अनुयो० १००| सूर्य ९१। भग० २७५, | नक्खत्तसंवच्छरे- नक्षत्रसंवत्सरः। सूर्य. १६८१
पञ्चविधल-क्षणः संवत्सरः। सूर्य. १७१। नउयं- चतुरशीतिवर्षलक्षाः पूर्वाङ्गं तच्च पूर्वाङ्गेन नक्खत्तसेसे- नक्षत्रशेषः, नक्षत्रार्द्धमासः। सूर्य. २३२१ गुणितं पूर्व, पूर्वक्रमेणैकोनविंशतिवारान्
नक्खत्ता- नक्षत्राः ज्योतिष्कभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९। चतुरशीतिलक्षाहतं नयुताङ्गं तदपि
नक्षत्रमासः- नक्षत्रेषु भावो नाक्षत्रः स खलु मासः चतुरशीतिलक्षाभिर्ताडितं नयुतम्। उत्त० २७७॥ सप्तविंश-तिरहोरात्राणि सप्तषष्ठीकृतेन छेदेन नउल- नकुलः पाण्डुनृपस्य चतुर्थः पुत्रः। ज्ञाता० २०८५ । छिन्नस्याहोरात्रस्य एक-विंशतिः सप्तषष्टाः भागः। नकुलः। आव० २१७। नुकलः भुजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः। । बृह. १८६ आ। चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालो जीवा०४०
नक्षत्रमासः। स्था० ३४४। अष्टौ मुहर्तशतानि नउलगो- नकुलकः। आव० ४२११
एकोनविंशत्यधिकानि। सूर्य ९। नउला-भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६।
नख-नखरः। आचा० ३८1 नउलि- नकलीविद्याविशेषः। आव० ३१९|
नग-पर्वतः। उत्त० ३५२ जीवा० २७० नए-नयनं नयः नीयते
नगर-नकर अकरदायी लोकम्। प्रश्न. ५ कररहितम्। परिच्छिदयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः,
अनुयो० १४२। भग० ३६। नात्र करोऽस्तीति नकरम्। सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तन्येकांशग्राहको बोधः उत्त०६०५। नगरमिह सैन्यनिवासिप्रकृतयः। भग० इत्यर्थः। अनुयो० ४५। नयः न्यायः। औप० ९३। नदः- ३१८ महामणस्स संपरिग्गहो पंडियसमवाओ। दशवै. हृदः। ज्ञाता०२६। नयति अनेकांशात्मकं
१६३। नकर-नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम्। दशवै. वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयति नीयते वा १४७१ भग०६७४। तेन तस्मिंस्ततो वा नयनं वा नयः
नगरगोत्तिय-नगरप्तिकः। आव०६६७। प्रमाणप्रवृत्त्युत्तरकालभाविपरामर्शः। उत्त०६७। नयः- नगरगुप्तिकः। कोट्टपालः। प्रश्न० ३० प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयोऽभिप्रायविशेषः। सूर्य. ३६) नगरजणवय- नगरजनपदाः नगरादिलोकाः स्वयमेव नओ- नयः नयनं अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो
पचनपाचनस्वभावा वर्तन्ते यथा भ्रमराः। दशवै०७३। नियतैकधर्मा-वलम्बनेन प्रतीतौ प्रापणं नयः। उत्त. नगरथेरा- नगरे स्थापयन्ति र्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे
स्थिरी-कुर्वन्तीति स्थविराः, ये नगरे व्यवस्थाकारिणो नकराणि- नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि। आचा० २५४। बुद्धिमन्त आदेयाः प्रभविष्णवस्ते नगरस्थविराः। स्था० नकुल-च प्रलापः। उत्त०६९९| परिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४५
नगरधम्मे-नगरधर्मः नगराचारः। स्था० ५१५। नकुला- औषधविशेषः। निशी० ७६ अ।
नगरनिद्धमणं-नगरनिर्द्धमनं नगरजलनिर्गमनम। भग. नकुलोपगृह- स्त्रियाः गुह्यरक्षकं वस्त्रम्। प्रज्ञा० ४३० २००। नगरजलनिर्गम क्षालः। ज्ञाता०८१। नक्क-नासिका। प्रश्न मत्स्यविशेषः। प्रश्न.९। नगरमारी-नगरमारी मारीविशेषः। भग. १९७५
५१६॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[110]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #111
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नगररोग- नगररोगः। भग० १९७।
नमालए- नृत्तमालकः नगराणि- चतुर्गोपुरोद्भासीनि न विदयते करो येषु तानि खण्डप्रपातगुहायामधिष्ठायकदेववि-शेषः। स्था०७१। नकराणि वा कररहितानि। जम्बू. १२१।
नट्टमालय-नृत्यमाल्यम्। आव० १५१| नगिण- नग्नः कुचेलवान्। दशवै० २०६।
नट्टि-नर्तकी नाट्यम् नर्तनकारिणी च। दशवै०४०। नग्गई- नग्गतिः गन्धारजनपदेषु पुरुषपुरनृपतिः, नट्टिअं-करस्य तथा पादस्य भ्रवः शिरसः अक्ष्णः यचूतवृक्षं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। उत्त० २९९)
ओष्ठस्य च एवमादीनामङ्गानां सविकारं चलनं नग्गओ-नग्नः। आव० ३०५
नतनम्। ओघ. १७७ नग्गयमग्गो- नग्नमार्गः। तन्दु।
नट्टल्लग-नाट्यम्। ज्ञाता०९६| नग्नरुई- नाग्न्ये श्रामण्ये रुचिः-इच्छा नाग्न्यरुचिः। नटुं- नष्टं सर्वथाऽदृश्य भूतम्। जीवा० ३४५। जम्बू० ३८९। उत्त०४७९|
नहखिड्डा- नष्टक्रीडा। आव० ३९४१ नग्गेति- नग्नयति। आव० ३०५१
नहतेये- नष्टतेजाः। भग० ६८४। नग्गोधो-न्यग्रोधः एकोरुकदवीपे वृक्षविशेषः। जीवा. नहिल्लओ- नष्टः। आव० १९४। १४५
नड- नटः नाटकानां नाटयिता। अनुयो० ४६। नटः नच्च-नृत्यः नृत्यविधायी। जीवा० २८१।
नाटयिता। प्रश्न. १३७। नटः नाटकानां नाटयिता। नच्चियव्वं- नतितव्यम्। ओघ. १५७
औप० २। जीवा० २८१। तृणविशेषः। जीवा० १२३। नच्चेज्ज- पादजंघाउरुकडिउदरबाहु
नडकहा- नटकथा रम्योऽयं नटः। दशवै. ११४१ अंगुलिवदणणयणपमु-हादिविकारकरणं नृत्यम्। निशी० नडखइया- नटखादिता नटस्येव ६१ आ।
संवेगविकलधर्मकथाकर-णोपार्जितभोजनादीनां नजाणति- न जानाति-न सम्यग् विशेषतो गृह्णाति। खादितं भक्षणं यस्यां सा नटस्येव वा स्था० ३०६।
खइवसंवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाकः-स्वभावो नजुतं- चतुरशीतिर्नयुताङ्कशतसहस्राणि एकं नयुतम्। यस्यां सा। स्था० २७६। जीवा० ३४५
नडपिडयं- नटपेटकं लवालवोदाहरणे ग्रामविशेषः। आव. नजुतंग- चतुरशीतिः नयुतशतसहस्राणि एकं
७२१॥ नयुताङ्गम्। जीवा० ३४५
नडाग्नि- नडः तृणविशेषस्तत्सत्कोऽग्निः। जीवा० १२३। नज्जइ- ज्ञायते। ज्ञाता० १९२
नडिओ-नटितः। ज्ञाता० १६९। नञ्-इह दुःशब्दार्थः। स्था० १५३। सर्वनिषेधवचनोऽयं नाडिज्जए- नट्यन्ते विनट्यन्ते। प्रज्ञा. ९५ शब्दः। प्रज्ञा०४६८५
नण- नन अक्षमायां प्रयुज्यमानः शब्दः। दशवै०६३। नट्ट- गीतविरहितं नृत्यम्। बृह० ३९ आ। नृत्यविधायी | नण्णत्थ- ननु निश्चितं अत्र इहलोके नन्वत्र नान्यत्र वा। नर्तकः। अनुयो० ४६। नाट्यं नृत्यम्। स्था०४५०। भग० १७४। नाट्यं साभिनयनिरभिनयभेदभिन्नं ताण्डवम्। जम्बू. | नत्तं- नक्तं रात्रौ। सूर्य. १०४| १३७ नाट्यं नृत्यम्। विपा०४७। नृत्तं
नत्तु- नप्ता पौत्रः दौहित्रश्च। भग० ३०९। करचरणनयनादिपरिस्प-न्दविशेषलक्षणम्। आव० नत्तूण- नप्तॄणां पौत्राणाम्। निर० २०| ५२८
नत्था- नस्ते नासारज्जू। उपा०४४। नट्टक-नर्तकः यो नृत्यति स। प्रश्न. १३७
नत्थिकवादी- नास्तिकवादी-लोकायतिकः। प्रश्न० ३१। नट्टकहा- नर्तककथा रमणीयोऽयं नर्तको नवेति। दशवै. | नदइ-नदति। जीवा० २४७। ११४॥
नदिकोप्पर- नद्यास्तीरे आकुंटितकूर्पराकारं गमनं नद्या नट्टग-नर्तकः यो नृत्यति सः अकिल्लो वा। औप० २ | आ-कुण्टितकूर्पराकारं चलनं नदीकूपरम्। बृह. १६२।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[111]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #112
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नदितानि- शब्दवन्ति। जीवा० १६०
ज्ञाता० १०| कायेन प्रणमति नात्यासन्ने नातिदूरे नदी- गङ्गासिन्ध्वादिका। नन्दी० २२८नदी-सरित्।। उचिते देशे इत्यर्थः। ज्ञाता०१० नमस्यति तत्प्रवैः भग० २३७। ज्ञाता० ३६। बादरअप्कायस्थानेषु स्थानम्। शब्दैः स्तौति। सूत्र. २७४। नमस्करोति प्रज्ञा०७२।
पश्चात्प्रणिधानादियोगेन सामान्येन वा। जीवा० २५६। नदीकच्छ- नदीगहनम्। ज्ञाता०६७।
नमंसण- नमस्करणं वाचा। आव०४०६। नमस्यनं नन्दः- क्रोधहृतः। भक्त।
प्रणमनम्। भग० ११५ नन्दक- खङ्गविशेषः। सम० १५७।
नमंसणिज्ज- नमस्यनं प्रणामतः। औप.५ नन्दन- छत्राग्रनगर्या राजसन्ः। सम० १०६)
नमंसति- नमस्यति कायेन प्रणमति। निर० ३। कायेन नन्दनवनं- मेरुपर्वते वनम्। आव०४७। ज्ञाता०९१। कूट- वन्दित्वा नमस्यित्वा च। राज०४८। विशेषः। प्रश्न. ९६|
नमंसित्ता- नमस्यित्वा प्रणस्य। स्था० १०८। नन्दा- श्रेणिकस्य राजी बेन्नात्तटनगरेश्रेष्ठिनः पुत्री नमंसे- नमस्यति नमस्करोति। दशवै. २४५ अभयकु-मारस्य माता। नन्दी. १५०
नमः- पूजार्थमव्ययम्। आव० ३७९। नन्दाप्रविभक्ति-त्रयोदशनाट्यभेदः। जम्बू. ४१७ नममाणे- नममानः संयमानुष्ठानेन विनयवान्। आचा. नन्दाप्रविभक्तिचम्पाप्रविभक्त्यभिनयात्मको
२५४१ नन्दाचम्पाप्र-विभक्त्यात्मकः त्रयोदशो नाट्यविधिः। | नमयति-प्रवणयति। उत्त०६४११ जीवा० २४६।
नमस्करण- प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनम्। नन्दि-संनिवेशविशेषः। उत्त० ३८०
आव०८८८1 नन्दिघोषा- घण्टाविशेषः। भग० ७००
नमस्कारः- पञ्चमङ्गलकः। ओघ० २०३ नन्दिणीपिया- उपासकदशानां नवममध्ययनम्। उपा० नमिः- कच्छपुत्रः। आव० १४३।
नमिपव्वज्जा- उत्तराध्ययनानां नवममध्ययनम्। सम० नन्दितः- महितो हृष्टः तुष्टो वा। आव० ७५९।
६४| नन्दिवर्धनः- भगवतः वर्द्धमानस्वामिनो भ्राता। आव० नमिय- नमितः नामं ग्राहितः। जीवा० २२९, २९४१ १८३
नमिया- ज्ञातायाः दवितीयश्रतस्कंधे पञ्चमवर्गे नन्दिवर्द्धनः- राजकुमारविशेषः। स्था०५०८।
द्वाविंशतितमम-ध्यनम्। ज्ञाता० २५२। नन्दिषेणः- श्रेणिकपुत्रः। नन्दी० १६६।
नमी- नमिः द्रव्यव्यत्सर्गे विदेहजनपदे मिथिलाधिपतिः, नन्दीमृदङ्गः- एकतः सङ्कीर्णोऽन्यत्रविस्तृतो
यो वलयानि दृष्ट्वा संबद्धः। आव०७१६, ७१९। नमिः मरजविशेषः। राज०४९।
राजा योऽशनादिकमभुक्तैव सिद्धिमुपगतः। सूत्र० ९५ नन्नत्थ-नवरं केवलमिति। औप०८५
नमिः, विदेहजनपदेषु मिथिलानृपतिः, यो नपुंसकः- षण्डकः। दशवै० ११५, २१५१
निजदेवीवलयं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। नपुंसगवेए- नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः, नपुंसकस्य नमुचिः- वाराणस्यां ब्राह्मणविशेषः। उत्त० ३७६) स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेयं | नमुचिना- सेवायुपायलब्धे दृष्टान्तः। जम्बू० २६७। कर्मापि नपुंस-कवेदः। प्रज्ञा० ४६९।
नमुक्कार- नमस्कारः नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानम्। नपुंसगवेय- नपुंसकवेदको वर्द्धितकत्वादिभावेन भवति। आव० ८५२। नमस्कारः। आव० ५२४, ८००। भग०८९३
नय- नयः अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, नपू- नपूंसकत्वम्। उत्त० ३१४१
एकेनैव धर्मेण पुरस्कृतेन वस्त्वङ्गीकारः। जम्बू. ५ नभ-नभाति दीप्यतेति नभः। भग० ७७६)
अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, नयनं नमंसइ- नमस्यति कायेन प्रणमति। जम्बू. १७। सूर्य. ६) | नयः नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति नयः। स्था० ४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[112]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #113
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[Type text]
नयनं नीय-as- नास्मादस्मिन्निति वा नयः । आव ० ५४) नैगमादिः । ज्ञाता० ॥ नडु' प्रापणे अनेकविधमर्थ प्रापयन्तीति नयाः । अहव णिच्छियमत्थं णयतीति णया । निशी० १४९ आ । नीतिदर्शनम्। भग० ११४। नयः अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितिः। अनुयो० २१० अनन्तधर्माध्यासितं वस्त्वेकेन धर्मेण नयन्ति परिच्छिन्दन्तीतिज्ञानविशेषाः नयाः । आचा० ३। द्रव्यास्तिकायाः । भग० ६२
नयगई- यन्नयानां नैगमादीनां स्वस्वमतपोषणं यन्नयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापनं सा नय-गतिः, विहायोगतेरष्टमो भेदः। प्रज्ञा- ३२७
नयगती - नयगतिः, नैगमादिनयानां या गतिः सा सर्वनया अपि वा यामिच्छन्ति सा प्रज्ञा० ३२७ नयचक्रं दद्वादशविध्यादिप्रतिपादकं शास्त्रम् । उत्तः छन् नयणं- नयनं लोचनम्। प्रश्न० ८ दृष्टिः । ज्ञाता० १६२ | नयणकी नयनकीको क्षेत्रमध्यताराः राज० ९ | नयनकीका नेत्रमध्यतारा ज्ञाता० ६। नयरं नगरं अविद्यमानकरदानम्। प्रश्न० ३९ | नगर अविद्यमान करम् । औप० ७४ । नगरं करविरहितसन्निवेशः उत्त० १०७ । न विद्यते करो यस्मिन् तत् करं खादिकः । जीवा० २७९ । नरवाहिरिया नगरबाहिरिका । उत्त० २२१| नयरमंडल- नगरमंडलपुरपरिक्षेपपरिसरः । उत्त० ४९८ नयरमज्झं नगरमध्यं सन्निवेशमध्यमागः प्रश्न० ५१| नयविही- नयविधिः नैगमादिभेदः । उत्त० ५६५ | नयविधिः नैगमादिनयप्रकारः प्रजा० ५६। नयविहूणो नयविहीनः ज्ञानगमनक्रियालक्षणनयशून्यः ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
आव० ५३१|
नयाः- नयन्ति परिच्छिन्दन्ति अनेकधर्मात्मकं सवस्तु सा अनवधारणतयैकेन धम्र्मेणिति नयाः स्था० १५३। ईषन्नता । जीवा० १८२ |
नयता- सङ्ख्याविशेषः । उत्त० २७७ |
नर- पादपूरणायें निपातः । बृह. १६९ आ । नरः नरव्यञ्जनः, न भावनरः । दशवै० २५१ ।
नरए नरान कायन्ति योग्यतयाऽह्वयन्तीति नरकाः । उत्त० १८२ |
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
नरकः- नरवानकः स्थानविशेषः । ७७| नरकण्ठ:- नरकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः जीवा० २३४ नरकान्ता रुक्मिवर्षधरपर्वते चतुर्थं कुटम्। स्था० ७२, ७४ रुक्मिपर्वतनिर्गता नदी हृदविशेषः स्था० ७५% नरछाया- छायागतिभेदः । प्रज्ञा० ३२७| नरदेवानराणां मध्ये देवाः- आराध्या । क्रीडाक्रान्त्यादियुक्ता वा नराश्च ते देवाश्चेति नरदेवाः ।
भग० ५८३ |
नरय निरयाः सीमन्तकाद्या अप्रतिष्ठानावसानाः । आव० ६०० |
नरयावास- आवसन्ति येषु ते आवासाः नरकाश्र्च ते आवासाश्चेति नरकावासाः । भग० ६८ |
नरवाहण भरुयच्छे राया। बृह० २२७ आ नरवाहनः । आव० ८९|
नरवाहणिया- कार्मार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । नरिंदं- लान्तके देवविमानविशेषः । सम• २२ नरिंदकतं लान्तके देवविमानविशेषः । सम० २१ नरिंदुत्तरवडिंसगं लान्तके देवविमानविशेषः सम० २१ नर्कुटक:- नागदन्तकः, अकटकः जीवा० २०५१ नर्त्तकी - यंत्र काष्ठमयी । व्यव० १९२अ नर्म- रागोद्रेकात्प्रहासमिश्री मोहोद्दीपकः कन्दर्पः। आव ८३०|
नलः शुषिरसराकारः । स्था० ४१९| प्रतरभेदविशेषः । प्रज्ञा० २६६। तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३७। नलः- वैश्रमणज्येष्ठपुत्रः । अन्त० ५| वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ नलकूबर: देवविशेषः । उत्त० ४९५१
नलथंवा- नलस्तम्बः- अभावुकद्रव्यम् । ओघ० २२३| नलस्तम्बः वृक्षविशेषः आव० ५२१|
नलदाम- नलदामः- पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते शाखापुरे मत्कोटमारकः । आक० ४३५॥ नलदामः कुविन्दविशेषः ।
व्यव० १४० आ।
नलवणं - वनविशेषः । ओघ० १५८ ।
नलादयः सूर्यपाकरसवतीकारकाः । जम्बू० २४४
नलिए नलिक- शूलिका व्यव• ४१७ अ नलिणंगे- नलिनाङ्गः कालविशेषः सूर्य० ९१| भग०
८८८
नलिण भगवत्या एकादशशतके अष्टम उद्देशकः । भग०
[113]
-
*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
५११| नलिनः | सूर्य० ९९| नलिनम्। भग. २१०, २७५ ८८८ देवविमानविशेषः । सम० ३३॥ नलिनं -ईषद्रक्तं पद्मम् जीवा. १७७| जाता० ९६| प्रत्यकशरीरजीवात्म कवनस्पतिभेदः । प्रज्ञा० ३७| देवविमानविशेषः । सम.
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
३५|
नणिकूडा- वक्षस्कारपर्वतविशेषः । स्था० ८०| नलिणगुम्मं - देवविमानविशेषः । सम० ३५ | उत्त० ३७६। नविणतन्तु नलिनतन्तवः सूक्ष्मतन्तवः । जम्बू. १०७) गुम्म नलिनीगुल्मः विमानविशेषश्च । आव ० ६७०| द्वितीयवर्गेऽष्टममध्ययनम् । निर० १९ | नलिनं ईषद्रक्तं पद्मम् राजन्टा निगुल्मविमानं पद्मगुल्मविमानम् । उत्त० ३७६ नलिनानि ईषद्रक्तानि जम्बू० २६|
नवंग - नवाङ्गानि दवे वे श्रोत्रे नयने नासिके जिह्वैकात्वगेका मनश्चैकम् जाता० ४
नव- वरिसो होइ नवो व्रतपर्यायेण । व्यव० ११२आ । प्रत्ययम् । जाता० १६८१ जीवा० १८८० त्रिवर्षावस्थां
यावत् । व्यव० २४५|
नवकमलं आदित्यबोधं पद्मम्। प्रश्न हम
नवणीयं- नवनीतं । प्रज्ञा० ३६७ | मक्षणम् । आव० ६२४, ८५४ | जीवा० २९० | उत्त० ६५४ | नवतं नवत्यधिकम्। सूर्य० २६१।
नव-नवतानि - जीनानि । ज्ञाता० २३२ नवतयकुसंतो- नवत्वक्कुशान्तःप्रत्ययत्वग्दर्भपर्यन्तरूपः । जीवा० २१०|
नवधम्म- नवधर्म: अभिनवश्रावकः । बृह० २७९ अ नवनवकिकाया एकशीतिः व्यव० ३४७ आ नवनवमिया नवनवमिका भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्तः २९| नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका । सम० ८८८ नवमालिका- गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा. १erl गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३० | उत्त० ६९२ | आचा० ३०| भग०
३०६ |
नवमिका शकेन्दस्य सप्तमी अग्रमहिषी। भग०५०५१ सत्पुरुषस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०४|
नवय- नवत्वक्। स्था० २३४ |
नवरं केवलम् ओघ० ३४, १९७५ स्था० ५१|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
नवरि केवलम्। प्रश्न. १३३॥ नवलकं- नोलीति लोके नन्दी. १५६| नवा जत्थ गावो ऊसत्याणा लिहति सा भुज्जमाणी णिरुद्धा नवा भण्णंति। निशी. १९२आ। न विग्रह: लोकयात्रा निशी० ३२४ आ नवीन :- सम्प्रत्येवापाकतः समानीतः । नष्टक्षीरा- विनीता गौः । आव० ५४६ । नष्टनाशक :- नित्यवासी । आव० ५३५| नष्टसंसार:- विनीतसंसारः । आव० ५४६ | नस्तेः- नासिकारज्जु। भग०४५९ ।
नह- नखः नखिकाः। जम्बू० ५७ | नखः । आव० १९२
करजः । प्रश्न ० ८
नहनिवाय नखनिपातः- नखरदनजातिः, संप्राप्तकामस्याष्टमो भेदः । दशवै० १९४ | नहरणं न घेत्तव्यं । निशी० २४आ।
नहवाहणो नभोवाहनः द्रव्यप्रणिधिविषये कृशसमृद्धो भृगुक च्छनगराधिपतिः आक ७१२१ नहवेयण नखवेदना आव. १९२३
नहवेयणा नखवेदना नखरपीडा भग० १९७ नहसंठाणा- नखसंस्थाना नखावत्तीक्ष्णा ओघ० ३०१ नहसंदडो नखसंदष्ट नखाः संदष्टा
मुसलादिभिश्चुम्बिता यस्य सः जीवा० २१३३ नहसिर- नखशिरः- नखग्रम् | भग० २१८ | नही- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | नाइ - ज्ञातिः - स्वजनः । उत्त० ३६१ । ज्ञातिः - स्वजनो मातापितृपुत्रकलत्रादिः । सूत्र- ७५| ज्ञातिः स्वजनः ।
उत्त० १८८
नाइ
[Type text]
[114]
नादितं वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिः । राज०
२५|
नाइय नादितं शब्दानुसारीनादः औप० ७३ लपितम् । ज्ञाता०प । नादितं- घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावीसत-तध्वनिः । जीवा० २४५ | नादितं ध्वनिमाप्रम्। भग० ४७६ ॥ नाइवेलं नातिवेलं न मर्यादोल्लङ्घनम्। आचा० २९१। नाई - ज्ञातयः पूर्वापरसंबद्धाः स्वजनाः आचा० १३० नाईवग्गो ज्ञातिवर्गः स्वजनयोषिद्वर्गः। ओघ० ९१९१ ना - न्यायः सम्मार्गः । आचा० १४४ |
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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________________
[Type text]
न्यायनिर्नायकत्वात् न्यायः ज्ञातं वाज्ञातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन लोकेनेति । ज्ञाता० ३
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
आचा० ४२२
नाओ अभिष्टार्थसिद्धेः सम्यगुपायत्वात् न्यायः, जीवकर्म्म-सम्बन्धापनयनान्न्यायः, आवश्यकस्य षष्ठः पर्यायः। अनुयो० ३११ नादः महान् घोषः जीवा
२४५|
नाखरा - सिंहादयः । स्था० २७३॥
नागः- भवनपतिविशेषः । जीवा० २८१| अनुयो० २५| द्रुमविशेषः । जीवा. १८२३ सीसकम्। प्रश्न. १५ दशम करणम्। जम्बू० ४९३ नगः वनगजः। दशकै २०५१ नागः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ नागः- शिक्षायोगदृष्टान्ते राजगृहे प्रसेनजित्सत्को रथिकः मुलसापतिः । आव ० ६७६| नागः भद्दिलपुरे गाथापतिः । अन्तः ॥ भगवत्याद्वादश अष्टम उद्देशकः । भग० १५२ | नागः द्वीपसमुद्र विशेषः । जीवा. ३२१| नागः यमुनाहृदवासी घोरविषो
महानागः । प्रश्न० ७५|
नागकुमारा- नागकुमाराः भुवनपतिः । प्रज्ञा० ६९| नागकुमाराः वरुणस्यानोपपातवचननिर्देशवर्त्तिनो देवाः । भग० १९९|
नागकुमारोओ- नागकुमार्यःवरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्त्तिन्य देव्यः । भग०
१९९|
नागकेसरं- नागकेशरं-चूर्णविशेषः। आव० ६३६। नागग्गहो- नागग्रहः । जीवा० २८४ | नागघरए- उरगप्रतिमायुक्तं चैत्यम्। ज्ञाता० १३१। नागजण्णए- नागपूजा, नागोत्सवः । ज्ञाता० १३२ | नागजसा- नागयशा:-पन्थकसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्तः
३७९ ।
नागदंतर नागदन्तकः- नर्कुटकः अङ्कुटक इति । जीवा. २०५| नागदन्तकः- अकुटकः । जीवा० २१४ नागदत्तः- नागदत्तः वैधम्र्योदाहरणे प्रतिष्ठाने
निर्विण्णकाम-भोगो नागवसुश्रेष्ठिपुतः। आव० ६९८ नागदत्तः- कषाय-प्रतिक्रमणोदाहरणे श्रेष्ठीपुत्रः । आव ० ५६५| नागदत्तः निष्प्रति कर्मशरीरतायां विपरिते
दृष्टान्तः । आव० ६६४|
नागदत्ता यक्षहरितस्य प्रथमा सुता ब्रह्मदत्तराजी।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
उत्त० ३७९॥
नागदमनी औषधीविशेषः उत्त० ६३४५ नागपरियावणिया- नागाः नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतौ भवती सा नागपरिज्ञा नन्दी० २००१
नागपुर नगरविशेषः । ज्ञाता० २५२ | नागबाणः- महाशस्त्रम् । जीवा० २८३ |
नागबाणाः- धनुष्यारोपिता बाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो जाज्वल्यमानासयोल्का दण्डरूपास्ततः परशरीरे सङ्क्रान्ता नग-मूर्तिभूय पाशत्वमनुवते । जम्बू० १२५ नागमह- नागस्य भवनपतिविशेषस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः जीवा० २८१| आचा०
[Type text]
३२८
नागमाला नागमालाः दुमगणविशेषः । जम्बू० ९८ नागयज्ञ- पद्मावत्या देव्या कारितो यज्ञः । स्था० ४०१ | नागरकादि- मैथुने प्रारम्भयन्त्रम् सम्प्राप्तकामस्य द्वादशो भेदः । दशवै० १९४ | नागरपुष्पं पुष्पविशेषः । जीवा० १३६ | नागरप्रविभक्ति- द्वादशनाट्यभेदः । जम्बू० ४१६ | नागराय- नागराजाः-नागकुमारवराः । स्था० २२८ नागरिक:- नगरनिवासी नन्दी० १४९१ नागरी लिपिविशेषः । नन्दी० १८८ |
नागरुक्ख वृक्षविशेषः । भग० ८०३ | भुजङ्गानां चैत्यवृक्षः स्था० ४४२
नागलया- नागः द्रुमविशेषः स एव लता तिर्यक् शाखाप्रसराभावात् नागतला । जीवा० १८२ ।
।
नागवसू नागवसुः प्रतिष्ठानगरे श्रेष्ठि आव० ६९८ नागवित्त भूतानन्द वैदः। भग० १०४१ नागसिरि- चम्पानगयौ सोमस्य भार्या आव० १९६| नाग श्री: प्रतिष्ठानपुरे नागवसुश्रेष्ठिभार्या आव० ६९८ नाग - नागसेनः - उत्तरवाचालायां भोजनदाता। आव १९७ |
•
[115]
नागार्जुनवाचका:- ओघ श्रुतसमाचारकाः । नन्दी० परा नागिंदो नागेन्द्रः आव० १४३१ नागी कुलवंशविशेषः । व्यव० ६अ। नागेन्द्रकुलं कुलविशेषः। दशकै० २४२॥ नाट्यकला भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानम्, द्वासप्तति-कलायां चतुर्थी । सम० ८४
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नाट्यानीकं- सप्तमानीकविशेषः। जीवा० २१७। नाणत्तं- नानात्वं-विशेषः। बृह. २२९ आ। नानात्वं भेदः। नाडइज्जो-नाटकीयः नाटकपात्रम्। पिता०६३।
भग. २९। नानात्वं-परनिरपेक्षमेकस्यैव वर्णादिकृतं नाडग- नाटकं-चरितानुसारिनाटकलक्षणोपेतम्। स्था० वैचित्र्यम्। प्रज्ञा०३०३। नानात्वं-योऽतिरिक्तो ४५०
विधिर्भवति। ओघ. १९९। अतिरिक्तः। ओघ. १८३ नाडयं-नाटकं गीतयुक्तं नाट्यम्। बृह. ३९ आ। नाणत्ती- नानाभावः नानाता-भिन्नता। आव. २८९) नाडिक- कालपरिज्ञाते दृष्टान्तः। स्था० ४०
नाणदंसणसंपन्न- ज्ञानदर्शनसम्पन्नः। दशवै. २२२१ नाण- ज्ञातिर्ज्ञानमितिभावसाधनः संविदित्यर्थः ज्ञायते | नाणपज्जवा- ज्ञानपर्यवान्वाs-नेनास्मादवेतिज्ञानं तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो विशिष्टतरवस्तुतत्त्वावबोधरूपाः। उत्त० ५९२। वा, ज्ञायते-ऽस्मिन्निति ज्ञानं आत्मा
ज्ञानपर्यवाः ज्ञानपर्यायाः ज्ञानविशेषा बुद्धिकृता तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयक्तः जानातीति वा वाऽविभागपरिच्छेदाः। भग० ११९। ज्ञानं तदेव स्वविषयग्रहणरुपत्वादिति। स्था० ३४७।। | नाणपडिसेवणाकुसीले- ज्ञानस्य प्रतिसेवणया कुशीलो ज्ञातिर्ज्ञानं ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनास्मादस्मि- ज्ञानप्रतिषेवणाकुशीलः। भग० ८९० न्वेति वा ज्ञानं, जानाति स्वविषयं परिच्छिनत्तीति वा नाणपुलाए- ज्ञानमाश्रित्य पुलाकस्तस्यासारताकारी ज्ञानं-ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमक्षयजन्यो जीवस्य विराधको ज्ञानपुलाकः। भग० ८९० तत्त्वभूतो बोध इत्यर्थः। अनुयो. २रा ज्ञानं-अभिप्रायः। | नाणप्पवायं- ज्ञानं मत्यादिकं स्वरूपभेदादिभिः प्रोच्यते आचा० ९९५) ज्ञानं-द्रव्य-पर्यायविषयो बोधः। स्था० तत् ज्ञानप्रवादम्। सम० २६| १५४| ज्ञानं विशे-षावबोधः। स्था०४९। अपायधारणे | नाणबलिओ-ज्ञानबलिकः अव्यभिचारिज्ञानः। औप० २८। ज्ञायन्ते परिच्छिद्य-तेऽर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति | नाणमायारो- ज्ञानसेवनाप्रकारः। दशवै०१०६) ज्ञानं ज्ञानदर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा ज्ञातिर्वा | नाणवं- ज्ञानं-यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानम्। स्था० २३। दानविशेषः। प्रश्न. १३५। ज्ञानं- ज्ञानवित्। आचा० १५४। आचारादिश्रुतं। बृह. १००आ। ज्ञानं विमर्शपूर्वको बोधः। । नाणवसिए- ज्ञानव्यवसितः। भक्त उत्त० १२७। ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं- । नाणविणय- ज्ञानविनयो मत्यादिनां मत्यादिज्ञानानां सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रह-णात्मको श्रद्धान-मस्ति बोधः। प्रज्ञा०४५३। ग्रन्थानप्रेक्षणरूपम्। प्रश्न० १११| बहमानतदृष्टार्थमावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः। भग. तत्त्वावबोधरूपः। जम्ब० १५१। विशेषबोधः। प्रश्न. ९२४॥ १३ ज्ञानं-मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो नाणवुट्ठि- ज्ञानवृष्टिः शब्दवृष्टिः। आचा० ६८१ जीवस्य परिणामाः
नाणसिद्धा- ज्ञानसिद्धाः-भवस्थकेवलिनः। दशवै. १२८१ ज्ञानवरणविगमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरिच्छेदाः। आचा. नानाता-भिन्नता। आव. २८१ ६८1 अपायधारणे ज्ञानम्। स्था० २३।
नाणामणिपंचवण्णघंटापडायपडिमंडियग्गसिहरं-। आचा. नाणगुणं- ज्ञानगुणम्-ज्ञानमाहात्म्यम्। आव० ५९१। ४२३ नाणगुणमुणियसारो- ज्ञानेन गुणानां-जीवाजीवाश्रितानां | नाणावंजण- नानाव्यञ्जनः अनेकप्रकारः दध्यादिभिः। पर्यायाणां च तदविनाभाविनां मुणितः-ज्ञातः सारः, । उत्त० ३६११ परमार्थो येन सः, ज्ञानगणेन ज्ञानमाहात्म्येन वा ज्ञातः, | नाणावरणिज्ज- ज्ञायते-परिच्छिदयते वस्त्वनेनेति ज्ञानंसारो येन सः, ज्ञानगुणमणितसारः। आव. ५९१। सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, नाणट्ठा- नानार्था-भिन्नाऽभिधेयानि। भग०१७
आवियते-आच्छाद्यते अनेनेति आवरणीयं नाणप्यवाय- ज्ञानप्रवादः ज्ञानं-मतिज्ञानादिभेदभिन्नं कृद्धहलमिति वचनात् करणेऽनीयप्रत्ययः, पञ्चप्रकारं तत्प्रपञ्चं वदतीति। नन्दी० २४१।
ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीयम्। प्रज्ञा०४५३।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[116]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #117
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
०पा
नाणाविरागो- नानाविधो-विशिष्टो रागो यस्य स
दवितीयो भेदः। स्था०४| नाम्नः-कर्मणः नानाविरागः। जीवा० २४६।
उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा। स्था० ३७६। नाम नाणाविहदोसो- त्वक्त्वक्षणनयनोत्खननादिष्
सम्भावनेअलङ्कारे। भग० ३७। नाम हिंसादयुपाये-ष्वसकृदप्येवं प्रवर्तत इति
यादृच्छिकमभिधानम-निश्चयार्थमव्ययमपि। भग. नानाविधदोषः। आव० ५९०
११५ संभावने। भग०७०५ यादृच्छिकमभिधानम्। नाणी- ज्ञानी-परमार्थवित्। आचा० १६६। ज्ञानी-केव- भग. ५६१। नाम आख्या अभिधान नामधेयम्। भग० लज्ञानवानित्यर्थः। आचा०३३१। ज्ञानी-ज्ञानं सकलपदा- ११ नाम नमनं नामकर्मनिर्जरणम्। सूत्र. २५६) र्थाविर्भावकं विदयते यस्यासौ। आचा० १८२
नामयति गत्या-दिपर्यायानभवनं प्रति प्रवणयति नाणुद्देसए- अष्टमशतद्वितीयोद्देशकस्य
जीवमिति नाम। प्रज्ञा०४५४। परिणामो धर्मः। सम. ज्ञानवक्तव्यतार्थमवा-न्तरप्रकरणम्। भग. ९१० १४८१ स्था० ३७७। नमनं नामः-परिणामो भवाः। भग. नात्रक-सम्बन्धः। व्यव० १२६ आ।
८९०| विभक्तिपरिणामान्ना-म्नेत्यर्थः। भग० १११ नादिय- नादितं लपितम्। जीवा. १८८1
पारिभाषिकी सज्ज्ञा। विपा० ४२। नादिया- नादिता-शब्दवती। जीवा० २२७।
नामए- सम्भावनायामलङ्कारे। स्था० ४१९। नानादेसी- बहुविधा अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाः। ज्ञाता०४१। वाक्यालङ्कारे। स्था० ४६६। नानापिंड- नाना
नामकम्म-नमयति गत्यादिविविधभावानभवनं अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात्प्रतिगृहमल्पा-ल्पग्रहणाच्च प्रत्यात्मानं प्रवणयति चित्रकर इव करितुगादिभावं पिण्ड-आहारपिण्डः, नाना चासौ पिण्डश्च नानापिण्डः प्रति रेखाकृतिमिति नामकर्म। उत्त०६५१| अन्तप्रान्तादिर्वा। दशवै०७३।
नामकाय-नामाश्रित्य कायः। आव०७६७ नानाविधदोषः- हिंसाद्युपायेषु दोषो सकृत्प्रवृत्तिरिति। नामगोत्त- इहान्वर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया स्था० १९०
नामगोत्रम्। सूर्य. २७४१ नान्दीपात्र- भिक्षापात्रम्। पिण्ड० १३४।
नामगोयं-नामगोत्रं यादृच्छिकान्वर्थाभिधानम। औप. नाभी- नाभिः-प्रथमजिनपिता। आव० १६१। भरतक्षेत्रे अवसर्पिण्यां सप्तमः कुलकरः। स्था० ३९८1 आव० ११११ | नामण- नामनमवनतिकरणम्। दशवै० १००० सम० १५० नाभिः-शकटरथाङ्गम्। दशवै० २१८ आचा. | नामधिज्ज-नामधेयं नाम। दशवै. २०७४
नामधेज्ज- नामधेयं नाम। औप० १०२ नाभेय- ऋषभदेवो भगवान्। आचा० ८५
नामधेज्जा-नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवती। नाम नाम-नाम परिणामोऽवगाहनानाम कर्मविशेषः। भग. धार्यहृदि धरणीयं यस्याः सा। ज्ञाता०१४। २८०। नामसंभावनायां प्रयुज्यमानोऽयं शब्दः। भग० नामधेयं- प्रशस्तं नाम। भग०७ ८२। अभि-धानम्। अनुयो० १०५। अलङ्कारार्थः। आव० नामनमस्कारः- नाम इत्यभिधानम्। जम्बू. १० ८३१| वाक्य-स्यालङ्कृतौ। प्रश्न ५ सम्भावनायाम्। नामनिग्गया- निर्गतनामा गणिकाविशेषः। आव २१३। स्था० ४१९। भग० ८२ अनयो० १७६। नामशब्दः नामनिप्फण्ण-नामनिष्पन्नः निक्षेपभेदः। दशवै० १५ सम्भावनायां। आचा० ३५५। शास्त्रीयोपक्रमे द्वितीयो नामनिष्पन्न भेदः। आव० ५६। चतुर्था, तद्यथा-गौणं समयजं
आचारशास्त्रपरिज्ञादिविशेषाभिधाननामादि-न्यासः। तदुभयजमनभयजञ्च। पिण्ड० ३। क्षपकोऽभि-धीयते आचा० ३। नामनिष्पन्नः-सामायिकादिविशेषाउपशमको वा। आचा० १७२। नाम परिणामो धर्मः। भग. भिधाननिष्पन्नः। अनयो. २५१। निक्षेपस्य दवितीयः २८० नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा। प्रकारः। आव०५८ भग. २७ नाम अभिधानम। स्था० ४८९। शास्त्रीये नामनिष्पन्नः- निक्षेपभेदः। स्था०६।
401
૨૮.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[117]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #118
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नाममुद्रा- मुद्रिका-अभिज्ञानम्। नन्दी० १५६।
प्रधानः। औप ७श नायकः- प्रधानः। आव० ७७२। नामसच्च-नामसत्यं नाम कलमवर्द्धयन्नपि कलवर्द्धन पुरसंथुतो पच्छासंथुतो वा। निशी० १२१ आ। इत्यु-च्यते, धनमवर्द्धयन्नपि धनवर्धनः इत्युच्यते, नायतो-ज्ञातकः-पूर्वसंस्तुतः। व्यव० ३३९ अ। अयक्षश्च यक्ष इति। दशवै० २०८१
नायाधम्मकहाओ- ज्ञातानि-उदाहरणानि नामसच्चा- नामसत्या पर्याप्तिकसत्यभाषायाश्चतुर्थो तत्प्रधानाधर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा। नन्दी. २३१| भेदः। नामतः सत्या नामसत्या यथा कलमवर्द्धयन्नपि | नायपुत्ते-ज्ञाताः- क्षत्रियास्तेषां पुत्रः- अपत्यं ज्ञातपुत्र कुलवर्धन-मिति। प्रज्ञा० २५६)
वीरव-र्धमानस्वामी। आचा० ३०३। ज्ञातपुत्रः-ज्ञातःनामसम- अभिधानं तेन समं नामसमम्। अनयो०१५) उदारक्ष-त्रियः सिद्धार्थः तत्पुत्रो वर्धमानः। दशवै. १९९। नामाउडिओ- आकुट्टितनामा। अनुयो० २२३।
ज्ञातपुत्रः-भगवान् वर्द्धमानः। दशवै० १९०। आचा० ४२२ नामागोयं- इहान्वर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नायमुणी- ज्ञातमुनिः-क्षत्रियविशेषरूपो श्रीमन्महावीर नामगौत्र-मित्युच्यते। नामगोत्राणि-अन्वर्थयुक्तानि इत्यर्थः। प्रश्न. ११३ नामानि। जीवा० ३३६।
नायसंड- ज्ञाताखण्डः- वीरजिनस्य निष्क्रमणोदयानः। नामानि- गोत्राणि। स्था० ३८९।
आव० १६७। नामिकं- वस्तुवाचकत्वात् अश्व इति। अनुयो० ११३। नायसंडवणं- ज्ञातखण्डवनम्। आव० १८६। पदस्य प्रथमो भेदः। आव० ३७९|
नायसुतो- ज्ञातसुतः-ज्ञाताः-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः, वीरवर्द्धनामुदए- अन्ययूथिकः। भग० ३२३। सप्तम
मानस्वामी सूत्र. १४३। ज्ञातस्तः। व्यव० ४०२ आ। आजीविकोपास-कस्य नाम। भग० ३६९।
नाया- ज्ञाताः-इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः। भग० ४८१। नामे- नामयति क्षपयति। आचा० १७२
नायागयं- नायागतं स्वस्ववृत्त्यनुष्ठानप्राप्तम्। आव० नामेइ- नामयति-अनन्गुणं करोति। दशवै० २१३
८३७ नाय- ज्ञातः-कुलविशेषः। आव० १७९। ज्ञातः-क्षत्रिय- नारए- जम्बूदवीपे भरतक्षेत्रे उत्सर्पिण्यां विशेषः। प्रश्न. २६। ज्ञातः-नागवंश्यः ज्ञातवंशो वा। विंशतितमजिनस्य पूर्वभवनाम। सम० १५४।
औप०५८ नायः-नयतीति छान्दसत्वात्कर्तरि घञ् नारकदवितीयोद्देशः- जीवाभिगमस्य दवितीय उद्देशः। नायः। आचा० १४५। ज्ञातानि उदाहरणानि। उत्त०६१४॥ भग० १३० ज्ञाताः क्षत्रियाः। आचा० ३०३।
नारद- दृष्टमधिकृत्य वासुदेवे कामकथाकारकः। दशवैः नायए- ज्ञातकः-जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा। उत्त०४४४। ११०| श्रुतमधिकृत्य पद्मनाभे कामकथाकारकः। दशवै. ज्ञातकः-स्वजनः। आव० १८७। स्वजनपुत्रकः। ज्ञाता० ११० उत्त० ६८१। नारदः सत्यो शौचोदाहरणे ८९। आव० १८७। ज्ञातीन्। उत्त० १३४। नायकः प्रभ- तापसपुत्रयज्ञदत्त-सतः। आव०७०५) ायदो-न्यायदर्शी। ज्ञाता०८९।
नारदमुनि- द्रौपदयुपरि द्वेषवाहको असंयतः। प्रश्न० ८७। नायओ-नायकः-सकलजगत्स्वामी ज्ञातकः ज्ञात एव वा नारदाः- गन्धर्वभेदविशेषः। प्रज्ञा०७० ज्ञातकः-उदारक्षत्रियः, न्यायतः। उत्त० ३२१। ज्ञातयः- नारयपुत्त- नारकपुत्रः पुद्गलप्रदेशनिरूपणे पूर्वापरसम्बन्धिनः स्वजनाः। आचा० २५०। ज्ञातयः महावीरशिष्यः। भग० २४० स्वजनाः। बृह. ७ अ। ज्ञातयः-दूरवर्तिनः स्वजनाः। नाराचः- उभयतो मर्कटबन्धः। जीवा. १५ उत्त०१३
नाराय-नाराचः-अयोमयो बाणः। उत्त०३११ नाराचंनायकुले-स्वजनगृहम्। उपा० १४१
मर्कटस्थानीयमभयोः पार्श्वयोऽस्थि नाराचम्। सम० नायकुलवासिणी- ज्ञातिकुलवासिनी नाम यो गृहजामात्- १४९। नाराचं यत्रास्थ्नोर्मर्कटबन्ध एव केवलस्तत्। दत्ता। व्यव० २७७ आ।
जीवा० १५। नाराचः-बाणः। भग० ३१८ नाराचं-उभयतः नायगो- ज्ञातकः- परिचितः। सूत्र. ३२०| नगरकटकादि । मर्कट-बन्धनिबद्धकाष्ठसम्पटोपमसामोपेतत्वात्।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[118]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #119
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
اوایا3
भग० १२ उभयतो मर्कटबन्धः। सूर्य.४ प्रज्ञा० ३७२ । नालिसंठिय-नाडीसंस्थितः-आवलिकाबाह्यस्य जम्बू. १५) नाराचम्भयतोमर्कटबन्धः। राज०५७) दवाविंशति-तमं संस्थानम्। जीवा. १०४| नारायग्गं- नाराचाग्रं बाणाग्रम्। जीवा० १०६)
नाली- नाडी-वसनाडी। भग० ९६०| नाडीकः वनस्पतिविनारायण-नारायणः-अष्टम वासुदेवः। आव०५९, १६६) शेषः। भगवत्याः एकादशशतके पञ्चम उद्देशकः। भग० नारायणः-ऋषिर्यः परिणतोदकादिपरिभोगात्सिद्धः। ५११॥ सूत्र. ९५। कृष्णः । बृह. ३० आ।
नालीए- नालिका-यूतविशेषलक्षणा। दशवै० ११७ नारीकंता- नारीकन्ता-नदीविशेषः। स्था०७४। जम्बू० नाव- नोः-द्रोणी। दशवै.२२० नौः-तरिका। पिण्ड० १०२
नावणं- दानम्। प्रश्न ५७ नारीकान्ता- हृदविशषेः। स्था० ७५। नीलवर्षधरपर्वते षष्ठं | नावाबंध- नौबन्धः । बृह. ८२ अ। कूटम्। स्था० ७२
नावापूरकः- चलकः। बृह०७१ आ। नारुआ- नवमी श्रेणिः। जम्बू. १०३
नावासंठिओ- नावासंस्थितः बुध्नादुर्च्वं नाव इव नालंद-सूत्रकृताङ्गे सप्तममध्ययनम्। आव० ६५८१ उभयोरपि पार्श्वयोः समतलं भूभागमपेक्ष्य क्रमेण नालंदा- राजगृहनगरस्य बाहिरिका। सूत्र०४०७।
जलवृद्धिसम्भवेन उन्न-ताकारत्वात्। जीवा० ३३५ नालएरी- वृक्षविशेषः। भग० ८०३।
नाविओ- स युक्तरूपया नावा भवोदधि तरतीति नालन्दा- नालं ददातीति अर्थिभ्यो यथाऽभिलषितं नाविकः। उत्त० ५०९। ददातीति-राजगृहनगरवाहिरिका। सूत्र० ४०६
नावियदुयक्खरओ-नापितदासः। आव०६९० नालंदीयं-नालं ददातीति, सदाऽर्थिम्यो यथाऽभिलाषितं नासः-न्यासः-द्रव्यस्य निक्षेपः-परैः समर्पित्तं द्रव्यम्। ददातीति नालंदा-राजगृहनगरवाहिरिका तस्यां भवं, उपा०७ न्यासः- रूप्यकादयर्पणम्। आव०८२१| सूत्र-कृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्तममध्ययनम्। | | नासण-नाशनं-कर्मपकृतेः स्तिबुकसङ्क्रमेण सूत्र० ४०६। स्था० ३८७।
प्रकृत्यन्तर-गमनम्। आचा० २९८। नालबद्धा- मातापिताभ्राताभगिनीपुत्रोदुहिता इत्येते नासा- नाशा। आव. १९२ घोणः। प्रश्न. ८२
षडप्यन-न्तरवल्लीमधिकृत्य नालबद्धा। बृह. ४२ आ। नासाभेय- नासाभेदः-नासिकाविवरकरणम्। प्रश्न. २२॥ नालिंदा- राजगृहनगरे पाटकविशेषः। भग० ६६१। नासावहारे-नासापहारः- रूप्यकाद्यर्पणस्यापहारः। आव० नालि-नाडी-घटिका। जीवा० १०५
८२० नालिआ- नालिका-चतुर्हस्तप्रमाणम्। अनुयो० १५४॥ नासावेदणा- नाशावेदना। आव. १९२ नालिका- देहादधिको दण्डकः। ब्रह. २०आ। ताम्रादि- | नासिक- नासिक्यपुरं-नगरविशेषः। नन्दी० १६७। मयघटिका। अनुयो० ४८१
नासीर- मृगया। उत्त० ४३८१ नालिकेरी-वृक्षविशेषः। उत्त०६७२
नासेइ- नाशयति मत्सरादपन्हुते। प्रश्न० १२५ नालिया- नालिका-द्युतक्रीडाविशेषः। सूत्र० १८१। नास्तिकः- लोकायतः। दशवै० १२५ मतविशेषः। उत्त. नालिका-घटिका। दशवै.४० सम. ९८ नालिका
२७५ आत्मप्रमाणचतुरङ्गलाधिका यष्टिका। ओघ. ३३॥ नास्तिकाभिप्रायः- लोकायतमतः। दशवै. १२५१ नालिका सुषिरवंशादिरूपा। भग० १३४। यष्टिविशेषः। नाह- नाथत्वं चास्य योगक्षेमकृन्नाथ इति भग० २७५, २७७। स्वमानात् चतुरगुलाधा यष्टिः। बृह. वचनादप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादियोगकरणेन लब्धस्य १६४ आ। नालिका, घटिका। बृह. ४२ अ।
तस्यैव पालनेन चेति। सम० ३। योगक्षेमविधाता। उत्त. नालियापुप्फं- नालिकापुष्पं-कलम्बुकापुष्पम्। जम्बू० । ४७३। नाथत्वं योगक्षेम-कारित्वम्, नाथः-प्रभुः। भग० ८५ ४५३
योगक्षेमकृत्। नन्दी०१३। नाथः-योगक्षेमकत्। जीवा. नालियेरपाणगं- पानकभेदः। आचा० ३४७।
२५५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[119]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #120
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नाहवयं- नाथवचनम्। आव० ३१३।
निःश्वसितोच्छ्वसितमानमनतिक्रमतो यद् गेयं तत्। नाहि-नैव। भग. १७५। जानीहि। उत्त०४७३।
अनुयो० १३२। स्था० ३९६| नाहियवायं-नास्तिकवादः। गच्छा।
निःसम्पन्नम्- असाधारणम्। आचा०४८। नाही- नाभि कुलकर ऋषभपिता। प्रज्ञा० १०९।
निःसारं- परिफल्गु, सूत्रस्य द्वात्रिंशद्दोषे सप्तमो दोषः। नि-निर् अपकर्षे अपचये यथा निर्ग्रन्थः। बृह. १३८ आ। आव० ३७५ निती- निर्गच्छन्ती। आव०७०१।
निअडिल्ले-निकृतिमान्-मायापरः। उत्त० ३७९। नितो- निर्यान् निष्क्रामन्। पिण्ड० ७६।
निअंबो- नितम्बः-पर्वतैकदेशः। ओघ० ३४। निंद- निन्दा गुरुसमक्षमेव हीलना। आव० ५२८१ निअट्टिअव्वं-निवतितव्यम्। ओघ० ७८1 निदइ- निन्दति कुत्सति। आव० ५८७
निअडि-निकृतिः-मायारूपा। दशवै० १८८४ निंदण- निन्दनं-मनसा कत्सा। भग० २२७।
निअव्वय- निरन्वयः-एकान्तोच्छदः। नाशः। दशवै०४०। निंदणया- निन्दनं-आत्मनैवात्मदोषपरिकुत्सनम्। भग. निआग-नियागः-नित्यमामन्त्रितः पिण्डः। दशवै. २०३। ७२७
निआण- निदानं भाविफलाशंसा। दशवै. २६७। निंदणा- निन्दना-देवदायकदोषोद्घट्टनम्। प्रश्न. १०९। निइउमाणाइ- नित्यं उमाणं प्रवेशः। आचा० ३२६। निन्दना-स्वमनसि कुत्सा। अन्त०१८ निन्दना मनसा | निइए- नित्यः अप्रच्युतिरूपः। आचा० १७९। कुत्सनम्। औप० १०३। निन्दना-आलोचना विकटना निइगं-मैत्यिक-प्रतिदिनम्। प्रश्न. १४१| शुद्धिः शल्योद्धरणम्। ओघ० २२५
निइल्लिओ- निजकः। आव० १५१। निंदणिज्ज- हीलनीयो गुरुकुलायुद्घटनतः निन्दनीयः। | निउणं- निपुणं-सूक्ष्मम्। आव० २६५। निपुणं-सूक्ष्म ज्ञाता०९६|
बह्वर्थं च। आव०६९। नियतगुणं निगुणं वा निंदति- निन्दति चेतसा कुत्सति। भग० १६६। मनसाकु- सन्निहिताशेषसूत्रगुण-मिति यावत। आव०६९। त्सति। ज्ञाता० १४९।
निपुणः- सूक्ष्मः । आचा० ३२१ दशवै. १९६| निंदह- निन्दत मनसा निन्दां कुरुत। भग० २१९। उपायारम्भकः। भग० ६३१। निपुणःनिंदा- आत्माध्यक्षमात्मकत्सा प्रतिक्रमणस्य पर्यायः, सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्तकामविषयपरमनैपुण्योपेत निन्दनं निन्दा। आव० ५५२
इत्यर्थः। सूर्य. २९४| निपुणः- उपायारम्भकः। अनुयो० निंदु-मृतप्रसवनी। अन्त०७) निंब- वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१, ३६४भग० ८०३। | निउणसिप्पोगए- निपुणशिल्पोपगतःनिंबए- निम्बकः-आचारविषये अम्बर्षिब्राह्मणश्राद्धपत्रः। सूक्ष्मशिल्पसमन्वितः। अनुयो० १७७। आव०७०८१
निउणा- निपुणाः- दर्शिनः कुशलाः। उपा० ४६। निपुणानिंबछल्ली- निम्बत्वक्। प्रज्ञा० ३६४।
आधाकर्मादयपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण निंबफाणियं- निम्बफाणितं निम्बक्वाथः। प्रज्ञा० ३६४| सूक्ष्मा । दशवै० १९६। निंबसारे- निम्बसारः निम्बमध्यवर्त्यवयवविशेषः। | निउत्त- नियुक्तं-नियोजितम्। आव० ४९८। व्यापारितः। प्रज्ञा० ३६४।
उत्त० ५३६। नितरां युक्तं-सम्बद्धं निकाचितं वेदने वा निःकृपं- चंकमणाई सत्तो सुनिक्किवो थावराइ सत्तेस् । नि-युक्तम्। भग० २८१। नियुक्तं-नितरां सङ्गतं यत् काउं। च नाणतप्पइ एरिसओ निक्किवो होइ। बृह. २१५ | तत्। ज्ञाता० २३८१ आ।
निउत्तमणिओइओ-नियक्तानियोजितः। आव २३८। निःशूकः- निद्धन्धसः। ओघ० १५८५
निएल्लओ-निजकः। आव० ३०८। निश्रेयसं- निश्चितं श्रेयः-प्रशस्यम्। स्था० १७७। निओइए-नियोजितः व्यापारितः। उत्त. ३६५) निःश्वसितोच्छवसितसमं
निओओ- नियोगः ग्रामः। ब्रह. ३ अ।
اوای
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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निओग नियोगः व्यापारणम् । उत्त० १५२
निओया- निगोदाः अनन्तजीवसङ्घाताः आचा. ६०१ निगोदा:
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
सूक्ष्मबादरानन्तकायिकवनस्पतिजीवशरीराणि । अनुयो० २४० कुटुम्बानि । भग० ३०९ |
निकर पुञ्जः । ज्ञाता० २२९ | निकरण- निकरणं-क्रियाया इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया
अभावः । भग० ३१२ |
निकरणाए निश्चयं कर्तुं समर्थो भवति । आचा० ४८ निकस- निकषः कषपट्टगता कषितसुवर्णरेखा अनुयो०
२१४|
निकाइतं निकाचितं नियमितम् । सूत्र. १७७ निकाइयं- निकाचितं दृढतरं बद्धम्। उपशमनादिकरणानामविषयीकृतम्। प्रश्न ९८
निकाचनाकरणं निदानकरणं एतस्मात्तपः प्रभृतेश्र्चक्रवर्त्या-दित्वं मे भूयादिति । स्था० २७५ निकाचितं निश्चितं प्रमाणम्। स्था० ४३५॥ निश्चयपूर्वकं भणितम् । व्यव० २०९ आ । निबद्धीकृतं गृहयते तत् ।
व्यव० १६० अ ।
निकामं द्वात्रिंशत्कवलाः प्रमाणं भवति त एव यन्नित्यशः सर्वकलं भुज्यते तन्निकामम्। व्यव० ३३४ आ । निकामं - प्रमाणातीतमाहार प्रतिदिवसमनतो
निकाम-भोजनम् । पिण्ड० १७४ |
निकाममीणे निकामं अत्यर्थ यः प्रार्थयते स
निकाममीणा सूत्र. १९०
निकाय - निकाचितं बद्धम् आव० ७६६। निकाच्य-व्यवस्थाप्य। आचा॰ १८६ | निकायः कायः । उत्त० ६९० । निकाय:- मोक्षः । आचा० ४२१ निकाय:- नित्यः कायः, अधिको वा कायः । आव० ७६८। निकायकाय नित्यः कायो निकायस्तत्सम्बन्धी कायः, अधिको वा कायो निकायस्तत्सम्बन्धी कायः, जीवनिकाय सामान्येव वा, पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्विधोऽपि जीवनिकायो निकायस्तत्समुदायो वा ।
,
आव० ७६७ ।
निकायण निधाचनम् ओघ० ४५ निकाचनं पुद्गलानां परस्परविश्लिष्टानामेकीकरणमन्योन्यावगाहिता अग्निप्रतप्तप्रतिहन्यमानसूचीकलापस्येव
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
सकलकरणानामविषयतया कर्मणो व्यवस्थापनम् ।
भग० २५|
निकार:- निश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्निकरणं निकारः शारीरमानसदुःखो-त्पादनम्। आचा० १४२ निकास निकाशः सदृशः । जीवा० २१३ | निकिंत निकृन्तति छिनत्ति विदारयति । आव० ८०१ | निकुरंब निकुरम्बः समूहः । भग० १०। निकृतिः- आदरकरणेन परवञ्चनम्। भगः । निकेयण निकेतन निश्र्वासनः। बृह. ८५आ। निक्कंकड निष्ककटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति । राज० ८
निक्कंकडच्छाया निष्ककटा निष्कवचा निरावरणा निरु-पघाता छाया दीप्तिर्यस्य तत् निष्कङ्कटच्छायम्। जीवा० १६१ |
निक्कंकडच्छाया निष्ककटच्छायः
निष्कङ्कटानिष्कवचा निवारणा निरुपघाता वा छाया दीप्तिर्यस्य सः । प्रज्ञा- ८७)
निष्कंकटा निष्कवचा निरावरणा इत्यर्थः, छाया - शोभा येषां ते स्था- २३२
निक्कंकडा निष्कड़कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति । जीवा० १६१| प्रज्ञा० ८७ निक्कंखिय- काङक्षणं काडिक्षतं निर्गतं काङ्क्षित यस्मादसौ निष्काङ्क्षितः, देशसर्वकाङ्क्षारहितः । प्रज्ञा० ५६। निष्का-ङ्क्षितः-देशसर्वकांक्षारहितः। दशवै० १०२ | मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातः । ज्ञाता० १०९ । निक्कंप - निष्कम्पः निःसहः । बृह० १५२ आ । निक्कट्ठा कोशकादाकृष्टा । विपा० ५९॥ निर० १८ निक्कलं निष्कलं त्रासादिरत्नदोषरहितम्। भग० ६७२। निक्कसाओ निष्कषायः कषायरहितः। आव ०७९३३ निक्कस्सई - निष्कास्यते । बृह० ५५आ। निक्कारणवच्छल्लो - निष्कारणवत्सलः । आव० ४०१ | निक्कारणो- निष्कारणः- निरुपद्रवः । पिण्ड० १४६ | निक्कुडं निष्कूटं अशठम् । आव• ७९७ निक्कोरणं अभ्यन्तरवर्त्तिनो गिरस्योत्किरणम्। बृह
१०७ आ ।
निक्खंत निष्क्रान्तः प्रव्रज्यां गृहितवान् । आचा० ४३ |
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*आगम- सागर - कोषः " [3]
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निक्खमण- निष्क्रमणं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्बिहिर्गमनम्। सूर्य- २४३| निष्क्रमण उद्वर्त्तनम्। आचा० ६९। निक्खममाणे- निष्क्रामन् । सूर्य. १२१ निक्खमे निष्क्रामेत्। दशवे० १८३ | निक्खम्म निष्क्रम्य द्रव्यभावगृहात्प्रव्रज्यां गृहीत्वा ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
दश० २६५
निक्खित्त - निक्षिप्तं पाकस्थालीस्यम्। प्रश्न० १०६ । निक्षिप्तं-सचित्तस्योपरिस्थापितं द्वितीयएषणादोषः । पिण्ड॰ १४७। संयमिताः। आचा० २३३| व्यवस्थापितम् । आचा० ३४६। विमुक्तम्। ज्ञाता० ३४॥ यस्तु परतरोऽन्यतरको वा यावत् वैयावृत्त्यं करोति, तावत्तयोः प्रायश्चित्तं निक्षिप्तं कियते इति तत्। व्यव० ९९ अ । निक्षिप्तं-अनुवृत्तम्। स्था० २९८ निक्खित्तदंडा- निक्षिप्तदण्डाः निश्चयेन क्षिप्ताः निक्षिप्तः-परित्यक्तः कायमनोवाङ्मयः प्राण्युपघातकारि दण्डो यैस्ते । आचा० १८९ । निक्षिप्ताःसंयमिताः मनोवाक्कायरूपाः प्राण्युपमर्दकारित्वाद्दण्डा इव दण्डा यैस्ते निक्षिप्तदण्डाः । आचा० २३३॥ निक्खित्तपुव्वा निक्षिप्तपूर्वा पूर्वमेव अस्माभिरात्मकृते निष्पादिता। आचा० ३६९१
निक्खित्तसत्थ- ऐरवते त्रयोदशमतीर्थकृत्। सम १५३1 निक्खिवणं- निक्षेपणं-स्थापनम् । आव ० ६१४ | निक्खिवित्ता- निक्षिप्य प्रत्युपेक्षणापूर्वकं बद्धा । उत्त
५४४ |
निक्खुड - निष्कुटः गम्भीरप्रदेशाः । जम्बू० ३९६ । निक्खेव निक्षेपः । आव० २८ निक्षेपणशास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापनं निक्षेपः। निक्षिप्यते नामादिभेदैर्व्यवस्थाप्यतेऽनेनास्मिन्नस्माद्वेति वा निक्षेपः । अनुयो० ४५% निक्षेपः- न्यासः ओघ० २९४| निक्षेपणं निक्षेप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपःपक्रमानीतव्याचिख्यासि-तशास्त्रस्य नामादिभिर्न्यसनं न्यासः स्थापना । जम्बू. 91 निगमनम्। भग० ८१ नामादिविन्यासः आव० २४१ निक्षेपःआवश्यकादेर्नामादिभेदनिरूपणम्, न्यासः, यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तत्र वस्तुनि स निक्षेपः। अनुयो०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
१०| निक्षेपः न्यासः । नन्दी० १५६ । निक्षेपः मोक्षणः । ओघ० १६९ | निक्षेपः न्यासः । आव० ४२१ । नियतं निश्चितं वा नामादिसंभवत्यक्षरचनात्मकं क्षेपणं न्यसनं निक्षेपः । उत्त० १०। निपेक्षः निगमनम्। विपा० ५५| निक्षेपः न्यासकः । प्रश्न० ३६ | निक्षेपःनिक्षेपणमनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः । आचा० ३। निक्खेवओ निगमनम्। निर० २३| निक्षेपकः यत् पुनः प्रथमं स्वार्थ निक्षिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञायते स । बृह० १०२ ॥
निक्खेवणिज्जुत्ताणुगम - निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः निर्युक्त्यनु-गमभेदः, निक्षेप एव
सामान्यविशेषाभिधानयोरोधनिष्पन्ननामनिष्पन्नाभ्यां निक्षेपाभ्यामनुगतः सूत्रापेक्षया
वक्ष्यमाणलक्षणाश्र्च। आचा० ३।
निक्खेवनिज्जुत्ती निक्षेपनिर्युक्तिः नामस्थापनादिभेदभिन्नः तस्य तद्विषया वा निर्युक्तिः निक्षेपनिर्युक्तिः अनुयो० २५८1 निक्षेपनिर्युक्तिः स्था० ६।
निक्षेप्तव्य:- कर्तव्यः । आचा० ११५
निग(य) च्छइ- विशिष्टोदयावस्थं जीवस्तदासादयति, विपाकावस्थं करोति। भग०६३।
निगडं- लोहमयम् । प्रश्न० ५६ | आचा० १६५ | निगम निगमः प्रभूततरवणिग्वर्गावासः जीवा० ४०| निगमः वणिग्निवासः। उत्त० १०७। वणिग्जनाधिष्ठितः । ज्ञाता० १४०। निगम:
प्रभूतवणिग्वर्गावासः । जीवा० २७९१ प्रभूततरवणिग्वर्गावासः । राज० ११४१ वाणिजक-प्रायः सन्निवेशः ओघ ९६| निगमः पांशुप्राकारनिबद्धं क्षुल्लकप्राका-रवेष्टितम्। व्यव० १६८अ निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः प्रभूततरवणिजां निवासः । उत्त० ६०५ वणिसंघाओं वणिक्सङ्घातः । आव० ६६३ | निगमः स्थानविशेषः । दशवै० ६७ | निगमः कारणिकः वणिग वा । भग० ३१९| निगमः
वणिग्जनप्रधानं स्थानम्। भग० ३६॥
निगमस्व निगमरूपम्। भग० १९३
-
निगमा - निर्गमाः पूर्वेभ्यः उत्तरेषामाधिक्यानि । सम. ११४ पौरवणिजः । बृह० ९आ। निगमाः । भग० ४६४९
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"आगम- सागर- कोषः " [3]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निगमाः- प्रभूतवणिग्-वर्गावासाः। जम्बू० १२१ | ज्ञाता०८११ निगमाति-वणिग्निवासाः। स्था० ८६)
निग्गया-निर्गताः ये तपोऽर्ह निगरणं-निकरणं-नियतो देशकालादिः। भग०६५ प्रायश्चित्तमतिक्रान्ताच्छदादि-प्राप्ताः। व्यव० ९७ आ। निगरिय-निगरितं सारीकृतम्। जीवा० २७० औप० २०। निग्गह-निग्रहः। आव०४१६। निश्चयः। निशी० ७०आ। सर्वथा शोधितम्। प्रश्न० ८०
निग्रहः-अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनम्। निर०२। राज० ११९| निगामसाइ-निकामशायी-सूत्रार्थवेलामप्युल्लध्य ज्ञाता० ७। इष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणं निग्रहः। शयानः। दशवै०१६०
आव०६६०| निग्रहः-छलादिना पराजयस्थानम्, दोषविनिगामसिज्जा-निकामशय्या-प्रतिदिवसं प्रकामशय्यैव। शेषः। स्था० ४९२ आव० ५७४।
निग्गहण- निगृह्णातीति। निग्रहणः। दशवै०११९ निगिज्ज-निगृह्य यतनया। व्यव० १४७ अ।
निग्गहिओ-निगृहीतः। आव. ३२११ निगिण्हाति-निराश्रवो भवति। उत्त. १६९।
निग्गहियं-निगृहीतं नियमितम्। प्रश्न० १२४१ निगिण्हामि-निगृह्णामि निरूणध्मि। उत्त० ५०७। आव. निग्गीलं-क्षरितं(तन्दु०) ३२०
निग्गुण-निर्गुणः गुणव्रतरहितः। ज्ञाता० २३८। निगुंडिउं- जानुभ्यामुपविश्य। आव० ४३४।
निग्गुणा- गुणव्रतैः क्षमादिभिर्वा रहिताः। भग० ५८२१ निगुरुंवो-निकुम्बः समूहरूपः। प्रश्न० ८२।
निर्गुणाः-उत्तरगुणविकलाः। भग० ३०९। निगृहीतः- दण्डितः। नन्दी० १५२
निग्गोहपरिमंडलसंठाणनाम- यदुदयात्तु निगृह्य-निग्रहं वचनेन कारयित्वा। स्था० ३२९।
न्यग्रोधपरिमण्डलं संस्थानं निगोदा-अनन्तकायिकजीवशरीराणि। भग०८९० तन्न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम। प्रज्ञा० ४७२। निगोयजीवा-साधारणनामकर्मोदयवतिनो जीवाः। भग. | निग्गोहमंडल-नाभेरुपरि न्यग्रोधवन मण्डलं८९०
आद्यसंस्थान-लक्षणयुक्तत्वेन विशिष्टाकारं निग्गंथ-नैर्ग्रन्थ-सामान्यतः 'यथा यूयं वदथे'ति
न्यग्रोधमण्डलं, न्यग्रोधो-वट-वृक्षः, यथा चायमपरि प्रवचनम्। भग० १२१। नैर्ग्रन्थ्य -आर्हतम्। आव. ३२६। वृत्ताकारतादिगुणोपेतत्वेन विशिष्टा-कारो भवत्यधस्तु निग्गंथा-निर्ग्रन्थाः साधवः। ज्ञाता०५१। निर्ग्रन्थः न तथा। अनुयो० १०१। पुलाका-दिपञ्चप्रकाराः। व्यव० ४०२ आ।
निग्गोहवणे-न्यग्रोधवन-वटवनम्। भग० ३६। निग्गओ-निर्गतः-निष्क्रान्तः। आव० १३७
निग्घंटु-निघण्टुः नामकोशः। औप० ९३। भग० ११२। निग्गच्छह-निर्गच्छति निश्चयेन गच्छति
निग्घसो-निकषः कषपट्टे रेखालक्षणः। औप० ८३॥ विशिष्टोदयापन्नमा-सादयति। प्रज्ञा०४५५
निग्घाए- निर्घातः वैक्रियाशनिप्रपातः। जीवा. २९। विपाकावस्थं करोति। भग०६३।
निर्घातः- साभे निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृतो निग्गच्छे- निर्गच्छति शुध्यति। व्यव० १०३ आ। महागर्जितसमो ध्वनिः। आव०७३६। साभ्रे निरभ्रे वा निग्गम-निर्गमः। सूत्र. ३०९। निर्गमनं निर्गमः
नभसि व्यन्तरकृतो महाग-र्जितसमो ध्वनिर्निघातः। सामायिकं निर्गतमित्येवंरूपः। अनयो० २५८। निर्गमः- व्यव. २४१ आ। साभ्रे निरभ्रे वा व्यन्तरकृतो निर्गमकथा राज्ञो निर्गमनसम्बन्धी विचारः
महागर्जितसमो ध्वनिर्निधातः। निशी० ७०आ। राजकथायाः प्रथमो भेदः। आव० ५८१।
निग्घाओ-निर्घातः विदयुत्प्रपातः। जीवा० २८३। निग्गमगो-निर्गमकः प्रस्थानः। ब्रह. १९० अ। निग्घात-निर्घातः साभ्रे निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृतो निग्गमणं-निर्गमनं
महाग-र्जितध्वनिः। स्था०४७६| सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादबहिर्गमनम्। जीवा० ३४५) निग्घाय-निर्घातः। दशवै०६६। निर्गमनं दक्षिणायनम्। भग० १४७ निस्सरणमार्गः। निग्घिणं-निघृणं निर्गतदयम्। आव० ५८८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निग्घिणमणा-निर्घणं निर्गतदयं मनः चित्तमन्तःकरणं | निच्चालोए-नित्यालोकः, अष्टाशीतौ महाग्रहे
यस्य स निघृणमनाः निर्दयान्तःकरणः। आव०५८८ | द्वाषष्टितमः। जम्बू०५३५ निग्घुटुं- निर्घष्ट निर्घोषरूपम्। प्रश्न १६०
निच्चियपरिवेसिया-नैत्यिकपरिवेषिका प्रतिदिननियुक्त निग्घूहे-निर्गुहन्ति निष्काशयन्ति। व्यव. ५४ आ। भक्त-दात्री। उत्त. २८६|| निग्रोलियं-निर्घोलितं रिक्तीकृतम्। बृह. १६९ अ। निच्चुज्जोए-नित्योद्योतः अष्टाशीतौ महाग्रहे निग्रोस-निर्घोसः ध्वनिः। आचा० ३५०| निर्घोषः महा- पञ्चषष्टितमः। स्था० ७९। अष्टाशीतौ महाग्रहे ध्वनिः। जम्बू. १९२। निर्घोषः महान् ध्वानिः। जीवा० त्रयषष्टितमः। जम्बू. ५३५१ २४५ निर्घोषः नादः प्रश्न. १५९।
निच्चुव्विग्गो- नित्योद्विग्नः सदा अप्रशान्तः। दशवै. निघस-कषपट्टके रेखारूपः। जम्बू. १५। रेखा। ज्ञाता०९। १८८५ निघर्षः निकषो वा कषपट्टके रेखारूपः। जम्बू. ३४। निच्चेट्ठ-निश्चेष्टं-व्यापाररहितम्। ज्ञाता० ८५, १९८१ निकषः कषपट्टके रेखारूपः, वर्णः। सूर्य.४ निघर्षः निच्छओ-निश्चयः तत्त्वनिर्णयः, विहितानुष्ठानेषु वा घर्षणम्। जीवा० १९१।
अवश्यं-करणाभ्युपगमः। औप० ३३। निचये- निविष्टा निचये कर्मनिचये तद्पादाने वा निच्छय-निश्चयः अवश्यंकरणाभ्युपगमः, तत्त्वनिर्णयो सावद्यार-म्भनिचये निविष्टाः-अध्युपपन्नाः। आचा० वा। भग० १३६। निश्चयः वस्तुनिर्णयः। विपा०४०। १८४१
निश्चयः एकान्तम्। बृह. २२० । निश्चयः तत्त्वानां निचिओ-निचितः निबिडः। जीवा. २२७। प्रश्न. १५२। निर्णयः विहितानुष्ठानेष्ववश्यमभ्युपगमो वा। राज० निचित-निबिडीकृतम्। अनुयो० १७७।
११९। ज्ञाता०७ निचिय-निचितः निबिडतरचयमापन्नः। जीवा० १२१।। निच्छयओ-निश्चयतः परमार्थतः। ओघ. २२२ निचितः-अविकीर्णः। प्रश्न. ८२
निच्छयकहा-अववादो रिजुसुत्तादिएहिं सुद्धणएहिं जं निच्च-नित्यः परिणामानित्यतायामपि सत्यां
कहि-ज्जति। सा। निशी० २४० अ। स्वरूपाच्यव-नात्। सूत्र. ३७०| नित्यं-सर्वकालं, निच्छिअ-निराधिक्ये चयनं चयः-पिण्डीभवनं सामायिकप्रतिपत्तेरा-रभ्यामरणान्तम्। दशवै. २८३। | अधिकश्चयो निश्चयः सामान्यम्। अन् २६५। नित्यं-अपायाभावेन तदन्य-गुणवृद्धिसंभवादप्रतिपाति। | सर्वाधिक्यम्। आव०६७। दशवै० १९९। अप्रच्युतानुत्पन्न-स्थिरैकस्वभावं निच्छड्डपोतो-निश्द्रिपोतः। आव० ३८७ नित्यम्। आचा० २२। नेत्रं भगम्। बृह. ३१२ अ। निच्छिण्णछकारण-निस्तीर्णकारणम्। आव०६२८। निच्चनियं-नित्यं निवसनं नित्योपभोग्यम्। बृह. १०४ | निच्छिण्णा- निस्तीर्णा पारगता। प्रज्ञा० ६११| ।
निच्छिन्नं-निस्तीर्णं लघितम्। प्रज्ञा० ११३॥ निच्चमंडिया-नित्यमण्डिता सदाभूषणभूषितत्त्वात्, निच्छिय-निः आधिक्येन चयनं चयः अधिकश्चयः
जम्ब्वाः सुदर्शनाया द्वादशं नाम। जीवा० ३००/ निश्चयः सामान्यम्। आव० २८३। निच्चराहू- यस्तु नि
| निच्छड्ढा-निष्काशिता। दशवै. ९७ सह सर्वकालमविरहितं चतुरङ्गुलैरप्राप्तं सत् निच्छुभइ-निःक्षिपति बहिःक्षिपति। भग० ८९। चन्द्रविमानस्या-धस्ताच्चरति सः। जीवा० ३३९। निच्छभउ-निष्काश्यताम्। आव० ३५४| निच्चसहाये-नित्यसहाये अवस्थितसहाये यः निच्छभण- गुम्मादेर्निर्वासनं निष्कायेत्। बृह. ४४ अ।
सकलदिव-समाचार्येण सह हिंडते। व्यव० १८३ अ। निष्काशनम्। पिण्ड. १४० निच्चसिद्धजत्तो-नित्यसिद्धयात्रः-स्थलजलचारिपथेष नच्छभति- विक्षिपति आत्मश्लिष्टान् करोति। प्रज्ञा. सदैवाविसंवादितयात्रः। आव०४१४।
५९१ निच्चाउत्त- नित्यायुक्तः सततोपयुक्तः। उत्त० ४५६। | निच्छुभवो-निच्छोभः सान्निष्काशनम्। पिण्ड० ११२॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निच्छ्हणा-निःसरास्माद गेहादित्यादि। ज्ञाता० २००। | निज्जवए-यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निच्छूढं-निष्ठ्युतम्। आव० ३९१। नियूढं दृब्धम्। व्यव० निर्वोढमलं भव-तीति। स्था० ४८६। निर्यापयति-तथा ४०० आ।
करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निच्छोडणा-त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालड़कारानित्यादि। निर्यापक इति। स्था० ४२४। निर्यापकः-असमर्थस्य
भग०६८३। त्यजास्मदीयं वस्त्रादीत्यादि। ज्ञाता० २००९ प्रायश्चित्तिनः प्रायश्चित्तस्य खण्डशः करणेन निच्छोडियं-निच्छोटितं अगुल्यादिना निरवयवीकृतम्। निर्वाहकः। भग. ९२०९ पिण्ड० ८९
निज्जवणा-निर्यापना प्ररूपणाविशेषः। आव० ३८२। निच्छोडेइ-प्राप्तमर्थं त्याजयति। भग०६८३।
निज्जविए- निर्यापित-अवश्यं गंतव्यम्। व्यव० ३६५ । निज-नैयकः। आव० १९७१
निज्जाए- निर्यातयति समापयति। ज्ञाता०६८१ निजका-मातुलादयः। भग०४८३।
निज्जाण-निर्याणः निर्गमनम्। जम्ब० ४०३। निरुपम निजराजदौवारिका- नन्दी०७३।
यानं निर्यानं-ईषत्प्राग्भाराख्यं मोक्षपदम्। आव० ७६९। निजुझं-अंगमोटनादियुद्धम्।
निरूपम यानं निर्याणं-सिद्धक्षेत्रम। ज्ञाता०५१। निर्यानं निजोग-नियोगः व्यापारः। व्यव० १५३ आ।
पुरस्य निर्ग-मनमार्गः। सूर्य०७१। निर्यानम्। आव. निजोगो-अहिगो जोगो। बृह. ३३आ। निर्योगः। आव० ३६६। निर्यानं अन्तक्रिया। आचा० १० निर्यानं६९।
नगरान्निर्गमः। स्था० १७३। निर्याणं निर्गमः। स्था० निज्जंत-निर्यन अधिकं गच्छन्। उत्त० ४९०।
२१११ निज्जंती-नीयमाना। आव० ३९२
निज्जाणकहा-निर्याणं निर्गमः तत्कथा निर्याणकथा। निज्जप्पि-निर्याप्यं यापनाऽकारकं निर्बलमिति। प्रश्न. स्था० २१० १६३|
निज्जाणमग्गे-सिद्धक्षेत्रगमनोपायः। भग० ४७१। निज्जरणं-निर्जरणं तपः। औप० ४८निर्जरणं-जीवप्रदे- निज्जाणसंठिया-निर्याणसंस्थिता-निर्याणं-पुरस्य शेभ्यः कर्मप्रदेशानां शातनम्। भग० ५३।
निर्गमन-मार्गः तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा। निज्जरा-निर्जराः निर्जीर्णाः। प्रज्ञा० ५९९।
सूर्य०७१। निर्जराविपाकात् तपसा वा कर्मणां देशतः क्षपणा। निज्जामओ-निर्यापकः। आव० ३०२। स्था० ४४६। कर्मपुद्ग-लानामनुभूय २
निज्जामय-निर्यामकः। आव० ३८३। अकर्मत्वापादनम्, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टानां निज्जायकारणो-निश्चयेन यातं अपगतं कारणं-प्रयोजनं ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानामनुभूय २
यस्मिन्नसौ। आव०८४४| शातनमितिभावः। प्रज्ञा० २९२। निर्जराविपाकात् कर्म | निज्जावग-निर्यापयति-आराधयतीति निर्यामकः पुद्गलशाटनलक्षणा। सूत्र० ३७९। अति प्राणीभवनम्। आराधकः। ओघ. २० भग. १९| निर्जराफल- विशेषः। ओघ. ३७ निर्जरा निज्जास-निःशेषेण रस्यत इति निर्यासः, मकरन्दः। पुद्गलानां निरनुभावीकृताना-मात्मप्रदेशेभ्यः शाटनम्। दशवै०६४ भग०२८१
निज्जाससारो-निर्याससारःनिज्जरे-निर्जरा-कर्मणोऽकर्मत्वभवनमिति देशनिर्जरा, पत्रादिभेदभिन्ननिर्याससारः। जीवा० २६११ सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदण्डकेऽसम्भवात्। स्था० निज्जिण्णाइं-क्षीणरसीकतानि। भग. ५६९। १९५४
निज्जिन्न-निर्जीर्णाः निज्जरेति-निर्जरयति-त्यजत्याहारितान् वेदितान्। कात्स्र्नेनानुसमयमशेषतविपाकहानि-युक्ताः। भग.
आहा-रपदगलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणैव प्रस्वेदव-दिति। स्था० १२
| निज्जिय-निर्जितः स्वसौन्दर्यातिशयेन परिभूतः। औप०
।
२४१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[125]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #126
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१२
पञ्चकल्पः । ब्रह. २६३ आ। निज्जिरिया-निर्जीर्णा अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्यः | निज्जुत्तीओ-निर्युक्तयः निर्युक्तानां सूत्रेऽभिधेयतया परिशाटिता। भग० १८४
व्यव-स्थापितानामर्थानां युक्तिः-घटना विशिष्टा निज्जीण्णे- निर्जीर्णं क्षीणम्। भग० १६
योजना निर्युक्त-युक्तः। सम० १८१ निज्जीव-निर्जीवकरणं हेमादिधात्मारणं, रसेन्द्रस्य निज्जुहणा-निर्धारणम्। ओघ. १९२१ मूर्छा-प्रापणं वा। जम्बू. १३९।
निज्जुहियं- निर्गृह्यन्ते-आलापनादिभिर्बहिष्क्रियन्ते। निज्जुत्ता- नितरां युक्ताः-सूत्रेण सह लोलीभावेन बृह. ९५। सम्बन्धा निर्युक्ताः अर्थाः। अनुयो० २५८१
निज्जूगं- नि!हकं-दवारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु। निज्जुत्ताणुगमो-निर्युक्त्यनुगमः अनुगमभेदः। आचा० प्रश्न.1
निज्जूढ-नियूंढम् महतः संक्षेपादुद्धृतम्। भग० १००| निज्जुत्ति-निश्चयेनार्थप्रतिपादका युक्तिः नियुक्तिः। निर्घाटितः। ज्ञाता०६८ अमनोज्ञाः। ओघ.१८१
आचा० ४। नितरां युक्ताः-सूत्रेण सह लोलीभावेन नियूढं-पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितम्। दशवै० ९। महतो सम्बद्धा नियुक्ता- अर्थास्तेषां युक्तिः-स्फुटरूपतापादनं ग्रन्था-त्सुखावबोधाय एकस्य युक्तशब्दस्य लोपात् नियुक्तिः
सक्षेपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरुद्धृतम्। भग० १००/ नामस्थापनादिप्रकारैः सूत्रविभजनेत्यर्थः। अनुयो. नियूंढःउज्झितप्रायः। बृह. २०६ आ। २५८। नियुक्तिः निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः | निज्जूहति-नि!थयन्तिपरिपाट्या योजनं नियुक्तयुक्तिरिति वाच्ये
पूर्वलक्षणश्रुतपर्याययूथान्निर्धारयन्ति उद्धरन्ति। भग० युक्तशब्दलोपा-न्नियुक्तिः विप्रकीर्णार्थयोजना। दशवै. ३५९।
निज्जूह-निर्ग्रहः गृहैकदेशविशेषः। जीवा० २६९। नियूहः निज्जुत्तिअणुगम-निर्युक्त्यनुगमः
गवाक्षः व्यव० १३३ अ। नियुक्तिव्याख्यानम्। अनुयो० २५८१
निज्जूहणं- नियूहनं निष्काशनम्। बृह. १२। निज्जुत्तिसंखा- नियुक्तिसङ्ख्या। अनुयो० २३३। | निज्जूहणा- बहिष्करणम्। बृह० ९५अ। अन्यत्र शोधिं निज्जुत्ती- नियुक्तिः निः-आधिक्ये योजनं युक्तिः, वित्युक्तिः । बृह. १५६ आ। अधिका योजना नियता निश्चिता वा योजना। सूत्र० ४। | निज्जूहिऊण-निर्गृह्य- अतिवाह्य। व्यव० ३५९ आ। निर्यक्तिः निश्चयेनाधिक्येन वा यक्तिः निर्यक्तिः- निज्जोग-निर्योगः-उपकरणम। पिण्ड. १श परिकरः। सम्यगर्थप्रकटनम्। सूत्र० २। नियुक्तिः- नियुक्तानां वा ज्ञाता० ५७ निर्योगः-परिकरः। भग०४७९| निर्योगः सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धा-नामर्थानामाविर्भावनं
उपकरणम्। ओघ. १३१| निर्योगःयुक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः। सूत्र० २। नियुक्तिः उपकरणमर्थान्नाट्यो-पकरणम्। राज०४९। निश्चयेनार्थघटना। आचा०४२ निः-आधिक्ये योजनं । निज्झर-निर्झरः-उदकस्य श्रवणम्। भग. २३८५ युक्तिः, सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते स्यन्दनम्। ज्ञाता०६७ वाच्यवाचकतयेत्यर्थः अधिका योजना नियुक्तिः, निज्झरणं-निर्झरणं दानम्। व्यव० २०० आ। नियता निश्चिता वा योजना। ओघ० ४। सूत्रोपात्ता निज्झरा-उज्झरा एव सदावस्थायिनो निर्झराः। प्रज्ञा. अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान्प्रति निर्यज्यन्ते । ७२ निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकया सा। निज्झाइंत-निया॑तः। आव०४८७ पिण्ड. १। निश्चितं निरति-निश्चिताऽधिका वा | निज्झाइज्जा-निध्यापयेत् प्रलोकयेत् प्रदर्शयेत्। आचा. युक्तिरस्यामिति नियुक्तिः नाम
३४१५ निष्पन्ननिक्षेपनियुक्तिः। उत्त० २६२। नियुक्तिः निज्झाइत्ता-निश्चयेन ध्यात्वा चिन्तयित्वा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[126]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
निध्याया | आचा० ७१ | निर्ध्याता तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टा सम० १६। निर्ध्याता प्रबन्धेन निरीक्षिताः। उत्तः ४२५| निर्ध्याता दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता । उत्त० ४२५|
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
निज्झोसइत्ता- निज्झषयिता- क्षपकः क्षपयिष्यति वा तृज - न्तमेतल्लुङन्तं वा । आचा० १६८१
निट्ठवणओ - निष्ठापकः समाप्तिदिवसः । आव० ८४२ | निट्ठावे - मारयति । बृह० ४४ अ
निडाइ - निष्ठां याति प्रच्यवतीत्यर्थः आव० ३३३ निट्ठाणकहा- एतावत् द्रवीणं तत्रोपयुज्यंत इति
निष्ठानकथा स्था० २०११
निङ्काणगं- निष्ठानकं प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितम्। प्रश्न
१६३ |
निट्ठाभासी - निष्ठाभाषी सावधारणवासी । आचा० ३८६ | निडाविअं निष्ठापितम् आव० १५१|
निट्ठिए- निष्ठां गतः, कृतस्वकार्यो जातः । ज्ञाता० ७०| निष्ठितः निरवयवीकृतः । भग० ६७६ ।
निडिय निष्ठितः निष्पन्नः । उत्तः २९७| निस्थिनंकृतं निष्ठां प्राप्तं निस्थितम् । बृह० २०० आ अपनेयद्रव्या-पनयमाश्रित्य निष्ठांगतः । भग० २७७ । निडियट्ठकरणिज्जे- निष्ठितार्थानामिव करणीयम् ।
-
समाप्त कृत्यः । भग० १११। निडियट्ठ- निष्ठतार्थः विषयसुखनिष्पिपासः । आचा० २५४ | निष्ठितार्थः समाप्तप्रयोजनः । म गच्छा० १११ | निष्ठितार्थः कृतकृत्यत्वात्। प्रजा० ६१० | निडियट्ठी- निष्ठितार्थः निष्ठितो मोक्षस्तेनार्थी यदि वा निष्ठितः परिसमाप्तः अर्थः- प्रयोजनं यस्य स
निष्ठितार्थः । आचा० २२९|
निट्ठियाइं कयाइं— निःस्थितानि कृतानि निस्सत्ता विहितानी | भग० २५१ |
निडुर- निष्ठुरं निर्दयम् । भग० २३१। निष्ठुरंमार्दवाननुगतम्। औप० ४२। निष्ठुरं कर्कशशब्दम्। आव० ६१७। निष्ठुरा हक्काप्रधाना। आचा० ३८८ निडुहसि - निष्ठीवसि । नं० ।
निडाल - ललाटम्। उपा० २१ ललाटं अलकम्। जीवा० २७३। ललाटं-भालम्। प्रश्न० ८२ आव० ४२० |
निणक्खू - निस्सारयति । आचा० ३६१।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
निण्ण- निम्नं गम्भीरस्थानम् । जम्बू० २१९१ निण्णग- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५1 निण्हइया लिपिविशेषः । प्रज्ञा० १६ |
निण्हव निह्नवः- गोपनम्। दश० १०५१ निह्नवःएकान्ता-पलापः। दशकै० २३३ | निह्नवः निनहुते आगमाभिहितमर्थ-मतिक्लिष्टकर्मोदयात् कुयुक्तिभिरपनयतीति निह्नवः जमा-लिप्रभृतिः ।
उत्त० १८| निण्हवणं- अदृश्यताकारकम् । विपा० १४| नित्त - नयत्यर्थदेशं
[Type text]
अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति नेत्राणि चक्षुरादीनीन्द्रियाणि आचा० १९३३ नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीराञ्जनादि। उत्त० ४१७% नित्तनं निस्तलं अतिवृत्तम्। भग. ६७१ नित्तुप्पा निस्तृप्पा अचोप्पडा अवग्धारिता वा बृह
२६७ आ
नित्थक्का - निर्लज्जाः । बृह० १५अ नित्थर - निस्तरति । आव० २०७ नित्यरिस्सामि निस्तरिष्यामि आव० ७९३। नित्थिण्णो- निस्तीर्णः । आव० १९२, २२१ | नित्य:- नियतः आव० ७६८८ निदंसिज्जति निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन । सम• १०९ | निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपदर्शनेन नन्दी० २१२१ निदंसेइ- कयञ्चिदगृणतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति निदर्शयति। स्था० ५०२ | कथञ्चिदगृहणतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनर्दर्शयति। भग० ७११|
निदड्ढे निर्दग्धः, रत्नप्रभायां चतुर्थी नरकावासः । स्था०
७६९|
निदाणं निदानम् । आव० ३१०|
३६५|
निदरिसण- निश्चयेन दशर्यतेऽनेन दाष्टन्तिक एवार्थ इति निदर्शनम्। दशवै० ३४ |
निदा- नितरां निश्चितं वा सम्यग् दीयते चित्तमस्यामिति निदा चित्तवती सम्यग्विवेकवती वा प्रज्ञा० १५७ । नियतं दानं शुद्धिर्जीवस्य दैप् शोधने इतिवचनान्निदाज्ञानमा-भोगः, आभोगवती । भग०
[127]
पुनः
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निदानं-देवादिऋद्धीनां दर्शनश्रवणाभ्यामितो
निर्देशः गुरोर्निर्वचनं निर्देशः। उत्त० ७९। कार्याणि प्रति ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठा-नान्ममैता भूयासुरित्यध्ययसायः। प्रश्ने कृते यन्नियतार्थमुत्तरम्। ज्ञाता० १५९। निर्देशनं सम०९।
निर्देशः विशेषा-भिधानम्। दशवै०७ निर्देशः-गुरुणा निदाय- ककारस्य स्वार्थिकप्रत्ययत्वान्निदाम्। भग० पृष्टार्थनिशेषभाषणाम्। उत्त०७३। ७६९।
निद्देसवत्ती-निर्देशवी आज्ञाकारी। दशवै० २५०। निदाह-अधिको दाहः। आव०७६८ निदाघः एकादशम- निद्दोच्च-निर्दीत्यं निर्भयम्। व्यव० ९ अ। निर्दीत्यम्। मासः। जम्बू० ४९०
आव०७३८१ निदेजत्वं- उच्चता। बृह. २१९ अ।
निद्दोस-निद्दोषः द्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहितः। स्था० ३९७ । निइंसण-निदर्शनं दृष्टान्तः। दशवै०४४।
| निर्दोषः-दोषमक्तस्य प्रथमो गणविशेषः। आव० ३७६| निद्द-निद्रा आलस्यम्। जम्बू० २३७।
निर्दोष-हिंसादिदोषरहितम्। अन्यो० १४० निर्दोष निद्दओ-निर्दयः-निर्गतदयः, परानुकम्पाशून्यः। आव० द्वात्रिंश-त्सूत्रदोषरहितम्। अनुयो० १३३ ५९०
निदंत-निर्मातिः नितरामग्निसंयोगः। जीवा. २६७। निद्दमुक्ख-निद्राया मोक्षः पूर्वनिरुद्धायामुत्कलना निद्रा निर्मातं-भस्मीकृतम्। उत्त० ५२७॥ मोक्षः- स्वाप इति। उत्त०५३८1
निदंतमलपावगं-निर्मातं भस्मीकृतं ततो निर्मातमिव निद्दहितुं-निर्दय। आव० ८२९।
निर्मातं मल इवात्मनो विशुद्धस्वरूपघातितया पापमेव निद्दही-निर्दहति। पिण्ड० १७६
पापकं येनासौ निर्मातमलपापकः। उत्त० ५२७। निद्दा- निद्रायणं तु निषण्णस्यैव स्वप्नम्। बृह. २०७ | निबंधस-निःशूकः। ओघ० १५८ निद्धन्धसः-अपगतआ। निद्रासुखप्रबोधा स्वापावस्था
सर्वथादयावासनाकः। पिण्ड०६९। निद्धन्धसः-प्रवचनोनखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति
पघातनिरपेक्षः। आव. ५२६। (देशीवचन) नाधिकृतारंभतद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरिति निद्रा। स्था० ४४७ विराध्यमानप्राण्यनुकंपापरः। व्यव० ९ । सुखप्रबोधा स्वापावस्था निद्रा। जीवा० १२३। नियतं | निद्ध-स्निग्धं बहस्तेहम्। पिण्ड०७०। स्निग्धंद्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यस्यां स्नेहावगाढम्। आव० ७२६। स्निग्धं-मनोहरम्। जम्बू. स्वापावस्थायां सा निद्रा, निद्राणं निद्रा। प्रज्ञा० ३६७) १०२ निद्दाइया-निद्राणा। आव० ५५९|
निघण- स्निग्धघनः। ज्ञाता०६। निद्दानिद्दा- निद्रातोऽतिशायिनी निद्रानिद्रा। प्रज्ञा०४६७) निद्धमणं-निर्धमनं निर्दग्धम्। प्रश्न० ८२ निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा दुःखप्रबोधा
निद्धमणठाण-निर्द्धमनस्थानं उपघसरस्थानम्। ओघ. स्वापावस्था। स्था०४४७।
ધરા. निद्दामत्तो-निद्रामत्तः-निद्राभिभूतः। आव०७९१| निद्धमणाई-निद्धमणादि नगरोदकोपघसरादि निद्दारितं- निर्दारितं-विस्फारितम्। प्रश्न०४९।
उपघातस्थानम्। ओघ० १६२ निद्दिद्व-निर्दिष्टः उक्तः। दशवै० १९१।
निद्धम्मा-निर्द्धर्मः। ओघ० १५० निद्देस-निर्देशनं निर्देशः
निद्धया-स्निग्धता अरुक्षता। ज्ञाता० १७० कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य-
लिङ्गार्थमात्रस्य निद्धाइऊण-निर्गत्य। उत्त०२१४१ प्रतिदानं तत्र प्रथमा भवति। स्था० ४२८ निर्देशः- निदाहिति-निर्द्धाविष्यन्ति-निर्गमिष्यन्ति। भग० ३०९। उपन्यासः। बृह० अ० १८१ अ। आणा। दशवै० १३८ निद्धणे-निधूय-प्रस्फोट्य। दशवे. २२४। निर्देशः-प्रश्निते कार्ये नियतार्थमत्तरम्। भग० १६८१ नियं-निद्भूतं अपनीतम्। जीवा० १८८१ निर्देशः-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनम्। उत्त०४४१ निद्रायते-सकलक्षुदादिदोषापगमतः सुखासिकाभावेन निर्देशः विशेषाभिधानम्, विशेषितश्च। आव. १०४ निद्रा-यते-पयलायेत। जीवा० १२३
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[128]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निधत्त-उदवर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन प्रग्रहशब्देन गुर्वाज्ञाऽभिधीयते, प्रग्रहो नियन्त्रणा व्यवस्थापि-तम्। प्रज्ञा०४०२आचा० २०६। निधत्तं- गुर्वाशेति यावत् निर्गतः प्रग्रहादिति निष्प्रग्रहः तस्य इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पदगलानां निचयं कृत्वा भावो निष्प्रग्रहता गुर्वाज्ञाया अभावात् धारणं रूढि-शब्दत्वेन निधत्तमुच्यते,
पाणिपादमुखधावनादि निःशकं करोती-त्यर्थः। बृह. उदवर्तनापवर्तनव्यतिरिक्तकरणाना-मविषयत्वेन १९२ आ। कर्मणोऽवस्थानमिति। भग. २५१
निप्पच्चक्खाणपोसहोववासेनिधाग-निक्षेपः। अनुयो० ५२|
अविद्यमानपौरुष्यादिप्रत्यानिधानं-निधिः निक्षेपः न्यासः विरचना प्रस्तारः
ख्यानोऽसत्पर्वदिनोपवासश्चेत्यर्थः। ज्ञाता०२३८५ स्थापना च। अनुयो० ५२॥
निप्पट्ठ-निरस्तानि स्पष्टानि व्यक्तानि। उपा० ३९| निधान- चक्रवतिराज्योपयोगीद्रव्यम्। स्था० ४४९। निर्गतानि स्पष्टानि। ज्ञाता० ११०| भग० ६८४१ निधापालः-अर्थार्जनपरो दृष्टान्तः। आव. २७७। निप्पट्ठपसिणवागरणो- निस्पृष्टप्रश्नव्याकरणः। आव. निनाए- निनादः शब्दः। भग० ३२३। महाघोषः। भग० ३१९| ४७६|
निप्पडिकम्मो-निष्प्रतिकर्मा। आव. २२७। निनादः- शब्दितः। ओघ०४८१
निप्पत्ती-निष्पत्तिः सिद्धिः। स्था० ४४९। निन्दनं- पश्चात्तापः। ज्ञाता० २०६।
निप्पाण-निष्प्राणं उच्छवासादिरहितम्। ज्ञाता० ८५ निन्दा-कुष्ठी त्वमसीत्यादी। स्था० २६। आत्मसाक्षिका। निप्पावकुडो- निष्पावकुटः वल्लकुम्भः। आव० ३१०
स्था० १३७। स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सा। आव० ४८६) निप्पिट-निष्पिष्टः सुपेषितम्, पेषणपरिसमाप्तिः। निन्दितुं-अतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुम्। स्था० ५७। पिण्ड. १६४१ निन्न-निम्नः नीचभूभागः। उत्त. ३६१। निम्नं- निप्पिवास-घोरहृदयः। व्यव० १४० आ। शुष्कसरः-प्रभृति। भग०६८३।।
निप्पिवासा-निष्पिपासा निराकाङ्क्षा। प्रश्न. ३६| निन्नए-पुरिमताले अण्डकवणिक्। विपा० ५८॥ निप्पीलणा-निष्पीडना अत्यन्तमावलनमात्मिका। निन्नगरा-निर्नगराः-नगरनिष्क्रान्ताः। भग०६९१| उत्त०८1 निन्नगा-निम्नगा नदी। प्रश्न. १३५
निप्पीलिज्जइ-निष्पीड्यते। आव०६२१| निपच्चक्खाणपोसहोपवासा
निप्पलाए-जम्बूदवीपे भरतक्षेत्रे उत्सर्पिण्यां निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासाः असत्पौरुष्यादिनियमाः | आगामिचतुर्विंश-तिकायां चतुर्दशो जिनः। सम० १५३।
अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवासाश्च। भग० ३०९। निप्फज्जए- निष्पद्यते निष्पादयति। सूर्य. १७३। निपतनानि-प्रवाहरूपतया वहनानि। जम्बू. १२५ निप्फण्ण- सम्यक्सूत्रार्थकुशलः। बृह० २८४ अ। निपातस्थानं-तडागम्। नन्दी० ५८१
निप्फण्णायावणा- निष्पन्नातापना। औप०४०। निप्पंक-निष्पकं कलकविकलं कर्दमरहितं वा। जीवा. निप्फाइयनिप्फन्नं-निष्पादितनिष्पन्नं स्वार्थ
१६११ प्रज्ञा० ८७। निष्पकः-आर्द्रमलरहितः। औप०१० निष्पाद्य पुनः साध्वर्थं निष्पादनम् निष्पादितेननिप्पंका-निष्पड़का आर्द्रमलाभावात् अकलकत्वाद्वा। गृहिणा स्वार्थं कृतेन निष्पन्नं यत् करम्बादि मोदकादि स्था० २३२॥
वा तन्निष्पादितनिष्पन्नम्। पिण्ड० ७९ निप्पगलो-निष्प्रगलः। ओघ० ३३।
निप्फाईया-निष्पादिता योग्यतामापादिताः। आचा. निप्पग्गहया-यथा तया रश्म्या
३६४१ वल्गापरपर्याययोन्मार्गप्र-स्थितस्त्रङ्गमो | निप्फाव-निष्पावा (नः) वल्लाः। भग० २७४। निष्पावाः मार्गेऽवतार्यते तथा गुरूणामप्याज्ञावल्गया साधुः वल्लाः । दशवै० १९३। वल्लाः । भग० ८०२। दशवै० ९२ प्रमादत उत्पथप्रतिपन्नोऽपि सन्मार्गेऽवतार्यते इति आ। स्था० ३४४। सत्रिभागकाकण्या
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[129]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
त्रिभागोनगुञ्जाद्वयेन वा निवृत्तो निष्पावः। अनुयो० | निभेलणं- गृहम्। मरण। १५५
निभेल्लंतं-निर्भलितं-कुक्षितो बहिष्कृतम्। प्रश्न० ४९। निप्फेड-निष्फेटः निष्काशनम्। आव० ७००
निमंतणा-दशधा सामाचार्यां नवमी। भग० ९२०। निमनिप्फेडिउं- निःस्फिटितम। दशवै. ३७
न्त्रणा-अगृहीतेनैवाशनादिनाऽहं निप्फेडेह-निष्काशयत। आव०४२५)
भवदर्थमशनाद्यानयामि इत्येवम्भूता, दशधा निबद्धा- पर्यायार्थतया
सामाचार्या नवमो भेदः। आव. २५९। प्रतिसमयमन्यथात्वावाप्तेर्निबद्धाः- सूत्र एव ग्रथिता। अद्याप्यगृहीतेनाशनादिना साधूनामामन्त्रणम्। सम०१०९|
अनुयो० १०३। निमन्त्रणा-तेनैवागृहीतेन यथालाभं निबद्धाउए- प्रकृतिस्थित्यनभागबन्धापेक्षया। ज्ञाता० युष्मद्योग्यममुकमानेष्ये इति प्रार्थना। बृह. २२२ अ। १८३
गृहस्थानामभ्यर्थना। बृह. २४ । निबन्धमार्ग-दवासप्ततिकलायां गीतकलायाः दवितीयो | निमंतेति-निमन्त्रयति। आव. १९८१ भेदः। सम०८४१
निमग्गो-निमग्नः-अन्तःप्रविष्टः। जीवा० २७०। निबुड्डा-निमग्नाः। उत्त० २३३।
निमग्नजल-नदीविशेषः। स्था०७१| निब्बंध- निर्बन्धः- आग्राहः। ओघ० ८६।
निमज्जनं-त्वग्वतनम्। ओघ०५८, १३०| निब्बलासए-निर्बलं-निःसारमन्तप्रान्तादिकं यद्रव्यं | निमज्जए-निमज्जकः स्थानार्थं निमग्ना एव ये तदा-शकः- तद्भोजी स्यात्, यदि वा निर्गतं बलं
तिष्ठन्ति। ओप०९०१ सामर्थ्यमस्येति-निर्बलः एवम्भूतः सन्नासीत। आचा. निमज्जगा-स्नानार्थं निमग्ना। भग. ५१९। २१८
निमज्जगा-स्नानार्थं ये निमग्ना एव क्षणं तिष्ठन्ति। निब्बाहि-निर्बहिः अत्यन्तबहिर्बहिस्तात्तरा। स्था० ३५३। निर०२७ निब्बुकच्छिन्नधय-निबुक्कच्छिन्नध्वजः
निमज्जण-प्रवेशः। उत्त०७११। निर्मूलनिकृत्तकेतुः रथः। प्रश्न० ४९।
निमन्त्रितं-निमंत्रणा पुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते निभंच्छइ-नितरां दुष्टमभिधत्ते। भग० ६८३।
तत्। व्यव० १६० । निभंछणं-निर्भर्त्सनं-अपसर मे
निमित्तं- “तिविहं होइ निमित्तं तोयप्पड़प्पन्नणागयं दृष्टिमार्गादित्यादिकम्। प्रश्न. १६०
चेव। तेण न विणाउनेयं नज्जइ तेणं निमित्तं तु।" निब्भंछणा-न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिपरुषवचनम्। अतीतं प्रत्युत्पन्न-मनागतं च भग०६८३
कालत्रयवतिलाभालाभादिपरिज्ञानहेतुः। बृह. २१५। निब्भए-निर्भयः शूरत्वात्। ज्ञाता०६७।
निमित्तः-अष्टाङ्गस्य निमित्तस्य। आचा० ४१९। निब्भओ-निर्भयः इह लोकादिसप्तभयविप्रयुक्तः। आव० अनागतार्थपरिज्ञानहेतुः। ओघ०१४। कार्यवाचकः कारणं ५९
वा। आव. २८० निमित्तं लक्षणं निमित्तलक्षणम्। निब्भच्छण-निर्भर्त्सनं-आक्रोशविशेषः। प्रश्न. ५६। आव. २८२। दण्डकशाशस्त्रादीनि समाहारद्वन्द्रस्तत्र निभिज्जमाणं-नितरां निर्भिदयमानं अतिशयेन सति आयु-र्भिद्यत इति सम्बन्धः। स्था० ४००। हेतुः। भिद्यमानम्। जीवा० १९१।
स्था० ४२७ अङ्गुष्ठप्रश्नादि। आचा० ३५१| निब्भेरिय-प्रसारितानि। उत्तथ० ३६७)
चूडामण्याद्युपदेशेनातीता-दिभावसंवादनम्। प्रश्न निभ-नितरां भात इति निभम्। ज्ञाता० १६८।
१०९। पटस्य तन्तव इव कारणम्। आव २७८। मिश्रितंनिभा-छाया। उत्त०४४२
नियमितम्। आव० ८५६। निमित्तं-अतीतादि। दशवै. निभिय-निभृतः-परद्यनादानव्यापारादुपरतः। प्रश्नः । २३६। निमित्तं-अतीतादयर्थपरिज्ञानहेतुः १२४। संयतः। सूत्र० ३८४१
शुभाशुभचेष्टादि। पिण्ड. १२११
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[130]]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #131
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निमित्तउल्लोगो-निमित्तावलोकः। आव. २१४ निम्मेरा-निर्मर्यादाः प्रतिपन्नापरिपालनादिना। स्था. निमित्तकारणं- कलालादि। स्था०४९४।
१२६। अविदयमानकलादिमर्यादः। भग० ३०९। निमित्ताजीवयाते-निमित्ताजीवनतया
निम्मोअणी-निर्मोचनी निर्मोकः। उत्त०४०७ कालिकलाभादि
नियंटितं- नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितम्। भग० २९६। विषयनिमित्तोपात्ताहारादयुपजीवनेनेति। स्था० २७५) नितरां यन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादौ निमिसंतरं-निमेषान्तरम्। आव० २०८।
ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमान् कर्तव्यम्। स्था. निमुग्गं-निमग्नं अनुन्नतम्। प्रश्न० ८०
४९ निम्नं-अङ्गुलिपर्वरेखा। ओघ. १७११
नियंटियं- नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादौ निम्बतिल-निम्बकुसुमम्। व्यव० १५९ अ।
ग्लाना-द्यन्तरायभावेऽपि नियमात् कर्तव्यमिति निम्म-निर्मापितम्। व्यव० ४०१ अ।
हृदयम्। आव०८४० निम्ममे-जम्बुदवीपभरते आगामिन्यामवसपीण्यां नियंठ-निर्ग्रन्थः श्रमणः। भग० ११२॥ पञ्चदशतीर्थ-कृद्। सम० १५४।
नियंठणामिओ-निर्ग्रन्थनामितः। आव० ४१२। निम्मयया-निर्मायता विकाररहितत्वम्। दशवै० १२१॥ नियंठा-निर्गताः स बाह्याभ्यन्तरग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाःनिम्मलं-निर्मलं आगन्तुकमलाभावात्। प्रज्ञा०
साधवाः। भग० ८९११ ८७निर्मलं-आगन्तुकम-लासम्भवात्। जीवा० १६१। नियंठि-उत्तराध्ययनेषु षष्ठमध्ययनम्। उत्त०९। निर्मलं-छायादि-दोषरहितम्। जम्बू. ५२८१
नियंठिज्जं-निग्रन्थीयं उत्तराध्ययनेष स्वाभाविकमलरहितम्। भग० ६७२। निर्मलानि
विंशतितममध्ययनम्। उत्त० ९। कक्खड(कर्कश) मलाभावात्। सम० १४० निर्मलः- नियंठिपुत्ते- पुद्गलप्रदेशनिरूपणे महावीरशिष्यः। भग० विगतमलकल्पसूक्ष्मतरवालाग्रः। भग० २७७। ब्रह्यलोके | २४० चतुर्थो विमानप्रस्तरः। स्था० २६७। निर्मलः
नियंठु-निर्ग्रन्थोद्देशः। भग० ३२३। कठिनमलरहितः। औप०१०| निर्मलः-स्वभावो- | नियंठद्देसए- निर्ग्रन्थोद्देशकः। भग० ३२४। द्वितीयशते त्थमलरहितः। जीवा० २७२।
पञ्चमोद्देशकः। भग०४२०| निम्मलतरा-निर्मलं जीवं करोति या सा तथा अतिशयेन | नियंत- गच्छन्। आव०६४९। वा निर्मला निर्मलतरा, अहिंसायाः षष्ठितमं नाम। नियंसणं-परिधानम्। जीवा. १७३। प्रश्न९६।
नियंसति-परिधापयति। आव० १२३। निम्मल्ल-निर्माल्यं-तीर्थादिगत स प्रभाव प्रतिमा शेषा। । नियंसिकं-परिहितम्। मरण। पिण्ड० ९६|
नियंसेहामि-परिधास्ये। आव० ३०७ निम्मवियं-निर्मितं समापितम्। आव०७०६।
नियइ-नियत्या नैयत्येन। जम्बू०४४। निम्मवेइ-निर्मिमीते। आव०४१०५
नियइइया-नियतिर्व्यवस्था तत्र नियुक्तास्तथा वा निम्मा-निर्मा मूलपादानां। बृह. १८४ अ। जीवा० १४४ चरन्तीति नैयतिकाः। व्यव. १७१ अ। निम्मिअ-निर्मितः-निवेशितः। जम्बू. २११। नियइपव्वय-नियत्या-नैयत्येन पर्वतो नियतिपर्वतः। निम्मितवादी- निर्मितं-ईश्वरब्रह्मपुरुषादिना कृतं लोकं । | जीवा० २००। जम्बू०४४।। वद-तीति निर्मितवादी। स्था०४२५
नियइया-नैयतिकी नियता। प्रज्ञा० ३३५। निम्मिय-निर्मितं निवेशितम्। उपा०४४। निर्मितः नियई-यत राद्धावपि नियतरसत्वं न शाल्यादिरसता सा निवेशितः। भग० ४५९।
नियतिः। प्रश्न० ३५ निम्मग्गा-निर्मग्ना नदीः। आव० १५०
नियए-नित्यः अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावः। त्त० निम्मेरं-निर्मर्यादम्। गच्छा
४३०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[131]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #132
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नियओ-नियतः-परिच्छिन्नः। आव. ५९१|
अण्णहाकरणलक्खणा माया। आव० ६६२। निकृतिःनियग-निजकः गोत्रजः। भग. १६३। निजकः
कैतवार्थप्रयुक्तवचनाकाराच्छादनम्। बृह. ४६। भ्रातृपुत्रादिः। औप० १०३। निजकः-भर्ता। पिण्ड० १२२ नियडी- माया। बृह. १८६अ। आव०६३८१
नियणा-निदानं निर्दणणं। बह. ४ आ। नियगा-णियगा-आत्मीयाः। आचा० १०५ निजाः- नियतंति-निबद्धं। निशी. ३५अ। आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा। आचा० १०८।
नियत-नियतार्थविषयेनैककालमनेकविषयम्। ब्रह. ९ नियच्छंतो-अन्वेषयन्। बृह. २१३अ।
आ। एकरूपत्वात् नियतः। स्था० ३३३। नित्यम्। स्था० नियच्छइ-नियच्छति बध्नाति। उत्त०४१६)
४२६। नियच्छइ-नियच्छतः निश्चयेन गच्छतिः प्राप्न्तः। नियतवादिन-पाखंडीविशेषः। सम.११० सूत्र० ३५
नियतिः- व्यवस्था। व्यव० १७१ अ। नियच्छन्ति-अवधारयन्ति। आचा० १६७।
नियतिवादिनः-नियतिः-पदार्थानामवश्यन्तया नियट्टी-निवृत्तिः द्विसमयस्थितिकस्यापि वेद्यकर्मणो यद्यथाभवने प्रयोजककर्तीति। स्था० २६८। बन्ध-व्यावृत्तिः मुक्तिः । उत्त० ५८९।
नियत्त-निवर्तनम्। ओघ० १७४। निवृत्तः। आव०६९३। नियट्टेमाणे- निवर्द्धयन-प्रकाशहान्या हानि नयन्। सम० नियत्तण-निवर्तनं-क्षेत्रमानविशेषः निजतन्प्रमाणं वा। ४७
भग. १६७ नियड-निगडं-दृढबन्धनम्। आचा०६।
नियत्तणसइए-निवर्तनं भूमिपरिमाणविशेषो नियडि-निकृतिः-आन्तरो विकारः। आव० ५६६)
देशविशेषप्रसिद्धः ततो निवर्तनशतं कर्षणीयत्वेन बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणं, अधिकोपचारकरणेन यस्यास्ति तन्निवर्तनशति-कम्। उपा०४। परच्छलनम्। ज्ञाता० २३८ निकृतिःवश्वनक्रिया। नियत्तणियं-निवर्तनिकं निवतनं-क्षेत्रमानविशेषः प्रश्न. ५८ वञ्चनप्रच्छादनार्थं कर्म। ज्ञाता०८०
तत्परिमाणं निवर्तनिकं निजतनप्रमाणं वा। भग. मायाप्रच्छादनार्थ-मायान्तरकरणम्। ज्ञाता० २३८। १६७ निकृतिः-अत्यन्तादरकरणेन परवञ्चनम्। प्रश्न. ९७) । नियत्ती- निर्वतनं निवृत्तिः, प्रतिक्रमणपञ्चमःपर्यायः। निकृतिः-अत्युपचारकरणेन वञ्चनं, माया कर्मा
आव० ५५२। नियतिः-स्वभावविशेषः। प्रश्न. ३५ च्छादनार्थं वा। मायान्तरम्। प्रश्न. ९२। निकृतिः- नियत्थं- नियसितं परिहितम्। आव०१८४ आकार-वचनाच्छादनम्। व्यव० १९भ।
नियम-निरोधः। ओघ. ११४। निश्चयः। पिण्ड. १६९। नियडिकम्म-निकृतिकर्म-मायाकर्म,
इन्द्रियनोइन्द्रियभेदभिन्नः। आव०६७। ततीयाधर्मदवारस्यैको-नत्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ४३।। द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः। उत्त०४५१। अभिग्रहः। भग. नियडिकवडवंचणाकुसला
६२। उत्तरगुणसमूहात्मकः। अनुयो० २५६) निकृतिकपटवञ्चनाकुशलानि-कृतिः-आन्तरो विकारः नियमणिसिद्धो- नियमनिषिद्धः। आव २६७। कपट-वेषपरावर्तादिर्बाह्यः, आभ्यां या वञ्चना तस्यां नियमाः- उत्तरगुणाः। सम० १०७। कुशला-निपुणा। आव० ५६६।
इन्द्रियनोइन्द्रियदमरूपाः। नन्दी०४६। नियडिनिबंधणं- निकृतिनिबन्धनम्। आव० ३९५ अभिग्रहविशेषाः। भग०७५९। सम. १२७ नियडिल्ल-निकृतिमान् मनसा। उत्त० ६५६।
शौचसंतोषतमः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि। ज्ञाता० नियडिल्लयाए-निकृतिः-वंचनार्थं चेष्टा
११० विचित्रा अभिग्रहविशेषाः। राज० ११९। ज्ञाता०७ मायाप्रच्छादनार्थं मायान्तरमित्येके अत्यादरकरणेन । नियमिता-जिताः। बृह. २११ आ। परवञ्चनमित्यन्ये तदवत्ता। भग०४१२१
नियम-नियमयेत् कारयेदवाचा। आचा०४१६) नियडि-निकृतिः। आव. २६४, ३९४१ माया० आव०७९८१ | नियय-निहतं-सर्वदा। पिण्ड. १६७। नियतं-प्रतिदिवसं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[132]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #133
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२७
निरन्तरम्। पिण्ड ७७ नियतः-सदा
आचा० ४२ नियागं-आमन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं भोग्यत्वेनावस्थितः। जीवा० २०० जम्बू०४४। नियतः नित्यं न त्वनामन्त्रि-तस्य। दशवै० ११६ नितरां यजनं नित्यः । आव०७६८1 सततम्। ओघ. १८०
यागः-पूजा यस्मिन् सः नियागः-मोक्षः। उत्त०४६। निययपव्वय-नियतः सदा भोग्यत्वेनावस्थितः पर्वतो नियाण-निदानं उपादानं कम। आचा० २३४| विषयानियत-पर्वतः। जीवा० २००९
भिष्वङ्गात्मकम्। उत्त०४१४। आशयः। आव०६१० निययपव्वया-नियताः सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वताः नितरां दीयन्ते-लूयन्ते दीयन्ते वा खण्ड्यन्ते तथाविधयत्र व्यन्तरा देवदेव्यो भवधारणीयेन वैक्रियशरीरेण सानुबन्धफलाभावतस्तपः प्रभृतीन्यनेनेति निदानंप्रायः सदा रमन्ते। जम्बू०४४।
साभि-ष्वङ्गप्रार्थनारूपम्। उत्त० ३८४। नियमा-नियता-सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात्, साभिष्वङ्गप्रार्थनारूपः। उत्त ७०७ निदानं
जम्ब्वाः सुदर्शनाया एकादशं नाम। जीवा० २९९। आकाङ्क्षा। सूत्र. २६४। कर्ममल-शोधनम्। उत्त० ४४९। निययी-निकृतिः-मायायाः प्रच्छादनार्थं वचनम्। निदानं-आरम्भरूपं आश्रवः हेतुर्वा। सूत्र १८८1 अधर्मदवारे मृषावादस्य त्रयोविंशतितमं नाम। प्रश्न. निदानशल्यम्। ओघ० २२७। निदानं अभि
लाषानुष्ठानम्। आव० ५७९ नियल-निगडं लोहमयम्। औप०८७। निगडः। आव. नियाणचिंतण-निदानचिन्तनं-निदानाध्यवसायः। आव. २२४, ६८३। उत्त० ५५५। निगडं पादविषयलोहमयब- ५८५ न्धनम्। पिण्ड० १५७। नियलियओ विव चलणे नियाणछिन्ने- निदानं प्राणातिपातादि कर्मबन्धकारणं वित्थारिय अहव मेलविउ, कायोत्सर्गेऽष्टमो दोषः। छिन्नं अपनीतं येन स तथा छिन्ननिदानः, श्राव०७९८१
अप्रमत्तसंयत इति। उत्त०४१४। नियलबद्धो-निगडबद्धः। आव० २२२।
नियाय-नियागः मोक्षः सद्धर्मो वा। सूत्र० ३६। ज्ञात्वा। नियलमाई-निगडादिभ्यः
आचा० २१० आदिशब्दात्कारागृहादिपरिग्रहः। उत्त० ५५५। नियुक्तः- राजपुरूषः। नन्दी० १५१। नियल्ले-अष्टाशीतितममहाग्रहे
नियुक्तकः- राजपुरुषः। प्रज्ञा० ८९। यः कार्यार्थं त्रिपञ्चाशत्तममहाग्रहः। स्था० ७९।
नियोजितः कर्मकर इति। उत्त० २७२। नियल्लग-निजकः। आव० ३०७।
नियोग-नियुज्यते साधुः आचार्यप्रायोग्यानयनार्थम्। निया-नीता। स्था० २२२॥
ओघ० ८५। नियतो निश्चितो वा योगो नियोगः, नियाए- निदानं निदा-प्राणिहिंसा नरकादिदुःखहेरिति अनुयोगस्य पर्यायः। आव० ८६। जानताऽपि यद्वा साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति । नियोगतः-अवश्यम्। आव. २६५ परिज्ञानवताऽपि यज्जीवानां प्राणव्यवपरोपणं सा नियोगामच्चो-नियोगामात्यः नियोगनिमित्तेन निदा। पिण्ड० ४२। कारणेन संकल्पेन। आचा० ३४। कलङ्कदाता। आव०६९३| निदान-व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य हा। धिक् सम्प्रत्येष मां | निरंतरगो-निरंतरकः लघुच्छिद्रैरपि रहितः। जीवा० ३६९। मारयिष्यतीति परिजानतो यत् प्राणव्यपरोपणं सा। | निरंतरिए- धनकवाडे निर्गता अन्तरिका-लघ्वन्तररूपायपिण्ड० ४२। निदानं स्वार्थं परार्थं चेति विभागेनोद्दिश्य योस्तौ निरन्तरिकौ अत एव धनकपाटौ यस्य तत्तथा। यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा। पिण्ड० ४२१
जम्बू० ४४। नियागं- निययं। दशवैः ५०| नित्यागं-नित्यपिण्डम्। निरंभा-वैरोचनेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी। भग. ५०३। उत्त० ४७९। संयमो मोक्षो वा। यजनं यागः नियतो निरए-नरकः-प्रकीर्णकरूपो नरकावासः। प्रज्ञा०७१। निश्चितो वा यागो। आचा० ३६९। नियागः-मोक्षमार्गः, | निरणकंप-विगतप्राणिरक्षः, निर्गता वा जनानामनुकम्पा संगतम्, सम्यग्दर्शज्ञानचारित्रात्मकः मोक्षमार्गः। । यत्र स। ज्ञाता० ८०। निरनुकम्पः-जो उ परं कंपतं दह्रण
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[133]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #134
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________________
[Type text )
।
न कंपए कढिणभावो । एसो उ निरणुकंपो अणुपच्छा भावजोएणं यस्तु परं कृपास्पदं कुतश्चित् भयात् कम्पमानमपि दृष्ट्वा कठिनभावः सन्नकम्पते एष निरनुकम्पः । बृह• २९६ निरणुक्कोस- निरनुक्रोशः निर्दयः । ज्ञाता० ८०| निरणुतावो निरनुतापः निर्गतानुतापः,
पश्चात्तापरहितः । आव० ५९० ज्ञाता० ८० निरती - देवानन्दाऽपरनाम् । जम्बू० ४९२ | सूर्य० १४७ निरत्थय - निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिदर्शनमात्रं विषते न पुनरभिधेयतया कश्चिदर्थः प्रतीयते तत् । द्वात्रिंशततम सूत्र दोषे तृतीयदोषः आक० ३७४ निष्फलम्। दशवं. १२७| निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशनमात्रमुपलभ्यते न त्वर्थः । अनुयो० २६१ | निरत्ययमवत्थयं निरर्थकापार्थकं निरर्थकं
सत्यार्थान्नि-ष्क्रान्तं अपार्थं अपगतसत्यार्थम्, प्रथम अधर्मद्वारस्य सप्तमं नाम । प्रश्न० २६
निरन्तरा :- हृदयशून्याः । आचा० १८६, २२८ निरयं नरकावासः अनुयो० १७१। निर्गतशुभफलम् । प्रश्न० ९२ | नीरजाः रजोरहितः । औप० १० | निरयः निर्गतमयं इष्टफलं कर्म यस्मात् स नरकः । भग० १९॥ निरयगइया निरयगतिः गमनं येषां ते निरयगतिकाः, इह सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनो वा ये पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगत वर्तन्ते ते निरयगतिकाः विवसिताः । भग० ३४६ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
निरयछिद्द - नरकच्छिद्राणि । प्रज्ञा० ७७ निरयनिक्खुड-नरकनिष्फुटाः गवाक्षादिकल्पा
नरकवास- प्रदेशाः । प्रज्ञा० ७७ |
निरयपत्थड नरकप्रस्तटः नरकभूमिरूपः । प्रज्ञा० ७१। निरयपत्थडा– नरकप्रस्तटाः । अनुयो० १७१ । निरयवत्तणि- निरयवर्त्तिनि नरकमार्गः । प्रश्न० ६१ । निरयवाला - शक्रेन्द्रस्य आज्ञावर्ती देवः । भग० १९७ । निरयविभत्ती - निरयविभक्तिः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे पञ्चम-मध्ययनम् । सम
३१ | आव० ६५१ |
निरया - इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया:नरका - वासाः । जीवा० ३३ प्रज्ञा० ४३ । निर्गतं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
अविद्यमानमयं इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयाः । स्था० २८ नरकहेतुः, विशिष्टवेगो वा प्रश्न. ९२१ निरयावलिया नरकावलिकाः आवलिका व्यवस्थिता
नरका - वासा। प्रज्ञा० ७१ |
निरयावलियाओ - यत्रावलिकाप्रविष्टा इतरे च
नरकावासाः प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च नरास्तिर्यञ्चो वा वर्ण्यन्ते ता निरया - वलिकाः । नन्दी० १०७ । निर० ३ | निरयावली - नरकावासपङ्क्तिः । अनुयो० १७१। निरवकंखा - निष्क्रान्तमाकाङ्क्षातो निराकाङ्क्षम् । उत्त
६००|
निरवज्जं निरवद्यं निर्गतपापम्, इहलोकाद्याशंसारहितम् । आव० ५९६ । निरवयक्ख निरवकाक्ष:
पश्चाद्भागमनवेक्षमाणस्तन्निस्पृहः अनभिलाषवान् ।
ज्ञाता० १६९। निर्गताऽपेक्षापरप्राणविषया परलोकादिविषया वा यस्मिन्नसौ निरपेक्षः
निरवकाङ्क्षो वा अवकाङ्क्षारहितो वा । प्रश्न० ५| निरवयवः समस्तः । बृह० ३६ आ निरवलावे - निरपलापः नान्यस्मै कथयेदिति, द्वात्रिंशद् योगे सङ्ग्रहे दद्वितीयो योगः आव० ६६३॥ निरवशेष :- प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवं
लक्षणः । आव० २७ |
निरवसेस - निरवशेषता अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयः । स्था० २२३ | निरवशेषो - निरवशेषस्य
[134]
प्रसक्तानुप्रसक्तस्यार्थस्य कथनात्। भग० ८६९। निरवशेषं - सामस्त्येन । प्रज्ञा० ५८२ | निरवशेषंसमयाशनादिविषयः । आक० ८४०। निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमशनायाहारजातं यस्मात्तत् निरवशेषं सर्व्वमशनादि तद्विषयत्वान्निरवशेषम् स्था० ४९८८ निरवशेषं समग्राशनादिविषयम् । भग० २९६ । निरवशेषप्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्वभावेनान्यूनाः । भग०
१४९ |
निरवसेससव्वते - अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयेण सर्व्वं निरवशेष सर्व्वम् स्था० २२३॥
निरवेक्खो निरपेक्षः-निरभिलाषः, निरभिष्वङ्गः । उत्तः २६९॥ निरपेक्षः इहान्यभविकापायभयरहितः आव• ५९० |
"आगम- सागर- कोषः " [३]
Page #135
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निरस्साविणी- निष्क्रान्ता आश्राविभ्यः प्राग्वत् सन्धिभो | शब्दनिरुक्तप्रतिपादकः। ज्ञाता० ११० निराश्राविणी। उत्त. ५०१।
निरुत्ती-निश्चिता उक्तिः निरुक्तिः। अनुयो. २६० निराग-निरन्तरायः। उत्त० ८९।
व्युत्पत्तिः । अनुयो० २६४। निरागारं-अपवादशून्यम्। आतु०|
निरुत्थाई-न निमित्तं विनोत्थानशीलो निरुत्थायी। निरामया रोगरहितः। आव० ४१९।
उत्त० ५८१ निरामयामय-निरामयामयः नीरोगस्याऽऽमयभावः निरुद्ध-परिगलितम्। आचा० १९१। आवृत्तम्। सूत्र०७४। रोगोत्पत्तिः । दशवै० १३१|
विनाशितः। व्यव. २४१। निरुद्धः। उत्त० ५८२। निरामिस-निरामिषा, परित्यक्ताभिष्वगहेतुः। उत्त. अध्यवसानादिभिरुपक्रमणकरणैरवष्टब्धः। उत्त. २८३। ४१०
अल्पः। स्था० १८१ निरुद्धः-अर्थस्तोकः, स्तोकनिरायं-नितराम्। आव. २२२, ७००
कालीनम्। सूत्र. २५० विनाशितः। व्यव० २४१ अ। निरारम्भे- निर्गतः आरम्भात्
निरुद्धगतयः-सिद्धाः। उत्त०७८४| असत्क्रियाप्रवर्तनलक्षणादिति निरारम्भः। उत्त० ९९। निरुद्धभवे-निरुद्धभवः-निरुद्धाग्रेतनजन्मा निरालंबण-निष्कारणं प्रत्यपायसम्भवो वा
चरमभवप्राप्तः। भग० १११| त्राणायाऽऽलम्ब-नीयवस्त्वर्जितः। ज्ञाता० १५८ निरुदभवपवंचे-अप्राप्तव्यभवविस्तारः। भग० १११| निरालम्बनः-एहिकाम्-ष्मिकाशंसारहितः। आचा० ४३१| | निरुवकिट्ठ-निरुपक्लिष्टः-व्याधिना प्राक् साम्प्रतं निरालोगा- निरालोकाः-निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिप्रसरा चानभि-भूतः। भग० २७६। निरुपक्लिष्टः व्याधिनी प्राक् वा। भग० ३०६।
साम्प्रतं चानभिभूतः। अनुयो० १७९। निरावरण-क्षायिकम्। ज्ञाता० १५३
निरुवट्ठाणा-निर्गतमुपस्थानं-उद्यमो येषां ते निरासो- निराशसः-इह परलोकाशंसाविप्रमुक्तः। आव. निरुपस्थानाः-सर्वज्ञप्रणीतसदाचारानुष्ठानविकलाः। ५९२१
आचा० २२७ निराससे-निराशंसः- ऐहिकामष्मिकाशंसारहितः। आचा. | निरुवलेव-निरुपलेपं मूत्रविष्ठापूपलेपरहितम्। जीवा.
