Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य माणात ATES जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण विरचित JURama 5G SIGNR ID भाष्य [पूज्य आचार्य मलधारी हेमचन्द्र कृत 'शिष्यहिता' बृहवृत्ति सहित] (हिन्दी अनुवाद सहित) प्रथम खण्ड main अनुवाद प्रमुख एवं निर्देशक : आगम रत्नाकर विद्यावाचस्पति आचार्य प्रवर श्री सुभद्रमुनि जी महाराज अनुवाद एवं सम्पादकः प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सृजनधी व्यक्तित्व 21वीं सदी के आगमज्ञ मनीषी मनिराजों की श्रेणी में पूज्य आचार्य श्री की अपनी पहचान है। इनकी विमल प्रज्ञा-गंगा में आगमों का अमृत बहता है। इनकी प्रज्ञा में प्रवाहित ज्ञान-प्रभा न केवल इनकी मस्तिष्कीय चकाचौंध की उपज है बल्कि इनके आचार, विचार और व्यवहार के प्रत्येक क्षण में उस प्रभा की स्वतः स्फूर्त प्रभावना के दर्शन किए जा सकते हैं। "कहं चरे, कह। चिठे'... के आगमीय प्रश्न इनके आचार में "जयंचरे, जयंचिठे'...के शाश्वत समाधान बनकर साकार हुए देखे जा सकते हैं। न केवल अपने कपा-पात्रों के प्रति बल्कि (निःसंदेह) प्राणिमात्र के प्रति इनकी आत्मीयता, मृदुता, ऋजुता "निग्गंथा उज्जुदसिणो'' का सांगोपांग दर्शन प्रस्तुत करती है। साधुता की शाश्वत सुवास से सुवासित इनके व्यक्तित्व का दर्शनार्थी। मंत्रमुग्ध हो उठता है। 'साधना, स्वाध्याय और सजनधर्मी व्यक्तित्व के संगम (जंगम) तीर्थ श्रद्धेय आचार्य श्री द्वारा रचित, अनुदित, व्याख्यायित एवं संपादित शब्द-संसार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वाधिक पढ़े-पढ़ाए जाने वाले जैन साहित्य में आचार्य श्री के साहित्य का अपना प्रमुख स्थान है। महाप्राण मनि मायाराम, जैन चरित्र कोष, अहिंसा विश्वकोष, मैं महावीर को गाता हूँ, मैं सबका मित्र हूँ, आदि इनकी कालजयी रचनाएं हैं।। इस क्रम में प्रस्तुत ग्रन्थ श्री विशेषावश्यक भाष्य का सटीक अनुवादन भी पूरी गरिमा के साथ जुड़गया है। __1500 वर्ष पूर्व रचित श्री विशेषावश्यक भाष्य पर राष्ट्रभाषा में कलम चलाने वाले आप प्रथम मुनिराज हैं। आपका यह सूजन-धर्म स्वाध्याय प्रेमियों एवं विशेषतः शोधार्थियों के लिए ज्ञानालोक के नए वातायन खोलने वाला सिद्ध होगा, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। -अमित राय जैन (महामंत्री : एस.एस. जैन सभा बड़ौत) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-विरचित विशेषावश्यक भाष्य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEG0100100500007077777 400000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000......................................... आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-विरचित विशेषावश्यक भाष्य [पूज्य आचार्य मलधारी हेमचन्द्र-कृत 'शिष्यहिता' बृहद्वृत्ति सहित] ' (हिन्दी अनुवाद) प्रथम खण्ड Ho:09102090090090920010910900900900900900900900900909 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अनुवाद प्रमुख एवं निर्देशक : (परमपूज्य जैन शासनसूर्य आचार्यकल्प मुनि श्री रामकृष्ण जी महाराज के सुशिष्य) आगमरत्नाकर, विद्यावाचस्पति पूज्य आचार्यप्रवर श्री सुभद्र मुनि जी महाराज संयोजन : मुनिरन श्री अमित मुनि जी महाराज Pi0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000 अनुवाद एवं सम्पादक : प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री प्रकाशक: मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन के-डी. ब्लाक, पीतमपुरा, दिल्ली-110085 .....................................................................0000000000000000000000000000000000 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O HARope000000000000000000............................................................................ 1306 2002090920940910909200109092001090091090920000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 G 7000000000000000 : विशेषावश्यक भाष्य (शिष्यहिता वृत्ति सहित) हिन्दी अनुवाद अनुवाद प्रमुख एवं निर्देशक : आगमरत्नाकर, विद्यावाचस्पति आचार्यप्रवर श्री सुभद्रमुनि जी महाराज संयोजक :: मुनि रत्न श्री अमित मुनि जी महाराज वाद एवं सम्पादक : प्रो. डॉ.दामोदर शास्त्री, प्रोफेसर-जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, (राज.) प्रकाशक : मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन, के-डी, ब्लाक, पीतमपुरा. दिल्ली-110085 प्राप्ति स्थान : 1. श्री दिनेश कुमार जैन, . जैन साहित्य एवं उपकरण भण्डार 1296, कटरा धुलिया, चांदनी चौक, दिल्ली-6,फोन-011-23919370 2. श्री अमितराय जैन (निर्देशक) शहजादराय शोध संस्थान . शहजादराय भवन, मंडी घनश्याम गंज, बड़ौत-250611, जि. बागपत-उत्तरप्रदेश मो.-9837394448 सरस्वती पुस्तक भण्डार रत्नपोल, अहमदाबाद, गुजरात 4. भारतीय विद्या प्रकाशन, C/o श्री अजित जैन आत्म वल्लभ सोसायटी, सै. 13, रोहिणी दिल्ली -110085, मो.-9311292123 प्रथम संस्करण : 8 फरवरी, सन् 2009 मूल्य : 500/लेजर टाइपसैटिंग : श्रुतगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली-17, मो.-09929126088 मुद्रक : कोमल प्रकाशन, दिल्ली, मो.-9210480385 (c) सर्वाधिकार सुरक्षित 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000 6......................... ....... ................... ....... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ...... 00: N 4 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOTOP जिनके कृपा-प्रसाद से विशेषावश्यक की विशाल श्रुत-सम्पदा मेरी प्रज्ञा में प्रकाशित हुई उन प्रज्ञा-पुरुषोत्तम जिनशासन सूर्य, आचार्य कल्प श्रद्धेय गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी महाराज के अदृष्ट पाणि-पल्लवों में समर्पित है मेरा यह अक्षर-श्रम! - आचार्य सुभद्र मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (लेखक परम्परा) चारित्र चूड़ामणि संयम सुमेरु महाप्राण मुनि श्री मायाराम जी महाराज सातवें शिष्य सुदृढ़ संयमी श्री सुखीराम जी महाराज श्रमण धर्म के मुकुट योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज ... * प्रज्ञा पुरुषोत्तम संघशास्ता गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी महाराज विद्यावाचस्पति गुरुदेव आचार्य श्री सुभद्र मुनि जी महाराज शिष्य-प्रशिष्यः पण्डितरत्न श्री रमेश मुनि जी महाराज, सरलमना श्री अरुण मुनि जी महाराज, तपस्वी श्री नरेन्द्र मुनि जी महाराज, मुनिरत्न श्री अमित मुनि जी ! * महाराज, दीर्घ तपस्वी श्री हरिमुनि जी महाराज, सेवामूर्ति श्री प्रेम मुनि जी * महाराज, विनयमूर्ति श्री मुकेश मुनि जी महाराज, नवदीक्षित श्री मुदित मुनि जी महाराज, नवदीक्षित श्री संदीप मुनि जी महाराज / ******************* [4] ****************** Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक भागीरथ प्रयास बत्तीस आगमों में आवश्यक सूत्र का प्रमुख स्थान है। इस आगम में जैन साधक के लिए * * आवश्यक रूप से करणीय क्रियाओं / साधनाओं का संकलन है। साधना की सफलता और दैनिक * आत्म-शुद्धि के लिए वैदिकों में सान्ध्यकर्म, ईसाईयों में प्रार्थना, बौद्धों में उपासना एवं मुस्लिमों में * नमाज का जो स्थान है वही स्थान जैन परम्परा में आवश्यक-आराधना का है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, * * वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान ये छह सोपान आवश्यक के अंग हैं। इन्हें ही षडावश्यक * * कहा जाता है। प्रत्येक श्रमण और श्रावक प्रतिदिन दोनों सन्ध्याओं में आवश्यक रूपी दर्पण में स्वयं * का अवलोकन करता है। राग और द्वेष के दुर्भावों से मुक्त होकर, देव एवं गुरु के प्रति प्रार्थना व * वन्दन के भावों से युक्त होकर साधक आत्मदर्शन करता है। आत्मदर्शन की अन्तर्यात्रा में वह देखता * है कि साधना-पथ पर उसने कितनी प्रगति की है, आत्मशुद्धि के वे कौन-कौन से अनुष्ठान हैं जिनकी . वह आराधना नहीं कर पाया है, एवं साधना-मार्ग पर वह कहां-कहां स्खलित हुआ है। आवश्यक* आराधना की वेला में वह स्खलनाओं से उत्पन्न दोषों का आत्म-आलोचना, आत्म-निन्दना एवं * आत्म-गर्हा द्वारा प्रक्षालन करता है। पुनः स्खलना न हो उसके लिए वह काया के ममत्व से मुक्त होकर ध्यान कोष्ठक (कायोत्सर्ग) में प्रवेश लेता है तथा आवश्यक के अंतिम चरण प्रत्याख्यान द्वारा * आश्रव-द्वारों पर प्रतिबंध लगाता है। शेष आगमों की स्वाध्याय कदाचित् प्रतिदिन न हो पाए तो साधना बाधित नहीं होती है, परन्तु आवश्यक सूत्र की आराधना किसी एक संध्या में भी बाधित हो जाए तो साधक साधना-पथ से भटक * जाता है। साधक स्वस्थ हो या रुग्ण, उसके लिए दोनों सन्ध्याओं में आवश्यक की आराधना अनिवार्य है। इसीलिये आवश्यक सूत्र का बत्तीस आगमों में प्राधान्य है। * आवश्यक सूत्र के इसी प्राधान्य के कारण श्रमण-परम्परा के प्रायः सभी मनीषी मुनियों ने इस आगम पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया। प्राचीनकाल से ही इस आगम पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, * विवरणिका आदि के रूप में प्रभूत साहित्य की रचना हुई है। लगभग 1600 वर्ष पूर्व सर्वप्रथम आगम* साहित्य को पुस्तकारूढ़, किया गया। इससे आगम साहित्य के स्वरूप में एकरूपता एवं स्थायित्व * आया। क्योंकि आगम साहित्य के मूल पद सूत्र रूप में थे इसलिये साधारण बुद्धि वाले साधकों के लिए उनके मौलिक अर्थों को समझ पाना आसान नहीं था। इसी तथ्य को लक्ष्य में रखते हुये विद्वान मुनिराजों * ने सूत्र रूप आगमों के सरलीकरण के लिए उनकी व्याख्याओं का लेखन शुरू किया। . आगम पदों के रहस्यों को प्रकट करने वाला सर्वाधिक पुराना साहित्य नियुक्ति साहित्य के रूप * में प्राप्त होता है। सूत्र के मौलिक अर्थ को प्रकट करने वाली व्याख्यान-पद्धति को नियुक्ति कहा जाता है। * * नियुक्तिकारों में आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (वि. की 5-6 शती) का नाम प्राथमिकता और प्रधानता से लिया * जाता है। उन्होंने लगभग दस आगमों पर नियुक्तियों का लेखन किया। इनमें से सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र * पर बृहद् नियुक्ति की रचना की जिसमें 1600 से अधिक गाथाएं हैं। आवश्यक नियुक्ति में आवश्यक * * सूत्र के छह अध्ययनों के साथ-साथ अन्य अनेक विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। शेष आगमों * * पर अपेक्षाकृत संक्षिप्त नियुक्तियां हैं और जो विषय आवश्यक सूत्र की नियुक्ति में प्रकाशित किए जा चुके ******************* [5] ******************* Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *************** **** ****************************************** थे उनका पुनरावर्तन नहीं किया गया है। उसके लिए आवश्यक नियुक्ति देखने का निर्देश किया गया है। * स्पष्ट है कि नियुक्ति साहित्य को ठीक से समझने के लिए आवश्यक नियुक्ति का सांगोपांग अध्ययन * आवश्यक है। समय के साथ-साथ साधकों की ग्रहण शक्ति न्यून होती गई। आगमों के सरलीकरण के * * लिए रची गई नियुक्तियों की भाषा भी साधकों को दुरूह प्रतीत होने लगी। इसी दुरूहता के. निदानस्वरूप भाष्य-युग की शुरुआत हुई। विद्वान मुनिराजों ने मूल आगमों एवं नियुक्तियों के सरलीकरण के लिए उन पर भाष्यों की रचनाएं की। आगम पदों एवं मूलसूत्रों की इस व्याख्यात्मक * शैली से आगम हार्द को हृदयंगम करना साधकों के लिए आसान हो गया। भाष्यकारों में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (वि.की 7वीं शती) का प्रमुख स्थान है। उन्होंने आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन 'सामायिक सूत्र' पर एक बृहद् (3603 गाथा प्रमाण) भाष्य की रचना की। यही भाष्य वर्तमान में "विशेषावश्यक भाष्य" नाम से विश्रुत है। कालान्तर में इसी ग्रन्थ पर आचार्य मलधारी हेमचन्द्र (वि. की 12 वीं शती) ने लगभग 28000 श्लोक प्रमाण 'शिष्य हिता' नामक बृहद्वृत्ति लिखी। आचार्य श्री ने भाष्य में आए सभी विषयों को अत्यन्त प्रवीणता एवं * विचक्षणता से विश्लेषित किया है। विविध दार्शनिक विषयों को भी बहुत ही सरल और सटीक * * भाषा-शैली में प्रस्तुत कर आचार्य श्री ने अपनी सारस्वत प्रतिभा का परिचय दिया है। उपरोक्त अध्ययन की फलश्रुति के रूप में स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि विशेषावश्यक भाष्य * एक उच्चकोटि का ग्रन्थ है। विगत 14 वर्षों से यह ग्रन्थ विद्वानों का कण्ठहार बना हुआ है। अपने रचनाकाल से लेकर वर्तमान तक इस ग्रन्थ के प्रति विद्वानों एवं मुमुक्षुओं का आकर्षण निरन्तर बना * रहा है। परन्तु यह चिन्तन (चिन्ता) का विषय है कि अद्यतन इस ग्रन्थ का राष्ट्रभाषा में सांगोपांग * अनुवाद नहीं हो पाया है। इसी चिन्तन को समक्ष रखते हुये श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य श्री सुभद्र मुनि जी महाराज ने इस * दिशा में भागीरथ प्रयास किया है। नि:संदेह यह एक वहत्तम कार्य है और इसके लिए तत्वान्वेषिणी। प्रज्ञा के साथ-साथ असीमित समय की भी अपेक्षा है। समय की सीमाओं में श्रद्धेय आचार्य श्री भी बन्धे हुये हैं। वे एक धर्मसंघ के आचार्य हैं और अनेक सामाजिक अपेक्षाओं का भी उन्हें निर्वहन करना होता है। इसीलिये श्रद्धेय आचार्य श्री ने समय की सीमाओं को स्वीकारते हुये इस बृहद् ग्रन्थ पर विशाल व्याख्या लिखने की अपनी भावना को अपने भीतर ही आत्मसात् कर लिया है। गुरुदेव ने - इस ग्रन्थ पर यथारूप अनुवाद प्रस्तुत कर हिन्दी भाषा भाषियों की उस प्यास का उपशमन अवश्य * किया है जो प्राकृत और संस्कृत भाषा नहीं जानते हैं। __विशेषावश्यक भाष्य पर प्रस्तुत यह सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद निःसन्देह विद्वद्वर्ग को इस * दिशा में चिन्तन के लिए प्रेरित करेगा। साथ ही अप्रकाशित प्राचीन अमूल्य ग्रन्थरत्नों को राष्ट्रभाषा में उपलब्ध कराने के लिए प्रकाश-प्रदीप का भी काम करेगा। इस महनीय ग्रन्थ के साथ एक लघु : सहयोगी के रूप में जुड़कर मैं स्वयं भी कृतकृत्यता का अनुभव कर रहा हूँ। -अमित मुनि *** ******************* [6] ******************* Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * जैन धर्म-दर्शन का इनसाइक्लोपीडिया श्री विशेषावश्यक भाष्य धर्म, दर्शन और तत्वविद्या का एक कालजयी ग्रन्थ है। इस * महाभाष्य की आधारभित्ति आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन 'सामायिक' है। आवश्यक सूत्र के आध्यात्मिक रहस्य को प्रकट करने के लिए लगभग 1500 वर्ष पूर्व आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने * इस आगम पर नियुक्ति को रचना की थी। इस नियुक्ति के महात्म्य को देखते हुये लगभग एक शती / * पश्चात् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस पर भाष्य लिखा। उस युग में इस भाष्य को पर्याप्त ख्याति प्राप्त * * हुई। भाष्य रचना के लगभग 500 वर्ष पश्चात् आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ पर 28000 श्लोक * प्रमाण शिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति की रचना की। इस प्रकार आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन पर * * लिखा गया यह सर्वाधिक बृहद् ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में न केवल जैन धर्म और जैन दर्शन का व्याख्यान * हुआ है बल्कि विभिन्न जैनेतर दार्शनिक मत-मतान्तरों का भी इसमें पर्याप्त प्रकाशन हुआ है। आगम * साहित्य में प्राप्त प्रायः अधिकांश विषय इस महाभाष्य में कहीं संक्षिप्त तो कहीं विशद शैली में * प्रकाशित हुये हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस ग्रन्थ का पाठक सम्पूर्ण आगम-आराम के विहार का शीतल सुरम्य स्वाद अपने अनुभव में उतार सकता है। आवश्यक नियुक्ति और उसके आधार पर रचित विशेषावश्यक भाष्य की महत्ता को विगत * सहस्राब्दी के प्रायः सभी मूर्धन्य मनीषी विद्वानों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। यही कारण है कि * वर्तमान मनीषियों में भी विशेषावश्यक भाष्य का पठन, अनुवादन एवं व्याख्यान सर्वाधिक आकर्षण * का विषय बना हुआ है। प्राचीन साहित्य, संस्कृति एवं शिल्प के प्रति अपनी स्वाभाविक रुचि के * *कारण मैं स्वयं भी इस ग्रन्थराज के प्रति विशेष रूप से आकर्षित रहा हूँ। संस्कृत और प्राकृत भाषा में * विशेष गति न होने के कारण इस ग्रन्थ का व्यवस्थित अध्ययन तो मैं नहीं कर पाया, पर अधिकारी * विद्वानों एवं पूज्य मुनिराजों के सान्निध्य में बैठकर इस ग्रन्थ के हार्द को समझने-जानने का प्रयत्न * * अवश्य करता रहता हूँ। विगत कुछ वर्षों से मैं आचार्य प्रवर पूज्य श्री सुभद्रमुनि जी महाराज के निकट सान्निध्य का * * पुण्य लाभ प्राप्त करता रहा हूँ। सन् 2008 में श्रद्धेय आचार्य श्री के बड़ौत वर्षावास में उनके पर्याप्त * सान्निध्य का अवसर प्राप्त हुआ। उस अवधि में पूज्य आचार्य श्री विशेषावश्यक भाष्य के अनुवाद में * * संलग्न थे। आचार्य श्री के स्नेह आशीष से मुझे भी अपनी ज्ञान-पिपासा की संतृप्ति का अवसर मिला। * विशेषावश्यक भाष्य में प्रतिपादित धर्म और दर्शन के स्वरूप को मैंने आचार्य श्री से पूछा, सुना और समझा। अंततः मैंने जाना कि यह ग्रन्थराज जैन धर्म, दर्शन और तत्वविद्या का इनसाइक्लोपीडिया है। . 21वीं सदी के आगमज्ञ मनीषी मुनिराजों की श्रेणी में पूज्य आचार्य श्री की अपनी पहचान है। ******************* [7] ******************* Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************************************** * इनकी विमल प्रज्ञा-गंगा में आगमों का अमृत बहता है। इनकी प्रज्ञा में प्रवाहित ज्ञान-प्रभा न केवल * इनकी मस्तिष्कीय चकाचौंध की उपज है बल्कि इनके आचार, विचार और व्यवहार के प्रत्येक क्षण * में उस प्रभा की स्वतः स्फूर्त प्रभावना के दर्शन किए जा सकते हैं। कहं चरे, कह चिढ़े... के . * आगमीय प्रश्न इनके आचार में 'जयं चरे, जयं चिठे'.. के शाश्वत समाधान बनकर साकार हुए देखे +जा सकते हैं। न केवल अपने कृपा-पात्रों के प्रति बल्कि (निःसंदेह) प्राणिमात्र के प्रति इनकी * आत्मीयता, मृदुता, ऋजुता 'निग्गंथा उज्जुदसिणो' का सांगोपांग दर्शन प्रस्तुत करती है। साधुता की * शाश्वत सुवास से सुवासित इनके व्यक्तित्व का दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हो उठता है। साधना, स्वाध्याय और सृजनधर्मी व्यक्तित्व के संगम (जंगम) तीर्थ श्रद्धेय आचार्य श्री द्वारा * रचित, अनुदित, व्याख्यायित एवं संपादित शब्द-संसार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वाधिक पढ़े* पढ़ाए जाने वाले जैन साहित्य में आचार्य श्री के साहित्य का अपना प्रमुख स्थान है। महाप्राण मुनि * * मायाराम, जैन चरित्र कोष, अहिंसा विश्वकोष, मैं महावीर को गाता हूँ, मैं सबका मित्र हूँ, आदि इनकी * * कालजयी रचनाएं हैं। इस क्रम में प्रस्तुत ग्रन्थ श्री विशेषावश्यक भाष्य का सटीक अनुवादन भी पूरी * * गरिमा के साथ जुड़ गया है। 1500 वर्ष पूर्व रचित श्री विशेषावश्यक भाष्य पर राष्ट्रभाषा में कलम चलाने वाले आप प्रथम * मुनिराज हैं / आपका यह सृजन-धर्म स्वाध्याय प्रेमियों एवं विशेषतः शोधार्थियों के लिए ज्ञानालोक के नए वातायन खोलने वाला सिद्ध होगा, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। ' -अमित राय जैन (महामंत्री : एस.एस. जैन सभा बड़ौत, उ.प्र.) * *******************[8] ******************* Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर दर्पण में आचार्य श्री सुभद्र मुनि जी भारतीय संतों की परम्परा में विद्यावाचस्पति आचार्य प्रवर गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज का नाम विशिष्ट आदर भाव से लिया जाता है। आपकी सृजनशीलता, रचनात्मक कार्यों को लगातार * * वृद्धिंगत करते हुये लम्बे समय से समाज को जोड़ने की दिशा में निरन्तर गतिशील है। बुद्धिजीवी वर्ग * * में धर्म-जागरण तथा जैन-अजैन सभी बन्धुओं को जैन धर्म-दर्शन एवं साहित्य से आपश्री ने परिचित * कराया है। . आपका जन्म.12 अगस्त, 1951 को हरियाणा के रिंढाणा ग्राम में धर्मनिष्ठ श्री रामस्वरूप जी * वर्मा के घर धर्मशीला श्रीमती महादेवी जी की पुण्य कुक्षी से हुआ। 9 वर्ष की बाल वय में आप * योगिराज पूज्य गुरुदेव श्री रामजीलाल जी महाराज एवं संघशास्ता शासन-सूर्य गुरुदेव श्री रामकृष्ण जी / * महाराज के चरणों में आये। 16 फरवरी, 1964 को जीन्द नगर (हरियाणा) में आपने मुनि-दीक्षा * अंगीकार की। .. - मुनि-धर्म को अपनी सांसों में जीते हुये आपने विविध भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। + आगम, निगम, पुराण, व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, मंत्र एवं विविध धर्म-दर्शनों का गहन अध्ययन + * किया। विनय धर्म आपका सदा उपास्य है। आपने गुरु चरण-कमलों की भ्रमर की तरह उपासना * की। तभी लाखों दृगों ने आपको श्रवण कुमार और आधुनिक गौतम की तरह देखा। * बचपन से ही आदर्श साहित्य में रुचि व बाल-संस्कारों में उन्नति के प्रति आपका मानस * चिन्तनशील रहा। उसी चिन्तन के परिणामस्वरूप आप श्री ने बाल-साहित्य की विशाल शृंखला का * निर्माण किया। आप द्वारा रचित बाल-साहित्य की श्रृंखला में महावीर के उपासक, मुक्ति के राही, * सुभद्र शिक्षा 5 भाग, शैक्षणिक श्रृंखला में अनेक कहानियां, नाटक, लघु उपन्यास, जीवनी, संस्मरण * एवं प्रबोध कथायें संग्रहीत हैं। जीवनी-साहित्य, आगम-आधारित रचनाओं की प्रस्तुति के साथ * 'उत्तराध्ययन सूत्र' की भाषा-टीका सफलतापूर्वक की है। हरियाणवी जैन कथायें, हरियाणवी गद्य * की प्रमुख कथा-कृति होने का गौरव रखती है। आप एक सहज कवि भी हैं। विश्ववन्द्य महावीर के * जीवन चरित्र पर ललित-गद्य आपके साहित्य का उज्ज्वल प्रमाण है। आपकी नवीन कृतियों में जैन * * चरित्र कोष है, जिसमें 1500 से अधिक महापुरुषों के चरित्रों का अंकन है। अहिंसा विश्व कोष (तीन * खण्ड वैदिक, जैन एवं सर्वधर्म) में अहिंसा के सिद्धान्त एवं स्वरूप की अनुपम प्रस्तुति विभिन्न * धर्मग्रन्थों के आधार से की गयी है, हिंसाग्रस्त वातावरण में यह एक प्रासंगिक हस्तक्षेप है। ******************* [9] ******************* Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************************************** संयम-साधना, स्वाध्याय और गुरु-सेवा के साथ-साथ परम पूज्य आचार्य श्री ने लोक* मंगल के अनुष्ठानों में भी अपना भरपूर सहयोग समर्पित किया है। शिक्षा, सेवा एवं चिकित्सा के क्षेत्र में आपकी प्राणमयी प्रेरणाएं समाज को सतत प्रेरित करती रहीं। आपकी प्रेरणा से जहां 'मुनि माया-* * राम जैन अस्पताल' जैसा आधुनिक चिकित्सा क्षेत्र में अग्रणी संस्थान निर्मित हुआ, वहीं अनेक + डिस्पैंसरियां, विद्यालय एवं जैन धर्म-स्थानकों का भी निर्माण हुआ। पूज्य आचार्य श्री का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उत्कृष्ट सृजनधर्मिता की मिसाल है। स्वयं की साधना * में सतत जागरूक रहते हुये आप स्वस्थ समाज के निर्माण में प्रतिपल संलग्न रहते हैं। पूज्य आचार्य श्री एक प्रबुद्ध चिन्तक, सर्जक एवं कलम कलाधर होने के साथ-साथ * प्रवचन-प्रभावना में भी विचक्षण एवं विलक्षण हैं। आपकी प्रवचन शैली सारगर्भित, तत्वान्वेषिणी, + मधुर एवं सरसता से पूर्ण है। आपको सुनते हुये श्रोता आध्यात्मिक रस से सराबोर हो उठते हैं। सामाजिक एवं अकादमिक संस्थाओं ने आचार्य श्री के समुज्ज्वल व्यक्तित्व को संघशास्ता, * * विद्यावाचस्पति (पी-एच.डी.) विद्यासागर (डी.लिट्), आगम रत्नाकर प्रभृति महनीय बहुमानों से * अभिनन्दित किया है। 27 फरवरी, 2005 को चतुर्विध श्रीसंघ ने आत्म-साधना, धर्म-प्रभावना, . * साहित्य सृजन, संस्कार निर्माण, जन-जागरण एवं जीवन-मूल्यों की स्थापना में संलग्न आप श्री को * * 'आचार्य-रत्न' के महनीय पद से भी गौरवान्वित किया। आपश्री के ओजस्वी वक्ता श्री रमेश मुनि * जी, श्री अरुण मुनि जी, तपस्वी श्री नरेन्द्र मुनि जी, श्री अमित मुनि जी, घोर तपस्वी श्री हरि मुनि जी, * श्री प्रेम मुनि जी, श्री मुकेश मुनि जी, श्री मुदित मुनि जी, श्री संदीप मुनि जी शिष्य-प्रशिष्य रत्न हैं। -संपादक ******************* [10] ******************* Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री : एक परिचय राजस्थान (शेखावाटी अंचल) के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्कृतसेवी * परिवार में ई. 1942 में जन्म। लघु वय में ही वाराणसी में उत्कृष्ट विद्वानों की सन्निधि में संस्कृत-व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन। वहीं नव्यव्याकरण में आचार्य, शास्त्री (नव्यन्याय) एवं बी.ए. परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के अनन्तर, 1966 ई. में प्राकृत व जैनदर्शन के अध्ययन में रुचि। वैशाली (बिहार) से प्रथम श्रेणी में एम.ए. (प्राकृत व जैनविद्या) उत्तीर्ण। राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. (संस्कृत) तथा आचार्य (जैनदर्शन)-ये दोनों परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण। इनके अतिरिक्त, * एम.ए. (हिन्दी साहित्य), आचार्य (दर्शन) आदि-आदि परीक्षाएं भी उच्च अंकों से उत्तीर्ण। 1971 ई. में दिल्ली आकर जैन दर्शन के विख्यात विद्वान् डॉ. लालबहादुर शास्त्री * के पास जैन दर्शन का शास्त्रीय अध्ययन / उन्हीं के निर्देशन में ई. 1975 में विद्यावारिधि (पी-एच.डी.) उपाधि जैनदर्शन विषय में प्राप्त। विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर (पंजाब).में 2 वर्षों तक ग्रन्थ-सम्पादन व शोध के अधिकारी, तथा भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली में दो वर्षों तक सम्पादन-प्रकाशन कार्य में संलग्न रहकर अध्यापन कार्य में प्रविष्ट / महावीर विश्वविद्यापीठ, नई दिल्ली में (1971 ई. से) 2 वर्षों तक प्राकृत व जैनदर्शन विभाग के अध्यक्ष, श्री लालबहादरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित * विश्वविद्यालय) नई दिल्ली में (1975-1991 ई.) जैन-दर्शन विभाग के प्राध्यापक और 1985 ई. में * उपाचार्य व अध्यक्ष के रूप में कार्यरत। 1991 ई. में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय), * नई दिल्ली के जयपुर परिसर में जैन दर्शन विभाग के उपाचार्य व अध्यक्ष के रूप में कार्यरत। ई. * 1995 में उक्त संस्थान के अन्तर्गत ही राजीव गांधी संस्कृत विद्यापीठ, शृंगेरी (कर्नाटक) में प्रभारी * 'प्राचार्य' के पद पर कार्यरत। (ई. 2004 में संस्थान की सेवा से विमुक्त।) ई. 2007 से जैन विश्व * भारती (मानित विश्वविद्यालय), लाडनूं (राजस्थान) में जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन * विभाग में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। करीब 34 वर्षों तक स्नातक व स्नातकोत्तर कक्षाओं में जैनदर्शन व प्राकृत के अध्यापन-शोध में * कार्य में संलग्न रहते हुये, अनेक कृतियों व निबन्धों के सृजन, सम्पादन व प्रकाशन का कार्य किया। * * 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' में प्राकृत व जैनविद्या विभाग की (1928 ई. में) अध्यक्षता ******************* [11] ******************* Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * की। 10 वें 'विश्व संस्कृत सम्मेलन' के बंगलौर (कर्नाटक) के अधिवेशन में भी प्राकृत व * जैनविद्या-विभाग के (1997 ई. में) अध्यक्ष रहे। संस्कृत में आशुकविता की क्षमता रखते हुये अनेक कवि गोष्ठियों में सम्मिलित। दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् तथा दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् आदि के * आजीवन सदस्य। अनेक ख्यातिप्राप्त संस्थाओं द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत।व्यास बालाबक्ष शोध संस्थान, जयपुर के सरस्वती-सम्मान (2004) अवार्ड से सम्मानित, दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, जयपुर के पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पुरस्कार (2009 ई.) से सम्मानित, तथा जैन विश्वभारती, लाडनूं के (के.बी. फाउण्डेशन, कोलकाता द्वारा प्रायोजित) (एक लाख रु. के) आ. तुलसी प्राकृत पुरस्कार (2009) * से सम्मानित। अ.भा.प्राच्यविद्या सम्मेलन (करुक्षेत्र, 2008) के प्राकृत व जैनविद्या विभाग में सर्वश्रेष्ठ निबन्ध प्रस्तुति के लिए मुनि पुण्यविजय जी पुरस्कार से पुरस्कृत। भारतीय दर्शनों के तुलनात्मक अनुशीलन, जैन न्याय शास्त्र के तलस्पर्शी अवगाहन तथा प्राकृत भाषा व व्याकरण के अध्ययन-अध्यापन में विशेष रुचि। मौलिक, अनूदित व संपादित कृतियों की दशाधिक संख्या। 75 से अधिक संख्या में शोधपत्र प्रकाशित। *******************[12] ******************* Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यक भाष्य [आचार्य मलधारी हेमचन्द्र-कृत 'शिष्यहिता' बृहद्वृत्ति सहित] / / विषयानुक्रमणी / / ........... | विषय-शीर्षक पृष्ठ सं. प्रस्तावना [17-59] (मङ्गलादिनिरूपण) [1-93] ग्रन्थ की विषय-वस्तु आदि .................... आवश्यकानुयोग के विविध द्वार और उनके भेद आवश्यक और अनुयोग की ज्ञान-क्रियामयता . अनुयोग-प्रदान विधि ...................................... स्थविरकल्प क्रम ........ आचार्यपद-प्राप्ति से पूर्व देश-दर्शन, शिष्य-निष्पत्ति, बाद में उद्यतमरण व जिनकल्प आदि का अङ्गीकरण ........ जिनकल्पविधि व जिनकल्पचर्या ........... पांच तुलनाएं (भावनाएं) ........... * * नमस्कारानुयोग पहले क्यों नहीं? ........ नमस्कार सर्वश्रुत-अन्तर्गत है मङ्गलद्वारं कथन तीन मङ्गल ............................ मङ्गल सम्बन्धी शंका-उत्तर ..... ............. त्रिविध मङ्गलग्रहण क्यों? ......... मङ्गल पद की व्युत्पत्ति ........ नाम आदि निक्षेप नामनिक्षेप स्थापना निक्षेप ......... .......................52 द्रव्य निक्षेप .............. ........................54 .......... ........ .......... Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ स. | विषय-शीर्षक द्रव्यमङ्गल (आगमतः व नोआगमतः) सामान्य व विशेष नय ............. विविध नयों से (आगमतः) द्रव्यमङ्गल ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यमङ्गल .... भावमङ्गल ......... आगमतः भावमङ्गल ............ नोआगम भावमङ्गल ......... नाम आदि की भावमङ्गलरूपता .............. [94-124] (नाम आदि के लक्षण) नाम आदि वस्तु सत् है, बौद्ध मत का खण्डन स्थापना नय .......... द्रव्यनिक्षेप नय ....... भावनय मिथ्या व सम्यक् नय नाम आदि भेद निक्षेप-अभेदकारी ................ संग्रह नय आदि सम्मत नाम आदि निक्षेप ......... भावमङ्गल रूपनन्दी ...............119 . N ....................... (ज्ञान-पंचक) [124] ................... ............ ......... मति आदि ज्ञानों की क्रमिकता का कारण ..134 प्रत्यक्ष व परोक्ष के लक्षण इन्द्रियों को ज्ञान नहीं ... मति व श्रुत की परोक्षरूपता ........... ..............144 संव्यवहार प्रत्यक्ष .................146 नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष मति व श्रुत में लक्षण आदि की दृष्टि से भेद का निरूपण .... शब्द उपचारतः श्रुत एकेन्द्रियों में श्रुत कैसे? ..... हेतु व फल की दृष्टि से मति व श्रुत में भेद .... ............... श्रुत की मतिपूर्वकता का विचार ............... ...............170 ******************[14] ******************* Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषय-शीर्षक पृष्ठ सं. *** ...............180 ** ........... ** ...185 ** .199 ** .........21 ** ...........217 *** ..240 245 ** .248 *** ...........251 ** ........... मति व श्रुत में कार्यकारण भाव का विचार ........... ज्ञान-अज्ञान विचार ....... स्वभेदों की भिन्नता से मति व श्रुत में भेद .... श्रुतोपलब्धि श्रुत है, शेष मति है ....... द्रव्यश्रुत आदि क्या है? .... भाष्यमाण शब्द मति है या श्रुत है या उभय? अभिलाप्य व अनभिलाप्य का विचार ............ चतुर्दशपूर्वी परस्पर (उनमें हीनाधिकता) षट्स्थानपतित हैं मति व श्रुत में वल्क व शुम्ब का दृष्टान्त ........... मति अनक्षर भी, साक्षर भी ................... श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित मति .................. द्रव्याक्षर की अपेक्षा से मति व श्रुत में साक्षर व अनक्षर का भेद मूक व मुखर की तरह मति व श्रुत में भेद ............. मति व श्रुत की भिन्नता के सन्दर्भ में शंका व समाधान ........... आभिनिबोधिक ज्ञान के निरूपण की प्रस्तावना ... आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद ........... अवग्रह आदि के स्वरूप ............................ ईहा व संशय में अन्तर ............ अपाय व धारणा सम्बन्धी पूर्वपक्ष ..... अविच्युत वासना-स्मृति रूप धारणा ................... (व्यञ्जनावग्रहादि) व्यञ्जनावग्रह में ज्ञान-मात्रा की सिद्धि व्यञ्जनावग्रह के प्रत्येक समय में तथा समुदाय में ज्ञान-मात्रा ..... व्यञ्जनावग्रह के भेद .......... श्रोत्र व घ्राण का विषय-सम्पर्क नेत्र की अप्राप्यकारिता (नेत्र में अनुग्रह-उपघात नहीं) ......... मन की अप्राप्यकारिता ............. द्रव्य मन का बहिर्गमन नहीं मन का विषयकृत अनुग्रह व उपघात नहीं द्रव्यमन-कृत जीव का अनुग्रह व उपघात ............................. ** ** ** ............271 ..............2 ** * [284] *** 287 ........792 ............298 ..............300 ............304 ..........3214 ............322 * Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-शीर्षक पृष्ठ सं. ......... ...........329 .......... .......... ............347 ..............356 स्वप्र में भी मन का बाह्य गमन नहीं स्वप्न अनुभूत क्रिया फलरहित स्वप्न की घटना भावी फल की निमित्त स्त्यानर्द्धि निद्रा के दृष्टान्त मनःकृत व्यञ्जनावग्रह नहीं मन का कोई अनुपलब्धि-काल नहीं मन की अप्राप्यकारिता में सब विषयों का ग्रहण क्यों नहीं? अर्थावग्रह में सामान्य अर्थ का ग्रहण ....... अर्थावग्रह पूर्वक ही ईहा ............... व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह में अन्तर .. अर्थावग्रह में विशेषबुद्धि मानने पर दोष ....... सिद्धान्त-विरोध आदि दोष भी .... अवग्रह में आलोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान का विचार .......... अर्थावग्रह ही आलोचन ज्ञान .......... अवग्रह, ईहा, अपाय में प्रत्येक परस्पर भिन्न अवग्रह में बहु, बहुविध आदि प्रकार कैसे? अपेक्षा से अपाय-व्यावहारिक अवग्रह धारणा, वासना व स्मृति का काल . व्यावहारिक अर्थावग्रह मानने से लाभ ............. ईहा का व्याख्यान ..... अपाय का व्याख्यान ............ धारणा का व्याख्यान ....... रूप आदि शेष विषयों में ईहा आदि अवग्रह आदि की क्रमवर्तिता .......... ज्ञेय का स्वभाव भी अवग्रहादि की क्रमवर्तिता में अनुकूल आभिनिबोधिक आदि अनेक भेद अट्ठाईस भेदों में बुद्धिचतुष्टय का अन्तर्भाव युक्तियुक्त नहीं ....... परिशिष्ट विशेषावश्यक भाष्य (व नियुक्ति) की वर्णक्रमानुसार गाथाएं सभद्र साहित्य .......... ........ ............. .............. ............ .445 ............448 *******************[16]******************* Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रस्तावना | आचार्यप्रवर श्री सुभद्र मुनि जी प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री, भारतीय संस्कृति की प्रमुखतः दो समानान्तर धाराएं हैं- वैदिक व श्रमण। वर्तमान जैन परम्परा 'श्रमण परम्परा' का प्रतिनिधित्व करती है। दोनों परम्पराओं में कुछ समानताएं हैं, जैसे- दोनों ही परम्पराएं यह मानती हैं कि मानव-जीवन के चार पुरुषार्थ होते हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थात् दोनों ही यह मानती हैं कि मानव जीवन की सार्थकता इन्हीं पुरुषार्थों की सिद्धि में निहित है। किन्तु वह सिद्धि किस प्रकार प्राप्त हो, कैसी हमारी जीवन-चर्या हो, पुरुषार्थों की सिद्धि की विधि क्या हो, और लौकिक व लोकोत्तर कल्याण किस रीति से प्राप्त किया जा सके -इस सम्बन्ध में दोनों परम्पराएं पृथक्-पृथक् 'प्रमाणभूत शास्त्र' मानती हैं। इस प्रकार, वैदिक व श्रमण परम्परा का प्रमुख अन्तर यह है कि वैदिक परम्परा 'वेद' को 'प्रमाणभूत शास्त्र' मानती है और जैन परम्परा जैन आगमों को, जिनमें 'जिनवाणी' (तीर्थंकर-वाणी) सार रूप में निहित है। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की वाणी को उनके गणधरों- इन्द्रभूति गौतम व आर्य सुधर्मा आदि ने शब्दात्मक रूप दिया, जिसके फलस्वरूप वर्तमान (द्वादशांगी) जैन आगम' अस्तित्व में आए। परवर्ती विशिष्ट श्रुतज्ञानी आचार्यों ने भी 'शास्त्रों' की रचना की, जिन्हें (अंगबाह्य, उपांग आदि) आगमों के रूप में मान्यता मिली। जैन आगमों को तात्त्विक ज्ञान-विज्ञानादि का विशाल अनुपम भण्डार माना जाता है। यद्यपि कालक्रम से, काल-दोष से इनका अधिकांश भाग विच्छिन्न-विलुप्त हो गया, तथापि आज जो उपलब्ध श्वेताम्बर आगम साहित्य है, उसकी सुरक्षा का श्रेय आचार्य देवर्द्धिगणी (ई. 5 वीं शती) को जाता है जिन्होंने तत्कालीन अवशिष्ट ज्ञान-भण्डार को लिपिबद्ध व सुव्यवस्थित किया। इन आगमों को परवर्ती विशिष्ट आचार्यों ने चूर्णि, नियुक्ति, भाष्य व टीका आदि से संवलित कर जिनवाणी के हार्द को अधिक स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया। इन आगमों की भावना के अनुकूल अनेक मौलिक ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिससे जैन-धर्म व दर्शन से सम्बन्धित साहित्य-भण्डार की श्रीवृद्धि होती रही है। जिनवाणी पर आधारित जो मौलिक ग्रन्थ रचित हुए, उनमें 'विशेषावश्यक' ग्रन्थ को महनीय स्थान प्राप्त है। CRBRBRB0BARB0BRB0R [17] RBOORBORB0BROOT Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुतकृति; विशेषावश्यक भाष्य आचार्यश्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (वि. 