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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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दीवेइ-दीपयति। आव. २६०
विविधबाधाविधायितया दीर्घामयास्तेभ्यो विप्रमुक्तो दीवेत्ता-दीपयित्वा-निवेदय। ओघ. १५६)
दीर्घामयविप्रमुक्तः। उत्त०६३९। दीवेह-दीपयत-कथयत प्रकाशयत। व्यव० १३४ आ। दीहासणं-दीर्घासनं-शय्यारूपमासनम्। जीवा० २०० दीहंवेगे-दीर्घहस्वयोः। स्था०४३।
दीहासणाई- शय्यारूपाणि। जम्बू.४५ दीह-दीर्घो दीर्घवर्णाश्रितो दूरश्रव्यो वा मेघादिशब्दवत्। दीहिया-दीर्घिका-ऋजुलघूनदी। प्रज्ञा० ७२श दीर्घिका
स्था० ४७१। दीर्घः-दीर्घपृष्ठः। उत्त० ३७७। दीर्घ-अनादौ सारणी। भग. २३८ औप० ३, ९३ अनयो० १५९। जीवा. केषाञ्चिदपर्यवसिते चेति। उत्त० २३३॥ दूरम्। व्यव० १९७। जम्बू. ४१। ऋजुसारिणी। औप० प्रश्न१६० ३१२ । दीर्घ-अल्पपृथुलं बहुच्छ्रयम। बृह. २४९ अ। जीवा. १८८। जम्बू. ३० ज्ञाता० ५। दीर्घिकाउलंबगं| निशी. १४ आ।
ऋज्वीनदी। प्रज्ञा० २६७। दीहगइपरिणामः- दीर्घगतिपरिणामः।
दुंदुभए- दुन्दुभकः-अष्टाशितौ महाग्रहे अष्टादशः। जम्बू. विप्रकृष्टदेशान्तरप्रा-प्तिपरिणामः। प्रज्ञा० २८९। ५३४। स्था० ७८ दीहजाइओ-दीर्घजातीयः। दशवै०५०
दुंदुभि-दुन्दुभिः-भेर्याकारा सङ्कटमुखी। राज० २५१ दीहडक्को -सर्पदृष्टः। आव०७८३।
भेर्याकारा कङ्कटमुखी देवातोयविशेषः। राज० ४९। दीहदंते-भरतक्षेत्रे आगामिन्यामत्सर्पिण्यां
दुंदुभिसर- दुन्दुभिस्वरः-वर्चस्वरो नादः। सम० १५८५ द्वितीयश्चक्रवर्ती। सम० १५४। दीर्घदन्तः
दुंदुभी-भेरी। प्रश्न. ४८० अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथम-वर्गस्य
दुंदुहि-दुन्दुभी-भेक्काविशेषः। भग० ४७६। दुन्दुभिःषष्ठममध्ययनम्। अनुत्त०१।
देववाद्यम्। जम्बू० १९२। दुन्दुभिः देववाद्यविशेषः। दीहपिट्ठ-यवोनामराजानस्य सचिवः। बृह. १९१ अ। भग० २१६ दीहबाहु- चन्द्रप्रभजिनस्य पूर्वभभवनाम। सम० १५१। | दुंदुहिस्सरो-दुन्दुभिवत्स्वरो यस्य स दुन्दुभिस्वरः। सम० १५४।
जीवा० २०७१ दीहमद्धं- दीर्घार्द्ध-दीर्घकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम्। प्रश्न | दुंदुही-दुन्दुभिः मेर्याकारा सङ्कटमुखी। जीवा० २४५।
९१। ज्ञाता० ८९। दीर्घाद्ध-दीर्घकालं दी? वाऽध्वा तप्प- | दुंदुहीओ- दुन्दुभयो देवानकाः। उत्त० ३६९। रिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गो यस्मिंस्तत्। उत्त० ५८५
इन्द्भः , सर्पविशेषः। उत्त० ३५४। भग. ५७२। दीर्घाद्धं दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घाखं, | दुः-अभावार्थे। आचा० १३६। मका-रआगमिकः, दो? वाऽध्वा मार्गो
दुःख- उष्णम्। आचा० १५११ यस्मिंस्तद्दीर्घाध्वम्। स्था० ४४। दीर्घालु जीर्घकालं दुःखासिका-वेदना। स्था० १८१। परितापना ओघ० ६५ दीर्घाकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम्। भागच्छा० ३४। आचा० १३९ दीहरत्तं-दीर्घरात्रं-यावज्जीवम्। सूत्र. १५२
दुःप्रसभः-तीर्थव्यवच्छेदकाले सरिः। व्यव. ४०२ अ। दीहराय-दीर्घरात्रः-मोक्षः। आव०६५८॥ दीर्घरात्रां दुःसंहृतं- दुःखेन संह्रियते-मील्यते स्मेति। उत्त० ३७५। यावज्जीवम्। आचा० २०८१
दुअं- द्रुतं-यत् त्वरितं गीयते त्वरितगाने हि दीहलोग-दीर्घलोकः-वनस्पतिः। आचा० ५। दीर्घोलोकः- रागतानादिपुष्टि-रक्षरव्यक्तिश्च न भवति। जम्बू०४०। पृथिव्यादिः। आचा० ५३
द्रुतनाम नाट्यं, द्रुतमिति शीघ्रं दीहसत्तं- णामकत्तति। निशी. २२६ अ।
गीतवाद्यशब्दयोर्यमकसमकप्रपातेन पादतदीहसेणे-दीर्घसेनः-अनत्तरोपपातिकदशानां
लशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् दूतं दवितीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम्। अनुत्त०२
नाट्यम्। जम्बू० ३१७ दीहामयव्विप्पमुक्को-दीर्घाणि यानि-स्थितितः दुअक्खरिआ-यक्षरिका। उत्त. १०७ प्रक्रमात्क-र्माणि तान्यामया इव-रोगा इव | दुअद्धखित्त-व्यर्धक्षेत्रम्। जम्बू० ४७८। द्वितीयमर्द्ध
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]