२७७ निरुपलेपः तथाविधबन्धहेत्वभावेन निरिक्खिअ-निरीक्षिताः
तथाविधकर्मानपादानात्। ज्ञाता० १०४१ मनोरथपरम्परासम्पत्तिसम्भवावि
निरुवसग्गो- निरुपसर्गः मोक्षः। आव ७८७) निश्चयसमुत्थसम्मदविकाशिलोचनैरालोकिताः। निरुवसग्गवत्तिया- निरुपसर्गप्रत्ययं मोक्षनिमित्तम। नन्दी. १९२॥
आव०७८६) निरुंभइ-निरुणद्धि। आव० ७८३।
निरुवहए-निरुपहतः वातादिभिरन्पहतः। ज्ञाता०९१| निरंभति-निरुन्धति। आव. २७७
निरुवहयं- निरुपहतं निरोगम। प्रश्न. ७६। निरुपहतं निरुक्तिः -क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथनम। खंज-नादिदोषरहितम्। बृह. २२६ आ। निरुपहतो आव० ३६३
निरोगः। बृह० २५४ । निरुक्तिदवारम्- एकार्थशब्दविधानरूपत्वात्तस्य। प्रश्न. | निरुवहया-निरुपहतः निरुपहतेन्द्रियता। आव० ३४१।
निरुवगारी-निरुपकर्तुं शीलमस्येति निरुपकारी। आव. निरुच्छवासः- निश्चलः। व्यव० १९८ आ।
१०० निरुत्त-निरुक्तं निश्चित्तमुक्तं अक्षरार्थमित्यर्थः। बृह. | निरुव्विग्ग- निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषयप्राप्तेः। ३ अ। निरुक्तं, निश्चितमुक्तमन्वर्थरूपम्। दशवै ज्ञाता०६७ २६१। निरुक्तं शब्दव्युत्पत्तिकारकशास्त्रम्। भग.. | निरुहः- निरुहः-अनुवासः। विपा०४१। ११४| निरुक्तः शब्दनि-रुक्तिप्रतिपादकः। औप० ९३॥ | निरुहा- अनुवासना। ज्ञाता० १८३।
४३१|
४१
"पण
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[135]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
निरेई निरेजी-निष्प्रकम्पः । आव ०७७५| निरेयकाओ निरेजकाय:- निष्प्रकम्पदेहः । आव ०७८० निरेयणा निरेजनाः कम्पक्रियानिमित्तविरहात्। प्रज्ञा० ६१० |
निरोदरं निरुदरं विकृतोदररहितम्। जीवा० २७५जा निरुदरं विकृतोदररहितं, अल्पत्वेनाभावविवक्षणात्। जम्बू०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
११४ |
निरोय - रोगवर्जितः । ज्ञाता० ५ |
निरोह निरोधः अभावः । उत्तः २८४१ नियन्त्रणा । उत्तः ५८६ । निरोधः । ओघ० १३८ \ आव० ३७८ । निरोधः
गृहम् । उत्त० १३५ | निरोधः-स्थापनम् । आव० ६३३ | निरोधनं निरोधः प्रलयकरणम् । आव० ५८३ ।
निर् आधिक्ये अनुयो० २६५
निर्गम:- निहार: प्रमाणम्। स्था० ४३५१ निर्गमभूमि :- स्थण्डिलभूमिः । आव० ५२४ निर्घण्ट:- नामकोशः । निर० २३| निर्धाटितः पङ्क्तेर्बहिष्कृतः । बृह० १६९ अ निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशाटनतः स्था० १७९॥ निर्देश:- आजा नन्दी० १६० लिगार्थमात्रप्रतिपादनम् । अनुयो० १३५|
निर्देशदोष:- यत्र निर्दिष्टपदानामेकवाक्यता न क्रियते । अनुयो० २६२१
निर्दोष सर्वदोषविप्रमुक्तम्। अनुयो० २६२॥ निर्बन्ध - हठः । नन्दी० १५३ | आचा० २४८ निर्भजना - निश्चिता भजना निर्भजना - निश्चितो भागः ।
आचा० ८६ |
निर्महेलं नाटकविशेषः । पिण्ड० १३८८
निर्माण निमिण जातिलिंगाकृतिव्यवस्थानियामकम् । तन्दु० ८१स
निर्मला : कठिनमलाभावात् धौतवस्त्रवत्। स्था० २३२१ निर्याणं अवसानम्। उत्तः ४८३
निर्यास- कर्पूरादिः गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १३६| निर्युक्त्यनुगमः- अनुगमे द्वितीयो भेदः। स्थान० ६। निर्य्यानं बहिर्निर्गमो निशी २७३ अ निर्लेप- आयामसौवीरादि। आव० ५७२ | पृथुकादिगृहतः ।
स्था० ३८६ |
निर्लोठनीय निरुत्तरीकरणम्। नन्दी० १५1
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text ) निर्वर्त्तनाधिकरणक्रिया- अधिकरणक्रियायाः प्रथमो भेदः खड्गादीनां तन्मुष्ट्यादीनां च निर्वर्तनलक्षणा |
प्रश्न० ३७|
निर्वर्तित कृतं, अभ्यस्तम् । आव० ५९३ | निर्वर्तितवन्तः अनुभूतवन्तः । स्था० ४४६ । निर्वनति निवर्त्तते। नन्दी० १५८१
निविंग (कृ) तिकादि- पृथ्व्यादिसङ्घटनादाँ तपः । आव ०
७६४ |
निर्विशमानकं आसेवकः, परिहारविशुद्धचारित्रे प्रथमः ।
स्था० ३२४|
निर्विशमाना - ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति
परिहारिका इत्यर्थः स्था० १६८८
निर्विष्टं- अलब्धं-अनुपात्तं स्यादित्यर्थः। दत्तार्थत्वात्।
स्था० ३१४ |
निर्विष्टकायिकं यस्तु
निर्विष्टकायिकानामासेवितविवक्षितचा-रित्रकायानां
तत्। स्था० ३२४|
निर्वृत्तिः– द्रव्येन्द्रियभेदः । प्रज्ञा० २४| भग० ८७| निष्पत्तिः । स्था० २८५| प्रतिविशिष्टः संस्थान विशेषः । जीवा० १६ | नन्दी० ७५%
निर्वेद:- सम्यक्त्वस्य तृतीयं लक्षणम् आक० ५९१। निर्व्याघात यत्सूत्रार्थनिष्ठितः उत्सर्गतो द्वादश समाः कृतप-रिकर्मा सन् काल एव करोति स्था० ९५ पादपोपगमनस्य द्वितीयो भेदः । सिंहाद्युपद्रवव्याघाताभावः । दशवै० २६ । निर्व्यूहना अपाकरणम्। व्यव• १८५ अ निर्हरणं निस्सारणम्। स्था० ९४१ निर्हारलाला कृमिसूत्रम् । स्था० २१९॥ निलओ - निलयः । आव० ६८०
निलयः आधायाः परावर्त्तितद्द्वारे श्रेष्ठी, वसन्तपुरे श्रेष्ठी । पिण्ड० १०० | उपाश्रयः । प्रश्र्न० १२८ निलिच्छमाणा - निरीक्षमाणाः । व्यव० १३० अ । निलीयंति- निलीयन्ते विनश्यन्ति । भग० २४९१ निलेक्क - (देशी ०) विरतः । आव० १८६ | आचा० ४२४ | निलुक्किउं निलातुम् आव० ३१९|
निल्लंडणं निर्लाञ्छनं वर्द्धितकरणम्। प्रश्न. ३८८ निल्लंछणकम्म- निर्लाञ्छनकर्म - पञ्चदशकर्मादाने
[136]
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
द्वादशम। आव० ८२९। निर्लाञ्छनकर्म-वर्धितकरणम्। | निवर्त्य-असारान् पृथक्कृत्येति। स्था० ३८४। उपा०९।
निवसणं-निवसनं परिधानम्। प्रज्ञा० ९६। ज्ञाता० २००। निल्लालिय-निर्लालिता निष्काशिता। उपा०२२१ निवसनं-विशिष्टरचनारचितपरिधानलक्षणम्। अनुयो. विवृतम्-खान्निःसारितम्। ज्ञाता० १३७।
१४३ निल्लालियग्ग-निर्लालिताना प्रसारिताग्रा। ज्ञाता०१६) निवसमानः- वसन्। आव०६४४| निल्लेव- निर्लेपः अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतां गतः। भग० | निवइ-सङ्घातः। आव०६२। २७७। अत्यन्तसंश्लेषात्
निवाई-निपतितुं शीलमस्येति विगूयणिनिः निपतनं तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारान्निर्लेपः। अनुयो० १८० वा निपातः सोऽस्यास्तीति निपाती। आचा० २०९। निर्लेपः-भूमिभित्यादिसंश्लिष्टसिकतालेपा-भावातु। निवाए- निपातः चन्द्रसूर्यैः सह सम्पातः। सूर्य. १००।
भग०६७६। निर्लेपः-निष्ठामपगतः। जीवा० १४११ निवाओ-निपातः स्पर्शनम्। बृह. १३ अ। निल्लेवण-निर्लेपनः-रजकः। व्यव. १०४ अ।
निवाडेइ-निपातयति लगयति। जीवा० २५५ निवज्जइ-निषद्यते-शेते। ज्ञाता० २०५१
निवात-निपातः आवकाशः। व्यव० २७४ आ। निपातनिवज्जणा-स्वमन्ति। ओघ. १०७
नमवकाशः। व्यव० २८५आ। निवज्जाविओ-निमज्जितः। आव २२७।
निवाता-या तु शीतकाले पूर्वाहणे उपलेपनकरणेन रात्रौ निवज्झत्ति-निर्वाप्यन्ते नितरामभ्ययतमरणं
व्यपगता त्रेहा जायते सा। बृह. २६३ अ। प्रपद्यन्ते। व्यव० ४२४ आ।
निवय-तत्तदर्थद्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति निवट्टगं-निर्वत्तितम्। आव० ७९२१
निपातः। प्रश्न. ११७ निवडइ-निपतति। ज्ञाता० १६९। निपतति-शिथिलवृन्त- | निवायगंभीरा-निर्वातगम्भीरा-निवातविशाला। भग० बन्धनत्वात् भ्रश्यति। उत्त० ३३३।
३१३ निवण्ण-शयितः। ब्रह. १९८ आ। निर्विंण्णः-सन्निविष्टो | निवायणं-निपातनं गर्तादौ क्षेपणम्। प्रश्न. २२॥ दण्डायतादिना। आव० ५९४।
निवाया- निर्वाता वायु प्रवेशरहिता। भग. ३१३ निव्वणा-सुप्ता। निशी. २०४ आ।
निवासो- भत्ताराणुप्पयाणं। दशवै० १४१। निवणुस्सिओ-निवण्णोत्सृतः। आव० ७७२। | निविज्जंतो-निर्विद्यते। आव० २८९। नियतिते-उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं- निविट्ठ- निर्विष्टं-परिभक्तम्। प्रश्न०७१। निकाचितः। त्वग्विषम् दृष्टिविषं च। स्था० ३७५)
जम्ब० २७८१ निवन्ना-निष्पन्नः, त्वग्वर्तितः। ब्रह. १३ आ। निविद्वसंचिअ-निविष्टसंचितः निकाचिततया संचितः। निषण्णः । आव०६७५ शयानः। व्यव० ३११ आ। जम्बू० २७८१ निष्पन्नः-उपसम्पन्न आश्रितः। भग० १६४निवण्णः। | निविट्ठाइं-स्थापितानि। भग० ५६९। आव०७७२
निविण्ण-निर्विण्णाः उदविग्नाः संसारभयात्। उत्त. निवन्ननिवन्नगो-निवण्णनिवण्णः। आव०७७२।
३९७ निवन्ना-निर्वर्णा। स्था० २९९।
निवित्ति-निवृत्तिः-अन्यदर्शनाभिहिता। आचा० १७७ निवयपउप्पयं-निपातोत्पातं-दिव्यनाट्यविधिः। जम्ब० | निवुहृदवित्ताए- निवृष्टो देवः। आचा० ३८९) ४१२,४१८५
निवडूढी-निवृद्धिः शरीरस्यैव हानिः। स्था० ३५९। निवया-निवाताः। आचा० ३२९।
निवडढेत्ता-निवर्य हापयित्वा। सम० ८६) निवर्तनं- गन्तव्यं भिक्षाया इत्यर्थः। ओघ. १७४। निवुड्ढमाणो-निर्वेष्टयन् हापयन्। सूर्य० २६, ४३। निवर्तन्ते-न गृहन्ति। ओघ. २०११
निवृत्तिः-आकारः द्रव्येन्द्रियविशेषः। स्था० ३३४| निवर्तितं-सर्वथा परिसमाप्य। स्था० ३८४।
निवृत्तिबादरः-दर्शनसप्तके उपशान्ते प्राप्तव्यं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[137]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
(Type text]
गुणस्थानकम्। आव०८२।
असिशक्तिकुन्तितोमरादीनां मूलतो निष्पा-दनम्। निवेयणपिंड-उवाइयं अणोवाइयं वा जं पुण्णभद्द
प्रज्ञा०४३६] माणिभद्द सव्वाण जक्खमहंडिमादियाणनिवेदिज्जति | निव्वत्तणया- शरीरनिर्वृत्तिः। सम० १४६। सो निवेयणा-पिंडो। निशी. २३ अ।
निव्वत्तणा-निर्वर्तना इन्द्रियाणाम्। आव० ३४१। निवेश- स्थापनः। नन्दी. १६११
निर्वतना प्रथमतो घटना। बृह. २३४ अ। निवेशनं- गुरोर्निवेशनं स्थानं यस्यासौ तन्निवेशनः। निर्वर्तनाबाह्याभ्यन्तर-रूपा या निर्वृत्तिःआचा० २१६
आकारमात्रस्य निष्पादनम्। प्रज्ञा० ३०९। निवेशना-स्थापना। उत्त० ६३२१
निव्वत्तणाधिगरणिया निर्वतनंनिवेस-निवेशः निवेशो नाम यत्र सार्थ आवासितः। ब्रहः | असिशक्तिकुन्ततोमरादीनां मूलतो निष्पादनं १८१ आ। निवेशः-स्थापनां अभिवनग्रामादीनाम। स्था० तदेवाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य ४४९। आयः। ओघ० १७९|
वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वर्तनाधिकरणिकी। प्रज्ञा. निवेसण-निवेशनानि गृहाणि। उत्त० ३८७। निवेशनं ४३६। गृहम्। व्यव० ३३७ अ। उपाश्रयप्रतिबद्धपाटकम्। बृहः । निव्वत्ति-निर्वृत्तिः बन्धनम्। भग० ५३३। १४९ आ। निवेशनं-महागृहपरिवारभूतगृहसमुदायरूपम्। | निव्वत्तिज्जमाणे-निवृत्यमानं नितरां वर्तुलीक्रियमाणं बृह० १४६ अ। त्रिप्रभृतीनां गुहाणामाभोगः। बृह. २३ प्रत्यञ्चाकर्षणेन। भग० ९३। आ। वाटकः। बृह. १८१ आ। निवेशनम्। आव०६३६ | निव्वत्तिए-निर्वृत्तितं वृत्तीकृतं-मण्डलाकारं कृतम्। निवेशनं एकनिष्क्रमणप्रवेशानि दवयादिगृहाणि। पिण्ड | भग. ९३। १०३
निव्वत्तिय-निर्वतितं-रौद्रध्यानादिना कृतम। आव. निव्वए- अणुव्रतरहितः। ज्ञाता० २३८१
ર૮. निव्वओ-अवेदनः। मरण |
निव्वयंते-उत्पततः। आव. २०३। निव्वट्टण-निवर्तनानि मार्गनिर्घटनस्थानानि। ज्ञाता० निव्वाघाइम- निर्व्याघातिमं व्याघातिमान्निर्गतं ८१
स्वाभाविक-मिति। जीवा० ३८४१ निव्वदृयित्ताणं-निवत्तर्य जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं निव्वाघाए- निर्व्याघातः-कारणाभावः। जम्बू. १५० पृथक्कृत्ये-त्यर्थः। स्था० ९०।
निव्वाघाओ-निर्व्याघातः-क्षणिकः। ओघ. २०० निव्वडिम- निर्वतितं-बद्धास्थि। दशवै. २१९।
निव्वाघात-निर्व्याघातं-न कश्चिद् घङ्घशालायां निव्वण-निरणः नखक्षतादिरहितः। ओघ. २११। निर्वणं- | धर्मकथादिर्वा कालव्याघातः वैदेशिकादिव्याघातो वा। निरतिचारम्। प्रश्न. १५९। निणं-व्रणरहितम्। ओघ. ओघ. २०११ ३० व्रणकै रहितम्। ज्ञाता०९१। निरणं
निव्वाघायं- व्याघातस्याभावो निर्व्याघातम्। जीवा० ३९। विस्फोटकादिक्षतरहि-तम्। जीवा० २७३। निर्वणः- अप्रतिहतम्। ज्ञाता० १५३| अक्षतः अखण्डः। प्रश्न. ११०
निव्वाण- मोक्षस्तद्धेतुत्वात् निर्वाणम्। अहिंसायाः प्रथम निवण्ण-निर्विण्णः पापकर्मेभ्यः पापकर्मेसु वा नाम। प्रश्न. ९९। सकलकर्मविरहजं सुखम्। ज्ञाता०५१। कर्तव्येषु निवृत्तः। आचा० १६४]
सर्व-द्वन्द्वोपरतिस्वभावम्। सूत्र० ३८। निर्वृतिःनिव्वण्णंतो-निर्वर्णयन्। आव० २१९।
सकलकर्म-क्षयजमात्यन्तिकं सुखम्। आव०७६१। निव्वत्त-निर्वृत्तः कृतः। ज्ञाता०४१।
निर्वाणं निर्वृत्तिः अशेषकर्मरोगापगमेन जीवस्य निव्वतए-निवृत्ते। आव० १२४।
स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिपदमिति। आव० ६९। निव्वतण-निर्वतनं-असिशक्तितोमरादीनां
कर्मकृतविकाररहितत्वम्। स्था० १५७। अशेष निष्पादनम्। भग० १८२। निर्वतनं
कर्मक्षयस्तदवाप्तौ वा विशिष्टाकाशप्रदेशः। आचा.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[138]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१५१। निर्वाणं मोक्षः। आव० ५४३। निर्वाणं-निर्वृतिः स्यादित्यादिका निंदा तदभावो। उत्त० ५६७। सामान्येन सुखम्। मोक्षः। आव० ५८४। निर्वान्ति- निर्विजुगुप्सः-साधुजुगुप्सा-रहितः। दशवै० १०२। कर्मानलविध्याप-नाच्छोती भवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्विचिकित्सः साध्वेव जिनदर्शनं किन्तु प्रवृत्तस्यापि निर्वाणम्। उत्त०५११। शान्ति। महाप०|
सतो ममास्मात् फलं भविष्यति न भवितीति निव्वाणमग्ग-निर्वाणमार्गः-असाधारणरत्नत्रयरूपः। विकल्परहितः, सजातनिश्चयः। दशवै. १०२। फलं
जम्बू. १५१। सकलकर्मविरहजस्खोपायः। भग० ४७१। प्रतिनिःशकः। ज्ञात०१०९। निर्गता विचिकित्सानिव्वाय-निर्वातः निर्व्याघातः। ज्ञाता०४११
मतिविभ्रमो यस्य सः निर्विचिकित्सः। दशवै.१०२ निव्वावए- निर्वापयेत् अभावमापादयेत्। दशवै० २२८१ विचिकित्सा-मतिविभ्रमः-फलं प्रति संशय इति यावत्, निव्वावण-निर्वापणं-विध्यापनम्। दशवै. ११४१ निर्गता विचिकित्सा यस्मादसौ निर्विचिकित्सः। प्रज्ञा निव्वाविय- निर्वापितं शीतलीकृतम्। ज्ञाता० २६।
५६| निव्वाहणाय-निर्वाहणाय-वस्त्राभ्यङ्गतैलादिना | निवित्ती-निवृत्तिः सकलावरणक्षयादुत्पत्तिः, यापनार्थम्। उत्त० ५२४।।
प्रत्ययः। उत्त०४१। निव्वाहि-निर्वाहि-पृथक् फलिहकम्। बृह. ६० अ। | निव्विदुगुच्छा- निर्विद्वज्जुगुप्सः साधुजुगुप्सारहितः। निव्विंद-निर्विन्दस्व जुगुप्स्व। आचा. १४३
प्रज्ञा०६१। निव्विंदए-निर्विन्ते सम्यग् विचारयति। दशवै. १५९। । | निव्वियत-निर्विकृतिकः-निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः निव्विंदेज्ज-निर्वियेत-जुगुप्सयेत्, परिहरेत्। सूत्र०७४। | स। स्था० २९८१ निव्विगइ-निर्विकृतिकः निर्गतविकृतिपरिभोगः। दशवै. | निव्विसओ-निर्विषयः। आव २२११ २८१।
निव्विसति-निर्विशति उपभूकते। व्यव. २९४ आ। निव्विगप्पो-निर्विकल्पः निःसंदिग्धः। दशवै. १२६। निव्विसमाण-निर्विशमानका विवक्षितचारित्रसेवकाः। निव्विगार- निर्विकारं विभूषाभूक्षेपादिविकाररहितम्। प्रज्ञा०६४। निर्विशमानकं, अनुयो० १४०
परिहारविशुद्धिचारित्रभेदविशेषः। प्रज्ञा०६४। निव्विज्जे- सम्यक्शास्त्रावगमरूपायाः निर्विद्यः। उत्त. निर्विशमानकं, परिहारविशद्धिकल्पं वहमानाः। बृह. ३४४।
२५१ अ। परिहारविशुद्धिकल्पं वहमाना निर्विशमानका निविट्ठ-निर्विष्टं- लब्धम्। जम्बू. २१०।
यैरसौ व्यूढस्ते। स्था० ३७४। निविट्ठकाइय-निर्विष्टकायिकं ।
निव्विसमाणग- निर्विशमानकः-परिहारकल्पस्थितः। परिहारविशुद्धिचारित्रभेदवि-शेषः। प्रज्ञा०६४|
व्यव० १३८ आ। निर्विष्टकायिकाः, आसेवितविवक्षितचा-रित्रकायाः। निव्विसय-निर्विषयः। आव० १९२। निर्विषयः-देशान्निप्रज्ञा० ६४। निर्विष्टकायिका नाम यैः परिहारवि-शुद्धिकं ष्कासितः। प्रश्न०६०। निर्विषयः-शब्दादिविषयरहितः, तपो व्यढं, निर्विष्टः-आसेवितो विवक्षितचारित्रलक्षणः यदवा विषयो-देशस्तदविरहितः। उत्त०४११| कायो यैस्ते निर्विष्टकायिकाः। बृह. २५१ अ।
निर्विशकः-उप-भोक्ता। पिण्ड० ४७ निविड्ढंतो-निर्वेष्टयन्। आव० ३३९।
निव्विसया-निर्विषयता-देशादबहिः। आव०४०१। निविण्णचारी-चारः-अनुष्ठानं निर्विण्णस्य चारो निव्वइ-निर्वृतिः मनःस्वास्थ्यम्। प्रश्न. ४२। निविण्ण-चारी। आचा० २१२।
निव्वुइकर- निर्वतिकरः स्वास्थ्यनिबन्धनाकरणशीलः निव्वितिगिच्छं-निर्विचिकित्सं, विचिकित्सा फलं प्रति | प्रश-स्तभावकरविशेषः। आव० ४९९। सन्देहो, यथा-यतः क्लेशस्य फलं स्याद्त नेति तदभावो | निव्वइकरा-अष्टादशजिनस्य शिबिकानाम। सम० १५१| निर्विजुगुप्सं-जुगुप्सा वा यथा-किममी यतयो | निव्वुई-निवृत्तिः-स्वास्थ्यम्, अहिंसाया द्वितीयं नाम। मलदिग्ध-देहाः? प्रासुकजलस्थाने हि क इव दोषः । प्रश्न. ९९। निर्वृत्तिः-स्वास्थ्यम्। प्रश्न० ६४। निर्वृत्तिः
मनि दीपरत्नसागरजी रचित
[139]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #140
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रति-विशिष्टः संस्थानविशेषः। प्रज्ञा० २९३। निर्वृत्तिः- | निश्चिजिव्ह- महाकुष्ठविशेषः। आचा० २३५१ तिति-क्षोदाहरणे मथुराधिपतिजितशत्रुकन्या। आव. निषद्यागतः-आसनस्थः। आव० १४१|
७०२। निर्वृत्तिः-जितशत्रुराजकन्या। उत्त० १४८।। | निषधः-वर्षधरपर्वत-विशेषः। प्रश्न. ९६। स्था० ३२६) निव्वुड-जीवविप्पजढं। दशवै० ५१। निर्वृतं-अत्रिदण्डो- निषधः। प्रश्न०७३
वृत्तम्। दशवे. ११७। निर्वृतः-कषायोपशमाच्छोती निषीधिका-आसनम्। उत्त०७२। भूतः। सूत्र० २०७। निर्वृतं निष्ठागतम्। निरावरणम्। निषेकः-चितस्याबाधाकलं मक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया भग० २१७
निषेकः। स्था० १०१। कर्मपुद्गलानां निव्वुडा- तीर्थकरोपदेशवासितान्तःकरणा
प्रतिसमयानुभवन-रचनेति। स्था० ३७६) विषयकषायाग्न्यु-पशमान्निर्वृताः। शीतीभूताः। आचा० | निष्काङ्क्षः- वस्त्राद्यभिलाषरहितः। उत्त० ५८८१ १९
निष्काल्यते-प्रमच्यते। प्रश्न.६० निव्वुड्डओ- निबुडितः। आव० ६४१।
निष्कटनं-उपयोगनिरीक्षणम्। ओघ. १६७ निव्वुड्ढी-निवृद्धिः-दिनस्य हानिः। भग० १४७। निवृद्धिः- निष्ठा- पारम्। आव. २६९। यथोक्तस्वरूपवृद्ध्यभावः। सूर्य. २४३। निर्वृद्धिः-वृद्धर- । निष्ठितार्थः-अणिमादयैश्वर्याप्त्या भावः, हानिप्रतिभासः। जीवा० ३४५। निवृद्धिः-शरीरस्य तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया सिर्द्धाथः। जीवा० ४७ हानिर्वातपित्तादिभिः, निशब्दस्याभावार्थत्वात्। स्था० निष्ठीवनं-खेलः। भग० ८७। निष्ठ्युतम्। आव० २५ ६६।
निष्ठुरं- कठोरम्। आव० ८३४। निव्वुता-सत्थिंदिया सुही निव्वुता। निशी० २१२ आ। निष्ठयुतं-निष्ठीवनम्। आव. २५ नन्दी० १६७। निव्वुती-निवृत्तिः-चित्तस्वास्थ्यम्। प्रश्न. १३३| निष्पक्वः- क्वथितः। जम्बू. १०५ निव्वुयहियए- निर्वृत्तं-स्वस्थीभूतं हृदयं
निष्पका-निष्कलङ्कविकलत्वात्अन्तःकरणमस्येति निर्वत्तहृदयः। उत्त०५८१
कर्दमविशेषरहितत्वात् वा। सम० १४० निव्वेअ-निर्वेदः-उद्वेगः। अन्यो० १३८
निष्पन्नः-परिनिष्ठितः। आव० ४०८। आचा० २९२। निव्वेए-निर्वेदः-संसारविरक्तता। भग०७२७)
आव०६५७ निव्वेगणी-निर्विदयते-संसारादेनिर्विण्णः क्रियते निसंत-निशान्तः श्रुतोऽवगतः। आचा० ३६६। निशान्तः अनयेति निर्वेदनी। स्था० २१०
निःसंचारवेला। बह द० २१२ अ। निशान्तः-गृहम्। बृह. निव्वेय-निर्वेदः-संसारोदविग्नता। उत्त०४४१। निर्वेदः- १५आ। निशान्तः-परिचितः। आचा. २६६। निशान्तःनिःकुमानुषत्वमित्यादेविरक्तता। बृह० ३८ अ। नरक- रात्र्यवसानं, दिवसः। दशवै० २४६। गृहम्। ज्ञाता० १४९। स्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वं च एतत्प्ररूपणं
निशमितः, श्रुतः। भग० ४६७। निर्वेदहेतुत्वान्निर्वेदः। दशवै० ११३)
निसंस-नृशंसं शूकावर्जितम्। प्रश्न० ११० नृन्-नरान् निव्वेयणी-निर्वेदयते संसारनिर्विण्णो विधीयते श्रोता शंसति-हिनस्तीति नृशंसः, निःशंसो- विगतश्लाघः। यकथा सा निर्वेदनी। औप०४६)
ज्ञाता०८० निव्वोदय-नीव्रोदकम्। आव०४२६।
निसंतपडिसंते-निशान्तप्रतिनिशान्तनिश्चयकथा-सा चापवादकथा, पर्यायास्तिकनयकथा अत्यन्तभ्रमणापरतः। बृह. १५आ। वा। सम०२४।
निसंसतिए- निःसंशयिकः-शौर्यातिशयादेव निश्ललमनाः- श्रमणः तपस्यदयुक्तः समना वाऽऽसीत् तत्साधयिष्या-म्येत्येवं प्रवृत्तिकः। ज्ञाता०८० निश्च-लमना इत्यर्थः। आचा० ३०७।
निसग्ग-निसर्गः-स्वभावः। निशी० ९| निसर्गः निश्चितं- निकाचितं प्रमाणम्। स्था० ४३५
उत्सर्गः। व्यव० १० अ। निसर्गः स्वभावः। आव. ५२८, निश्चितिः- गाथा, प्रतिष्ठा च। आव० ८०४।
६०४, ८३८प्रज्ञा० ५८५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[140]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
निसग्गरुइ-स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धानम्। भग० ९२६। | निसामिति-अवधारयन्ति। आचा० ४२४। निसग्गरुई-निसर्गः स्वभावः तेन रुचिः जिनप्रणीत निसामेह-निशामयत शृणत। आव० २२९। तत्त्वाभि-लाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः। प्रज्ञा० ५६ | निसाय-निषादः-पारासरः, शूद्राब्राह्मणाभ्यां जातः। निसर्गः- स्वभावस्तेन रुचिः-तत्त्वाभिलाषरूपाऽस्येति, | आचा० ८१ निसर्गतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः, यो हि
निसाविहंगा-उलूकाः। बृह. १९७ आ। जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भुतान् | निसालोढे-शिलापुत्रकः। उपा०२१। जीवादीन पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिः। स्था० निसिज्ज-स्वाध्यायादिभूमिः। दशवै० २८१| ५०३
निसिज्जहरो- निषद्याधरः। आव०७४५) निसज्जा-निषद्या-पुताभ्यां भूम्यामुपवेशनम्। औप० निसिज्जा-स्त्रिया सहासनम्। सम० ३६। निषद्या४०
स्वाध्या-यभूम्यादिका यत्र निष्पद्यते। उत्त० ४३४। निसज्जा-रजोहरणनिषद्या। ओघ० १३२१
निषदया-रजोह-रणवेष्टनकं सौत्रिकमौर्णिकं वा। ब्रह. निसह-निसृष्टः निसृष्टाङ्गा मुक्ताङ्गा। सम० ११७/ २५३ अ। निषदया। आव ३२३॥ अत्यन्तम्। आव० २०६| निसृष्टं-निश्चेष्टम्। दशवै. | निसिज्जाओ-निषदनानि निषद्याः३६। निसृष्टं-अत्य-र्थम्। प्रश्न० ५९। निसृष्टं-प्रचुरम्। उपवेशनप्रकारास्तत्रास-नालग्नप्लुतः ओघ०४८
पादाभ्यामवस्थितः। स्था० ३०२ निसढ-निषधः-द्रहनाम। जम्बू. ३०८ निषढः बलदेव निसिट्ठ- निसृष्टः-अनुज्ञातः आक्रान्तिकस्तेनो वा। बृह. पुत्रः। आव० ९४| पञ्चमवर्गे प्रथममध्ययनम्। निर० | १६७ अ। निसृष्टः अनुज्ञातः। व्यव० २३४ अ। ३९।
निसिहाई-जीवेन निःसृष्टानि स्वप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि। निसढा-निष्पन्ना। मरण।
भग. १६९। निसण्ण-निषण्णः। आव०७७४। निषण्णः-उपविष्टो | निसिद्धप्पा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्य आत्मा वीरा-सनादिना। आव. ५९४१
येनेति निषिद्धात्मा। आव० २६७। निसस्सिओ-निषण्णोत्सृतः। आव० ७७२।
निसियरा निशाचराः-पिशाचादयः। ओघ. १२५ निसन्न-निषण्णः। स्था० २९९। निषण्णः। आव० ७७२ | निसिया-निशिताः तीक्ष्णाः। उत्त० ३४९। निसम्म-निशम्य-मनसा अवधार्य। भग० ८९। निशम्य | निसिर- निसृजे ब्रूयात्। दशवै० २३६। मन-साऽवधार्य। स्था० ११९। निशम्य-निश्रित्य। निसिरणे- निसर्गः भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया। आचा० ३३१| निशम्य-ज्ञात्वा। आचा० ३५०|
दशवै० २०८१ निसम्मभासी-निशम्यभाषी। आचा० ३९२।
निसिरे- व्यत्सृजति। आव०६१८ निसरइ-निसृजति निष्काशयति। जीवा० २४४। निसिरेज्जा-व्युत्सृजेत्। ओघ. १९७५ निसह-निषधः निषधवर्षधरपर्वते दवितीयं कूटम्। स्था० निसियंत-निषीदनं उपवेशनम्। दशवै० १५५ ७२। हृदयविशेषः। स्था० ३२६। निषधः
निसीयण-निषीदनं-उपवेशनम्। ओघ. २१४। निषीदनम्। वर्षधरपर्वतविशेषः। स्था०६८। निषधः-बलीवईः। सूर्य आव० ६५४।
निसीलो-निःशीलः गृहस्थः। सूत्र. ९| निसहदहे- ह्रदविशेषः। स्था० ३२६।
निसीह-निशीथवन्निशीथम्। नन्दी० २०६। निशीथं-यद निसाकप्पे-कायिकामात्रके मोकं गहीत्वा तेनाचमनं रहसि पठ्यते व्याख्यायते वा। उत्त. २०४। प्रच्छन्नंकर्तव्यम्, अभिगतस्य गीतार्थस्याचीर्णमेतत्, एष च निषीथं बद्धश्रुतं, गुप्तार्थं वा, रहस्य पाठात् निशाकल्प उच्यते। बृह. २०३अ।
रहस्योपदेशाच्च निषीथम्। आव०४६४। निसापाहाणे- मुद्गादिदलनशिला। उपा० २१॥ निसीहज्झयणं-आचाराशे पंचविंशतितममध्ययनम्।
او
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[141]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
सम०४४॥
पञ्चमी। भग. ९२० निसीहऽभिहडे- निशीथाभ्याहृतं-अविदितदायकभावं यत्। | निसीहियाए-नैषेधिकी-निषीदनस्थानम्। राज०६४। पिण्ड. १०३।
निशीथिका-द्वितीयमध्ययनम्। आचा. ४०७। निसीहिता-निषेधेन निर्वत्ता नैषधिकी
निसीहियापरीसहे-सोपद्रवेतरा च स्वाध्यायभूमिः, व्यापारान्तरनिषेध-रूपा। स्था० ४९९।
दवाविंश-तिपरीषहे दशमः। सम०४०। निसीहिय-नैषेधिकं-कायोत्सर्ग स्वाध्यायभूमि। सम० | निसीहियारए- निषीधिकारताः स्वाध्यायध्यायिनः।
३९। स्वाध्ययस्थानम्। स्था० ३१४। निषिध्यन्ते- | आचा० ३६९। निराक्रियन्ते अस्यां कर्माणीत नैषेधिकी-निर्वाणभूमिः। । निसुंभंति-भूमौ पातयन्ति। आव०६५०| कृकाटिकायां उत्त. ३२११ सकलकर्मनिराकरणलक्षणे भवा,
गृहीत्वा भूमौ पातयन्ति। सूत्र० १२५।। मुक्तिगतिः, प्रतिमा। उत्त. ३२१। निषीधिका- निसुंभ-निशुम्भः-पुरुषसिंहवासुदेवशत्रुः। आव० १५९। स्वाध्यायभूमिः। आचा० ३६१।
निसुंभा- वैरोचनेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०३। निसीहिया-निषेधः-स्वाध्यायव्यतिरेकेण
ज्ञाता०२५१। सकलव्यापारप्र-तिषेधः तेन निवृता नैषेधिकी। व्यव० | निसेए-निषेकः-स्वस्याबाधाकालस्योपरि १२७ अ। निषेधेन
ज्ञानावरणीयादि कर्मपुद्गलानां वेदनार्थमुपचयः। प्रज्ञा. स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निवृत्ता २९ नैषेधिकी। व्यव० १२७ आ। जत्थ सज्झायं करेति, | निसेक- निषेकः-कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनार्थं सेज्जाए वा निसीहिएति। दशवै. ८५ नैषेधिकी- रचना। भग० २८० वसतिप्रवेशे निषि-द्धोऽहं गमनक्रियाया इति भणनम्। निसेज्जा-रयहरणस्योपरितनाः। ओघ० १११। जंमि बृह. २२२। नैषेधिकी। आव०६७२।
निसण्णो अच्छइ। दशवै० ५१| निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या स्थानम्। आव०६५७। निसेह-निषेधः। आव. २६६। बावीसपरीषहे दशमपरीषहः। आव०६५७। नैषेधिकी- निस्तूंशः-नृशंसः। उत्त०६५६) प्राणातिपातादिनिवृत्ता। आव. १४७। नैषेधिकी- निस्संकिय-निःशंकितः देशसर्वशङ्कारहितः। दशवै. निषीदनस्थानं, द्वारकुड्यसमीपे नितम्बः। जीवा० १०१। निर्गतं शङ्कित यस्मादसौ निःशङ्कितः ३६०। स्वाध्यायभूमिः। ज्ञाता० २०६। निषेधे भवा देशसर्वशङ्कारहितः। प्रज्ञा. ५६। नैषेधिकी-उपाश्रयाद्वहिः कर्तव्यव्यापारेष्ववसितेषु निस्संगो-निःसङ्गः-विषयजस्नेहसङ्गरहितः। आव० पुनस्त-त्रैव प्रविशतः साधोः
५९१ शेषसाधूनामुत्त्रासादिदोषपरिजिहीर्षया
निस्संचरो-निस्सञ्चारः मनुष्यसञ्चारवर्जितः। आव. बहिर्व्यापारनिषेधेनोपाश्रयप्रवेशसूचनादिति। अनुयो. ६४१॥ १०३। स्वाध्यायभूमिः शून्यागारादिरूपा। भग० ३९० | निस्संतिया-तं अद्दहियणयं दव्वं अण्णत्थ निस्संदिऊण ग्रामादिषु प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं | तेण ताय णेऊ देह। दशवै ८० शय्यातो विविक्त-तरोपाश्रये गत्वा निषीदनम्। भग० | निस्संधिणा-निस्संधिः। मरण। ३९१। निषधेन निर्वत्ता नैषेधिकी दशधा सामाचार्या निस्संधी-निःसन्धिः निर्विवरः। प्रश्न. १६) पञ्चमी। आव० २५९| निषी-धिका। ओघ. १७४। निस्संस-नृशंसं शूकावर्जितम्। प्रश्न २७। निःशंसं वा नैषेधिकी स्वाध्याय-भमिः। दशवै. १८२। नैषेधिकी श्लाघारहितम्। निषेधनं निषेधः पापकर्मणां गमनादिक्रिया-याश्च स निस्स-दरिदो। निशी० १४१ अ। प्रयोजनमस्याः नैषेधिकीस्मशानादिका स्वाध्या- निस्सकयं-निश्राकृतं गच्छप्रतिबद्धम्। बृह. २७६ आ। यादिभूमिः निषद्या वा। उत्त० ८३। दशधासामाचार्या निस्सग्गरुई-निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[142]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #143
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[Type text]
तत्त्वाभिलाषरूपाऽस्येति निसर्गरुचिः । उत्त० ५६३ | निस्सन्नगनिसन्नओ - निषण्णनिषण्णः । आव० ७७२ ॥ निस्सयरा स्वं कर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि आचा. ४३०१
निस्सल्लो- निःशल्यः शल्यरहितः आव० ७९३३ निस्सहः– स्थैर्यः। नन्दी० १६१ |
निस्सा - निश्रा रागः । व्यव० ७ अ । पक्षपातः । व्यव २५४१ मिश्रा आलम्बनम् । आव० ५३६ | निश्रा-आलम्बनं, उग्रहहेतुः । स्था० ३३९।
निस्साए निश्राय निश्रां कृत्वा भग. ३०९, ६६३१ निस्साणपदं निश्रायते मंद श्रद्धाकैरासेव्यत इति निश्राणं तच्च पदं च निश्राणपदं अपवादपदम्। बृह. १२८ अ निस्साधारण एकाचार्यप्रतिबद्धं षेत्रम् बृह० २८० अ निस्सारा - निःसारा-प्रधानगर्भरहिता। ओघ० २१८ | निस्सावयण - निश्रया वचनं निश्रावचनम्, कमपि सुशिष्यमा लम्ब्य यदन्यप्रबोधार्य वचनं तन्निश्रावचनं तद्यत्र विधेयत-योच्यते तदाहरणं निश्रावचनम् । स्था० २४३१ एक कञ्चननिश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसी निश्रावचनम दशचै० ४६)
-
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
-
स्था० ३६४ |
निस्सित निश्रितं रागः आहारादिलिप्सा स्था० ४४१ निस्सिय- निसृतः-निर्गतः । अनुयो० १२९ । निस्सील निःशीलः- सामान्येन शुभस्वभाववर्जितपौरुष्यादि । स्था० १३२
अपगतशुभस्वभावः । ज्ञाता० २३८८ निस्सीला निस्शीलाः महाव्रताणुव्रतविकलाः । भग०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
निस्सास- निश्वासः निर्गमः । भग. ४७० निःश्वास:मुखादिना वायुनिर्गमः। अग० ४७० निःश्वासः सङ्ख्ये याssवलिका । जीवा. २४४
निस्सासविसो - निःश्वासविषः - उरः परिसर्पविशेषः । जीवा० ३९|
निस्सिंचमाणे - निः सिञ्चिन्-दत्तोवरितं प्रक्षिपन् ।
आचा० ३४|
निस्सिंचिया निषिच्य तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र
भाजने तेन दद्यात् उद्वर्तनभयेन आद्ररहितमुदकेन निषिच्य । दशवै० १७५ । निस्सिए - निश्रितं सारङ्गादिधर्म्मविशिष्टमवगृहणाति । निहस- निकषः
३०९ | समाधानरहिताः । भग ५८ निःशीलानिर्गतशुभस्वभावाः, दुःशीला इत्यर्थः । स्था०
१२६|
निस्सेअस मोक्षः। नन्दी. १६५६
निस्सेणि- निश्रेणिः । आचा० ३४४॥ निःश्रेणि:- अवतरणी । प्रश्न० 1
निस्सेक्स निःश्रेयसः मोक्षः। भग. १९५१ उत्त० २९९॥ निःश्रेयसः - मोक्षः । भग० १६९ | निःश्रेयसःनिश्चितकल्याणम् । जा ० २४२ ॥
निस्सेस- निःशेषः सर्वः । भग. १६९।
[Type text]
निह स पुनः कषायैः कर्मभिः परीषहोपसर्गैर्वा निहन्यत इति निहः । आचा० १२५ न्यगधस्तात् । सूत्र. १२८ निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहंआघातस्थानम् । सूत्र. १३८८
निहए- निहतः कृतसमृद्यपहार ऑफ १२ निहड्डु निहत्य स्थापयित्वा ज्ञाता० २१०| निहणंति-निघ्नन्ति आव० १२३३ निहणिंसु निहतवन्तः क्षिप्तवन्तः आचा• ३१२ निहत्त-निधत्तं
-
[143]
उद्वर्त्तनापवर्त्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितम् । भगः ९० । निधत्तं निषिक्तम् । स्था० ३७६॥ प्रज्ञा० २१७ भग• २८० निधत्तं- अपीह निषेक उच्यते। सम० १४७५
निय - निक्षिप्तम् । आव० ७४३ । निहतं निधत्तं निश्चितं प्रमाणम् । स्था० ४३५५ निकाचितं भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृ-तम्। जम्बू० ३८९ । निहतं -
क्षणमात्रमुत्थानाभावः। जीवा० २४५ | निहता मारणात्।
स्था० ४६३ |
निहरणकारिणः स्कन्ददायिनः । बृह० १७१ अ
हेमरजतकल्पजीवादिपदार्थस्वरूपपरिज्ञा-नहेतुत्वात्
कषपट्टकः । अनुयो० १०५ | निकषः वर्णतः सदृशः । रेखा । भगः १२ प्रश्नः ७० | निकषः कषपट्टके रेखालक्षणः । भग० १२१ निघर्षः कषपट्टकेरेखा प्रश्न. ९५ निहाण- निधानं परिग्रहस्य पञ्चमं नाम प्रश्न. ९२२ निधानं भूमिगतसहस्रादिसङ्ख्यद्रव्यस्य सञ्चयः ।
भग० २००१
"आगम- सागर-कोषः " [3]
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[Type text]
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
[Type text )
निहार- निर्गतः प्रमाणम्। स्था० ४३५|
निहाय– निधाय-त्यक्त्वा । आचा० ३११। क्षिप्त्वा त्यक्त्वा नीणिया-चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३२ आचा० २७४॥ निधाय परित्यज्य सूत्र. ४००| निणे - निष्काशयीत । औप० ६४ | नीतिः- बलं प्रमाणं च । आव० ४६३ । नीतिपथ नीतिमार्गः । नन्दी० १६४ नीतिशास्त्र धर्माधिकरणिकम व्यव० २०१अ नीती- नीतिः सामादिका | प्रश्न० ७९ |
निहारिम- दूरदेशगामिनी। जम्बू• 301 अन्यत्र नयनं तेन
निहरिमः । बृह० ३० आ
निहिय- निहितं न्यस्तम्। उत्तः ३४८| निहितं
नीमं- नीलफलम् । दशवै० १८५ |
नीय नीचं अनुद्धतम् । उत्त० ३४६ ॥ नीचं अनत्यर्थम् ।
स्थापितम् । आव ०६४७ ।
निहिसरिनाम निधिभिः सदृक् सदृशं नाम येषाम् । स्था०
-
४५० |
निही- निधि-लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनम् । भग० २०० | निहु- वनस्पतिजीवविशेषः आचा० १७ निहुअ- निभृतं
अन्तःकरणाशुभव्यापारचिन्तनपरित्यागात्। आव १५४) निभृतः स्थिरः । उत्तः ४७५, ४९५१ निहुआ- निभृताः-निर्व्यापाराः गृह० ५७ अ निहु - निभृतं स्तिमितम् । १३६ । निहुया स्निहुः स्निहूपुष्पं थोहरपुष्पं अनन्तकायिकम् । प्रज्ञा० २७॥ निभृता-निर्व्यापारा। बृह० ६१आ। निहुवणडिया निधुवनस्थिता । आक० ४२१ निहूय (देशी) अकिञ्चनकरायें। आव• ३२५| निहे गोपयेत्। आचा. १८० निहेल्लयं निहितं न्यस्तं च । उत्त० १३० | निहोडणं निहेठितम् । व्यव० २२३ आ । निहोडणा- निवारणम् । व्यव० २५३ आ । निहोडिहिंति - शिक्षयिष्यन्ति । बृह० ११९ अ । निहोडे - निहेठयति-वारयति। बृह० ६१अ । नीअ नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः। लघुतरम्। दशवै० २५०] नीचं - नमकायः। दशवे. २५० नीआं नीचां गतिम्। दशकै० २५०१ नीड़ नीति: हक्कारादिलक्षणा सामाद्युपायलक्षण वा । आव० १२९| नीतिः- नयनं परिच्छेद इत्यर्थः । दशवै० १६ । इकोविए नीतिकोविदः - न्यायाभिज्ञः । उत्त० ४८३ |
-
नई नीति: अपक्रमादिलक्षणा उत्त० १४४५
-
नीगालो - क्षरणम्। निशी. वि०३१ आ
नीर्णित निष्काशयन्ति। आव० २१७
नीणियं आनीतम् । आव• २७२, ७०१ चतुरिन्द्रिजन्तुवि.
शेषः । जीवा० ३१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
भग० १६४। अपूज्यम् । भग० १६४ | नीयजुद्धं नीचयुद्धम् । आव०९८८
नीयपिंड नियतपिण्डः मयैवद्दातव्यं भवता त नित्यमेव ग्राहयमित्येवं नियततया यो गृहयते स स्था० ५१पा नीयल्लगा निजका आत्मायाः स्वजनाः । बृह० २४३ अ नयागो यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दां लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रम् । प्रज्ञा०
४७५|
नीयावासविहारो नित्यवासेन विहार नित्यावासकल्पः । आव० ५३५|
नीयावित्ती- नीचं अनुद्धतं यथा भवत्येवं नीचेषु वा शय्यादिषु वर्त्तत इत्येवं शीलो नीचवत्र्त्ती, गुरुषु न्यग्वृत्तिमान्। उत्त० ३४६ | नीचैर्वृत्तिः कायमनोवाग्भिरनुत्सिकः । उत्त० ६५६ | नीरए नीरजं निर्गतरजः कल्पसूक्ष्मतरवालायः । भग० २७७। निर्गतरजः-कल्पसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत्। अनुयो० १८०| सच तद्भूमिगतरजसामप्यभावे नीरजाः । भग. ६७६ । निरजा:- बध्यमानकर्माभावात् । प्रज्ञा० ६१० | नीरओ नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः । दशके १५११ नीर- नीरजा - निर्मलः । व्यव० २१० अ । नीरजः स्वाभाविकरजोरहितत्वात् । प्रज्ञा० ८७ | नीरजाः-बध्यमान कर्मरहितः नीरयो निर्गतौत्सुक्यः । औप. १९४१ नोरजांसि आगन्तुकरजोविरहात्। सम १४०१ नीरजस्क:- अष्टविध कर्म विप्रमुक्तः दशवें. ११९ नीरया- नीरजसः रजोरहितत्वात्। स्था० २३२ नीरसं विगतरसम्। प्रश्न १६३।
नीराजितो निविटितः लब्धजय पारप्राप्तो वा बृह• ८४ आ । निर्घटितः । व्यव० २०३अ ।
[144]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
Page #145
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________________
[Type text]
- साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ | नीरोगा शक्ताः ओघ०७११
नीरोहो- प्रतीक्षा प्रतीक्षाप्यते। बृह० १४७ आ नीर्विशेत् परिहारतपः प्रतिपद्येत व्यव० १८१ आ नील मरकतमणिः । जीवा० २७४ औप० ४१। हरितत्वमतिक्रान्त कृष्णत्वमसंप्राप्तं पत्रं नीलम् जीवा. १८६६ वर्षधरपर्वतविशेषः । स्था० ६८ । अष्टाशीतौ महाग्रहे पञ्चविंशतितमः । जम्बू• ५३५ नीलवर्षधरपर्वते द्वितीयः कूटः । स्था० ७२
नीलकंठ महिषानिकाधिपतिदेवविशेषः स्था० ३०२ नीलकणवीरय नीलकणवीरः वृक्षविशेषः प्रज्ञा० ३६२१ नीलकेसी - नीलकेशी तरुणी । व्यव० १३ अ । नीलगुडिया- नीलगुटिका-नील्या गुटिका जीवा० १६४
प्रज्ञा० ९१ |
नीलगुहा- मुनिसुव्रतस्वामिनो दीक्षास्थानम् आव० १३७५ नीलपत्ता- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ | नीलबंधुजीव नीलबंधुजीवः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६० | नीलवंत नीलवान् पर्वतविशेषः आव० ३८५ नीलवंतदह हदविशेषः । स्था० ३२६| नीलवन्तः- वर्षधरपर्वतविशेषः । स्था० ७० |
नीलवान्- वर्षधरपर्वतविशेषः । प्रश्र्न० ९६ । नीला - हरितं सस्यम् । ओघ० १५९| नदीविशेषः । स्था०
४७७ आचा० ३९१ |
नीलाभास- नीलावभासः अष्टाशीत
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
षड्विंशतितमोमहाग्रहः । जम्बू० ५३५ | नीलासोए सौगन्धिकायां नगयौ उद्यानम्। विपा. ९५| ज्ञाता० १०४ | नीलाशोकः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६० | नीली नीलवर्णपरिणतः। प्रज्ञा. १०) नन्दी. १७०१ गुलिका ज्ञाता० २२२ नीलीगुलिया- नीलीगुलिका नीलीगुटिका जम्बू. २३ नीलीया आद्राः वनस्पतयः । आचा० ३९१ |
नीलुप्पलं- नीलोत्पलं कुवलयम्। प्रज्ञा० ३६०। नील्या- नीलमया । प्रज्ञा० ९१ ।
नीवारं व्रीहि विशेषकणदानम्। सूत्र- ८७ आचा० २८पा नीवं उपरि ओघ० १६२१
नीव्वोदगं नीवोदकं गृहपटलान्तोत्तीर्णजलम्, वर्षासु गृहाच्छादनप्रान्तगलितं जलं नीव्रोदकम्। पिण्ड १५१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
नन्दी० १६३ | निवोदकम् ओघ १३२३ नीसंदु- निरखन्दः ओघ० १००) नीसंदा- पुनाहाः। चतु०
नीस- अत्यर्य । बृह• १९६ अ विनष्टं विश्वस्तं । आव ०
७०९ |
नीसरणं निस्सरणं नाम फेलहसणं व्यव० ९आ। नीससंति निःश्वसन्ति बाह्यक्रियां कुर्वन्ति । प्रजा०
२१९ | नीससिऊससियसमं
निःश्वसितोच्छ्वसितमानमनतिक्रामतो यद्गेयं तन्निःश्वसितोच्छवसितसमम् । स्था० ३९४ | नीससियं निःश्वसितं अधःश्वसितम् । आव• ७७९॥ नीसा पेषणी दशवै० १७२१
नीसापट्टए- शिलापेशणी । बृह० ९० अ
नीसास- सङ्ख्येया आवलिका निश्वासो - बहिर्मुखपवनः । जम्बू. ९०१
नीसासविसा निःश्वासे विषं येषां ते निश्वासविषाः । प्रज्ञा० ४६ ।
नीसेस - निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् । सम० १२७ नीसेसा - निःशेषं समग्रम् । भग० १५१ ।
नीहडिया निहतिका- नीयमानं सागारिकद्रव्यं यद यत्र
नीयते सा । बृह० १९८ अ । नीहम्मिए निर्गते। बृह० २२१ आ नीहारइ निहरति । ओघ० २१७८
।
नीहरित्तए- निहर्तुं निष्काशयितुम् । भग० २१८ \ विपा०
८१ ।
नीहरिय निष्क्राम्य निशी. २७१ आ नीहार पुरीषोत्सर्गः आव• ५४११
नीहारि गिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामाद्वहिर्गमनं तद् विद्यते यत्र तन्निर्हारि । उत्त० ६०३ | निर्हारि घोषवान् शब्दो घण्टादि शब्दवत्। पिण्डेन निर्वृतः स्था० ४७१% नीहारिम- निर्हारेण निर्वृत्तं यत्तन् निर्हारिमं निर्धारितंनिश्चितम्। भगः १२० | निहरिमा दूरं विनिर्गच्छन्ती । राज० ७ | निर्हारिमः दूरं निर्यायी प्रश्न० १६२ नीहारिमा निर्धारिमा दूरे विनिर्गच्छन्ती जीवा० १८८० नीहारी- निहरिमं ग्रामादिनामन्तः व्यव. ४३० अ निर्हरणं निर्हारः गिरिकन्दरादिगमनेन
[145]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
Page #146
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
ग्रामादेर्बहिर्गमनम्। उत्त०६०३।
नेचइया- निचयेन-संचयेनार्थात् धान्यानां ये व्यवहरन्ति नुः-वितर्के। उत्त० २८२। आव. ५०८ उत्त०१९४। क्षेपे। ते नैचयिकाः। व्यव० १२। दशवै० ८५
नेच्चइल्लो- नैत्यिकः। आव० ४२८१ नुपूरं- भूषणविशेषः। स्था०६३।
नेच्छियं- इच्छाया विषयी कृतं नेच्छितम्। जीवा० २७९। नूम- कम्मे माया वा। आचा० २९५। प्रच्छादनम्
नेड्डवालगो- गृहपालकः। आव० ४०२। अधर्मद्वारस्य द्वाविंशतितमं नाम। प्रश्न. २६। नम- नेति- नयति गमयति। सूर्य० ३३) २८१ अवतमसम्। भग० ९२
नेत्त- नेत्र-मथिदण्डाकर्षणरज्जः तदवद्दीर्घतया तन्नेत्रं नूमगिह- नूमगृहं-भूमीगृहम्। आचा० ३८२।
शेफ उच्यते। उपा०२२ नूमानि-निम्नानि-गादीनि। आचा० ३८२।
नेत्तपड- नेत्रपटः। प्रज्ञा० ३०६| नृत्य- विविधाङ्गहारादिस्वरूपः। उत्त० ३८६।
नेपथ्यं-आभरणम्। जम्बू०६४१ नपतिहठप्रवर्तितकृत्य-राजवेष्टिः। उत्त०५५३। नेपथ्यकथा- नेपथ्यानां प्रशंसनं दवेषणं वा नैउणिय- नैपुणिकम्। आव० ३१६)
स्त्रीकथायाश्चतुर्थो भेदः। आव० ५८१। नेउर- नूपूर-पादाभरणम्। प्रश्न० १५९| आव० २२५। नुपुरं- नेपालवत्तिणी- नेपालदेशः। आव० ६९७ मजीरम्। पिण्ड० ६८१
नेपालविसय-नेपालविषयः। आव०६९६। नेउरहारिगा- नूपुरं-मञ्जीरं तस्य हारो हरणं श्वशुरकृतं नेम-नेमः भूमिभागादूर्दध्वं निष्क्रामन्, प्रदेशः। जीवा० तेन या प्रसिद्धा सा नूप्रहारिका आगमे
३५९। नेमः-भूभेद्ध्वं निष्क्रामन, प्रदेशः। जीवा० १९८१ चान्यत्रनूपुरपण्डितेति प्रसिद्धा। नूपुरहारिका
नि नेमे तं नेम-प्रदर्शनम्। निशी० ६३। आ। चिह्नम्। उत्थितचतुश्चरणहस्तिवत् अनाचार-प्रवृत्तौ
आव०७६७ मूलम्। प्रश्न०६१| साधुत्वानवस्थानम्। पिण्ड० ६८१
नेमा-स्तम्भानां मूलपादाः। भग० १४५ नेउरा- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२। प्रज्ञा० ४२। नेमि- नेमिः-तयोगाचक्रमपि चक्रधारा। भग० ६४५ द्विन्द्रियजीवविशेषः। जीवा० ३१|
नेमिः-चक्रमण्डलमाला। भग० ३२२| चक्रमण्डनधारा। नेगम- प्रभूततरवणिग्वर्गावासः। आचा. २८५। नैके गमा भग०४८१ गण्डमाला। ज्ञाता०५८ वस्तुपरिच्छेदा यस्य अपितु बहवः स निरुक्तवशात् | नेमित्त- नैमित्तिकः। आव० ३९३। नैमितिकम्। आव. कका-रलोपतो नैगमः। अन्यो० २२३।
રાહ૮. नैकैर्मानैर्महासत्तासामान्यवि-शेषविशेषप्रज्ञानैमिमीते | नेमी-नेमिः-द्वाविंशतितमो जिनः। आव. ५०६। नेमिमिनोति वा नैकमः निगमेष वा-अर्थ-बोधेष कुशलो भवो | भूमिका। राज०२८१ वा नैगमः, अथवा नैके गमाः पन्थानो यस्य स नेम्माणि- मूलपादाः। बृह. ५३ अ। नैकगमः। स्था० ३९०| निगमः। आव०८११। निगमः- नेय- णाइणा पहेण नयति तम्हा नेयो। दशवै० १४५अ। पदार्थपरिच्छेदः। आव. २८३। न एक नैकं प्रभ
नेयइया-नैतिकका नीतिकारिणः। व्यव० १६९ अ। तानीत्यर्थः,
नेयव्वो- नेतव्यः-अध्येतव्यः। भग० २८३। नैकैर्मानैर्महासत्तासामान्यविशेषादिज्ञानैर्मिमीते नेयाउए-नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः। भग० ४७१। मिनोति वा वस्तूनि परिच्छिनत्तीति नैगमः। अनुयो० | नेयाउयं- नयनशीलो, नेता-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको २६४। नेलको-रूपकः। निशी. १३९ आ
मोक्षमार्गः श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मः। सूत्र० १७१। नयनच्छेदः
शीलं नैयायिकं-मोक्षगमकम्। ज्ञाता०५१। आव०७६० सामान्यविशेषादिप्रकारैर्बहरूपवस्त्वभ्युपगमपरः। नेयारं- पह-सामि। आव०६६१। अनुयो० १७। निगमा-वणिजस्तेषां स्थानं नैगमम्। नेरइए-नैरयिकः-भगवत्याः प्रथमशतके सप्तम उद्देशकः। आचा० ३२९।
भग०६।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[146]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #147
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________________
[Type text]
- निर्गतं अयं इष्टफलं कर्म यस्मात् स निरयः, तत्रभवः नैरयिकः - नारकः । भग० १९ | निरयानरकावासास्तेषु भवा नैरयिकाः । प्रजा० ४३॥ नेरइयउद्देसए- जीवाभिगमस्य द्वीतीय उद्देशकः । भग० ६०६, ६३८ |
नेरइयउद्देसओ- जीवाभिगमस्य द्वितीय उद्देशकः । भग०
६१६ |
नेरइया- निर्गतं-अविद्यमानमयं इष्टफलं कर्म्म येभ्यस्ते निर-यास्तेषु भवा नैरयिकाः- क्लिष्टसत्त्वविशेषाः । स्था० २८
ई- नैऋतिः दक्षिणपश्चिममध्यवर्त्तिदिक्। आव०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
२१५ स्था० १३३|
नेल नैलं- नीलीविकारः । भग० १०|
नेल्लक:- सुराविशेषः । जीवा २६५१ नेवत्थं नेपथ्यम | आव० १४५| आचा० ४२३१ नेपथ्यंस्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको विभूषाप्रत्ययश्च । स्था० २११| वेषः । जीवा० २०७१
नेवत्थकहा- नेपथ्यकथा नेपथ्यसंबंधेन स्त्रीणां कथा । प्रश्न० १३९ |
नेवाइयं निपतत्यर्हदादिपदादिपर्यन्तेष्विति निपातः, निपातादागतं तेन वा निर्वृत्तं स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययविधानात् नैपातिकम् पदस्य द्वितीयो भेदः । आव० ३८९ |
नेसज्जिए- निषद्या पुताभ्यां भूमावुपवेशनम्। भग ९२४१ फलकादि। आव०८८ नेसत्थिया निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी निसृजतो यः कर्म्मबन्धः स्था० ४२] यन्त्रादिना जीवाजीवान् निसंजतः । स्था० ३१७। नैशस्त्रिकीविंशति-क्रियामध्ये दशम् । आव० ६१२ | निसा - निषादः निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् सः स्वरविशेषः । अनुयो० १२७
नेह स्नेहः तैलादिरूपः । जीवा• २६६ | नेहलं- स्नेहलं स्निग्धम जीवा० २६९ |
नेहुर - नेहुर:- चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्र्न० १४ नैगम:- निगमाभिहिताः शब्दा अर्थास्तत्परिज्ञानं च
देशसम ग्रग्राही । तन्दु० १३५ | प्रज्ञा० ५९ । नैगमेषी इन्द्रस्यैतदभिधानो देवः । जम्बू० ३९७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
नैपातिकं निपातेषु पठितत्वात् । खल्विति। अनुयो० ११३ | नैरेयकानुपूर्वी अनुपूर्व्याः प्रथमो भेदः प्रज्ञा० ४७३। नैरुक्तं निश्चितार्थवचनभवम्। अनुयो० १५१| नैरुक्तिः शब्दव्युत्पत्तिः । पिण्ड १२१| नैषेधिकी- निसीहिया शबपरिष्ठापनभूमिः । बृह० १४१
आ ।
नैषेधिकीसप्तैककः- आचारङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्विती-यचूडायां द्वितीयमध्ययनम् । स्था० ३८७ नैष्ठिकमुनिः परमसाधुः। प्रश्न. ११४॥ नैसर्गिकं दर्शनभेदः आव• ५२७
नैसम्पादयः चक्रवर्त्तिसम्बन्धिनो नवनिधयः । सम
११२|
नो प्रतिषेधे उत्त० ४०२१ साहचर्ये प्रज्ञा० ४६९| नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वात्। स्था. १०३ इति मन्यमानाः शब्द देशप्रतिषेधे । आचा० २५० | नोइंदिओवउत्ते यदा तमेवार्यमिन्द्रियेण दृष्ट्वा विचारयत्यो घसञ्जयाति तदा स नोइन्द्रियोपयुक्तः ।
-
प्रज्ञा० १५६ ।
नोइंदिय- नोइंद्रियं मनः स्था० ३४५५ प्रजा० ३११ उत्त० ४०२
नोइंदियअत्थावग्गहो- नोइन्द्रियेण भावमनसाऽर्थावग्रहोद्रव्ये
न्द्रियव्यापारनिरपेक्षघटाद्यर्थस्वरूपपरिभावनाभिमुखः
[147]
प्रथम-मेकसामायिको
रूपाद्यूर्ध्वाकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्दे
श्यसामान्यमात्रचिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियार्थावग्रहः ।
प्रज्ञा० ३११ |
नोइंदियग्गज् नोइन्द्रियग्राहयः नो-न इन्द्रियै:. श्रोत्रादिभिर्याय: संवेदयः । नोइन्द्रियेण मनसा ग्राह्यो वा । उत्त० ४०२ | इन्द्रियग्राह्यः । नो इति प्रतिषेधे, इन्द्रियैः-श्रोत्रादिभिर्ग्रायः-संवेद्य । इन्द्रियाग्राह्यः ।
उत्त० ४०१ | नोइंदियत्थ
औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधात्, मनः सादृश्यार्थत्वाद्वा नौशब्दस्यार्थ परिच्छेदकत्वेनेन्द्रियाणां सदृशमिति तत्सहचरमिति वा
"आगम- सागर-कोषः " [3]
Page #148
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________________
[Type text]
नोइन्द्रियं मनस्तस्यार्थोवि षयो- जीवादिः नोइन्द्रियार्थ इति । स्था० ३४६| नोइन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी नोइन्द्रियेण मनसा दुष्प्रणिहितस्याशुभसङ्कल्पद्वारेण दुर्व्यवस्थितस्य क्रिया, दुष्प्रणि-हितकायिकीक्रियाया द्वितीयो भेदः ।
आव० ६११|
नोउवसंतं नोपशान्तं अनिष्टादिव्याख्यातमेवैकार्थ वा ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
भग० ९०।
एवं भवनैतद्भवति नैतत्कल्पते। आचा० २४४ | नो कम्मं वेदितरसं कर्म नो कर्म। भग- ३०२१
जो कर्म द्रव्यकर्म लेप्यकर्मादिकम्। उत्तः ६४०१ नोकर्म्मद्रव्यकषायः बिभीतकादयः । आचा० ९१॥ नोकर्मद्रव्यलोभः- आकारमुक्तिः, चिक्कणिका । आव०
३९७|
नोकम्मैभावक्षण:- आलस्यमोहवर्णवादः आचा० ११० १ नोकषायता- कषायसहचारिता । प्रज्ञा० ४६९| नोकसाय- कषायाः क्रोधादिभिः सहचरा नोकषायाः । स्था०
५६९ |
-
नोछक्कसमज्जिया नोषकं षट्काभावः ते चैकादयः पञ्चान्तास्तेन नोषट्केन एकादयुत्पादेन ये
समर्जितास्ते भग० ७९७ ।
नोजीवा गृहको किलच्छिन्नपुच्छादयः आव. ३१९६ नोजनं नोयुगं-नोशब्दो देशनिषेधवचनः किञ्चिदूनं युगम्। सूर्य० २०६।
नोड्ड- हिं । निशी० ८
नोतह अन्यस्तु नो तथैवान्यथापीत्यर्थीः नोतयः । स्था०
३२८
२१४ |
नोदंसणायार- नोदर्शनाचार: चारित्रादिः । स्था० ६५| नोपरोत्तनो अपरीत्तः सिद्धः । जीवा० ४४६ नोभव भवव्यतिरिक्तः कर्मसम्पर्कसम्पादयनैरयिकत्वादिपर्या यरहितः । प्रज्ञा०
नोभवसिद्धिकानोअभवसिद्धिक- सिद्धः । जीवा० ४४ | नोमालियापुड गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता० २३२ नोल्लेडणं- नोदयितुं उल्लंघयितुम् । बृह० २०६, २७६। नोशब्दो- देशवचनः। व्यक• ४ आ सर्वनिषेध एवं स्था० १०३ | साहचर्यार्थः । स्था० ४६९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
नोसञ्ज्ञोपरुक्तः आहारद्युपभोगेऽपि तत्रानभिषकः ।
भग० ९०५।
नोसन्ना - नोसंज्ञा भग० २०५१ नोसन्नोवउत्तानोसञ्ज्ञोपयुक्ता आहारदिषु गुद्धिवर्जिताः । भगः ९३० पुलाक निर्मन्थस्नातका नोसञ्ज्ञोपयुक्ताः । भग ९०५
नोयंगं नोश्रुताङ्ग- अश्रुताङ्गम्। उत्त० १४४॥ नोहव्वाए नोपाराए यो हि मध्ये महानदीपूरं निमग्नो भवत्यसौ नारातीय तीराय नापि पारे महानदी पूरम् ।
-
आचा० ११३ |
न्यक्कारः- तिरस्कारः । उत्त० ३७६ ।
न्यक्कृत- धिक्कृतः । आचा० १८२
न्यक्ष- विस्तारः प्रत्यक्षं च उत्त० ६६। आक ८४ निष्कृष्टम् । आव० २५९
•
न्यग्रोधः- वटवृक्षः । भगः ६५०| न्यग्रोधपरिमण्डलं- न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य तत्, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णप्रमाणं अधस्तु न तथा तन्न्यग्रोधपरिमण्डलम् । प्रज्ञा० ४१२१ न्यग्रोधसंस्थानं नामित उपरि सर्वावयवाश्चतुरस्रालक्षणा-ऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तत्।
सम० १५० |
न्यायोद्ग्रहण- शब्दान्तरापेक्षया विशेषः । स्था० ४९४ | न्यासः- विक्षेतः, स्थापना । स्था० ४।
- X - X - x -x -
प
पंक- महान् कर्द्दमः पङ्कः । प्रश्न० ६५ । पङ्कः । औप० ८६| पड़कः स्वेदार्द्रमलरूपः । व्यक व० १२२| पड़कःकलरूपः। पिण्ड० १०२ । पङ्कः कर्दमः । स्था० ३२८ पङ्कः-पापम्। पङ्कं-पङ्कयतीति पापम् । सूत्र० ३३१ | पइकः मलः एव स्वेदेनार्द्रीभूतमलः । भग० ३७। पक:कर्दमः । भग० ३०७ | जम्बू० १६९। प्रस्वेद उल्लि| निशी०
११० अ
पंकगति-पके उदके वाऽतिदुस्तरं यदात्मीयं केनापि सहो-बध्य तद्बलेन गच्छति सा पङ्कगति, विहायोगतेः षोडशमो भेदः प्रजा० ३२७| पंकजल- पड्कजलं पड्कप्रधानं जलं यत् कमलमुच्यते।
उत्त० ३९१ |
[148]
"आगम- सागर- कोषः " [3]
Page #149
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________________
[Type text]
पंकप्पा- पकप्रभा चतुर्थनारकपृथ्वी प्रज्ञा० ४३ । पड़कस्य प्रभा यस्यां सा पड़काभद्रव्योपलक्षिता वा । अनुयो० ८९|
पंकबहुल- पकबहुलं कबहुलो विशेषो भूभागः । रत्नप्रभायाः द्वितीयकाण्डः । जीवा० ८९| पंकाययणाभि पड़कायतनां यत्र पड्कीलदेशे लोका धर्मार्थ लोटनादिक्रियां कुर्वन्ति । आचा० ४११। पंकावई पड़कावतीनाम महाविदेहे कुण्डः । जम्बू• ३४६| पङ्कोऽतिशयेनास्त्यस्यामिति पङ्कावती। महाविदेहे
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
नदी | जम्बू० ३४६|
पंकिता जल्लमल्लेन यस्ता निशी० १०८ आ पंकिय- आर्द्धमलोपेतम्। भग० २५४॥
पंखाल- पक्षवतीः । बृह० १८ आ । पं गन्तुमसमर्थ, पदे जङ्घाहीनः पङ्गुः। निशी० ४३१ पंगुल गुल:- गमनासमर्थजङ्घः प्रश्न. २५५ पड़गुलःचङ्क्रमणासमर्थः। प्रश्र्न० १६१
पंचगुलि पञ्चाङ्गुली जीवा० २२७ वल्लीविशेषः । प्रज्ञा०
३२
पंच. पण्णगं निशी० ४४आ
पंचजण्णं पाञ्चजन्याभिधानं सङ्खम्। ज्ञाता० २१८० पंचट्ठी- पञ्चाष्टा- पञ्चमुष्टिः । अन्त० ४९२ पंचतव पञ्चतवः पञ्चाग्नितपः यत्र चतुश्रुष्वपि दिक्षु चत्वारोऽग्नयः पञ्चमश्च तपनस्तल्लोके प्रसिद्धम्। उत्त० ५९८
पंचनियम- पञ्चनियमास्तु-शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि ज्ञाता० १०५ पंचपुल- पञ्चपुलः विपा० ८१
पंचमंगल- पञ्चमंगलं- नमस्कारम् । आव० ५४५ | पंचमंगलयं पञ्चमङ्गलकं- नमस्कारम् ओघ० २०३१ पंचम- पञ्चानां षड्जादिपञ्चस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः स्वरविशेषः । पञ्चसु-नाभ्यादिस्थानेषु मातीति वा पञ्चमः स्वरः । अनुयो० १२७ । पंचमासिआ पञ्चमी भक्षुप्रतिमा सम० २१| पंचमी- पञ्चमभिक्षुप्रतिमा ज्ञाता०७२ पंचरूविता पञ्चानां रूपाणां गर्जितविद्युज्जलवाताअलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं तदस्ति येषां ते पञ्चरुपिका उदकगर्भाः । स्था० २८७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पंचलइअं - पञ्चलतिकाः कत्तलिकारूपा अवयवाः । जम्बू०
२२३|
पंचवण्णा चतुर्दशतीर्थकृतशिबिका। सम० १५१ । पंचसेल द्विपविशेषः। निशी० ३४५ अ निशी ४२ आ कुमारनंदीगमनस्थानम्। बृह० १०८ आ पञ्चशैलकः द्वीपविशेषः। आव० २९६ । पंचसोगंधिय
पञ्चभिःएलालवङ्गकर्पूरकक्कोलजातिफललक्षैः
सुगन्धिभिर्द्रव्यैरभिसंस्कृतं पञ्चसौगन्धिः । उपा० ५| पंचत्युत्तर श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य जन्मादिकल्याणक सूचक नक्षत्रम्। आचा० ४२० पंचाल दुखवास्तव्यो देशः पञ्चालः, द्रव्यव्युत्सर्गे देशः । आव० ७१६। पञ्चालः- देशविशेषः । आव० २१९ | पञ्च-मण्डलः-पञ्चालदेशः । उत्त० ३९० | कम्पिलपुरनगरस्य जनपदः । ज्ञाता० २०७ जितशत्रुजनपदः । ज्ञाता० १४४ पञ्चालजनपदनिवासिनः । नन्दी० १०४ | आर्यदेशेषु नवमः पाञ्चालः जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ | पञ्चालः । आव० २१९|
पंचालराया- पञ्चालराजः । आव० ७१९ | पंचासवपरिण्णाया पञ्चाश्रवा हिंसादयः परिज्ञाताद्विविधया परिज्ञया ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिसम-न्तात् ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः, आहिताग्न्यादेरा-कृतिगणत्वात् निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञात पञ्चाश्रवा इति वा । दशवै० ११८ |
पंजर पञ्जरं वंशादिमयाच्छादनम्। राज० ६९। पञ्जरंवंशादिमयप्रच्छादनविशेषः । प्रश्न. ९९। पञ्जर:
पञ्जराकारः । जम्बू० २४२१ पञ्जरःवंशादिमयप्रच्छादनविशेषः । सम० १३९ । पञ्जरःबन्धनविशेषः । उत्त० ४९० । पञ्जरः - वंशादिमयप्रच्छादनविशेषः सूर्य. २६४ आचार्यादिपारतन्त्र्यं परस्परं प्रति नोदना च । बृह० ८ अ आयरिओ उवज्झातो पवत्ति थेरो गणावच्छेतितो एतेहिं पंचहिं परिग्गहितो गच्छो पंजरो भण्णति । निशी० ९५अ ।
पंजरदीव- अभ्रपटलादिपञ्चरयुक्तात् । भग० १४न
[149]
* आगम- सागर- कोषः " [3]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पंजरभग्ग- सुहुजन्मेण पडिचोदेति सुहं अच्छामि सो।। | पंडा- बुद्धिः । बह. ३४ । नि० चूव ९४ ।
पंडिय- पण्डितः-साधु। अनुयो० १२०। पण्डितः-कटुविपापंजलिउडे- प्रकृष्टः-प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन
ककामगुणदर्शिता। आचा०४३०| पापाड्डीनः। सूत्र. अञ्जलिः- हस्तन्यासविशेषः कृतो येन सा
३३७। पंडा-बुद्धिः संजाताऽस्येति पण्डितः। बृह. ३४ अ। प्राञ्जलिकृतः। राज०४४। प्रकृष्टं
पण्डितं-सातिशयबुद्धिमतः। जम्बू० २०७। पण्डातत्त्वाभावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः। उत्त. नुगा बुद्धिः, सा संजाताऽस्येति पण्डितः। उत्त०४७ ५६। प्रकर्षण-अन्तः प्रीत्यात्मकेन कृतो
पण्डितः विनीतविनेयः। उत्त०६१। पण्डितःविहितोऽञ्जलिः-उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति
पापाड्डीनः। सूत्र. १५७। पण्डितः-पण्डिताभिमानी प्रकृताञ्जलिः। प्रकृष्टं वा
शुष्कतर्क-दर्पा-ध्माता। सूत्र० ३९३। पण्डितः-बुद्धेः भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः। उत्त. तत्त्वः , संयतः। स्था० १७५। पण्डितः-सर्वविरतः। सम. ६३। आव. २६९।
३४। पण्डितः-सुनिश्चित-शास्त्रार्थः। उत्त. ३२० पंजलीगड- प्रकर्षण-अन्तःप्रीत्यात्मकेन कृतो
पण्डितः-चारित्रवान्। उत्त. २४२। पण्डितः-व्यवहारेण विहितोऽज-लिः-उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति
शास्त्रज्ञो जीवाः। भग० १०२| पण्डितः-पण्डा-द्धिः प्रकृताञ्जलिः। उत्त. १६|
संजाता यस्य स इति पण्डितः। बृह. ३४ अ। पण्डितःपंजलियड- प्रकृष्टः- प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन
सम्यग्ज्ञानवान्। दशवै. ९९। अञ्जलिः- हस्तन्यासविशेषः कृतो विहितो येन सः पंडियपंडियमरणं-साराधनं सर्वविरतमरणम्। आत। प्राञ्जलिकृतः। सूर्य०६।
पंडियमरण- सर्वविरतिमरणम्। भग० ६२४। पंजली- प्रकृताञ्जलिः-प्रकृष्टतोषवती। ज्ञाता० १६६| पण्डितमरणम्, मरणस्य नवमो भेदः। उत्त० २३० पंड-जनपदविशेषः। भग०६८८१
पंडिया- पण्डिताः-पापोपादानपरिहारितया पंडए- पण्डकं-नपुंसकम्। स्था० १६४।
सम्यक्पदार्थध-र्मचरणाय समुत्थिता भवन्तीति। पंडग- पण्डकः-नपुंसकम्। स्था० ४४५। पण्डते-गच्छति आचा० २४८वत्ता भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति | परिजाणंति। दशवै ४१ पण्ड-कम्। जम्बू० ३६३। पण्डकः-नपुंसकः। दशवै० २१५ | पंडु- पाण्डु-देशविशेषे धूलीरूपा सती प्रसिद्धा मृत्तिका। पंडगवण- पाण्डकवनम्। आव० १२४। वनविशेषः। स्था० | जीवा० २३। पाण्डुः-आपाण्डुः, आ-ईषत् शुभ्रत्वभागिति८० पण्डकवनं, पण्डते-गच्छति जिनजन्माभिषेक | यावत्। उत्त० ६८९| पाण्डुः। जीवा० १८८१ स्था-नत्वेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति णक प्रत्यये- | पंडुअ- पाण्डुकः निधिः, नवनिधौ द्वितीया। जम्बू० २५८१ पण्डकं वनम् मेरोर्वनम्। जम्बू० ३५९।
पंडुइयमुही- पाण्डुकितमुखी-दीनास्या। ज्ञाता० ३३। पंडरंग- पाण्डुरङ्गः मतविशेषः। आव० ८५६। निशी० १४८ | पंडुकंबलसिला- पाण्डुकम्बलशिला। जम्बू. ३७२।
पाण्डुकम्बलशिला, द्वितीयाऽभिषेकशिलानाम्। जम्बू. पंडरकड्डं- पाण्डुरकड्यं-धवलगृहम्। आव० ६७१। ___३७२ स्था० ८० पंडरकुड्डगा- पाण्डुरकुडयः प्रसिद्धा गोपालाः। आव० ४१८१ | पंडुगंग- कुसीलो। दशवै १५२। पंडरज्जा- पाण्ड्वा मायोदाहरणे दृष्टान्तः। आव० ३९३ | पंडुमत्तिया- पाण्डुमृत्तिका-देशविशेषे या धूलीरूपा सती निशी. २५१ ।
“पाण्डु" इति प्रसिद्धा। जीवा० २३। पंडरहिअगाम- पाण्डुरास्थिकग्रामः। आव० १९०| | पंडुमहुरं- पाण्डवकृतं दक्षिणवाचालके नगरम्। ज्ञाता० पंडरा- पाण्डुरा। आव० ४१७) पंडरुल्लोयं- पाण्डुरोल्लोचं श्वेतवस्त्रविभूषितम्। उत्त० | पंडुमहुरा- पाण्डुमथुरा। अन्त० १६। पाण्डुमथुरा-धृतिमति
| विषये पाण्डुपुरी। आव० ७०८। पाण्डुमथुरा। उत्त० १७९१
आ
રરકાર
६६५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[150]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
पंडुयए- पाण्डुकः, नवनिधौ द्वितीया । स्था० ४४८ । पाण्डुरकं- कालपरिणामतस्तथाविधरोगादेव
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
प्राप्तवलक्षभावम् । उत्त० ३३३ |
पंडुरंग. पाण्डुरागः नैयायिकादिपाषण्डमाश्रितम् । अनुयो० १४६॥ पाण्डुराङ्गः भस्मोद्धलितगात्रः । अनुयो०
२५
पंडुर पाण्डुरः शुक्लः । ज्ञाता० ६३ । पाण्डुरं सुधाधवलम् । औप० ४ पाण्डुरं- अकलङ्कम् जीवा. २७१ पाण्ड्डर:सुधाधवलः। जाता० ३
पंडुरओ- श्वेतः । आव० ४१९ ।
पंडुरग- पाण्डुरागः-शैवः। ज्ञाता० १९। पाण्डुरकः । भग०
१९७
पंडुरतल पाण्डुरलं- सुधामयतलम् । जम्बू० १०६ पंडुरपडपाउरण- पाण्डरो धौतः पटः प्रावरणं येषां ते । अनुयो०
पंडुरवत्तं पाण्डुरपत्रं जीर्णपत्रम्। उत्त० ३३४। पंडुरा- पाण्डुरा-श्वेता । उत्त० ६८५| पंडुराय हस्तिनागपुरे राजा ज्ञाता० २०८१ पंडुरोग - पाण्डुरोगः । जम्बू० १२५ | पंडुलइयमुही पाण्डुकितमुखी पाण्डुरीभूतवदना । निर०९ | पंडुल्लगितमुही- पाण्डुरागितमुखी आव० १५१1 पंडुल्लइयमुहा- पाण्डुकितमुखी-पाण्डुरीभूतवदना । विपा
४९ ।
पंडुसिला पाण्डुशिला । जम्बू० ३७१। पंडुसेण- पाण्डुपुत्रः। ज्ञाता० २२५| पाण्डुषेणःसंवेगोदाहरणे पाण्डुवंशेऽन्त्यो राजा। आव० ७०९। पंडे- पण्डवात् नपुंसकहस्तात् । ओघ० १६२ | पंडोलं- पटोलं वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ | पंत प्रान्तः दरिद्रप्रायः ओघ० १६२२ प्रान्तः भूतविशेषः । ज्ञाता० १११। प्रान्तं- स्वाभाविकरसरहितं, स्वल्पं वा द्वेषरहितम् विगतधूमम्। आचा० १४४१ प्रान्तं अवमम् । उत्त॰ ४१५। प्रान्तं तदेव व्यापन्नं विनष्टम् । बृह• २२०| प्रान्तं- नीरसम् । उत्त० २९४५ प्रान्तं पर्युषितं वल्ल प्रान्तं-नीरसम्। प्रान्तं-पर्युषितं चनकाद्यल्पं वा। आचा० २१३ | प्रान्तं - प्र -प्रकृष्टमान्तं प्रान्तं वल्लादिपर्युषितम् । स्था० २९८८ प्रान्तंनीरसप्रायम् ओघ० ४४ प्रान्तम् । ओघ० १४८१ प्रान्तंअमनोजम्। भग० १७४ प्रान्तं- असारम् । दशवै० १८७१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पन्ते- प्रान्त-विषये । ओघ० १४८ । आहारे दृष्टान्तम् । भग॰ ४८४। प्रान्तः-प्रकृष्टतरः । प्रश्र्न० १३८ | पंतकुल प्रान्तकुलं चण्डालादि स्था० ४२० पंतकुलाणि प्रान्तकुलानि तुच्छाशयगृहाणि दरिद्रकुलानि
वा । उत्त० ४१९ |
पंतदेवया - प्रान्ता देवता । दशवै० १०३ |
पंता- प्रान्ता - प्रत्यनीका । आव० ६३३ | प्रान्ता-धर्मानभि मुखी । पिण्ड० १२२
पंताव- अताडयत्। पिण्ड० १००|
पंतावणं ताडनम् ओघ० १४९१
पंतावेत्ता ताडयित्वा निशी ३०० आ । पंताहारं प्रान्ताहारः प्रकर्षेणाऽन्त्यं वल्लाद्येव भुक्तावशेषं पर्युषितं वा औप० ४०|
पंति - एकस्यां दिशि या श्रेणिः पङ्क्तिः । जीवा० १८१ । पंती- पङ्क्ति भुक्तुमुपविष्टपुरुषादिसम्बन्धीनि । उत्त०
५९ |
पंतीसो एकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पड़क्तिः । जम्बू० २४|
पंथ पन्था देशादविवक्षित देशान्तरप्राप्तिलक्षणः सम्यक्त्वा वाप्तिरूपः । सूत्र. १९७१
पंथए- पन्थकः- धन्यसार्थवाहस्य दासचेरः । ज्ञाता० ७९ ॥ पंथकोट्ट- सार्थघातः । विपा० ३९ ।
पंथ शेलगराजमंत्री, पंथकः । ज्ञाता० १०४१ पंथकःआर्जवोदाहरणे वत्सपालिकापुत्रः । आव० ७०४ पन्थकःब्रह्मदत्तपत्नीनागयशायाः पिता । उत्त० ३७९ । पंथघाइया पथि मार्गे अर्धपथे घातिका गन्तॄणां हननं पथिघातिका प्रश्न. ३८८
पंथनिझाई- पन्थानं निध्यातुं प्रलोकितं शीलमस्येति पथनिर्दध्यायी आचा० २१५ पंथासेपन्याभ्यासः समीपम् ओघ २५ पंथा- यस्मिन् ग्रामनगरपल्लीप्रतीकानां किञ्चिदेकतरमपि नास्ति स । बृह० १२२अ । पंथिया पन्थानं नित्यं गच्छन्तीति पान्यास्त एव पान्थिका ज्ञाता० १५० | बहुवत्यदेशजे पेच्छिया ते वा मग्गित्वा निशी० ३५८ अ
पंदुझ्या भंसिया निशी. २०५ आ
पंसु रयो अचित्तो पंसु । निशी० ७० अ । प्रायः निशी.
[151]
"आगम- सागर- कोष" [३]
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________________
[Type text]
२३ अ
पंसुखार पांशुक्षार- उषरलवणम्। दशवे. ११८१ पंसुरिया पांशुरिका-रज उद्घातः । आव ०७३५ पंसुवडी- पांशुवृष्टिः । भग० १९५| पांशुवृष्टिः धूलिवर्षणम् जीवा० २८३
पंसू- धुमाकार आपाण्डुश्च रजः अचित्तश्च पांशुः । आव ०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
७३५|
पड़-पाति रक्षति तां भार्य्यामिति पतिः । उत्त० ३८ | पइगा- प्रतिका-प्रद्युम्नसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त
३७९|
पइट्ठ- प्रविष्टः । दश० ५९ । प्रतिष्ठः सुपार्श्वपिता। आव० १६१। प्रतिष्ठितः शास्त्रीयद्वितीयमासनम्। जम्बू.
