________________ इह च गाथात्रयेऽपि यः पर्यवसितोऽर्थो भवति, तमाह सव्वत्थेहावाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं। संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ॥२८५॥ [संस्कृतच्छाया:-सर्वत्र ईहा-अपायौ निश्चयतो मुक्त्वा आदिसामान्यम्। संव्यवहारार्थं पुनः सर्वत्र अवग्रहोऽपायः॥] सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत ईहाऽपायौ भवतः। 'ईहा, पुनरपायः, पुनरीहा, पुनरप्यपायः' इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, तावदीहाऽपायावेव भवतः, नाऽर्थावग्रह इत्यर्थः। किं सर्वत्रैवमेव?, न, इत्याह- 'मोत्तुमाइसामण्णं ति'। आद्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकं सामयिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहाउपायौ भवतः, इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपायः, किन्त्वर्थावग्रह एवेति भावः। संव्यवहारार्थं व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पुनः सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरोत्तरेहाऽपायापेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया / चोपचारतोऽर्थावग्रहः। एवं च तावद् नेयम्, यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकाङ्क्षा प्रवर्तते // इति गाथार्थः // 285 // __ अब, इन (उपर्युक्त) तीन गाथाओं में जो अर्थ (सिद्धान्त) अन्त में स्थिर हुआ, उसे ही आगे कह रहे हैं // 285 // सव्वत्येहावाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं / संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ || [ (गाथा-अर्थ :) आद्य (प्रथम) सामान्य ज्ञान को छोड़ कर, सर्वत्र (मति ज्ञान की प्रक्रिया में) वास्तविक रूप से ईहा व अपाय (क्रम से, बारबार) होते रहते हैं। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सर्वत्र जो जो अपाय है, वह वह (भावी अपाय की तुलना में, उपचार से) अर्थावग्रह रूप होता है।] व्याख्याः - सर्वत्र विषय-ज्ञान करने में, निश्चय से, अर्थात् परमार्थतः ईहा व अपाय होते (रहते) हैं, अर्थात् ईहा, फिर अपाय, फिर ईहा व अपाय -इसी क्रम से जब तक अन्तिम विशेष हो, तब तक ईहा व अपाय होते रहते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता। (प्रश्न-) क्या यह स्थिति सर्वत्र सदा होती है? उत्तर दिया- सर्वत्र नहीं- (मुक्त्वा आदिसामान्यम् इति)। तात्पर्य यह है कि आद्य अव्यक्त सामान्य मात्र ग्राही एकसमयवर्ती ज्ञान को छोड़कर, अन्यत्र (द्वितीय, तृतीय आदि उक्त अव्यक्त ज्ञानों में) ईहा व अपाय (-ये दोनों क्रम से) होते रहते हैं, यह (आद्य अव्यक्त आदि) ज्ञान न तो ईहा होता है और न ही अपाय, किन्तु अर्थावग्रह ही होता है। व्यवहार हेतु व्यावहारिक जनों की प्रतीति की अपेक्षा से तो सर्वत्र जो जो 'अपाय' है, वह वह उत्तरोत्तर ईहा व अपाय की अपेक्षा से, तथा भावी विशेष की अपेक्षा से, उपचार से अर्थावग्रह होता है। यह क्रम तब तक चलाते रह सकते हैं जब तक तारतम्य के साथ उत्तरोत्तर विशेष की आकांक्षा प्रवृत्त होती रहे || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 285 // ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ----