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11. "दिवा देवत्राऽभवत् । तदनुदेवानसृजत। तद्देवानां देवत्वम् ।"14
इस उद्धरणमें देव शब्द व्याख्यात है। देवका सम्बन्ध दिवासे जोड़ कर इसके अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयास किया गया है। देव शब्द में दिव् धातुका योग माना जायेगा। 12. “अमुं स लोकं नक्षते तन्नक्षत्राणां नक्षत्रम्"15
यहां नक्षत्र पदका निर्वचन हुआ है। नक्षतसे नक्षत्रका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। निरुक्तमें भी नक्ष गतिकर्मा धातुसे नक्षत्रका निर्वचन माना गया है।" 13. गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः गायतोमुखादुत्पतदिति च
ह ब्राह्मणम्"17
यहां गायत्री शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। यह स्तुत्यर्थक गैधातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि गाते हुए (ब्रह्मा फे) मुखसे निकल पड़ी यह निर्वचन प्रत्यक्ष वृत्याश्रित है। निरुक्तमें भी इसी प्रकारका निर्वचन प्राप्त होता
है।
14. जगति गततमं छन्दो जज्जगतिर्भवति क्षिप्रगतिर्जज्मला
कुर्कन सृजतेति ह च ब्राह्मणम् ।
इस उद्धरणमें जगती शब्द व्याख्यात है। जगतीमें गम् धातुका योग माना गया है। निरुक्तमें भी इसी प्रकारका निर्वचन प्राप्त होता है। 15. “तद् यत्समवद्रवन्त तस्मात् समुद्रउच्यते" अथ वै समुद्रो योऽयं
पर्वत एतस्माद्वै समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति ।।
इन उद्धरणोंमें समुद्र शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। समुद्र शब्दमें सम् + उत् + द्रु गतौ धातुका योग है। निरुक्तमें भी इसी प्रकारका निर्वचन प्राप्त होता है। यह निर्वचन प्रत्यक्ष वृत्याश्रित है।
उपर्युक्त निर्वचनोंके दर्शनसे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें विषयानुरूप निर्वचन प्राप्त होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों के तीन प्रतिपाद्य विषय हैं, अधिभूत, अध्यात्म एवं अधिदैव । प्रायः ब्राह्मण ग्रन्थों के निर्वचनों का झुकाव इन्हीं तीनों विषयों की ओर है। इन निर्वचनों में कर्मकाण्ड आदि विविध विषयों से सम्बद्ध तत्त्व एवं रूढ़ियां प्रवल हैं । फलतः कुछ निर्वचनों का ध्वन्यात्मक
२६ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क