7 वीं शती) तथा उनकी विशिष्ट रचना 'विशेषावश्यक भाष्य' का जैन इतिहास, संस्कृति व दर्शन की परम्परा में ही नहीं, समस्त भारतीय न्यायदर्शन की परम्परा में भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। प्राकृत भाषा में रचित जैन आगमिक व्याख्याग्रन्थों में इसका अद्वितीय स्थान है। यह ग्रन्थ यद्यपि अपने आप में एक मूल ग्रन्थ के रूप में ख्याति प्राप्त है, किन्तु वस्तुत: यह टीकाग्रन्थ है। भाष्य' यह शब्द ही यह सूचित करता है कि यह मूल ग्रन्थ नहीं, अपितु किसी विशिष्ट कृति पर एक विस्तृत व्याख्यान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ स्वनामधन्य आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा प्राकृत पद्यों में रचित कृति 'आवश्यक नियुक्ति' पर व्याख्यान प्रस्तुत करता है। जैन परम्परा में भद्रबाहु नाम के दो प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। इनमें प्रथम हैं- श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु, जिनका समय विक्रम पूर्व संवत 376 माना जाता है। दूसरे भद्रबाहु निमित्तज्ञाता, तथा आचार्यवराहमिहिर के भ्राता थे, जिनका समय विक्रम की 5-6 शती, (तथा कुछ के मत में 8-9 वीं शती भी) है। श्रद्धान्वित परम्परावादी इस नियुक्ति को श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृति मानते हैं, किन्तु अधिकांश विद्वद्वर्ग इसे भद्रबाहु (द्वितीय) की कृति मानता है। आवश्यक नियुक्ति व आचार्य भद्रबाहु के विषय में विस्तृत विवरण आगे दिया जा रहा है। आवश्यक नियुक्ति अपने आप में एक विशालकाय (1600 से अधिक गाथाओं वाला) ग्रन्थ है, किन्तु यह भाष्य उसके सम्पूर्ण भाग पर नहीं, अपितु उसके मात्र प्रथम 'सामायिक अध्ययन पर रचित है। यह नियुक्ति भी स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं, अपितु विशिष्ट आगम ग्रन्थ 'आवश्यक सूत्र' पर रची गई है। इस प्रकार, इस भाष्य ग्रन्थ का सम्बन्ध परम्परया जिनवाणी से जुड़ जाता है। आवश्यक सूत्र जैन श्रमणों के लिए अपेक्षित आवश्यक (सामयिक आदि) कृत्यों के स्वरूप व महत्त्वादि पर प्रकाश डालने वाला एक विशिष्ट आगमग्रन्थ है, और इस जिनवाणी में निहित तत्त्वज्ञान को अपेक्षित अनेकानेक प्रासंगिक विचारबिन्दुओं के माध्यम से आवश्यकनियुक्ति में और उस पर रचे गए इस भाष्य में विस्तार से समझाया गया है- इस दृष्टि से यह ग्रन्थ जिनवाणी की अमूल्य धरोहर को अपने में समाहित किये हुए है। यह भाष्य ग्रन्थ (3600 से अधिक गाथाओं के माध्यम से) अनेक दुरूह दार्शनिक विषयों पर प्रकाश डालता है, और वस्तुतः यह जैन तत्त्वज्ञान को जानने-समझने का एक महनीय कोशग्रन्थ बन गया है। किन्तु कालान्तर में, प्राकृत भाषा की क्रमिक दुरूहता तथा जैन तत्त्व-ज्ञान का ह्रास- इन कारणों से यह ग्रन्थ सुबोधगम्य नहीं रहा तो इस पर पूज्य आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने संस्कृत भाषा में एक विस्तृत टीकाशिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति- का निर्माण किया जो 28 हजार श्लोक प्रमाण मानी जाती है। भाष्य ग्रन्थ के मर्म व सार को हृदयंगम करने की दृष्टि से उक्त टीका का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 'भाष्य' ग्रन्थ की कुछ निजी विशेषताएं मानी गई हैं। इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध श्लोक है: सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र, पदैः सूत्रानुसारिभिः / स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥ ROOR@PROPRODR [18] MSRORRORRORR Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जिस व्याख्या-ग्रन्थ में सूत्र (या मूल ग्रन्थ) में आए पदों/शब्दों के आधार पर सूत्रार्थ (मूल ग्रन्थ के आशय) को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया जाता है, साथ ही स्वयं भी ग्रन्थकार (भाष्यकार) स्वरचित पदों को प्रस्तुत कर उनका भी वर्णन, निरूपण या विशेष स्पष्टीकरण करता है, वह व्याख्यान-ग्रन्थ 'भाष्य' होता है। संक्षेप में, भाष्यग्रन्थ वह होता है जो मूल ग्रन्थ को तो स्पष्ट करता ही है, साथ ही प्रासंगिक या आनुषंगिक रूप से अपेक्षित अनेकानेक विषयों का निरूपण भी उसमें किया जाता है, जैसे- सम्भावित शंका-पूर्वपक्ष, उसका समाधान, अन्य आचार्यों के अभिमत, प्राचीन आगम परम्परा व अन्य दर्शन-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में विषय की संगति एवं सम्भावित विसंगति का निराकरण, विशिष्ट शब्दों की व्याकरण-सम्मत व्युत्पत्ति या नियुक्ति, आगमिक अनुयोग-पद्धति, नय-निक्षेपपद्धति आदि के प्रकाश में विषय का स्पष्टीकरण, आदि-आदि। नि:संदेह प्रस्तुत 'विशेषावश्यक भाष्य' में भाष्यग्रन्थ की सारी विशेषताएं पूर्णतया साकार हुई हैं। यही कारण है कि यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान के लिए, विशेषत: पंचविध ज्ञान तथा जीव-अजीव आदि पदार्थों को जानने-समझने के लिए, यह एक विश्वकोश (इनसाइक्लोपीडिया) के समान है। भाष्य और भाष्यकर्ता के विषय में विस्तृत विवरण आगे भी दिया जा रहा है। ... उक्त समस्त विवरण को निम्नलिखित चार्ट रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है : 32आगम आवश्यक सूत्र आवश्यक नियुक्ति . (लगभग- 1600 गाथाएं) (आवश्यक सूत्र पर प्राकृत पद्यात्मक टीका) रचयिता- आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) समय-वि.5-6 शती. विशेषावश्यक भाष्य (3600 से अधिक गाथाएं) (आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर जो 'आवश्यक नियुक्ति' है, उस पर प्राकृत पद्यात्मक टीका) रचयिता- आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण समय-विक्रम, छठी-सातवीं शती शिष्यहितावृत्ति (संस्कृत-गद्य में, 28 हजारोक प्रमाण) रचयिता- आचार्य मलधारी हेमचन्द्र समय-विक्रम 12 वीं शती RBSCRORORSCROR [19] ROOBCRORR8308800R Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त भाष्य पर रचित शिष्यहितावृत्ति (टीका) संस्कृत में, वस्तुतः प्रौढ़ संस्कृत में रची गई, किन्तु परवर्ती काल में यह कुछ उन विशिष्ट विद्वानों के लिए ही सुबोधगम्य रह गई जो संस्कृत-प्राकृत भाषा में तथा जैन तत्त्वज्ञान में गहरी पैठ रखते हों। इसलिए प्राकृत-संस्कृत-अनभिज्ञ तथा सामान्य दार्शनिक ज्ञान वाले स्वाध्यायप्रेमी व्यक्तियों के लिए यह भी सुगम नहीं रह गई। अत: 1980 ई. में इसका गुजराती भावानुवाद अहमदाबाद से 'भद्रंकर प्रकाशन' द्वारा किया गया। इस भावानुवाद के कर्ता थे- शाह चुन्नीलाल हुकुमचन्द, अहमदाबाद। चूंकि यह भावानुवाद था, शब्दशः या वाक्यशः अनुवाद नहीं था, और चूंकि यह गुजराती भाषा में था, अतः हिन्दी में इसका प्रामाणिक अनुवाद प्रस्तुत करने की आवश्यकता विद्वत्समाज में उठती रहीं। इस सन्दर्भ में कुछ यत्र-तत्र प्रयास भी हुए, किन्तु वे मूर्त रूप प्राप्त नहीं कर पाए। . इस सम्बन्ध में स्थानकवासी परम्परा के ख्यातनामा, जैन शासनसूर्य, आचार्यकल्प गुरुदेव मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज का गम्भीर चिन्तन चला और उन्होंने इस चिन्तन को क्रियान्वित करने हेतु एक रूपरेखा बनाई और तदनुरूप कार्य प्रारम्भ हो गया। पूज्य गुरुदेव की आज्ञा-कृपा से मैंने इस कार्य में स्वयं रुचि ली तथा सुयोग्य विद्वानों के परामर्श का लाभ लेते हुए उक्त कार्य को निरन्तर आगे बढ़ाया, जिसके फलस्वरूप यह प्रकाशन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो पा रहा है। सम्पूर्ण मूल भाग (नियुक्ति, भाष्य व संस्कृत टीका) के साथ हिन्दी अनुवाद को, उसकी विशालता के कारण, एक ही खण्ड में प्रस्तुत करना समुचित नहीं प्रतीत हुआ, इसलिए उसे अनेक खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया, उनमें यह प्रथम खण्ड (जो आवश्यक नियुक्ति की प्रथम तीन गाथाओं तक तथा भाष्य की 303 गाथाओं तक है) पाठकों के समक्ष है। .. प्राचीन आगमिक परम्परा एवं परवर्ती आगमिक व्याख्यान की क्रमिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थराज विशेषावश्यकभाष्य' के निर्माण की सर्वागीण पृष्ठभूमि ज्ञात हो सके, तथा इस ग्रन्थ के उपजीव्य ग्रन्थों व उनसे सम्बद्ध आचार्यों के वैदुष्य व विशिष्ट योगदान को रेखांकित किया जा सके -इस दृष्टि से यहां पाठकों के लाभार्थ, (श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परानुरूप) कुछ आवश्यक परिचयात्मक विवरण देना प्रासंगिक प्रतीत होता है। [विस्तार-भय से, दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं का निरूपण करना संभव नहीं है। जैन आगमों की प्रमाणता एवं महत्ता व उपयोगिता प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है, दुःख से छूटना चाहता है। दुःखों का मूल कारण 'अज्ञान' है, अत: सज्ज्ञान का प्रकाश ही प्राणी को सन्मार्ग-सदाचार का मार्ग दिखा सकता है। इस दृष्टि से सर्वज्ञ तीर्थंकर की वाणी की उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है। दैनिक जीवन, नैतिक मर्यादा, अध्यात्म-साधना आदि सभी क्षेत्रों में दिशानिर्देशक सिद्धान्तों का निर्धारण 'आगमों' के आलोक में ही सम्भव है। विशेषकर अनगार-श्रमणों के लिए तो 'आगम' एक नेत्र के समान होता है (आगमचक्खू साहू- प्रवचनसार, 3/34) / इसी दृष्टि से आचार्यों ने आगम को सूक्ष्मअतीन्द्रिय पदार्थों के साक्षात्कार हेतु 'तीसरा नेत्र' भी बताया है- (सुयं तइयचक्खू, बृहत्कल्पभाष्य- 1154, सूक्ष्मव्यवहितादिषु अतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुःकल्पं श्रुतम्- बृ. क. भा. वृत्ति) / अत: जैन आचार्यों ने स्पष्ट उद्घोष किया कि जैन आगम या जिन-वाणी ही सर्वत्र प्रमाण' है, अन्य सब (असर्वज्ञ-वचन) 'अप्रमाण' हैं ROOBAROORBOORBOOR [20] ROORORSCROpecre0CR Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः (आ. सिद्धसेन)। त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् (आ. हेमचंद्र)। ब्रूमः त्वदन्यागममप्रमाणम् (आ. हेमचंद्र)। शास्त्रकारों के अनुसार जो श्रमण (या आचार्य भी) आगम या श्रुत को 'प्रमाण' नहीं मानता, वह संघ के लिए स्वयं 'अप्रमाण' (अप्रमाणिक, अविश्वसनीय, उपेक्षणीय) होता है (द्र. बृहत्कल्पभाष्य, 3641) / 'आगम' के अन्य पर्याय हैं- श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञापना, उपदेश, प्रज्ञापना, तंत्र, शास्त्र, प्रवचन (द्र. अनुयोगद्वार, 51, आवश्यक-चूर्णि, 1, पृ. 92) / 'आगम' व 'सूत्र' के नियुक्तिपरक अर्थ आगम का नियुक्तिपरक अर्थ है- 'आ' अर्थात् व्यापक रूप से, पूर्णतया, यथार्थ रूप में, 'गम' अर्थात् ज्ञान कराने वाला (नन्दीसूत्रवृत्ति, आवश्यक-मलयगिरिवृत्ति)। एक अन्य अर्थ भी किया गया है- 'आ' यानी आचार्य परम्परा से, 'गम' अर्थात् प्राप्त (सिद्धसेनगणीकृत भाष्यानुसारिणी टीका, पृ. 87) / इसी प्रकार आगमपर्यायवाची 'सुत्त' शब्द के सूत्र, सूक्त आदि कई पर्याय मान्य हैं। उनमें 'सूत्र' की भी कई नियुक्तियां की गई हैं(1) जो सूचित करता है, (2) जो स्यूत अर्थात् अर्थ से (संयुक्त) करता है, (3) जो अर्थ का प्रसव (प्रकटीकरण) करता है, (4) जो अर्थ का अनुसरण करता है, (5) जो अर्थपदों का सीवन करता है, अर्थात् उन्हें जोड़ता है (द्र. बृहत्कल्पभाष्य- 311-314, तथा वृत्ति।) वह 'सूत्र' है। 'सुत्त' का अर्थ है- सु=अच्छी तरह, उक्त-कहा गया। इस प्रकार 'आगम' से तात्पर्य ऐसे अर्थगाम्भीर्य-युक्त शास्त्र से है जिसमें सर्वज्ञ वक्ता द्वारा किया गया पदार्थों का निरूपण हो और जो श्रुति-परम्परा या आचार्य-परम्परा के माध्यम से कालान्तर में क्रमशः प्रवहमान हो। . . 'आगम' की मौलिक विशेषता वस्तुतः कौन-सा शास्त्र ‘आगम' है या नहीं है, इसकी परीक्षा भी उसकी मौलिक विशेषता के आधार पर की जा सकती है। इसलिए शास्त्रों की कुछ मौलिक विशेषताओं का भी निर्देश किया गया है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार उस शास्त्र को 'आगम' कहा जाता है जो किसी 'आप्त' पुरुष द्वारा उपदिष्ट हो और जिसमें असन्मार्ग का निराकरण और स्वभावतः प्रत्यक्षादि प्रमाण से अविरुद्ध तात्त्विक निरूपण हो (रत्नकरंड श्रावकाचार, 9) 'आप्त' का अर्थ है- रागादि सर्वदोषरहित सर्वज्ञ तीर्थंकर' जैसा वीतराग व्यक्तित्त्व (रत्नकरंड-5)। विशेषावश्यक . भाष्य (गाथा-559) में आगम के मौलिक स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त किया गया है सासिञ्जइ जेण तयं सत्त्थ तं चाविसेसियं नाणं। आगम एव य सत्थं आगमसत्थं तु सुयनाणं। अर्थात् आगम या श्रुतज्ञान वह होता है जिससे समीचीन शिक्षा प्राप्त होती है और विशेष ज्ञान की उपलब्धि होती है। यहां 'ज्ञान' पद का भी शास्त्रसम्मत अर्थ समझना अपेक्षित है। जिससे तत्त्व का यथार्थ स्वरूप 'RB0BARB0BROBROOR [21] RO0BROOBROOBROOK Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ में आ जाए, चित्त की चंचलता का निरोध हो, आत्म-विशुद्धि हो, वीतरागता की प्राप्ति सम्भव हो, मैत्रीभाव का संवर्द्धन हो, वही 'ज्ञान' होता है (द्र. मूलाचार, 321-322) / इसी भाव को दशवैकालिक (द्वितीय चूलिका, विविक्तचर्या, गाथा-1) में इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि केवली सर्वज्ञ तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत वह है जिसे सुनकर पुण्यात्माओं को धर्म में मति (रुचि) उत्पन्न होती है (सुयं केवलिभासियं, जं सुणित्तु सुपुण्णाणं धम्मे उप्पज्जए मई)। वास्तव में जिनवाणी की सार्थकता इसी में है कि समस्त जगत् के प्राणियों की रक्षा रूप दया अर्थात् अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार हो- 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं' (प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार) / इसी दृष्टि से शास्त्रों में कहा गया है कि जिनवाणी एक अद्भुत अमृततुल्य औषधि है जो जरामरण आदि रोगों का नाश करती हुई समस्त दुःखों से छुड़ाती है और विषय-सुख से विरक्त करती है (मूलाचार-1367) / निष्कर्ष यह है कि अहिंसा धर्म से विपरीत कथन जिसमें हो, प्रमाणविरुद्ध प्रतिपादन हो, और जिसे पढ़ कर कषायों-मनोविकारों में वृद्धि हो तो वह शास्त्र 'आगम' की कोटि में परिगणित नहीं किया जा सकता, वस्तुत: वह कुशास्त्र ही है। यही कारण है कि अन्य परम्परा में मान्य एवं यज्ञ-हिंसा के प्रतिपादक जो भी ग्रन्थ हैं, उन्हें आगमाभास' (नकली आगम) कहा गया। आचार्य जिनसेन के मत में हिंसोपदेशक ग्रन्थ धर्मशास्त्र नहीं हो सकता, वह तो किसी धूर्त द्वारा रचा गया प्रतीत होता है (आदिपुराण, 39/23) | आ. शुभचन्द्र के शब्दों में इन्द्रियपूर्ति के पोषक ग्रन्थ कुशास्त्र हैं, वे धूर्त-रचित ही होते हैं (ज्ञानार्णव, 8/25/497) / जैन आगम-परम्परा : उद्भव व विकास तीर्थंकर वाणी 'अर्थरूप' आगम या अर्थागम का वाहिका होती है, जिसे गणधर शब्दात्मक या सूत्रागम का रूप देते हैं (आवश्यक नियुक्ति-192)। इसकी प्रमाणता का आधार तीर्थंकर-कृत होना है। सूत्र या आगम को (श्रुत) देवता का अधिष्ठान भी माना गया है (द्र. व्यवहारभाष्य, 3019), इससे इसके प्रति आचार्यों की ओर से पूज्यता की भावना ही व्यक्त की गई प्रतीत होती है। विशाल ज्ञान-वृक्ष के सीमित पुष्प : आगम ज्ञान अनन्त है। अर्थात् तीर्थंकर के 'केवल' ज्ञान में अनन्त पदार्थ और उनके अनन्त अवस्थाएं प्रतिबिम्बित होती हैं, और उस अनन्त ज्ञान का कुछ ही भाग जिनवाणी में अभिव्यक्त हो पाता है। जिनवाणी विकीर्ण विचारों की एक धारा होती है, गणधर उन्हें बुद्धि में ग्रहण कर उसका ग्रथन करते हैं -अर्थात् ग्रन्थ रूप प्रदान करते हैं। इसे स्पष्ट करने हेतु एक दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे किसी बड़े वृक्ष पर आरूढ़ कोई व्यक्ति उस वृक्ष के कुछ पुष्पों को नीचे प्रक्षिप्त करता है। नीचे जमीन पर खड़े व्यक्ति उन पुष्पों को अपनी झोली या चादर में संगृहीत कर लेते हैं, और उन पुष्पों को समीचीन तरीके से परस्पर गूंथकर एक माला के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टान्त में ज्ञान-वृक्ष पर आरूढ़ व्यक्ति तीर्थंकर हैं। छद्मस्थता की भूमि पर स्थित गणधर उस वृक्ष RO900RRORB0R [22] RO908ROSROORO08 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से होने वाली ज्ञान-कुसुम-वृष्टि में से कुछ ज्ञान-पुष्प अपनी निर्मल बुद्धि रूप चादर में संगृहीत करते हैं और उसे गूंथ कर 'आगम' रूप माला के रूप में मूर्त रूप प्रदान करते हैं (द्र. विशेषावश्यक भाष्य-1094-1101)। जिनवाणी का दिव्य स्वरूप तीर्थंकर की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत मानी गई है। उसमें ऐसा भाषातिशय होता है कि वह आर्यअनार्य, पशु-पक्षी आदि के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत होकर बोधगम्य होती है (द्र. समवायांग- सूत्र-14)। औपपातिक सूत्र के अनुसार वह भाषा सर्वाक्षरसमन्वययुक्त व सर्वभाषानुगामिनी होती है तथा एक योजन पर्यन्त तक स्पष्ट रूप में सुनी जा सकती है। दिगम्बर परम्परा में इसे एक अनक्षर 'दिव्यध्वनि' के रूप में वर्णित किया गया है। आगमों के आत्मागम आदि भेद तीर्थंकर की वाणी और गणधरों द्वारा की गई आगम-रचना तक आते-आते आगम के तीन क्रमिक रूप निष्पन्न होते हैं- (1) आत्मागम, (2) अनन्तरागम, और परम्परागम (अनुयोगद्वार, सूत्र-470)। तीर्थंकरों ने जिस अर्थागम का उपदेश दिया, वह उनके लिए आत्मागम है, किन्तु गणधरों के लिए वह अर्थागम 'अनन्तरागम' है, क्योंकि उन्होंने उसे तीर्थंकरों से साक्षात् (अनन्तर ही, बिना व्यवधान के) प्राप्त किया है। वही अर्थागम गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यों के लिए 'परम्परागम' हैं। इसी प्रकार गणधरों द्वारा शब्दात्मक रूप लेकर जो 'सूत्रामम' अस्तित्व में आता है, वह उन गणधरों के लिए 'आत्मागम' हो जाता है, किन्तु उनके शिष्यों के लिए . 'अनन्तरागम' और प्रशिष्यों के लिए 'परम्परागम' हो जाता है। आर्य सुधर्मा ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी यहां यह उल्लेखनीय है कि भगवान् महावीर की श्रुत-परम्परा व संघ-परम्परा के वाहक वस्तुतः आर्य सुधर्मा थे। क्योंकि ग्यारह गणधरों में गौतम गणधर और आर्य सुधर्मा के अलावा शेष नौ गणधर तो भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही निर्वाण प्राप्त कर गये। गौतम गणधर भी, भगवान् के निर्वाण के समय, भगवान् की आज्ञा से ही दूसरे गांव में गए हुए थे, शीघ्र केवली' हो गए। अतः आर्य सुधर्मा पर ही, संघसंचालन का उत्तरदायित्व आया और वे ही भगवान् महावीर के वास्तविक प्रथम उत्तराधिकारी बने। उनके बाद उनके शिष्य आर्य जम्बूस्वामी द्वितीय उत्तराधिकारी बने। इस प्रकार, आज जो निर्ग्रन्थ-परम्परा या श्रुतपरम्परा प्रवर्तमान है, वह आर्य सुधर्मा की ही शिष्य-परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है (दिगम्बर परम्परा में गौतम गणधर को ही प्रथम उत्तराधिकारी माना जाता है)। द्वादशांगी व पूर्व' की संकलना भगवान् महावीर के प्रवचनों को गणधरों ने सूत्ररूप में संकलन किया, उसे अंग-साहित्य नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। समस्त 'अङ्गों' की संख्या बारह है, जो इस प्रकार है- (1) आचाराङ्ग, (2) सूत्रकृताङ्ग (3) R8800RB0BROOR@@R [23] RBOBRORBRBRBRBRBR Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग (4) समवायाङ्ग (5) भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), (6) ज्ञाताधर्मकथा (7) उपासकदशा (8) अन्तकृत्दशा (9) अनुत्तरौपपातिकदशा (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक (12) दृष्टिवाद (द्र. समवायांग, सम. 136) / श्रुतपुरुष के विविध अङ्ग : द्वादशाङ्ग इन आगमों को 'अङ्ग' कहना इसलिए सार्थक है कि ये श्रुतपुरुष के विविध प्रमुख अङ्ग हैं। अभिदानराजेन्द्र कोश (भा. 1, पृ. 38) नन्दीसूत्र वृत्ति, (2-3) एवं नन्दीसूत्र चूर्णि (पृ. 47) के अनुसार 2 पांव, 2 जंघा, 2 ऊरु, 2 गात्रार्द्ध (कटि), 2 बाहु 1 ग्रीवा, और 1 मस्तक- इस प्रकार कुल बारह अंगों के रूप में उक्त द्वादशांग को मानना चाहिए। श्रुतपुरुष के अंग में प्रविष्ट होने से इन आगमों को अंगप्रविष्ट' भी कहा जाता है। 'पूर्व साहित्यः उक्त द्वादशांग के अतिरिक्त 'पूर्व' नाम से प्रसिद्ध आगमों' का निर्देश भी शास्त्रों में प्राप्त होता है। पूर्वो की संख्या चौदह मानी गई है। (समवायांग, सम. 14) / आवश्यक नियुक्ति (गा. 292-293) तथा उसके टीकाकार मलयगिरि (पृ. 48) के अनुसार गणधरों द्वारा इनकी रचना द्वादशांगी से पूर्व की गई थी और इनका आधार तीर्थंकर-उपदिष्ट तीन मातृका पद (उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा, अर्थात् द्रव्य उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, किन्तु ध्रुव-नित्य रहता है) थे। ये विशेषतः प्रौढ़ विद्वानों के लिए बोध्य थे, साधारण जनों के लिए दुर्गम थे, अत: (स्त्री, बालक आदि) साधारण जनों के लाभार्थ, 'पूर्व'-रचना के वाद द्वादशांग की प्राकृत में रचना की गई (द्र. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 551, दशवैकालिक वृत्ति, पृ. 203) / प्रभावक चरित्र (श्लोक-113-114) एवं दशवैकालिक वत्ति के अनुसार इन 'पर्वो की भाषा संस्कत थी। एक मान्यता यह भी है कि भगवान महावीर.से पूर्व भी, 'पूर्व' साहित्य आगम' के रूप में उपलब्ध था, अतः उसे 'पूर्व' कहा जाता है। कल्पसूत्र (सू. 203) के अनुसार भगवान् महावीर के सभी गणधर चतुर्दशपूर्वज्ञाता थे। नन्दीसूत्र (सू. 101) में 'पूर्वो' को बारहवें अंग दृष्टिवाद (के चतुर्थ विभाग 'पूर्वगत') के अन्तर्गत निरूपित किया गया है। सम्भवतः 'पूर्व' साहित्य व द्वादशांग को परस्पर समन्वित करने का यह प्रयास प्रतीत होता है। पूर्वसाहित्य की महत्ता इसी से स्पष्ट हो जाती है कि इतिहास में ज्ञानी आचार्यों की द्वादशांगधारी या अंगधारी श्रेणी के अलावा, 'पूर्वधर' श्रेणी भी पृथक् रूप में प्राप्त होती है। पूर्वधर ज्ञानियों को 'श्रुतकेवली' भी कहा जाता था। उन्हें 'जिन' (या तीर्थंकर) के समान आदर प्राप्त था (द्र. दशाश्रुत, 8, परि सू. 97) / अंगबाह्य आगमों में अनेक आगमों की रचना पूर्वधरों द्वारा की गई है। जैसे- (1) दशाश्रुत स्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प, निशीथ -ये चारों आगम चतुथर्दशपूर्वी भद्रबाहु द्वारा 'प्रत्याख्यान नामक नौवें' 'पूर्व' से निर्मूढ (रचित) हैं (दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति, गा. 1, 5-6, पंचकल्प भाष्य, गा. 11) / इसी प्रकार, आचारांग- वृत्ति (290) व नियुक्ति (गा. 288-291) के अनुसार आचारचूला' की रचना चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु द्वारा की गई है। मूलसूत्र दशवकालिक की रचना चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव द्वारा रचित है, और इसके अनेक अध्ययन विविध 'पूर्वो' से उद्धृत (नियूढ) किये गए हैं। (दशवैकालिकनियुक्ति, गा. 16-17) / उत्तराध्ययन के दूसरे अध्ययन को भी कर्मप्रवाद 'पूर्व' के 17वें प्राभृत से उद्धृत माना जाता है (उत्तराध्ययन-नियुक्ति, गा. 69) / इसके अतिरिक्त, कर्मसाहित्य भी जो उपलब्ध है, वह अधिकांशतः पूर्वोद्धृत माना जाता है। ROORB0BARB0BROR [24] RO08RROROSce Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों की संख्या में विस्तार परवर्ती काल में अन्य विशिष्ट श्रुतज्ञानियों द्वारा रचित शास्त्रों को भी आगमों के रूप में मान्य किया गया। इन विशिष्ट ज्ञानियों को (1) प्रत्येकबुद्ध, (2) चतुर्दशपूर्वी व (3) दशपूर्वी - इन तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। उक्त पूर्वधारियों को 'स्थविर' नाम से भी अभिहित किया जाता है। चतुर्दशपूर्वधारी-श्रुतकेवली जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी भी तरह द्वादशांगी से विरुद्ध नहीं होता। उनमें और केवली में इतना ही अन्तर होता है कि जहां केवली समग्र तत्त्व को प्रत्यक्ष जानते हैं किन्तु श्रुतकेवली परोक्ष रूप से, श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं (द्र. बृहत्कल्पभाष्य, गा. 963-966) / इसके अतिरिक्त, दशपूर्वधारी आदि 'स्थविर' आचार्य नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं (बृहत्कल्प भाष्य, गा. 132), निग्रंथ-प्रवचन को पूर्णत: आधार मान कर ही शास्त्र-प्ररूपणा करते हैं, अतः उनके ग्रन्थों को 'आगमों' के रूप में मान्यता देना स्वतः युक्तियुक्त ठहरता है। इसी दृष्टि से मूलाचार (गाथा-5/80) में कहा गया है * सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं, अभिण्णदसपुव्वकथिदं च। अर्थात् गणधरकथित 'द्वादशांगी' की तरह ही, प्रत्येकबुद्धों, श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वधारी) या दशपूर्वधारी द्वारा रचित आगम भी सूत्र' (आगम) हैं। द्वादशांगी के अतिरिक्त आगमों में कुछ 'नियूढ' हैं और कुछ ‘कृत' हैं। जो शास्त्र द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत हैं, वे (जिनमें आचारचूला, दशवैकालिक, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार आदि) 'नि'ढ' हैं। शेष जो स्वतन्त्र रूप से रचित हैं, वे 'कृत' हैं। (अंगप्रविष्ट व अंगबाह्यः). उपर्युक्त मान्यता के परिप्रेक्ष्य में आगमों की संख्या विस्तृत होती गई और उन्हें अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य रूप में विभाजित किया गया। नन्दीसूत्र में द्वादशांग के अलावा, अंगबाह्य रूप में अनेक आगमों का निर्देश किया गया है। विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार, अंगप्रविष्ट आगम वे हैं जो गणधरों द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट हैं और गणधरों द्वारा सूत्र-बद्ध हैं। अंगबाह्य आगम वे हैं जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित-उपदिष्ट होते हैं और जिनकी रचना स्थविरों-श्रुतकेवली आदि द्वारा की गई होती है (विशेषावश्यक भाष्य, गा. 550 तथा वृत्ति)। बृहत्कल्पभाष्य (गाथा 144 व चूर्णि) के अनुसार, गणधरकृत आगमों से स्थविरों द्वारा निर्मूढ आगम अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य) आगम हैं। इसके अतिरिक्त, वृद्धपरम्परा से प्रामाणिक रूप में प्राप्त जिन-उपदेश व पारम्परिक मान्यताएं आदि जिनमें वर्णित हैं, वे भी 'अनंगप्रविष्ट' हैं। . दिगम्बर परम्परा के आ. पूज्यपाद व आ. अकलंक आदि आचार्यों ने भी सर्वज्ञ तीर्थंकर, श्रुतकेवली व आरातीय (=उत्तरवर्ती, अर्थात् गणधरों के शिष्य-प्रशिष्य, जिनका श्रुत-परम्परा से निकटतम या घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है) -इन ca(r)(r)R(r)(r)(r)(r)(r)(r)R [25] R(r)(r)R(r)0 CR&DecR@@CR Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों द्वारा रचित आगमों को प्रमाण माना है और आरातीय आचार्यों द्वारा रचित एवं अंगसाहित्य से अर्थतया जुड़े हुए ग्रन्थों को 'अंगबाह्य' आगम के रूप में माना है (द्र. सर्वार्थसिद्धि, व राजवार्तिक- 1/20) / इन्हीं अंगबाह्य आगमों को परवर्ती काल में 12 उपांग 4 मूलसूत्र, 4 छेदसूत्र आदि के रूप में विभाजित किया गया। श्रुत-परम्परा का ह्रास एवं श्रुत-रक्षा के उपाय जैन मुनि आगमों को कण्ठस्थ रखते थे, अर्थात् वे आगम-वचनों को स्मृति में रखते थे, लिखते नहीं थे। लिखने आदि में असंयम का दोष लगना संभावित था (द्र. दशवैकालिक चूर्णि, पृ. 21, निशीथ भाष्य. 4004) / गुरु शिष्य-परम्परा से निरन्तर प्रवहमान ज्ञान-धारा को 'श्रुत' नाम से अभिहित किया गया है। वैदिक परम्परा में भी वेद को 'श्रुति' नाम से अभिहित किया जाता रहा है, क्योंकि वहां भी मंत्रों को सुन कर कण्ठस्थ करने की परम्परा रही है। प्रथम वाचना- भगवान् महावीर के निर्वाण को 160 वर्ष पूरे हुए, तब पाटलिपुत्र में 12 वर्षीय भयंकर : दुष्काल पड़ा। संघ बिखर गया। अनेक श्रुतधर दिवंगत हो गए। अनेक श्रमण अन्यत्र विहार कर गये। कालदोष से ज्ञानियों की स्मृति भी दुष्प्रभावित हुई, अतः श्रुत-परम्परा क्षीण होने लगी। दुष्काल समाप्त हुआ। अवशिष्ट व क्षीयमाण श्रुत को सुरक्षित रखने की दृष्टि से पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में संघ एकत्र हुआ और वाचना के द्वारा श्रमणों ने मिलकर ग्यारह अंगों को व्यवस्थित व संकलित किया। बारहवें अंग के ज्ञाता एकमात्र आचार्य भद्रबाहु थे, जो उस समय नेपाल में ध्यानसाधना में संलग्न थे। संघ के निर्देश पर आचार्य स्थूलभद्र ने आचार्य भद्रबाहु के पास जाकर पूर्वो का ज्ञान ग्रहण करने का प्रयास किया। परिस्थितिवश वे चौदह पूर्वी का शाब्दिक पाठ तो ग्रहण कर सके, किन्तु अर्थ रूप से दस पूर्वो का ज्ञान ही इन्हें हो पाया। आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होते ही (वि. सं. 216 तक) अंतिम चार पूर्वो का (अर्थतः) लोप हो गया। क्रमशः पूर्वज्ञान-परम्परा विलुप्त होती गई और देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण (वि. 5 वीं शती) तक आते-आते वह एक 'पूर्व' (तथा कुछ अधिक) तक सीमित रह गई। अंत में वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद पूर्व-ज्ञान' पूर्णतः विच्छिन्न हो गया (भगवती, 20/8) / इस प्रकार द्वादशांगी के ग्यारह अंग ही अवशिष्ट रह पाए, और उसे भी अनेक वाचनाएं आयोजित कर बचाया जा सका है। उन वाचनाओं का संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है। द्वितीय-तृतीय वाचना- वीर निर्वाण के 827 व 840 वर्ष के मध्य मथुरा में दूसरी वाचना हुई, जिसकी अध्यक्षता आचार्य स्कन्दिल ने की। यह माथुरी या स्कान्दिली वाचना कहलाई जिसमें क्षीयमाण एकादशांग की परम्परा को पुनः सुव्यवस्थित करने का प्रयास हुआ। इसीके समकालीन एक अन्य (तीसरी) वाचना वलभी-सौराष्ट्र में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई जिसे वलभी या नागार्जुनीय वाचना कहा जाता है। एक ही समय, भारत के दो भिन्न-भिन्न (उत्तर भारत व पश्चिम भारत के) स्थानों पर आयोजित वाचनाओं के कारण आगमों में पाठभेद हो गया। दोनों वाचनाओं के अध्यक्षों (आ. नागार्जुन व आ. स्कन्दिल) का पुनः मिलना नहीं हो सका और यत्र-तत्र पाठ-भेद बने रहे। RORBRBRBRBRBR [261 RO0BROORB0RO900CR Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वाचना :- वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद, आ. देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण (वि. 7वीं शती लगभग) के नेतृत्व में वलभी में चतुर्थ वाचना हुई जिसमें पाठान्तरों, वाचना-भेदों का समन्वय, उनमें एकरूपता की स्थापना, असंकलित पाठों का संकलन आदि महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए। इसमें माथुरी वाचना को प्रमुखता दी गई और वलभी वाचना को पाठान्तर रूप में मान्यता मिली। आचार्य देवर्द्धिगणी के निर्देशन में ही आगमों को लिपिबद्ध व पुस्तकारूढ़ करने का महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न हुआ। आज जो आगम साहित्य उपलब्ध है, उसका मुख्य श्रेय इन्हीं को जाता है। [दिगम्बर परम्परा ग्यारह अंगों का लोप, तथा बारहवें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंश सुरक्षित मानती है, और इसकी सुरक्षा का श्रेय आ. धरसेन, एवं आ. पुष्पदन्त व आ. भूतबली को जाता है।] अनुयोगों में आगम-विभाजन समस्त आगम साहित्य को आर्यवज्र के पट्टाधिकारी आचार्य आर्यरक्षित ने विषयवस्तु की दृष्टि से स्थूल रूप से चारों भागों (वर्गों) में विभाजित किया (विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-2286-2291,2511 व वृत्ति) / भविष्य में शिष्य-परम्परा में मेधा, धारणा शक्ति के ह्रास को ध्यान में रख कर, भावी अल्पमेधावी लोगों पर अनुग्रह हेतु यह विभाजन किया गया था। वे हैं : (1) धर्मकथानुयोग (कथा साहित्य) (2) चरणकरणानुयोग (आचारविषयक) (3) गणितानुयोग (लोक-रचना, खगोलभूगोलविषयक) (4) द्रव्यानुयोग (द्रव्य-स्वरूप विषयक) अन्य परम्परा में इन्हीं चारों को पृथक् रीति से इस प्रकार विभाजित किया है- प्रथमानुयोग (धर्मकथा), चरणानुयोग (आचार), करणानुयोग (लोकस्वरूपादि), द्रव्यानुयोग (तत्त्वस्वरूप)। .. अनुयोग-विभाजन से तात्पर्य है- ऐसा विभाजन, जो 'अनु' (यानी मूल सूत्रादि के अनुरूप) 'योग' अर्थात् सुसंगत, अविरुद्ध व्याख्यान करने में उपयोगी हो। अंगबाह्य आगम और उपांगादि विभाग नन्दीसूत्र (5 वां प्रकरण) में अङ्गबाह्य आगमों के प्रमुखत: दो विभाग हैं- (1) आवश्यक सूत्र, और (2) आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यकव्यतिरिक्त के अन्तर्गत उत्कालिक व कालिक भेद किये गए हैं। स्वाध्यायकाल जिनका नियत है, वे 'कालिक' हैं, शेष 'उत्कालिक' (द्र. राजवार्तिक- 1/20/14, विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2294-95, नन्दी चूर्णि- पृ. 57) / 'कालिक' के अन्तर्गत उत्तराध्ययन आदि 31 आगम, तथा 'उत्कालिक' के अन्तर्गत दशवैकालिक आदि 29 आगम परिगणित किये गये हैं। उक्त विभाजन से एक बात तो स्पष्ट है कि अंगबाह्य आगमों में आवश्यक' सूत्र का प्रथम स्थान है। [प्रस्तुत कृति विशेषावश्यक भाष्य इसी सूत्र के सामायिक अध्ययन पर रचित है।] Re0@RB0RRB0BR [27] Re@RSORB0BReer Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगबाह्य के उपांगादि विभाग ___ वर्तमान में आगमों को अंग, उपांग, मूलसूत्र, छेद सूत्र (तथा) प्रकीर्णक रूप में विभक्त किया जाता है। एकादशांगों के नाम पहले दे चुके हैं। (बारह उपांग-) प्रत्येक अंग का एक उपांग है, इस रीति से द्वादशांगी के कुल 12 उपांग माने गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं(1) औपपातिक आचारांग का उपांग (2) राजप्रश्नीय सूत्रकृतांग का उपांग (3) जीवाभिगम स्थानांग का उपांग (4) प्रज्ञापना समवायांग का उपांग (5) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति भगवती का उपांग (6) सूर्यप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा का उपांग (7) चन्द्रप्रज्ञप्ति उपासकदशा का उपांग (8) निरयावलिका-कल्पिका अन्तकृत्दशा का उपांग (9) कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिक दशा का उपांग (10) पुष्पिका प्रश्नव्याकरण का उपांग (11) पुष्पचूलिका विपाक सूत्र का उपांग (12) वृष्णिदशा दृष्टिवाद (लुप्त) का उपांग (मूल सूत्र :-) मूलसूत्रों की संख्या और नामों के विषय में मतैक्य नहीं है। स्थानकवासी परम्परा मूलसूत्रों की संख्या चार मानती है, जिनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार की गणना की जाती है। __ (छेदसूत्र :-) आवश्यकनियुक्ति (गा. 777), विशेषावश्यक भाष्य (गा. 2295), तथा निशीथ भाष्य (गा. 5947) में छेदसूत्र' नाम दृष्टिगोचर होता है। छेदसूत्रों में चारित्र-विशुद्धि के साधनों- दण्ड, प्रायश्चित्त आदि विधि-नियमों का निरूपण है। श्रमण जीवन की साधना का सर्वांगीण स्वरूप तथा उसके नियामक निर्देश छेदसूत्रों से परिज्ञात होते हैं। इसी दृष्टि से छेदसूत्रों को 'उत्तमश्रुत' माना गया है (द्र. निशीथ भाष्य, गा. 6184 वृत्ति)। समयसुन्दरगणी कृत समाचारीशतक में छेदसूत्रों की संख्या छ: मानी गई है। किन्तु स्थानकवासी परम्परा में चार ही छेदसूत्र माने गए हैं। उनके नाम हैं- दशाश्रुत स्कन्ध, व्यवहार, वृहत्कल्प और निशीथ। (बत्तीस आगम:-) श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में बत्तीस आगम प्रमाण माने गये हैं। इनमें 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूलसूत्र, चार छेदसूत्र, और आवश्यक सूत्र- इन्हें परिगणित किया जाता है। [श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की सख्या पैंतालीस मानती है, जिनमें 11 अंग, 12 उपांग, 6 मूल सूत्र, 6 छेदसूत्र, 10 प्रकीर्णक (आतुरप्रत्याख्यान आदि) -इस प्रकार 45 आगम परिगणित हैं।] ROMORRORORSCRORSR [28] ROOcRODRODROOR Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आवश्यक सूत्र : महनीय आगम | विशेषावश्यक भाष्य की रचना आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन (सामायिक) पर व्याख्या रूप में की गई है। अतः इस आवश्यक सूत्र का भी परिचयात्मक विवरण देना यहां प्रासंगिक प्रतीत होता है। आवश्यक सूत्र को अंगबाह्य आगमों में अतिविशिष्ट स्थान दिया गया है (द्र. नन्दीसूत्र)। विशेषावश्यक भाष्य (गा. 550 तथा वृत्ति) के अनुसार गणधरों द्वारा न पूछने पर; तीर्थंकर द्वारा 'मुक्तव्याकरण' (उन्मुक्त कथन) रूप से जो निष्पन्न- अभिव्यक्त होता है, अथवा जो स्थविर आचार्यों द्वारा रचित होता है, वह अंगबाह्य' आगम होता है। अतः अंगबाह्य रचना के अन्तर्गत वे सभी रचनाएं समाविष्ट की गई हैं जो अत्यन्त प्रकृष्ट मति आदि वाले श्रुतकेवली या अन्य विशिष्ट ज्ञानी आचार्यों द्वारा काल, संहनन, आयु की दृष्टि से अल्प योग्यता वाले शिष्यों पर अनुग्रह करते हुए लिखी गई हैं। सूत्रः गागर में सागर / 'आवश्यक' आगम को 'सुत्त' कहा जाता है। सुत्त के संस्कृत रूप सूक्त व सूत्र- दोनों होते हैं। सूक्त' यानी श्रेष्ठ कथन (सुष्ठ उक्तम्)। भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों द्वारा भव्य जनों के कल्याण हेतु जो श्रेष्ठ कथन (अर्थात्मक) हुए, वे गणनरों के माध्यम से शब्दात्मक रूप धारण कर 'सूक्त' कहलाए। 'सूत्र' से तात्पर्य हैसंक्षेप में अर्थ-कथन। सूत्र की आगमोक्त परिभाषा यह है अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च। लक्खणजुत्तं सुत्तं अठहि य गुणेहिं उववेयं / ' अर्थात् जो अल्प अक्षरों में निबद्ध हो, महान् अर्थ का सूचक हो, (बत्तीस) दोषों से रहित हो तथा (आठ) गुणों से सम्पन्न हो, वही 'सूत्र' कहलाता है। इसी भाव को एक संस्कृत पद्य में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम्। अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥ 1. वारत्रयं गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्यय आदेशः प्रतिवचनम्- उत्पादव्ययधौव्यवाचकं पदत्रयमित्यर्थः, तस्माद्यनिष्पन्नं तद् अङ्गप्रविष्टं द्वादशाङ्गमेव, मुत्कं मुत्कलम्- अप्रश्नपूर्वकं च यद्व्याकरणम्-अर्थप्रतिपादनम्, तस्माद् निष्पन्नम् अङ्गबाह्यम् अभिधीयते, तच्च आवश्यक-आदिकम्। 2. तत्त्वार्थभाष्य-1/20, सर्वार्थसिद्धि-1/20, 3. बृहत्कल्प भाष्य- गाथा 277, तथा विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-999, 4. अलीक, उपघातजनक, निरर्थक आदि 32 दोषों हेतु द्रष्टव्यः विशेषाः भाष्य गा. 999 पर शिष्यहिता बृहवृत्ति, 5. आ. हेमचंद्र कृत प्रमाणमीमांसा में उद्धृत 1/2/4 सूत्र पर। R@@@@@@RB0BR [29] R@@CROBAROBAROOR Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो अल्प अक्षर वाला, असंदिग्ध, सारयुक्त, सर्वतोमुखी (विविध अनुयोगानुसार व्याख्यानसमर्थ) हो तथा (अपेक्षित अक्षरों से) अधिक अक्षरों से युक्त नहीं हो, उसी को सूत्रकारों ने निर्दोष सूत्र कहा है। तात्पर्य है कि सूत्र में न ज्यादा कहा जाता है, और न इतना कम कहा जाता है कि अभिधेय अर्थ ही अभिव्यक्त न हो। उसमें संक्षिप्त रूप में जो कह दिया जाता है, उसे विविध आयामों से, दृष्टियों से, व्याख्यायित कर विस्तार दिया जा सकता है। इसी दृष्टि से आगमों में सूत्र शब्द के अनेक निर्वचन भी किये गये हैं। जैसे- जो सूचित करता है, जो स्यूत करता हैं (जो सूई की तरह बिखरे फूलों को एक धागे में पिरोता है), जो अर्थ का प्रसव करता है (अर्थात् एक या अनेक अर्थों का जन्म देता है), और जो अर्थ का अनुसरण करता है (अर्थात् अभीष्ट प्रकरण-संगत अभिधेय के अनुरूप अर्थप्रतिपादन करता है) : नेरुत्तियाइं तस्स उ, सूयइ, सिव्वइ, तहेव सुवइ त्ति। अणुसरति त्तिय भेया, तस्स उ नामा इमा हुंति।' उपर्युक्त सूत्र-परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि सूत्र 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करता है। जैसे एक छोटे से बीज से अनेकानेक विस्तृत शाखाओं वाला महान् वृक्ष अस्तित्व में आता है, वैसे ही सूत्र के आधार पर विशालकाय ग्रन्थों का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार सूत्र की गूढार्थता व महार्थता ही उसकी विशेषता सिद्ध होती है। आवश्यक सूत्र' में भी निश्चित ही 'सूत्र' का उपर्युक्त निर्वचन फलित हुआ है। यही कारण है कि इस पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ आवश्यक नियुक्ति (लगभग 1600 गाथाओं में), उस के प्रथम अध्ययन सामायिक' पर विशालकाय विशेषावश्यक भाष्य (लगभग 3600 गाथाओं में) तथा उस पर मलधारी हेमचंद्र कृत शिष्यहिता नामक (28000 श्रीक प्रमाण) व्याख्या - इस प्रकार अतिविशाल साहित्य-भण्डार निर्मित हो गया है। 'आवश्यक' का अर्थ है- अवश्य करणीय। संयम-साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान आवश्यकरूप से, वस्तुतः अनिवार्यतया करणीय होते हैं, वे 'आवश्यक' (अनुष्ठान) में परिगणित हैं। श्रमणचर्या में जो मूलतः सहायक होती हैं, जिनका ज्ञान होना प्रत्येक श्रमण को मूलतः (प्रारम्भिक रूप में) अपेक्षित है, उन आवश्यक' क्रियाओं का निरूपण इस सूत्र में है। संभवतः इस दृष्टि से भावप्रभसूरी ने (जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक-30 की स्वोपज्ञ वृत्ति) आवश्यक को चार मूलसूत्रों में परिगणित किया है। आवश्यक के पर्यायवाची शब्द हैं- अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, न्याय, आराधना, मार्ग, अध्ययनषट्कवर्ग (द्र. अनुयोगद्वार सूत्र)। भाष्यकार के मत में आवश्यक' ज्ञानक्रियामय आचरण है अत: मोक्षप्राप्ति का कारण है। जैसे कुशल वैद्य उचित आहार (या पथ्य) की अनुमति देता है, वैसे ही- भगवान् ने साधकों के लिए आवश्यक क्रियाओं का विधान किया है (द्र. भाष्य गा. 3-4 एवं बृहद्वृत्ति)। 'आवश्यक' की अंगभूत छ: क्रियाएं हैं- (1) सामायिक (2) चतुर्विंशति स्तव (3) वन्दन (4) प्रतिक्रमण, (5) कायोत्सर्ग, और (6) प्रत्याख्यान / इन्हीं छ: 1. (बृहत्कल्पभाष्य, गा. 314) R@ @ R R 808680@R [30] R@ @ @20@Re80@Re80@R Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाओं से सम्बन्धित छ: अध्ययन इस सूत्र में हैं। मूलपाठ का परिमाण 100 श्लोक प्रमाण है तथा इसमें 91 गद्य सूत्र हैं और 9 पद्यसूत्र हैं। आन्तरिक दोषों की शुद्धि एवं गुणों की वृद्धि करने में उक्त छ: 'आवश्यक' क्रियाएं कार्यकारी हैं। इनसे आध्यात्मिक विशुद्धि तो होती ही है, साथ ही व्यावहारिक जीवन में, समत्व, विनय, क्षमाभाव आदि प्रशस्त गुण संवर्द्धित होते हैं, फलस्वरूप साधक के मानसिक धरातल से आनन्द की निर्मल धारा प्रकट होती है। 'सामायिक' नामक प्रथम अध्ययन में समत्वसाधना का निरूपण है। इसे 'सावध विरति' नाम से भी अभिहित किया जाता है। श्रमण जीवन में अनुष्ठित की जाने वाली समता एक उत्कृष्ट साधना है। वस्तुतः समत्व ही श्रामण्य का मूल आधार है। 'समता' तभी पूर्णतया अनुष्ठित हो पाती है जब सावध योग से विरति हो (द्र. उत्तरा. 29/9), तथा षट्काय जीवों के प्रति संयत भाव तथा मन-वचन-काय की एकाग्रता के माध्यम से स्वस्वरूप में रमण हो। समस्त अन्य साधनाएं 'सामायिक' के बिना निर्मूल ही हैं। निःसन्देह समस्त जिनवाणी का सार 'सामायिक' ही है। दूसरे अध्ययन की विषयवस्तु चतुर्विंशति स्तव आवश्यक है। इसका दूसरा नाम ‘उत्कीर्तन' भी है। तीर्थंकरों की स्तुति सामायिक साधना का आलम्बन है। तीर्थंकर-स्तव का अर्थ है- उनके सद्गुणों को स्व में मूर्त रूप देना- प्रकट करना। इससे साधक की दर्शन-ज्ञान विशुद्धि (द्र. उत्तरा. 29/10) तथा उस में आन्तरिक निरभिमानता, पवित्रता व स्फूर्ति संचारित होती हैं। तीसरा अध्ययन 'वंदन' आवश्यक है। वंदन का अर्थ है- सद्गुरु देव के प्रति बहुमान व भक्तिभाव प्रकट करना। वंदन को ही चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि त्याग व वैराग्य की मूर्ति, निर्मलचारित्रसम्पन्न व्यक्तित्व ही वंदनीय होता है। यह वंदन द्रव्य व भाव- दोनों रूपों में करणीय होता है। वंदन से उच्चगोत्रबन्ध व दाक्षिण्य भाव आदि की प्राप्ति होती है (द्र. उत्तरा. 29/11) / चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण आवश्यक है। अशुभ योगों में प्रवृत्त आत्मा को पुनः शुभ योगों में लौटाना -यही प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व अशुभ योग - इनसे निवृत्त होना, तथा उत्तरोत्तर शुभ योगों में बढ़ते जाना -यही प्रतिक्रमण का सार है। साधक द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप से किसी की विराधना हुई हो, किसी को दुःख पहुंचाया गया हो, स्वाध्यायादि में प्रमाद हुआ हो, उसके लिए साधक 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मेरे दुष्कृत मिथ्या-निस्सार हों) -इस भावना के साथ स्वयं को शुभ योग में संस्थापित करता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान साधक की संयम-स्थिति में साधन होता है (द्र. उत्तरा. 29/12) / देवसिय, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक -ये प्रतिक्रमण के भेद हैं जो कालविशेष की अपेक्षा से किये गये हैं। - . 1. द्र. विशेषा. गाथा- 902. RO@RO0BKe0ROR [31] ROORoneROWORB0R Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग की साधना है- काया की ममता का त्याग कर अन्तर्मुखता में गतिशील होना। शरीर व आत्मा के भेदविज्ञान की साधना ही कायोत्सर्ग है। इसे 'व्रणचिकित्सा' भी कहते हैं। व्रण से तात्पर्य है- धर्म-साधना में होने वाली स्खलनाएं, जो व्रतों में अतीचार या दोष पैदा करने वाली होती हैं। इससे त्रैकालिक अतीचार-शुद्धि होती है (द्र. उत्तरा. 29/13) / यह आवश्यक एक प्रकार का 'प्रायश्चित्त' है जो पापकर्मों का शोधन करता है। इससे साधक को पाप के भारों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य व सुख की अनुभूति होती है। छठा अध्ययन 'प्रत्याख्यान' आवश्यक है। इसका दूसरा नाम 'गुणधारण' भी है। सांसारिक भोगों का त्याग कर संयम-व्रत आदि गुणों को धारण करना 'प्रत्याख्यान' है। इसकी साधना से साधक दुष्ट प्रवृत्तियों से हट कर स्वयं को संयम-मार्ग में अग्रसर करता है। यह आवश्यक इच्छानिरोध-पूर्वक संवर आदि का साधन होता है (द्र. उत्तरा. 29/14) / इस आवश्यक क्रिया से आध्यात्मिक विशुद्धि, संयम-साधना में दृढ़ता और त्याग-वैराग्य में वृद्धि होती है। निष्कर्ष यह है कि सामायिक से समता, स्तव से वीतरागता, वंदन से विनयसम्पन्नता, प्रतिक्रमण से संसार-विरक्ति व अन्तर्मुखता, कायोत्सर्ग से त्यागवृत्ति व शरीरादि-अनासक्ति का प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सभी आवश्यक' क्रियाएं गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से सुवासित करती हैं। इन सभी क्रियाओं का सर्वांगीण विवेचन इस आगम 'आवश्यक सूत्र' में हुआ है। इसलिए इस आगम की महत्ता व उपादेयता स्वतःसिद्ध है। यही कारण है कि इस आगम पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि अनेक व्याख्यात्मक ग्रन्थ रचे गए। आवश्यक की रचना व रचना-काल यह सूत्र अंगबाह्य है अतः गणधरों द्वारा रचित नहीं, अपितु किसी स्थविर या बहुश्रुत की ही कृति है। कुछ जैन विद्वान् यह मानते हैं कि यह एकाधिक आचार्यों की कृति है। [स्वनामधन्य पं. दलसुख मालवणिया जी तो इसे गणधर-रचित मानते हैं।] आचारांग टीका के एक वाक्य से यह भी संकेतित होता है कि इसके कुछ अध्ययन (श्रुतकेवली) आचार्य भद्रबाहु आदि एवं परवर्ती अनेक स्थविर आचार्यों की ज्ञान-निधि के प्रतिफलित रूप हैं। अत: निश्चय ही इसका वर्तमान रूप भगवान् महावीर के समय से ही प्रारम्भ होकर वि. सं. 5-6 शती तक पूर्णता को प्राप्त हो चुका था। पं. सुखलाल जी ने इसे ई. पू. चौथी शताब्दी तक रचित माना है। अतः सूत्र की अतिप्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि भद्रबाहु (द्वितीय) ने सर्वप्रथम नियुक्ति की रचना इसी सूत्र पर की है। आवश्यक सूत्र पर रचित चूर्णि, नियुक्ति व भाष्य साहित्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है: 1. द्र. अनुयोग द्वार, मलधारी हेमचंद्र कृत टीका, पृ. 