४९०
पइठ्ठा- प्रतिष्ठा-अपायावधारितस्यैवार्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापन | नन्दी० १७७१
पइट्ठाइ - प्रतिष्ठति । आव० ५७८ ।
पइट्ठाण- शालवाहननगरी । बृह० २७ आ । प्रतिष्ठानं अवस्थानम् । अनुयो० १२९| प्रतिष्ठानं त्रिसोपानमूलपादः । जम्बू० ४२१ प्रतिष्ठानः- त्रिसोपानमूलपादः । जीवा० १९८ प्रतिष्ठानं त्राणकारणम्। प्रश्न. ६३ प्रतिष्ठानंमूलपादः । जीवा० ३६९। प्रतिष्ठानं शालिवाहननगरम् । आव• ८९१ प्रतिष्ठानं मूलपादः । जम्बू• २३ पइडिअ - प्रतिष्ठितः-प्रकर्षेण स्थितवान् । दशवै० ७०| पइडिय प्रतिष्ठितं-नारकादिभावेनावस्थितम्। भग०८२ प्रतिष्ठितः अपुनरागत्य व्यवस्थितः । प्रज्ञा० १०८ पइडिया प्रतिष्ठिताः सायपर्यवसितं कालं स्थिताः। उत्त० ६८४ |
पठाणं प्रतिष्ठानं वैधम्र्योदाहरणे नगरम्। आव• ६९८ पड़णी पचनी नरकपालघ्ननस्थानम् आव० ६५१| पइण्ण प्रकीर्ण- इतस्ततो विक्षिप्तम्, असम्बद्धम् । उत्त०
-
३४६। प्रकीर्णः। बृह॰ १२६ आ । पइण्णकहा- णेगमसंगहववहारेहिं जं कहिज्जति सा उस्सग्गो पइण्णकहा। निशी० २४० अ पइण्णपण्णो- अथणीयसुओ अगीतो अपरिणामगो य, एसि उद्देसुद्दे कहित्तो पइण्णपण्णो । निशी० ८१ अ प्रकीर्णप्रश्न-प्रश्नः-छेदसूतान्तः पाती रहस्यार्थः स प्रकीर्णो येन स प्रकीर्णप्रश्नः । बृह० १३० अ
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पइण्णवाई प्रतिज्ञावादी प्रतिज्ञया वा इदमित्थमेव इत्येकान्ताभ्युपगमरुपया वदनशीलः उत्तः ३४६६ प्रकीर्णवादी प्रकीर्ण- इतस्ततो विक्षिप्तम्, असम्बद्धमित्यर्थः वदति- जल्पतीत्येवंशीलः, वस्तुतत्त्वविचारेऽपि यत्किञ्चनवादी । यः पात्रमिदमपात्रमिदमिति वाऽपरीक्ष्यैव कथञ्चिदधिगतं श्रुतरहस्यं वदतीत्येवंशीलः । उत्त० ३४६। पइण्णविज्झो- प्रकीर्णविज्जः-छेदसूतान्तर्गता रहस्यवचन-पद्धति सेव्यते सा बृह० १३० अ पइण्णा- प्रतिज्ञा-निश्र्चयरूपोऽभ्युपगमः । राज० १३३| प्रकीर्ण- अप्रतिनियता। बृह० २६४ अ ।
पइन्नं प्रदत्तम् । प्रश्न. ११। प्रतिज्ञा-पक्षः। दशवे. २६३ पन्नगा प्रकीर्णकानि । प्रज्ञा० ५६ | पइन्नगतव- प्रकीर्णतपः श्रेण्यादिनियतरचनाविरहितं स्वशक्त्यपेक्षं यथाकथञ्चित्क्रियमाणं तपः। उत्त० ६०१ |
पइन्ना- प्रतिज्ञा-निदानबन्धनरूपा आशंसा। सूत्र० २६०| प्रतीर्णा निस्तीर्णा आजन्मपालिता । प्रश्न. १०५| इभा प्रतिभा प्रद्युम्नसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्तः
३७९|
पइभाए- प्रतिभयः- भयजनः । ज्ञाता० ७९ | पड़मणुरत्ता-: • भर्त्तारं प्रति रागवती । ज्ञाता० २०२ | पड़या- पतिता जात्यादेर्बहिष्कृता । अन्त० १२| पइरिक्क- स्त्र्यादिविरहितेन विविक्त व्याबाधं वा । उत्त ११०| प्रतिरिक्तं विजनम् । भग० ५४३ | प्रतिरिक्तःआव० ६६। विजनं प्रचुरं वा एकान्तम्। वृह. ११९ आ एकान्तः-स्त्र्याद्यसङ्कुलः । उत्त० ६६५। पइरिक्कमज्जितघयविहीए
प्रतिरिक्तमभ्यङ्गनविधिना आक०६५।
पइरिक्कय- प्रचुरः । ओघ० १०३ |
पइल्लं पदं श्लीपदं पादानौ काठिन्यम्। प्रश्र्न० १६१ । पइवं- तैलदशाभाजनम् । भग० ३१३ | पइविज्जो जो पुण आदिरंतेण सव्वं कर्हेति सो निशी०
८१ आ०
पइविसेस प्रतिविशेषः प्रतिनियतविशेषः । नन्दी० ८५ पउंछति- अंजणेणं अजेति । निशी० १९० अ० पअंगे प्रयुताङ्गं चतुरशीत्यो लक्षैर्नयुतैः अनुयो० १००)
[152]
*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पउए- प्रयतम चतरशीत्या लक्षैः। अनयो० १०० भग० पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं वा। जीवा० २७७। पञ२९० कालमानविशेषः। भग० २७५।
पुष्करम्। जीवा० ३३३। चतुर-शीतिः पउट्ट- परिवतः परिवर्तवाद इत्यर्थः। भग० ६६८१ पद्माङ्गशतसहस्राणि पद्मम्। जीवा० ३४५। पद्मम्। प्रज्ञा० पउट्टपरिहार- परिवृत्यपरिहारः। भग० ६६७। शरीरान्तरप्र- ३७। पग-बिन्दुजालरूपम्। जम्बू. ५२८। सह-स्रपत्रः
वेशः। भग०६७३। परावर्त्य परिहारः। आव. २१४१ देवपरिकल्पितः पद्मः। आव० २३२ पञ-अरवि-न्दम्। पउट्ठ- प्रकोष्ठः-कूपर्पराग्रेतनभागः। भग०५४०
दशवै०१८५सौधर्मकल्पे पद्मावतंसकविमाने सिंहापउहा- प्रविष्ठा। आव० ८००
सनम्। ज्ञाता०२५३। पञ-कमलं गन्धद्रव्यविशेषो वा। पउण- प्रगुणभूतः। आव० ४००। प्रगुणः। आव० २२७) सम०६१। कल्पावतंसिकस्य प्रथममध्ययनम्। निर० पउणइ- प्रगुणीभवति। आव० ६७९।
१९| पद्मः। ज्ञाता०९६ पद्मकम्। आचा० ३६३। पञपउतंग- प्रयुताङ्गं चतुरशीतिरयुतशतसहस्राणि
सूर्यविकाशिपङ्कजम्। राज०८ पक्षार्थःप्रयुताङ्गम्। जीवा० ३४५। स्था० ८६।
भगवत्यामेकादश-शते षष्ठोद्देशकः। ५११| पञपउत- चतुरशीतिः प्रयुताङ्गशतसहस्राणि प्रयुतम्। जीवा. पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यम्। जम्बू० ११७ आणतकल्पे ३४५। स्था० ८६। प्रयुक्तः योत्रितः। जीवा० १९३। प्रयुक्तं- विमानम्। सम० ३५) सह-स्रारकल्पे विमानम्। सम. प्रयोगः। भग० १८२। प्रज्ञा० ४३६।
३३। पञ-कामलं, एतदभिधा-नगन्धद्रव्यम्। औप०१६ पउत्तदव्वसम्म- यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः पञ-सूर्यविकासि। जीवा. १७७। पद्मः-हृदविशेषः। ज्ञाता० समाधा-नाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक्। आचा० १२८१ १७६|
पउमगंधा- पद्मगन्धा। जम्बू. ३१३। पउत्ति- प्रवृत्तिः-व्यक्ततरवार्ता। ज्ञाता०८४।
पउमग- पद्मकं कुङ्कुमकेसरम्। दशवै० २०६। पउत्ती- प्रवृत्तिः । आव०४१६|
पउमगुम्म- कल्पावतंसिकस्य सप्तममध्ययनम्। निर० पउत्थ-प्रोषितम्। आव० ३४२ प्रोषितम्। उत्त. १४७ १९| पद्मगुल्मः-नलिनगुल्मविमानः। उत्त० ३७६| पउत्थवइया- प्रोषितपतिका। आव०६४० प्रोषितभर्तका। सहस्रारे विमानविशेषः। सम० ३५। पद्मग्ल्मओघ० १५०। प्रोषितभर्तुका। आव० ३९८१
विमानविशेषः। उत्त० ३९५१ पउप्पए- प्रपौत्रकः-प्रशिष्यः। भग०५४९। शिष्यसन्तानः। पउमजालं- पद्मजालं सर्वरत्नमयपद्मात्मकं। जीवा. १८१। भग०६९१|
पउमणाभे-धातकीखण्डापरककायां नरपतिः। ज्ञाता० पउमंग- पद्माङ्ग-चतुरशीतिरुत्पलाङ्गशतहस्राणि। जीवा. २१३ २४५। कालमानविशेषः। स्था० ८६। कालमान-विशेषः। पउमणिकंदो- पद्मिनीकन्दः-उत्पलिनीकन्दः। प्रज्ञा० ३७। भग० ८८८। कालमानविशेषः। सूर्य ९१। चतुरशीत्याल- | | पउमद्दह- पद्मद्रहो नाम द्रहः पद्मद्रहो नाम ह्रदो वा। जम्बू. क्षैरुत्पलैः पद्माङ्गम्। अनुयो० १००।
२८४॥ पउम- पद्मः-हिमवति ह्रदः। स्था०७३। पञ्चमजिनभिक्षा- | | पउमद्दहप्पभाई-पद्मद्रहप्रभाणि-पद्मद्रहाकाराणि आयतचदाता। सम.१५१। आगामिन्यां अवसर्पिण्यां
तुरस्राकाराणि। जम्बू० २८८ अष्टमचक्री। सम० १५४| कालमानविशेषः। भग० २१०५ | पउमपम्हं- पद्मपक्ष्म-पद्मपत्रम्। जीवा० ३८६। भग० २७५ आगामिन्यां अवसर्पिण्यां अष्टमबलदेवः। पउमपम्हा- पद्मगर्भाः। प्रश्न. ७०। सम० १५४। कालमानविशेषः। भग० ८८८ जलरुहो पउमप्पभा- पद्मप्रभा दक्षिणपुष्करिणीनाम। जम्बू. ३३५) वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। कालमानविशेषः। सूर्य पउमप्पय- परम्परा। बृह० ११३। ९१। पद्मः-सम-तिजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७) पउमप्पह- इह निष्पकतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा पद्मः-अष्टमबलदेवः। आव. १५९। पञ-चतरशीति लक्षैः यस्याऽसौ पद्मप्रभः, षष्ठजिनः। आव०५०३। पद्माङ्गः। अनुयो० १०० ज्ञाता० २५३। पञ-कमलं- पउमभद्द- कल्पावतंसकस्य पञ्चममध्ययनम्। निर०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[153]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
१९|
कालमानविशेषः। स्था० ८६| पउमरह- पद्मरथः-सर्वकामविरक्तताविषये देवलास्तराज- | पउमाइं- पद्मानि सूर्यविकासीनि ईषत् श्वेतानि वा। जम्बू. कुमारः। आव०७१४१
२६| पउमराग- पद्मरागः-रत्नविशेषः। जम्बू० ४८५
पउमाकारं- पद्माकारम्। आव०४२७ पउमरुक्ख- पद्ममतिविशालतया वृक्ष इव पद्मवृक्षः। जीवा. | पउमाते- शक्रेन्द्रस्याग्रमहिष्या राजधानी। स्था० २३१। ३३३
पउमाभ- यस्मिन् गर्भगते देव्याः पद्मशयने दोहदो जातः, पउमलय- पद्मलता-मृणालिका। भग० ४७८।
तच्च तस्यै देवतया सज्जितं, पद्मवर्णश्च भगवान् तेन पउमलया- पद्मलताः पद्मिन्यः जम्बू० २९२पद्मलता- पद्मप्रभ इति। आव०५०३ स्थलकमलिनि पद्मकाभिधानवृक्षलता वा। औप.९| | पउमावई- पद्मावती-चम्पायां कणिकराज्ञो भार्या। भग. पद्मलता पद्मिनी। जीवा. १८२। लताविशेषः। प्रज्ञा० ३२ ३१६। पद्मावती-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या चतुर्थी दिक्क्पउमलेसा- पद्मगर्भवर्णा लेश्या पद्मलेश्या। स्था० १७५१ मारीमहत्तरिका। जम्बू० ३९१| पद्मावतीपउमवडेंसए- सौधर्मकल्पे विमानः। ज्ञाता० २५३। मुनिसुव्रतमाता। आव० १६०| पद्मावती-तेनतलीपनगरे पउमवरवेइया- पद्मवरवेदिका-पद्मप्रधानावेदिका। जीवा० कनकरथराज-पत्नी। आव० ३७३। पद्मावती१८३
द्रव्यव्युत्सर्गे चेटकहिता। चम्पापउमवूह- पद्माकरोव्यूहः-पद्मव्यूहः-परेषामनभिभवनीयः, नगरेशदधिवाहनपत्नी करकण्डुमाता। आव० ७१६) सैन्यविनाशविशेषः। प्रश्न.४७
कृष्णस्य देवी। निर०४। धर्मकथाया नवमवर्गस्य पउमसर- पद्मसरः। आव. १७०| पद्मसरः। आव०१८५ प्रथम-मध्ययने देवी। ज्ञाता०२५३। रोहीतकनगरे पद्मानि यत्रोत्पद्यन्ते सरसि तत् पद्मसरः। स्था० ५०२। महाबलराज्ञो भार्या। निर०४०। कोणिकस्य राज्ञी। निर० चतुर्दशस्वप्ने दशमम्। ज्ञाता०२०
१९| कालककुमारपत्नी। निर० १९। पद्मावतीपउमसिरी-नवमचक्रिणः स्त्रीरत्नम्। सम० १५२ पद्मश्री- शिक्षायोगह-ष्टान्ते हैह-यकलसंभूतवैशालिकचेटकस्य मेघनादविद्याधरकन्या। आव० ३९३। धणमित्तस- द्वितीया पुत्री। आव०६७६। त्थवाहस्स बीया भज्जा। निशी० १२८ । पद्मश्री- पउमावती- करकण्डुमाता। नि० १९४ अ। निशी० ४६ अ। योगसंग्रह निरपलापदृष्टान्ते दन्तपुरनगरे
नरवाहनराज्ञी। व्यव० २२७ आ। कनक-रथस्य राज्ञी। धनमित्रवणिजस्य-लघ्वी भार्या। आव०६६६।
ज्ञाता०१८४। भीमराक्षसेन्द्रस्य दवितीयाs-ग्रमहिषी। पउमसेण- कल्पावतंसिकस्य षष्ठममध्ययनम्। निर० भग. ५०४। शेलकपूरे शेलकराजपत्नी। ज्ञाता०१०४|
साकेतनगरे पटबुद्धिराज्ञा। ज्ञाता० १३०| पद्मावतीपउमा-धर्मकथायाः नवमवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। शतानीकराज्ञो पुत्रोदायनस्य पत्नी। विपा० ६८१ ज्ञाता० २५३। भीमराक्षसेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० पद्मावती-अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य प्रथमाध्ययनम्। २०४। मुनिसुव्रतस्वामिनो जननी। सम० १५१।
अन्त०१५। पद्मावती-पञ्चिमरुचकवास्तव्या चतुर्थी भीमराक्षसेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४। दिक्कुमारी। आव० १२२पद्मावती-चेटकदुहिता शक्रदेवेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रम-हीषी। भग० ५०५।
दधिवाहनराज्ञी। उत्त० ३००| पद्मावती-महापद्मराज्ञी। वनस्पतिविशेषः। भग०८०४| पद्मा-शक्रदेवेन्द्रस्य उत्त० ३२६। मरुत्पत्थे देवी। व्यव० २८० आ। प्रथमाऽग्रमहिषी। जीवा० ३६५। साधारण
पउमावतीदेवी- शैलककेषग्राहीका देवी। ज्ञाता० १०८ बादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४१ धर्मकथायाः पउमासण- पद्मासनं-पद्माकारमासनम्। जीवा० २००९ पञ्च-मवर्गस्य त्रयोदशममध्ययनम्। ज्ञाता०२५२ पउमुत्तर- पद्मोत्तरः-शुक्ललेश्याया आस्वादे दृष्टान्तः। धर्मकथायाः नवमवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। ज्ञाता० प्रज्ञा० ३६४१ दशमचक्रीपिता। सम० १५२। पद्मोत्तरः२५३। पद्मा-पूर्वस यां पुष्करणीनाम। जम्बू. ३३५ दिग्हस्ति-कूटनाम। सम० १५२| पद्मोत्तरः
१९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[154]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #155
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
नवमचक्रीमहापद्मपिता। आव० १६२१
लघुतरभागः। जम्बू. १४४। पउमुत्तरा- पद्मोत्तरा शर्कराभेदः। जम्बू. १९८१
पएसकम्म- प्रदेशाः-कर्मपुदगलाः जीवप्रदेशेष्वोतप्रोतानां पउमुप्पल- पद्मोत्पलं-अधस्थासाकाकारं पात्रम्। आ० तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्मः। भग०६५ २११। जस्स अहो णाभी पउमागिती उप्पलागिती वा तं पएसग्ग-प्रदेशाग्रः-प्रदेशपरिणामः। स्था० २५३। पउम्प्पलं। निशी० १२५पद्मोत्पलाकारपुष्पकयु-क्तम्। पएसघण- प्रदेशघनः-संस्थानविशेषः। आव० ४४४१ बृह० २४५॥
पएसणामणिहत्ताउए- प्रदेशाः-कर्मपरमाणवः ते च पउमोत्तरा- पद्मोत्तरा। जीवा० २७८।
संक्रमतो-ऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्ते तत्प्रधानं नाम, पउयंगे- कालमानविशेषः। भग०८८८1
तेन सह निधत्त-मायुः प्रदेशनामनिधत्तायुः। प्रज्ञा० पउर- प्रचुरः। ओघ० १२०।
२१८ पउरजंघ- प्रचुरजङ्घः-पुष्टजङ्घः। जम्बू. १३१॥ पएसनिवत्तसंठाण- प्रदेशैः-आत्मप्रदेशैर्निर्वृत्तं-निष्पन्नं पउरजणवय- पौरजनपदम्। आव० १७४।
संस्थानं यस्य सः प्रदेशनिवृत्तसंस्थानः। प्रज्ञा० १०८॥ पउरत्थ- प्रचुरार्थः-प्रभूतार्थः। आव० ४१३।
पएससंकम- यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन पउरा- पौराः-पुरवासिनः। बृह० १५५अ।
परिणाम्यते सः प्रदेशसंक्रमः। स्था० २२२ पउराए- प्रचूराणि प्रचुरकाणि-प्रभूतानि। प्रचुरः आयो- पएसा- प्रदेशाः-जीवप्रदेशेष्वोतप्रोताः कर्मपुद्गलाः। भग. लाभो यस्मिन्। उत्त० २८९)
६५। प्रदेशाः-जीवप्रदेशा एषां ते जीवप्रदेशाः, चरमप्रदेशपउल-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। जीवप्ररूपी निह्नवः। आव० ३११| पउलण- पचनविशेषः। प्रश्न.१४|
पएसी-प्रदेशी। आव. १९७१ पउलियं-पक्कं अग्गिणा पउलियं। निशी. १५७ आ। पओअणं- प्रयोजनं-प्रवर्तनम्। उत्त०५०३। पउल्लग-भाजनं स्थाल्यादि। दशवै. ९७।
पओए- प्रतोदः-आरादण्डलक्षणः। दशवै० २५० पउसा- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा०५५
पओग-कायादिप्रयोगः। ओघ. २२१। प्रयोगःपए- प्राग्प्रत्युषसि। ओघ०८१| प्रगे। आव०८९, ३३५, हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा च। आव. २३। प्रयोगः
६४०। प्राग-पूर्वम्। ओघ० ४७। पूर्वं, प्रगे। बृह. १६१| उपायः। राज० १४६। प्रयोगः-मनःप्रभृतीनां पएणियार-प्रकृष्ट एणीचारः प्रैणीचारः। प्रश्न.१४॥ व्याप्रियमाणानां जीवेन हेत-कतृभूतेन यद् व्यापारणं पएस- प्रदेशः-लघुतरम्। भग० ३८१। प्रकृष्टो-निरंशो प्रयोजनं सः प्रयोगः। स्था० १०७ सम्यक्त्वादिपूर्वो धर्माधर्माकाशजीवानां देशः-अवयवविशेषः। प्रदेशः। मनःप्रभृतिव्यापारः अथवा सम्यगादि-प्रयोगःस्था० २४। प्रदेश-देशैकदेशः। जम्बू. ३३९। प्रदेशः- उचितानचितोभयात्मक औषधिव्यापारः, स्था० १५१| कर्मपरमाणुः। प्रज्ञा० २१८ प्रदेशः-त्रसरेण्वादिरूपः। प्रयोगः-प्रज्ञापनायाः षोडशमं पदम्। प्रज्ञा०६। प्रयोगःजीवा० ३२२। प्रदेशः-परमाणुः। आचा० १३। प्रदेशः- प्रकर्षेण युज्यते व्यापार्यते-क्रियासु सम्बन्ध्यते वा जीवप्रदेशः कर्मपुद्गलसम्बन्धः। आव० ५१८। संयम- साम्परायिकेर्यापथकर्मणा सहात्मा अनेनेति। प्रयोगःस्थानाविभाग-परिच्छेदः। बृह. १५। प्रकृष्टो-निरंशो परि-स्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इति। प्रज्ञा० ३१७) देशः प्रदेशः। अनुयो० ६७। प्रकृष्टो-निरंशभागः प्रकृष्ट- प्रयोगः-प्रयुज्यते इति व्यापारो धर्मकथाप्रबन्धो वा। स० सर्वसूक्ष्मः पुद्गलास्तिकायस्य देशो-निरंशो भागः २३६। प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजीववीर्यजनितो प्रदेशः अनुयो० ६८ प्रकर्षणान्त्यत्वात्प्रदेशान्तराभावतः व्यापारः। उत्त० २०१। प्रयोगः व्यापारः। ज्ञाता० १७७। क्वचिदप्यनुगतरूपा-भावलक्षणेन दिश्यते
प्रयोगः- व्यापारणं करणं आशंसा व्यापारः। स्था० ५१५ प्राग्वदुपदिश्यत इति प्रदेशः-निरंशो भागः। उत्त० ६७२। प्रयोजनं, सपरिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापारः प्रदेशः-सूचकत्वादस्य अन्त्यप्रदेश-जीववादिनः अन्त्य इत्यर्थः। सम० ३१ व्यावृत्तिः । सम० १२७। व्यापरणंएव प्रदेशो जीव इत्यभ्युपगतः। उत्त० ५२। | करणम्। उत्त० १८८। प्रयोगः-जीवव्यापारः। भग० ५५)
। करणा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[155]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #156
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रयोगः-कला-न्तरम्। जम्बू० २३२। प्रयोगः
थेरकप्पिया संथारूत्तरपट्टेस स्वंति एस पकप्पो। निशी. स्वकलसाधनव्यापारः। दशवै. १२३| कायादिप्रयोगः। १६१ आ। णिसीहज्झयणं| निशी० ८१ । प्रकल्पःव्यव० ३९७ अ।
आचारः, आसेवा। स्था० १४३। अध्ययनविशेषः, पओगकरण- प्रयोगकरणम्। उत्त० १९७।
निशीथः, व्यवस्थापनम्। सम०४८। प्रकल्प्यं पओगकिरिया- प्रयोगक्रिया मनोवाक्कायलक्षणा। सूत्र. प्रकल्पनीयं पिण्डादि। स्था० ३०० प्रकल्प:३०४। प्रयोगक्रिया, विंशतिक्रियामध्ये षोडशमी। आव. अष्टाशीतिग्रहेषुद्वापञ्चाशतम। जम्बू०५३५। प्रकल्पः६१२ प्रयोगो-मनोवाक्कायलक्षणस्तस्य क्रिया-करणं निशीथाध्ययनम्। व्यव० ४०आ। णिसीह। निशी. १०० व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः
आ। मनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया पकम्मति- प्रक्रमते प्रक्रमते प्रकर्षेण प्रभवतीत्यर्थः। स्था. कर्मेत्यर्थः। स्था० १५३।
४३३ पओगगती- प्रयोगः-प्रागुक्तः पञ्चदशविधः स एव गतिः पकरण-प्रकरण प्रक्रिया। प्रश्न. १४१। प्र-योगगतिः। प्रज्ञा० ३२५१
पकरणेयसुत्तं- प्रकरणसूत्रम्। बृह. ५० आ। पओगपरिणया-जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः। पकरेइ- बध्नाति। भग० ५१। स्थितिबन्धापेक्षया भग. ३२८१
बद्धावस्था-पेक्षया वा पकरेइ। भग० १०२। बन्धाति। पओगबंधे- जीवप्रयोगकृतः। भग० ३९४|
प्रज्ञा०४०७। प्रकरोति-प्रकर्षण बध्नाति। पिण्ड०४१। पओट्ठ- प्रविष्टः। बृह० २३१ अ।
पकरेति-प्रकरोति वेदयते बध्नाति च। भग. ९८ पओय- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४।
पकाम- प्रकाम-अत्यर्थम्। ज्ञाता० ३१। प्रकाम-अत्यर्थम्। पओयणं- पहयोजनं-अवश्यकरणीयं प्रयोजनम्। प्रश्न भग० २९३ अनेकशः। बृह. १४ अ। २४। प्रयोजनम्। प्रज्ञा० ४४७। येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत् पकारफकारबकारभकारमकारप्रविभक्तिप्रयोज-नम्। आव० ३७७
एकोनविंशतितमो नाट्यविधिः। जीवा. २४७। पओयलट्ठो- प्रतोत्रयष्ठिः- प्राजनकदण्डम्। औप०६४। पकामरसभोई- अत्यर्थमन्नभोक्ता। औप० ३८ पओलग्गिओ- प्रावलग्नः। आव. १८७
पकित्तिया- प्रकीर्तिताः- प्रकर्षेण सन्देहापनेतृत्वलक्षणेन पओलिता- पक्त्वा । उत्त. १७९|
संशब्दिताः। उत्त०६७६। पओस- प्रद्वेषम्। ओघ० १४९। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५५ | पकिन्ना- प्रकीर्णानि दत्तानि। उत्त० ३६१। प्रदोष-द्वेषम्। उत्त०६३३। राराघप्रहरः। स्था० २१४। पकीण्णं- प्रकीर्णं विक्षिप्तम्। प्रश्न. १५४ प्रदोषः। आव०६४०
पकुव्व- खण्डशः कृत्वा। सूत्र० १९३) पओसकाल- प्रदोषकाले-रजनीमुखसमयः। उत्त० ५३९। | पकुव्वए- आलोचितेष्वपराधेषु प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि पओसा- प्रदवेषः क्रोधादिः, नवमी प्रतिसेवा। भग. ९१९। कारयितुं समर्थः। भग० ९२० पओसिया- जनपदविशेषः। भग० ४६०
पकुव्वी- आलोइए जो पच्छितं कारवेति सो पकुव्वीः। पकंठगा-पीठविशेषः, आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनप्रदेशौ पीठौ निशी० १२८ आ। आलोचिते शुद्धिकरणसमर्थः। स्था० प्रकण्ठौ। जम्बू० ५३
४८६] पकट्ठय- प्रकर्षयति-आकर्षयतीत्यर्थः। व्यव० ८६ आ। पकोहए- प्रकोष्ठकः-कलाचिका। जम्बू. ५२७। पकप्प- प्रकल्पः-अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः, पकोट्ठी- प्रकोष्ठी:-कलाचिका। प्रश्न.८१। निशी-थान्तमाचारङ्गमिति। प्रश्न. १५४ प्रकर्षण पक्क-पक्वं-पाकप्राप्तम्। दशवै०२१८ पक्व:कल्पः प्रकल्पः-प्ररूपणा, प्रकर्षकल्पो वा प्रकल्पः- पाकप्राप्तः। आचा० ३९१। पक्वः-काठिन्यम्पगतः। प्रकल्पप्रधानेत्यर्थः, कल्पनं पकल्पो छेदनेत्यर्थः। ज्ञाता०११६। आसखडिकः-कलहनशिलः। ब्रह. २९३ प्रकर्षादवा कल्पनं। प्रकल्पः। निशी० २१ आ।
अ। जं० अग्गिणा पउलियं पक्कं| निशी. १५७ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[156]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #157
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________________
[Type text]
पक्वम् । व्यव० २५६ |
पक्कण- चाण्डालः । आव० २१७ |
पक्कणकुल- मातङ्गगृहम् । बृह० १८ आ। गर्हितकुलम् ।
आव० ५२०१
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पक्कणदेशज पक्कणि । जम्बू० १९१। पक्कणिय पक्कणिकः
चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्र्न० १४ |
पक्कणिया- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५| पक्कणी- धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४७ । पक्कतलमेहवन्ना- पक्वपत्रो यस्तलः तालवृक्षः स च मेघश्चेति विग्रहस्तस्येव वर्णो येषां ते तथा । ज्ञाता० २३१|
पक्कभोम कवालियादि पक्कशोमं निशी ६४ आ पक्कमहुर- फले द्वितीयो प्रकारः। स्था॰ १९६। पक्कमेत्ति- मन्दपक्का निशी. ७५ अ
पक्का पक्वा पक्वः-पाकप्राप्तः । आचा० ३९१ |
पक्काम- अर्धपक्वम् । ओघ० १०० । पक्किगसंठाण पक्वेष्टकासंस्थानं.
मानुष्यक्षेत्र बाह्यसूर्यचन्द्रातपक्षेत्रम् जीवा० ३४७ पक्किलियाणं- प्रकोडिता: क्रीडितुमारब्धवत्तः । जम्बू•
३९|
पक्कीलिय. प्रकीडितः क्रोडितुमारब्धः। ज्ञाता० ४० पक्खंद- प्रस्कन्दथ-आक्रामथ उत्त० ३६६ | प्रस्कन्दन्तिअध्यवस्यन्ति। दशवै० ९५| प्रस्कन्दः - गमनम्। प्रश्न
९८
पक्खः- पक्षः-परिग्रहोऽङ्गीकारः । भग० १७ । पक्षः वस्तुधर्मः परिग्रहो वा भगः १८१ पक्षः- अड़गैकदेशः । जीवा० १८० | पक्ष:- अड्कमयः जीवा. ३६०] पक्षः पाश्र्व:पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपः । प्रज्ञा० ३२९ | मध्यरात्रः । ज्ञाता० कालविशेषः । भग. ८८८ पक्षः ग्रहः । जम्बू० १४११ आचार्यपक्षकः-पक्षप्रदेशः । ओघ० १०७ | पक्षः पार्श्व सन्निधिः । दशवै० २३५ | पक्षः । जीवा० १८० | पक्षःपाश्र्व र्द्धरात्रिः । ज्ञाता०] १२४ | पक्खच्छाया- पक्ष्मच्छाया । सूर्य० ९५| पक्खणपरपक्खण- व्याप्तसुव्याप्तम्। मरण०। पक्खपिंडा पक्षपिण्डः बाहुद्वयकायपिण्डात्मकः । उत्तः
५४|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पक्खबाहा - पक्षबाहा-वेदिकैकदेशः । जीवा० १८२ पक्षबाहुः पक्षैकदेशभूतः । जीवा• ३६०] पक्षबाहुः पक्षैकदेशः ।
जीवा० १८०
पक्खर पक्खर तनुत्राणविशेषः । विपा० ४७ । पक्खलणं- प्रस्खलनम् । स्था० ३२८८ आवडणं । निशी० ४९
अ।
पक्खा- पक्षाः- पक्षाः-पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणाः । स्था० ८६। पक्खाविक्खी- पक्षेपणी । गच्छा | पक्खामणं- पक्ष्यासनं यस्याधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिणः । जीवा. २०० | पक्ष्यासनानि येषामधो भागे, नानास्वरूपाः। पक्षिणः । जम्बू० ४५ । पक्खिकायणा कौशिकगोत्रप्रकारः । स्था० ३९० पक्खिणि पक्षिणि शकुनिकासारिकादि। उत्त० ४०११ पक्खित प्रक्षिप्तं- आस्यगतं मुखे प्रक्षिप्तम् ओघ.८८८ पक्खियं पाक्षिकं पक्षातिचारनिर्वृत्तम् आक १६३१ पाक्षिकः- अर्धमासः । व्यव० ३९६ अ । पक्खिविरालिए- पक्षिविशेषः । भग० ६२७ | पक्खिविरालिया धर्मपक्षिविशेषः । प्रज्ञा- ४९| पक्खिविराली धर्मपक्षिविशेषः । जीवा० ४१| पक्खुलणं- अधस्तात् उपरि वाssस्फालनं प्रस्खलनम्। बृह० २०५आ। भूमावसं प्राप्तं कतिपयैरंगैः प्राप्तं वा प्रस्खलनम् । बृह० २२९ आ । पक्खुलमाणि प्रकर्षेण स्खलद्गत्या गच्छन्ति । बृह०
।
२२८ आ
पक्खेव- अर्धपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपकः। ज्ञाता० १९३। प्रक्षेपः- प्रक्षेपणीयः । सूर्य० १६७ निशी० ४९ अ
पक्खेवाहार- कावलिकः । भग- २७
पक्खोडिज्ज प्रस्फोटनं निरन्तरं वह वा स्फोटनम् । दशवै० १५३ |
पक्खोलण प्रस्खलद्। निर० ३४ पक्षिगृहकोकिला- अण्डजपक्षिविशेषः आचा. ७० पक्षी सम्पातिमजीवविशेषः । आचा० पा
पक्व आसइखडिकः । बृह० २९३ अ पुनः स्थिरो अव तिष्ठति, उल्लापभयात् कार्यमपि न शेषका उदिरन्ति ।
व्यव० ३१६ |
पगठग प्रकण्ठकः- पीठविशेषः । जीवा० २०९ पीठक
[157]
*आगम - सागर- कोषः " [३]
Page #158
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
विशेषः। जीवा० २१३, २१९।
पिण्ड०१४८। प्रकृतः-अधिकृतो महामनुष्यः। व्यव० २४४ पग- प्रभातः। निशी. १०१ अ।
। पगइ- प्रकृतिः-कुम्भकारादिश्रेणिः। औप०७२। प्रकृतिः- । | पगरणं- प्रकरणम्। आव० ८२२। ओघ० ९७। प्रकरणंस्वभावः। जीवा० २७७। प्रकृतिः- कर्मप्रकृतिविषयको अनेकार्थाधिकारवत्कायप्रकरणादि। दशवै० १४१। भगवत्याः प्रथमशतके चतुर्थोद्देशकः। भग०६) पगरिए- प्रगलितः-गलतष्ठः । पिण्ड० १५७ पगइभद्दया- प्रकृतिभद्रकता-स्वभावत एवापरोपतापिता। | पगरिस- प्रकर्षः-विशिष्टार्थावगमरूपः। जीवा० २५४। उपा०२९।
पगलिय- प्रगलितः-सातत्यव्यूढः। नन्दी०४७ प्रगलितःपगओ- प्रगतः-परिचितः। आव०७१०। प्रकृतोऽधिकृतः। क्षरितः। ज्ञाता०२६। निशी० ९८ ॥
पगहः- प्रकर्षेण प्रधानतया चागृह्यते इति प्रग्रहःपगड- प्रकृतं बद्धं वा। आचा० १६१। प्रकृतं निर्वर्तितम्। प्रभूतजन-मान्यः प्रधानपुरुषः। व्यव० ४६ आ। दशवै० २७३। प्रगतः-महागतः। आचा०४१११ प्रकटः- | | पगहिओ- प्रगृद्धः। आव० २९७ प्रख्यातम्। उत्त० ३८४
पगहीय- प्रगृहीतः-गुरुसकाशादङ्गीकृतः। ज्ञाता०२१३। पगणिया- गणनया यत्र दीयते सा प्रगणिता।
पगाढं- प्रगाढं-प्रकर्षवत्। भग० २३१। प्रगाढ-प्रकर्षवत्। प्रकर्षणवक्ष्यमा-णलक्षणजातिनामविशेषनिर्धारणेन प्रश्न० १५६। प्रकर्षवृत्तिः । भग०४८६) पाषंडिना गणना यस्या सा प्रगणिता। बृह. १४० अ० | पगाम- प्रकामं-चातुर्यामं उत्कटं वा। आव० ५७४। प्रकर्षण गण्या प्रगण्या पासंडीणं। निशी. १८६ आ। द्वात्रिंशा-दिकवलाधिकं आहारं प्रकामम्। पिण्ड० १७४। पगत- प्रकृतः-संमत। बृह. २२ आ। प्रकृतः प्रकरणः। बृह. प्रकाम-अत्यर्थम्। उत्त०६२५। ज्ञाता०४४। प्रकाम
१६७ अ। प्रकृतम्। आव० ३०६। प्रकृतम्। आव० ८२२।। द्वात्रिंशत्क-वलकाः प्रकामम्। व्यव० २२ आ। पगता- प्रख्याता। निशी० ३०१ आ। वृष्णिदशायां पगामस- प्रकामशः-बहशः। उत्त०४३३। पञ्चममध्ययनम्। निर० ३९।
पगामाए- प्रकाम-अत्यर्थम्। उत्त० ५३२ पगति- प्रकृतिः-अंशः, भेदः। स्था० २२०। प्रकृतिः- पगार- प्रचारः-प्रवृत्तिः। ज्ञाता०४२। अविशेषितः। स्था० २२०।
पगासंति- प्रकाशयन्ति। सूर्य ६३। परपक्खे उब्भावेंति। पगतीउदीरणा- यन्मूलप्रकृतीनामत्तरप्रकृतीनां वा दलिकं | निशी. १६अ। वीर्यविशेषेणाकृष्योदये दीयते सा प्रकृत्युदीरणा। स्था० | पगास- प्रकाशः-प्रसिद्धिः। सूत्र० १४७। प्रकाशः-प्रतिमता। २२१॥
जीवा० २०५। प्रकाशः-प्रतिमता। जम्बू०४९। प्रकाशःपगप्प- प्रकल्पः-आचारः। आचा० २८१।
प्रतिभा। जीवा. १६४। प्रकाशः-प्रतिभा, आकारो वा। पगप्पएत्ता- प्रकल्पयित्वा-विकर्त्य वा। सूत्र० २९९।। जीवा. २६७। प्रकाशः-व्यक्तभावः। जम्बू०५२८१ पगब्भ- प्रगल्भ-अतीवपरिपुष्टम्। जम्बू. १०४। प्रगल्भः- प्रकाशः-प्रकटः। नेत्रवक्त्रादिविकाशः। अन्यो० १३९। संपूर्णः बृह. ११९ अ। प्रगल्भ-अतीव परिपुष्टम्। जीवा. प्रकाशो-अर्थः। बृह. ३३| प्रकाशः-प्रभा। ज्ञाता० २१। २६७। प्रगल्भं-समर्थम्। भग० ४७०
प्रकाशीभवतीति प्रकाशः-क्रोधः। सूत्र०६९। प्रकाशः। पगब्भइ- प्रगल्भते-धाष्ट्यमवलम्बते। उत्त० ४४। आव० ६२५। प्रकाशः-अर्थः। बृह. २०२ अ। प्रकापगब्भा- प्रगल्भा-पान्तेिवासिनी प्रवाजिका। आव. शोऽर्थस्य प्रकाशकः। व्यव० २१ आ। २०८1
पगासई-प्रभासते-दीप्तये। प्रकाशयति प्रभासते वा। आव. पगयं- प्राकृतं-भोजनम्। ओघ०७२। प्रकृतं-उपयोगः। ४९७
आव० २७७। प्रकरणम्। आव० ५६०। प्रकृतं-गौरवा- पगासण- प्रकाशनं-प्रदीपादिनोद्योतकरणम्। आचा. ५० हस्वजनभोजनादिकम्। पिण्ड० १०३। प्रकृतं-प्रस्तावः। प्रकाशनं-आलोचनम्। व्यव० १२३ अ। आचा०४०७। प्रकृतं-प्रकरणं-प्राघर्णभोजनादिकम्। पगासणया- प्रकाशना-विहारविकटना अपराधविकटना
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[158]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #159
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
४४१
चेत्यर्थः। व्यव० ९१ आ।
पचंकम्मणगं- प्रचङ्क्रमणं-भ्रमणम्। ज्ञाता०४११ पगासणा- प्रकाशना-प्रभासना, निर्मलीकरणम। उत्त० पच्चंग- प्रत्यङ्ग-कुचकक्षादि। उत्त० ४२८१ ૬રરા.
पच्चंगिर- परपोषस्यात्मनो लगनम्। बृह. २२३ अ। पगासभोई- प्रकाशभोजी-दिवसभोजी। आव०६४७ पच्चंगिरदोसो- अपरितोषः। निशी. १६८ अ। पगासमुह- प्रकाशमुखः-विपुलमुखः। ओघ० १८२। पच्चंगिरा- प्रत्यङ्गिरः-अपकारः। बृह. १६८ आ। पगासवादी- प्रकाशवादी-सर्वसमक्षं गुदोषभाषी। बृह. पच्चंत-प्रत्यन्तं-सीमग्रामः। उत्त. १७९। प्रत्यन्तं२१४ ।
प्रत्यर्थिन्। आव० ५०६। प्रत्यन्तः। उत्त० २२५, ३९५१ पगिज्झिय-प्रगृह्य। औप० ९९। प्रगृह्य-उत्क्षिप्य। आचा० प्रत्यन्तं-सीमा। आव०६७३। प्रत्यन्तः। आव०६९३| ૨૮રા.
प्रत्ययन्तकः-नीचकः। आव०५५७। प्रत्यन्तः। आव० पगिज्झियपगिज्झिय- प्रगृह्य प्रगृह्य- पौनःपुन्येन ८१५। प्रत्यन्तः-सीमासन्धिवर्ती। व्यव० १७० आ। प्रसार्य। आचा० ३४११
पच्चंतगाम- प्रत्यन्तग्रामः। आव० ३५१ पग्गह- प्रग्रहः-रश्मी। भग०४५९। पग्रहः-उपादेयवाक्यः। पच्चंतणगर- प्रत्यन्तनगरं, शिक्षायोगदृष्टान्ते उत्त०६१९। प्रग्रहः-प्रकर्षणगृह्यते वचो प्रग्रहः-ग्राह्य- जितशत्रुराज-धानी। आव०६७८। वाक्योनायकः। आचा०८९। प्रगृह्यते-उपादीयते आदेय- | पच्चंतणयर- प्रत्यन्तनगर-नीचनगरम्। आव०७१९। वचनत्वाद्यः स प्रग्रहः ग्राह्यवाक्यो-नायकः। स्था० ३। | पच्चंतराया- प्रत्यन्तराजः। आव० १७३। प्रकर्षण गुह्णाती प्रग्रहः। ओघ० २०७। प्रग्रहः। उपा० । पच्चंता- प्रत्यन्तः, म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः। बृह. २३१ अ।
प्रत्यन्ताः-सीमावर्तिनः। व्यव०। पग्गहठाण- प्रग्रहस्थानं-यद्यस्यायुधस्य ग्रहणस्थानम्। पच्चंति- प्रत्यन्तदेशः-म्लेच्छादयुपद्रवोपेतः। ओघ०६३। उत्त०४२२
पच्यन्ते । दशवै. ८७ निशी. ९ अ। पग्गहित- प्रगृहीतं आदरप्रतिपन्नत्वात्। स्था० २४७। पच्चंतिय- प्रत्यन्तः। आव० ३५८१ पग्गहिय- प्रगृहीतं-भोजनार्थमत्पाटितम्, प्रकर्षण पंच्चंतियविसए-देसविसेसो। निशी० २०८ आ। गृहीत्वादौ-धिकम्। औप० ३७। प्रगृहीतः
पच्चंतियसुणओ- प्रत्यन्तिकश्वा। आव० ७११। बहुमानप्रकर्षादाश्रितः। भग० १२५। प्रगृहीतः- पच्चइग- प्रत्ययितः। आव० ६९४। बहुमानप्रकर्षाद् गृहीतः। ज्ञाता० ७६|
पच्चइय- प्रत्ययः-कारणम्। आव० २७। प्रत्ययः-कारणं पग्गहियतर- प्रगृहीततरम्। आचा० ३७४।
शपथः ज्ञानं हेतुः विश्वासः निश्चयश्च। नन्दी० ७६। पग्गहियतरगं- प्रगृहीततरकं-प्रकर्षण गृहीततरं पच्चए- प्रत्ययः-प्रतीतिरविसंवादिवचनम्। ज्ञाता० २२॥ प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम्। आच० २९२। पच्चओ- प्रत्ययः-कारणम्। प्रज्ञा० ५३९। प्रत्ययः। उत्त. पग्गहिया- प्रगृहीता नाम भजनवेलायां दातुमभ्युद्यते १०३ करादिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं भोक्तं वा स्वहस्तादिना | पच्चक्खं- इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं तद् गृण्हतः। षष्ठी पिण्डैषणा। स्था० ३८७। जं
ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं असणादिगं भोत्तुकामेण कंसादिभायणे गहियं
यत्रात्मार्थग्रहणं प्रति साक्षाद् व्याप्रियते तदेव प्रत्यक्षम्। भंजामित्ति असंसट्ठिए चेव साधु आगतो तं चेव देति सूत्र. २२५। प्रत्यक्ष-साक्षात्। आचा० ३० अश्नातिएस पग्गहिया। निशी० १२अ। प्रगृहीता
अश्नते-व्याप्नोति अर्थानिति अक्षः-आत्मा तं प्रति प्रकर्षणाभ्युपगता। अनुत्त० ३॥
यद्वर्तते ज्ञानं तत् प्रत्यक्ष पग्गहीय- प्रगृहीतं-भोजनार्थम्त्पाटितमिति। स्था० ४६५। निश्चयतोऽवधिमनःपर्यायकेवलानि, अक्षाणि पघंसणं-पुणो पुणो पघंसणं। निशी० ११९अ।
वेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्षव्यवहारतः चक्षुरादिप्रपककाण्ड- रत्नप्रभायां दवितीयकाण्डम्। सम०८८1 भवम्। स्था० २६३। श्नुते-ज्ञानात्मना अर्थान्-व्याप्नो
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[159]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #160
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२१०
तीति अक्षो-जीवाः, 'अशु भोजने' इत्यस्य वा अनाति- | पच्चक्खाणा- प्रत्याख्याना-मूलगुणोत्तरगुणविषयम्, भुइते पालयति वा सर्वार्थानित्यक्षो-जीव एव प्रतिगतं- योग-संग्रहे त्रयोविंशतितमचतुर्विंशतितमौ योगौ। आव० आश्रितमक्षं प्रत्यक्षम्। अनुयो० २११। अक्ष-जीवं अक्षाणि ६६४ वेन्द्रियाणि अतिगतं प्रत्यक्षम्। भग० २२श तं
पच्चक्खाणावरण- प्रत्याख्यानं-आ मर्यादया प्रत्यव्यव-धानेन यदवर्तते ज्ञानं तत्भवति प्रत्यक्षम्। सर्वविरतिरूप-मेवेत्यर्थो वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः। बृह. ८ अ। प्रत्यक्षः-अवधिमनःपर्यायकेवलाख्यः, स्वयं स्था० १९४। चतुर्षु कषायेषु तृतीयः। सम० ३१। दर्शनलक्षणः। स्था० १५१। प्रत्यक्ष
प्रत्याख्यानं-सर्व विरतिरूप-मातीयते यैस्ते अव्यवहितत्वेनार्थसाक्षात्करणादक्ष-मिति। स्था०५० प्रत्याख्यानावरणः। प्रज्ञा०४६८1 प्रत्यक्ष-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः
पच्चक्खाणी- याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी। साक्षात्प्रवृत्तिमदवध्यादिकम्। नन्दी०७१।
प्रज्ञा० २५९। प्रत्याख्यानो-असत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. पच्चक्खाओ- प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता-गुरुविनेयः। आव०८०३
पच्चक्खातं- प्रत्याख्यानं-परिहारः। आव० ८५६। पच्चक्खाण- प्रत्याख्यानं नमस्कारसहितादि। स्था० पच्चक्खामि- प्रतीपभिमुख ख्यापनं सावदययोगस्य १२६। प्रत्याख्यान-निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणम्। करोमि प्रत्याख्यमि। आव०४५५ प्रतिशब्दः प्रतिषेधे स्था० १५६। प्रत्याख्यानं-निवृत्तिः। स्था० ४९८१
आङाभि-मुख्ये ख्या-प्रकथने, पतीपमभिमुखं ख्यापनं प्रत्याख्यानं-निरोध-प्रतिज्ञानम्।
प्रत्याख्याति। दशवै०१४४। प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा जिनकल्पादिप्रतिपत्त्या परिहारः। भग० ७२७।
सांप्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोति। प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यान-कथनं प्रत्याख्यानं- दशवै०१४४१ नमस्कारसहितादि। स्था० २३६। सम० १२०| प्रत्या- पच्चक्खायं- प्रत्याख्यात-सर्वविरतिप्रतिपत्तितः ख्यानः-निरोधलक्षणः। उत्त० ५८९। प्रत्याख्यानं नवमं प्रतिषेधि-तम्। औप० ८५ प्रत्याख्यातंपूर्वम्। स्था० १९९। प्रत्याख्यानं-पौरुष्यादिनियमः। भूयोऽकरणतयानिषिद्धम्। प्रज्ञा० २६८। प्रत्याख्यातंभग. १००। प्रत्याख्यानं-पौरुष्यादिविषयम्। भग. ३२३। अतीतं निन्दया एष्यमकरण-तयेति। आव० ७६२१ नवमं पूर्वम्। सम० २६। प्रत्याख्यानं-नमस्कारसहिता। प्रत्याख्यातं-वर्जितमनागतकाल-विषयम्। भग० ३६| ज्ञाता० १३४। प्रत्याख्यानं-निवृत्तिः। भग० २९६|
प्रत्याख्याता-अनशनस्थः। आव०१३२ प्रत्याख्या-नम्। उत्त० १७६। प्रत्याख्यानं
हेत्वभावतःप्रत्याख्यातम्। दशवै० १५१ सूत्रकृताङ्गस्य विंशति-तममध्ययनम्। उत्त०६१६ | पच्चक्खावितओ- प्रत्याख्यापयन्तीति प्रत्याख्यापयिताप्रत्याख्यानं निषेधलक्षणम्। आव०४७८। प्रत्याख्यानं- शिष्यः। आव० ८६० अनागतस्य स्थूलप्राणातिपाता-देरेव। प्रज्ञा० ३९९| पच्चगिरा-अविश्वस्तः। निशी. १६अ। प्रत्याख्यानं-पौरुष्यादिः। भग० १३६।
पच्चगिरादोस- प्रत्यगिरादोषः-परकीयोऽप्यात्मनि पच्क्खाणकिरिया- प्रत्याख्यानक्रिया, सूत्रकृताङ्गे चतुर्थ- लगती-त्यर्थः। बृह० ३०८ अ। मध्ययनम्। आव०६५८१
पच्चडं- पुघडं-पूर्णम्। नन्दी। पच्चक्खाणप्पवाय- प्रत्याख्यानप्रवाद-प्रत्याख्यानं पच्चड्डिया- प्रत्यड्डिका-द्वात्रिंशत् सप्रभेदं यदति तत् प्रत्याख्यानप्रवादं नवमं पूर्वतम्। लौकिकमबद्धकरणम्। आव० ४६५। नन्दी . २४११
पच्चणीग-मोक्षप्रत्यनीकत्वात् प्रत्यनीकः, पच्चक्खाणफल-विनिवृत्तिफलम्। भग० १४१।
सेज्जायरधूअप-च्चणीगोवलक्खणाओ वा पच्चणीगो पच्चक्खाणस्स अट्ठ-प्रत्याख्यानार्थः-आश्रवदवारनिरोधः। | लोभो भण्णति। निशी० ७७ आ। भग.१००
पच्चणीय- प्रत्यनीकः-छीद्रान्वेषी। जीवा० २८०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[160]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #161
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रत्यनीकं-दुरभव्यता, अभव्यता। सूर्य. २९६।
सकलावरणक्षयाय उत्पत्तिरेव वा। जम्बू०४१। पच्चणुब्भवमाण- प्रत्येकमनुभवन्। जीवा० २०११ पच्चला- प्रत्यलौ। उत्त० १०५ पच्चणुब्भवमाणा- प्रत्येकमनुभवनम्। जम्बू०४७। पच्चलिया- प्रत्यादिता-जागरिता। आव०६९० पच्चणुब्भवमाणी- प्रत्यनुभवन्ती-वेदयन्ती। ज्ञाता० पच्चवत्थाणं- प्रत्यवस्थानं-शब्दार्थन्यायतः २०४।
परोपन्यस्तदोष-परिहाररूपम्। उत्त. २० पच्चति-पच्यते। आव. २०६।
पच्चवयार- प्रत्यवतारः-अवतरणं, आविर्भाव इति। जम्बू० पच्चतिते- प्रत्ययात्
१८1 इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणान्निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः पच्चवाय- प्रत्यपायः। आव०६३२। प्रत्यपायं-व्याघ्रादिप्रआप्तवचनप्रभवः। स्था०१५१|
त्यपायम्। आव० ३८४। प्रत्यपायः- दोषः। ओघ० १९। पच्चत्थिग- प्रत्यर्थिवः-प्रत्यनीकः। पिण्ड० १३१
एकस्मिन् पथि गच्छतां दिवा प्रत्यपायः। ओघ०६६। पडिणीओ। निशी० ९३ अ।
प्रत्यपायः-उपघातहेतुरध्यवसान्निमित्तादिः। उत्त. पच्चत्थिम-पश्चिमदिक। स्था०६८
३३५। ऐहलौकिकः अपायः। बृहः । पच्चत्थिया- प्रत्यनीका। निशी. ९८ आ।
पच्चाउट्टणा-आवर्तनं प्रति ये गता पञ्चत्थी- प्रत्यर्थी-परस्माद मयेदं लभ्यमिति याचते। अर्थविशेषेषत्तरोत्तरेषु-विवक्षिता व्य व० ४ ।
अपायप्रत्यासन्नतरता बोधविशेषास्ते प्रत्यावर्तना। पच्चत्थुय- प्रत्यवस्तृतं-आच्छादितम्। जीवा. २१० नन्दी . १७६। प्रत्यवस्तृतः-पुनः पुनराच्छादितः। ज्ञाता० १२५ पच्चाणि-सन्मुखम्। व्यव० १८३। प्रत्यवस्तृतः-आच्छादितम्। जम्बू० ५५
पच्चापिच्चियए- बल्वजः-तृणविशेषः तस्य पिच्चियंति पच्चप्पिणमाणे- प्रत्यर्पयितुम्। स्था० ३१२।
कुट्टितत्वक् तन्मयम्। स्था० ३३८ पच्चप्पिणह- प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत। ज्ञाता० पच्चामित्त- प्रत्यमित्रः-प्रातिवेश्मिकः। ज्ञाता०५६। प्रत्य२१। प्रत्यर्पयत-निवेदयत। भग० ३१७
मित्रः- वस्तु २ प्रति अमित्रः। ज्ञाता० ८७। प्रत्ययमित्रंपच्चप्पिणेयव्वो- प्रत्यर्पणीयः। आव०४१६)
अकारणवत्सलः। राज०१० पच्चभिजाणेज्जा- प्रत्यभिजानीयात्-अनुमिनुयात्। पच्चामित्तता- अमित्रसहायता। भग० ५८१| अनयो० २१३। प्रत्यभिजानीयात्। आव० ८२३।
पच्चायाइ- प्रत्यायातिः-प्रत्यागमनं, प्रत्याजातिः पच्चमित्त- प्रत्यमित्रः-प्रातिवेश्मिकनपः। औप. १२ प्रतिजन्म। स्था० २०२। प्रत्याजायते उत्पदयते। भग. प्रत्यमित्रः-यः पूर्वमित्रं भूत्वापश्चादमित्रोजातः। जीवा. ११११ प्रत्या-याति-प्रख्यातिं याति। सूत्र० ३१० ૨૮૦૧
प्रत्यायाति-आग-च्छति। जीवा. २६२ पच्चय-प्रत्ययः-अवबोधः। स्था० १३। प्रत्ययः-सर्वाति- पच्चायति- प्रत्याजायते-उत्पदयते। उपा०२८। शयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभचारि। सम० १२५ पच्चायाता- प्रत्याजातं-जन्म। जम्बू. १६९। प्रत्ययं-बन्धनकारणम्। आचा० ९१।
पच्चायाती- प्रत्यायाति-जन्म। स्था० ३५५ पच्चयकरणं- प्रत्ययकरणं-दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादनम्। पच्चायाय- प्रत्याजातं-जन्म। भग० ३०८। ज्ञाता० १९१|
पच्चायहिइ- प्रत्याजनिष्यते। स्था० ४६१। पच्चयकसाए- प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययः-यानि पच्चालीढं- आलीढविवरीयं। निशी. ९० अ। प्रत्यालीढंबन्धकरणानि ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः। आचा. आलीढविपरीतं, लोकप्रवाहे द्वितीयं स्थानम्। आव० ९१। प्रत्ययकषायः-खल्वान्तरकरणविशेषः। तत्पदग- ४६५ ललक्षणः। आव० ३९०
पच्चावड- प्रत्यावर्तः-आवर्तस्य प्रत्यभिमुख आवतः। पच्चयय- प्रत्ययः-ज्ञानकरणं, प्रतीयतेऽनेनार्थ इति। | जीवा० १८९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[161]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #162
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[Type text]
पच्चावत्त- एकस्यावर्तस्य-प्रत्यभिमुखः आवर्तः
प्रत्यावर्त्तीः जम्बू. ३१
पच्चासूरण- प्रत्यासूरणं संमुखीभूय युद्धकरणम्। व्यव०
१४२ आ
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पच्चाहरय-प्रत्याहरतः व्याकुर्वतः समः ६२॥ पच्चूढयतो परिवृढं निशी० १६८ आ पच्युण्ण प्रत्युतम् । दशचै० ४४१ पच्युत्थप- प्रत्यवस्तृतं. आच्छादितम्। ज्ञाता० १५ पच्चुपन्नविणासि - प्रत्युत्पन्नविनाशि-प्रत्युत्पन्नवर्तमानलब्धं बस्तित्वत्यर्थो विनाशितं उपहतं येन तत्तथा प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्वं शीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि वा स्था० ९८८ पच्चुप्पण- प्रत्युत्पन्नः- गुणितः । प्रज्ञा० २८० पपुप्पण्ण- प्रत्युत्पन्नं साम्प्रतमुत्पन्नंवर्तमानमित्यर्थः-प्रति प्रतिवोत्पन्नंभिन्नव्यक्तिस्वामिकं वा आव० २८४ पच्चुप्पण्णपरायण- प्रत्युत्पन्नपरायणः प्रत्युत्पन्नंवर्तमानं तस्मिन्परायणः तन्निष्ठः । उत्त राज्या पच्चुप्पण्णा सहजायगादि मित्ता निशी० २९ अ पच्चुप्पन्न साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नं
वर्त्तमानकालभावि। अनुयो० २६५| प्रत्युत्पन्नःअप्राप्तपूर्वो वर्त्तमान इत्यर्थः । भग० ३९९ । पच्चुरस - प्रत्युरसं सम्मुखम्। पिण्ड ७६। प्रत्युरसं गुरोरभिमुखम् । ओघ० १८२
पच्चुवगार प्रत्युपकारः। उत्त० २२० पच्चुवसमति प्रत्युपशमयति । आव. १२२१ पच्चुवेक्ख प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य सूत्र० ४२६| पच्चुवेक्खड़ प्रत्युपेक्षते-निरीक्षते औप- ६४१ पच्चुवेक्खमाणे- समुत्पेक्षमाणो व्यापारयन्। राज० ११५ | पच्चूस- प्रत्यूषः कालविशेषः ओघ २१ प्रत्यूषः । आव ० ३७०, ५७७। रात्रेः चरमप्रहरः । स्था० २१४ |
प्रत्यूषकाललक्षणः ज्ञाता० २१॥
पच्चोअड- प्रत्यवतट-आच्छादनः । जम्बू ० ५८। प्रत्यवतटानि तटसमीपवर्त्यभ्युन्नतप्रदेशाः । जम्बू• २९१ पच्चोगलिय- प्रत्यवगलितः आव० ५पत
पच्चोणियत्तं प्रत्यवनिवृत्तं अधः पतितम्। प्रश्नः ५०१ पच्चोणी- सन्मुखागमनम्। पिण्ड० १२८०
-
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पच्चोणीए - संमुखं । निशी० ९७अ ।
पच्चोयड- प्रत्यवतटं-तटसमीपवर्ती अत्युन्नतप्रदेशः । जीवा० १९७। अवच्छादितः । राज० ७१ । प्रत्यवतटःआच्छादनः । जीवा० २१४ |
पच्चोयडाओ- प्रत्यवतटानि
तटसमीपवर्त्यभ्युन्नतप्रदेशा यासां ताः । जम्बु० ४९% पच्चोरुहइ- प्रत्यवरोहति । ज्ञाता० १६ । प्रत्यवरोहति मध्ये प्रविशति । जीवा० २५४ |
पच्चोवयमाण- प्रत्यवपतत्। भग० ७२१ |
पच्चोवयंत- प्रत्यवपतन्- प्रतिनिवर्त्तमानः । प्रश्न. ७६ । पच्चीसक्कड़ प्रत्यवसर्पति व्यावर्त्तते । भगः ५७६। पच्चोसक्कति- प्रत्यवष्वष्कते पश्चादवसर्पति। सूर्य
२८९ |
पच्छंत पुरोहडं वा वच्चं । निशी. १९३ अ पच्छंभाग- पश्चाद्भागः । स्था० ४६९ । पश्चाद्भागः । सूर्य०
१०४ |
पच्छ- प्रच्छनकम्। विपा० ७१ । पच्छकम्म- पश्र्चात्कर्म
यत्पुनर्भक्तादेदानात्पश्चात्क्रियते तत् पश्चात्कर्मः । पिण्ड. १४९|
पच्छणं हस्वैः क्षुरादिभिस्त्वचो विदारणम्। विपा० ४१। पच्छणणं- प्रक्षणनं जीरणम् । प्रश्न० १६४| पच्छणा- प्रक्षणाति-हस्वानि त्वचो विदारणानि । ज्ञाता
१८१|
पच्छदं प्रच्छदो वस्त्रविशेषः । ज्ञाता० २२१ | पच्छन्न- प्रच्छन्नं-अगीतार्थासमक्षम् । स्था० २०३ | पच्छन्नपाव- प्रच्छन्नपापः कूटप्रयोगकारी आव० ५८१ पच्छन्नभासी प्रच्छन्नभाषी
सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातंसार्वजनीनं तत्
प्रच्छन्नभाषणेन गोपकः, प्रच्छन्न वाऽर्थमपरिण-ताय
भाषकः । सूत्र० २५१, १८
पच्छय- प्रच्छदः वस्त्रविशेषः । भग० ३१८ | पच्छ्वत्थुग- पश्चाद्वास्तुकं पश्चाद्गृहकम्। प्रश्न.
१३८ \
पच्छा- पश्चाच्छदः-पश्चादनुपूर्व्यभिधायी व्यव० ११९
अ।
पच्छाईताण पश्चादतियतामागच्छताम् । व्यव० ३६६
[162]
"आगम- सागर- कोषः " [3]
Page #163
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________________
[Type text]
आ ।
पच्छाकड- जेण चारित्तं पच्छाकडं उन्निक्खतो भिक्खं हिंडइ वा न वा । निशी० ८४ आ । निशी० १२० अ । पश्र्चात्कृतकः । आव० १९१। व्यव० २७५ आ । पश्चात्कृतं पराजितः । बृह० १५१आ। पच्छाकम्म पश्चात् दानानन्तरं कर्म-भाजनधावनादि यत्रा शनादौ तत् पश्चात्कर्म प्रश्न. १५४१ पश्चाद्भोक्ष्याम इति पश्चात्कर्म । दशवै० २०३ | पच्छाकायिय- पश्र्चात्कायिकम् । आव० २१७ | पच्छाग- प्रच्छादकः कल्पः । ओघ० २०८ पच्छाणुतावय- पश्चादनुतापकः पश्चात्तापकृत् । उत्त ३४०|
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पच्छाणुपुथ्वी पाश्चात्यः चरमसीमादारभ्य व्यत्ययेन वानु- पूर्वी-परिपाटि विरच्यते यस्यां सा निरुक्तविधिना पश्चानु-पूर्वी अनुयो० ७३।
पच्छाणुसए पश्चादनुशयः पश्चात्तापः प्रश्न. १८० पच्छातुरस्स- पश्चाद् अस्मिन् राजादौ प्रव्रजिते सति आतुरस्य । ज्ञाता० १०२ |
पच्छापुरा- विवक्षितकालस्य पश्र्चात् पूर्वं च
सर्वदैवेत्यर्थः । भग० १२२ ॥
पच्छावाया पथ्या वाता वनस्पतीनां सामान्येन हिता
वायवः पचाद्वाताः । ज्ञाता० १७१ ।
पच्छासंखडि पश्चात्सइखडिः मृतकसङ्खडि । आचा०
३३०|
पच्छासंखडी- अपरसूर्ये-पच्छासंखडी, अपरस्यां दिशि पच्छासंखडी बृह. १३५ अ मज्झण्ह पच्छतो पच्छासंखडी | निशी० प्र ३१० अ अपराण्हे त क्रियमाणा पश्र्चात्सङ्खडी। बृह॰ १७९ आ । पच्छासंथुय- पश्चात्संस्तुतः श्वसुरकुलसंबद्धः । आचा॰ ३३६ पश्चात्संस्तुतः यदन्तिकेऽधीतं श्रुतं वा तत्संबंधिनो वाऽन्यत्रावासितः आचा० ३५३|
पश्र्वात्संस्तुतः श्र्वसु-रादिः आचा० ३५१| पच्छासंथव- पश्चात्संस्तवः श्वश्रवादिकल्पनया
परिचयक- रणम् । पिण्ड० १२१ |
पच्छित्तं प्रायसो वा चितं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन प्रायो वा बाहुल्येन चित्तं स्वेन स्वरूपे अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तम् आव० ७८
-
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पच्छित्तवातो जहा सव्वे मासगुरुसत्ता पढमुद्देसे अणुव-त्तिया, बितियादिसु मासलहु, छट्टादिसु चउगुरु, बारस-मादिंसु चउलहु। अहवा पच्छित्तणुवातो पणगादिजोगो जाव चरिमं निशी १४८ आ पच्छिपिंडय पच्छिकापटिकम् राज० १४१ पच्छिपिए-पच्छिकालक्षणपिटकः। भग- २१३२ पच्छिमकाल- पश्चिमः कालः पाश्चात्यवयः । पिण्ड० १७७] पश्चिमकाल: संलेखनाकालः | ओघ० १८९१ पच्छिमग पश्चिमकः चरमः । स्था० २२६| पच्छिमवय पश्चिमवयः आव० १३७ पच्छियपिडगं । अन्तः १९ ।
पद्दि- पडिच्छ्गायरिएण उदिद्वं तं पच्छुद्दिनं । निशी. २९ अ
पच्छोलंति पृष्ठतो मुखां चपेटां ददाति । जम्बू. ४१९ । पच्छोलेइ- पृष्टतो मुखां चपेटां ददाति। भग० १७५। पछिमसंजमो- अहक्खायचारित्तं । निशी० ७ अ । पछिमा तवा- सुहुमकिरियानियट्टी
वोछिन्नकिरियमप्पडिवाहूं च एते पच्छिमा तवा । निशी० ७ अ
पजगो काइकुरोऽनङ्कुरो वाऽनन्तवनस्पतिः । पञ्चवर्णः । बृह० PEE|
पजणणं- प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत् प्रजननं शिश्नंलिङ्गम्। सूत्र० १०३| प्रजननः - मेहनः । स्था० १३८ | पजीवण- प्रजीवनकं - जीवनहेतुकं द्रव्यम् । पिण्ड० १३८ | पज्जेत - पर्यन्तः विभागः प्रश्नः ९८१ पर्याप्तः शक्तः ।
भग० ६८४|
पपादहितं पादयं पादप्रक्षालनस्नेहनोद्वर्त्तनादि । ज्ञाता० २०९। पद्यं छन्दोनिबद्धम् । स्था० २८८८ वृत्तादि यत् गीयते तत् पद्यम्। जम्बू० ३९| पाद्यम्। आव० ३००। पद्यं-“पज्जं तु होइ तिविहं सममद्धसमं च ना विसमं च। पाएहिंअक्खरेहिं य एव विहिण्णू कई बेंति दशवे- ८७
पज्जणं- सज्जणं कलमोदणं उप्फोसणं धावनादिकिरियाओं य निशी. १६६ अ पायनम् ।
आव० ५१५|
पज्जणघडिया पायनघटिका आव• ५९४५ पज्जणया- पायनताः । बृह० १०१ अ ।
[163]
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
पज्जत्त- पादकप्पितो निशी० ११६ आ । पन्नत्तिं । बृह०
३० अ
पज्जत्ता- पर्याप्ता या एकपक्षे निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी सा पर्याप्ता, प्रथमे वे भाषे सत्यामृषे पर्याप्ते तथास्वविषयव्यवहारसाधनात् भाषाभेदः । दशवै० २१० |
पज्जत्तापज्जत्तिय- पर्याप्तापर्याप्तिका
आगम - सागर-कोषः (भाग:- ३)
शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिर्वर्त्तनोच्छ्वासपर्याप्त्यनिर्वर्त्तनसमर्था । प्रज्ञा० ४९० । पज्जत्ति पर्याप्तिनाम
आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरा
त्मनः शक्तिविशेषः । प्रज्ञा- ४७४१ पर्याप्तिः शक्तिः । बृह० १८४ आ । पर्याप्तिः
स्वविषयग्रहणसामर्थ्यलक्षणा। आव० ३४१।
पज्जत्तियं- पर्याप्तम् । उत्त० १९३ । पज्जत्तिया- या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते सा पर्याप्ता, भाषायाः प्रथमो भेदः प्रज्ञा० २५५ | पज्जती- पर्याप्तिः
आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः । जीवा. १०) पर्याप्तिः नामशक्तिःसामर्थ्य-विशेषः । स्था० ५४१ पर्याप्तिः- आत्मशक्तिः । नन्दी० १०४१ पर्याप्तिः आहारादिपुद्गलयपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः । नन्दी० १०४| पर्याप्ति समस्त पर्याप्तिता। उत्त॰ १४५| पज्जपावणं- प्रजल्पकारणम् । भग० ५४४ | पज्जय- पर्यायः-परिपाटी प्रस्तावः उत्त० ६६८। प्रार्यकःपितामहः । उत्तः ९८१ पितामहः । आव० ३०५1 प्रार्थकःपितामहः । आव० ३५७। पर्ययः पर्यायः परिपाटिः भग ४७० प्रार्थकः पितुः पितामहः। जाता० ४९ प्रार्थक पितु पितामहः । पर्ययः पर्यायः । भग० ४७० । पज्जरत- रत्नप्रभायां महानरके षष्ठः । स्था० ३६५| पज्जलण- प्रज्वलयति-दीपयति वर्णवादकरणेन
मागधवदिति प्रज्वलन इति । स्था० १९३ | पज्जलियरोस प्रज्वलितरोषः आव० ५६६।
पज्जव पर्यवः शब्दपर्यवार्थः पर्यवरूपः । उत्त० ७१३॥ पर्यायः - नवपुराणादिः क्रमवर्तिधर्मः । प्रश्न. ११७। पर्यायः - भङ्गकादिप्रकारः । ब्रह० १९७अ पर्यायः - गुणो
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
विशेषो धर्मश्च । प्रज्ञा० १७९ | पर्यवः । भग० ८८९ | पर्यवम् उत्त० ६०६। पर्याय अगुरुलध्वादि आचा० ७ पर्यवः विशेषः । आचा० १५६ पर्यवाः कालकृता अवस्था, यथा नारकत्वादयो बालत्वादयो वा सम० ११२ पर्यवःपरिरक्षा-परिज्ञानम। स्था० २२ पर्यवः परिच्छेदः विशेषः, अवस्था स्था• ४७ परि सर्वतो भावे अवनं अवः पर्यवः । स्था० ३४८ परि सर्वतो भावे अवनं अवः, अवनं गमनं, पर्यवः पर्यवनं वा पर्यव इति । आव०८। परिः समन्तादपगच्छति न पुनर्द्रव्यवत्। सर्वदैव तिष्ठतीति पर्यायः । परिः सामस्त्येन एति-अभिगच्छति व्याप्नोति वस्तुतामिति वा पर्यायः- एकगुणकालत्वादिरेव । अनुयो० १११। पर्यवः परिः समन्तादवति अपगच्छति न तु द्रव्यवत्सर्वदैवावतिष्ठत इति पर्यवाः । अथवा परिः समन्ताद् अवनाति गमनानि द्रव्यस्यावस्थान्तरप्राप्तिरूपाणीति पर्यवा:एकगुणकालत्वादिः । अनुयो० १११ पर्यायः -भेदः । दश० २६०] पर्यवः अपगमः। दशकै० २७७ पर्यायः - नार कत्वादिरेककृष्णत्वादिश्च अनुयो० १०५॥ पज्जवकाय पर्यायान्-वस्तुधर्मान् आश्रीत्य कायः पर्याय
-
कायः । आव० ७६७ ।
पज्जवजाए- पर्यवजातं तैरेव वञ्निस्पृष्ट भाषाद्रव्यैर्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघातेन भाषापर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते तानि द्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यन्ते। आचा॰ ३८५| पर्यवःज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातः । स्था० १९ | पज्जवजात पर्यवजातं सूत्रार्थप्रकारम् । स्था० ३०१। पर्यवयातः- पर्यवान् पर्यवेषु यातः प्राप्तः पर्यवयातः स्थान २] पर्यवः अवस्थान्तरं जातो यत्र तत् पर्यवजातम्। प्रश्न० १५४॥
पज्जवजाय- पर्यवाः- ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातः, विशुध्यति स्था० २१|
पज्जवज्जायसत्थ- पर्यवजातशस्त्रं शब्दादीनां विषयाणां पर्यवः-विशेषास्तेषु तन्निमित्तं जातं पर्यवजातशस्त्रं शब्दादिविशेषोपादानाय
यत्प्राण्युपघातकार्यनुष्ठानं तत् । आचा० १५६ ।
पज्जवडिय पर्यवस्थितः। प्रज्ञा० ३२७
पज्जवनाम- पर्यायनाम-तत्तद्धर्माश्रिताभिधानम्। प्रश्न०
[164]
"आगम- सागर- कोषः " [3]
Page #165
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[Type text]
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
१०४ |
पज्जवपेयालणा पर्यवपेयालना पर्यायप्रमाणकरणंपर्याय-संहति विवक्षा वा पिण्ड २६ पज्जवभंगसुहुमता परमाण्वादीसु वण्णगंधरसफासेसु एग गुणकालगादि पज्जवभंगसुहूमता निशी० ६७ आ । पज्जवयात पर्यवजातं जातविशेषं स्फुटतया
भविष्यतीति। स्था० ३५०%
पज्जवलाभ- पर्यवलाभः पर्यवप्राप्तिः । आव० ४२ पज्जवलीढ- अतिजीर्णतया कुत्सिते वर्णान्तरयुक्ते
स्फुटिते वा बृह० ९२ अ
पज्जवसंखा- पर्यवसङ्ख्या अनुयो० १३३॥ पज्जवसाण पर्यवसानं संसरणपर्यन्तः स्था० ३४६ | पर्यवसानं निष्ठाफलम्। प्रश्नः १३६ पर्यवसानम् । सूर्य. १२१
पज्जवसिया पर्यवसिता निष्ठां गता । प्रजा० २५६। पज्जवा- पर्यवः-बुद्धिकृता निर्विभागा भागाः, एकगुणश्र्वेत-त्वादयः। जम्बू० १२८| पर्यवाःद्रव्यगुणाश्रिताः। उत्त• ५५७ पर्यवाःपञ्चधनुः शतसप्तहस्तमानादिका विशेषाः । जम्बू० ७01 पर्यवा: प्रज्ञाकृताः अविभागाः पलिच्छेदाः । भग. १४९| पर्यायाः स्वपरभेदभिन्ना अक्षरार्थ पर्यायाः । सम० १०९ | पर्यवा: शब्दपर्यवार्थपर्यवरूपाः । उत्त० ७१३ पज्जवाग्गं- पर्यायाग्रं सर्वाग्रम्। आचा० ३१९ | पज्जाअ- पर्यायः-अभिप्रायः । सूत्र० २५३ | पर्यायः-निरूक्तं तात्पर्यार्थः । सूत्र० २६२ पर्याय अवस्थाविशेषः सूत्र २७८। पर्यायः-परिपाटी । सूत्र० ४१३ । पज्जाण पायनं-लोहकारेणातापितम् । ज्ञाता० ११६ | पज्जाय पव्वज्जा । निशी० १८३ अ पज्जाया- उदबद्धिया दव्वखेत्तकालभाव, एत्थ परिसमंता आसविज्जति परित्यजन्तीत्यर्थः निशी ३३६ आ
पज्जिए- प्रार्जिका । दशवै० २१६ ।
पज्जित - पायितः । उत्त० ४६१।
पज्जित्ता- अज्जियाए माया । दशवै० १०९ |
पज्जिया पायिता । आव. ४०२१
पज्जुण्ण- द्वारावत्त्यां कुमारः । ज्ञाता० २०७ | प्रद्युम्नः ।
आव० ९४ |
पज्जुत्तं- पौद्गलिकं भोजनम्। बृह० ५८ अ ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पज्जुन्न- प्रद्युम्नः- अध्यष्ठकुमारमुख्यः । अन्तः श चतुर्विधमेघेसु द्वितीयः स्था० २७०| प्रद्युम्नःअन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य षष्ठममध्ययनम् । अन्तः १४| प्रद्युम्नः यदोर-पत्यः । प्रश्र्न० ७३ | ज्ञाता० २१३ | द्वारामत्यां कुमारविशेषः । ज्ञाता० १०० पज्जुन्नसेण- प्रद्युम्नसेनः । उत्त० ३७९॥ पज्जुवासण- पर्युपासनं सेवा । अग० ११५| पज्जुवासणया पर्युपासनं सेवा एतद्भावस्तत्ता तया । ज्ञाता० ४४, ४५|
पज्जुवासणा- पर्युपासना-सेवा । स्था० १५६ । पज्जुवासमाण- पर्युपासीनः सेवमानः । भग० १४ पज्जुवासेमाण- पर्युपासीनः सेवनामः सूर्य० ६ पज्जुसणा- उदुबद्धिया वाससमीवातो जम्हा पगरिसेण ओसंति सव्वदिसासु परिमाणपरिच्छिन्नं तम्हा पज्जुस्सणा निशी ३३६ आ वासावासो । । पदमसमोसरणं । निशी ३३६ आ
पज्जुसियं- परियासिय णाम रातो पज्जुसियं । निशी० ५०
आ।
पज्जेति पाययति । विपा० ७२१
पज्जोय प्रद्योतः संवेगोदाहरणे उज्जयिनीनरेशः । आव ०७०९ | प्रद्योतः । आव० ६४१ पारिणामिकी बुद्धौ प्रद्योतः । आव० ४२८ उज्जेणीए राया । निशी० ३४८ आ । प्रद्योतः क्षूरावमानी (शूर इव) । सूत्र० १०३ | प्रद्योतः अभयकुमाराहतो राजा दश० ५३ प्रद्योतः
उत्त० ९६ ।
पज्जोयगत प्रयोतनं प्रयोतः प्रद्योतकत्वं
विशिष्टज्ञान शक्तिस्तत्करणशीला जीवा० २५५१ पज्जोसवणा- परियागववत्थणा निशी. ३३६ आ
[165]
अण्णेय दव्वादिया वरिसकालपायोग्गा घेत्तुं आयरिज्जति तम्हा पज्जोसवणा । पागयत्ति सव्वलोगपसिद्धेण पागत-भिधाणेण पज्जोसवणा । निशी ३३६ आ पर्याया ऋतुबद्धिकाःद्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिन उत्सृज्यन्ते - उज्झयन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्यासवना, अथवा परीति सर्वतः। क्रोधादिभावेभ्यः उपशाम्यते यस्यां सा पर्युपशमना। अवा परि-सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यः सप्ततिदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं निरुक्तदेव
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
पर्युषणा स्था० ५११
पज्जोसवियाण परीतिसामस्त्येनोषितानां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तुमारब्धानामित्यर्थः ।
स्था | ०३१०|
पज्झंझमाण शब्दायमानम् जीवा. १८१| जम्बू० २४१ पज्झ- पार्यः प्रतिपितामरः । व्यव० १७१ अ । पज्झाय- प्रध्यातं-प्रियजनविषयमतिचिन्तितम्। अनुयो०
१३९|
पज्झोय- प्रद्योतः-अवन्तीपतिः । व्यव० १४९ आ । पञ्चत्वं मरणम् । नन्दी. १५९1 पञ्चमुष्टिः पञ्चाष्टा उत्त० ४९२ | पञ्चाग्नितपः- कायकष्टतपः । आचा० १७७ | पञ्चाल - देशविशेषः । उत्त० ३७७ । पञ्जरभग्नः सुखमिह वसितुमिति स इत्यंभूतः पञ्जरभग्नः ज्ञातव्यो न प्रतीच्छनीयः । व्यव० ५४ अ । पञ्जरुम्मिलिया- पञ्जरोन्मीलिता-पञ्जरबहिष्कृता ।
सम० १३९ |
पञ्जिका- अर्थे प्रकारः । सम० १११ |
पटक- पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० |
पटल पात्रावरणम् ओघ० २१३ तक्रखरण्टिलचीवरादि। दशचै० ४०१
पटलकम् वस्त्रम्। उत्तः पात
पटलग- कच्चोलकः । निशी० ९१ अ ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पटुकार- प्रत्यवतारः । बृह० २६५ अ । पटोली- वल्लीविशेषः । आचा० ५७|
पट्ट- वस्त्रपट्टः । उत्त० ६०६ | पट्टसूत्रमयम् । प्रश्न० ७१ | ललाटाभरणम्। विपा० ७० | जीवा० ३६९ | पट्टः स्था० ३३८] शिलापट्टकादि। जीवा २७४ चोलपहं निशी. १९१ अ। पट्टः-एकः शाटकः । ज्ञाता० १५ पट्टकचोलपट्टकम् | ओघ १७५ वस्त्रम्। उत्त० ६०६ | योगप दृकः - चिलिमिली ओघ० २१८१ पट्ट-पट्टसूत्रनिष्पन्नम्। जम्बू• १०७ पट्टसूत्रजं, जांगमिकवस्त्रभेदः । बृह० २०१ अ। छुरिकापट्टिकावत् पट्टो । निशी० १७९ आ । चउरंगुलो सुवण्णमओ पट्टो निशी. २५४ आ गंधपट्टः । बृह• ६८ अ तिरीडरुक्खस्स तया निशी० १२६अ। वल्कलक्षणः । बृह० २०१ अ पट्टसूत्रनिष्पन्नम्। आचा०
३९४ |
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
पट्टइल्ला- श्रेणिविशेषः । जम्बू० १९३ । पट्टकार वस्त्रकारः । अनुयो० १४९१ पट्टजुयलं । आचा० ४२३ पट्टण पत्तनम्। सूत्र० ३०९ पत्तनं
[Type text )
जलपथयुक्तंस्थलपथ-युक्तं, रत्नभूमिर्वा प्रश्न. ५२ जलपथस्थलपथयोरेकतर युक्तम्। प्रश्न• ६९। जलस्थलपथयोरन्यतरयुक्तम प्रश्न. ९२ पत्तनम्। औप० ७४ ॥ पट्टनं - पत्तनं वा । जीवा० ४० पट्टनंयन्नौभिरेव गम्यम्। जीवा० २७९ । पत्तनं जलपथस्थलपथयोरेकतयुक्तम्। ज्ञाता० १४०| यच्छकटैघटकैर्नीभिश्चगम्यं पट्टनं यन्नाभिरेव गम्यं तत् पट्टनं पत्तनम्। प्रज्ञा० ४८ पतन्ति तस्मिन् समस्तदिग्भ्यो जना इति पत्तनम् । उत्त० ६०५ | पत्तनं-नानादेशागतपण्यस्थानम् । अनुयो० १४१ पट्टनंभरेव गम्यं पट्टनम् । जीवा० ४० | पत्तनंपर्याहारप्रवेशस्तत्पत्तनम्। स्था० २९४। पट्टनंजलस्थल- निर्गमप्रवेशः राज० १९४१ पत्तनंरत्नयोनिः जम्बू. २५०० स्था० ८६| यन्नौभिरेव गम्यम् । जीवा० ४०|
पट्टणमारी मारीविशेषः। भग- १९७
पट्टदुगं पट्टद्विकं-संस्तारकोत्तरपट्टरूपं पर्याप्तिका संनाहपट्ट रूपं वा बृह• २५३ आ० संथरोत्तरपट्टो य निशी १८९ अ
पट्टनं यन्नौभिरेव गम्यं तत्पट्टनम् । प्रज्ञा० ४८ | पट्टबद्धय- बद्धपट्टः । आव० ३०० | पट्टशालारूपो मण्डपविशेषः स्था- २३२ पट्टसाइय- वस्त्रं तस्य युगलरूपो यः पट्टशाङ्ककः । सूर्य० २९३॥ पट्टसाटिका। अनुयो० १७५१ पट्टसूत्र- पतङ्गकीटलालासमुत्पन्नम्। अनुयो० ३५॥ यत् हंसाद्यण्डकेभ्यो जायते तदण्डजं क्वचित् पट्टसूत्रम्। उत्त० ५७१ । कीटज-यत्तथाविधकीटेभ्यो लालात्मकं प्रभवति यथा पट्टसूत्रम् । उत्त० ५७१ । पट्टागा- पट्टकाराः पट्टकूलकुविन्दाः शीलगर्वभेदः प्रज्ञा०
५६।
पट्टिका | नन्दी० १८८
पट्टिया पट्टिका वंशानामुपरि कम्बास्थानीया जीवा. ८० पट्टिका वंशानामुपरि कम्बास्थानीया । जम्बू० २३|
[166]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पट्टिका। जीवा० २५९।
पड- पदः-स्थानः पक्षः। स्था० ३९। पटं-प्रतीतम्। अनुयो० पट्टिशः- प्रहरणविशेषः। उत्त०४६०
१५४१ पट्टशाटकः। प्रश्न०७१। पट्टः। जम्बू. १६१| पट्टिस- पट्टसः- प्रहरणविशेषः। प्रश्न. २११ पट्टिशः-अस्त्र- | पडकारक- पटकारकः-तन्तुवायः। प्रश्न ३०| विशेषः। ४८१
पडणं-पतनं-तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लुठनम्। प्रज्ञा० पहंती- प्रतिष्ठन्ती। आव० ८२२
२९। निपतितं हिंसाबुद्ध्या रिपुमोचनम्। जं० पह० पट्ठ-स्पृष्टं-विदारितम्। भग० १२० प्रष्ठः वागमी। जम्बू० १२५। पतनं-कालधर्मनयनम्। जम्बू० १२५। पतन-मरणं ३८८ स्पष्टं-व्यक्तम्। उपा० ३९| पृष्ठं पर्याणस्थानम्। राजामात्यसेनापतिग्रामभोगिकादीनाम्। स्था० ४७७। जम्बू. २३५ स्पष्टं-असंदिग्धम्। उत्त. २४१। स्पष्टम्। पतनम्। भग०४६९।। भग०६८४१
पडणी- प्रत्यनीका। गच्छा पद्ववए- प्रस्थापकः-विविधकार्येष प्रवर्तकः। ज्ञाता०६३। पडणीय- प्रत्यनीकः शासनादेः। ओघ. ९३। पट्ठवओ- प्रस्थापकः-अवधिज्ञानप्रारम्भकः। आव० ३३। पडमंडव- पटमण्डपः। आव० ४३४। पटमंडपं दिव्यपटकृपट्ठवणओ- प्रस्थापकः-प्रारम्भकः। आव० ८४२॥ तमण्डपं पटमण्डपलक्षितं प्रासादम्। निशी. २२३ अ। पट्ठवणा- दाणं। निशी०१२२ आ। प्रस्थापना कल्पना। पडलं- उदयविकारेण य दव्वचक्खिंदियस्संतरणं पडलं। जीवा. १९।
निशी. ३०२ आ। पटलः-समूहः। ज्ञाता० १७३। पटलंपट्टविति- प्रस्थापयाति-प्रतिलेखयति। आव०७५६। भिक्षावसरे पात्रप्रच्छादकं वस्त्रखण्डम्। प्रश्न. १५६। पट्टविओ- प्रस्थापितः। ओघ० १०६|
पटलं-वृन्दम्। आव०७८८1 पटलम्। आव०८३७) पट्टवितिका- जं वहति पच्छित्त सा पट्टवितिका। निशी० पडलाइं-पटलकानि भिक्षायां पात्रोपरिस्थाप्यानि। बह० १३९ आ।
२३७ । पट्टवितिया- आरोपितं प्रायश्चितं वहति सा
पडविज्जा- विज्जाविसेसो। निशी०१६अ। पटविदया। प्रस्थापितिका। व्यव० १२४ आ।
आव. २९५ पट्टवियं- प्रस्थापितं
पडसाडग- पटशाट्टकः-उत्तरीयं उपरिकायवस्त्रम्। प्रश्न मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्या
७१। पटशाट्टकं-उत्तरीयं परिधानम्। जम्बू० २४७ प्तसुभगादेययशःकीर्तिनामसहोदयत्वेन
पडसाडियं-पटशाट्टिका। अन्यो० १७५) व्यवस्थापितम्। प्रज्ञा०४०३। प्रस्थापितः-प्रवर्तितः। पडह- पटहः। जीवा० १०५, २४५, २६६। पटहः। जम्बू. निशी. १३९।
१०१। पटहः-पटहकः। प्रश्न० ४८ पटहः-आतोद्यः। पडवेज्जा- प्रस्थापयेत्-प्रवर्तयेत्। भग० ३८५
नन्दी०८८ पटहः। भग. २१७। पटहः-आतोदयविशेषः। पट्ठवेति- प्रस्थापयति-कर्तुं आरभत इति। स्था० ३००/ प्रज्ञा० ५४२ प्रस्थापयतिवोदमारभते। स्था० ३२५
पडहओ-पटहकः-| आव०४२० पट्ठसंठिआ- पृष्ठसंस्थिता-प्रधानसंस्थाना। जम्बू. ११४॥ | पडहग- पटहकः-विमध्यमावधिसंस्थानदृष्टान्तः। आव. पट्ठि- पृष्टिः । आव० १९२१ पृष्टम्। उत्त० ५३७)
४१ पहिअओ- प्रस्थितः-संप्रस्थितद्वितीयाः। आव० १०० पडहसंठिय- पटहसंस्थितः आवलिकाबाह्यस्य पहिआवाहो- पीठमर्दवाहकः। आव. २०४।
रत्नप्रभानरके संस्थानम्। जीवा० १०४। पहिओ- प्रस्थितः। दशवै. १११
पडागसंठिय- पताकासंस्थितः, अश्लेषानक्षत्रसस्थानम्। पहित- प्रस्थितः। प्रज्ञा० ३२७।
सूर्य. १३० पट्ठिमंसं-पृष्ठिमांसं-परोक्षस्य दूषणाविष्करणम्। प्रश्न. पडागसमाण- यस्य नवस्थितो बोधी विचित्रदेशनावायना
सर्वतोऽपह्रियमाणत्वादुपताकेव स पताकासमानः। पहिवंस- बलहरणं पृष्टवंशो। बृह० ५४ अ।
स्था०२४३
४१।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[167]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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पडागा- पताका-ध्वजादन्या । भग० ३१९ | पताकामत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । पताका चक्रादिलच्छनोपेतादितरा । भग० ४७६ । पताका-ध्वजेतररूपा । जम्बू० १८८। पताका । सूर्य० २६३। मत्स्यविशेषः। प्रज्ञा० ४४। पताकागरुडादिवर्जिता ध्वजा विपा० ४६| पडागाइपडागा- पताकाभ्यो-लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिनीदीर्धत्वेन विस्तारेण च पताका पताकातिपताका । जीवा० १९१| मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । पताकाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तरेण च पताकाः पताकातिपाका जम्बू. माम ४४| पडागासंठाणसंठिता- पताकासंस्थानसंस्थिता - वायुकाय
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
संस्थानम् प्रज्ञा- ४११५
।
पडालि लघुतरा आव० २६२२ पडालिया पडालिका यत्र मध्याहने सार्थिकाः तिष्ठन्ति यत्र वा वसन्ति तत्र वा वसन्ति तत्र वस्त्रादिभयं वनं कुर्वन्ति ता वा अस्य दिने दिन उपलभ्यन्ते तदा स एवैकः सागारिकः शय्यातरो भवति । राढागतेषु तु अवज्ञया यत्र तत्र गतेषु तु साधुषु यत्र रात्रौ वसन्ति तद्दिवसं स शय्यातरः । इयमत्र भावना यस्य न नियमेन सडो वा पडालिका वा । व्यव० २७८ आ । पडाली- पडालिका-एकस्मिन् पार्श्वे वृक्षयुगलं समश्रेण्या व्यवस्थितं चतुर्ष्वपि कोणेषु ईषद्दीर्घा वृक्षा व्यवस्थितः । बृह० १८३ आ पडाली गृहाच्छादनम्। व्यव० २७६ अ । पडिंसुआ प्रतिश्रुतः प्रतिशब्दः । जम्बू. १४४॥
।
- प्रति प्रतीपं प्रतिकूलं वा आव० ५५१ प्रति प्रतिबिम्बं प्रधानं वा उत्त० ५११ प्रतिः सादृश्ये उत्त• ५८९ ॥ पडिअरड़ प्रतिजागर्ति। ओघ०८४
डिअरण- प्रतिपालन-निरूपणं आलोचनम् । ओघ० ४४ । पडिअरिअ आराध्य दशकै २५५१ पडिआइखे- प्रत्याचक्षीतः प्रतिषेधयेत्। दशवै० १६९ | आय - प्रत्यापिबति-सेवते । दशवै० २६५| पडिएक्कं- पृथक्। ज्ञाता० २०६ | पडिओ सव्वगत्तेण भूमीए निशी० ४९ अ पडिओसरइ- प्रत्यवसर्पति आ० ५४1 पडिकप्पावेति सज्जयति जाता० १३८८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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रुद्धम्। ओघ० २१५| प्रतिकुष्ठं- निराकृतम्। पिण्ड० ८४ निराकृतम् । पिण्ड० ११०। प्रतिकृष्टः निषिद्धः । प्रश्न १२७| प्रतिकुष्टः प्रतिषिद्धः। ओघ० १४५१ प्रतिकुष्टःप्रतिषिद्धः । ओ० २१० प्रतिकुष्टं छिंम्पकादिगृहं सूतको पगृहं वा ओघ० १५७१
पडिकुविय प्रतिकूजितं प्रतिभाषितम् । निर० ३३ पडिकूल- प्रतिकूलः- नानुकूलोऽनभिमतः । आचा० ३६४| प्रतिकूलः-विपरीतवृत्तिः । स्था० २४४| पडिक्कंत- प्रतिक्रान्तम् । दशवै० ४९ । प्रतिक्रमणंप्रतिक्रान्तं, प्रज्ञापकात् प्रतीपं क्रमणम्। दशकै १४११ पडिक्कओ प्रतिक्रिया आधारः आव० ३०४ पडिक्कमए- प्रतिक्रामति-निवर्त्तते। पिण्ड० ७६ । पडिक्कमण- प्रतिक्रमणं प्रतीपं पश्चाद् अभिमुखं क्रमणंप्रतिक्रमणं आगमनमित्यर्थः । आचा० २९२१ प्रतिक्रमणंप्रतीपं क्रमणं शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनम्, निवर्त्तनंपुनरकरणमित्यर्थः । स्था० ३५०। प्रति-क्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानम् । स्था० १३७ | प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अपराधस्थानेभ्यो गुणस्थानेषु वर्त्तनम्। आव० ५४१| मिच्छादुक्कडं। निशी ९१ अ आलोचनादिषु द्वितीयः स्था० २००१ प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतम्। भग० १२० प्रतिक्रमणंमिथ्यादुष्कृतम् । स्था० १६० प्रतिक्रमणस्य प्रथमं नाम | आव० ५५२ प्रतिक्रमणं-दोषात् प्रतिनिवर्त्तनमपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानम्, तदहं प्रायश्चित्तम् । व्यव० १४अ । पडिक्कमणारिह- प्रतिक्रमणार्ह मिथ्यादुष्कृतम् । औप. ४१) मिथ्यादुष्कृतं दशविधप्रायश्चित्ते द्वितीयः ।
भग० ९२०
पडिक्कमति - मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति निन्दनेन विरमति । भग० ३७० |
पडिक्कममान- प्रतिक्रामन्- निवर्त्तमानः । आचा० २१७ | पडिक्कमामि प्रतिक्रमामि अपुनःकरणतया निवर्त्तयामि आव० १४८
पडिक्कमाहि- प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतदानलक्षणं अकृत्यान्निवर्त्तनं वा ज्ञाता० २०६३
पडिक्कमे प्रतिक्रामेत् कायोत्सर्ग कुर्यात्। दश- २७९॥
पडिकप्पेह सन्नद्धं कुरुतः। भग. ३१७१
पडिकुड प्रतिक्रुष्ठं प्रतिसिद्धम् आव० ४७१ प्रतिकृष्ठंवि पडिक्कमेज्जा- नियत्तेज्जा दशकै टपा
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पडिक्कामण- प्रतिक्रामणं यदयसौ ग्लानः परिक्रामति
तस्मा-त्स्थानान्निवतनम्। ओघ०४५। पडिक्खंत- प्रतिक्षमाणः। आव० ६४० पडिक्खलण-धर्मास्तिकायाद्यभावात्तदानन्तर्यवृत्तिरेव प्रति-स्खलनम्। प्रज्ञा० १०८ प्रतिस्खलनम्। औप. ११६| पडिक्खित-परिक्षिप्तो-विस्तारितः। अन्त०७ पडिगओ- प्रतिगतः। आव. १९९। पडिगच्छह- प्रतिगच्छामो-निवर्तामहे। उत्त० २५५) पडिगमणं- उणिक्खमणं। निशी० १०९ । पडिग्गह- पतगृहः-पात्रम्। आचा० २४०। पतग्रहः काष्ठ-च्छब्बकादि। आचा० ३५५ पतद्ग्रहः। आचा० ३४६। प्रतिग्रहम्। आव० ७९३। प्रतिग्रहम्। अनुयो० २५३। प्रतिग्रहम्। भग० १३६। प्रतिग्रहः-पतग्रहो वा पात्रम्।
औप० १००| पतद्ग्रहः पात्रम्। प्रश्न. १५६। पडिग्गहति- गृह्णाति। निशी० ७४ आ। पडिग्गहधरो- पतग्रहधरः। आव० ३२४| पडिग्गामो- पडिवसभगामो अंतरपल्लिगा वा अण्णो वा पडि-ग्गामो भण्णति। निशी. १२१| पडिग्गाहित्तत- प्रतिग्रहीतुं आश्रयितुम। स्था० १३१| पडिग्घाओ- प्रतिघातः-विनाशः। उत्त० ३१८ पडिघात- प्रतिघातः-गतिस्खलनम्। स्था० १७१| पडिचंद-द्वितीयचन्द्रः। भग. १९६। प्रतिचन्द्रः-उत्पातादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः। जीवा० २८३। प्रतिचन्द्रःउत्पा-दादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः। अनुयो० १२१। पडिचरए- क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान्। बृह० २३० आ। पडिचरगा- गामणगरसेणादियाण भंडिया पडिचरगा। निशी. ११। प्रतिचरका नाम हेरिकाः परराष्ट्रगवेषकाः। बृह० ८२आ। पडिचरति- मेहुणमासेवति। निशी० ३३ आ। पडिचरिओ- प्रतिचरितः। आव० ३९२ पडिचारं- प्रतिचारः-प्रतिकूलश्चारो-ग्रहाणां वक्रगमनादिस्त-त्परिज्ञानं, अथवा प्रतिचरण प्रतिचारो रोगिणः प्रतिकार-करणं तद्ज्ञानम्। जम्बू. १३९। पडिचोइओ-प्रतिचोदितः। आव०७९३। प्रतिचोदितः।
आव. २६२ पडिचोयणा- तन्मप्रतिकूला चोदना कर्तव्यप्रोत्साहना
प्रतिचोदना। भग०६७५ पडिचोयना- पुनः पुनः खलितस्य निष्ठरं शिक्षापणं
प्रतिचोदना। व्यव० ७२ आ। पडिच्छंद-प्रतिच्छन्दम्। आव० ४१६) पडिच्छइ- प्रतीच्छति-गृह्णाति। ओघ० ११२ पडिच्छग- सूत्रार्थग्रहणार्थं ये आयाताः साधवस्ते
प्रतीच्छकः। ओघ०६३ पडिच्छति- प्रतीच्छति। आव. २१७। प्रतीक्ष्यते। आव.
८५३ पडिच्छभाए- प्रतीक्ष्यभागः। आव० १५०| पडिच्छा- प्रतीच्छा प्रतिग्रहणम्। व्यव० ३४५आ। पडिच्छामि- अङ्गीकरोमि। आत०। पडिच्छामो- प्रतीक्षामहे। आव० ३४८१ पडिच्छायणं- प्रतिच्छादनं-आच्छादनम्। सूर्य. २९३। प्रतिच्छादनं- रजस्त्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनम्। जीवा. २१०। प्रतिच्छादनं- आच्छादनम्। जीवा० २३२। पडिच्छिअं-प्रतीप्सितं-गृहीतम्। दशवै०१७७ पडिच्छिए- पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः। भग.
४६७ पडिच्छिगा- प्रातीच्छिकाः-अनुयोगाचार्यानुमान्याः अध्यय-नार्थं गच्छान्तरादागताः स्वाचार्यानुज्ञापुरस्सरमनुयोगाचार्य-प्रतीच्छया चरन्ति। नन्दी०५४। पडिच्छण्णे- प्रतिच्छादनं-आच्छादनम्। ज्ञाता०१५। प्रती
च्छन-वेलां प्रतिपालयति। ओघ०४९। पडिच्छिय-प्रतीप्सितं प्राप्तमिष्टम्। भग० १२११ प्रतीच्छितम्। आव०७९३। प्रत्यैषीत्-प्रतिपन्नवान्। उत्त०४६४। प्रतीष्टं -प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतम्।
ज्ञाता०१० पडिच्छज्ज- परीक्षाकार्या। ओघ. १३२॥ पडिजग्गिउं- प्रतिजागर्यः। आव० ४८४। पडिजागरण- करणम्। व्यव० १९ अ। पडिजागरिज्जा- प्रतिजागृयात् उपचरेत्। दशवै. २५२। पडिजाणामि-व्युत्सृजामि। महाप्र०। पडिजिओ- प्रतिजितः। आव०४१७ पडिट्ठिय- प्रतिष्ठितं-सिद्धं सत्यं अविचार्यम्। दशवै. ३३। पडिणं-प्रतीची-पश्चिमादिक। दशवै. २०११
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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पणित्ति- प्रतिज्ञप्तः । बृह० २५ आ । पडिणिज्जाएमि. प्रतिनिर्यातयामि समर्पयामि। ज्ञाता०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
११८ |
पडिणिभोवण्णास प्रतिनिभोपन्यासः । उपन्यासस्य तृतीय-भेदः। दश पा
पडिणियं- प्रत्यनीकं-यद् आहारादिकाले वन्दते तत्, कृतिकर्मणि सप्तदशो भेदः । आव ० ५४४ ।
पडिणीए- प्रत्यनीकः-प्रतिकूलवर्त्ती दोषानीकं प्रति वर्तत इति । उत्त०४४ प्रत्यनीकः । ओघ० ४९ ।
डिणी
प्रतिमुञ्चति । दशकै ९८८
पडिणीय प्रत्यनीकः । आव २०३ | प्रत्यनीकः प्रतिकूलः । स्था० १६९। प्रत्यनीकम् । आव० ८४४ | प्रत्यनीकःप्रतिकूलवृत्तिः । ज्ञाता० ८७
पडिणीयत्ता - प्रत्यनीकता कार्योपघातकता । भग० ६८१ । पडिणीयय- प्रत्यनीकः कार्योपघातकः । जम्बू० १२३ | पडिणीयया- प्रत्यनीकता। आव० ६२० प्रत्यनीकता
सामान्येन प्रतिकूलता। भग० ४११ । पडिण्णा प्रतिज्ञा
स्यादवादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागमस्यैकपक्षा-वधारणम्।
आचा० १३३ |
पडितप्पह- वैयावृत्त्यं कुरुत ओघ० १८०
पडिथद्ध- प्रतिस्तब्धः प्रतिबद्ध । उत्त० ३६८ | पडिदार- पतिद्वारं-द्वारमेव । प्रश्र्न० ५९ । प्रतिद्वारंमूलद्वा-रानान्तरालवर्त्तिलघुद्वारम् । जीवा० १६०॥
पडिवासी प्रतिदासी दशकै० १००
पडिदिस प्रतिदिक् विदिक् । प्रज्ञा० १०५ | प्रतिदिक। सूर्य २६ प्रतिदिक । विदिक जीवा० ३९ प्रजा० ३२९॥ पडिदिसि प्रतदिश-विदिशः स्था० २५११ पडिदुवार प्रतिद्वारं अवान्तरद्वारम् । सम० १३८ ॥ प्रतिद्वारं स्थूलद्वारावान्तरालवर्तिलघुद्वारम् । प्रज्ञा८६। प्रतिद्वारं मूलद्वारावान्तरालवर्तिलघुद्द्वारम् । जम्बू॰ ७६। प्रतिद्द्वारं बाह्यद्वारम्। जम्बू० ३६६ पडिनिकास सदृशः । ज० ५७ | पडिनिभे यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तवस्तुनः सदृशं वस्तुत्तरादानायोपनीयते सा प्रतिनिभः । स्था० २५४, २६०१
पडिनियत्ता प्रतिनिवृत्ता । आव० ५१७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पडिनियत्तो प्रतिनिवृत्तः उत्त० ३०४१ पडिनिवेस प्रतिनिवेश: एष पूज्यते अहं तु नेत्येवं परपूजाया असहनलक्षणः । स्था० २८५ प्रतिनिवेशः । आव० २१८ | द्वेषः । आउ ० | पडिनिसंतंसि विश्रान्ता यस्मिन् मनुष्या इतीह दृष्टव्यं अथवा सन्ध्याकालसमये सति प्रतिनिश्रान्त । ज्ञाता० १४७ |
पडिनिस्सीए- प्रतिनिश्चितं उपरिवर्ति । दशके 1991 पडिन्ना- प्रतिज्ञा-आकाङ्क्षा। सूत्र० १८८। पडिपक्ख प्रतिपक्ष-विसदृशः पक्षः असदृश इति । ओघ २३१
डिपो दोहं गामाणं अवरे मज्झे खेत्ते खलए वा पह पडिपो भण्णति, उभामाङ्गतस्स वा अभिमुहो पहे मिलिज्जा एस पडिपहो। निशी. १२२ अ पन्थानं प्रति प्रतिपथः । आचा० ३३८ \
पडिपाय- मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादः प्रति पादः । जम्बू• २८५
पडिपुंजिया- प्रतिपुंजिता चन्दनादिचर्चिता । ज्ञाता० १२| पडिपुच्छड़ पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति तच्च तमशङ्कितं करोतीति। आव २६|
पडिपुच्छाई प्रतिपृच्छति प्रश्नयति । उत्त० ४७३ | पडिपुच्छण प्रतिपृच्छा- आदिष्टस्य कार्यस्य करणकाले पुनः प्रच्छनम्। बृह० २२२अ प्रतिपच्छनं. शरीरादिवार्ता प्रश्नः ज्ञाता० ४४
पडिपुच्छणा- प्रतिप्रच्छनं शरीरादिवार्ताप्रश्नः । भग० ११५१ प्रतिप्रच्छना ओघ १५१ शकिते सूत्रादी शङ्कापनोदाय गुरोः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना । स्था० १९० | पुच्छन्न प्रथणं कथितस्य सूत्रादेः पुनः प्रच्छन्नं प्रतिप्रच्छन्नम्, सम्यक्त्वपरक्रमे विंशतितमं दद्वारम् ।
उत्त० ५८४ |
पडिपुच्छा- ग्रामादौ प्रेषितस्य गमनकाले पुनः प्रच्छन्नं प्रतिप्रच्छना अनुयो० १०३॥ गुरोः पुनः प्रच्छन प्रतिप्रच्छना अनुयो० १०३ । प्रतिपृच्छा त्वालापकः । भग० ३५२१ दशधा सामाचार्या सप्तमी स्था० ४९९ प्रतिपृच्छा-प्राड्नियुक्तेनापि कारणकाले कार्या निषिद्धेन वा प्रायोजनतः कर्तुकामेनेति । आव० २५श
स्था० ५०१ |
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* आगम- सागर- कोषः " [3]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पडिपुण्ण- प्रतिपूर्णः रूपं न पात्यते। अनयो० २४० दविधाऽपि प्रतिबोधवान जीवतीत्येवं-शीलःप्रतिपूर्णः। आव० ११०| सूत्रतो
प्रतिबुद्धजीवो। उत्त० २१३॥ बिन्दुमात्रादिभिरनुनमर्थत-स्त्वध्याहाराकाङ्क्षादिरहितं | पडिबुद्धि- पटवत् प्रतिपूर्णम्। अनुयो० १५ प्रतिपूर्ण-अर्थ प्रतीतिजनकम्। | विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविधप्रभृतसम. १६७। प्रतिपूर्ण-अपवर्गप्रापकै-घृणो तम्। आव० । सूत्रार्थपुष्पफलग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते। औप० २८१ ७६० प्रतिपूर्णं आत्मस्वरूपेणाविकलः। भग० १४९। पडिबुद्धी- प्रतिबुद्धिः-इक्ष्वाकराजः साकेतनिवासी। स्था० पडिपुण्णगल्लकपोल- परिपूर्णगल्लकपोलः। आव० २८८। | ४०१ पडिपुण्णघोष- प्रतिपूर्णघोष-उदात्तादिघोषैरविकलम्। पडिबोह- प्रतिबोधितानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति अनुयो० १६ ।
कृतानि। ज्ञाता०४२ प्रतिबोधितं-यौवनेन व्यक्त पडिपुन्नं- परिपूर्ण अहोरात्रम्। स्था० २३७। प्रतिपूर्ण चेतनवन्तं कृतम्। ज्ञाता०४२ बाह्येन निषद्याद्वयेन युक्तम्। ओघ० २१४। प्रतिपूर्ण | पडिबोहग- प्रतिबोधकः सुप्तस्योत्थापकः। नन्दी. १७९| अपवर्गप्राप-कैर्गुणैर्भूतम् ज्ञाता० ४९, ५१|
पडिबोहियल्लओ- प्रतिबोधितः। आव० ४०८ पडिपेल्लिया- विनाश्य। भक्त
पडिभग्ग- प्रतिभग्नः। उन्निष्क्रान्तः। ओघ० १८० पडिपेहित्ता- प्रतिविधाय-पिठित्वा-स्थगित्वा। सूत्र. ३२४। प्रतिभग्नः। आव. २९८ प्रतिभग्नः। आव० ५२० पडिपोग्गले-स्थास्नोर्गतौ। निशी० २३७ अ।
प्रतिभग्नः। उत्त० ९० पडिप्पहर- प्रतिप्रहारम्। आवव ५५७।।
पडिभज्जंतो- प्रतिभग्नः। आव० ४०८1 पडिबंध- प्रतिबन्धः-अवरोधः। भग० १९| व्याघातः। भग० पडिभाग- प्रतिभागः-प्रतिबिम्बः। जम्बू. १४८। प्रति१०१। उपरोधः। भग० ११७, १२३, १३९, ७३८1
भागः- प्रतिबिम्बमादर्शादाविव विशिष्टःप्रतिबन्धः-स्नेहः। स्था० ४६५ प्रतिबन्धः-अयं ममा- प्रतिबिम्बवस्तुगत आकारः-प्रतिभागः। ३७२। स्याहमित्याशयबन्धरूपः। जम्बू. १४९| प्रतिबन्धः- प्रतिभागः-खण्डः। प्रज्ञा० २८३। अभिष्वङ्गः, परिग्रहस्य दवादशं नाम। प्रज्ञा० ९३। पडिभिण्णो- प्रतिभिन्नः। आव० ३८८, १६) प्रतिबन्धः। आव०४०१। प्रतिबन्धः-आसङ्गः। आव. पडिमंठाइ- प्रतिमास्थायी-प्रतिमया कायोत्सर्गेण ५३५ प्रतिबन्धः- रागः। पिण्ड०१४०
भिक्षुप्रति-मया वा मासिकयादिकया तिष्ठति यः सः। पडिबद्ध- प्रतिबद्ध-व्याप्तम्। दशवै० ८६। प्रतिबद्धं-अन्बद्धं, प्रश्न. १०७ सदानुगतम्। जीवा० १३०| प्रतिबद्धं-सूत्रार्थग्रहणसक्तम्। पडिमंजूसा- प्रतिमञ्जूषा। आव०४०१| बृह. २४८ आ। प्रतिबद्धः। आव० ३५९। प्रतिबद्धः। उत्त. | पडिम- प्रतिमा। अन्त० २११ ३५८ प्रतिबद्धः। ओघ०९
पडिमठाती- प्रतिमास्थायी-भिक्षुप्रतिमाकारी। स्था० ३९७। पडिबद्धया- प्रतिबद्धता-गाढसम्बन्धः। भग०८८१
प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव पडिबद्धसरीर- प्रतिबद्धशरीरः- दृढावयवकायः-युवा। सूत्र.
