________________ अत्रोत्तरमाह स किमोग्गहो त्ति भण्णइ, गहणेहावायलक्खणत्ते वि?। अह उवयारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सो वि॥२८१॥ [संस्कृतच्छायाः-स किमवग्रहः इति भण्यते ग्रहण-ईहा-अपायलक्षणत्वेऽपि? अथ उपचारः क्रियते ततः शृणु यथा युज्यते सोऽपि॥] इह पूर्वमनेकधा प्रतिविहितमप्यर्थं पुनः पुनः प्रेरयन्तं प्रेरकमवलोक्याऽन्तर्विस्फुरदसूयावशात् सापेक्ष काक्वा सूरिः पृच्छति'किमोग्गहो त्ति भण्णइत्ति' / किंशब्दः क्षेपे, यो बहु-बहुविधादिविशेषवशाद् विशेषावगमः स किमबुधचक्रवर्तिन् ! अवग्रहोऽर्थावग्रहो भण्यते?। क्व सत्यपि?, इत्याह- 'गहणेहित्यादि / ग्रहणं च सामान्यार्थस्य, ईहाऽवगृहीतस्य, अपायश्चेहितार्थस्य ग्रहणेहाऽपायास्तैर्लक्ष्यते प्रकटीक्रियते यः स तथा तद्भावस्तत्त्वं तस्मिन् सत्यपि, बहु-बहुविधादिग्राहको हि विशेषावगमो निश्चयः, सच सामान्याऽर्थग्रहणम्, ईहां च विना न भवति, यश्च तदविनाभावी सोऽपाय एव, कथमर्थावग्रह इति भण्यते? इति / एतत्पूर्वमसकृदेवोक्तमपि हन्त! विस्मरणशीलतया जडतया, बद्धाभिनिवेशतया वा पुनः पुनरस्मान् भाणयसीति किं कुर्मः?, पुनरुक्तमपि ब्रूमः, यद् यस्मादायासेनाऽपि कश्चिद् मार्गमासादयतीति। (अपेक्षा से अपाय-व्यावहारिक अवग्रह) अब, (पूर्वोक्त मत का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 281 // स किमोग्गहो त्ति भण्णइ, गहणेहावायलक्खणत्ते वि?। अह उवयारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सो वि॥ . [(गाथा-अर्थ :) (सामान्य अर्थ का) ग्रहण, ईहा व अपाय (-इन सब का) लक्षण प्राप्त होने पर भी, उसे आप 'अवग्रह' क्यों कहते हैं? यदि आप अवग्रह में (विशेष ज्ञान का) उपचार करते हैं तो (हमारा कहना है कि) वह उपचार भी जिस रीति से उपयुक्त हो, उसी तरह (करणीय) होता है।] व्याख्याः - इसी प्रकरण में अनेक बार निराकरण किये गये प्रश्न को भी बार-बार पूछते हुए प्रश्नकर्ता (वादी) को देख कर आविर्भूत आन्तरिक असूया (गुण में दोष-दृष्टि) के कारण, आक्षेपसहित 'काकु' (व्यंग्य) के द्वारा सूरि (भाष्यकार) पूछ रहे हैं- (किम् अवग्रहः इति भण्यते)। 'किम्' शब्द यहां 'क्षेप' यानी अनादर का सूचक है। (व्यंग्य व अनादर से पूर्ण अर्थ इस प्रकार है-) हे अज्ञानी जनों के चक्रवर्ती (सम्राट)! जिस अवग्रह-अर्थावग्रह को बहु, बहुविध आदि विशेषणों के कारण विशेष ज्ञान के रूप में आप बता रहे हैं!! (आपके इस अज्ञान पर हमें शर्म आती है)। (प्रश्न-) क्या होने पर भी? उत्तर दिया- (ग्रहण-ईहा इत्यादि)। ग्रहण, ईहा व अपाय के होने पर भी। ग्रहण यानी सामान्य अर्थ का ग्रहण, अवगृहीत की ईहा, ईहा-युक्त का अपाय (निश्चय) -इन तीनों लक्षणों के द्वारा अर्थावग्रह, ईहा व अपाय का होना व्यक्त हो रहा है, तब भी (उसे मात्र अवग्रह कह रहे हैं?) यह हम पहले कई बार कह चुके हैं, किन्तु खेद है कि भूल जाना तो (मानों) आपका स्वभाव हो गया है, इस Maa 408 ----- --- विशेषावश्यक भाष्य -