28 / 2. आवश्यकान्तर्भूतः चतुर्विंशतिस्तव आरातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वामिना अकारि, (आचा. टीका, पृ.56)। RO208RB0BKe0RO900R [32] ROWROORORROR Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक नियुक्तिः _ आवश्यक सूत्र पर सर्वाधिक प्राचीन व्याख्या है- आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा प्राकृत भाषा में पद्यमय रचित आवश्यकनियुक्ति। इसका समय लगभग विक्रम 5-6 शती है। ग्रन्थ का विशेष विवरण आगे दिया जा जाएगा। विशेषावश्यक भाष्य : आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण (विक्रम 6-7वीं शती) द्वारा रचित प्राकृत भाषा में रचित पद्यात्मक व्याख्या है जिसे 'विशेषावश्यक भाष्य' कहा जाता है। विस्तृत विवरण आगे दिया जा रहा है। आवश्यकचूर्णि: आवश्यक सूत्र पर जिनदास गणि महत्तर (वि. सं. 650-750) ने चूर्णि लिखी है। यह चूर्णि आवश्यक नियुक्ति के अनुरूप है अर्थात् नियुक्ति का प्रमुखतः अनुसरण करते हुए लिखी गई है और यत्र-तत्र भाष्य गाथाओं का भी व्याख्यान किया गया है। भाषा प्रधानतः प्राकृत है, किन्तु गौण रूप से संस्कृत भी कहीं-कहीं प्रयुक्त हुई है। भाषा में प्रवाह व ओज है। इसमें गूढ व कठिन विषयों को कथाओं के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है, अत: अनेक ऐतिहासिक व लोक-कथाओं का समावेश भी हुआ है। तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक परिस्थितियों की जानकारी इस कृति से होती है। आवश्यक वृत्ति आदि टीकाएं : आ. जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने अपनी कृति विशेषावश्यक भाष्य पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी थी, किन्तु वह छठे गणधरवाद तक ही लिखी गई, अतः वह अपूर्ण रह गई। इसे कोट्याचार्य (वि. 8 वीं शती) ने पूर्ण किया। यह वृत्ति सरल, स्पष्ट व संक्षिप्त है। आचार्य मलयगिरि (12वीं शती) ने आवश्यक विवरण' नामक वृत्ति की रचना की है। वस्तुतः यह मूल सूत्र पर न होकर आवश्यकनियुक्ति पर है। यत्र-तत्र विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं को उद्धृत किया गया है। यत्र-तत्र प्राकृत कथानकों का भी आश्रय लिया गया है। आवश्यक सूत्र के द्वितीय अध्ययन तक ही यह विवरण प्राप्त है और वह भी अपूर्ण रूप से। इसका प्रमाण 18 श्लोक माना जाता है। आचार्य हरिभद्र (ई. 8वीं शती) ने भी आवश्यक सूत्र पर तो नहीं, किन्तु आवश्यक नियुक्ति पर एक वृत्ति लिखी है। इसमें आवश्यक चूर्णि का अनुसरण न करते हुए स्वतंत्र रूप से विषय-विवेचना की गई है। इसी वृत्ति में यह भी संकेत मिलता है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकसूत्र पर एक बृहत् टीका भी लिखी थी, किन्तु यह अनुपलब्ध है। नियुक्ति के पाठान्तरों का भी इसमें निर्देश किया गया है। यह वृत्ति संस्कृत में है, किन्तु दृष्टान्त व कथानक प्राकृत में ही दिये गये हैं। इस वृत्ति का प्रमाण 22 हजार श्लोक माना जाता है। आचार्य मलधारी हेमचंद्र (12 वीं शती) ने आवश्यक-नियुक्ति व विशेषावश्यक भाष्य पर शिष्यहिता नामक एक बृहवृत्ति की रचना संस्कृत में की है। इसका विशेष परिचय आगे दिया जाएगा। इन्हीं आचार्य ने आवश्यक सूत्र पर (वस्तुतः हरिभद्र-रचित आवश्यक-वृत्ति पर) पृथक् रूप से टिप्पण भी लिखा और कठिन RORSCRORRORROR [33] ROORBOORB0SROR Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयों को सरल करने का प्रयास किया। इस टिप्पण को 'हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति-टिप्पण' और 'आवश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्या' (टिप्पण) -इन नामों से भी जाना जाता है। यह 4600 श्लोकप्रमाण है। कोट्याचार्य (वि. 8 वीं शती) ने विशेषावश्यक भाष्य पर (स्वोपज्ञवृत्ति को पूर्ण करने के अलावा) विवरण लिखा है, जो न अतिसंक्षिप्त है और न ही अतिविस्तृत / यद्यपि यह संस्कृत में है, किन्तु यत्र-तत्र कथाएं प्राकृत में दी गई हैं। इसका परिमाण 13700 श्लोक माना जाता है। इनके अतिरिक्त भी, अन्य आचार्यों ने आवश्यक सूत्र पर टीकाएं लिखी हैं जिनमें नमि साधु (वि. 12 वीं शती), श्री तिलकसूरी (12 वीं शती), श्री चंद्रसूरि (वि. 13 वीं शती), ज्ञानसागर (वि. सं. 1440), श्रीधरसुन्दर (वि. सं. 1500), शुभवर्द्धन गणि (वि. सं. 1540) तथा हितरुचि (वि. सं. 1697) की टीकाएं उल्लेखनीय हैं। आवश्यक, नियुक्ति, भाष्य आदि के प्रमुख उल्लेखनीय प्रकाशन : आवश्यक सूत्र के मूलपाठ तो अनेक जगह से प्रकाशित हुए हैं। जैसे- (1) मुनि पुफ्फभिक्खु संपादित 'सुत्तागमे' के अंतर्गत हुआ प्रकाशन, (2) सैलाना से 1984 ई. में प्रकाशित 'अंगप्रविष्ट सूत्र' के अन्तर्गत प्रकाशन, (3) आगम प्रभावक मुनि पुण्यविजय जी म. के निर्देशन में श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा जैन आगम ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ई. 1977 में (कुछ अन्य आगमों के साथ) प्रकाशित। .. आवश्यक सूत्र (सानुवाद) तथा उस पर आधारित चूर्णि, नियुक्ति, (विशेषावश्यक) भाष्य व टीकाओं के अनेक प्रकाशन हुए हैं, जिनमें विशेष उल्लेखनीय निम्नलिखित हैं (1) आवश्यक सूत्रः गुजराती अनुवाद संहित, भीमसी माणेक, बम्बई द्वारा 1906 ई. में प्रकाशित। (2) आवश्यक सूत्रः आ. अमोलकऋषि जी म. कृत हिन्दी अनुवाद आदि के साथ, वीर सं. 2446 में प्रकाशित। (3) आवश्यक सूत्रः पू. श्री घासीलाल जी म. कृत संस्कृत व्याख्या, हिन्दी व गुजराती अनुवाद के साथ, जैन शास्त्रोद्वार समिति, राजकोट द्वारा ई. 1958 में प्रकाशित। (4) आवश्यक सूत्र, महासती सुप्रभा 'सुधा जी' कृत हिन्दी अनुवाद सहित, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा, ई. 1985 में प्रकाशित। ___(5) आवश्यक चूर्णि : जिनदास गणि महत्तर कृत आवश्यक चूर्णि ई. 1928-29 में श्री ऋषभदेव केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम द्वारा दो भागों में प्रकाशित हुई है। (6) आवश्यक वृत्ति : विजयदानसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, सूरत द्वारा 1936 ई. में आवश्यक सूत्र पर रचित आवश्यक नमिसारवृत्ति का प्रकाशन। (7) आवश्यक वृत्ति : देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बम्बई द्वारा आचार्य मलधारी हेमचंद्र रचित 'आवश्यकवृत्ति प्रदेशव्याख्या' का चंद्रसूरिकृत प्रदेशव्याख्या टिप्पण के साथ ई. 1920 में प्रकाशन। R@ @RB0BRO0BRB0BR [34] R@ @R@ @RB0BR@@R: Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) आवश्यक-नियुक्ति (वृत्तिः): आ. भद्रबाहु कृत नियुक्ति का मलयगिरी वृत्ति (विवरण) के . साथ आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा 1928 ई. में प्रकाशन / इसी का दूसरा भाग 1932 में प्रकाशित। तीसरा भाग 1936 ई. में देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत द्वारा प्रकाशित। (9) आवश्यक-नियुक्ति : आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा ई. 1916-17 में भद्रबाहुकृत नियुक्ति का हरिभद्रीय वृत्ति के साथ प्रकाशन। (10) आवश्यक नियुक्ति : माणिक्यशेखर कृत दीपिका के साथ आवश्यक नियुक्ति का 19361941 ई. में विजयदान सूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, सूरत द्वारा प्रकाशन। (11) आवश्यक नियुक्ति : समणी डॉ. कुसुमप्रज्ञा कृत हिन्दी अनुवाद आदि के साथ जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज.) द्वारा 2001 ई. में (प्रथम खण्ड) प्रकाशित। (12) विशेषावश्यक भाष्य : शाह चुनीलाल हुकुमचन्द कृत गुजराती अनुवाद (जिसमें मलधारी हेमचंद्र कृत बृहवृत्ति 'शिष्यहिता' का सार भी समाहित है) के साथ आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा 2 भागों में 19241927 ई. में प्रकाशन / इसी को 1996 ई. (वि. सं. 2053) में भद्रंकर प्रकाशन, 49/1, महालक्ष्मी सोसाइटी, शाही बाग, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया। [इसके पूर्व भी दो संस्करण इस प्रकाशन द्वारा, प्रथम आवृत्ति वि. सं. 1980, ई. 1923 में, तथा द्वितीय आवृत्ति, वि. सं. 2039, ई. 1982 में भी प्रकाशित हो चुके थे।] . . (13) विशेषावश्यक भाष्य : शाह हरखचंद भूरा भाई, (यशोविजय जैन ग्रन्थमाला), बनारस द्वारा वीर सं. 2427-2441 में मलधारी हेमचंद्र कृत बृहद्वृत्ति (शिष्यहिता) के साथ प्रकाशित। (14) विशेषावश्यक भाष्य : मलधारी हेमचंद्र कृत बृहद् वृत्ति के साथ, श्री शांतिनगर जैन संघ ज्ञाननिधि के अर्थ सहयोग से, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई द्वारा दो भागों में ई. 1982 (वि. सं. 2039) में प्रकाशित। [दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद तथा यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, बनारस द्वारा जो भाष्य मुद्रित हो चुका था, उसी का यह पुनर्मुद्रण है। (15) विशेषावश्यकगाथानाम् अकारादिक्रमः, तथा विशेषावश्यकविषयाणाम् अनुक्रम : विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं तथा निरूपित विषयों के अनुक्रम को आगमोदय समिति, बम्बई ने ई. 1923 में प्रकाशित किया। . (16) विशेषावश्यक भाष्य (स्वोपज्ञवृत्ति): कोट्याचार्य-कृत विवरण के साथ ऋषभदेव जी - केसरीमल जी प्रचारक (श्वेताम्बर) संस्था, रतलाम द्वारा 1936-37 ई. में प्रकाशित। (17) विशेषावश्यक भाष्य (स्वोपज्ञवृत्ति): स्वोपज्ञवृत्ति के साथ भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (एल. डी. इंस्टीट्यूट), अहमदाबाद द्वारा तीन भागों में 1966-1968 ई. में प्रकाशित। _ (18) विशेषावश्यक भाष्य : कोट्याचार्य-कृत वृत्ति (विवरण) के साथ, प्राकृत, जैनविद्या व अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) द्वारा 1972 ई. में प्रकाशित। RB0BROSCR(r)(r)R(r)(r)R [35] ROOROSCRB0BROOR Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निर्यक्ति और आचार्य भद्रबाह आगमों पर जो पद्यात्मक टीकाएं प्राकृत में लिखी गईं, उनमें चूर्णि, नियुक्ति व भाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परा में 'नियुक्ति' एक विशेष व्याख्यान पद्धति है जिसका अनुसरण नियुक्तिकार व भाष्यकार -दोनों ने विशेष रूप से किया है। नियुक्तिकार ने सूत्र में आए प्रत्येक पद के, विशेषकर पारिभाषिक पद के व्युत्पत्तिपरक विविध अर्थों का प्रकाशन करते हुए नय व निक्षेपों के माध्यम से विशिष्ट व्याख्या पद्धति के द्वारा सूत्रार्थ के हार्द को स्पष्ट किया है तथा विषयवस्तु का सर्वांगीण विवेचन किया है। नियुक्ति' के स्वरूप तथा इससे सम्बन्धित व्याख्या पद्धति का सामान्य परिचय आगे दिया जा रहा है। आवश्यक सूत्र पर रचित्त प्राकृतपद्यात्मक व्याख्या आवश्यक-नियुक्ति' को आचार्य भद्रबाहु की कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक सूत्र पर ही नहीं, अन्य अनेक आगमों पर नियुक्तियों की रचना की है। स्वयं नियुक्तिकार (भद्रबाहु) ने दस आगमों पर नियुक्ति रचने का संकेत किया है'। वे दश आगम हैं- आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प तथा पंचकल्प), सूर्यप्रज्ञप्ति व ऋषिभाषित / सूर्यप्रज्ञप्ति व ऋषिभाषित पर नियुक्तियां अब उपलब्ध नहीं हैं। इन सब नियुक्तियों में आवश्यक नियुक्ति' उनकी प्रथम रचना है। आवश्यक नियुक्ति की गाथाओं का क्रम व संख्या वर्तमान में विशेषावश्यक भाष्य की गाथाएं और नियुक्ति गाथाएं मिश्रित रूप में प्राप्त हैं, तथापि नियुक्ति गाथाओं को भाष्यगाथाओं से पृथक् सूचित करने हेतु गाथाओं के आगे 'नियुक्तिगाथा' इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है। जिनदास गणि महत्तर कृत आवश्यक चूर्णि (संस्कृत-प्राकृत मिश्रित व्याख्या) मुख्यतया आवश्यक नियुक्ति' का अनुसरण करते हुए लिखी गई है और इसमें भाष्य की गाथाओं का भी यत्र-तत्र व्याख्यान है। इस चूर्णि में भी नियुक्ति-गाथाओं को संकेतित किया गया है। आ. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियों, तथा इस पर रचित चूर्णि, भाष्य, भाष्य पर रचित स्वोपज्ञ वृत्ति एवं अन्य टीकाओं में नियुक्ति-गाथाओं का क्रम एक जैसा नहीं मिलता। साथ ही नियुक्ति गाथाओं की संख्या में भी परस्पर विसंवादिता दृष्टिगोचर होती है। अतः आवश्यक नियुक्ति की वास्तविक (मूल) गाथाएं कौन-सी हैं, तथा उनकी नियत संख्या क्या है- यह जानना कठिन हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अलग-अलग व्याख्याग्रन्थों व संस्करणों के आधार पर एक नियत क्रम व नियत संख्या का निर्धारण कठिन है। इनमें जो विसंवादिता पाई जाती है, उसके कारणों का निदर्शन संक्षेप में इस प्रकार है : (क) मलधारी हेमचंद्र कृत बृहद्वृत्ति में किसी गाथा को नियुक्ति गाथा के रूप में निर्दिष्ट किया गया है, किन्तु वह गाथा न तो भाष्य में और न ही उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति में नियुक्तिगाथा के रूप में प्राप्त है। 1. द्र. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 1074-76, नियुक्ति गाथा-84-86। ROPOROR ROR [36] RB0RemeRO0CROn@R Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) कुछ गाथाएं ऐसी हैं जो भाष्य की स्वोपज्ञ वृत्ति व बृहद्वृत्ति में नियुक्ति गाथा के रूप में संकेतित व व्याख्यात हैं, किन्तु चूर्णि में वे प्राप्त नहीं होती। (ग) कोई गाथा चूर्णि में नियुक्तिगाथा के रूप में है, किन्तु वह गाथा भाष्य की स्वोपज्ञ टीका व बृहद्वृत्ति में उपलब्ध नहीं होती। (घ) कुछ गाथा नियुक्ति की हरिभद्रीय टीका में नहीं मिलती, किन्तु भाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति एवं मलधारी हेमचंद्र कृत व्याख्या में प्राप्त हैं। (ङ) कोई. गाथा नियुक्ति की हरिभद्रीय टीका में एवं अन्य टीका में नियुक्ति गाथा के रूप में प्राप्त है, किन्तु भाष्य की स्वोपज्ञ वृत्ति व मलधारी हेमचंद्र कृत व्याख्या में प्राप्त नहीं है। (च) भाष्य की स्वोपज्ञ वृत्ति में कोई गाथा नियुक्ति गाथा रूप में प्राप्त है, किन्तु मलधारी हेमचन्द्र कृत टीका में वह प्राप्त या व्याख्यात नहीं है। विद्वानों व आलोचकों के अनुसार, नियुक्ति-गाथाओं के क्रम व संख्या-परिमाण के परस्पर-विसंवाद का कारण यह है कि कुछ गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हो गई हैं। यह भी संभव है कि भाष्य की कुछ गाथाएं नियुक्ति का अंग बन गईं तथा अन्य ग्रन्थों से उद्धृत गाथाओं को भी नियुक्ति का अंग बना दिया गया है। कौन-सी गाथा प्रक्षिप्त है या अन्यकर्तृक है- यह जानना कठिन है, किन्तु इस दिशा में पूज्य समणी डा. कुसुमप्रज्ञा जी का प्रयास उल्लेखनीय है जिन्होंने आवश्यकनियुक्ति का (प्रथम भाग, सानुवाद) संस्करण सम्पादित किया है और पादटिप्पणियों में मूल नियुक्ति-गाथाओं व संदिग्ध गाथाओं को चिन्हित करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। नियुक्तिः अनुयोगपद्धति का अङ्ग - 'नियुक्ति' का अर्थ (सूत्र की) व्याख्या है। किन्तु इस व्याख्यान में अनुगम' या अनुयोग पद्धति का अवलम्बन विशेष रूप से लिया जाता है। सूत्र का वास्तविक अर्थ यह है- इस प्रकार सूत्र व अर्थ का परस्पर सम्बन्ध स्थिर करना 'नियुक्ति' है। वस्तुतः ‘नियुक्ति' एक विशेष व्याख्या पद्धति है जो 'अनुयोग-पद्धति' का अङ्ग है। सूत्र-व्याख्यान की अनुयोग-पद्धति के तीन क्रमिक (सोपान) अंग माने गये हैं- (1) सूत्रार्थ निरूपण, (2) (सूत्र स्पर्शिक) नियुक्ति, और (3) समग्रता से (विस्तृत) विवेचन, जिसमें उक्त-अनुप्रसक्त, अर्थात् प्रासंगिक उपयोगी विषयों 1. नियुक्ति: व्याख्यानम् (वि. भाष्य, गा. 965) / 2. नियुक्ति: अनुगमभेदत्वाद् व्याख्यानात्मिका एव भवति (वि. भाष्य, 965 बृहवृत्ति)। 3. अत्थो सुयस्स विसयो ततो भिन्नं सुयं पुहत्तं ति। उभयमिदं सुयनाणं नियोजणं तेसिं निञ्जत्ती (वि. भाष्य, गाथा-1071)। तयोः सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनम्- अस्य सूत्रस्य अयमर्थः इत्येवं सम्बन्धनं नियुक्तिः (वि. भाष्य, गा. 1071 पर बृहद्वृत्ति)। RB0BRBRBROWROOR [37] RB0BAROBARB0BCROBAR Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या विचारबिन्दुओं की भी प्रस्तुति की जाती है। उक्त नियुक्तिपरक अनुयोगव्याख्यान-पद्धति अत्यन्त प्राचीन है क्योंकि इसे तीर्थंकर व गणधरों ने कर्तव्य रूप से स्वीकार किया है। अनुयोग' का अर्थ है- सूत्र को, उसी के अनुरूप या अनुकूल अर्थ से संयुक्त करना, या 'अणु' (संक्षिप्त रूप में कथित) सूत्र को उसी के सुसंगत अर्थ के साथ कहना। अनुयोग' एक व्यापक व्याख्यान पद्धति है जिसमें नियुक्ति, नय, निक्षेप आदि समाविष्ट होते हैं। शास्त्र रूपी नगर में प्रवेश करने का एकमात्र द्वार है- अनुयोग। जैसे बिना द्वार के नगर में प्रवेश करना कठिन होता है, वैसे ही 'अनुयोग' रूपी द्वार से सूत्र के हार्द तक पहुंचा जा सकता है। अनुयोगरूपी द्वारों की संख्या चार हैं, अर्थात् उस 'अनुयोग' के चार क्रमिक अंग हैं :- (1) उपक्रम, (2) निक्षेप, (3) अनुगम, और (4) नय। इनमें 'उपक्रम' प्रथम द्वार है। इन चारों का सूत्र व्याख्यान में नियोजन हो तो शास्त्र में प्रवेश करना अल्प समय में, सुगमता से हो जाता है।" इन चारों का क्रम नियत है, पहले 4. सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ नि त्तिमीसओ भणिओ। तईओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे (वि. भाष्य, गाथा-566)॥ ततश्च सूत्रार्थ एव प्रथमः, प्रथम-वारायामनुयोगो गुरुणा कर्तव्यः / द्वितीयस्तु द्वितीयवारायां सूत्रस्पर्शिक-नियुक्तिमिश्रक: कर्तव्यतया भणित: तीर्थंकरगणधरैः / तृतीयस्तु तृतीयवारायां प्रसक्त-अनुप्रसक्तमपि उच्यते यस्मिन, स एवं लक्षणो निरवशेषो भणितः। कः इत्याह- सूत्रस्य निजेन अभिधेयेन सार्धमनुकूलो योगोऽनुयोगः सूत्रस्य अर्थात्वाख्यानम् इत्यर्थः / (वि. भाष्य गाथा, 566 पर बृहवृत्ति)। 5....सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रक: कर्तव्यतया भणितः तीर्थंकरगणधरैः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य गा, 566) / 6. अणुवयणमणुओगो सुयस्स नियएण जमभिहेएणं।वावारो वा जोगो जोऽणुरूवोऽणुकूलो वा ॥अहवा जमत्थओ थोवपच्छभावेहि सुयमणु तस्स।अभिहिए वावारो जोगो तेणं व संबंधो॥(वि. भाष्य, गा. 841-842) / यत् सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन अनुयोजनमनुसम्बन्धनम् असौ अनुयोग: इत्यर्थः / अथवा योऽनुरूपोऽनुकूलो वा घटमानः सम्बध्यमानो व्यापारः प्रतिपादनलक्षण: सूत्रस्य निजार्थविषयेऽयमनुयोगः। अथवा, यद् यस्माद् अर्थतः अर्थात् सकाशाद् अणु सूक्ष्म लघु सूत्रम्...तस्माद् तस्य अणोः सूत्रस्य वा यः स्वकीयाभिधेये योगो व्यापारः, तेन वा अणुना सूत्रेण सह यः सम्बन्धो योगः, असौ अनुयोगः इति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गा. 841-842) / 7. अणुओगद्दाराई महापुरस्सेव तस्स चत्तारि / अणुओगो त्ति तदत्थो दाराई तस्स उ मुहाई (वि. भाष्य, गाथा-907)। 8. अकयद्दारमनगरं कएगदारं पि दुक्खसंचारं / चउमूलद्दारं पुण सपडिदारं सुहाहिगम (वि. भाष्य, गाथा-908)॥ 9. ताणीमाणि उवक्क-निक्खेवाणुगम-नय-सनामाई। (वि. भाष्य, गाथा-910)। 10. तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथममुपक्रम एव, ततो यथाक्रमं निक्षेपादयः एव, इत्येवंरूपो योऽसौ नियतः क्रमः स युक्त्या अभिधानतो निर्देष्टव्यः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-2)। 11. एवं सामायिकमहापुरमपि अर्थाधिगमोपायभूतद्वारशून्यम् अशक्याधिगमम्, कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छेण द्राघीयसा च कालेन अधिगम्यते। विहितसप्रभेद-उपक्रमादिद्वारचतुष्टयं पुन: अयत्नेन अल्पीयसा च कालेन अधिगम्यते (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-909)। RBOORBOORBO@ROOR [38] ROORBORO OBROBOOR / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम, फिर निक्षेप, उसके बाद अनुगम और फिर नय। 'अनुयोग' को 2 प्रकारों में भी विभक्त किया गया है। वे प्रकार हैं- (1) सूत्रानुगम, और (2) नियुक्ति-अनुगम। 'नियुक्ति' इस तरह 'अनुगम' का ही एक व्याख्यानात्मक प्रकार है। 'नियुक्ति-अनुगम' को स्पष्ट करने से पूर्व, उपक्रम एवं उसके भेदादि के स्वरूप को भी समझ लेना यहां प्रासंगिक है। उपक्रम का अर्थ है- (किसी विषय की) भूमिका। उप-समीप, क्रम= ले आना। अतः उपक्रम से शास्त्र की विषयवस्तु को इतना निकट लाया जाता है ताकि वह 'निक्षेप' से समझने योग्य हो जाता है। शिष्य के लिए विषयवस्तु दूरस्थ की तरह अल्प स्पष्ट रूप में बोध्य होती है, तब यदि उसे निक्षेपों के माध्यम से समझाया जाता है तो गुरु-वचन के श्रवण हेतु शिष्य को अधिक निकट या उत्सुक बनाने की क्रिया को 'उपक्रम सम्पन्न करता है। शिष्य की विनय-वृत्ति ही गुरु को 'उपक्रम' हेतु प्रेरित करती है।" उपक्रम के भी निक्षेपानुसार छ: भेद हैं- नाम-उपक्रम, स्थापना-उपक्रम, द्रव्य-उपक्रम, क्षेत्र-उपक्रम, काल-उपक्रम, और भाव-उपक्रम। इनमें भाव-उपक्रम ही व्याख्यानपद्धति में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें वह सब कथन समाहित है जिससे शिष्य को संतुष्टि या प्रसन्नता होती है। भावोपक्रम के छ: भेद हैं- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार deg आनुपूर्वी –जिसे 'परिपाटी' भी कहा जाता है- में प्रतिपाद्य शास्त्र के अध्ययनादि विभागों की अनुलोम, प्रतिलोम या उभयविध -इन तीन प्रकार से 'आनुपूर्वी' 12. आदौ उपक्रमः, तदनन्तरं निक्षेपः, तदनन्तरं चानुगमः, ततोऽप्यनन्तरं नयः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 915-16 प्रस्तावना)। योऽसौ नियतः क्रमः, स युक्त्याऽभिधानतो निर्देष्टव्यः, युक्तिं चात्रैव वक्ष्यति। तद्यथा- न अनुपक्रांतं निक्षिप्यते, न अनिक्षिप्तम् अनुगम्यते इत्यादि (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 2) / 13. सोणुगमो दुविगप्पो नेओ निज्जुत्तिसुत्ताणं (वि. भाष्य, गाथा- 971) / स च द्विविध:- नियुक्ति-अनुगमः, सूत्रानुगमश्च। 14. नियुक्ति: अनुगमभेदत्वाद् व्याख्यानात्मिकैव भवति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 965) / 15. सत्थस्सोवक्कमणं उवक्कमो तेण तम्मि व तओ वा। सत्थ-समीवीकरणं आणयणं नासदेसम्मि (वि. भाष्य, गा.-911)। 16. उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्यं क्रियते अनेन गुरुवाग्योगेन इति उपक्रमः (वि. भाष्य, गाथा-911)। . 17. उपक्रम्यते अस्मात् विनीतविनयविनयाद् इति उपक्रमः / विनयेन आराधितो हि गुरु: उपक्रम्य निक्षेपयोग्यं शास्त्रं करोति -इति अभिप्राय: (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 911) / ___ 18. वि. भाष्य, गाथा- 922 19. इह सामायिकादि-अध्ययनार्थं बुभुत्सुना विनेयेन गुरोर्भावोपक्रमो विधेयः, केन पुनः प्रकारेण एव सुप्रसन्नः स्यादिति भावोपक्रमः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-917-921)। 20. तथा आनुपूर्वी- नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतारलक्षणैः षड्भिः भेदैः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा917-921)। आनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतारभेदाद् उपक्रमः षोढा (बृहदवृत्ति, भा. गाथा-2)। ROOR(r)(r)ROOR@@R [39] RRB CRORORORSCRBOOR Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्थितिक्रम) कही जाती है। उदाहरणार्थ- आवश्यक सूत्र का सामायिक अध्ययन पूर्वानुपूर्वी से समस्त छः / अध्ययनों में, प्रथम है, किन्तु पश्चानुपूर्वी से छठा है। नाम-उपक्रम के अन्तर्गत अध्ययन का विषय किस (जीव-) भाव से सम्बद्ध है' -यह बताया जाता है। उदाहरणार्थ- सामायिक अध्ययन क्षायोपशमिक भाव से सम्बद्ध है। प्रमाण-उपक्रम के अन्तर्गत यह बताया जाता है कि विषयवस्तु द्रव्य, गुण, कर्म- इनमें से क्या है ? गुण है तो जीव का है या अजीव का, जीव का है तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र -इनमें से कौन-सा है, आदि-आदि। 'वक्तव्यता' उपक्रम में यह स्पष्ट किया जाता है कि स्वसमय (स्व-सिद्धान्त), परसमय, उभयसमय -इनमें से कौन-सा वक्तव्य है। अर्थाधिकार में यह बताया जाता है कि इसका विशेष प्रतिपाद्य क्या है। स्वसमय या . परसमय है तो कौन-सा विषयविशेषार्थ है, उहारणार्थ- सामयिका अध्ययन स्वसमय है, तो उसका प्रतिपाद्य विशेषार्थ है- सावद्ययोगविरति- इसका स्पष्टीकरण अर्थाधिकार में किया जाता है। इन सब विधियों से अन्त में, उपक्रम का उपसंहार करना- 'समवतार' है। अनुयोग का दूसरा भेद है- निक्षेप। 'नि' का अर्थ है- नियत, निश्चित। 'क्षेप' का अर्थ है- न्यास या व्यवस्थापन। अर्थात् निक्षेप-पद्धति से प्रतिपाद्य विषयवस्तु को नाम, .. स्थापना, द्रव्य व भाव -इन चारों में व्यवस्थापित किया जाता है। निक्षेप के तीन अन्य प्रकार भी हैंओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न, तथा सूत्रालापकनिष्पन्न / ओघ में सामान्यतः शास्त्र-नाम (जैसे-अध्ययन, अक्षीण, आय, क्षपणा आदि शास्त्र-नाम सामान्य रूप से हैं,उनका) निरूपण निक्षेप-पद्धति से किया जाता है। नामनिष्पन्न निक्षेप में विशेष नामों (जैसे- सामायिक) का निक्षेपों से निरूपण होता है। सूत्रालापक निक्षेप में सूत्रोच्चारण के बाद, उसके समस्त पदों का निक्षेप-विधि से व्याख्यान किया जाता है। इस प्रकार निक्षेपविधि से शास्त्र की सुखबोध्यता निष्पन्न होती है। 21. परिपाटी-आनुपूर्वी उच्यते।सा च त्रिविधा वक्ष्यते-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी चेति। (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गा. 917-921) / 22. तथा पूर्वानुपूर्वी-आदिना चिन्त्यमानमिदमध्ययनं कतिथम्? इति प्रष्टव्यम्। तत्र पूर्वानुपूर्व्या प्रथमम्, पश्चानुपूर्व्या षष्ठम्, अनानुपूर्व्या पुनः सातिरेकसप्तभङ्गकशतविषयत्वात् अनियतम् (बृहवृत्ति, वि. भा. गाथा- 917-921) / 23. द्र. बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 917-921. 24. निक्खिप्पइ तेण तहिं, तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो। नियओ व निच्छिओ वा खेवो नासो त्ति जं भणियं (वि. भाष्य, गाथा-912)। निशब्दक्षेपशब्दयोरर्थमाह-नियतो निश्चितो वा क्षेपः शास्त्रादेः नामादिन्यासः इति निक्षेपः (बृहवृत्ति, भा. गा.-912)। 25. द्र. वि. भाष्य गाथा- 957 एवं 2, तथा बृहवृत्ति। 26. द्र. वि. भाष्य, गाथा- 958-967 एवं बृहद्वृत्ति। 27. द्र. वि. भाष्य, गाथा-968-969 एवं बृहद्वृत्ति। 28. नामादिनिक्षेपानुसारतः शास्त्रम्, अध्ययनम्, उद्देशको वा सुखेनैव भण्यते, अभिधीयते, सुखेनैव गृह्यते, अधिगम्यते, तस्मात् शास्त्रादेः सम्बन्धी ओघः, नाम, सूत्रं च अवश्यमेव निक्षेप्तव्यम् (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य गाथा-957)। RB0BR(r)(r)(r)(r)R(r)(r)R [40] R@Recr(r)(r) CR(r)(r)R(r)(r)ce Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम का तीसरा अंग है- अनुगम। अनुगम से तात्पर्य है- वाच्य अर्थ का कथन। सूत्र व अर्थ का युक्तिसंगत परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हुए अणुरूप (सूक्ष्मार्थयुक्त) सूत्र का, उसके सुसंगत अर्थ का कथनयह अनुयोग-पद्धति का उद्देश्य है।" अनुयोग पद्धति का चतुर्थ अंग है- नय। नय से नयन, अर्थात् विषयवस्तु की उपलब्धि या उसका ज्ञान होता है। 'नय' विषयवस्तु का बोध कराता है, अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक विवक्षित पर्याय (अर्थ) तक पहुंचाता है, उसे बोधगम्य बनाता है। नियुक्तिः अनुगम-अनुयोग का प्रकार नियुक्ति (व्याख्यान) एक तरह से अनुगम-अनुयोग ही है। निक्षेप आदि पूर्णतः व्याख्यान नहीं हैं, 'अनुगम' ही व्याख्यान रूप होता है।" निष्कर्ष यह है कि वस्तुतः सूत्र की व्याख्या अनुगम में ही प्रारम्भ होती है और इसलिए नियुक्ति भी 'अनुगम' से ही सम्बद्ध है। नियुक्ति-अनुगम के तीन भेद हैं- निक्षेपनियुक्ति, उपोद्घात-नियुक्ति, सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति। नियुक्ति की शास्त्रार्थनिर्णय में उपादेयताः नियुक्ति वह व्याख्यान है जो सूत्र व अर्थ का सम्यक् निर्णय करती है। आ. जिनदास गणी ने सूत्र में निर्युक्त' अर्थ का निर्वृहण (अभिव्यक्तीकरण) करने वाली व्याख्या को नियुक्ति' कहा है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण तथा शीलांकाचार्य के मत में सूत्र व अर्थ का योग या अर्थघटना को 'युक्ति' कहा जाता है और निश्चयपूर्वक या अधिकता (विस्तार) पूर्वक अर्थ का सम्यक् निरूपण 'नियुक्ति' है। अथवा नियुक्त अर्थों की युक्ति (निर्युक्त-युक्ति) ही 'नियुक्ति' है, अर्थात् सूत्रों में ही परस्पर-सम्बद्ध अर्थों की युक्ति करना (उनका 29. वि. भाष्य, गाथा-913 (अनुगम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेन, अस्मिन्, अस्माद् वा इत्यनुगमः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव। अथवा, अनुगमनम्, अनुगमः, अणुनो वा सूत्रस्य गमो व्याख्यानम् इत्यनुगमः / यदि वा, अनुरूपस्य घटमानस्य अर्थस्य गमनम् अनुगमः / सर्वत्र किमुक्तं भवतिइत्याह- यत् सूत्रार्थयोः अनुरूपम् अनुकूलम् सरणं सम्बन्धकरणम् इत्यनुगमः इति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 913) / 30. विशेषा. भाष्य, गा. 914 एवं बृहद् वृत्ति। 31. नियुक्ति: अनुगम-भेदत्वा व्याख्यानात्मिकैव भवति .... निक्षेपस्तु नामादिन्यासमात्रात्मक एव वर्तते, न तु व्याख्यानरूपः, अनुगमस्यैव तद्रूपत्वात् (बृहदवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 965) / 31. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 971-972, 33. निज्जुत्ताते अत्था, जं बद्धा तेन होइ निजुत्ती (वि. भाष्य, गाथा- 1085, नियुक्ति-गाथा)। 34. सुत्तनिजुत्त-अत्थनिजूहणं निजुत्ती (आवश्यक चूर्णि, 1, पृ. 92) / RBORORSPOROR [41] RSS CROBORRORB0BR Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकटीकरण) ही नियुक्ति है। श्रुतज्ञान को 'अत्थपुहुत्त' कहा जाता है। नियुक्ति के द्वारा ही उक्त संज्ञा की सार्थकता हृदयगम्य होती है। 'अत्थपुहुत्त' के दो संस्कृत रूप हैं- अर्थपृथक्त्व और अर्थपृथुत्व। अर्थपृथक्त्व से तात्पर्य है- सूत्र (शब्द) व अर्थ- इस द्विविध रूपों में (सूत्र को) विभक्त करना। आचार्य शब्द और उसके अर्थ को पृथक्-पृथक् कर सूत्रार्थ की सम्यक् अवगति कराता है। 'अर्थपृथुत्व' से तात्पर्य है- अर्थ की पृथुता अर्थात् अर्थ का विस्तार। अर्थपृथक्त्व या अर्थपृथुक्त्व से आचार्य शिष्य को शास्त्रज्ञान कराता है, तब सूत्र के (प्रत्येक पद के) अर्थ को तो स्पष्ट कराता ही है, सम्बद्ध विषय को विस्तार से भी समझाता है।" समग्र विवेचन का सार यह है कि 'नियुक्ति' की उपादेयता इसलिए है कि वही सूत्रों के वास्तविक अर्थों का निरूपण करती है। कौन-सा अर्थ वास्तविक है- इसे वह निश्चित करती है और साथ ही उस अर्थ को विस्तार भी देती है, अर्थात् उस अर्थ को अधिकता से या विस्तृत व्याख्यान के माध्यम से स्पष्ट करती है। सूत्रार्थ को स्पष्ट करना. निर्णीत करना तथा अपेक्षानुरूप प्रासंगिक विषयों का भी निरूपण करते हुए विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करना 'नियुक्ति' का कार्य होता है। विशेषावश्यक भाष्य की मलधारी हेमचंद्र कृत टीका में उक्त भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे चित्रफलक पर लिखित वस्तु को भी अंगुलि, शलाका आदि से संकेतित करते हुए, तथा कुछ बोल कर समझाता है, वैसे ही श्रोताओं को सूत्रार्थ समझ में नहीं आ रहा हो तो नियुक्तिकार श्रोता शिष्य को सुखपूर्वक समझाने हेतु अनुग्रह-बुद्ध से सूत्रनिहित अर्थ को भी नियुक्ति-पद्धति से व्याख्यायित करता है। कई बार शिष्य स्वयं गुरु से निवेदन करता है कि मैं ठीक तरह से समझ नहीं पा रहा हूं, 35. योजनं युक्तिः अर्थघटना, निश्चयेन आधिक्येन वा युक्तिः नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनम्। निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानाम् अर्थानाम् आविर्भावनं (युक्त-शब्दलोपात्) नियुक्तिः (सूत्रकृताङ्ग- टीका, पृ. 1, विशेषावश्यक भाष्य, गाथा1086, एवं बृहद्वृत्ति)। 36. विशेषावश्यक भाष्य, गा.-1071-1073. अर्थात् कथंचित् भिन्नत्वात् सूत्रं पृथक् उच्यते ......तयोः सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनम्- अस्य सूत्रस्य अयमर्थः इत्येवं सम्बन्धनं नियुक्तिः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गा.-1071)। अर्थस्य पृथुत्वं पृथुभावः...अर्थस्य विस्तरत्वं जीवाद्यर्थविस्तरः .....ततश्च तस्य अर्थपृथक्त्वस्य, अर्थपृथुत्वस्य भगवतो नियुक्तिं कीर्तयिष्यामि (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1072-1073)। 37. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-1088-1089, सूत्रपद्धतिरेव.....नियुक्तिकर्तारमाचार्यं तस्य सूत्रस्य अर्थात् तदर्थान् सूत्रे निर्युक्तानपि, अनवबुध्यमाने श्रोतरि, तदनुग्रहार्थं तान् वक्तुम् एषयति इव एषयति प्रयोजयति, अतः तानाचार्यो नियुक्त्या विभाषते (बृहद्वृत्ति, भाष्यगाथा-1088)। यथा मंख: फलके नानाप्रकारं लिखितमपि वस्तु ग्रन्थतः पठति, अर्थतश्च प्रभाषते-व्याचष्टे, शलाका-अंगुल्यादिना च.....दर्शयति....तथा अत्रापि श्रोतृवैचित्र्यं पश्य सर्वानुग्रहप्रवणबुद्धिः आचार्यः सूत्रे निर्युक्तानपि अर्थान् नियुक्त्या विभाषते इति (बृहद्वृत्ति, भाष्य गाथा- 1089) / R(r)(r)RBRBROOBCRORSR [42] Recr(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो आचार्य नियुक्ति-पद्धति से सूत्र का व्याख्यान करते हैं। श्रोता मंदबुद्धि न भी हों तो भी आचार्य स्वयमेव सामान्यतः शिष्यों का ध्यान रख कर इसी नियुक्ति-पद्धति से व्याख्यान करते हैं। किन्तु नियुक्ति में इतना विस्तार भी नहीं होता कि वह मूलसूत्र से पृथक् एक स्वतन्त्र बृहदाकार वाली कृति बन जाय। उसमें उतना ही होता है जितना सूत्रार्थ की सम्यगर्थ-स्पष्टता के लिए आवश्यक हो। नियुक्तिः पद्धति में विशेष व्याख्यान भी नियुक्ति-पद्धति को विशेष रूप से समझाने के लिए भाष्यकार ने अनुगम के तीन भेदों का निर्देश किया है। वे भेद हैं- (1) निक्षेपनियुक्ति अनुगम, (2) उपोद्घात-नियुक्ति अनुगम, और (3) सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति अनुगम" वस्तुत: उपोद्घात-नियुक्ति में ही निक्षेप-नियुक्ति समाविष्ट है। निक्षेप को अनुयोग द्वार के भेद रूप में तथा उपोद्घात नियुक्ति के भेद रूप में- दोनों रूपों में निर्दिष्ट किया गया है। इन दोनों का अन्तर यह है कि निक्षेप रूप अनुयोग द्वार में नामादि निक्षेपों के अनुरूप 'अर्थ' का निर्देश मात्र होता है, जब कि उपोद्घात-नियुक्ति के अन्तर्गत उनका शब्दार्थविचार भी किया जाता है। उपोद्घात-नियुक्ति के अन्तर्गत प्रतिपाद्य विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की जाती है और 26 बिन्दुओं से विषय को स्पष्ट किया जाता है। ये बिन्दु उपोद्घात-द्वार कहलाते हैं। जैसे, आवश्यक नियुक्ति व विशेषावश्यक भाष्य में सामायिक आवश्यक से सम्बन्धित पृष्ठभूमि या उपोद्घात रूप में निम्नलिखित 26 बिन्दुओं से मीमांसा की गई है: (1) (उद्देश-) सामायिक का सामान्य नाम क्या है ? (2) (निर्देश-) उसके विशेष (भेदों के )नाम क्या हैं? (3) (निर्गम) उसकी उत्पत्ति का मूलस्रोत कौन है ? (4) (क्षेत्र-) किस क्षेत्र में उत्पत्ति है? (5) (काल-) उसकी प्रतिपत्ति किन-किन कालखण्डों में होती है? (6)(पुरुष-) उसका कर्ता कौन है ? (निश्चय व व्यवहार नय से)? (7) (कारण-) सामायिक-प्ररूप्णा में कारण क्या? (8)(प्रत्यय-) कथन व श्रवण करने वालों को प्रतीति कैसी? (9)(लक्षण:-) सामायिक के भेदों के लक्षण क्या हैं ? (10) (नय-) विविध नयों से सामायिक का स्वरूप क्या है? (11) (समवतार-) किस सामायिक का समवतार किस करण में होता है? (12)(अनुमत-) कौन-सी सामायिक मोक्ष में कारण मानी गई है ? (13)(क्या-) सामायिक है क्या? (14) 38. वि. भाष्य, गाथा- 1091, 39. वि. भाष्य, गाथा- 1090 40. निर्युक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः, किन्तु तत्तत्सूत्र-परतन्त्राः तथा व्युत्पत्त्याश्रयणात् (पिण्डनियुक्ति-टीका, पत्र-1)। 41. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 972 966 एवं बृहवृत्ति 42. इह निक्षेपद्वारे सामायिकस्य नामादिनिक्षेपमात्रमेव उच्यते, तदर्थ निरूपणमात्रमेव च निक्षेपनियुक्तौ निर्दिश्यते। नैरुक्तस्तु शब्दगतो विचारः, उपोद्घातनिर्युक्त्यन्तर्गते निरुक्तिद्वारे...शब्दार्थविचारः करिष्यते -इत्यर्थः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-967)। (RODROICROBRROR [43] R@@ROOR @ @ R@ @R Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कितने प्रकार?) सामायिक के कितने प्रकार हैं ? (15) (किसको?) सामायिक किसको होती है ? (16) (कहां?) सामायिक की प्राप्ति कहां होती है? (17) (किसमें?) किन-किन द्रव्यों में (नयों के अनुसार) सामायिक होती है ? (18) (कैसे?) सामायिक की प्राप्ति कैसे? (19) (कितने समय तक?) सामायिक की स्थिति कितने समय तक? (20) (कितने?) सामायिक के प्रतिपत्ता कितने? (21) (सान्तर-) सामायिकप्राप्ति में अन्तरकाल, (22) (अविरहित) -सामायिक प्राप्ति में मध्य अन्तरकाल, अर्थात् एक सामायिक की प्राप्ति के बाद दूसरी सामायिक कितने समय तक? (23) (भव-) सामायिक प्रतिपत्ता के जघन्यतः व उत्कृष्टतः कितने भव? (24) (आकर्ष-) एक या अनेक भवों में सामायिक कितनी बार उपलब्ध होती है? (25) (स्पर्शना-) सामायिक का कर्ता कितने क्षेत्र का स्पर्श करता है? (26) (निरुक्त-) सामायिक के निरुक्त अर्थात् एकार्थक (पर्यायवाची) शब्द कितने या कौन-कौन ? उपोद्घात (नियुक्ति) के बाद सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति (व्याख्या) प्रारम्भ होती है। प्रत्येक सूत्र पर (1) सूत्रानुगम, (2) सूत्रालापक, (पूरे सूत्र का निक्षेप कथन), (3) सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति, एवं (4) नय- ये चारों ही युगपत् विवक्षित हैं। सूत्रानुगम में सूत्र का उच्चारण किया जाता है, तथा इसकी निर्दोषता निश्चित हो जाय, तब पदच्छेद-पूर्वक पृथक्-पृथक् पदों का कथन किया जाय, तदनन्तर सूत्रालापकों (पूरे सूत्रगत पदों) का निक्षेपपद्धति से कथन किया जाय, इसके बाद 'व्याख्या' प्रारम्भ होती है और यही सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति है। इसमें 'नयों' का आधार भी लिया जाता है। ____ 'सूत्रालाप' द्वारा जो अर्थ निरूपित हो चुका होता है, उसी से सम्बन्धित विषयों का विस्तृत व्याख्यान ही 'सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति होती है। सूत्रस्पर्शिक व्याख्यान के छः आयाम (प्रकार) हैं- (1) सूत्र, (2) पद, (3) 43. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-1484-85, तथा गाथा 971 की बृहद्वृत्ति। 44. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-1000. तदेवं सूत्रानुगमोऽपि अनुगमप्रथमभेदः, तथा सूत्रालापकगतश्च निक्षेपो निक्षेपद्वारतृतीयभेदः, तथा सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः नियुक्ति-अनुगम-तृतीयभेदः, तथा नयाश्च चतुर्थानुयोगद्वारोपन्यस्ताः, समकं युगपत् प्रतिसूत्रं व्रजन्ति गच्छन्ति- इति (बृहवृत्ति, भाष्य, गाथा-1001)। 45. तदेवंभूतं सूत्रं सूत्रानुगमे उच्चारणीयम्, तस्मिंश्च उच्चारिते कदा सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेरवसरो भवति? सूत्रानुगमावसरत्वात् सूत्रे अनुगते उच्चारिते इति....शुद्धमिदम् –इत्येवं निश्चिते, तथा व्याख्यानावसरत्वादेव....इत्यादिपदच्छेदे कृते, तथा सूत्रालापकानां यथासम्भवं नामस्थापनादिन्यासे निक्षिप्ते न्यस्ते विहते, ततः तद-व्याख्यानार्थं सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ते: व्यापारः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, . गाथा-1000)। 46. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 1008, 47. सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तौ सूत्रालापद्वारा आयातस्य सामायिकस्य अर्थविचारः क्रियते, न तु सामायिकनाम्नः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गा. 967) / RBRBRBRBRBOBOR@@cs [44] RB0BCRBOBORD OR CROR Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ, (4) संभावित विग्रह (समास), (5) विचार और (6) दूषितसिद्धि (दोषपरिहार) इनमें नय-पद्धति भी प्रयुक्त होती है। उक्त छ: व्याख्यानों को अन्य नामों से भी अभिहित किया गया है। वे हैं- (1) संहिता, (2)पद, (3) पदार्थ, (4) पदविग्रह, (5) चालना, (6) प्रत्यवस्थान उक्त षड्विध व्याख्यान का विशेष विवरण इस प्रकार है : (1) सूत्रः सर्वप्रथम सूत्र का निर्दोष उच्चारण करना- इसे ही संहिता कहते हैं।" (2)पदः सूत्र को पदच्छेद सहित समझाना। वह पद किस श्रेणी में आता है- यह भी बताना। जैसेपद के दो प्रकार हैं- वाचक व द्योतक। पद के चार प्रकार भी हैं- नाम, निपात, उपसर्ग व आख्यात / इनमें सूत्रोक्त पद किस वर्ग का है- इसे भी बताना। (3) पदार्थ :- प्रत्येक पद का अर्थ बताना। अर्थ के अनेक भेद हो सकते हैं। जैसे- कारकवाच्य, समासवाच्य, तद्धितवाच्य और निरुक्तवाच्य आदि। इनमें से अर्थ किस स्वरूप का है, इसे भी स्पष्ट करना। इसके अलावा, जहां दृष्टांत अपेक्षित हो, उसे भी प्रस्तुत कर अर्थ को सुबोध्य बनाना। (4)सम्भावित विग्रहः पद यदि समस्त है, अर्थात् यदि वह कई पदों के समास से निर्मित है तो वहां यह भी स्पष्ट करना कि वहां कौन-सा समास है ताकि अभीष्ट अर्थ निर्णीत हो सके। इसे ही पद विग्रह भी कहते हैं। समास के अनिर्णय की स्थिति में अर्थ भी अनिर्णीत या संदिग्ध रहेगा, अतः विग्रह बताना आवश्यक है। 48. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 1002-1011. . 49. बृहवृत्ति, (वि. भा. गा. 1002) 50. संहिता च पदंचैव, पदार्थः पदविग्रहः। चालना प्रत्यवस्थानम्, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा 11-इत्येतद् यदन्यत्र षड्विधं व्याख्यास्वरूपमुक्तम्, तदिह समर्थितम् इति (बृहद्वृत्ति, वि. भा. गाथा- 1007) / 51. व्याख्यानविधौ प्रस्तुते प्रथमं तावद् अस्खलितादिगुणोपेतं यथोक्तलक्षणयुक्तं सूत्रमुच्चारणीयम्। इयं चान्यत्र अस्खलितपदोच्चारणरूपा संहिता भण्यते (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गा.- 1002) / 52. पदानां विच्छेदो द्वितीयं व्याख्यानाङ्गम् (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गा. 1003-1005) / 53. वि. भाष्य, गाथा-1003-1005 एवं बृहवृत्ति। 54. बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1003-1005. 55. हेतुतोऽयं पदार्थोऽभिधीयते। तदनेन- 'आणागेज्झो अत्थो आणाए चेव सो कहेयव्वो। दिटुंतिओ दिटुंता कहणविहिविराहणा इहरा'-इत्ययमर्थः समर्थितो भवति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1003-1005)। 