तिष्ठति। स्था० २९९। ३२५१
पडिमा- प्रतिमा-अभिग्रहविशेषरूपारेकादशा दर्शनादिः। पडिबद्धा- प्रतिबद्धा-युक्ता संश्लिष्टा। निशी० १०६) उत्त० ६१३। प्रतिमा-दर्शनादिगुणयुक्ताः । आव० ६४६। पडिबाहिर- प्रतिबाह्यं अनाधिकारणः। सम०५३। कालविशेषमानयुतदर्शनायभिग्रहधरणं कृष्णपाक्षिका प्रतिबाह्य-अनधिकारिणं दारेभ्योऽर्थागमदवारेभ्यो वा, क्रिया-वादिभिन्ना एकादशोपासकावस्था वा। उपा० दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः। सम० ५३ दशा० प्रतिमा नग्नता। बृह. २५३ आ। प्रतिमापडिबुद्धजीवी- प्रतिबुद्धं-प्रतिबोधः द्रव्यतो
बिम्बलक्षणम्। आव० ५२४। प्रतिमा-कायोत्सर्गः। प्रश्न. जाग्रत्तोभावतस्तु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमस्तेन १४३। प्रतिमा-प्रतिज्ञा। आव०६४६। प्रतिमा-श्रावस्य जीवितुं-प्राणान्धर्तुंशीलम-स्येति, प्रतिबुद्धो वा
पञ्चमी प्रतिज्ञा। आव०६४६। गेहचेतियं। निशी०६९
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आ। प्रतिमा-अभि-ग्रहः भिक्षुप्रतिमा। स्था०४१६)
आ। वाचना। आव०३९७। प्रतिमा-श्रावकस्य पञ्चमी प्रतिज्ञा-अभिग्रहरूपा। सम० | पडियाए- प्रतिज्ञाय-उद्दिश्य। आचा० ३६११ १९। प्रतिमा-पिण्डै-षणा-द्यभिग्रहविशेषः। आचा० ३५८१ पडियाण- पटतानकं-पर्याणस्याधो यद्दीयते। ज्ञाता० २३० प्रतिमा-अभिग्रहचारी। व्यव० १३६ आ। प्रतिमा- पडियार- शरीरसंस्कारः। निशी. २६४ अ। भिक्षुप्रतिमा। व्यव० १४६ अ। प्रतिमा-अभिग्रहः। स्था० पडियारणा-आसेवना। आचा० ३६४| ५१११ प्रतिमा-प्रतिज्ञा। स्था० २११ प्रतिमा-प्रतिपत्तिः । पडियारी- प्रतिचारिणः-कायिकीमात्रकादिसमर्पका विश्राप्रतिज्ञा। स्था०६५। प्रतिमा-तथाविधाभिग्रहविशेषरूपा। मकाः। व्यव० १३१ । अनुयो० ५३१
पडिरूव- प्रतिरूपं द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयम्। सम० पडिमाणुसं- प्रतिमानुषम्। आव० ३४५।
१३८१ अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्थक्लकरभार्या। सम. पडिमाणे- प्रतिमानम्। अनुयो० १५१।
१५०। प्रतिरूपः-उत्तरनिकाये द्वितीयो व्यन्तरेन्द्रः। पडिमापडिवण्णओ- प्रतिपन्नप्रतिमः। आव. ९५
भग० १५८१ सदृशम्। भग० ३१९। प्रतिरूपापडिमडिओ-णिसद्धो। निशी० ३२०आ।
चतुर्थकुलकरपत्नी। आव० ११२। प्रतिरूपः-उचितः। पडिमेल्लियपहिणीयया- पेरितशत्रवः। चतु।
दशवै० २४१। द्वितीयो भूतेन्द्र। स्था० ८५ प्रतिरूपःपडियंति- प्रतियान्ति। दशवै०४२।
रूपवान्। प्रश्न० ११६ प्रतिरूपः-साधचित्तस्वरूपः। पडियंसि-पतिते-प्रासादादेर्मञ्चके वा ग्लानभावात्। विपा० ३३। प्रतिरूपः-रूपवान्। औप०११। प्रतिरूपः ज्ञाता०११५
भूतेन्दः। जीवा. १७४। प्रतिरूपं-प्रतिवि-शिष्ट पडिय- वाहनात्पतितः। ज्ञाता० १९३। पतितं-प्रासादशिख- असाधारणं रूपं आकारो यस्य सः। जम्बू.७५ प्रतिरूपं रादेः कलशादिरिवाधो निपतितम्। प्रश्न. १३४| पतितं- उचितम्। उत्त० ५००। प्रतिरूपं-प्रतिबिम्बम्। सूत्र. ४०७। भ्रष्टम्। प्रश्न. १२४१
प्रतिरूपं-प्रतिविशिष्टं। रूपं यस्य तत्। प्रज्ञा० ८७। जा पडियगविठ- प्रत्यगन्तव्यम्। व्यव० ३६९ अ।
वत्थु वत्थु पडुच्च अणुरूवो पउंजइ सो। दशवें. १३०| पडियपुयत्थणी-पतितप्तस्तनी
प्रतिक्षणं नवं नवं रूपं यस्य तद प्रतिरूपम्। प्रज्ञा० ८७। अवनतिगतनितम्बदेशव-क्षोजा। ज्ञाता० २४८।
प्रतिरूपः-उचितः। व्यव० १९ । पडियरंति- प्रतिजागरणं-निरूपणं कुर्वन्ति। ओघ. १०२२ | पडिरूवकायकिरिया- प्रतिरूपकायक्रिया-यथा परिपाट्या पडियरइ- प्रतिचरति-प्रतिजागरणं करोति। ओघ० २०७। शरीरविश्रामणम्। व्यव. २२ अ। पडिक्खति। निशी० १२३ अ।
पडिरूवग- प्रतिरूपकं-प्रतिबिम्बम्। राज०९। प्रतिरूपकंपडियरग- प्रतिचारकः-परिपालकः। पिण्ड०७०
सदृशम्। उपा० ८प्रतिरूपकम्। आव. २९९। प्रतिरूपकंपडियरगा- अवराहा। निशी. ९८ आ। परिण्णीअणस- सदृशम्। आव०८२३।
णोवदिट्ठो, तस्स जे वेयाच्चकारिणो ते पडियरगा। | पडिरूवजोगजुजण- प्रतिरूपयोगयोजनंनिशी० ८६अ।
उपचारविनयभेदः। दशरू. २४१। पडियरणा- प्रतिचरणा-आगमनम्। ओघ. ३३ प्रतिप्रति- | पडिरुवन्न-प्रतिरूपविनयो-यथोचितप्रतिपत्तिरूपस्तं तेष्वर्थेष चरणं गमनं तेन तेन आसेवनाप्रकारेणेति- जाना-तीति प्रतिरूपज्ञः। उत्त० ५०० प्रति-चरणा, प्रतिक्रमणद्वितीयपर्यायः। आव० ५५२। पडिरुवया- प्रतिः-सादृश्ये ततः प्रतीति प्रतिचरणा-आगमनम्। ओघ० ३३।
स्थविरकल्पिकादि-सदृशं रूप-वेशो यस्य स तथा पडियरावितो- प्रतिचारितः। आव. २२७।
तद्भावस्तत्ता-अधिकोपक-रण-परिहाररूपा। उत्त० ५८१ पडियरिए- निरूविए। ओघ. १६१|
पडिरूवा- प्रतिविशिष्ट-असाधारणं रूपं यस्याः सा पडियरिओ- प्रतिचरितः। आव. २९८१
प्रतिरूपा, प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा। जम्ब० पडिया-थिग्गलयं। निशी० १२५आ। प्रतिज्ञा। निशी. ५० | र्थकलकरभार्या। स्था० ३९८ प्रतिरूपा-द्रष्टारं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[172]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #173
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा। ज्ञाता० ३। प्रतिरूपाः-द्रष्टारं पडिलेहेइ- प्रतिलेखयति-प्रत्यपेक्षते। उत्त०४३४। प्रतिलिप्रति रमणीया इति। स्था० २३२
खति। आव० २१९ पडिलग्गो- प्रतिलग्नः-ग्लानो जातः। आव०६७८५ पडिलेहेति- प्रतिलेखयति प्रस्थापयति। आव०७५६। पडिलग्गो- प्रतिलग्नः। आव० ३९२१
पडिलोम- प्रतिलोमः तद्गन्धादविपरीतगन्धः। आचा० पडिलभे- प्रतिलभेत-प्राप्नुयात्। उत्त०४६)
३६४। प्रतिलोमः-इन्द्रियमनसोरनालादः। स्था० २४४। पडिलाभिता- प्रतिलम्भयिता-लाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो प्रति-लोमः-अपवादः। ओघ० ६५ प्रतिलोमयः च भवति। स्था० १०९]
पश्चानुपूर्वी। जम्बू० ९७। प्रतिलोम-प्रतिकूलम्। दशवै. पडिलाहेहि- प्रतिलम्भय। आव० ८१५
५२। प्रतिकूलं- यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा शठं प्रति पडिलेहंति- प्रत्युपेक्षन्ते-पौनःपन्येन लगन्ति। आचा० शठत्वं कुर्यात्। स्था० २५३। ११३
पडिवइर- प्रतिवैरम्। आव०६३६। पडिलेह- प्रतिलेखः। आव० ३९९|
पडिवक्ख- प्रतिपक्षः-तुल्यपक्षः। ओघ० ९७। प्रतिपक्षःपडिलेहओ- प्रतिलेखकः-प्रतिलिखतीति, प्रवचनानुसारेण असदृशः। ओघ. २३। प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षःस्थानादिनिरीक्षकः साधुः। ओघ०१३।
अप्रमत्ततया-शुभयोगपूर्वकंप्राणाव्यपरोपणम्। दशवै. पडिलेहणं- प्रत्युपेक्षणा-चक्षुषा निरीक्षणम्। प्रश्न० १५६। २४ प्रतिपक्षः-सदृशपक्षः। बह० २४७ अ। प्रतिपक्षः। पडिलेहणा- प्रत्युपेक्षणा-चक्षुर्व्यापारः। प्रश्न. ११२। आव०१०११ प्रत्युपेक्षणा-आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणप्रति- पडिवज्जइ- प्रतिपद्यते। आव० ३१३| उत्त० १८५१ जागरणरूपा। उत्त० ५८३। प्रतिलेखनं-प्रतिलेखना- पडिवज्जिण- प्रतिपादिनोऽवश्यं प्रतिपद्यमानस्य। उत्त.
आगमानुसारेण या निरूपणा क्षेत्रादेः सा। ओघ० १२ ર૮91 पडिलेहणिया- प्रत्युपेक्षणा। ओघ० ११७
पडिवज्जित्तए- प्रतिपत्तुं-अभ्युपगन्तुम्। स्था० ५७ पडिलेहय- प्रतिलेखयतीति प्रतिलेखकः-प्रवचनानुसारेण | पडिवज्जेजा- प्रतिपयत। आव. २२४१ स्थानादिनिरीक्षकः साधुरिति। ओघ० १३।
पडिवत्ति- प्रतिपत्तिः-द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमः पडिलेहा- प्रत्युपेक्षणा-गुणदोषपर्यालोचना। आचा० ११४॥ प्रतिमादयभिग्रह विशेषो वा। नन्दी. २१० प्रतिपत्तिःपडिलेहाए- प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य। आचा० २७२। आचा० प्रति-पत्तिः उपमा। व्यव० २२२ अ। प्रतिपत्तिः२१४॥
प्रतिपादनं, परिच्छित्तिः , अवधिप्रकृतिर्वा। आव. २९। पडिलेहिअव्व-प्रेक्षितव्यं-आलोचनीयम्। दशवै. २७२ प्रतिपत्तिं-अभ्यागतकर्तव्यरूपाम्। उत्त. ५०० पडिलेहिऊण- प्रत्युपेक्ष्य-चक्षुषा निरीक्ष्य। ओघ० ११४१ प्रतिपत्तिः -प्रकारः भेदः। ओघ० ११७। पडिलेहित्त- प्रत्युपेक्ष्य-प्रतिजागर्य। उत्त० ५३९। पडिवत्तिकुसला- प्रतिपत्तिकुशलाः पडिलेहित्तए- प्रत्युपेक्षितुं-अवस्थानार्थं निरीक्षितुम्। परप्रतिवचनदानसामर्थाः। व्यव० ५९ अ। स्था० १५७
पडिवत्ती- प्रतिपत्तिः -मतान्तररूपा। सूर्य ८1 पडिलेहित्ता- प्रत्युपेक्ष्य-ज्ञात्वा। दशवै २५०। प्रत्युपेक्ष्य- प्रतिपत्तिः-द्रव्यार्थे पदार्थाभ्युपगमा मतान्तराणि, दृष्ट्वा । आचा०७१।
प्रतिपादयनिमादयभि-ग्रहविशेषा वा। सम. १०८ पडिलेहिय- प्रत्युपेक्षणं-गोचरापन्नस्य शय्यादेश्चक्षुषा प्रतिपत्तिः-प्रत्यवताररूपं प्रतिपादनं, सवित्तिः निरी-क्षणम्। आव० ८३६। प्रेक्षितं-पर्यालोचितम्। आचा० अनुयोगद्वारं अर्थो वा। जीवा० ८। प्रतिपत्तिः१८६|
यथास्वरुचिवस्तुभ्युपगमः। सूर्य० २४। प्रति-पत्तिःपडिलेहिया- प्रति उप-सामीप्येन ईक्षिता-ज्ञाता
प्रतिवचनप्रदानम्। बृह० ४९ अ। प्रतिपत्तिःप्रत्युपेक्षिता। आचा० २३३।
उत्तरदानम्। बृह. १४७ आ। प्रतिपत्तिः -परमतरूपा। पडिलेहे- प्रत्युपेक्षेत-निरूपयेत्। ओघ० १७८।
सर्य.८ प्रतिवचनम्। निशी. ४२ आ। वन्दनम्। चतु
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[173]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३३॥
पडिवसभ- प्रतिवृषभग्रामः-यत्र ग्रामं भिक्षाचर्यायै | पडिसंसाहेहि- विनयप्रस्तावात् व्रजन्तं प्रतिसंसाधयगमनम्। बृह० ७९ ।
अनुव्रज, अथवा संश्लाघय-प्रशंसां कुर्वित्यर्थः। ज्ञाता० पडिवसभा- भिक्खायरियगामादि। निशी. ३३५ आ। १८९ पडिवाडी- परिपाटी। आव ९९।
पडिसंहरइ- प्रतिसंहरति। आव० १२४१ पडिवाती- प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति-उत्कर्षेण लोकविषयं पडिसवत्त-प्रतिसपत्नः-परस्परविरोधी। दशवै. १९४ भूत्वा प्रतिपतति। स्था० ३७०
पडिसामियं- प्रतिस्वामितं-स्वामिना प्रतिगृहीतम्। बृह. पडिवाय- प्रतिपद्यते पक्षस्यादयतयेति प्रतिपत्, प्रथमो
२४ । दिवस इति। जम्बू०४९१।
पडिसाहरति- प्रतिसंहरति-निरुणद्धि। स्था० ११२। ज्ञाता० पडिविद्धंसंति- प्रतिध्वंसन्ते-योनिदोषाद्पहतशक्तयो
भवन्ति, मेहनविश्रोतसा वा योनेर्बहिः पतन्तो पडिसाहरिए- प्रतिसंहरणं-शिलायाः शिलापुत्रकाञ्चसं हत्य विध्वंसन्ते इति। स्था० ३१४१
पडिकरणम्। भग०७६७ पडिविलइत्ता- प्रतिविलगिता। आव. ३५०
पडिसीसगं- प्रतिशीर्षकं-दत्तस्वशीर्ष प्रतिरूपम्। प्रश्न पडिविशिटुं- प्रतिविशिष्टम्। सूर्य. २६८।
३९| पडिवुज्जणा- वासासु वा सिसिरेसु वा णिवातद्वा तेसिं चेव | पडिसुंडिओ- प्रतिसुंडितो-निषिद्धः। बृह. २८९आ। पडिवुज्जणा। निशी. २३२ आ।
पडिसुई- आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां जम्बू-ऐरवते नवम पडिवूह- प्रतिव्यूह-तत्प्रति द्वन्द्वगानां
कुलै-गरः। सम० १५३। तद्भङ्गोपायप्रवृत्तानां व्यूहम्। जम्बू० १३९।
पडिसुणइ- प्रतिशृणोति-अभ्युपगच्छति। जीवा० ३४३। पडिवेसिय- प्रतिवेसिकः-सीमान्तवर्ती-प्रत्यर्थी। व्यव. पडिसुणणा- प्रतिश्रवणा। आव० २६५ १७० ।
पडिसुणमाण-प्रतिशृण्वति। आव० ५७६। पडिसंखिविय- प्रतिसङ्खपणं-शिलायाः पततः संरक्षणम्। | पडिसुणेति- प्रतिशृण्वति-अभ्युपगच्छति, परस्परं भग०७६७
साक्षीकृत्य प्रतिज्ञातं कार्यं कर्तव्यमवश्यामिति दृढी पडिसंधए- पडिसंधत्ते। कर्मोदयात् त्रुटितमपि संघट्टयति। भवन्ति। जम्बू० २४० उत्त० ५५०
पडिसुते- आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां सप्तमकुलकरः। स्था० पंडिसंधाय- प्रतिसन्धाय-सह गन्तभावेनानुकल्यं
५१८ प्रतिपद्य वा। सूत्र. ३२१
पडिसुय- प्रतिश्रुतं-प्रतिशब्दः। प्रश्न० २० प्रतिश्रुतंपडिसलीण- प्रतिसंलीनः-वस्तु प्रति सम्यग्लीनो
प्रतिज्ञानम्। स्था० ४७४। प्रतिश्रुतं-प्रतिशब्दः। राज० २५ निरोधवान-प्रतिसंलीनः, क्रोधं प्रति
प्रतिश्रुतः-प्रतिशब्दः। भग० ४८३ उदयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन च च
पडिसुया- प्रतिश्रुता प्रतिशब्दका। ज्ञाता० १०१। प्रतिसंलीनः। स्था० २०७४
पडिसूयग-प्रतिसूचकःपडिसलीणपडिमा- प्रतिसंलीनप्रतिमास
नगरद्वारसमीपेऽल्पव्यापारोऽवतिष्ठति। व्यव० १७० संलीनताऽभिग्रहः। औप० ३२
। पडिसंलीणया- षष्ठं बाह्य तपः। भग. ९२१५
पडिसूर- प्रतिसूर्यः-द्वितीयसूर्यः। भग० १९५। प्रतिसूर्यःपडिल्लीणा- आश्रयस्थिता। दशवै० ५२
उत्पातादिसूचको द्वितीयः सूर्यः। जीवा० २८३। पडिसंविक्खे- प्रतिसमीक्षतेऽदीनमनाः
प्रतिसूर्यः- उत्पातादिसूचको द्वितीयः सूर्यः। अनुयो. अलाभमाश्रित्यालो-चयति। उत्त. ११८ पडिसंवेदेइ- प्रतिसंवेदयति-अनुभवति। आचा० २४१ पडिसेगा- प्रतिसेकाः नखाः। जम्बू०८१] पडिसंसाहणय-अन्व्रजनम्। भग०६३७।
पडिसेवणा- प्रतिसेवना। ओघ. २२५१
१२११
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[174]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
।
सम्माराहणविवरिया पडिगया वा सेवणा। उत्त० २५६। | पडिह- प्रतिघातः-प्रतिहननम्। स्था० ३०३। प्रतिषेवणा-प्राणातिपा-ताया सेवनम्। स्था० ४८५१ पडिहए- प्रतिहतं-निराकृतम्। भग० ३६) प्रतिषेवणा-अकल्प्यसमाच-रणमितिभावः। व्यव० ११ पडिहणिओ- प्रतिहतः। आव० ५२।
पडिहता- प्रतिहता। सूर्य.९५४ पडिसेवणाकसिण- प्रतिसेवनकृत्स्नं-ततः परस्यान्यस्य पडिहत्थं- उद्धमायं-अधिकं-आपूर्णश्च। नन्दी०४६। अतिप्रतिसेवना स्थानस्यासम्भवात्, स च यत्कृत्स्नम्। प्रभूतः-देशीशब्दोऽयम्। जम्बू० २९२। परिपूर्णः। जम्बू. व्यव० ११८ आ।
५७। प्रतिहस्तः-अतिरेकतः अतिप्रभूतः। जीवा० १९८५ पडिसेवणाकुसीलो- प्रतिसेवनाकुशीलः
प्रतिहस्तः-प्रतिपूर्णः। जीवा० ३५० सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना तया पडिहयं-प्रतिहतं-क्षपितम्। भग० ३६। प्रतिहतं-सम्यक्त्वकुशीलः। उत्त० २५६।
प्राप्त्या ह्रस्वीकृतम्। औप०८५ प्रतिहतं-मिथ्यादष्कृतपडिसेवणाणलोमा- प्रतिसेवनानुलोम्येन-यथैव
दानप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना नाशितम्। प्रज्ञा० २६८१ प्रतिसेविता-स्तेनैवानक्रमेण कदाचिच्चिन्तयति। ओघ० प्रतिहतं इदानीमकरणतया। आव०७६२ प्रतिहतं१७५
अतीतकालस-म्बन्धिनिन्दातः। भग० २९५ प्रतिहतःपडिसेवना- प्रतिसेवनाप्युपचारात् प्रायश्चित्तम्। व्यव० स्खलितः। प्रज्ञा० १०८1 १४ ॥
पडिहाति- प्रतिभाति। आव. ९७। पडिसेववियउणा- प्रतिसेवविकटना। ओघ. १७६। पडिहायइ- प्रतिभासते। आव० ५१२। पडिसेविग- प्रतिसेवको नाम यो भिक्षुर्निष्कारणे पडिहार-प्रतिहारः प्रत्यार्पणम्। औ०१०० कारणाभावे-ऽपि पञ्चकादीनि प्रायश्चित्तस्थानानि पडिहारयग- प्रातिहार्यकं-भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६९। प्रतिसेवते। व्यव. २५२ आ।
पडिहारितं- कथितं। निशी. २१० आ। पडिसेविय- प्रतिसेवितः। आव. ५२। संयमप्रतिकूलार्थस्य | पडिहारिय-प्रतिहारितः-ज्ञापितः। बृह. २१४ आ। सञ्जवलनकषायोदयात्सेवकः प्रतिसेवकः
पडीणवाय- अपाचीनवातः योऽपाचीनदिशः समागच्छति संयमविराधकः। भग०८९४१
वातः सः। जीवा. २९ पडिसेह-प्रतिषेधः-निराकरणम्। अचिकित्स्थोऽयमित्य- | पडीतंतो- प्रतितन्त्रसिद्धान्तः-यः खल्वथ भिधानरूपः। उत्त. ३०४।
स्वतन्त्रसिद्धान्तो न परतन्त्रेष स प्रतितन्त्रसिद्धान्तः। पडिसेहति-विनिवर्तयति-निराकर्वती। ज्ञाता०१४९। बृह. ३१ आ। पडिसोतचारी- प्रतिश्रोतश्चारी-दूरादारभ्य
पडु- पटुः दक्षपुरुषः। सूर्य० २६७। पटुः-स्पष्टध्वनिः। प्रतिश्रयाभिमुख-चारीत्यर्थः। स्था० ३४२
प्रश्न. ४८। पटू-स्वविषयग्रहणदक्षम्। भग० ४६९। पडिसोय- स्रोतं स्रोतं पतीति-प्रतिश्रोत-प्रतिप्रवाहम्। भग० | पडुक्खेव- प्रत्युत्क्षेप२३३
मुरजकांसिकादिगीतोपकारकातोयानां-ध्वनिः पडिसोयगमण- प्रतिश्रोतोगमनं-प्रवाहसन्मुखगमनम्।
नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा। अनयो० १३२ उत्त० ३२७
पडुच्च- प्रतीत्य-आश्रित्य। जीवा० ५६] पडिस्सय- प्रतिश्रयः। आव. ९२२ प्रतिश्रयः-उपाश्रयः। पड़च्चमक्खिय-निर्वृतिप्रत्याख्याने आगारः। आव० ८५४ ओघ० १३८१
पडुच्चसच्च- प्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यपडिस्सयवाल-प्रतिश्रयपालः। आव०२९१
सत्यम्। स्था० ४९० प्रतीत्यसत्यं-यथा अनामिकाया पडिस्सुई- प्रतिश्रुतिः द्वितीयकुलकरः। जम्बू० १३२। दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति। दशवै० २०८ दशधा सत्यौ षष्ठः। पडिस्सुय- प्रतिश्रुतं-गुरौ वाचनादिकं
स्था० ४८९ यच्छत्येवमेतदित्यभ्यु-पगमः। उत्त० ५३५।
पडुच्चसच्चा- प्रतीत्यसत्या। पर्याप्तिकसत्यभाषायाः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[175]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
षष्ठो भेदः । प्रज्ञा० २५६ | पडुप्पण्ण- प्रत्युत्पन्नो-वार्तमानिकः अभूतपूर्वं इत्यर्थः, दोष गुणेत्तरः । स्था० ४९२ प्रत्युत्पन्नः वार्तमानिकः । प्रज्ञा० १०१ । प्रत्युत्पन्नः गुणितः । सूर्य ३८ प्रत्युत्पन्नः - गुणितः । अनुयो० २०७। प्रत्युत्पन्ने सर्वथा वस्त्वभ्युपगते विशेषो यो
दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः स दोषसामान्यापेक्षया विशेषः, दशषु विशेषेषु षष्ठः । स्था०
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
४९४ |
पडुप्पण्णा प्रत्युत्पन्ना। आव ०६६।
पडुप्पन्न- लब्धः। ओघ० १७३ | प्रत्युत्पन्नः- तत्कालमुत्पदद्यमानः । जीवा. १४१। प्रत्युत्पन्नं लब्धम् । दशकै १२ सरूवं जणपयादीहिं उववेय। दशवै० १२५ | पडुप्पन्ननंदी- प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्रशिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा जातः शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, नन्दनं नन्दिः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स स्था० २१८८
पडुप्पन्नविणास- प्रत्युत्पन्नविनाशं उदाहरणस्य चतुर्थी भेटः दशचै० 391
पडुप्पन्नविणासि प्रत्युत्पन्नस्य तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति तत् प्रत्युत्पन्नविनाशि |
स्था० २५७/
पडुप्पन्ना प्रत्युपन्नाः वर्त्तमानकालभाविनः । आचा०
१७८ |
पडुप्पारमाण प्रत्युत्पद्यमान् गुण्यमानः जीवा. १७६| पडेसुअ प्रतिद्युतः प्रतिशब्दः ॥ जम्बू• ३९६ ॥ पडोआर प्रतीकारः । आव० ३४७| निशी० ३५६| पडोयार परिकरणम् ओघ १३२ प्रत्यवतारः प्रादुर्भावः । जम्बु० ६९। प्रति सर्वतः सामस्त्येन अवतीर्यते व्याप्यते येन सः प्रत्यवतारः । प्रज्ञा० ५३२ | प्रत्यावतारः- उपकरणम्। पिण्ड० १३
पडोलकंद गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२१ पड्डए - ह्रस्वमहिषी । उत्त० ३०३ |
पड्डच्छिखीर- पड्डच्छिक्षीरं- पारिहिट्टिक्षीरम् | ओघ० ४८ । पड्डय महिषीवत्सः । आव० ७१९ |
पइडिया- पडिका ह्रस्वगोस्त्री, ह्रस्वमहिषी वा । विपा०
४८ ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पढम- प्रथमः-प्रधानः। जम्बू० २०४ | आद्यं प्रधानं वा । आचा० ६ । प्रथमः- प्रधानः । जम्बू० २५१ ।
पढम अचरमसमय- प्रथमाचरमसमयः । भग० ९६९ | पढम अपढमसमय- प्रथमाप्रथमसमयः । भग० ९६९ |
पढमग- प्रथमकः-मूलभूतः । जीवा० २२८ प्रथमकःमूलभूतः । जीवा० २९४ |
पढमचरमसमय- प्रथमचरमसमयः । भग० ९६९ |
पढमद्धा- पढमपौरुष्यां यदर्द्धम् । ओघ० १४८ |
पढमपढमसमय- प्रथमप्रथमसमयः । भग० ९६९ |
पढमपत्तं- प्रथमपत्रं-या बीजस्य समुच्छ्रनावस्था । प्रज्ञा ३८
पदमपाउस आसाटो, खण्डं उत्तूणं जेण पढमो पाउसो वणिज्जंति ते। निशी० ३३४ आ जाता० ६५
प्रथमप्रावृट्। आव २६२२ प्रथमवर्षा ओघ. १६० इह आषाढ श्रावणाँ प्रावृट्, आषाढस्तु प्रथमप्रावृट, ऋतुनां वा प्रथमेति प्रथमप्रावृट् । स्था० ३०९१ पढमपुच्छा - कोसि तुमं को व ते णिव्वेदो जेणं पव्व एवं पुच्छिते पढमपुच्छा। निशी. ३० आ पढमबिइय- प्रथमपरिषहेण बाध्यमानः क्षुधित इत्यर्थः । द्वितीयपरिषहेण तृषा बाध्यमानः पिपासया
पीड्यमानः | ओघ० १०३ |
पढमवओ- प्रथमवयः । आव० १३७ | पढमसत्तराइंदिया- भिक्षुप्रतिमाविशेषः । ज्ञाता० ७२ ॥ पढमसमयणियंठा- योऽन्तर्मुहूर्त्तनिर्ग्रन्थकालसमयराशौ प्रथम-समयं प्रतिपद्यमानः सः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । उत्त० २५७| पढमसमयतिरिक्खजोणिय प्रथमसमयतिर्यग्योनिक:नरकादिशेषगतित्रयादागतः प्रथमसमयेन वर्त्तमानः । जीवा० ४६३ | पढमसमुद्दिस्सग प्रथमसमुदिष्टः ग्लानादिः ओघ०
१८५ |
पढमसमोसरण- प्रथमं-आद्यं बहूण समवातोसमस्सरणं । निशी० ३३६ आ प्रथमसमवसरणंप्रथमवर्षा कालसमयः । व्यव० १६१ आ । पढमा प्रथमा- प्रथमालिका ओघ० ४१| प्रथमालिका | ओघ० १८४ प्रथमिका मूलभूता जम्बू. ३२४म पढमाओसप्पिणी- अवसर्पिण्या: प्रथमो विभाग:- प्रथमा
[176]
*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
९०
वसर्पिणी। जम्बू० ४८५
पंचवण्णो संकुरो अणंकुरो वा। निशी० ३ अ। आयरिय पढमालिय- प्रथमालियं मात्रकम्। ओघ० १०३। निशी० उवज्झाउ पवत्ती थेरो गणावच्छेतितो य एते पंच अहवा १५५ ।
आयरिय उवज्झाउ थेरो खुड्डो सोहा एते पंच। निशी. पढमालिया- प्रथमालिका-नमस्कारसहित
१७३ आ। उल्ली। निशी० १२१ अ। निशी० २५५आ। भोजनकालमानम्। आव० २६३। प्रथमालिका। उत्त. पनकः काष्टादावुल्लिविशेषः। पञ्चवर्णः। आचा० ३०
पनकः-प्रबलः कर्दमविशेषः। भग० ३०७। पनकःपढमावलियाए- प्रथमा-उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया
भूम्यादावुल्लिविशेषः। आचा० २८५। पनकः-उल्ली। आद्याश्चतस्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकः, स्था० ४३० अथवा प्रथमात्-मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य पणगजीव- पनकजीवः-वनस्पतिविशेषः। पनकः-उल्ली। याऽसावावलिकाविमानान्पूर्वी। सम०७७)
स्था० ४३० पढमा सत्तराइंदिणा- प्रथमा सप्तरात्रिकी। आव०६४७ पणगजीव- पनकजीवः-वनस्पतिविशेषः। आव. २९। सप्तरात्रिन्दियानि यासु ताः सप्तरात्रिन्दिवास्ताश्च पणगदगमट्टीमकडासंताणए-सप्तदशं सबलम्। सम० तिस्र भवन्तीति सप्तानाम्पर्यष्टमी
३९। प्रथमासप्तरात्रिन्दिवा। सम० २२॥
पणगमट्टिया- पनकः-अत्यन्तसूक्ष्मरजोरूपः स एव पढमिल्लुग- प्रथममेव प्रथमिल्लुकं
मृत्तिका पनकमृत्तिका। उत्त०६८९। पवनमृत्तिकाप्रथममनापतसंलोकलक्षणं स्थंडिलं तत्। बृह. ७२ अ० मरुषु पर्पटिका। उत्त० ३८९। प्रथमकं-आविचिमरणम्। उत्त० २४०। जहण्णं। निशी. पणगमत्तिया- नद्यादिपुरप्लाविते देशे ६आ।
नद्यादिपूरेऽपणते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो पढमिल्लुय- प्रथमः। संस्ता० ।
जलमलोऽपरपर्यायपङ्कः स पनकमृत्तिका। जीवा० २३। पढमिल्लुया- प्रथमिल्लुका-प्रथमा एव। आव०७७ पणद्वसंधिय- प्रनष्टसन्धिकं-अनंतजीवम्। आचा०५९। पढमेवए- प्रथमे वयसि आदयौवने। उत्त०४७५)
पणत- प्रणतो-जात्यादिभावैहीनो निम्बादिः। स्था० १८२ पढमोग्गहो- अनुज्ञास्यदाचार्यभोगज्ञापनपूर्वमवग्रहग्रहः। | नन्दी०३। बृह० ८६|
पणतित-पणयितः। उत्त. २१९। प्रणयितः-याचितः। पण- पणः-द्रम्भः। आव०४२१|
व्यव० २९३ । पणइ- प्रणतिः। आव० ४०७
पणपण्णग-पञ्चकपर्दादयः पण्यं यस्या पणइओ- याचितः। निशी० १५६अ।
एकबारप्रतिसेवने सा पञ्चपण्यिका। व्यव० २५० अ। पणउ-उल्ली। दशवै. ८० उल्ली। निशी. १८२२ पणमिय- प्रनमितम्। भग० ३७। मद्धाणं सिरं तेण पणामपणए- पनकं-अनन्तकायवनस्पतिभेदः। आचा० ५९। करणं। निशी० २३७ आ। पनकः-वनस्पतिविशेषः। पिण्ड० १२। साधारणबादर- पणय- प्रणयः-स्नेहः। भग० ३०९। पनकः-प्रतलः कर्दमः। वनस्पतिकायिकः। प्रज्ञा० ३४| जलरूहविशेषः। प्रज्ञा० जम्बू. १६९। पनकः-प्रतलः सूक्ष्मः कर्दमः। प्रश्न०६५ ३३॥
पनकः-फुल्लि। ओघ० १३१। पनकंपणएमि-याचे। निशी० १०१ अ। प्रणयामि-प्रार्थ-यामि। साधारणवनस्पतिवि-शेषः। प्रज्ञा०४० बृह० २०४ आ।
पणयए- प्रणयते प्रासादयति। व्यव० १९८ आ। पणओ- उल्ली। निशी. १८२आ।
पणयमत्तिया- नद्यादिपूरप्लायिते देशे पणग- पनकः-फुल्लि। आव० ५७३। पनकं-उल्लि। दशवै. नद्यादिपूरेऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो १७५ पनकः-उल्लिवनस्पतिः। दशवै.२२९। पनकः- जलमलापरपर्यायः पङ्कः स पनकमृत्तिका। तदात्मका उल्लीरः। ओघ० १३७। पनकः-उल्लिजीवः। उत्त० ६९२ | जीवा अप्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः। प्रज्ञा० २६।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[177]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
पणया- प्रणता-महताफलभारेण दूरं नता। जीवा० १८२ | पणयामि प्रणयामि याचे पिण्ड० १३६ पणयानं पञ्चचत्वारिंशत् आव० ६३४१ पणयासणं प्रणतासनम् - निम्नासनम्। जीवा० २००१ पणव- भाण्डपडहः। औप० ७३ | पणवः- भाण्डपटहः, लघुपटहो वा भग. २१६ | पणवः भाण्डपटहो लघुपटहो वा जम्बू. १०१। गुंजा निशी. ६२ आ पणवोभाण्डपटहो लघुपटहो वा । राज० ४९। पणवो भाण्डानां वाद्यम् । राज० २५| भाण्डपटहः । भग० ४७६। पणवःभाण्डानां पटहः । जीवा० १०५॥ भाण्डानां पणवः । जीवा. २४५| पणवः भाण्डपटहो लघुपटहो वा । जीवा० ३६६ । पणवः-लघुपटहः। प्रश्र्न० १५९ | पणवन्निय- प्रणपन्निकःव्यन्तरनिकायानामुपरिवर्त्तिनो व्यन्तरजातिविशेषः । प्रश्न० ६९। वाणमन्तरविशेषः । प्रज्ञा० ९५| पणवसंठिय- प्रणवसंस्थितः रत्नप्रभापृथ्व्यां आवलिकाबाह्यस्य सप्तदर्श संस्थानम् जीवा० १०४
पणाम- दृष्टिवादे सूत्रे भेदः । सम० १२८ । पणामई- प्रणामयेत्-अर्पयेत्। उत्त० ४६२। पणामय- प्रणामकः-शब्दादिविशेषः । सूत्र० ६८ पणामिओ- दत्तः । दशकै ३८१
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पणामिज्जासि दद्याः । आव० ३०१ |
पामे- दातव्यम् । ओघ० १८५ । अर्पयति । आव० ६८७ ।
पणामे अप्पयितुम् । बृह. २०३ आ
पणाय विक्रयाय । नन्दी० ६२ |
पणायितुं विक्रेतुम् । नन्दी. ६२
पणालछड्ड- मंडविगाच्छादितमाले वा वासोदगं पविनं डायाले वा पणालखिड्ड निशी १२० आ पणालि प्रकृष्टा नाली शरीरप्रमाणा दीर्घतरा यष्टिः ।
प्रश्न० ५८ ।
पणिअड- प्रणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थ:
प्राणघृतप्रयोजनः । दशकै २१९
पणिग- पण्यः । आव० ८२९ |
पणित- सत्यङ्कारः । नन्दी० १४९१
पणितसाला - भाण्डशाला- यत्र घटकरकादिभाण्डजातं तं सगोपितमास्ते बृह. १७५ आ
पणिधाय प्रणिधाय मर्यादीकृत्यम् । सूर्य० १४
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पणिधिए- प्रणिधिना मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय गलकर्त्तकाः सम• ५२२
पणिय- पणितः व्यवहारः ज्ञाता० १५१ विक्रयम्। बृह २०० अ पणितं क्रयाणकम्। जम्बू. १२२१ व्यवहारः, क्रयाणकम् । भग० ६७१ । पणितं भाण्डम् । ज्ञाता० ३ पण्यः-भाण्डः। ज्ञाता० १५७ । पणितं भाण्डम् । औप० ४ | पणितम् । नन्दी० १४९
पणियगं पणः । आव० ४१७ |
पणियगिहं- जत्थ भंड अच्छति । निशी० ६९ आ । पण्यगुहं पण्पौपणः। आचा॰ ३६६ । पणितगृहं भाण्डनि-क्षेपार्थ गृहम् । औप० ४१| पण्यगृहं हट्ट इति । औप० ६१ | पणियसाला जत्थ भायणाणि विक्केति वाणिय कुंभकारो वा | निशी० २१ आ । कुम्भकाराणां वणिजां वा भाजनविक्रयस्थानम् । बृह० १७५ अ पणितशाला हट्टः ।
ज्ञाता० ७९| पण्यशालाः घङ्घशाला । आचा० ३६६ | पण्यशाला-आपणः। आचा० ३०७ । पणितशाला-ब -बहुग्राहकदायकजनोचितो गेहविशेषः औप० ४PI पणिवयामि प्रणौमि अभ्यर्थयामि, अभ्यर्चयामि वा ।
आव० ३८६ |
पणिवयामो प्रणमामः पूजयामः आव. ५३० पणिसुणणा- प्रणिश्रवणं- अभ्युपगमः । पिण्ड० ४६ पणिहा- प्रणिधानं प्रणिधा जीवा• ३२६ । प्रणिधा प्रभावः । जीवा० ३२६|
पणिहाए- प्रणिधाय- अवधीकृत्य सूर्य० ३१॥ प्रणिधायअपेक्ष्य । प्रज्ञा० ३५६ |
पणिहाण- प्रणिधानं अन्तःकरणवृत्तिः । सूत्र- ३०९ | प्रणिधिना-एकाग्रचित्तप्रधानेन यद्वचनं प्रणिधानंगूढपुरू-षाणां यद्वचनम्। प्रश्न० ५८। प्रणिधानंअकुर्वतोsपि करणं प्रति दृढाध्यवसानम् आव० ५८८। प्रणिधानं दृढाध्यवसानलक्षणम् । आव. १८८ प्रणिधानं चेतः स्वास्थ्यम् । दश० १०६ । प्रणिधानंएकाग्रता । स्था० १२१ । प्रणिधिः प्रणिधानं प्रयोगः । स्था० १९६| प्रणिधानं चितैकाय्यम | भग० ९३ । प्रणिधानंप्रयोगः । उपा० १०। प्रणिधानं चेतः स्वास्थ्यम्। व्यव
१९ अ
पणिहाणजोगजुत्तो- प्रणिधानं चेतः स्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः
[178]
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
प्रणिधानयोगयुक्तः। दशवै० १०६)
पणीयभूमी- प्रणीतभूमिः-व्यवहारभूमिः। हट्टमध्य इति। पणिहाणवं- प्रणिधानवान-चित्तस्वास्थ्योपेतो न त् | उत्त०१३३ रागद्वेषव-शगः। उत्त० ४२९।
| पणीयरस- प्रणीतरसं-गलघृतदुग्धादिबिन्दुः। औप०४०। पणिहाय- प्रणिधाय-आश्रित्य। जीवा० १०१। प्रतिधाय- पणीयरसभोई- प्रणीतरसभोजी-गलत्स्नेहरसबिन्दुकस्य संयम्य। दशवै० २३५ प्रणिधाय-आश्रित्य निरुद्धहृषिकः।। भोजनस्य भोजकः। सम० १६| जीवा. २८४। प्रणिधाय-अपेक्ष्य। जीवा० ३२६। प्रणि- पणीयरसविवज्जए-| भग९२१५ धाय-अपेक्ष्य ज्ञाता०१७०
पणीया-नीता। आव०७०० पणिहि- प्रणिधिः-माया न कार्या। प्रश्न. १४६।
पणल्लयामो- प्रणुदामः-प्रेरयामः। उत्त. ३७१। पणिहितेंदिय- प्रणिहितेन्द्रियः। प्रश्न. १६०
पणुल्लिज्जा- प्रेरयेत्-उद्घाटयेत्। दशवै० १६७। पणिहिय- प्रणिहितः-संवृतः। प्रश्न० १६०
पणुल्लिया- प्रेरिता। आव० ३४५ पणिहियप्पा- समाधिमदात्मा। मरण ।
पणोल्लिणगती- प्रणोदनगतिः। स्था०४३४। पणिही- प्रणिधिः-प्रणिधानं विशिष्टैकाग्रत्वम्। प्रश्न. पणोल्लि- प्रणोदी-प्राजनकदण्डः। प्रश्न. ५८१ १४७ प्रणिधिः-निधानादिप्रणिहितम्।दशवै० २२५ प्रणोदिजन्म-प्रवर्तकम्। प्रश्न०६१। प्रणिधिः-माया न कार्या। योगसंग्रहेऽष्टादशो योगः। पणोल्लिया- प्रणोदिता। उत्त० १५०| आव० ६६४। प्रणिधिः-व्यवस्थापनम्। उत्त० ४९९। पण्डक- मेरुसम्बन्धी चतुर्थं वनम्। प्रश्न. १३५। अण्णहाकयं| आव०६६१|
पण्डितः- हेयोपादेयतत्त्वज्ञः। आचा० ११८संसारविमुखपणी- पणीतं पण्यमिति वा क्रयविक्रयोपजीवी। जीवा० प्रज्ञतया कोविदः। पिण्ड०७२। २७९।
पण्डुरा-- मायाशल्ये दृष्टान्तः। आव०५७९ पणीअ- पणितं-पण्यम्। दशवै. २२१। प्रणीतं-स्निग्धम्। पण्णगइंद- पन्नगेन्द्रः- भुजगवरो नाम कुमारः। प्रश्न दशवै०१८९
१३५ पणीतं-घृतम्। निशी० १५५ अ।
पण्णगारं- प्राभृतम्। निशी० ३४५ अ। पणीतरसं-नेहविगतीओ। दशवै० ८९।
पण्णत्तं- योग्यीकृता। औप. उपादेयतया प्रकाशितम्। पणीय- प्रणीतं-गलदबिन्दुः। उत्त०४२६। प्रणीतं-अर्थकथ- | औप० ५। प्राज्ञैः-गणधरैस्तीर्थकरादात्तं-गृहीतमिति नद्वारेण प्ररूपितम्। नन्दी. १९३। प्रणीतं-स्निग्धम्। प्रज्ञातम्। अनुयो० २ प्रगणितः। निशी० ९९ आ।
ओघ०६८। प्रणीतं-स्निग्धमधुरम्। बृह. २३५अ। प्रगणः। निशी० ३३० अ। प्रज्ञाप्तं-प्रज्ञया-विशिष्टकप्रणीतं-गू-ढस्नेहं घृतपूराद्यखाद्य
र्मविषयबुद्धया आप्तं प्राप्तं अतीव मक्षितमण्डकादिस्नेहावगाढकुसणादि वा। बृह. २०६ । सुष्ठ्परिकर्मितमिति। सूर्य. २९३। भग० ५४० आ। निट्ठा पसलं वण्णादि उवचेयं। दशवै० १२७। प्रणीतं- | पण्णत्ता- प्राज्ञैः-छकैराप्ताप्रज्ञाप्ता-छेकपुरुषपरिकर्मिता। पक्वं, आनीतम्। आव०७४१। प्रणीतं-गलत्स्नेहं
राज०२ भोजनम्। पिण्ड० १७४। प्रणीतं-शुभतया प्रकृष्टम्। भग० । | पण्णत्ती- प्रज्ञप्तिः-विद्याविशेषः। आव० ९४। २२३॥ प्रणीतः-गलत्स्नेहबिन्दुः। प्रश्न. १४१। पण्णत्ती- कुशलाः। तन्दु। पणीयगहण-स्नेहवद्रव्यग्रहम्। ओघ० ६८५
पण्णपण्णिका- पञ्चपण्यिका कुलटा। व्यव० २५० पणीयतर- प्रणीततरः-युक्तियुक्तिः । सूत्र० ४१३। पण्णप्पइ- रुहति। निशी. १८९ आ। पणीयनिद्धभोयणविवज्जण- प्रणीतो-गलत्स्नेहबिन्दुः पण्णवग- प्रज्ञापकः-मेयद्रव्याणामियत्तानिर्णायकः। स्निग्धभोजनं तस्य वर्जनं
जम्बू० २२७ प्रणणीतस्निग्धभोजनवर्जनम्। पञ्चमं भावनावस्तु। पण्णवणा- प्रज्ञापना-सामान्येन भङ्गकथनम्। ब्रह. प्रश्न. १४१
२१७। आ। जीवादिपदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना। नन्दी.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[179]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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________________
[Type text]
२०४९ प्रज्ञापना- प्रकर्षेणनिः शेषकुतीर्थितीर्थंकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्तेशिष्यबुद्ध्या-यामारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्थों अनयेति प्रज्ञापना। प्रज्ञा १ स्वरूपनिरूपणम् । उत्तः ४६७ | प्रज्ञापना- प्ररूपणा ओघ० ७६ । पण्णवणि- प्रज्ञापनी- विनेयस्योपदेशदानरूपा । भग० ५०० | पण्णवणिज्जा- जे पण्णवेडं सक्केंति छउमत्थो वा बुद्धी घेत्तु सक्केति । निशी० १४० अ
पण्णवणी- प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी
अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति वा प्रज्ञा० २४९। प्रज्ञापनीविनीतविनयस्य विनेयजनस्योपदेशदानं यथा प्राणिवधान्निवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुषइत्यादिरूपा भाषा प्रज्ञा० २५६ | पण्णविंति - प्रकर्षेण संशीत्यपनोदायान्तेवासिनो जीवाजीवा श्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपदार्थान् ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति । आचा० १७९ | पण्णवेंति- उपपत्तिभिः प्रज्ञापयन्ति । भग० ९८ पण्णवेइ- व्यक्तपर्यायवचनतः प्रज्ञापयति। जम्बू० १४०१ पण्णा प्रज्ञा-प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तु गतयथावस्थितधर्मालोचनरूपाः मतिः । आव० १८० प्रज्ञा- हेयोपादेयविवेचिका बुद्धिः । उत्तः २७८ प्रज्ञा० प्रक्रमान्म- तिश्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका । उत्त० ४९१। प्रज्ञा-बुद्धिः । नन्दी० ६५| प्रज्ञा स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मति - ज्ञानविशेषभूत इति । परिषहविशेषः । सम० ४१| प्रज्ञाअशेषविशेषविषयज्ञानम् । भग० ५९ । प्रज्ञामतिज्ञानविशेषः । भग० ३९०१ प्रजाहेयोपादेयविवेचनात्मिका मतिः। उत्त• ३२५| प्रज्ञास्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः । उत्त० ८३| पण्णाण- प्रज्ञानं-यथावस्थितविषयग्राहिज्ञानम्। आचा०
७९ | प्रज्ञानं - सदसद्विवेको यस्य स । आचा० १८१ । पणी- पणिमया महंता भारगा वज्झति । निशी० ४५| पण्याजीवा वणिक्। जम्बू. १२२
पण्हय- अनार्यविशेषः । भग० १२७ ।
पण्यति पिबति । निर० ३०|
पण्य- पन्हव:- चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः प्रश्नः
१४ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
पण्हवणं येन परः प्रस्तुतिं भजते प्रल्हतौ भवतीति प्रस्नवनम्। विपा० ५४ |
पण्हवी गयत्थरणी निशी० ६१ अ पहवेंति प्रश्नुवन्ति । व्यव० १९३ आ
पहा प्रश्नाः अङ्गुष्ठबाहुप्रश्रनादिका मन्त्रविद्या। सम० १२४ प्रश्ना- अङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्या- शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाः । सम १२४ प्रश्नः पृच्छकस्य शुभाशुभकथनम् । नन्दी० २३४ पृच्छयत इति प्रश्नं प्रष्टव्यार्यरूपम्। उत्तः २४१| प्रश्नः देवतादिपृच्छा-रूपः । बृह० २१५ अ पाहि पार्ष्णिः । आव० प
पहिया पार्ष्णिका आक• ५७४१
[Type text )
पण्डुता प्रस्नवास्तन्या । अन्त० ७ पणहुत्त सबाष्पः। निशी. १४५ अ पहुया प्रस्नुता उत्तः २७म पतंग पतकः व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनो व्यन्तरविशेषः । प्रश्न. ९५५ पतंगविहिता पतङ्गः शलभस्तस्य वीथिका मार्गः तवया सा, अनियतक्रमा चतुर्थ गोचरचर्या स्था
३६५|
पतंगवीथिका- यस्यां तु त्रिचतुरादीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यटति सा पतङ्गवीथिका पतङ्गःशलभः स हि गच्छन्नुत्प्लुत्यानियतगत्या गच्छति तस्येव या वीथिकापर्यटन मार्गः । सा । बृह० २५७ अ पतए - प्रथमपतेन्द्रः । स्था० ८५|
पतङ्गः तृणपत्रनिश्रितो जीवविशेषः आचा० ५५ सम्पातिं जीवविशेषः आचा० १५१ कचवरनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५। उद्भेदजः । दशवै० १४१ । पतच्छज्जं पत्रच्छदयं अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षितस-ङ्ख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवम् । जम्बू०
-
१३९|
पतट- प्रस्तटः प्रस्तारः । जीवा० ३६० |
पतणतणाइस्सई- प्रकर्षेण स्तनितं करिष्यतिगर्जिष्यति । जम्बू. १७४१
पतणतणापति प्रकर्षेण तणतणायते गर्जतीत्त्यर्थः ।
[180]
भग० ६६५|
पतणतणायति- अत्यन्तं गर्जति। जम्बू॰ ३८९।
* आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पतणुरागसंजुत्त- प्रतनुरागसंयुक्तः। आव०६६।
ओघ० १६८। ज्ञाता०६५, १८५। पत्रं-पक्षसञ्चयम्। उत्त० पतत-प्रततः-स्वप्नसन्तानः| निशी० ८६अ।
२६९। पतनता- भ्रमिमूर्छादिना। आचा० २५५।
पत्तइय- पत्रकितः-सञ्जातत्सिकाऽल्पपत्रः। ज्ञाता० पतयवई-द्वितीयपतेन्द्रः। स्था०८५)
११६ पतरगणियभावणा- प्रतरभावना। जीवा० ३२५१
पत्तउर- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२॥ पतवति- प्रतपति। जीवा० २४८। दीप्ताङ्गारतां
पत्तकयवर- पत्रकचवरः। जीवा० २८२ प्रतिपद्यते। जम्बू० ४१९।।
पत्तग- पत्रकं-लेखः। बृह. ३३ आ। पतिवया- पति-भर्तारं व्रतयति-तमेवाभिगच्छामीत्येवं पत्तच्छज्ज-अष्टषष्टिकलारुपानम्। ज्ञाता० ३८1 नियमं करोतीति पतिव्रता। ज्ञाता० २०२
पत्तज्झोडण-पत्रज्झोडनंपतिद्वा-प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा-संसारभ्रमणविरतिलक्षणा, तरुप्रान्तपल्लवफलादिपातनम्। प्रश्न० २५४
सम्य-ग्दर्शनादयवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः। सूत्र. २०३। | पत्तट्ठ- प्राप्तार्थः-अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः प्रज्ञः। पतिद्वाण- प्रतिष्ठाननगरम्। उत्त. १०० नयरविसेसो अनुयो० १७७। प्राप्तार्थः-लब्धोपदेशः। औप०६५। निशी० ३४० अ। नगरनाम। बृह. २३६ अ। गोदावर्याः पत्तणाल- पत्रनालम्। आव० ६२४। नदीतटे नगरम्। व्यव० १९३ अ।
पत्तणिज्जासो- पत्रनिर्यासः-धातकीपत्ररसः। जीवा. २६५ पतिद्वावक- प्रतिस्थापकः-राजादिसमक्षं स्वपदनिवेशनः। पत्तन-यत्-शकटै?टकैनौभिर्वा गम्यम्। जीवा०४० यत् ज्ञाता० २४०
पुनर्शकटै_टकनौभिर्वा गम्यं तत् पत्तनं, यथा पतिहिओ- प्रतिबद्धः। बृह. २५२।
भृगुकच्छम्। प्रज्ञा०४८ शकटै?टकैनौभिर्गम्यं पतिठिता- प्रतिष्ठिताः-आश्रिताः। स्था० ३५८१
पत्तनम्। जीवा० २७९। पतिभयकर- प्रतिभयकर-भयजनकम्। सम० १२६| पत्तपणालं-पत्रप्रणालिका। आव० ६२१| पतिभय- प्रतिभयं-वस्त्वस्तुप्रतिभयम्। प्रश्न. १३ पत्तपुड- पत्राणि-तमालपत्रादीति। ज्ञाता० २३२१ पतिरिक्क- प्रतिरिक्तः-एकान्तः। जीवा० २६९। पत्तबेंटिया- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। त्रीन्द्रियजन्तुप्रतिरिक्तः एकान्तः। ओघ. २०३।
विशेषः। जीवा० ३० पतिव- प्रतिवः। प्रश्न०७३।
पत्तभूमिया-सार्धक्रोशद्वयादागताः। बृह. १८६ आ। पतोग- प्रयोगः-वादविषयः। स्था० ४२३।
पत्तय- पात्रकम्। औप. १९९। पत्रकं-तलताल्यादिपतोदयं-पतदुदयं-पतितपताकम्। भग० १८७)
सम्बन्धि। अनुयो० ३४। पतोस- पद्वेषः। व्यव० ३५७ आ।
पत्तरक- प्रतरकम्। प्रश्न. १५९। पत्त-पत्रं-तमालपत्रम्। प्रश्न. १६२ पात्रम्। आव० ११५ पत्तल-पक्ष्मवत्। औप०४९। पत्रलं-पक्ष्मवत्। जीवा. पत्रं-पलाशपत्रकर्मारिपत्रादिकम्। अनुयो० १५४। प्राप्तं- २७३। पत्रलः-पत्रवर्ती। औप०९। लब्धिविशेषाद गृहीतम्। भग. २२४। प्राप्तं
पत्तवास- पत्रवर्षः-पर्णवर्षणम्। भग. १९९| आदानशीलः। ओघ० ९३। पात्रमिव पात्रमतिशयवद् पत्तविच्छुया- चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ ज्ञानादिगणरत्नानां प्राप्तिर्वा गणप्रकर्षमिति। स्था० चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ २१। प्राप्तम्। भग० १५९। उत्त० ३२१। सुत्तत्थ- पत्तवुट्टि- पत्रवृष्टिः । भग० १९९| तद्भयस्स गहणधारणाशक्तेत्यर्थः। निशी. ७६ आ। पत्तवेंट- पत्रवृन्तम्। जीवा० २२८१ तमालपत्रादि। जम्बू०६०। पत्र-पद्मिनी पत्रादि। दशवै. पत्तसगडिया- पत्राणां शकटिका-गन्त्री पत्रशकटिका। २२८१ पत्रं-पर्णम्। स्था० २७३। पत्रंतमालपत्रम्। भग० ज्ञाता०७४। ७१३। ज्वालाभिः पिठरं बुध्नेऽग्निः स्पृशति स प्राप्तः। | पत्तहार- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ अग्ने पञ्चमभेदः। पिण्ड. १५२। प्राप्तः-आसण्णीभूतः। | पत्तहारग- पत्रहारकः-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त०६९५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[181]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #182
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पत्ता- प्राप्ता-देवभवे उपनीता। ज्ञाता०२४८। प्राप्ता- विशेषतः निश्चित्य। उत्त ५७२। इदानीमुपनता। स्था० २४५। प्राप्ता। ज्ञाता० १३४॥ पत्तियाणि- प्रीतिकराणि। व्यव० २४१। ऊनोदरतायाश्चतुर्थो भेदः। दशवै० २७। स्था० १४९। पत्तियामि- प्रीतिं प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवं रूपं तत्र पत्ताबंध- पात्रबन्धः। आव०७२३। पात्रबन्धः। ओघ० करोमि। भग० १२१। उपपत्तिभिः प्रत्येमि प्रीतिविषयं
१९९। पत्तबंधो-पात्रधारणवस्त्रं चतुरस्रम्। बृह. २३७ वा करोमि। भग०४६७। प्रत्ययं करोमि। ज्ञाता०४७ पत्तामोडं- तरुशाखामोटितंतपत्रम्। निर०२६। तरुशाखा- प्रतिपये प्रीति-करणदवारेण। आव०७६१ मोटितपत्रम्। भग. ५१६। शाखिशाखाशिखामोटितपत्रं | पत्तियाविओ- प्रत्यायितः। दशवै. १०४। देव-तार्चनार्थमिति पत्रामोटकम्। अन्त०११|
पत्तियावित- प्रत्यायितः। आव० ९२ पत्तालग- पात्रालकम्। आव. २०११
पत्ती- पात्री। जीवा० २३४१ पात्री। जम्बू. १०१। पत्तासव- पत्रासवः-पत्रैः घातकीपरैर्निष्पाद्य आसवः पत्तुल्लग-भाजनम्। आव० ३४९। प्रज्ञा० ३६४। पत्रासवः-पत्ररससारः। जीवा० ३५१५ पत्तेअ- प्रत्येकं-पृथक् पृथक्। दशवै०१६) पत्रनिर्यास-सारः। जीवा० ३६५
पत्तेग- पत्तेगवणस्सती। निशी० ५६ आ। पत्ताहार- पत्राहारकः। निर०२५ त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० । पत्तेय- प्रत्येक-पृथक पृथक। आव०६१९। प्रत्येक४|
साधारणम्। सूर्य० २४० पत्ति- प्रीतिः-सम्ना। उत्त०६३।
पत्तेयणाम- यद्दयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं तत पत्तिए- प्रतीतिः प्रयोजनमस्येति प्रातीतिक-शपथादि। प्रत्येकनाम। प्रज्ञा० ४७४। उत्त० ६३। प्रीतः-प्रीतिविषयीकृतः प्रीतितः प्रत्ययितो पत्तेयबुद्ध- प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य प्रत्येकंवा। भग०१०११
बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धः प्रत्येकबुद्धः। पत्तिएज्जह- प्रतीयाः। ओघ २१
प्रज्ञा० १९। प्रत्येकबुद्धः-पूर्वभवाभ्यस्तोभयकरणः। आव० पत्तिएज्जा- प्रत्ययेत्-प्रतीतिविषयां कुर्यात्। प्रज्ञा० ३९९| | ५३०। प्रत्येकबुद्धः। आव० ५६८। प्रत्येकं-बाह्य पत्तिएण- प्रीत्या साम्नैव। उत्त०६३।
वृषभादिकं कार-णमभिसमीक्ष्य बुद्धः प्रत्यकबुद्धः। पत्तित-प्रीतिकः-स्वविषये उत्पादितप्रीतिर्वा। स्था० ३५६। नन्दी० १३११ प्रतीतः-उपपत्तिभिः। स्था० ३५६।
पत्तेयरसा- प्रत्येकरसः-एकमेके प्रतिभिन्नो रसो येषां ते, पत्तितस्य- उपपत्तिभिरथवा प्रीतिकस्य-स्वविषये अतुल्यरसा। स्था० २८८ उत्पादि-तप्रीतेः। स्था० ३५५
पत्तोमोअरिआ- चतुर्विशतेः कवलानां द्वात्रिंशद् पत्तिय- प्रीतिरेव प्रीतिकं स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि दवितीयार्द्धस्य मध्यभागं प्राप्त्याच्चतुर्विंशत्या कवलैः रूढेर्न-पंसकतेति, तत्करोमि प्रत्ययं वा करोमीति प्राप्तावमोदरिका, अथवा प्राप्तेव प्राप्ता परिणतः प्रीति-कमेव, प्रत्ययमेव। स्था० २३५।
द्वांत्रिशतस्त्रयाणां भागानां प्राप्तत्वाच्चत्-र्थभागस्य चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२। सजातपत्रः। ज्ञाता० चाप्राप्तत्वादिति। औप. ३८५ १२६|
पत्तोव- पत्रोपेतवृक्षः। स्था० ११३| पत्तियति- प्रत्येति-प्रीतिविषयीकरोति। स्था० १७६| पत्थंणसत्थयं- सत्थकोस्स भेओ। नि० १८ आ। प्रत्येति-प्रतिपद्यते। स्था० २४७
पत्थ- पथ्यं-पथि-मोक्षमार्गे हितं, क्षपकश्रेण्यां पत्तियमाण- प्रीयमाणः-असङ्गशक्तिप्रीत्या वश्यन्तः। पूर्वोक्तंगुण-त्रयम्। सूत्र० १९८। सामान्येन पथ्यम्। जीवा०४१
भग० ५४३। पथ्यंरोगोपशमहेतुः। भग० ६७२। पथ्यंपत्तियाइत्ता- प्रतीत्य-उक्तरूपमेव विशेषत इत्थमेवेति नीरोगहेतुः। जीवा० ३५५। पथ्यं-दुःखत्राणम्। भग० १६९। निश्चि-त्य। यदवा संवेगादिजनितफलानभवलक्षणेन प्रस्थं-चतुःकुड्य-मानम्। दशवै०१३४| पथ्यं-अमतं-मष्टं प्रत्ययेन प्रतीति-पथमवतार्य। उत्त० ५७२ प्रतीत्य- | वा। आव० ५९५। क्लवो। निशी० ५५ | पथ्यं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[182]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आन्दकारणम्। भग० ६७२। पथ्यं-आरोग्यकरम्। ज्ञाता० | पत्थारदोस- प्रस्तारदोषः-कुलगणसंघविनाशलक्षणः। बृह. १७५। प्रस्थः-कुडव-चतुष्टयप्रमाणः। अनुयो० १५१|
१७॥ चत्वारः कुडवः प्रस्थः- माणकसमानं माप्यम्। जम्बू. पत्थारपसंगो- प्रसूरणं प्रस्तारणं प्रस्तारः प्रस्तारे प्रसङग २४४। प्रस्थः-मागध-प्रस्थः- चतुसेतिकाप्रमाणः। ओघ० उत्तरोत्तरदुःखसंभवः। निशी. १९६ आ। २१५प्रस्थः । आव० ३४२ प्रस्थः । उत्त. १४६। पत्थारेज्ज-विस्तरेण विनाशं र्यात्। निशी० ३०१| पत्थए- प्रार्थयते-सेवते। दशवै० २०५। भग० ३१३
पत्थावाय- पथ्या-वनस्पत्यादिहिता वायवः। भग० २१२ पत्थग- प्रस्थकः-मागधदेशप्रसिद्धो धान्यमानविशेषः। पत्थिए- प्रार्थितः-लब्धं प्रार्थितः। भग०४६३। प्रार्थितःअनुयो० २२३॥
अभिलाषात्मकः। भग० ११५। प्रार्थितः। विपा० ३८५ पत्थड- प्रस्तटः-प्रस्तारः। जम्बू०४९। प्रस्तटः-प्रतरः।। पत्थिका- बृहत्पिहिका। ओघ० १६७। जम्बू० २९८1। प्रस्तट:-प्रस्तरः। प्रज्ञा० ९९। प्रस्तट:- पत्थिय- प्रार्थितः-प्रार्थनाविषयः-अभिलाषात्मकः। जम्बू० वेश्मभूमिकाकल्पः। जीवा. ९० प्रस्तरः-प्रतरः। जीवा. २०३। प्रार्थितः-अभिलाषात्मकः। जीवा. २४२। प्रार्थितः१७५। प्रस्तटः-रचनाविशेषवान् समूहः। स्था० १७९। अभिलषितः। ज्ञाता०४१। प्रस्थितः-प्रवृत्तः। निर० २६। प्रस्तटः-रचनाविशेषवान् समूहः। स्था.१७९प्रस्तटः- पत्थिया- प्रोषिता। गणि०| प्रतरः। सम० १३९।
पत्थियापिडयं-वंशमयभाजनविशेषः। विपा. १८५ पत्थडोदग- प्रस्तटोदकः-प्रस्तटाकारताया स्थितमुदकं पत्थेइ- प्रार्थनं-वाचा मह्यं देहीति याचनम्। उत्त० ५८७। यस्य सः। सर्वतः। समोदकः। जीवा० ३२११
पत्थेज्जा- प्रार्थयेत्-अनुमन्येत गृह्णीयादिति। सूत्र पत्थडोदय- प्रसृतोदकः समजलः। भग० २८२।
१८४ पत्थणय- प्रार्थनं-परं प्रतीष्टार्थयाञ्चा। भग० ५७३। पत्थोइ- प्रस्तोत्री-प्रस्ताविका प्रवर्तिका। प्रश्न. ४२। पत्थणिज्जे- प्रार्थनीयः-बाधितमनभिलषणीयः। उत्त. पत्रकं- कुम्भम्। आव० १३२ ५९०
पथ- पन्थाः । आव० १०८। पत्थति-प्रार्थयति-वाचते। औप० २४।
पथि- स्वपरसमयरूपः। स्था० २४१। पत्थयण-पथ्यदनं-शम्बलम्। ज्ञाता० १९३। पथ्यदनम्। पथियायि-अप्रमत्तः। स्था० २४१। आव०८१३
पद- पद्यतेऽनेनेति पदं। आव० ३७९। आव० ६८। पदंपत्थर- प्रस्तारः-प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषः। स्था० विभागः। जम्बू. २०७। पदं-यात्रार्थोपलब्धिः तत्पदम्।
३७१। प्रस्तरः। प्रश्न. ५८। प्रस्तरः-पाषाणः। बृह. १५३। सम० ३६, १०८ पदं-पदयतेऽनेनेति पदं-स्त्रं पदविभागेपत्थरिज्जइ- प्रस्तीर्यत। आव०६३१
नोच्चारणाद्वा ससन्धीनि पदानि अत्रेति पदव्याख्यातो पत्था- प्रस्था-अवस्थितिः। निर०२५। प्रस्था-अव
भेदः। उत्त०१८ पदं-स्थानान्तरम्। ओघ० १६७ स्थितिः। भग० ५१९
प्रकरणमर्थाधिकारश्च। प्रज्ञा०६। पत्थाण- प्रस्थानः-परलोकसाधनमार्गः। निर०२६। पदकारा- कम्मMगिता। नि० ४३आ। प्रस्थान-यात्रा। प्रश्न. ४२। प्रस्थानं-परलोकसाधनमार्गः | पदत्त- प्रदत्तः-गुरुणोपदिष्टः। ज्ञाता० ११३| | भग०५२००
पदत्थ- पदार्थदोषः-यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदस्यार्थान्तर पत्थार- एकापराधे तज्जातीयानां दंडः। बृह. ८४ । परिकल्पनाऽऽश्रीयते, एवंभतः सूत्रदोषविशेषः। आव. प्रस्तरः-कटः। बृह. १४६ अ। प्रायश्चित्त-रचनाविशेषः, ३७४। ज्योतिष्कच्छन्दोगणितप्रायश्चित्तभेदात। प्रस्तारो | पदबद्ध- गेयपदैर्निबद्धम्। स्था० ३९६। गेयपदैर्बद्धं विशिष्टनाम विरचना स्थापना इत्यर्थः। बृह. २२२ । प्रस्तारो- | विरचनया रचितम्। अन्यो० १३२॥ विनाशः। बृह. ४४ आ। प्रस्तारः-विस्तारः। निशी०७१ | पदभङ्ग-पश्चाच्चतुष्पदप्रचारादिद्वारेण। प्रश्न. ५८१ अ। प्रस्तारः-विनाशः। पिण्ड० १४५। नाशः। पिण्ड० १४३। | पदमग्ग- पदानां मार्गः पदमार्गः-सोवाणा। निशी. ११९
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[183]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
आ।
पद्मपत्र- नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४| पदमग्गविहि- पदमार्गप्रचारम्। ज्ञाता० २४०।
पद्मराग- मणिभेदः। जीवा. २३। मणिभेदविशेषः। प्रज्ञा. पदरंग- प्रतरकं-भोजनविधिः। आव० ८५९।
રા| पदविभागसामाचारो- कल्पव्यवहारः। ओघ०१|
पद्मराजसामाचार्या तृतीयो भेदः। व्यव० १९ आ।
धातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासि-राजा। पदविभागात्मिकः- सामाचारभेदः। उत्त. १४७।
स्था० ५२४॥ पदसमं- यद्गीतपदं-नामिकादिकं यत्र स्वरे अनुपाति पद्मलता- नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४१ भवति तत् तत्रैव यत्र गीते गीयते तत् पदसमम्। पद्मलता- प्रविभक्त्यशोकलता-प्रविभक्तिचम्पकलताअनुयो० १३२
प्रवि-भक्ति-चूतलताप्रविभक्ति-वनलताप्रविभक्ति पदा- पदाः- संयमस्थाः । प्रश्न० ६०|
वासन्तीलता-प्रविभक्तिपदानुसारिबुद्धि- ये गुरुमुखादेकसूत्रपदमनुसृत्य शेषं मुक्तलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्त्यभिनया-त्मको श्रुतमपि भूयस्तरपदनिकुरम्बमवगाहन्ते ते
लताप्रविभक्तिनामा-एकविंशतितमो नाट्यविधिः। पदानुसारिबुद्धयः। बृह. १९३। आ। एकमपि
जीवा० २४७ सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदवस्थ-मेव
पद्मलेश्या- पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी। प्रज्ञा०४२४।
तत्साचिव्याज्जाता। स्था० ३२। पदानुसारिता- ऋद्धिविशेषः। स्था० ३३२
पद्यहदः- ह्रदविशेषः। आचा० २२० पदार्थ- मुनिर्गुणो वा। आव०७६०। कारकविषयः, समास- पद्मा- इन्द्रस्य प्रथमाग्रमहिषी। जम्बू. १५९। विषयस्तद्धितविषयो निरुक्तिविषयश्च। आव०४५५।। पद्माकार-खातविशेषः। नन्दी. १६४। पदार्थदोषः- यत्र वस्तुनि पर्यायोऽपि सन् पदार्थान्तरत्वेन पद्मावती- अरिष्टनगराधिपते राममातुलस्य कल्पते। अनुयो० २६२।।
हिरण्यनाभदुहिता। प्रश्न०८८ पदिण्णा- प्रदत्तवती। आव० ५३८।
पध- उष्णजलतेलादि। प्रश्न. ५८ छन्दो बद्धं। जम्बू. पदित्त- प्रदीप्तः। आचा० १५२२
२५९। पदुग्गाणि- प्रदुर्गाणि-कुड्यप्राकारादीनि। आचा०४१११ पधारेइ- प्रधारयति-दुष्टं सङ्कल्पयति। जम्बू० २४८। पदुहु- प्रविष्ठः। ओघ०६३
पधारेति- प्रधारयति-प्रकर्षेण धारयति-करोति। प्रज्ञा पदेस- प्रदेशः-लघतरः। भग०४८३। प्रदवेषः-मस्तरः। ४३६] प्रज्ञा० ४३५। प्रदेशः। सूर्य. १६)
पधाविय- प्रधावितः-वेगितगतिः। प्रश्न. ५० पदेसकम्म- प्रदेशकर्म-प्रदेशा एव-पुद्गला एव यस्य पधाविया- प्रधाविया। आव. २२४। वेदयन्ते न यथा बद्धो रसस्तत्प्रदेशमात्रतया वेदयं कर्म | पधोवणा- अप्पणो पादे पणो पणो उच्छालना। निशी प्रदेशकर्म। स्था०६७
१८८। पद्धतिः-राजिः। प्रश्न० ८३
पनक- जलरुहविशेषः। जीवा० २६। जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० पद्म-जलजम्। जीवा० १३६। दशरथसतो रामापरनाम ३१| पनकः-गोमयाश्रितो जीवविशेषः। आचा. ५५
बलदेवः। प्रश्न० ८७। महाह्रदविशेषः। प्रश्न. ९६| पदकादयः- अनन्तजीविकाजीवाः। स्था० १२२॥ पद्मनाभ- द्रव्यजिनः। जम्बू. १३। भावीजिनः। जीवा० ३।। पनगो- साकुरोऽनंकुरो वाऽनन्तकायः पञ्चवर्णः। बृहः । अमरककाधिपतिः। प्रश्न० ८७ श्रुतमधिकृत्य पन्थकसाधु- शैलकाचार्यस्थिरीकारकः। सम० १९८१ कामकथायां राजा। दशवै०१०
पन्न- प्रज्ञस्येदं प्राज्ञं-गीतार्थेनोपात्तम्। सूत्र. ३०१। पद्मनालः- मृणालम्। जीवा० १२३॥
प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञा-सूक्ष्मार्थविवेचकत्वम्। स्था० १८३ पद्मपक्ष्म- केशरम्। भग. १२२
| पन्नकतिल-दुर्गंधितिलः। व्यव० १५८ आ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[184]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #185
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पन्नगभूत- पन्नगभूतः-सर्वकल्पेन आत्मना
पन्नवणा- प्रज्ञापनाविषयं प्रश्नमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात्, करण्यभूतः। ज्ञाता० १९७|
प्रज्ञा-पनायाः प्रथमं पद प्रज्ञापना। प्रज्ञा०६) पन्नति-प्रज्ञप्तिः -स्वसमयपरसमयप्ररूपणा। व्यव० प्रज्ञापनाप्ररूपणा। प्रज्ञा० ५०९। २३५
यथावस्थितजीवादिपदार्थज्ञापनात् प्रज्ञापना। अनुयो. पन्नत्तं- प्रज्ञप्तं-उपादेयतया प्रकाशितम्। ज्ञाता० ३। ३८ प्रज्ञापना-भेदादयभिधानम्। स्था० १५९। प्रज्ञापनाप्रज्ञप्तं-तीर्थंकरनामकर्मोदयवर्तितया प्रायः
विशेषतः कथनम्। ज्ञाता०४९। कृतार्थेनाऽपि परोपकाराय प्रकाशितम्। सम० ५। पन्नवणी- प्रज्ञापनी-असत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. २१० प्रज्ञप्तं-प्ररूपितम्। दशवै० २५५। प्रज्ञप्तः-देशितः। पन्नवयं- प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः गुरुः। अनुयो० १७७ प्रज्ञा० ३९९। प्रज्ञप्तं-प्ररूपितं तीर्थकर-गणधरैः। पन्नविज्जंति- प्रज्ञाप्यन्ते-नामादिभेदाभिधानेन प्रज्ञाबुद्धिः तया आप्तं-प्राप्तं प्रज्ञातम्। प्राज्ञात्
प्ररूप्यन्ते, नामादिस्वरूपकथनेन प्ररूप्यन्ते। सम० तीर्थकरादाप्तं प्रज्ञाप्तं गणधरैरिति। प्राज्ञैः-गणधरैराप्तं | १०९। प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदोपन्यासेन। नन्दी० २१२२ प्राज्ञा-प्तम्। स्था०६५
पन्नवित्ता- प्रज्ञाप्य-बोधयित्वा। स्था० ११९। पन्नत्ति- प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मास्वामिना पन्नवियं- प्रज्ञापितं-सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितम। जम्बू-नामानमभियस्याम्। प्रज्ञायाः-तद्धेत्भूतबोधस्य प्रश्न. ११३ व्याख्यास्र्वा प्रज्ञाया आप्तिः-प्राप्तिः आत्तिर्वा-आदानं | पन्नवेति- प्रज्ञापयन्ति-उत्पत्तिभिर्बोधयन्ति। स्था० यस्याः सका-शादसौ प्रज्ञाप्तिः प्रज्ञात्तिर्वा। प्रज्ञादवा
१३६। भगवतः सकाशादा-प्तिरात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा | पन्नवेइ- प्रज्ञापयति-जीवाजीवादीन् पदार्थान् बोधयति। तथा। प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्याम्। स्था० ५०३। प्रज्ञापयन्ति-प्रतिबोधयति शिष्यीकरोति। प्रज्ञप्तिः-अर्थप्रज्ञप्ति-अर्थप्ररूपणा प्रज्ञप्तिः- प्रज्ञाप्तिः। भग०७११। भग. राप्रज्ञप्तिः-संशयापन्नस्य श्रोत्-र्मधरवचनैः पन्नवेज्ज- प्रज्ञापयेत्-भेदभणनतो बोधयेद। भग०४३६) प्रज्ञापनम्। स्था० २१११
पन्ना-प्रज्ञा-बुद्धिरीप्सितार्थसम्पादनविषया पन्नत्तिअक्खेव- संशयापन्नस्य श्रोतुर्मधुरवचनैः कुटुम्बकाभिबु-द्धिविषया वा तद्योगादृशापि प्रज्ञा प्रज्ञापनम्। स्था० २११।
प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञा दशदशाष पञ्चमी दशा। स्था० पन्नत्तिधर- प्रज्ञप्तिधरः-भगवतीवेत्ता। आव० ५३२ ५२९। प्रज्ञा-सूक्ष्मार्थविषया मतिः। भग०७६३। पन्नत्ती-प्रज्ञप्तिः-एतदभिधाना काचिदविद्या। सूर्य. दशदशायां पञ्चमी दशा। निशी. २८ आ। प्रज्ञा-जन्तोः ३०३। प्रज्ञप्ती-प्रज्ञापना। बृह. २६० आ। प्रज्ञप्तिः- पञ्चमी-दशा। दशवै०८ प्रज्ञापनं प्रज्ञासंशया-पन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना। दशवै० ११०| विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथाऽवस्थितस्वसमयप-रसमयपरूपणा। व्यव० २३५।
धर्मालोचनरूपा संवित्। नन्दी. १८७) पन्नत्ते एगा- प्रज्ञप्ते-प्ररूप्ते-प्ररूपिते सत्यका गर्दा पन्नाण-प्रज्ञानं-श्रुतज्ञानम्। आचा० २४९। भवति, गर्हाया भेदः। स्था०२१५
एवम्भूतश्चासौ-प्रकर्षेण ज्ञायते ज्ञेयं येन तद् प्रज्ञानम्। पन्नव- प्रज्ञावान् प्राज्ञो-बृद्धिमान्। दशवै०२१३।
आचा० १५४१ पन्नवग- प्रज्ञापतीति प्रज्ञापकः-मलकर्ता। दशवै०११४१ पन्नाणम्-प्रज्ञानवान्-ज्ञानी। आचा० २४९। प्रज्ञापकः-गुरु। नन्दी० १७९
पन्नाणमंता- प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं तद्वता पन्नवगदिसा- प्रज्ञापकस्य-आचार्यादेर्दिक् प्रज्ञापकदिक्- सश्रुतिका। आचा० २३३। पन्नवगदिसा। स्था० १३३|
पन्नायंति-प्रज्ञायेते-अवबुध्येते। भग० ९१| पन्नवगपुव्व- प्रज्ञापकपूर्वकं-प्रज्ञापनं(क) प्रतीत्य पूर्वा | पन्नुन्न- वलकलतनुनिष्पन्नम्। आचा० ३९४। दिक् यदभिमुख एवासौ सैव पूर्वा। दशवै०८५ | पप्प-प्राप्य-विज्ञाय। ओघ० ३७। प्राप्य-विज्ञाय। ओघ०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[185]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #186
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[Type text]
३७। प्राप्य अभ्युपगम्य आश्रित्य दशवें० ७०| प्राप्यंपरिहर्तुं शक्यम्। बृह॰ २६अ। पप्पडग- समसरियाए उभयतडेसु पाणिएण जा रेल्लिया भूमी सातंमि पाणिए ओहट्टमाणे तरिया बद्धा होउं उण्हेण छित्ता पप्पडी भवति । निशी ३९ आ पप्पडमोअय- पर्यटमोदकः खाद्यविशेषः । जम्बू० ११८ | पप्पडमोदय- पर्यटमोदकः । प्रज्ञा० ३६४ | पप्पडमोयय- पर्यटमोदकः । जीवा० २७८
पप्पडिय- पर्यटिका शालिपपटिका । पिण्ड० १५४ | पप्पु– उप्लुतं-व्याप्तम्। अनुयो० १३९ ।
पप्पुय– प्रप्लुतं। ज्ञाता० १३२| प्रप्लुतं-प्रह्नुतम्। प्रश्र्न॰
१९|
पप्पोत्ति प्राप्नोति । उत्त० ४०१
आगम-सागर- कोषः (भाग:- ३)
पप्फुत प्रप्लुतः । अन्तवा पम्फुय प्रप्लुतः प्रवर्तितानन्दः । भग० ४६० | पप्फुल्लं प्रफुल्लं विकसितम् । जीवा. १७६ ॥ पप्फोडणं प्रस्फोटनं प्रकर्षेण धूननम् ओघ० ११० १ प्रस्फोटनं-आस्फोटनम् । प्रन० १५६ | प्रस्फोटनंआस्फोटनम् प्रश्न० ११२
पप्फोडणा- प्रस्फोटना-प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य झाटना। उत्त० १४१। प्रस्फोटना-प्रकर्षेण धूननम् । स्था० ३६१| उक्खोडगप्पदाणं पप्फोडणा । निशी० १८१ अ । पप्फोडे– प्रस्फोटयेत्-प्रस्फोटनां कुर्यात्। उत्त० ५४० प्रस्फोटयेत्। ओघ० १०८ |
पप्फोडमाणे प्रस्फोटयित्वा आभिग्रहिकेनान्येन वा साधुना स्वकीयरजोहरणेन उर्णिकपादपोञ्छनेन वा प्रस्फोटनं कारयन् स्काटयन्नित्यर्थः । स्था० ३२९॥ पफुसियपविरलं- विरलशीकरं-फुसारम् । आव १२२॥ पबंध- प्रबन्धः-विकथादिषु वाऽविच्छेदेन प्रवर्त्तनम्। उत्त॰ ३४६। प्रबन्धं-अविच्छेदात्मकम् । उत्त० ३४६ । पबाह- प्रबाधा प्रकृष्टा बाधा ज्ञाता० ९७ | पबुद्धा प्रबुद्धा- उत्फुल्ला। जम्बू• ३३६| पब्भार- प्राग्भार असतो मुखमवनतत्त्वम् भग० १७४ प्राग्भारः - ईषदवनतः । भग० २३८ । प्राग्भारः - जन्तोरष्टमीदशा दशकै ८ प्राग्भार:ईषदवनतपर्वतभागः ज्ञाता० ६३ प्राग्भारः ईषत् कुब्जः । प्रज्ञा० ७१ प्राग्भारः- पुद्गलनिचयः । स्था०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
१२५ प्राग्भार-उच्छ्रयादिलक्षणः स्था० २५१। प्राग्भारयत्पर्वतस्योपरि हस्तिकुम्भाकृति कुब्जं विनिर्गतं तत्प्राग्भारम् । नन्दी० २२८ प्राग्भार- ईषदवनतम् । स्था० ५२०| ज्ञाता० ६६। प्राग्भारः - ईषदवनतः । ज्ञाता० ९९| पारगती या तु द्रव्यान्तराक्रान्तस्य सा
प्राग्भारगतिर्यथा नावादेरधोगतिः । स्था० ४३४ | पब्भारा– प्राग्भाराः -ईषन्नताः पर्वताः । अनुयो० १७१| प्राग्भारं - ईषदवनतमुच्यते तदेवंभूतं गात्रं यस्यां भवति सा प्राग्भारा - अष्टमीदशा । स्था० ५२० | दशदशायाममष्टमीदशा निशी २८ आ । पशंकर- चतुर्थलोकान्तिकविमानः स्था० ४३२१ प्रभकरं चतुर्यलोकान्तिकविमानम् । भग० २७१। प्रभड़कर एकोनसप्ततीतममहाग्रहः । जम्बूपरण एकोनसप्ततितममहाग्रहः । स्था• ७९१ प्रभकर:त्रीणिसागरोपमस्थिकः देवः समः ८
अष्टसागरोपमस्थिकः देवः । सम० १४।
पशंकरा - चन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहीषी स्था० २०४१ धर्मकथाया अष्टमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । ज्ञाता० २५रा धर्म-कथायाः सप्तमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । जाता २५१ सूर्यस्य चतुर्थ्याग्रमहिषी स्था० २०४१ सूर्यस्य चतुर्थ्याऽयमहिषी। भग० ५०५। प्रभकरा चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य तुरीयाग्रमहिषी जीवा० ३८४ प्रभकरा. वच्छवतीविजयस्य राजधानी । जम्बू० ३५२ | प्रभङ्कराचन्द्रस्य चतुर्थी अग्र-महिषी । जम्बू० ५३२ | स्था० ८० पभंगुर - प्रभङ्गुरः स्वत एव भङ्गशीलः । आचा० २३८ पभंजण प्रभञ्जनः उत्तरनिकाये नवम इन्द्रः। भग
१५७| वातकुमारेन्द्रः। स्था० ८५। चतुर्थो वायुकुमारः । स्था. १९८१ चतुर्थी महर्द्धिकदेवः स्था० २२६॥ प्रभञ्जनः वायुकुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ९४१ प्रभञ्जनः । जीवा० ३०६ |
पत्र- हरिकान्तस्य प्रथमो लोकपालः स्था० १९७१ पभकंते- हरिकान्तस्य तृतीयो लोकपालः । स्था० १९७ पभणियं प्रभणितं भणनारम्भः । विपा० ७६ | पभयाल- प्रभवालः। तरुविशेषः। जम्बू॰ ९८। पभव- प्रभवः-उत्पत्तिस्थानम्। आचा० १३ । प्रभवःउत्पादः । प्रज्ञा० २५६ । सत्पुरुषः, कल्पविधि-निषेवकः । बृह० २३०| निशी० ३९ आ निशी० ९६अ। चौरविशेषः ।
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"आगम- सागर- कोष" [३]
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आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
व्यव० २४०|
भा- प्रभा-यानादिदीप्तिः । भग० १३२ | प्रभायानादिदीप्तिः । औप० ५०| प्रभा बाहुल्यम् । जीवा० ८९|
।
भावनावासगता प्रभा । जीवा० १६२ | प्रभा-आकारः । जम्बू० १०० । प्रभास्वभावः । प्रज्ञा० ४३ | प्रभा-प्रकाशः । सूर्य० ७८। प्रभा भावनावासगता। प्रज्ञा० ८८। प्रभाआकारः । प्रज्ञा० ३६५ | प्रभा-स्वरूपम् । प्रज्ञा० ५३२ | प्रभाप्रभावः माहात्म्यः। स्था॰ ४२१ । प्रभा-प्रभावः । उपा० २६ । प्रभा-उद्गमन-समये यद् द्युतिस्फुरणम्। ज्ञाता० १७०। प्रभा चन्द्रादि-दीपितः । उत्त० ५६१।
पभाइ प्रभाति। आव० २१८८
पभावई मुनिसुव्रतस्वामिमाता सम० १५१। प्रभावति । मल्लिमाता आव० १६०| बलनरपतिराजी भग० ५३५१ प्रभावती- उदायनराज्ञी। उत्त० ९६ । प्रभावतीशिक्षायोग ष्टान्ते हैहयकुलसंभूतवैशालिकचेटकप्रथमा पुत्री। आव० ६७६ ।
पभावणा- प्रभावना-तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु प्रवर्तमानात्मिका । उत्त० ५६७ प्रभावनाधर्मकथादिभिस्तीर्थ ख्यापना। दशवें० १०३ प्रभावनाधर्मकथादिभिस्तीर्थप्रख्यापना। प्रज्ञा० ५६| पभावती- प्रभावती- उदायनराजपत्नी । आव० २९८ ॥ उदायनस्य राजी। निशी ३४६ आ उदायननरपते राजी भग० ६१८१ कुम्भकराजपत्निः ज्ञाता० १२४ प्रभावती । निर०९ |
पभावेड़- प्रभावयति प्रकाशयति । उत्तः पटपा पभासंता व्याख्यानेन प्रभासमानः आव ४४८ पभासंति- प्रभासयन्ति तथाविधवस्तुदाहकत्वेन प्रभाव लभन्ते । भग- ३२७
पभास- जम्बूभरते तृतीयं तीर्थम् स्था० १२२ सम० ९३ ॥ द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकः देवः । सम० ४१| प्रभासंदेवोद्योते तीर्थम्। आव० ७०९ | प्रभासः
एकादशमगणधरः । आव० २४० |
पभासा प्रभासा तन्निबन्धत्वात् अहिंसाया एकोनषष्ठितमं नाम । प्रश्न० ९९| पभासेड़ प्रभासयति
अतितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते तथा करोति । भग० ७८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
प्रभासयति-अतितापयोगाद् विशेषतोऽपनीतशीतं करोति। जम्बू॰ ४६।
पभासेमाण- प्रभासयन् शोभयन् । औप० ५०| प्रभासयमानः सूक्ष्मवस्तूपदर्शनतः स्था० ४२१ ॥
पभु-प्रभु राजा बृह० ९० आ ।
पभू- धणितो निशी ४३ अ राया। निशी. १७४ आ प्रभुः सक्तः । भग. १७६|
पभूय- प्रभूतं उद्भूतम्। औप० ४६ । पभूयदंसी- प्रभूतं
प्रमादविपाकादिकमतीतानागतवर्त्तमानं च
कर्म्मविपाकं द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी आचा०
२१८|
पभुंजिओ- प्रभुक्तः भोक्तुं प्रवृत्तः बृह० गा० ६०७१। पमइलदुम्बला- प्रमलितदुर्बला स्नानभोजनत्यागात् ।
ज्ञाता० ३३ |
पमज्जणा प्रमार्जना-रजोहरणादिक्रिया प्रश्न. १५६ | मुह-प -पोत्तियरयहरणगोच्छगेहिं पमज्जणा। निशी० १८१ अ बीयकणुगादीणं सकृत् अवणयणे आमज्जणा पुणो पुणो पमज्जणा पुणो पुणो करैतस्स पमज्जणा। निशी. १९० अ । प्रमार्जना-रजोहरणादिव्यापाररूपा । प्रश्न० ११२ ॥
मज्जतिरयहरणेण पमज्जणं, पुणो पुणो पमज्जति । निशी० १८७ अ
मज्जित - प्रमृज्यात् कर्दमादि शोधयेत् । आव. ३३८८ । पमज्जिय- प्रमृज्यात्-शोघयेत्। आव० ३३८। पमज्जेमान प्रमार्जयन् शनैर्भूषयन्। स्था• ३२९| पमत्त - प्रमत्तः पञ्चमनिद्राप्रमादवान्। स्था० १६४ | प्रमत्तः-अनुपयुक्तः। उत्तः ४३४ । प्रमत्तः सुखी । आचा०] १८३ प्रमत्तः प्रमत्तसंयतयामः । भूतग्रामस्यषष्ठं गुणस्थानम् आव० ६५०। प्रमत्तःपराभिमुखः ओघ० १७६ । प्रमादयन्ति स्म - मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्तः । प्रज्ञा- ४२४ प्रमत्तः कषायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशं गतः। दशकै ११५ प्रमत्तः प्रमादवान् । ज्ञाता० ७९१ प्रमत्तः असंयतः परतीर्थिको वा आचा० १८१। प्रमत्तः पञ्चविधप्रमादयोगात्। ज्ञाता० १११।
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"आगम- सागर- कोषः " [३]
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पत्ता - प्रमत्ता विषयैः । आचा० १८३ | पमत्तायरिए - प्रमादो-मद्यादिस्तेनाचरितः प्रमादाचरितः आव० ८३०| पमदवणं प्रमदावनम्। आव. ४२५१ पमद्द - प्रमर्दं - नक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनरूपम् | जम्बू० ४९१| प्रमर्द्दः- चन्द्रेण स्पृश्यमानता । स्था॰ ४४२| प्रमर्द्दम् । सूर्य० १३७ पमद्दण- प्रमर्दनं-कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनकरणम् । जीवा० १२२ प्रमर्द्दनं कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनम् । जम्बू. ३८८
पमयकम्मं प्रमदाकर्म
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
खंडनपेषणदलनपचनपरिवेषणादि। बृह० ९७ अ । पमयवण- गृहोद्यानम् । ज्ञाता० १४४१ तेतलिपुरनगरे उद्यानम् । ज्ञाता० १८४ |
पमया - प्रमदा- स्त्री । प्रश्न० ८३ | पमाणगुल- प्रमाणाइगुलं उत्सेधाङ्गुलाद् साहस्रगुणम् । प्रज्ञा॰ २९९। सहस्रगुणितादुत्सेधाङ्गुलप्रमाणाज्जातम्। परमप्र-कर्षरूपं प्रमाणं प्रातमङ्गलं वा । युगादिदेवस्य भरतस्य वा अङ्गुलं वा प्रमाणाङ्गुलम् । अनुयो० १७१ | प्रमाणाङ्गुलम्। अनुयो० १५६ । पमाण- प्रमाणं स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयता। औप० १३) प्रमाणं प्रमाणराशिः । सूर्य १५८१ प्रमाणं नीतिर्बलं च। आव॰ ४६३। प्रमाणं- आदेयम् । आव० ५३४ | प्रमाणंयुक्तिः । सूत्र- ३४० प्रमाणआत्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलो-च्छ्रयता। प्रश्र्न० ७४। प्रमाणं- अन्तरमानम् । जम्बू० ३२९| प्रमाणकालःअद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणः आव० २५७| प्रमीयते परिच्छिद्यते धान्यद्रव्याद्यनेनेति प्रमाणं असतिप्रसृत्यादि, इदं चेदं च स्वरूपमस्य भवतीत्येवं प्रति-नियतस्वरूपतया प्रत्येकं प्रमीयते परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाणं-यथोक्तमेव, धान्यद्रव्यादेरेव प्रमितिःपरिच्छेदः स्वरूपाव-गमः प्रमाणम् । अनुयो० १५२| प्रमाणं-शास्त्रीय उपक्रमः । आव० ३। प्रमाणं प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः । भग० २४७॥ प्रमाणशब्देन विष्कम्भायाम। जम्बू० ३२१| प्रमाणंआत्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्यता स्था० ४६१। प्रमाण-भक्तपानाभ्यवहारोपध्यादेर्मानम् सम० १०७ |
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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[Type text]
प्रमाणं-वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनम् । सम० ११५ | प्रमाणंस्वा-इगुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयता ज्ञाता० ११। पमाणकसिणं- दयादिपटं धर्म बृह० २२२आ। अधिकविस्तारायामं वस्त्रम्। बृह० २२६ अ पमाणकसिणा दोमादितलीजिए उवहणाए एसा
पाणतो कसिणा पमाणकसिया । निशी० १३६ आ । पमाणकाल - प्रमाणकालः- अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणः । दशवै० ९। प्रमाणकालः- अद्धाकालः विशेषभूतो दिवसादि प्रमीयते परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चेति प्रमाणकालः प्रमाणं वा परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदर्थी वा कालः प्रमाणकाल :- अद्धाकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षणः । भग० ५३३३
पमाणत्थो - प्रमाणस्थः मान्यः । व्यव० २० आ पमाणदोस
द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणातिरिक्तमाहारमाहारयतः
प्रमाणदोषः । आचा० ३५१ ।
पमाणपत्ता- द्वात्रिंशता कवलैः प्राप्तप्रमाणो भव साधुर्न न्युनोदरः । औप० ३८ प्रमाणप्राप्ता आव० २२७ पमाणप्पत्त प्रमाणं मानं तत् परिमाणं मानं येषां ते तथा प्रमाणप्राप्तः । भग० २९२
पमाणवं पुरिसो- बारसंगुलपमाणाई समुहाई
णवसमुस्सितो पमाणवं पुरिसो निशी० ८५आ पमाणसंवच्छर प्रमाणं परिमाणं दिवसादिनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाणसंवत्सरः। स्था॰ ३४४ | युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः । सूर्य० १५३| पमाणाइकंत- प्रमाणातिक्रान्तःबुभुक्षापिपासामात्रानुचितः ज्ञाता० १११। प्रमाणातिक्रान्तः-प्रमाणातिक्रान्तः- द्वात्रिंशत् कवललक्षणमतिक्रान्तः भग० १९२१
पमाद - प्रमादः - मद्यविकथादिः । भग० ९१९ । अणाभोगो सहस्सकारो निशी० ९९आ।
पमाय- प्रमादः परिहासविकथादिः कन्दर्पादिः । स्था. ४८४ प्रमादः तदर्थमेव सर्वारम्भेष्वपि प्रवर्तनम् । असंप्राप्तकाम भेदः। दशवं. १९४१ प्रमाद:विषयक्रीडाभिष्वङ्गरूपः श्रेयस्यनुमात्मकः । आचा
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"आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
१२० प्रमादो विकथारूपोऽस्थ
गिततैलभाजनधरणादिरूपो वा उपा० ५
प्रमादोऽज्ञानादि स्था० १३५१ प्रमादः अज्ञानम् ओघ० ४७। प्रमादः विषयकषायाभिष्वंगरूपः शरीराधिष्ठानः । आचा० १२८ पमादः कार्यशैथिल्यम्। आचा० १५०१ प्रमत्तत्वं आभोग-शून्यता हिताप्रवृत्ती स्था० २६० प्रमादः-शैथिल्यमाज्ञाऽतिक्रमो वा । स्था० ३६१ । प्रमादःधर्म प्रत्त्यनुद्यमात्कमः उत्तः ३३६ प्रमादः - अज्ञानम् | ओघ० ४७ |
पमायड़ प्रमाद्यति प्रमादं करोति । ३४६२ पमायण- प्रमादयेत्-विषयादिप्रमादवशगो भूयात् । आचा० २०४ |
पमायठाण- प्रमादस्थानं उत्तराध्ययनेषु द्वात्रिंशत्तममध्ययनम् । उत्त० ९। पमायठाणाइं– उत्तराध्ययनस्य द्वात्रिंशत्तममध्ययनम् | सम० ६४ |
पमायति प्रमादयति परित्यजति आव० ५३४१ पमायपर प्रमादपरः प्रमादनिष्ठः । आव० ५८८ ।
पमायप्पमाय
आगम - सागर-कोषः (भाग:- ३)
प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादक-मध्ययनं प्रमादाप्रमादम् । नन्दी० २०४ | यस्मादस्मिन्नध्ययने प्रमादोऽप्रमादश्च पञ्चविधो वर्ण्यते तस्मादेतत्
प्रमादाप्रमादम् । उत्त० १९१ ।
पमायबहुलो– प्रमादबहुलः । आव० ३३०
पमार- प्रमारं-मरणक्रियाप्रारम्भम् । भग० ६९१| प्रमारोमूछविशेषो मारणस्थानं वा स्था• ३०५| पमुइय- प्रमुदितः-हृष्टः। ज्ञाता० ४०| प्रमुदितः । ज्ञाता
१।
पमुक्ख प्रमोक्षः प्रतिवचनम्। उत्त० ५२४१ पमुच्यते प्रमुच्यते । प्रश्न० ६०%
पमुह- प्रमुखं द्वारम् । प्रज्ञा० २८१ पञ्चाशत्तममहाग्रहः । स्था॰ ७९। प्रमुखः-एकोनपञ्चाशत्तममाहागृहः। जम्बू० ५३५। प्रमुखं-गृहद्वारम्। बृह० ६२ अ । प्रमुखं-प्रवेशनिर्गममुखम् । बृह. १४८ आ
पमेइल- प्रमेदुर-प्रकर्षेण मेदः सम्पन्नः। दशवै० २१७ | पमेदिल - अतीव मेदो जस्स सो। दशवै० ११० |
मेह रोगो संततकायियं ज्झरतं अच्छति । निशी० ११७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
अ।
पमोअ- प्रमोदः-उत्सवः । जम्बू० २७६ | प्रमोदः-संयोगजो हर्षः आव० ७२१। प्रमोदः प्रमोदोत्पादकत्वात् । अहिंसाया एकत्रिंशत्तमं नाम प्रश्न. ९९|
पमोक्ख प्रमोक्षं उत्तरम्। उत्तः १५७। प्रमोक्षं उत्तरम्। भग० ११४॥ यः प्रकर्षेण मोक्षयति-मोचयतीति प्रमोक्षःआत्मनो दुःखापगमहेतुः । उत्त० ६२१| प्रमोक्षः अपगमः । उत्त० ६२१ | पमोद-प्रमोद :- महोत्सवः । अन्त० १९|
पम्ह- पक्ष्मः कर्पासरुतादि। स्था० २०३ | पक्ष्मं - ब -बहुलत्वम् । भग० १२१ नवसागरोपमस्थितिको देवः । सम १५] पद्मं पद्मगर्भः। विपा• ३४ पक्ष्म-बहुलत्वम् । औप८३ पद्मं पद्मकेसराणि सूर्य० 1 पद्मम्। भग० १२१ पद्म पक्ष्मकेशरम् । भग. ९२१ अवयवे समुदायोपचारात् पद्मशब्देन पद्मकेसराण्युच्यन्त तद्वद् गौर इति । जम्बू १५ पक्ष्मविजय जम्बू. 3961 पक्ष्म अनुयो० १७६६ पम्हकंत - नवसागरोपमस्थितिको देवः । सम० १५| पम्हकूड - नवसागरोपमस्थितिकदेवः । सम० १५| पद्मकूटः नीलवन्तवक्षस्कारपर्वते कूटः । जम्बू० ३४६ ॥ पक्ष्मकूटः- विद्युत्प्रभवक्षस्कारे कूटः । जम्बू• 3441 पम्हगंध- पद्मसमगन्धः, भारते वर्षे मनुष्यभेदः । भग०
२७६। पद्मगन्धाः । जम्बू० १२८
पम्हगावई - पक्ष्मकावती विजयः । जम्बू० ३५७ पम्हज्झय - नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् ।
सम०१५ |
पहड्डा- विस्मृता । बृह १४ आ
पम्हप्पन - नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । समः
१५ |
पम्हलसुकुमाला - पक्ष्मवती सुकुमालाचेत्यर्थः । भग ४७७ पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पश्मलसुकुमारा । जीवा० २५31
पम्हला पक्षमला, पक्ष्मवती। जम्बू• २७५॥ पम्हलेस नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम्। सम
१५| पम्हवण्णं- नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम० १५ |
पम्हसिग नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम
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"आगम- सागर- कोषः " [३]
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
१५
१५
गुणैर्ज्ञानादिभि-रिति। ज्ञानादिगुणस्थानम्। उत्त०५८१ पम्हसिट्ठ-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम्। सम० पदं-पादविक्षेपरूपम्, स्थानं च। उत्त० २१७। पदं
निराकाङ्क्षतयाऽर्थगमकत्वेन वाक्यमेव। उत्त० ५७० पम्हावई-पद्मावती रम्यग्विजये नगरी। जम्बू. ३५२। अत्थपच्छियवायगं पयं। निशी० २। पदंस्था० ८०
आवश्यकपदाभिधेयम्। अन्यो० २०| पदंपम्हावती-सीतानदीदक्षिणे वक्षस्कारः। स्था० ३२६, ८० धूलिबहुलभूमिसमुत्थचरणप्रतिबिम्बम्। पिण्ड० २९। पम्हावत्त-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम्। पदं-मुष्टिस्थानम्। भग० १९४। प्तिङन्तं समयप्रसिद्ध सम०१५
वा सङ्ख्येयम्। अनुयो० २३४॥ पम्हुट्ठ- विस्मृतम्। स्था०४०३। विस्मृतम्। प्रश्न० १२४। पयइस्सभाव-प्रकृतिस्वभावः। आव० ३५१| प्रमष्ठः। ओघ० ९७। विस्मृत्या त्यक्तम्। बृह. २४ । पयउ- परः। तन्दु। विस्मृतम्। ज्ञाता० १४८ विस्सरियं। निशी. २१३ अ। | पयए- पदगः-दाक्षिणात्यपदगतव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० पडियं, वीसरियं। निशी. २७४ आ। विस्मृतम्। बृह. ९८१ २०९ अ। विस्मृतम्। बृह. २४ अ। विस्मृतम्। व्यव०६३ | पयगवई-पदगपतिः-औदीच्यपदगतव्यन्तराणामिन्द्रः। ।
प्रज्ञा० ९८१ पम्हुइदिसाभाए- विस्मृतदिग्भागः। ज्ञाता० २४०। पयग्ग-पदाग्रं-पदपरिमाणम्। सम० ३६। पम्हुत्तरवडिंसगं- नवसागरोपमस्थितिकदेवानां पयच्छामो-भवते एव दद्मः, सामान्यतः प्रयच्छामः विमानम्। सम० १५
प्रकर्षेणेति-विशेषः। भग०४७६) पम्हसइ-विस्मरति। आव० ३०७
पयट्ट-प्रवृत्तः। आव० ३८५। ओघ० १४२। पम्हसाविया विस्मारिता। उत्त० ८७)
पयट्टओ- प्रकर्षकः-प्रवर्तकः। प्रश्न. ५ पयंग-पतङ्गः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ पयट्टाविओ-प्रवर्तितः। आव०४३६| पतङ्गः-व्यन्तरनिकायानाम्परिवर्तिनो
पयट्टिए-प्रवृत्तान् प्रवर्तितान् वा। उत्त. २०६। व्यन्तरजातिविशेषाः। प्रश्न०६९| चतुरिन्द्रियविशेषः। पयट्टियं-प्रवर्तितम्। आव० १७३| प्रज्ञा० ४२। पतङ्गः-वाणमन्तर-विशेषः। प्रज्ञा० ९५ पयट्टिया-प्रवर्तिता। आव० ३९८ पतङ्गः-चतुरिन्द्रियजीवभेदः। उत्त०६९६|
पयडत्था- प्रकटा-जिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्था। पयंगवाहिया-भिक्षाविशेषः। निशी. १२ ।
सूर्य. २९६। पयंगविही-भिक्षाचर्यायां भेदः। उत्त०६०५
पयडिय- प्रपतितं-प्रकर्षण लथीभूतम्। ज्ञाता० १३७ पयंड- प्रकाण्डः-उत्कटः। प्रचण्डो दुःसाध्यसाधकत्वात्। | पयडी- णालिएरि। निशी. १२१ अ। प्रकृतिः-भेदः। आव. सम. १५७। प्रकाण्डः-अत्यर्थम्। सम० १२७। प्रकाण्ड:- २४। प्रकृतिः-स्वभावः। आचा। प्रचण्डः। प्रश्न० ७४। प्रचण्डः-प्रकाण्डो वा दुःसाध्यसाध- पयण-पचनम्। प्रश्न०१४| पचनं-कडिल्लकाकृतिः। कत्वात्। प्रश्न०७४
सूत्र. १२६। पतनं-स्थानम्। उत्त०४४। पाकस्थानं पयंडा-प्रचण्डा-शीघ्रं शरीरव्यापिका, घोरा
चुल्ल्यादि। ज्ञाता० ११० प्रचण्डपरिवर्ति-तत्वात्। प्रश्न. १७१
पयणग-प्रचनकं-प्रचण्डम्। आव०६५१| पयडेमाण-प्रचण्डयन्-आज्ञाप्रधानः सन्नवश्यं
पयणसाला-जहिं पच्चंति भायणाणि। निशी. २१ आ। कर्तव्यतया निरूपयन्। जीवा. १६६।
पचनशाला-वर्षास् भाजनपाकस्थानम्। बृह. १७५अ। पय-पदं-प्रकरणम्। भग० १०७। पदम्। ओघ० ९८ पदम्। | पयण- प्रतन्ः-अतिमन्दीभूतः। जीवा० २७७।
आव० ७९३) पदं-निमित्तकारणम्। आचा० १९७। पदं- | पयणुए- प्रतनुकं-अघनम्। भग० १८९। स्थानम्। आव० ८३९। पदं-पद्यते गम्यते
पयत- प्रयतः-आदियमाणः। जम्बू. १९३। प्रयतः-प्रय
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
त्नवान्। पदतवाः- तथाविधानुस्मर्यमाणसूत्रालापकात् । उत्त० ५८१ प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात् प्रयताम्। स्था॰ २४७| प्रयत्नो-आदरः गृह २३अ प्रयत्नःयथागमादरः । पिण्ड १४७ प्रदत्ता-गुरुभिरनुज्ञाता । अनुत्त प्रदत्तः अनुज्ञातो गुरुभिः प्रयतो वाप्रयत्नवान् प्रमादरहित इत्यर्थः । भग० १२५ | पयत्तकड— प्रयत्नकृतम्। आचा० ३९०।
पयबद्ध यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि। जम्बू० ३९॥ पयय- प्रयतः-प्रयत्नः । ओघ० १९९ । प्रयत्नः - सद्भावः । ओघ १७९१
-
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पयया- प्रयता-प्रकृष्टयत्नवतः । अनुत्त० ३ | पयरंगुले - सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गुलम् । अनुयो० १५८| प्रतराङ्गुलम्। अनुयो० १७३१
पयर प्रतरं भूषणविधिविशेषः । जीवा २६९। प्रतरम् । अनुयो० १५६। प्रतरम् । अनुयो० १७३ श्रेणिरेव श्रेण्या गुणित प्रतरः । उत्त० ६०१ । प्रतरः प्रस्तरः । जम्बू० २९८८ नन्दी० ११०| श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतरः । उत्त० ६०१ । प्रतरः- आभरणविशेषः । औप. ५३ प्रतरःएकप्रादेशिक-श्रेणिरूपः । प्रज्ञा० २७९१
पयरइ- प्रचरति । आव० ८१४।
-
५५|
