________________ तत्परता का भी संकेत किया है। यहां बताया गया है कि मलधारी हेमचंद्र ने हजारों ग्रंथों का अध्ययन किया था। उनको अद्भुत वचन-शक्ति प्राप्त थी। भगवती सूत्र जैसा विशालकाय आगम ग्रंथ उन्हें कण्ठस्थ था। वे जिनशासन के परमप्रभावक व परम कारुणिक स्वभाव के थे। उन्हें व्याख्यान-लब्धि प्राप्त थी और उनकी प्रवचन शैली इतनी आकर्षक व प्रभावक थी कि जिन-भवन के बाहर भी खड़े होकर जनता उनके उपदेशामृत का पान करने हेतु उत्कंठित रहती थी। आचार्य सिद्धर्षिकृत 'उपमिति भव प्रपंच कथा' उन्हें अधिक प्रिय थी और उन्होंने वर्षों तक इस पर अपने प्रवचन दिये और इस प्रकार सामान्य जन में वैराग्य-भावना का प्रचार किया। उन्होंने अनेकानेक ग्रन्थों की रचना की और जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट योगदान दिया। जीवसमासवृत्ति के अंत में इन्हें यम-नियमादिनिष्ठ भट्टारक (संमान्य) श्वेताम्बराचार्य कहा गया है। अतः यह स्पष्ट है कि ये शुद्ध श्रमणाचार का अप्रमादपूर्वक पालन करने वाले थे और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं के पोषक, समर्थक व प्रचारक महान् आचार्यों में परिगणित थे। विद्वत्ता व विनय का योग मणिकाञ्चनसंयोग की तरह प्रशस्त माना जाता है। मलधारी हेमचंद्र विद्वान् होते हुए भी नम्रता, निरभिमानता व धार्मिकजनवत्सलता के मूर्ति थे। स्वयं को उन्होंने पूर्वाचार्यों की तुलना में 'मंदमति' तक कहा है। स्वरचित ग्रन्थों के अंत में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गुरुजनों से मैंने जो कुछ सीखा है, वह मैं भूल न जाऊं, इसलिए मैं यह ग्रन्थ रच रहा हूं, मेरे जैसे कर्म-पराधीन छद्मस्थ को मोह (अज्ञान) होना स्वाभाविक ही है, अतः मेरे ग्रंथ में कुछ त्रुटि या दोष हो तो उसे विद्वान् मुनिराज शुद्ध कर लें। बृहवृत्ति के अतिरिक्त रचनाएं मलधारी हेमचंद्र की विशेषावश्यक भाष्य पर शिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति के अतिरिक्त अन्य रचनाएं भी हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं 73. यमनियमस्वाध्यायध्यान-अनुष्ठानरत-परमनैष्ठिक-पंडितश्वेताम्बराचार्य-भट्टारकश्रीहेमचंद्राचार्येण (जीवसमासवृत्ति, प्रस्तावना)। 74. शिष्यहिता बृदवृत्ति, प्रारम्भ। 75. समुपासितगुरुजनतः समधिगतं किंचिदात्मविस्मृतये। संक्षेपादावश्यकविषयं टिप्पनमहं वच्मि (आवश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्या, प्रारम्भ)। इतिगुरुजनमूलादर्थजातं स्वबुद्ध्या, यदवगतमिहात्मस्मृत्युपादानहेतोः / तदुपरचितमेतत् यत्र किंचित् सदोषं मयि कृतगुरुतोषैस्तत्र शोध्यं मुनीन्द्रैः // छद्मस्थस्य हि मोहः कस्य न भवतीह कर्मवशगस्य। सद्बुद्धिविरहितानां विशेषतो मद्विधासुमताम् (आवश्यकवृत्तिप्रदेश व्याख्या, अंतिम प्रशस्ति)॥ यच्चेह किमपि वितथं लिखितमनायोगत: कुबोधाद् वा। तत्सर्वं मध्यस्थैः मय्यनुकम्पापरैः शोध्यम् (शिष्यहिता बृहवृत्ति, अंतिम प्रशस्ति, पद्य-5)॥ RODecROORBOROR [57] RODORO0BROOSROOR