56. पदयोः पदानां वा अनेकार्थसम्भवे सति इष्टपदार्थनियमाय विच्छेदः क्रियते, स पदविग्रहः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1006)। ROpecRORRORROR [45] R ROR @@RB0Bce Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) विचार (या चालना):- सम्बन्धित वैचारिक चिंतन की प्रस्तुति। इसमें सूत्र या अर्थ पर संभावित दोषों पर विचार भी किया जाता है।" (6) दूषितसिद्धि (प्रत्यवस्थान):- सम्भावित दोषों का परिहार करना। इन छ: प्रकार के व्याख्या-सोपानों का क्रम भी यथावत् होना चाहिए, आगे-पीछे नहीं।" नियुक्ति एवं उसके व्याख्या साहित्य में अंगीकृत नियुक्ति-पद्धति : उक्त निरुक्त पद्धति का ही अनुसरण करते हुए आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है और इन्होंने तथा व्याख्याकारों ने विषयवस्तु को इसी पद्धति के अनुरूप व्याख्यान करने का प्रयास किया है। भाष्य के प्रारम्भ में ही (दूसरी गाथा में) भाष्यकार ने निर्दिष्ट कर दिया है कि वे अनुयोगपद्धति से निरूपण करेंगे। उन्होंने इस पद्धति के अनुरूप अनुयोगद्वारों का निर्देश भी किया है। वे द्वार इस प्रकार हैं-(1) फल (आवश्यक का पुण्य फल), (2) योग (शिष्य के लिए उपदेशयोग्यता), (3) मंगल (का स्वरूप), (4) समुदायार्थ (सामायिक आदि प्रत्येक अध्ययन का समुदित अभिधेय अर्थ), (5) द्वार (अनुयोगद्वार), (6) भेद (उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय आदि अनुयोगद्वार- भेद), (7) (उपक्रम आदि की) निरुक्ति, (8) (उपक्रमादि नियत क्रम के) प्रयोजन (का कथन) 57. सुत्तगयमत्थविसयं व दूसणं चालणं मयं (वि. भाष्य, गा.-1007)। यत् सूत्रविषयम्, अर्थविषयं वा शिष्यप्रेरकैर्दूषणम् उद्भाव्यते, तच्चालनं विचारो मतममिप्रेतम् (बृहवृत्ति, वहीं)। 58. तस्स, सद्दत्थण्णायाओ परिहारो पच्चवत्थाणं (वि. भाष्य, गाथा- 1007) / शब्दार्थन्यायतः, शब्दविषयिणा न्यायेन . शब्दसंभविन्या युक्त्या शब्दगतदूषणस्य परिहारः, अर्थविषयिणा न्यायेन अर्थसंभविन्या युक्त्या अर्थगतदूषणस्य परिहारः प्रत्यवस्थानं दूषितसिद्धिः इत्यर्थः (बृहद्वृत्ति, वहीं)। 59. व्याख्यानविधौ प्रस्तुते प्रथमं तावत्.......सूत्रमुच्चारणीयम्।.....ततश्च पदम् पदच्छेदो दर्शनीयः / ततः पदार्थो वक्तव्यः / तत: संभवतो विग्रहः समासः कर्तव्यः / ततश्चालनारूपो विचार: कर्तव्यः / ततो दूषितसिद्धिः- दूषणपरिहार: प्रत्यवस्थानरूपो निरूपणीयः। एवमुक्तक्रमेण अनुसूत्रं प्रतिसूत्रं नियमितविशेषतो नयानां मतविशेषैः व्याख्यानं ज्ञेयम् (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1002)। 60. तस्स फल जोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेय-निरुत्तक्कम पओयणाइं च वच्चाई (वि. भाष्य, गा. 2) // प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिमित्तं फलं मोक्षप्राप्तिलक्षणं तावयत्र ग्रंथे वक्तव्यम्। ततोऽस्य योग: शिष्यप्रदाने सम्बन्धोऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः। आवश्यकानुयोगे च क्रियमाणे किं मङ्गलम् -इत्येतदपि निरूपणीयम्। सामायिकादिअध्ययनानां......समुदायार्थश्च सावद्ययोगविरति-आदिकोऽभिधानीयः ।.....तथा द्वाराणि च उपक्रमनिक्षेपादीनि कथनीयानि / तेषां द्वाराणां भेदो वक्तव्यः / तद्यथाआनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतार-भेदाद् उपक्रमः षोढा, ओघनिष्पन्न-नामनिष्पन्न-सूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् निक्षेपः त्रिधा, सूत्रनियुक्तिभेदाद् अनुगमो द्विधा, नैगमादिभेदात् नयाः सप्तविधाः इत्यादि। उपक्रमणम् उपक्रमः, निक्षेपणं निक्षेपः इत्यादि। निरुक्तं च शब्द-व्युत्पत्तिरूपं भणनीयम्।..तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथमम् उपक्रम एव, ततो यथाक्रमं निक्षेपादयः एव, इत्येवंरूपोऽसौ नियतः क्रमः, स युक्त्या अभिधानतो निर्देष्टव्यः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-2)। RB0RB0BARB0BARB0BR [46] Re0@ROBCROBCROOK Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके बाद भाष्यकार विषय-वस्तु का उपोद्घात (भूमिका) प्रस्तुत करते हुए, सूत्रस्पर्शिनी व्याख्या का स्वरूप क्या होता है- इसका निरूपण करते हैं। संक्षेप में नियुक्ति व भाष्य आदि में उक्त नियुक्ति पद्धति से प्रतिपाद्य विषय की विस्तृत भूमिका (पृष्ठभूमि) के साथ, उसके सर्वांगीण स्वरूप का ज्ञान कराया गया है। आवश्यक-नियुक्ति तथा इसके समग्र व्याख्या साहित्य (भाष्य, टीका आदि) की महत्ता इसकी विषयवस्तु की उपयोगिता की दृष्टि से भी है, क्योंकि इसमें प्रासंगिक विवेचन के रूप में कई महत्त्वपूर्ण व उपयोगी विषयों का भी ज्ञान कराया गया है। इसका व्याख्या साहित्य भी अनेकानेक ज्ञानवर्धक व उपयोगी सामग्री से समृद्ध हुआ है। उदाहरणार्थ, जैन परम्परा में मान्य तिरेसठ शलाकामहापुरुषों के जीवन-चरित एवं उनके पारिवारिक विवरण, अर्हदादि पांचों परमेष्ठियों के स्वरूपादि का विचार, ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर का) चरित, भगवान् महावीर के गणधरों का चरित, सात निन्हव आदि-आदि विवरण उल्लेखनीय हैं जो इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। ऋषभदेव के जीवन-चरित के प्रसंग में आहार, शिल्प, लेखन, गणित, लक्षण, मानदंड, व्यवहार, नीति, युद्ध, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, यज्ञ, उत्सव, मंगल, कौतुक, वस्त्र-परिधान, गंध, माल्य, अलंकार, उपनयन, विवाह आदि-आदि से सम्बन्धित अनेकानेक उपयोगी विवरण इन ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं। इन ग्रन्थों में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परम्परा से सम्बद्ध विस्तृत विवरण संनिहित हैं। इस दृष्टि से यह नियुक्ति और इसका व्याख्या-साहित्य अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं। - नियुक्तिकार व भाष्यकार आदि ने यत्र-तत्र प्रसंगोचित दृष्टांतों व कथानकों का भी प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ- सामायिक की उपलब्धि के विषय में पल्यक (लाट देश में धान्यागार रूप में प्रसिद्ध) आदि दृष्टान्त (द्र. वि. भाष्य, गाथा-1204), आचार्य व शिष्य की योग्यता व अयोग्यता के व्याख्यान में गोणी, चन्दनकन्था आदि, तथा शैलघन आदि अनेक उदाहरण (वि. भाष्य, गाथा-1434-1482) उल्लेखनीय हैं। इसी तरह, अनेकानेक दृष्टान्त व उदाहरण नियुक्ति व इसके व्याख्या साहित्य में देखे जा सकते हैं। सामायिक नियुक्ति की सूत्रस्पर्शी व्याख्या प्रारम्भ करते हुए भाष्यकार ने नमस्कार महामंत्र से सम्बन्धित विस्तृत व्याख्यान प्रस्तुत किया है जो अपने आप में विशिष्ट है। चूंकि नमस्कार महामंत्र सामायिक आवश्यक का प्रमुख प्रारम्भिक अंग है, अत: पंच परमेष्ठियों के स्वरूपादि का निरूपण करते हुए नमस्कार पदार्थ का भी ग्यारह विचारबिन्दुओं (द्वारों) से स्पष्टीकरण किया गया है। वे ग्यारह द्वार इस प्रकार हैं- (1) उत्पत्ति, (2) निक्षेप, (3) पद, (4) पदार्थ, (5) प्ररूपणा (6) वस्तु (7) आक्षेप, (8) प्रसिद्धि, (9) क्रम, (10) प्रयोजन, और (11) फल। इन द्वारों के भी कई भेद-प्रभेद हैं जिनका भी विवेचन किया गया है। नमस्कार क्या है, किससे सम्बन्ध रखता है, किस कारण से प्राप्त होता है, कहां रहता है ? कितने समय तक रहता है, कितने प्रकार का है ? इत्यादि प्रश्नों का स्पष्ट समाधान प्रस्तुत करते हुए, नमस्कार–विधि, नमस्कार मंत्र की फलश्रुति (अर्थात् इस से काम-निष्पत्ति, आरोग्यप्राप्ति, इसका पारलौकिक फल) आदि-आदि अनेक उपयोगी व महत्त्वपूर्ण ज्ञानसामग्री इन ग्रन्थों में –विशेषावश्यक भाष्य व इसकी टीकाओं में प्राप्त होती है। ROORBOOR@@RO900CR [47] ROO@ROOCRO ROOR Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिकार भद्रबाहु आचार्य भद्रबाहु नाम के दो आचार्य हुए हैं। एक हैं- छेदसूत्रकर्ता श्रुतकेवली स्थविर भद्रबाहु (प्रथम), और दूसरे हैं- प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई, अष्टांगनिमित्त-ज्ञानी व मंत्रशास्त्रपारंगत भद्रबाहु (द्वितीय)। आचार्य शीलांक (वि. 8-9 शती) तथा मलधारी हेमचन्द्र (वि. 12वीं शती) ने चतुर्दशपूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी को ही नियुक्तिकार माना है। किन्तु इस मान्यता को युक्तिसंगत व प्रामाणिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि स्वयं नियुक्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति में छेदसूत्रकर्ता चतुर्दशपूर्वधारी अंतिमश्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया है: वंदामि भद्दबाहुं पाइणं चरियसगलसुयनाणिं। सुत्तस्स कारणमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे॥ अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) व व्यवहार सूत्र के रचयिता, प्राचीनगोत्रीय, अंतिमश्रुतकेवली महर्षि भद्रबाहु को मैं नमस्कार करता हूं। निश्चित ही यह नमस्कार तभी संगत होता है जब हम नियुक्तिकार को भद्रबाहु (द्वितीय) मानें। इसी प्रकार, उत्तराध्ययन-नियुक्ति (गाथा-233) में नियुक्तिकर का कथन इस प्रकार है सव्वे एए दारा मरणविभत्तीह वणिया कमसो। सगलणिउणे पयत्थे जिणचउद्दसपुट्विं भासंति॥ ... अर्थात् (उत्तराध्ययन के अकाममरणीय नामक अध्ययन से सम्बन्धित) मरणविभक्ति से सम्बन्धित . सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया है। वस्तुतः पदार्थों का सम्पूर्ण एवं विशद वर्णन तो जिन यानी केवली व चतुर्दशपूर्वधारी ही कर सकते हैं। उक्त कथन से स्पष्ट है कि नियुक्तिकर्ता चतुर्दशपूर्वधर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, नियुक्तियों में ऐसी घटनाएं व आचार्यों के प्रसंग वर्णित हैं जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के उत्तरवर्ती हैं। जैसे- नियुक्तियों में कालकाचार्य, पादलिप्ताचार्य, स्थविर भद्रगुप्त, वज्रस्वामी, आर्य रक्षित, फल्गुरक्षित आदि ऐसे आचार्यों के प्रसंग वर्णित हैं, जो प्रथम भद्रबाहु से बहुत अर्वाचीन हैं। अतः निश्चित ही नियुक्तियों की रचना निमित्तज्ञानी भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा ही की गई है। नियुक्तियों के श्रुतकेवली-रचित होने की मान्यता का कारण यह हो सकता है कि आवश्यक नियुक्ति का प्रारम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) द्वारा किया गया हो, बाद में उसकी गाथाओं में क्रमशः वृद्धि होती रही हो और इसे अन्तिम रूप भद्रबाहु (द्वितीय) ने दिया हो। नियुक्ति-गाथाओं में वृद्धि होती रहने की पुष्टि कई 61. नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनः चतुर्दशपूर्वधरस्य आचार्यः, अत: तान् (आचारांग-टीका, पृ.4)। चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिना एतद्व्याख्यानरूपा...नियुक्तिः कृता (शिष्यहिता-बृहद्वृत्ति, प्रस्तावना)। RemeReecrOne RemeR [48] ReORORSCRORSROBOOR Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरणों से होती है। जैसे- आवश्यक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन की 157 गाथाएं हरिभद्रीय वृत्ति में हैं, किन्तु आवश्यक चूर्णि में मात्र 57 गाथाएं ही हैं। निश्चय ही चूर्णि व हरिभद्रीय वृत्ति के मध्य 100 गाथाएं और जुड़ गई हैं। इतना ही नहीं, भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद भी गाथाओं में वृद्धि होते रहने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। मुनिश्री पुण्यविजय जी ने भी उक्त विचार का समर्थन करते हुए कहा है कि आगमों की निरुक्तिपद्धति से व्याख्या और नियुक्ति-रचना की परम्परा अति प्राचीन रही है। जैसे- वैदिक परम्परा में 'निरुक्त' (यास्क आदि रचित) अति प्राचीन है, वैसे ही जैन परम्परा में भी नियुक्ति-व्याख्यान परम्परा अति प्राचीन है। अनुयोगद्वार में 'नियुक्ति-अनुगम' का निर्देश है और वहां नियुक्ति रूप कुछ गाथाएं भी प्राप्त हैं। भद्रबाहु (द्वितीय) के पूर्व भी नियुक्ति साहित्य के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। अत: नियुक्ति की रचना में श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) और भद्रबाहु (द्वितीय)-दोनों का ही योगदान है - ऐसा माना जाना चाहिए। नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) का समय ___ अधिकांश जैन विद्वान् भद्रबाहु (द्वितीय) को नियुक्तिकार मानते हैं। अतः इन्हीं के समय के सम्बन्ध में यहां विचार किया जा रहा है। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई थे। वराहमिहिर का समय वि. लगभग छठी शती माना जाता है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा रचित ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका' में इसका रचनाकाल शक सं. 427 अर्थात् वि. सं. 562 निर्दिष्ट किया गया है: सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्ये // अतः भद्रबाहु (द्वितीय) का समय वि. सं. 500-600 के मध्य (छठी से सातवीं शती के प्रारम्भ तक) माना जाना चाहिए। इन्हीं भद्रबाहु की रचना उपसर्गहर स्तोत्र व भद्रबाहुसंहिता (अनुपलब्ध)- ये दो ग्रन्थ भी हैं। नियुक्तियों के भी इन्हीं के द्वारा रचित होने की संभावना इसलिए भी बलवती होती है क्योंकि उनकी मंत्रविद्याकुशलता का दर्शन कुछ स्थलों पर होता है। उदाहरणार्थ, आवश्यक नियुक्ति में वर्णित गन्धर्व नागदत्त के कथानक में नाग-विष उतारने की क्रिया का निर्देश है जिसमें उपसर्गहर स्तोत्र के 'विसहरफुल्लिंगमंतं' इत्यादि पद्य की प्रतिच्छाया देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने सूर्यप्रज्ञप्ति पर भी नियुक्ति की रचना की थी, जिसमें भी इनका ज्योतिर्विद्-स्वरूप समर्थित होता है। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) का जीवन-वृत्त 'प्रबन्धकोश' में वर्णित कथानक के अनुसार महाराष्ट्र के प्रतिष्ठानपुर में एक ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ। इनके कनिष्ठ भ्राता का नाम वराहमिहिर था, जो इतिहास में एक महान् ज्योतिर्विद्-विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका गृहस्थ जीवन निर्धन वह निराश्रित अवस्था में बीता। दोनों भाइयों के मन में विरक्ति की 62. द्र. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-3, पृ. 68-69. ROBROORB0BRB0R [49] Ren@RB0BRB0ROOR Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना जगी और इन्होंने जैनी दीक्षा अंगीकार की। विनय, भद्रता व विद्वत्ता आदि गुणों के कारण मुनि-संघ में भद्रबाह की प्रतिष्ठा निरन्तर बढती ही गई और इन्हें आचार्य पद प्राप्त हआ। इससे वराहमिहिर ने अपनी हीनता अनुभव की / अहंभाव व ईर्ष्या के आवेश में वराहमिहिर ने मुनिवेश त्याग दिया और प्रतिष्ठानपुर के राजा के यहां पहुंचा। राजा का नाम जितशत्रु था, जो वराहमिहिर के विशिष्ट निमित्तज्ञान से प्रभावित हुआ और उसने वराहमिहिर को अपना प्रधान पुरोहित बना लिया। वराहमिहिर ने स्वयं को ज्योतिष विद्या का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता घोषित किया और वह ईर्ष्यावश आचार्य भद्रबाहु की बढ़ती प्रतिष्ठा को निर्मूल करने के निरन्तर प्रयास करता रहा, किन्तु वह सफल नहीं हो पाया। एक बार आचार्य भद्रबाह का प्रतिष्ठानपर में पदार्पण हआ। जनता में उनका प्रभाव बढ़ता गया। इधर वराहमिहिर की भविष्यवाणी क्रमशः असत्य होने लगीं। वराहमिहिर ने अपने पुत्र के शतायु होने की भविष्यवाणी की। इधर आ. भद्रबाहु ने भविष्यवाणी की कि इस की आयु मात्र सात दिनों की होगी और इसकी मृत्यु में कोई बिल्ली निमित्त बनेगी। यद्यपि जैन मुनि के लिए निमित्त ज्ञान व ज्योतिर्विद्या आदि का प्रयोग वर्जित होता है, किन्तु मिथ्या अज्ञान को दूर करने तथा धर्म-प्रभावना की दृष्टि से उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी। आचार्य भद्रबाहु द्वारा की गई भविष्यवाणी ही सत्य सिद्ध हुई और उस बालक की मृत्यु में द्वार की एक ऐसी अर्गला निमित्त बनी जिस पर बिल्ली का आकार बना हुआ था। आचार्य भद्रबाहु की प्रतिष्ठा सर्वत्र संस्थापित हो गई। आ. भद्रबाहु के उपदेश से प्रभावित होकर राजा जितशत्रु ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। ___आचार्य भद्रबाहु के मुनि जीवन में एक घटना और घटी, जिसका उल्लेख भी यहां प्रासंगिक है। एक व्यन्तर देव श्रावकों को अत्यधिक कष्ट दे रहा था जो वराहमिहिर का ही जीव था और जो मर कर व्यन्तर योनि में आया था। जनता उस व्यन्तर देव के उपद्रव से त्रस्त हो गई। अंत में जनसामान्य के कष्ट को दूर करने के लिए आ. भद्रबाहु ने पंचपद्यात्मक 'उवसग्गहर' नामक प्राकृत स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र को 'पूर्व'-साहित्य से उद्धृत माना जाता है। विशेषावश्यक भाष्य और जिनभद्रगणि| आगमिक व्याख्या साहित्य में भाष्य-पद्धति का अत्यधिक महत्त्व है। मूल आगम व नियुक्ति- दोनों पर भाष्य लिखे गये। नियुक्तियों पर लिखे गये भाष्यों में विशेषावश्यक भाष्य को महनीय स्थान प्राप्त है। यह भाष्य आवश्यक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन 'सामायिक' पर एक प्राकृत पद्यात्मक विस्तृत व्याख्यान है। इसे सामायिक भाष्य भी कहा जाता है। मलधारी हेमचन्द्र कृत बृहद्वृत्ति (शिष्यहिता) से युक्त विशेषावश्यक भाष्य के प्रस्तुत संस्करण में लगभग 3600 गाथाएं हैं। (यद्यपि स्वोपज्ञ वृत्ति व कोट्याचार्यकृत वृत्ति वाले संस्करणों में 4300 से अधिक गाथाएं हैं।) इससे इसकी बृहदाकारता स्वतः सिद्ध हो जाती है। 63. द्र. प्रबन्धकोश RODROOR@@RB0R [501 ROORBOORBOOROOR Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यक भाष्य : एक महनीय ग्रन्थ 28 हजार श्लोकों के प्रमाण वाला यह भाष्य वस्तुतः जैन दर्शन का एक विश्वकोश या उत्कृष्ट ग्रंथ हैयह कहना अत्युक्ति नहीं होगी। न केवल जैन दर्शन के सिद्धान्तों का ही तार्किक दृष्टि से विवेचन इसमें है, अपितु (तुलनात्मक दृष्टि से) अन्य दार्शनिक मतों को खण्डन करते हुए इस ग्रंथ में स्वमत का समर्थन भी प्राचीन आगमिक परम्परा के आलोक में किया गया है। उक्त तार्किक-दार्शनिक चर्चा में भाष्यकार का आगमवादी स्वरूप विशेष रूप से निखरा है। भाष्यकार ने नियुक्ति-पद्धति का पूर्णतः अनुसरण किया है। स्वयं भाष्यकार ने इस ग्रंथ को समस्त अनुयोगों का मूल कहा है। भाष्यकार ने नियुक्ति की व्याख्या करते हुए मूलनियुक्ति के हार्द को तो स्पष्ट किया ही है, प्रासंगिक रूप से अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि यह ग्रन्थ विद्वानों व अनुसन्धाताओं के लिए जैन तत्त्वज्ञान, प्रमाणशास्त्र, नय, निक्षेप, ज्ञान मीमांसा, आचारमीमांसा, कर्म सिद्धान्त, तथा प्राचीन इतिहास व संस्कृति से सम्बन्धित विपुल ज्ञान-निधि का एक विशिष्ट भण्डार बन गया है। भाष्य की विषयवस्तु एवं व्याख्या-पद्धति का कुछ संकेत नियुक्ति-पद्धति के निरूपण में किया जा चुका है, तथापि कुछ अन्य उपयोगी ज्ञान-सामग्री से भी पाठक परिचित हों- इस दृष्टि से कुछ विवरण यहां दिया जा रहा है / प्रारम्भ में 'मंगल' या 'मंगलाचरण' को विविध निक्षेपों के माध्यम से समझाया गया है। ज्ञान को भावमङ्गल मान कर पांचों ज्ञानों का निरूपण किया गया है। ज्ञानपंचक प्रकरण में सभी ज्ञानों को, उनके स्वरूप, क्षेत्र, विषय, स्वामी आदि विविध दृष्टियों से सुबोधगम्य बनाया गया है। प्रासंगिक रूप से उपयोगी विषयों का, जैसे मति व श्रुत का सम्बन्ध व परस्पर अन्तर, नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता, श्रुत के विविध भेद आदि का विशद निरूपण किया गया है। इसके बाद 'सामायिक' सम्बन्धी विवेचन है। इसे समझने के लिए उपक्रम आदि चार द्वारों का निर्देश कर भाष्य का 'उपोद्घात' भाग प्रारम्भ होता है। तीर्थ व तीर्थंकर के स्वरूपादि का विवेचन करते हुए 'नियुक्ति' की परिभाषा व स्वरूप का निरूपण किया गया है। 'सामायिक' से सम्बन्धित विविध विचारबिन्दुओं को दृष्टि में रखकर इसके 26. द्वारों से विवेचना की गई है। इसके बाद, गणधरों की चर्चा है और 'गणधरवाद' का एक विस्तृत प्रकरण प्रस्तुत है। इसमें आत्मा की स्वतंत्र सत्ता, कर्म का अस्तित्व, आत्मा व देह का पार्थक्य, शून्यवाद-निराकरण, परलोक व देव-नारकों का सद्भाव, पुण्य-पाप-बन्ध-मोक्ष पदार्थ - इन सभी का 'गणधरवाद' के अंतर्गत विशद निरूपण किया गया है जो दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। 64. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-3603. R@neCROBORO ROOR [51] ROORB0RBOORBOOR Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद, आर्य रक्षित द्वारा अनुयोग-विभाजन सम्बन्धी निरूपण के बाद, निन्हवों का निरूपण है। यहां यह ज्ञातव्य है कि नियुक्ति में सात निन्हवों का ही निरूपण है, किन्तु भाष्यकार ने 'शिवभूति' वोटिक नामक एक अन्य निन्हव को जोड़ कर आठ निन्हवों का निरूपण किया है। ये निन्हव जिनपरम्परा से जुड़े हुए होकर भी, उसे मान्यता देते हए भी, किसी विषय-विशेष के संदर्भ में अपना स्वच्छन्द व विरुद्ध अभिमत प्रकट करते हैं। अतः दार्शनिक परम्परा के ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से इस निरूपण की महती उपयोगिता है। इसके बाद सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का प्रारम्भ होता है और नमस्कार की 11 द्वारों से विवेचना की गई है। यहीं से इसी क्रम से सामायिक सूत्र के मूल पदों की व्याख्या सम्पन्न होती है। भाष्यकार की आगम-परम्परा के प्रति विशेष अनुरक्ति दृष्टिगोचर होती है। जैसे, केवली को ज्ञान-दर्शन युगपद् होते हैं या क्रमिक रूप से -इस विषय में श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यता परस्पर भिन्न है। दिगम्बर परम्परा दोनों की युगपत्-भाविता मानती है। आचार्य सिद्धसेन गणी कृत सन्मतितर्क में भी युगपद्भाविता का निरूपण किया गया है। भाष्यकार ने अपने ग्रन्थों में दोनों (ज्ञान व दर्शन) की क्रमिकता का समर्थन कर आगमिक मान्यता को स्पष्ट किया है और उस मान्यता को सुदृढ़ आधार भी दिया है। आगमिक परम्परा के पोषण की दृष्टि से ही उन्होंने 'मल्लवादी' आचार्य के मत का भी खण्डन किया है। इसी तरह, आगम परम्परा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को परोक्ष कोटि में मानती है, किन्तु अन्य भारतीय दर्शन इसे प्रत्यक्ष मानते हैं। भाष्यकार ने इन्द्रियप्रत्यक्ष को 'संव्यवहार प्रत्यक्ष' की परिधि में लाकर एक ऐसी परम्परा का सत्रपात किया जो दोनों परम्पराओं के लिए एक समन्वय-सेत बनी है। समग्र दार्शनिक विवेचनों में भाष्य की अप्रतिम तर्कशक्ति व प्रतिभा का स्पष्ट साक्षात्कार होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विशेषावश्यक भाष्य में जैन दर्शन, तत्त्वज्ञान, जैन आचार आदि से सम्बद्ध विविध विषयों पर विस्तृत, सूक्ष्म, सुव्यवस्थित, सयुक्तिक व सर्वांगीण निरूपण है, जिससे यह भाष्य उत्तरवर्ती आचार्यों, चिन्तकों, ग्रन्थप्रणेताओं के लिए एक प्रामाणिक, मार्गदर्शक व आधारभूत ग्रन्थ बन गया है। इस ग्रन्थ की महत्ता को स्वयं भाष्यकार ने इन शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है सव्वाणुओगमूलं भासं सामाइअस्स सोऊण। होइ परिकम्मिअमई जोग्गो सेसाणुओगस्स। अर्थात् समस्त अनुयोगों पर आधारित इस सामायिक भाष्य का श्रवण कर शिष्य की बुद्धि परिमार्जित (स्वच्छ, निर्मल, संशयादि रहित) हो जाती है तथा उसमें अन्य अनुयोगों को समझने की योग्यता भी विकसित हो जाती है। 1. ठाणांग आदि आगमों में सात निन्हव ही बताये गये हैं / परवर्ती उत्तराध्ययन-नियुक्ति में भी वोटिक निन्हव का निर्देश नहीं प्राप्त है। पं. दलसुखभाई मालवणिया (द्र. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. 9) के मत में आठवें निन्हव को परवर्ती काल में जोड़ा गया है। 65. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-3603 RB0BROOBROOBROOR [52] ReDROPOROPOROR Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भाष्यकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण जैन आगमों के भाष्यकारों में संघदास गणि तथा जिनभद्र गणी क्षमाक्षमण -ये दो आचार्य प्रमुख हैं। इनमें जिनभद्रगणि का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इनके जीवन-वृत्त आदि के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्र अपने जीवनकाल में इतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाये और यही कारण है कि उनके जीवन की विशिष्ट घटनाओं और विस्तृत पारिवारिक विवरणों का क्रमबद्ध उल्लेख नहीं प्राप्त होता। उनके कृतित्व व वैदुष्य का साक्षात्कार उनके द्वारा रचित ग्रंथों के अनुशीलन से होता है। उनके संबंध में उत्तरवर्ती कुछ विशिष्ट आचार्यों ने अल्प उल्लेख किया है, उन उल्लेखों में कुछ-एक विरोधपूर्ण व संदिग्ध भी हैं। उदाहरणार्थ- (15-16 वीं शती की) पट्टावलियों में इन्हें आचार्य हरिभद्र का पट्टधर शिष्य बताया गया है जो नितान्त असत्य है, क्योंकि जिनभद्रगणी और आ. हरिभद्र में करीब एक शती का अन्तर प्रमाणसिद्ध है। ____ अंकोट्टक (अकोटा), नामक ग्राम में कुछ मूर्तियां (विद्वान् श्री यू. पी. शाह को) प्राप्त हुई हैं जिन पर "निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य'- ऐसा उल्लिखित है। इसलिए यह माना जाता है कि ये 'निवृत्तिकुल' से सम्बद्ध थे। इसी कुल को सिद्धर्षि तथा नवांगीटीकाकार आ. शीलांक (वि. 9-10 शती) जैसे विद्वानों व आचार्यों को प्रस्तुत करने का गौरव प्राप्त है। इस कुल की परम्परा का प्रारम्भ आ. वज्रसेन के शिष्य 'निवृत्ति' से हुआ माना जाता है। इसी आधार पर इसे आर्य सुहस्ती की परम्परा में हुए वज्रसेन की शाखा से सम्बद्ध माना जाता है। पट्टावलियों के अनुसार आचार्य वज्रसेन –जो भगवान् महावीर के 17 वें पाट पर स्थित थे- के चार (श्रेष्ठिपुत्र) मुनि शिष्य थे- (1) नागेन्द्र (2) चन्द्र (3) निवृत्ति, और (4) विद्याधर / इनमें तीसरे 'निवृत्ति' से निवृत्तिकुल का प्रारम्भ हुआ। अन्य तीनों से भी अलग-अलग कुल भी अस्तित्व में आए श्रद्धा व आदर के भाजन : क्षमाश्रमण .. अधिकतया इनके नाम के आगे क्षमाश्रमण' विशेषण प्रयुक्त हुआ है। वाचानाचार्य विशेषण या उपाधि भी इनके नाम के साथ प्रयुक्त की गई है। वाचनाचार्य व क्षमाश्रमण - इन दोनों को पर्याय रूप में भी माना जाता है। शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति के रचयिता आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इन्हें 'क्षमाश्रमण' कहकर इनका गुणगान करते हुए कहा है कि ये आवश्यक-भाष्य रूपी अमृत के सागर एवं गुणरत्नाकर हैं।" उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनके लिए भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपाथोधि, प्रशस्तभाष्यसस्यकाश्यपीकल्प, दलितकुवादिप्रवाद, परमागमपारीण, दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम, त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वेदी, 66. नागेन्द्र-चंद्र-निवृत्ति-विद्याधराख्यान् चतुरः सकुटुम्बान् इभ्यपुत्रान् प्रव्राजितान्, तेभ्यश्च स्वस्वनामांकितानि चत्वारि कुलानि संजातानि (तपागच्छ-पट्टावली, भा. 1, स्वोपज्ञ वृत्ति)। 67. आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्य-पीयूषजन्मजलधिर्गुणरत्नराशिः / ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः सोऽयं गणिर्विजयते जिनभद्रनामा (शिष्यहिता, मंगलाचरण, पद्य 2) / @RecRORSCR@@cROBR [53] Re0BROBCROBCROOR Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देहसन्दोहशैलशृंग आदि आदरपूर्ण विशेषणों का प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि ये दार्शनिक जगत् के एक विशिष्ट आचार्य के रूप में प्रख्यात हुए। ____ आ. जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जैन आगम-परम्परा के प्रबल पोषक आचार्य रहे हैं। ये भारतीय दर्शन व न्याय के तो विशिष्ट विद्वान् थे ही, इनका संस्कृत प्राकृत - इन दोनों भाषाओं पर भी पूर्ण अधिकार था। इनकी कृतियां प्राकृत व संस्कृत, दोनों में प्राप्त होती हैं। इनकी अर्थप्रतिपादनक्षमता, तार्किक शक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता एवं विशिष्ट प्रतिपादन-शैली अप्रतिम है - इसमें संदेह नहीं। इन्हें महानिशीथ सूत्र के उद्धारकर्ता के रूप में भी ख्याति प्राप्त है। आ. जिनभद्र रचित 'विविध तीर्थकल्प' में ऐसा वर्णन मिलता है कि महानिशीथ सूत्र दीमकों द्वारा नष्ट कर दिया गया था, किन्तु इन्होंने मथुरा में देवनिर्मित स्तूप में अधिष्ठित देव की आराधना की और उसके फलस्वरूप उस सूत्र का पुनरुद्धार किया। आचार्य सिद्धसेन गणी ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनेकानेक वैदुष्यपूर्ण कार्यों का निर्देश करते हुए उन्हें युगप्रधान, अनुयोगधर, दर्शनज्ञानोपयोग के मार्गदर्शक, क्षमाश्रमणों में निधानभूत आदि अनेक सम्मानसूचक विशेषणों के साथ श्रद्धाप्रणति निवेदित की है। क्षमाश्रमण की भाष्येतर रचनाएं : विशेषावश्यकभाष्य के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां भी हैं। वे हैं- जीतकल्पभाष्य, बृहत्संग्रहणी, बृहत् क्षेत्रसमास, विशेषणवती, अनुयोगद्वार चूर्णि (अनुपलब्ध)। इनमें विशेषावश्यक भाष्य पर स्वोपज्ञ वृत्ति संस्कृत गद्य में हैं, शेष ग्रन्थ प्राकृत पद्यात्मक हैं / अनुयोगद्वार चूर्णि को जिनदास कृत अनुयोगचूर्णि एवं हरिभद्रीय अनुयोगद्वारवृत्ति में अक्षरशः उद्धृत किया गया है। 'ध्यानशतक' नाम का प्राकृतपद्यात्मक ग्रन्थ भी इनके द्वारा रचित माना जाता है, किन्तु इस विषय में सभी विद्वान् एकमत नहीं है। भाष्य का रचना-काल जिनदास महत्तर कृत नन्दीचूर्णि में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण-कृत विशेषावश्यक भाष्य का उल्लेख मिलता है और नन्दीचूर्णि का रचना-काल वि. सं. 733 है, अतः भाष्यकार का समय इससे पूर्व मानना पड़ेगा। इसी तरह, विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रंथों में सिद्धसेन, पूज्यपाद आदि उन आचार्यों एवं उनके मतों का उल्लेख है जो विक्रम संवत् 5-6 शती में हुए हैं। अत: यह मानना पड़ेगा कि भाष्यकार विक्रम संवत् 5-7वीं शती के मध्य किसी समय हुए होंगे। इन्हीं अनेक प्रमाणों पर ऊहापोह करके विद्वानों ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का समय विक्रम संवत् 6-7 वीं शती (545-650 वि. सं.) निर्धारित किया है। जैसलमेर भंडार में विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति प्राप्त हुई है, जिसके अंत में यह सूचित किया गया है कि वलभी नगरी में शक सं. 531 (वि. सं. 666) में इसकी रचना पूर्ण हुई : 68. द्र. जीतकल्पचूर्णि, गाथा-510. ROORB0ROOR00R [54] RO0BROORB0BROOR Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसता इगतीसा सग-निव-कालस्स वट्टमाणस्स। तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिणसातिमि णक्खत्ते॥ रज्जे णु पालणपुरे सी...इच्चंमि णरवरिंदम्मि। वलभीणगरीए इयं महवि..... मि जिणभवणे॥ संभवतः उक्त काल ग्रन्थ के लिपिकरण का है न कि ग्रन्थरचना का। ये पद्य मूल भाष्य के नहीं हैं, अपितु लिपिकार के हैं। यदि ये पद्य भाष्य के अंग होते तो स्वोपज्ञ टीकाओं में, तथा सभी हस्तलिखित प्रतियों में अवश्य मिलते। किन्तु उक्त प्रति के अलावा अन्य किसी प्रति में ये पद्य नहीं मिलते, अत: निश्चित ही उक्त रचना-काल ग्रन्थ-रचना का नहीं, अपितु ग्रंथ के लिपिकरण का ही है। शिष्यहिता बृहवृत्ति और आ. मलधारी हेमचंद्र आवश्यक नियुक्ति में सूत्र रूप से किये गये प्रतिपादन को सहज सुबोध्य व अधिक स्पष्ट करने हेतु आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा विशेषावश्यक भाष्य की रचना की गई थी। कालक्रमवश यह भाष्य भी दुर्बोध्य हो जाएगा - इस दृष्टि से क्षमाश्रमण ने स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी। उनकी परम्परा के कोट्याचार्य ने भी एक पृथक् विवरण (वृत्ति) लिखा। किन्तु ये व्याख्याएं भी कुछ लोगों के लिए दुर्बोध्य हो गईं। ऐसी स्थिति में मन्दतम गति वाले शिष्यों पर अनुग्रह भावना से आचार्य मलधारी हेमचंद्र ने भाष्य को सुस्पष्ट करने हेतु एक बृहद् वृत्ति (28 हजार श्लोक प्रमाण) लिखी, जिसका अन्वर्थक नाम 'शिष्यहिता' है। इसकी रचना राजा जयसिंह के शासन-काल में (वि. सं. 1175 में) हुई। बृहद्वृत्ति की रचना में निमित्त शिष्यहिता टीका के प्रारम्भ में स्वयं ग्रन्थकार ने इसकी रचना के निमित्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि दुःषमा कालचक्र के प्रभाव से शिष्यों की बुद्धि आदि का ह्रास होता जा रहा है, इसलिए वर्तमान के कुछ मंदमति शिष्यों के लिए विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थ गूढार्थ व संक्षिप्त प्रतीत हो रहे हैं (अर्थात् वे सामान्यजन के लिए सुबोध्य नहीं रहे और उनके हार्द को समझने के लिए विस्तार से कहने की अपेक्षा हो गई है), मंदतम मति वाले शिष्य विषयवस्तु को अधिक विस्तार से समझना चाहते हैं, उनके लिए ये ग्रंथ उपकारी नहीं रह गए हैं, ऐसा सोचकर कोई ऐसी विस्तृत वृत्ति लिखी जानी चाहिए, इस दृष्टि से, तथा यह सोच कर कि मंदतममति शिष्यों के लिए ग्रंथ सुबोध्य हों और साथ ही मेरा स्वयं का श्रुताभ्यास (स्वाध्याय) भी सम्पन्न हो, मैं (मलधारी हेमचंद्र) -यद्यपि मैं मंदमति हूं, तथापि- विशेषावश्यक भाष्य पर बृहद्वृत्ति की रचना कर रहा हूं।" 69. द्र. जैन आगम साहित्यः मनन और मीमांसा, ले. देवेन्द्र मुनि, पृ. 460-61. 70. तथापि अतिगंभीरवाक्यात्मकत्वात् किंचित् संक्षेपरूपत्वाच्च, दुःषमानुभावतः प्रज्ञा-आदिभिरपचीयमानानां किमपि विस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नासौ तथाविधोपकारं सांप्रतमाधातं क्षमाः इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धरूपा किमपि विस्तारवती च मन्दमतिनापि मया मन्दतम-मतिशिष्यावबोधार्थं श्रुताभ्यास -संपादनार्थं च वृत्तिरियमारभ्यते (बृहद्वृत्ति का प्रारम्भ)। ROBCROPORORSCROROR [55] ROOROROSCROOK Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह, शिष्यहिता वृत्ति के अंत में भी मलधारी हेमचंद्र ने इसी भाव को पुनः स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिनभद्रगणि-रचित भाष्य पर स्वयं ग्रन्थकार ने (स्वोपज्ञ) व्याख्या की, कोट्याचार्य ने भी व्याख्या की उस सबके रहते हुए मेरा इस वृत्ति के निर्माण का प्रयास यद्यपि सुसंगत नहीं ठहरता, तथापि कुछ मंदबुद्धि शिष्य हैं जो सरल व्याख्या चाहते हैं, उन पर उपकार-भावना से तथा अपनी श्रुत-भक्ति के कारण, साथ ही स्वपरकल्याण को लक्ष्य में रख कर, इस (बृहद्) वृत्ति की रचना की गई है। वस्तुतः प्रत्येक जैनमुनि स्वपरकल्याण-तत्त्पर होते ही हैं। शिष्यहिता बृहद्वृत्ति आदि ग्रंथों की रचना के पीछे उनकी स्वपरकल्याण भावना, धर्मप्रभावना, करुणा एवं जिनवाणी की सेवा ही रही है। आचार्य मलधारी हेमचन्द्र का जीवन चरित प्राकृत द्याश्रय काव्य की वृत्ति (मलधारी राजशेखर कृत) की प्रशस्ति के अनुसार, मलधारी हेमचन्द्र के गुरु का नाम था- मलधारी अभयदेव सूरि / स्वयं मलधारी हेमचन्द्र ने अपने गुरु के महनीय व्यक्तित्व का तो संकेत किया ही है, साथ ही स्वयं को इनका शिष्य होने तथा बृहद्वृत्ति के रचयिता होने का निरूपण किया है। ___मलधारी हेमचन्द्र का गृहस्थ नाम प्रद्युम्न था और वे राज्यमंत्री के पद पर प्रतिष्ठित थे। इनके चार पत्नियां थीं, किन्तु वैराग्यवश ये दीक्षित हो गये और उनके निर्मल ज्ञान व निष्कलंक आचार के कारण मुनिसंघ में इनकी प्रतिष्ठा निरन्तर बढ़ती ही गई। गुरु अभयदेव सूरि का स्वर्गवास हो गया, तब ये ही उनके उत्तराधिकारी आचार्य बने। धर्मप्रभावना का महनीय कार्य करते हुए उन्होंने अंत में 47 दिनों की सल्लेखना धारण की और स्वर्गस्थ हुए। इनके बाद, इनके शिष्यों में से श्रीचंद्र सूरी इनके उत्तराधिकारी आचार्य बने। . आ. हेमचंद्र (मलधारी) का महनीय व्यक्तित्व मलधारी हेमचंद्र के तीन शिष्य थे- विजयसिंह सूरी, चंद्रसूरी, और विबुधचंद्र सूरि। इनमें श्री चंद्रसूरि ने 'सुव्रत चरित' की प्रस्तावना में अपने गुरु के सद्गुणों का उत्कीर्तन करते हुए उनकी विद्वत्ता व धर्मप्रभावना 71. श्रीजिनभद्रगणे: पूज्यस्यैतानि भाष्यवचनानि। तर्कव्यतिकरदुर्गाण्यतिगम्भीराणि ललितानि // विवृतानि स्वयमेव हि कोट्याचार्यैश्च बुधजनप्रवरैः / संगच्छते क्व पुनरपि ममापि वृत्तेः प्रयासोऽत्र॥ ऋजुभणितिमिच्छतामिह तथापि मत्तोऽपि मंदबुद्धीनाम्। उपकारः केषांचिद् समीक्ष्यते शिष्टलोकानाम् // तेनात्मपरोपकृति संभाव्य मयापि भाष्यवृत्तिरियम् / विहिता श्रुतेऽतिभक्तिं शुभविनोदं च चिन्तयता॥ (बृहद् वृत्ति, अंतिम प्रशस्ति, पद्य 1-4) / 72. विस्फूर्जत्कलिकालदुस्तर तम:संतानलुप्तस्थितिः, सूर्येणेव विवेक भूधर सिरस्यासाद्य येनोदयम्। सम्यग्ज्ञानकरैश्चिरन्तनमुनिक्षुण्णः समुद्योतितो मार्गः सोऽभयदेवसूरिरभवत् तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि॥ तच्छिष्यलवप्रायैरगीतार्थैरपि शिष्टजनतुष्ट्यै। श्री हेमचंद्रसूरिभिः इयमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः // (शिष्यहिता टीका, अंत-प्रशस्ति, पद्य-9-10)। श्रीमदभयसूरिचरणाम्बुजचंचरीक-श्रीहेमचंद्रसूरिरचितम् आवश्यकवृत्तिप्रदेशव्याख्यानकं समाप्तम् (आवश्यकवृत्ति प्रदेशव्याख्या की प्रशस्ति)। RO @R@20@R@ @R@ @R [56] Re0BARB0R@@Re0@R Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्परता का भी संकेत किया है। यहां बताया गया है कि मलधारी हेमचंद्र ने हजारों ग्रंथों का अध्ययन किया था। उनको अद्भुत वचन-शक्ति प्राप्त थी। भगवती सूत्र जैसा विशालकाय आगम ग्रंथ उन्हें कण्ठस्थ था। वे जिनशासन के परमप्रभावक व परम कारुणिक स्वभाव के थे। उन्हें व्याख्यान-लब्धि प्राप्त थी और उनकी प्रवचन शैली इतनी आकर्षक व प्रभावक थी कि जिन-भवन के बाहर भी खड़े होकर जनता उनके उपदेशामृत का पान करने हेतु उत्कंठित रहती थी। आचार्य सिद्धर्षिकृत 'उपमिति भव प्रपंच कथा' उन्हें अधिक प्रिय थी और उन्होंने वर्षों तक इस पर अपने प्रवचन दिये और इस प्रकार सामान्य जन में वैराग्य-भावना का प्रचार किया। उन्होंने अनेकानेक ग्रन्थों की रचना की और जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट योगदान दिया। जीवसमासवृत्ति के अंत में इन्हें यम-नियमादिनिष्ठ भट्टारक (संमान्य) श्वेताम्बराचार्य कहा गया है। अतः यह स्पष्ट है कि ये शुद्ध श्रमणाचार का अप्रमादपूर्वक पालन करने वाले थे और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं के पोषक, समर्थक व प्रचारक महान् आचार्यों में परिगणित थे। विद्वत्ता व विनय का योग मणिकाञ्चनसंयोग की तरह प्रशस्त माना जाता है। मलधारी हेमचंद्र विद्वान् होते हुए भी नम्रता, निरभिमानता व धार्मिकजनवत्सलता के मूर्ति थे। स्वयं को उन्होंने पूर्वाचार्यों की तुलना में 'मंदमति' तक कहा है। स्वरचित ग्रन्थों के अंत में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गुरुजनों से मैंने जो कुछ सीखा है, वह मैं भूल न जाऊं, इसलिए मैं यह ग्रन्थ रच रहा हूं, मेरे जैसे कर्म-पराधीन छद्मस्थ को मोह (अज्ञान) होना स्वाभाविक ही है, अतः मेरे ग्रंथ में कुछ त्रुटि या दोष हो तो उसे विद्वान् मुनिराज शुद्ध कर लें। बृहवृत्ति के अतिरिक्त रचनाएं मलधारी हेमचंद्र की विशेषावश्यक भाष्य पर शिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति के अतिरिक्त अन्य रचनाएं भी हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं 73. यमनियमस्वाध्यायध्यान-अनुष्ठानरत-परमनैष्ठिक-पंडितश्वेताम्बराचार्य-भट्टारकश्रीहेमचंद्राचार्येण (जीवसमासवृत्ति, प्रस्तावना)। 74. शिष्यहिता बृदवृत्ति, प्रारम्भ। 75. समुपासितगुरुजनतः समधिगतं किंचिदात्मविस्मृतये। संक्षेपादावश्यकविषयं टिप्पनमहं वच्मि (आवश्यक वृत्ति प्रदेश व्याख्या, प्रारम्भ)। इतिगुरुजनमूलादर्थजातं स्वबुद्ध्या, यदवगतमिहात्मस्मृत्युपादानहेतोः / तदुपरचितमेतत् यत्र किंचित् सदोषं मयि कृतगुरुतोषैस्तत्र शोध्यं मुनीन्द्रैः // छद्मस्थस्य हि मोहः कस्य न भवतीह कर्मवशगस्य। सद्बुद्धिविरहितानां विशेषतो मद्विधासुमताम् (आवश्यकवृत्तिप्रदेश व्याख्या, अंतिम प्रशस्ति)॥ यच्चेह किमपि वितथं लिखितमनायोगत: कुबोधाद् वा। तत्सर्वं मध्यस्थैः मय्यनुकम्पापरैः शोध्यम् (शिष्यहिता बृहवृत्ति, अंतिम प्रशस्ति, पद्य-5)॥ RODecROORBOROR [57] RODORO0BROOSROOR Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) आवश्यक टिप्पणक [यह हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति पर टिप्पण है। इसे आवश्यक वृत्तिप्रदेशव्यास्या... हरिभद्र आवश्यक वृत्तिटिप्पणक भी कहा जाता है। यह 4600 श्लोकप्रमाण है।] (2) शतक विवरण [मूल ग्रन्थ की रचना शिवशर्मसूरि द्वारा की गई है। मूल ग्रन्थ में 106 पद्य हैं। गुणस्थानों व जीवस्थानों का निरूपण इस ग्रंथ में हैं। इस वृत्ति का नाम विनयहिता है। वृत्ति में विषय को विस्तार से समझाया गया है। वृत्ति का परिमाण 3740 श्लोकप्रमाण है।] (3) अनुयोगद्वार वृत्ति [अनुयोग-द्वार मूल सूत्र पर 5900 श्लोक प्रमाण वृत्ति है। सूत्रों के पदों के सरल अर्थ दिये गए हैं। यत्र-तत्र संस्कृत श्लोक भी उद्धृत हैं। रचना में वृत्तिकार की आगममर्मज्ञता का स्पष्ट दर्शन होता है।] (4) उपदेशमाला सूत्र [मूल ग्रन्थ में 505 गाथाएं है, दान, शील, तप, भावना- इनका विस्तृत विवेचन है, यह धार्मिक व लौकिक कथाओं से पूर्ण है, यह 14 हजार श्लोक प्रमाण है। सम्भवतः मलधारी हेमचंद्र की यह प्रथम रचना है।] (5) उपदेश माला-वृत्ति (विवरण) [संस्कृत टीका, जैन कथाओं का समृद्ध संग्रह है, इस ग्रन्थ का मान 23868 श्लोक प्रमाण है।] (6) जीवसमास विवरण [14 गुणस्थानों का, तथा जीव-अजीव तत्त्व का विवेचन है। जीवसमास पर पहले भी कई टीकाएं थीं। यह 7000 श्लोक प्रमाण है।] (7) भव-भावना सूत्र [अधिकांश गाथाएं प्राकृत में हैं। कुल 501 गाथाएं हैं। भवभावना का 322 गाथाओं में वर्णन है। धार्मिक कथाओं की यह स्रोत है। मेडता व छत्रपल्ली में इसकी रचना सम्पन्न हुई।] (8) भवभावना सूत्र विवरण [भव भावना मूल ग्रन्थ पर यह संस्कृत टीका है। प्राकृत में धार्मिक कथाएं भी दी गई हैं। कथाओं व आध्यात्मिक रूपकों के माध्यम से विषयवस्तु को सुबोध्य बनाया गया है। इसका रचना-काल वि. सं. 1177 है। मलधारी हेमचंद्र की यह अंतिम रचना है- ऐसा प्रतीत होता है।] (9) नन्दिटिप्पण। इनके समस्त ग्रन्थों का मान अस्सी हजार श्लोक प्रमाण है। आवश्यक टिप्पण, अनुयोग वृत्ति, नन्दि टिप्पण एवं विशेषावश्यक-बृहद्वृत्ति (शिष्यहिता)- ये कृतियां आगम-व्याख्यात्मक हैं। इनके शिष्य श्रीचंद्रसूरि ने नन्दिसूत्र-टिप्पण को छोड़ कर गुरु द्वारा अन्य ग्रन्थों के निर्माण किये जाने का स्पष्ट निर्देश किया है।" 76. झटिति निवेशितम् आवश्यकटिप्पणकाभिधानम्, ततोऽपरमपि शतकविवरण-नामकम्, अन्यदपि अनुयोगद्वारवृत्तिसंज्ञितम्, ततोऽपरमपि उपदेशमालासूत्राभिधानम्, अपरं तु तवृत्तिनामकम, अन्यच्च जीवसमासविवरणनामधेयम्, अन्यत्तु भवभावनासूत्रसंज्ञितम्, अपरं तु तद्विवरणनामकम्, अन्यच्च....नन्दिटिप्पणकनामधेयं नूतनदृढफलकम् (शिष्यहिता बृहद्वृत्ति का अन्त)। 77. मुनिसुव्रत्तचरित काव्य की प्रस्तावना। RBOROBORO BR00R [58] ROBOROSCRB0BROR Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलधारी हेमचंद्र का स्थितिकाल इनके आचार्य-पदारोहण का समय वि. सं. 1168 है। एक दशक या कुछ अधिक समय तक आचार्य पद पर रहने के बाद ये दिवंगत हुए। मलधारी हेमचंद्र के एक शिष्य थे- विजयसिंह सूरि, जिन्होंने अपने गुरु की रचना 'धर्मोपदेशमाला' पर बृहद्वृत्ति लिखी थी। उसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी रचना वि. सं. 