पयरग प्रतरकं वृत्तप्रतलः आभरणविशेषः । औप० पा प्रतरकं सुवर्णपत्रकम्। जीवा १८१। प्रतरकं आभरणविशेषः। प्रश्र्न० ७५। प्रतरकः- पत्रकः । जम्बू० २४ | प्रतरकंस्वर्णादिमयं आभरणविशेषः । ज्ञाता० १४ | प्रतरकंप्रतरप्र-वृत्तरूपं आभरणम्। ज्ञाता० ३५। पयरच्छय- प्रतरच्छोदः- तरिकाछेदः । औप० १८७ । पयरण- प्रतरणं प्रथमदातव्यभिक्षा। बृह० १८७ आ । भिक्खं । निशी० १५५आ।
पयरतव श्रेण्या गुणिता श्रेणिः प्रतरः उच्यते,
तद्रुपलक्षितं षोडशपदात्मकं तपः प्रतरतपः। उत्त० ६०१ | पयरवट्ट - वाहल्यतो हीनं प्रतरवृत्तं मण्डकवत् । भग०
८६ १ |
पयराभेद- प्रतरभेदः । प्रज्ञा० २६७ |
पयलइ - छिन्तरुहावनस्पतिः । भग० ८०४ |
पयला - प्रचला ऊर्ध्वस्थितनिद्राकरणलक्षणा। भग० २१० प्रचला या उदुर्ध्व स्थितस्यापि वा पुनश्चैतन्यमस्फुटोकुर्वतो समुपजायते निद्रा सा
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
प्रचला । जीवा० १२३ । उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला स्था० ४६७। प्रचला निषण्णस्य सुप्तजागरावस्था बृह• २०७ आ उपविष्टः-ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलयति घूर्णयति यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला। प्रज्ञा० ४६७ । पयलाइआ भुजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ ॥ पयलाएज्ज- प्रचलायेत्-प्रचलांउर्ध्वस्थितनिद्राकरणलक्षणां - कुर्यात्। भग० २१८ पयलापयला- प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचलाप्रचला। प्रज्ञा० ४६७ |
पयलायड़ प्रचलयति निद्रां गच्छति। आक० ७९८८ पयलाया भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः । जीवा ४० पयलिय- प्रचलितम्, प्रवलिकं प्रजातवलीकम् । ज्ञाता० १३३|
पयलिज्ज - प्रचलेत् कम्पेत्। आचा० ३३७ पयल्ले - चतुपञ्चाशत्तममहाग्रहः । स्था० ७९ पयविभाग- पदविभागः सामाचारी आव० २पत पयस पायसम् । आव० १८८ ।
पयसमं पदसमं यद् गेयपदं नाभिकादिकमन्यतरबन्धेन बदं यत्र स्वरे अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत् पद समम् । स्था० ३९६ ।
पया - प्रजाः- जन्तवः । आचा० २०३ | प्रजा- स्त्री । आचा० १६३। प्रजाः-पृथिव्यादयो जन्तवः स्त्रियो वा । सूत्र. १८९। प्रजा जनसमूहरूपा, प्रजायत इति वा प्राणी ।
उत्त० १८२
पयाज्जसि प्रजनिस्यति। विपा० ७७| पयाग- प्रयागं तीर्थविशेषः । आव० ६८९ | पयाण प्रतननं प्रतानो विस्तारस्तदुपः स्वप्नो यथा तथ्यः तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते। पञ्चस्वप्ने द्वितीयः । भग० ७०९ |
पयाणीक— पदात्यनीकः चतुर्थी सेना जीवा० २१७ पयाणुसारिबुद्धि - पदानुसारिबुद्धिः । प्रज्ञा० ४२४ | पयाणुसारी- पदेन-सूत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकूला पदशतान्यनुसरन्ति- अभ्यूहयन्तीत्येवंशीलाः पदानुसारिणः । औप० २८
पयायामि- प्रजनयामि । ज्ञाता० ८१ ।
पवार-प्रचार अटनम् ओघ० १६१| प्रचारम् ओघ० १५० |
[191]
*आगम- सागर - कोषः " [3]
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[Type text]
पयारधम्म चक्षुरादीन्द्रियवशतारूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्मः। दश- २१॥
पयारेड़- प्रतारयति । दश० ५१|
पयावह प्रथमवासुदेवपिता सम• १५२१ प्रजापतिः-पोतनपुरे राजा । आव० १७४ | प्रजापतिः- त्रिपृष्ठवासुदेवपिता । आव० १६३। प्रजापतिः। दशवै० ६६ । प्रजापत्यः । सूर्य० १४६। प्रजापतिः-लोकप्रभुः । प्रश्र्न० ३३ ।
पयावण- प्रतापनं शीतापनोदाय । आचा० ५०| प्रतापनंउत्तेजनम् बृह० १४२ आ
पयावणा प्रतापना अग्निप्रज्वलना ओघ १२४ पयाविज्जा प्रतापनं निरन्तरं बहु तापनम्। दश० १५३१ पयासयर - प्रकाशकरः प्रभासकरो वा । आव० ५१०। पयाहिणजलं प्रदक्षिणजलं सामायिकदानस्य स्थानम् ।
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
आव० ४७० |
पयाहिणावत्तमंडल- प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नावर्तन मण्डल परिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिण आवत्त येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणावर्त्तानि मण्डलानि येषां ते तथा सूर्य० २७६१ प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नावर्तेमण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः २ आवत्त यस्य मण्डलस्य तत् तच्च मण्डलं मेरुं प्रति यस्य स प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलः । जीवा० ३३७ | पयोग- प्रयोगः- परप्रतारणव्यापारः । आचा० १९७ । पयोगकम्मं प्रयोगकर्म
वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मनः प्रकर्षेण युज्यते इति प्रयोगः आचा० ९४
पयोगपरिणता - प्रयोगपरिणता - जीवव्यापारेण
तथाविधपरिणतिमुपनीता। स्था० १५११
पयोगविससापरिणय- प्रयोगेण जीवव्यापारेण विश्वसया च स्वभावेन परिणत अवस्थान्तरमापन्नः । ज्ञाता० १७४ |
पयोस- प्रद्वेषः मात्सर्यः स्था० ४८४ परंआभियोजितुकामा परमभियोक्तुकामःअभिभवित्तुकामः । ज्ञात० १९९|
परंगण नृत्यद् । निर० उम
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
परंगामण भूमौ सर्पणम्। भग० १४५ परंधया- पर्यन्ता व्यक- २२७| परंति- सर्वतो भ्रमन्ति प्रश्न० ५३॥ परंदम- परान् अन्यान् दमयति-यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रवर्तयति इति परन्दमः । उत्तः २७५१
परंपर- दृष्टिवादे सूत्रस्य भेदः । सम० १२८ । परम्परंव्यवहितम्। भग० २१५ | परे च परे चेति विप्सायां परम्पर- शब्दनिष्पतिः। प्रज्ञा० १८ परम्परकंविकारपरम्परा । पिण्ड० २०१
परंपरगए- परम्परया-मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकानां वा मनुष्यादिगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं
प्राप्तः परम्परागतः । भग० १११ | परंपरगढिया - परम्परैः व्यवहितैः सह ग्रथिता
परम्परग्रथिता । भग० २१५ |
परंपरघाए- परम्परा निरन्तरता तत्प्रधानो घातः ताडनः परम्पराघातः उपर्युपरिघातः । भग०२५१ । परंपरबंध- येषां तु बन्धानां द्वितीयादिः समयो वर्त्तते तेषां परम्परबन्धः । भग० ७९१ |
[192]
-
परंपरय- परम्परकम्। आव० ५२०१
परंपरवल्ली मातापित्रोर्मात्रादिषट्करूपा गृह. ४२ आ परंपरसिद्धा परे च परे चेति वीप्सायां पृषोदरादय इति परम्पराशब्दनिष्पत्ति, परम्परे च ते सिद्धाश्र्च परम्परसिद्धाः । अनुयो० ११३
परंपरा - परम्परा - ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा मिथ्यादृष्ट्यादिभेद- भिन्ना । प्रज्ञा० ११२ | परंपराफासो परम्परास्पर्शः आव. ३२४ परंपरोगाढ- परम्परावगाढः यदात्मप्रदेशान्तर्वत्तीनि तदवगादसम्बन्धात् परम्परावगाढम् । भग० २१॥ परंपरोववण्णगा- परम्परोपपन्नकः परम्परया उपपन्नकः उत्पत्यनन्तरं द्वित्र्यादिसमयवर्ती । प्रज्ञा० ३०४|
परंभर- परं बिभर्तीति परम्भरः । स्था० २४८ | परंमुहो- पराङ्मुखः । आव० २२० पराङ्मुखः । आव० ४२७ पर पर तीर्थकृत् । आचा० २२८८ पर शत्रु आव• ६० परः- मोक्षः | आव० ३२९| पर चोदकः ओघ० १०८१ परंदेशविरताद्ययोगिकेवलिपर्यन्तं गुणस्थानकम्। आचा० १७३ | संयमः । आचा०] १७३ | सम्यग्दृष्टिगुणस्थानः ।
*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आचा० १७३ | परशब्दविषयेनामादिः षड़विधो निक्षेपः । आचा० ४१५ आरवाची निशी. १२९ आ पर तीर्थकृत, सर्वजः । आचा० २०| परं स्वर्गम्। आचा० १७३१ परंदर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयक्षयं, घातिभवोपग्राहिकर्म्मणां वा क्षयम्। आचा० १७३ । परं परलोकः प्रव्रज्यापर्यायः। मोक्षो वा। सूत्र० ५६ । परं परलोकाख्यं नारकादिकं वा। सूत्र० १५२। परं प्रकृष्टः । भग० ७४६ । परं- अग्रतः । उत्त० ६५९ | स्वामी । व्यव० १७२अ । परइड्ढी– परमर्द्धिः-अष्टमवासुदेवनिदानकारणम् । आव ०
१६६ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
परए- परकं अतिक्रमः । उत्त० ६५४ |
परक- भाजनविधिविशेष: जीवा. २६६ 1
परकड - परेण गृहिणाऽऽत्मार्थं परार्थ वा कृतं- निर्वर्तितं परकृतम्। उत्त• ६०/
परकडपरनिट्ठिय– परार्थं कृतं-आरब्धं परार्थं च निष्ठितं अन्तं गतं परकृतपरनिष्ठितम्। दशवॅ- ६७। परकिरिआ परस्मै- स्त्र्यादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया विषयोपभोगद्वारेण परोपकारकरणं, परेण वाऽऽत्मनः सम्बाधनादिका क्रिया परक्रिया सूत्र. १२० | परक्कंत पराक्रान्तः पराक्रमस्तपःप्रभृतिकम्। भग०
१६३ |
परक्कम– पराक्रमः-पुरुषकारः । स्था० २३। पराक्रमः। स्था० ११६। पराक्रमः स एव निष्पादितविषयो बलवीर्ययोर्व्यापारणम्। स्था॰ ३०४ | पराक्रमः शरीरसामर्थ्यात्मकः। उत्त॰ ३४९। पराक्रमः-उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्त्या कर्मारिजयसामर्थ्यलक्षणः। उत्त० ५७१। पराक्रमं जीववी-र्योल्लासरूपमुत्साहम् । उत्त० ३११। पराक्रम्यआसेव्य दशवै २३३ पराक्रमः उत्साहातिरेकः स्था० ४४१। पराक्रमः - मार्गान्तरः । आचा० ३३८ । पराक्रमःनिष्पादि-तस्वविषयः । ज्ञाता० १३५ | प्रक्रम्यतेऽनेनेतिप्रक्रमः मार्गः । आचा० ३३७ । पराक्रमः स एव साधिताभिमतप्रयोजनः शत्रुवित्रासनम्। जम्बू. 9301 पराक्रमः-शत्रुवित्रासन-शक्तिः । जम्बू० १८२| पराक्रमः । सूर्य- २८६ पराक्रमः साधिताभिमतप्रयोजनः शत्रुनिराकरणं वा भग० ५७। पराक्रमः
निष्पादितस्वप्रयोजनः । भग. ३२३ पराक्रम:अन्यमार्गः। दश० १६४ पराक्रमः प्रवृत्तिबलम् ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
दशवै० २७९ । पराक्रमः - सामर्थ्यम् । सूत्र० २७३ | साधिताभिमतफलः:- पुरुषकारः पराक्रमः । प्रश्न० ७३ | पराक्रमः-विक्रमः। जीवा० २७० पराक्रमः - चेष्टा । आव ० १८१| निष्पादितस्वविषयः पराक्रमः । प्रज्ञा० ४६३ | पराक्रमः कषायजयः । आव० ३६१ |
परक्कम - पराक्रमते चेष्टते । दशवै० १०६ । परक्कमणं विवक्षितदेशगमनं पराक्रमणम् सूत्र- २७३१ परक्कममाण- उल्ललयद् । निर० ३४ | परक्कमितव्वं पराक्रमितव्यं शक्तिक्षयेऽपि तत्पालने पराक्रमः - उत्साहातिरेको विधेय इति । स्था० ४४१ । परक्रियासप्तैककः- षष्ठं सप्तिकाऽध्ययनम् । स्था० ३८७ |
परग - वंशनिष्पन्नं छब्बकादि। आचा० ३५७ | परकं येन तृणविशेषेण पुष्पाणि ग्रथ्यन्ते। आचा• ३७२२ सूत्र ३०७, ३०९।
परग्घ- परार्धं-उत्तमार्धं, महार्घम् । दशवै० २२१| परचक्कराया- परचक्रराजा- अपरसैन्यनृपतिः।
ज्ञाता ०१५१ |
परचक्र - दुरितविशेषः । भगटा
परज्झ पारवश्यम्। भग- ३१४ देशीपदत्वात् परवशः राग-द्वेषग्रहग्रस्तमानसतया न स्वतन्त्रः । उत्तः २२८८ परतन्त्रता । स्था० ५०५ परवशीकृतः । बृह० १२३ अ पराधीनः महाप्र० । पराक्रमः । मरण० । परज्झा प्रारब्ध ।
मरण० ।
परट्ठाणंतरं परमाणोर्यत्परस्थानेद्व्यणुकादावन्तर्भूतस्थान न्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरम्। भग०८८६|
परद्वाण परस्थानं-छब्बकादिकम्। पिण्ड० ८९| परट्ठाणवड्ढी- विसरिसं जहा मासलहुयाउ दोमासियं, दुमासातो तेमासितं एवं सव्वा विसरसा परट्ठाणवड्ढी । निशी० २३४ आ
परट्ठाणसन्निगासेणं - विजातीययोगमा श्रीत्येत्यर्थः । भग०९०१।
परततियवावड- परतप्तिव्यावृत्तः
परकृत्यचिन्तनाक्षणिकः प्रश्नः ३८
परत - परत्र । उत्त० ५४० |
परतर- पच्छित्तकरणे समत्यं णत्थि, वेयावच्चकरण
[193]
"आगम- सागर- कोषः " [3]
Page #194
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
लद्धी से अत्थि। निशी० १२३ ।
कोकिलः। प्रज्ञा० ३६० परत्थ- परार्थं मोक्षार्थम्। आव० ३२९। परत्रैव-जन्मान्तरे परपासंड-परपाषण्डः-सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्यतिरिक्तः। अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः। स्था० २४८५
आव०८१६) परत्र- पश्चात्कालम्। नन्दी० १५)
परपासंडपसंसा-परपाषण्डप्रशंसापरद्ध-विक्षिप्तम्। आव० १९९। व्याप्तः। भक्त। सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्यति-रिक्तानां प्रशंसा, प्रशंसनं परद्धा-पराभविता। निशी० ११आ।
प्रशंसा-स्तुतिः। आव०८११। परधणंमि गेही- परधने गृद्धिः, अधर्मदवारस्य सप्तमं परपासंडसंथव-परपाषण्डसंस्तवःनाम। प्रश्न०४३।
सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्य-तिरिक्तस्तवनम्। आव०८११| परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्त
परपासंडी- अण्णाणं मिच्छत्तं कुव्वंतो कुतित्थिए त्रयोविंशतितमवचनातिशयः। सम०६३।
वाएति, जिणवयणं च णाभिगच्छति सो परपासंडी। परपंडित-परः-प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डितः बहुशास्त्रज्ञः, निशी० ८४ ॥ परो वा मित्रादिः पण्डितो यस्य स। स्था० ४५२ | परपिंडतक्कक-परपिण्डतर्ककः-परदत्तभोजनगवेषकः। परपइडिय-परप्रतिष्ठितः-परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठितः- प्रश्न०६३। उदी-रितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो-जातः परप्रतिष्ठित | परपेस- परप्रैषः। उत्त. २६३। इति। स्था० ९२ परेणाक्रोशादिनोदीरितः परप्रतिष्ठितः | परप्पवित्त-परस्मै प्रवृत्त-परैः स्वार्थ निष्पादितत्वेन पर-विषयो वा। स्था० १९३।
परप्रवृ-त्तम्। उत्त० ३५९। परपक्ख- गवादयोऽसंयतः। बृह. १६४ अ। गृहस्थः। बृह. | परब्भंत-उपद्रुतः। निशी. १७३आ। ११४ । परपक्षाः-पाखण्डिनः। ब्रह० ५। परपक्षः- परब्भाहए-पराभ्याहतो-बाधितः। ज्ञाता०६३। गृहस्थादिः। ओघ० १२०| परपक्षः-गृहस्थः। पिण्ड०६७) परभवसंकामकारय-परभवसङ्क्रमकारकःअसंजतो। निशी. १४ अ।
प्राणवियोजित-स्यैव परभवे सङ्क्रान्तिसद्भावात्, परपक्खजयणा-जयणाए तईयो भेओ। निशी० १२१ प्राणवधस्य सप्तदशमः पर्यायः। प्रश्न परपक्ष-अपरभिक्षाचरवर्गः। आचा० ३२६।
परभविय- वर्तमानानन्तरभाविन्यनगामितया यदवर्तते परपक्षकषायदुष्टः- राजवधकः। स्था० १६४।
तत् पारभाविकम्। भग० ३३ परपज्जाय-परपर्यायः। भग० ३६३।
परभाग-शोभा। उत्त०४८३। परपतिहिए- यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना कोपं तदा परभाववंकणया- परभावस्य वङ्कनता-वञ्चनता या किल तविषयः क्रोध उपजायत इति स परप्रतिष्ठितः। | कूटलेख-करणादिभिः सा परभाववकणता। स्था० ४२। प्रज्ञा० २९०
परभाववंचणा-परभाववञ्चनता-मायाप्रत्ययिकीक्रियाया परपरिवाए-विप्रकीर्णं परेषां गणदोषवचनम्। भग०८० | दवितीयो भेदः। आव०६१२| पर-परिवादः-प्रभूतजनसमक्षं परदोषविकत्थनम्। प्रज्ञा० | परमंगाणि- परमाणि च तानि प्रत्यासन्नोपकारित्वेन ४३८। परपरिवादः-परेषामपवदनं परितापः। भग. ५७२ अङ्गानि च मुक्तिकारणत्वेन परमाङ्गानि। उत्त. पञ्चदशमं पापस्थानकम्। ज्ञाता०७५। परपरिवादः- १८१ विकत्थनम्। प्रश्न. १२४१
परमंता- परे-गृहस्थाः तेषां मन्त्राः-तत्कार्यालोचनरूपाः परपरिवात-परपरिवादः-परदोषपरिकीर्तनम्। स्था. परमन्त्राः । उत्त० ४४६। २७५
परम-मोक्षं ज्ञानादिकम्। आचा० १५९। सह। दशवै. ६२ परपरिवाय-परेषां परिवादः परपरिवादः-विकत्थनम्। आ। परमः-अत्युग्रो रसः। दशवै० २९७। स्था० २६॥
परमकेवलं-परमं च तत्केवलं च-परिपूर्ण विशुद्धं वा परपुट्ठ- परपुष्टः-कोकिलः। जम्बू. ३२। परपुष्टः- मतिश्र-तावधिमनःपर्यायापेक्षया क्षायिकज्ञानमिति।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[194]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #195
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
३६।
प्रश्न.१३५
परमहंस- परमहंसः परिव्राजकः। औप.९१। परमग्गसूर-परमाग्रशूरः-दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः परमा-महास्थितयो महाकर्मतरा। भग०७६१। शूरः। दशवै० २५४१
परमाणु-परमाश्च तेऽणवश्च परमाणवो परमट्ठ-परमार्थः-मोक्षः। उत्त०४८७)
निर्विभागद्रव्यरूपाः स्कन्धत्वपरिमाणरहिताः केवलाः परमट्ठपए-परमार्थपदं-सम्यग्दर्शनादि। उत्त०४८७ परमाणवः। प्रज्ञा०१० परमट्ठभेदक-परमार्थभेदकं-मोक्षप्रतिघातकम्। प्रश्न. परमाणुपुग्गला- परमाणुपुद्गलाः
स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणवः। जीवा०७। परमण्णं- परमान्नं-पायसलक्षणम्। आव. १४४।
अनुयो० १६० परमान्न-पायसम्। जीवा. २६८।
परमान्न-पायसम्। जम्बू. १०४। परमत्थ- परमार्थः-जीवादिः। उत्त. १६६। परमार्थ-हेयो- परमाराम-परमारामः-परमश्चासावारामश्चपादेयवचनैदम्पर्यम्। प्रश्न. १२००
ज्ञाततत्त्वमपि जनं परमत्थसंथव-परमाश्च-तात्त्विकाश्च तेऽर्थाश्च हासविलासोपाङ्गनिरीक्षणादिभिर्विब्बोकै जीवादयस्ते परमार्थाः-तेषु संस्तवः-परिचयः, तात्पर्येण र्मोहयतीत्यर्थः। आचा० २१८ बहमानपुरस्सरं जीवादिपदार्थावगमायाभ्यासः। प्रज्ञा० परमावता-सप्तापतीगङ्गास्वरूपा। भग०६७४। ५६|
परमाहम्मिअ-परमाधार्मिकः-असुरविशेषः। सम० २९। परमद्दा- पडिमइंति जे ते परमद्दा शयनकाले परिपिट्टति। परमाहम्मिय-परमाधार्मिकः-नारकाणां दुःखोत्पादकःनिशी. २७७ ॥
असुरकुमारविशेषः। प्रश्न. १४३। परमधर्मः-परमं सुखं परमनिउण-परमनिपुणः, तत्र मोक्षाङ्गत्वात्
तद्धर्मा-सुखधर्मा-सुखाभिलाषी। दशवै० १४२। अव्यंसकत्वाच्च। आव०६१।
परमाहोहिओ-परम आधोवधिकादयः स परमन्न-परमान्न क्षैरेयि। भग०६६४।
परमाऽधोपधिकः। स च परमपय-परपदम्। ज्ञाता० ५५
समस्तरूपिद्रव्यासङ्ख्यातलोकमात्रालोकखण्डासपरमसब्भाव-परमसद्भावः-अत्यंतसत्यता
ख्यातावसर्पिणीविषयावधिज्ञानः। भग०६७। वस्तूनामैदम्पर्यम्। सम० १११]
परमोहि-परमावधिः प्रभूतावधिः। व्यव० १०६ आ। परमसाहू- परमसाधुः-नैष्ठिकमुनिः। प्रश्न. ११४१ परलाभ- परलाभः परस्माद द्रव्यागमः अधर्मद्वारस्य परमसुक्कज्झाणं- परमशुक्लध्यानं
पञ्चमं नाम। प्रश्न. ४३ शुक्लध्यानचतुर्थभेदरू-पम्। प्रश्न० १३५
परलिङ्ग-कुतीर्थिकलिङ्गम् गृहस्थलिङ्गम्। भग. परमसुक्का- शुक्लध्यानतृतीयभेदावसरे या लेश्या सा ८९५ पर-शक्ली, साऽपीतरजीवशक्ललेश्यापेक्षया स्नातकस्य | परलोइया- हयगयादी। निशी. ७१ आ। परम-शुक्ला । भग० ९०२।
परलोकभयं- परभवात् यत् प्राप्यते। आव० ४७२। परमसुह- परमसुखं आत्यन्तिकसुखं-निःश्रेयः। जम्बू० विजाती-यात्तिर्यमनुष्यादिकस्य भयम्। प्रश्न० १४३। १५३
परलोग-प्रधानलोकः परलोकः-मोक्षः। आव० ५३१| परमसोमणस्सिए- परमं सौमनस्यं-सुमनस्कता संजातं परलोकः-देवलोकः। आव० ८४०१ यस्य स परमसौमनस्यितस्तद्धाऽस्यास्तीति
परलोगभत-विजातीयात्-तिर्यग्देवादेः परमसौमनस्यिकः। भग० ११९। शोभनं मनो यस्यासौ सकाशान्मनुष्यादीनां यद्भयं तत् परलोकभयम्। स्था० सुमनास्तस्य भावः। सौमनस्य परमं च तत् सौमनस्यं ३८९। च परमसौमनस्यं तत्संजा-तमस्मिन्निति
परलोगभय-परलोकभयं-यद्धिजातीयात्। सम० १३ परमसौमनस्यितः। जीवा० ३४३।
परलोकमयं विजातीयात्तिर्यग्देवादेः सकाशाद् यद्
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[195]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #196
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
भयम्। आव०६४५५
कुठारः। बृह० २३३ आ। परशुः-कुठारः। अनुयो० २२३। परलोगसंवेयणी-परलोकसंवेदनी, यथा देवा अपि ईर्ष्या- | परसुविज्जा -पशुविद्या। आव० ३९२२ विषादमदक्रोधलोभादिभिर्दुःखैरभिभूता किमङ्ग पुनः परस्पर- एकैकः। उत्त० ३८२। तिर्य-ग्नारकाः। दशवै. ११२। परलोगसंवेदनी
परस्सर- परस्परः-गण्डः। जीवा०। २८२ परस्परः-गण्डः। देवादिभवस्वभाव-कथनरूपा, देवा
प्रज्ञा० २५४। परासरः-सनखश्चतुष्पदविशेषः। जीवा० अपीर्ष्याविषादभयवियोगादिदुःखैरभिभूताः- किं
३८ शरभः। भग० ३०९। सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। पुनस्तिर्यगादय इति। स्था० २१०
प्रज्ञा०४५ परलोगासंसप्पओग-परलोकाशंसाप्रयोगः
परस्सलोभाविल-परस्य-अन्यस्य देवलोकाभिला-षप्रयोगः। आव० ८३९।
सम्बन्धिरूपवद्वस्त्वति गम्यते लोभावलिःपरलोयावाय-परलोकावायः-नरकगमनादिः। आव. ५८९। लोभकलुषः, यद्वा परेषां स्वं-परस्वं, प्रक्रमाद् यद्रूपवस्त् परवडिय-परानीतं यदशनादि। आचा०४०३।
तस्मिन लोभो-गायं तेनाविलः परस्व-लोभाविलः। परवत्थ- परवस्त्रं-प्रधानं वस्त्र परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रम्। उत्त०६३२। आचा० ३६
परहडं-परस्मात्सकाशाद् धृतं परहृतम्, अधर्मद्वारस्य परववएसे- परव्यपदेशः-आत्मव्यतिरिक्तव्यपदेशः। द्वितीयं नामा। प्रश्न०४३। आचा० १८३
परहत्थपाणाइवायकिरिया-परहस्तेनापि तथैव परविवाहकरण- परं-स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्यं तस्य परहस्तप्राणा-तिपातक्रिया। स्था०४१। कन्या-फललिप्सया स्नेहबन्धनेन वा विवाहकरणं परहुअ- परभृतः-कोकिलः। जम्बू० २००। परविवाहकरणम्। आव० ८२५१
परय-परभृतः-कोकिलः। ज्ञाता०२२२ परभृतःपरवेयावच्चकम्मपडिमा-परेषां आत्मव्यतिरिक्तानां कोकिलः। ज्ञाता० २११ वैयावृत्य-कर्माणि
परा-असिएण-दात्रेण। निशी० ३२४ अ। निशी० १३ आ। भक्तपानादिभिरुपष्टम्भक्रियास्तविषयाप्रतिमाः प्रधानां। आव० ८३७। तृणविशेषः। प्रश्न. १२८१ अभिग्रहविशेषाः परवैयावृत्त्यकर्मप्रतिमाः। सम. ९५ पराइए-पुरुषसिंहवासुदेवनिदानकारणम्। आव० १६३। परशुरामः- मानहतः। भक्त०७। जमदग्निस्तः- पराकय- परसम्बन्धिनि। उत्त० ६६५ सप्तवारान् निःक्षत्रा पृथिवीकता। सूत्र. १७०, ३०८। पराक्कममाण-पराक्रममाणः-गच्छन्। आचा० ३३७) कृतवीर्यव्यापा-दकः। सूत्र. ३६५। अप्रतिष्ठाननरके पराक्कमिज्जा-पराक्रमते-गच्छेत्। आचा० ३७७। वेदनावेदकः। जीवा० १२११
पराक्रम- बलवीर्ययोर्व्यापारणमिति। स्था० ३८४। परसमय-परसमयः-साङ्ख्यशाक्यादिसिद्धान्तः। दशवै. | पराक्रान्त-आक्रान्तं-स्थानमेकाकिनो भवति। स्था० १११|
३८४ परसमयसूत्रं-यथा पचखंधे वयंतेगे। ब्रह. २०१ आ। पराघातनाम- यद्दयात् पनरोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक् परसम्पत्-विभूतिः। आव० ५८७)
सौष्ठवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि परसरीरसंवेगणी-परसरीरं चेव असूई, अहवा परस्स त्रासमापादयति प्रति-वादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति शरीरं वण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमप्पाएई
तत्पराघातनाम। प्रज्ञा० ४७३। परशरीरसंवेजनी। संवे-जनीकभाषाया द्वितीयो भेदः। | पराघाय-पराघातः-गर्तापातादिसमुत्थः। आव० २७२ दशवै०११ परशरीरसंवेगनी-परशरीरं-मतशरीरं पराघातः-निसृष्टभाषाद्रव्यैस्तदन्येषां शरीरमेतदशुचिः। स्था० २१०
तथापरिणामापादन-क्रियावत् प्रेरणम्। दशवै. २०८ परसु- परशुः कुठारः। प्रश्न० २१। परशुः-शस्त्रविशेषः। । पराघायनाम- यतोऽगावयव एव विषात्मको आव० ६५१, ८३१। परशुः-कुठारः। उत्त० ४१३। परशुः - | दंष्ट्रात्वगादि परेणोपघातो भवति तत्पराघातनाम।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[196]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #197
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[Type text]
सम० ६७ |
पराजइत्थ- पराजितवान्- हारितवान् । भग० ३१७। पराजिओ- पराजितः पराभवमन्यमानः । उत्त० ३७६ । पराजिणित्ता भृशं जित्वा परिभङ्गं वा प्राप्य सुमना भवति पराजितवान् प्रतिवादिनः । स्था० १३९॥ पराजिणिस्सइ– पराजेष्यते-अभिभविष्यति । निर०६ । पराजिय- पराजितः तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावनाभङ्गः । औप- १२
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पराणग- परकीयम् । गच्छा० ।
पराणि - द्रव्येन्द्रियमनांसि पुद्गलमयत्वात्। बृह• ८अ पराणुग्गहपरायणा- परानुग्रहपरायणः- धर्मोपदेशादिना परानु-ग्रहोद्युक्तः। आव०५९७ ।
पराभए- पराभवः । विपा० ३९ ।
पराभग्ग- पराभग्नः । आव० ९७ ।
पराम- यद्विपर्यासी कृतं भङ्क्ते तदेतत् परामृष्टम्। ओघ १९२२
परामुट्ठो - परामृष्टः । आव० ३६७ । परामुसंति- परामृशन्ति-उपतापयन्ति
दण्डकशताडनादिभिर्घातन्तीत्यर्थः आचा० १९८८ परामुसद्द - परामृशति गृहणाति । भग० २३०१ गृहणाति । विपा० ८७ परामृशति हस्तेन स्पृशति गृह्णाति जम्बू० ३। परामृशति स्पृशति । जम्बू. २००१ परामृशतिआरभते । आचा० १४१ |
परामुसह- परामृशत-नानापीडाकरणैर्बाधयत । आचा० २७३॥
परामुसिए परामृश्य तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य ।
भग० २१८|
परायग- परकीयम्। आव० ८२९| निशी० २९३ |
परायण– परायणः-उद्युक्तः । आव० ५८७, ५९७ परारि - | आचा० १२२
परासर - सरभः । भग० १९१, ५४२ । पराशरः - माहणपरिव्राजकः । औप० ९१ |
परासु:- मृतः । नन्दी० १५५
परास्कन्दी- लुण्टाकः। नन्दी० ६३ |
पराहुत- पराङ्मुखम्। आव० ५४१ । पराङ्मुखः । ओघ० १८०| पराङ्मुखः-पराभिमुखः । ओ० १७६ ।
परि सर्वतः । प्रज्ञा० ५२७| पुनः पुनः बहिर्वा आव०८२८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
परिअ - पर्यायः अन्यथा भवनम् । उत्तः २०२ परिअड परावतः पुद्गलपरावतः । अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः भिन्नः ।
-
आव० ४९५ |
परिअट्टणा - परावर्तना- पुनः पुनः सूत्रार्थाभ्यासलक्षणा । अनुयो० १६ |
परिअट्टय- पर्यायकः-परिपूर्णः । औप० २१ । परिवर्त्तकः वृद्धिकारी अग्रगामी परिपूर्णो वा । औप० २१ | परिअणं- परिजनः- दासादिः । जम्बू० २७० |
परिआए पर्यायः प्रव्रज्यारूपः । दशकै २७६ पर्यायः - तीर्थकृतः केवलीत्वकालः। जम्बू० १५५] पर्यायःचारित्रपालनम्। ज ० १५४म
परिआयट्ठाण - पर्यायस्थानं प्रव्रज्यारूपम्। दशवै० २३८ । परिआविअ - परितापितः समन्ततः पीडितः । आव ० ५७४ | परिउवडिय पर्युपस्थितः उभयत्रोद्यतः । उत्त० ५१२१ परिएसिज्जमाणे तदीयमानाहारेण भोज्यमानान् ।
-
-
आचा० ३२७|
परिकंखए प्रतिकाइक्षति प्रतिपालयति । उत्तः २७३३ परिकच्छिय- परिकच्छितः परिगृहीतः । जम्बू• ४०३१ परिकलिय- परिकलितं-एकत्र पिण्डीकृतम्। पिण्ड
८१|
परिकप्पेह सन्नाहवतं करेह ज्ञाता० ३५ परिकम्म- परिकर्म्म-सकलिताद्यनेकविधं गणितप्रसिद्धं तेन यत्सङ्ख्येयस्य सङ्ख्यानं परिगणनं तदपि परिकर्म्म। स्था० ४९७| दृष्टिवादप्रथमभेदः । सम० १२८ । परिकर्म। आव १०८] परिकर्म वस्त्रपात्रादेः छदनसीवनादि। स्था० ३२० | परिकर्म-संलेखना । उत्तः ६०३ परिकर्म रोगो-त्पत्तौ चिकित्सारूपम्। उत्तः ४६॥ प्रतिकर्म आव• २२६ परिकर्मस्थाननिषदनत्वग्वर्त्तनादिना विश्रामणादि च तपभेदः । उत्त० ६०२१| पराक्रम्य-समीपमागत्य अभिभूय वा । सूर्य० १०| परिकर्मः- तद्व्यापारे लग्नः । ओघ० १२८ । परिकर्म्म- द्रव्यस्य गुणविशेष परिणामकरणम् । व्यव०
१। परिकम्मण- सिक्खावणं निशी. ३आ निशी० १६६
[197]
अ।
परिकम्मणा उवहिप्पमाणप्पमाणेण संजयप्पाउग्गं
"आगम- सागर- कोषः " [3]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
करेति। निशी. २३५।।
परिक्खित्ता-परिक्षिप्ता-परिकरिता। भग० ४७८॥ परिकम्मिज्जमाण-क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमः। भग० परिक्षिप्ता-वेष्टिता। ज्ञाता० २३६। २५४।
परिक्खित्तिया–परिक्षिप्तो-विस्तारितः। भग० ४६०। परिकम्मोवघाते- परिकर्म-वस्त्रपात्रादेः छदनसीवनादि | परिक्खिया-परीक्षिता-पराजिता। आव० ५०४१ तेन तस्योपघातः अकल्प्यता परिकर्मोपघातः। स्था० परिक्खिव-प्रतिक्षिपेत्-सूत्रतोऽर्थत उभयतो वा न्यसेत्। ३२०
सूर्य. २९६। परिक्षेपः-परिरयः। जम्बू. २११ परिक्षेपःपरिकर- वागुरा। राज० १२२
भित्यादेरेव परिधिः नगरपरिखादिर्वा। अनुयो० १५४। परिकरण- पात्रबन्धादिकम्। ओघ० १३२
बाहिरिका। निशी. १६८ अ। परिक्षेपः-परिधिः। भग. परिकर्म- दृष्टिवादप्रथमभेदः। सम०४१। अवस्थितस्यैव ११९। परिक्षेपः-संक्षेपः। आचा. २६४। परिक्षेपः। अन्यो. द्रव्यस्य गुणविशेषापादनम्। जम्बू० ५। द्रव्यस्य
१७५ गुणविशे-षपरिणामकरणम्। आव० ५४। विनाशः- परिक्खेव- परिक्षेपः-वृत्तिवरंडकादिसमन्विते अबाये। गुणान्तरोत्पादनम्। स्था०४।
व्यव. ४०आ। परिकर्षकः-अग्रेगामी। औप०२११
परिक्षेपणं- परिवेष्टनम्। उत्त० १७४। परिकिण्ण- परिकीर्णः-परिवृतः। उत्त. ३४९।
परिखा-उपरि विशाला। सम० १३७ परिखा-अध उपरि च परिकिलेस-परिक्लेशो महामानसायासः। भग० ४७०। समखातरूपा। भग० २३८५ उपरि विशालाऽधः परिक्लेशः-उपतापः। प्रश्न. ३७
सङ्कुचिता। जीवा० १५९। परिकुंचनाप्रायश्चित्तं- प्रायश्चित्तप्रकारः। व्यव० ११ परिखेव-परिक्षेपः-परिधिः। जीवा. ९७। ।
परिगय-परिगतं-वेष्टितम्। प्रश्न०७३। परिगृहीतंपरिकुविय-परिकुपितः-शरीरे समन्ताद्
परिवेष्टि-तम्। ज्ञाता०४२। परिगतम्। आव०४२६ दर्शितकोपविकारः भग० ३२२१
परिगर-परिकरः-मल्लकच्छबन्धेन परिक्कमंति- परान् वा-इन्द्रियकमरिपन आक्रमन्ते- युद्धोचितवस्त्रबन्धविशेषः। जम्बू० २०१। परिकरःपराक्र-मन्ते। आचा०२३३।
प्रगाढगात्रिकाबन्धः। जम्बू० २०५१ परिक्कम-परिकर्म-अवस्थितस्यैव वस्तुनो
परिगलत्स्रोतः- जलाशयः। आचा० २२० गुणविशेषाधानम्। अनुयो० ४६।
परिगालण-परिगालनं-शक्तिशखमत्स्यादिग्रहणार्थं परिक्कमिज्ज- पराक्रमेत-विहरेत् तिष्ठेद्वा। आचा० २७। जलनिः-सारणम्। प्रश्न. १४॥ परिक्कमे- परिक्रामेत्-चक्रम्याद्। आचा० २९३। परिगिज्झ-परिगृह्य-अङ्गीकृत्य। उत्त०६४। परिगृह्यपरिक्केस- परिक्लेशयतीति परिक्लेश:
आश्रित्य। आचा० १२३।। पुत्रकलत्रादिसंबन्धः। उत्त० ५२२
परिगीयं-परि-समन्ताद गीतं-ध्वनितं यत्र तत्। ज्ञाता० परिक्खग-जेहिं सद्दसत्थाणि णयादीणि सत्थाणि
४० अधीताणि ते। दशवे. १८१
परिगुव्वति-परिगुप्यति-व्याकुली भवती, सततं परिक्खभासी-परीक्ष्यभाषी-आलोचितवक्ता। दशवै. भ्रमतीत्यर्थः। स्था० ५०३। २२३
परिग्गह-परिग्रहः-धर्मोपकरणवर्जवस्तु स्वीकारो परिक्खा-परीक्षा-युक्तायुक्तविचारणम्। आचा० १७५।। धर्मोपकर-णमूर्छा च। भग० ४२परिग्रहः-परिवारः। परिक्खित्त-परिक्षिप्तः परिषेकः। प्रश्न. २११
प्रश्न. ४७ पञ्चमं पापस्थानकम्। ज्ञाता०७५ परिक्षिप्तः-व्याप्तः। जम्बु० ३७। परिक्षिप्तः
परिग्रहः-अङ्गीकारः। जम्बू. १२७। परिग्रहः-परिवारः। विस्तारितः। जम्बू. ३७ अन्त०७ परिक्षिप्तं-वेष्टितम् प्रश्न. ४७ परिगृह्यत इति परिग्रहः-शरीरोपध्यादिः, | ज्ञाता०२२२१
परिग्रहणं वा परिग्रहः-स्वीकारः, परिग्रहस्य प्रथमं नाम।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[198]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #199
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रश्न० ९२ परिग्रहः- धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः | परिघोलेमाणे- गमागमं कुर्वन्। औप०६१। धर्मोपकरणमूर्छा च। प्रज्ञा० ३३५। परिग्रहः
परिचत्तकामभोग-परित्यक्तकामभोगः-सर्वविरतः। स्वस्वामिभावेन मूर्छ। प्रज्ञा० ४३८ परिग्रहः-स्वीकारः। स्था० १२६| प्रश्न.४ प्रतिग्रहम्। आव० २६२ परिसमन्तात् गृह्यत | परिचत्तलोगवावार-परित्यक्तलोकव्यापारः, इति परिग्रहो-द्विपदचतुष्पदधनधान्य
मुनेर्लक्षणम्। आव० ४०० हिरण्यसुवर्णादिषु ममीकारः। सूत्र. १७७। परिसमन्ता | परिचय-परिचयः-हेवाकः। बृह. २०७ अ। गृह्यत इति परिग्रहः
परिचयसंस्तव-सम्बन्धिसंस्तवः। पिण्ड० १३९। धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः, आत्मात्मी-यग्रहो | परिचार- एकोनपञ्चाशततमकला। ज्ञाता० ३८१ वा। सूत्र० १९श परिग्रहः-संयमातिरिक्तमुपकर-णादिः। | परिचारग-परिचारकः-कामकः, यः परिचारणां-मैथुनाभिआचा० १३२ परिगृह्यते-स्वीक्रियत इति परिग्रहः। ष्वङ्गं करोति सा प्रश्न. ३०| स्था० २६। परिग्रहणं परिग्रहः-मूर्छा। स्था० २६। परिग्रहः | परिचित- दिट्ठी भट्ठो पुव्वज्झुसितो पुव्व एगगामणिवासी -धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादयः। स्था०४६। वा। निशी० १५५आ। स्थिरः। आचा. १९५० परिग्गहसण्णा-परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलाषः
परिचितसूत्रता-उत्क्रमक्रमवाचनादिभिः स्थितसूत्रता। तीव्रलोभोदय-प्रभव आत्मपरिणामः। आव० ५८० उत्त० ३९ परिग्गहसन्ना- लोभोदयात्
परिचोइओ- परिचोदितः। आव. १९५ प्रधानभयकारणाभिष्वङ्गपूर्विका
परिच्चइत्तए- परित्यक्तम्। ज्ञाता० १३४१ सचित्तेतरद्रव्योपादक्रियैव परिग्रहसज्ञा। भग० ३१४।। परिच्चाग-विवेगकरणं। निशी. १७। परिग्रहसज्ञा-लोभविपाकोदयसमुत्थम परिणामरूपा। परिच्छा- तुलणा। निशी० २६४ अ। जीवा. १५
परिच्छाय-परिच्छेदः-आच्छादनंलोभोदयात्प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका
कटकम्बादिभिरावरणम्। जम्बू० २०९। सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसज्ञा। प्रश्न परिच्छि-नैयत्ये व्यवस्थापितम्। आव० ५९१। રરરા
परिच्छी- प्रीतीच्छिकी। गच्छा। परिग्गहिया-परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः । परिच्छद- गणिः। नन्दी. १९३। धर्मोपक-रणमा स च प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी, | परिच्छय-परिच्छिकः-लघुः। औप०६३। परिच्छेकोलघः। सम्यग्दृष्ट दवितीया क्रिया। प्रज्ञा० ३३४| प्रगृहीता- ज्ञाता०२२१। अभिग्रहयुक्ता। बृह. २२४ । परिग्रहे भवा
परिजण-परिजनः-दासादिः। भग० ४८३। पारिग्रहिकी। स्था०४१। पारिग्राहिका-विंशतिक्रियामध्ये परिजनकथा-परिजनसम्बन्धकथा। प्रश्न. १३९। द्वितीया। आव०६१२
परिजवन-परिजल्पनं-परिजल्पः। निशी. १८४ अ। परिग्गाहिय-परिगृहीतः-स्वीकृतः। ओघ.१४० परिजविय-परैः-सार्धं भृशमुल्लापं कुर्वन्। आचा० ३८० परिघट्टयंत-परिघट्यमानः। उत्त० ३०३।
परिजाणामि-परिजानामि-आसेवनपरिज्ञानेन परिघट्टिया-परिघट्टिता-संस्पृष्टा। जीवा० १९३।
परिविदधेऽह-मित्यर्थः। आचा० २७१। परिघासियं- परिगुण्डितम्। आचा० ३२१।
परिजाणित-परियानं-देशान्तरगमनं तत्प्रयोजनं येषां परिघासेउं- परिघासयितुं-भोजयितुम्। आचा० २७२। तत् परियानिकं गमनप्रयोजनम्। स्था० ५१८। परिघित्तव्वा-परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादि, परिजायकुसुम- परिजातकुसुमम्। प्रज्ञा० ३६१। ममत्वपरिगृहतः। आचा० १७९/
परिजितं-समन्ताज्जितं, परावर्तनम्। अन्यो० १५ परिघोलणं-परिघोलनं-विचारः। आव०४२६। नन्दी. परिजिय-परिचितः। स्था० ३४२।
| परिजुण्णा-परियुना दारिद्र्यात्। स्था० ४७४।
१६४१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[199]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text] परिसमतओ जुण्णा-दुब्बलभावमुवगता। दशवै० १३५| आव० ६१९। परिजन्न- परिजीर्ण-समन्ततोर्बलभावमापन्नम्।। परिट्ठावणिया-परिस्थापनंदशवै० २४८। परिजीर्ण-समन्तात् हानिमुपगतम्। उत्त प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्झन-लक्षणं तेन निवृत्ता ९२१
या परिस्थापनिका, येन भाजनेन भिक्षां ददाति तस्मिन् परिजुन्ना-दशविधप्रव्रज्यायां तृतीया, परियुना-दारिद् पतितौदानादि जात सहसा परिस्थापितम्। आव० ५७६।
या-त्काष्टहारकस्येव या सा परिदयना। स्था० ४७४।। परिहाविज्ज-परिस्थापयेद-व्यत्सृजेत्। दशवै० २३१| परिजुसित-निसेवितः परिझुंसियः-परिक्षीणो जरादिना। परिठाणुववाइयं-परिस्थानोपपातिकम्। प्रज्ञा० २०८ स्था० १८८
परिणए-परिणतं-पर्यायान्तरमापन्नम्। भग. २४९। परिजुसिय-पर्युषितं-रात्रिपरिवसनम्। स्था० २२०। परि- परिणत-परिनिष्ठिततां गतम्। अनुयो० १७७। जषितः-सेवितः प्रीतो वा। औप० ४३। सेवितः-पीतः। परिणता-सुत्तेन वयेण य वत्ता-त्यक्ता। निशी. २६ भग. ९२५
आ। धर्मश्रद्धालवः स्थिरचेतसञ्च। ब्रह. १६६ आ। परिजुसियसंपन्न- पर्युषितसम्पन्नः पर्यषितं
परिणद्ध-परिणहनम्। ज्ञाता० १३३। परिगतम्। ज्ञाता० रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः। स्था० २२०
१६६। परिजरइ-परिजीर्यति-सर्वप्रकारां वयौ हानिमनभवति। | परिणमति-परिणमति अतिक्रामति। स्था० ३४५ उत्त० ३३८५
परिणमति-भवति। भग० ५५ परिणमति-प्रपद्यते। परिजुसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते
जीवा० ३०७ परिणमति-परिसमाप्तिम्पयाति। सूर्य परिजुषितकामभोगसंप्र-योगसंप्रयुक्तः-सेवितः प्रीतो वा | १७२। विपरिणामं भजते। व्यव० १६० अ।
यः कामभोगः-शब्दादिभोगो मदनसेवा। औप०४३। परिणममाणंसि-परिणमति, पूर्यमाणे, परिपूर्णप्राये। परिज्जए- कृष्णपुद्गलः। सूर्य० २८७।
जम्बू० १९८१ परिज्झा-कामभोगपिवासा। दशवै. १४
परिणममाण-पूर्यमाणे-परिपूर्णप्रायः। ज्ञाता० ३४| परिज्झिओ-अनगओ। दशवै० १४॥
परिणमिज्जा-परिणमेत्-निवर्तेत। आचा० १२९। परिझुसिय- सेवितः पीतः। भग० ९२५१
परिणमिय-परिणामितःपरिज्ञा-प्रार्थना। आचा० ३७९।
पूर्वस्वभावत्याजनेनात्मभावनीतः। भग० ६८३ परिज्ञानं- परिपालनम्। आचा० १६९।
परिणय- परिणतः-गीतार्थः। ओघ० ७९। परिणतं-उदकपरिद्वविज्ज-प्रतिष्ठापयेयः-त्यजेयुः। आचा० ३८४।। दायकावस्थाप्राप्तम्। स्था० १४२परिणतः परिदृविज्जमाणं- परित्यज्यमानं देवायतनाच्चतुर्दिक्षु परिनिष्ठिततां गतः। जम्बू० ३८७। परिणतः-परिगतः। क्षिप्य-मानम्। आचा० ३३७५
औप०७। परिणतः-प्रस्तावादात्मरूपनामापन्नम्। उत्त. परिद्वविज्जा-प्रतिष्ठापयेत्-व्यत्सृजेत्। दशवै. १७८१ ६६श परि-निष्ठिततां गतः। भग०६३१। परिणतःपरिद्वविय-परिष्ठापितम्। व्यव० ३०८ अ।
अवस्थान्तरमापन्नः। ज्ञाता० १७४। परिणतःपरिद्वविया-परिस्थापिता-पतिता परित्यक्ता। बृह. ६७ स्वकायपरकायशस्त्रादिना परिणा-मान्तरमापादितः, परिहवे-परिष्ठापयति। ओघ० १५४।
अचित्तीभूतः। स्था० ५४। परिद्ववेइ-परिष्ठापयेत्-परित्यजेत्। आचा० ३५२। परिणयवए-सम्पन्नावस्थाविशेषः, तरुणः परिणतवयः। परिद्ववेज्जा-परिष्ठापये बहिर्नीत्वा त्यजेत्। उपा० ४२ प्रश्न. ३८ परिद्ववेत्ता- प्रतिस्थाप्य प्रतिनिवृत्य। ओघ. १७३। परिणयवय-परिणयवयः-विगतयौवनः। ज्ञाता० १५७। परिहावणं-परिस्थापनं
परिणयापरिणय-दृष्टिवादे सत्रभेदे दवितीयो भेदः। सम० प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्झनलक्षणम्। आव० ५७६| | १२८१ पारितः-सर्वैः प्रकारैः स्थापनं अपन-र्ग्रहणतया न्यासः। | परिणाम-परिणामः-भावः। भग०८९०| समन्तान्नमनं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[200]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्म-धर्मः। आव० ४१५। समन्तान्नमनम्। जम्बू। सर्व-थाऽपारित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रुपान्तरेण भवनं परिणामः। अनुयो० १२०| संघर्षम्। आचा० ३६३। परिणामः-परि-समापकः। जम्बू. ५०५ परिणामःप्रज्ञापनायां त्रयोद-शमं पदम्। प्रज्ञा०६। परिणामःइहलोकादयाशंसालक्षणः। आव० ८४८ परिणामःविश्रसारूपः। भग० १८८ परिणामः-परिणतिः। औप० ९९। परिणामः-अध्यवसाय-विशेषः। आव० ३३९। परिणाम-पर्यायान्तरापत्तिलक्षणम्। दशवै. २३७। परिणामः-आहारपरिपाकः। जम्बू. १२७। परिणामःपरिपाकः। जम्बू. १६८ भवांतरगमणं। दशवै० १२७। परिः-समन्तान्नमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः। भग० ५७३। परिणामः जीवपरिणतिः। जम्बू. २७९। परिणामःआहारपाकः। जीवा० २७७। परिणामःद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीवशतस्तत्तद्-पास्कन्दनम्। जीवा. ३७४। परिणामः-आहारपरिणतिः। प्रश्न० ८३ परिणामः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्। स्था० २०११ परिणामः-आकारबोधक्रियाभेदात् त्रिधा। स्था० १८३। परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः। स्था० २८३। परिणामः पर्यायः स्वभावः धर्मः। स्था० ३७५। परिणामः-विपाकः। स्था० ३७५ परिणामः-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमित्यर्थः। स्था० ३७८परिणामः-धर्मः। सम० ४२ । परिणामं परिसमापकम। सर्य.१११। नन्दी. १४४ परिणामक-तत्तथा श्रद्दधाति तमेवं श्रद्धानं रोचयंतं
जानीहि परिणामकं साधम्। बृह० १३२ अ। परिणामगा-अववादसद्दहणा। निशी० ३२४ आ। परिणामणय-परिणतिरिन्द्रियादिविभागः। भग०६०४।
शब्दादिविषयोपभोगः। सम. १४६| परिणामपयं-प्रज्ञापनानां त्रयोदशं पदम्। भग० ६४१। परिणामिकारणं- मृत्पिण्डः। स्था० ४९४। परिणामिणी-कायिकी। बृह. १४८ अ। परिणामिया-परिणामान्तरमापादितम्। भग. १७९। परिणामेइ-कथयति। आव०४२३
परिणामेज्जमाणे- परिणम्यमानः। स्था० ४७२। परिणाह-परिणाहः-ज्याधनःपृष्ठयोर्यत्प्रमाणम्। स्था० ६८परिणाहः-परिधिः। स्था०६९। परिणाहःमध्यपरिधिः। जम्बू. २३४। परिणाहः-परिधिः। जम्बू. ३१२ परिणाहः-परिधिः। स्था० ६८ वित्थारो। निशी० २६६ आ। नातिस्थौल्यं नातिर्बलता बाह्वोर्विष्कम्भोर्वा। बृह. ३०९ आ। परिणिट्ठिय-परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्नम्। जम्बू. २११। परिणिट्ठिय-परिनिष्ठितं-सिद्धम्। उत्त० ११७ परिनिष्ठितः-ज्ञाननिष्ठां प्राप्तः। आव. २६४। परार्थमचित्तीकृतम्। बृह. १०६ अ। परि-समन्तात् निष्ठितः परिनिष्ठितो, ज्ञान-निष्ठां प्राप्त इत्यर्थः।
आव. २६४। परिणिव्वाइ-परिनिर्वाति सामस्त्येन शीतीभवति। प्रज्ञा.
६०६। परिणिव्वाण-परिनिर्वाणं-मरणम्। भग० १२९।
मृतशरीरप-रिष्ठापनम्। भग० १२९। परिणिव्वाणवत्तियं-परिनिर्वाणं-मरणं तत्र यच्छरीरस्य परि-ष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययोहेतुर्यस्य सः परिनिर्वाणप्रत्ययम्। भग. १२९। परिणिव्वाति-परिनिर्वातिसकलकर्मकृतविकारव्यतिकर-निराकरणेन शीतिभवति। स्था० १८११ परिणिव्वुय- परिनिवृतः कषायान्युपशमनः-समन्तात्
शीतीभूतः। उत्त० ३४१। परिणता-अभिग्गहिया। निशी. १११। परिणा-परिज्ञा-अनशनम्। बृह. २१५ अ। परिज्ञादिवसचरिमप्रत्याख्यानम्। बृह. ११७ आ। परिज्ञानवान्अनशनी। बृह. ५आ। प्रत्याख्यान तपो वा। बृह० १५०
। परिज्ञा। आव० ६३७। प्रत्याख्यानम्। व्यव० ११५अ। निशी. १३४ अ। अणासगं। निशी. ३५२ आ। पच्चक्खाणं। निशी० ३०७ आ। पच्च-क्खाणं। निशी. १३३ अ। परिज्ञा-अन्तक्रियालक्षणा सम्यग्विधेया। स्था० ४४५। परि-समन्ताज्ज्ञानं पापपरि-त्यागेन परिज्ञा
सामायिकमिति। आव० ३६४। | परिण्णाय-परिज्ञाय-परिज्ञयाज्ञात्वा। भग० १००।
परिज्ञातं-प्रत्याख्यातम्। आचा०६६। परिज्ञातः
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[201]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
| وا
तत्त्वस्वरूपादिपरि-ज्ञानात्प्रत्याख्यातः। सम. २० परिमित इति। उत्त०७०८1 परित्तः-प्रत्येकशरीरी परिणी-अणसणोवविट्ठो। निशी. ८६अ।
शुक्लपाक्षिकञ्च। प्रज्ञा० १३। परीत्तं-नियतपरिमाणम्। परितंत-परितान्तः-सर्वतः खिन्नः। ज्ञाता०१३९। परि- भग. २४८। प्रत्येकम्। पिण्ड. १४९। परीत्तःश्रान्तः। दशवै. १०५ परिश्रान्तः। आव. १९२१
प्रत्येकशरीरी। जीवा० ४८ परीतः-भवकायभेदभिन्नः। परितान्तः -सर्वथा श्रान्तः। आव. ५३५। परिश्रान्तः- प्रज्ञा० १३९। परीतं-प्रदेशतः परिमितम्। भग० २४८। गुरुवैयावृत्य-करणादिना। आव० ७८४। परितान्तः- परीतः-परिः-समन्तादितो गतः प्रभष्ट इति। सूत्र० ३९३। खिन्नः। उत्त० १२९। रोगार्तः। ओघ० २००परितान्तः- परीत्तः- प्रत्येकशरीरी-आभिनिबोधिक-ज्ञानविचारे सर्वथा खिन्नः। ज्ञाता० २२७। उद्विग्नाः। बृह. ५९ आ। पञ्चदशमद्वारम्। आचा० २१। परीतः-पृथग् परितण- परिजनः-शिष्यवर्गः। स्था० ४४१।
शरीराणामेकद्वित्रिअसंख्येयानां जीवानामाश्रयः। ओघ. परितलिय- परितलितं-सकमालिकादि। ओघ०४९। ३४। परिमितोपधिः। बृह. १९आ। निशी० ९५आ। परितात-पर्यायः जन्मकालः प्रव्रज्याकालो वा। स्था० एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमितः। भग. ३५८१ परिवारः-परिकरः। स्था० २७२।
५५९। परिताभाए-परिवेसयति। निशी. ३५ अ।
परित्तजीव- प्रत्येकशरीरजीवात्मकम्। प्रज्ञा० ३६। परितायति-परिसमन्तात् पीडयती-तापयति। आचा. परित्तमिस्सय-परीत्तविषयं मिश्रकं परीत्तमिश्रकं यथा
अन-न्तकायलेशवति परित्तो परितायथेरा- पर्यायस्थविराः
परीत्तोऽयमित्यभिदधतः। स्था० ४९१| विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्याय-वन्तः। स्था० ५१६। परित्तमिस्सियापरितारण-वेदोदयप्रतीकारः, तत्र स्त्रीसयोः कायेन प्रत्येकवनस्पतिसङ्घातमनन्तकायिकेन सह परिचा-रणा-मैथुनप्रवृत्तिः । स्था० ३०३।
राशीकृतमवलोक्य प्रत्येकवनस्पतिरयं सर्वोऽपीति परिताव-निहरवायणतज्जियस्स जो महणं संतावो सो। वदता प्रत्येकमिश्रिता। प्रज्ञा. २५६) दशवै० १३६। परितापः-रविकिरणादिजनितस्तापः। परित्तमीसग-परीतमिश्रा-सत्यामषाभाषाभेदः। दशवै. उत्त० ८९। परितापः-पीडाकरणम्। भग० १८१।
२०९। परितावणेअण्हओ-परितापनपूर्वक आश्रवः
परित्तमीसय-सत्यामृषाभाषायां अष्टमीभाषा। स्था० परितापनाश्रवः प्राणवधस्य षड्वंशतितमः पर्यायः। ४९०१ प्रश्न.६
परित्तसंखेज्जय-परीत्तासङख्येकं, संख्याविशेषः। परितावणा-परितापना दुःखासिका। ओघ०६५
अनुयो० २३९ परिताविय-परितापितः क्वथितम्। बृह० २३४ आ। परित्तसंसारिता-परीत्तसंसारिकाः-संक्षिप्तभवाः। स्था. परितलितम्। ओघ०६७।
६०१ परितावेइ-परितापयति-समन्ततः पीडयति। भग० २३०५ | परित्तसंसारी-परीत्तसंसारीपरितावेति-परितापयति-पीडयती। प्रज्ञा०५९
कतिपयभवाभ्यन्तरमुक्तिभाग। उत्त०७०८ परितावेह-परितापयथ-समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ। परित्ता-परीत्ताः-प्रत्येकशरीराः। स्था० १३२ संख्येया भग० ३८११
आद्यन्तोपलब्धेर्नानन्ता। सम. १०८। परिमिता। परितासं-परित्रासम्। ज्ञाता० ३६।
नन्दी० २१० परितिर्यक्कटनं-कटादिभिः समन्ततः
परित्ताणतय-परीत्तानन्तकं सङ्ख्याविशेषः। अनयो० पार्वाणामाच्छादनम्। बृह० ९२ अ।
ર૪રા. परित्त-परित्तः-परिमितः। राज०४७। परितः
परित्तास-परित्रासः-आकस्मिकं भयम्। जम्बू. १५०| समस्तदेवा-दिभवाल्पतापादनेन समन्तात्खण्डितः, परित्तीकरेति-स्तोकं कर्वति। भग. ९५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[202]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
परित्तीकुर्वंति- संसारसागरं ह्रस्वतां नयति । सम० १२७ परिदाह- परिदाहः बहिः स्वेदमलौ बहिर्वा अन्तश्च
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
तृष्णाया जनितदाहस्वरूपः । उत्त० ८९| परिदेवइज्जा- परिदेवयेत् स्वेदं यायात्। दशव० २५31 परिदेवण- परिदेवनं पुनः पुनः क्लिष्टभाषणम्। आव०
५८७ ।
परिदेवणता - परिदेवनता पुनः पुनः क्लिष्टभाषणम्।
स्था० १८९ |
परिदेवणया- परदेवनता पुनः पुनः क्लिष्टभाषणता ।
भग० ९२६|
परिदेविय- परिदेवितः विलपितः । प्रश्नः २०| परिद्युनः परिपेलवः निःसारः आचा० ३५ परिधानीय श्रृङ्खलकम्। जम्बू० २७५१ परिनिहित परिन्नाय परिज्ञातः परिनिष्ठितः
अप्रतिष्ठितो वा । व्यव० ३९० आ । यथायोगं विधिर्यतनया वा सम्यक् परिज्ञातः प्रतिष्ठितः । व्यव० ३९० आ
परिनिडिय परिनिष्ठितः कृतः। ओघ १९९१ परिनिर्वाण्यवाचना- परीति सर्वप्रकारं निर्वापयतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतःपूर्वदत्तालाप कादि सर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्व-मनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना सूत्रप्रदानम्। उत्त० ३९॥ परिनिव्वाइ- स एव तेषां कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथायथा क्षयमाप्नोति तथा शीतीभवन् परिनिर्वातीति ।
भग० ३४| परिनिव्वाइस्सति परिनिर्वास्यति
कर्मकृतविकारविरहाच्छीती भविष्यति । सम० ७
परिनिव्वाण परि-समन्तान्निर्वाणंसकलकर्म्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणम्। स्था० २५| परि-निवृतिः-परिनिर्वाणं आनन्दसुखावाप्तिः। सूत्र॰ ३४१। परि-निर्वाणं-सुखम्।
आचा० ७१|
परिनिव्वाणवत्तिय परिनिर्वाणमुपरतिर्मरणं,
तत्प्रत्ययोनिमित्तं यस्य स परिनिर्वाणपत्ययः मृतकपरिष्ठापना कायोत्सर्गः । ज्ञाता० ७७, १९८
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
परिनिव्वाति- परिनिर्वाति सर्वथा सिद्धिं प्राप्नुवति। दशवै० ११९ ।
परिनिव्वायति- परिनिर्वाति कर्मदावानलोपशमेन उत्त० १७२१ परि-समन्तात् निर्वाति, सर्वदुःखामन्तं करोति ।
आव० ७६१ |
परिनिव्वुओ- परिनिर्वृतः क्रोधादिज्वालानिर्वाणात् ।
आचा० १५०|
परिनिव्वुङ– परिनिर्वृतः-रागद्वेषविरहाच्छीतीभूतः । सूत्र ९४ परिनिर्वृतः कर्म्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः । स्था॰ ३६। भग० १११। स्वास्थ्यातिरेकात् । ज्ञाता० १०३ | परिनिब्बुडा जाड़ जरामरणरोगादीहिं सव्वप्पगार णति विप्प-मुक्का दश १२आ।
परिन्न परिज्ञा भक्तप्रत्याख्यानम्। बृह० ५ अ परिन्नचारि परिज्ञानं परिज्ञा सदसद्विवेकस्तया चरितुं शील-मस्येति परिजाचारी जानपूर्व क्रियाकारी आचा०
४३१|
परिन्ना- परिज्ञा वस्तुस्वरूपस्य ज्ञानं तत्पूर्वकं च प्रत्याख्या-नम्। स्था॰ ३१७। परिज्ञा- ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानम् स्था० ४४४ परिण्णा-परिजाप्रत्याख्यानम् ओघ १९९१
परिन्नाविवेग - परिज्ञाविवेकः परिज्ञानविशिष्टता,
कस्यचित् कोऽप्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुः । आचा.
२११ |
परिपग- विपाकः । व्यव० २० आ
परिपच्छति पर्यवस्यति । उ०मा०गा० १३
परिपट्टगा वस्त्रपरावर्त गृहणन्ति जे ते परियहगा, आभरण- मंडयं । निशी० २२७ अ
परिपड - परिपतति तिर्यग् निपतति । जीवा० २४८० परिपडति - परिपतति तिर्यग् निपतति । जम्बू० ४१९ । परिपिंडित - अव्यवच्छिन्नं करचरणं वचनकरणं वा
यस्य । बृह० ११ आ।
परिपिंडिय परिपिण्डितं प्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते आवर्तान् व्यञ्जनाभिलापान् वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन्, कृतिकर्मणि चतुर्थः दोषः। आव० ५४३ | परिपिरिय- कोकिलपुटकावनद्धमुखो वाद्यविशेषः । भग०
२१६|
परिपुण्ण परिपूर्ण-संभिन्नम् । प्रज्ञा० १४१|
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
परिपूणग-परिपूणकः-घृतपूर्णक्षीरकगालनक
परिभायंतियं- परिभाजयन्तिकां-पर्वदिने स्वजनगृहेष चिटिकावासो वा। आव० १०२। परिपूर्णकः-येन
खण्ड-खाधादयैः परिभाजनकारिकां महानसे नियुक्ता। घृतपूर्णयोग्यं पानं गल्यते। बृह. ५५अ।
ज्ञाता०११७ परिपूय-परिपूर्त-वस्त्रेण गालितम्। औप. ९४।
परिभावणाओ-आभाव्यार्थपरिहारेणन्यविक्रयाः। औप० परिपूर्णेन्द्रियता-अनुपहतचक्षुरादिकरणता। उत्त० ३९। १०३ परिपेरंत-पर्यन्तेषु परितः। आव० २१७। परितः पर्यन्ते। | परिभावितं-विचारितम्। नन्दी. १५२२ आव० २१९। ओघ० १८०
परिभावमाण- परिभावयन् ददत्। भग० १६४। परिपेलवरसः- मन्दानुभावः। भग० ३५
परिभाव्य-विचार्य। नन्दी० १६७ परिफल्गु-निस्सारम्। अनुयो० २६१|
परिभाषा- लोकन्यायः। आव० ४८४, २५७। परिफल्गवचसः-परिव्राजकादयः। आचा० ४७
परिभास- परिभाषणं परिभाषा अपराधिनं प्रति परिब्भट्ठय- परिभ्रष्टः। आव०४२२।
कोपाविष्कारेण मा यासीति अभिधानम्। स्था० ३९९। परिब्भमति-परिभ्राम्यति। आव. २९३।
परिभासणा-परिभाषणा-भरतकाले दण्डनीतिः। जम्बू. परिब्भुसित- बुभुक्षितः। निशी० १५१ आ।
१३४। परिभाषणा-परिभाषणं परिभाषा-कोपाविष्करणेन परिभज्जमाण-परिभृज्यमानः। आव० ८१४१
मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानम्। आव० ११४ परिभडिया-परिभ्रष्टा। आव० ४२९।
परिभासी-परिभाषी पराभवकारी। आव०६५४| परिभव- खिंसना। ओघ. २१५ परिभवः-विधेरकरणम्। परिभासेइ- परिभाषते-निन्दति। सूत्र० ४२५१ आव०७५९
परिभुंजणया-परिभोजनता-अवस्थानम्। सम०४५। परिभवणिज्जे- परिभवनीयोऽनभ्युत्थानादिभिः। ज्ञाता० परि जमाण- परिभुज्यमानं-परिभोगायोपयुज्यमानम्। ९४|
जम्बू० ३६] परिभवह- परिभवः समस्तपूर्वोक्तपदाकरणेन। भग० परिभुजेमाण- भोज्यं भुञ्जानः-परिभुजानः। भग० १६४। २१९।
परिभुङ्क्ते-आसेवते। स्था० ३००। परिभाइज्जमाणं-परिभज्यमानं-विभज्यमानं-स्तोकं परिभुज्जइ- परिभुज्यते बध्यते छोड्यते च। पिण्ड.
स्तोक-मन्येभ्यो दीयमानम्। आचा० ३३७) परिभाइत्ता-परिभाज्य-विभागीकृत्य। आचा०४०१। परिभुज्जति-कम्मंण कारविज्जति। निशी० १०६अ। परिभाइयपुव्व- पूर्वमेवास्माभिरियं भातृव्यादेः परिभुज्जमाणं- परिभुज्यमानं परिभोगायोपभुज्यमानम्। परिकल्पितेत्ये-वंभूता भवेत्। आचा० ३६९।
जीव० १९२ परिभाएउं- परिभाजयितुं दायादादीनां परिभाजने परिभुत्तं- परिभक्तम्। आचा० ३२५) तत्परिणामं दन्तवन्तौ। ज्ञाता० ३९|
परिभोग- परिभोगः- उपयोगः। पिण्ड. २०| परिभोगःपरिभाएज्जमाण- पार्श्ववर्तिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानं पुनः पुनर्भोगः बहिर्भोगो वा। आव० ८२८ तेन परि-भाज्यमानम्। जम्बू० ३६। परिभज्यमानं
कार्यकारणमि-त्यर्थः। निशी. १३०आ। परिभोग पार्श्ववर्तिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानम्। जीवा० १९२ पुनःपुनर्भोगः। भग. २९७ परिभाएत्ता- दातव्यं विभज्य, दातव्यद्रव्यात्किञ्चिदंशं परिभोगपरिहरण- यत् सौत्रिककल्पादिपरिभुङ्क्ते गृहीत्वे-त्यर्थः। आचा० ३५५
प्रावृणोति। व्यव.४५अ। परिभाएह-परिभजध्वं विभज्य। आचा० ३३९।
परिभोगेसणा-परिभोगः-आसेवनं तदविषयैषणा परिभाजयितुं-दायादादीनां परिभाजने तत्परिमाणं परिभोगैषणा। उत्त० ५१६| दन्तवन्तौ। ज्ञाता०४४१
परिभष्टः- व्यपगतः। जीवा० १०३ परिभामिया- परिभ्रामिताः कृतप्रभाभंशाः। ज्ञाता० २७ । परिमंडल-परिमंडलं-वृत्तभावः। औप०६७। पारिमाण्डल्यं
१०७
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[204]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
वृतत्वम्। जम्बू० ३९७। वृत्तम्। प्रश्न० ७५ परिमण्डलः | परियट्टणा- परिवर्तना सूत्रस्य गुणनम्। प्रश्न. १२९। संस्थानविशेषः। प्रज्ञा० २४२ षटसंस्थाने प्रथमः। भग. परि-वर्तना-प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा ८५८
भूविस्मरणं इति सूत्रस्य गणनम्। स्था० ३४९। परिमंडिया-परिमण्डिका-धात्रीविशेषः। ज्ञाता०४१। परावर्तना-गणनम्। उत्त० ५८४१ परिमण्डलसण्ठाणपरिणया-परिमण्डलसंस्थानपरिणता | परियट्टिउं- परिकर्षयितुं, परिवर्द्धयितुं वा वल-यवत्। प्रज्ञा० १११
परिपालयितुमिति। प्रश्न. १५३। परिमद्दणं-परिमर्दनं-सर्वतः शरीरमलनम्। प्रश्न. १३७ | परियट्टिए- परिवर्तितं साधुनिमित्तं कृतपरावर्त, दशम परिमर्दनं-पिष्टादिमलनमात्रम्। स्था० २४७।
उदग-मदोषः। पिण्ड० ३४॥ परिमद्दा-पुणो पुणो सा संवाहणा। निशी. ११६अ। परियट्टिय-अप्पणिज्जं देति परसंतियं गेण्हावेति त्ति अणेगसो संबाधेति सा। निशी. १८८ ।
परिय-ट्टियं। निशी. २०५। परिमाण- परिमाणं-नियमनम्। स्था० २९१]
परियट्टियलावण्णं-परिवर्तितं कालपरिणत्याऽन्यथाकृतं परिमाणकड-दशधाप्रत्याख्याने सप्तमम्।
लाव-ण्य-अभिरामगणात्मकमस्येति परिमाणसंख्यानं दत्तिकवलगृहभिक्षादीनां कृतं
परिवर्तितलावण्यम्। उत्त० ३३४१ यस्मिंस्तत्परिमाणकृतम्। स्था०४९८ परिमाणकृतं- परियट्टेइ-परिवर्तयति-गुणयति। ओघ० १९९| दत्त्यादिकृतपरिमाणम्। आव० ८४०|
परियडति-सातत्येन पर्यटति। उत्त० २९६। परिमाणकय-दत्यादिकृतपरिमाणम्। भग० २९६। परियण-परिजनः दासादिः। भग. १६३। परिजनःपरिमासा-परिमर्शो जलधिजलस्पर्शः। ज्ञाता० १५७ परिवर्गः। उत्त०३०७ परिमितपिंडवाय-परिमितपिण्डपातः-अर्द्धपोषादिलाभः। | परियणादिकं-जेण दोसा समिज्जंति तं च परियणादिकं। औप० ३९।
निशी. ९९ आ। परिमितपिंडवाविते-परिमितो-द्रव्यादिपरिमाणतः- परियत्तंति-परिय{ति य परिवर्तमाना अतिक्रामन्ति। पिण्डपातो-भक्तादिलाभो यस्यास्ति स
उत्त०४७६| परिमितपिण्डपातिकः। स्था० २९८१
परियत्त-संभावना। ब्रह. १२आ। परिमियपिंडवाइय-परिमितपिण्डपातिकः
परियत्तणं- इयरदिसीकरणं। निशी० २११ अ। परिमितगृहप्रवेशा-दिना वृत्तिसक्षेपवान्। प्रश्न. १०६ | परियत्ते-परावृत्तमधोमुखं स्थितम्। ओघ० १६१| परिमोस-परिमोषः। उत्त० २१४।
परिवर्तिते अधोमुखीकृते। ओघ० १६८१ परिवंचिऊणं- परीत्य। आव० १९६।
परियत्तेति-अधोदेशस्य तथैव पुनःस्थापनेन परियंतजगं- पर्यन्तयुगं कलियुगम्। प्रश्न० ५१। परिवर्तयति। ज्ञाता०९४१ परियंति-पर्यटन्ति। उत्त० ५५३
परियर- परिकरः-कवचः। प्रश्न. ४७। परिकरः। उत्त परियंदा-रमयति क्रीडयति उल्लापयति वा। आव० ८२४।
२१६॥ परियंदिज्जमाण-स्तूयमानः। राज०१४८१
परियरबंध- परिकरबन्धः-विशिष्टनेपथ्यरचना। अनुयो. परिय-पर्यायः द्वारम्। सूत्र० ५।
१४३ परियच्छिज्जइ-परीक्ष्यते परिज्ञायते। आव०६२८१ परियल्ल- पर्यटनः। निशी. १८५आ। परावर्तकः। परियढें- परिवर्तनम्। विपा० ३७
वेष्टनम्। ओघ० २१४१ परियट्टइ-पर्यटति पौनःपन्येन भ्रमति। भग० ९५ परियस्सअ-परिपार्श्वतः। भग०६३० परियट्टण-पूर्वाधीतस्यैव ।
परियाइणया- पर्यादानता पर्यादानंसूत्रादेरविस्मरणनिजरार्थमभ्यासः परिवर्तनम्। स्था० यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गैर्लोमा-हारादिना समन्ततः १९०|
पुद्गलादानं तद्भावः। प्रज्ञा० ५४४|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[205]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #206
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
परियाइत्त-पर्यादाय-परिगृह्य। भग० १८८1 | केवलित्वकालस्तमा-श्रीत्यान्तकरभूमिर्या सा। ज्ञाता० परियाइय-पर्यायमतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा १५४१ सामस्त्य-गृहीताः कर्मपुद्गलवत्। स्था०६४। पर्यापनं- | परियाय-पर्यायः अवस्था प्रव्रज्यादिलक्षणा। स्था० २०७१ अङ्गप्रत्यङ्गः समन्तादापानम्। भग० ६०४। पर्याप्तम्। पर्यायः-श्रामण्यिः । आचा० २४३। पर्यायः-प्रव्रज्याप्रतिराज० ११३
पत्तिलक्षण। आव० २६९। पर्यायः-प्रव्रज्या सम्यक् परियाइयाइं- पर्याप्तानि जीवेन सर्वावयवैरात्तानि समितया वा पर्यायः। आचा० २०२२ तद्रसादान-द्वारेण। भग० ५६९।
परियायइ-पर्याददाति सामस्त्येनोपादत्ते परियाइयकंडकलावा-विचित्रकाण्डकलापयोगात् निधत्तादिकरोति। भग. २९१। पर्यात्तका-ण्डकलापः। जीवा० २५९।
परियार-परिचारः-प्रवीचारः। प्रज्ञा० ५४९। परिवारः-स्वपरियाइयणय-पर्यादानमङ्गप्रत्यङ्गैः
कपरिवारः। भग० ५०६। परिचारः-वृत्तिः खड्गादिकोशो समन्तात्पा(दादा)नमि-त्यर्थः। सम० १६४।
वा। प्रश्न०१३ परियाए- पर्यायः अवस्था। भग०६७३।
परियारग-परिचरति सेवते स्त्रियमिति परिचारकः। परियाएति-पर्यादत्ते। भग० १५५
स्था० १०० परियागं-पर्यायान् विचित्रपरिणामान्। स्था० ४६६। परियारण-सागारियसेवणं। निशी० ११३अ। परियागते- पर्यायः प्रसवकालक्रमेणागतः पर्यायागतः। परियारणय- शब्दादिविषयोपभोगः। भग०६०४। ज्ञाता०९११
परियारणा- यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः। प्रज्ञा० ५४४१ परियागयं-पर्यागतं। प्रज्ञा० ३२८ पर्यायागतः-पर्यायगतः परिचारणा-देवमैथुनसेवा। स्था० १०६। परिचारणावा सर्वनिष्पन्नतां गतः। ज्ञाता०११६।
कामासेवा। स्था० १७३। आसेवना। आचा० ३३१॥ परियागववत्थणा-पज्जोसवणा। जम्हा
परियारणासई-परिसेणित्थी परिभज्जमाणा जं सई पज्जोसवणादिवसे पव्वाज्जापरियागो व्यपदिश्यते- करेंति। निशी० ११२आ। व्यवस्थाप्यते संखा एत्तियो वरिसा मम
परियारसद्दो-पुरुषेण स्त्रीभज्यमानायं शब्दं करोति स उवट्ठाविस्सत्ति तम्हा परियागवत्थवण्णा। निशी. ३३६ | परि-यारशब्दः। बृह. १७ अ। आ।
परियारिया- पडिभज्जमाणि| निशी. १०९ आ। परियाणति-परिजानति-अनमन्यते। राज०४८। परियारेई-मैथन सेवते। स्था०६श परिचारयति-परिपरियाणाति-परिजानाति-प्रत्यभिजानाति। ज्ञाता० ३४। | भुङ्क्ते। भग० १३२ परियाणामि-ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया | परियारेमाणे- परिचारयन-कामक्रीडां कुर्वन्। भग० १७६| प्रत्या-ख्यामि प्रतिजानामि। आव० ७६१|
परियाल-परिवारः। भग० १६३। परियाणिया-परियायते-गम्यते यैस्तानि परियानानि | परियावज्जण- पर्यापदयते-कोथमायाति। पिण्ड० ९० तान्येव परियानिकानि परियानं वा-गमनं प्रयोजनं येषां | पर्या-पदनं पर्यापत्तिरासेवेतियावत्। स्था० १७४१ तानि परि-यानिकानि
परियावज्जिज्जा-पर्यापोरन्-भवेयुः। आचा० ४०१। यानकारकाभियोगिकपालकादिदेवकृतानि। स्था० ४४०। । | परियावज्जेज्ज-पर्यापयेत जलरूपतया परिणमेत्। परियादिया-विवक्षितं पर्यायमतीताः पर्यायातीताः अनुयो० १६२। पर्यापद्यत-विनश्येत्। भग० २३३। पर्यात्ता वा सामस्त्यगृहीता कर्मपुद्गलवत्। स्था० ६३। परियावण- परितापः-पीडाकरणम्। प्रज्ञा० ४३५। परियानं-तिर्यग्लोकादिवतरणादि। स्था० १४६। परियावणियं- परियापनिका च कालान्तरं यावत् देशान्तर-गमनम्। स्था० ५२८४
स्थितिरित्य-त्थानपरियापनिकं च तत्परिकथयतीति। विविधव्यतिकरपरिगमनम्। भग०६६१।
ज्ञाता०१८९। परियायतकरभमी- पर्यायः तीर्थकरस्य
परियावणिया-परितापनं परितापः-पीडाकरणमित्यर्थः,
रयत
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[206]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
तस्मिन् भवा वा निर्वृत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी चतुर्थी क्रिया। प्रज्ञा० ४३५१ परियावणं पर्यापन्नम्। आव ७४२१ पर्यापन्नम्। आव ० ७४ | पर्यापन्न विवर्णी भूतम्। व्यव० २४६ आ जहा रुहिरं चैव पूयपरिणामेन ठियं । निशी० ७२आ। परिष्ठापनम्। बृह. ९४ आ
परियावन्नं- उववासिगमादी आवलिया तेसिं भोतिगादि आव लिया एय पुछिऊण परिद्वावणाए गतो एतदेव परियावन्नं । निशी १४ आ विस्मृतं पर्यावन्नं बृह ४७ अ पर्यापन्नं लब्धम्। आचा. ३५२ पर्यायापन्नःसूक्ष्मपर्याय-मापन्नः-भावसूक्ष्मः। दशवै० १२२| परियावन्नग पर्यापन्नः व्यापिनः । प्रज्ञा- ७५ परियावसह - पव्वज्जापरियाए द्विता तेसिं आवसहो परिया वसहो। निशी. १८३ अ
परियावह - पर्यावसथः- मठः । आचा० ३६५ | पर्यावसथःभिक्षुकादिमठः । आचा० ३४८०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
परियावाए- परिवादाय दस्युरयं पिशुनो वेत्येवं
ममदघट्टनाय आचा० १६३५
परियाविज्ज- परितापयेत्-पीडामुत्पादयेत्। आचा० ४२८१ परियाविज्जति परिताप्यते आव० ३७१। पर्यापद्यते।
आव० ४००|
परियाविया - परिताविया - पीडिता । ७६६ । परियास - पर्यासः परिक्षेपः, परिभ्रमणं वा । सूत्र० २२१ | परिरओ- परिरयः परिधिः । उत्त० ६८५ |
परिरब्भमाण- रूध्यमानः । आव० ८१५ | परिरय- परिभ्रमणम्। बृह० १५९ आ । त्रीन्वारान् भ्रमणम् । बृह० १८७ आ परिरयः परिधिः सम० ११४n मार्गान्तरेण गमनम्। बृह• ६४अ परिरयः परिक्षेपः । जम्बू० २१| परिरयः- भ्रमणम् ओघ० २०१ परिरयःभ्रामयः । ओघ० ५९ । परिरयः- गिरिसरित्परिरयः । परिहरणायाः चतुर्थी भेदः आव० ५५२१ गिर्यादेः ओघ २०१ परिरयवुढ्ढी परिरयवृद्धि सूर्य. ३८८ परिलिंतणिद्धो- परिलीयमानगृद्धः प्रश्नः ५०| परिलित परिलीयमाना अन्तत आगत्य लयं यान्तः । ज्ञाता० ५| परिलितः परिलीयमानः संश्लिष्यतः । ज्ञाता० २७ |
परिनी- गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
परिल्लं- चरमम् । आव० ६०९ |
परिवंदण परिवन्दनं संस्तवः प्रशंसा। आचा० २६| परिवन्दनं परिसंस्तवः आचा० १६९ |
परिवच्छिय परिक्षिप्तः परिगृहीतः ज्ञाता० २२१| परिप-क्षितः परिगृहीतः । २१७ परिवज्जियाण परिवर्ज्यापमानं अवगणण्य आचा.
३०६ |
परिवहणं परिवर्तनं पुनर्वामपार्श्वेनैव वर्त्तनम् । आव ५७४। परिवर्त्तनं-द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नम्। आचा० १००) परिवर्तनं पुनः पुनर्भवनम् । प्रश्न. २ परिवहणा परिवर्तना परिवर्तनं, अभ्यसनं, मिति वा । दश० ३२
परिवहा परमाणूनां मीलनानि । भग० १६८० परिवट्टेति पुणो पुणो परिवट्टेति । निशी. ११६ आ परिवत्थ- निर्णयः । बृह० ३ आ ।
परिवत्थिय- परिपक्षितं परिगृहीतं परिवृत्तम्। औप० ६२ परिवत्थुणिद्देसो भद्रं तं चैव भणति तुमं जातिहीनो निशी० २७७ आ ।
परिवयंत परिवदन्- निन्दन्। प्रश्न. ६४| परिवयति परिवदति-परि-समन्ताद्वदति-यथाऽयं न भ्रियते नापि मञ्चकं ददाति, यदि वा परिवदतिपरिभवतीत्युक्तं भवति । आचा० १०५ निन्दति, अवगायति परिभवति। आचा० १०५| परिवसंति- । स्था० २३०|
परिवसड़ परिवासयति आक्रोशति आव० ४२८८ परिवसणा- जम्हा एगखेत्ते चत्तारिमासा परिवसंतित्ति तम्हा परिवसणा निशी ३३६ आ
परिवहइ - सर्वतो व्यथते-कदर्थयति । भग० १६६ । परिवाणि परिवादिनी सप्ततन्त्री वीणा जम्बू० १०१। परिवाइणी - परिवादिनी - सप्ततन्त्री वीणा । जीवा० २६६ । परिवाओ - परिवादः काक्वा परदोषापादनम्। सूत्र० २६३ | परिवाग- परिपाकः-परिपूर्णः पाकः। प्रज्ञा० ३६५। परिवाडी- परिपाटी-गृहपंक्तिः । उत्त० ५६। परिपाटिःपद्धतिः । सम० ४१| परिपाटिः-पद्धतिः । बृह० ६अ। परिवाद - असो अगुणकित्तणं निशी० २७९ अ परिवादिनी सप्ततन्त्री वीणा राज० ५०१ परिवाय परिवादः - निन्दा औप० १०६ |
[207]
* आगम- सागर - कोष : " [३]
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[Type text]
परिवाया परिव्राजकः पापवर्जकः। दशकै० २६रा निशी०
१८६ अ
परिवार परिवार दासीकर्मकरादिकः परिकरो वा, गृहादेर्वृत्त्यादिकः । सूत्र० ३०६ कोशः । सूत्र. २७९ । परिवारण- निराकरणम्। प्रश्न० २२१
परिवारणा - परिवारकरणम्, परिवारस्थापनम् । जम्बू॰
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
३२८
परिवारिए परिवारः परिकरः सञ्जातोऽस्येति
-
२१७ |
परिसंखाय- परिसङ्ख्याय सर्वैः प्रकारैः ज्ञात्वा । दशवै०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
परिवारितः । उत्त० ३५१ |
परिवारियं परिवारितं समन्ततो वेष्टितम्। जीवा० १६० १ परिवाविय दविस्त्रिर्वा उत्पाट्य स्थानान्तरारोपणतः परिवपन-वती शालिकृषिवत्। स्था• २७६॥ परिवुसिए - पर्युषितः संयमे उद्युक्त विहारी । अन्तप्रान्तभोजी। आचा० २४२ पर्युषितः । आचा० ३७६ । पर्युषितः संयमे व्यवस्थितः आचा० २८० पर्युषितःव्यवस्थित इति । आचा० २४४॥ परिवुसे- पर्युषिते, वसे निशी० २७४ अ
परिवूह सप्तचत्वारिंशततमकला। ज्ञाता० ३८ परिवेदिओ सव्वदिसि ठितेसु दिसि विदिसासु
भय ० ४६० |
विच्छिण्णठि- तेसु परिवेष्टितः दुग्गादिस पंतीसु समंता परिसाङ- परिशाटः उज्झनम्। आव• ५७६॥ परिडियासु परिवेष्टितः। निशी० ४६ आ परिवेढिय- पुरतो पिट्ठतो पासीता ठिच्चा । निशी० १८४
आ।
परिवेसंतिया - परिवेषयन्तिका -भोजनपरिवेषणकारिका ।
ज्ञाता० ११७ |
परिवेसति परिवेशयति भोजयति । ज्ञाता० ८६ |
परिव्राजका- चरगा । निशी० ३१ अ
परिव्वाओ - सव्वसो पावं परिवज्जंतो। दशवै० ३३अ । परिव्वायए- परिव्राजकः । ज्ञाता० १०५| परिव्राजकः कपिलमुनिसूनः । प्रज्ञा० ४०५
परिव्वायगा- गेरुआ । निशी० ९८ अ । परिशाटकरणं- करणस्य द्वितीयभेदः । आव० ४५८ | परिशिल्पमाना- अभ्यस्यमाना | नन्दी० १०७ | परिषा परिषत् सदेवमनुजासुरा सभा । उत्त० ५१२| परिसंकमाण- परिशङ्कमानः- अपायं विगणयन्। उत्तः
[Type text]
२९२
परिसंठिय परिस्थित स्वच्छोभूतम् ओघ १८४१ परिसंता- पाहुणगादि । निशी० ७३ आ परिसक्किर परिष्वष्कितुं शीलं येषां ते तथा ज्ञाता० २६|
परिसडइ परिशटति उपयुज्यते आचा• ३५1 परिसडिय - परिसटितः पतितः । ज्ञाता० ११४। परिसटितकुष्ठाद्युपहताङ्गमिव विध्वस्तम्। प्रश्न॰ १३४| परिसप्प - उरसा भुजाभ्यां वा परिसप्पंतीति परिसर्पः । प्रज्ञा ४५ उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्पतीति परिसर्पः, अहिनकुलादयः । जीवा० ३८
परिसर परिसर आव० ३९८१ सरभम्। आचा• ३३८ परिसर्प षष्ठं क्षुद्रकुष्ठम्। प्रश्न. १६१। परिसर्प्य क्षुद्रकुष्ठे पञ्चमम्। आचा० २३५१ परिसा - परिषद् । सूर्य० २। परिषद्-परिवारविशेषः- यथा मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषद् दासीदासमित्रादिका बाह्यपरिषदिति। सम० १२० १ परिषत्-परिवारः। स्था० ११७, १२८ । पर्षत्-परिवारः ।
परिसाइइत्ता - परिशाटयित्वा विनाशयित्वा प्रज्ञा० ५०३ | परिसाडणा परिः समन्ताच्छटतां पृथग् भवतामौदारिकादि-पुद्गलानां यदात्मनस्तान्प्रति तत्तच्छरीरविमोक्षात्मकं प्रयोजकभवनं सा परिशाटना। उत्त० १९८ |
परिसाडी- गच्छतो यत्र धूल्यादि निपतति । ओध० ३११ कुसातितणसंधारण परिभुज्जमाणे जस्स किंचि परिसइति सो परिसाडी निशी० १६८१ परिशाटी ओघ
१८२ |
परिसामंत- पार्श्वतः । भग० ६०७ |
परिसामियं परिश्यामितः कृष्णकृतः । ज्ञाता० २७| परिसाविय- परिस्राव्य-निर्माल्य । आचा० ३४७ | परिसिंच्चेज्जा- परिषिञ्चेत्-आद्रीकुर्यात्। उत्त० ९०| परिसिहं परिशिष्टं प्रभूतत्वाद् भूक्तोद्धरितम्। आचा.
१२३|
परिसित्तग- उण्होदगेन दहिमहिया तिव्वगलिज्जति तं परिस-त्तियं निशी० २०३ आ
[208]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
।
परिसित्तिय-परिषिक्तपानकम्। बृह० २५३ अ।
आव० ३२५। परिभोगो। निशी० २३५आ। परिसिल्ल-सव्वस्स संविग्गासंविग्गस्स परिसनिमित्तं परिहरणोवघाते- परिहरणा-आसेवा संगर करेति। निशी. २६ आ।
तयोपध्यादेरकल्प्यता, तत्रोपधेर्यथा एकाकिना परिसुक्कमुह-परिशुष्कं
हिंडकसाधुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति विगतनिष्ठीवनतयाऽनार्द्रतामुपगतं मुखमस्येति समयव्यवस्था। स्था० ३२० परिशुष्कमुखः। उत्त०८६
परिहरति-परिहरति-परिभञ्जते। दशवै० १९९। परिसेय- परिषेकः। स्था० ३३९। परिषेकः-दुष्टव्रणायुपरि परिभोगपरि-हारेण धारणापरिहारेण परिहरति। दशवै. जलसिञ्चनम्। पिण्ड० १११
२०। परिहरति-कुर्वतीत्यर्थः। भग०६६८१ आचरति। परिसेवणापारंची- प्रतिसेवनापाराञ्चिकः। स्था० १६३। निशी. १४० परिसोसिय- परिशोषितः-नीरसीकृतः। ज्ञाता०६५। परि- | परिहरित्तए- परिहर्तु-आचरितुम्। बृह. ८६ | परिहर्तुसमन्ताच्छोषितं-अपचितीकृतमांसशोणितं
कर्तुम्। बृह० ३१ आ। परिहर्तु-परिभोक्तुम्। बृह. २०१ कृशीकृतमिति परिशोषितम्। उत्त० ३५८१ परिस्संत-परिश्रान्तः। उत्त० २७७। परिश्रान्तः-प्राघूर्ण- | परिहरित्तते- परिभोगः। स्था० १३८१ परिहर्तु-परिभोक्तुम् कादिः। आव०७४६, आव० ५१३।
। स्था० १३८१ परिहर्तु-आसेवेतुम्। स्था० ३३८१ परिस्सम-परिश्रमम्। आव० २३७)
परिहरिय-परिवृत्य-निक्षिप्य। उत्त० ३५९। परिस्सवति-कहेति। निशी. १२८ आ।
परिहरियवं-परिहर्तव्यं-परिभोक्तव्यम्। प्रश्न. १५६। परिस्सवा-परिस्रवाः-कर्मनिर्जरास्पदानि। आचा० १८१। परिहरियव्वं- परिभोक्तव्यम्। प्रश्न. ११२ परिस्रवाः-निर्जरकाः। आचा० १८२।
परिहरे- परिभुज्जे। निशी. २३३। परिहए-परिहितं-निवसितम्। ज्ञाता०२१३।
परिहवंत- परिभवन्तः पार्श्वस्थादयः। व्यव० ५४ आ। परिहत्थ- (देश्यः) परिपूर्णम्। राज०४९। परिहस्तः- परिहविता-पासत्थादी। निशी. ९४। दक्षः। प्रश्न०६२। परिहस्तः-दक्षः। औप० ४७ पूर्णः। परिहा-परिखा उपरि विशाला अधः सङ्कुचिता। जम्बू. मरण।
७६। परिखा-अधःसङ्कीर्णोपरि विस्तीर्णा खातरूपा। परिहरंत-परिहरन-प्रतिसेवमानः। ओघ० २१९। इयं साम- अनुयो. १५९। खातिया। निशी० ६९ आ। यिकीपरिभाषा प्रतिसेवनार्थे वर्तते। ओघ० २१९। परिहाइ-परिहायइ-परिहीयते। आव० ४४३ प्रतिसेव-यन्। ओघ० २१९।
परिहाई-परिहीयते। ज्ञाता० १७१। परिहरइ-करोति। निशी० ८९आ।
परिहाणी- परिहानीः-सूत्रार्थविस्मरणम्। ओघ०४८। परिहरणं-परिरयः। ओघ. २०१
परिहायति-परिहायते। आव० ११० परिहरणदोस-परिहरणं-आसेवा स्वदर्शनस्थित्या परिहारंतर-परिहारान्तरम्। आव० ९७। लोकरूढ्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, | परिहार-परिहारः-तपोविशेषः। स्था० ३२४१ परिहारःअथवा परिहरणं -अनासेवनं समारूढ्या सेव्यस्य तपोविशेषः। आव०७०परिहारः-तपोविशेषः, अनेषणीवस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोषः परिहरणदोषः, अथवा यादेः परित्यागो वा। अनुयो० २२१। परिहारः-पुरीषम्। वादीनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यक्परिहारो
ओघ० २१३। तपोविशेषः। भग० ३५१| परिहारःजात्युत्तरं परिहरणदोषः। स्था० ४९२।
परिभोगः। भग०६६८ परिहरणं परिहारः-तपोविशेषः। परिहरणया-वस्त्रादेः शास्त्रीययाऽऽसेवनया। स्था० ४८९। प्रज्ञा०६४। परि-हारः-वर्जनम्। व्यव० ४५ अ। परिहारःपरिहरणा-आसेवा तयोपध्यादेरकल्पता। स्था० ३२० लौकिकलोको-त्तरभेदभिन्नः, परिहरणायाः पञ्चमो परिभोगः। आव० ३२५। सर्वप्रकारैर्वर्जना। प्रतिक्रमण भेदः। आव० ५५२ परिहारः-विशिष्टतपोरूपः। उत्त. तृतीय-अष्टभेदभिन्नं प्रतिक्रमणमेव। परिभोगः। ५६८। परिहारः-स्था-पना। बृह० ७० आ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[209]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
741
धारणापरिभोगरूपम्। बृह. ३१ आ। परिहारः-पुरीषः। द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षाः सोढव्या-सहितव्या इत्यर्थः। ओघ० १३५। परिहारः-पुरीषम्। पिण्ड० २०| जो गिरिं नदीं | आव०६५६) वा परिहरंतो जाति परिहारो। निशी० ८९आ। परिभोगो। | परीसहोवसग्ग-परीषहाः-क्षुधादयस्त एवोपसर्गानिशी० ११८ आ। पुरीषम्। बृह. १८१ आ।
उपसर्जनात्-धर्मभ्रंशनात् परीषहोपसर्गाः, अथवा मासलघुकादि। बृह० १७० अ। वज्जणं-वहणं। निशी. दवाविंशतिपरीषहाः तथा उपसर्गाः-दिव्यादयः। भग. ८५ |
१०१ परिहारविशुद्धिकल्पिकः-साधभेदविशेषः। भग०४| परुढपणयं-प्ररूढप्रणयम्। उत्त. २०७। परिहारविसुद्धिय-परिहारः-तपोविशेषस्तेन विशुद्धं, परूण्ण- प्ररूण्णः । आव० २२५ प्ररुहिता। आव० ३५३| अथवा परिहारः-अनेषणीयादेः परित्यागो विशेषेण शुद्धो प्ररूदिता। उत्त. ३०२ यत्र तत्प-रिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशुद्धिकम्। परूवंति-प्रभेदादिकथनतः-प्ररूपयन्ति। स्था० १३६। एवं अनुयो० २२१।
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः" परिहारियकूल- गुरुगिलाणबालवुढ्ढआदेसमादियाण 'मिथ्यात्वाविरतिप्र-मादकषाययोगाबन्धहेतवः' जत्थ पाउग्गं लभति ते। निशी० २९४ आ।
"स्वरूपभावेन सदसती तत्त्वंपरिहित-परिहितः-निवसितः। सूर्य० २९२ ज्ञाता० २७ सामान्यविशेषात्क"मित्यादिनाप्रकारेणप्ररूपयन्ति। परिहिय-परिहितः-परिहितवान्। प्रज्ञा० ९१|
आचा० १७९| परिहिस्सामि-परिधास्यामि। आचा० २४४।
परूवइत्ता- प्ररूप्य प्रभेदतः। स्था० ११९। पडिहेरग-रूढ्यवसेयम्। औप० ५५
परूवग-परूपकः मूलकृतस्याख्याता। दशवै० ११४। परित्त-परिमितः। बृह. ११६। प्रत्येकवनस्पतिकायः। परूवण- प्ररूपणं-स्वरूपकथनम्। आव०६१९। प्ररूपणंबृह. ७१। परीत्तः-प्रत्येकशरीराः। अल्पसंसारी वा प्ररूपणाकारकमध्ययनम्। नन्दी०५४॥ स्वरूपकथनम्। आयुष्यः । भग० २५७।
निशी. २४ । परीसह-परीषहाः-क्षुत्पिपासादयः। आव. १३४। परीषहः- | परूवणा-भासा विभासा अर्थ-व्याख्या इत्यर्थः। निशी. परि-समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्च्यवननिर्जरार्थं २१ आ। प्ररूपणा-एकैकभङ्गनिरूपणम्। बृह. २१७ आ। साध्वादिभिः सह्यत इति। उत्त०७२। उत्तराध्ययनेषु पन्नवणा। निशी. १७आ। प्ररूपणा-विस्तारवती द्वितीयमध्ययनम्। सम०६४। परीषहः-उत्तराध्ययनेषु व्याख्या। अनयो. १७६। प्ररूपणा-प्रदर्शना। उत्त. २३० द्वितीयमध्ययनम्। उत्त०९। परीषहः-क्षुत्पिपासादिः। प्ररूपणा यथास्वं विनियोगः। आचा०७ दशवै०११९। परिपदयमाणं-निश्चलचित्ततया परूविज्जति-नामादीनामेव भेदानां धार्यमाणम्। उत्त० ८३| परीषहः-अरतिपरीषहः। भग० सप्रपञ्चस्वरूपकथनेन पृथग्विभक्ताः ख्याप्यन्ते। ८६ परीषहाः-परीष-हचमार्गाच्यवननिर्जरार्थं
स्था० २१२ परिषोढव्याः परीषहाः। बृह. २१९ अ।
परूवियं- प्ररूपितं भेदानभेदकथनेन। प्रश्न. ११३॥ परीसहप्रभंगुरा-परीषहप्रभाजिनः, परीषहैः
परूविया-प्ररूपिता-प्रसाधिता। आचा०५८ सद्धिर्भगुराः। आचा० २७५१
परुति- प्ररूपयन्ति भेदकथनतः। भग० ९८१ परीसहा- चमत्कारा, पहाविता। निशी० ४३ आ। परूवेइ-प्रतिसूत्रमर्थकथनेन। भग०७११। प्ररुपयति उपपरीतिसमन्तात् स्वहेतुभिरुदीरितामार्गाच्यवननिर्जरार्थं | पत्तितः। जम्बू. ५४० साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः। भग० ३८९) परवेज्ज-उपपत्तिकथनतः। भग०४३६) परीषहा क्षुदादयः। भग० २०१। परीषहा-सम्यग् परुवेति- प्ररूपयति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन। स्था० ५०२। दर्शनादिमार्गाच्यव-नार्थ ज्ञानावरणादिकर्मनिर्जरार्थं च | परेण परं अत्थि- परेणापि परमस्ति-तीक्ष्णादपि परि-समन्तादापतन्तः क्षुत्पिपासादयो
तीक्ष्णतर-मस्ति। आचा. १७४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[210]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #211
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
परेव्वं-परतरे। पिण्ड० ८२॥ परोक्खं-अक्षस्य-आत्मनो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुद्गल-मयत्वात् पराणि वर्तन्ते-पृथग्वतन्ते इत्यर्थः, तेभ्यो यदक्षस्य ज्ञानमुदयते तत्परोक्षम, परैःइन्द्रियादिभिः-सह उक्षः-सम्बन्धो विषयविषयिभावलक्षणो यस्मिन् ज्ञाने न तु साक्षादात्मनो, धूमादग्निज्ञानमिव तत्परोक्षम्। नन्दी०७२। परोक्षः- न जानाति। बृह. ८१ अ। परोक्षइन्द्रियमनोव्यवधाने-नात्मनोर्थ प्रत्यात्मसाक्षात्कारी, परैरुक्षा-सम्बन्धनं-जन्य-जनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम्। स्था० ५० परोवदेस- परोपदेशः। आव० ८२२। परोहड-गृहस्य पश्चादङ्गणः। ओघ० १५२ पर्जन्य- मेघविशेषः। जम्बू. १७३। पर्यङ्कः - शयनः। दशवै. ९१, २०४, २२८स्था० २९९। पर्यड्का-जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा।
स्था० ३०२ पव॑न्त-पार्श्वतः। बृह. ३१० अ। पर्यवगुणे-निर्भजना। आचा०८६| पर्यवचरक-अवमचरकः। उत्त०६०६) पर्याणं-मिलानम्। औप० ७०। पर्याणम्। जम्बू० ९। पर्यापत्तिः -समर्छनम्। आचा० ५५ पर्याय-स्वभावः। स्था० ३७५ पर्ययः। स्था० ३४८।
पर्ययः। स्था० ३४८१ पर्यायगुण-द्रव्यस्यावस्थाविशेषः पर्यायः स एव गणः
पर्याय-गणः। आचा० ८६। पर्यायास्तिकः-नयविशेषः। सम०४२ पर्यालोचनं-अनुचिन्तनम्। आव० ५८९। पर्यालोचयति-ईहते। आव. २६) पर्याहार-निर्गमः। स्था० २९४। पर्युपासीनः-उपासनाकारकः। नन्दी. १६७। पर्युपास्ति- सेवना। प्रज्ञा० ६०| पर्युषणाकल्पः-नियमवद्वस्तुमारब्धः-न्युनोदरताकरणं १ विकृतिनवकपरित्यागः २, पीठफलकादिसंस्तारकादान ३ मच्चारादिमात्रकसग्रहणं ४, लोचकरणं ५, शैक्षाप्रव्राजनं ६, प्राग्गृहीतानां भस्मगडगलकादीनां परित्यजनमितरेषां ग्रहणं ७
द्विगुणवर्षापग्रहोपकरणधरण ८ मभिनवोपकरणाग्रहणं ९स क्रोशयोजनात् परतो गमनवर्जन १० मित्यादिकः।
स्था० ३१० पर्युषितं-सन्निधिः। दशवै. १९८१ पर्व- ग्रन्थिः । प्रज्ञा० ३६| पर्वणिः- पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रादित्ययोरूपरागं करोति। सम० ३०। पर्वणीकौमुदीप्रभृतिः अधिकरागभूतम्। ज्ञाता० ८१। पर्वत-चन्द्रगुप्तसहायकः। जम्बू० २६३। पर्वतविद्रुमर्ग्य-अनेकपर्वतसंघातः। व्यव०। पर्वमध्य-अन्तरूच्छयम्। आचा० ४०५ पर्वाणि- अष्टम्यादितिथयः। आव० ८३५) परशुरामः-जमदग्निस्तः । जीवा० १२१ पलंजी-पलजी-असारधान्यम्। उत्त० २५६। पलंड-कन्दविशेषः। उत्त०६९१ पलाण्ड्-कन्दविशेषः।
आव०१०१ पलंडू-पलण्डूकन्दः, वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३७। पलंब-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम० ३८॥ प्रलम्ब-तालफलादि। दशवै० १७६। प्रलम्बःइषल्लम्बमानः। जम्बू० ११५ प्रलम्बमानाञ्चलं गृहीतं।
ओघ०११० प्रलम्बः-आलम्बः। भग० १७५ त्रिषष्ठीतममहाग्रहः। स्था०७९। प्रलम्बःईषल्लम्बमानः। प्रश्न० ८४| प्रलम्बःएकषष्ठीतममहाग्रहः। जम्बू०५३५ विषमगहणं व कोणं वा। ओघ० ११०| प्रलम्बः-फलम्। स्था० १८५ प्रलम्बयद्विषमग्रहणेन प्रत्यपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनम्। उत्त० १४१। प्रलम्बा-आप्रदीपना। सम० १५८१ पलंबजाय-पलंबजातं-फलसामान्यम्। आचा० ३४८१ पलंबमाण- प्रलम्बमानं-झूम्बमानम्। भग० ३१९। पलंबवणमाला- प्रलम्बो-झुम्बनकं वनमाला
आभरणविशेषः। प्रलम्बवनमाला। औप. ५० पलंवा- फला। निशी० ५२ आ। पल-कर्षचतुष्टयम्। अनुयो० १५३। पलप्पमाण-पलप्रमाणः। आव०४२७। पलयं-प्रचारम्। दशवै० ४८१ पलल-पललं-तिलक्षोदः। पिण्ड०७२। पललिय-प्रललितः-प्रक्रीडितः। ज्ञाता०६३। प्रललितं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[211]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
ललितमेव “हस्तपादाङ्ग" इति लोकोक्तलक्षणः ।
प्रश्न० १४०|
पलवितं प्रलपितं अनर्थभाषणम्। प्रश्न. 201 पलाइय- पलायितं पलायनं कुतश्चिन्नाशनम्। दशवै.
