________________ कदाचिदात्मीयं मनः स्वप्ने मेर्वादौ गतं कश्चित् पश्यति, तथा कोऽपि शरीरमात्मानमपि नन्दनतरुकुसुमावचयादि कुर्वन्तं तद्गतं पश्यति, न च तत् तथैव, इहस्थितैः सुप्तस्य तस्याऽत्रैव दर्शनात्, द्वयोश्चात्मनोरसंभवात्, कुसुमपरिमलाद्यध्वजनितपरिश्रमाउनुग्रहोपघाताभावाच्च // इति गाथार्थः // 224 // एतदेव भावयन्नाह इह पासुत्तो पेच्छइ सदेहमन्नत्थ, न य तओ तत्थ। न य तग्गयोवघायाणुग्गहरूवं विबद्धस्स // 225 // [संस्कृतच्छाया:- इह प्रसुप्तः प्रेक्षते स्वदेहमन्यत्र, न च सकस्तत्र / न च तद्गत-उपघातानुग्रहरूपं विबुद्धस्य // ] इह जगति प्रसुप्तः कश्चित् स्वदेहमन्यत्र नन्दनवनादौ गतं स्वप्ने पश्यति। न च तकोऽसौ देहस्तत्र नन्दनवनादावुपपद्यते, इहस्थितैरन्यैस्तस्याऽत्रैवोपलम्भात्, इत्याद्यनन्तरोक्तयुक्ते : / न च विबुद्धस्य सतस्तद्गतयोरन्यत्र गमनगतयोरन्यत्र इसलिए (व्यभिचार हेतु सिद्ध है)। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वप्न में कभी अपने मन को मेरु आदि में गया हुआ देखता (अनुभव करता) है, वैसे ही कोई व्यक्ति अपने शरीर को (अर्थात् सशरीर स्वयं को) भी वहां जाकर (स्वर्गीय) नन्दन वन के वृक्षों से फूल एकत्रित करते हुए देखता (अनुभव करता) है, किन्तु वैसा होता नहीं। उस सोये हुए व्यक्ति को यहां लोग वहीं (पड़े हुए) देखते हैं, और आत्माएं दो तो हो नहीं सकतीं। दूसरी बात, (फूल की) सुगन्ध तथा मार्गगमन-जनित परिश्रम आदि अनुग्रह व उपघात (जो मेरु आदि में जाने वाले व्यक्ति में होने चाहिएं थे, उन) का सद्भाव नहीं देखा जाता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 224 // (स्वप्न अनुभूत क्रिया फलरहित) उपर्युक्त भावों को ही (अभिव्यक्त करते हुए भाष्यकार) कह रहे हैं // 225 // इह पासुत्तो पेच्छइ सदेहमन्नत्थ, न य तओ तत्थ / न य तग्गयोवघायाणुग्गहरूवं विबुद्धस्स // [(गाथा-अर्थ :) यहां सोया हुआ व्यक्ति अपने शरीर को अन्यत्र (गया हुआ) देखता है, किन्तु वह (शरीर वस्तुतः) वहां होता नहीं। साथ ही, जागने पर (अन्यत्र) गमन करने से होने वाले उपघात व अनुग्रह स्वरूप (का सद्भाव) भी (दृष्टिगोचर या अनुभूत) नहीं होता।] व्याख्याः- इस संसार में कोई सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में देखता है कि उसका शरीर अन्यत्र, नन्दन-वन आदि में गया हुआ है। किन्तु, चूंकि यहां विद्यमान अन्य लोगों को (उसका) वह (शरीर) यहीं उपलब्ध (दृष्टिगोचर) होता है- इत्यादि पहले कही हुई युक्ति के आधार पर (यह निर्विवाद है कि) उसका वही शरीर नन्दन वन आदि में उत्पन्न नहीं होता (पहुंच नहीं जाता)। (इतना ही नहीं,) जब वह जागता है तब, जो वहां जाने पर, अन्यत्र गमन करने पर होने वाले, जैसे कि फूलों .----- विशेषावश्यक भाष्य --------331 4