1191 में हुई थी। यहां के विवरण से ऐसा लगता है कि तब तक मलधारी हेमचंद्र के दिवंगत हुए पर्याप्त समय, प्रायः एक दशक, व्यतीत हो चुका था। चूंकि मलधारी हेमचंद्र के ग्रंथों की प्रशस्तियों में जो रचना-समय निर्दिष्ट हुए हैं, उनमें वि. सं. 1177 के बाद का कोई उल्लेख नहीं है। अतः विद्वानों ने इनका समय वि. सं. 12 वीं शती, लगभग वि. सं. 1140-1180, निर्णीत किया है। प्रस्तुत संस्करणः मलधारी हेमचंद्र कृत शिष्यहिता नामक बृदवृत्ति के साथ विशेषावश्यक भाष्य का प्रस्तुत संस्करण जैन विद्या के, विशेष कर जैन दर्शन के अध्येताओं, अनुसंधाताओं व विद्वानों के लिए अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि इसमें बृहद्वृत्ति का हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है और जो अब तक का सर्वप्रथम प्रयास है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि नियुक्ति व भाष्य की गाथाएं जिस रूप में पूर्व संस्करण में प्रकाशित प्राप्त हुईं, उन्हें उसी रूप में दिया गया है। अन्त में गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः। अतएव इस उक्ति के अनुसार कार्य के प्रतिपादन में कुछ त्रुटियां सम्भाव्य हैं। आशा है, यह प्रकाशन विद्वानों, अनुसन्धाताओं व स्वाध्यायप्रेमियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। 78. (क) शिष्यहिता वृत्ति की प्रशस्ति में इसका रचना-काल वि. सं. 1175 निर्दिष्ट है- शरदांच पंचसप्तत्यधिक-एकादशशतेषु अतीतेषु। कार्तिकसितपंचम्यां श्रीमज्जयसिंहनृपराज्ये (प्रशस्ति-पद्य 11) // (ख) भवभावनाविवरण की प्रशस्ति में रचना-काल वि. सं. 1177 निर्दिष्ट है- सप्तसप्तत्यधिकैकादशवर्षशतैः विक्रमादतिक्रान्तैः। निष्पन्ना वृत्तिरियं श्रावणरविपंचमीदिवसे॥ ROCRO0BROORBOOR [59] RB0BCROPOSAROORBOOR Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వ్ లా Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-रचित विरोषावश्यक भाष्य (मूल व हिन्दी अनुवाद) मलधारी हेमचन्द्र -विरचित 'शिष्यहिता' बृहद्वृत्ति, मूल व हिन्दी अनुवाद सहित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-रचित ( विशेषावश्यक भाष्य ___ (मूल व हिन्दी अनुवाद) [मलधारी हेमचन्द्र-विरचित 'शिष्यहिता' बृहद्वृत्ति, मूल व हिन्दी अनुवाद सहित] (आचार्य मलधारी हेमचन्द्र द्वारा विरचित शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति का मङ्गलाचरण) श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रविश्रुतकुलव्योमप्रवृत्तोदयः, सद्बोधांशुनिरस्तदुस्तरमहामोहान्धकारस्थितिः। दृप्ताशेषकुवादिकौशिककुलप्रीतिप्रणोदक्षमो, जीयादस्खलितप्रतापतरणिः श्रीवर्धमानो जिनः // श्री सिद्धार्थ राजा के प्रसिद्ध कुलरूपी आकाश में उदित होकर सम्यक् ज्ञानरूपी किरणों द्वारा कठिन मोहरूपी अन्धकार की स्थिति को नष्ट करने वाले, समस्त अभिमानी कुवादी (मिथ्यामतवाले) रूपी उल्लुओं के समूह की प्रसन्नता को नष्ट करने में समर्थ, और मन्द न पड़नेवाले प्रताप से युक्त सूर्यरूपी श्री वर्धमान जिनेन्द्र की जय हो // 1 // . येन क्रमेण कृपया श्रुतधर्म एष, आनीय मादृशजनेऽपि हि संप्रणीतः। . . . . श्रीमत्सुधर्मगणभृत्प्रमुखं नतोऽस्मि, तं सूरिसंघमनघं स्वगुरूंश्च भक्त्या / / 2 / / जिनकी कृपा से यह श्रुत-धर्म क्रमशः प्रवर्तित होता हुआ मेरे जैसे (मन्दबुद्धि) तक पहुंच पाया है, उन गणधर-प्रमुख श्री सुधर्मा स्वामी के प्रति, (परवर्ती) निष्कलंक आचार्यों के संघ के प्रति तथा अपने (श्रद्धास्पद) गुरु-जनों के प्रति मैं भक्ति से नतमस्तक हूं॥2॥ आवश्यकाति-विनिबद्ध-गभीर-भाष्य-पीयूषजन्म-जलधिर्गुणरत्नराशिः / ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः, सोऽयं गणिर्विजयते जिनभद्रनामा // 3 // जो आवश्यक सूत्र पर निबद्ध गम्भीर भाष्यरूपी अमृत को जन्म देने वाले एक गुणरत्नाकर समुद्र के समान हैं, तथा (अपने अनेक) गुणों के कारण इस पृथ्वी पर जो ‘क्षमाश्रमण' के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन आचार्यश्री जिनभद्र सूरि की विजय हो // 3 // MA ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 1 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शिष्यहितावृत्ति) इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः, सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम् / अस्य चातीवगम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनैतद्व्याख्यानरूपा "आभिणिबोहिअनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणंच" इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता। तन्मध्ये च सामायिकाध्ययननियुक्तिं विशेषत एवातिबहु विचारदुर्विज्ञेयार्थामतिशयोपकारिणी चावगम्य के वलामृतरसस्यन्दिवाविलासैः श्रीमज्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैस्तदर्थव्याख्याऽऽत्मकमेव ‘कयपवयणप्पणामो' इत्यादिगाथासमूहस्वरूपं भाष्यमकारि। तस्य च यद्यपि श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैः, श्रीकोट्याचार्यश्च वृत्तिर्विहिता वर्तते, तथाऽप्यतिगम्भीरवाक्यात्मकत्वात्, किञ्चित्संक्षेपरूपत्वाच्च दुःषमानुभावतः प्रज्ञादिभिरपचीयमानानां किमपिविस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नाऽसौ तथाविधोपकारं सांप्रतमाधातुं क्षमा; इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धरूपा किमपिविस्तरवती च मन्दमतिनाऽपि मया मन्दतममति-शिष्यावबोधार्थं, श्रुताभ्याससंपादनार्थं च वृत्तिरियमारभ्यते। यस्याः प्रसादपरिवर्धितशुद्धबोधाः, पारं व्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः।। सानुग्रहा मयि समीहितसिद्धयेऽस्तु, सर्वज्ञशासनरता श्रुतदेवताऽसौ // 4 // जिसके प्रसाद से विशुद्ध ज्ञान से सम्पन्न होकर सुधी-जन श्रुत-समुद्र के पार पहुंच जाते हैं, सर्वज्ञदेव के शासन में निरत वह श्रुतदेवी (सरस्वती) मेरे मनोरथ की सिद्धि के लिए मुझ पर अनुग्रह करने वाली हो |4|| (शिष्यहितावृत्ति का अनुवाद) आवश्यक सूत्र की रचना अर्थरूप से तीर्थंकर भगवान् द्वारा तथा शब्द रूप से गणधरों द्वारा की गई है। यह एक वृक्ष के समान है जिसकी मूल जड़ें हैं- चरणसत्तरी व करणसत्तरी रूप क्रियासमूह / सामायिक आदि छः अध्ययन उस वृक्ष के तने (स्कन्ध) हैं। इसे अतिगम्भीर अर्थ से परिपूर्ण तथा समस्त साधुओं व श्रावकों के लिए उपयोगी समझ कर, इस सूत्र पर चतुर्दश पूर्वधर श्रीमान् भद्रबाहु स्वामी ने 'आभिनिबोहिअ-नाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं. च' (79वीं गाथा) इत्यादि प्रसिद्ध ग्रन्थ के रूप में नियुक्ति' नामक व्याख्या की रचना की है। उनमें से (प्रथम) 'सामायिक' अध्ययन की नियुक्तियों के अर्थ अत्यन्त (सूक्ष्म) विचारणा से ही बोधगम्य हो सकते हैं- और यह (अपेक्षाकृत) अधिक उपकारी है- ऐसा जान कर अपने अमृततुल्य मधुर वचनों से आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस (सामायिक अध्ययन-नियुक्ति-ग्रन्थ) पर अर्थव्याख्यान-स्वरूप 'कयपवयणप्पणामो' इत्यादि गाथा-समूह रूप (प्राकृत पद्यात्मक) भाष्य की रचना की। उक्त भाष्य पर यद्यपि आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण महाराज ने स्वयं तथा उनके। बाद श्री कोट्याचार्य ने वृत्ति (लघुवृत्ति, व्याख्या) की रचना की, परन्तु वह टीका अतिगम्भीर अर्थ वाली एवं कुछ संक्षिप्त भी है, दुःषमा (पंचम काल) के प्रभाववश बुद्धि आदि से हीनता प्राप्त करते जा ---- विशेषावश्यक भाष्य Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र चादौ तावद् विघ्नविनायकोपशमहेतोर्मङ्गलार्थ, शिष्यप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयाद्यभिधानार्थं चाह भाष्यकार: कयपवयणप्पणामो वोच्छं चरण-गुणसंगहं सयलं। आवस्सयाणुओगं गुरूवएसाणुसारेणं॥१॥ [ संस्कृतच्छाया:- कृतप्रवचनप्रणामो वक्ष्ये चरणगुणसंग्रहं सकलम्। आवश्यकानुयोगं गुरूपदेशानुसारेण॥] व्याख्या- 'वोच्छं' इति क्रिया, वक्ष्येऽभिधास्य इत्यर्थः। कम्? इत्याह-'आवस्सयाणुओगं ति' अवश्यं कर्तव्यमावश्यक सामायिकादिरूपम्, क्वचित् ‘आवासयाणुओगं' इति पाठः, तथाऽपि आ समन्ताज्ज्ञानादिगुणैः शून्यं जीवं वासयति तैर्युक्तं करोतीत्यावासकं सामायिकादिरूपमेव, तस्य वक्ष्यमाणशब्दार्थोऽनुयोगो व्याख्यानं विधि-प्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणमित्यर्थः, तम्। किंविशिष्टः सन्? इत्याह- 'कयपवयणप्पणामो त्ति' प्रोच्यन्तेऽनेन, अस्मात्, अस्मिन् वा जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम्, अथवा रहे एवं कुछ विस्तार से जानने की रुचि वाले शिष्यों के लिए उक्त वृत्ति वर्तमान में वैसा उपकार नहीं कर सकती है- ऐसा सोचकर मैं (मलधारी हेमचन्द्र) अल्पबुद्धि होता हुआ भी विशेष मन्दबुद्धि वाले शिष्यों को बोध हो जाय तथा इस कार्य से श्रुत का अभ्यास (स्वाध्याय) भी हो-- इस दृष्टि से सरल वाक्यों वाली तथा अधिक विस्तृत इस (बृहद्) वृत्ति को प्रारम्भ कर रहा हूं। (ग्रन्थ की विषय-वस्तु) सर्वप्रथम भाष्यकार (श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण) प्रमुखविघ्नों की शान्ति-हेतु, तथा मङ्गलाचरण के साथ-साथ, शिष्यों की (शास्त्र-अध्ययन में) प्रवृत्ति हो- इस दृष्टि से शास्त्र की विषय-वस्तु (अभिधेय) का भी कथन कर रहे हैं (1) कय-पवयणप्पणामो, वोच्छं चरणगुणसंगहंसयलं। आवस्सयाणुओगं, गुरुवएसाणुसारेणं॥ . . [(गाथा-अर्थः) मैं 'प्रवचन' को प्रणाम कर, गुरु-वचनों के अनुरूप, सम्पूर्ण चरण-गुणसंग्रह 'आवश्यक-अनुयोग' का कथन करूंगा।] व्याख्याः- 'वोच्छं'-यह क्रिया है जिसका अर्थ है- कहूंगा, निरूपण करुंगा। किसका निरूपण? इसलिए कहा- 'आवस्सयाणुयोगं ति', अर्थात् आवश्यक अनुयोग का, आवश्यक कर्तव्य 'आवश्यक' रूप सामायिक आदि का कथन/निरूपण करूंगा | कहीं 'आवासयाणुओगं' (आवासक अनुयोग) पाठ है। 'आवासक' का अर्थ भी 'सामायिक' आदि रूप है क्योंकि ज्ञानादि-गुणों से रहित जीव को जो पूर्णतः वासित या युक्त करे वह आवासक, यानी सामायिक आदि ही है। उस (आवश्यक) का अनुयोग यानी व्याख्यान, अर्थात् विधि-प्रतिषेधात्मक स्वरूपों के (कथन के) माध्यम से निरूपण। 'अनुयोग' का (शाब्दिक) अर्थ आगे कहेंगे। किस विशेषता से युक्त होकर? इसलिए कहाकयपवयणप्पणामो अर्थात् प्रवचन को प्रणाम करके। 'प्रवचन' शब्द का अर्थ है- जिसके द्वारा, ------ विशेषावश्यक भाष्य Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशब्दस्याऽव्ययत्वेनाऽनेकार्थद्योतकत्वात् प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं, प्रधानं, प्रशस्तम्, आदौ वा वचनं प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् आदित्वं चाऽस्य विवक्षिततीर्थकरापेक्षया द्रष्टव्यम्, “नमस्तीर्थाय" इति वचनात् तीर्थकरेणाऽपि तन्नमस्करणादिति / अथवा जीवादितत्त्वं प्रवक्तीति प्रवचनमिति व्युत्पत्तेादशाङ्गम्, गणिपिटकोपयोगानन्यत्वाद् वा चतुर्विधश्रीश्रमणसङ्घोऽपि प्रवचनमुच्यते। कृतो विहितो. यथोक्तप्रवचनस्य प्रणामो नमस्कारो येनं मया सोऽहं कृतप्रवचनप्रणामः। किंस्वरूपमावश्यकानुयोगम्? इत्याह- 'चरण-गुणसंगहं ति', चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यत इति चरणम्, अथवा चर्यते गम्यते प्राप्यते भवोदधेः परकूलमनेनेति चरणं व्रत-श्रमणधर्मादयो मूलगुणाः, गुण्यन्ते संख्यायन्त इति गुणाः पिण्डविशुद्ध्याद्युत्तरगुणरूपाः, चरणं च गुणाश्च चरणगुणाः, अथवा चरणशब्देन सर्वतो देशतश्च चारित्रमिह विवक्षितम् / गुणशब्देन तु दर्शनज्ञाने, ततश्च चरणं च गुणौ च चरणगुणाः, तेषां संगृहीतिः संग्रहश्चरणगुणसंग्रहः, तम्। स च देशतोऽपि भवतीत्याह- सकलं परिपूर्णम् // आह- नन्वावश्यकानुयोगस्तावदावश्यकव्याख्यानम्, चरण-गुणसंग्रहस्तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रसंगृहीतिरूपः, ततोऽत्यन्तं भिन्नाधिकरणत्वात् कथमनयोः सामानाधिकरण्यम?। जिससे या जिसमें जीवादि पदार्थों का प्रवचन किया जाता है। अथवा 'प्र' शब्द अव्यय होने से अनेक अर्थ का बोध कराता है, इसलिए 'प्र' यानी प्रधान, प्रशस्त, या आदि में (सर्वप्रथम) जो कहा जाय वह है- द्वादशाङ्ग गणिपिटक रूप प्रवचन / द्वादशाङ्ग का सर्वप्रथम (आदि में) कहा जाना विवक्षित तीर्थंकर की दृष्टि से संगत है, क्योंकि तीर्थंकरों ने भी 'नमः तीर्थाय' यह कह कर इस (तीर्थरूप प्रवचन) को नमस्कार किया है। अथवा जो जीवादितत्त्वों का निरूपण करता है, वह 'प्रवचन' है- . इस व्युत्पत्ति से 'द्वादशाङ्ग' तो प्रवचन है ही, उस द्वादशाङ्ग-गणिपिटक सम्बन्धी 'उपयोग' से अभिन्न होने कारण चतुर्विध श्रीश्रमणसंघ भी 'प्रवचन' है। उसे (द्वादशाङ्ग व चतुर्विध संघ को) नमस्कार किया है, ऐसा मैं (आवश्यक-अनुयोग का निरूपण करूंगा)। आवश्यक-अनुयोग का क्या स्वरूप है? इसलिए कहा- 'चरणगुणसंगह' / जिसका मुमुक्षु (मोक्षाभिलाषी लोग) आचरण करें, वह 'चरण' है। मुमुक्षुओं द्वारा संसार-सागर को पार (अंत) करने हेतु जो आचरित किया जाय, इसे जाना जाय या प्राप्त किया जाय, इस दृष्टि से व्रत व श्रमण-धर्म आदि मूलगुण ‘चरण' कहलाते हैं। गुण का अर्थ हैजिसका ‘गुणन' किया जाय, जिसे संख्या आदि में नियत किया जाय, इस दृष्टि से पिण्डविशुद्धि (भिक्षाचर्या-सम्बन्धी नियम) आदि उत्तरगुण 'गुण' हैं। चरण और गुण-इन का संग्रह ‘चरणगुणसंग्रह' हुआ। यहां ‘चरण' शब्द से देशचारित्र व सकलचारित्र-दोनों का ग्रहण विवक्षित समझना चाहिए। इसी प्रकार 'गुण' शब्द से यहां दर्शन व ज्ञान -इन दोनों का ग्रहण विवक्षित है। अतः चरण (यानी देशचारित्र व सर्वचारित्र) तथा गुण (यानी दर्शन व ज्ञान) -इनका संग्रह जो है, वह 'चरणगुणसंग्रह है। चूंकि वह 'देश' (आंशिक) रूप भी हो सकता है, उसका ग्रहण यहां नहीं है- इसे बताने के लिए कहा- 'सयलं' अर्थात सकल यानी परिपूर्ण। __ यहां पर प्रश्नकर्ता कहता है- [गाथा में 'आवश्यक अनुयोग' और 'चरणगुणसंग्रह' को अभिन्न (समान अधिकरण वाला) माना गया है। किन्तु] 'आवश्यक अनुयोग' तो आवश्यक का व्याख्यान हुआ, और ज्ञान-दर्शन-चारित्र के संग्रह को 'चरणगुणसंग्रह' कहा जाता है। इन दोनों के -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यम्, किन्तु “सामाइअंच तिविहं सम्मत्त सुअंतहा चरित्तं च" [सामायिकं च त्रिविध- सम्यक्त्वं श्रुतं तथा चारित्रं च] इत्यादिवक्ष्यमाणवचनादेकोऽपि सामायिकानुयोगस्तावत् संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकः, किं पुनः सकलावश्यकानुयोगः? ततश्च संपूर्णचरण-गुणसंग्रहयुक्तत्वादावश्यकानुयोगोऽपि संपूर्णचरण-गुणसंग्रहत्वेनोक्तः, यथा दण्डयोगाद् दण्डः पुरुषः; इत्यदोषः। अथवा चरण-गुणानां संग्रहोऽत्रावश्यकानुयोगेऽसौ चरण-गुणसंग्रह इति बहुव्रीहिपक्षे प्रेर्यमेव नास्ति, केवलमस्मिन् पक्षे सकलमिति विशेषणमावश्यकानुयोगस्य चरण-गुणसंग्रहसंपूर्णत्वापेक्षयैव द्रष्टव्यमिति, एतच्च कष्टगम्यमित्युपेक्ष्यते॥ . आह-ननु यदि "सामाइअं च तिविहं" इत्यादिवक्ष्यमाणवचनात् सामायिकस्य संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकत्वम्, तर्हि तदनुयोगकस्य तद्रूपत्वे किमायातम्? नैतदेवम्, सामायिकं हि व्याख्येयम्, अनुयोगस्तु व्याख्यानम्, व्याख्येय-व्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वादिहाऽभेदेन विवक्षितत्वाददोषः, इत्यलमतिचर्चयेति॥ अधिकरण (आश्रयभूत पदार्थ) पृथक्-पृथक् (भिन्न) हैं, अतः इन दोनों में सामानाधिकरण्य (समान, एक ही अधिकरण वाला होना) कैसे संगत हो सकता है? [जब उनमें समान-अधिकरणता नहीं, तब दोनों को अभिन्न रूप से गाथा में जो उपस्थापित किया गया है, वह संगत कैसे है?] उत्तर- यह सत्य है। किन्तु सामायिक तीन प्रकार की कही गई है- सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र, जिसका आगे कथन किया जाएगा। चूंकि एक भी 'सामायिक अनुयोग' सम्पूर्ण चरण-गुणों का संग्रहात्मक रूप है तो फिर सकल आवश्यक अनुयोग सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रह क्यों नहीं? दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति को ‘दण्ड रूप पुरूष' कहा जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्णचरणगुणसंग्रह से युक्त होने के कारण आवश्यक-अनुयोग को सम्पूर्ण चरणगुण-संग्रह कह दिया गया है, अतः (असंगति रूप) दोष नहीं है। अथवा इसका एक और समाधान यह है कि 'चरणगुणसंग्रह' में बहुव्रीहि समास है, जिससे अर्थ हुआ-- चरण-गुण का संग्रह जहां है, वह (आवश्यक अनुयोग)। इस समाधान की स्थिति में 'सकल' यह विशेषण 'आवश्यक' का न होकर आवश्यक के 'अनुयोग' का समझना चाहिए (क्योंकि आवश्यक तो स्वयं में सम्पूर्ण है ही)। 'सकल' इस विशेषण को चरण-गुण-सम्बन्धी संग्रह की पूर्णता का द्योतक समझना चाहिए। चूंकि यह समाधान थोड़ा कष्टबोध्य है, इसलिए इसे उपेक्षित किया जा रहा है। ... प्रश्नकर्ता पुनः शंका करता है- 'सामाइयं च तिविहं' इत्यादि कथन द्वारा आगे सामायिक के तीन प्रकार बताये गये हैं, यह सत्य है। किन्तु सम्पूर्ण चरणगुणसंग्रहात्मक 'सामायिक' की आवश्यक-अनुयोग से तद्रूपता अर्थात् अभिन्नता तो सिद्ध नहीं हुई? ..उत्तर- यह दोष नहीं है। क्योंकि 'सामायिक' व्याख्या करने योग्य -व्याख्येय है और 'अनुयोग' तो व्याख्यान है। व्याख्येय और व्याख्यान का एक ही अभिप्राय है, इसलिए दोनों में अभेद मानने से, दोनों में एकरूपता-अभिन्नता संगत है, अतः यहां कोई दोष नहीं है। अतः और अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 5 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेन च संपूर्णचरण-गुणसंग्रहलक्षणेन स्वरूपविशेषणेनाऽऽवश्यकानुयोगस्य महार्थतां दर्शयति भाष्यकारः॥ आह- ननु यदि त्वयाऽऽवश्यकानुयोगः स्वमनीषिकया वक्ष्यते, तदाऽनादेय एवायं प्रेक्षावताम्, छद्मस्थत्वे सति स्वतन्त्रतयाऽभिधीयमानत्वात्, रथ्यापुरुषवाक्यवत्, इति परवचनमाशय तदुपन्यस्तहेतोरसिद्धतामुपदर्शयन्नाह- 'गुरूवएसाणुसारेणं ति।' गृणन्ति तत्त्वमिति गुरवस्तीर्थकर-गणधरादयः, तेषामुपदेशो भणनम्, तदनुसारेण तत्पारतन्त्र्येणाऽऽवश्यकानुयोगमहं वक्ष्ये, न तु स्वमनीषिकया, अतः स्वतन्त्रतयाऽभिधीयमानत्वादित्यसिद्धो हेतुरिति भावः। यो हि छद्मस्थः सन् परमगुरूपदेशानपेक्षं स्वतन्त्रमेव वक्ति रथ्यापुरुषस्येव, तस्य वचोऽनादेयमिति वयमपि मन्यामहे, केवलं तदिह नास्ति, परमगुरूपदेशानुसारेणैवाऽऽवश्यकानुयोगस्य मयाऽभिधीयमानत्वादिति। तदेवं कृतप्रवचनप्रणामो गुरूपदेशनिश्रया सकलचरण-गुणसंग्रहरूपमावश्यकानुयोगमहं वक्ष्य इति पिण्डार्थः॥ आह- ननु श्रीमद्भद्रबाहुप्रणीता सामायिकनियुक्तिरिह भाष्ये व्याख्यास्यते, तत्कथमिदमावश्यकानुयोगोऽभिधीयते?। . इस प्रकार भाष्यकार ने (आवश्यक-अनुयोग का सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रहरूप विशेषण देकर) 'आवश्यक अनुयोग' की महार्थता (महान्-विस्तृत आशय से युक्त होने की विशेषता) को प्रकट किया है। “यदि आवश्यक अनुयोग का व्याख्यान अपनी (सीमित) बुद्धि से अर्थात् अपनी मनमर्जी से किया जा रहा हो, तब तो यह प्रेक्षावान् (समझदार) व्यक्तियों के लिए अनादेय (अग्राह्य) हो जाएगा, क्योंकि छद्मस्थ (असर्वज्ञ) होते हुए जो कुछ स्वतन्त्रता (मनमर्जी) से कहा जाता है, वह प्रेक्षावानों के लिए अनादेय होता है, जैसे गली (राह) चलते (सामान्य) पुरुष के वचन की तरह।' इस परकीय शंका को मन में रखकर उसमें उपन्यस्त हेतु (स्वतन्त्रता-मनमर्जी से कहे जाने रूप) की असिद्धता को बताने के लिए कहा- गुरुवएसाणुसारेण, अर्थात् गुरुजनों से प्राप्त उपदेश के अनुसार (व्याख्यान करूंगा, न कि अपनी मनमर्जी से)। जो तत्त्व को कहते हैं, वे गुरु हैं, तीर्थंकर व गणधर आदि / वचन / का अर्थ है- उनका उपदेश / उसके अनुसार, उनके कथन की परतन्त्रता के साथ मैं आवश्यक अनुयोग कहूंगा, अपनी बुद्धि से नहीं। अतः 'स्वतन्त्रता से कहा गया है'- यह हेतु असिद्ध है, अनुपयुक्त है। क्योंकि जो छद्मस्थ होता हआ परमगुरु के उपदेश की अपेक्षा न करके स्वतन्त्रता से कहता है, गली चलते पुरुष की तरह, उसका वचन ग्रहण करने योग्य नहीं है। ऐसा हम भी मानते हैं। किन्तु वह स्थिति यहां नहीं है। क्योंकि परम गुरु के उपदेश के अनुसार ही यहां मेरे द्वारा आवश्यक सम्बन्धी निरूपण किया जा रहा है। इस प्रकार 'प्रवचन को प्रणाम कर के गुरु-उपदेश को आधार मानकर सम्पूर्ण चरणों व गुणों के संग्रह रूप आवश्यक-अनुयोग को कहूंगा' -यह गाथा का अर्थ हुआ। प्रश्नकर्ता कहता है- श्रीमद् भद्रबाहु के द्वारा प्रणीत सामायिक नियुक्ति की यहां भाष्य रूप में यदि व्याख्या की जा रही है तो इसे [नियुक्ति-अनुयोग कहा जाना चाहिए] आवश्यक अनुयोग कहा जाना संगत कैसे है? Ma 6 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतदेवम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, तथाहि- सामायिकस्य षड्विधावश्यकैकदेशत्वादावश्यकरूपता तावद् न विरुद्ध्यते, तनियुक्तिस्तु तद्व्याख्यानरूपैव, व्याख्येय-व्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वादेकत्वमित्यनन्तरमेवोक्तम्। तस्मात् सामायिकस्य तन्निर्युक्तेश्च सर्वस्याऽप्यावश्यकत्वात्, तस्य चेह व्याख्यायमानत्वादावश्यकानुयोगरूपता भाष्यस्य न विहन्यते, इत्यलं विस्तरेण // अस्याश्च गाथायाः प्रथमपादेन विघ्नसंघातविघातार्थं मङ्गलहेतत्वादिष्टदेवतानमस्कारः कुतः, शेषपादत्रयेण त्वभिधेयप्रयोजन-संबन्धाभिधानमकारि। तत्रावश्यकानुयोगं वक्ष्य इति ब्रुवताऽऽवश्यकानुयोगोऽस्य शास्त्रस्याऽभिधेय इति साक्षादेवोक्तम्। प्रयोजनसंबन्धौ तु सामर्थ्यादुक्तौ, तथाहि-संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकत्वं दर्शयता ज्ञान-दर्शन-चारित्राधारताऽस्य शास्त्रस्य दर्शिता भवति, तद्रूपाणि च शास्त्राणि पठन-श्रवणादिभिरनुशील्यमानानि स्वर्गाऽपवर्गप्राप्तिनिबन्धनानि भवन्तीति प्रतीतमेव, अतः स्वर्गमोक्षफलावाप्तिरस्य शास्त्रस्य प्रयोजनमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति। अभिधेयाऽभिधायकयोश्च, वाच्य-वाचकभावलक्षणः संबन्धोऽप्यर्थादभिहितो भवति। अस्यां च संबन्ध-प्रयोजनाऽभिधेयादिचर्चायां बह्वपि वक्तव्यमस्ति, केवलं बहुषु शास्त्रेष्वतिचर्चितत्वेन सुप्रतीतत्वात्, तथाविधसाध्यशून्यत्वाच्च नेहोच्यते। उत्तर- यह (असंगति की) बात नहीं है। क्योंकि आपने हमारे कथन के अभिप्राय को समझा ही नहीं है। सामायिक तो छह प्रकार के आवश्यक का एक भाग है, इसलिए 'सामायिक' को 'आवश्यक' रूप कहने में कोई विरोध नहीं है। उसकी नियुक्ति भी उसका व्याख्यान रूप ही है। व्याख्येय और व्याख्यान -इन दोनों में एकत्व (अभेद) मानकर दोनों की एकता है- ऐसा हमने पूर्व में बताया ही है। इसलिए सामायिक और उसकी नियुक्ति सभी ‘आवश्यक' रूप हैं, और उसका यहां व्याख्यान है, इस दृष्टि से भाष्य को 'आवश्यक-अनुयोग' कहना असंगत नहीं है। अब और अधिक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। इस गाथा के प्रथम पाद द्वारा इष्टदेवता को नमस्कार किया गया है क्योंकि वह विघ्न-समूह के विनाश में मङ्गल-हेतु है और शेष तीन पादों से अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध का कथन किया गया है। वहां गाथा में 'आवश्यक अनुयोग को कहूंगा'- इस कथन द्वारा 'आवश्यक अनुयोग इस शास्त्र का अभिधेय (कथन का विषय) है', ऐसा साक्षात् कह दिया गया है। प्रयोजन और सम्बन्ध तो सामर्थ्य से (अर्थात् स्वतः, प्रकारान्तर से) अभिहित हो गए हैं। इसे सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रहयुक्त बता कर यह संकेत कर दिया गया है कि यह शास्त्र ज्ञान-दर्शन-चारित्र का आधार है। और, जो भी ऐसे शास्त्र होते हैं, यदि उनका पठन-श्रवण व अनुशीलन किया जाय तो वे स्वर्ग व मुक्ति की प्राप्ति में साधन होते हैं- यह सभी जानते हैं। अतः ‘स्वर्ग व मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होना इस शास्त्र का प्रयोजन है'- यह सामर्थ्य से (स्वतः, प्रकारान्तर से) अभिहित हो गया है। अभिधेय और अभिधायक में परस्पर वाच्य-वाचकभाव लक्षण सम्बन्ध है- यह भी अर्थतः (अर्थानुशीलन से) अभिहित हो जाता है। सम्बन्ध, प्रयोजन, अभिधेय- इनकी चर्चा में यद्यपि बहुत कुछ वक्तव्य है, किन्तु, अनेक शास्त्रों में यह विषय अतिचर्चित होने से सभी को ज्ञात है, और यही (अर्थात् इस पर चर्चा करना) हमारा मुख्य प्रयोजन भी नहीं है, इसलिए हम यहां इस सम्बन्ध में (अधिक) नहीं कह रहे हैं। Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 7 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेन चाभिधेयाद्यभिधानेन शास्त्रश्रवणादौ शिष्यप्रवृत्तिःसाधिता भवति, अन्यथा हि'न श्रवणादियोग्यमिदम, निरभिधेयत्वात, काकदन्तपरीक्षावत्', इत्याशक्य नेह कश्चित् प्रवर्तते। उक्तं च-"सीसपवित्तिनिमित्तं अभिधेयपओयणाई संबंधो। वत्तव्वाइं सत्थे तस्सुन्नत्तं सुणिज्जिहरा" // 1 // [संस्कृतच्छाया:- शिष्यप्रवृत्तिनिमित्तम् अभिधेयप्रयोजने सम्बन्धः। वक्तव्यानि शास्त्रे, तच्छून्यत्वं श्रृणुयादितरथा // ] एवं मङ्गलाद्यभिधाने व्यवस्थापिते कश्चिदाह-नन्वर्हदादय एवेष्टदेवतात्वेन प्रसिद्धाः, तत्किमिति तान् विहाय ग्रन्थकृता प्रवचनस्य नमस्कारः कृतः? इति। अत्रोच्यते- "नमस्तीर्थाय" इति वचनादर्हदादीनामपि प्रवचनमेव नमस्करणीयम्, अपरं चाहदादयोऽप्यस्मदादिभिः प्रवचनोपदेशेनैव ज्ञायन्ते, तीर्थमपि च चिरकालं प्रवचनावष्टम्भेनैव प्रवर्तते, इत्यादिविवक्षयाऽहंदादिभ्योऽपि प्रवचनस्य प्रधानत्वात्, ज्ञानादिगुणात्मकत्वाच्चेष्टदेवतात्वं न विरुध्यते। प्रवचननमस्कारं च कुर्वद्भिः पूज्यैः सिद्धान्ततत्त्वागमरसानुरञ्जितहृदयत्वादात्मनः प्रवचनभक्त्यतिशयः प्रख्यापितो भवति, इत्यलमतिविस्तरेण। मङ्गलादिविचारविषये ह्याक्षेपपरिहारादिकमिहैव ग्रन्थकारोऽपि न्यक्षेण वक्ष्यतीति॥ तदेवमियं गाथा, सर्वोऽपि चायं ग्रन्थो महामतिभिः पूर्वसूरिभिर्गम्भीरवाक्यप्रबन्धैर्युत्पन्नभणितिप्रकारेण च व्याख्यातः। अभिधेय आदि के कथन के माध्यम से ग्रन्थकार ने इस शास्त्र के श्रवण आदि में शिष्यों को प्रवृत्त कराया है। अन्यथा 'यह शास्त्र श्रवणादि के अयोग्य है, अभिधेय-रहित होने से, कौए के दांतों की परीक्षा (के निर्देशक ग्रन्थ) की तरह' इस अनुमान के आधार पर आशंका-युक्त कोई भी व्यक्ति इसमें प्रवृत्त नहीं होता। कहा भी है- सीसपवित्तिनिमित्तं अहिधेयपयोयणाई संबंधो / वत्तव्वाइं सत्थे तस्सुनत्तं सुणिज्जिहरा // अर्थात् शिष्यों की शास्त्र में प्रवृत्ति हो -इस दृष्टि से शास्त्र के प्रारम्भ में अभिधेय, प्रयोजन : व सम्बन्ध का कथन करना चाहिए, इनसे रहित शास्त्र का श्रवण नहीं किया जाता। - इस प्रकार मङ्गल आदि से सम्बन्धित कथन की सम्पन्नता पर कोई शंकाकार कहता हैवास्तव में जब अर्हत् आदि इष्ट देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं, तो ग्रन्थकर्ता के द्वारा उनको छोड़कर प्रवचन को नमस्कार क्यों किया गया है? इसका समाधान यहां यह है- 'नमस्तीर्थाय' इस वचन के आधार पर अर्हन्त आदि भी 'प्रवचन' को नमस्कार करते हैं, दूसरे, अर्हन्त आदि को भी हम प्रवचनउपदेश से ही जानते हैं। तीर्थ भी चिरकाल तक प्रवचन के द्वारा ही प्रवर्तित होता है- इत्यादि अभिप्रायों से प्रवचन को प्रधानता (उत्कृष्टता) प्राप्त है। ज्ञानादि गुणों (से युक्त होने) के कारण 'प्रवचन' को इष्टदेवता मानने में कोई विरोध नहीं है। सिद्धान्त, तत्त्व व आगमों के रस में अनुरक्त रहने वाले पूज्य भाष्यकार ने 'प्रवचन' को नमस्कार कर अपनी अत्यधिक प्रवचन-भक्ति को प्रकट किया है। इस पर अब और अधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। मङ्गल आदि से सम्बन्धित विचार के प्रसंग में (सम्भावित) आक्षेप व उनके परिहार आदि का निरूपण यहीं स्वयं ग्रन्थकार (भाष्यकार) गौणरूप से करने वाले हैं। महान् बुद्धिशाली प्राचीन आचार्यों ने भी इस (प्रथम) गाथा तथा (परवर्ती) समस्त ग्रन्थ का गम्भीर वाक्य-रचना तथा विद्वत्तापूर्ण-उक्तियों द्वारा व्याख्यान किया है। वह व्याख्यान यद्यपि युक्तियुक्त Me 8 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्च व्याख्यानमित्थं युक्तमपि "गौराग्यां गौरत्वपाण्डुरोग"-न्यायेन मतिमान्द्यात् सांप्रतकालीनशिष्याणां न तथाविधार्थावगमहेतुतां प्रतिपद्यते, इत्याकलय्य मन्दमतिनाऽपि मया तेषां मन्दतरमतीनां शिष्याणामर्थावगमनिमित्तममुना ऋजुभणितिप्रकारेणेयं गाथा व्याख्याता, सर्वोऽपि च ग्रन्थोऽयमनेनोल्लेखेन व्याख्यास्यत इति प्रतिपत्तव्यम्।न च वक्तव्यम्-येषां महामतिपूर्वपुरुषवचनैरर्थावबोधो न संपद्यते, तेषां मन्दबुद्धर्भवतो वचनेन कुतोऽयं संपत्स्यते? इति, यतो जायत एव समानशीलवचनैः समानशीलानामर्थप्रतिपत्तिः, यदाह"गामिल्लुआण गामिल्लुएहिं मिच्छाण होन्ति मिच्छेहिं / सम्मं पडिवत्तीउ अत्थस्स न विबुहभणिएहिं // 1 // निअभासाए भणंते समाणसीलम्मि अत्थपडिवत्ती। जायइ मंदस्स वि न उण विविहसक्कयपबंधेहिं"॥२॥[संस्कृतच्छाया-ग्रामीणानां ग्रामीणैर्लेच्छानां भवन्ति म्लेच्छैः। सम्यक् प्रतिपत्तयोऽर्थस्य न विबुधभणितैः॥ निजभाषया भणति समानशीलेऽर्थप्रतिपत्तिः। जायते मन्दस्यापि न पुनर्विधसंस्कृतप्रबन्धैः॥] इत्यलमतिबहुभाषितेन // इति गाथार्थः॥१॥ आवश्यकानुयोगोऽत्राऽभिधास्यत इत्युक्तम्, किं पुनरस्य फलादिकम्, यदवगम्य वयं तच्छ्रवणादौ प्रवर्तामहे?, इति प्रेक्षावच्छिष्यवचनमाशङ्कयाऽऽवश्यकानुयोगस्य फलादीन्यभिधित्सुस्तत्संग्रहपरां द्वारगाथामाह है, तथापि, जिस प्रकार गौरवर्णा नारी को कोई (मन्दमति) व्यक्ति पाण्डुरोगग्रस्त मान बैठता है, उसी प्रकार आज के शिष्यों के लिए, उनके मन्दमति होने के कारण, (वह व्याख्यान) अपने वास्तविक अर्थ का बोधक नहीं हो पाता है- इस स्थिति को दृष्टिगत रख कर मन्दबुद्धि होते हुए भी मैंने मन्दतरबुद्धि वाले शिष्यों को अर्थ-बोध कराने हेतु इन (उपर्युक्त) सरल उक्तियों द्वारा इस गाथा का व्याख्यान किया है और (आगे) समस्त ग्रन्थ का भी व्याख्यान इसी निर्देश के अनुरूप किया जायेगा- यह ज्ञातव्य है। 'जब महान् बुद्धिशाली महापुरुषों के कथन से भी जिन्हें अर्थज्ञात न हो पाता है, तब आप जैसे मन्दमति के वचनों से उन्हें अर्थबोध कैसे हो जायेगा?' - ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि एक समान शील (आचार) व भाषा वालों में परस्पर अर्थबोध (सहजतया) हो ही जाता है। कहा भी है- ग्रामीणों को ग्रामीणों (के वचनों) से तथा म्लेच्छों को म्लेच्छों (के वचनों) से अर्थ-बोध अच्छी तरह हो जाता है, न कि पाण्डित्यपूर्ण वचनों से। एक मन्द व्यक्ति को भी, जब उसे समान स्वभाव वाला व्यक्ति अपनी भाषा में कुछ कहता है तो, उसे अर्थ-बोध हो जाता है, न कि विविध संस्कृत-रचनाओं से / अतः यहां और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार गाथा का अर्थ पूरा हुआ // 1 // (आवश्यकानुयोग के विविध द्वार और उनके भेद) ___आवश्यक-सम्बन्धी अनुयोग का निरूपण इस ग्रन्थ में किया जायेगा- ऐसा (पूर्व में) कहा गया है। उसके फल आदि क्या हैं जिसे जानकर हम उसके श्रवण में प्रवृत्त हों? -इस प्रकार किसी समझदार शिष्य के (सम्भावित जिज्ञासात्मक) वचन की आशंका में, आवश्यक-अनुयोग के फल आदि के निरूपण करने के इच्छुक (भाष्यकार) उन्हें समाहित करने वाली द्वार-गाथा का यहां कथन कर रहे हैंvia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 9 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्स फल-जोग-मंगल-समुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेय-निरुत्त-क्कम-पओयणाइं च वच्चाई॥२॥ [संस्कृतच्छाया:- तस्य फल-योग-मङ्गल-समुदायार्थास्तथैव द्वाराणि / तद्भेदनिरुक्त-क्रम-प्रयोजनानि च वाच्यानि॥] व्याख्या- तस्येत्यावश्यकानुयोगस्य, प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिमित्तं फलं मोक्षप्राप्तिलक्षणं तावदत्र ग्रन्थे वक्तव्यम्। ततोऽस्य योगः शिष्यप्रदाने संबन्धोऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः। आवश्यकानुयोगे च क्रियमाणे किं मङ्गलमित्येतदपि निरूपणीयम्।. सामायिकाद्यध्ययनानां 'सावजजोगविरई उक्कित्तण गुणवओ च पडिवत्ती' इत्यादिगाथया समुदायार्थश्च सावद्ययोगविरत्यादिकोऽभिधानीयः। फलं च योगश्च मङ्गलं च समुदायार्थश्चेति समासः। 'तहेव दाराई ति' तथा द्वाराणि चोपक्रमनिक्षेपादीनि कथनीयानि / तेषां द्वाराणां भेदो वक्तव्यः, तद्यथा- आनुपूर्वी-नामप्रमाण-वक्तव्यता-ऽर्थाधिकार-समवतारभेदादुपक्रमः षोढा, ओघनिष्पन्न-नामनिष्पन्न-सूत्रालापकनिष्पन्न-भेदाद् निक्षेपस्त्रिधा, सूत्रनियुक्तिभेदादनुगमो द्विधा, नैगमादिभेदाद नयाः सप्तविधा इत्यादि। उपक्रमणमुपक्रमः, निक्षेपणं निक्षेप इत्यादि। निरुक्तं च शब्दव्युत्पत्तिरूपं भणनीयम्। तथा 'कम त्ति' तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथममुपक्रम एव ततो यथाक्रमं निक्षेपादय एव, इत्येवंरूपो योऽसौ नियतः क्रमः युक्त्याऽभिधानतो निर्देष्टव्यः, युक्तिं चात्रैव वक्ष्यति, तद्यथा- नानुपक्रान्तं निक्षिप्यते, नाऽनिक्षिप्तमनुगम्यत इत्यादि। . (2) तस्स फल-जोग-मङ्गल-समुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेय-निरुत्त-क्कम-पओयणाइं च वच्चाई॥ [(गाथा-अर्थः) उस (आवश्यक-अनुयोग) के फल, योग, मङ्गल, समुदायार्थ तथा उपक्रम, निक्षेप आदि द्वार, (एवं उन द्वारों) के भेद, नियुक्ति, क्रम व प्रयोजन भी कथनीय हैं।] व्याख्याः- तस्स= उस (आवश्यक-अनुयोग) का, समझदार व्यक्तियों को प्रवृत्ति कराने में निमित्त- मोक्ष-प्राप्ति रूप 'फल' का कथन इस ग्रन्थ में अभिधेय है। इसी तरह, शिष्यों को यह अनुयोग क्यों अभिधेय है- यह बताने वाले 'योग', अर्थात् सम्बन्ध या प्रस्तुति का कथन भी अपेक्षित है। आवश्यक-अनुयोग करने में कौन-सा (या क्यों) मङ्गल है- इसका निरूपण भी करणीय है। सामायिक आदि अध्ययनों के समुदित अर्थ रूप 'सावद्ययोग-विरति' इत्यादि का कथन भी 'सावज्जजोगविरई उक्कित्तण गुणवओ पडिवत्ती' (गा. 902) इत्यादिगाथा के रूप में किया जाना है। 'तहेव दाराई ति’= इसी प्रकार, उपक्रम, निक्षेप आदि अनुयोग-द्वारों का कथन भी करणीय है। उन द्वारों के भेदों का निरूपण भी अपेक्षित है। जैसे- उपक्रम छ प्रकार का है- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार। निक्षेप भी तीन प्रकार का है-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न / अनुगम के दो प्रकार हैं- सूत्र व नियुक्ति / नय के नैगम आदि सात भेद हैं, इत्यादि। उपक्रम (प्रारम्भ) करना 'उपक्रम' है और (नाम, स्थापना आदि रूपों में) निक्षेपीकरण 'निक्षेप' है। निरूक्त से तात्पर्य है- शाब्दिक व्युत्पत्ति का कथन / और कम त्ति= इन्हें.क्रमानुसार Ma 10 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथोपक्रमादिद्वाराणामेव प्रयोजनं शास्त्रोपकाररूपं नगरदृष्टान्तेन वाच्यम्, यथा सप्राकारं महानगरं किमप्यकृतद्वारं लोकस्याऽनाश्रयणीयं भवति, एकादिद्वारोपेतमपि दुःखनिर्गमप्रवेशं जायते, चतुरोपेतं तु सर्वजनाभिगमनीयं सुख-निर्गमप्रवेशं च संपद्यते, एवं शास्त्रमप्युपक्रमादिचतुर्दारयुक्तं सुबोधम्, सुखचिन्तन-धारणादिसंपन्नं च भवतीति / एवमुपक्रमादिद्वाराणां सुखावबोधादिरूपः शास्त्रोपकारः प्रयोजनमिह वक्ष्यत इति भावः। भेदश्च निरुक्तं च क्रमश्च प्रयोजनं चेति द्वन्द्वं कृत्वा पश्चात् तेषामुपक्रमादिद्वाराणां भेद-निरुक्त-क्रम-प्रयोजनानीत्येवं - षष्ठीतत्पुरुषसमासो विधेयः। चः समुच्चये। वाच्यानीति यथायोगमर्थतः सर्वत्र योजितमेव। इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः॥२॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकार एव दिदर्शयिषुः"यथोद्देशं निर्देशः" इति कृत्वा प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमावश्यकानुयोगफलप्रतिपादिकां तावद् गाथामाह कहना चाहिए, अर्थात् उपक्रमादि द्वारों में सर्वप्रथम उपक्रम, और उसके बाद (ही) निक्षेप आदि का कथन हो, इस प्रकार जो नियत क्रम है, उसका युक्ति व कथन द्वारा निर्देश भी अपेक्षित है। युक्ति का कथन यहीं आगे करेंगें। उदाहरणार्थ- बिना उपक्रम के निक्षेप नहीं किया जाता तथा बिना निक्षेप के अनुगम नहीं किया जाता। ये उपक्रम आदि 'द्वार' शास्त्र के उपकारक होते हैं और यही (शास्त्रोपकारकता) उनका प्रयोजन है। इसका कथन नगर-दृष्टान्त के माध्यम से करणीय है। जैसे- कोई महानगर भले ही (विविध) प्राकारों से युक्त हो, किन्तु यदि उसमें द्वार नहीं हों तो वह किसी के लिए भी आश्रयणीय नहीं हो पाता। एक (दो या तीन) आदि द्वारों वाले महानगर में प्रवेश व उससे निष्क्रमण (रूप आवागमन) कुछ दुःखसाध्य होता है। इसके विपरीत, चार द्वारों से युक्त महानगर सभी लोगों के लिए प्रवेश करने या निकलने में सुगम होता है। इसी प्रकार, उपक्रम आदि चार द्वारों से युक्त शास्त्र भी सुबोध्य होता है और चिन्तन व धारण आदि की दृष्टि से भी सुगम होता है। इस प्रकार, उपक्रम आदि द्वारों की- सुखपूर्वक अर्थबोध कराने की दृष्टि से -जो शास्त्र-उपकारकता है, उसका भी निरूषण यहां करणीय है, यह (गाथा का) तात्पर्य है। भेद, निरुक्त, क्रम व प्रयोजन- इनका द्वन्द्व समास कर, बाद में उन उपक्रम आदि द्वारों के भेद, निरूक्त, क्रम व प्रयोजन, इस प्रकार (उनका 'तत्' पद के साथ) षष्ठी तत्पुरुष समास करना चाहिए। 'च' यह पद समुच्चय-बोधक है। सबके अन्त में 'वाच्यानि' (=कथनीय हैं) यह पद सब में जोड़ना चाहिए। इस प्रकार, द्वारगाथा का संक्षिप्त अर्थ (पूर्ण) हुआ // 2 // (आवश्यक और अनुयोग की ज्ञान-क्रियामयता) उद्देश (प्रयोजन व जिज्ञासा) के अनुरूप ही निर्देश (निरूपण) किया जाना चाहिए- इसे दृष्टि में रख कर, विस्तार से अर्थ (विषयवस्तु) के निरूपण करने की इच्छा से, स्वयं भाष्यकार समझदार लोगों की (इस शास्त्र के श्रवणादि में) प्रवृत्ति हो- इस दृष्टि से आवश्यक-अनुयोग के फल का निदर्शन करने वाली गाथा को कह रहे हैं ---- विशेषावश्यक भाष्य -------- 11 2 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाण-किरियाहिं मोक्खो तम्मयमावस्सयं जओ तेण। तव्वक्खाणारम्भो कारणओ कजसिद्धि त्ति॥३॥ [संस्कृतच्छाया:- ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, तन्मयमावश्यकं यतः तेन / तद्-व्याख्यानारम्भः, कारणतः कार्यसिद्धिः इति // ] व्याख्या- ज्ञानं च सम्यगवबोधरूपम्, क्रिया च तत्पूर्वकसावद्याऽनवद्ययोगनिवृत्ति-प्रवृत्तिरूपा, ज्ञानक्रिये, ताभ्यां तावद् मोक्षोऽशेषकर्ममलकलङ्काभावरूपः साध्यते, इति सर्वेषामपि शिष्टानां प्रमाणसिद्धमेव, दर्शनस्य ज्ञान एवाऽन्तर्निहितत्वादिति। यदि नाम ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः, तर्हि आवश्यकानुयोगस्य किमायातम्, येन फलवत्तया प्रेक्षावतां तत्र प्रवृत्तिः स्यात्?, इत्याहतन्मयमावश्यकम्-ताभ्यां ज्ञान-क्रियाभ्यां निर्वृत्तं तन्मयं ज्ञान-क्रियास्वरूपमावश्यकम्, तत्कारणत्वात. इति भावः। यथा ह्यायुर्वृद्धिकारणत्वेनोपचाराल्लोके घृतमायुरुच्यते, नड्वलोदकं पादरोग: कारणत्वात् तथैवाऽभिधीयते, एवं प्रस्तुतानुयोगविषयीकृतं सामायिकादिषडध्ययनसूत्रात्मकमावश्यकमपि सम्यग्ज्ञान-क्रियाकारणत्वात् तत्स्वरूपमेव, तदध्ययन-श्रवण-चिन्तनतदुक्ताचरणप्रवृत्तानामवश्यं सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तेः। तस्मादुक्तन्यायेन ज्ञान-क्रियाऽऽत्मकं यत आवश्यकम्, अतस्तस्याऽऽवश्यकस्य व्याख्यानमनुयोगस्तव्याख्यानं तस्याऽऽरम्भः प्रेक्षावता क्रियमाणो न विरुध्यते, आवश्यकात् सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तिद्वारेण मोक्षलक्षणफलसिद्धेः॥ (3) नाणकिरियाहिं मोक्खो, तम्मयमावस्सयं जओ तेण / तव्वक्खाणारम्भो कारणओ कज्जसिद्धि त्ति // [(गाथा-अर्थः) ज्ञान व क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है। चूंकि आवश्यक भी उन. (ज्ञान व क्रिया) से युक्त है, इसलिए उस (आवश्यक-अनुयोग) के व्याख्यान का प्रारम्भ किया जा रहा है, क्योंकि कारण से कार्य की सिद्धि होती है।] __ व्याख्याः- ज्ञान यानी सम्यक् बोध। क्रिया यानी ज्ञान-पूर्वक सावध (सदोष) 'योग' से निवृत्ति व अनवद्ययोग में प्रवृत्ति / ज्ञान और क्रिया- इन दोनों से समस्त कर्म-कलङ्क के अभाव रूप मोक्ष (का लाभ) होता है- यह सभी शिष्ट जनों को प्रमाण-प्रतीत ही है। यहां दर्शन को ज्ञान में ही अन्तर्निहित किया गया है। "अच्छा! ज्ञान व क्रिया से मोक्ष मिलता है- इस कथन का आवश्यकअनुयोग से क्या सम्बन्ध है जिससे कि फल-अभ्यर्थी प्रेक्षावान् (समझदार) इसमें प्रवृत्त हों?" इस शंका को दृष्टिगत रख कर कहा- तम्मयं आवस्सयं ति। तात्पर्य यह है कि ज्ञान व क्रिया -इन दोनों से तन्मय यानी समन्वित यह ज्ञानक्रियास्वरूपी 'आवश्यक' है, और इस प्रकार यह (भी) उस (मुक्ति की प्राप्ति) का कारण है, इसलिए। जैसे घृत आयु-वृद्धि में कारण होता है- इसलिए लोकव्यवहार में उपचार-कथन से 'घृत आयु है' -ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार नड्वल-उदक (सरकण्डों से व्याप्त जल) को पादरोग में कारण होने से 'नड्वलोदक पादरोग है' ऐसा कथन किया जाता है। उसी तरह, प्रस्तुत अनुयोग (व्याख्यान) की विषय-वस्तु और सामायिक आदि छः अध्ययनों से युक्त Na 12 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्वित्थं तर्हि आवश्यकात् सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तिः, ताभ्यां च मोक्षलक्षणफलसिद्धिः, इत्येवमावश्यकस्यैव पारम्पर्येण मोक्षात्मकं फलं स्यात्, न पुनस्तदनुयोगस्य, फलचिन्ता त्वस्यैवेह प्रस्तुता, इति चेत् / सत्यम्, किन्त्वावश्यकं व्याख्येयम्, तद्व्याख्यानं चानुयोगः, व्याख्याने च व्याख्येयगत एव सर्वोऽभिप्रायः प्रकटीक्रियते, अतो व्याख्येयस्य यत्फलम्, व्याख्यानस्य च सुतरामवसेयम्, तयोरेकाभिप्रायत्वात् / तस्माद् मोक्षलक्षणं फलमभिवाञ्छताऽऽवश्यकानुयोगेऽवश्यं प्रवर्तितव्यमेव, ततोऽपि ज्ञान-क्रियाप्राप्तेः, ताभ्यां च मोक्षफलसिद्धिरिति॥ यदि नामावश्यकानुयोगतो ज्ञान-क्रियाऽवाप्तिः, ताभ्यां च मोक्षसिद्धिः, तथापि किमिति तत्र प्रवर्तितव्यम्, न पुनर्यत्र कुत्रचित् षष्टितन्त्रादौ?, इत्याह- कारणात् कार्यसिद्धिः, नाऽकारणादिति कृत्वा; कारणे हि सुविवेचिते प्रवर्तमानाः प्रेक्षावन्तः समीहितमप्रतिहतं कार्यमासादयन्ति, नाऽकारणे, अन्यथा तृणादपि हिरण्य-मणि-मौक्तिकाद्यवाप्तेः सर्वं विश्वमदरिद्रं स्यात्। कारणं च पारम्पर्येणावश्यकानुयोग एव मोक्षस्य, न षष्टितन्त्रादिकम्, ज्ञान-क्रियाजननद्वारेण तस्य मोक्षसंसाधकत्वात्, इतरस्य तु पारम्पर्येणाऽपि तदसाधकत्वात् // इति गाथार्थः॥ उक्तं फलद्वारम् // 3 // यह 'आवश्यक' भी, सम्यग्ज्ञान-क्रिया में कारण होने से, ज्ञान-क्रिया स्वरूप ही है, क्योंकि उसके अध्ययन, श्रवण, चिन्तन एवं उसके द्वारा प्रतिपादित आचरण में प्रवृत्ति करने वालों को अवश्य ही सम्यग्ज्ञान व (सम्यक्) क्रिया की प्राप्ति होगी। इस प्रकार, उक्त न्याय (दृष्टि) से, चूंकि 'आवश्यक' ज्ञान-क्रियात्मक है, अतः प्रेक्षावान् द्वारा उस 'आवश्यक' के व्याख्यान रूप 'अनुयोग' का व्याख्यान रूप प्रारम्भ किया जाना विरोधपूर्ण नहीं है, क्योंकि 'आवश्यक' से सम्यक् ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होकर, मोक्ष रूप फल की सिद्धि होगी। ...