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आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
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सूत्रकृताङ्गे सप्तदशममध्ययनम्। ३२६। पौण्डरीकः- | पुक्खरवर- पुष्करवरः-पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः। जीवा. पुण्डरीक इव प्रधानः-तिर्यक्षु मनुष्येषु देवेषु च प्रधाना । ३३३पुष्कराणि-पद्मानि तैर्वरः-प्रधानः पुष्करवरः नाम-पमा। सूत्र० २६७। पुण्डरीकः-क्षीरवरदीपे पूर्वार्धाधि- दवितीयो द्वीपः। आव०७८८ पुष्करवरः-कालोदधिपतिर्देवः। जीवा० ३५३। पुण्डरीकं-सूत्रकृताङ्गे
समुद्रानन्तरो द्वीपः। प्रज्ञा० ३०७) द्वितीयश्रुत-स्कन्धे प्रथमाध्ययनम्। आव०६५८ पुक्खरवरदीव- पुष्करवरद्वीपः- पद्मवरोपलक्षितो दवीपः। पुण्डरीकं-सूत्रकृता-ङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम्। उत्त. अनुयो० ९० ६१६। पुण्डरीक-सिता-म्बुजम्। प्रज्ञा० ३६३। पुण्डरीकं- | पुक्खरवरसमुद्द- पुष्करवरसमुद्रः-पुष्करवरद्वीपानन्तरं प्रधानम्। उत्त० ४८४। महापद्मपद्मावत्त्योः पुत्रः। ज्ञाता० समुद्रः। प्रज्ञा० ३०७ २४३। पुण्डरीकः- महा-राजपुत्रः,
पुक्खरसंवद्दग- पुष्कलसंवर्तकः-उदकरसो प्रथमो सदनुष्ठानपरायणतयाऽस्य शोभनत्वे उपमा। सूत्र० । महामेघः। पुष्कलं-प्रचुरमपि सर्वमशुभानुभावं २६८पुण्डरीकः-अलोभोदाहरणे सात्केतनगराधिपतिः। भूमिरुक्षतादाहादिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयतिआव० ७०२२पुण्डरीकः-महापद्मराजस्य ज्येष्ठसुतः। नाशयति। अनुयो० १६० उत्त० ३२६। पुण्डरीकः-पुण्डरिकिण्यां राजा। आव० २८८१ | पुक्खरसारिया- लिपिविशेषः। प्रज्ञा० ५६। पुण्डरीकं-सितपद्मम्। ज्ञाता०९६। पुण्डरीकः-ज्ञातायामे- | पुक्खरिणी- पुष्करिणी-वृत्ता वाप्येव जलाशया पुष्करवती कोनविंशतितममध्ययनम्। आव०६५३| पुण्डरीकं- | वा। अनुयो०१५९| पुष्करणी-पुष्करवती वर्तुला। प्रश्न. सितम्। भग. ५२० पौण्डरीकः-शिखरीणः पर्वते हृदः। १६०| पुष्करिणी वर्तुलः। औप० ९३। पुष्करिणीस्था०७३। सूत्रकृताङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम्। सम० पुष्कराण्यस्यां विद्यन्त इति। जीवा० १२३। पुष्करिणी४२। पुण्डरीक-सहस्रपत्रम्। भग०७
वृत्ता वापी, पुष्क-राणि विद्यन्ते यस्यां सा वा। जीवा. पुंडरीयगुम्म- अष्टादशसागरोपमस्थितिकदेवविमानम्। १८८ वापीवृत्ता। जम्बू. ३०| पुष्करिणी-वृत्ताकारा। सम० ३५
प्रज्ञा० २६७। वृत्ताकारा। जम्बू०४१। वृत्ताकारा वापी पुंडरीयणाय- पुण्डरीकज्ञातम्, ज्ञातायां प्रथम श्रुतस्कंधे पुष्करिणी यदि वा पुष्क-राणि-पद्मानि विद्यन्ते यास् ता एकोनविंशतितममध्ययनम्। ज्ञाता०९।।
पुष्करिण्यः। प्रज्ञा० ७२। पुष्करिणी वृत्तः पुष्करवान् वा पुंसयति- रूक्षयति। बृह० ७१ आ।
जलाशयविशेषः। भग. २३८५ पुस्कलीपुष्प- कूष्माण्डिकाकुसुमम्। जम्बू० ३४। | पुक्खरोद- पुष्करोदः- समुद्रविशेषः। ज्ञाता० १२८। पुष्कपु-पूः शरीरम्। आव० २७७
रोदः- पुष्करवरद्वीपपरितोऽपि शुद्धोदकरसास्वादः पुक्कंत- पूत्कुर्वन्-पुत्कारं कुर्वाणः। प्रश्न० ४९। समुद्र-विशेषः। अनुयो० ९०| पुक्खर- पुष्करं-चर्मपुटम्। राज० ३१। पुष्कर-चर्मपुटकम्। | पुक्खल- पद्मकेसरम्। आचा० ३४८। पुष्कलं-प्राचुर्यम्।
जम्बू. ३१। पुष्कर-चर्मप्टकम्। जीवा० १८९।। | सूत्र० २८६। पुष्कलं-सम्पूर्णम्। आव० ७८८ पुष्कलं सर्व पुक्खरकण्णिया- पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः। स्था० । अशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्ष्यदाहादिकम्। जम्बू. १७३। १४५। पुष्करकर्णिका-पद्मबीजकोशः। जीवा० १७८५ पुक्खलविजय- पुष्कलावर्तःसप्तमो विजयः। जम्बू० ३४६। पुष्करकर्णिका-पद्मबीजकोशः-कमलमध्यभागः। जम्ब० | पुक्खलविभंग- पद्मकन्दम्। आचा० ३४८१
पुक्खलसंवट्टओ- पुष्करसंवतकः-जम्बूद्वीपप्रमाणो पुक्खरणी- पुष्करिणी-तडागरूपा। सूत्र० २८६। चतस्रा । महामेघः। आव० १० वापी पुष्करणी। स्था० ८६। पुष्करिणी-वृत्ता पुष्करवती | पुक्खलसंवदृग- पुष्कलसंवर्तकः-महामेघः। भग० २३२॥ वा। औप०८ पुष्करिणी-वृत्तकारा वापी, पुष्कराणी | पुक्खलसंवट्टत- एकया वृष्टा वर्षसहस्रं वासयितुं समर्थो विदयन्ते यस्यां सा वा। जीवा. १९७। चाउरस्सा
मेघः। स्था० २७० पक्खरणी। निशी. ७० आ।
| पुक्खलसंवट्टय- पुष्कलं-सर्वं अशुभानुभावरूपं भरतभूरौ
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मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]