१४१ |
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
पलाई - राज्यान्तरे गतो भटः । बृह० ८२अ ।
पलाण - नष्ठः । ओघ० १७२ ॥
पलादिण- जे भडादिया रण्णो अणापुच्छ
सपुत्तदारघणादिया अन्नरज्जं गंतुकामो ते पलादिणो ।
निशी १९ आ
पलायंत- पलायमान । आव० २९७ ।
पलाय- पलायितः । आव० १९६ ।
पलायण- पलायनं कुतश्चिन्नाशनम्। दशकै १४१| पलायति - नश्यति । निशी० १०२अ । देशान्तरं गच्छति । निशी० ३७ अ
पलालं - प्रकृष्टा लाला यत्र तत्पलालम् । अनुयो० १४१ । कवादीनाम् । प्रन० १२८
पलालपुंज- पलालपुञ्जः मञ्चोपरिव्यवस्थितः । आचा० ३०६, ३०७/
पलालुण्हा पलालोष्मा आव• ४९६)
पलाव- प्रलापः- जल्पः । प्रश्न० ७४ । प्रलापः-निरर्थकं वचनम् । स्था० ४०८ | प्रलापः-आलापः । सम० १५७ | पलाविज्जिहिति प्रप्लाविष्यते ओघ० २१ पलावियं-प्लावितम् । आव• ६३० प्लावितम्। बृह• २०९
अ।
पलासं कोमलं । निशी. ११८ आ । अष्टमभवनवासीदेवस्य चैत्यवृक्षः । स्था० ४८७। वृक्षविशेषः । भग० ८०३ पलाशः- वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० १९९, ५११ पलाशः किंशुकः । प्रज्ञा० ३१ पलाश-मंदरपर्वते दिग्हस्तिकूटनाम। जम्बू• ३६०१ पलाशः- किंशुकः, भगव त्यामैकादशशतके तृतीयोद्देशकः । भग० ५११ । पलाशःदलः । ज्ञाता० ९६ ।
पलिअंक- पर्यङ्कः। जम्बू० ८५। पर्यङ्कः-पद्मासनम्। जम्बू० १५८
पलिअ - पलितं पाण्डुरः । जम्बू० १६६ | कर्म्म जुगुप्सितमनुष्ठानम्। आचा० २४२
पलिआमं - जं परियाए कतं परिचायं वा पत्तं तहावि आमं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
तं पलिआमं । निशी. १२५ आ
पलिडंगच प्रतिकुञ्चकः स्वदोषप्रच्छादकतया । उत्त
६५६ |
पनिउंचति तत् प्रयोजनानिष्पादन पृष्टाः
सन्तोऽपनुवते क्व वयमुक्ताः । गता वा तत्र वयं नत्वसौ दृष्टेति । उत्त० ५५३ | पलिउंचण पलिकुञ्चनं परि-समन्तात् कुञ्चयन्तेवक्रतामा-पायन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्। माया। सूर्य० १७९%
पलिउंचणा- परिकुञ्चनं- अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुञ्चना परिवञ्चना वा । स्था० २००१ पलिउंचणापायच्छित्त- परिकुञ्चनं अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकाल-भावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथाभणनं परिकुञ्चना परि वञ्चना वा प्रायश्चित्तम्। स्था॰ १९९ ।
पलिउंचयंति - निनुवते, सदपि
[Type text]
-
[212]
प्रमादस्खलितमाचार्यादिनाऽऽ-लोचनादिकेऽवसरे पृष्टाः सन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयान्निहनुवते। सुब
२३३|
पलिउंचिअ - मनोज्ञं गोपित्वा । आचा० ३५५ | पलिउंचुणया प्रतिकुञ्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनम्। भग० ५७३ |
पलिउंचे - मोहनीयस्य एकोनविंशतितमस्थानम् । आव ० ६६१|
पलिउज्जिय- परि-समन्ताद् योगिकाः परिज्ञानिनः ।
भग० १५०
पलिओदम पल्योपमः । अनुयो० १८० पल्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि असङ्ख्यातवर्षकोटाकोटीप्रमाणानि । स्था॰ ८६। पल्यवत्पल्यस्तेनोपमा यस्मिंस्तत्पल्योपमम् स्था० ९० पल्योपसंकालमानविशेषः भग. २१० पल्योपमम्। भग राज्या ८८८ । पल्येन वक्ष्यमाणस्वरूपे णोपमा यस्य तत्पल्योपमम्। जम्बू• ९२२ पल्योपमं उद्धाराद्वाक्षेत्रभेदैस्त्रिधा प्रत्येकं बादरसूक्ष्मतया दवेधा, अङ्गुलमानवालसप्ताष्ट-खण्डतदसङ्ख्यखण्डोद्धारात्प्रतिसमयवर्षशतस्पृष्टोत्तर-प्रदेशापहारैः अनुयो.
"आगम- सागर- कोषः " [3]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१००
विशेषः। भग० ८०२। पलिच्छिन्न-परिच्छिन्नः-यथास्वविषयग्रहणं
पलिमंथू- परिमन्थूः-घातकः। स्था० ३७३। प्रतिनिरुद्धः। आचा० १९३। परिच्छिन्नः
पलिमत्ता-गोभक्खः। व्यव० १२१ अ। परिवारवस्त्रादिलक्षणैः सूत्रार्थो-भयैश्च युक्तः। व्यव. १ | पलियंक-गिहिनिसेज्जा। निशी०६५। अकः। निशी. अ। प्रतिच्छन्नः-आच्छादितः। ज्ञाता० ९६)
२५६ अ। पल्यङ्कः-शय्याविशेषः। व्यव० ३७० आ। पलितंमि-प्रदीप्ते-अत्याक्लीकृते। उत्त० ४५५
पर्यड्कः-मञ्चकादि। सम० ३६। पर्यकः आसनपलित्त-पराभग्नः। बृह. ७२ अ। प्रकर्षेण दीप्तः विशेषः। भग० १९१। पर्यङ्कः-विशिष्टशय्या। भग. प्रदीप्तः। ज्ञाता०६१। प्रकर्षण ज्वलितम्। भग० १२१ २४९। पर्यङ्कः। दशवै० ११७। आसनविशेषः। स्था० प्रदीप्तः। दशवै० ९२पर्याप्तः-प्रतिपूर्णः। जीवा० २६६।
२९९। प्रदीप्तम्। आव० ९११
पलियंकणिसण्ण-पल्यड़कनिषण्णःपलित्तक- प्रदीप्तकं-प्रदीपकनम्। प्रश्न०६०
पर्यकासननिषण्णः। जीवा. २२८१ पलित्तजाला-प्रदीप्तज्वाला। प्रश्न. १४
पलियंत-पल्योपमान्तं-पल्योपमस्थान्तः मध्ये वर्तते पलित्तनेह- पर्याप्तः-प्रतिपूर्ण स्नेहः तैलादिरूपो यस्य | तत् परि-समन्तात् अन्तोऽस्येति पर्यन्तं-सान्तमिति। तत् पर्याप्तस्नेहम्। जीवा० २६६।
सूत्र० ५७ पलित्तपायं-प्रलिप्तपादम्। आव० १३७
पलियंतकर- पर्यन्तं कर्मणा संसारस्य वा करोति पलित्तयं-प्रदीप्तम्। उत्त. १०२
तच्छील-श्चेति पर्यन्तकरः। आचा० १७१। पलिपासग-बंधणा। निशी. ५९ आ।
पलिय-अनुष्ठानम्। आचा० २५२ पल्योपमम्। आव. पलिबाहिर- परि-समन्तात् गुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्टतो ३६। पलितं-कर्म। आचा० १८९। पलितं-कर्म। आचा. वाड-स्थानात् सदा कार्यमृते बाह्यः स्याद्। आचा० २०३। कर्म। आचा० ३०७ २१५
पलियत्तणं-परावृत्तिम्। निशी. २७ अ। पलिभंजणं-पायम्मि पलिभंजणं। निशी. २४५अ। पलियस्सओ-परिपार्श्वतः। भग० २६९। पलिभज्जह- प्रतिभज्यते। आव. ३०८५
पलिसप्पड़-परिसर्पति परि-समन्ताद्गच्छति। भग० पलिभाग-प्रतिभागं-प्रतिबिम्बम्। प्रज्ञा० ३०५
७६३ प्रतिभागः-सादृश्यम्। भग०८९७। प्रतिभागः-सादृश्यम्। | पलिहा-परिघा-अध उपरि समखातरूपा। औप० ३। प्रज्ञा०४९१ प्रतिरूपो भागः प्रतिभागः-प्रतिबिम्बम्। पलिहोच्छुढ- पर्यवक्षिप्तः-प्रसारितः। औप०१८ आव० ३३८१
पलीणा-प्रकर्षेण लीनाः लयं-विनाशं गताः प्रलीनाः। पलिभेओ-खंडाखंडिकरणं। निशी० २४४ आ।
व्यव० ४४०आ। पलिमंथ-पलिमन्थः-कालचणगः। स्था० ३४४। औषधि- | पलीवणग-प्रदीपनकः। आव०७४२ प्रदीपनकं-अग्निः। विशेषः। प्रज्ञा० २३। पलिमन्थः-दोषविशेषः। ओघ. आव० ८२० १७७ पलिमन्थः-विघ्नः। सूत्र०६४। संजमो मंथिज्जति | पलीवेइ- प्रदीपयति। आव० ५२ जेण सो। निशी. १९६ आ। पलिमन्थः-विलोडनं पलेइ- प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते-अनेकप्रकारे संसारं बम्भविघातश्च। सूत्र. ४२५ विघ्नः। स्था०८। परिमन्थः- मीति। सूत्र० २३५ स्वाध्यायादिक्षतिः। उत्त०५८८ पलिमन्थः
पलेमाण-प्रलीयमानः। आचा० १८०। प्रलीयमानः-मनोज्ञेदोषविशेषः। ओघ०४९। पलिमन्थः-दोषविशेषः। ओघ. न्द्रियार्थेषु पौनःपुण्येनैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जाति १०५
प्रकल्प-यति संसाराविच्छित्तिं विदधतीत्यर्थः। आचा० पलिमंथए-बध्नीयात्। उत्त. ३११
१८१॥ पलिमंथग-वृत्तचनकः कालचनकः। भग० २७४। धान्य- | पलोएंत- प्रलोकमानः। आव० १९६|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[213]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #214
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पलोएति- गृह्णति। निशी. १९ आ।
सञ्जातपरिपूर्ण-प्रथमपत्रभावरूपः। जीवा० २२९। पलोक्कइ-प्रलोक्यते-प्रकर्षेण निश्चीयते। भग. २४९। पल्लवग-पर्ययपरिमाणं-अभिधेयादि तद्धर्मसङ्ख्यानं पलीट्टइ-प्रलोटति-परिवर्तते। भग०१०। प्रलोट्यते। यथा 'परित्ता तसा', पर्ययशब्दस्य 'पल्लव'त्ति निर्देशः, आव०६२११
प्राकृत-त्वात् पर्यङ्कः- पल्यङ्कः इत्यादिवदिति, अथवा पलोठेति-विप्रतारयति। बृह. ८९ आ।
पल्लवा इव पल्लवाः - अवयवास्तत्परिमाणम्। सम. पलोयए- प्रलोकयेत्-पर्यालोचयेत्। आचा०४२९।
११३ पलोयणा- रसवतीए पलिं विसित्ताओ अणाति पलोइउं पल्लवग्राहिणी- पल्लवमात्रग्राहि। बृह० ५८ आ। भणाति इतो इतो य पयत्थाहित्ति एस पलोयणा। पल्लवप्रविभक्तिकं-विंशतितमनाट्यभेदः। जम्बू. ४१७ निशी. १८५आ।
पल्लावाकुर- प्रवालः। प्रज्ञा० ३१| पल्लंक-पल्यकः। आव० ५७८॥
पल्लि- ग्रामः। बृह० ७२ अ। गामो। निशी० ११५ पल्लंघणं- प्रकृष्टं लङ्घनं-प्रलिङ्घनम्। भग० ९२५। पल्ली-सन्निवेशः। आव० ५७८ पल्यन्तेऽनया पौनः-पन्येनातिक्रमणं प्रलङ्घनम्। औप०४२।
दुष्कृतिवि-धायिनो जना इति, वृक्षगहनाद्याश्रितः प्रलङ्घनम्। प्रज्ञा०६०६। प्रलङ्घनं अर्गलादेः। स्था० प्रान्तजननिवासः। उत्त०६०५ ४०९। प्रलङ्घनं-सामा-न्येन गमनम्। उत्त० ५११| पल्लीण- प्रलीनः-पश्चात् प्रकर्षेण लीनः। भग. ९२४॥ पल्ल-पल्यं-वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः। स्था० पल्लोट्ट- प्रवृत्त-उत्पन्नः। ज्ञाता० २६| १२४| पल्यः-वंशादिमयो धान्याधारविशेषः। भग० २७४ | | पल्लोवम-पल्योपम-शीर्षपहेलीकैव गणितस्य पल्यो-धान्याश्रयविशेषः। जम्बू० ९५| पल्यम्। अनुयो० | विषयोऽतः पर-मौपमिकं कालपरिमाणम्। जीवा० ३४५ १८०| पोट्टं। निशी. १४७ आ। पल्यं-वंशकटका-दिकृतो | पल्हत्थ-पर्यस्तं-अधोमुखतया न्यस्तम्। भग० १८० धान्याधारः। बृह. १६८ आ।
स्थापितः। आव०७०३ पल्लक-पल्लकः-लाटदेशे धान्याधारविशेषः। नन्दी. | पल्हत्थमुह- पर्यस्तं-अधोमुखतया न्यस्तं मुखम्। भग०
१८० पल्लग-पल्यङ्कः-लाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन निर्मापितो | पल्हत्थिय-पर्यस्तितं-पर्यस्तीकृतं सर्वतः निक्षिप्तम्। धान्याधारकोष्टकः। जम्बु. ३००| पल्लकः-लाटदेशे ज्ञाता० २१९। भग० १९०| पर्यस्तम्। दशवै०४४। धान्यालयः। आव०४१।
पल्हत्थिया-पर्यस्तिका। योगपटः। ब्रह. २५३ आ। पल्लच्छिज्जति- प्रस्तीर्यते-प्रच्छादयति। आव० ६२३ । पर्यस्तिका जानजङ्घोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिका। उत्त. पल्लट- पर्वतशिखराद् गण्डशैल इव स्वाश्रयाच्चलितम्। प्रश्न.१३४१
पल्हव-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ पल्लत्थ- पर्यस्तं-निवेशितम्। विपा०४९।
पल्हवदेशज-पल्हविकः। ज० १९११ पल्लत्थिया-पर्यास्तिका प्रसिद्धा। उत्त०८1
पल्हवि- प्रल्हत्तिः। स्था० २३४। प्रल्हत्तिःपल्लय-पल्लकः-लाटदेशे धान्यधामः। आव० ७५१ दुष्प्रतिलेखित-दुष्यपञ्चके प्रथमो भेदः। आव०६५२ पल्ललं-पल्वलं-नड्वलम्। प्रश्न. १४| पल्वलं-प्रहलादन- | पल्हविण-पल्हविकः-देशविशेषः। ज्ञाता०४१। शीलः। भग० २३८१
पल्हाओ-क्रोधादिपरितापोपशमात् प्रह्लादितःपल्ललए-पल्वलं-आखातं सरांसि। प्रज्ञा०७२।
आपन्नसुखः। आचा० १५०| पल्लव-कोमलं पत्रम्। प्रश्न. ९२। किशलयम्। ज्ञाता० पल्हायणभाव-प्रहलादनभावः३६| पल्वलः-प्रहलादनशीलः। ज्ञाता०६३| पल्लव:- चित्तप्रसत्तिरूपोऽभिप्रायः। उत्त० ५८४ जातपूर्ण-प्रथमपत्रभावरूपः। जम्बू० ३२४। पल्लवः- | पल्होट्ठ- पल्हढं-एकान्तेन विस्मृतम्। व्यव० ७७ आ। अशः । सम०६१। शाखाभङ्गः। आचा० ३४५। पल्वः- | पवंच- प्रपञ्चः
८
५४१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[214]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text )
पर्याप्तकापर्याप्तकसुभगादिद्वन्द्वविकल्पः । आचा० १७०| प्रपञ्चः-संसारः। सूत्र० १६५ | प्रपञ्चः- विस्तारः । प्रश्नः २२ प्रपञ्चः- उपहासवचनम् । बृह० ६० आ । प्रपञ्चः-प्रत्युपेक्षणमनुकरणम्। बृह॰ १८०अ। पवंचए - उद्धट्टकान् कुर्वन्ति । ओघ० ८९। पवंचणं- प्रवञ्चनं विप्रतारणम्। प्रश्न० १७ | पवंचा- प्रपञ्चतेः-व्यक्तीकरोति प्रपञ्चयति वा, विस्तारयति लेखकासादि या सा प्रपञ्चा, प्रपञ्चयति वा-स्रंसयति आरोग्यादिति प्रपञ्चा। स्था० ५१९| इषत् प्रपञ्चा, जन्तोः सप्तमी दशा। दशवै० ८८ पर्वचेति प्रवञ्चयते मुखमर्कटिकां करोति उत्त० ५११ पवए- प्लवकः-उत्प्लवनकारी। भग० ९२८ पवन प्लवक -यो झम्पादिभिर्गर्तादिकमुत्प्लवत्ते गर्तादिलङ्घ-नकारी, तरति नद्यादिकं यो इति । जम्बू० १२३। प्लवकः -य उत्प्लवते नद्यादिकं वा तरतीति । औप॰ ३। प्लवकः- य उत्प्लुत्त्य गर्तादिकं ज्झम्पाभिर्लङ्घयति नद्यादिकं वा तरति सः । अनुयो० ४६। प्लवकः-य उत्प्लवते नद्यादिकं वा तरति । प्रश्न १४१। प्रवकः-सुपर्णकुमारः । प्रश्र्न० १३५| पवगा समुद्दादिसु जे तरंति ते पवगा निशी राखा पवट्टइ- प्रवर्त्तते। आव० ५५९ ।
आगम - सागर - कोषः (भाग:- ३)
पवडण- प्रपतनम्। स्था० ३२८| थाणत्थो उड्ढं उप्पइत्ता जो पडइ | निशी० ५२अ प्रपतनं भूमिप्राप्तं सर्वगात्रैर्वा पतनम्। बृह० २२९ आ । पतनं तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लुडुनम् प्रज्ञा० ३२९॥
पवडणता - प्रपतनता-प्रपतनया वा । स्था० २८० | पवडणया- प्रपतनता- न च प्रयत्नेन चङ्क्रम्यते तत्र दुःख्यते । आव० ४०५ प्रपतना वकगतेश्चतुर्थी भेदः ।
प्रज्ञा० ३२८|
पवड्डक- कटकम् ओघ ५२१
पवण - प्लवनं-मनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमनम्। जीवा० १२२| प्लवनं-मनाग् विक्रमवद् गमनम्। जम्बू० ३८८ | प्लवनं-धावनम्। उत्त० १३५ प्लवने- मनाक् पृथुतरविक्रमगति गमने राज० २१
पवण्ण- प्रपन्नः । उत्तः २२०|
पवतणनिण्हग प्रवचनं आगमं निहनुवते- अलपत्यन्यथा प्ररूपयतीति प्रवचननिह्नवः । स्था० ४१०|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पवति - प्रयुक्तिं- वार्त्ताम्। ज्ञाता० २१५।
पवत्त- प्रवृत्तं उत्क्षेपावस्थीतो विक्रान्तं मनाग्भारेण प्रवर्तमानम् जीवा० २४७ |
पवत्तए प्रवृत्तिः निर्गमो यस्य स तथा जम्बू० १९०१ पवत्तण- प्रवर्त्तनः-प्रथमप्रारम्भः । बृह० १९९ आ । पवत्तय प्रवृत्तकं
प्रथमसमारम्भादूवमाक्षेपपूर्वकप्रवर्त्तमानम् । जीवा०
१९४ |
पवति- प्रवृत्तिः-तपःसंयमयोगेषु यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रव-ति । असहं च निवर्त्तयति गणचिन्तकः प्रवृत्तिः । प्रश्न. १२६ । प्रवत्र्ती प्रवर्त्तकः । प्रज्ञा० ३२७| पवतिणी- पंचविहसंयतीए पढमा निशी. १३२ आ
प्रवर्तिनि समस्तसाध्वीनां नायका, आचार्यस्थानीया ।
व्यव० १४१ |
पवत्तिय पवित्रकं ताममयमङ्गुलीयकम्। जाता० १० | यथोचितप्रशस्तयोगेषु साधून् प्रवर्त्तयन्तीत्येवंशीलः । व्यव० १७१ आ । प्रवर्तितः- प्रेरितः । सम० ८५ | प्रवर्तितम् - प्ररूपितम् । उत्त० ४७५ । पवत्ती-प्रवर्तयति-साधूनाचार्योपदिष्टेषु
[215]
वैयावृत्यादिष्विति प्रवत्र्ती स्था० १४३, २४४ प्रवृतिःवार्त्ता ओध० ५९॥
पवत्तीय प्रवृत्तिकः । ज्ञाता० ३९॥
पवनबाण - पवनबाणः तथाविधपवनस्वरूपतया परिणतः। जम्बू० १२५
पवय- प्लवकः । आव० ४२७ | प्लवकः । नन्दी० १६५ | पवयण- प्रवचनं-द्वादशाङ्गं जिनशासनम् । प्रश्र्न० २ प्रवचनम् श्रुतम् । आव० ३२६| प्रवचनम् - द्वादशाङ्गं सूत्रार्थतदुभयरूपम् आव. ५१०१ प्रवचनं तीर्थम् । आव० ३२५| प्रकर्षेणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनंआगमः । भग० ७९३ । प्रवचनं- आगमः । भग० ६१ | प्रवचनं-तीर्थम्। बृह॰ १६६ आ । प्रकृष्टं प्रशस्तं प्रगतं वा वचनं आगमः प्रवचनं द्वादशाङ्गः तदाधारो वा सङ्घः । स्था० ५१५। प्रवचनं- - श्रुतज्ञानम् । ज्ञाता० १२२ | प्रवचनम् | भग० ६६] प्रवचनं सामान्यश्रुतज्ञानम् । आव ८६ प्रवचनं श्रुतज्ञानं सङ्घो वा विंशतिस्थानके तृतीयः । आव० ११९। प्रवचनः-द्वादशांगः तदाधारे वा सङ्घः । सम० १४। प्रवचनं- आगमः । आव० ६१ । प्रवचनं
।
*आगम - सागर- कोषः " [३]
Page #216
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२३६|
द्वादशाङ्गं गणिपिटकं सङ्घो वा। आव०६८1 प्रवचनं- | पवहणं किच्च-प्लवनकृत्यं-तरकाण्डम्। ज्ञाता० १९११ प्रशस्तवचनं-प्रधानवचनं-प्रथमवचनं वा। अन्यो० ३८ पवहण-प्रवहणं-वेगसरादि। औप० ५९। प्रवहणं-यानम। प्रवचनं-चतुर्वर्णसङ्घः। बृह. १९८ आ। द्वालसंगं संघो। आव०४२० निशी. १०३।
पवा-प्रपा-उदकदानस्थानम्। आचा० ३६६। प्रपाउदकदापवयणउब्भावणता-प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्योद्भावनं- नस्थानम्। आचा० ३०७। प्रपा-आगमनगृहम्। स्था० प्रभावनं
१५७ भग० २३७। प्रपा-जलदानस्थानम्। प्रश्न० ८। प्रावचनिकत्वधर्मकथावादादिलब्धिभिर्वर्णवादजननं प्रपाजलदानस्थानम्। औप०४१। प्रपा-जलदानस्थानम्। प्रवच-नोद्भावनं तदेव प्रवचनोद्भावनता। स्था०५१५ प्रश्न. १२६। प्रपा-जलदानस्थानम्। जम्बू. १४४| प्रपापवयणकुसल
जलस्थानम्। ज्ञाता०७९। गिम्हादिस् उदगदाणं ठाणं। सूत्रार्थहेत्वादिप्रवचनावर्णवादिनिग्रहान्तगणः। व्यव. निशी०६९आ।
पवाए-प्रपातः-प्रपतज्जलौघः। जम्ब०२९। प्रपातः-गर्तः। पवयणगीयत्थ-प्रवचनगीतार्थः-सर्वसारेण प्रवचनस्य ज्ञाता० १९१। प्रवाढः-व्याजः। सूत्र. ११३। प्रपातो-यत्र गृही-तोऽर्थः। व्यव० ४१२आ।
पर्वतात् पानीयं पतति। बृह. १०६अ। पवयणपभावणया-प्रवचनप्रभावनता-यथाशक्त्या पवाओ- गर्ता। बृह० ५७ अ।
मार्गदेशना, विंशतितमस्थानकम्। आव० ११९। पवात-प्रपातः। बृह० ३१ अ। पवयणभावणा-यथाशक्तिमार्गदेशनादिकया च पवातखड्डा-प्रपातगर्ता। आव० ३७४। प्रवचनप्रभावना। ज्ञाता० १२२
पवाय-प्रपाणं-उत्तरोष्ठतलम्। जम्बू. २३७। प्रपातःपवयणमाऊ-प्रवचनमाता। आव० ७७८।
पर्वतात्प्रपतज्जलसमूहः। सम०८५ प्रपातः-प्रपतज्जलपवयणमाय-प्रवचनमातृ प्रवचनमातं वा,
सन्तानः। सम० ४५ प्रपातः-गतः। विपा० ५५ प्रपातः उत्तराध्ययनस्य चतुर्विंशतितममध्ययनम्। उत्त. भृग्गुः यत्र मुमूर्षुः जनः झम्पां ददति, अथवा प्रपातः ५१३|
रात्रि-धाटीः। जम्बू०६६। प्रपातः-भृगुर्यत्र जनः काश्चित् पवयणरहस्स- अपवादपदं, छेदसुत्तं। निशी० ८१ आ। कामनां कृत्वा प्रपतति। जम्बू. १२४। प्रपातःप्रवचनरहस्यं-अपवादपदम्। बृह० १३१ अ।
गच्छज्जनस्खल-नहेतुः पाषाणः भृगूः वा। जम्बू० २२३। पवयणवच्छल्लया- प्रवचन-दवादशाङ्गं तदाधारो वा प्रवादः-प्रकर्षण प्रतिवादनमस्मिन्निति। उत्त०७३। सङ्घस्तस्य वत्सलता-हितकारिता
प्रपातः-भृगः। ज्ञाता०९९| पवादं-सर्वज्ञोपदेशम्। आचा. प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचन-वत्सलता। स्था० २२७। छन्नटकानदी प्रपातः। भृगपातादिकं वा। व्यव. ५१५
६१ आ। प्रवादः-प्रकृष्टो वादः प्रवादःपवयणसार-प्रवचनसारः-चारित्रः। ज्ञाता०१६६)
आचार्यपारम्पर्योपदेशः-प्रवादः। आचा. २२७ पवर- प्रवरः-सुभगः। जीवा० २७६।
पवायए- प्रकर्षेण प्रधान आदौ वा वाचकः प्रवाचकः। पवरकुंदुरुक्क- प्रवरकुन्दुरुक्कं-चीडाभिधानं गन्धद्रव्यम्। | आव०६११ सम०६१। प्रवरकुन्दुरुक्कः-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यवि- पवायतड- प्रपाततटः-भृगतटः। ज्ञाता० २६। शेषः। ज० ५११
पवाया- प्रवाताः। आचा० ३२९। प्रवाता-या ग्रीष्मकालेऽपपवरगवल-प्रवरगवलं-वरमहिषशृङ्गम्। ज्ञाता० २२२॥ रान्हे उपलेपनादिकरणेन धर्म नाशयति। बृह. २६३। पवरवर-पवरवरः-अतिप्रधानः। ज्ञाता०१२
पवालंकुर- प्रवालः-शिलीदलं तस्याङ्कुरः प्रवालाकुरः। पवह-प्रवहे यतः स्थानात् नदी वोद प्रवर्तते स प्रवहः। प्रज्ञा० ३६१। जम्बू. २९३। प्रवहः-मूलः। जम्बू० २९५। प्रवहः-ह्रदनि- | पवाल- प्रवालं-विद्रुमम्। भग० १६३| प्रवालःर्गमः। जम्बू०३०९।
पल्लवाङ्कः। भग० ३०६| प्रवालः-पल्लवाङ्करः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[216]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #217
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[Type text]
जम्बू० २९, ३०| प्रवाल:- पल्लवाङ्कुरः । प्रज्ञा० ३१ प्रवालम्। जम्बू० १२२| प्रवालः पल्लवः । जम्बू० १६८ । प्रवालं-पल्लवाङ्कुरः । स्था० ३४५५ प्रवालं पृथिवीभेदः । आचा० २९| प्रवालः- शिलादलम् । प्रज्ञा० ३६२१ प्रवालविद्रुमः । प्रज्ञा० २७ प्रवालः पल्लवाङ्कुरः । औप० ७ प्रवालं पल्लवम्। दश. १८५ प्रवालकं विद्रुमः । उत्त ६८९ | प्रवालं विद्रुमः । जीवा० २३ प्रवालं विदुमम् । प्रश्र्न॰ ३८। प्रवालं-पल्लवाङ्कुरम् । जीवा० १८८। प्रवालःपल्लवाङ्कुरः । जीवा० १८७ प्रवालः रत्न विशेषः, प्रवालाङ्कुरः । जीवा० १९१| प्रवालःईषदुन्मीलितपत्रभावः । जीवा० २२० प्रवालःईषदुन्मीलितपत्रभावः पल्लवः । जीवा० २९४
पवालता प्रवालता- नवाङ्कुरता स्था० २६७ पवालवण्ण प्रवालवर्णविदुमवर्णः । ज्ञाता० २३०| पवालिणो परिणमंति- प्रवालिनः परिणमन्ति-प्रवालःपल्ल वाङ्कुरस्तद्युक्ततया परिणमन्ति। सूर्य. १७२१ पवाह- प्रवाहः अनादिकालसन्ततिपतितः । जीवा० २१७ | प्रवाहः-अनादिकालसन्ततिपतितः। जम्बू० ६२ पविइण्ण- प्रविकीर्णः गमनागमनाभ्यां व्याप्तः औप० ४|
पविइन्न - प्रविकीर्णः गमनागमनाभ्यां व्याप्तः । ज्ञाता०
३
पविकत्थइ प्रविकत्थते आत्मानं श्लाघते । सम० ५४१ पविज्जआयति प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वति । जम्बू. ३८९ । पविज्जल- रुधिरपूयादिना पिच्छिलः । सूत्र० १३६ । पविट्ठ- प्रविष्ठः- एककालं तद्भावेन परिणतः जीवा० ९८ प्रविष्ठः व्यवस्थितः जीवा० १०५| पविपुव्व प्रविष्ठपूर्वः परिणतपूर्वः । जीवा. ९८ पविणेति प्रविनयति-क्षपयति। भग० १००| पवितर- प्रवितरं स्फुटितम्। जीवा० १२२॥ पवित्तय पवित्रकं ताम्रमयमङ्गुलीयकम् ऑफ० ९५ पवित्रकं –अङ्गुलीयकम्। भग० ११३। पवित्रकंअङ्गुलीयकम्। औप० ९३ ।
पवित्ता- पवित्रा अहिंसाया पञ्चपञ्चाशत्तमं नाम ।
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
प्रश्न० ९९|
पवित्ति प्रवृत्तिः आक ११३३ पवित्तिवाउय प्रवृत्तिव्यापृत्तः वार्ताव्यापारवान्
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
वार्तानिवेदक इति । औफ १३ पवित्ती-प्रवृत्तिः यथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः । आचा० ३५३|
पवित्र प्रविस्तारः- धनधान्यादिविस्तारः परिग्रहस्य विंशतितमं नाम । प्रश्न० ९२ । प्रविस्तारः
धनधान्यादिपदचतुष्प-दादिविभुतिविस्तरः । उपा० रा पविद्ध- प्रवृद्धं उपचाररहितम् । बृह० ११ अ । पविद्धत्थं प्रविध्वस्तं सर्वया भस्मसाद्भूतम् । जीवा.
१२२
पविभत्त- प्रविभक्तं प्रतिनियतम् । प्रज्ञा० ३२९ | पविभत्ती प्रविभक्तिः- प्रकर्षेण
स्वरूपसम्मोहाभावलक्षणेन विभागः पृथक्त्या । उत्तः
[Type text]
-
८३।
पवियक्खणा - प्रविचक्षणा, अभ्यासातिशयतः क्रियां प्रतिप्राविण्यवन्तः । उत्त० ३२०
पवियारणा प्रविचारणा, प्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं
[217]
पदम् । प्रज्ञा० ६ |
पवियारियंत प्रविचारयन्। उत्तः ३८६ पविरल प्रविरलं- लम्बमानम् जीवा० २६८ पविरलपप्फुसियं प्रविरलाः प्रस्पृशिका विप्रुषो यत्र
तत्तथा । भग० ६६५ |
पविरलफुसिय- प्रविरलस्पृष्टं प्रविरलानि धनभावे कर्दमसम्भवात्मकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि स्पर्शनानि यत्र वर्षे तत् प्रविरलस्पृष्टम् । जीवा० २४५
पविरलसाहुसहिओ प्रविरलसाधुसहितः आव- २९३ | पविलीणं प्रविलीनं नवनीतमिव सर्वथा गलितम् जीवा० १२२
पविरल्लियं विस्तारवत्। प्रश्न० ९२१ पविसइ - प्रविशति पविसइ । आचा० ३६५ | पविसमाणे- प्रविशन्। सुय० १२
पविसारिय- प्रविसारितम् । दशवै० ९६ । पविसिणि- णिगच्छति णिति निशी. ५१अ पविसियओ - प्रोषितः । आव० ४२३ |
पवीलए तत उदध्वमधीतागमः परिणतार्थसद्भावः सन् प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत् प्रपीडयेत्। आचा० १९२ पवीला प्रपीडनं बहुपीडनम्। दशकै १५३
-
"आगम- सागर- कोष" [३]
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[Type text )
पवुट्ठदेव - प्रवृष्टो देवः । आचा० ३८९ । पवेअए प्रवेदयति कथयति । दश- २६९१ पवेइआ प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता ।
आचा० २५|
पवेइय- प्रवेदितः प्रकर्षेण स्वयं साक्षात्कारित्वलक्षणेन
ज्ञातः । उत्त० ८१ |
पवेइया- प्रवेदिता-केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता प्रवेदिता विज्ञाता । दशवै० १३७ |
पवेईयं - प्रवेदितं प्रतिपादितम्। आचा० १३४ |
पवेतणं प्रवेदनं प्ररूपणं फलकथनम्। बृह. २५अ पवेदणं प्रवेदनं पूत्कृतम्। बृह० ९३ आ ।
पवेपति प्रवेपते दन्तवीणादिसमन्वितः कम्पते। आचा.
-
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
-
३०९ |
पवेस प्रवेशः कुड्यस्थूलत्वमष्टयोजनान्युच्चमिति । स्था० २२७, २९४१ प्रवेश: निमज्जनं जलप्रवेशः। उत्तः ७११| प्रवेशः उपपातः । आचा० ६९ । पवेसण- नवमशतकसत्कतृतीयोद्देशके गाङ्गेयाभिधानानगरकृ-तनरकादिगतप्रवेशन विचारः ।
।
-
भग० ३३९|
पवेसण गत्यन्तरादुवृत्तस्य विजातीयगतौ जीवस्य प्रवेशनं, उत्पाद इत्यर्थः । भग० ४४२|
पवेसियल्लओ - प्रवेशितः । आव० ४०५ |
पवेसेत्ता - प्रवेशयित्वा नीत्वा । आव० ६६२ | पव्व पर्व मेघलादि दष्ट्रा पर्वतो वा सूत्र• १४७। पर्वजानुकुर्परादि। उत्त० ८४| पर्वः-पक्षः। सूर्य० १५५| प्रसवः पुत्रजन्मः ज्ञाता० ५३ अमावासी पौर्णमासी वा तदुपलक्षितः पक्षोऽपि पर्व स्था० ३७०। पर्व कौमुदीप्रभृतिः । ज्ञाता० ७९१
पव्वइए प्रव्रजितः पापान्निष्क्रान्तः । दशकै० २६१ प्रव्रजेयं गृहान्निष्क्रामेयम्। उत्त० ४०६१ पव्वइओ - प्रव्रजितः प्रकर्षेणविषयाभिष्वङ्गादिपरिहाररूपेण व्रजितो- निष्क्रान्तः । उत्त० ४४२। प्रव्रजितः । आव० ४३४ |
पव्वइतो- पर्वतः-इन्द्रदत्तराजस्य दासचेटः । उत्त० १४८ पव्वइय प्रव्रजितः शाक्यादिः अनुयो० २४४ | प्रव्रजितःप्रगतः प्राप्तः प्रव्रजितः प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः । जम्बू० १४२) प्रव्रजितः द्विपृष्ठवासुदेवपूर्वभवः आव. १६३१
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
"
[Type text]
पव्वए - वंसो | निशी० ६० आ । पव्वओ उभओ पेरुरहितं निशी. २३अ पव्वगो-दब्भसारित्थो । निशी० ६९ आ। पर्वगःस्थावरविशेषः। सूत्र० ३०७ । पर्वकः वाद्यविशेषः । प्रश्न० १५९| पर्वगः इक्षुप्रभृतिः । भग० ३०६ | पर्वगः - इक्ष्वादि । जम्बू० १७४| पर्वगः। प्रज्ञा० ३७ | पर्वगः इक्ष्वादि। जीवा० २६। वनस्पतिविशेषः । सूत्र० ३०७ । पव्वज्जा- प्रवजनं गमनं पापच्चरणव्यापारेष्विति
प्रव्रज्या । स्था० १२९ | प्रव्रज्या स्था० ४७३ | पव्वणं पुणो पुणो पव्वट्टणं । निशी. १९० आ पव्वणी पर्व्वणी-कार्तिक्यादि । भग० ४७३। पव्वतओ - पर्वतः दासचेटः । आव० ३४३ पव्वतिद- पर्वतेन्द्रः । सूर्य० ७८ पव्वतियग- पर्वत्रिकम् । आव० २१०| पव्वदेसकाल पर्वदेशकालः आव० १४ET पव्वपेच्छतिणो काश्यपगोत्रभेदः स्था० ३९० पव्वबीय पर्वबीज इक्ष्वादिः । सूत्र. 3५०
पव्वय पर्वगः तापसभेदः आव• ६७३१ पर्वतः । जम्बू• ४२९| तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ | पर्वतः । भग० १७० | पर्वताः पर्वतनात्-उत्सवविस्तारणात्पर्वताः-क्रीडापर्वताः, उज्जयन्तवैभारादिः । भग० ३०६ | पर्वतः - क्रीडापर्वतः । जम्बू• १६८ पर्वतः क्षुद्रगिरिः । जम्बू. ६६ | पर्वगःइक्ष्यादिः। उत्त॰ ६९२। पर्वतः तितिक्षोदाहरणे द्वितीयो दासचेटः आव० ७०२१ पर्वतः मथुरायां राजा आव
३४४|
पव्वयकडगं- पर्वतकटकं भगुः। प्रश्न. १९१ पव्वयमिह - पर्वतगृहं-पर्वतगुहः । आचा०३८२ पव्वयमह पर्वतमहः । जीवा० २८१ पर्वतमहोत्सवः । ज्ञाता० ३९|
पव्वयय द्वितीय वासुदेवपूर्वभवः । सम० १५३॥ पव्वयराया - पर्वतराजः पर्वतेन्द्रः । जीवा० ३४७ । पव्वयविदुग्गं पर्वतदुर्गः पर्वतसमुदायः । भग० ९२॥ सूत्र
३०७ |
पव्वया पर्वजाः पर्वाणि सन्धयस्तेभ्यो जातः । उत्तः ६९२
पव्वराहु- पर्वणि पौर्णमास्यां अमावास्यायां वा यथाक्रमं चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति स पर्वराहुः । सूर्यः
[218]
"आगम- सागर-कोषः " [3]
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[Type text]
२९०। पर्वराहुः-यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति । जीवा० ३३९ | पर्वराहुः । भग० १७६ । पव्वहड़- प्रव्यथते प्रकृष्टव्यथामिवोत्पादयति । भग
१६६ |
पव्वहणा प्रव्यथना भयोत्पादनम्। औप. १०३) पव्वहेज्ज- प्रव्यथते - बाधते अन्तर्भूतकारितार्थत्वादवा प्रवाह-येत्। स्था० ३०९ | प्रव्यथेतग्रामाच्चालयेन्निष्काशयेत् कश्चित् उदर्को वा आगच्छति ततो नश्येदिति। स्था० ३१०| पव्वा - लोकपालस्य तृतीया पर्षद् । स्था० १२७| पव्वाओ पर्वाणि जानुकूर्परादीनि । उत्त० २५१| पव्वाण - प्रम्लानं मनाक् शुष्कम् ओघ० १७०| पव्वाय प्रम्लानः- अर्धशुष्कः । पिण्ड. १९१ प्रम्लानं म्ला
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
नवृन्तम् । बृह० १७९ आ ।
पव्वायाधिक्खल प्रवातकर्दमः । ओघ• ७३
पव्वायण- प्रव्राजनं-रजोहरणादिवेषदानेन
संयमस्वीकरणम्। भग- १२२
पव्वायणा - प्रव्राजना । दशवै० ३१ । पव्वायणायरिओ- प्रव्राजनाचार्यः आचार्यविशेषः। दशवै.
३१|
पव्वायणायरित- प्रव्राजनाचार्यः । स्था० २३९ | पव्वावण्णा - पव्वावणिज्जपरिक्खा पव्वावण्णा । निशी. ४६ आ
पव्वावित्तए- प्रव्राजयितुं रजोहरणादिदानेन । स्था० ५६ । पव्वाहा प्रवाहाः- अपकृष्यनिप्रकर्षवन्ति उदकवहनानि ।
भग० १९९|
पव्विद्धं प्रविद्धं वन्दनकं दददेव नश्यति, कृति कर्मणि तृतीयो दोषः आक १४३१
पव्विहति - पगरिसेण विहि खिवति । निशी० २५६ आ । पव्वीसग - पव्वीसकं वाद्यविशेषः । प्रश्र्न० ७० | पव्वोणीए अमोग्गतिता, सन्मुखगमनम्। निशी. २८५
आ ।
पशवः पश्यन्ति प्रसूयन्ते वा । सम• ६२॥ पश्चात्कर्तु पराजेतुम् । नन्दी० १५० |
पश्चात्तापकृत्– पश्चादनुतापकः । उत्त० ३४० | पश्चानुपूर्वी गणनानुपूर्व्या द्वितीयो भेदः स्था० ४
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पश्चिम - अधिक्षेपः । नन्दी० २१| पश्चिमरुचक- दिक्कुमारिवास्तव्यपर्वतः ज्ञाता० १२७१ प्रसंग - प्रसङ्गः- अनुष्ठानम् । आचा० ६९| प्रसङ्गःआसेवन | ओघ० १९२| प्रसङ्गो अवशस्यानिष्टप्राप्तिः । निशी० २५अ । प्रसङ्गः-परम्परा । बृह० १२३ आ । प्रसङ्गः भूयः कारापणम्। बृह. १९३ आ प्रसङ्गःअभ्यासः आव० ४२६ प्रसङ्गः आसेवनारूपः । सम० ४९। प्रसङ्गः तथाविधासक्तिरूपः । उत्त० ६१७ | प्रसङ्गः-अभ्यासः। नन्दी० १६४ | प्रसङ्गः कामेषु प्रसजनमभिषङ्गः, अब्रह्मण एकोनत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ ।
पसंत- प्रशान्तं सर्वथाऽसदिव । जम्बू० ३८९ | प्रशान्तः बहिर्वृत्त्या अग० ४९० ९२४१ प्रशान्तः प्रशाम्यति क्रोधादिजनितौत्सुक्यरहितो भवत्यनेनेति, परमगुरुवचः श्रवणादिहेतुसमुल्लसित उपशमप्रकर्षात्मरसः। अनुयो० १३५। प्रशान्तःक्रोधादिदोषपरिहारात्। अनुयो० १४० प्रस्वान्तःप्रकृष्टचित्तः । जम्बू• १४६॥ प्रशान्तः औप. ३५ पसंतजीवी प्रशान्तजीवी बहिर्वृत्यपेक्षया प्रश्न. १०६ । पसंते पसन्ते कषायोदयस्य विफलीकरणात्। ज्ञाता० १०३ |
पसंधण- पसन्धनं सातत्येन प्रवर्त्तनम्। पिण्ड १३३ पसंस– प्रशस्यः-प्रशस्यते सर्वेरप्यविगानेनाद्रियत इति लोभः । सूत्र० ६९।
पसंसइ प्रशंसति स्तौति बहुमन्यते । आव० १८७ पसंसा- प्रशंसा वन्दनं संस्तवः आचा० २६ प्रशसनंप्रसंसा स्तुतिः । आव० ८१६|
पसंसिए- प्रशंसितः-स्तुतः । आचा० १२८ पसइओ प्रसृतिः नावाकारतया व्यवस्थापिता
प्राञ्जलकर तलरूपा। ज० २४४ |
पसई-वे असृती प्रसृतिः । ज्ञाता० ११९। प्रसृतिःनावाका-रता व्यवस्थापितप्राञ्जलकरतलरूपा । अनुयो०
१५२
पसज्जणा - प्रसजना-प्रायश्चित्तवृद्धिः । बृह० ६ आ । पसज्झ- प्रसह्य-प्रकटमेव। सूत्र० ६६। प्रसह्यधर्मनिरपेक्ष-तया प्रकटम्। दशवै० २७७।
पसढं- प्रसह्य- अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् । दशवै०
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* आगम- सागर - कोष : " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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१७६। प्रकर्षण शठः प्रशठः। सूत्र० ३६४।
पसम-प्रशमः। आव० ५९१। प्रकर्षण श्रमः प्रश्रमः-खेदः पसण्ण-प्रसन्नः-द्राक्षादिद्रव्यजन्या
स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः। आव०५९१| मनःप्रसक्तिहेतुरिति। विपा० ४९। प्रसन्नः-सूराभेदः। पसमथेज्जाइगुणगणोवेओज्ञाता०२०९।
प्रश(श्र)मस्थैर्यादिगुणगणोपेतः प्रश्रमःपसत्ता- प्रशास्ता-बुद्ध्युपजीवीमन्त्रिप्रभृतिः। सूत्र० २७८। स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः खेदः स्थैर्य जिनशासने पसत्थ- प्रशस्तं-उचितसेवनया हितम्। जीवा०४१ निष्प्रकम्पता प्रभावनादिकं च त एव गुणास्तेषां गणःप्रशस्तं-शोभनम्। जीवा० २०७। प्रशस्तं-सामायिकस्य समूह-स्तेनोपेतो-युक्तोः यः सः। अथवा तृतीयप-र्यायः। आव०४७४। प्रशस्तः
प्रशमादिगुणगणः-प्रशमप्रशंसास्पदीभूतः। जीवा. २२६।
संवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणः। आव० पसत्थदमसासण-प्रशस्तदमशासनः-प्रशस्तः
५९११ प्रशंसास्पदो दमश्च-उपशमः शासनं च सर्वज्ञागमात्मक पसय- पसयः-आटविको द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः। यस्य सः। उत्त०४६५)
अनुयो० ३९। प्रशयः-विखुर आटव्यपशुविशेषः। प्रश्न. पसत्थनिज्जराए- प्रशस्तनिर्जराकः
७। पसयः-आट-व्यो द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः। भग० कल्याणानुबन्धनिर्जरः। भग. २५११
३४५। प्रश्रयः-विखुरः आटव्यपशुविशेषः। जम्बू० १२४। पसत्थर-प्रकर्षण शास्ता प्रशास्ता तं
पसय-आटव्यचतुष्प-दविशेषः। ज्ञाता०६३ धर्मपाठकादिलक्षणम्। आव. ५१६)
पसर-प्रसरम्। ओघ० १४८प्रसरः-विस्तारः। प्रश्न० ७६। पसत्थाई-प्रशस्तानि-लाषितानि। स्था० २९७) पसव-प्रसवः-पुत्रादिजन्मः। ज्ञाता०७९| पसत्थार-प्रशस्तारः-धर्मशास्त्रपाठकः। औप० २७। प्रशा- | पसवई-प्रसूते-निर्वतयति। दशवै० १८७। स्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा। पसायट्ठी-प्रसादार्थी-गुरुपरितोषाभिलाषी। उत्त०५५ स्था०४९२ प्रशास्ता-लेखाचार्यादिः धर्मशास्त्रपाठकः। पसायपेक्खि- प्रसादप्रेक्षी-प्रसादं प्रेक्षि-अलोचित स्था. १२६। प्रशास्ता-धर्मोपदेशकः। स्था० ५१६)
शीलम-स्येति। उत्त. ५५ लेखाचार्यः, भर्ता वा। आव०६६३।
पसारंति-मन्त्रयति। व्यव० २७६। पसत्थारथेरा-प्रशासति-शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तार:- पसार-पर्यालोचः। उ०मा० गा०४७५ धर्मो-पदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराश्चेति पसारण-प्रसारणं-अङ्गानां विक्षेपः। आव. १७४। प्रशास्तृस्थ-विराः। स्था० ५१९।
पसारिय-प्रसारितः-विरलीकृतः। उत्त० ३६७। प्रसारितंपसत्थारदोस-प्रशास्ता-अनुशासको-मर्यादाकारी सभया- | गाविततकरणम्। दशवै०१४१ नकः सभ्यो वा तस्माद्दविष्टापेक्षकाद्वा दोषः पसारेज्ज-प्रसारयेत्। आव० ८५३। प्रतिवादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः | पसासेमाणे- प्रसाधयन-पालयन। ज्ञाता०६। प्रमेयस्मारणादि-लक्षणो वा प्रशास्तृदोषः। स्था० ४९२ पसाह- प्रशाखः-शाखाविनिर्गतशाखः। जम्बू० ३२४१ प्रसन्न- प्रसन्ना-सुराविशेषम्। उपा०४९। प्रसन्ना- पसाहण- प्रसाधनम्। आव० ५५५। प्रसाधनं-मण्डनम्। सुरावि-शेषः। जम्बू. १००। प्रसन्नं-परिणतम्। दशवै. ज्ञाता० ३६, ९३। २०७। प्रसन्ना-सुराविशेषः। जीवा. २६५। प्रसन्नं- पसाहणघरगं-प्रसाधनगृहकं-यत्रागत्य स्वं परं च विकाररहितम्। उत्त० ४४२।
मण्डयति। जीवा० २००। प्रसाधनगृहक-यत्रागत्य स्वं परं पसन्नचंद-प्रसन्नचन्द्रः-उत्कृष्टबाह्यकरणवतः च मण्डयति। ज० ४५ सप्तमनरकप्रा-योग्यकर्मबन्धकः। आव० ५२९/ पसाहन-प्रसाधनं-मण्डनम्। ज्ञाता०४३। प्रसन्नचन्द्रः-द्रव्यव्युत्स-र्गोदाहरणे
पसाहि-प्रसाधि-प्रतिपालय। उत्त० ३८६) क्षितिप्रतिष्ठितनगरे राजा। आव० ४८७।
पसाहिउं- प्रसाध्य-प्रगणय्य। आव०७०३|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[220]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पसाहिए- प्रसाधितः-संस्कृतः। उत्त० ४९३।
प्रसूति- प्रसूतिः-नखादिविदारणेऽपि चेतनया पसाहिता-प्रसाध्य-वशीकृत्य। उत्त० ४४८१
असंवितिस्त-द्रूपः। ओघ० १६३ पसिअ-प्रसितः-प्रकर्षण बद्धः। ज० २१११
पसूया-प्रसूता-कणिशानां पत्रगर्भेभ्यो विनिर्गमात। पसिढिलं-प्रशिथिलं दृढम्। ओघ० ११०। प्रशिथिलं दोषो ज्ञाता० ११६|
यददृढमनिरायन्तं वा वस्त्रं गृह्यते। उत्त० ५४१| पसेढि-श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्याश्रेणिः सा प्रश्रेणिः। जम्बू. प्रशिथिलं अदृढम्। ओघ० ११०
३१॥ पसिणं-प्रश्न-आदर्शप्रश्नादि। सूत्र. १८१। प्रश्नः। आव० | पसेढी-प्रश्रेणिः-श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्या श्रेणिः प्रश्रेणिः। ७९३। प्रश्नः। भग० ११६। प्रश्नः-शिष्यपृष्टस्यार्थस्य जीवा. १८९। प्रति-पादनरूपः। जम्बू० ५४१। प्रश्नः
पसेणइ-अस्यामवसर्पिण्यां पञ्चमकलकरः। स्था० ३८९। अङ्गुष्ठस्वप्नप्रश्नादि। बृह. ३३ अ। प्रश्न
पसेणइए- प्रसेनजित्-पञ्चमकलकरः। आव० १११| पृच्छयमानत्वात्। ज्ञाता० ११० प्रश्नः
पसेणई- प्रसेनजित्-योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते कुशाग्रपुरे अङ्गुष्ठाड्यप्रश्नादिः। स्था० ३०११
राजा। आव० ६७१। प्रसेनजित्-द्वादशमकुलकरनाम। पसिणवागरण- प्रश्नव्याकरणम्। उपा० ३९।
जम्बू० १३२ प्रसेनजित्प्रश्नव्याकरणं प्रश्नोत्तरम्। ज्ञाता० ११०
औत्पत्तिकीबुद्धिदृष्टान्तेन्द्रारत्ने राजा। आव०४१७ परिणसयं- प्रश्नशतं-या विदया मन्त्रो वा विधिना प्रसेनजित्-श्रावस्तिनपतिः। उत्त० २८६। जप्यमानः पृष्टा एव सन्तः शुभाशुभ कथयन्ति ते पञ्चमकलकरः। सम० १५०| प्रश्नाः तेषामष्टोत्तरं शतम्। नन्दी. २३४
पसेणती- प्रसेनजित्-अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य पसिणाइ-प्रश्नविदया। स्था० ५१२
नवमम-ध्ययनम्। अन्त०१। पसिणापसिण-प्रश्नाप्रश्नं स्वप्नविद्यादि। भग० ५१| पसेणीय- प्रश्रेणयः-स श्रेण्यवान्तरभेदः। जम्बू. २६४। प्रश्नाप्रश्नः स्वप्नविद्यादि। प्रज्ञा०४०६। प्रश्नाप्रश्नः- पसेवय-प्रसेवकः-क्षुरादिभाजनम्। उपा० २२। पृच्छतोऽपृच्छतो वा शुभाशुभकथनम्। नन्दी० २३४। पस्स-पश्यन्-अवलोकयन्। उत्त० २६८। प्रश्नप्रश्न-"पसिणापसिणं समिणे विज्जासिद्ध कहेइ | पस्सवण-प्रश्रवणं-मूत्रम्। दशवै. ९७१ अन्नस्स। अहवा आइंखिणिया घंटियसिटुं परिकहेइ।" | पहंस- प्रधर्म्य-पराभूय। उत्त० ३५३। बृह. २१५। सविणयवि-ज्जाकहियं कथितस्स पह-वस्त्रैषणायां दवितीया ऐषणा। आचा. २७७। पन्थापसिणापसिण भवति। निशी० ८५।
रथ्या। भग० १३७, २००। प्रभाकरः-सम्यग्दृष्टौ महापसिद्धं- प्रसिद्ध-प्रख्यातम्। प्रश्न. ११३। प्रसिद्धिः-आश- बलस्य राज्ञश्चित्रकरः-प्रभासः। आव० ७०६। पन्थःकापरिहाररूपा। आव० ३७७)
साधारणमार्गः। अन्यो० १५९| पन्था-रथ्यामात्रम्। पसिमा-अंबफलाइ। निशी. ६० अ।
औप० ५७। पन्था-सामान्यमार्गः। प्रश्न० ५८ पन्थापसु- पशुः-ग्राम्यः। सम०६२। पशुः-छगलकः। अनुयो. उपदेशतो सम्यग्दर्शनप्राप्तौ दृष्टान्तः। आव०७५ ३९। मण्डल। निशी० ८९ अ।
पन्था-मार्गः। आव० १३६। पथः-पथमात्रम्। ज्ञाता० २८॥ पसुधम्म- पशुधर्मः-मात्रादिगमनलक्षणः। दशवै० २२॥ प्रभा-एकैकदुर्नया-भ्युपगमपरिस्फूर्तिः। नन्दी० ४५ पसुपाली- पशुपाली। आव० ५३८१
पथः-रथ्यामात्रम्। स्था० २९४१ पसुया-विखुरविशेषः। प्रज्ञा० ४५१
पहओ- प्रहतः-आसेवितः। आव० ३८६) पसुवह- पशुवधः। आव०६५१|
पहकर-पहकरः-सङ्घातः। जीवा० १८८1 समूहः। भग० पसू- पशुः-अश्वादिकः। उत्त० १८८५
४६४। समूहः। मरण | पहकरः-समुदायः। प्रश्न०४७। पसूअ-प्रसूतः-निर्गतशीर्षकः। दशवै० २१९।
पहकरः-संघातः। जम्बू० ३०| पहकरः-सङ्घातः। राज. पसूई-प्रसूतिः-शालिरत्नम्। आव० ४३५१
३। देशीशब्दोऽयं समूहवाची। जम्बू. १४५) विस्तारवृन्दं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[221]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #222
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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देशीशब्दः। जम्बू. १९६। समूहः। जम्बू० २००
२११॥ पहठ्ठ- प्रहृष्टः-प्रहसितवदनः-समुद्भूतरोमहर्षः। बृह. २४७ | पहाणपर- प्रधानत्वेन परः प्रधानपरं-द्विपदानां तीर्थकरः आ। प्रहृष्टः-प्रहर्षवान्। उत्त० २८७। प्रहृष्टः
चतुष्पदानां सिंहादिः अपदानामर्जुनसुवर्णपनसादिः। समर्थस्तरुणः। ओघ. १२६।
आचा०४१५ पहण-प्राहन्-प्रहतवान्। उत्त०४४८१
पहाणाय-प्रकृष्टं हीनम्-अपगमः प्रहाणं तस्यायो-लाभः पहयर- प्रहकरः-समूहः। विपा० ३६|
प्रहाणायः-प्रहाणः प्रहानि वा। उत्त. १८३। पहरणं- प्रहरणं-अक्षेप्यं शस्त्रम्। प्रश्न०४७। प्रहरणं पहायदेसकाल- प्रभातदेशकालः। आव० ३९८ करवा-लादि। प्रश्न. १३। प्रहरणं क्षेप्यम्। विपा० ४६। पहार-प्रहारः-कशादिभिस्ताडनम्। दशवै०२६७ प्रहरणं-असिकतादि। जीवा० २५९। प्रहरणं-खड़गादि। पहारेत्ता- प्रधारयिता-स्थापयिता। भग० २३१| उत्त. १४३। प्रहरणं खड्गादि। आव० ३४६। प्रहरणं- पहारेत्थ- प्रधारितवान्-सङ्कल्पितवान्। भग. ११६| अक्षेप्या-स्त्रम्। भग० १९४। प्रहरणं। भग० ३१८। प्रहरणं- प्रधा-रितवान्-विकल्पितवान्। ज्ञाता० १३१ क्षेप्य-शस्त्रं नाराचादि। भग० १३८प्रहरणं
संप्रधारितवान्। अन्त०१२ प्रधावितवान्। जीवा० २५४। लकुटमुसुण्ढ्यादि। आचा०६०। प्रहरणः खड्गः। स्था० प्रधारितवान्। जम्बू. २६६। प्रधारितवान्-चिन्तितवान, ४५०। प्रहरणं-अस्यादि। जम्बू० २५९। प्रहरणं-कुन्तादि। प्रवृत्तवान्। ज्ञाता० ३४। ज्ञाता० २२११
पहावण- प्रधावन-क्षेत्रमार्गणा क्षेत्रप्रत्यपेक्षणा पहरणकोस-प्रहरणकोशः-प्रहरणस्थानम्। जीवा० २३२ उपधिमार्गणा च। व्यव० ३५४ अ। पहराइया-लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६।
पहाविओ-प्रधावितः। आव० ५६८१ पहराय- पञ्चमवासुदेवस्य प्रतिशः। सम० १५४| पहावेति-प्रधावयति-भ्रमयति। आव०६५०|
दत्तवासु-देवशत्रुः, सप्तमवासुदेवशत्रुः। आव० १५९। पहास- प्रहासः-अतीवहासरूपः। दशवै. २३५। पहलिय-म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५
प्रहासा- पंचसेले अच्छरा। निशी० ४२ । प्रहासापपहवति- प्रभवति। आव० ३८४१
ञ्चशैले-विदयन्मालेरग्रमहिषी। निशी० ३४५ अ। पहसित-प्रहसितः। भग० १४५
पहिअकित्ती- प्रथितकीर्तिः। उत्त. ३२११ पहसिय-प्रहसितं-हसितमारब्धम्। ज्ञाता० १३३। पहिज्जमाणे- प्रहीयमाणं-प्रभ्रश्यन्, परिपतत्। भग० १८१ प्रभातया सित इव बद्ध इव प्रहसित इव प्रकर्षेण हसितः | पहिहमुहवण्ण- प्रहृष्टमखवर्णः। उत्त० २८६। प्रहृष्टःइव। जम्बू० २९७। प्रहसितं-हसितुमारब्धम्। विपा० ८२ | प्रहर्ष-वान् मुखवर्णो-मुखछाया यस्य स तथा, यद्वा प्रभासितः-प्रभा तया सित इव बद्ध इव। प्रहसितः- प्रहृष्टः मुख-स्येव मुखवर्णो यस्य। उत्त० २८७। प्रकर्षेण हसितः। जीवा० २०९।
पहिया-पथि गच्छन्तीति पथिकाः, प्रहिताः केनापि पहसति- प्रहसति। उत्त. ५१।
क्वचित् प्रेषिता। ज्ञाता० १५२ पहसिए- प्रहसितः-प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया णाणाविधगामणगरदेशहिंडगा, पह-पडिवण्णगा पहिया। प्रह-सितः-प्रभया वा सितः शुक्लः संबद्धो वा प्रभासित निशी० ११ । इति। भग० १४५
पहीण-प्रहाणं-जीवप्रदेशैः सह संश्लिष्टस्य पहा- प्रभा-ज्योत्स्ना । आव० ५१०
कर्मणस्तेभ्यः पतनम्। भग०१६। प्रक्षीणं-प्रहीणं वा। पहाइओ- प्रधावितः-आगतः। आव०६९५१
भग०८६। प्रहीणः -किंचित्सत्तावन्तः। स्था० २९४। पहाडेति-स्वेच्छयेतश्चेतश्चानाथं भ्रमयति। सूत्र. १२७ । प्रहीनं-प्रकर्षेण हानिं गतम्। प्रक्षीणम्। उत्त० ५६९। पहाण- प्रधानः-क्कथितः। जीवा० २६८1 पाषाणम्। आव० | पहीणगोत्तागार- प्रहीणगोत्रागार-प्रहीणं विरलीभूतमानुषं ६१३
गोत्रागारं तत् स्वामिगोत्रगृहम्। भग० २००९ पहाणदव्वसुद्धी- प्राधान्यद्रव्यशुद्धिः द्रव्यशुद्धिर्भेदः। उत्त० | पहीणजरमरण- प्रक्षीणजरामरणः कारणाभावात्। आव.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[222]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #223
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
११११
५०७
पाइण- प्राची पूर्वः। दशवै. २०१५ पहीणमग्ग-प्रहीणमार्गम्। भग. २००९
पाइणण-तुत्तगो। आव० ७९७। पहीणसंसार-प्रहीणसंसारः प्रहीणचतुर्गतिगमनः। भग० । पाइणवाय-यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स
प्राचीन-वातः। प्रज्ञा० ३०| पहीणसंसारवेयणिज्जे- प्रक्षीणसंसारवेदनीयः। पाइल्लग-नूपुरविशेषः। उत्त. १९५१ प्रक्षीणसंसार-वेद्यकर्मा। भग० ११११
पाई-पात्री। जीवा० २१३। प्राची-पूर्वादिक्। दशवै. २०११ पहीणसामिय- प्रहीणस्वामिकं-स्वल्पीभूतस्वामिकम्। पात्री। जम्बू. ४१०। पात्री। जम्बू. ८२॥ भग. २००१
पाईओ-पात्र्यौ। राज०७० पहीणसेउयं- प्रहीणसेचकः-प्रहीणः-अल्पभूतः
पाईण-प्राचीनं-पूर्वा। जम्बू०६६। सेक्तासेचकः-धनप्रक्षेप्ता। भग० २००९
पाईणदाहिणं- प्राचीनदक्षिण-पूर्वदक्षिणदिगन्तरम्। भग. पह-नेता स्वामी। आव०६६१।
२०७| पहच्चमाण-पर्याप्यते। ओघ. १७३।
पाईणवडीणा- पूर्वपश्चिमम्। ज्ञाता०९९। पहट्ठो- प्रकर्षण हृष्टः प्रहृष्टः प्रहसितमनः। निशी. २००५ | पाईणवाय-यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः सः - तत्तदनुष्ठीयते। ओघ० १०२
प्राचीन-वातः। जीवा० २९ पहुप्पति- प्रभवति-समर्था भवति। दशवै० १०७। पाउं- पातुं-अभ्यवहर्तुम्। आचा० ४७। पातुं-पीत्वा। आचा० पहप्पते- पर्याप्यते। ओघ०५४।
३३० पहव्वति-पर्याप्यते। ओघ० ११२१
पाउंछण-प्रादप्रोछनम्। स्था० ३३० पह-प्रभुः-समर्थः योग्यो वा। आचा०७५। प्रभः-वीर्यान्त- पाउ-प्रादुः-प्राकाश्यम्। भग० १२७। प्रादः-प्राकाश्ये। रायक्षयतो विशिष्टसामर्थ्यवान्। उत्त०६६८।
अनुयो० २३॥ स्वगृहमात्रना-यकः। पिण्ड० ११२प्रभवति
पाउआउ- पादुके। आव० ३६०| सम्बन्धिवस्तु तत्र तत्र स्व-कृत्ये नियोक्तुं समर्था | पाउआओ- पादुके, पादत्राणे। जम्बू. १८७। भवतीति प्रभुः। उत्त० ४२।
पाउआजाय- पादुकायोगः-पाद्काय्गम्। औप०६९। पहेण-वध्वा नीयमानाया यत्पितगृहभोजनमिति। | पाउआणालिया- पादुकानालिका। आव० ३६०। आचा०३३४१
पाउओ- प्रावृतः। आव० ११७ पहेणग-प्रहैणकं-लाहनकम्। पिण्ड० १०३
पाउकरणं- प्रादुःक्रियते-अन्धकारापवरकादेः साध्वर्थं पहेणय-प्रहेणकं-लाहनकम्। व्यव० ३५४ अ। ओघ०८७ बहिः करणेन दीपमाल्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यत्तत पहेणाए- प्रहेणकार्थम्। आचा० १३०
प्रादुष्करणं अशनादि। प्रश्न. १५४ पहेरक-प्रहेरकः-आभरणविशेषः। प्रश्न. १५९। पाउकरे- प्रादुष्कृत्य-कांश्चिदर्थतः कांश्चन सूत्रतोऽपि पहेलिअ-प्रहेलिका-गूढाशयपद्यम्। जम्बू० १३८। प्रकाश्य प्रज्ञाप्य। उत्त० ७१२। प्रादुष्करोमिपहेलिय-द्वाविंशतितमकला। ज्ञाता० ३८१
प्रकटीकरोमि प्रतिपादयामीति। उत्त० ४४६। पहोइज्ज-प्रकर्षण वा हस्तादेावनं कुर्यात्। आचा० ३४२। |
| आचा० ३४२॥ | पाउक्करिस्सामि-प्रादुष्करिष्यामि उत्पादयिष्यामि। पांडुराया-मायाहता। भक्त।
उत्त०२० पांशुक्षारः-उषः। दशवै० १७०
पाउग्गं- प्रायोग्यं-आहारपानीयादिकम्। आव० ७०० पांसुलि-पांशुलिका- पार्वास्थि। अनुत्त० ५।
प्रायोग्यं नाम समाधिकारकम्। निशी. १०१ आ। ओसहं पाइ-पात्री-अयोमयं भाजनम्। सूत्र० ३४०
भत्तं पाणं वा। निशी० ३३४ अ। उग्गमउप्पापाइक्क- पदातिः। प्रश्न०४८।
दणएसणाहिं सुद्धो। निशी. १६७ । प्रायोग्योपाइक्कबलं-चउब्बले पढमं। निशी० २७२ अ। __ अप्रतिहार्यः। व्यव० (१)। गुरुमादीपुरिसविभागेण जोग्गो
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[223]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
सो । निशी० १६७ अ
पाउड- प्रावृत्तः-छादितः । आचा० १२७। प्रावृत्तः गुण्ठितः। आचा० १९३ |
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पाउण - प्रावृत्त्य । ओघ० ३४ |
पाउणइ प्राप्नोति । औप० ११३ | प्राप्नोति-अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भवति । प्रज्ञा० ६०९ |
पाउणति प्रापयति पूरयति। ऑप. ९२ प्राप्नुवति।
प्रश्न० ८६ ।
पाउणिज्जति प्राव्रियते प्रावार्यते आव० ६३९॥ परिभुंजति । निशी० ८९ आ ।
।
पाउणित्ता प्राप्य सम० ७२१ पालयित्वा उपभुज्य । जम्बू. 141
पाणिस्सामि- प्रावरिष्यामि आचा० २४४१
पाउणीओ - प्रावृत्तः । आव० ६३१ | पाउणेज्ज प्राप्नुयात्। भग० २७३ प्राप्नुयात्। स्था०
११० |
पाउता - प्रावृत्ता
प्रमाणातिरिक्तमहामूल्यवस्त्राच्छादितवपुषा । बृह.
२५३ आ
पाउत्त- प्रयुक्तं माणिक्ययुक्तकङ्कणम् । औप० पा पाउब्भविज्ज- आगताः । भग० ६५९ |
पाउभाव प्रादुर्भावः आगमनम्। सम० १२३॥ पाउय प्रावृत्तम् ओघ० पा
पाउर- प्रादुः-प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुषिरम्। आचा०
२९३|
पाउरण- प्रावरणं वर्षाकल्पादि । उत्त० ४३२ | प्रावरणीयंअजिननिष्पन्नं वस्त्रम्। आचा० ३९४१ पाउल्लाई- मौजे काष्टपादुके वा सूत्र. १९८१ पाउदाउं- पादोदकदायिका पादशौचदायिका ज्ञाता०
११७ |
पाउस - प्रावृड्-आषाढ श्रावणौ। ज्ञाता० ६३, १६०| प्रावृड् । सूर्य- २०९ प्रावृइ-आसाढो सावणो सावणो भद्दवओ वा । बृह० ७७ आ प्रावृट्-श्रावणादिः । भग० ४६२१ पाउसिआ - प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी ।
सम० १० |
पाउसिए- प्रदोषिकं प्रकृष्टदोषम् आचा० ४२५ ४२८ प्रकृष्टदोषं प्रदोषिकम्। आचा० ४२५|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पाउसिया- प्रद्वेषः-मत्सरतत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी । भग० १८१। प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्रावेषिकी । स्था० ४१| प्राद्वेषिकी पञ्चविधक्रियायां तृतीया । प्रज्ञा० ४३५ । प्रद्वेषः मत्सरस्तेन निर्वृत्ता क्रिया प्राद्वेषिकी आव० ६११ | प्रद्वेषः मृगेषु दुष्टभावस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी। भग
९३ ।
पाऊय - प्रावृत्तम् । उत्त० १०५ | पाए- प्रगे - प्रभृति। बृह० २४१ अ
पाएस- आचारप्रकल्पस्य पञ्चदशो भेदः । आव० ६६० | पाएसरीया पात्रकेसरिका-मुखवस्त्रिका ओघ० ११८८ पात्रकेसरिका पात्रकमुखवस्त्रिका । ओध० ११७।
पाएसा आचाराङ्गे पञ्चदशममध्ययनम् । सम० ४४| आचारा- इङ्गस्य पञ्चदशममध्ययनम् । उत्तः ६४७। पाओअर प्रादुः प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः करणप्रादुष्करणम्, उपचारात् भक्ताद्यपि, सप्तम उद्गमदोषः । पिण्ड० ३४ | साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्तायपनयनेन वा प्रादुःप्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः करण प्रादुष्करणं तद्योगाद्भक्ताद्यपि प्रादुष्करणं यद्वा प्रादुः प्रकटं करणं यस्य तत् प्रादुष्करणम्। पिण्ड० ३५१ पाओउक्खितो - पाद उत्क्षिप्तः प्रतिज्ञा कृता । आव० ४३३ | पाओगिअं प्रयोगेन निर्वृत्तं प्रायोगिकम् आव० ४५७| पाओग्गं प्रायोग्यम् । आव० ३४७ ।
पाओवगत- पादपवत् उपगतो निश्चेष्टतया स्थितः पादपो पगतः । अनशनविशेषं प्रतिपन्नः स्था० २३७॥ पाओवगमण पादपवन्निस्पन्दतयाऽवस्थानम्। भग ९२१। नियमादप्रतिकर्म शरीरप्रतिक्रियावर्ज पादपोपगमनम्। स्था० ९४१ पादपस्योपगमनंअस्पन्दतयाऽवस्थानम् पादपोपगमनम्। औप• ३८ पादपोपगमनं मरणस्य सप्तदशो भेदः । उत्त० २३०| पाओवगमणमरण- पादवस्येवोपगमनं अवस्थानं
यस्मिन् तत् पादोपगमनं तदेव मरणम् । सम० ३५| पाओवगय पादोपगतः पादो वृक्षस्तस्य भूगतो मूलभाग- स्तस्येवाप्रकम्पतयोपगतं अवस्थानं यस्य सः। जम्बू ० २८० \ ज्ञाता०७४ |
पाओसिया प्रादोषिका प्रदोषकाले भवा पौरुषी सूत्रपौरुषी ।
[224]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
Page #225
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
ओघ० २१
विष्णुशङ्ख। प्रश्न० ८८ शङ्खविशेषः। प्रश्न० ७७ पाग-पाकः-एतन्नामा इन्द्रस्य बलवान् रिप्ः। भग० शङ्खविशेषः। सम० १५७ १७४| पाको नाम बलवान्। उपा०२६। पाकः-बलवान् पाटल-वृक्षविशेषः। जीवा. १९१। रिपुः। प्रज्ञा० १०१।
पाटला-पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता० २३१| पागइय- प्राकृतिकः-प्रकृतीनां मध्ये यः। ओघ. १२० पाटलिपुत्र-नगरम्। भग० ३२ वसतिदृष्टान्ते नगरम्। पागट्ठी-प्राकर्षी-प्रकर्षको अग्रगामी। ज्ञाता०६३।
अनुयो० २२५५ पागड- प्राकृतः-अनतिशायी। सूर्य. २७४। प्रगटः-जगत् | पाटलिपुर-मरुण्डराजराजधानी। नन्दी. १६२ प्रतीतः। जम्बू०१८४१ प्रकटः। मरण।
पाटलीपुत्र-नगरम्। उत्त०७९) पागडभाव-प्रकटभावः-निर्मायता। प्रश्न. १५८।
पाटीगणितं- गणितविशेषः। स्था०४९७। पागडा-चरणमालिका-संस्थानविशेषकतं पादाभरणम। पाठ-संमूर्छिमतरुजीवः। आचा० ५७। जम्बू० १०६।
पाठक-सूत्रधरः पृच्छति प्रश्नयति सूत्रादिव्याकरोति ब्रूते पागत-प्राकृतः। आव० १९२|
तदेवेति। स्था० १९७५ पागतितो-छिराते हरंतो, राउलवग्गस्स अवकंतितो पाठान्तर- वाचनाभेदः। जम्बू० ८७
पागयज-णस्स हरंति उ पागतितो। निशी. ३८ आ। पाठीण- पाठीनः-मत्स्यविशेषः। प्रश्न पागय-प्राकृतः-अनतिशायी। जीवा. ३३६। प्राकृतं-भोज- | पाडंतिय- प्रतिश्रुतिकं-दवितीयोऽभिनयविधिः। जीवा.
नम्। ओघ०७२। प्रकृतिषु भवः-प्राकृतः। आव० २३९।। २४७ पागसासण-पाको नाम बलवान रिपुः स शिष्यते- पाडग-घरपंती। वाडग। निशी. १८७ अ। निराक्रियते येन सः पाकशासनः इन्द्रः। प्रज्ञा० १०१। पाडणा-यैरुपायैरखण्ड एव गर्भः पतति सा पातना। पाको नाम बल-वान् रिपुस्तं यः शास्ति निराकरोत्यसौ विपा०४२ स पाकशासनः-इन्द्रः। भग० १७४| पाकः-बलवान् रिपः | पाडल-चतुर्दशतीर्थकरचैत्यवृक्षः। सम० १५२| स शिष्यते-निराक्रियते येन सः पाकशासनः इन्द्रः। । पुष्पविशेषः। दशवै० १७४। जीवा० ३८८१
पाडलय-पाटलः-कथाकथकस्तालाचारः। उत्त. १३४। पागसासणि-पाकशासनी-इन्द्रजालसंज्ञिका विद्या। सूत्र० | पाडलसंड-पाटलखण्डः, सिद्धार्थराजधानी। विपा०७४। ३१९|
पाडला- गच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। पाटला गौविशेषः। पागार-प्राकारः-वप्प्रः। भग०२३७ प्राकारः, शालः। प्रज्ञा. आव०८८५ ८६। प्राकारः। जीवा० २५८, २६९। प्राकारः-वप्रः। ज० | पाडलावासि-वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। १०६। प्राकारः-शालः। प्रश्न०८ प्रकर्षेण मर्यादया च । पाडलिपुत्त- पाटलिपुत्रं, क्षितिप्रतिष्ठितस्य षष्ठं नाम। कुर्वन्ति तमिति प्राकारः धूलीष्टकादिविरचितः। उत्त. उत्त. १०५। पाटलिपुत्र दक्षिणापथे नगरम्। दशवै० ४४। ३११| ज्ञाता०९९
पाटलिव-क्षोत्पत्तिस्थानम्। भग०६५३| पागारछाया- प्राकारछाया। सूर्य ९५।
चन्द्रगुप्तनृपतेर्नगरी। निशी० १०२ अ। पाटलिपुत्रपागारजढं- प्राकारजढं प्राकाररहितम्। आव. २३४| योगसंग्रहेऽनिश्चितोपधानदृष्टान्ते नगरम्। आव० पागारसंठिय- प्राकारसंस्थितः। सूर्य. १३०
६६८। पाटलिपुत्र-वैनयिकीबुद्धिदृष्टान्ते ग्रन्थिविषये पागारा- प्राकारा। आचा० ३३७
मुरुण्डराजधानी। आव० ४२४। पाटलिप्त्रं-आचारोदाहरणे पाजावच्चे-प्राजापत्यः स्थावरकायविशेषः। स्था० २९२। नगरम्। आव०७०७। पाटलिपत्रं-प्रशंसा-विषये नगरम्। पाज्जिए- प्रार्जिका-प्रार्थिका मातृमातुः पितृमातुर्वा माता। आव० ८१७। पाटलिपुत्र-गुणोदाहरणे नग-रम्। आव० दशवै०२१६।
८१९। अशोकचन्द्रराजधानी। बृह० ४७ अ। पाञ्चजन्य- वासुदेवस्य शङ्खः। उत्त० ३५०
अशोकनृपस्य नगरम्। निशी० ४४ आ| निशी. २४३ अ।
ग
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[225]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #226
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________________
[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पाटलिपुत्र-धनश्रेष्ठिनगरम। आव. २९३। पाटलीपुत्रं- यथाभिलषितार्थोपढौकनलक्षणानि। ब्रह. २६७ अ। नगरविशेषः। यत्र जितशत्रु राजा, लोभे च लुब्ध-नन्दो | पाडिहेरिए- प्रातिहारिकं भूयोऽप्यस्माकं प्रत्यर्पणीयम्। वणिक्। आव० ३९७। पाटलिपुत्र-शिल्पसिद्धदृष्टान्ते । बृह० २०० आ। जितशत्रुराजधानी। आव० ४०९। पाटलिपुत्र-परिणामिकी- | पाडुच्चिया-बाह्यवस्तु प्रतीत्य-आश्रित्य भवा बुद्धिदृष्टान्ते नगरम्। आव० ४३३।
प्रातीत्यकी। स्था० ४२। जीवादीन् प्रतीत्य या। स्था० पाइलिसंड-पाटलिसण्डं-सपार्श्वनाथस्य
३१७ प्राती-त्यकी-विंशतिक्रियामध्येऽष्टमी। आव. प्रथमपारणकस्था-नम्। आव० १४६।
६१२ पाडिऊण-पातयित्वा। आव. ३५४।
पाडेइ-पातयति निर्यातयति। बृह. १४९ अ। पाडिएक्कं- एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं पितुः
पाडेक्क- प्रत्येक-एकैकशः। औप०६१। फलकाद्भिन्नमि-त्यर्थः। भग०६६१।
पाढ- पाठः-पठनं पठ्यते वा तदिति पाठः, पठ्यते पाडिक्कएणं- एकं जीवं प्रति गतं-यच्छरीरं
वाऽनेना-स्मादस्मिन्निति वाऽभिधेयमिति पाठः प्रत्येकशरीरनाम-कर्मोदयात तत्प्रत्येकं तदेव
व्यक्तीक्रियते इति। आव० ८६। प्रत्येककम्। स्था० १९।
पाढहिओ-पाठार्थी। ओघ०६५ पाडिच्छगा-सूत्रार्थग्रहणार्थं ये
पाढव-पार्थवमिव पार्थिव शीतोष्णादिपरिषहसहिष्णुतया आचार्यसमीपमागच्छन्ति। ओघ० १३९।
समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव भवं पार्थिवम्। उत्त० पाडियक्क-पृथक्-विभिन्नम्। निर० ३३। प्रत्येकम्। १८६। पृथिव्या विकारः पार्थिवः, स चेह शैलः, ततश्च व्यव० २०६ आ।
शैले-शीराप्त्यपेक्षयाऽतिनिश्चलतया पाडियाओ-उत्तरीयवस्त्राणि। भग०६६३।
शैलोपमत्वात्परप्रसिद्ध्या वा पार्थिवम्। उत्त. १८६। पाडिवहिया-प्रातिपथिकाः-सम्खाः पथिकाः। आचा० पाढा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४। ૨૮રા.
पाठा-वनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३६४| पाडिवेसिअ-प्रातिवेश्मिकः। ओघ. १९४।
पाढाणं-देशविशेषः। भग०६८० पाडिस्सुइअं- प्रातिश्रुतिक-अभिनयविशेषः। जम्बू० १२। पाढामिए- वनस्पतिविशेषः। भग०८०४| पाडिहर- प्रातिहार्यम्। दशवै० ४८१
पाढी-पाठी यः सकलं वाहडादि पठति स। पाठी-सकलं पाडिहारिक- प्रत्यर्पणीयः। निशी. १६७ आ।
वाहडादि पठति स। ओघ० ४२ पाडिहारितं-गिहिसंतिय उवकरणं पडिहरणीयं
पाढेह-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। पाडिहारितं। निशी० ७३आ। प्रतिह्रियते-प्रतिनीयते पाणंधि-(देशीपदं) वतिली। व्यव० १७७ आ। यत्तत्प्रतिहा-रप्रयोजनत्वात् प्रातिहारिकम्। स्था० ३१२ | पाण-पानं-सुरादि। सूर्य. २९३। पानम्। आव० ११५। पानं पाडिहारिय- प्रत्यर्पणं तदर्ह प्रातिहारिकम्। बह. २९ अ। -मद्यम्। प्रश्न० १६३। पानं-पेयमुदकादि। आव० ८१९। अधुवं। निशी० ११७ आ। प्रातिहारिकः-पुनः सम- अनुयो० २१७। चाण्डालः। आव० ४०१। चाण्डालः। व्यव० र्पणीयः। राज० १२८ प्रातिहारिकं पुनः समर्प्यणीयम्। ५२ अ। पाणः-चाण्डालः। आव०७१७ पाणः-मातङ्गः। ज्ञाता० १०७
आव०७४३। पाणः-भाजनविशेषः। अन्यो० ५। पानःपाडिहारेय-प्रतिहारिकः-सागारिकभुक्तशेषः। व्यव० ३३६ पायामादि। उत्त. २६९। पानं-द्राक्षपानादि। आव०८१११ आ।
गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२। मातङ्गः। स्था० २६४।। पाडिहेर- प्रतिहारो-दौवारिकस्तद्वत्सदा
चाण्डालः। भग. १६४। उडुम्बरः। व्यव० २४७ अ। पानंसन्निहितवृत्तिर्देवता-विशेषोऽपि प्रतिहारस्तस्य कर्म सुरादि। भग० ३२६। पीयते तत् पानं मृद्वीकापानादि। प्रातिहार्यम्। उत्त० ३५४। प्रातिहार्यम्। आव. २९५१ दशवै. १४९। उच्छवासनिःश्वासो य इति गम्यते एषः पाडिहेराइं-प्रातिहानि
प्राणः। जम्बू. ९०| गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२। पानं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[226]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #227
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________________
[Type text]
धान्यरस-संस्कृतं जलम्। उपा० २२ पानं-सुरादि । स्था० ११९| पानं-आचाम्लादि। उत्त० ५२४ पीयत इति पानं खर्जूर- रसादिः । उत्त० ६०७ । प्राणिः द्वीन्द्रियादिः । दशवे. १५६
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पाणक्कमणं - दवीन्द्रियादित्रसप्राणिनां आक्रमणं पादेन पीडनं प्राण्याक्रमणम् । आव० ५७३।
पाणक्खय- प्राणक्षयः- बलक्षयः । १९७ ।
पाणग- पानकं द्राक्षापानकादि । सूर्य• २९३ पानकं द्राक्षापानकादि । प्रश्न० १६३ | पानकं काञ्जिकम् । पिण्ड० १७| पानक- द्राक्षापानकादि । भग- ३२६ | जलविशेषः । भग. ६८४१ पानक- आचामलम् ओघ० १३३ । पानकंदाक्षापानकादि । स्था० १९९१
पाणगजाय - पानकजातं पानीयसामान्यम्। आचा० ३४६| पानकाक्षणिकम् । ओघ १०४) पाणगारं जत्य पाणियकम्मं तो सुरामधुसीधुखंडगं मच्छंडि.यमुद्दियापभित्तीणि पाणगाणि । निशी. २७२
आ ।
पाणगोरि कल्लालावणे निशी. ६६ आ पाणजाइया प्राणिजातयः भ्रमरादिकाः । आचा० २०२१ पाणत एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् ।
सम० ३७ |
पाणपीय- प्राणप्रीतः - उश्र्वाच्छ्वासादिप्राणप्रियः प्राणपीतः भक्षितप्राणः । प्रश्न० ५९ | पाणभयणविप्परियासिया पानभोजनवैपर्यासिकी रात्रौ पानभोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः आव० ५७५१ पाणभोयणा प्राणिनो रसजादयः भोजने दध्यादनादी सङ्घट्टयन्ते-विराध्यन्ते व्यापादयन्ते वा यस्यां प्राभृतिकायां सा प्राणिभोजना आव० १७५१ पाणमंति- प्राणन्ति। अग० १९| "णमु प्रवत्त्वे इत्येतस्याऽ-नेकार्थत्वेन श्वसनार्थत्वात् प्राणमन्ति । भग० १९ | प्राणन्ति अन्तः स्फुरन्ती निःच्छ्वासक्रियां कुर्वन्ति। प्रज्ञा॰ २१९|
पाणयं– प्राणमन्ति-द्विपृष्ठवासुदेवागमनम्। आव०
१६३ |
पाणया प्रानताः कल्पोपपन्नवैमानिकभेदः
दशमवैमानिकः । प्रज्ञा० ६९।
पाणयावडिंस - प्राणतावतंसकः प्राणतदेवलोकस्य
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
मध्येऽवतंसकः । जीवा० ३९२ पाणवत्तियाए- प्राणसंघारणार्थम् ओघ १८९ । पाणवह प्राणवधः प्राणिघातः । प्रश्न० ५| पाणवाडग- चाण्डालपाटकः । उत्तः २६३ |
पाणविहि- पानविधिं दकमृत्तिकालया प्रसादितस्य सहजनिर्मलस्य तत्तत्संस्कारकरणं, अथवा जलपानविधि जलपान-विषये गुणदोषविज्ञानम् । जम्बू०
१३७ |
पाणसाला - जत्थ उदगादिपाणं सा । निशी० २७२आ। पाणहुम- प्राणिसूक्ष्मं अनुद्धरिः कुन्थुः । दशकै० २३०| प्राणसूक्ष्मं-अनुद्धरिः कुन्थुः । स्था० ४३० | अणुधरी कुंथु जा चलमाणावि नाविज्जड़ ठिरा दुव्विभवो एयं तं ।
दश० १२११
पाणा प्राणाः सत्त्वाः । आचा० ३६ ॥ प्राणाः द्वित्रिचतुरि न्द्रियाः । जम्बू ० ५३९| ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाणामभावात् प्राणा। व्यव० २८५| प्राणाः - द्वीन्द्रियादित्रसाः । प्रश्र्न० १५७ | प्राणाःद्वीत्रिचतुरिन्द्रियाः । प्रज्ञा० १०७ प्राणाःवीन्द्रियादयः । प्रज्ञा० ४३५॥ ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाणामभावात् । व्यव० २३११ प्रकर्षेणानन्तीति श्र्वसन्तीति प्राणाः दवीन्द्रियादयः । उत्त० ३७० | हृष्टस्य अनवकल्पस्य निरुप-विलष्टस्य च जन्तोरेक-उच्छ्वासयुक्ता निःश्वासाः प्राणाः । अनुयो० १७९॥ वीन्द्रियादयः स्था. १३६ प्राणाः पृथव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः
द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्चेन्द्रियबलोच्छव वासनिश्र्वासायुष्कलक्षणप्राणधारणात् प्राणाः । आचा० १७९ | प्राणाः प्राणिनः । आचा० ३४० । प्राणाःउच्छ्वासादयो बलं वा स्था० ३६० जातिजुंगितविसेसो । निशी ४३ आ मातङ्गा। बृह. १५२अ मातइगा। निशी ७२ आ । प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः । ज्ञाता० ६०। प्राणिनः –द्वित्रिचतुरिन्द्रियः । आचा० ७१| प्राणाप्राणीवीन्द्रियादि - त्रसः । आव० ५७३ | प्राणिनःपृथिव्यादयः ओघ प्राणिन् दशविधाः प्राणाः विद्यन्ते येषां ते प्राणिनः ते सामान्यतः संज्ञिपंचेन्द्रियाः । आचा० २५६६
पाणाइवाए– प्रथमं पापस्थानकम्। ज्ञाता० ७५|
[227]
* आगम- सागर - कोष : " [३]
Page #228
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
|وا
पाणाइवाओ-पाणाणमइवाओ तेहिं पाणेहिं सह
पाणु- प्राणः-मनुष्यादेरेक उच्छवासेन सह निःश्वास विसंजोकरणं। दशवै०६५।
उच्छवास-निःश्वासः य इति गम्यते एषः प्राण पाणाइवाय-प्राणाः-इन्द्रियादयः तेषामिति पातः इत्युच्यते। भग० २७६।
प्राणातिपातः जीवस्य महादुःखोत्पादनम्। दशवै० १४४। | पाणू- णासो। दशवै० ५४ अ। पाणाइवायकिरिया-प्राणातिपातक्रिया
पाण्डुः-राजाविशेषः मायारहितः। सूत्र. १७३। प्राणातिपातविषया-क्रिया। आव०६१२
पाण्डुकम्बला-शिलाविशेषः। सूर्य ७८१ प्राणातिपातिकी-प्राणातिपातः प्रसि-द्धस्तदविषया क्रिया | पाण्डुकवनं-अचलेन्द्रमूनिस्थितं वनम्। आव०४७ प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपात-क्रिया। भग. पाण्डुराजः- हस्तिनागपुरपतिः युधिष्ठिरादिपिता। प्रश्न १८ पाणाई-पानकादि। ओघ. ११४१
पाण्डू-पाण्डुमृत्तिकानाम देशविशेषे या धूलीरूपा पाण्डू पाणाउ-द्वादशमं पूर्वम्। स्था० १९९। अत्र
इति प्रसिद्धा। प्रज्ञा० २६। प्राणिनामायुर्वि-धान-सभेदमभिधीयते तत्
पात-पातः। सूर्य. १०८ पात्रं-भाजनम्। उत्त० २६५) प्राणायुवादशं पूर्वम्। सम० २६॥
पातकहत-पातकेन-ब्रह्महत्यालक्षणेन पाणाउपूव्वं- प्राणा-जीवा आयुश्चानेकधा वर्ण्यन्ते मातापित्रादिपातकल-क्षणेन वा हतः पातकहतः। व्यव. तत्प्राणायुः -द्वादश पूर्वम्। सम० २६।
७आ। पाणाऊ-प्राणाय-प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि त्रीणि मानसादीनि पातन- गालनम्। निर०११॥ बलानि उच्छवासनिश्वासौ चायुश्च ततो यत्र प्राणा पातनिका-अवतरणम्। नन्दी०७५/ आयुश्च सप्र-भेदमुपवर्ण्यन्ते तद्पचारतः प्राणायः। पाताल-पातालकलशः। अन्यो० १२१, १७१। द्वादशमं पूर्वम्। नन्दी० २४१।
| पाताललकापुरं-खरदूषणसम्बन्धिपुरम्। प्रश्न. ९। पाणागार-पानागार-मद्यगेहम्। ज्ञाता० ७९। विपा० ५२) पाति-नृपः। निशी० २४३ आ। पाणाच्चए- प्राणात्यये-अत्यर्थम्। ओघ. १९५१
पातीणगामिणी- प्राचीनगामिनी। आव. २२७। पाणाणुकंपा-प्राणानुकम्पा-दयाप्रकर्षः। ज्ञाता०६६) पात्रः- अभिनेतव्यप्रकारः। जम्बू. २६३। पाणामा-प्राणामिकी। आव. २१३। भग० १६१|
पात्रकल्पिकः- कल्पिके भेदः। बृह० १०८ अ। पाणावली-भाजनविशेषावली। अनुत्त०५
पात्रपरिकरः- पात्रनिर्योगः। ओघ. २०८। पाणिक्खय-प्राणिक्षयः-गवादिक्षयः। जम्बू. १२५। पात्री-भाजनविधिविशेषः। जीवा. २६६। पाणिपत्तं-प्राणिमात्रम्। आव. १९११
पाद- पादः-षडङ्गुलप्रमाणः। भग० २७५) प्रातः-प्रभातपाणिपरियावन्ना- पाणिपर्यापन्ना-हस्तस्थिताम्। आचा० | समः। सूर्य०४५। पादो-वृत्तपादः। स्था० ३९७। ३५७
पादकाञ्चनिका- पादधावनयोग्या काञ्चनमयी पात्री। पाणिपिज्जा-प्राणिपेयः-तटस्थप्राणिपेया नदी। दशवै. जीवा. २६६। २२०
पादकेसरिया-पात्रकेसरिका-पात्रप्रमार्जनपोतिका। प्रश्न पाणियमंचिता-पानीयमञ्चिका। आव० ८४५१
१५६| पाणियमंडुक्को-पानीयमण्डूकः। आव० ६४१।
पादठवणं-पात्रस्थानं यत्र कम्बलखण्डे पात्रं निधीयते। पाणी- वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३रा चाण्डाली। उत्त. ३०११ प्रश्न. १५६ पाणीय-पानीयं-जलम्। स्था० ११९। पानीयं-जलम्। सूर्य | पादददरय-पाददर्दरकं पादेन भूम्यास्फोटनरूपम्। जम्बू २९३। पानीयं-जलम्। प्रश्न. १६३। पानीयं-जलम्। भग. ४१९ ३२६।
पादपीठं-आसनविशेषः। उत्त०४२३ पाणीपाय-पाणिपात्रः। आव० ३२३
| पादपुंछण- पट्टयदुनिसिज्जवज्जियंरओहरणं। निशी.