(शंका-) “अच्छा, यदि ऐसा है, कि 'आवश्यक' से सम्यक् ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति, और उनकी प्राप्ति से मोक्ष रूप फल की सिद्धि होगी, तब तो यह मोक्ष रूप फल परम्परया 'आवश्यक' का हुआ, न कि आवश्यक-अनुयोग का? किन्तु फल का निरूपण तो इसी (आवश्यक-अनुयोग) का विचारणीय था।” (उत्तर-) यह सही है, किन्तु जिसकी व्याख्या होती है वह तो 'आवश्यक' है, उसका घ्याख्यान ही तो 'अनुयोग' है, अतः व्याख्यान (रूप अनुयोग) में उन्हीं अर्थों का निरूपण किया जायगा जो व्याख्येय (आवश्यक) में निहित हैं, इस दृष्टि से व्याख्येय (आवश्यक) का जो (मुक्ति-प्राप्ति रूप) फल है, वह फल व्याख्यान (रूप अनुयोग) का भी स्वतः सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उन दोनों (व्याख्येय- आवश्यक, व्याख्यान- अनुयोग) का अभिप्राय (प्रयोजन) एक ही है। इसलिए जो मोक्ष रूप फल को पाना चाहते हैं, उन्हें आवश्यक-अनुयोग में अवश्य प्रवृत्त होना चाहिए, उस (अनुयोग में प्रवृत्त होने) से ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होगी और उससे मोक्ष फल की सिद्धि होगी। _ (शंका-) अच्छा, चलो मान लिया कि आवश्यक-अनुयोग से ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होती है और उनसे मोक्ष की सिद्धि होती है, किन्तु (इस मोक्ष की सिद्धि हेतु) इसी आवश्यक-अनुयोग में ही प्रवृत्ति क्यों करनी चाहिए, और अन्य किसी (तथाकथित मोक्ष-साधक) षष्टितन्त्र (संख्या) आदि शास्त्रों में क्यों नहीं? (समाधानः-) इस (शंका के निराकरण के लिए कहा- कारणात् कार्यसिद्धिः, ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- 13 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ योगद्वारमभिधित्सुराह भव्वस्स मोक्खमग्गाहिलासिणो ठियगुरूवएसस्स। आईए जोग्गमिणं बाल-गिलाणस्स वाऽऽहारं // 4 // [संस्कृतच्छाया:- भव्यस्य मोक्षमोर्गाभिलाषिणः स्थितगुरूपदेशस्य। आदौ योग्यमिदं बालग्लानयोरिवाऽऽहारम्॥] व्याख्या- यदादौ प्रतिज्ञातम्-शिष्यप्रदानेऽस्य योगोऽवसरो वाच्य इति / तत्राह-समस्तद्वादशाडग्यध्ययनकालस्यादौ / प्रथममिदं षड्विधमावश्यकं योग्यमुपदिशन्ति मुनयः, शेषसमग्रश्रुतप्रदानकालस्यादौ प्रथममेवाऽऽवश्यकप्रदानस्याऽवसर . इति भावः। अर्थात् कारण से ही कार्य की सिद्धि हो सकती है, न कि उससे, जो (उस फल का) कारण नहीं है / इस दृष्टि से, समझदार लोग कारण की सम्यक् विवेचना करने के बाद ही अपने इच्छित कार्य की निर्विघ्न सिद्धि कर पाते हैं, न कि अकारण की सम्यक् विवेचना करके। अन्यथा (अकारण) तृण से भी, हिरण्य-मणि-मौक्तिक आदि की प्राप्ति होने लगे तो समस्त विश्व दरिद्रता-रहित हो जाए। (तात्पर्य यह है कि) यहां मोक्ष का परम्परया कारण आवश्यक-अनुयोग ही है, न कि षष्टितन्त्र आदि (शास्त्र), क्योंकि वही ज्ञान-क्रिया की उत्पत्ति के माध्यम से मोक्ष का यथार्थ साधक है, उससे भिन्न (षष्टितन्त्र आदि) तो परम्परया भी मोक्ष का साधक नहीं हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ। इस प्रकार फल-द्वार का कथन पूर्ण हुआ // 3 // अब योग द्वार के निरूपण की इच्छा से (भाष्यकार प्रस्तुत गाथा) कह रहे हैं भव्वस्स मोक्खमग्गाहिलासिणो ठियगुरूवएसस्स / आईए जोग्गमिणं बालगिलाणस्स वाऽऽहारं // [(गाथा अर्थः) मोक्षमार्ग के अभिलाषी तथा गुरु-उपदेश के अनुरूप कर्तव्य-आचरण में स्थित भव्य (शिष्य) को सर्वप्रथम इस (आवश्यक) का उसी प्रकार उपदेश देना चाहिए जिस प्रकार (वैद्य द्वारा) बाल व ग्लान (रोगी) को (सर्वप्रथम) आहार का निर्देश दिया जाता है।] ___व्याख्याः - चूंकि (भाष्यकार ने) सर्वप्रथम यह दृढ़ कथन किया था कि यह बताना अपेक्षित है कि शिष्यों को इस (आवश्यक-अनुयोग सम्बन्धी ज्ञान) को देने में क्या औचित्य (योग) व (कब उचित) अवसर है। अतः (अपने उसी कथन के अनुरूप भाष्यकार ने) कहा- समस्त द्वादशाङ्ग के अध्ययन के समय में सर्वप्रथम इस छः प्रकार के सामायिक का उपदेश देना योग्य (उचित) है- ऐसा मुनियों का उपदेश है। तात्पर्य यह है कि शेष समस्त श्रुत के ज्ञान-दान के पूर्व में सर्वप्रथम आवश्यक सम्बन्धी (ज्ञान के ) दान का (उचित) अवसर होता है। Mar 14 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्य पुनरिदमावश्यकं योग्यमादिशन्ति मुनयः?, इत्याह- भव्यस्य मुक्तिगमनयोग्यस्य जन्तोः। स च कश्चिद् दूरभव्योऽसंजातमोक्षमार्गाभिलाषोऽपि भवति, तद्व्यवच्छेदार्थमाह- मोक्षमार्गः सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूपस्तमुत्तरोत्तरविशुद्धिरूपमभिलषितुं शीलमस्य स तथा तस्य। अयं चैवंविधोऽपरिणतगुरूपदेशोऽपि स्यात्, तन्निरासार्थमाह- स्थितः कर्तव्यतया परिणतो गुरूपदेशो यस्याऽसौ स्थितगुरूपदेशस्तस्य। किं यथायोग्यमुपदिशन्ति?, इत्याह- बालग्लानयोरिवाऽऽहारं यथोपदिशन्ति, भिषज इति गम्यते। ___इदमुक्तं भवति- यथाऽऽदौ बालस्य कोमल-मधुरादिकम्, ग्लानस्य च पेया-मुद्ग-यूषादिकं तत्कालोचितमुत्तरोत्तरबलपुष्टयादिहेतुमाहारं योग्यं भिषजः समुपदिशन्ति, तथेहापि भव्यादिविशेषणविशिष्टस्य जन्तोरादाविदमेवाऽऽवश्यकमुत्तरोत्तरगुणवृद्धिहेतुभूतं योग्यमुपदिशन्ति तीर्थकरगणधरा इति। आवश्यकस्य चादौ शिष्यप्रदानावसरे प्रतिपादिते तदनुयोगस्याऽसौ प्रतिपादित एव द्रष्टव्यः, तयोरेकत्वस्याऽनन्तरमेवाऽऽख्यातत्वात् // इति गाथार्थः॥४॥ - मुनि लोग इस आवश्यक-सम्बन्धी (ज्ञान के ) दान को किस व्यक्ति के लिए (देय रूप में) योग्य (उचित) बताते हैं? इसलिए (इस जिज्ञासा के समाधान-हेतु) कहा- भव्यस्य / भव्य अर्थात् मुक्ति प्राप्ति के योग्य प्राणी को (इसके ज्ञान का दान उचित बताया गया है)। चूंकि अभी जिसे मोक्षमार्ग की अभिलाषा नहीं जागृत हुई हो, ऐसा कोई 'दूरभव्य' भी हो सकता है, (वह यहां ग्राह्य नहीं है, इसलिए) उसके निराकरण-हेतु कहा- मोक्षमार्गाभिलाषी। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूपी जो मोक्षमार्ग है, उसे उत्तरोत्तर विशुद्धता के साथ प्राप्त करने का शील (अर्थात् स्वभाव) जिसका है, ऐसा भव्य, उसीको (इसका ज्ञान-दान देना उचित है)। उक्त भव्य भी ऐसा हो सकता है जो गुरु के उपदेश के अनुरूप परिणत नहीं हो पाया हो (अर्थात् स्वयं को ढाल नहीं पाया हो), ऐसे भव्य का भी निराकरण करने हेतु कहा- (स्थितगुरूपदेशस्य) जिसने गुरु के उपदेश को कर्तव्य मानकर आचरण में परिणत (क्रियान्वित) किया हो, उसे ही (इसका ज्ञान-दान देना उचित है)। इसे किस प्रकार यथोचित बताते हैं? अतः कहा- जैसे बाल व ग्लान (रोगी) के लिए आहार (को देने) का उपदेश (निर्देश) देते हैं, (कौन निर्देश देते हैं- इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु) ऐसा 'वैद्य' निर्देश देते हैं- ऐसा समझना चाहिए। . (समस्त गाथा में) यह कहा गया है कि जैसे वैद्य लोग किसी बालक के लिए कोमल व मधुर आदि आहार को, तथा ग्लान (रोगी) के लिए तरल पदार्थ- मूंग का रसा आदि देने को, उनके लिए समयोचित उत्तरोत्तर बल-पोषण आदि की दृष्टि से योग्य आहार बताते हैं, प्रस्तुत प्रसङ्ग में उसी प्रकार तीर्थंकर व गणधरादि भी भव्य आदि विशेषणों से युक्त प्राणी के लिए, उत्तरोत्तर गुण-वृद्धि की दृष्टि से इस आवश्यक को ही (ज्ञान-दान के) योग्य (उचित) मानते हैं। यह आवश्यक (उपर्युक्त योग्यता वाले) शिष्य को सर्वप्रथम देना चाहिए-इस तथ्य का प्रतिपादन कर दिया गया, तब इस (आवश्यक) के अनुयोग का भी प्रथम प्रतिपादन कर्तव्य है- यह (स्वतः) ज्ञात हो जाता है, क्योंकि इन (आवश्यक व अनुयोग) दोनों का एकत्व पूर्व में ही कहा जा चुका है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 4 // Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 15 5052 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- ननु यस्य भव्यादिविशेषणविशिष्टस्याऽऽदौ योग्यमिदमावश्यकम्, तस्मै योग्यमित्येतावन्मात्रमेव ज्ञात्वा तद् ददत्याचार्याः, आहोस्विदन्योऽपि तत्र कश्चिद् विधिरपेक्षणीयः?। इति शिष्यवचनमाशङ्कयाऽस्मिन्नेव योगद्वारे तद्दानविधानादि किञ्चिल्लेशतः प्रासङ्गिकमभिधित्सुराह कयपंचनमोक्कारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिणा। आवासयमायरिया कमेण तो सेसयसुयं पि॥५॥ [संस्कृतच्छाया:-कृतपञ्चनमस्काराय ददति सामायिकादिकं विधिना। आवासकमाचार्याः क्रमेण ततः शेषकश्रुतमपि॥] व्याख्या- भव्यादिविशेषणविशिष्ट स्यापि शिष्यस्य कृतपञ्चनमस्कारस्य चतुर्थ्यर्थे षष्ठी- कृतपञ्चनमस्काराय मङ्गलार्थमुच्चारितपञ्चनमस्कृतिमङ्गलायेत्यर्थः। सामायिकादिकमावासकं विधिना प्रशस्तं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपेण, प्रशस्तदिगभिमुखव्यवस्थापनादिरूपेण च समयोक्तेन ददत्याचार्याः, न पुनर्योग्यमित्येतावन्मात्रकमेव ज्ञात्वेति भावः। तत ऊर्ध्वमस्मै किं न किञ्चिद् ददति?, इत्याह- क्रमेण ततः शेषकमप्याचारादि श्रुतं प्रयच्छन्ति यावच्छुतोदधेः पारम्॥ इति गाथार्थः // 5 // (शंका-) भव्यत्व आदि विशेषताओं से युक्त जिस (शिष्य) को सर्वप्रथम इस 'आवश्यक' का दान योग्य (उचित) माना गया है। आचार्य क्या उसे मात्र 'योग्य' मानकर ही 'आवश्यक' (के ज्ञान) का दान करते हैं या फिर कोई अन्य विधि-विधान भी (वहां) अपेक्षित है? (उत्तर-) शिष्य की ओर से उक्त सम्भावित कथन के प्रत्युत्तर में, इसी योगद्वार-प्रकरण में उस (अनुयोग) के दान-सम्बन्धी विधि-विधान को- जो आंशिक रूप से यहां प्रासंगिक है- बताने की इच्छा से, (भाष्यकार) कह रहे हैं कयपंचनमोक्कारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिणा। आवासयमायरिया कमेण तो सेसयसुयं पि॥ [(गाथा अर्थः) पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर चुके (शिष्य) को आचार्य विधिपूर्वक सामायिक आदि आवश्यक को, तथा क्रम से शेष श्रुत को भी प्रदान करते हैं।] . व्याख्याः- 'कृतपंचनमस्कारस्य' इस पद में चतुर्थी अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। भव्यत्व आदि विशेषणों से युक्त शिष्य को भी, उसके द्वारा मङ्गल-निमित्त पंचनमस्कार मन्त्र के उच्चारित किये जाने पर ('आवश्यक' का दान करना चाहिए) -यह तात्पर्य है। (विधिना-) विधिपूर्वक, द्रव्य-क्षेत्रकाल व भाव रूप से प्रशस्त विधि- प्रशस्त दिशा में स्थित होना आदि- शास्त्रों में निरूपित है, उसके अनुसार, आचार्य सामायिक आदि आवश्यक (के ज्ञान) का प्रदान करते हैं, न कि यह इसके योग्य है- इतना मात्र जान कर, यह तात्पर्य है। क्या इसके बाद (शिष्य को) कुछ नहीं देते हैं? इस सम्भावित आशंका (के उत्तर) में कहा- क्रम से / अर्थात् उस (आवश्यक के ज्ञान का दान देने) के बाद, क्रम से शेष आचारांग आदि श्रुत को भी, उस समय तक देते हैं जब तक (वह शिष्य) श्रुत-सागर में पारंगत न हो जाए // यह गाथा का अर्थ हुआ // 5 // VA 16 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकानुयोगप्रदानेऽप्ययमेव विधिरित्यावेदयितुमाह तेणेव याऽणुओगं कमेण तेणेव याऽहिगारोऽयं। जेण विणेयहियत्थाय थेरकप्पक्कमो एसो॥६॥ [संस्कृतच्छाया:- तेनैव चानुयोगं क्रमेण तेनैव चाधिकारोऽयम्। येन विनेयहितार्थं स्थविरकल्पक्रम एषः॥] व्याख्या- चकारोऽपिशब्दार्थः, भिन्नक्रमश्च, ततस्तेनैव पञ्चनमस्कारकरणादिना क्रमेणाऽनुयोगमपि सूत्रव्याख्यानरूपम्, ददत्याचार्या इति वर्तते, अनयोश्च सूत्रप्रदानक्रमाऽनुयोगप्रदानक्रमयोर्मध्ये तेनैव प्रस्तुतगाथाप्रक्रान्तेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणाऽयमस्मदभिमतोऽधिकारः, अनुयोगस्यैवेह प्रस्तुतत्वात्, इति भावः। कुतः पुनरिहानुयोगप्रदानक्रमेणैवाऽधिकारः?, इत्याहयेन कारणेन विनेयहितार्थं शिष्यवर्गस्योत्तरोत्तरगुणप्राप्तिमपेक्ष्येत्यर्थः, स्थविराणां गच्छवासिनां साधूनां योऽसौ कल्पः समाचारविशेषस्तस्यैषोऽनन्तरगाथावक्ष्यमाणलक्षण:क्रमः परिपाटीरूपः, तेन कारणेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणैवेहाऽधिकारोऽयमिति // 6 // (अनुयोग-प्रदान विधि) (आवश्यक की तरह) आवश्यक-अनुयोग के देने में भी यही विधि (करणीय) है-इसे बताने हेतु (भाष्यकार) कह रहे हैं (6) तेणेव याऽणुओगं कमेण तेणेव याऽहिगारोऽयं / जेण विणेयहियत्थाय थेरकप्पक्कमो एसो // [(गाथा-अर्थः) (सूत्र-प्रदान का जो क्रम है) उसी क्रम से (आचार्य) अनुयोग को भी (प्रदान करते हैं)। अनुयोग-प्रदान के क्रम से सम्बन्धित यह अधिकार (प्रकरण) है। इसलिए विनेय (शिष्य) के हित की दृष्टि से स्थविरकल्प से सम्बद्ध क्रम (का निरूपण कर रहे हैं, जो) इस प्रकार है :-] व्याख्याः- 'च' पद 'भी' अर्थ को तो कहता ही है, क्रम की भिन्नता (पूर्ववर्णित विषय से कुछ अधिकता या भिन्नता) को भी व्यक्त करता है। इस तरह (अर्थ हुआ कि) पञ्चनमस्कार करने आदि की विधि रूप (जो क्रम पूर्वोक्त है,) उसी क्रम से आचार्य अनुयोग का भी प्रदान करते हैं। सूत्र-प्रदान का क्रम और अनुयोग-प्रदान का क्रम- इन दोनों के मध्य में हमारा यह 'अधिकार' (प्रकरण) प्रस्तुत गाथा में निरूपित अनुयोग-प्रदान के क्रम से ही सम्बद्ध है। तात्पर्य यह कि अनुयोग ही हमारा प्रकृत में निरूपणीय विषय है। (शंका-) अनुयोग-प्रदान-क्रम का ही यह अधिकार (प्रकरण) है- ऐसा किसलिए कह रहे हैं? इसलिए कहा- (उत्तर) चूंकि (इसी प्रकरण से सम्बन्धित आगे का निरूपण है जिसमें) विनेय (शिष्य) के हित (कल्याण) की सिद्धि हेतु अर्थात् शिष्यवर्ग को उत्तरोतर गुणों की प्राप्ति हो- इस के लिए स्थविर यानी गच्छवासी साधु, उनका जो यह कल्प यानी समाचारी-विशेष है, उसमें स्वीकृत क्रम या परिपाटी को आगे की गाथा में कहा जा रहा है, इसीलिए (यह कहा है कि) अनुयोग-प्रदान के क्रम का यह अधिकार (प्रकरण) है॥ 6 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 17 1 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कः पुनरसौ स्थविरकल्पक्रमः? इत्याह पव्वजा सिक्खावयमत्थग्गहणंच अनिअओवासो। निप्फत्ती य विहारो सामायारीठिई चेव // 7 // [संस्कृतच्छाया:- प्रव्रज्यां शिक्षापदमर्थग्रहणं चानियतो वासः। निष्पत्तिश्च विहारः सामाचारीस्थितिश्चैव॥] व्याख्या- इह स्थविराणामयं क्रमो यदुत-प्रथमं तावद् योग्याय विनीतशिष्याय विधिवद्दापिताऽऽलोचनाय प्रशस्तेषु द्रव्यादिषु. स्वयं गुणसुस्थितेन गुरुणा विधिनैव प्रव्रज्या प्रदातव्या। ततः शिक्षापदमिति, शिक्षायाः पदं स्थानं शिक्षापदम्, शिक्षैव वा पदं स्थानं शिक्षापदम, विधिना प्रव्रजितस्य शिष्यस्य, ततः शिक्षाधिकारी भवतीत्यर्थः। सा च शिक्षा द्विविधा-ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च। तत्र द्वादश वर्षाणि यावत् सूत्रं त्वयाऽध्येतव्यमित्युपदेशो ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा तु प्रत्युपेक्षणादिक्रियोपदेशः। आह च-"सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा। गहणे सुत्ताहिज्झण आसेवण तिप्पकप्पाई"॥ [सा पुनः द्विविधा शिक्षा, . ग्रहणे आसेवने च ज्ञातव्या / ग्रहणे सूत्राध्ययनं आसेवनं त्रिप्रकल्पादि।] (स्थविरकल्प क्रम) फिर किस प्रकार का 'स्थविरकल्प का क्रम' है? (उत्तर में भाष्यकार) कह रहे हैं पव्वज्जा सिक्खावयमत्थग्गहणं च अनिअओ वासो। निप्फत्ती य विहारो सामायारीठिई चेव // [(गाथा-अर्थः) प्रव्रज्या, शिक्षापद (या शिक्षा, व्रत), अर्थग्रहण, अनियत वास, निष्पत्ति, विहार और सामाचारी में स्थिति (यह सात प्रकार का स्थविरकल्प का क्रम है)।] . व्याख्याः- यहां (अनुयोग-प्रदान के सम्बन्ध में) स्थविरों का यह क्रम है कि सर्वप्रथम किसी योग्य व विनयशील शिष्य को, जिसे विधिपूर्वक आलोचना दिला दी गई है, प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल व भाव की स्थिति में, गुणों में स्थिरता से सम्पन्न गुरु द्वारा स्वयं विधिपूर्वक प्रव्रज्या दी जाती है। उसके बाद शिक्षापद (दिया जाता है)। शिक्षापद का अर्थ है- शिक्षा का पद यानी स्थान, अथवा शिक्षा ही जो पद रूप है। तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक प्रव्रज्या-प्राप्त को ही शिक्षापद देय है, क्योंकि उस (प्रव्रज्या) के बाद ही शिष्य शिक्षा का अधिकारी होता है। वह शिक्षा दो प्रकार की है- ग्रहणशिक्षा और आसेवनाशिक्षा / इनमें, 12 वर्षों तक 'तुम्हें अमुक सूत्र पढ़ना है' इस प्रकार उपदेश ‘ग्रहणशिक्षा' है। प्रत्युपेक्षा आदि क्रियाओं (आचार) का जो उपदेश है, वह आसेवनाशिक्षा है। कहा भी है- 'सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा ।गहणे सुत्ताहिज्झण आसेवण तिप्पकप्पाई' अर्थात् वह शिक्षा ग्रहण व आसेवण -इस प्रकार से दो प्रकार की है-ऐसा ज्ञातव्य है। सूत्रों का अध्ययन 'ग्रहण' है और त्रिविध विरति व प्रतिक्रमण आदि में स्थित कराना 'आसेवन' है। Na 18 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ये तु- शिक्षाशब्दाद् व्रतमिति पदं पृथक् कृत्वा, व्रतमिति कोऽर्थ:?- शिक्षाऽनन्तरं रात्रिभोजनविरमणषष्ठेषु पञ्चसु महाव्रतेषूपस्थाप्यते शिष्यः, इत्येतदपि द्वितीयं व्याख्यानं कुर्वन्ति / एतच्च कल्पचूां चिरन्तनटीकायां च न दृष्टम्, इत्यस्माभिरुपेक्षितम्। ततः सूत्रेऽधीते यद् विनेयः कार्यते, तदाह- 'अत्थग्गहणं च त्ति' द्वादश वर्षाण्यधीतसूत्रः सन्नसावर्थग्रहणं कार्यते- तस्य पूर्वाधीतसूत्रस्य द्वादश वर्षाणि यावदेषोऽर्थं ग्राह्यत इत्यर्थः। यथा हि हलारघट्टगन्त्र्यादेर्मुक्तो बुभुक्षितो बलीवर्दः प्रथमं तावच्छोभनमशोभनं वा तृणादिकमास्वादमनवगच्छन्नपि सर्वमभ्यवहरति, पश्चाच्च रोमन्थावस्थायां तदास्वादमवगच्छति, एवं विनेयोऽर्थमनवबुध्यमानोऽपि द्वादश वर्षाणि सर्वं सूत्रमधीते, अर्थावगमाभावे च तत् तस्याऽनास्वादं भवति, अर्थग्रहणावस्थायां तु तदवगमात् सुस्वादमाप्यायकं च जायते, अतोऽधीतसूत्रेण द्वादश वर्षाण्यवश्यमर्थः श्रोतव्यः। यथा वा कृषीवल: शाल्यादिधान्यं प्रथमं वपति, तत: पालयति, लुनाति, मलति, पुनीते, गृहमानयति, पश्चात्तु निराकुलचित्तस्तदुपभोगं करोति, तदभावे वपनादिपरिश्रमस्य निष्फलत्वप्रसङ्गात्, एवं शिष्योऽपि सूत्रमधीत्य यदि तदर्थं न शृणुयात्, तदा तदध्ययनप्रयासो विफल एव स्यात्, तस्मात् सूत्राध्ययनान्तरमवश्यमेव द्वादश वर्षाणि तदर्थः कुछ व्याख्याकार 'सिक्खावय' (का संस्कृत रूप 'शिक्षापद' न करते हुए 'शिक्षाव्रत' -ऐसा करते हैं और इस) में शिक्षा और व्रत -इन दोनों को पृथक्-पृथक् (पद मान कर व्याख्यान) करते हैं। 'व्रत' का क्या अर्थ है? (उत्तर-) पंच महाव्रत व छठा रात्रिभोजनविरति व्रत। शिक्षा के बाद, व्रतों में शिष्य को उपस्थापित (प्रतिष्ठित) किया जाता है- इस प्रकार दूसरा व्याख्यान करते हैं। चूंकि यह (व्याख्यान) कल्पचूर्णि व चिरन्तन टीका में (कहीं) दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः हमारी दृष्टि में यह उपेक्षणीय है। अब, सूत्र-अध्ययन करने के बाद, विनेय (शिष्य) को जो कराया जाता है, उसे बता रहे हैं- अत्थरगहणं / तात्पर्य यह है कि बारह वर्षों तक सूत्रों का अध्ययन कर चुके इस (शिष्य) को अर्थ (अर्थात्मक आगम) का ज्ञान कराया जाता है, यानी पहले जिस सूत्र (या सूत्रों) का अध्ययन कर लिया है, उसी (या उन्हीं) के अर्थ का ज्ञान (पुनः) बारह वर्षों तक कराया जाता है। उदाहरणार्थ- जैसे हल, अरहट व भारगाड़ी के बन्धन) से मुक्त कर खुला छोड़ दिया गया भूखा बैल पहले तो (भूख के कारण) अच्छा हो या बुरा -सभी प्रकार के घास को, उसके स्वाद के (ऊपर ध्यान दिये) बिना ही सब कुछ खा लेता है, बाद में जुगाली करते समय उसके स्वाद का अनुभव करता है। इसी प्रकार, विनेय (शिष्य) भी (पहले तो) अर्थ को समझे बिना ही, बारह वर्षों तक समस्त सूत्र का अध्ययन करता है, अर्थ-बोध के अभाव में जो अध्ययन उसके लिए आस्वादहीन (अस्वादु) है, अर्थग्रहण की स्थिति में अर्थ-बोध होने पर वह (अध्ययन) ही स्वादयुक्त (सरस) व तृप्तिदायक (सन्तोषप्रद) हो जाता है। अतः सूत्र-अध्येता द्वारा बारह वर्षों तक निश्चित ही 'अर्थ' का (गुरु-मुख से) श्रवण करना चाहिए। अथवा, जैसे कोई किसान पहले शाली (सठिया) चावल आदि धान्यों को (जमीन में) बोता है, फिर उसकी सार-संभाल करता है, फसल काट कर अलग करता है, कचरा अलग करता है, भूसी आदि हटाकर साफ करता है, उसे घर ले जाता है, इसके बाद ही निराकुलचित्त होकर उसका उपभोग करता है, क्योंकि उपभोग न करे तो फसल बोने आदि में किया जाने वाला श्रम निरर्थक कहा जाएगा। इसी प्रकार, शिष्य भी सूत्र का अध्ययन कर, यदि उसके अर्थ का श्रवण (कर उसे हृदयस्थ) न करे तो उसके अध्ययन का प्रयास ही निरर्थक हो जाएगा। इसलिए, सत्र-अध्ययन के बाद, बारह वर्षों तक ---- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 19 र Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोतव्यः। तस्माद् यत एवं स्थविरकल्पक्रमो यदुत प्रथमं प्रव्रज्या, ततः सूत्राध्ययनम्, ततोऽप्यर्थग्रहणमिति, अतोऽनुयोगप्रदानक्र मेणैवेहाऽधिकार इत्येवं प्रस्तुतमभिसंबध्यते। सूत्राध्ययनानन्तरभावी हि तदर्थव्याख्यानरूप: स्थविर कल्पक्र मदृष्टोऽनुयोग एवावश्यकस्य शास्त्रकृता वक्तुमारब्धः, अतः सूत्राध्ययनकालस्यातिक्रान्तत्वेनेह विवक्षितत्वादनुयोगस्यैवाऽभिधित्सितत्वात् तत्प्रदानक्रमेणैवाऽधिकार इति भावः / एतावच्चाऽस्यां गाथायां प्रकृतोपयोगि। यत्पुनरन्यद् व्याख्यास्यते- 'अनिअओ वासं निप्फत्ती य विहारो' इत्यादि, तत् प्रासङ्गिकमित्यवगन्तव्यम्। तत्र'अनिअओ वासो त्ति' ततोऽस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शिष्यस्याऽनियतं वासः क्रियते, ग्रामनगरसंनिवेशादिष्वनियतनिवासेनैष गृहीतसूत्रार्थः शिष्यो यद्याचार्यपदयोग्यः, तदा जघन्यतोऽपि सहायद्वयं दत्त्वाऽत्मतृतीयो द्वादश वर्षाणि यावद् नानादेशदर्शनं नियमेन कार्यत इत्यर्थः, आचार्यपदानहस्य त्वनियमः। आचार्यपदार्थोऽपि किमिति देशदर्शनं कार्यते? इति चेत्। उच्यते- स हि नानादेशेषु पर्यटस्तीर्थकराणां जन्मादिभूमी: पश्यति, ताश्च दृष्ट्वाऽत्र जाताः, इह दीक्षां प्रतिपन्नाः, अस्मिंश्च देशे निर्वृता भगवन्तः, इत्याद्यध्यवसायतो हर्षातिरेकात् तस्य सम्यक्त्वस्थैर्य उसके अर्थ का श्रवण अवश्य करना चाहिए। चूंकि पहले प्रव्रज्या, फिर सूत्र-अध्ययन, उसके अनन्तर अर्थ-ग्रहण -इस प्रकार यह स्थविरकल्पी क्रम है। अतः अनुयोग-प्रदान-क्रम के अनुरूप ही यहां प्रस्तुत प्रकरण है, इसलिए प्रस्तुत विषय को उसी से सम्बद्ध जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सूत्रअध्ययन के बाद किया जाने वाला सूत्रार्थ-व्याख्यान रूपी जो स्थविरकल्प है, उसी के अनुरूप शास्त्रकार ने क्रमप्राप्त आवश्यक-सम्बन्धी अनुयोग का निरूपण करना प्रारम्भ किया है, चूंकि सूत्राध्ययन का समय (पूर्ण होकर) बीत गया है- ऐसा यहां विवक्षित है, और (अब) 'अनुयोग' का ही कथन अपेक्षित है, अतः उसके प्रदान-क्रम का ही यह अधिकार (प्रकरण) है। प्रस्तुत गाथा में यहां तक (का कथन) 'प्रकृत विषय' में उपयोगी है। इसके आगे 'अनियत वास, निष्पत्ति व विहार' आदि का व्याख्यान किया जाएगा, वह प्रासंगिक (रूप से निरूपित किया गया) है- ऐसा समझें। यहां अनिअओ वासोत्ति (का अर्थ है-) तदनन्तर यानी सूत्र व अर्थ को ग्रहण कर चुके इस शिष्य के लिए, अनियत वास किया जाता है। तात्पर्य यह है कि सूत्र व अर्थ को ग्रहण कर लेने वाले शिष्य को ग्राम, नगर व खुले स्थान आदि में अनियत (अनियतकालिक) वास करना होता है, यदि वह आचार्य-पद के योग्य है तो कम से कम दो सहायक उसे दिये जाते हैं और तीसरा वह (शिष्य) वयं होता है, और उसे बारह वर्षों तक अनेक देशों का दर्शन नियमतः करना होता है। आचार्य-पद के लिए यदि वह अयोग्य है तो कोई नियम नहीं। (आचार्यपद-प्राप्ति से पूर्व देश-दर्शन आदि) (शंका) आचार्यपद के योग्य (शिष्य) को भी देश-दर्शन क्यों कराया जाता है? इस शंका का समाधान हेतु कह रहे हैं- वह (शिष्य) नाना देशों में भ्रमण (विहार) करते हुए तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का दर्शन करता है, उन्हें देखकर 'यहां वे उत्पन्न हुए, यहां उन्होंने दीक्षा ली, इस देश में MA 20 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति, अन्येषां च स पश्चात् तत्स्थिरतामुत्पादयति, श्रुताद्यतिशायिनश्चाचार्यादीन् नानास्थानेषु पश्यतः सूत्रार्थेषु स(सा)माचार्यां चाऽस्य विशेषोपलम्भो भवति, नानादेशभाषासमाचारांश्चैष बुध्यते, ततश्च तत्तद्देशजानामपि विनेयानां तत्तद्भाषया धर्मं कथयति, ततः प्रतिबोध्य - तान् प्रव्राजयति, पूर्वप्रव्रजितास्तु तदुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, निःशेषास्मद्भाषासमाचारकशलोऽयमिति शिष्याणां तदुपरि प्रीतियोगश्च जायते. इत्यादिगुणदर्शनादनियतवासः। 'निष्फत्ती यत्ति' एवं चानियतवासेन द्वादश वर्षाणि पर्यटतस्तस्याऽऽचार्यपदार्हशिष्यत्वेनाऽऽत्मनो निष्पत्तिर्भवति, अन्येषां च प्रभूतशिष्याणां तदन्तिके निष्पत्तिर्जायत इति / 'विहारो त्ति' एवं शिष्यत्वेन निष्पत्तौ, सूरिपदे च प्राप्ते, स्वपरोपकारकरणेन दीर्घ च पर्याये परिपालिते, अन्यस्मिंश्च योग्यशिष्ये आचार्यपदे व्यवस्थापिते, ततोऽनन्तरं विहरणं विशेषेण भगवदभिहितमार्गे पराक्रमणं विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽनेन कर्तव्यः। स च द्विविध:- भक्तपरिज्ञा-इङ्गिनी-पादपोपगमनलक्षणमभ्युद्यतमरणम्, जिनकल्पपरिहारविशुद्धिककल्प-यथालन्दिककल्पप्रतिपत्तिर्वा / अस्मिंश्च द्विविधेऽपि विहारे सामाचारी ज्ञात्वाऽनुष्ठेया। सा चाऽऽद्ये मरणलक्षणे विहारे भगवान् निर्वाण को प्राप्त हुए' -इत्यादि अध्यवसाय के कारण हर्षातिरेक से उसके सम्यक्त्व की स्थिरता होती है, बाद में वह अन्य लोगों के सम्यक्त्व को स्थिर करता है, तदनन्तर, उन-उन देशों के शिष्यों को उन-उन देशों की भाषा में ही धर्मोपदेश देता है, तदनन्तर, उन्हें प्रतिबोधित कर उन्हें प्रव्रजित करता है, पूर्वप्रव्रजित शिष्यों को उनकी उपसंपदा प्राप्त होती है, 'हमारी समस्त भाषाओं व आचारों में यह (गुरु) कुशल है' -ऐसा जानकर शिष्यों की उस (गुरु) पर 'प्रीति' होने लगती है। इस प्रकार अनियतवास में अनेक गुण दृष्टिगोचर होते हैं। निप्फत्ती य त्ति- इस प्रकार 'अनियत वास' करते हुए बारह वर्षों तक पर्यटन (विहार) करते रहने वाले को आचार्यपद-योग्य शिष्य के रूप में आत्मीय निष्पत्ति (अर्थात् पूर्णता) प्राप्त हो जाती है, (इतना ही नहीं) अन्य भी जो शिष्य उसके पास में रहते हैं, उनको भी निष्पत्ति (पूर्णता) प्राप्त हो जाती है। विहारो त्ति इस प्रकार (योग्य) शिष्यत्व रूप में निष्पत्ति हो जाने पर, और सूरि (आचार्य) पद प्राप्त हो जाने पर, वह स्व-पर उपकार करते हुए (श्रामण्य के) दीर्घ पर्याय का पालन करे, और (बाद में) अपने किसी अन्य योग्य शिष्य को आचार्य-पद पर व्यवस्थित करे और उसके बाद उसे 'विहार' अर्थात् भगवान् (तीर्थंकर) द्वारा निरूपित (मोक्ष) मार्ग पर (आगे बढ़ने हेतु) विशेष पराक्रम-स्वरूपविशेष अनुष्ठान' करना चाहिए। वह (विहार रूप विशेष अनुष्ठान) दो प्रकार का होता है- (1) भक्तपरिज्ञा, (भक्त प्रत्याख्यान), इङ्गिनीमरण या पादपोपगमन स्वरूप अभ्युद्यत मरण, अथवा (2) जिनकल्पी परिहारविशुद्धि कल्प या यथालन्दिक-कल्प का अङ्गीकार ।इस द्विविध विहार' में (निर्धारित) सामाचारी का ज्ञान कर उसका अनुष्ठान कर्तव्य होता है। प्रथम मरण-रूप विहार में वह (सामाचारी) इस प्रकार ज्ञातव्य है ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 21 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निप्फाइआ य सीसा सउणी जह अण्डयं पयत्तेण। बारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेड़॥१॥ [निष्पादिताश्च शिष्याः शकुनी यथाऽण्डकं प्रयत्नेन / द्वादशसांवत्सरिकं स संलेखमथ करोति॥] चत्तारि विचित्ताई विगईनिजूहिआइं चत्तारि। संवच्छरे उ दोन्नि उ एगन्तरियं च आयामं॥२॥ [चत्वारि विचित्राणि विकृतिनि!हितानि चत्वारि / संवत्सरौ तु द्वौ त्वेकान्तरितं चाऽऽयामम्॥] . . नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं। अन्ने वि य छम्मासे होइ विगिटुं तवो कम्मं // 3 // [नातिविकृष्टं च तपः षण्मासान् परिमितं चायामम्। अन्यानपि च षण्मासान् भवति विकृष्टं तपः कर्म // ] वासं कोडिसहिअं आयामं कटु आणुपुव्वीए। गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ॥४॥ [वर्ष कोटिसहितं आयामं कृत्वाऽऽनुपूर्व्या। गिरिकन्दरां तु गत्वा पादपगमनमथ करोति // ] इत्यादिका ज्ञातव्या। द्वितीये तु विहारे जिनकल्पादिप्रतिपत्तौ सामाचारी निर्दिश्यते- तत्र जिनकल्पादि प्रतिपित्सुनाऽऽदावेव / पूर्वापररात्रकाले तावदिदं चिन्तनीयम्- विशुद्धचारित्रानुष्ठानेन कृतं मयाऽऽत्महितम्, शिष्याद्युपकारतः परहितं. च, निष्पन्नाश्चेदानीं -अर्थात् जिस प्रकार कोई मादा पक्षी अपने अण्डों को प्रयत्न-पूर्वक (सावधानी से) सेती है (और जब बच्चे उड़ने लायक हो जाते हैं तो उन्हें छोड़ देती है), उसी प्रकार 'मैंने अपने शिष्यों को (सभी प्रकार से) तैयार कर दिया है' (और अब मेरे लिए संलेखना लेने का उचित अवसर है) -इस प्रकार (निश्चिन्त होकर) वह (उत्कृष्ट काल की दृष्टि से) बारह वर्षों तक की सल्लेखना ग्रहण करता है॥१॥ (इन बारह वर्षों के कार्यकाल को वह इस तरह नियोजित करता है-) प्रथम चार वर्ष विचित्र यानी अनेक प्रकार की (षष्ठ, अष्टम आदि कायक्लेश रूप) तपश्चर्या से, बाद के चार वर्ष (दूध, दही, घी व गुड़ आदि) विकृतियों का त्याग करके व्यतीत करता है। आगे के दो वर्षों में वह एकान्तरित आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है // 2 // इसके बाद, छः महीनों तक अनतिविकृष्ट यानी मध्यम तपश्चर्या का अनुष्ठान एवं (पारणे के रूप में) परिमित आचाम्ल का ग्रहण करता है, और अन्त के छः महीनों में उत्कृष्ट (षष्ठ, अष्टम आदि) तपश्चर्या का अनुष्ठान करता है // 3 // बाद में, एक वर्ष तक आनुपूर्वी व कोटि-सहित (अर्थात् एक प्रत्याख्यान पूरा होते ही दूसरा प्रत्याख्यान प्रारम्भ करता जाए -इस प्रकार) आचाम्ल भोजन करता है और अंत में, किसी गिरि व कन्दरा में जाकर ‘पादपोपगमन' मरण स्वीकार करता है॥४॥ (जिनकल्पविधि व जिनकल्पचर्या) दूसरे विहार में 'जिनकल्प' आदि की स्थिति अपनाई जाती है। उससे सम्बन्धित 'सामाचारी' को इस प्रकार बताया गया है- 'जिनकल्प' की स्थिति अंगीकार करने के इच्छुक साधक को सर्वप्रथम, मध्यरात्रि में इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए- “मैंने विशुद्ध चारित्र का अनुष्ठान कर आत्म-हित कर लिया है, शिष्यों आदि के उपकार द्वारा पर-हित भी मैंने कर लिया है। गच्छ के A- 22 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- .----- Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मया गच्छपरिपालनक्षमाः शिष्याः, ततो विशेषेणैव सांप्रतं ममाऽऽत्महितमनुष्ठातुमुचितमिति / विचिन्त्य चेदं, सति परिज्ञाने आत्मीयमायु:- . शेषं स्वयमेव पर्यालोचयति, तदभावेऽन्यमतिशयिनमाचार्यादिकं पृच्छति, तत्र स्तोके स्वायुषि भक्तपरिज्ञादीनामन्यतरद् मरणं प्रतिपद्यते। अथ दीर्घमायुः, केवलं जङ्घाबलपरिक्षीणः, तदा वृद्धवासं स्वीकुरुते; पुष्टायां तु शक्तौ जिनकल्पादिप्रतिपत्तिमुररीकरोति। तत्र जिनकल्पं प्रतिपित्सुना प्रथममेव तावत् पञ्चभिस्तुलनाभिरात्मा तोलनीयः, तद्यथातवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवजओ॥ [तपसा सत्त्वेन सूत्रेण एकत्वेन बलेन च। तुलना पञ्चधा उक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य॥] तुलना, भावना, परिकर्म चेत्येकार्थानि / तत्राऽऽचार्योपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर-गणावच्छेदकलक्षणाः प्रायः पञ्चैव जनाः प्रशस्ताभिरेताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्जिनकल्पं प्रतिपित्सवः प्रथममेवाऽऽत्मानं भावयन्ति। - अप्रशस्तास्तु-कन्दर्प-देवकिल्बिषिका-ऽऽभियोगिका-ऽसुर-संमोहस्वरूपाः पञ्च भावनाः सर्वथा दूरतः परित्यजन्ति। / तत्र तपसाऽऽत्मानं भावयंस्तथा बुभुक्षां पराजयते यथा देवाद्युपसर्गादिनाऽनेषणादिकरणतो यदि षण्मासान् यावदाहारं न लभते, तथापि न बाध्यते। पालन-संचालन आदि में समर्थ-शिष्य भी अब तैयार हो चुके हैं, इसलिए अब तो मेरे लिए यही उचित है कि मैं अपना विशेषतः आत्महित करूं।' ऐसा विचार कर, यदि विशिष्ट ज्ञान की स्थिति (क्षमता स्वयं में) हो तो वह, 'अपनी आयु कितनी शेष है'- इसकी पर्यालोचना करता है, अन्यथा (विशिष्ट ज्ञान के अभाव में) किसी अन्य ज्ञानातिशयधारी (विशिष्टज्ञानी) आचार्य आदि से (अपनी आयु के विषय में) पूछता है। तब, यदि आयु थोड़ी ही शेष रह गई होती है तो वह 'भक्तपरिज्ञा' आदि में से किसी एक मरण को अंगीकार करता है। और, आयु लम्बी (शेष) होने की स्थिति में, यदि जवा-बल की क्षीणता हो तो वृद्धवास स्वीकार करता है। यदि शक्ति पूर्ण (पर्याप्त) हो, तो वह 'जिनकल्प' आदि को अंगीकार करता है। (पांच तुलनाएं) - अब; यदि 'जिनकल्प' स्वीकार करने की इच्छा हो तो उसे सर्वप्रथम इन पांच तुलनाओं (भावनाओ) के माध्यम से आत्मा (स्वयं) को तोलना (आत्म-सशक्तीकरण करना) चाहिए।उदाहरणार्थजिनकल्प को अंगीकार करने वाले के लिए (उपयोगी) पांच भावनाएं कही गई हैं- (1) तपसम्बन्धी, (2) सत्त्वसम्बन्धी, (3) सूत्रसम्बन्धी, (4) एकत्वसम्बन्धी, (5) बल-सम्बन्धी / तुलना, भावना, परिकर्म- ये सभी शब्द एकार्थक (समानार्थक) हैं। जिनकल्प स्वीकार करने वालों में प्रायः आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर व गणावच्छेदक- इनमें से कोई एक होता है, और सर्वप्रथम इन (उक्त) पांच भावनाओं के माध्यम से आत्मा को भावित करता है, तोलता है (आत्म-शक्ति को जांचतापरखता है और आगे की साधना की दृष्टि से सशक्त करता है)। __वह कन्दर्प, किल्बिषक, आभियोगिक, आसुर, व संमोह -इनसे सम्बन्धित पांच अशुभ भावनाओं का सर्वथा त्याग करता है। (उक्त पांच प्रशस्त भावनाओं में) तप-सम्बन्धी भावना से आत्मा --- विशेषावश्यक भाष्य --- 23 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वभावनया तु भयं पराजयते, तत्र भयजयार्थं रात्रौ सुप्तेषु शेषसाधुषूपाश्रय एव कायोत्सर्ग कुर्वतः प्रथमा सत्त्वभावना भवति, द्वितीयादिकास्तूपाश्रयबाह्यादिप्रदेशेषु / आह च पढमा उवस्सयम्मि बीया बाहिं तइया चउक्कम्मि। सुण्णहरम्मि चउत्थी अह पंचमिया मसाणम्मि॥ [प्रथमा उपाश्रये द्वितीया बहिस्तृतीया चतुष्के / शून्यगृहे चतुर्थी अथ पञ्चमी श्मशाने॥] . सूत्रभावनया तु स्वनामवत् सूत्रं परिचितं तथा करोति यथा रात्रौ दिवा चोच्छ्वासप्राणस्तोकलवमुहूर्तादिकं कालं सूत्रपरावर्तनानुसारेणैव सर्वं सम्यगवबुध्यते। एकत्वभावनया चाऽऽत्मानं भावयन् सङ्घाटिकसाध्वादिना सह पूर्वप्रवृत्तानालाप-सूत्रार्थसुखदुःखादिप्रश्र-मिथ:कथादिव्यतिकरान् सर्वानपि परिहरति, ततो बाह्यममत्वे मूलत एव व्यवच्छेदिते पश्चाद् देहोपध्यादिभ्योऽपि भिन्नमात्मानं पश्यन् सर्वथा तेष्वपि निरभिष्वङ्गो भवति / को भावित करते हुए, वह भूख पर इस प्रकार विजय प्राप्त कर लेता है कि देव आदि की ओर से उपसर्ग होने पर भी, छः मास तक शुद्ध आहार आदि न भी मिले तो भी, उसे किसी पीड़ां (या घबराहट) का अनुभव नहीं होता। सत्त्व-सम्बन्धी भावना के माध्यम से आत्मा को भावित करते हुए (1) भय पर विजय प्राप्त करता है। वह भय-जय हेतु रात में शेष साधुओं के सो जाने पर, उपाश्रय में ही कायोत्सर्ग करता हैयह प्रथम सत्त्वभावना है। (2-5) दूसरी, तीसरी, चौथी व पांचवीं सत्त्व भावना उपाश्रय आदि के बाहर (जैसे- दूसरी भावना उपाश्रय से बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्यगृह में और पांचवीं श्मशान में) की जाती है। कहा भी है ___ "प्रथम (सत्त्व भावना) उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्य घर में और पांचवीं श्मशान में की जाती है।" इसके बाद, सूत्र-सम्बन्धी भावना (से आत्मा को भावित) करते हुए, जिस प्रकार अपना नाम स्वयं के लिए परिचित होता है, उसी तरह 'सूत्र' (आगमादि) को इतना परिचित कर लेता है कि रात हो या दिन, उच्छ्वास, प्राण जैसे लघु काल लव, मुहूर्त आदि के अन्दर ही, सूत्रपरावर्तन के अनुरूप, उसके द्वारा समस्त 'सूत्र' का सम्यक्तया ज्ञान (स्वाध्याय) कर लिया जा सकता है। उसके बाद, एकत्व-सम्बन्धी भावना से आत्मा को भावित करते हुए, वह अपने सिंघाड़े के साधु आदि के साथ पूर्वकृत आलाप, सूत्रार्थ-सम्बन्धी वचन-व्यवहार, सुख-दुःखादि की जानकारी, परस्पर-कथा (बातचीत) आदि समस्त सम्बन्धों का त्याग कर देता है। इस प्रकार वह बाह्य ममत्व का निर्मूल उच्छेद करने के बाद, देह, उपकरण आदि से स्वयं की आत्मा को भिन्न रूप में देखते हुए, सर्वतः उन सब में भी निरासक्त हो जाता है। Ma 24 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलभावनायां बलं द्विविधम्- शारीरम्, मानसधृतिबलं च / तत्र शारीरमपि बलं जिनकल्पाहस्य शेषजनातिशायिकमेष्टव्यम्, तपःप्रभृतिभिस्त्वपकृष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तथाविधं न भवति, तथापि धृतिबलेनाऽऽत्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोसगैर्न बाध्यते। एताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्भाविताऽऽत्मा जिनकल्पिकप्रतिरूपो गच्छेऽपि प्रतिवसन्नाहारादि परिकर्म प्रथममेव करोति, तबाहारे तृतीयपौरुष्यामवगाढायां वल्ल-चणकादिकमन्तं प्रान्तं रूक्षं च संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य। उग्गिहिआ पग्गहिआ उज्झिअधम्मा य सत्तमिया॥ [संसृष्टासंसृष्टे उद्धृता तथा भवत्यल्पलेपा च / उद्गृहीता प्रगृहीता उज्झितधर्मा च सप्तमी॥] एतासां सप्तानां पिण्डैषणानां मध्ये आद्यद्वयवर्जं शेषपञ्चानां मध्यादन्यतरैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽऽहारं गृह्णाति- एकया भक्तम्, अपरया त्वेषणया पानकमिति। एवमाद्यागमोक्तविधिना गच्छान्तर्गतः पूर्वमेवाऽऽत्मानं परिकर्म्य ततो जिनकल्पं प्रतिपित्सुः सङ्गं मीलयति, तदभावे स्वगणं तावदवश्यमाह्वयते। ततस्तीर्थकरसमीपे, तदभावे गणधरसंनिधाने, तदसत्त्वे चतुर्दशपूर्वधरान्तिके, तदसंभवे दशपूर्वधराभ्यर्णे, तदलाभे तु वटाऽश्वत्थाऽशोकवृक्षादीनामासत्तौ जिनकल्पमभ्युपगच्छति। निजपदव्यवस्थापितं सूरिम्, सबालवृद्धं गच्छम्, विशेषतः पूर्वविरुद्धांश्च क्षमयति, तद्यथा .. बल-सम्बन्धी भावना के प्रसंग में ज्ञातव्य है कि बल दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक धैर्य-बल। इन (दोनों) में, 'जिनकल्प' स्वीकार करने वाले के लिए अन्य व्यक्तियों की तुलना में शारीरिक बल अधिक होना चाहिए। इसी प्रकार, तप आदि से (शारीरिक) कृशता होने पर, यद्यपि शारीरिक बल पहले जैसा नहीं रहता, तो भी धैर्य-बल से आत्मा को इस प्रकार भावित करना चाहिए कि बड़े से बडे परीषहों व उपसर्गों के होने पर भी कोई बाधा नहीं हो। इन पांच (प्रशस्त) भावनाओं के माध्यम से भावित होने वाली आत्मा 'जिनकल्प' की प्रतिमूर्ति होती है। ऐसे साधक गच्छ में रहते हुए भी, सर्वप्रथम आहारादि-सम्बन्धी परिकर्म करता है, जब तीसरी पौरुषी पूर्ण होने को होती है, तब नीरस, रूखे-सूखे बाल चने आदि (आहार में) ग्रहण करता है। (कहा भी गया है-) संसृष्टा, असंसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा, उद्गृहीता, प्रगृहीता व उज्झितधर्मा -ये सात पिण्डैषणाएं होती हैं। ____ इन सात पिण्डैषणाओं में से पहली दो को छोड़ कर शेष पांच पिण्डैषणाओं में किन्हीं दो एषणाओं को स्वीकार कर वह आहार-पानी लेता है- एक एषणा से आहार, और दूसरी से पानी / इस प्रकार. आगमोक्त विधि से, गच्छ में रहते हए. पहले आत्मा को भावित करता है और तदनन्तर, जिनकल्प को स्वीकार करने का इच्छुक साधक संघ को एकत्रित करता है, संघ के अभाव में स्वयं के गच्छ को तो अवश्य बुलाता ही है। उसके बाद, तीर्थंकर के पास, वे न मिलें तो गणधर के पास, उनके अभाव में चतुर्दशपूर्वधर के पास, वे भी न हों तो दशपूर्वधर के पास, या फिर उनके अभाव में वट, अश्वत्थ (पीपल), अशोक वृक्ष आदि की सन्निधि में 'जिनकल्प' को स्वीकार करता है। अपने पद पर प्रतिष्ठित किये गये सूरि (आचार्य) से, गच्छ के आबालवृद्ध साधुओं से और विशेषकर पूर्व में जिनसे विरोध रहा हो, उनसे इस प्रकार क्षमा मांगता हैV----------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 25 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ किंचि पमाएणं न सुटू भे वट्टिअं मए पुव्विं। तं भे! खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ य॥१॥ [यदि किञ्चित् प्रमादेन न सुष्ठु युष्माकं वर्तितं मया पूर्वम् / तं भगवन् ! क्षमयाम्यहं निःशल्यो निष्कषायश्च // 1 // आणंदमंसुपायं कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। खामंति ते जहरिहं जहारिहं खामिआ तेणं // 2 // आनन्दाश्रुपातं कुर्वाणास्तेऽपि (साधवः) भूमिगतशीर्षाः। क्षमयन्ति ते यथार्ह क्षमितास्तेन // 2 // खामेंतस्स गुणा खलु निस्सल्लयविणयदीवणा मग्गे। लाघवियं एगत्तं अप्पडिबन्धो अजिणकप्पो // 3 // क्षमयतश्च गुणाः खलु निःशल्यक-विनयदीपना मार्गे। लाघवमेकत्वमप्रतिबन्धश्च जिनकल्पः॥ 3 // ] निजपदस्थापितसूरिप्रभृतीनामनुशास्तिं प्रयच्छति, तद्यथापालेज सगणमेयं अप्पडिबद्धो य होज सव्वत्थ। एसो हु परंपरओ तुमं पि अंते कुणसु एवं॥१॥ [पालयेः स्वगणमेतमप्रतिबद्धश्च भवेः सर्वत्र। एष खलु परम्परकस्त्वमप्यन्ते कुर्या एवम् // 1 // पुव्वपउत्तं विणयं मा हुपमाएहि विणयजोग्गेसु। जो जेण पगारेणं उवजुजइ तं च जाणाहि॥२॥ पूर्वप्रवृत्तं विनयं मा खलु प्रमादयेः विनययोग्येषु / यो येन प्रकारेण उपयुज्यते तं च जानीहि // 2 // 'प्रमादवश पूर्व में मेरा आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं रहा हो, उसके लिए मैं, शल्यहीन व कषायरहित होकर, आप सब से क्षमा मांगता हूं (और क्षमा करता हूं ) // 1 // इस प्रकार, यथायोग्य रीति से क्षमा-याचना करने पर, वे (संघस्थ साधु आदि) भी, सानन्द अश्रुपात करते हुए, अपने सिर को भूमि पर झुकाते हुए, यथायोग्य रीति से क्षमा मांगते हैं (और क्षमा करते हैं) // 2 // क्षमा करने व मांगने वाले साधक को उसके मोक्षमार्ग में निःशल्यता, विनय, मार्ग-प्रगति, एकत्व, लघुता और जिनकल्प में अप्रतिबन्ध (निर्विघ्नता)- ये गुण निश्चित रूप से प्राप्त होते हैं // 3 // इसके बाद, अपने पद पर प्रतिष्ठापित आचार्य (सूरि) आदि को वह अनुशासन (शिक्षा) प्रदान करता है "आप अपने गण का पालन-पोषण करते रहें, और सर्वथा निरासक्त रहें। और अन्त में (आप भी मेरी तरह आचार्य-शिष्य की क्रमिक परम्परा को अव्यवच्छिन्न रूप से बनाये रख कर, अंत में जिनकल्प को स्वीकार करने की) इस परम्परा का पालन करें।१॥" ___ “जो विनययोग्य हों, उनके प्रति पूर्वपरम्परानुरूप विनय-भाव करने में कभी प्रमाद न करें और जो जिस कार्य के लिए उपयुक्त (योग्य) हो, उसे उसी रूप में नियोजित करना- इसे भी जानें (ध्यान में रखें)" || Na 26 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओमो समराइणिओ अप्पतरसुओ य मा एणं तुब्भे।परिभवह एस तुम्हवि विसेसओ संपयं पुज्जो // 3 // अवमः समारान्निकोऽयम्, अल्पतरश्रुतश्च मा एनं यूयम्। परिभवत एष युष्माकमपि साम्प्रतं पूज्यः॥३॥] इत्यादिशिक्षां दत्त्वा गच्छाद् विनिर्गते चक्षुर्गोचरातीते तस्मिन्नानन्दिताः साधवः प्रतिनिवर्तन्ते। उक्तं च पक्खीय पत्तसहिओ सभंडगो वच्चए निरवइक्खो।धीरो घणवन्दाओचनीहरिओ विजुपुंजो व्व॥१॥ सीहम्मि व मन्दरकन्दराओ गच्छा विणिग्गए तम्मि। चक्खुविसयमइगए अइंति आणंदिआ साहू॥२॥ [पक्षीव पत्रसहितः सभाण्डकः (सपात्रक:) व्रजति निरपेक्षः। धीरो घनवृन्दाच्च निःसतो विद्युत्पुञ्ज इव // 1 // सिंहे इव मन्दरकन्दराया गच्छाद् विनिर्गते तस्मिन्। चक्षुर्विषयमतिगते च यान्ति आनन्दिताः साधवः॥२॥ आभोएउं खेत्तं निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। गन्तूण तत्थ विहरे साहू पडिवन्नजिणकप्पो // 3 // आभोग्य (विज्ञाय) क्षेत्र निर्व्याघातेन (विघ्नाभावेन)मासनिर्वाहि (मासनिर्वहणसमर्थं)गत्वा तत्र विहरेत् साधुः प्रतिपन्नजिनकल्पः॥