मनि दीपरत्नसागरजी रचित
[228]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #229
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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१२९ आ। पादपुञ्छनं-पादकम्बलम्। उत्त०४३४। अपमित्य-भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय पादपोपगमन-अनशनविशेषः। स्था० ५८ अनशनभेदः। | साधुनिमित्त-मुच्छिन्नं यद् गृह्यते भक्तादि। नवम स्था० ३६४। तत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो
उद्गमदोषः। पिण्ड०३४१ दविभेदेऽपि पादपवन्निश्चेष्टतयैव स्थीयते अविचारं । पामिच्चित्तं-उच्छिण्णं| निशी०६३ अ। अनशनभेदः। उत्त०६०२।
पामिच्चेति-उच्छिण्णं। निशी० १०४ अ। पादबंधण-पात्रबन्धनं पात्रबन्धः। प्रश्न. १५६।
पामूलं-पादमूलम्। आव० ३९१| पादमूलम्। भक्त० पादबन्धकतन्तुः- जलचरजन्तुविशेषः। पिण्ड. १०२| पामोक्ख-उत्तर-आक्षेपस्य परिहारः। ज्ञाता० १४९। पादमूलिया-पिंडिंगरा। निशी. १४४ अ।
पायंक- पादाङ्क-मुद्राविशेषः। आव० ४३२१ पादलिप्तसूरिः- मुरुण्डेनोपलक्षितसूरिः। पिण्ड० १४१। पायंचणिउ-पादकाञ्चनिका पादधावनयोग्या पादलिप्ताचार्याः- पाटलिपुरे आचार्यविशेषः। नन्दी० काञ्चनमयी पात्री। जम्बू. १०१। १६२१
पाय- पादः-आसन्नलघुपर्वतः। ज्ञाता० ३५। षडङ्ग्लानि पादसमा-पादसमया उच्छवासा-यावद्धिः समयः पादो पादः, पादस्य मध्यतलप्रदेशः, अथवा पादोवृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छवासा गीते
हस्तचतुर्थांशः। जम्बू० ९४। प्रातः-प्रभातः। उत्त० ३७०| भवतीत्यर्थः। स्था० ३९४, ३९६)
पादः-श्लोक-पादः। आव०७९७। पादः-षडङ्गुलानि। पादा- मूलं। दशवै० ५आ।
अनुयो० १५७। पादः। स्था० २९९। पादः-चतुर्थांशः। सूर्य पादाद्याक्रमणम्-आगमनम्। उत्त० १५९)
१३४। पाक्यं -पाकप्रायोग्यम्। दशवै. २४७। पात्र पादीणवाह- प्राचीनवाहः सरस्वत्याः पूर्वादिग्वाहः। ब्रह. भाजनम्। आचा० ३३२। पादः-मूलपादः। जम्बू. २८५) १३६ ।
पाद-गाथादिच-तुर्थांश रूपम्। अन्यो० २३३। पापपादुगालेव-पादुकालेपः। आव०४१२।
अधोभागः। ज्ञाता०२० पादुब्भूए- प्रादुर्भूतः। सूर्य०३
पायओ- घोषणा। आव०४१९। पादाज्जल-पादोज्वलं-भूषणविधिविशेषः। जीवा. २६९। पायकंबल-पादकम्बलं-पादपुञ्छनम्। उत्त०४३४। पादोनपौरुषी- पूर्वदिक् संबद्धे चतर्भागः। उत्त० ५३६। पायकेसरिया- पात्रकेसरिका-पात्रप्रत्य्पेक्षणिका। बृह. पादोसिय-प्रादोषिकम्। आव०८९। प्रादोषिकम्। दशवै. २३७ अ। पात्रकेसरिका-पात्रकमुखवस्त्रिका। ओघ० २०८। १०३
पायकुक्कडसामवन्ना-पादक्क्क्टः -कुक्कुटविशेषः पाधोवण- पुणो पुणो पाधोवणं। निशी. ११६ आ। तद्वत् श्यामवर्णः। ज्ञाता० २३० पानोयसामान्य-पानकजातम्। आचा० ३४६।
पायखज्ज-पाकखादयं-बद्धास्थी। दशवै. २१८ पाप- ऐश्वर्यात् जीवितादवा भ्रमनं पापम्। निशी. ३०३ । पाकखाद्य-बद्धास्थी। आचा० ३९१| अ। घुन्नम्। दशवै. २०४१
पायगो-पादपः-लघवृक्षः। आव०६८९। पामा-कुट्ठभेदो। निशी० ६२ अ| निशी. १८८ आ। दशमं | पायच्छित्तं-पापं छिनत्तीति पापच्छित, यथावस्थितं क्षुद्रकृष्टम्। आचा० २३५। कच्छूः । भग० ३०८। दशम प्रायश्चि-त्तशुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तम्। दशवै. क्षुद्रकुष्टम्। प्रश्न० १६१||
३०। पादच्छप्तं-चक्षु-र्दोषपरिहारार्थं पादेन पादे वा पामिच्च-उच्छिन्नम्। आचा० ३२५ अपमित्यकं
छप्तम्। भग० १३७ पापच्छे-दक प्रायश्चित्तविशोधकं साध्वर्थ-मुद्धारगृहीतम्। स्था० ४६७। साध्वर्थमन्यत वा। स्था० १३७| पापच्छेदकत्वात् उद्यतकं यद्-गृह्यते तत्। सूत्र.१८० अपमित्यक- प्रायश्चित्तविशोधकत्वादवा प्राकृते प्रायच्छित्तमिति। उद्यतकं-उच्छिन्नम्। प्रश्न. १५४। प्रामित्यं
शुद्धिः उच्यते तद्विषयः शोधनीयातिचारोऽपि साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम्। दशवै १७४।
प्रायश्चित्तम्। स्था० १६०। प्रायश्चित्तं-अभ्यन्तरतपे अपमित्यक-साध्वर्थमुद्धारगृहीतम्। स्था० ४६० | प्रथमम्। भग० ९२२। प्रायश्चित्तं-अतिचारविशुद्धिः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[229]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #230
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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औप०४१। प्रायश्चित्तम्। आव०५२ पापं छिनत्ति अनुयो० २५३। पादपुञ्छनकं-रजोहरणम्। आचा० २४०। प्रायश्चित्तं वा विरोधयतीति नैरु-क्तविधिना
पापप्रो-ञ्छनं-रजोहरणम्। ज्ञाता० २०९। पादप्रोञ्छनकंप्रायश्चित्तम्। उत्त०५८३| पापं-कर्मोच्यते तत् पापं रजोहर-णम्। राज० १२३। पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम्। छिनत्ति यस्मात् कारणात् प्राकृतशैल्या पायच्छित्त। प्रश्न. १२०| पादपुञ्छनं-आसनविशेषः। उत्त०५५) संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पापच्छिदुच्यते, प्रायसो वा पादप्रोञ्छनं-रजो-हरणम्। भग० १३६। पादपुञ्छनंचित्तं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन रजोहरणम्। दशवै. १९९। पादप्रोञ्छनम्। आव०७९३। कारणेन प्रायश्चित्तम्। प्रायो वा-बाहल्येन चित्तं स्वेन | पादपुञ्छनम्। आचा०४०९। पादप्रोक्षणम्। औप. १०० स्वरूपेण अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तम्। आव० ७८२। पायपोपगमण-अनशनिनः पादपस्येवोपगमनंप्रायश्चित्तं-अपराध-शुद्धिः। भग० ९२४।
सामीप्येन वर्तनं पादपोपगमनम्। दशवै० २६। पायच्छितकरणं- प्रायच्छित्तकरणम्। आव०७७९। पायपोसं-अपानदारं। निशी० १५० आ। प्रायश्चि-त्तकरणं-योगसंग्रहे एकत्रिंशत्तमो योगः। पायबद्धं- पदवृत्तादिचतुर्भागमात्रे पादे बद्ध-उत्क्षिप्तकं, आव०६६४१
प्रथमतः समारभ्यमाणम्। जम्बू० ३९| पायच्छिरा-पादशिरा। आव. ३७१।
पायभूमीए-| निशी० ११० अ। पायठवणं- पात्रस्थापनकं-कम्बलमयं पात्रस्थापनम्। पायमूल- पादमूल-मूलभूमी। ज० २७७। बृह० २३७ ।
पायय-पात्रकं-समाधिस्थानम्। आचा० ४११। प्राकृतः। पायड-प्रकटम्। आव० ५२० प्रकटः
ज्ञाता० ५०| प्राकृतः। मरण। तथाविधविशिष्टवचन-रचनाविशेषतः सुखप्रतिपाद्यो । पायरास- प्रातराशं-प्राभातिकं भोजनकालम्। ज्ञाता० योऽक्षरेष्वव्याख्यातेष्वपि पायः स्वयमेव परिस्फन्निव १५०| प्रातराशः-प्रातरशनम्। आव० १३६। प्रातरशनंलक्ष्यते स प्रकटः। पिण्ड. २८१
प्रातराशः। आचा० १३० पायत्त- पदातीनां पत्तीनां समूहः पादातम्। स्था० ३०३। | पायलित्तायरियं-आयरियविसेसो। निशी० ३०२ अ। पादात-पत्तिसमूहः। भग०४७९| पादातीना-समूहः | पायलेहणिया- पादलेखनिकापादातम्। उत्त० ४३८पादात्तं तेयविशेषः। जम्ब० वटोंबरप्लक्षाम्लिकाकाष्टमयी वर्षास् ४२३
पादकर्दमापनयनी। बृह. २५३ अ। पायत्ताणीयं-पाइक्कबलदरिसणा पायत्ताणीयं। निशी० | पायल्लग-हथियारविशेषः। निशी० १०५। ७१।
पायवगमण-पादपस्येवोप-सामीप्येन गमनं-वर्तनं पायदद्दर-पाददर्दरः-पापप्रहारः। औप० ६०|
पादपोप-गमनम्। आचा. २६२१ पायदद्दरग- पाददर्दरक-भूमेः पादेनास्फोटनम्। भग. पायविक्खंभ- पादविष्कम्भं-पानीयम्। आव० ३८८1 १७५
पायवीढग- पादशीर्षकं-पादानामपरितनोऽवयविशेषः। पायदद्दरय-पाददर्दरकम्। जीवा० २४७।
जीवा० २१०१ पायनिज्जोग- पात्रनियोगः-पात्रपरिकरः। ओघ. २०८। | पायसंखा- पादसङ्ख्या-गाथादिचतुर्थांशरूपसङ्ख्या। पायनियोग- पात्रनिर्योगः। बृह० ८६अ।
अनुयो० २३३ पायपडिलेहणीआ-पात्रकप्रत्यपेक्षणिका
पायसंहरण-पादं प्राणिनि निपतन्तं धारयतीत्यर्थः। पात्रकमुखवस्त्रिका। ओघ० २१२
ओघ. १२७ पायपरियावन्न-पात्रपर्यापन्ना-पात्रस्थिता। आचा० ३१७ | पायस-परमान्नम्। जीवा. २६८ पायपीढ-पादपीठः-पदासनम्। ज० १८७)
पायसमास-पादसमासो-गाथापादसंक्षेपः। आचा. १८७। पायपंछण-पादपुञ्छनकं-रजोहरणम्। ओघ. १७५। पाद- | पायसीसग-पादशीर्षकं-पादस्योपरितनाऽवयवविशेषः। प्रोञ्छनं-रजोहरणम्। स्था० ३०५। पादपञ्छनम्।
जम्बू० ५५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[230]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पायहंसा-लोमपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९।
पारगए-संसारसागरस्य पारंगतः। भग०१११ पायहर-विद्धपादः। मरण।
पारगय-पारगतं-इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितम्। भग० पायाल-पाताल-समुद्रजलतलम्। प्रश्न०६२। पातालः
२१७। पारं-पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा गत पातालकलशः वलयामुखप्रभृतिः। प्रज्ञा०७१।
इति पारगतः। प्रज्ञा० ११२ महापाताल-कलशः वलयामुखादिः। भग० ४३६) पारणय- यत्पार्यते-पर्यन्तः क्रियते पातालः-समुद्रः। सूत्र०८६। पातालः-पातालकलशः। गृहीतनियमस्यानेनेतिपा-रणं तदेव पारणकं-भोजनम्। प्रश्न.६२१
उत्त० ३६९। पायावच्च-प्राजापत्त्यः । जम्बू०४९३। निशी० ११८ अ। | पारणा- तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य वा पारगमनम्। निशी० ७८ आ।
प्रश्न.१२९ पायावरणा- पात्रावरणं-स्थगनपटलम्। ओघ. २१३। पारत्त-परत्र। तन्दु। पारंचिए-प्रायश्चित्ते दशमो भेदः। स्था० २००।
पारत्तगुण- परत्रगणः-ग्लानादिप्रतिजागरणादिकः। सर्वोपरितमं प्रायश्चित्तम। पारं
ओघ०३९। प्रायश्चित्तान्तमञ्चति-गच्छतीति पारिञ्चि-कम्। पारत्तियं-पारत्रिकम्। आव० ४०५१ पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्गराजपत्ज्यादयासेवनायां यद पारद-सासगम्। प्रज्ञा० २७। भवति। आव०७६४।
पारदारिय-पारदारिकः-परेषां दारेषु रतः। दशवै०४२ पारंचिय-पाराञ्चिको-बहि तः क्रियते तत्। स्था० ४८७। ज्ञाता०२३६। दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमपहतलिङ्गादिकमित्यर्थः। पारदोच्चा-चौरभयम्। बृह० २२८ आ। स्था० ३००। पारं-तीरं तपसा अपराधस्याञ्चति गच्छति। | पारद्ध-उपसर्गयितुं प्रारब्धः। आव० ४११। प्रारब्धः अभिततो दीक्ष्यते यः स पाराञ्चो स एव पाराञ्चिकः तस्य भूतः अपराद्धो वा। प्रश्न० ६०| प्रारब्धः। आव० ४११। यदनुष्ठानं तच्च पाराञ्चिकं, दशमं प्रायश्चित्तं. प्रारब्धः-हन्तुमारब्धः। आव०६७१| प्रारब्धं-आरब्धम्। लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्बहिः करणमिति भावः। स्था० ज्ञाता०२१ १६३
पारपाणग-पाणगविशेषः। ज्ञाता० २२९। पारंचियारिह-दशविधप्रायश्चित्ते दशमम्। भग. ९२० पारमाणि-परमक्रोधसमुद्घातं व्रजतीति भावः। स्था० पारञ्चिकार्ह-तपोविशेषेणैवातिचारपारगमनम। औप० १६६]
पारयित्वा-भोजयित्वा। ओघ०६६। पारंपरप्पसिद्धी- पारम्पर्यप्रसिद्धि-स्वरूपसत्ता। आव० पारलोइय-पारलौकिकं दानादि। दशवै. १२६| ५३३
पारस-पारसः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः। प्रश्न. पार- पारः-मोक्षः संसाराटवितटवृत्तित्वात्कारणानि १४। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ पारसदेशजः-पारसीकः। ज्ञानदर्श-नचारित्राण्यपि पारः। आचा० ११३। तटः। जम्बू. ११९ आचा० १२४। ज्ञानदर्शनचारित्रम्। आचा० ११४१ क्षयः- | पारसकुलं-साहिरण्णस्स रायहाणी। निशी. ३०४ आ। आयुष्कपद्गलानां क्षयः-मरणम्। आचा० २९५। निष्ठा। | पारसविसओ-पारसविषयः-वैनयिकीबद्धौ लक्षणे आव० २६९। निर्वाणम्। बृह. २०१ अ। मोक्षम्। बृह. ५१ | देशविशेषः। आव०४२४॥ ।
पारसी-धात्रीविशेषः। ज्ञाता०४१। देशविशेषः। भग. पारए- पारगः-पारगामी। ज्ञाता० ११०| पारगः-पारगामी। ४६० भग० ११२
पारसीक-अश्वस्वामी। नन्दी. १६११ पारग-पारगः-सर्वेषां संशयानां छेदकः। प्रश्न. १५७ | पाराइं- लोदृकुसीविशेषः। प्रश्न० ५७। पारगः-सम्यग्वेत्ता, आचा० २९०|
पाराए-पारे महानदीपरम्। आचा० ११३|
४श
मनि दीपरत्नसागरजी रचित
[231]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
परलोकसुखभाजः। सू०२१०।
पारिप्पवा- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा०४९। पारापत- पानार्थिनः, पक्षिविशेषः। आचा० ३१४| पारिप्लवः-उद्भिज्जपक्षिविशेषः। दशवै. १४१५ पारायणं-नाम सूत्रार्थतदुभयानां पारगमनम्। व्यव० १ पारिभाषिकसंज्ञा- रूढसंज्ञा कल्पितसंज्ञा वा। भग० २२५१ । सूचकाद्याः परिपाट्यः। व्यव० २५७।
पारियल्लं-बाह्यपृष्ठस्य बाह्यभूमिः। नन्दी०४३। पारासर-पाराशरः-महर्षिर्यः
पारियाणिए- पारियानिकं उदयानादिगमनार्थो रथः। ब्रह. शीतोदकबीजहरितादिपरिभोगा-त्सिद्धः। सूत्र. ९५१ २३३ आ। पारासरः-शरभः। ज्ञाता०६५। महा-कायः
पारियावणिया-परितापनं-परितापः पीडाकरणं तत्र भवा आटव्यपशुविशेषः यो हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपयति। | तेन वा निर्वृत्ता तदेव वा पारितापनिकी, क्रियाविशेषः। प्रश्न ७ वाशिष्ठगोत्रे सप्तमभेदः। स्था० ३९०|
भग. १८१। परितापनं-ताडनादिदुःखविशेषलक्षण तेन पारासरढढण-अलाभसहः। मरण।
निर्वत्ता पारितापनिकी। स्था०४१। पारि-दुग्धभरणमानविशेषः। पिण्ड० ११११
पारियासियं- णाम रातो पज्जुसियं। निशी० ५० आ। पारिआसिए-परिवासितं-यस्तनमित्यर्थः। भग० ६९११ पारिवय- पारापतः। व्यव. २०४ अ। पारिओसियं-पर्युषितम्। आव० ९५४
पारिसाइणिया- परिशाटः-उज्झनलक्षणः प्रतीप एव पारिच्छं-जं परिच्छज्जति तं च रयणमादि। निशी० ८९ | तस्मिन् भवा पारिशाटनिका। आव० ५७६। आ।
पारिसाडि- पारिशाटिः। आव०७११| पारिजाणिए- परियानप्रयोजनाःपारियामिकाः। भग० पारिहट्ट- पड्डच्छिं। ओघ०४१। ५४७
पारिहत्थिय- प्रकृत्यैव दक्षः पारिजातकुसुमं-कुसुमविशेषः। जीवा० १९१।
सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया कतत्ति। स्था०४५२। पारिट्ठावणिया- परितः-सर्वैः प्रकारै परिस्थापन-अपुनर्ग्रह- | पारिहारिकाणि-स्थापनाकुलानि कुत्सितानि कुलानि णतया न्यास इत्यर्थः। तेन निर्वृत्ता पारिस्थापनिकी। | जुगुप्सितानि। बृह० ७१ अ। आव०६१९
पारिहारिय- पारिहारिकः-परिहरणं परिहारस्तेन चरति पारिद्वावणियागारो-पारिष्ठापनिकाकारः। आव० ८५३, पारिहारिकः-पिण्डदोषपरिहरणायुक्तविहारो साधु ८५४
इत्यर्थः। आचा० ३२४ पारिणामिय-परिणमनं-परिणामः स एव पारिणामिकः। पारिहिहिक्षीरं- पड्डच्छिक्षीरम्। ओघ० ४८॥ भग०६४९। परिणमनं-तेन तेन रूपेण वस्तूनां भवनं पारिहेरग- पारिहार्य-वलयविशेषः। जम्ब० १०६। परिणामः, स एव तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः। पारी- पारी-स्नेहभाण्डम्। जम्बू. १०१। भाजनविधिअनुयो० ११४१
विशेषः। जीवा० २६६। पारिणामिया-परिः-समन्तान्नमनं परिणामः
पारुक्खं- यदिन्द्रियदवारेण मनोदवारेण वाऽऽत्मनो सुदीर्घकालपू-र्वापरार्थावलोकनादिजन्म आत्मधर्म ज्ञानमुपजायते तत्परोक्षम्। इत्यर्थः, स कारणम-स्यास्तत्प्रधाना वा पारिणामिकी पृष्ठोदरादित्वात्परशब्दात्परः सकारागमः, परैर्द्रबुद्धिः, बुद्धेः चतुर्थो भेदः। आव० ४१४। पारिणामिकी- व्येन्द्रियमनोरुक्षा-सम्बन्धो यस्मिन् तत्परोक्षम्। बृह. प्रायो वयोविपाकजन्या। राज०११६
पृ०८ अ। परोक्ष-पुनरक्षस्य वर्तमानं ज्ञानं भवति। बृह. पारितापणिया-परितापनं-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन ।
८ । निवृता परितापनिकी। सम० १० परितापनं-ताडनादि- पारुद्धरुद्ध- परुद्धरुद्धः- अतिरुद्धः। सम.११७ दुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी क्रिया। पारेवत- विश्रसागतौ फलविशेषः। प्रज्ञा० ३२८ आव०६१
पारेवय- पारापतः पक्षिविशेषः। उत्त०६५३। लोमपक्षिविपारिप्पव-पारिप्लवः-पक्षिविशेषः। प्रश्न.1
शेषः। जीवा०४१। पारापतः-फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पारेवयग- पारापतकः-पक्षिविशेषः। प्रश्न.1
पालकविमानकारकः। भग. ७००| पालको नाम मरुकः पारेवयगोवा- पारापतग्रीवा, नीललेश्यावर्णः। प्रज्ञा० ३६० पुरोहितः। व्यव० ५३२ अ। पालक-ग्रामविशेषः। आव. पारेवया- लोमपक्षिविशेषः। प्रज्ञा० ४९।
२२५। पालकः-अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतजेष्ठपुत्रः। आव. पारोकसी- परोक्षेषु विषयेषु भवं पारोक्ष-परोक्षविषयं ज्ञानं ६९९| पालकः-कालिकपुत्रः। आव०६८१| तदस्यास्तीति पारोक्षी। व्यव०।
पालत- पालक-पालकदेवनिर्मितं पार्यते-पर्यन्तः क्रियते। उत्त० ३६९।
सौधर्मेन्द्रसम्बन्धियानम्। स्था० २५० पाणि- गृह्णति पार्श्वतो ग्रामेषु यथास्वेच्छ विहरति। पालय- पालक-यानविमानंबृह. ५१८ आ।
सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियोगिक-पालकाभिधानदेवकृतं पाणि:- गुल्फयोरधोरभागः। नन्दी०१६१]
वैक्रियम्। सम. पालकः-अभि-योगिको देवः। जम्बू. पार्णित्र- चर्मकोशः। आचा० ३७०
३९६। पालकः-कृतिकर्मदृष्टान्ते मुखो वासुदेवपुत्रो पालंक- शाकविशेषः (महाराष्ट्रीयः) बृह. ३१४|
द्रव्यवन्दकः। आव० ५१५। पालकः-कृतिकर्मणि पञ्चमो पालंब- प्रालम्ब-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र दृष्टान्तः, द्वारिकायां वासुदेवपुत्रो द्रव्यवन्दकः। आव० आत्मप्रमाण आभरणविशेषः। जम्बू. २७५। प्रालम्बं ५१५ भूषणविधिविशेषः। जीवा०२ प्रालम्बं-दीर्घम्। भग० पालयित्थ- पालितवन्तः। स्था०७६ ३१९। प्रालम्बः-आप्रदीपन आभरणविशेषः। आचा० पालयित्वा- तद्विहितानुष्ठानस्यातिचाररक्षणेन। उत्त. ३६३। प्रालम्बः-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र ५७२ आत्मनः प्रमाणेन स्वप्रमाण आभरणविशेषः। जीवा. पालविहि-सप्तदशमकला। ज्ञाता०३८ २५३। प्रलम्बते इति प्रलम्बः-पदकः। राज०१६) पालाआ-पालका-महत्तरिका। व्यव० ३५आ। प्रालम्ब-झुक्तुम्बनकम्। ज० १०६)
पालासय-संनिवेसविशेषः। भग०५०२ पालंबसुत्त- भूषणविशेषः। आचा० ४२३
पालि- पालिः-सेतुः। राज० ११३॥ पाल-हस्तिपालः। बृह. २३१ आ।
पालित- पादलिप्तः-विदयामन्त्रदवारविवरणे सरिः। पालइत्ता- पालयित्वा अतिचाररक्षणेन, परावर्तनादिना पिण्ड० १४२ अभिरक्ष्य। उत्त० ५७२।
पालित्तय- पादलिप्ताचार्यः। ब्रह० ६९ अ। पालए-खंदगगच्छमारगो। निशी० ३०३।
पालित्तयकए- पादलिप्तसरिकृतः। निशी. ११८ आ। पालओ- पालकः। आचा० १२४१
पालित्ता- पादलिप्ताः वैनयिक्यां ग्रन्थिविषये आचार्यः। पालक-पालकः-विमानविशेषः। औप० ४२। स्कन्दका- आव०४२४१ चार्यस्य विरूपं कर्ता। सूत्र. २३९। द्रव्यसङ्कोचो न पालिय- पालियः-पुनःपुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितः। भावसकोच इत्येकः, यथा पालकस्य। आव० ३७९| आव०८५१। पुनःपुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितः। जन्माभिषेकागमनविमानकारकः देवविशेषः। ज्ञाता० स्था० ३८८१ पालितं-सततं सम्यगुपयोगेन प्रतिचरितम्। १२७। द्रव्यसकोचो न भावसङ्कोचे दृष्टान्तः जम्बू. प्रश्न. ११३। पालितः-चम्पायां श्रावकः। उत्त०४८२। १०| यानविमानम्। प्रश्न. ९५|
पालि-संयममहातडागस्यानतिक्रमणलक्षणः सेत्ः। पालकी- हरितभेदः। आचा०५७
वसति। बृह. २०५अ। पालिः-सेत्। जीवा. २६० प्रज्ञा. पालक्का- हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३ पालग- पालकः-स्कधकादिपञ्चशतमुनिघातको मन्त्री। | पालुंगामहरय- 'माहरयत्ति अनम्लरसानि शालनकानि उत्त० ११४। वासुदेवपुत्तो भत्तिबहुमाणचउभंगे 'पालङ्ग त्ति वल्लिफलविशेषश्च। उपा० ४। पढमभंगे दिङ्गतो। निशी. ८ अ। पालकविमानकारकः। | पाल- अपानं। निशी. १८९ आ। भग०७००| पालको। निशी० ८ अ।
| पालेइ- असकृदुपयोगेन पालयति प्रतिजागरणात्। भग०
८५1
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[233]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१२४१ सततोपयोगप्रतिजागरणेन रक्षति। उपा०१५ | पावपरिक्खेवी- पापैः-कथञ्चित्समित्यादिषु पालेति- पालयति-असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात्। स्खलितलक्षणैः परिक्षिपति-तिरस्करुत इत्येववंशीलः ज्ञात०७२
पापपरिक्षेपी। उत्त० ३४५ पाव-पातं-पांशयत्तीति पापं, पिबति वा हितम, कर्म वा। । पावमण- पापमनाः-अवस्थितमना अनवस्थितमना वा।
आव. ४०७ पापं-कर्म। आव० ७८२ पापं-पांशूलकरा- । आव० ३६६ कीर्णत्वादिभिरशोभनम्। उत्त. ११०| वल्लीविशेषः। । पावय- पुनातीति पापकः समयप्रसिद्ध्या त् पापहेतुत्वाप्रज्ञा० ३२ पापं-पापानुष्ठानम्। आचा. २६८ पातयति, त्पापकः। पावकः-लोकप्रसिदध्या अग्निः उत्त. १८६) पासय-तीति पापम्। आचा० ११५ पापम्। आव०७८२ प्राप्नहि। ज्ञाता० ५५ पापं-क्लिष्टं-ज्ञानावरणादि। दशवै. १५६। पापं- पावयणं- प्रवचन-शासनम्। स्था० २४६। प्रावचनं प्रकर्षेघातिकम। स्था० ५२६। पातयति नरकादाविति पापम्। णाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम्। आव० ८३०| पापः-कर्मः। उत्त० ५९२ पापः-अपण्यरूपः। प्रागतं। आव ७६०। प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा वचनं ज्ञाता०२०५५
प्रवचनम्, आगमः। स्था० १७६। प्रवचन-जैनं शासनम्। पावए- पापकः-अमनोज्ञः। ज्ञाता० २३३।
ज्ञाता०४७ पावकम्म-पापकर्म-ज्ञानावरणादि। औप० ८५। पापकर्म | पावयणि- प्रावचनी-आचार्यादिर्युगप्रधानः। आचा०४३८ प्राणातिपातादि। भग. ३६। पापकर्म-ज्ञानावरणादयशुभं | पावयणी- प्रावचनिका-प्रवचनार्थकथननियुक्ताः। नन्दी. कर्म। भग० ३६। पापकर्म-घातिकर्म सर्वमेव वा
१४॥ ज्ञानावरणादि। स्था० १०१। पापकर्म-ज्ञानावरणादि। पावलोभो- पापलोभः-पाप-अपुण्यं लुभ्यति-प्राणिनि ज्ञाता० २२१। पापकर्म-ज्ञानावरणीयादि। दशवै०१५२१ स्न्नि-यति संश्लिष्यतीति यावत् यतः सः पापलोभः। पावकम्मकरण- पापकर्मकरणम्, अधर्मदवारस्य दवादशं पापंचासौ लोभश्चेति वा तत्कार्यत्वात्पापलोभः नाम। प्रश्न०४३।
प्राणवधस्य विंशतितमः पर्यायः। प्रश्न. ५। पावकम्मनेम्म- पापकर्मणां-ज्ञानावरणादीनां मूलम्। पावरण- प्रावारः-प्रावरणविशेषः। ज्ञाता०२२९। वस्त्रम्। प्रश्न. ९६
आचा० ३९३ पापकम्मोवएस-पापकर्मोपदेशः- पापप्रधानकर्मण पावसमण- पापेन उक्तरूपेणोपलक्षितः श्रवणः पापश्रवणः उपदेशः। आव०८३०
उत्त०४३२ पावकारी- पापकारी-पातकनिमित्तानुष्ठानसेवी। उत्त० | पावसमणिज्ज- पापश्रमणीयं, उत्तराध्ययनेषु २०७।
सप्तदशममध्य-यनम्। सम०६४। पापश्रमणीयंपावकोव- पापं-अपुण्यप्रकृतिरूपं कोपयति-प्रपञ्चयति- उत्तराध्ययनेषु सप्तदशम-मध्ययनम्। उत्त० ९। पुष्णात्ति यः सः पापकोपः, पापंचासौ कोपकार्यत्वात् पावसुतं- वागरणादि। निशी० १३अ। कोपश्चेति वा, प्राणवधस्यैकोनविंशतितमः पर्यायः। पावसुय- एकोनत्रिंशत् पापश्रुतप्रसङ्गः। प्रश्न. १४५ प्रश्न.५
पावसुयपसंगा- पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषु पावग- पावकं-शुभमनुष्ठानम्। उत्त०४८। पावकं- प्रसञ्जनानि प्रसङ्गाः-तथाविधासक्तिरूपाः अत्यन्त-महितम्। दशवै० १५७। पावकः-अग्निः । उत्त० पापश्रुतप्रसङ्गाः उत्त०६१७ १३५ पावकं-पापमेव पापकम्। उत्त०४८ पापकं- पावा- पापा-नगरीविशेषः। आव० २४०। पासयति पातयति अशुभम्। ज्ञाता० २०५१
वा भवावर्त इति पाप। उत्त०८८ भङ्गजनपदे पावजीवी- कोंटलाजीवी। व्यव० २५१।
आर्यक्षेत्रम्। प्रज्ञा० ५५ पावण- प्लावनं-रल्लणम्। पिण्ड० ११|
पावाइया- प्रावादिकाः-प्रकर्षेण मर्यादया वदितं शीलं येषां पावनुवण- प्राप्नुवन्-गृहन्। जम्बू० ४४६।
ते प्रवादिनः त एव प्रावादिकाः यथावस्थितार्थस्य
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[234]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रतिपादनाय वावदूकाः। आचा० १८९)
शकुनिबन्धनविशेषः। प्रश्न०१५ पास-दयतोपकरणानि पावाजीवी- पापेन-विदयादिना परद्रोहकरणरूपेण
उत्त्रस्ताश्वादिबन्धनानि वा। जम्बू० २६४। जीवनशीलाः पापाऽऽजीवीनः। पिण्ड० १४२।
म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ पावाभिगम- पापाभिगमः-पापमेवोपादेयमित्यभिगमः। । पासइ- पश्यति-अवग्रहेहापेक्षयाऽवबुध्यते। भग. ३५८१ प्रश्न०१५
पश्यति-दृशिरूपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभतेपावार-प्रावारः। स्था० २३४| प्रावारः-दुष्प्रतिलेखित- अवगच्छति। आचा० १९९| दूष्यपञ्चके तृतीय भेदः। ६५२
पासग- पश्यतीति पश्यकः-सर्वज्ञः। आचा० १२४। पश्यकःपावारग-प्रावारकम्। आव०८३३। प्रावारकः-उल्वणरोमा सर्वनिराकरणात्पश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव बृहत्कम्बलः। बृह० २२० ।
पश्यकः तीर्थकृत्। आचा० १७१। पश्यकः-परमा-र्थदृशः। पाविओ- प्राप्तः। ज्ञाता०१६९।
आचा० १४८1 ज्ञाता० १९० पाविज्जइ-प्रोज्यते। आव. २७४।
पासगबद्ध- पासिकबद्धः-कसाबद्धः। बृह. २५२ आ। पाविया- प्रापयति नरकमिति प्रापिका, पापा एव पापिका, | पासजाइपहे- पाशाः-अत्यन्तपारवश्यहेतवः कलत्राकुत्सिता, पापहेतुर्वा। उत्त० २९२ पापैव पापिका- दिसंबन्द्यास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीनां कुत्सिता, उत्त० ३८७।
एकेन्द्रि-यदिजातीनां पन्थानः-तत्प्रापकत्वान्मार्गाः पाषाणधातुः-धातुविशेषः। उत्त०६५३
पाशजातिपथाः। उत्त० २६४। पासंड-पाषण्ड-व्रतम्। अन्यो० २५। पाषण्डं-व्रतम्। उत्त. पासट्ठीनं- अट्ठविहा कम्मपासा उडीणो। दशवै० पू० ३३ आ।
५०१। पाषण्डः। आव २२३। लिङगिनः। ज्ञाता० १५० पासणया- पश्यतो-भावःपश्यत्ता-बोधपरिणामविशेषः। पाषण्डः-शेषव्रतीः। उत्त. ५०११ पाखण्डं-पाखण्डिजनो- भग० ७१४। पश्यत्ता-संदर्शनम्। ओघ० ३९। दर्शनतात्थापितमिथ्यावादः। जम्बू०६६। पाखण्डः-शाक्यादिः। प्रज्ञाप-नायास्त्रिंशत्तमं पदम्। प्रज्ञा०६। पश्यतो भावःजम्बू० १६७
पश्यत्ता। प्रज्ञा० ५२९। पश्यत्ता-संदर्शनम्। ओघ० ३९। पासंडत्थ-पासण्डस्थः। आव० ३६७)
पासणिओ-जणवयववहारेस् णडणट्टादिस् वा जो पेक्खणं पासंडधम्मे-पाखण्डधर्मः-पाखण्डिनामाचारः। स्था. करेति सो पासणिओ। निशी० ९२ अ। ५१५
पासणिय- प्राश्निकः-सभ्यः। व्यव० १६० अ। पासंडिमिसं-पाषण्डिमिश्र, मिश्रस्य द्वितीयो भेदः। बृहः | पासत्थ-पार्वे-बहिर्जानादीनां देशतः सर्वतो वा ८३॥
तिष्ठतीति पार्श्वस्थः। स्था० ५१४| पार्श्वस्थःपासंडी- पाषण्डी-पाशाड्डीनः। दशवै. २६२१
ज्ञानाचारादिबहिर्वर्ती साध्वाभासः। प्रश्न. १३७ पास- पश्यति समस्तभावान् केवलालोकेनावलोकत इति पाशस्थः- पाशेष तिष्ठतीति पाशस्थः। व्यव० १६० । पश्वः। उत्त० २७०। पाशः-युतोपकरणम्, उत्त्रस्तावा- दर्शनादीनां पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः दिबन्धनं वा। औप०६९। पश्यति सर्व भावानिति मिथ्यात्वादिपाशेष वा तिष्ठतीति पाशस्थः। आव० पार्वाः, त्रयोविंशतितमो जिनः, यस्मिन, गर्भगते माता ५१७ प्रकर्षण आसमंतात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतया सप्तशिरसं नागं शयनीते निर्विजते दृष्टवती तेन स्वस्थः। व्यव० १६० अ। ज्ञानादीनां पार्वे तिष्ठतं ति पार्श्वः। आव० ५०६। पाशः-स्त्र्यादिः। उत्त० २०६। पार्श्वस्थः-पाशस्थः। व्यव. १५७ आ। पार्वे ज्ञानादीनां छिंडिका। बृह. ६० अ। पार्श्वः- आसन्नः। ओघ. १६२१ बहि-स्तिष्ठतीति पार्श्वस्थः-गाढग्लानत्वादिकारणं पार्श्वः-पार्श्वनाथस्तीर्थंकरः। भग० २४८। पाशः
विना शय्यातराभ्याहृतादिपिण्ड बन्धनम्। भग. ९३। त्रयोविंशतितमतीर्थ-करः। ज्ञाता० भोजकत्वादयागमोक्तविशेषणः। ज्ञाता० ११३॥ २५३। पाशः-कूटजालः एव बन्धनविशेषः। उत्त० ४६० णाणदंसणरित्ताण पासे द्वितो पासत्थो। निशी० २१७ पाशः-बन्धनम्। आचा० ४७। पाश्र्वा। स्था० २९९। पाशः- | अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[235]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पासत्थविहारी- पार्श्वस्थानां यो विहारो-बहनि दिनानि । सुवण्णादि पडित सो। निशी. ८६ आ। यावत्तथा वर्तनं स पार्श्वस्थविहारः सोऽस्यास्तीति पासादिय- प्रासादाः संजाता यस्मिंस्तत् प्रासादितम्। पार्श्वस्थ-विहारी। ज्ञाता० ११११
सूत्र०४०७। प्रसादीयां-मनःप्रसत्तिकारि। प्रज्ञा०८७ पासत्थि- ज्ञानादिबहिर्वर्ती। भग० ५०२।
मनःप्रसा-दहेतुः। सूर्य. २६४। पासपयट्टिय- पाशा इव पाशाः स्त्र्यादयस्तेषु प्रवृत्तः तेन | पासादीयाः- प्रासादीया-प्रासादबहुला। सूर्य. २रा प्रसादाय
प्रवर्तितः पाशप्रवृत्तः-पाशप्रवर्तितः। उत्त. २०६। मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया पासपरिवत्ती- पार्श्वपरिवर्ती। आव० ४२१।
मनःप्रह्लाद-कारिणोति भावः। जम्बू. २१। पासपुट्ठ- पार्श्वस्पृष्टः-छुप्तमात्रः। स्था० ४७१। पासाय- प्रासादः-प्रासादा, आयामा पासमिओ- पार्श्वमितः साकेतनगरस्योत्तराद्याने द्विगुणोच्छ्रितवास्तुवि-शेषः। जम्बू० २९७। प्रासादः। यक्षः। विपा० ९५१
जम्बू० ३९६। प्रासादः-एकस्तम्भ हर्म्यम्। दशवै० २१८। पासय- द्वादशमकला। ज्ञाता० ३८१
प्रासादः-नरेन्द्राश्रयः। प्रश्न.1 प्रासादः। जीवा. २६९। पासल्ली- पार्श्वतः। आव०६४८१
प्रासादः-राज्ञां देवतानां च भवनम्, उत्सेधबहलो वा। पासवणं- प्रश्रवणं-मूत्रम्। आव० ६१६। कायिकी। आव० जीवा० २७९। प्रासादः-नरेन्द्राश्रयः। जम्बू. १०६) ७९८ प्रश्रवणं-कायिकी। आव०६३४। प्रश्रवणः-मूत्रः। प्रासादः-देवतानां राज्ञां वा गृहं उच्छ्रयबहुलो वा। जम्बू. सम० १११ प्रकर्षण श्रवतीति-प्रश्रवणएकिका। आचा. १२१। प्रासादः-देवस्य राज्ञो वा भवनम् अथवा ४०९। ज्ञाता०६१। प्रश्रवणं-मूत्रम्। उत्त० ५१७। ज्ञाता० उत्सेधबहलः प्रासादः- प्रासादः। भग० २३८ प्रासादः१०३। प्रश्रवणं-मूत्रम्। जम्बू. १४८१ मनुष्यानां अशुचि- सप्तभूमादि। उत्त० ३०८ प्रासादः- प्रासादःभूतस्थानम्। प्रज्ञा०५०
द्वितीयभूमिका। आचा० ३६२। प्रासादःपासवणभूमि- प्रश्रवणभूमिः द्वादशभेदभिन्ना भूमिः। आयामद्विगुणोच्छ्रायः। ज०८८ प्रासादःआव० ७८४१
सप्तभूमिकादि। भग० ४८३। पाससूल-पार्श्वशूलम्। भग० १९७।
पासायवडिंसग- प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः। पासहत्थ- पाशः-शकुनिबन्धनविशेषः स हस्ते यस्य सः जम्बू० ५३ पार्श्वहस्तः। प्रश्न. १३।
पासायवडिंसय-प्रासादावतंसकः-प्रासादविशेषः। जीवा. पासा-पाशाः-अत्यन्त पारवश्यहेतवः
२०९, २१६। प्रासादः अवतंस इव-शेखरक इव कलत्रादिसम्बन्धाः। उत्त. २६४।
प्रधानत्वात् प्रासादावतंसकः। भग० १४५। प्रासादावपासाइय- प्रसादीयं-कृष्णावभासत्वादिना गुणेन मनः- तंसकः-स्वस्वकूटवर्तिक्रीडावासः। जम्बू० ३८४ प्रसादहेतुः। राज०३
पासायवडेंसग- प्रासादावतंसकः-प्रासादविशेषः। राज० पासाइया- प्रासादेषु भवाप्रसादीया-प्रासादबला। राजा०
पासायसंठिय- प्रासादसंस्थितः। जीवा० २७९। पासईय- प्रासादीयाः मनःप्रसादकरः दर्शनीयस्तं चक्षुषा पासायसंठिया- प्रासादस्येव संस्थानं यस्याः सा प्रासादसंपश्यन्नपि न श्रम गच्छति। स्था० २३२।
स्थिता। सूर्य०६९ पासाईया- चित्तप्रसादजनिका। ज्ञाता० १३॥ प्रासादीयं पासाया- राजानां देवतानां च भवनानि प्रासादाः। प्रसादाय मनःप्रसत्तये हितानि-मनःप्रसत्तिकारीणि। उत्सेधब-हुला वा प्रासादाः। अनुयो० १५९। जीवा० १६१।
पासायालोअण- प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकनं तस्मिन्पासाण-पाषाणः-विजातीयरत्नम्। दशवै. १९३
सर्वोपरिवर्तिचतुरिकारूपो गवाक्षः, प्रासादलोकनम्। पासाणजलं-जलविसेसो। निशी० ७९ अ।
उत्त०४५११ पासाणधातू- जत्थ पासाणे जुत्तिणा जुत्ते वा धम्ममाणे | पासावच्चिज्ज- पार्खापत्यस्य
६९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
२७५
पार्श्वस्वामिशिष्यस्यापत्यं-शिष्यः पापित्यीयः। सूत्र | सङ्ख्या। अनुयो. २३४।। ४०१। पार्वापत्यीयं-पार्श्वजिन-शिष्यस्येयं
पाहडसंखा- प्राभतसंख्या पूर्वान्तर्गत श्रताधिकारसंख्या। पापित्यीयः। भग. १०० १३६, २४७। पापित्यः।
अनुयो० २३४॥ आव० १९१, २०३।
पाहुडसीलया- प्राभृतशीलता कलहनसम्बन्धता। स्था० पासिय- वनस्पतिविशेषः। भग०८०३। पासिल्लउव्व- पृष्ठतो अर्द्धावनतादिस्थानतः पावस्थितो | पाहडा- 'प्र' इति-प्रकर्षण'आ'इति-साधुदानलक्षणमर्या-दया वा तिर्यक् स्थितो वा। आव०४४३।
भृता-निर्वतिता यका भिक्षा सा भ्राता। पिण्ड० ३५। पासिल्लए- पार्श्वगतः। तन्दु।
पाहुडि- प्राभूतनामश्रुतस्कन्धः। व्यव० ७८ आ। पासु- पार्वे। ओघ. ११७
प्राभृतिका-बालादिनिमित्तं संस्थाप्य या, ददाति भिक्षा पासुत्त- प्रसुप्तः। उत्त० १३६]
सा प्राभृतिका। पिण्ड० १६२। पासुतेल्लय- प्रसप्तः। आव० ६३२
पाहुडिआसंखा- प्राभृतिकासंख्या-दृष्टिवादे पासेल्लिय- पार्श्वगः। आव० ४२७।
सङ्ख्याविशेषः। अनुयो० २३४१ पाहणगं- बहुघरातो वरगिह। जमन्नं गिहं निज्जति तं। पाहुडिय- प्राभृतिका। आव० ७२८। प्राभृतिका। आव० ४०५, निशी. २२ ।
६४०। प्राभृतिका, भिक्षा अर्चनिका। व्यव० १४ । पाहणाउ- उपानहौ। स्था० ३०४१
प्राभतिका-भिक्षापि अर्ध्वनिकापि। ब्रह. ८८ अ। पाहाणगुण- प्राधान्यगुणं-वैमल्यगुणम्। आव० ५२१। भिक्खावलि कूरपरिसाडणं वा। निशी. १७२ आ। पाहाण- पाषाणः। दशवै० १९| पाणाणः। आव० १६७। प्राभृतिका-सार्वजनिका। बृह० ८७ आ। प्राभृतिकापाहाणजलं-पाषाणजलं-यत्पाणानामपरि वहति। ओघ. वसतेश्छादनलेपनादिरूपा। बृह. २६१ आ। प्राभृतिकाBરા.
सुरेन्द्रादिकृतासमवसरणरचना। बृह. १६६ अ। प्राभृपाहाणवट्टओ- पाषाणवर्तुलः। आव० १२३।
तिका-हरितछेदनाद्यादिकरणरूपा। बृह० २४० अ। पाहाणोदग- पाषाणजलं-यत्पाषाणानामुपरि वहति। ओघ० | प्राभृतिका बलिः। बृह० २२३ । कस्मैचिदिष्टाय पूजाय
वा बहुमानपुरस्सरी कारेण यदभिष्टवस्तु दीयते पाहड- प्राभृतं लोकप्रसिद्ध यदभीष्टाय देशकालोचितं तत्प्राभृतम्-च्यते, ततः प्राभृतमिव प्राभृतं साधुभ्यो दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते, प्रकर्षणासमन्ताद् । भिक्षादिकं देयं वस्तु, प्राभृतमेव प्राभृतिका, पूर्व भियते-पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानिनेति नपुंशकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते सति स्त्रीत्वं, यद्वा। प्राभृतम्। सूर्य०७। प्राभृतं-अधिकारविशेषः। सम० ८२। 'प्र' इति प्रकर्षण आ इति साधदानल-क्षणमर्यादया प्राभृतं-प्रामृतिका। प्रश्न. १५४| प्रदत्तम्। आचा० ३६७ 'भता' निर्वर्तिता यका भिक्षा सा प्राभूता, ततः प्राभुतं-नरकपाल-कौशलिकं परम-क्रोधः। स्था० १६६। स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् प्रातिका। पिण्ड ३५ प्राभृत-अधिकर-णकारी कोपः। स्था० २४७। प्राभृतं- अधिकरणदोषः। निशी० ३२४ । प्राभृतिकासुरवियोनिप्राभृतम्। व्यव० ४आ। प्राभृतं-अधिकरणम्। बृह. रचितसमवसरणमहाप्रातिहार्यादिपूजा लक्षणा। बृह. १४८ अ। प्राभृतमिव प्राभृतः तीव्रकोधः। बृह. १०४ आ। ७६) कलहः। निशी० २४४ अ| निशी० २९४ | निशी. २८ पाहण- प्राघूर्णकः-आगन्तुकः भिक्षुकः। स्था० ४६७। अ। प्राभृतं कलहम्। व्यव. २२३ अ।
कुलगणसङ्घानां स्थविरः। बृह० वि० २०८ आ। पाहुडछेदा- अर्थछेदा। निशी० २११७ आ।
प्राघूर्णकः। ओघ० ५११ पाहुडपाहुड- प्राभृतप्राभृतं-प्राभृतेषु अन्तरगतम्। सूर्य०७ | पाहुणग- प्राघूर्णकः। आव० ८५८ प्राभृतादि-प्राभृतम्। दशवै० ८५
| पाहुणगभत्त- प्राघूर्णकः-कोऽपि क्वचिद्वतो पाहुडपाहुडिआसंखा- प्राभृतप्राभृतिकासंख्या, दृष्टिवादे | यत्प्रतिसिद्धये संस्कृत्य ददाति प्राघूर्णका वा साध्वादय
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
इति पद्दापयति तत्प्राधूर्णकभक्तम्। औप० १०१। भग० सङ्घात्यते, कोऽर्थः? गृहिभ्य उपलभ्य सम्मील्यत इति ४६७
पिण्डतमायाम-कादि। उत्त० ४१९। पिण्डः- पोषः। पाहणभत्त- प्राघूर्णकाः-आगन्तुकाः भिक्षुकाः एव तदर्थं आचा० ३२६। पिण्ड:- आहारोपधिरूपः। स्था० ३११| यद्भक्तं तत्तथा प्राघुर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थं पिण्डनं पिण्डः-संघातरूपः। भिक्षा-शोधिः। ओघ०१२ संस्कृत्य तत्तथा। स्था० ४६०, ४६७)
यदशनादिकं सम्पन्नं विशिष्टाहारगुणयुक्तं षट् पाहुणिय- षष्ठोः महाग्रहः। स्था० ७८। प्राघुनिकाः षष्ठो रसोपेतम्। ब्रह. १७८ अ। पिण्डयो-लम्ब्यः । जम्बू. २५) महाग्रहः। जम्बू. ५३४। सूर्य २९४१
पिंडकप्पितः- प्रत्युकं त्रिकं त्रिकमवसातव्यमेषः पाहुण्णं- पाघुर्ण्यम्। आव० ३५५।
पिंडकल्पिकः। बृह० ८३।। पाहेज्ज- पाथेयं-कंटकमर्दनवेतनम्। बृह. २९७ आ। | पिंडगुड- पिण्डगुड-पिण्डीभूतो गुडविशेषः। आव० ८५४। पाहेणग- प्रहेणकं मोदकादि। पिण्ड. ९२
पिंडगुल- पिण्डगुडः- पिण्डीभूतो गुडः। आ० ८५७। पिंकारे-अपिकारे। स्था० ४९३।
पिंडग्गह- पिण्डग्राह्य-पिण्डरूपतया हस्ते ग्रहीतुं शक्यते पिंगल- कपिलम्। स्था० ३९७। पिङ्गलं-कपिलम्। ज्ञाता० पिण्डविकृतिर्वा। बृह. १७८ आ। १३३। पिङ्गलः-कपिलः। ज्ञाता० १६|
पिंडणिगर-दाइयभत्तं, पितिपिंडपदाणं। निशी० २६८ चत्वारिंशत्तममहा-ग्रहः। स्था० ७९।
पिंडनियर- पिण्डनिकर-पितृपिण्ड। आचा० ३२८१ पिंगलक्खग-पिङ्गलाक्षः-पक्षिविशेषः। प्रश्न०८1 पिंडय-उण्डकः पादयोर्यः पिण्डरूपतया लगति स पिंगलगणिहि- सर्व आभरणविधि, यः पुरुषाणां यश्च पिण्डकः। ओघ. २९।
महि-लानां तथाऽश्वानां हस्तिनां च स यथौचित्येन | पिंडरस- पिण्डरसः खजूरादिमिश्रम्। बृह. २६७ आ। पिङ्गलकनिधिः। जम्बू० २५८।।
पिंडलग-पटलकं पुष्पभाजनम्। स्था० ३८९) पिंगलय- पिंगलकः-स्कन्दकचरित्रे श्रावस्तीनगर्यां वैशा- | | पिंडवाय- पिण्डपातः भिक्षालाभः। आचा. ३२१। पिण्डपातं लिकश्रावको भगवद्वचनामृतपाननिरतः श्रमणः। भग० आहारम्। आचा० ३३१| पिण्डपातं-भैक्षम्। आचा० ३३६) ११२। कृष्णपुद्गलः। सूर्य २८७। पिंगलकः
पिण्डपातं-भिक्षाम्। आचा० ३५१। पिण्ड्यते इति पिण्डोचत्त्वारिंशत्तममहा-ग्रहः। जम्बू० ५३५। सूर्य. २९४। भिक्षा तस्य पातः-पतनं प्रक्रमात्पात्रेऽस्मिन्निति पिंगला- पिङ्गला-कपिला। अनुयो० १३३।
पिण्डपातं-भिक्षाऽटनम्। उत्त०६६७। पिण्डपातःपिङ्गलापोतस्य लघुसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी। उत्त० ३७९। विशुद्धसमुदानम्। दशवै० १७९। पिंगलायणा- कुत्सगोत्रे भेदः स्था० ३९०
पिंडवायपडियाए- पात्रे पिण्डस्य प्रवेशः तत्प्रतिज्ञा। बृह. पिंगा-पिङ्गा कपिजला। सूत्र. ९८१
८६अ। पिंगायण- पिङगायनं मघागोत्रम्। जम्बू. ५००
पिंडवायपडियाय-पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञापिंगायणसगोत्त- मघानक्षत्रगोत्रम्। सूर्य. १५०/ अहमत्रभिक्षां लप्स्य इति। आचा० ३२११ पिण्डस्य पातो पिंगुल- पिङ्गुलः पक्षिविशेषः। प्रश्न० ८।
भोजनस्य पात्रे गृहस्थान्निपतनं तत्र प्रतिज्ञा-ज्ञानंपिंजितं- पिंजनिकया तडितं रुतम् धा। बृह. ११६ आ। बृद्धिः पिण्डपातप्रतिज्ञा। भग० ३७४। पिंड- अद्रवः स्त्याद्यानः विकृत्यादिकम्। बृह. २०६ आ। | पिंडहलिहा- अनन्तकायभेदः। भग० ३००/
ओदनादिकः। बृह. ८६अ। भत्तट्ठो। निशी. १४२आ। | पिंडार-पिण्डारः-भिक्षुकजातिविशेषः। आव. १६१। निशी. पिण्डः-पिण्डनीयं पिण्डनं वा परिग्रहस्यनवमं नाम। ४१ आ। पश्न०९। पिण्डः-ओदनादिरन्नः। उत्त. २६९। पिण्डः- | पिंडि- पिण्डी-लम्बी। भग० ३७। आहारः। उत्त० ६०| पिण्डं पिण्डः-सङ्घातरूपः। ओघ० | पिंडिम- पुद्गलसमूहरूपः। जम्बू. ३० पिण्डिमः१२। पिण्डः-गडपिण्डादिरूपः। पिण्ड. २ पिण्डं
पुद्गलसमूहरूपः। औप० ८। पिण्डिमः-बहलः। प्रश्न शाल्योदनादिकम्। आचा० ३३६। पिण्ड्ययते
१६२ घोषवर्जितः शक्कादिशब्दवत्। स्था० ४७१।
मनि दीपरत्नसागरजी रचित
[238]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #239
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पिंडिमणीहारिमा- पिण्डिमं निहारिमा पुद्गलसमूहरूपः । | पिउसेणकण्हा- पितृषेणकृष्णादूरदेशगामिनी च। औप०८1
अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य नवममध्ययनम्। अन्त० पिडिमा-पिण्डिता। राज०७
२५। निरयावल्याः प्रथमवर्गस्य नवममध्ययनम्। निर० पिडिय- पिण्डितः-मिलितः। ओघ० १०३। पिण्डितंस्वकर्मणा संयोजितम्। जीवा० २७३। पिण्डितः-एक- पिएण-प्रीत्या। आव० ३४७ जातिमापन्नः। आव. २८३।
पिक्कमंसि-पक्वा-संस्कृता मांसीति-गन्धद्रव्यविशेषः। पिडिया- पिण्डिका-पाषाणपिण्डिका। औप. १६)
पक्वमांसी। प्रश्न. १६२ पिंडिसिया-पिण्डैशिका, पिण्डो-भोजनम्। भग० ४८२१ | पिक्खुर- पिक्खुरान्, म्लेच्छविशेषान्। जम्बू० २२०| पिंडो- पिण्याकपिण्डिका वायसपिण्डिका। बृह० १३३। | पिचुगाला- निर्गलितम्। आव० ८५५४ पिण्डिः -भिन्नकम्। सूत्र० ३९६)
पिचुमंद- अरिष्ठो वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३११ पिंडीभूत- पिण्डीभूतः। आव० २७४।
पिच्च- जनपदसत्यत्वे उदाहरणं, पयः, उदकम्। दशवै. पिंडेसण-आचारङ्गे दशममध्ययनम्। सम० ४४। पिण्डै- २०८१
षणा- आचाराङ्गस्य दशममध्ययनम्। उत्त० ६१६) | पिच्चिय- कुट्टितत्वकम्। स्था० ३३९। पिंडेसणा- पिण्डैषणा-आचारप्रकल्पे
पिच्छ- पत्रम्। प्रश्न द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथममध्ययनम्। प्रश्न. १४५।। पिच्छज्झया- पिच्छध्वजा-पिच्छचिह्नोपेता ध्वजा। पिण्डैषणा-सप्तपिण्डैषणा। आव०७७८॥ पिण्डैषणा- जीवा. २१५ आचारप्रकल्पस्य दशमो भेदः। आव०६६०
पिच्छिका- वरुट्टा। प्रज्ञा० ५८१ पिंडोलग- पिंडोलकः-परपिण्डप्रार्थंकः। सूत्र०८११
पिछिदिति-पिच्छड़। बृह० ४७आ। पिंडोलय- पिंडावलगाः-यः स्वयमाहाराभावतः परदत्तोप- | पिजियं- रुयपडलं पिंजियं| निशी० २२८ आ।
जीवी। उत्त. २५०। पिण्ड्यते-तत्तगृहेभ्य आदाय पिज्ज- प्रेम-प्रियेषु प्रीतिहेतुः। उत्त. २६१। पेयाः यवागूः। सङ्घात्यत इति पिण्डः तमलगति-सेवते पिण्डावलगः। पिण्ड० १६८ प्रेम्णि निश्चितम्, दशविधमषाभाषायां उत्त० २५०
पञ्चमी। स्था०४८९। पिअ- प्रियः-भूयोऽभिलषणीयः। प्रज्ञा०४६३।
पेज्जे- पाययं स्तन्यम्। पिण्ड० १२२ पिअण-पानम्। आचा०४१।
पिजनकः- रथावयवौ। ज० २००८ पिअवयस्स- प्रियवयस्यः महाबलमित्रः। आव० ११६| पिजनिक- घनस्वरभेदः। स्था०६३। पिइयंग- पितृकाङ्गं, शुक्रविकारबहुलम्। भग० ८८1 पिटक-भाजनविशेषः। पिण्ड०७८ पिइय- गुल्मविशेषः। प्रज्ञा० ३२
पिट्टण- पिट्टनं-मदगरादिना हननम्। औप. १०७) पिउं- पिबामि। आव०९०
ताडनम्। ओघ० १२३। पिट्टनं-कुट्टनम्। पिण्ड० १६| पिउ-पितः। आव०६६६]
पिट्टणा- पिट्टना नापि पिट्टयति काष्ठपिट्टनेन स्त्रीवत्। पिउगा- वीहीपक्का भजिता तट्टे फुड्डिया तुसावण्णिया ओघ०१३३ पिउगा भण्णति। निशी. १६७ आ।
पिट्टति- पिट्टयति। आव० ३४३| पिउग्गाम- पुरुषमैथुनम्। निशी० २५३ आ। पिट्टापिट्टी- केशाकेशी। आव० १०३ पिउच्छा-पितृष्वसा। आव० १७३।
पिट्टावणाता- पिट्टणप्रापणा। भग० १८४। पिउदत्त- पितृदत्तः गाथापतिः। आव. २०५)
पिट्टिणिका- दर्दूरोपरि विभागविशेषः, दर्दूरोपरि पिउपज्जयागए- पितृप्रायकः-पितुःप्रपितामहः। ज्ञाता० मालप्रवेश-मार्गछादनम्, यन्त्ररूपकपाटम्। पिण्ड० १०६) ४९।
पिट्टेति- पिट्टयति। आव०७०३ पिउसिया- पितृष्वसा-पितुर्भगिनी। विपा० ५७। | पिढेतुं- पिट्टयितुम्। आव० ८१९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[239]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #240
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पिहंत- अपानद्वारम्। निशी० २५२ आ।
३२४१ पिट्ठ- पिष्टं-अच्छटिततन्दुलचूर्णः। आचा० ३४२। पिष्टः- पिटुंडि- पिष्टं-विसारितम्। ब्रह. ९० आ। पिष्टस्य
शालिलोटः। ज्ञाता०९१| पृष्ठं-फलकम्। प्रश्न. ८३| शालिलोटस्य डण्डी-पिण्डी पिषोण्डी। ज्ञाता०९११ पृष्ठं-पाश्चात्यभागः। जम्बू०६७। पिष्टः
पिठर- पिठरं-स्थाल्यादि। पिण्ड० १५५ पिठरःआमतण्डुलक्षोदः। दशवै. १७०| पृष्ठः-मार्गः। दशवै. पृष्ठिचम्पायां यशोमतीभत्र्ता। आव. २८६। २३५१ चूर्णम्। निशी. ९ अ। पिष्टं-मुगादि चूर्णम्। बृह. | पिठरक-भाजनम्। आचा० ३४४। पात्रकम्। भग०६९११ २६७ आ। पिष्टं-सूक्ष्मतंदुलादिचूर्णनिष्पन्नम्। बृहः । भाजनम्। आचा० ३२७ १४२ ।
पिठरी-स्थाली। सूर्य. २९३। पिट्ठओकिच्चा- पृष्ठतःकृत्वा
पिडग- पिटकमिव पिटकं-आश्रयः। भग०७११। पिटकं धर्मबन्धनहेतुरियमितिमत्या तिरस्कृत्य। उत्त० ९९। वणिज इव सर्वस्वस्थानम्। स्था० ५०२। पिटकं-सर्वस्वपृष्ठतः-पश्चाद्भागः। ज्ञाता०६२
भाजनं गणिपिटकम्। सम० १०७। पिटकंपिट्ठकरंडग- पृष्ठकरण्डकं, पृष्ठवंशवय॒न्नताः सर्वस्वाऽऽधारः। उत्त. ५१३। पिटकं-सर्वस्वं समूहश्च। अस्थिखण्डाः पंशुलिका। जम्बू. ११७|
नन्दी. १९३। पिटकं-स्वस्वमाधारो वा। सूत्र. २५३। पिट्ठकरंडय- पृष्ठकरंडकः-पृष्ठवंशः। जीवा० १५४। पिटकं-चन्द्रविक-सूर्यविकरूपम्। जीवा० ३३६। पृष्ठकरण्डकः। तन्दु
पिटकं-द्वौचन्दौ द्वौ सूर्यो च। सूर्य २७५। पिटकंपिट्ठग- पिष्टम्। आव० ६२२
सर्वस्याऽऽधारः। उत्त० ५१३। पिट्ठपयणगं- पिष्टपचनकं-यत् सुरासन्धानाय पिष्टं | पिडगर-पिडगृहं-चिक्खिल्लपिडेर्निष्पादितम्। व्यव० पच्यते तत्। जीवा० १०५४
१०६| पिट्ठपयणगसंठितो- पिष्टपचनकसंस्थितः
पिडिगा- पिटिका। दशवै०४४। आवलिकाबाह्यस्य द्वितीयं संस्थानम्। जीवा० १०४।। पिढर- पिढरं-स्थाली। पिण्ड० ८९| पिढरः-यशोमतीभर्ता। पिट्ठपोवलिया- पृष्ठपोलिका। आव० ८५५)
उत्त० ३२३ पिट्ठा- पिष्ठा। भग०७६६
पिणद्ध-पिनद्धं-आविद्धम्। जीवा. २०७। पिनद्धं-बद्धम्। पिट्ठि- पेषणम्। निशी. ९ अ। पृष्ठः-स्कंधः। स्था० ११९| | जम्बू. १८९। पिद्विमंसं-पृष्ठिमांसं-परोक्षदोषकीर्तनरूपम्। दशवै. पिण्डं- बाहल्यम्। जम्बू० ५३ २३५
पिण्डहरिद्रा- वनस्पतिकायिकभेदः। जीवा. २७१ पिहिमंसभक्खयं-जं परमहस्स अववोलिजइ तं तस्स। | पिण्डोलकः- कृपणः। दशवै० १८४। दशवै० १२५आ।
पिण्ड्यते- प्रचुरीक्रियते। ओघ० १४७ पिहिमंसिय- पृष्ठिमांसाशिकः-पराङ्गमखस्य पिण्णात-घयगुलमिस्सो, सत्तुओ। निशी० ३९ आ। परस्यावर्णवाद-कारी, दशममसमाधिस्थानम्। सम० | पिण्णियं- पिन्निका-ध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यम्। उत्त. ३७। पृष्ठमांसादः-यः पराङ्मुखस्यावर्ण भणति, १४२ दशममसमाधिस्थानम्। आव० ६५३।
पितदरिसण- नवग्रैवेयके पञ्चमः प्रस्तरः। स्था० ४५३। पिहिमाइया- अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य पितधम्म- आलोचना दृष्टान्तः। स्था० ४८४। सप्तमम-ध्ययनम्। अनुत्त०२
पितियंगा-पित्रगानि-प्रायः शक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः। पिट्ठी- पृष्ठम्। उत्त० १४३
स्था० १७० पिट्ठीचंप- पृष्ठिचम्पानगरी-भगवन्महावीरविहारक्षेत्रम्। | पितुसेणकण्हा- पितृसेणकृष्णा-मुक्तावलीतपकारिका। आव. २०४१
अन्त० ३१॥ पिट्ठीचंपा- पृष्ठिचम्पा-शालराजधानी। उत्त० ३२१, ३२३, | पितृग्रामः- त्रिविधा पुरूषाः। बृह. १८४ आ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[240]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #241
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पितृपिण्ड- पिण्डनिकरः। आचा० ३२८१
| सूर्य. २९२ज्ञाता० ३७ पितृवन- श्मशानम्। दशवै० २६७।
पियए-अभिनन्दनजिनचैत्यवृक्षः। सम० १५२ पितृवनकाष्ठ- श्मशानकाष्ठः। आचा० २५३।
पियकारिण- प्रियकारिणः-समाधिविधित्सवः। ब्रह. ११० पित्तं-दोषविशेषः। प्रश्न. ८ पित्तं-दोषविशेषः। ज्ञाता० पियकारिणी- त्रिशलायाः तृतीयं नाम। आचा०४२२१ १४७। मनुष्याणामशुचिस्थानम्। प्रज्ञा० ५०
पियगंधव्व- गीतप्रियः। ज्ञाता० २१३। पित्तज्जर- पित्तज्वरः। ज्ञाता०१११|
पियचंदो- प्रियचन्द्रः-कनकप्रनगरनृपतिः। विपा. ९५। पित्तमुच्छा- पित्तमूर्छा-पित्तप्राबल्यात् मनाग मूर्छा।। पियण- अपकायस्य परिभोगे दृष्टान्तः। स्था० ३३९। आव०७७९।
पियदंसण- प्रियदर्शनः धातकीखण्डद्वीपे महर्द्धिको देवः। पित्तित- चतुर्पु वार्घिषु द्वितीयः, पीतोद्भवः। स्था० २६५) जीवा० ३२८। देवविशेषः। स्था० ७९। भगवन् महावीरपैत्तिकः। आव०४०५१
पुत्री। आचा० ४२२ पिन्नाम-पिण्याकः-खलः। सूत्र० २९६।
पियदंसणा- प्रियदर्शना, चन्द्रावतंसकराजपत्ती। आव. पिपासा-विषयेच्छा। आव० ५९।
३३६। प्रियदर्शना, अपरनामाऽनवदयाङ्गी। उत्त. १५३। पिपीलिका- पृथिव्याश्रितो जीवभेदः। आचा० ५५। काष्ठ- | पियधम्म- प्रियो धर्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च निश्रिता पिपीलिका। आचा० ५५ समूर्च्छन विशेषः। प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा। स्था० २४२। प्रियधर्मा-धर्मदशवै०१४१। त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२
प्रियः। प्रश्न० ११६| प्रियः इष्टो धर्मोऽस्येति प्रियधर्मा। पिपीलिया- पिपीलिकाः-कीटिकाः। उत्त०६९५)
ओघ. २०२। पिप्परी- पिप्पली-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२
पियधम्मा- प्रियधर्मा दृढधर्मा। भग० १२७। इच्छियाभिहाणी। निशी. १९२आ।
पियपुच्छय- प्रियपुच्छकः। आव० २२१, २२६। पिप्पल-पिष्पलः-ह्रस्वक्षुरः। विपा० ७१। पिप्पलः खाद्य | पियमित्त- षष्ठ वासुदेवस्य पूर्वभवनाम। सम० १५३। वक्षविशेषः। आव० ८२८ पिलंक्खुः। निशी० १२४ । । प्रियमित्रः-पुरुषपुण्डरीकवासुदेवपूर्वभवः। आव. १६३ स्था० ३३९। पिप्पलकः-किञ्चिवक्रः क्षुरविशेषः। प्रियमित्रः-चक्रवर्ती। आव० १७७ प्रियमित्रः चक्रवर्ति पिण्ड. १७ पिप्पलकः-क्षुरकः। ओघ. १३३।
विशेषः। आव. १६७। पितृमित्रम्। आव. २१९। पिप्पलग-पिष्पलकः क्षुरप्रः। बृह. २५३ आ। निशी० १८ | पियसेण- प्रियसेनः-नपुंसको गणिकापुत्रः। विपा० ५४।
पिया- पिता “जनेता चोपनेता, यस्तु विद्यां प्रयच्छति। पिप्पलपोतग- पिष्पलपोतकः। आव. ५५५
अन्नदाता भयत्राता, पञ्चैते पितर स्मृताः।" ज्ञाता० पिप्पलि- वृक्षविशेषः। भग०८०३
२४०। सुदंसणगाथापतेः पत्नी। निर० ३७। ज्ञाता० ८८ पिप्पलिया- गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२
पाति-रक्षत्यपत्यमिति पिता। उत्त. ३८ पिप्पली- वृक्षविशेषः। आचा० ३४८ प्रज्ञा० ३६४| पियादए- आत्मवत् सुखप्रियत्वेन प्रियादया-रक्षणं येषां पिप्पलीचुण्ण- पिप्पलीचूर्णम्। प्रज्ञा० ३५४।
तान् प्रियदयान, प्रिय आत्मा येषां तान प्रियात्मकान्। पिप्पलीमूलं- पिप्पलीमूलम्। प्रज्ञा० ३६४। आचा० ८८५ उत्त० २६५ पियंकर- प्रियङ्करः-प्रियं-अनुकूलं करोतीति। उत्त० ३४७ | पियापुत्ताणि- पितापुत्र्यौ। उत्त० १२९। पियंगाला- चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२।
पियापया- आयतः-आत्माऽनोदयनन्तत्वात् स प्रियो येषां पियंग-समतिनाथस्य चैत्यवक्षः। सम०१५२प्रियङगः- ते तथा। आचा० १२२ धनदेवसार्थवाहभार्या। विपा. ८८1 प्रियङ्गः- | पियाल- वृक्षविशेषः। भग० ८०३। प्रियालं-प्रियालफलम्। संवेगोदाहरणे ऽमात्यधर्मघोषभार्या। आव०७०९। दशवै. १८६। प्रियालः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| पिय- प्रियं-अनकूलम्। उत्त० ३४७। प्रियः-प्रियार्थः। जम्ब० | पिरली-तृणरूपवादयविशेषः। जीवा. २६६। जम्बू. १०१। १४३। प्रियः-प्रेमकर्ताः। णाता० १६५। प्रियं-प्रेम-कारी। | पिरिपिरिता- तस्य मुहत्थाणे खरमुहाकारं कट्ठमयं मुहं
आ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[241]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #242
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
कज्जति। निशी. ६अ।
११९। पिशुनः- पृष्टिमांसखादकः। दशवै० २५१। पिशुनःपिरिपिरिया- कोलियकपटावनद्धा वंशादिनलिका। आचा. छेदभे-दकर्ता। दशवे. २५४। पिश्नः-खलः। प्रश्न०४१। ४१२
पिशुनः-परदोषोद्घाटकः। उत्त० २४५। शुनः-सूचकः। पिलंख-पिप्परी। आचा० ३४८१
उत्त. ५४१। पीतिं सुण्णं करेतीति। दशवै० १३८। पीति पिलंक्खुरुक्खे- शीतलजिनवैत्यवृक्षः। सम० १५२| सुण्णं करेति, प्रीतिं विच्छेदं करोति। निशी. ८० आ। पिलंक्खुमंथु- पिप्परीमंथ्ः। आचा० ३४८।
पिसुणग- पिशुनकम्। आव० ३८५। पिलक्खुरुक्ख- वृक्षविशेषः। भग० ८०३।
पिसुया- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ पिलक्खू- पिप्पलभेदो। निशी. १९२ आ।
त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२ पिलुंखु-खाद्यवृक्षविशेषः। आव० ८२८१
पिहज्जण- पृथग्जनः-सामान्यजनः। स्था० १२२॥ पिलुक्ख-प्लक्षः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२
पिहड- यत्र प्रभूतजनयोग्यं धान्यं पच्यते। जीवा० १०५१ पिल्लओ- प्रेरकः। बृह. ३१० आ।
पिहडय- पिठरकं-स्थालीः। उपा०४०। पिल्लक-निर्णंकः। व्यव० १८० अ।
पिहण- पिधानं-स्थगनम्। आव० ८३८। पल्लग- अपत्यम्। उत्त० १३५
पिहाइ-स्पृहयति अभिलषति पिधत्ते वा, अथवा अक्षिणी पिल्लण- प्रेरण, आरूढस्य पुंसोऽभिमुखदर्शनधावनादिना पिधत्ते-निमीलयति। भग० १७५१ संज्ञाकरणपूर्वकं प्रवर्तनम्। ज० २३७
पिहिआसव- पिहिताश्रवः-स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवः। पिल्लति- प्रेरयति निष्काशयति। उत्त. १३६
दशवै० १५७। पिल्लियय- प्रेरितः। आव. २२४।
पिहिउभिन्न-आदौ पिहितं पश्चाद्भिन्नं पिल्लक्किय- पीतः, पूटकृतः। आव०६९३।
पिहितोदिन्नम्। पिण्ड० १०५। पिवास- पिपासा। आव. २३७)
पिहित-घट्टितम्। ओघ. १६९। पिवासा- पिपासा-प्राप्तेऽप्यर्थेऽतप्तिः । भग०८९। पिहितकपाट-अर्गलितकपाटम्। ओघ. १६६। पिपासा। आव०७११। पिपासा-वध्यप्रतिस्नेहरूपा। पिहितेन्द्रिय-निरुद्धहृषीकः। प्रश्न. १६०| प्रश्न. ५ विपासा-अप्राप्तार्थनामाकाङ्क्षा। औप०४७। पिहिपिहीभूत- पृथक्पृथग्गभूतः। आव० २०८। पिपासा-द्वितीयः परीषहः। आव०६५६।
पिहिमोदणं- | निशी० ३२८ आ। पिवीलिया- पिपीलिका-कीटिका,
पिहिय- पिहितः स्थगितः कम्बलादयावृतशरीरः। आचा. सामायिकलाभेदृष्टान्तः। आव०७५
३०९। पिहितः-स्थगितः। आचा० ३०३। पिहितं-सचित्तेन पिव्वरिया- विपर्ययकरणम्। निशी० ८ अ।
स्थगितम्, चतुर्थ एषणादोषः। पिण्ड० १४७। पिहितंपिसल्लग- पिसल्लकः-पिशाचकः। प्रश्न. १६२
स्थगितम्। भग० २७४। स्थगितः। स्था० १२४। पिसल्लयः-पिशाचः। प्रश्न. २५१
पिहियच्च- पिहितार्चः-पिहिता-स्थगिताऽर्चापिसाचा- व्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६९।
क्रोधज्वाला येन स तथा, यदि वा पिहिता! गप्ततन्ः। पिसाची- पिशाची-ग्रथिला। ब्रह. २३३ अ।
आचा० ३०४। पिसाय- पिशाचः ग्रथिलः। बृह. ५९। अ| पिशाचः। आव० | पिहिस्सामि- पिधास्यामि-स्थगयिष्यामि। आचा० ३०१। ४१११
पिहुंड- पिहुण्डं-नगरविशेषः। उत्त० ४८२। पिसिय- पिसितं-मांसम। आव०८५४१
पिहुखज्ज- पृथुकभक्ष्यं पृथुकभक्षणयोग्यम्। दशवै० २१९। पिसुअ- पिशुकः-चञ्चटः। जम्बू. १२४१
पिहुग- पृथुकीकृतः। आव० ८५५। पिसृग- पिशुकः-चञ्चटादिः। जीवा० २८२।
| पिहगा- पृथका-ये व्रीहयः परिपका सन्तो भ्राष्ट्रादौ नं-परदोषाविष्करणरूपम्। प्रश्न. ३६| | भृज्यन्ते ततः स्फुटिता अपनीतत्वचः पृथुका। बृह० पिशुनं-परीक्ष्यस्य परस्य दूषणाविष्करणरूपम्। प्रश्नः | १७९आ। जवगोहुमादीणं। दशवै० ११२।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[242]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #243
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[Type text]
पिहुज्जण पृथग्जन:- सामान्यलोकः दशवै० २७६ पिहुण- बर्हः। आचा० ३४५। पेहुणं मयूरादिपिच्छम् । दशवै.
१५४|
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पिहूणहत्थ पेहुणहस्तः- मयुरादिपिच्छसमूहः । दशवें. १५४] बर्हकलापः । आचा० ३४५
पिहुभिन्न- पिहितोद्भिन्नम् । निशी० ५९आ। पिय- पृथुकं शाल्यादिलाजान्। आचा० ३४२ | पृथुकं भुग्न- शाल्यादयपगततुषम्। आचा• ३५७। पुयृकम् । आचा० ३२३|
पिहुल- पृथुलं-विस्तीर्णम् । स्था० २५| पिहुला पृथुला दक्षिणोत्तरतः। जीवा० २७५ | पिहँति- पिधन्तः स्थगयन्तः । ज्ञाता० १६६ पिहेड़- पिदधाति स्थगयति अपनयतीति । उत्तः ५८० पीड़. प्रीतिः प्रीणनं आप्यायनम्। भग० ३१७७ चित्तोल्लासः। जम्बू० ५२८ । जीवितम् । आव० ६९० | प्रीतिः प्रियत्वं न कार्यवशादित्यर्थः । ज्ञाता० ३५| पीड़गम प्रीतिगमः षष्ठदेवलोके विमानम्। औप० ५२| पीइदाण- प्रीतिदानं संतोषदानं प्राभूतरूपम्। जम्बू. २०४१ पीड़मणे- प्रीतिमनाः प्रीतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य सः भग० १९९| प्रीतिर्मनसि यस्यासी प्रीतिमनाः । जीवा० २४३१
पीड़वद्धण प्रीतिवर्द्धनः- द्वादशममासनाम। जम्बू• ४९० पीई- प्रीतिः - साम्मत्यलक्षणा । प्रज्ञा० ५९९ | पीईसुण पिशुनी प्रीतिं शून्यां करोतीति पिशुनी, नैरुक्तीश ब्दनिष्पतिः। बृह० १२८ आ
पी ं- पिष्टम् आव• ८५पा
पीठ- पाषाणभेदः । प्रज्ञा० २७| आचा० ३७६ ।
पीठमह पीठमई:- अस्थाने आसनासन्नसेवकः, वयस्यः ।
औप० १४।
पीठमद्दा- पीठमर्दा: आस्थाने आसन्नप्रत्यासन्नसेवका
वयस्याः । राज० १२१ |
पीठरकं- भाण्डम् । प्रश्र्न० १२७
पीठिका - ग्रन्थभूमिका । आव०३८२
पीठिकागीत पीठिकामात्रम्। बृह० ५९ अ पीठी- ऊर्दध्वम् ओघ
पीडय पीडकः ओघ० २०११
पीडा- विमासो । दशवै० ७५|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पीढं- पीठम् । प्रज्ञा० ६०६ | पीठं- आसनविशेषः । आव ० ६५४। पीठं-गोमयादिमयासनम् । पिण्ड० १०९ | आचा० ३७८१ पीठं आसनम् अग० १३६ | पीठं आसनविशेषः । जम्बू• २६४ पीठ: वज्रसेनधारिण्योः पुत्रः आव० ११७। पीठं पट्टादिकम् । स्था० ३१२ पीठ-आसनम्। उत्त० ४३४। आसनम्। ज्ञाता० १०७ | पीठकम्। आचा० ३४४ | पीढग - वृषिका वा काष्टमयं वा पीठकम् । बृह० २११ अ । निशी० २०८ अ । पलालपीढगादि । दशवै० ९९| पीठकंकाष्टमयं उगणमयं वासनम् बृह० २५३ अ पीढगा पीठिका चयिका पिण्ड० १०७l
पीठमह पीठमई:- आस्थाने आसनासीनसेवकः वयस्य इत्यर्थः । भग- ३१८
पीठमद्दण पीठमई- आस्थाने आसनासन्नसेवक:वयस्यः वेश्याचार्यः जम्बू० १९०
पीढय पीठकं काष्ठपीठादि दशकै १७२१ व्हाणपीढयं नाणपीढाइ दशकै ८० आ।
पीढसप्पि जन्तुर्गर्भदोषात् पीठसर्पित्वम्। आचा० २३३॥ पीढाणित पीठानीकं अश्र्वसैन्यम् । स्था० ३०३, ४०७l पीडि- पोढः ओघ० १०९ ।
पीढियावाहग पीठिकावाहक आव० २११।
।
पीण पीनः स्थूलः प्रश्न. १५२१ पिणाणिज्ज- प्रीणनीयं रसादिधातुसमताकारि स्था ३७११ रसरुधिरादिधातुसमताकारी औप० ६५| पीति- पीनयति- पीनमात्मानं करोति-स्थूलो भवति । जीवा० २४७ |
पीणाइय- पीनाया-मड्डा तया निर्वृत्तं पैनायिकम् । ज्ञाता० ६३ |
पीणिए- प्रीणितः तर्पितः । उत्त० २७३ |
पौणित- प्रीणित: उपचर्य नीतो यो योगः सूर्य० २३३ |
पीणिय- प्रीणितः । दशवै० २१७ |
पीणियसरीर- पीनशरीरः । उत्त० २७२॥ पीतकणवीर- पीतकणवीरः । प्रज्ञा० ३६१ | पीतबन्धुजीव- पीतबन्धुजीवाः । प्रज्ञा०३६१ पीतासोग पीताशोकः प्रज्ञा० ३६१।
पीतिदाणं स्वप्नपाठके दानम्। ज्ञाता० २१| पीतिवद्धणे- प्रीतिवर्द्धनः- लोकोत्तरे चतुर्थमासनाम सूर्य
१५३|
[243]
"आगम- सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
اواک
३१॥
पीयवाई- केनचिदप्रियमुक्तोऽपि प्रियमेव वदतीत्येवंशीलः | जम्बू. २३। जीवा० १८० प्रीयवादी आचार्याभिप्रायान्वतितयैव वक्ता। उत्त. | पुंछन- आसनम्। उत्त० ४२३। १४७
पुंछे-वस्त्रतृणादिभिः पुञ्छयेत्। दशवै० २२८॥ पीरिपीरिया- पीरिपीरिका
पुंज- पुजः-राशि। ओघ० १९३| पुञ्जः। निकरः। ज्ञाता० कोलिकपटावनद्धमुखवाद्यविशेष-रूपम्। राज०४९। २२९। पुजः। आव० ४२२॥ पीलग- पिलको रूढिगम्यः। ज० १७२
पुंड-पुण्ड्रः-जनपदविशेषः। अन्त०१६। पुण्ड्रः-पुण्ड्रेशः, पीलण-पीडनं-इक्ष्वादेरिव। आव. २७३।
यत्र विशिष्टानि हरितानि शाइवलानि भवन्ति। जीवा० पीलिम- पीडावत्-संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम्। दशवै. ३५५। द्वादशसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम० ८६। पीडावत्-संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम्। दशवैः २२। पोण्डं-पुष्पम्। उत्त० १४३। वैतादयगिरिप्रदेशे
जनपदः। स्था० ४५८ पुण्ड्रः-वरुणस्य पुत्रस्थानीयो पीलिय- पीडितः जलार्द्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने। स्था० ३२६। देवः। भग. १९९। पीलितः-अचित्तस्य तृतीयो भेदः-पोत्तचम्माइ। ओघ. | पुंडपइया- पुण्डानि-धवलानि पखानि पादा येषां ते तथा, ते १२३
एव पुण्डपदिकाः। ज्ञाता० २३० पीलियग- पीडितको यन्त्रैरिक्षवद। औप० ८७
पुंडरंगिणी- पुण्डरीकिणी-पुष्कलावतीविजये नगरम्। पीलु- वृक्षविशेषः। भग० ८०३। पीलः-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा. आव० ११७
पुंडरिगिणि- पुण्डरीकिणी-उत्तररूचकवास्तव्या पील्लू-पीलु। आव०६२।
दिक्कमारी। आव. १२श पण्डरीकरायनगरीविशेषः। पीवर-पीवरः-महान्। प्रश्न. १५२१ स्थूलः। ज्ञाता०१६)
आव.
रोकिणी-पुष्कलावतीविजयते नगरी। पीवरः-स्थूरः। ज्ञाता० १६०|
उत्त० ३२६। जम्बूपूर्वविदेहे पुष्कलावतिविजये नगरी। पीवरगब्भा- पीवरगर्मा-आसन्नप्रसवकाला। ओघ०७४। ज्ञाता०२४२। पीवरपउट्ठ- पीवरप्रकोष्ठः-अकृशकलाचिकः। जीवा० २७१। | पुंडरीअ-अष्टादशसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम. पीसंतिय- पेषयन्तिका-गोधमादीनां घरट्टादिना
३५ पेषणकारि-काम्। ज्ञाता० ११७
पुंडरीअनायं-पुण्डरीकज्ञातम्। उत्त० ३२१| पीसे- पेषयन्ती। ओघ. १६५
पुंडरीआ- पुण्डरीका-उत्तररूचकवास्तव्या तृतीया दिक्कुपीहग- पीहकः-हारः। बृह. ३७ अ।
मारी महत्तरिका। जम्बू० ३९१। पीहति- स्पृहयति-अनावाप्तमवाप्तुमिच्छति। औप० २४। | पुंडरीए- पुण्डरीकं षष्ठाङ्गे एकोनविंशतितमं ज्ञातम्। पीहय- स्पृह्य-पृथुकम्। आव० ९३। बृह. २९ आ। उत्त०६१४॥ पीहे- स्थगयेत्। सूत्र०६५
पुंडरीएपव्वए- आदिदेवगणधरनिर्वाणत उपलक्षितः पीहेज्ज-स्पृहयेद्-अभिलषेद। स्था० १४५।
पर्वतः, स तत्र प्रथमनिर्वृतत्वात्पुण्डरीकपर्वतःपुख- पुखः-पृष्ठभागः। जम्बू० २०१। द्वादशसागरोपम- __शत्रुञ्जयः। ज्ञाता० १०८ स्थितिकदेवविमानम्। सम० २२॥
पंडरीओ-स्तोककालेनोर्ध्वगामी। मरण । पुंछ- प्रोञ्छ-उन्मीलय। बृह. १६७ अ।
पुंडरीक- ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठगणधरः। व्यव० १०६ अ। पुंछडा-पुञ्छम् बृह. १४९ अ।
पंडरीकिणी- महाविदेहे नगरी। विपा.९४ पुंछणं- रजोहरणम्। बृह० ८६अ। प्रोञ्छनं-घर्षणम्। बृह. | पुंडरीगिणी- पुण्डरीकिणी२७० आ।
पश्चिमदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्योत्तर-स्यां पुष्करिणी। पुंछणी- पुछती
जीवा० ३६४। पुण्डरीकिणी-राजधानी नाम। जम्बू० ३४७। निपीडतरच्छादनहेतुलक्ष्णतरतृणविशेष-स्थानीया। | पुंडरीय- पुण्डरीकं सितपद्मम्। जीवा० २७३। पुण्डरीक
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[244]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #245
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
सूत्रकृताङ्गे सप्तदशममध्ययनम्। ३२६। पौण्डरीकः- | पुक्खरवर- पुष्करवरः-पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः। जीवा. पुण्डरीक इव प्रधानः-तिर्यक्षु मनुष्येषु देवेषु च प्रधाना । ३३३पुष्कराणि-पद्मानि तैर्वरः-प्रधानः पुष्करवरः नाम-पमा। सूत्र० २६७। पुण्डरीकः-क्षीरवरदीपे पूर्वार्धाधि- दवितीयो द्वीपः। आव०७८८ पुष्करवरः-कालोदधिपतिर्देवः। जीवा० ३५३। पुण्डरीकं-सूत्रकृताङ्गे
समुद्रानन्तरो द्वीपः। प्रज्ञा० ३०७) द्वितीयश्रुत-स्कन्धे प्रथमाध्ययनम्। आव०६५८ पुक्खरवरदीव- पुष्करवरद्वीपः- पद्मवरोपलक्षितो दवीपः। पुण्डरीकं-सूत्रकृता-ङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम्। उत्त. अनुयो० ९० ६१६। पुण्डरीक-सिता-म्बुजम्। प्रज्ञा० ३६३। पुण्डरीकं- | पुक्खरवरसमुद्द- पुष्करवरसमुद्रः-पुष्करवरद्वीपानन्तरं प्रधानम्। उत्त० ४८४। महापद्मपद्मावत्त्योः पुत्रः। ज्ञाता० समुद्रः। प्रज्ञा० ३०७ २४३। पुण्डरीकः- महा-राजपुत्रः,
पुक्खरसंवद्दग- पुष्कलसंवर्तकः-उदकरसो प्रथमो सदनुष्ठानपरायणतयाऽस्य शोभनत्वे उपमा। सूत्र० । महामेघः। पुष्कलं-प्रचुरमपि सर्वमशुभानुभावं २६८पुण्डरीकः-अलोभोदाहरणे सात्केतनगराधिपतिः। भूमिरुक्षतादाहादिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयतिआव० ७०२२पुण्डरीकः-महापद्मराजस्य ज्येष्ठसुतः। नाशयति। अनुयो० १६० उत्त० ३२६। पुण्डरीकः-पुण्डरिकिण्यां राजा। आव० २८८१ | पुक्खरसारिया- लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। पुण्डरीकं-सितपद्मम्। ज्ञाता०९६। पुण्डरीकः-ज्ञातायामे- | पुक्खरिणी- पुष्करिणी-वृत्ता वाप्येव जलाशया पुष्करवती कोनविंशतितममध्ययनम्। आव०६५३| पुण्डरीकं- | वा। अनुयो०१५९| पुष्करणी-पुष्करवती वर्तुला। प्रश्न. सितम्। भग. ५२० पौण्डरीकः-शिखरीणः पर्वते हृदः। १६०| पुष्करिणी वर्तुलः। औप० ९३। पुष्करिणीस्था०७३। सूत्रकृताङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम्। सम० पुष्कराण्यस्यां विद्यन्त इति। जीवा० १२३। पुष्करिणी४२। पुण्डरीक-सहस्रपत्रम्। भग०७
वृत्ता वापी, पुष्क-राणि विद्यन्ते यस्यां सा वा। जीवा. पुंडरीयगुम्म- अष्टादशसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। १८८ वापीवृत्ता। जम्बू. ३०| पुष्करिणी-वृत्ताकारा। सम० ३५
प्रज्ञा० २६७। वृत्ताकारा। जम्बू०४१। वृत्ताकारा वापी पुंडरीयणाय- पुण्डरीकज्ञातम्, ज्ञातायां प्रथम श्रुतस्कंधे पुष्करिणी यदि वा पुष्क-राणि-पद्मानि विद्यन्ते यास् ता एकोनविंशतितममध्ययनम्। ज्ञाता०९।।
पुष्करिण्यः। प्रज्ञा० ७२। पुष्करिणी वृत्तः पुष्करवान् वा पुंसयति- रूक्षयति। बृह० ७१ आ।
जलाशयविशेषः। भग. २३८५ पुस्कलीपुष्प- कूष्माण्डिकाकुसुमम्। जम्बू० ३४। | पुक्खरोद- पुष्करोदः- समुद्रविशेषः। ज्ञाता० १२८। पुष्कपु-पूः शरीरम्। आव० २७७
रोदः- पुष्करवरद्वीपपरितोऽपि शुद्धोदकरसास्वादः पुक्कंत- पूत्कुर्वन्-पुत्कारं कुर्वाणः। प्रश्न० ४९। समुद्र-विशेषः। अनुयो० ९०| पुक्खर- पुष्करं-चर्मपुटम्। राज० ३१। पुष्कर-चर्मपुटकम्। | पुक्खल- पद्मकेसरम्। आचा० ३४८। पुष्कलं-प्राचुर्यम्।
जम्बू. ३१। पुष्कर-चर्मप्टकम्। जीवा० १८९।। | सूत्र० २८६। पुष्कलं-सम्पूर्णम्। आव० ७८८ पुष्कलं सर्व पुक्खरकण्णिया- पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः। स्था० । अशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्ष्यदाहादिकम्। जम्बू. १७३। १४५। पुष्करकर्णिका-पद्मबीजकोशः। जीवा० १७८५ पुक्खलविजय- पुष्कलावर्तःसप्तमो विजयः। जम्बू० ३४६। पुष्करकर्णिका-पद्मबीजकोशः-कमलमध्यभागः। जम्ब० | पुक्खलविभंग- पद्मकन्दम्। आचा० ३४८१
पुक्खलसंवट्टओ- पुष्करसंवतकः-जम्बूद्वीपप्रमाणो पुक्खरणी- पुष्करिणी-तडागरूपा। सूत्र० २८६। चतस्रा । महामेघः। आव० १० वापी पुष्करणी। स्था० ८६। पुष्करिणी-वृत्ता पुष्करवती | पुक्खलसंवदृग- पुष्कलसंवर्तकः-महामेघः। भग० २३२॥ वा। औप०८ पुष्करिणी-वृत्तकारा वापी, पुष्कराणी | पुक्खलसंवट्टत- एकया वृष्टा वर्षसहस्रं वासयितुं समर्थो विदयन्ते यस्यां सा वा। जीवा. १९७। चाउरस्सा
मेघः। स्था० २७० पक्खरणी। निशी. ७० आ।
| पुक्खलसंवट्टय- पुष्कलं-सर्वं अशुभानुभावरूपं भरतभूरौ
१९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[245]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #246
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[Type text]
क्ष्यदाहादिकं प्रशस्तस्वोदकेन संवर्तयति नाशयतीति पुष्कलसंवर्त्तकः । ज० १७३ पुक्खला महाविदेहे विजयः । स्था० ८०| पुक्खलावइविजओ- पुष्कलावतीविजयः आव० ११६.
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
११७ |
पुक्खलावई जम्बूपूर्वविदेहे विजयः ज्ञाता० २४२ महाविदेहे विजयः । स्था० ८० |
पुक्खलावईकूड- पुष्करावतीकूटं एकशैलवक्षस्कारकूटनाम। जम्बू० ३४७ पुक्खलावतीविजओ पुष्कलावतीविजयः जम्बूमहाविदेहे विजयः । उत्त० ३२६ | पुक्खलावत्तकूड- पुष्करावर्त्तकूटएकशैलवक्षस्कारकूटनाम। जम्बू० ३४७१ पुग्गल पुद्गलं लेष्ट्वादिकम्। जीवा• ३७५% पुद्गलंउष्णौ-दनादि दशकै १५४१ पुद्गलः आत्मा प्रधानः । सूत्र. २३७॥ पुद्गलं मांसम् । दश. १७६। पुग्गलपरियट्टा- पुद्गलैः- पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्त्ताःपरमा-नां मिलनानि पुद्गलपरिवर्त्ताः । भग० ५६७। पुच्छ वालधी उत्त० ५५१) मेहनम्। औप० च्या पुच्छण प्रोच्छनं दारूदण्डकम् । बृह. १०८ आ । पुच्छणा पृच्छना - इखिणिकादिलक्षणा आव० १२९ | पृच्छना विस्मृतसूत्रार्थप्रश्नः प्रश्न. १२९| गृहीतवाचनेनापि संशयाद्युत्पत्तौ पुनः प्रष्टव्यमिति, पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः शङ्कितादौ प्रश्नः, प्रच्छना- सूत्रस्य अर्थस्य वा प्रच्छना । दशवै० ३२ पुच्छणी. पृच्छनी अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा भग० ५००| पृच्छनीअविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तदविदः पार्श्वे चोदना असत्यामृषाभाषाभेदः । प्रज्ञा० २५९। प्रच्छनी, असत्यामृ-षाभाषाभेदः । दशवै० २१० | पुच्छा- अपुणरुत्तं जाव बिओ कडिठडं पुच्छति सा पुच्छा तिहिं सिलोगेहिं एगा पुच्छा, जत्थ पगतं समप्पति थोवं बहुं वा सा एगा पुच्छा जत्तियं आयरिएण तरइ, उच्चारितं घेत्तुं सा एगा पुच्छा। निशी० ६७आ। पुव्वदि पुच्छा, नामेण वा गोत्लेण वा दिसाए वा पुच्छा । निशी. १९९ अ आहारणतद्देशे तृतीयभेदः । स्था० २५३| पृच्छा। आव० ३८२२ पृच्छा- जिज्ञासोः प्रश्नः ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
व्याख्याने एकाद शमद्वारम् उत्त० ७३ पृच्छा-प्रश्नः ।
दश- ४६
पुच्छिद सांशयिकार्थप्रश्नकरणात्। भग० १३५॥ संशये सति परस्परतः । भग. १४२१ संशये सति पुच्छियद्वे ।
ज्ञाता० १०९ |
पुच्छीअ- पृष्टवान् । आव० १५८८ पुच्छेज्ज पृच्छेत्-अर्थयेत्। ओघ० १३५
पुज्ज- पूज्यः-पूजार्हः- कल्याणभाग् । दशवै० २५२ पुज्जसत्थ- पूज्यं-सकलजनश्लाधादिना पूजार्हं शास्त्रमस्येति-पूज्यशास्त्रः। उत्त० ६६। पूज्याः शास्ता गुरुरस्येति पूज्यशास्त्रकः । उत्त० ६६ । पूज्यश्चासौ शस्तश्चेति पूज्यश-स्तः उत्त० ६६।
पुञ्छणा पुञ्छनि
निबिडतवाच्छादनहेतुश्लक्ष्णतरतृणविशे षस्थानीया ।
राज० ६२
पुट- काष्ठादिगन्धद्रव्यम् । जीवा० १९२ ।
पुटग- पुटकः खल्लकम् । बृह० १०१ अ । पुट्ट उदरम् । बृह० २३५आ। पुहिल चतुर्थी वासुदेवः स्था० ४५७
पुहुं- स्पृष्टं-बद्धस्पृष्टनिकाचितम्। सूत्र० ७१। पृष्टंउपरित-लम्। सूत्र० १२६ | आत्मप्रदेशस्पर्शवति । भग० २१ गाढ-तरबन्धेन पोषितम्। भग० ९० स्पृष्टंअग्निसम्पर्कानन्तरं सकृत् घनकुट्टितः सूचीकलापवत् । प्रज्ञा० ४०२ | अतीव स्पर्शेन स्पृष्टम् । प्रज्ञा० ४५९| स्पृष्टं-आत्मप्रदेशस्पर्शवि-षयम्। जीवा० २०| कथितत्त्वादिना अकिञ्चित्करः । व्यव० ३०९ अ स्पृष्टं स्पर्शमात्रोपेतम् जीवा० १३॥ स्पष्टःइन्द्रियसम्बद्धः स्था. २५3३1 स्पृष्टम् । भग. १३१। पृष्ठ- चक्रपरिधिरूपम्, यल्लोके पूंठी इति प्रसिद्धम् । जम्बू॰ २११। स्पृष्टः-अभिद्रुतः। उत्त॰ ८६। स्पृष्टः व्याप्तः पृष्ट इव उष्टः । उत्त० ११९ स्पृष्टः बीधितः । उत्त॰ १४०| स्पृष्टं-प्राप्तम्। जम्बू॰ ६७। स्पष्टःविदारितः । औप० ८८। स्पृष्टः स्पृष्टवान् । जीवा० २६१ | स्पृष्टः- व्याप्तः । प्रज्ञा० ६०१ । स्पृष्टः यथाडबद्धः । आव ० ३२१। स्पृष्टं-तनौ-रेणुवत् । भग० ५६९ । पुष्टः-उपचितः। ज्ञाता० ९१। पृष्ठः-पुष्टः । उत्त० १२० । प्रोञ्छितंसुधृष्टम् बृह० २७१ अ फुडं जीवप्रदेश: स्पर्शनात्
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*आगम - सागर- कोषः " [३]
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
स्पृष्टम्। भग० १८४। आत्मप्रदेशविषयम्। प्रज्ञा० ५०२ | पाकविशेषनिष्पन्ना। ज्ञाता० १८१| पुहतो- पृष्ठतः। ज्ञाता० १९०|
पुढवि- भगवत्यां द्वादशशतके रत्नप्रभापृथिवीविषयः। पुढपविट्ठ- श्रोत्रादीनि चक्षुरहितानि स्पृष्टमर्थं प्रविष्टम्। तृती-योद्दशकः। भग० ५५२। पृथिवी-लोष्टादिरहिता। भग० १३१|
दशवै० १५२ पुट्ठलाभित- पृष्टस्यैव साधो। दीयते ते? इत्येवं यो पुढविकाइया- पृथिव्येव कायो येषां ते पृथिवीकायिकः,
लाभस्तेन चरतीति प्राग्वत् पृष्टलाभिकः। स्था० २९८१ पृथिवीकायिका, पृथिव्येव वा काया-शरीरं सो यस्य पुट्ठलाभिय- पृष्ठलाभिकः-यः कल्पते इदं इदं च भवते अस्ति ते पृथिवीकायिकाः। स्था०५३। साधो। इत्येवं प्रश्नपूर्वकमेव लब्धं गृह्णाति यः सः। पुढविसत्थ- पृथ्वीशस्त्रम्। आव० ५१४। प्रश्न. १०६
पुढविसिलावट्टय- पृथिवीशिलारूपः पट्टकः- आसनविशेषः। पुट्ठवंसा- पृष्ठवंशा मध्यवलकाः। ज० २३।
पृथिवीशिलापट्ट कः। भग. १२७। पृथिवीशिलापट्टकःपुट्ठवई- प्रौष्ठपदी। सूर्य. १२७
आसनविशेषः। जम्बू० २८० पट्ठसेणियापरिकम्मे- दृष्टिवादे परिकर्मे तृतीयो भेदः। पुढवी- पृथिवी, पृथ्व्याः प्रथमभेदः। आचा. २९। सम० १२८
पृथिवीधूलिः। आचा० ५१। इशानदेवेन्द्रस्य पुट्ठा- स्पृष्टा-छुप्तवती। जम्बू०६८। स्फुटाः-स्फुटीकृता प्रथमाऽग्रमहिषी। स्था० २०४। भग० ५०५। भगवत्यां शोधिता। ज्ञाता० ११९।
त्रयोदशशतके प्रथमचतुर्थउद्देशकौ। भग० ५९६) पट्ठापट्ठ- दृष्टिवादे सूत्रे चतुर्दशमो भेदः। सम० १२८१
पृथिवीति-भामा सत्यभामावत् शुद्धपृथिवी च पढेया- पष्टिः-पच्छा ततो जाता पष्टिजा-प्रश्नजनितो नदीतटभित्त्यादिरूपा। प्रज्ञा० २७। व्यापारः, अथवा पृष्टं-प्रश्नः वस्तु व तदस्ति
पृथिवीकेदारयुपरिवर्तिनी शुष्ककोपट्टिका कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिका, अथवा स्पृष्टिः-स्पर्शनं श्लह्णाखटिका निमित्ता वा। बृह. १६१ आ। पृथ्वी ततो जाता सृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति। स्था०४२ रत्नप्रभादिः। अनुयो० १७३। जीवादीन् रागादिना पृच्छतः स्पर्शतो वा। स्था० ३१७ पुढवीओ- पृथिव्यः भगवत्याः प्रथमशतके पञ्चमोद्देशकः। स्पष्टिजा-स्पर्शनक्रिया, विंशतिक्रियामध्ये सप्तमी। भग०६।
आव०६१ स्पर्रिकी-स्पर्शन-क्रिया। आव०६१३। पुढवीकाय- पृथिवीकायः-उदयभूधरशिरः। अस्तमयभूधरपुडिल- अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य नवमम- | शिरो वा। सूर्य ४७।। ध्ययनम्। अनुत्त०२
पुढवीवडेंसय- पृथिव्यवतंसकं-रोहीटकनगरे उदयानम्। पुट्ठी- पृष्टिः-अतिशायी पोषः। जीवा० २६८। पुष्टिः-पुण्यो- | विपा० ८२॥ पचयः, अहिंसायास्त्रयोविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९९।। पुढवीसिरी- पृथिवीश्रीः-इन्द्रपुरनगरे गणिका। विपा० ८८1 पृष्टिः । आव० ३५०
पुढेगत्तं- पृथक्कालदेशभेदेन कदाचित्क्वचिदित्यर्थः। पुड- पुटं-नासापुटम्। उपा० २१। पुष्करम्। उपा० २१॥ स्था० ३८४१ पुडभेयण-कुकुमादीनां पुटा यत्र विक्रयार्थं भियन्ते पुढो- पृथक्-प्रत्यक्षज्ञानी परोक्षज्ञानी च। आचा० ३६| उत्त० पुटभेदनम्। बृह. १८१ आ। पुटभेदनं
पृथग्भेदेन। उत्त०१८१। पृथग-विभिन्नम्। आचा० ३५ प्रधाननगरम्। उत्त०४७५१
पृथग् प्रत्येकम्। आचा० १२११ पृथग-विभिन्नम्। आचा. पुडा- पुटा-पुटिका। भग० ७१३ पुडिया- पुटिका। आव० ३९९]
पुढोछंदा- पृथग्-भिन्नः छन्दः-अभिप्रायः येषां ते पृथपुढ- पृथग्मूतः-व्यवस्थितः। सूत्र. ५५।
ग्छन्दाः। आचा० २०५१ पुढवाए- पुटपाकाः-कुष्ठिकानां
पुढोजण- पुथग्जनः-प्राकृतपुरुषः अनार्यकल्पः। सूत्र० ८१। कणिकावेष्टितानामग्निना पचनानि, अथवा पुटपाकाः- | पुण- पुनः। प्रश्न. १५५ पुनः-एवकारार्थः। आचा० १०|
१४१॥
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[247]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #248
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१७३
पुनः-द्वितीयवारापेक्षः। व्यव० १५७ अ। पुनः शब्दः- । पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५५। महर्धिकः। ब्रह. १७० केवलार्थः। व्यव० ११ ।
अ। भृतो जलस्य भग० ८३। पुण्या-पवित्रा। ज्ञाता०१३९। पुणउत्ति- (देसी) भासते वच्चंति। निशी० १२१ ।। पुण्य-श्रुतचारित्रभूतं शुभकर्म। भग. ९० पुणहा- साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थंकृतम्। दशवै. यत्स्वरकलाभिः पूर्णं गीयते तत्पूर्णम्। जीवा. १९४| यत्
स्वरकलाभिः पूर्ण गीयते तत् पूर्णम्। जम्बू०४०। स्वरपुणनंद- श्रेयांसजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७) कलाभिः सर्वाभिरपियुक्तं कुर्वतः पूर्णम्। अनुयो० १३२॥ पुणब्भव- पुनर्भवः-संसारः। प्रज्ञा० १०८
पुण्यकूटं-वैताढ्यकूटः। जम्बू० ३४१ पुणब्भवलया- पुनर्भवः लता। मरण
पुण्णकलस- पूर्णकलशः-अनार्यग्रामः। आव० २०७। पुणभद्द- चंपायां चैत्यम्। उपा० १।
पुण्णघोस- जम्ब्वैरवत आगामिन्यां उत्सर्पिण्यां पुणरावत्ती- पुनरावृतिः-परावृत्तिः सुस्थता। आव० ८६३। तीर्थकरः। सम. १५४१ पुनरावृत्तिः । दशवै० ९४१
पुण्णणंद- श्रेयांसनाथप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१ पुणरावि- पुनरपिः भूयोऽपि। उत्त० ३३६)
पुण्णपत्त- पूर्णपात्रं-अक्षतभृतपात्रम्। उत्त० ३८१। पुणरुत्त- शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम्,
पुण्णप्पभ- पूर्णप्रभः-क्षोदोदे समुद्रे सूत्रदोषविशेषः। आव० ३७४। पुनरुक्तं
पश्चिमार्दाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५५) शब्दतोऽर्थतञ्चपुनर्वचनम्। अनुयो० २६१। पुण्णप्पमाण- पूर्णप्रमाणः-स्वप्रमाणं यावज्जलेन पूर्णः। अर्थादापन्नस्य स्वशब्दस्य पुनर्वचनम्। आव० ३७५।। जीवा० ३२२। पूर्णप्रमाणः-पूर्णं वा जलेनात्मनो प्रमाणं पुणव्वसु- पुनर्वसुः-नारायणवासुदेवपूर्वभवः। आव० १६३। | यस्य, मानं वा यस्य पूर्णमात्मनः। भग०८३। नक्षत्रम्। स्था० ७७। शीतलनाथप्रथमभिक्षादाता। सम० पुण्णभद्द- पूर्णभद्रः-चम्पायां यक्षविशेषः। आव. २२५। १५१। अष्टमबलदेवपूर्वभवनामा। सम० १५३।
पुण्यभद्रः-दक्षिणनिकाये तृतीयो व्यन्तरेन्द्रः। भग. पुणव्वसू- पुनर्वसुः। सूर्य० १३०| शीतलजिनप्रथमभिक्षा- १५८पुण्यभद्रं-रविविषयप्रश्ननिर्णये चम्पानगाँ दाता। आव०१३७|
चैत्यम्। भग० २०६। पूर्णभद्रः। अन्त०१९। पूर्णभद्रंपुणोपुणो- करेति एवं प्रसङ्गः। निशी. २३३ आ।
चम्पायां चैत्य-विशेषः। उत्त. ३२११ पौनःपुण्येन-यावृत्या। आचा० २०१।
सौधर्मकल्पवासिदेवः। निर०३६। सौधर्मकल्पे पुण्डरीकः- औत्पत्तिक्यां स्त्रीलम्पटः। नन्दी. १५४| विमानविशेषः। निर० ३६। चंपानगर्या उत्तरपूर्वार्या व्याघ्रः। उत्त० १३५। सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे चैत्यः। ज्ञाता० ३। धातकिखण्डभरतचम्पायां चैत्यम्। प्रथममध्ययनम्। स्था० ३८७।
ज्ञाता० २२२। चंपायां चैत्यम्। उपा० १९। निशी० २३ अ। पुण्डरीकदलं- श्वेतपद्मम्। जीवा. १९१|
पूर्णभद्रः-चम्पानगर्यां चैत्यविशेषः। प्रश्न. १। पूर्णभद्रःपुण्ड्-तिलकः। सम० १३९। तिलकः। जीवा. १७५। यक्षेन्द्रः। जीवा० १७४| चम्पायां चैत्यम्। ज्ञाता० २५२। पुण्ड्रप्रभा- वापीनाम्। जम्बू० ३७१।
जितशत्रुराज्ञोः चंपानगर्यां चैत्यम्। ज्ञाता० १७३ पुण्ड्रा- वापीनाम्। जम्बू० ३७१।
मणिपतिकानगर्यां गाथापतिः। निर० ३६। पुण्ण- प्रणति-शुभीकरोति पुनाति वा
पुण्णभद्दकूड- पूर्णभद्रनाम्नो व्यन्तरेशस्य कूटं पवित्रीकरोत्यात्मान-मिति पुण्य-शभकम्म। स्था०१७।
पूर्णभद्रकूटम्। जम्बू. ३३८। पूर्णभद्रनाम्नो देवस्य पुण्यं-पुण्यहेतुभूतं शुभानुष्ठानम्। उत्त० ३८८1 पुण्यः
निवासभूतं कूटं पूर्णभद्रकूटम्। जम्बू०७७) षष्ठो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७। पूर्णः। जीवा. | पुण्णमासी- पूर्णो मासो यस्यां सा पोर्णमासी, पूर्णोमाः१७०| पुण्यार्थं यत्र बहु रन्ध-यित्वा श्रमणानां दीयते, । चन्द्रमा अस्यामिति वा पोर्णमासी। जीवा० ३०५ अथवा पूर्णं यद्-गृहस्थैर्बहुभिस्तत्। ओघ० १५६। पूर्णः- | पुण्णरत्ता- परिपूर्णमधुरा। उपा० २८१ सम्भृतः। जीवा० २६५। पूर्णः-क्षोदोदे समुद्र। | पुण्णस्स- तीर्थकरगणधरार्चार्यादिना येन प्रकारेण
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[248]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #249
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पुण्यवान् सुरेश्वरचक्रवर्तिमाण्डलिकादिः। आचा० एका-दशममध्ययनम्। अन्त० २३। पूर्णभद्रं १४५
चम्पानगर्यामुद्यानम् तत्रैव यक्षश्च। विपा०९५) पुण्णा- धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य नवममध्ययनम्। महापद्मस्य सेनाकर्मकरदेवः। स्था० ४५९। द्वितीयो ज्ञाता० २५२
जक्षेन्द्रः। स्था० ८५। पुण्यभद्रः वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो पुण्यं- शुभम्। आव० ५९२
देवः। भग. २००| चंपायां चैत्यः। ज्ञाता० १९३। चम्पायां पुता- नातिमन्दा नातित्वरिता। बृह० २५६ अ।
चैत्यः। निर०१९। पुष्पिकायाः पञ्चममध्ययनम्। पुताई- उद्भामिका। बृह. २११ आ।
निर०२११ चम्पानगर्या चैत्यम। निर०४| चम्पायां पुत्तंजीव- वृक्षविशेषः। भग० ८०३।
चैत्यम्। अन्त०१। पूर्णभद्रः चम्पायां चैत्य-विशेषः। पुत्तंजीवय- पुत्रजीवकः वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१॥ अन्त०२५१ विपा० ३३। पूर्णभद्रः-अन्तकृद्दशानां पुत्त- पुनाति पितुराचारानुवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः। षष्ठवर्गस्य एकादशममध्ययनम्। अन्त०१८ उत्त० ३८॥ पुनाति पितर पाति वा पितृमर्यादामिति पुन्नरक्ख- पुण्यरक्षः वैश्रमणस्य पत्रस्थानीयो देवः। भग पुत्रः-सूनुः। स्था० ५१६। पुत्रः-पुत्रमांसोपमया
२०० भोक्तव्यम्, साधो-भॊक्तव्य उपमा। दशवै० १९। पुन्नरूव- पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा वस्त्रम्। बृह. २८ अ। परिधानवस्त्रम्। बृह. २५३ अ। विशिष्टरजोहरणादिद्रव्यलि-असद्भावात् सुसाधुरिति। पुत्तगो-पुत्तलकः। बृह. १४८ अ।
स्था० २७९। पुत्तजम्म- पुत्रजन्म। आव० ३४४।
पुन्नसेण- पुण्यसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशानां पुत्तभंड-पुत्रभाण्डम्। आव० २०५। आव. २७३।
द्वितीयवर्गस्य त्रयोदशममध्ययनम्। अनुत्त० २। पुत्तलपिंड- असद्भावस्थापनायां दृष्टान्तः। ओघ. १२९। पुन्ना- जक्षेन्द्रस्याग्रमहिषी। भग. ५०४ पुत्तलिका- पुस्तकर्मविशेषः। ओघ० १२९।
पुन्नाग- लताविशेषः। आचा० ३० वृक्षविशेषः। भग. पुत्ता- पूर्णभद्रजक्षस्य प्रथमा अग्रमहिषी। स्था० २०४१ ८०३। पुन्नागः-एकास्थिकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१| पुत्ताणुपुत्तियं- पौत्रानुपुत्रिका- पुत्रपौत्रादियोग्यम्। पुप्फ- विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम० ३८1 ज्ञाता० ३९
पुष्पं-कुन्दकलिका। जीवा० १६३| पुष्पशिखावलिरचिता पुत्तिया- चतुरिन्द्रियजीवः। उत्त० ६९६।
चोरी पुष्पचङ्गेरी। आव० ४१। पुष्यः-नक्षत्रविशेषः। चतुरिन्द्रियजन्तु-विशेषः। जीवा० ३२
सूर्य. १३०| पुष्पं-अच्छोदकम्। निशी. १५० अ। पुष्पंपुत्थ- पुस्तं- वस्त्रकृतम्। आव० ७६७।
विकसितं अग्रथितम्। अनुयो० २४। पुष्पंपुत्थारा- तुन्नाकविशेषः।-शिल्पाचार्यः। प्रज्ञा० ५६। वर्णगन्धोपेतम्। आचा० ३५२। पुत्थी- पुस्ती-पोतस्य ज्येष्ठा सुता, ब्रह्मदत्तराज्ञी। पुप्फकंत-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम.
उत्त० ३७९। पुद्गलोवेशः- भगवत्यामुद्देशकः। आव० १०६। पुप्फक- पुष्पकः-देवविमानः। औप० ५२॥ पुधोवणं- पुणो पुणो धोवणं पुधोवणं। निशी० १९८१ | पुप्फकरंडए- पुष्पकरंडकं-हस्तिशीर्षनगरे उद्यानम्। पुत्र- प्रथमो द्विपकुमारेन्द्रः। स्था० ८४| पूर्ण:
विपा. ८९। द्वीपकुमारा-णामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४। पूर्ण-भृतं पुप्फकरंडगहत्थगय- पुष्पकरंडकहस्तगतः। आव० ३७०| प्लुतम्। ज्ञाता० ७१। पूर्ण-स्वरकलाभिः। स्था० ३९६) पुप्फकरंडय- पुष्पकरंडकं राजगृह उद्यानम्। आव० १७२। पुण्यं पुण्यहेतुत्वात्। सूत्र० ४०३।।
पुप्फकुंथुत- पुष्पकुन्थुः पुष्पकीटः। आव० ८३२॥ पुन्नभद्द- चम्पायां जक्षायतनम्। भग० ४८४। भग० ६१८५ | पुप्फकेउ- पुष्पकेतः- सप्ताशीतितममहाग्रहः। स्था० ७९। शुद्धपाणके देवः। भग० ६८०। पूर्णभद्रः-चम्पायां चैत्यवि- जम्ब० ५३५। जम्ब्वैरवते आगामिन्यामत्सर्पिण्यां शेषः। अन्त० १। पूर्णभद्रः-अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य | सप्तम-तीर्थकरः। सम० १५४| पुष्पकेतुः
३८1
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[249]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #250
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पुष्पभद्रनगराधिपतिः। आव०६८८ पुष्पकेतुः-पुष्पपुरे | पुप्फपुर- पुष्पकेतो राजधानी। बृह. २१८ आ। राजा। बृह. २१८ आ।
पुप्फपूयय- पुष्पशेखरम्। ज्ञाता० २०५१ पुप्फग-बुध्नम्। ओघ० ११७
पुप्फबेटिया- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा०४२| पुप्फचंगेरिया- पुष्पचङ्गेरिका। जम्बू. ३९०
पुप्फभई- पुष्पभद्रं-गङ्गातटे नगरम्। आव०६८८। पुप्फचंगेरी- पुष्पचगेरी। जीवा० २१४, २३४|
पुष्पभद्र पारिणामिकी दृष्टान्ते नगरम्। आव० ४२९। पुष्पचङ्गेरी। जम्बू.४१०
पुप्फमाणव- पुष्पमाणवः-लक्षणविशेषः। जीवा. १८९। पुप्फचूल- पुष्पचूलः-वैनयिक्यां पुष्पसेनराजपुत्रः। आव० । | पुप्फमाला- पुष्पमाला अधोलोकवास्तव्या सप्तमा ४२९। पुष्पचूलः-पुष्पभद्रनगराधिपतिः पुष्पकेतोः पुत्रः। दिक्कुमारी। जम्बू० ३८३। पुष्पमाला-अधोलोकवास्तव्या आव०६८८ पुष्पचूलः-अङ्गेषु चम्पास्वामी, यो ब्रह्म- दिक्कुमारी। आव० १२११ पत्न्याश्चुलिन्या भ्राता। उत्त० ३७७)
पुप्फय- पुष्पकः-ईशानेन्द्रस्य विमानकारी देवः। जं०प० पुप्फचूला- पार्श्वनाथस्य प्रथमा शिष्या। सम० १५२॥ ४०५ पुष्पचूला-वैनयिक्यां पुष्पसेनराजपुत्री। आव० ४२९। पुप्फयविमाण- पुष्पकविमानम्। आव० १४४। आर्विकालाभद्वारे आर्या। आव० ५३७। पुष्पभद्रनगरे पुप्फलेस-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम० पुष्पकेतोःपुत्री। आव०६८८ निरयावलिकायाः चतुर्थवर्गे ___३८ साध्वीविशेषः। निर० ३८1 पार्श्वनाथस्य शिष्या। ज्ञाता० | पुप्फवई- पुष्पवती-पुष्पकेतो राज्ञी। बृह० २१८ आ। २५३| पुष्पकेतोः दारिया। बृह० २१८ आ।
__ पुष्पकेतोः देवी। बृह० २१८ आ। पुष्पवती-पारिणा पुप्फचूलिया- पुष्पितायाः अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिका | मिक्यां पुष्पभद्रनगरे पुष्पसेनराज्ञी। आव० ४२९। पुष्पचूडाः। नन्दी० २०८ निरयावल्य्पाङ्गस्य चतुर्थो पुप्फवण्ण-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम० वर्गः। निर०३
૨૮. पुप्फच्छज्जिया- छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या पुप्फवती-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य छायैव छायिका-पुष्पैर्भूता छायिका
चतुर्विंशतितममध्ययनम। ज्ञाता०२५३। पुष्पच्छायिका। जम्बू० ३९०
किम्पुरिसेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिसी। स्था० २०४। पुप्फछज्जिया- पुष्पच्छज्जिका द्वारशाखा। आव० ५१४। मल्लिनाथस्य प्रथमा शिष्या। सम० १५२। पुष्प-वतीपप्फज्झय- विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम। गङ्गातटे पुष्पभद्रनगरे पुष्पकेतुराज्ञी। आव० ६८८१ सम० ३८१
किम्पुरुषस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी। भग० ५०४| पुष्पवतिकंपुप्फतंबोल- पुष्पताम्बूलम्। आव० ८३१|
तुङ्गिकानगर्यां चैत्यम्। भग० १३६। पुप्फथाम- पुष्पस्थानम्। दशवै० ८७।
पुप्फवद्दलं- पुष्पवर्द्दलं यैः क्षितिविभूषा। आव० २३०। पुप्फदंत- हस्तिराजा। स्था० ३०३। पुष्पदन्तः-क्षीरवर- | पुप्फवद्दलयं- पुष्पवईल। आव. १२२॥ दवीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३५३।
पुप्फवासा- पुष्पवर्षा-कुसुमवर्षणम्। भग० १९९। पुप्फदत्त- पुष्पदत्तः-अणगारविशेषः। विपा. ९५
पुप्फवुट्ठी- पुष्पवृष्टिः। भग० १९९। पुप्फपडलग- पुष्पपटलकं-पुष्पाधारभाजनविशेषः। जम्बू० | पुप्फसाल- पुष्पशालः-मगधविषये गूबरग्रामे गाथापतिः। ३९०
आव० ३५५। पुष्पशालः-श्रोत्रेन्द्रियोदाहरणे सुस्वरो पुप्फपडलय- पुष्पपटलकम्। जीवा० २३४॥
गान्धर्वकः। आव० ३९८1। पुप्फपभ-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। सम. पुप्फसालसुय- पुष्पसालसुतः-पुष्पशालगाथापतिपुत्रः। ૨૮)
आव० ३५५ पुप्फपुंजोवयार- पुष्पपुजोपचारः। जम्बू० ३९० पप्फसिंग-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम। सम. पुप्फपुडिया- पुष्पपुटिका। आव० ६७९।
૨૮.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[250]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #251
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________________
[Type text]
पुप्फसालसुय- पुष्पसालसुतः-पुष्पशालगाथापतिपुत्रः।
आव० ३५५ |
पुप्फसिंग- विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० ३८
पुप्फसिद्ध- विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम
३८
पुप्फसुहुमं- पुष्पसूक्ष्मं-वटोदुम्बराणां पुष्पाणि । दशवै० २३०। पुष्पसूक्ष्मं वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि सुक्ष्माणि । स्था० ४३० | वडउंबरादीणि संति पुप्काणि सुहुमाणि । दशकै० १२१ | पुप्फसेण- पुष्पसेनः-पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते पुष्पभद्रनगरे राजा । आव० ४२९|
पुप्फावकिण्णं- पुष्पाणीव इतस्तोsवकीर्णं विप्रकीर्णं पुष्पाव-कीर्णम्। जीवा० ३९८
आगम-सागर-कोषः ( भाग :- ३)
स्थितः। सूर्य० १३०|
पुयलि- पुततटिं-पुतप्रदेशम्। भग० ६७९, ६८४। पुयावइत्ता- प्लावयित्वा अन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत्, पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वा । स्था० २७६। 'प्लुङ्गतौ' इति प्लावयित्वा अन्यत्र नीत्वा आर्यरक्षितवद् या प्रव्रज्या दीयते सा । स्था० १२९| पुरंदर- पूश्च शरीरमप्युच्यते तद्विकृष्टतपोऽनुष्ठानतो, दारयतीव दारयतीति पुरन्दरः। उत्त॰ ३५१। असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरः-इन्द्रः । भग० १७४ पुरन्दरः-लोकोक्त्या च पूर्वारणात् पुरन्दरः । उत्त० ३५० पुरंदरजसा- कुम्भकारकटे देवी । व्यव० ४३२अ । पुरन्दरयसा-जितशत्रुराजकन्या । उत्त० ११४। पुरंदरा- चंपाणामणगरी तत्थ खंदगो राया तस्य भगिणी । निशी० ४४ अ
पुर- नगराद्येकदेशभूतं प्राकारावृतम् । स्था० २९४ | निशी०
२६५अ
पुरओ पुरतः अग्रतः । ज्ञाता० १९२ । पुरओकाउं- अग्रे विधाय पुरस्कृत्य वा प्रधानीकृत्य वा। भग० १२३|
पुप्फावत्त- विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम०
३८|
पुप्फासव- पुष्पासवः । प्रज्ञा० ३६४ । पुष्पासवः-पुष्परससारः । जीवा० ३५१ |
पुप्फाहार- पुष्पाहारकः । निर० २५|
पुप्फिआ - पुष्पिता-यासु ग्रन्थपद्धतिषु गृहवासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सुखिता उषिता भूयः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः पुन-स्तत्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपद्यन्ते ताः पुष्पिताः । नन्दी० २०७
पुप्फिया- निरयावल्युपाङ्गस्य तृतीयो वर्गः । निर० ३,
२१ ।
पुप्फुत्तर- पुष्पोत्तरं-विमानविशेषः। उत्त० २९९। विमानवि-शेषः। आचा० ४२१। पुष्पोत्तरः-शर्कराभेदः। जम्बू० ११८ |
पुप्फुत्तरवडिंसंग
विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० ३८ | पुप्फुत्तरा- पुष्पोत्तरा-आस्वादविशेषः । प्रज्ञा० ३६४ | पुप्कुत्तरि- पुष्पोत्तरावतंसकः- विमानविशेषः । आव ०
१७७ |
पुप्फोत्तरा- पुष्पोत्तरा। जीवा० २७८ |
पुप्फोवयार- पुष्पोपचारः-पुष्पप्रकारः। सम० ६१। पुप्फोवयारसंठित- पुष्पोचारसंस्थितः शतभिषानक्षत्रसं
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पुरकम्म- भिक्षायाः पुरतः प्रथममेव यत्कृतं कर्म कडुच्छुका-दिप्रक्षालनादि तत् पुरःकर्म। ओघ० १७०। पुरःकर्म-अप्कायभ्रक्षिते प्रथमभेदः भक्तादेर्दानातपूर्वं चत्साध्वर्थं कर्म हस्त-मात्रादेर्जलप्रक्षालनादि क्रियते तत्पुरः-कर्म। पिण्ड॰ १४९| पुरक्कार- पुरस्कारः-सद्भूतगुणोत्कीर्त्तनम्।
वन्दनाभ्युत्थाना-सनप्रदानादिव्यवहारश्च । आव० ६५८| पुरस्करः-अभ्यु-त्थानासनादिसम्पादनम्। उत्त० ८३| पुरस्कारः-सर्वकार्ये-ष्वग्रतः स्थापनम्। आचा० २१६ | पुरस्कारः-राजादिकृता-भ्युत्थानादिः । भग० ३९। पुरस्करणं-पुरस्कारः-गुणवान-यमिति गौरवाध्यारोपः। उत्त॰ ५८०। पुरस्कारः- अभिमानविशेषः । ज्ञाता० १४० | पुरक्खड- पुरस्कृतः-परोवर्त्ती। भग० २६। पुरस्कृतःपुरोवर्त्तीि भविष्यन्। भग० २११। पुरस्कृतःअतीसमयः । सूर्य. १९९
पुरच्चरण- पुरश्चरणम्। उत्त॰ २६३। पुरच्छिम- पूर्वदिक् । स्था० ६८ | पौरस्त्यः । भग० ६ । पूर्वस्याम्। जम्बू॰ ७३।
[251]
“आगम-सागर-कोषः " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पुरतोउदया- पुरत उदया। सूर्यः ९५१
क्रियमाणतया तिर्यक्कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका पुरत्थरुयग- पौरस्त्यरुचकम्। ज्ञाता० १२७)
क्रियाविशेषः। उत्त० १४१। परिमम्। ओघ० १०८ पुरत्थि- प्रातः। सूत्र० ४२२१
पूरिमम्। ओघ० १०८ पूरिम-यत् पूरणतो भवन्ति पुरत्थिम- पूर्वादिक्। जम्बू०४७
कनकादियप्रतिभावत्। ज्ञाता० १७९। पुरत्थिमतुंगार- पूर्वतुङ्गारः। आव० ३८७।
पुरिमड्ढ- पुरिमार्द्धपुरत्थिमसत्तासुय- पूर्वसत्त्वासुकः। आव० ३८६। प्रथमप्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानम्। आव० ८५२। पुरवर-नगरैकदेशभूतम्। प्रश्न. ९२। राजधानीरूपम्। पुरिमताल-महाबलराजधानी। विपा० ५५ विनीतानगर्या प्रश्न०६९।
उद्यानस्थानं-पुरिमतालम्। आव० १४७, २१० चित्रपुरवरधम्म- पुरवरधर्मः प्रतिपुरवरं भिन्नः क्वचित् जन्मस्थानम्। उत्त० ३८२। उदितोदयराज्ञः पुरः। नन्दी. क्वचि-विशिष्टोऽपि पौर भाषाप्रदानादिलक्षणः १६६। उदितोदयस्य राजधानी। नन्दी.१६६। नगरम्। सदवितीया योषिद-गेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा। भग० ६५३। पुरिमतालः नगरविशेषः। जम्बू. १५०| दशवै. २२१
पुरिमतालं-पुरविशेष ऋषभदेवस्य पुरसमाणवो- मागधः। ज्ञाता० १३३।
केवलोत्पत्तिस्थानम्। आव० १३९। पुरा- पूर्वभवः। ज्ञाता० २०५१
पुरिमपुर- द्रव्यव्युत्सर्गे गान्धारविषये नग्गतिराजधानी। पुराकाउं- पुरस्कृत्य-आश्रित्य पुरस्कृत्य-मुख्यतयाऽङ्गी- आव० ७२० कृत्य। उत्त० २८३
पुरिमयाल-पुरिमतालं- पारिणाभिक्यां नगरविशेषः। पुराण- पच्छाकडो। निशी० १२० । पच्छाकडो। निशी. आव० ४३० ३२५ अ। पश्चात्कुतः। बृह. १२७ । प्रभूतवर्षघृतः। | पुरिमा- भरतैरावतेषु चतुर्विशतेरादिमाः। स्था० २९६| उत्त० २९४। चिरन्तनम्। स्था० २९४। पुराणो-पुरातनम्। उसभसामिणो सिस्सा। निशी. ३५३ अ। ज्ञाता० ३। बृह. २९३ अ। वृद्धः-शास्त्रविशेषः। स्था० | पुरिमार्द्ध- पूर्वाह्णलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषः। स्था० २६८। ४५२। बहुकालीनम्। स्था० ३६४। पुराणः-अग्रेतनः। । | पुरिय- पुरिकानगरो। आव० २९४। प्रज्ञा० ५०३। पुराणः। आव० ४०८। पुरातनवस्तुविषयम्। | पुरिल्ल- पुरोवर्ती अभिधारित आचार्यः। बृह० १३२ अ। स्था० ४५०। जूर्णम्। ओघ० १३८१ अनेकभवो
पुरातनम्। व्यव० ३१ अ। पौरस्त्यः । आव० ३४८१ पात्तत्वेन। चिरन्तनम्। उत्त० ८५
| पुरिवट्टा- पुरिवर्ता आर्यसार्धपञ्चविंशतिजनपदे जनपदः। पुराणकुम्मास- पुराणकुल्माषं
प्रज्ञा०५५ बहुदिवससिद्धस्थिततकुल्मा-षम्। आचा० ३१५) | पुरिसंतकड- पुरुषादपरः पुरुषः पुरुषान्तरं तत्कृतं वा पुराणगहणं- प्राग्गृहित-चोलपट्टादेः कर्पूरादिनाग्रहणम्।। | पुरुषान्तरकृतम्। आचा० ३२५४ बृह. २८५आ।
पुरिस- पुरुषः-जन्तुः मनुष्यो वा। आचा० २४। पुरुषःपुराणसंविग्ग- प्राक्संविग्नः पश्चात्पार्श्वस्थः। बृह. १४२ सामायिकलाभे दृष्टान्तः। आव० ७५। पुरि शयनात् अ। यस्तु संविग्नमुण्डितत्वात् पूर्व संविग्नः पुरुषः। दशवै० ५५ पुरुष-पारिणामिकादिरूपम्। दशवै. पश्चाद्वसन्नीभूतः स पुराणसंविग्नः। बृह. २०७ आ। ११५ पुरुषः-शकुः पुरुषशरीरं वा। नन्दी० २०५१ पूर्णःपुराणसड्ढ- पुराणश्राद्धः। आव० ७६९।
सुख-दुःखयोः पुरि-शयनाद्वा, पुरुषोजन्तुः। आचा० पुराणिय- पौराणिकम्। आव० ४३२१
१६८। पूर्णः-सुखदुःखानामिति पुरुषः। परि शयनाद्वा। पुरिमंतरंजि-पुरमन्तरन्जि
आव० ४६। पुरुषः पुरुषं ध्वन्नित्यादिवक्तव्यतार्थः त्रैराशिकनिह्नवोत्पत्तिस्थानम्। आव० ३१२
चतुस्त्रिंशत्तमं। भग० ४२५। पुरि शयनात्। पुरुषः-जीवः। परिम- कर्दममयं कुण्डिकारूपं अनेकछिद्रं पुष्पस्थानम्।
| ज्ञाता०४९। दशवै० ८७। आदिमम्। आव० ५६३। पूर्वाः-पूर्व | पुरिसकार- पुरुषकारः-पौरुषाभिमानः। सूर्य० २८६। पुरु
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[252]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #253
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
षकारः-साधिताभिमतप्रयोजनम्। सूर्य.२९६)
पुरुषवरगन्धहस्ती। जीवा० २५५। पुरुष एव पुरुषकारः-अभिमानविशेषः। स्था० २३।
वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती महावीरः। भग०७ पुरिसक्कार- पुरुषकारः पौरुषाभिमानः पुरुषक्रिया वा। | पुरिसवरपुंडरीय- पुरुष एव वरं पुण्डरीकं प्रधानं भग० ५७। पुरुषकारः-पुरुषाभिमानः। भग० ३२३। धवलसहस्र-पन्नं पुरुषवरपुण्डरीकं महावीरः। पुरुषाणांपुरुषकारः-कर्मशत्रून् प्रति स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः। दशवै. तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिव-वरच्छत्रमिव। भग. ११०| पुरुष-कारः- अभिमानविशेषः। प्रज्ञा० ४६३। ७। वरं च तत्पुण्ड-रीकं पुरुषवरपुण्डरीकम्। सम० ३। पुरुषकारः अभि-मानविशेषः। स्था० ११६। पुरुषाकारः- पुरुषो वरपुण्डरीकमिव संसारजलासङ्गादिना पौरुषाभिमानः पुरुषक्रिया। जम्बू० १३०
धर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकः। जीवा० २५५। पुरिसक्कारपरक्कम- पुरुषाभिमानेन
पुरिसविचओ- पुरुषविचयः पुरुषा विचीयन्ते-मृग्यन्ते साधितस्वप्रयोजनः। भग० ३११|
विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन सः। उत्त० ३१७) पुरिसगार- पुरुषकारः-अभिमानविशेषः। ज्ञाता०७१। परिसविजय- पुरुषविजयः-केषाञ्चिदल्पसत्त्वानां तेन पुरिसच्छाया- पुरुषच्छाया-प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य | ज्ञान-लवेनातिधिप्रयुक्तेनानर्थानुबन्धिना विजयात्। दृष्टिपथप्राप्तता। सूर्य. १८१
सूत्र० ३१८५ पुरिसजाता- पुरुषजातानि पुरुषप्रकाशः। स्था० ११३॥ पुरिसविज्जा- उत्तराध्ययनेष् षष्ठमध्ययनम्। सम०६४। पुरिसजाया- पुरुषजातानि पुरुषप्रकाराः। स्था० १३१| | पुरिसवेद- पवणविकोवितपत्तिधणंतरजलिय पुरिसजुग- पुरुषयुगं-पुरुषकालम्। स्था० ४३१। पुरुषयगं- तिव्वएलालदव-ग्गिसमाणोवत्तलक्खणो चुरिसवेदो। पुरिसजुगाइं पुरुषाः-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता | निशी० ३१ अ। युगा-नीव-कालविशेषा इव क्रमसाधर्म्यात्पुरुषयुगानि। | पुरिसवेय- पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः। पुरुषस्य स्त्रियं सम०६८
प्रत्यभि-लाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यकर्मापि पुरुषवेदः। पुरिसजुगा- पुरुषा-गुरुशिष्यक्रमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा | प्रज्ञा० ४६९। पुंसः स्त्रियामभिलाषः। पुंवेदः। जीवा० १८१ युगानि इव पुरुषयुगानि। स्था० १७८१
पुरिसवेसिणी- पुरुषद्वेषिणी देवदत्ता गणिका। दशवै. पुरिसनिवडण- पुरुषनिपतनं महायुद्धादिकार्यभूतम्। भग० १०८1 १९७|
पुरिससिंह- पुरुषसिंहः-सिंह इव सिंह पुरुषश्चासौ पुरिसपुंडरीय- पुरुषपुण्डरीकः-षष्ठो वासुदेवः। आव० १५९। | सिंहश्चेति पुरुषसिंहः। सम० ३। पुरुषाणां मध्ये पुरिसपुर- पुरुषपुरं- नग्गतिराजधानी। उत्त० ३०४॥ शौर्याधिक्येन सिंह इव सिंहः पुरुषसिंहः महावीरः। भग० पुरिसयार- पुरुषकारः-अभिमानविशेषः, पुरुषकर्तव्यम्। ७ पुरुषसिंहः-तीर्थकरादिः। आव० १७९। पुरुषसिंहःस्था० ३०४१
पञ्चमो वासुदेवः। आव० १५९। पुरुषः सिंह इव परिसलक्खण- त्रयोत्रिंशतमकला। ज्ञाता० ३८
कर्मगजान् प्रति पुरुषसिंहः। जीवा० २५५। परिसवरगंधहत्थि- वरश्चासौ गन्धहस्ती च
पुरिससेण- पुरुषसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशानां वरगन्धहस्ती पुरुष एव वरगन्धहस्ती
प्रथमवर्गस्य चतुर्थाध्ययनम्। अनुत्त० १। पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनैव अन्तकृद्दशायां चतुर्थवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम्। अन्त० सर्वगजा भज्यन्तो तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन
१४१ ईतिपरचक्रदुर्भिक्षजनडमरकादीनि दुरितानि परिसादाणिय- पुरुषश्चासौ पुरुषाकारवर्तितया शतयोजनमध्ये नश्यन्तीति अतस्तेन
आदानीयश्च आदेयवाक्यतया पुरुषादानीयः। उत्त. पुरुषवरगन्धहस्तिनः। सम० ३१
२७०| पुरुषैर्वाss-दानीयो ज्ञानादिगुणतया। उत्त० २७० पुरिसवरगंधहत्थी- पुरुषोवरगन्धहस्तीव
पुरुषादानीयः- पुरुषाणां मध्ये आदानीयः-उपादेयः परचक्रदुर्भिक्षमारिप्र-भृतिषुद्रगजनिराकरणेनेति | पुरुषश्चासावादानीयश्चेति वा। स्था० ३६९।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[253]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #254
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[Type text]
पुरिसादाणीय- पुरुषैरादीयते पुरुषादानीयः। निर० २२। पुरुषाणां मध्ये आदानीयः- आदेयः पुरुषादानीयः । भग० २४८
आगम-सागर-कोषः ( भाग :- ३)
पुरिसुत्तम- पुरुषोत्तमः-चतुर्थो वासुदेवः । आव० १५९| पुरुषाणामुत्तमः। जीवा० २५५ । पुरुषाणां मध्ये तेन तेन रूपाद्यतिशयेन ऊर्ध्ववर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः महावीरः । भग०७
पुरिसोत्तम- पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोद्ग-तत्वाद् ऊर्ध्ववर्त्तित्त्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः। सम० ३।
पुरिसोवयार- पुरुषोपचारः- कामशास्त्रप्रसिद्धः विपा० ४५| पुरीष- पची | ओघ० १५२ | विट् । नन्दी० १५२॥ ज्ञाता० ४९| पुरुष- शङ्कुः पुरुषशरीरं वा । नन्दी० २०५ | पुरुषच्छाया- चक्षुः स्पर्शः। जम्बू० ४४२ | पुरुषविज्ञान- किमयं प्रतिवादी पुरुषः साङ्ख्यः सौगतोऽन्यो वा प्रतिभादिमानितरो वेति परिभावनम् । उत्त० ३९|
पुरुषवृषभा- किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| पुरुषा- किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| पुरुषोत्तमा- किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०| पुरेकडं- पुरा-पूर्वं तत्कालापेक्षया कृतं विहितम् । उत्त
३३५|
पुरेकम्म- पुरः भोक्ष्याम इति पुरः कर्म । दशवै० २०३ | पुरेकम्मकय- पुरः-अग्रतः कृतं प्रक्षालनादिकं कर्म-क्रिया
यस्य । आचा० ३४१|
पुरेकम्मिया- पुरः कर्म यस्यामादौ सा प्राभृतिका पुरःकर्मिका । आव० ५७६ ।
पुरेक्खड- पुरस्कृतः-अनागतकालभावी। प्रज्ञा० ५६३। पुराकृतं-पूर्वभवकृतम्। प्रश्न० २२
पुरेवाय मनाक् सनेहवाताः । भग० २१२ ॥ पुरेवाया- पुरोवाताः-मनाक् स्नेहवाताः । ज्ञाता० १७१| पुरेसंखडी- पुरःसङ्खडी पूर्वाह्णसंखडी। बृह० १३५। पुव्वदिव्वे पुरे संखडी | निशी० ३१० अ । पुरेसंथुया- पुरःसंस्तुताः भ्रातृव्यादयः । आचा० ३३६ | पुरःसंस्तुताः-यदन्तिके प्रव्रजितस्तत्संबधिनः। आचा०
3931
पुरोसंखडी- पूर्वाह्णे या क्रियते पुरःसङ्खडी । पूर्वाह्णेया
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
संखडी । बृह० १७९ आ ।
पुरोहड - गृहपुरतः । आव ० १९४ । अग्रद्वारः । ओघ० १९८ गिहस्स वा पासे अंगणं । निशी० १२७ अ | गृहप
श्चाद्भागः। बृह॰ ३१०आ। दुःशीलजनपरिवृतम्, बृह० ९ अबृह० ४९ अ
पुरोहितअरयण- पुरोहितरत्नं शान्तिकर्मकृत्। जम्बू॰
२६३|
पुरोहित-सपुरजणवयस्स रण्णो जो होमजावादिएहिं असिवादि पसमेति। निशी० २०९ अ । पुरोहितःशांतिकर्मकारी । स्था० ३९९ |
पुरोहिरयण- पुरोहितः शान्तिकर्मकारी । स्था० ३९८ | | पुरोहिय- पुरोहितः कार्य प्रति प्रवर्त्तयिता। सूत्र० २८३ पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी। प्रज्ञा० १०६। पुरोहितः शान्तिकर्मकारी। जीवा॰ ३९३। पुरोहितः शान्तिकर्ता । उत्त॰ ३९७। पुरोहितः शान्तिकर्मकारी । प्रश्र्न० ९६ । पुरोधा-पुरोहितः शान्तिकारी। स्था० ४६२। पुरोहितःशान्तिकर्मकारी | प्रश्न० ७९ |
पुलंपुलं- पुलम्पुलं-अनवरतम्। औप० ४६ । अनवरतम्।
प्रश्न० ५०|
पुलंपुलप्पभूया- पुलम्पुलप्रभूता-अनवरतोद्भूता । औप०
४६।
पुलक- पृथ्वीकायभेदः । जीवा० २३ | ग्राहविशेषः । सम०
१३५|
पुलग- पुलकः-लवः। सूर्य॰ ४। पुलकः-बिन्दूः । सूर्य० ४। पुलकः-ग्राहविशेषः। जीवा० ३६। पुलको लवः। राज० ५७। पुलको-द्रव्यत्वे सति बिन्दुः। राज० ५७। पुलकः रत्नविशेषः। ज्ञाता० ३४ । पुलकः- लवः । निर० २। पुलकः-लवः। ज्ञाता० ९। पुलकः - लवः । विपा० ३४ | पुलनिप्पुलाय- पुलाकनिष्पुलाकः- संयमासारतापादकदोषरहितः मुनिः । दश० २६८
पुलय- पुलकः- लवः । भग० १२ | पुलकः लव, सारो वा वर्णातिशयः। औप॰ ८३। पुलककाण्डं-रत्नप्रभाखरकाण्डे पुलकानां सप्तमं, विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९| पुलकः। प्रज्ञा० २७। पुलकः-सारः वर्णातिशयः, बिन्दुः । भग॰ १२। पुलकः-लवः। जम्बू० १५। पुलकः- मणिभेदः ।
उत्त० ३८९ |
पुलया- ग्राहविशेषः । प्रज्ञा० ४४ |
[254]
“आगम-सागर-कोषः " [३]
Page #255
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[Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text] पुला- पुलकिका लघुतरस्फोटिका। स्था० ४२१। पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणम्। जम्बू. ४८५। पुलाकत्वं- ऋद्धिविशेषः। स्था० ३३२॥
चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणं पूर्वाङ्गम्। स्था० ८६। पूर्वाङ्गपुलाकादि-साधुभेदविशेषः। भग०४।
चतुरशीतिवर्षलक्षानाम्। भग० २११, ८८८1 पूर्वाङ्गःपुलाकिमिया- पुलाकृमिः अपानवायुप्रदेशोत्पन्ना कृमिः। प्रथमदिवसनाम। ज० ४९०। पूर्वाङ्गः। सूर्य. १४७ जीवा० ३१| पुलाकिमिया नाम
चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि यानीति गम्यते तदेकं अपानवायुप्रदेशोत्पन्नकृमिः। प्रज्ञा० ४१।
पूर्वाङ्गम्। जम्बू. ९१। पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिलक्षवषैः। पुलाग- असारः। उत्त० २५६। प्लाकः-निर्ग्रन्थे प्रथमभेदः। अनुयो० १०० व्यव० ४०२ । असारं-निष्पावादीनि धान्यानि पुव्वंति-प्लवन्ते-गच्छन्ति। भग०६७० विकटपलांदुलसुणादीनि दुर्गन्धानि
पुव्वंभागा- पूर्वभागानि चन्द्रस्याग्रयोगीनि। स्था० ३६८। क्षीरचिंचिणिकाद्राक्षरसा-दीनि वा। बृह. २११ अ। सूर्य. १०४१ पुलाकम्-असारं वल्लचनकादि। उत्त० २९५। पुलाकं- पुव्व- पुरा-परिचिता मातृपित्रादयः पूर्वः। उत्त० २९०। यवनिष्पावादि। आचा० ३१५
पूर्वः- परिमाणं वर्षाणां सप्ततिकोटिलक्षाः षट् पुलागलधि-लद्धिविसेसो। निशी० २७६ अ।
पञ्चाशच्च कोटिसहस्राः। आचा० २४६। पृ पुलात- पुलाकः-आसेवापुलाकः। स्था० ३३७। पुलाकः- 'पालनपूरणयो' रित्यस्य धातोः पूर्यते प्राप्यते पाल्यते तंदुलकणशून्या पलंजि तद्वद् यः तपःश्रुतहेतुकायाः च येन कार्यं तत्पूर्वम्। नन्दी०१४१| विशिष्टं पूर्वोपलब्धं सङ्घा-दिप्रयोजने चक्रवर्त्यादेरपि चूर्णन समर्थाः चिह्न पूर्वम्। अनुयो० २१३। पूर्व-चतुरशीतिः पूर्वाङ्गलब्धेस्सजीवनेन ज्ञानादयतिचारसेवनेन वा
शतसहस्राणि। जीवा० ३४५। पूर्वश्रुत-प्रत्याख्यानम्। संयमसाररहितः स पुलाकः। स्था० ३३६)
आव० ४७९। पूर्व-कारणम्। दशवै० ८२। 'पृपालनपुरणयो' पुलाय- पुलाकः-निस्सारो धान्यकणः पुलाकवत्पुलाकः रित्यस्य धातोः पूर्यते प्राप्यते च येन कार्यं तत्पूर्व संयमसारापेक्षया स च संयमवानपि मनाक् तमसारं औणादि-कोवक्प्रत्ययः, कारणमित्यर्थः। नन्दी० १४१। कुर्वन् पुलाक इत्युच्यते। भग० ८९१।
पूर्वाङ्गमेव चतुरशीतिलक्षगुणितं पूर्वम्। स्था० ८६। पुलिंद- पुलिन्दः-शबरः-अनार्यविशेषः। भग० १७०| उस्सगो। निशी. १४६ अ। चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशपलिन्द्रः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. १४॥ तसहस्राणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्वम्। जम्बू. ९१। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५। पुलिन्द्रः
चतुरशीत्त्या लक्ष्यैः पूर्वाणैः पूर्वम्। अनुयो० १०० भिल्लजातिविशेषः। आव० ८२९। पुलिन्द्रः। ओघ० २२३। पूर्वः-अतीतः। प्रज्ञा० ५०९। पूर्वः-कालमानविशेषः। भग० पुलिन्द्रः-देश-विशेषः। ज्ञाता०४१।
२७५। पूर्वः। भग० ८८1 पक्-पौर्णमासिरमावासिश्च। पुलिंदि- पुलिन्द्रीः धात्रीविशेषः। ज्ञाता०४१।
भग० ५७७। पूर्व-अतिक्रान्तम्। आचा० १६७। पूर्वः-असंयपुलिंदी-म्लेच्छविशेषः। भग० ४६०।
मोऽनादिभवाभ्यासात्तेन। आचा. १९२१ पुलिअ-पुलितं-गतिविशेषः। जम्बू० २६५१
पव्वकालिवयणं- पूर्वकालिकवचनं वक्तुकामस्य वचनाद् पुलिन्द्र-म्लेच्छविशेषः। आचा० ३७७।
यत् पूर्वतरमभिधीयते पराभिप्रायं लक्षयित्वा पुलिन्द्रदेशजः- पुलिन्दुयः। जम्बू. १९१।
तत्पूर्वकालिकं वचनम्। प्रश्न० ३० पुलिय- पलितं-गतिविशेषः। भग० ४८० औप०७०| जम्ब० | पुव्वकीलिय- स्त्र्यादिभिरेव पूर्वकालभावि ५२९।
दुरोदरादिरमणा-त्मकं पूर्वक्रीडितम्। उत्त० ४२६। पुलिस- पुरीषम्। उत्त० १३७
पूर्वक्रीडितं-गृहस्था-वस्थायां द्यूतादिरमणलक्षणम्। पुलीन्द्र- वनचरः। प्रश्न० ३८१
स्था० ४४५। पूर्वक्रीडितं- गृहस्थावस्थाश्रयं पुलुय-पुलकः-ग्राहविशेषः। प्रश्न
द्यूतादिक्रीडनम्। प्रश्न० १४०। पुव्वंग- पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि। जीवा० ३४५] | पुव्वग- श्रामण्यपूर्वकम्। ओघ० २०३।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[255]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पुव्वगत- सर्वश्रुतात्पूर्वं क्रियन्त इति पूर्वाणि उत्पादपूर्वादी | पूर्वरात्रापररा-त्रकालसमयः। विपा. ८६। चतुर्दशः तेषु गतः-अभ्यन्तरीभूतस्तस्य भावः पूर्वगतः। | पुव्वरत्तावरत्तकाल- रात्रौ प्रथमचरमौ प्रहरौ। दशवै. स्था० ४९१। पूर्वगतं दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गतं २८३ प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छ्रुतं तत्पूर्वगतम्। | पुव्वरत्तावरत्तकालसमय- प्रदोषसमयः-प्रातःसमयः। स्था० ११७
जीवा० १९३ पुव्वगय- तेषु गतं-प्रविष्टं यत् श्रुतं तत्पूर्वगतं-पूर्वाण्येव। | पुव्वरयं- पूर्वरतं-गृहस्थावस्थाभाविनी कामरतिः। प्रश्न स्था० २००। तीर्थकरः तीर्थप्रवर्तनाकाले गणधराणां १४० सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व-पूर्वगतम्। सम० १२८।
पुव्वराय- पूर्वरात्रं-रात्रेः प्रथमो यामः। आचा. २१० पुव्वढ़िया- पूर्वस्थिताः-क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः। ओघ० ९४। | पुव्वव- पूर्ववत्-पूर्वोपलब्धविशिष्टाचिह्णद्वारेण पुव्वण्हिकाइकालाः- पूर्वाह्णादिकालः। उत्त० २२६। गमकमनुमानम्। अनुयो० २१३। पुव्वण्हिय- पौर्वाङ्गिकम्। आव० ३६६|
पुव्वविढत्तं- पूर्वाजितम्। आव० ५५८१ पुव्वतरय- पूर्वमेव। आव० ७२५।
पुव्वविदेह- पूर्वस्यां दिशि विदेहः पूर्वविदेहः। स्था० ६८५ पुव्वतव- पूर्वतपः-सरागावस्थाभावि तपस्या। भग० १३८ नीलवर्षधरपर्वते कूटम्। स्था० ७२। पूर्वविदेहो यो मेरोर्जपुव्वतवसंजमा- सामादियं छेदोवट्ठावणियां
म्बूद्वीपगतः प्राग्विदेहः। जम्बू० ३२०/ परिहारविसुद्धियं सुहुमसंपरागं च, एते पुव्वतवसंजमा। पूर्वविदेहाधिपकूटम्। जम्बू० ३७७। पूर्वविदेहः। आव० निशी. ७ ।
११७। जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहः। ज्ञाता० २४२। पुव्वदारयं- यस्मिन् नक्षत्रे पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः । पुव्वविदेहकूड- निषधवर्षधरपर्वते पूर्वविदेहपतिकूटम्।
शुभमुपजायते तन्नक्षत्रं पूर्वद्वारकम्। सूर्य. १७४। ज० ३०८ पुव्वदारिआ- अभिजिदादीनि सप्तदशनक्षत्राणि पुव्वविसारया- पूर्वविशारदाः-पूर्वेषु विपश्चितः। आव० २६। पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वदिशि येषु गच्छतः शुभं भवति। पुव्ववेताली- पूर्ववैताली पूर्वसमुद्रतीरम्। प्रज्ञा० ३२७। सम० १३
पुव्ववेतालीया- पूर्ववैतालिका। दशवै० ५५ पव्वदारिता- पूर्वदवारिकाणि पर्वस्यां दिशि गम्यते पव्वसंगइय- पूर्वसङ्गतिकः। ओघ० १५९। पूर्वसङ्गतिकः। येष्वित्यर्थः। स्था० ४१४॥
आव. २९१। पुव्वदेस- पूर्वदेशः। आव० २९५१
पुव्वसंगतिए- पूर्वसङ्गतिकः। ज्ञाता० ३४। पुव्वधर- पूर्वाणि धारयतीति पूर्वधरः दशचतुर्दशपूर्ववित्। | पुव्वसंगतिय- पूर्वसङ्गतिकः-गृहस्थत्वे परिचितः। भग. आव०४८
१६७ पुव्वपक्ख- पूर्वपक्षः। आव० ३१९॥
पव्वसंजोग- पूर्वसंयोगः मातापित्रादिभिः। आचा० ४३। पुव्वपच्छिम- पूर्वपश्चिमम्। जीवा० २८६।
पूर्वसंयोगः पूर्वेर्मातृपित्रादिभिः संयोगः-सम्बन्धः पुव्वपडिलेहिए- गहितो। निशी. १४७ आ।
पूर्वसंयोगः। उत्त० २९० पुव्वपरिच्चओ- पूर्वपरिचयः। आव० ३४३।
पुव्वसंठिती- पूर्वसंस्थितिः-भवितव्यता। आव० ८२४। पुव्वमहाकडे- यान्येकखण्डानि अतूर्णितानि च तानि यथा | पुव्वसंथव- पूर्वसंस्तवः-मात्रादिकल्पनया परिचयकरणम्। कृतानि पूर्व-प्रक्षालयति। ओघ० १३२
पिण्ड० १२१| पुव्वरत- पूर्वरतं-गृहस्थावस्थायां स्त्रीसम्भोगान पुव्वसंथया- पूर्व-वाचनादिकालदारतः संस्तुतः-परिचितः स्था०४४५
सम्यक्स्तुता वा पूर्वसंस्तुता। उत्त०६५। पुव्वरत्त- पूर्वरात्रः-रात्रैः पूर्वो भागः। १२७। रत्तीए पढमो | पुव्वलत्त- पूर्वसंलप्तः। आव०७२५ जामो। दशवै० १६४ आ।
पुव्वसूर- पूर्वसूर्य-पूर्वाणिः । आव० १३५। पुव्वरत्तावरत्त- रात्रैः पूर्वभागे पश्चाद्धागे वेति, | पुव्वहोत्त- पूर्वाभिमुखः। आव० २९०|
सपना
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[256]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #257
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[Type text]]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पुव्वा-जिगमिषितदिशं गच्छतोऽभिमुखा दिक पूर्वा । | पुव्वुद्दिढ- आयरिएण जीवं तेण उद्दिष्टं तं। निशी० २९। जम्बू. ५२७। पूर्वां। आव०६३०
पुव्वोवठ्ठपुराण- पूर्वमुपस्थ-उपस्थितः पूर्वोपस्थितः स पुव्वाइ- पूर्वाणि-प्रभूतानि वर्षाणि। आचा० २४५। चासौ पुराणश्च पूर्वोपस्थपुराणः। व्यव० ४४९ अ। पुव्वाउत्त- पूर्वमेव दण्डधारिघोषणानन्तरमुपयुक्तः। | पुष्कलः- समर्थः। आचा० ४८॥
ओघ० २०३। आगमनात् पूर्वं तुल्यमारब्धो रन्धनायाः। पुष्टका- कम्बिका। जीव० २३७। आगमनात् पूर्व गृहस्थैः स्वभावेन राध्यमानः। व्यव० पुष्पक- यानविमानम्। प्रश्न० ९५१ वि० १३५आ। पूर्वयुक्तं पूर्वतप्तम्। बृह० २९८ आ। पुष्पकेतु- पुष्पपुरनगरे राया। बृह. २१८ आ। पुव्वाआसाढा- नक्षत्रम्। स्था० ७७
पुष्पचूल- पुष्पकेतोः पुत्रः। बृह० २१८ आ। पुव्वाणुन्ना- यो अवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः स | पुष्पचूला- पुष्पवत्याः पूत्री। नन्दी . १६६ यत्या-श्चात्यैरेवमेव परिभुज्यते। न भूयोऽनुज्ञाप्यते सा | पुष्पपुर- पुष्पकेतो राजधानी। बृह० २१८ आ। पूर्वानुज्ञा। बृह० १०८ आ।
पुष्पफलीकुसुम- कूष्माण्डीकुसुमम्। जीवा० १९१। पुव्वाणुपुव्वि- पूर्व श्च स पूर्वानुपूर्वः एत्थ णिदरिसणं | पुष्पमाण- नाट्यविशेषः। जम्बू० ४१४ एक्कग्गस्य दो अणु तेयगितस्स पुव्वादुग्गस्सतित्ति पुष्पमालिनी- वापीनाम। जम्बू० ३७१। अणुतेयचउक्कग्गस्स पुव्वो अहवा पूर्व वा अनुपूर्वः स पुष्पमित्र-तगरायामाचार्यस्य शिष्यः। व्यव० ३१७ एव पूर्वानुपूर्वी-अणुपरि-वाडी। निशी. १३५आ। पुष्पलम्बूसक- गण्डूकः। राज० १०४। गण्डूकः। जीवा० पुव्वाणुपुव्वी- पूर्वः प्रथमस्तस्मादारभ्यानुपूर्वी-अनुक्रमः २५३। गेन्दूकः। जम्बू० २७५ परि-पाटीः-निक्षिप्यते-विरच्यते यस्यां सा पूर्वानुपूर्वी।
- वापीनाम। जम्बू० ३७१। पुष्पचूलामाता। नन्दी. अनुयो०७३
१६६| पुव्वापोहवता- पूर्वा प्रौष्ठपदा। सूर्य. १३०|
पुष्पा(पुंस्फ)लिका- सुवर्णयूथिका। प्रज्ञा० ३६३। पुव्वाफग्गुणी- पूर्वाफाल्गुनी। सूर्य. १३०|
पुष्पावलिः- नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४। पुव्वालोइयकवडो- पूर्वालोचितकपटः। आव० ४०१। पुष्पोत्तर- दशमदेवलोके विमानः। सम. १०६। पुव्वावर- पूर्वापरः। सूर्य. १५५
पुष्पोतरा- वापीनाम। जम्ब० ३७१। पुव्वावरण्हकालसमय- प्रत्यपराह्णकालसमयो-विकालः। | पुसकीइलगं- पंसकोकिलगं-पुमांश्चासौ कोकिलश्च ज्ञाता०६०। पाश्चात्यापराह्णकालसमयः-दिनस्य परपुष्टः पस्कोकिलकः। स्था० ५०२। चतुर्थ-प्रहरलक्षणः। निर० २७५
पुस्स-विधिनाथप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१| पृष्यःपुव्वावरसंजुत्तं- पुव्वसुत्तनिबद्धो पच्छासुत्तेण
सुविधिजिनप्रथमभिक्षादाता। आव० १४७ अविरुज्झमाणो पुव्वावरसंजुत्तं। निशी० ३६ अ। | पुस्सभूती- पुष्यभूतिः-सूक्ष्मेध्याने कूशल आचार्यः। व्यव० पुव्वासाढाणक्खत्तं- पूर्वाषाढानक्षत्रम्। सूर्य. १३०| ___१९८ आ। २०० आ। पुव्वाहारिय- पूर्वाहतः-पूर्वकाल एकीकृतः सङ्गृहीतः पुस्सायण- पूष्यायनं रेवतीगोत्रम्। जम्बू. ५००/ अभव्य-हृतो वा। भग० २३
पुस्सायणसगोत्त- पौष्यायनसगोत्रं रेवतीनक्षत्रगोत्रम्। पुव्वाहूत्त- पूर्वमुखः। आव० २१५॥
सूर्य. १५० पुव्विं- पूर्व-पूर्वानुभूतम्। आचा० १६७।
पुहत्त- पृथक्त्वं-विस्तारः। दशवै० १६ आ। पृथकत्वंपुव्विआ- पूर्विका कारणिका। नन्दी. १९०
द्विप्रभृतिरानवभ्यः। जीवा० ४०। पृथक्त्वं-बहुः। जीवा. पुब्वियावणं- कान्दविकापणम्। आव० ४१७
११९। पृथक्त्वं-द्विप्रभृतिरानवभ्यः। प्रज्ञा० २९६) पुव्वुच्चिय- पूर्वाविचितः-प्राग्गृहीतः। आव० ५३७५ पहविविजयलंभ- पृथ्वीविजयालाभमिति। जम्बू. २१३। पुव्वुहाइ- पूर्व-प्रव्रज्या अवसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातुं पुहवी- पृथिवी-शातवाहनस्याग्रमहिषी। व्यव० १६८ अ। शीलमस्येति पूर्वोत्थायी। आचा० २०९।
सुपार्श्वनाथमाता। सम० १५१। तृतीयवासुदेवमाता।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[257]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #258
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
सम० १५२। पृथिवी-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या तृतीया | पूइकम्म- पूतिकर्मदिक्कुमारी महत्तरिका। जम्बू० ३९१। पृथ्वी
सम्भाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम। दशवै. पश्चिमरूचकवास्तव्या दिक्क्मारी। आव० १२२पृथ्वी- १७४१ सुपार्श्वमाता। आव० १६०| पृथ्वी
पूइपिन्नाग- पूतिपिन्नागं-कथितखलम्। आचा० ३४८। स्वयम्भूवासुदेवजननी। आव० १६२ पृथिवी
पूतिपिण्याकं सर्षपखलम्। दशवै०१८५ इन्द्राग्निवायूभूतीनां माता। आव० २५५।
पूइम- पूज्यः । दशवै० २७५१ पुहुत्तं- पृथकत्वं-बहुत्वम्। भग० २३१। पृथक्त्वं- पूइय- वृक्षविशेषः। भग० ८०३। पूतिः-एकास्थिकवृक्षविद्विप्रभृति-रानवभ्यः। आव० ३६३। पृथक्त्वं
शेषः। प्रज्ञा० ३१। पूजितः पूष्पादिना। भग० ५८२। एकद्रव्याश्रितानामुत्पा-दादिपर्यायाणां भेदः पृथुत्वं वा पूजितः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना। द्रव्यस्तवेन। विस्तीर्णभावः। स्था० १९११ पृथक्त्वं
नन्दी . १९२ विप्रभृतिरानवभ्यः। भग० २९। पृथक्त्वं-विप्रभ- पूइयपूता- पूजितेन पूजा पूजितपूजा। आव० २३५ तिरानवभ्यः। भग० ३१| पृथक्त्वं-अनेकत्वं
पूई- पूति-कुथितं स्वस्वभावचलितम्। जीवा० २८२। यमलशादि-शब्दवत्। स्था० ४७१।
पूतीः- परिपाकतः कुथितगन्ध पक्वरक्तं वा पूतिः। पुहत्तवियक्केसविआरी- पृथक्त्वेन
उत्त० ४५ एकद्रव्याश्रितानामुत्पा-दादिपर्यायाणां भेदेन वितर्को- । पूईकम्म- पूतिकर्म-पूतीकरणम्। पिण्ड० ८२ विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणे | पूए- समूर्छिममनुष्योत्पत्तिस्थानम्। प्रज्ञा० ५० यत्र तत् पृथक्त्ववितर्क, तथा विचारः-अर्थाद्व्यञ्जने पूगफलं-तंबोलपत्तसहिया खायइ, तंबोलदव्वं। निशी व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभतियोगानां चान्य
६०अ। आव० ८१९ स्मादन्यतरस्मिन् विचरणं सह विचारेण यत्तत्स पूजयामु-पूजयामः-सत्कारयामः। सूत्र०८७) विचारि। औप.४४१
पूजिय-पूजितं श्लाघितम्। बृह. २८७ अ। पंठी- चक्रपरिधिरूपं पृष्ठम्। जम्बू० २११।
पूज्ज-पूजयितुमर्हः पूज्यः आचार्यादिः। उत्त०६५। पुअ- पूजां-वस्त्रपात्रादिभिः सपर्याम्। उत्त० ४१६। यं पूण्णभद्द- चंपायां चैत्यम्। ज्ञाता० १५६। कणि-कादिमयम्। दशवै. १७६।
पूतणा- पूतना-कृष्णपितृवैरिणी विकुविंतगन्त्रीरूपा पूअण-पूजन-विशिष्टवस्त्रादिभिः प्रतिलाभनम्। उत्त० | विद्याधर-योषित्। प्रश्न० ७५ ૬૬૮
| पूतफलिवण-पूगीफलवचनम्। जीवा० १४५। पूअणहा- पूजार्थ-स्वपक्षपरपक्षाभ्यां सामान्येन पूजा पूतरक-उदकाश्रितजीवः। आचा० ४६। भवि-ष्यन्ति। दशवै. १८७
पूतरग-बूतरकः-अप्काये जीवविशेषः। आव० ८३११ पूअणवत्तिया- पूजनप्रत्ययं-अभ्यर्चननिमित्तम्। आव पूता-पूजा स्तवादिरूपा। स्था० ३५८१ ७८६|
पूतासक्कार-पूजा-स्तवादिरूपा तत्पूर्वकः सत्कारो-वस्त्रपूअफलि- पूगफली-क्रमुकतरुः। जम्बू. ९८॥
भ्यर्चनं, पूजायां वा आदरः पूजासत्कारः। स्था० ३५८1 पूआ- पूजा-वस्त्रमाल्यादिजन्या। आव०४०६)
पूजासत्कारं-पुष्पा नवस्त्राद्यर्चनम्। स्था० ३८९। पूइंतराणि- पूत्यन्तराणि-देहस्य मध्ये पूतिविशेषान्। | पति- वावण्णं-विणटुं कहितं। निशी० १२८ अ। पूतिःआचा० १३७
कुथितः। उत्त० २८४। पूइअ- पूजितं-सेवितं आचरितम्। दशवै० १८९। पूतंनि- पूतिगन्धय-अशुचिः। सम० १३६| बुसीकृतम्। जम्बू० २४४।
पतित-अविसोधिकोटिदोसजएणं सम्मिस्सं पतितं पूइकड- पूतिकृतं- आधाकर्मादिसिक्थेनाप्युपसृष्टम्। भण्णति। निशी० १२८ अ। सूत्र०४१।
पतिय-सिद्धत्थपिंडगो। दशवै.८६पतिक-जीर्णतया
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[258]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #259
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
कुथितप्रायम्। ज्ञाता० १६०| शुद्धमपि
बृह. १९आ। सादरस्निग्धमधुरभोजनादिरूपा। बृह. कर्माद्यवयवैरपवित्री-कृतं पूतिकम्। स्था०४६०। १२४ अ। पूज्याः -स्वामिकलाचार्यादयः। बृह. २०० आ। पूपलिय-पूपलिका। बृह० ७५आ।
पूजा-पुष्पादिभिः। स्था० १३७५ पूपा-अपूपः-भक्ष्यपिष्टपदार्थः। पिण्ड० १५४१ | पूयासंसप्पतोग- पूजा-पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति पूपिकापण-आपणः। नन्दी० १५०
पूजाशंसा-प्रयोगः। स्था० ५१५ पूय- यद् आधाकर्मावयवसंपृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति | पूयाहिज्ज-पूजाहार्यः। स्था० ३४२। पूजाहार्यः-पूजितभवति तद्। सूत्र० १८०। रुतं। निशी० ६१ अ। पूतिः- पूजकः। पिण्ड० १३१॥ अशुचिविशेषः। प्रज्ञा० ८०| पूतिक-कुथितम्। भग० ४७०५ | पूरंती- पूरयंती। बृह० ५९ आ। पूयम्। आचा० ३५२। पूयम्। ज्ञाता०४९।
| पुर- पूरः-पूर्णता। उत्त० ३०५। परः-क्षीरप्रवाहः। उत्त. पूयइ-आपूपिकः। नन्दी. १६५
६५३। पूर्णम्। आव० ८२६। पूरः-समूहः। प्रश्न० ६२ पूयण-पूजनं वस्त्रादिलाभरूपम्। सूत्र०७४। पूजनं- | पूरण- पूरणा-असुरकुमारगतिशक्तिप्ररूपणायां गन्धमा-ल्यादिभिः समभ्यर्चनम्। जम्बू. ३९८पूजनं- विन्ध्यपादमूले बेभेले'-नामकसन्निवेशे गाथावती। गन्धमा-ल्यादिभिरभ्यर्चनम्। आव० ७८७।
भग० १७१। पूरणः-अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य वत्थादिदाणं। दशवै. १६३ आ। पूजनं
सप्तममध्ययनम्। अन्त० ३। कर्णमलादिना भरणम्। गन्धमाल्यादिभिः-समभ्यर्चनम्। राज० २७।
आव०७६४। अन्तकृद्दशायां प्रथम-वर्गस्य पूयणा- पूतना-दुष्टव्यन्तरी। पिण्ड० १२६। पूतना- सप्तममध्ययनम्। अन्त० ३। भगवत्यामभिहितो डाकिनी गड्डरिका वा। सूत्र० १००। पूजना-कामविभूषा। बालतपस्वी। उपा०१५ महाबलबालवयंसकः। ज्ञाता० सूत्र० १००। पूतना। निशी० ९५आ।
१२११ पूयणिज्ज-पूजनीयं पुष्पैः। औप० ५। पूजनीयं
पूरणतापसः-कूणिकजीवावस्थानान्तरम्। भग० ३२२। वस्त्रादिभिः। सूर्य. २६७।
पूरयंतीपर्षद्-अधीतश्रुता। बृह० ५०| पूयफल-वृक्षविशेषः। भग० ८०३।
पूरावेरय- पूरः-पूर्णता अवरेको-रिक्तताऽनयोः समाहारे पूयफली- वलयविशेषः। प्रज्ञा० ३३।
पूरा-वेरकम्। उत्त० ३०५४ पूयरअ- पूतरकः। आव० ६२५१
पूरिअ- पूरितं-परिपूर्णव्याप्तम्। प्रभूतीकृतं पूयलग-पूपम्। आव० ८१४। व्यव० १०७ अ।
स्वप्रमाणमानीतं स्वव्यक्तौ समर्थीकृतं वा। नन्दी. पूयलिय-पूपलिका। आव० ६२११
१८०१ पूयलियाखाओ- पूपलिकाखादकः-अव्यक्तवाक्वृद्धः। बृह. | पूरितगण्डपार्श्व- रूपवान्। ओघ० १८३।
पूरिम-पूरिम-मृन्मयमनेकछिद्रं, वंशशलाकादिपञ्जरं वा पूया-पूजनं पूजा
यत्पु-ष्पैः पूर्यत इति। स्था० २८६। येन द्रविणवस्त्रान्नपानसत्कारप्रणामसेवाविशेष-रूपा। वंशशलाकामयपञ्जर-कादि कूर्चादि वा पूर्यते। भग० आचा. २६। पूता-पवित्रा पूजा वा भावतो देवता-र्चनम्, ४७७। येन वंशशलाकादिम-यपञ्जरी पूर्यते। जीवा. अहिंसायाः सप्तपञ्चाशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। पूजा- २५३। यल्लघुच्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते। जीवा० २६७। प्रशस्तमनोवाक्कायचेष्टा। आव०५११। पुष्पादिपूजनम् पूरणेन निर्वृत्तं पुष्पपूरितवंशपञ्जरक-रूपशेखरकवत्। | स्था० ५१५। पूजा-उचितप्रतिपत्तिरूपा। उत्त० ३४४।
प्रश्न. १६० परिम-यल्लघच्छिद्रेष पष्प-निवेशेन पर्यते। असणपाणखातिमसातिमवत्थकम्बलाती जस्स वा जं जम्बू० १०४। पूरिम-येन वंशशलाकापाउग्गं तेण से पडिलाभणं पूया। निशी. १३ आ। मयपञ्जरकादिकूर्चादि वा पूर्यते। ज्ञाता० ५३| पूरिमंपूजनार्ह-उपाध्यायः गुरुर्वा, गुरोः सम्बन्धिपितृव्यादिः। | भरिम-पित्तलादिमयप्रतिमावत्। अनुयो० १२॥ बृह. २८१ अ। पूजनार्हः-उपाध्यायः गुरुः पितृव्यादिषु। | पूरिमा– गान्धारग्रामस्य तृतीया मूर्च्छना। स्था० ३९३।
५९|
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[259]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #260
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आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
[Type text]
गान्धारस्वरस्य तृतीया मूर्च्छना । जीवा० १९३। पूरिमाणि यान्यन्तः पूरणेन पुरुषाद्याकृतीनि भवन्ति ।
आचा० ४१४|
पूरी पूरिका स्थूलशणगुणमयपदात्मिका बृह० २२० पूरेइ पूरयति व्याप्नोति आधा० ८६। पूरयति-परिपूर्ण करोति । भग० १२४ |
पूरेसंधुया पूर्वसंस्तुताः पितृव्यादयः । आचा० ३५१ । पूर्ण लोकपालः स्था० २०५
पूर्णभद्र यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०|
पूर्वगत दृष्टिवादे तृतीयभेदः । सम० ४। पूर्वदेश- धान्यपूरकाभिधानसन्निवेशः आचा० २०२१ पूर्वधरता लब्धिविशेषः स्था० ३३२१
पूर्वपदव्याहत - गत्यागतिलक्षणभेदः । आव० २८१ पूर्वपूर्व चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यम्। दशवे. ८५ पूर्ववत् त्रिविधानुमाने प्रथममनुमानम्। भग० २२ पूर्वानुपूर्वी - आनुपुर्व्याः प्रथमो भेदः । स्था० ४। पूर्वाषाढा - तोयमित्यवरनाम नक्षत्रम् | जम्बू- ४९९| पूलिय पूलिका निशी. ३५० अ
पूर्व आईखाद्यम् बृह० १७८ अ निशी० १४७८ पूविगा- पूवलगादि निशी. ४५ अ
पूविय आपूपिकः आव० ३५४१ पूवियसाल आपूपिकशाला आव. १९७१
पूव्व- पूर्वशब्दः पूर्वानुपूर्वीवाचकः । व्यव० ११९ अ । पूर्वःपूर्वः-असंयमोऽनादिभवाभ्यासः । आचा० १९२। पूर्वं -
अतिक्रान्तम्। आचा० १६७ |
पूव्वपूरिस पूर्वपुरुषः अतीतनयः ज्ञाता०३ पूस - षष्ठं नक्षत्रम् । स्था० ७७| पुष्पःसामुद्रिकपुरुषविशेषः । आव० १९९। पुष्यःप्रभासजन्मनक्षत्रम् । आव २५५ पुष्य नक्षत्रविशेषः ।
ज्ञाता० १३३ |
पूसनंदी- पुष्पनन्दी- वैश्रमणदत्तराजकुमारः । विपा० ८२ पुष्पनन्दी युवराजः । विपा. ८पा
पूसफलं । ओघ० १६० । पुष्पक (पुंस्फ) लम् । प्रज्ञा० ३७ पूसफलिका वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३|
पूसफली- वल्लीविशेषः प्रजा० ३२ |
पूसभूई- आर्यपुष्पभूतिः ध्यानसंवरयोगविषये
शिम्बावर्द्धनगरे बहुश्रुत आचार्यः। आव
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
पूसमाणव पुष्पमाणवः मागधः । जम्बू० १४२१ मागधः । भग. ४८२ पुष्पमाणवः नग्नाचार्यः ज्ञाता० ५८१ पुष्पमानवः- मागधः । औप० ७३ |
पूसमित्त पुष्पमित्रः- ध्यानसंवरयोगविषये आचार्य पुष्यभूति - शिष्यो बहुश्रुतः । आव० ७२२२ पुष्यमित्रःकौशिकजीवः, स्थूणायां ब्राह्मणः आव. १७१
पुष्यमित्रः- तगरायामाचा र्यशिष्यः । व्यव० २५६ आ निशी० ३३२ आ
पूसमीत्त - पुष्यमित्रं सद्व्यवहारकाचार्यः । व्यव० २५६ । पूसियार तेतली पुरनगरे पुष्यकारः श्रेष्ठी आव० ३७३। पृथक्त्ववितर्कसविचार- शुक्लध्यानप्रथमभेदः । आव ०
६०३|
पृथक्त्वानुयोग:- अनुयोगद्वितीयभेदः, यत्र क्वचित् सूत्रे चरणकरणमिव क्वचित् पुनर्धर्मकयैवेत्यादि दशकै
-
४|
पृथग्भूत- उन्मुक्तः प्राबल्यमुक्तः आव. ५०८१ पृथग्विमात्राः– पृथग् विविधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्विमात्राः हास्यादित्रयान्यतरारब्धाः आचा० २५५
पृष्ठ- शरीराङ्गम्। आचा० ३८ | पृष्ठमांसकत्व- परोक्षस्यावर्णवादित्वम्, दशममसमाधिस्थानम्। प्रश्न. १४४१
पृष्टवंश- पृष्ठकरण्डकः । जीवा० १५४ पैखोलमाण- प्रइखोलमानः चञ्चलम् । ज्ञाता० ३५ पेखोलमानं - दोलायमानम् । ज्ञाता० ३५|
पॅडिओ- मरहट्ठविसए फलाण कयलकप्पमाणाओ पॅडिओ निशी. ३९ आ
पेआल पेयालं प्रमाणं सारः आव० ४२३| पेए- पेचकः-पुच्छमूलः । स्था० २०९ | पेक्खणं प्रेक्षणं रुढिवशात्साकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घकालं अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परि-स्फुटरुपमीक्षणम् । प्रजा०
५३०|
पेच्च- प्रेत्य-जन्मान्तरे । आचा० १६ |
पेच्चभव प्रेत्यभवः जन्मान्तरम्। भग. ११५१ पेच्चा- ज्योतिष्केन्द्रसूर्यस्य बाह्या पर्षत् । जीवा० १७६ । पेच्चाभाविय प्रेत्य जन्मान्तरे भवति शुद्धफलतया परिणम-तीत्येवंशीलं प्रेत्यभाविकम्। प्रश्न. १९०१
[260]
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*आगम- सागर- कोषः " [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पेच्चेह-आक्रमथ। भग० ३८११
पेज्जा -पेया। आव० ८१४। पेच्छंता- प्रेक्ष्यमाणा-दृश्यमाना। ज्ञाता० १३३
पेज्जामोल्लं-पेया (पोषण) मूल्यम्। आव०४३३। पेच्छण- प्रेक्षणं-प्रेक्षणकम्। ज्ञाता०९३।
पेज्जायअ-पेयायायी। आव० ८१४। पेच्छणघर- प्रेक्षणकगृहं-यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति पेटुक-वेणूकार्यविशेषः। सूत्र. ११७ निरी-क्षन्ते च तत्। जीवा० २००९
पेठीवंस- पृष्टवंशः-उपरितनस्तिर्यक्याती। बृह. ९२ पेच्छणयं- प्रेक्षणकम्। आव० ८१४।
पेडा-पेटा-यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावच्चतुरस्रं, विभज्य पेच्छमाणी- प्रेक्षमाणा पश्यन्ती। ज्ञाता० ३८५
मध्यवर्तीनि गृहाणि मुक्ता चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या पेच्छणय- प्रेक्षणकम्। आव० ३६०
भिक्षा-मटति सा पेटा। बृह. २५७ अ। पेटा-वंशदलमयं पेच्छा- ‘प्रेक्षा' इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् वस्त्रा-दिस्थानम्। स्था० ३६६। पेडिका इव चउकोणा। प्रेक्षागृह-नाट्यगृहम्। जम्बू. १२१| प्रेक्षा-प्रेक्षणकं, उत्त०६०५ कौतुक दर्श-नोत्सुकजनमेलकः। जम्बू. १२३। पेडिया-पेटिका मञ्जूषा| आव० ५६१| पेच्छागिहसंठिअ- प्रेक्षागृहसंस्थितः। जीवा० २७९। पेढ- पीठम्। आव० ५१३ पेच्छाघर-प्रेक्षागृहं वास्तुविदयाप्रसिद्धम। सूर्य०६९। पेढाल-पेढालं-उद्यानविशेषः। आव. २१६| निशी० ४६ पेच्छाघरमंडव- प्रेक्षा-प्रेक्षणकं तदर्थं गृहरूपो मण्डपः । प्रेक्षा-गृहमण्डपः। स्था० २३०| प्रेक्षागृहमण्डपः। जीवा० | पेढालग-पेढालकः विद्यासिद्धः परिव्राजकः। आव०६८५ २२८प्रेक्षागृहमण्डपः-रङ्गमण्डपः। जम्बू० ३२३। पेढालकः-विद्यासिद्धः परिव्राजकः। आव०६५) प्रेक्षागृहम-ण्डपः-प्रेक्षाः प्रेक्षणकं-तदर्थं गृहरूपो मण्डपः। | पेढालपुत्त-जम्बुद्वीपे स्था० २३२
आगामिन्यामवसर्पिण्यामष्टमतीर्थकृत्। सम० १५३ पेच्छाघरसंठिता- पेक्षागृहस्येव वास्तुविद्याप्रसिद्धस्य पेढालपुत्रः-अनगारः, अनुत्तरोपपातिकदशानां संस्थितं संस्थानं यस्याः सा। सूर्य०६९।
तृतीयवर्गस्याऽष्टममध्ययनम्। अनुत्त० २। पेज्जंजमाण- शब्दायमानम्। राज० ३९।
पेढालपुत्रः-प्रधानः दर्शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽधरगति पेज्ज-प्रियस्य भावः कर्म प्रेम
नरकगतिं प्राप्तिः । आव० ५३२॥ अनभिव्यक्तमायालोभलक्ष
पेढालपुत्र- प्रद्वेषे दृष्टान्तः। आचा० १४६। णभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रम्। स्था० २६। प्रेमः- पेणि- प्रेणी-हरिणीविशेषः। प्रश्न०७० अनभिव्य-क्तमायालोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रम्। भग० | प्रेम्माणुराग-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणसम्भादिरागेण ८० प्रेयं-उण्णं सत् शीतम्। आव०८५८ प्रेमः। औप० | रक्ता इव रक्ता। ज्ञाता०१०९। ७९। प्रेयः-प्रकर्षण वा इज्या-पूजाऽस्येति प्रेज्यं प्रेर्यम्। । | पेयकाइय-प्रेतकायिकः-व्यन्तरविशेषः। भग० १९८१
औप. ९५। प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेमः। स्था. २६) पेयदेवतकाइय-प्रेतदेवकायिकः-प्रेतसत्कदेवतानां प्रेमः- पूत्रादि-विषयः स्नेहः। भग० ५७३। दशमं
सम्बन्धी। भग० १९८१ पापस्थानकम्। ज्ञाता०७५
पेया- महती काहला। राज० ४९। ओघ०६७। यवागूः। बृह. पेज्जणिस्सिया-प्रेमनिःसृता-यदतिप्रेमवशाद्दासोऽहं तवे- | २३४ आ। त्यादि वदतो भाषा| प्रज्ञा० २५६।।
पेयाल- रहस्यम्। संस्ता०। प्रमाणं-सारः। नन्दी. १५९। पेज्जनिस्सिआ-प्रेमनिसृता-मृषाभाषाभेदः। दशवै० २०९। प्रमाणम्। नन्दी० ५०| सारः-प्रधानः। उपा०६। पेयालःपेज्जवत्तिता- प्रेमः-रागो वृत्तिः-वर्तनं रूपं प्रत्ययो वा सम्यग्विपश्चतसूत्रार्थ इति तात्पर्यायः। व्यव० ३३७ हेतु-र्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया वा। स्था. ९८१ आ। परिमाणम्। व्यव० २३७, २९२। पेम्मराग इत्यर्थः, प्रेमप्रत्ययिकी विंशतिक्रियामध्ये पेरंत-पर्यन्तः। बृह. १४२ आ। पर्यन्तम्। आव०६७४। अष्टादशी। आव०६१२॥
पर्यन्तं-बहिःप्रदेशः। जीवा० १९२ पर्यन्तः। जीवा. २०४।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पेरंतचक्कपालं-पर्यन्तचक्रवालं बाह्यपरिधिः। प्रश्न. व्यापारणीयः। सम० २०| सिन्धुविषय एव, सूक्ष्मचर्माः ६१
पशवः तच्चर्मनिष्पन्नम्। आचा० ३९४| प्रेष्यःपेरुउ-पव्वदेससहितं। निशी. २३ अ।
प्रेषणयोग्यो भृत्यदेश्यः। सूत्र० ३३१ पेलव-मदुः। भग० ४७७। पेलवः-प्रतन्ः। व्यव० ४०८ आ। प्रेष्यः-प्रेषणा) जनो दूतादिः। जम्बू. १२२। प्रेष्यः-शुद्रः। पेलवत्वं मृदुत्वलघुत्वलक्षणः। ज्ञाता० २७। अदृढम्। सूत्र० ४०३। प्रेष्यः-प्रयोजनेषु प्रेषणीयः। प्रश्न. ९१। बृह० २२४ अ। पेलवं-कोमलम्। जम्बू० २७५)
प्रेष्यवर्जकः श्रावकस्य नवमी प्रतिज्ञा। आव०६४६। पेलवगहणं-इमे अदिण्णदाणा जो आगच्छति तमो | पेसण-प्रेषणम्। आव० ३०३| प्रेषणः-व्यापारः। बृह. ४ भासंति। निशी. १८४ अ।
अ। प्रेष्यः। उपा०१० पेलवसत्त- पेलवसत्त्वा-तुच्छधृतिबलः। बृह० ९०। पेसपरिण्णाय-अष्टमी उपासकप्रतिमा। सम. १९। पेला-अभिग्रहविशेषः। निशी० १२ अ। ओघ. १६७। पेसल-पेशल-सुश्लिष्ट, प्राणिनामहिंसादिप्रवृत्या पेलु-रुतपूणिका। आव० ४५६। रुतपूणिका। पिण्ड० ९२। प्रीतिकार-णम्। सूत्र. ९४। पेशलं आस्वादमनोज्ञत्वात्। वलितं। निशी० २२८१
जीवा० ३३१। पेशलं-शोभनम्। आचा० २५८१ पेशलंपेलुगा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४॥ अतिमनो-ज्ञम्। उत्त. २९८ पेशलः-मिष्टवाक्यो पेल्ल-दरिद्रः। निशी. ४५अ। डिम्भः। विपा०५४। विनयादिगुणसम-न्वितः। सूत्र० २३४। पेसलः-मनोज्ञः। पेल्लए-अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य
जीवा० ३५१। सूक्ष्मचर्मपक्षोः-चर्मसूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्नम्। चतुर्थमध्ययनम्। अनुत्त०२
आचा०३९४१ पेल्लओ-प्रेरकः-प्रमाणभूतः। ब्रह. १२८ अ।
पेसला-पेशला-मनोज्ञा। प्रज्ञा० ३६४। पेल्लण-प्रेरणं-विक्षेपणं आघातः। ओघ. १६२
पेसवणप्पओग-प्रेष्यप्रयोगः-बलादिनियोज्यस्य प्रयोगः। अक्कमणं| निशी०४८ आ।
आव० ८३४१ पेल्लणा- बलामोटिका। बृह० ५८ अ।
पेसारंभ- प्रेषारम्भः । आव०६४७९ पेल्लणया-प्रेरणा। बृह. ३०९ आ।
पेसिता-प्रेष्याः । निशी. २७७ अ। पेल्लवा-अणालोइयपव्वावरक्कारिणो पेल्लवा। निशी० | पेसिया-पेशिका-खण्डम्। अनुत्त०५ १२२ ।
पेसी- दीहागारा। निशी० १२४ आ। अर्बुदजाता। तन्दु०॥ पेल्लिओ-प्रेरितः। आव. १७३|
प्रलम्बानामूद्ध्वयिताः फालयः। बृह. १७९ आ। पेल्लिज्जिहिइ- प्रेरयेत्। आव०६४।
मांसपेसिका आम्रपेशिका वा। बृह. ३०९ आ। पेल्लितं- लुष्टितम्। आव०८२२॥
पेसुन- पैशुन्यं-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं पेल्लितो-आक्रान्तः। निशी. १३७ अ।
सदसद्दोषाविर्भावनम्। स्था० २६। पेल्लिय- पेल्लियः-शिशुः। आव० ६७०। पातितम्। व्यव० | पेसुन्न- पैशुन्य-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनम्। १८४ ।
प्रज्ञा० ४३८। प्रच्छन्नं-असद्दोषाविष्करणम्। भग० ८० पेल्लियमुह-प्रेरितमुखः-चम्पितमुखावयवोष्ठनासिकः। चतुर्दशमं पापस्थानकम्। ज्ञाता० ७५। पैशुन्यं-कर्णेपिण्ड० १२३
जपत्वं, परगु-णासहनतया तद्दोषोद्घट्टनम्। सूत्र. २६३। पेल्ल-पूणिकया वलितं रुतम्। बृह. ११६अ।
पेसेल्लिया-प्रेष्यिका। आव० ३९७। पेल्लेइ-प्रेरयति-उल्लंघयति। आव०६१७।
पेस्स-प्रेस्यः-आदेश्यः। प्रश्न०४१। प्रेष्यः-प्रेषणयोग्यः। पेल्लेज्जा -प्रेरयेत्-अतिक्रामयेत्। ओघ० १४९।
जीवा० २८०। प्रेष्यत्वं यस्य स प्रेस्यः। प्रज्ञा० १०६। पेल्लेयव्व- प्रेरणीयः। ओघ० १५
प्रेष्यः-ये तथाविधप्रयोजने नगरान्तरादौ प्रेष्यन्ते। पेस- प्रेष्यः भृत्यादिः। आचा० ९१ प्रेष्यः
ज्ञाता०८८ दासमादी। निशी. ६६अ। बलादविनियोज्यः। आव० ८३५ प्रेष्यः-आरम्भेष पेस्सजण-प्रेष्यजनः-प्रयोजनेष प्रेषणीयो लोकः। प्रश्न.
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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३८१
| पोंडरिय-पुण्डरीकं-श्वेताम्बुजम्। राज० ८५ पेहइ-पश्यति। उत्त०४५२।
पोंडरीअं-सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम। पेहति-पश्यति। प्रज्ञा० ३०५। प्रतिलेखयति प्रस्थापयति सम० ३३ वा। आव०७५६।
पोंडरीगिणी-जम्बूमहाविदेहे पुक्खलावतीविजये पेहमाणे- प्रेक्षममाणः। आव. १२४।।
राजधानी। ज्ञाता० १९१। पहा-प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा दृष्टिः । दशवै. ९३। आव. पोंडरीय-पुण्डरीक-श्वेतपद्मम्। जम्बू. २६। पुण्डरीकं ७९८१
ज्ञातायां एकोनविंशतितमं ज्ञातम्। सम० ३६। प्रेक्ष्य-आलोच्य प्रेक्षया वा। उत्त० ५८ प्रेक्षा-प्रत्यपेक्षणा। पौण्डरीकं-सिताम्बुजम्। जीवा० १७७। पुण्डरीकः
बह०६०आ। प्रेक्ष्य। निशी. २२आ। निशी. २७४ । लोमपक्षिविशेषः। जीवा०४१। वित्ता। दशवै. ३८ ।
पोंडरीयदल-पुण्डरीकदलं-सिताम्बजपत्रम्। प्रज्ञा० ३६१| पेहाए- प्रेक्ष्य। भग० ७५४। प्रेक्षितं-दृष्टम्। आचा० ३९५ | पोंडरीयय- जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ पेहावत्थं- प्रेक्षावस्त्रं प्रेक्षाऽऽलोकनं तत्परःसरं यदवस्त्रादि | पोंडरीया- लोमपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९। याच्येत तत्। बृह० ९७ अ।
पोंडा-कप्पासो। निशी. १९१ आ। पेहाहि- प्रेक्षस्व-निरूपय लभस्वेति। सूत्र० ११६) पोअए-पोतः-बोहित्थः। आव० १२८१ प्रकर्षण उतनं प्रोतः पेहि-कथय। सूत्र. १४४
मुक्ताफलादीनां प्रोतनम्। आव० १२९। पेहित्ता-प्रेक्ष्य। आव०७८४|
पोअण-पोतनं-त्रिपृष्ठपुरम्। आव० १६२ पोतनंपेहिय- प्रेक्ष्य। सूत्र. ५५ प्रेक्षितं-अर्धकटाक्षनिरीक्षितादि। पुरुषोत्त-मवासुदेवनिदानभूमिः। आव०१६३प्रोतनंउत्त०४२८१
प्रवेशनम्। आव० ४७४।। पेहजण-पृथग्जनो लोकः। बृह. ९ अ।
पोअणपुरं-पोतनपुर नगरम्। आव० १७४, १७६) पेहुण-पिच्छम्। बृह० ६१ अ। मयूराङ्गिगिरः। बृह. ३३ | पोअया-पोतं-वस्त्रं-तद्वजरायुर्वर्जितत्वाज्जाताः, । मयूराङ्गम्। प्रश्न. १६३| प्रश्न० ८मयूरपिच्छम्। | पोतादिव वा बोहित्थाज्जाताः पोतजाः। स्था० ११४। प्रश्न० १५२। जीवा० १९१। जम्बू. ३५मयूराङ्गम्। पोआई-पोताकी-शकनिका, पोतकीविद्या। आव० ३१८1 प्रश्न. १६३। मयूरपिच्छम्। राज० ३३| निशी. ६० पोइय-पोतितं-निमग्नम्। ओघ० ६४। पेहणकलाव-मयूरङ्गकलापः। ज्ञाता०९५)
पोइया-पोतिताः-त्रासिताः। बृह. ३१७ अ। पेहणमिंजिया- पेहणमिम्जिका
पोक्कण-पोक्कणः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। मयूरपिच्छमध्यवर्तिनीमिजा। जीवा. १९११ पेहणं- प्रश्न. १४१ मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिञ्जा पेहुणमिज्जा।। | पोक्खरं-पुष्करम्। आव० २९९। प्रज्ञा० ३६११
पोक्खरकण्णिआ- पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः। सम० पेहे- पश्यति। ओघ. १२७। निरूपयति। ओघ. १३३॥ १३७ पेहेति-पडिलेहित्ति। निशी. २०८ अ।
पोक्खरगय-पुष्करं-मृदङ्गमङ्ग्यादिभेदभिन्नं पोंड-पौण्डं-फलम्। प्रश्न० ८२ पुण्डरीकं-पद्मम्। आव० तद्विषयकं विज्ञानं पुष्करगतम्। जम्बू. १३७
अष्टमिकला। ज्ञाता० ३८५ पोंडमया-खोम्मा। निशी० २५४ आ।
पोक्खरणी-पुष्करणी-वर्तुला पुष्करवती। ज्ञाता०६३, पोंडयं-पोण्डगं-वनीफलादत्पन्न कार्पासिकम्। विपा० ६७ पुष्करिणी पुष्करवती चतुष्कोणा वा। प्रश्न 1
१२॥ पुण्डजम्। उत्त० ३४२। कप्पासो। निशी० १२१ । | पोक्खरत्थिमाय- पुष्करास्थिभागः कमलबीजविभागः। पोंडरिगिणी-अञ्जनपर्वते पुष्करणी। स्था० २३०। स्था० | जम्बू. २८४। ८०
| पोक्खल- पद्मकेसरम्। आचा० ३४९। जलरुहविशेषः।
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मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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प्रज्ञा० ३३
४३४, ८१६। पृष्टः। उत्त० १९८1 उदरम्। दशवै. ११ पोक्खलत्थिभूय-जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३३।
उदरम्। जम्बू० १२५। जठरम्। उपा० २२। उदरं। दशवै. पोक्खलावती-जम्बूमहाविदेहे विजयः। ज्ञाता० १९१| १२३ पोक्खली- श्रावस्त्यां श्रमणोपासकः। भग. ५५२ पोट्टदरा-कडपल्लादि पोट्टाणि चेव पोट्टदरा। निशी. १४७ पोग्गल- पुदगलपरिणामनामाष्टमशतके प्रथमोद्देशकः। | आ। भग. ३२८ पुद्गलविषयो द्वादशशतके चतुर्थोद्देशकः। | पोट्टल-भरः। तन्दु भग० ५५२। पुद्गलार्थाभिधायकः चतुर्दशशतके पोट्टलग-पोट्टलकः। ओघ० १०० चतुर्थोद्देशकः। भग०६३०| पदगलः-पूरणगलनधर्मा। पोट्टलय- पोट्टलिकः। उत्त० २०९। आचा० २५७। पोग्गलं -मासम्। पिण्ड० २२ पगलः पोट्टलिका-वस्त्रैकदेशेन निबद्ध वस्तुजातम्। भग०७९| जीवः। दशवै ५०| पुद्गलं-मांसम्। आव० ७४०। पोलिया-पोट्टलिका। आव० ६९४। पुद्गलः-मूर्तः। भग० १५०| पुद्गलम्। आव० ८५४। पोदृशाल-परिव्राजकविशेषः। ब्रह. १२४ अ। पुद्गलाः-पूरणगलनध-र्माणः। स्था० ३४। पुद्गलाः- पोट्टसरणी-अतिसारः। आव०६९८, ८१३ पूरणगलनधर्माणः-परमा
पोट्टसाल-पोट्टशालः। उत्त० १६८१ ण्वादयोऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्ताः। अनुयो०७४। पोट्टसूलं- पोट्टशूलं-उदरशूलम्। ओघ० २१७। पुद्गलः-परमाणुः। भग०६६। मांसम्। निशी० ३६ । । पोट्टिया-पोट्टिकः महोदरः जलोदरी। आव० ६७८१ पौद्गलं-पुद्गलसमूहो मेघः। स्था० १४२
पोट्टिल-अनगारविशेषः। स्था० ४५६। राजपुत्रः। सम० पोग्गलगती- पुद्गलगतिः-विहायोगतेः पञ्चमो भेदः। १०६। जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां प्रज्ञा० ३२७
नवमतीर्थकृतः। सम० १५३। प्रोष्ठिलःपोग्गलपरिअट्ट- पुदगलपरावर्तः-अनन्त
प्रियमित्रचक्रिधर्माचार्यः। आव० १७७ उत्सर्पिण्यवसर्पि-णीमानः। अनुयो. ९९।
पोट्टिला- कलादमूषिकारश्रेष्ठिसुता। विपा० ८८१ पुष्पकारपोग्गलपरियट्ट- पुद्गलाना
श्रेष्ठिदुहिता। आव० ३७३। भद्राकालकयोः पुत्री। ज्ञाता० रूपिद्रव्याणामाहारकवर्जितानां औदारिकादिप्रकारेण । १८४ ग्रहणतः एकजीवापेक्षया परिवर्तनं-सामस्त्येन स्पर्शः | पोट्टिल्ल-आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां चतुर्थतीर्थकृत् पदगलपरिवर्तः, स च यावता कालेन भवति स
पूर्वभवनाम। सम० १५४ कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः। स्था० १५८५
पोट्टवया- प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा। सूर्य. ११४| अनन्तसमयात्मकः। भग० ८८८1
पोट्टवात- पोष्ठवए-पोष्ठपदः भाद्रपदः। सूर्य. १०७ पोग्गलपरियट्टा-पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ताः-परमाणूणां | पोडइ-वृक्षविशेषः। भग० ८०३। मीलनानि पुद्गलपरिवृत्ताः। भग० ५६८१
पोडइला-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३। पोग्गलरस-पद्गलरसः। आव० ८५७।
पोढ- प्रौढः-समर्थः। बृह० ६१ अ। पोग्गलादिण्णं-पुदगलं-मांसं तेन सर्वमाकीर्ण-व्याप्तम् पोढा- प्रौढा-समर्था। बृह० ६१ आ। पुद्ग-लाकीर्णम्। आव०७४०१
पोत- पोतं लघुबालोचितवस्त्रखण्डम्। पिण्ड० ९६। पोग्गलिय-पौगलिकः-शाल्यौदनः। पिण्ड० १०० दशवै. अपक्ख-जायओ पक्खिसावो। दशवै० १२६ आ। पोतको१७५
बालक इति वस्त्रम्। स्था० ४६५। पोतजः-पोतमिव पोच्चड- पूर्णम्। निशी० ४३ अ। विलीनम्। ज्ञाता० १७७) वस्त्रमिव पोतादिव वा बोहित्थादिव जातः हस्त्यादिः।
अतिनिबिडम्। प्रश्न०१४। असारम्। ज्ञाता०९४| प्रश्न. ९०| वस्त्रम्। बृह० २४१। पोच्चडग-अलथत्वम्। निशी. २८९ आ।
पोतजा-पोतजाः हस्तिवग्गलीप्रभृतयः। स्था० ३८५१ पोट्ट- उदरम्। ओघ० १४८१ उदरम्। आव० ३१८, ३५३, पोतनपुर-शुद्धाहारगवेषणादृष्टान्ते नगरम्। पिण्ड० ७५।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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पोतनपुरः-परतीर्थिकवादस्थानम्। व्यव० १८८आ। | पुरतीपिङ्गलयोः पिता। उत्त० ३७९। पोतितं-देशीवचनत्वात्त्रासितम्। बृह. २३१ आ। पीयघाय-पोतघातः-शवघातकः। प्रश्न. १३ पोत्त-पोत्तं-वस्त्रम्। आव० ३९९| वस्त्रम्। आव० ८२४। । | पोयय-पोतजः-हस्त्यादिः। औप० ३७ पोतजः-वल्गुवस्त्रम्। आव०९०| वस्त्रम्। ओघ०७२।
ल्यादिः। भग० ३०३। पोत्तग-ताड्यादिपत्रसङ्घातनिष्पन्नम्। आचा० ३९३। पोयया-पोता एव जायन्त इति पोतजाः हस्तिवल्गुलीजपोत्ति-चिलिमिनीम्। ओघ० ९२ वस्त्रम्। उत्त०८1 लौकाप्रभृतयः। दशवै०१४११ मुख-वस्त्रिका। ओघ. १३२
पोयवहणं-पोतवाहनं-नौ। उत्त० २२११ पोत्तिय-पोतमेव पोतकं-कार्पासिकम्। स्था० ३३८ पोयसत्थो-पोतसार्थ:-बोहित्थसमुदायः शावकसमूहो वा। कार्पासिकं-वस्त्रम्। बृह. २०१ अ।
प्रश्न. ३९॥ पोत्तिया-वस्त्रधारिणः तापसविशेषः। निर० २५१ पोयहंस-पोतहंसः-लोमपक्षिविशेषः। जीवा० ४११ पोत्ती- वस्त्रम्। आव० ३०७
पोया- महती काहला। भग. २१६। पोत्तीया-वस्त्रिका। आव०६३
पोयागी-पोताकी-शकनिका। उत्त. १६९। पोत्तुल्लए- वस्त्रमयपुत्रिका। ज्ञाता० २३५।
पोयाल- मृगादिपोतलकः। ओघ० १५८| साण्डवृषभः। पोत्थं-पोतं-वस्त्रम्। पुस्तक-सम्प्टकरूपं, ताडपत्रादि। व्यव० १८४ अ।
अनुयो० १३॥ प्रोत्थं वस्त्र प्रकृष्टोत्थानरूपम्। उत्त० । पोर-अङ्गुष्ठपर्वः। ओघ० २१४, २१८१ निशी० १६१| ४७५। प्रोत्था-प्रकृष्टोत्थानरूपा। उत्त०४७५ लेप्पगं। पोरकव्वं-पुरःकाव्यं-पुरतः पुरतः काव्य-शीघ्रकवित्वम्। निशी० २आ। पुस्ते धीउल्लिकादि पुत्तलिकादि। ओघ० | जम्बू० १३७। १२९। पुस्तं-वस्त्रम्। ज्ञाता० १७९। पुस्तं-वस्त्रम्। प्रश्न | पोरग- हस्तिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ १६०|
पोरजाय-पर्वतजातम्। आचा० ३४९। पोत्थकम्म-पोत्थ-पोतं वस्त्रमित्यर्थः, तत्र कर्म- पोरपरिग्गहं- पोरं-अङ्गुष्ठपर्व तस्मिन्नगुष्ठपर्वणि तत्पल्लव-निष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा लग्नया प्रदेशि-न्या यद्भवति छिद्रं तद्यथा पूर्यते तेन पोत्थं-पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते, तत्र कर्म- दण्डनकेन बाह्यनिषद्या-दवयरहितेन तथा कर्तव्यं। तन्मध्ये वर्तिकालि-खितं रूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्थं- अङ्गुष्ठपर्वप्रदेशिनीकुण्डलिकापूर-णम्। ओघ० २१४। ताडपत्रादि तत्र कर्म-तच्छेदनिष्पन्नं रूपकम्। अनयो. पोरबीय-पर्वगबीजं-इक्ष्वादि। आचा० ३४९। पर्वबीजः१३पुस्तकर्म-लेप्यकर्म। आचा०४१४१
इक्ष्वादयः। स्था० १८७। पर्वबीजः-इक्षुवंशवेत्रादि। आचा० पोत्थकार-पोस्तकारः। अनुयो० १४९।
५७ पर्वबीजं इक्ष्वादि। दशवै०१३९। पोत्थपणय- पुस्तकपञ्चकं-गण्डी १ कच्छपी रमुष्टि ३ | पोरवच्चं- पुरपतेः कर्म पौरपक्ष्यं
संपुटफलक ४सृपाटिका ५पुस्तकलक्षणम्। आव० ६५२। | सर्वेषामात्मीयानामग्रेसर-त्वम्। जीवा. १६२१ पोत्थयं- पोतं-वस्त्रम्। अनुयो० ३४। पुस्तकः
पोराण-तित्थयरभासितो जस्सत्थो गथो य पत्रकसङ्घातनि-ष्पन्नः। अनुयो० ३४।
गणधरनिबद्धो तं पाययबद्ध। निशी० ३६ अ। पुराणंपोत्थयपणगं- गंडी-कच्छपी-मुष्टिः-सम्पुटफलः प्रागुपात्तम्। दशवै० १७। पुराणम्। भग० १६३। पुरातनम्
सृपाटिका रूपं पुस्तकपञ्चकम्। स्था० २३३। । सम० ३८। पुराणः-जरठः, कक्खडीभूत इति। विपा० पोत्थयरयणं-पुस्तकरत्नम्। जीवा० २३७।
३८। अतीतकालभावि। ज्ञाता० २०५।। पोत्रक-वृषणः। उपा०२२
तीर्थकरगणधरलक्षणः पूर्वपुरुषः। बृह० १०३ अ। पोदकी- श्वापदविशेषः। उत्त०४१७।
पोराणगा-पुराणतरा अज्ज, जस्स पपोत्तादिभावो। पोम्हं-अदसं। निशी. २४५ आ।
निशी. २९ आ। पोय-पोतः शिशुः। आचा० २४८१ पोतः-ब्रह्मदत्तराज्योः | पोराणय- पुरातनम्। मरण।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[265]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #266
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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]]
पोराणिय- पुराणामेव पौराणिकीम्। उत्त ३०६।
पुराणामेव पौराणिकी-चिरन्तनीम्। उत्त० ३९७ पोरायाम-अङ्गुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावन्मात्रं शुषिरं भवति तदापूरकम्। ओघ० २१४। पर्यायाम अगुष्ठ-पर्वप्रदेशिन्यपान्तरालायामम्। बृह. २३९ । पोरिसिं-पुरुषप्रमाणा पौरुषी आत्मप्रमाणा वीथी। आचा०
३० पोरिसिअद्धा- पौरुषीकालः। ओघ०६७। पोरिसिमंडल-पुरुषः-शकुः पुरुषशरीरं वा तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी, पौरुषी यत्राध्ययने व्यावर्ण्यते तदध्ययनं पौरुषी-मण्डलम्। नन्दी० २०५१ पोरिसी- पौरुषी। आव० ८५२ पोरिसोच्छाया- पुरुषे भवा पौरुषी तां पौरुषीं छायापौरुषी
च्छाया। सूर्य. ९२ पोरुष-पुरुषाणां समूहः पौरुषम्। उत्त. २६५ पोरुसं- पोरुषेयं पदात्यादिपुरुषसमूहः। उत्त० २६५)
पौरुषेयं -पदातिसमूहः। उत्त० १८८1 पोरुसा-पुरुषाणां चरमावस्थां प्राप्ताः, अत्यन्तवृद्धा एव
पौरुषाः। सूत्र० १५८ पोरुसादा-पौरुषादाः-प्रस्तावात्परुषसम्बन्धिमांसभक्षका
राक्षसा इति। उत्त० ३९४। पोरेकच्चं- चतुर्दशकला। ज्ञाता० ३८१ पोरेवच्चं- पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म पौरपत्यंसर्वेषामग्रे-सरत्वम्। प्रज्ञा० ८९। पुरोवर्तित्वंअग्रगामित्वम्। सम० ८६। पुरोवर्तित्वं-अग्रगामित्वम्। भग० १५४। पुरस्य पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्यंपुरपतेः कर्म, सर्वेषामग्रेसर-त्वम्। जीवा० २१७। पोलंडे-पोलंडेत्ति-प्रकर्षेण दविस्त्रिर्वोल्लंघयति। ज्ञाता०
६१ पोलास-पोलासं-श्वेतविकायामद्यानविशेषः। आव०
पोलिन्दी-लिपिविशेषः, भाषार्थे अष्टादशमः। प्रज्ञा०५६। पोलियं- पोलिका। उत्त० १४७ पोल्ल-अन्तःशुषिरः। उत्त० ४७८। ऊसिरं
जीवाश्रयस्थान-मित्यर्थः। निशी. ६० आ। पोल्लक-पोइल्लक-कटनिर्वर्तकमयोमयं चित्रसंस्थानम्। रुत-पुणिकानिर्वतकं शलाकाशल्यकाङ्गरुहादिर्वा ।
आव० ४५६। पोल्लर- शुषिरा। उत्त० ४७८१ पोल्लरुक्ख- शुषिरवृक्षः। ज्ञाता०६३। पोल्लिया-पोलिका। आव. ३५४ पोवलिय- पोलिका। आव० ३४३। पोस-अपानम्। प्रश्न० ८३। पोसः-अपानदेशः। जीवा. २७७। पोसः-अपानदेशः। जम्बू. ११७। अधिष्ठानम्। ओघ० १८४। तेन सेव्यमानेन पुष्यत इति पोषः, आत्मानं वा तेन तेन पोषयतीति पोषः, तदर्थिनो वा तं पोषयतीति पोषः मृगीपदमित्यर्थः। निशी. २५२ आ। अपानदेशः। औप०१६|| पोसए-उपस्था। स्था० ४५१। पोसणं- पोषणं-यवसादिदानतः पुष्टिकरणम्। प्रश्न० ३८1 पोसवत्थं- कामं पुष्णातीति पोषं कामोत्कोचदारि शोभन
मित्यर्थः, तच्च तदवस्त्रं पोषवस्त्रम्। सूत्र० १०५ पोससुद्ध- पोषमासशुद्धः। ज्ञाता० १५२। पोसह- पौषधं पर्वदिनानुष्ठेयं तप उपवासादिः। जम्बू.
१९७। पौषधः-अष्टमादिपर्वदिनम्। औप० ८२ पौषधःपर्वोपवासः। प्रश्न. ३२ पौषधः-व्रताभिग्रहविशेषः। सूत्र० ४०८ आव०७९३। पोषं दधातीति पोषधम्। व्यव. २८ आ। पोषधः-पोषणं पोषः, स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषधः-आहारपोषधादिः। उत्त. २५११ पोषं-धर्मपष्टिं धत्त इति पौषधः अष्टम्यादितिथिषु व्रतविशेषः। उत्त. ३१५ पौषधं-अभिमत-देवतासाधनार्थकव्रतविशेषो अभिग्रहः। जम्बू. १९७४ पौषधं पर्वम्। आव० ८३५१ पोषधं-अष्टम्यादि-पर्वः। प्रज्ञा० ३९९। पोषधशब्दोऽष्टम्यादिपर्वष रूढः। उपा० १११ पौषधंपर्वदिनानुष्ठानम्। भग० १३६। पोषधप्रतिमा-श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिज्ञा। आव० ६४६। पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि। स्था० १२६। पौषधः-अष्टम्यादिपर्वदिनं, तत्रो-पवसनं-आहारशरीरसत्कारादित्यागः। सम० १२०
३१५
पोलासं-चैत्यविशेषः। आव० २१६।
श्वेताम्ब्यामद्यानविशेषः। उत्त० १६०| पोलासपुर-अतिमुक्तकुमारश्रमणवास्तव्यनगरम्। अन्त०६। विजयराजधानी। अन्त०२३। जितशत्रो राजधानी। उपा०३९
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[266]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #267
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
पौषधं -पर्वादिनानुष्ठानमुपवासादि। ज्ञाता० ३४। | पौण्डरीक- षष्ठं महाकुष्ठम्। प्रश्न० १६१। पोसहपडिमा- पौषधकाले प्रतिमा, पञ्चमी श्रावकप्रतिमा। | सप्तमहाकुष्ठी पञ्चमः। आचा. २३५ आव० ६४६।
पौरुषघ्नी- भिक्षाविशेषः। उत्त. २०० पोसहिय-पौषधिकः-आसन्नपारितपौषधव्रतः। ज० प्पिणण-अर्पणम्। आव० १०३
२१३। पौषधिकः-अष्टम्यादिषु पर्वेष परं तपः कारयतः। | प्र- 'प्र' शब्दः-अनुवृत्तार्थे। जम्बू. ४१५। 'प्र' शब्दः व्यव० ३९६अ।
आदिकर्मार्थः। जम्बू. २७। 'प्र' शब्दः आदिकर्मार्थत्वे। पोसहियतव-पौषधिकः-अष्टमीपाक्षिकादिपौषधे भवं स्था० १४३ पौषधिकं तच्च तत् तपश्च पौषधिकतपः। व्यव. २८ प्रकम्पित-विधूतः, अपनीतः। आव० ५०७) आ।
प्रकर-धान्यस्य मर्दनम्। ओघ०७५ पोसहोववास-पौषधः पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनं, प्रकरण- संखडी। ओघ० ४७। जिनवचनमुपादातुं प्रकारः। अभ-क्तार्थः-पौषधोपवासः। स्था० २३६। पौषधोपवासः आव० ६८। प्रकृतं, प्राघूर्णभोजनादिकम्। पिण्ड० १४८१ अष्ट-म्यादिषु पर्वदिनेषूवसनं
आचा० ३२८१ आहारशरीरसत्काराब्रह्मव्यापारपरि-वर्जनमित्यर्थः। प्रकर्ष-भावसारम्। दशवै० ११६ ज्ञाता० १३४१ पौषधः रूढ्या पर्वः, पर्वाणि
प्रकर्षगति-पारम्पर्यम्। आचा० १७४। अष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व,
प्रकामशायी-अतिनिद्रः। दशवै० २३५ धर्मोपचयहेतुत्वादित्यर्थः पौषधे उपवासन पौषधोपवासः प्रकारकास्न्यम् - कतिचित्पर्यायान्वितम्। उत्तर नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधोपवासम्। आव० ८३५। ५५५ पौषधोपवासः-पर्वदिनोपवसनम्। भग० २६८। प्रकाशः- श्वेतता। सूर्य०६। ओजः। सूर्य०७ पौषधोपवासः-पर्वदिनोप-वसनम्। भग० ३२३। प्रकाशक्षेत्र-उदयास्तान्तरं तापक्षेत्रम्। जम्बू०४५५) पौषधोपवासः-अष्टम्यादिपर्वदिनेषू-पवसनम्। औप. प्रकाशदीप-प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः। आचा. २४७। १०१| पौषधोपवासः। आव०८३५१
प्रकीर्णक- चामरम्। प्रश्न०७० पोसहोववासनिरय- पौष-पुष्टिं कुशलधर्मणां धत्ते प्रकीर्णकथा-सा चोत्सर्गकथा, द्रव्यास्तिनयकथा वा,
यदाहार-त्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपवसनं- । कथायाः चतुर्थो भेदः। सम. २४॥ अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधौपवास इति, अथवा प्रकृतिः- प्रजा। आचा० ११, २८११ पौषधं-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः-अभक्तार्थः | प्रकृष्ट-प्रधानः। सूर्य०६। सर्वसूक्ष्मः-निरंशः। अनुयो. पौषधोपवास इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य ६७ शब्दस्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरि- प्रेक्षते- गणयति आलोचयति च। आव० ५२६) वर्जनेष्विति, तत्र पौषधोपवासे निरतः-आसक्तः प्रेक्षापूर्वकारिता-। आव० ८५०। पौषधोप-वासनिरतः (यः) सः। श्रावकस्य चतुर्थी प्रक्षेपक-साधनामेवार्थाय या वस्त्रस्थापना स। बृह. प्रतिमा। सम० १९।
१०२ पोह- गोमयं छगणपोहः। पिण्ड० ८३।
प्रगाढा-प्रकर्षवती। स्था०४६१। पोहत्तं- पृथुत्वम्। भग० १३१। पृथुत्वं-विस्तारः। प्रज्ञा० प्रगुणं- सरलम्। उत्त० १२६। २९३।
प्रगृहीततर-पूर्वस्थानाद् पोहत्तिए- पृथत्वसूत्र-बहुवचनसूत्रम्। भग० २१८। भक्तपरिजेगितमरणरूपात्प्रकर्षण ग्रहोऽत्र पोहव्वं-वित्थारो। निशी. १३९ अ।
पादपोपगमने, प्रगहिततरमेतदित्यर्थः। आचा० २९४| पौण्डक-पौण्डज-यद्वमनितिन्दुकोद्भवं यथा कर्पाससूत्रम् | प्रगृहीता- षष्ठी पिण्डैषणा। आचा० ३५७। | उत्त०५७१
| प्रग्रहः- रश्मिः । उत्त०५०७)
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[267]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #268
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________________
[Type text]
प्रचय- कायः । स्था० २१७ |
प्रचुरा - प्रशस्ता अतिशायिनी वा । स्था० ३३२
प्रजन प्रसवः । नन्दी० १६१ | चिह्नम् । बृह० २४ अ प्रज्ञप्ति - स्वसमयप्ररूपणा । व्यव० २८९ | विद्यादेवी नाम - निक्षेपः । ज ० ९|
आगम- सागर-कोषः ( भाग :- ३)
प्रज्ञा स्वबुद्धिः सूर्य. ३६८१ बुद्धिः । स्था० ५१९ प्रकर्षेण जायते उत्सर्गापवादः तत्। बृह० १३० अ प्रज्ञापना- प्रज्ञापनोपाङ्गं तस्यैव प्रथमं पदं च । जीवा०
४१६ |
प्रज्ञाप्तं प्रज्ञया भव्यजन्तुभिराप्तं प्राप्तम् । अनुयो रा प्रणाला - जिह्विका । जम्बू० २९१।
प्रणालिका - रुढिः । जीवा० ८ |
प्रणिधानं प्रयोगः आव• ८३४१ प्रणिधानम्। भग० ५०१ प्रणिहितेन्द्रिय- पिहितेन्द्रियः । प्रश्न० १६०| प्रतरपरिमण्डलं विंशतिपरमाण्वात्मकं
विंशतिप्रदेशावगाढं च, तच्चैवं प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु प्रत्येकं चत्वारश्र्चत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते विदिक्षु च प्रत्येकमेकैकोऽणुः स्थाप्यन्ते । प्रज्ञा० १२ प्रतरभेद - अभ्रपटलस्येव स्था० ४७५१ अभ्रपटलानामिव यो भेदः । भग० २२४ |
प्रतारयति छलति । नन्दी० १५७|
प्रति अनुरुपं समानम् । नन्दी० ४३|
प्रतिकारविधिः- उपायविधिः । नन्दी० १६२
प्रतिकृति - प्रतिमा । आचा० ८०| सदृशः । सूर्य० २६४|
प्रतिचारण प्रतिचारकः आव० २०९॥ प्रतिच्छन्दभूतः सदृशः । नन्दी० १४७ प्रतिच्छन्ना- भूते नवमभेदः । प्रज्ञा० ७० | प्रतिजिहवा शरीरावयवः । प्रज्ञा० ४७३ प्रतिजिह्विक आत्मोपघातकः । सम० ६७ प्रतिज्ञप्त वैयावृत्यकरणायापरै रुक्तः अभिहितः ।
आचाοन
प्रतिद्वन्द्वी प्रतिपक्षी नन्दी० १५०
प्रतिनियत प्रतिभक्तम्। प्रज्ञा० ३२९ ॥ प्रतिनिर्यातव्य- समर्पणीयम् । व्यव० ३०७ आ । प्रतिपत्तिः
सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनमित्येवंरूपा प्रतिपत्तिः । सम० १२५५ रीतिः ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[Type text]
आव० ४४१ । कालः । प्रज्ञा० ३८५ | नन्दी० १६७ | वार्ता | वारकः । नन्दी० ५१ | उपमा। व्यव० २७४ | प्रतिपादनता प्रतिपत्तय इति विग्रहः । सम० १२० | प्रतिबोधक-गृहचिन्तकः । व्यक• २२२ अ
प्रतिभा - प्रकाशः । जीवा० १६४ | मतिविशेषः । प्रज्ञा० ५९ । प्रतिमा- कायोत्सर्गः । आव० १४३ | प्रतिमाकल्पिकः साधुभेदविशेषः । भगः ॥ प्रतिमानं गुञ्जा, वल्लादि । स्था० १९८८ सुवर्णादिमानहेतुः गुञ्जादि । जम्बू० २२७ प्रतिमाप्रतिपत्तिः प्रतिज्ञा स्था० ३८९ प्रतिरूप असाधारणं रूपं आकारों यस्य स सूर्य० 1 प्रतिरूपयोगयोजन औपचारिकविनयविशेषः । उत्त० ५०| प्रतिरूपा भूतद्वितीयो भेद प्रज्ञा० ७० प्रतिवचन- उत्तरम् । सूर्य- ११। प्रतिविधान- उपायः । नन्दी० ६१। प्रतिविशिष्ट- असाधारणम् । सूर्य० २ प्रतिशठः- प्रतिपक्षी शठः । नन्दी० १५२ | प्रतिशब्दः - पडहवाची । नन्दी० १७३ | प्रतिशलाकापल्य: सङ्ख्यापरिणामे द्वितीयः पल्यः । अनुयो० २३७
प्रतिश्रान्तः- विश्रान्तः बृह० १५ आ
प्रतिष्ठा - गाथा निश्चितिश्च । आव० ८०४ |
-
प्रतिष्ठानपुरं विद्यामन्त्रद्वारविवरणे मुरुण्डराजधानी । पिण्ड० १४२
प्रतिसंलीन- गुरुसकाशेऽन्यत्र वा कार्य विना न यतस्ततश्चेष्टते। उत्तः ३४७५
प्रतिसंलीनताप्रतिमा पञ्चप्रतिमायां चतुर्थी सम० ९६ । प्रतिसेवक कारणभावेऽपि पञ्चकादीनि
प्रायश्चितस्थानानि प्रतिसेवते। व्यव० ३११
प्रतिसेवना- सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना । स्था० ३३७ |
प्रतिसेवनानुलोम्य आलोचनानुलोम्यः, ये यथाssसेवितः । आव० ७८१ ।
प्रतिसेवमान:- प्रथमभङ्गवत्ती व्यव० ८आ। प्रतीत्यमहत्- आपेक्षिकम्। दशवै० १००|
प्रतोली- नगरद्वारम् । नन्दी. १४९। नगरस्यैव कपाटम् । सम० १३८ |
[268]
"आगम- सागर- कोष" [३]
Page #269
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________________
[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रत्यञ्चा-ज्या-धनुष्यारोप्यमाणा रज्जुः। भग० १९३ | प्रदेशार्थता- प्रकृष्टो देशः प्रदेशो निरवयवोऽशः, स जीवादवरिकेति। सूर्य. २श दवरिका। सूर्य.४८। जीवा- चासावर्थ-श्चेति प्रदेशार्थः, तस्य भावः प्रदेशार्थतादवरिका। सूर्य० २३३। धनुःसत्का जीवा। उत्त० ३११| | गुणपर्यायाधारा-(रता) अवयवलक्षणार्थतेतियावत्। प्रत्यवस्था-समाधानम्। आचा० १२१
स्था० ११ निरंशदे-शार्थता परमाणत्वमितिभावः। प्रत्यवस्थान- प्रतिवचनम्। बृह० १३६ अ। गुरुकथनम्। अनुयो० ६७ दशवै०२१
प्रदेशोदीरणा-प्राप्तोदयैर्नियतपरिमाणकर्मप्रदेशः प्रत्याख्याताशनादिभोजनं-सप्तमः शबलः। प्रश्न. १४४। सहाप्राप्तो-दयानां नियतपरिमाणानां कर्मप्रदेशानां प्रत्याख्यान-कषायस्य दवितीयो भेदः। आचा०९१| यदवेदनं सा। स्था० २२१। प्रत्याख्यानक्रिया-सूत्रकृताङ्गदवितीयश्रुतस्कंधे प्रदोषसमयः- प्रातःसमयः। जीवा० १९३। तृतीयमम-ध्ययनम्। स्था० ३८७।
प्रद्युम्न-कृष्णस्य अहमधन्यत्वे दृष्टान्तः। स्था० ४३३। प्रत्याख्यानत्रय-संभोगोपकरणाहाराणां प्रत्याख्यानम्। प्रद्धोतः- गणिकाभिरभयकुमारवञ्चकः। सूत्र० ३२९, ३१३| उत्त०५८८1
वारत्रकमहर्षेरुपहसिता। बृह. ३०६ आ। प्रत्याचक्षीत-अपन्हवीत। आचा० ४४।
प्रद्वेषः- वैरम्। उत्त० २६५। प्रत्याचक्षे-प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमीति। आव. प्रधानः-महान् प्रभूतो वा। आव०५९६) ४५५
प्रधानक्षत्रिय-संकरक्षत्रियः-दविजेन क्षत्रिययोषितो प्रत्यात्मेन्द्रकाणि-अहमिन्द्राणि। सम०४३।
जातः। आचा०1 प्रत्यालीढ-आलीढाविपरीतं स्थानम्, पञ्चस्थाने प्रधानफरक-वरफलकम्। प्रश्न०४७।
द्वितीयम्। उत्त० १०५। अग्रतो मुखमाधाय दक्षिणमुरुं प्रधानाग्र-सचित्तादि। आचा० ३१८ पश्चान्मुखमप-सारयति अन्तरा चापि पादवोन्यं च । प्रधावसि-प्रकर्षेण प्रकृतो वा धावसि। बृह. १९१ आ। पादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत्प्रत्यालीढम्। व्यव० प्रपञ्चते- व्यक्तीकरोति। स्था० ५२० ४६ आ। तृतीयं योध-स्थानम्। आचा० ८९। स्था० ३। प्रपञ्चयति-संसयति विस्तारयति। स्था० ५२०० प्रत्यावर्त्तः- नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४|
प्रपञ्चितज्ञः-विनेयविशेषः। उत्त० ४७ प्रज्ञा० ४२५१ प्रत्युत्पन्न-लोकरूढम्। स्था०४९७।
प्रपुन्नाटा-स्वापविबोधवत्त्यौषधिः। आचा०६६। प्रत्युपेक्षितं-आलोकितम्। आचा० ४२८।
प्रबध्नाति- ग्रन्थिबन्धं करोति। भग० २०२। प्रत्युपेक्षेत-पर्यालोचयेत्। आचा० ३५१|
प्रभञ्जन- लोकपालविशेषः। स्था० २०५। रत्नसञ्चयकूटप्रत्यूषः- गोषः। आव०७८११
द्वितीयनाम। स्था० २२४। प्रत्येकबुद्धाः- प्रतीत्यकं किञ्चित् वृषभादिकं
प्रभव-जम्बूस्वामिशिष्यः परम्परागमवान्। आव० ५७ अनित्यतादि-भावनाकारणं वस्तु बुद्धाः-बुद्धवन्तः
तालोदघाटिन्यवस्वापिन्यादिभिरुपेतः चौरः। व्यव. परमार्थमिति प्रत्येक-बुद्धाः। स्था० ३३
२४०। चतुर्दशपूर्वी। उत्त० २४०। अनाचीर्णे दृष्टान्तः। प्रथमानुयोग-तीर्थंकरादिपूर्वभवादिव्याख्याग्रन्थः। स्था० बृह. १६६अ। ४९१। दृष्टिवादे चतुर्थो भेदः। सम०४१।
प्रभवा-प्रभवति। उत्त. ३५२ प्रदर्शन-चिह्नम्। आव० ८३०
प्रभविष्णुः- सहिष्णुः। बृह. १७६अ। प्रदर्श्यन्ते- उपमाप्रदर्शनेन। नन्दी० २१२।
प्रभा-आकारम्। जम्बू० ३१९। प्रदानं- यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः। प्रभावति-उदायनराज्ञी। प्रश्न० ८९।
प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्यानमोदनम्। स्था० १५२। प्रभाविच्छरितं- | नन्दी. १६७१ प्रदीपित-ज्वालितम्। उत्त० ३७८१
प्रभास-वृत्तवैताढ्ये देवः। स्था०७१। प्रदेशनिष्पन्न-द्रव्यप्रमाणे प्रथमो भेदः। स्था० १९८१ प्रभूतः- महान् प्रधानो वा। आव. ५९६|
मनि दीपरत्नसागरजी रचित
[269]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
Page #270
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
प्रभूताग्रं-द्वितीयं भावाग्रम्। आचा० ३१८४
प्रश्न- अगुष्ठादिप्रश्नविद्या, विद्याविशेषश्च। प्रश्न प्रभूतविढपितार्थ- लब्धार्थः। सूर्य. १९२
। संशयापत्तौ अशंसयार्थं विद्वत्सन्निधौ प्रमई-चन्द्रः मध्येन तेषां गच्छतीत्येवंलक्षणम्। सम० स्वविवक्षासूचकं वाक्यम्। आव०६८ १४|
प्रश्नवाहन-कुलविशेषः। अनुयो० २७१। प्रमहंता-परिणतवया। निशी. २६७ अ।
प्रश्नव्याकरण-प्रश्नाः अङ्गुष्ठादिप्रश्नविद्या प्रमाणं-निश्चितं निर्गमः। स्था० ४३५
व्याक्रियते अभिधीय-न्तेऽस्मिन्निति। प्रश्न. १ स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तर-शताङ्ग्लोच्छ्रयता। भग० ११९| प्रश्रवण-मूत्रम्। स्था० ३४३। प्रज्ञा० १०५ शास्त्रीयोपक्रमे तृतीयः। आव. ५६। शास्त्रीयोपक्रमे प्रश्रेणि-नाट्यविशेषः। जम्बू०४१४। तृतीयः। स्था० ४। स्वलक्षणम्। स्था० ४९३।
प्रसङ्ग-आसेवनारूपः। आव०६६० प्रमादनिष्ठ- प्रमादपरः। आव ५८८
प्रसभं- प्रसभम्। ओघ. १२६। प्रमादबहुलः- प्रमादैर्बहुलो व्याप्तः। उत्त० ३३६। प्रसरं-समन्ततः। पिण्ड० १३६। प्रमेयरत्नमञ्जूषा- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिनाम। जम्बू० | प्रसृता-जङ्घा। प्रश्न. ७० १, ८८1 जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः। जम्बू० ४२४॥ प्रसेनजित्- श्रेणिकपिता। नन्दी० १५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका। जम्बू. १४६। जम्बू. १। प्रस्खलन्ति- गत्या प्रपतन्ती। स्था० ३२८१ प्रमोद-विनयप्रयोगः
प्रस्फोटका- चक्षुषा निरुप्य परावर्त्य। स्था० ३६२ वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्त्यकरणादिभिः
प्रहरणं-अस्त्रम्। भग० ९४। | सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोऽधिकेषु साधुषु
प्रहसनिका- हासः। प्रश्न. १३९। पदात्मोभयकृतपू-जाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनः प्रहेणक-फलिकम्। स्था० १४८ औप० ३९। प्रहर्षः। व्यव० २१७
प्रहेलिका-कुहेटका। वक्रोक्तिविशेषरूपा। बृह. २१३ आ। प्रमोदविजय- गृहविशेषः। जम्बू. २०९।
प्रहेलिकादानं-क्रीडादानम्। उत्त०४७। प्रयत्न-आदरः। जम्बू. १९२
प्रन्हुत-प्रप्लुतम्। प्रश्न. १९| प्रयोगमतिसम्पत्-आत्मपुरुषक्षेत्रवस्तुविज्ञानात्मिका। प्रांशुत्व- महाकायः। सूत्र० २७७ उत्त०३९।
प्राकारकोष्ठकं-अट्टालकम्। उत्त० ३११| प्रयोजन-करणम्। नन्दी. १४४।
प्राकृत-सामान्यः। भग 1 प्रलंब- प्रकर्षेण लंबते प्रलंबं मूलम्। बृह. १३५अ। मूलम्। | प्राग्विदेह- निषधपर्वते चतुर्थकूटम्। स्था० ७२ बृह. ३५आ।
प्राचुर्य-उत्पूरम्। प्रश्न० ४३ प्रलप्तं-भाषणम्। राज०५१
प्राजनकः-तोत्रम्। उत्त०६श तोत्रम्। उत्त० ५४८। प्रलयीभूता-नष्टाः। उत्त. २६३।
प्राजिता-सारथिः। भग० ३२२१ प्रलेपः- चित्रादौ। आव० ८८1
प्राज्ञाप्त-प्राज्ञात्-तीर्थकरादाप्तं प्राज्ञाप्तं गणधरैरिति प्रवादः- किंवदन्ती। नन्दी०६१। संलापः। आव. २४१। गम्यते, अथवा प्राज्ञैः गणधरैराप्तं प्राज्ञाप्तम। नन्दी. प्रवाल-वंशः, आवलिका। जम्बू० २५८सन्तानः। आव.
६०१। आचा० ३४१। वंशः, आवलिका। जम्बू०१६६ प्राणतकल्प-देवलोकः। आव०१७७ प्रवीचारः- परिचारः मैथुनोपसेवनम्। प्रज्ञा० ५४९। प्राणापानपर्याप्ति- यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यानि प्रवेशः-आगमनम्। स्था०२९४१
दलिकान्या-दायोच्छवासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य प्रव्राजनाचार्य-दीक्षादाताचार्यः। स्था० २९९।
मुञ्चति सा। बृह. १८४ आ। प्रव्राजयति-समस्तं लोचं करोतीति भावः। व्यव०६९। | प्रातःसमय- प्रदोषसमयः। जीवा० १९३। प्रवाजयितुं-सामायिकार्पणतः। व्यव० २१९ अ। प्रादोषिका-सूत्रपौरुषीम्। ओघ २२
६५
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
[270]
"आगम-सागर-कोषः" [३]
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[Type text]
प्रादोशिकादि:- कालविशेषः । उत्त० १८३ प्राप्तख्यातिः - लब्धशब्दः । प्रश्न ० ७१ | प्राप्ति- देशान्तरविषया पर्यायान्तरविषया च प्रज्ञा०
आगम - सागर- कोषः ( भाग :- ३)
पिण्ड० १२७
प्रीति- बाह्या प्रतिबन्धः । उत्त० ३९४। प्रीतिदानं यत्पुनः स्वनगरे भगवदागमननिवेदकाय नियुक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिस्ठमानसैर्दीयते तत् । बृह
३२८
प्राबल्येन मुक्तः उन्मुक्तः पृथग्भूतः आव० ५० प्राभृतं पूर्वान्तरगतः श्रुतविशेषः । आव ०६८ प्राभृतंइष्टः श्रुतस्कंधः । व्यव० ७८ अ
प्राभृतिका दानार्थं कल्पिता वसतिरिह गृह्यते। आचा ३६९। भिक्षा। आव० ४७८ |
प्रायश्चित्त दानादित्रिप्रकारं प्रायश्चित्तम्। ब्रह• ४८ आ।
प्रायसः- उत्सन्नं। आव० २८५
प्रायिकत्वं कादाचित्कत्वम् स्था० ५६ |
प्रायोगिक - कुसुम्भरागादिः, नोकर्मद्रव्यरागभेदः आव
३८७ |
प्रार्थयत्ति- निरुपयति। ओघ० ७९॥
प्रार्थित लब्धुमाशंसितः। जाता० ३४
प्रार्थिका प्रार्जिका मातृमातुः पितृमातुर्वा माता। दश
२१६|
प्रावचनः- कालापेक्षया बहवागमः पुरुषः । भग० ६१ | प्रावीण्यं कुशलत्वम् उत्त० १४३३ प्रासाद— उच्छतं गृहम्। आव०८२६। प्रासादबहुल प्रासादीयः । सूर्य० २
प्राहारिकपुरुष रक्षकपुरुषः । उत्तः ३५१॥
प्राहुणक- प्रादेशः । उत्तः रक्षपा
प्रियङ्कर– आधाकर्मरहितशुद्धाहारगवेषकः क्षपकः। पिण्ड० ७५
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प्रियगु पुष्पविशेषः । जीवा १३६ |
प्रियङ्गुरुचिका - गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणसेनपत्नी ।
पिण्ड० ७८ \
प्रियङ्गुलतिका - गोचरविषयोपयुक्ततायां
गुणचन्द्रपत्नी। पिण्ड ७
प्रियङ्गुसारिका- गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणशेखरपत्नी। पिण्ड ७८
प्रियङ्गसुन्दरी - गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणचूडपत्नी।
पिण्ड० ७८ \
प्रियमति- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे धनदत्तस्त्री।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
१९९ अ | आव० २३० |
प्रेतभूमि:- श्मशानम् । उत्त० ६६५%
प्रेत्य- मृत्वा पुनर्जन्म-परलोकः। आव० २४२। प्रेत्यसञ्ज्ञा प्राक्तनी घटादिविज्ञानसञ्ज्ञा आव० २४३१ प्रेरयति - विनयति अतिवाहयति च । प्रश्र्न० ६४ | प्रेहा प्रेक्ष्य निशी. २२ आ
प्रोथ:- घाणम्। जम्बू. २३७॥ प्रोषितः विदेशप्राप्तः । नन्दी० १६३३ प्रोषितपिता- श्रोतेन्द्रियनष्टः । भक्त |
- X - X - X -
[Type text]
[271]
। इति तृतीयो विभागः समाप्तः ।
*आगम- सागर - कोषः " [3]
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________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागरगूरुभ्यो नमः आगम-सागर-कोष: 3 [मूल शब्दसंकलनकर्ताः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज (प्राकृत-संस्कृत-शब्द एवं तेषाम् ससंदर्भ-व्याख्या सह) कोष-रचयिता मुनिश्रीदीपरत्नसागरजी महाराज [M.com._M.Ed._Ph.D. श्रुतमहर्षि]