३॥] एवं च प्रतिपन्नजिनकल्पो यत्र ग्रामे मासकल्पं चतुर्मासकं वा करिष्यति, तत्र षड् भागान् कल्पयति। ततश्च यत्र भागे एकस्मिन् दिने गोचरचर्यायां हिण्डितस्तत्र पुनरपि सप्तम एव दिवसे पर्यटति, भिक्षाचर्यां ग्रामान्तरगमनं च तृतीयपौरुष्यामेव करोति। चतुर्थपौरुषी च यत्राऽवगाहते, तत्र नियमादवतिष्ठते। (तदनन्तर अन्य साधुओं को उपदेश देता है-) “यह (नवस्थापित आचार्य) मेरे से छोटा है, या दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से कनिष्ठ है, या फिर मेरी अपेक्षा यह अल्पश्रुत (अल्पज्ञानी) है- इस तरह (सोचकर) इस (आचार्य) का आप लोग पराभव (तिरस्कार या उपेक्षा) नहीं करना, क्योंकि अब यह आप सब के लिए विशेष रूप से पूज्य (बन गया) है // 3 // " ___ -इत्यादि शिक्षा देकर, वह जिनकल्पी मुनि गच्छ से निष्क्रमण कर (सब की) आंखों से ओझल हो जाता है और (उसके अनुयायी सभी) साधु आनन्दित होते हुए लौट आते हैं। कहा भी है• “पंख-सहित पक्षी की तरह मात्र उपकरण-सहित निरपेक्ष होकर, तथा मेघपटल से निकले हुए बिजली-पुञ्ज की तरह, या पर्वत-गुफा से निकलने वाले सिंह की तरह धीरता सम्पन्न वह (जिनकल्पी साधु) गच्छ से निकल कर, जब आंखों से ओझल हो जाता है तो (अनुयायी) साधु आनन्दित होते हैं // 1-2 // " __"तदनन्तर, जिनकल्प को अंगीकार कर चुका साधु विघ्न-बाधा से रहित तथा मासपर्यन्त व्यवहार-योग्य किसी क्षेत्र में जाकर विहार करता है // 3 // " - इस प्रकार, जिनकल्पी साधु जिस ग्राम में मासकल्प या चातुर्मास करता है, उस क्षेत्र को वह (कल्पित रूप से) छः भागों में बांटता है। जिस भाग में एक दिन गोचर-चर्या (आहार) हेतु भ्रमण किया था, वहां वह पुनः सातवें दिन ही आता है। चाहे दूसरे ग्राम में जाना हो या भिक्षाचर्या करनी हो, वह तीसरी पौरुषी में ही करता है। चौथी पौरुषी जहां हो जाय,वहीं वह नियमतः ठहर जाता है। --------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तं पानकं च पूर्वोक्तैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽलेपकृदेव गृह्णाति। एषणादिविषयं मुक्त्वा न केनापि सार्धं जल्पति, एकस्यां च वसतौ यद्यप्युत्कृष्टतः सप्त जिनकल्पिकाः प्रतिवसन्ति, तथापि परस्परं न भाषन्ते। उपसर्गपरीषहान् सर्वानपि सहत एव,रोगेषु चिकित्सा न कारयत्येव, तद्वेदनां तु सम्यगेव विषहते, आपातसंलोकादिदोषरहित एव स्थण्डिले उच्चारादीन करोति, नाऽस्थण्डिले अममत्तअपरकम्मा नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। एमेव य थेराणं मोत्तूण पमजणं एक्कं // [अममत्वाऽपरिकर्माणो नियमाज्जिनकल्पिकानां वसतयः। एवमेव च स्थविराणां मुक्त्वा प्रमार्जनमेकम्॥] - इति वचनात् परिकर्मरहितायां वसतौ तिष्ठति, यधुपविशति तदा नियमादुत्कुटुक एव, न तु निषद्यायाम्, औपग्रहिकोपकरणस्यैवाऽभावादिति। मत्तकरि-व्याघ्र-सिंहादिके च संमखे समापतत्यन्मार्गगमनादिना ईर्यासमितिं न भिनत्ति इत्याद्यन्याऽपि जिनकल्पिकानां सामाचारी समयसमुद्रादवगन्तव्या। "ठिई चेव त्ति' तथा पूर्वोक्ते द्विविधेऽपि विहारे स्थितिः श्रुतसंहननादिका ज्ञातव्या, तथाहि- जिनकल्पिकस्य तावजघन्यतो .. नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतस्त्वसंपूर्णानि दश पूर्वाणि श्रुतं भवति। प्रथमसंहननो वज्रकुड्यसमानाऽवष्टम्भश्चायं भवति। पूर्वोक्त दो एषणाओं के अभिग्रह के साथ ही, वह आहार-पानी लेता है। एषणा आदि विषयों के अलावा, वह किसी के साथ बातचीत नहीं करता। किसी एक वसति (घर) में यद्यपि उत्कृष्टतः (अधिकतम) सात जिनकल्पी रह सकते हैं, तथापि वे परस्पर बातचीत नहीं करते। सभी उपसर्गों व परीषहों को वह जिनकल्पी सहता ही है, रोग में चिकित्सा नहीं कराता, बल्कि उसकी वेदना को सम्यक्तया सहन करता है। वह आपात व संपात सम्बन्धी दोषों (मनुष्य, तिर्यश्च आदि के आवागमन एवं उनके दृष्टिविषय होने आदि) से रहित किसी स्थण्डिल (बंजर-अनुपयोगी) भूमि में ही उच्चार आदि (लघु नीति, बड़ी नीति आदि) करता है, अन्यत्र नहीं। ___ "जिनकल्पियों की वसतियां नियमतः ममत्व-रहित होती हैं- (यानी वे किसी विशेष व्यक्ति की संपत्ति नहीं समझी जातीं) तथा परिकर्म (प्रमार्जन, परिष्कार) से भी रहित होती हैं। स्थविरों की भी वसतियां वैसी ही होती हैं, किन्तु वहां प्रमार्जन-रूपी एक दोष अनुमत है, ममत्व दोष से तो वे भी रहित होती ही हैं।" उक्त वचन के अनुरूप परिकर्म (प्रमार्जन) से रहित वसति में ही जिनकल्पी (खड़ा) रहता है, यदि वह बैठता भी है तो नियमतः उकडूं (उत्कटिक आसन में ही) बैठता है, पालथी मारकर नहीं बैठता, क्योंकि उसके पास औपग्रहिक उपकरण (बिछाने हेतु, आसन, चटाई आदि) ही नहीं होते। कोई मदमत्त हाथी, व्याघ्र, सिंह आदि सामने आ जाएं, तो भी वह मार्ग बदल कर, ईर्यासमिति का भंग नहीं करता। इत्यादि अन्य भी जिनकल्पिक समाचारी का ज्ञान आगम-समुद्र से किया जा सकता है। ठिई चेव त्ति- पूर्वोक्त द्विविध विहार में अपक्षित श्रुत-संहनन आदि के विषय में भी कुछ और ज्ञातव्य है। जैसे कि जिनकल्पी के जघन्यतः (अर्थात् कम से कम) नवम पूर्व की तृतीय आचार वस्तु -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूपेण पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु, संहृतस्त्वकर्मभूमिष्वपि भवति। उत्सर्पिण्यां व्रतस्थस्तृतीयचतुर्थारकयोरेव, जन्ममात्रेण तु द्वितीयारकेऽपि, अवसर्पिण्यां तु जन्मना तृतीयचतुर्थारकयोरेव, व्रतस्थस्तु पञ्चमारकेऽपि, संहरणेन तु सर्वस्मिन्नपि काले प्राप्यते। प्रतिपद्यमानकः सामायिक-च्छेदोपस्थापनीयचारित्रयोः, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रयोरप्युपशमश्रेण्यामवाप्यते। प्रतिपद्यमानानामुत्कृष्टतः शतपृथक्त्वम्, पूर्वप्रतिपन्नानां तु सहस्रपृथक्त्वं जिनकल्पिकानां लभ्यते। जिनकल्पिकः प्रायोऽपवादं नाऽऽसेवते, जङ्घाबलपरिक्षीणस्त्वविहरमाणोऽप्याराधकः। आवश्यिकी-नषेधिकी--मिथ्यादुष्कृतगृहिविषयपृच्छोपसंपल्लक्षणाः पञ्च सामाचार्योऽस्य भवन्ति, न त्विच्छादयः। अन्ये त्वाह :- आवश्यिकी-नैषेधिकीगृहस्थोपसंपल्लक्षणास्तिस्र एव भवन्ति, आरामादिनिवासिन ओघतः पृच्छादीनामप्यसंभवादिति। लोचं चाऽसौ नित्यमेव करोति, इत्येवमाद्यपराऽपि स्थितिर्जिनकल्पिकानामागमादवसेया। परिहारविशुद्धिककल्प-सामाचार्यादिवक्तव्यताऽत्रैव ग्रन्थे पुरस्ताद् वक्ष्यते। तक का श्रुत-ज्ञान होता है और उत्कृष्टतः (अधिक से अधिक) तो सम्पूर्ण दश पूर्व तक श्रुत-ज्ञान सम्भव है। वज्र की दीवार के समान दृढ़ प्रथम 'वज्रऋषभनाराच' संहनन से वह युक्त होता है। स्वरूपतः, कल्प अंगीकार करने की स्थिति पन्द्रहों कर्मभूमियों में से कोई एक हो सकती है, किन्तु संहरण (अपहरण किये जाने की स्थिति) में अकर्मभूमियों में भी उसकी स्थिति हो सकती है। उत्सर्पिणी काल में जिनकल्पी होता है तो तीसरे व चतुर्थ आरे में ही होता है, जन्म तो दूसरे आरे में भी सम्भव है। अवसर्पिणी काल में जिनकल्पी होता है तो जन्म की दृष्टि से उसकी स्थिति तीसरे व चौथे आरे में ही होती है, तथा व्रत-अनुष्ठान की दृष्टि से पांचवें आरे में भी जिनकल्पी की स्थिति होती है। संहरण की दृष्टि से तो सभी कालों में इसकी स्थिति सम्भव है। जिनकल्प अंगीकार कर रहे साधक के सामायिक व छेदोपस्थानीय- ये दो चारित्र होते हैं। जिनकल्प अंगीकार कर चुके साधक को सूक्ष्मसांपराय व यथाख्यातचारित्र, और उपशम श्रेणीइनकी प्राप्ति होती है (क्षपक श्रेणी नहीं)। जिनकल्प स्वीकार कर रहे साधकों की संख्या उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) शतपृथक्त्व (अर्थात् दो सौ से नौ सौ तक), तथा पहले ही स्वीकार कर चुके साधकों की संख्या सहपृथक्त्व (अर्थात् दो हजार से नौ हजार तक) प्राप्त हो सकती है। जिनकल्पी प्रायः अपवाद-मार्ग का सेवन नहीं करता। यदि जंघाबल परिक्षीण हो तो वह विहार न करता हुआ भी आराधक ही होता है (अनाराधक नहीं)। आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्यादुष्कृत, गृहिविषयकपृच्छा और गृहिविषयक उपसम्पदा- ये पांचों समाचारी इसके हो सकती हैं, किन्तु इच्छा, मिच्छा आदि समाचारी नहीं होतीं। किन्तु अन्य (आचार्यों) का कथन है कि जिनकल्पी के आवश्यिकी, नैषधिकी और गृहस्थ-उपसंपत्- ये तीन ही समाचारी हो सकती हैं, क्योंकि उद्यान आदि में रहने वाले जिनकल्पी के सामान्यतः पृच्छा आदि तक की सम्भावना नहीं की जा सकती। यह नित्य ही (केश-) 'लोच' करता है। इस प्रकार, अन्य भी जिनकल्प-सम्बन्धी (विशेष) निरूपण आगम से ज्ञात किया जा सकता है। परिहारविशुद्धि कल्प की समाचारी आदि का कथन इसी ग्रन्थ में आगे किया जाएगा। Im ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 29 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथालन्दिकानां तु "तवेण सत्तेण सुत्तेण" इत्यादिका भावनादिवक्तव्यता यथा जिनकल्पिकानाम्, यस्तु विशेषः स लेशतः प्रोच्यते- तत्रोदकाः करो यावत् शुष्यति, तत आरभ्योत्कृष्टतः पञ्च रात्रिन्दिवानि यावत्कालोऽत्र समयपरिभाषया लन्दमित्युच्यते। ततश्च पञ्चरात्रिन्दिवलक्षणस्योत्कृष्टस्य लन्दस्यानतिक्रमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः। पञ्चको हि गणोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यते, ग्रामं च गृहपति-रूपाभिः षड्भिर्वीथीभिर्जिनकल्पिकवत् परिकल्पयन्ति, किन्त्वेकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पञ्च दिनानि पर्यटन्तीत्युत्कृष्टलन्दिचारिणो यथालन्दिका उच्यन्ते। एते च प्रतिपद्यमानका जघन्यतः पञ्चदश भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु सहस्रपृथक्त्वम्, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः कोटिपृथक्त्वम्, उत्कृष्टतोऽपि कोटिपृथक्त्वं भवन्ति। एते च यथालन्दिका द्विविधा भवन्ति- गच्छे प्रतिबद्धाः, अप्रतिबद्धाश्च, गच्छे च प्रतिबन्धोऽमीषां कारणतः, किञ्चिदश्रुतस्याऽर्थस्य श्रवणार्थमिति मन्तव्यमिति। पुनरेकैकशो द्विविधा:- जिनकल्पिकाः, स्थविरकल्पिकाश्च। ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः, ये तु पुनरपि स्थविरकल्पं समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविरकल्पिकाः। एतेषां च स्थविरकल्पिक-जिनकल्पिकभेदभिन्नानां यथालन्दिकानां परस्परमयं विशेषः, यदाह जिनकल्पिकों की तप, सत्त्व, सूत्र आदि भावनाओं का जो कथन किया गया है, वही यथालन्दिकों की भी जानना / किन्तु इस प्रसंग में जो विशेष बात है, उसे लेश (संक्षेप) रूप से कह रहे हैं- पानी से भीगे हाथों को सूखने में जितना समय लगे, उतने समय से लेकर उत्कृष्टतः पांच रात-दिनों तक जितना समय होता है. उसे सैद्धान्तिक परिभाषा में 'लन्द' कहते हैं। इस प्रकार, पांच रात-दिन के उत्कृष्ट 'लन्द' का अतिक्रमण न करते हुए जो विचरण करते हैं (अर्थात् अधिक से . अधिक पांच रात-दिन ही एक स्थान पर ठहरते हैं), वे 'यथालन्दिक' कहलाते हैं। इस कल्प में पांच साधुओं का गण मान्य किया जाता है। इस कल्प के साधक भी जिनकल्पियों की तरह ग्राम को गृहपंक्तियों के रूप में छ:भागों (गलियों) में कल्पित रूप से विभाजित करते हैं, किन्तु प्रत्येक गली में 55 दिनों तक ही पर्यटन करते हैं, अतः वे 'उत्कृष्टलब्दिचारी यथालन्दिक' कहलाते हैं। ऐसे 'यथालन्दिक' कल्प का अंगीकार कर रहे साधक कम से कम 15 होते हैं। उत्कृष्टतः तो सहस्रपृथक्त्व (यानी दो हजार से लेकर नौ हजार तक) हो सकते हैं। इस कल्प को पूर्व में स्वीकार कर चुके साधक तो जघन्यतः कोटिपृथक्त्व (अर्थात् दो करोड़ से लेकर नौ करोड़ तक), तथा उत्कृष्टतः भी उतने ही- अर्थात् कोटिपृथक्त्व होते हैं। ये यथालन्दिक साधक दो प्रकार के होते हैंगच्छ से जुड़े हुए और किसी गच्छ से नहीं जुड़े हुए। गच्छ से जुड़ना भी इनका किसी कारणवश ही होता है, जैसे किसी अश्रुत पदार्थ के श्रवण हेतु, ऐसा समझना चाहिए। पुनः इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक।जो जिनकल्प को अंगीकार करने वाले होते हैं, वे जिनकल्पिक होते हैं, और जो स्थविरकल्प को अंगीकार करने वाले होते हैं, वे स्थविरकल्पिक कहलाते हैं। स्थविरकल्पिक व जिनकल्पिक भेदों में विभक्त इन 'यथालन्दिक' साधकों का परस्पर कुछ अन्तर (भेद) भी होता है, जैसे कहा गया हैVie 30 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेराणं नाणत्तं अतरंतं अप्पिणन्ति गच्छस्स। गच्छे निरवजेणं करेन्ति सव्वं पि परिकम्मं // 1 // [स्थविराणां नानात्वम् अशक्नुवन्तमर्पयन्ति गच्छस्य। गच्छे निरवद्येन कुर्वन्ति सर्वमपि परिकर्म // 1 // एक्ककपडिग्गहगा सप्पाउरणा हवंति थेरा उ। जेसिं उण जिणकप्पे न य तेसिं वत्थपायाणि॥२॥ एकैकप्रतिग्रहका सप्रावरणा भवन्ति स्थविरास्तु। येषां पुनर्जिनकल्पो न च तेषां वस्त्रपात्राणि // 2 // निप्पडिकम्मसरीरा अवि अच्छिमलं पिनेअअवणिंति।विसहंति जिणा रोगंकारिति कयाइन तिगिच्छं॥३॥ निष्प्रतिकर्मशरीरा अप्यक्षिमलमपि नैवापनयन्ति। विषहन्ते जिनाः (जिनकल्पिकाः) रोगं कारयन्ति न कदापि चिकित्साम्॥३॥] इत्यलं विस्तरेण, तदर्थिना तु कल्पग्रन्थोऽन्वेषणीय इति। तस्माद् यतः प्रव्रज्या-शिक्षापदानन्तरमर्थग्रहणं विधेयम्, ततोऽर्थव्याख्यारूपेणाऽनुयोगेनाऽयमधिकारः सूत्राध्ययनकालस्यातिक्रान्तत्वेन तस्यैवेह प्रस्तुतत्वादिति स्थितम् // इति गाथार्थः // 7 // ____ आह- कृतपञ्चनमस्काराय शिष्याय सामायिकादिश्रुतं ददत्याचार्याः, तेनैव च क्रमेणाऽनुयोगमित्युक्तम्, यदि नामैवमुक्तं ततः किम्?, इत्याह अनेक स्थविरकल्पियों में जो शक्तिहीन हैं, उन्हें किसी गच्छ को सौंप दिया जाता हैं और वे गच्छ में रहते हुए निरवद्य रूप से समस्त परिकर्म करते हैं॥१॥ और वे सभी वस्त्र-पात्र रखते हैं। किन्तु जो भविष्य में जिनकल्पी होने के इच्छुक हैं, उनके वस्त्र-पात्र नहीं होते // 2 // वे (जिनकल्पी) तो शरीर की प्रतिचर्या भी नहीं करते, यहां तक कि आंख के मैल को भी वे साफ नहीं करते। सभी प्रकार की व्याधियों को वे सहन करते हैं और किसी भी रोग की कदापि चिकित्सा नहीं करते हैं // 3 // (इस सम्बन्ध में) इतना ही (निरूपण) पर्याप्त है। इस विषय में (अधिक) जानना हो तो (बृहत्) कल्पसूत्र का अध्ययन करणीय है। अस्तु, पूर्वोक्त रीति से दीक्षा और (सूत्राध्ययनरूप) शिक्षा ग्रहण करने के अनन्तर, अर्थ-ग्रहण करणीय होता है। इस प्रकार, चूंकि सूत्र-अध्ययन काल पूर्ण हो चुका है, इसलिए अर्थव्याख्यान रूप अनुयोग की ही प्रस्तुति की जा रही है- यह निष्कर्ष है| यह गाथा का अर्थ (पूर्ण) हुआ // 7 // (नमस्कारानुयोग पहले क्यों नहीं?) प्रश्नः- जिसने पंच-नमस्कार कर लिया हो, उस शिष्य को आचार्य महाराज सामायिक श्रुत का दान (ज्ञान-दान) देते हैं, और इसी क्रम से अनुयोग का भी कथन करते हैं- ऐसा कहा है। यदि ऐसी बात है तो इससे यहां क्या सिद्ध (निष्कर्ष) हुआ? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु (भाष्यकार) कर रहे हैं MA ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 31 ERY Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आईए नमोक्कारो जइ पच्छाऽऽवासयं तओ पुव्वं / तस्स भणिएऽणुओगे जुत्तो आवसयस्स तओ॥८॥ [ संस्कृतच्छाया:- आदौ नमस्कारो यदि पश्चादावश्यकं ततः पूर्वम्। तस्य भणितेऽनुयोगे युक्त आवश्यकस्य ततः॥] यदीत्यभ्युपगमे, यद्यादौ नमस्कारो दीयते ततः पश्चात् सामायिकाद्यावश्यकम्, ततस्तर्खेतदनेन न्यायेनाऽऽपतितं यदुत पूर्व प्रथमं तस्य नमस्कारस्य भणिते कृतेऽनुयोगे व्याख्याने ततो युक्तः कर्तुमावश्यकस्याऽनुयोगः, व्याख्येयाऽनुरोधेनैव हि व्याख्यानं प्रवर्तते, व्याख्येयस्य चावश्यकस्यादौ नमस्कारो देयत्वेन भवद्भिरभ्युपगम्यते, अतस्तस्यानुयोगे कृते आवश्यकस्याऽसौ कर्तुमुचितः, तत आद्यगाथायां नमोक्काराणुओगपुव्वयं आवस्सयाणुओगं वोच्छं' इति वक्तुं युक्तमिति भावः // इति गाथार्थः॥८॥ अत्रोत्तरमाह सो सव्वसुअक्खन्धब्भन्तरभूओ जओ तओ तस्स। आवासयाणुओगादिगहणगहिओऽणुओगो वि॥९॥ (8) आईए नमोक्कारो जइ पच्छाSSवासयं, तओ पुव्वं / तस्स भणिएडणुओगे जुत्तो आवस्सयस्स तओ॥ - [(गाथा-अर्थः) यदि पहले नमस्कार, और उसके बाद आवश्यक (का क्रम मान्य होता) है, तो फिर पहले उस (नमस्कार) के अनुयोग (व्याख्यान) के बाद, आवश्यक का अनुयोग उपयुक्त (सिद्ध होता) है।] व्याख्याः- 'यदि' यह पद अभ्युपम (किसी सिद्धान्त की स्वीकृति) का सूचक है। अर्थात् 'पहले नमस्कार का दान और उसके बाद सामायिक आदि आवश्यक का दान (कथन आदि) किया जाता है'- अगर ऐसा (सैद्धान्तिकमत, आपको व हमको, दोनों को मान्य) है, तो इसी न्याय (स्वीकृत सिद्धान्त) के अनुसार, यह स्वतः निष्कर्ष निकलता है कि पूर्व में 'नमस्कार' के कथन और उसके अनुयोग (व्याख्यान) के बाद, अब आवश्यक का अनुयोग करना ही उपयुक्त है। चूंकि व्याख्येय के अनुसार व्याख्यान किया जाता है, और व्याख्येय 'आवश्यक' के पूर्व नमस्कार कर लिया गया है- ऐसा आप स्वीकार करते हैं, इसलिए नमस्कार के अनुयोग कहने के बाद, आवश्यक के अनुयोग का कथन उचित ठहरता है। इसी दृष्टि से प्रथम गाथा में 'आवश्यक अनुयोग का कथन करूंगा' -यह कहना उचित (संगत) सिद्ध होता है -यह तात्पर्य है। इस प्रकार, यह गाथा का अर्थ (पूर्ण) हुआ // 8 // (नमस्कार सर्वश्रुत-अन्तर्गत है) इसी क्रम में आगे उत्तर कह रहे हैं (9) सो सव्वसुअक्खन्धब्भन्तरभूओ जओ तओ तस्स / आवासयाणुओगादिगहणगहिओऽणुओगो वि // a 32 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- स सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तरभूतो यतस्ततस्तस्य / आवश्यकानुयोगादिग्रहणगृहीतोऽनुयोगोऽपि॥] स नमस्कारः सर्वेषामप्यावश्यक-दशवैकालिकोत्तराध्ययनादिश्रुतस्कन्धानामभ्यन्तर्भूतोऽन्तर्गतो यतः, ततस्तस्य नमस्कारस्य, आदिशब्दो भिन्नक्रमे, आवश्यकादिश्रुतस्कन्धानुयोगग्रहणगृहीतोऽनुयोगोऽपि, न केवलमावश्यकादिश्रुतस्कन्धग्रहणेन तदन्तर्गतत्वाद् नमस्कार: स्वरूपेण गृह्यते, किन्त्वावश्यकादिश्रुतस्कन्धानुयोगग्रहणेन नमस्कारानुयोगोऽपि गृह्यत इत्यपि-शब्दार्थः, ततश्चावश्यकानुयोगं वक्ष्य इत्युक्तेन नमस्कारानुयोगोऽपि भणनीयत्वेन प्रतिज्ञातो द्रष्टव्य इति भावः॥ इति गाथार्थः॥९॥ कथं पुनर्नमस्कारस्य सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तरता विज्ञायते? इत्याह तस्स पुणो सव्वसुयब्भंतरया पढममंगलग्गहणा। जंच पिहो न पढिजइ नंदीए सो सुयक्खंधो॥१०॥ [संस्कृतच्छाया:- तस्य पुनः सर्वश्रुताभ्यन्तरता प्रथममङ्गलग्रहणात्। यच्च पृथक् न पठ्यते नन्द्यां स श्रुतस्कन्धः॥] [(गाथा-अर्थः) चूंकि वह (नमस्कार) समस्तश्रुतस्कन्ध में अन्तर्हित है, इसलिए आवश्यक आदि श्रुत-स्कन्ध के अनुयोग के ग्रहण में ही उस (नमस्कार) का अनुयोग भी (स्वतः) गृहीत हो जाता है। व्याख्याः - यहां 'आदि' पद 'क्रम-भिन्नता' को संकेतित कर रहा है, (अर्थात् आदि-पद से दशवैकालिक आदि का भी ग्रहण अभीष्ट है- ऐसा जानना चाहिए। अतः अर्थ हुआ कि) वह नमस्कार चूंकि आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि-इन सभी श्रुतस्कन्धों के अन्तर्गत (यानी अन्तर्निहित) है, इसलिए आवश्यक आदि 'श्रुतस्कन्ध के अनुयोग' के ग्रहण से उस ‘नमस्कार के अनुयोग' का भी ग्रहण हो जाता है, अर्थात् आवश्यक आदि श्रुतस्कन्ध के ग्रहण से उसके अन्तर्गत स्वरूपतः नमस्कार का ही ग्रहण नहीं होता, अपितु आवश्यक आदि श्रुतस्कन्ध के अनुयोग के ग्रहण से नमस्कार-सम्बन्धी अनुयोग का भी ग्रहण हो जाता है- यह 'अपि' शब्द से अभिहित हो रहा है। इस प्रकार, 'आवश्यक अनुयोग का निरूपण करूंगा'- इस कथन से नमस्कार-सम्बन्धी अनुयोग का भी कथन करूंगा- यह स्वतः प्रतिज्ञात होता है- ऐसा समझना चाहिए। यह गाथा का अर्थ हुआ // 9 // - नमस्कार समस्त श्रुत के अन्तर्भूत (अङ्गभूत ही) है- यह कैसे ज्ञात (सिद्ध) होता है- इस प्रश्न के उत्तर में कह रहे हैं (10) तस्स पुणो सव्वसुयब्भंतरया पढममङ्गलग्गहणा। जं च पिहो न पढिज्जइ, नंदीए सो सुयक्खंधो // [(गाथा-अर्थः) चूंकि नमस्कार को प्रथम मङ्गल के रूप में ग्रहण (कथन) किया गया है, इसलिए इसका समस्त श्रुत के अन्तर्गत होना स्वतःसिद्ध है। और इसीलिए, 'नन्दी सूत्र' में 'पञ्च नमस्कार' को एक पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में नहीं पढ़ा-कहा गया है।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 33 2 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य च नमस्कारस्य, सर्वाणि च तानि श्रुतानि चाऽऽवश्यकश्रुतस्कन्धादीनि तदभ्यन्तरता प्रतीयते। कुतः?, इत्याहसकलमाङ्गलिकवस्तुनः प्रथमं च तन्मङ्गलं च प्रथममङ्गलं तदध्यवसायेन सर्वश्रुतस्यादौ ग्रहणं प्रथममङ्गलग्रहणं तस्मात्; इदमुक्तं भवति- "मङ्गलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मङ्गलं" इति वचनात् प्रथममङ्गलत्वाभिप्रायेण सर्वश्रुतानामादौ नमस्कारस्य ग्रहणात् तदभ्यन्तरता प्रतीयत एव। कारणान्तरमप्याह- 'जं चेत्यादि' यद् यस्माच्चाऽसौ नमस्कारो नन्द्यध्ययने आवश्यक-दशवैकालिकादिश्रुतस्कन्धवत् तेभ्यः पृथक् ‘सुअक्खंधो त्ति' श्रुतस्कन्धत्वेन न पठ्यते, येनाऽस्य पृथक् तेभ्यः श्रुतस्कन्धरूपता स्यात्, श्रुतरूपश्चाऽसौ, ततः पृथक् श्रुतस्कन्धत्वाभावे सामर्थ्यात् सर्वश्रुताभ्यन्तरतैवाऽस्य न्याय्या। तस्माद् नन्द्यध्ययनेऽप्यस्य श्रुतस्कन्धत्वेन पृथगनुपादानं सर्वश्रुताभ्यन्तरताज्ञापनार्थमेव // इति गाथार्थः॥१०॥ यतश्चैवं नन्द्यां श्रुतस्कन्धत्वेन पृथगनुपादानात् सर्वश्रुताभ्यन्तरत्वेन ज्ञापितोऽसौ नमस्कारः, तत एवैतत् कृतं भद्रबाहुस्वामिना। किम्?, इत्याह व्याख्याः- आवश्यक आदि श्रुतस्कन्ध रूपी जो समस्त श्रुत हैं, उनमें उस नमस्कार की अन्तर्गतता (स्पष्ट) प्रतीत होती है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर में) इसलिए कहा- चूंकि नमस्कार सकल मांगलिक वस्तुओं में प्रथम (उत्कृष्ट) है, इस अभिप्राय से समस्त श्रुत के प्रारम्भ में 'पञ्च नमस्कार' का ग्रहण हो जाता है, इसलिए (वह श्रुत के अन्तर्गत है)। तात्पर्य यह है कि चूंकि मङ्गलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मङ्गलं -अर्थात् 'यह नमस्कार सभी मङ्गलों में प्रथम मङ्गल है'- ऐसा (आगम-) वचन है, इस आधार पर प्रथम मङ्गल के रूप में समस्त श्रुत के आदि में (अर्थात् उसके प्रारम्भिक अंग के रूप में) 'नमस्कार' गृहीत हो जाता है, अतः यह उस (श्रुत) के अन्तर्गत (है-ऐसा स्पष्ट) प्रतीत (सिद्ध) होता है। (इसी प्रसङ्ग में) अन्य कारण भी बता रहे हैं-जं च (इत्यादि)। चूंकि 'नन्दी' अध्ययन (सूत्र) में आवश्यक, दशवैकालिक, आदि श्रुतस्कन्धों का जैसे पृथक्-पृथक् कथन किया गया है, उस प्रकार इस (नमस्कार) को एक पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में नहीं पढ़ा है (निर्दिष्ट नहीं किया है), (यदि पढ़ा जाता तो) उन (दशवैकालिक आदि) से पृथक् इस (नमस्कार) की श्रुतस्कन्धरूपता मानी जाती। चूंकि यह (नमस्कार) श्रुतरूप है, इसलिए इसका अस्तित्व पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में नहीं है, अतः यह समस्त श्रुत के अन्तर्गत (अङ्गभूत) है- यह मानना न्यायोचित है। इसीलिए, नन्दी अध्ययन में भी इस (नमस्कार) का एक पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में पठित (निर्दिष्ट) न होना इस (नमस्कार) की समस्त श्रुत-अभ्यन्तरता का ज्ञापन करता है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 10 // चूंकि नन्दीसूत्र में पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में पठित न होने से इस नमस्कार को समस्त श्रुत के अन्तर्गत माना गया है, क्या इसी कारण से आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने सर्वप्रथम इस नमस्कार को किया है? इस (प्रश्न के समाधान के) लिए कह रहे हैंMa 34 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणं चिय सामाइयसुत्ताणुगमाइओ नमोक्कारं / , वक्खाणेउं गुरवो वयंति सामाइयसुयत्थं // 11 // [संस्कृतकापा:- तेनैव सामायिकसूत्रानुगमादितो नमस्कारम्। व्याख्यातुं गुरवो वदन्ति सामायिकसूत्रार्थम्॥] येनैवोक्तन्यायेन नन्द्यामसौ सर्वश्रुताभ्यन्तरतया ज्ञापितः, तेनैव कारणेन सामायिकसूत्रानुगमस्यादौ नमस्कारं व्याख्याय गुरवो भद्रबाहुस्वामिनो वदन्ति-अर्थव्याख्यानद्वारेण प्रकटयन्ति सामायिकश्रुतार्थम्। यदि हि पृथगसौ श्रुतस्कन्धः स्यात्, तदा "3 दसकालिअस्स तह उत्तरज्झयाऽऽयारे, सूयगडे निजुत्तिं" इत्यादिग्रन्थे आवश्यकस्य नियुक्तिं प्रतिज्ञाय नमस्कारस्य नियुक्तिकरणमसंगतमेव स्यात् ; तस्मात् तत्करणादेव सर्वश्रुताभ्यन्तरताऽस्य प्रतीयते। अतो व्यवस्थितमिदम् - आवश्यकानुयोगप्रतिज्ञाविधानेनैव नमस्कारानुयोगः संगृहीत एव, करिष्यते च नमस्कारनियुक्तिव्याख्यानावसरे भाष्यकारोऽपि तदनुयोगम्; इत्यलं विस्तरेण // इति गाथार्थः॥ तदेवं सप्रसङ्गमभिहितं योगद्वारम् // 11 // (11) तेणं चिय सामाइयसुत्ताणुगमाइओ नमोक्कारं / वक्खाणेउं गुरवो वयंति सामाइय-सुयत्थं || [(गाथा-अर्थः) उक्त कारण से ही नियुक्तिकार आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने सामायिक सूत्र के अनुगम (व्याख्यान) के प्रारम्भ में नमस्कार का व्याख्यान करने के अनन्तर (ही), सामायिक सूत्र का अर्थ-निरूपण किया है।] - व्याख्याः- चूंकि नन्दी सूत्र में नमस्कार को समस्त श्रुत के अन्तर्गत होने का संकेत किया गया है, इसी कारण से सामायिक श्रुत के अनुगम (व्याख्यान) के प्रारम्भ में नमस्कार का व्याख्यान करने के अनन्तर गुरु भद्रबाहु स्वामी ने व्याख्यान के माध्यम से सामायिक श्रुत का अर्थ प्रकट किया है। यदि यह (नमस्कार) पृथक् श्रुतस्कन्ध रूप होता तो 'आवश्यकस्य दशवैकालिकस्य तथा उत्तराध्ययन-आचाराङ्गयोः सूत्रकृताङ्गे नियुक्तिम्' इत्यादि कथन में आवश्यक की नियुक्ति करने की प्रतिज्ञा करके भी, उनके द्वारा (पहले) नमस्कार की नियुक्ति करना संगत नहीं होता। इसलिए, चूंकि उनके द्वारा वैसा किया गया है, इसी कारण से ऐसा ज्ञात होता है कि यह (नमस्कार) समस्त श्रुत के अन्तर्गत (ही) है। अतः यह सिद्ध हुआ कि आवश्यक-अनुयोग की प्रतिज्ञा करने से ही नमस्कारसम्बन्धी अनुयोग भी संगृहीत हो गया है। नमस्कार-सम्बन्धी नियुक्ति की व्याख्या करते हुए भाष्यकार भी नमस्कार-सम्बन्धी अनुयोग का भी (आगे) निरूपण करने वाले हैं। बस, इतना ही (कहना यहां) पर्याप्त है। यह गाथा का अर्थ हुआ। इस प्रकार, सप्रसङ्ग योगद्वार का निरूपण कह दिया गया है // 11 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 35 2 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयं मङ्गलद्वारमधिकृत्याऽऽह बहुविग्घाई सेयाइं तेण कयमंगलोवयारेहिं। घेत्तव्वो सो सुमहानिहिव्व जह वा महाविजा॥१२॥ [संस्कृतच्छाया:- बहुविघ्नानि श्रेयांसि तेन कृतमङ्गलोपचारैः / ग्रहीतव्यःस सुमहानिधिरिव यथा वा महाविद्या॥] 'श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि' इति वचनाद् येन बहुविघ्नानि श्रेयांसि भवन्ति, तेन कारणेन परमश्रेयोरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारैरेव स आवश्यकानुयोगो ग्रहीतव्यः। किंवत्?, इत्याह-शोभनमहारत्नादिनिधिवद्, महाविद्यावद् वा // इति गाथार्थः // 12 // क्व पुनस्तन्मङ्गलं शास्त्रस्येष्यते?, इत्याह तं मंगलमाईए मझे पजन्तए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय निहिट्ठ॥१३॥ (मङ्गलद्वार कथन) अब तृतीय मङ्गलद्वार का कथन कर रहे हैं (12) बहुविग्घाई सेयाइं तेण कयमङ्गलोवयारेहिं / घेत्तव्यो सो सुमहानिहिल जह वा महाविज्जा // [(गाथा-अर्थः) श्रेयस्कर कार्यों में बहुत-से विघ्न आते हैं, इसलिए उक्त (आवश्यक-अनुयोग) को मङ्गलाचरण करने के बाद ही उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार किसी महान् निधि को या महाविद्या को ग्रहण किया जाता है।] व्याख्याः- 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि' (अर्थात् श्रेयस्कर कार्यों में बड़े लोगों के समक्ष भी बहुत-से विध्न आ जाया करते हैं) इस कथन के अनुसार, चूंकि श्रेयस्कर कार्यों में विघ्नबहुलता होती है, इस कारण से परमश्रेयःस्वरूप इस 'आवश्यक अनुयोग' को मांगलिक औपचारिक क्रिया करके ही ग्रहण करना चाहिए। (प्रश्न-) किस प्रकार? अतः (उत्तर में) कहा- किसी सुन्दर महारत्नादि निधि की तरह, अथवा महाविद्या की तरह (अर्थात् जैसे किसी महानिधि या महाविद्या को ग्रहण करने से पूर्व मङ्गलाचरण करना अपेक्षित होता है, वैसे ही आवश्यक अनुयोग का ग्रहण करने से पूर्व मङ्गलाचरण करना अपेक्षित है)। यह गाथा का अर्थ हुआ // 12 // (तीन मङ्गल) शास्त्र में मङ्गल कहां करना? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कह रहे हैं (13) तं मङ्गलमाईए मज्झे पज्जन्तए य सत्थस्स / पढमं सत्थत्थाऽविग्घपारगमणाय निद्दिढें // Ma 36 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- तद् मङ्गलमादौ मध्ये पर्यन्तके च शास्त्रस्य। प्रथमं शास्त्रार्थाऽविघ्नपारगमनाय निर्दिष्टम् // ] तमङ्गलं शास्त्रस्यादी क्रियते, तथा मध्ये, पर्यन्ते चेति। अथैकैकस्य करणफलमाह- प्रथममङ्गलं तावच्छास्त्रार्थस्याऽविघ्नेन पारगमनाय पिपिटम् // इति गाथार्थः॥ 13 // . तस्सेव य थेजत्थं मज्झिमयं, अंतिमं पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स-पसिस्साइवंसस्स॥१४॥ . [संस्कृतच्छाया:- तस्यैव च स्थैर्यार्थ मध्यमकम्, अन्तिममपि तस्यैव। अव्यवच्छित्तिनिमित्तं शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्य // ] तस्यैव शास्त्रस्य प्रथममङ्गलकरणाऽनुभावादविघ्नेन परम्परामुपागतस्य स्थैर्यार्थं स्थिरताऽऽपादनार्थं मध्यमं मङ्गलम्, निर्दिष्टमिति वर्तते, अन्तिमं पीति' अन्त्यमपि मङ्गलं तस्यैव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्गलसामर्थ्येन स्थिरीभूतस्याऽव्यवच्छित्तिनिमित्तम्, कस्य, योऽसौ शास्त्रार्थ:?, इत्याह-शिष्यप्रशिष्यादिवंशगतस्येत्यर्थः। शिष्यप्रशिष्यादिवंशे शास्त्रार्थस्याऽव्यवच्छेदनिमित्तं चरममङ्गलमिति भावः / इति गाथार्थः॥१४॥ [(गाथा-अर्थः) शास्त्र के आदि में, मध्य में, तथा अन्त में मङ्गल किया जाता है। उनमें शास्त्र-अर्थ-सम्बन्धी निर्विघ्न पारगमन (पूर्णता) हेतु 'आदिमङ्गल' का निर्देश किया गया है।] व्याख्या:- उस मङ्गल को शास्त्र के आदि में, मध्य में तथा अन्त में भी किया जाता है। अब, (इन तीनों में) प्रत्येक के करने का फल बता रहे हैं- प्रथम (आदि) मङ्गल जो किया जाता है, उसका निर्देश तो शास्त्रार्थ (शास्त्र की निरूपणीय समग्र विषयवस्तु) की निर्विघ्न पूर्णता के लिए किया गया है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 13 // (14) . तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव / अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स // . [(गाथा-अर्थः) उसी शास्त्र की स्थिरता हेतु 'मध्य मङ्गल' का तथा शिष्य-प्रशिष्य आदि वंशपरम्परा का विच्छेद न हो- इस (उद्देश्य) के लिए 'अन्तिम मङ्गल' का निर्देश किया गया है।] . व्याख्याः- प्रथम मङ्गल के द्वारा जो शास्त्र निर्विघ्न परम्परा प्राप्त करता है, उसी की स्थिरता या उसे स्थायी रूप देने की दृष्टि से 'मध्य मङ्गल' होता है- ऐसा उसके विषय में निर्देश किया गया है। अन्तिमम् अपि- अन्तिम मङ्गल भी, मध्यमङ्गल के प्रभाववश जो शास्त्र स्थिरता प्राप्त करता है, उस शास्त्र (या उस से जुड़े लोगों) की अविच्छिन्न परम्परा (के प्रवर्तन) हेतु किया जाता है। (प्रश्न-) यह परम्परा किसकी? क्या शास्त्र की? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु कहा- शिष्य-प्रशिष्यादि- अर्थात् शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश-परम्परा की परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित होती रहे- इसलिए (किया जाता है) -यह अर्थ है। शास्त्र-अध्येता शिष्य-प्रशिष्य आदि की वंश-परम्परा में शास्त्रविशेष की अविच्छिन्न परम्परा बनी रहे- इसलिए अन्तिम मङ्गल किया जाता है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 14 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 37 382 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलकरणा सत्थं न मंगलं, अह च मंगलस्सावि। मंगलमओऽणवत्था न मंगलममंगलत्ता वा॥१५॥ [संस्कृतच्छाया:- मङ्गलकरणाच्छास्त्रं न मङ्गलम्, अथ च मङ्गलस्यापि। मङ्गलमतोऽनवस्था न मङ्गलममङ्गलत्वाद् वा॥] प्रेरक: प्राह- भो आचार्य! त्वदीयं शास्त्रं न मङ्गलं प्राप्नोति। कुतः?, इत्याह- मङ्गलकरणात्, अमङ्गले हि मङ्गलमुपादीयते, यत्तु स्वयमेव मङ्गलं तत्र किं मङ्गलविधानेन?, न हि शुक्लं शुक्लीक्रियते, नापि स्निग्धं स्नेह्यते, तस्माद् तन्मङ्गलोपादानान्यथानुपपत्तेः . शास्त्रं न मङ्गलम्। अथ मङ्गलं शास्त्रम्, मङ्गलस्याऽपि सतस्तस्याऽन्यद् मङ्गलं क्रियत इत्यभ्युपगम्यते, अत एवं सति तनवस्थामङ्गलानामवस्थानं न क्वचित् प्राप्नोति, तथाहि- यथा मङ्गलस्याऽपि सतः शास्त्रस्याऽन्यद् मङ्गलमुपादीयते, तथा मङ्गलस्याऽपि तद्रूपस्य सतोऽन्यद् मङ्गलमुपादेयम्, तस्याऽप्यन्यत्, अपरस्याऽप्यन्यत्, इत्येवमनवस्था आपतन्ती केन वार्यते? अथ शास्त्रे यदुपात्तं (मङ्गल सम्बन्धी शंका-उत्तर) (इस प्रसंग में कोई आक्षेपकर्ता पूछता है-) (15) मङ्गलकरणा सत्थं न मङ्गलं अह च मङ्गलस्सावि। मङ्गलमओऽणवत्था, न मङ्गलममङ्गलत्ता वा // [(गाथा-अर्थः) चूंकि शास्त्र के लिए मङ्गल किया जाता है तो इससे 'शास्त्र (स्वयं) मङ्गलरूप नहीं है'- यह सिद्ध होता है। यदि मङ्गलरूप का भी मङ्गल करना अपेक्षित हो तो फिर अनवस्था-दोष आता है, क्योंकि 'मङ्गल' भी अन्य मङ्गल के अभाव में अमङ्गलरूप (ही) होगा।], व्याख्याः- किसी आक्षेपकर्ता (प्रेरक) ने पूछा- हे आचार्यप्रवर! आपका शास्त्र मङ्गलरूपता को नहीं प्राप्त है। (प्रश्न) क्यों? (उत्तर-) इसलिए कि उस (शास्त्र) के लिए मङ्गल-विधान किया जाता है। क्योंकि जो मङ्गलरूप नहीं होता, उसी के लिए मङ्गल का विधान किया जाता है। जो स्वयं मङ्गलरूप हो, उसके लिए मङ्गल-विधान की क्या आवश्यकता? श्वेत वस्त्र को कोई श्वेत नहीं करता, चिकने को चिकना नहीं किया जाता। इसलिए मङ्गल किये जाने की संगति तभी बैठती है जब कि शास्त्र को अमङ्गलरूप माना जाय। अतः शास्त्र मङ्गलरूप नहीं है। अच्छा, चलो मान भी लिया कि शास्त्ररूप है, तो फिर उसके लिए अन्य मङ्गल किया जाता है तो ऐसा मानने पर भी अनवस्था-दोष आएगा और मङ्गल करने की अन्तिम स्थिति नहीं हो पाएगी, क्योंकि शास्त्र के मङ्गल होने पर भी, उस (प्रथम) मङ्गल के लिए भी अन्य(द्वितीय) मङ्गल करना होगा, और उस (द्वितीय) मङ्गल के लिए भी अन्य (ततीय) मङ्गल, उस (ततीय) मङ्गल के लिए भी अन्य (चौथा) मङ्गल और (इसी तरह) उस (चौथे) मङ्गल के लिए भी अन्य (पांचवां) मङ्गल, इस प्रकार अनवस्था जो आएगी, उसका कौन (व कैसे) निवारण करेगा? अच्छा, ऐसा मान लें कि शास्त्र में जो मङ्गल किया जाता है, उसके लिए अन्य मङ्गल की अपेक्षा नहीं होती और इस प्रकार अनवस्था नहीं हो पाएगी, तो इस स्थिति में भी दोष . Ka 38 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलं तस्यान्यमङ्गलकरणाभावत इयं नेष्यते / तत्र दूषणमाह - 'न मङ्गलमिति' शास्त्रमङ्गलीकरणार्थमुपात्तमङ्गलस्याऽनवस्थाभयेनाऽन्यमङ्गलाकरणेन तद् मङ्गलं न स्यात्, अन्यमङ्गलाभावात्, शास्त्रवत्, इत्यर्थः; इदमुक्तं भवति- यदि मङ्गलस्याऽपरमङ्गलविधानाभावेनाऽनवस्था नेष्यते, तर्हि यथा मङ्गलमपि शास्त्रमन्यमङ्गलेऽकृते मङ्गलं न भवति, तथा मङ्गलमप्यन्यमङ्गलेऽविहिते मङ्गलं न भवेत्, न्यायस्य समानत्वात्। तथा च किमनिष्टं स्यात्?, इत्याह- अमङ्गलता मङ्गलाभाव: शास्त्रे यद् मङ्गलमुपात्तं तदन्यमङ्गलशून्यत्वाद् न मङ्गलम्, तस्य च मङ्गलत्वाभावे शास्त्रमपि न मङ्गलम्, इति व्यक्त एव मङ्गलाभाव . इति भावः। वा शब्दः पक्षान्तरसूचक:- अनवस्था, मङ्गलाभावो वेत्यर्थः॥ इति गाथार्थः // 15 // अत्रोत्तरमाह सत्थत्थन्तरभूयम्मि मंगले होज कप्पणा एसा। सत्थम्मि मंगले किं अमंगलं काऽणवत्था वा?॥१६॥ [संस्कृतच्छाया:- शास्त्रार्थान्तरभूते मङ्गले भवेत् कल्पनैषा / शास्त्रे मङ्गले (मङ्गलरूपे) किममङ्गलं काऽनवस्था वा? // ] प्रदर्शित कर रहे हैं- न मङ्गलम् / अर्थात् अनवस्था-भय से शास्त्र-सम्बन्धी मङ्गल-विधान हेतु किये गये प्रथम मङ्गल के लिए अन्य मङ्गल अपेक्षित नहीं है- (ऐसा तुम्हारी ओर से समाधान मान भी लें) तो ऐसी स्थिति में (प्रथम) मङ्गल अन्य मङ्गल के अभाव में उसी प्रकार मङ्गलरूप नहीं हो पाएगा जिस प्रकार शास्त्र किसी (प्रथम) मङ्गल के अभाव में मङ्गलरूप नहीं होता- यह भाव है। तात्पर्य यह है कि (प्रथम) मङ्गल के लिए कोई अन्य (दूसरा) मङ्गल-विधान न करते हुए अनवस्था का निवारण किया जाता है तो, जिस प्रकार मङ्गल रूप शास्त्र भी (प्रथम) मङ्गल के अभाव में मङ्गलरूप नहीं हुआ, उसी प्रकार वह (प्रथम) मङ्गल भी किसी अन्य (दूसरे) मङ्गल के अभाव में मङ्गलरूप नहीं हो पाएगा, क्योंकि नियम तो(सर्वत्र) एक जैसा ही मानना होगा। तब, कौन-सा अनिष्ट होगा? इस (जिज्ञासा) के स्पष्टीकरण हेतु कहा- अमङ्गलत्वात् / अर्थात् मङ्गलरूपता ही नहीं हो पाएगी। तात्पर्य यह है कि शास्त्र में जो (प्रथम) मङ्गल किया जाता है, वह जब किसी अन्य (दूसरे) मङ्गल के अभाव में, मङ्गलरूप नहीं होगा तो शास्त्र की भी मङ्गलरूपता नहीं हो पाएगी। इस प्रकार, मङ्गलता का अभाव स्पष्ट है। 'वा' शब्द यहां पक्षान्तर (अन्य विकल्प) का सूचक है, अर्थात् या तो 'अनवस्था' होगी, या फिर मङ्गलरूपता का अभाव होगा -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 15 // पूर्व प्रश्न (पूर्वपक्ष) का उत्तर दे रहे हैं (16) सत्यंतरभूयम्मि मङ्गले होज कप्पणा एसा। सम्थम्मि मङ्गले किं अमङ्गलं काऽणवत्था वा? [(गाथा-अर्थः) यदि शास्त्र से मङ्गल पृथक् होता, तब तो यह (अनवस्था आदि की) कल्पना सम्भव थी। (किन्तु) जब शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप है, तब (वहां) अनवस्था या (उसकी) अमङ्गलरूपता कैसे (सिद्ध की जा सकती है)?] ----- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 39 र Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रादावश्यकादेरर्थान्तरभूते भेदवति मङ्गले उपादीयमाने भवेद् घटेत परेण विधीयमाना 'मंगलकरणा सत्थं न मंगलं' इत्यादिका कल्पना दोषोत्प्रेक्षालक्षणा, शास्त्रे त्वावश्यकादिके परममङ्गलस्वरूपेऽभ्युपगम्यमाने, तद्भिन्ने मङ्गले चाऽनुपादीयमाने हन्त किममङ्गलम् का वाऽनवस्था त्वया प्रेर्यते? / तस्मादाकाशरोमन्थनमेव परस्य दोषोद्भावनमिति भावः। आह- यदि शास्त्रं स्वयमेव मङ्गलम्, तर्हि तं मंगलमाईए' इत्यादिवचनात् मङ्गलं तत्र किमित्युपादीयते? / सत्यम्, किन्तु 'सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेत्तं तदभिहाणं' इत्यादिना वक्ष्यते सर्वमत्रोत्तरम्, मा त्वरिष्ठाः // इति गाथार्थः॥१६॥ अथ समर्थवादितयाऽर्थान्तरभूतत्वमपि मङ्गलस्याऽभ्युपगम्य समर्थयन्नाह अत्थतरे वि सइ मंगलम्मि नामंगला-ऽणवत्थाओ। स-पराणुग्गहकारि पईव इव मंगलं जम्हा॥१७॥ [संस्कृतच्छाया:- अर्थान्तरेऽपि सति मङ्गले नामङ्गलानवस्थे। स्वपरानुग्रहकारि प्रदीप इव मङ्गलं यस्मात्॥] . व्याख्याः- यदि आवश्यक आदि शास्त्र से मङ्गल को एक भिन्न और पृथक् पदार्थ माना जाता तभी प्रतिवादी (या आक्षेपकर्ता) द्वारा प्रस्तुत की गई 'शास्त्र मङ्गलरूप नहीं है, क्योंकि उसके लिए 'मङ्गल' किया जाता है'-यह दोष-प्रदर्शक कल्पना संगत होती, किन्तु आवश्यक आदि शास्त्र को परममङ्गलस्वरूप मानने पर, और इसके लिए इससे पृथक् कोई अन्य मङ्गल उपादेय नहीं है- ऐसा स्वीकार करने पर, किसकी अमङ्गलता और कौन-सी अनवस्था यहां सम्भावित है? (अर्थात् असम्भव है)। इसलिए, आक्षेपकर्ता द्वारा जो दोष प्रदर्शित किया गया है, वह आकाश को चबाने या जुगाली करने जैसा निरर्थक है, अर्थात् यह दोष-प्रदर्शन भी निराधार, निरर्थक है)- यह तात्पर्य है। अब, शंकाकार (आक्षेपकर्ता) पुनः शंका प्रस्तुत करता है (या उसकी ओर से शंका प्रस्तुत की जा रही है):- यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप है, तो 'तत् मङ्गलमादौ' (गाथा-13 में) इत्यादिकथन द्वारा उसके लिए मङ्गल का विधान क्यों किया जाता है? (उत्तर-) (आपकी जिज्ञासा) सही है। किन्तु (हमारा कहना है-) शिष्य-मतिमङ्गलपरिग्रहार्थम् / अर्थात् शिष्य की बुद्धि में यह बात बैठ जाय कि शास्त्र की मङ्गलरूपता है, इसलिए मङ्गल का विधान किया गया है। इस प्रकार, पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर आगे (गाथा20 में) दिया जाएगा, आप उतावले न हों। यह गाथा का अर्थ हुआ // 16 // अब, अपने वक्तृत्व-सामर्थ्य के आधार पर मङ्गल को शास्त्र से अर्थान्तरभूत (पृथक् पदार्थ) मान कर (भी, कोई दोष नहीं है-यह सिद्ध करने हेतु) उसका समर्थन कर रहे हैं (17) अत्यंतरे वि सइ मङ्गलम्मि नामङ्गलाणवत्थाओ। सपराणुग्गहकारि पईव इव मङ्गलं जम्हा // [(गाथा-अर्थः) मङ्गल को (शास्त्र से पृथक्) अर्थान्तर मानने पर भी अमङ्गलता व अनवस्था के दोष नहीं होते, क्योंकि जिस प्रकार दीपक स्वयं का तथा अन्य (को प्रकाशित करने) का अनुग्रह Na 40 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रादर्थान्तरे भेदवत्यपि मङ्गलेऽभ्युपगम्यमाने सति नाऽमङ्गलता शास्त्रस्य, नाऽप्यनवस्था। कुत:?, इत्याह- यस्मात् स्व-परानुग्रहकारि मङ्गलम्, प्रदीपवत्- यथा हि प्रदीप आत्मानं प्रकाशयमानः स्वस्याऽनुग्राहको भवति,गृहोदरवर्तिनस्तु घटपटाद्यर्थानाविष्कुर्वाणः परेषामनुग्राहकः संपद्यते, नतु स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्षते;यथा च लवणं रसवत्यामात्मनि च सलवणतामुपदर्शयत् स्वपरानुग्राहकं भवति, न त्वात्मानः सलवणतायां लवणान्तरमपेक्षते। एवमर्थान्तरभूतं मङ्गलमपि निजसामर्थ्याच्छास्त्रे स्वात्मनि च मङ्गलतां व्यवस्थापयत् स्वपरानुग्राहकं भवति / ततो मङ्गलाद् मङ्गलरूपताप्राप्तौ शास्त्रस्य तावद् वाऽमङ्गलता। यदा च मङ्गलमात्मनो मङ्गलरूपतायां मङ्गलान्तरं नापेक्षते, तदाऽनवस्थाऽपि दूरोत्सारितैव // इति गाथार्थः // 17 // पुनरन्यथा परः प्रेरयति मंगलतियंतरालं न मंगलमिहत्थओ पसत्तं ते। जइ वा सव्वं सत्थं मंगलमिह किं तियग्गहणं?॥१८॥ करता है, उसी प्रकार.मङ्गल भी (स्वयं के लिए तथा शास्त्र के लिए भी) मङ्गलरूप होकर अनुग्रहकारी होता है। व्याख्याः- शास्त्र से मङ्गल को एक भिन्न व पृथक् पदार्थ स्वीकार करने पर भी, न तो शास्त्र की अमङ्गलता और न ही अनवस्था (का दोष) सम्भावित है। (प्रश्न-) यह कैसे? (इसके उत्तर में) कह रहे हैं- चूंकि मङ्गल (लोक-प्रयुक्त) प्रदीप की तरह, स्व व पर का अनुग्रह करता है, अर्थात् जैसे दीपक स्वयं को प्रकाशित करता हुआ 'स्व' का अनुग्रह तो करता ही है, साथ ही घर के अन्दर विद्यमान घट, पट आदि पदार्थों को प्रकट करता हुआ पर-पदार्थों का भी अनुग्रह करता है, और वह / स्वयं को प्रकाशित करने में किसी अन्य दीपक की अपेक्षा भी नहीं रखता है, इसी प्रकार जैसे लवण स्वयं के नमकीनपने को तो प्रकट करता ही है, साथ ही रसोई (में बने पदार्थों) को भी नमकीन बनाता हुआ स्व और पर-दोनों का अनुग्रह करता है, और अपने नमकीनपन के लिए किसी अन्य लवण की अपेक्षा भी नहीं रखता / उसी प्रकार, मङ्गल (शास्त्र से पृथक् होता हुआ) भी स्व-सामर्थ्य से स्वकीय मङ्गलता और शास्त्र की मङ्गलता -दोनों को निष्पन्न करता हुआ, स्व-पर दोनों का अनुग्रहकर्ता होता है। इसलिए, मङ्गल से शास्त्र की मङ्गलता मानने में शास्त्र की अमङ्गलता (सिद्ध) नहीं हो पाती। जब मङ्गल स्वकीय मङ्गलता में अन्य मङ्गल की अपेक्षा नहीं रखता, तो अनवस्था (रूपकल्पना या सदोषता) तो दूर ही रह जाती है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 17 // (त्रिविध मङ्गलग्रहण क्यों?) अब, आक्षेपकर्ता पुनः अन्य प्रकार से (आचार्य के समक्ष) दोष प्रदर्शित कर रहा है (18) मङ्गलतियंतरालं न मङ्गलमिहत्थओ पसत्तं ते। जइ वा सव्वं सत्थं मङ्गलमिह किं तियग्गहणं॥ ------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- मङ्गलत्रिकान्तरालं न मङ्गलमिहार्थतः प्रसक्तं ते। यदि वा सर्वं शास्त्रं मङ्गलमिह किं त्रिकग्रहणम्?] ' इह मङ्गलविचारप्रक्रमे, अर्थतोऽर्थापत्त्या एतत् ते तव आचार्य ! प्रसक्तं प्राप्तम्। किं तत्?, इत्याह- मङ्गलानामादिमध्याऽवसानलक्षणं त्रिकं मङ्गलत्रिकं तस्याऽन्तरालद्वयलक्षणमन्तरालं न मङ्गलमिति। यदा हि 'तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स' इत्यादिवचनादादिमध्यावसानलक्षणेषु त्रिष्वेव नियतस्थानेषु मङ्गलमुपादीयते, तदा तदव्याप्तमन्तरालद्वयमर्थापत्त्यैवाऽमङ्गलं प्राप्नोतीति भावः। पर एवाह- यदि वा सिद्धान्तवादिन् ! एवं ब्रूयास्त्वं यदुत- सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति प्रागेवोक्तम्, अतः किमेवं प्रेर्यते?।। हन्त! तर्हि 'तं मंगलमाईए' इत्यादिना किमिह मङ्गलत्रिकग्रहणं कृतम्? न हि सर्वस्मिन्नपि शास्त्रे मङ्गले 'आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलम्' इत्युच्यमानं युक्तियुक्तत्वमनुभवति। तस्मादपान्तरालद्वयस्योऽमङ्गलत्वं वा प्रतिपद्यस्व, मङ्गलत्रयग्रहणं वा मा कृथा इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८॥ __ [(गाथा-अर्थः) (आपके मत में तो) अर्थापत्ति (रूप प्रमाण) से यह प्रकट होता है कि तीन मङ्गलों का अन्तराल (मध्यवर्ती स्थान) मङ्गलरूप नहीं है। यदि समस्त शास्त्र मङ्गलरूप है तो फिर तीन-तीन मङ्गलों का ग्रहण (व्याख्यान) क्यों किया जाता है?] व्याख्याः- मङ्गल-सम्बन्धी विचार के प्रसङ्ग में, हे आचार्यप्रवर! अर्थतः यानी अर्थापत्ति द्वारा आपके कथन से यह प्रकट होता है। क्या प्रकट होता है? इसके (उत्तर के) लिए कहा- यह प्रकट होता है कि आदिमङ्गल, मध्यमङ्गल और अन्त्यमङ्गल- इन तीन मङ्गलों के अन्तराल (मध्यवर्ती स्थान) मङ्गलरूप नहीं हैं (क्यों कि वहां मङ्गल नहीं किया गया है)। जब आप 'तत् मङ्गलमादौ' (गाथा-13) इत्यादिवचनों से आदि, मध्य व अन्त्य-इन तीनों ही नियत स्थानों में मङ्गल का विधान करते हैं, तब उन मङ्गलों से अव्याप्त (अस्पृष्ट भाग) बीच के दोनों अन्तराल की अमङ्गलता अर्थापत्ति से सिद्ध हो जाती है- यह तात्पर्य है। आक्षेपकर्ता ही (आगे) कह रहा है- हे सिद्धान्तवादी! यदि आप ऐसा कहें कि समस्त शास्त्र ही मङ्गल है- यह पहले कह चुके हैं, अतः शंका क्यों कर रहे हो? तो हमारा (आक्षेपकर्ता का) यह कहना है- फिर तो और भी खेद की बात है कि फिर आपने 'मङ्गलमादौ' इत्यादिवचन से तीन प्रकार के मङ्गलों का ग्रहण (कथन) क्यों किया है? क्योंकि समस्त शास्त्र यदि मङ्गलरूप है तो आदि, मध्य व अन्त में मङ्गल किया जाना चाहिए- यह (आपका) कथन युक्तियुक्त नहीं ठहरता। इसलिए, या तो (मध्यवर्ती) दोनों अन्तरालों की अमङ्गलता को स्वीकार करो, या फिर तीन मङ्गलों का कथन मत करो- यह (आक्षेपकर्ता का) तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 18 // Na 42 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यः प्राह सत्थे तिहा विहत्ते तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो? सव्वं च निजरत्थं सत्थमओऽमंगलमजुत्तं // 19 // [संस्कृतच्छाया:- शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तदन्तरालपरिकल्पनं कुतः?। सर्वं च निर्जरार्थं शास्त्रमतोऽमङ्गलमयुक्तम्॥] .. बुद्ध्या शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तस्य शास्त्रस्यान्तरालं तदन्तरालं तस्य परिकल्पनं कुतः संभवति? - न कुतश्चिदित्यर्थः। यथा हि संपूर्णे मोदकादिवस्तुनि त्रिखण्डे विकल्पितेऽन्तरालं न संभवति, तथाऽत्रापि, इति कस्याऽमङ्गलता स्यात्? इति / यदि नाम शास्त्रं त्रिधा विभक्तम्, तथापि कथं तस्य सर्वस्याऽपि मङ्गलता? इत्याह- सर्वं चावश्यकादि शास्त्रं निर्जरार्थ कर्मापगमरूपा निर्जरा अर्थ: प्रयोजनमस्येति निर्जरार्थम्, तथा च सति तपोवत् स्वयमेव मङ्गलमिदमिति सामर्थ्याद् गम्यते। यदि नाम निर्जरार्थत्वात् तपोवत् स्वयमेवाऽऽवश्यकादिशास्त्रं मङ्गलम्, ततः किम्?, इत्याह- अतोऽमङ्गलमयुक्तम्, यतः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलम्, अतो मङ्गलात्मनि तस्मिंस्त्रिधा विभक्ते यदुच्यते 'अपान्तरालद्वयममङ्गलम्' तदयुक्तमित्यर्थः / यदि हि शास्त्रं .. (आक्षेपकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियों के समाधान हेतु) आचार्य (भाष्यकार जिनभद्रगणी) कह रहे हैं (19) सत्थे तिहा विहत्ते, तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो। सव्वं च निज्जरत्थं सत्थमओऽमङ्गलमजुत्तं // [(गाथा-अर्थः) शास्त्र के तीन विभाग करने में, उनके अन्तराल की परिकल्पना कहां से आगई? चूंकि समस्त शास्त्र (कर्मों की) निर्जरा का हेतु होता (हुआ मङ्गलरूप होता) है, इसलिए उसकी (किसी भी भाग में) अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं है।] '. ' व्याख्याः- बुद्धि (कल्पना) से शास्त्र को तीन भागों में विभक्त करने से, उनके अन्तराल की कल्पना किस प्रकार कर ली गई? अर्थात् किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है। जिस प्रकार, मोदक आदि समग्र वस्तु को तीन खण्डों में विभक्त करने पर, अन्तराल का अस्तित्व सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिए। अतः (अन्तराल के ही अभाव में) किस की अमङ्गलता होगी? आप (प्रतिवादी या आक्षेपकर्ता) का (पुनः) प्रश्न होगा कि भले ही शास्त्र को (काल्पनिक रूप से) तीन भागों में बांटा है तो भी उस समग्र शास्त्र की मङ्गलता किस प्रकार से है? तो इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं- सर्वं च / (अर्थात्) समस्त आवश्यक आदि शास्त्र निर्जरा-हेतुक हैं। निर्जरा यानी कर्मों का क्षय, वही उन (शास्त्रों) का प्रयोजन है। इस दृष्टि से, जिस प्रकार 'तप' स्वयं ही मङ्गलरूप है, उसी तरह वह (समग्र शास्त्र) भी मङ्गलरूप है- यह पूर्वोक्त कथन में अन्तर्निहित सामर्थ्य से ज्ञात होता है। यदि (कोई आक्षेपकर्ता कहे कि) शास्त्र को निर्जराहेतुक बता कर आप आखिर क्या कहना चाहते हैं? तो इसका उत्तर यह है- अमङ्गलम् अयुक्तम् / अर्थात्, चूंकि समस्त शास्त्र ही मङ्गलरूप है, ra---------- विशेषा ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 43 EE. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं मङ्गलं न भवेत् तदाऽन्यमङ्गलाऽव्याप्तत्वात् क्वापि तदमङ्गलं भवेत्, यदा तु सर्वमपि स्वयमेव तद् मङ्गलम्, तदा क्वापि तस्याऽमङ्गलता न युक्तेति भावः // इति गाथार्थः॥१९॥ अथ प्रेरकः प्राह जइ मंगलं सयं चिय सत्थं तो किमिह मंगलग्गहणं?। सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेत्तं तदभिहाणं // 20 // [संस्कृतच्छाया:- यदि मङ्गलं स्वयमेव शास्त्रं, तदा किमिह मङ्गलग्रहणम्? शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधानम्॥] .. यदि हि स्वयमेव शास्त्रं मङ्गलमिष्यते तदा'तं मंगलमाईए मझे' इत्यादिवचनात् किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते?, स्वत एव मङ्गले मङ्गलविधानस्याऽनर्थकत्वादिति भावः। इति परेण प्रेरिते गुरुराह-'सिस्सेत्यादि / शिष्यस्य मतिः शिष्यस्य मतिः शिष्यमतिस्तस्या मङ्गलपरिग्रहः सोऽर्थः प्रयोजनमस्य तत् तथा तदर्थमेव शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधानं मङ्गलाभिधानमित्यर्थः; इदमुक्तं भवति-शास्त्रादनान्तरभूतमेव मङ्गलमुपादीयते, नार्थान्तरमिति प्रागेवोक्तम्, नन्दिर्हि मङ्गलत्वेनाभिधास्यते, सा.च पञ्चज्ञानात्मिका; अतः इसकी अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं है, और इस प्रकार मङ्गलात्मक शास्त्र के तीन भाग करने पर भी मध्य के अन्तराल को अमङ्गल बताना (कथमपि) युक्तियुक्त नहीं ठहरता / यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप नहीं हो, तब तो अन्य मङ्गल के न होने से, वह कहीं भी अमङ्गलरूप हो सकता था, किन्तु जब समस्त शास्त्र ही मङ्गलरूप है, तब कहीं भी उसकी अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं हो सकती- यह तात्पर्य है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // अब पुनः आक्षेपकर्ता कहता है (और आचार्य उसका यहां समाधान भी कर रहे हैं) (20) जइ मङ्गलं सयं चिय, सत्यं तो किमिह मङ्गलग्गहणं। सीसमइमङ्गलपरिग्गहत्यमेत्तं तदभिहाणं॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप है तो फिर उसके लिए मङ्गल का ग्रहण (कथन) क्यों किया गया है? (उत्तर-) शिष्य की बुद्धि में शास्त्र की मङ्गलता स्थापित करने हेतु उस (मङ्गल) का ग्रहण (कथन) किया गया है।] व्याख्या:- यदि समस्त शास्त्र स्वयं ही मङ्गल है-ऐसा (आप) मानते हैं, तब 'तत् मङ्गलमादौ' इत्यादि (गाथा-13) में कथन कर, 'मङ्गल' का ग्रहण (निर्देश) क्यों किया गया है? जो स्वतः मङ्गल है, उसके लिए मङ्गल का विधान अनर्थक (ही) है- यह (आक्षेपकर्ता का) तात्पर्य है। इस प्रकार, पर (यानी आक्षेपकर्ता) द्वारा कहने पर गुरुवर्य कहते हैं- शिष्यमति (इत्यादि)। शिष्य की जो मति या बुद्धि, उसमें मङ्गल का परिग्रह कराना ही जो प्रयोजन, उस प्रयोजन के लिए ही उसका, यानी मङ्गल का, अभिधान या कथन किया गया है। तात्पर्य यह है- शास्त्र से मङ्गल कोई पृथक् पदार्थ नहीं हैयह पहले कहा जा चुका है, अतः मङ्गल जो किया जाता है, वह शास्त्र से भिन्न नहीं है। 'नन्दी' (सूत्र) को मङ्गलरूप (आगे) कहा जाएगा क्यों उसमें पांच ज्ञानों का वर्णन है। इसलिए आवश्यक आदि 44 -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - -- - - -- Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततः शास्त्राण्यावश्यकादीनि सर्वाण्यपि श्रुतज्ञानरूपतया नन्द्यन्तर्गतान्येव, नन्दिरपि श्रुतरूपत्वेनाऽऽवश्यकादिशास्त्रान्तर्गतैव। तस्माद् नन्देर्मङ्गलत्वेनाऽभिधाने शास्त्रान्तर्गतमेव मङ्गलमभिहितं भवति। तत्रापि नाऽमङ्गलस्य सतः शास्त्रस्य मङ्गलताऽऽपादनार्थं तदभिधानम्, किन्तु शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थम्, शिष्यो हि तस्मिन्नभिहिते मङ्गलमेतच्छास्त्रम्' इत्येवं स्वमतौ तन्मङ्गलतापरिग्रहं करोतीति भावः॥ इति गाथार्थः॥२०॥ आह-किं मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या गृहीतमेव स्वकार्यं करोति, नान्यथा? / एवमेतत्, इत्याह इह मंगलं पि मंगलबुद्धीए मंगलं जहा साहू। . मंगलतियबुद्धिपरिग्गहे वि नणु कारणं भणिअं॥२१। [संस्कृतच्छाया:- इह मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या मङ्गलं, यथा साधुः। मङ्गलत्रिकबुद्धिपरिग्रहेऽपि ननु कारणं भणितम्॥] ___ इह लोके, मङ्गलमपि सद्वस्तु मङ्गलबुद्ध्या गृह्यमाणमभिनन्द्यमानं वा मङ्गलं भवति / यथा साधुः, साधुर्हि स्वयं मङ्गलभूतोऽपि तबुद्ध्या गृह्यमाण एव प्रशस्तचेतोवृत्ते व्यस्य मंगलकार्यं करोति, अमङ्गलबुद्ध्या तु गृह्यमाणं मङ्गलमपि तत्कार्यं न करोति, यथा स एव साधुः कालुष्योपहतचेतोवृत्तेरभव्यस्य। सभी शास्त्र भी श्रुत-ज्ञान रूप होने से 'नन्दी' के अन्तर्गत ही हैं। नन्दी भी 'श्रुत' रूप होने से, आवश्यक आदि शास्त्रों के अन्तर्गत ही है। चूंकि नन्दी (सूत्र) मङ्गलरूप कहा गया है, इसलिए मङ्गल भी (आवश्यक आदि) शास्त्र के अन्तर्गत है- यह निर्दिष्ट होता है। इसके अतिरिक्त, 'शास्त्र अमङ्गल है'- ऐसा मान कर, शास्त्र के लिए मङ्गल का कथन किया गया हो- ऐसा नहीं है, अपितु वह तो शिष्यों की बुद्धि में (शास्त्रीय) मङ्गलता का परिग्रह (प्रतिष्ठापन) करने हेतु है। तात्पर्य यह है कि मङ्गल-कथन करने से 'यह शास्त्र मङ्गलरूप है' -इस प्रकार शास्त्रीय मङ्गलता का ग्रहण शिष्य अपनी बुद्धि में करता है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 20 // (प्रश्नः) क्या मङ्गल को भी मङ्गलरूप से बुद्धि में ग्रहण किया जाय, तभी वह कार्यकारी (फलप्रद) होता है, अन्यथा नहीं? (उत्तर-) हां, ऐसी ही बात है- ऐसा (प्रस्तुत गाथा में) कह रहे हैं (21) इह मङ्गलं पि मङ्गलबुद्धीए मङ्गलं, जहा साहू। मङ्गलतियबुद्धिपरिग्गहे वि नणु कारणं भणिअं॥ [(गाथा-अर्थः) यहां (स्वयं) मङ्गल होने पर भी, कोई वस्तु, मङ्गल-बुद्धि से ग्रहण करने पर ही 'मङ्गल' सिद्ध होती है, उसी प्रकार जैसे श्रमण साधु / तीन मङ्गलों के बुद्धि-परिग्रह किये जाने का भी कारण (प्रयोजन पहले) कह चुके हैं।] व्याख्याः- यहां अर्थात् इस लोक में। कोई वस्तु भले ही मङ्गलरूप हो, तो भी मङ्गल-बुद्धि से उसे ग्रहण करने या आदृत-सत्कृत किये जाने पर ही मङ्गलरूप (सिद्ध) होती है। जैसे, साधु स्वयं मङ्गलरूप होता है, तथापि यदि उसे मङ्गल रूप में (मान कर) ग्रहण किया जाय (व्यवहार किया जाय), तभी प्रशस्त चित्त (शुभ परिणाम) वाले भव्य के लिए मङ्गलकारी होता है। अमङ्गल बुद्धि से ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- 45 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह कश्चित्- नन्वेवं सत्यऽमङ्गलमप्यसाध्वादिकं मङ्गलबुद्ध्या गृह्यमाणं तत्कार्यं करिष्यति, न्यायस्य समानत्वात् / तदयुक्तम्, असाधोः स्वतो मङ्गलरूपताया अभावात्, सत्यमणिर्हि सत्यमणितया गृह्यमाणो ग्रहीतुर्गौरवमापादयति, न त्वसत्यमणिः सत्यमणितया, इत्यलं प्रसङ्गेन। आह- यद्येवम्, तर्खेकमेव मङ्गलमस्तु, तेनापि हि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहः सेत्स्यति, किं मङ्गलत्रयकरणेन?, इत्याह'मंगलतियेत्यादि' मङ्गलत्रये हि कृते शिष्यस्य बुद्धौ तत्परिग्रहो भवति। तेनाऽपि किमिति चेत्?, इत्याह- ननु तत्रापि पढमं सत्थत्थाविग्घपारगमणाय निद्दिटुं' इत्यादिना कारणं निमित्तं प्रागेव भणितं किमिति विस्मार्यते?। न च वक्तव्यमेकेनैव मङ्गलेन तत् कारणत्रयं सेत्स्यति, यतो यथैव शास्त्रं मङ्गलमपि सद् मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गलं न भवति साधुवत्, तथा शास्त्रस्याऽऽदि-मध्या-ऽवसानानि मङ्गलरूपाण्यपि मङ्गलबुद्धिपरिग्रहं विना न मङ्गलकार्यं कुर्वन्ति, इति मङ्गलत्रयाभिधानम्॥ इति गाथार्थः॥२१॥ उसे ग्रहण किया जाय तो मङ्गल भी मङ्गल रूप में कार्यकारी नहीं होता, जैसे (मङ्गल रूप) साधु भी कालुष्य-युक्त चित्त (अशुभ भाव) वाले अभव्य के लिए (मङ्गलकारी सिद्ध नहीं होता)। यहां पर कोई प्रश्न करता है- यदि ऐसा है तो अमङ्गल रूप असाधु (दुष्ट व्यक्ति) आदि को भी मङ्गल बुद्धि से ग्रहण किया जाय तो क्या वह वैसा (मङ्गलात्मक) कार्य करेगा, क्योंकि नियम तो एक जैसा होता है? (उत्तर) उक्त प्रश्न युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि असाधु में स्वतः मङ्गलरूपता नहीं है। उदाहरणार्थ- सच्ची मणि को भी सच्ची मणि के रूप में ग्रहण करने पर ही वह ग्रहण करने वाले के गौरव को बढ़ाती है, न कि सत्यमणि के रूप में ग्रहण किये जाने वाली कोई असत्य मणि गौरव को बढ़ाती है। अब, इससे अधिक विस्तार की यहां आवश्यकता नहीं है। (प्रश्न-) कोई (प्रश्नकर्ता) कहता है- यदि ऐसा है तो फिर एक ही मङ्गल किया जाय, उसी से शिष्य-मति में मङ्गल रूप से (शास्त्र का) ग्रहण सिद्ध हो जाएगा, तीन मङ्गलों के करने से क्या लाभ है? (इसके उत्तर हेतु) कहा- मङ्गलत्रिक (इत्यादि)। अर्थात् मङ्गल करने से शिष्य की बुद्धि में मङ्गलता का ग्रहण होता है। उस त्रिविध मङ्गल करने का क्या (विशेष) प्रयोजन है? अतः (इस प्रश्न के उत्तर में) कहा- प्रथमं शास्त्रार्थ (इत्यादि)। (गाथा-13 में) 'प्रथमं शास्त्रार्थ- अविघ्नपारगमनाय' इत्यादि कथन के माध्यम से इस त्रिविध मङ्गल के कारणों या निमित्त के बारे में पहले ही कहा जा चुका है, क्या उसे भूल गए? (पनः प्रश्न-) (आपने जो तीन कारण या प्रयोजन पहले बताए हैं) उन कारणों या प्रयोजनों की सिद्धि तो एक मङ्गल से भी हो सकती है? (उत्तर-) ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसे मङ्गल रूप शास्त्र भी साधु की तरह मङ्गल-बुद्धि से ग्रहण किये बिना मङ्गलकारी नहीं होता, वैसे ही शास्त्र के आदि, मध्य वा अन्त्य भाग भी, मङ्गलरूप होते हुए भी, मङ्गल-बुद्धि से गृहीत किये बिना, मङ्गलकारी नहीं होते हैं, इसलिए त्रिविध मङ्गल का कथन किया गया है| यह गाथा का अर्थ हुआ // 21 // SAL 46 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं मङ्गलाभिधानमुपपत्तिभिर्व्यवस्थाप्य मङ्गलशब्दार्थं निरूपयितुमाह मंगिजएऽधिगम्मइ जेण हि तेण मंगलं होइ। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते // 22 // [संस्कृतच्छाया:- मङ्गयतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मङ्गलं भवति। अथवा मङ्गो धर्मस्तं लाति तकं समादत्ते॥] 'अगि-रगि-लगि-वगि-मगि' इत्यादौ मगिर्गत्यर्थो धातुः, अतस्तस्याऽलच्प्रत्ययान्तस्य मञ्यतेऽधिगम्यते साध्यते यतो हितमनेन तेन कारणेन मङ्गलं भवति। अथवा मङ्ग इति धर्मस्याऽऽख्या, 'ला आदाने' धातुः, ततश्च मङ्गलाति समादत्ते इति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥ 22 // अहवा निवायणाओ मंगलमिट्ठत्थपगइपच्चयओ। सत्थे सिद्धं जं जह तयं जहाजोगमाओजं॥२३॥ [संस्कृतच्छायाः- अथवा निपातनाद् मङ्गलमिष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययतः। शास्त्रे सिद्धं यद् यथा तद् यथायोगमायोज्यम्॥] (मङ्गल पद की व्युत्पत्ति). ___ इस प्रकार, युक्तिपूर्वक मङ्गलाचरण की उपादेयता प्रतिपादित करने के बाद, मङ्गल शब्द के (व्युत्पत्तिपरक) अर्थ का कथन कर रहे हैं (22) मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिअं तेण मङ्गलं होइ। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते // [(गाथा-अर्थः) चूंकि जिससे हित प्राप्त किया जाता है, इसलिए (वह मङ्गल होता है।) अथवा मंग यानी धर्म, उसे जो ग्रहण करता है (अर्थात् धर्म के उपादान का जो हेतु है) वह 'मङ्गल' होता है।] व्याख्याः - अगि, रगि, मगि- इत्यादि में पठित 'मगि' धातु का 'गति' अर्थ है। मगि धातु से अलच्-प्रत्यय करने पर, 'मङ्गल' शब्द निष्पन्न होता है। जिसके द्वारा 'हित' तक पहुंचा जाता है, अथवा 'हित को प्राप्त किया जाता है. यानि 'हित' की सिद्धि जिसके द्वारा होती है. इसलिए (अर्थात हित-साधक होने के कारण) उसे 'मङ्गल' कहते हैं। अथवा 'मंग' यह धर्म की संज्ञा है। आदान-अर्थ वाली 'ला' धातु यहां प्रयुक्त है, इसलिए जो मंग यानी धर्म को ग्रहण करे, अर्थात् जो धर्मोपादान का हेतु है, उसे 'मङ्गल' कहते हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 22 // (23) अहवा निवायणाओ मङ्गलमिट्टत्थ-पगइ-पच्चाओ। सत्थे सिद्धं जं जह, तयं जहाजोगमाओज्जं // [(गाथा-अर्थः) अथवा (व्याकरण) शास्त्र में अभीष्ट प्रकृति व प्रत्यय सहित 'निपातन' के द्वारा, जिस प्रकार 'मङ्गल' शब्द की सिद्धि की गई है, उसे (यहां) यथोचित रूप से नियोजित कर लेना (प्रयुक्त कर लेना) चाहिए।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 47 . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा निपातनाद् मङ्गलमिति साध्यते। कथम्?, इत्याह-इष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययतः, तत्रेष्टो विवक्षितोऽर्थो यासां ता इष्टार्थाः प्रकृतयः; तद्यथा-'मकि मण्डने', 'मन ज्ञाने', 'मदी हर्षे', 'मुद मोद-स्वप्न-गतिषु', 'मह पूजायाम्' इत्येवमादि; प्रत्ययस्त्वेतासां प्रकृतीनां सर्वत्र 'अलच्' एव विधीयते, ततो मङ्गलमिति रूपं निपात्यते। व्युत्पत्तिस्त्वेवम्-मक्यतेऽलंक्रियते शास्त्रमनेति मङ्गलम्, तथा मन्यते ज्ञायते निश्चीयते विघ्नाभावोऽनेन, तथा माद्यन्ति / हृष्यन्ति मुदमनुभवन्ति, मोदन्ते, शेरते विघ्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इव जायन्ते, शास्त्रस्य पारं गच्छन्त्यनेनेति, तथा मह्यन्ते पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलमिति। एवमादि व्याकरणशास्त्रे यद् यथा निपातनं सिद्धम्, तद् यथायोगं यथासंबन्धमत्र स्वधियाऽऽयोज्यं लक्षणज्ञैः॥ इति गाथार्थः॥ 23 // मं गालयइ भवाओ मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। भासंति सत्थवसओ नामाइ चउव्विहं तं च॥२४॥ [संस्कृतच्छाया:- मां गालयति भवात् मङ्गलमिहैवमादि नैरुक्ताः। भाषन्ते शास्त्रवशतो नामादि चतुर्विधं तच्च // ]. व्याख्याः- अथवा 'मङ्गल' शब्द (को 'निपात' मान कर उस) की सिद्धि निपातन से (भी) होती है। (प्रश्न-) कैसे होती है? (उत्तर-) अभीष्ट अर्थ वाली प्रकृति से अभीष्ट प्रत्यय करके / जिस अर्थ की विवक्षा (कथन-इच्छा) हो, वह अभीष्ट अर्थ होता है, उससे युक्त प्रकृति 'इष्टार्थप्रकृति' है। जैसे, मंडन अर्थ वाली 'मगि', हर्ष अर्थ वाली 'मदि', प्रमोद, स्वप्न व गति अर्थों वाली 'मुद्', पूजा-अर्थ वाली 'मह' इत्यादि धातुरूप प्रकृतियां (इष्टार्थप्रकृति के रूप में ग्राह्य) हैं। इन प्रकृतियों से 'अलच्' प्रत्यय करते हुए 'निपातन' (व्याकरण प्रक्रिया-विशेष) से 'मङ्गल' शब्द की निष्पत्ति हो (सक) ती है। व्युत्पत्ति तो इसकी इस प्रकार है- जिससे शास्त्र का मंडन या अलंकरण हो, वह 'मङ्गल' है। जिससे निर्विघ्नता का मनन, ज्ञान या निश्चय (दृढ़ विश्वास) हो, जिससे लोग मत्त-प्रमुदित अर्थात् हर्षित हों, या शयन करें- अर्थात् निर्विघ्नता होने से अविचलित (तनावरहित) होकर सुप्त (=निश्चिन्त होकर विश्राम कर रहे) व्यक्ति की तरह हो जाएं, जिससे शास्त्र (के अन्त) का पार पाया जाता हो (=निर्विघ्न समाप्ति होती हो), तथा जिसके कारण (शास्त्र व अध्येता) महित-पूजित व प्रतिष्ठित होंवह 'मङ्गल' है। इसी तरह, व्याकरण-शास्त्र में जैसा जो निपातन सिद्ध (किया जाना सम्भव) हो, उसे यथोचित रूप में, सम्बन्ध (अर्थसंगति) के अनुरूप, अपनी बुद्धि से, लाक्षणिकों (शाब्दिक नियुक्ति के वेत्ताओं) द्वारा यहां आयोजना कर लेनी चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 23 // (24) मं गालयइ भवाओ, मङ्गलमिहेवमाइ नेरुत्ता। भासंति सत्यवसओ, नामाइ चउव्विहं तं च // [(गाथा-अर्थः) जो 'मा' (यानी पाप) से गलन कराये अर्थात् (पापरूप) संसार से दूर करायेवह 'मङ्गल' है। इत्यादि रूप से निरुक्तवादियों (वैयाकरणों) ने शास्त्रानुरूप अनेक नियुक्तियों का कथन (निर्वचन) किया है। वह 'मङ्गल' नाम (स्थापना. द्रव्य व भाव) इत्यादि रूपों से चार प्रकार का है।] a 48 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः। इह मङ्गलविचारे एवमादि नैरुक्ताः शब्दविदःशास्त्रवशतो व्याकरणानुसारेण भाषन्ते मङ्गलशब्दार्थं व्याचक्षते। आदिशब्दात् शास्त्रस्य मा भूद् गलो विघ्नोऽस्मादिति मङ्गलम्, सम्यग्दर्शनादिमार्गलयनाद् वा मङ्गलमित्यादि द्रष्टव्यम्, इत्यलं विस्तरेण। इह तत्त्व-पर्याय-भेदैर्व्याख्या, तत्र तत्त्वं शब्दार्थरूपम्, तत्तावद् निर्णीतम्। पर्यायास्तु मङ्गलं, शान्तिः, विघ्नविद्रावणमित्यादयः स्वयमेव द्रष्टव्याः। भेदांस्तु स्वयमेव निरूपयितुमाह- 'नामाइ चउव्विहं तं चेति', तच्च मङ्गलं नामादिभेदतश्चतुर्विधं भवति / तद्यथानाममङ्गलम्, स्थापनामङ्गलम्, द्रव्यमङ्गलम्, भावमङ्गलं च // इति गाथार्थः॥ 24 // तत्र नाम किमुच्यते? इत्याशक्य सामान्येन नाम्नस्तावल्लक्षणमाह: पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरपेक्खं। जाइच्छिअं च नामं जावदव्वं च पाएण॥ 25 // व्याख्याः- अथवा 'मा' यानी पाप को या स्वयं मङ्गल-कर्ता को भव यानी संसार से गालननिस्तारण करे, अर्थात् पापमुक्त कर संसार से छुड़ाए-यह 'मङ्गल' शब्द का अर्थ है। यहां 'मङ्गल' शब्द-सम्बन्धी विचार-प्रक्रिया में मङ्गलशब्द के इसी तरह के (अन्य) अर्थों को भी, नैरुक्तों यानी शब्दवेत्ता वैयाकरणों ने शास्त्र की अपेक्षा रखकर (अर्थात् शास्त्र के आधार पर) व्याकरणानुसार भाषण यानी अर्थ-व्याख्यान किया है। 'आदि' शब्द से (अन्य अर्थ भी ग्राह्य हैं, जैसे-) विघ्न जिसके कारण से न हों, वह 'मङ्गल' है, या सम्यग्दर्शन आदि (मोक्ष-) मार्ग में जो लीन (प्रवृत्त) कराये-वह 'मङ्गल' है -इत्यादि (निर्वचन भी) समझने चाहिएं। अब, अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। " (चूंकि) तत्त्व, पर्याय व भेद- इन (विचारबिन्दुओं) से व्याख्या की जाती है। इनमें तत्त्व का अर्थ है- शब्द का अर्थ / वह (मङ्गलशब्द का अर्थ) निर्णीत हो चुका / (पर्याय पर विचार करें तो) मङ्गल, शान्ति, निर्विघ्नता- इत्यादि (परस्पर) पर्याय हैं- इत्यादि स्वतः जानना-समझना चाहिए। 'भेद' रूपी निरूपण करने हेतु यहां स्वयं (भाष्यकार) कह रहे हैं- नामादि चतुर्विधं तत्। अर्थात् वह मङ्गल 'नाम' आदि भेदों से चार प्रकार का है, जैसे- नाम-मङ्गल, स्थापना-मङ्गल, द्रव्य-मङ्गल, और भावमङ्गल // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 24 // (नाम आदि निक्षेप) (नामनिक्षेप) . उन (चार भेदों) में 'नाम' किसे कहते हैं? इस प्रश्न को दृष्टि में रख कर, नाम-मङ्गल का सामान्य लक्षण कह रहे हैं (25) पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरपेक्खं / जाइच्छियं च नामं जावदव्वं च पाएण // ------- ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 49 m Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छायाः- पर्यायानभिधेयं स्थितमन्यार्थे (अन्वर्थे वा)-तदर्थनिरपेक्षम्। यादृच्छिकं च नाम यावद् द्रव्यं च प्रायेण // ]. यत् कस्मिंश्चिद् भृतकदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं क्रियते, तद् नाम भण्यते। कथंभूतं तत्?, इत्याह- पर्यायाणां शक्र-पुरन्दरपाकशासन-शतमख-हरिप्रभृतीनां समानार्थवाचकानां ध्वनीनामनभिधेयमवाच्यम्, नामवतः पिण्डस्य संबन्धी धर्मोऽयं नाम्न्युपचरितः, . स हि नामवान् भृतकदारकादिपिण्डः किलैकेन संकेतितमात्रेणेन्द्रादिशब्देनैवाऽभिधीयते, न तु शेषैः शक्र-पुरन्दर-पाकशासनादिशब्दैः, अतो नामयुक्तपिण्डगतधर्मो नाम्न्युपचरितः पर्यायानभिधेयमिति। पुनरपि कथंभूतं तन्नाम?, इत्याह- "ठिअमण्णत्थे त्ति' विवक्षिताद् भृतकदारकादिपिण्डादन्यश्चासावर्थश्चाऽन्यार्थो देवाधिपादिः, सद्भावतस्तत्र यत् स्थितम्, भृतकदारकादौ तु संकेतमात्रतयैव वर्तते, अथवा सद्भावतः स्थितमन्वर्थे- अनुगतः सम्बद्धः परमैश्वर्यादिकोऽर्थो यत्र सोऽन्वर्थः शचीपत्यादिः। __ [(गाथा-अर्थः) जो पर्याय से नहीं कहा जाता, जिसका सद्भाव विवक्षित ‘अर्थ से अन्य' या 'अन्वर्थ' में रहता है, जो (विवक्षित) अर्थ में निरपेक्ष होकर रहता है, या फिर यदृच्छा (अपनी मर्जी) से (विवक्षित) वस्तु के लिए रख दिया जाता है, और प्रायः (विवक्षित) 'द्रव्य' की स्थिति तक जिसकी सत्ता रहती है, उसे 'नाम' कहते हैं।] व्याख्याः- नौकर, बालक आदि जिस किसी का जो 'इन्द्र' आदि नाम रखा जाता है, उसे 'नाम' (इन्द्र) कहते हैं। (प्रश्न-) उसकी विशेषता क्या है? यह बता रहे हैं (उत्तर-) शक्र, पुरन्दर, पाकशासन, शतमख, हरि आदि समान (इन्द्ररूपी) अर्थ की वाचक ध्वनि-समूहों से (जिसका नामकरण किया जाता है) उसका कथन नहीं होता (अर्थात् जो नाम रखा गया है, उसी से वह वस्तु वाच्य या अभिधेय होती है, उस नाम के पर्यायवाची शब्दों से नहीं), जिसका नाम रखा गया है, उसके पिण्ड (शरीर-) गत धर्म को (इन्द्र) नाम में उपचरित किया जाता है, उस (इन्द्र) नामधारी नौकर या बालक का पिण्ड (समग्र शरीर) एक इन्द्र आदि (नियत) शब्दरूप संकेत-मात्र से ही अभिहित (सम्बोधित, व्यवहृत) होता है, न कि (इन्द्र के) शेष (पर्यायभूत) शक्र, पुरन्दर-या पाकशासन आदि शब्दों से। इसलिए, (इन्द्र-) नाम में उपचरित जो नामयुक्त पिण्डगत धर्म (अर्थात् जिसका नाम रखा गया है. उसका शरीरगत स्वरूप आदि धर्म) पर्यायों से अभिहित (वाच्य) नहीं होता। (प्रश्न-) उस नाम की और क्या विशेषता है? (उत्तर-) इसे बता रहे हैं- स्थितमन्यार्थे (या स्थितमन्वर्थे)। अर्थात् विवक्षित नौकर या बालक आदि से पृथक् किसी अन्य (वास्तविक इन्द्र रूप) 'देवों के स्वामी' आदि में उस नाम का (उसके व्यवहार का) सद्भाव होता है, जब कि नौकर या बालक आदि में तो संकेत मात्र रूप में ही (न कि अपने वास्तविक अर्थ में) उस नाम की स्थिति रहती है, अथवा उसका (अन्य किसी) 'अन्वर्थ' यानी स्वसम्बद्ध परमैश्वर्य आदि अर्थ वाले 'शचीपति' (इन्द्राणी-पति) में सद्भाव होता है। 50 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्भावतस्तत्र स्थितं भृतकदारकादौ तर्हि कथं वर्तते? इत्याह- तदर्थनिरपेक्षं तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः परमैश्वर्यादिस्तस्य निरपेक्षं संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकादौ वर्तते, इति पर्यायानभिधेयम्, स्थितमन्यार्थे, अन्वर्थे वा। तदर्थनिरपेक्षं यत् क्वचिद् भृतकदारकादौ इन्द्राधभिधानं क्रियते तद् नाम, इतीह तात्पर्यार्थः। प्रकारान्तरेणाऽपि नाम्नः स्वरूपमाह- यादृच्छिकं चेति, इदमुक्तं भवति- न केवलमनन्तरोक्तम्, किन्त्वन्यत्राऽवर्तमानमपि यदेवमेव यदृच्छया केनचिद् गोपालदारकादेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, यथा डित्थो डवित्थ इत्यादि। इदं चोभयरूपमपि कथंभूतम्?, इत्याह- यावद् द्रव्यं च प्रायेणेति- यावदेतद्वाच्यं द्रव्यमवतिष्ठते तावदिदं नामाऽप्यवतिष्ठत इति भावः। किं सर्वमपि?, न, इत्याह-प्रायेणेति, मेरु-द्वीप-समुद्रादिकं नाम प्रभूतं यावद्रव्यभावि दृश्यते, किञ्चित् त्वन्यथाऽपि समीक्ष्यते, देवदत्तादिनामवाच्यानां द्रव्याणां विद्यमानानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात्। सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम्- "नामं आवकहिअंति" (नाम यावदर्थिकम् इति) तत् प्रतिनियतजनपदादिसंज्ञामेवाऽङ्गीकृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि। तदेवं प्रकारद्वयेन नाम्नः स्वरूपमत्रोक्तम्, एतच्च तृतीयप्रकारस्योपलक्षणम्, पुस्तक-पत्र-चित्रादिलिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावलीमात्रस्याऽप्यन्यत्र नामत्वेनोळत्वादिति। (प्रश्न-) यदि शचीपति में ही उस (नाम) का सद्भाव है तो नौकर या बालक में फिर उसका सद्भाव कैसे है? इसलिए (उत्तर में) कहा- इन्द्र आदि नामों का जो परमैश्वर्य आदि (व्युत्पत्तिपरक) अर्थ है, उससे यह निरपेक्ष रहता है और उस अर्थ से शून्य (विवक्षित) नौकर या बालक आदि में उसका सद्भाव होता है, अतः वह (इन्द्र के) पर्यायों से अभिधेय नहीं होता। तात्पर्य यह है कि चाहे वह अन्य पदार्थ में या फिर अन्वर्थ में स्थित (व्यवहृत) हो, किन्तु (वाच्य या विवक्षित वस्तु का) किया गया नामकरण नौकर या बालक आदि (वाच्य या विवक्षित) अर्थ में निरपेक्ष रूप से (ही) रहता है। अन्य प्रकार भी 'नाम' का स्वरूप बता रहे हैं- यादृच्छिकम् / तात्पर्य यह है कि पहले कहे गये स्वरूप वाला ही नहीं, अपितु (कभी-कभी) अन्यत्र वर्तमान न होता हुआ भी किसी के द्वारा मनमर्जी से ग्वाले या बालक का नामकरण कर दिया जाता है, जैसे डित्थ, डवित्थ आदि, वह भी 'नाम' है। . पूर्वोक्त (अर्थात् अन्यार्थ में विद्यमान तथा यादृच्छिक-इन) दोनों प्रकार के नामों की और क्या विशेषता है? इस (जिज्ञासा के उत्तर के) लिए कहा- यावद् द्रव्यं च प्रायेण | तात्पर्य यह है कि जब तक यह वाच्य द्रव्य स्थित रहता है, तभी तक इस (नाम) की अवस्थिति रहती है। (प्रश्न-) क्या सभी नाम ऐसे होते हैं? (उत्तर-) नहीं। इसीलिए कहा-प्रायेण / मेरु, द्वीप, समुद्र आदि के प्रभूत (अधिकांश) नाम ऐसे हैं, जो द्रव्यस्थिति तक (शाश्वत) रहते हैं, किन्तु कुछ अन्य स्वरूप वाले (अशाश्वत) भी देखे जाते हैं। (जैसे कि) देवदत्त आदि नामों से वाच्य द्रव्यों के रहते हुए भी दूसरे-दूसरे नामों के परिवर्तित होते रहने को लोक में देखा जाता है। सिद्धान्त में भी जो कहा गया है कि नाम 'यावदर्थिक' (अर्थात् शाश्वत) होते हैं, वह भी प्रतिनियत जनपद आदि की संज्ञा को ही दृष्टि में रख कर कहा गया है। जैसे'उत्तर कुरु' (या भारतवर्ष में जन्मे का भारतवर्षीय) इत्यादि नाम / ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 51 4 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतच्च सामान्येन नाम्नो लक्षणमुक्तम्, प्रस्तुते त्वेवं योज्यते- यत्र मङ्गलार्थशून्ये वस्तुनि मङ्गलमिति नाम क्रियते, तद् वस्तु नाम्ना नाममात्रेण मङ्गलमिति कृत्वा नाममङ्गलमित्युच्यते / पुस्तकादिलिखितं च यद् मङ्गलमिति वर्णावलीमात्रम्, तदपि नाम च तद् मङ्गलं चेति कृत्वा नाममङ्गलमित्यभिधीयते // इति गाथार्थः // 25 // अथ सामान्येनैव स्थापनायाः स्वरूपमाह जं पुण तयत्थसुन्नं तयभिप्पाए तारिसागारं। कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व सा ठवणा // 26 // [संस्कृतच्छाया:- यत्पुनः तदर्थशून्यं तदभिप्रायेण तादृशाकारम्। क्रियते वा निराकारमितरद् वा सा स्थापना // ] सा स्थापनाऽभिधीयते, यत् किम्?, इत्याह- यत् क्रियते इन्द्रादिस्थापनारूपतया विधीयते वस्तु, पुनःशब्दो नामलक्षणात् स्थापनालक्षणस्य वैसदृश्यद्योतकः। केन?, इत्याह- तदभिप्रायेण तस्य सद्भूतेन्द्रस्याऽभिप्रायोऽध्यवसायस्तेन। कथंभूतं तद् वस्तु?, इस प्रकार, (पहले जो) दो प्रकारों से 'नाम' का स्वरूप यहां बताया गया था, किन्तु इससे तीसरे प्रकार के 'नाम' का उपलक्षण भी समझ लेना चाहिए। (जैसे) पुस्तक, पत्र या चित्र आदि में लिखित वर्णावली-रूप 'इन्द्र' आदि को भी अन्यत्र 'नाम' रूप में कहा (स्वीकारा) गया है। इस प्रकार, 'नाम' का यह सामान्य लक्षण निरूपित हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में इस (निरूपण) की योजना (संगति) इस तरह से बैठती है- जहां 'मङ्गल' अर्थ से शून्य किसी वस्तु का 'मङ्गल' यह नामकरण किया गया हो, वह वस्तु 'नाम से मङ्गल' होने के कारण 'नाम-मङ्गल' कही जाती है (या कही जाएगी)। पुस्तक आदि आदि में लिखित जो वर्णावली रूप ‘मङ्गल' शब्द है, वह भी 'नाम और (साथ ही) मङ्गल भी' इस अभिप्राय से 'नाम-मङ्गल' कहा जाता है |यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 25 // (स्थापना निक्षेप) अब सामान्यतः 'स्थापना' का स्वरूप कह रहे हैं (26) जं पुण तयत्थसुन्नं, तयभिप्पाएण तारिसागारं। कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व सा ठवणा // [(गाथा-अर्थ) और, जो शब्द के मूल (नियुक्तिगत) अर्थ से शून्य हो और मूल वस्तु के (ही) अभिप्राय से, या तो उसके आकार से युक्त, या फिर उसके आकार से शून्य वस्तु में (मूल अर्थ की) जो प्रतिष्ठापना की जाती है, वह 'स्थापना' है। यह (1) इत्वर (अल्पकालिक), (2) अन्य-अनित्वर (यावत्कथिक, शाश्वत) -इस प्रकार से (दो भेदों वाली) है।] व्याख्याः - उसे 'स्थापना' कहते हैं। (प्रश्न-) वह क्या है? कहते हैं (उत्तर-) जो इन्द्र आदि की स्थापना रूप से (स्वीकृत) की जाती है, वह वस्तु 'स्थापना' है। 'पुनः' शब्द 'नाम' के लक्षण से स्थापना की भिन्नता को दर्शाता (व्यक्त करता) है। (प्रश्न-) किस प्रकार? कहते हैं (उत्तर-) क्योंकि Ma 52 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्याह- तदर्थशून्यं स चाऽसावर्थश्च तदर्थः सद्भूतेन्द्रलक्षणस्तेन शून्यं तदर्थशून्यम् / पुनरपि कथंभूतम्?, तादृशाकारं सद्भूतेन्द्रसमानाकारम्, वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् निराकारं वा सद्भूतेन्द्राकारशून्यमित्यर्थः, चित्र-लेप्य-काष्ठ-पाषाणादिषु तादृशाकारं भवति, अक्षादिषु तु निराकारमित्यर्थः। पुनः किंभूतम्?, इत्वरम्- अल्पकालीनम्, इतरद्वा यावत्कथिकम्। तत्रेत्वरं चित्राक्षादिगतम्, यावत्कथिकं तु नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमादि, तदपि हि ‘तिष्ठतीति स्थापना' इति स्थापनात्वेन समय निर्दिष्टमेव। तदिदमिह तात्पर्यम्- यद् वस्तु सद्भूतेन्द्रार्थशून्यं सत् तबुद्ध्या तादृशाकारं निराकारं वा, स्तोककालं यावत्कथिकं वा स्थाप्यते सा स्थापनेति / प्रकृते योजना वित्थं क्रियते-चित्रकर्मादिगतः परममुनिः स्थापनं स्थापना तया मङ्गलम्, स्थाप्यत इति वा स्थापना, तया मङ्गलं स्थापनामङ्गलमिति व्यपदिश्यते // इति गाथार्थः॥२६॥ अथ भाष्यकारः स्वयमेव नाम-स्थापनामङ्गलयोरुदाहरणमुपदर्शयन्नाह इसमें उस सद्भूत इन्द्र का ही अभिप्राय यानी अध्यवसाय (आरोप) किया जाता है। (प्रश्न-) (जिसमें यह अध्यवसाय (आरोप) किया जाता है) वह वस्तु कैसी होती है? कह रहे हैं (उत्तर-) वह जो (स्थापित किये जाने वाला) सद्भूत 'इन्द्र' आदि अर्थ है, उस अर्थ से शून्य होती है। (प्रश्न-) और भी वह कैसी होती है? (उत्तर-) वह उस (अर्थ) के आकार को लिए हुए (भी) होती है। 'वा' शब्द क्रम की भिन्नता (पूर्वोक्त तदाकारता से भिन्न अतदाकारता) को इंगित करता है, अतः वह साकार से विपरीत 'निराकार' (तादृशाकारशून्य) अर्थात् सद्भूत इन्द्र आदि के आकार से रहित (भी) होती है। चित्र, लेप्य, काष्ठ व पत्थर आदि में तो (स्थापनीय) वस्तु के समान रूप आकार वाली (तादृश-आकार) होती है, किन्तु कोड़ियों आदि में 'इत्वर' (अल्पकालिक) स्थापना होती है और नन्दीश्वर चैत्य प्रतिमा आदि में शाश्वत होती है, क्योंकि (उन प्रतिमाओं को भी) 'जो स्थित रहती हैं, वह स्थापना' -इस दृष्टि से आगम में स्थापना-रूप से निर्दिष्ट किया गया है। ___तब, यहां (निष्कर्ष रूप) तात्पर्य यह हुआ कि जो वस्तु सद्भूत इन्द्र आदि अर्थ से शून्य होती हुई, उस (अर्थ-) के जैसे आकार वाली, या निराकार (तदाकारशून्य), कुछ समय के लिए या हमेशा के लिए (उस अर्थ के रूप में) प्रतिष्ठित की जाती है, वह 'स्थापना' है। प्रकृत (प्रस्तुत) प्रसंग में इसकी योजना इस प्रकार की जाती है- चित्रकर्म में स्थित परममुनि, चूंकि वहां परम मुनि की स्थापना (आरोपित मान्यता) की जाती है, या फिर परम मुनि के रूप में वह चित्र (चित्रात्मक होते हुए भी मुनि के रूप में) स्थापित है, इसलिए वह 'स्थापना-मङ्गल' है- ऐसा कहा जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 26 // - अब भाष्यकार स्वयं ही 'नाम मङ्गल' व 'स्थापना मङ्गल'-इन दोनों के उदाहरणों को प्रदर्शित करने हेतु (अग्रिम गाथा) कह रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 53 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह मंगलमिह नामंजीवा-ऽजीवोभयाण देसीओ। रूढं जलणाईणं ठवणाए सोस्थिआईणं // 27 // [संस्कृतच्छाया:- यथा मङ्गलमिह नाम जीवाजीवोभयानां देशीतः। रूढं ज्वलनादीनां स्थापनायाः स्वस्तिकादीनाम्॥] . यथाशब्द उदाहरणोपन्यासार्थः। क्व यथा?, इत्याह- जीवा-ऽजीवोभयानां ज्वलनादीनां देशीतो देशीभाषया मङ्गलमिति . नाम रूढम्, तत्र जीवस्याऽग्नेर्मङ्गलमिति नाम रूढम्, सिन्धुविषयेऽजीवस्य दवरकवलनकस्य मङ्गलमिति नाम रूढम्, लाटदेशे जीवाजीवोभयस्य तु मङ्गलमिति नाम रूढं वन्दनमालायाः, दवरिकादीनामिहाऽचेतनत्वात्, पत्रादीनां तु सचेतनत्वाज्जीवाजीवोभयत्वं भावनीयम्। स्वस्तिकादीनां तु या स्थापना लोके तस्या रूढं स्थापनामङ्गलत्वमिति शेषः॥ इति गाथार्थः॥२७॥ अथ द्रव्यलक्षणमाह दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं // 28 // (27) जह मङ्गलमिह नामं जीवाऽजीवोभयाण देसीओ। रूढं जलणाइणं ठवणाए सोत्थिआईणं // [(गाथा-अर्थ) जैसे-जीवरूप और अजीव रूप, एवं जीवाजीवोभयरूप अग्नि आदि पदार्थों में, तथा स्वस्तिक आदि (आकार-विशेष) में देशी भाषा (लौकिक बोलचाल) में 'स्थापना' के रूप में 'मङ्गल' शब्द रूढ़ (प्रचलित या व्यवहृत) होता है।] व्याख्याः- 'यथा' शब्द उदाहरण की प्रस्तुति हेतु प्रयुक्त हुआ है। (प्रश्न-) वे कौन से स्थल (उदाहरण) हैं जहां 'स्थापना' है? इस प्रश्न के समाधान-हेतु कहा- जीव और अजीव -इन दोनों प्रकार के अग्नि आदि पदार्थों का देशी भाषा (बोलचाल) में 'मङ्गल' नाम रूढ़ है। उनमें (सचेतन) जीव रूप अग्नि के लिए 'मङ्गल' यह नाम रूढ़ है। सिन्धु प्रदेश में अजीव (अचेतन) रूप ‘दवरक-वलनक' (रज्जुमय तोरण?) के लिए भी 'मङ्गल' नाम रूढ़ है। लाट देश में (आम्रपत्रों की बनी) बन्दनवार (वन्दनमाला) का भी 'मङ्गल' नाम रूढ़ है, इस (वन्दनमाला) में रज्जु (डोरी) तो अचेतन है और आम्रपत्र चेतन हैं, अतः इसे 'जीव-अजीव-उभयरूप' मानना चाहिए। (उपर्युक्त तीनों उदाहरण नाममङ्गल के हैं, किन्तु) 'स्वस्तिक' आदि की (मङ्गल-रूप में) स्थापना लोक में की जाती है, अतः इसका भी स्थापना-मङ्गल होना रूढ़ है- यह विशेष ज्ञातव्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 27 // (द्रव्य निक्षेप) अब, 'द्रव्य' का लक्षण कह रहे हैं (28) दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं // 54 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- द्रवति द्रूयते द्रोरवयवो विकारो (वा) गुणानां संद्रावः। द्रव्यं भव्यं भावस्य भूतभावं च यद् योग्यम् // ] .. 'दुद्रु गतौ' इति धातुः, ततश्च द्रवति तांस्तान् स्वपर्यायान् प्राप्नोति मुञ्चति वेति तद् 'द्रव्यम्' इत्युत्तरार्धादानीय सर्वत्र संबध्यते, तथा द्रूयते स्वपर्यायैरेव प्राप्यते मुच्यते चेति द्रव्यम्, यान् किल पर्यायान् द्रव्यं प्राप्नोति तैस्तदपि प्राप्यते, यांश्च मुञ्चति तैस्तदपि मुच्यत इति भावः। तथा द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति द्रुः सत्ता, तस्या एवाऽवयवो विकारो वेति द्रव्यम्, अवान्तरसत्तारूपाणि हि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो वा भवन्त्येवेति भावः। तथा गुणा रूपरसादयस्तेषां संद्रवणं संद्राव: समुदायो घटादिरूपो द्रव्यम्। तथा 'भव्वं भावस्स त्ति-' भविष्यतीति भावस्तस्य भावस्य भाविनः पर्यायस्य यद् भव्यं योग्यं तदपि द्रव्यम्, राज्यपर्यायाऽर्ह कुमारवत् / तथा भूतभावं चेति- भूतः पश्चात्कृतो भावः पर्यायो यस्य तद् भूतभावं तदपि द्रव्यम्, अनुभूतघृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवत्। चशब्दाद् भूतभविष्यत्पर्यायं च द्रव्यमिति ज्ञातव्यम्, भूतभविष्यघृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवदिति। [(गाथा-अर्थः) जो 'द्रवण' (अर्थात् उन-उन पर्यायों को प्राप्त करे या छोड़े अथवा जो स्वपर्यायों से प्राप्त किया जाय या छोड़ा जाय), या जो 'द्रु' यानी सत्ता, उसका अवयव (अंग) हो या विकार हो, तथा जो (रूप-रस आदि) गुणों का संद्रवण (यानी समुदाय) हो, जो 'भाव' (यानी भावी पर्याय) के योग्य हो, और जो भूत (अतीत, नष्ट) पर्याय को प्राप्त हो चुका हो, वह 'द्रव्य' होता है।] व्याख्याः - 'दु' और 'द्रु'-ये दो धातुएं गति-अर्थ (गमन, प्राप्ति, संयोजन, वियोजन) में प्रयुक्त होती हैं। जो द्रवण करता है, अर्थात् अपने-अपने पर्यायों को प्राप्त करता या छोड़ता है-उक्त कथन के साथ 'द्रव्य है' यह वाक्य गाथा के उत्तरार्ध से लाकर जोड़ देना है, तथा जो स्व-पर्यायों से प्राप्त होता है या छोड़ा जाता है, वह 'द्रव्य' है। तात्पर्य यह है कि जिन पर्यायों को द्रव्य प्राप्त करता है, वे भी उसे प्राप्त करते हैं, और जिन्हें वह छोड़ता है, वे भी उसे छोड़ रहे होते हैं। तथा जो उन-उन पर्यायों के प्रति 'द्रवण' यानी गमन करे, वह 'द्रु' यानी सत्ता (द्रव्यत्व) रूप होता है, उस (द्रु) का जो अवयव या विकार हो वह 'द्रव्य' है / तात्पर्य यह है कि (प्रत्येक घट, पट आदि) द्रव्य (-विशेष) अवान्तर सत्ता रूप होता है, इसलिए (घटसामान्य रूप, या द्रव्यत्वसामान्यरूप) महासत्ता का अवयव या विकार होता है। तथा रूप, रस आदि जो गुण हैं, उनका 'संद्राव' यानी समुदाय (समुदितरूप) ही घटादिरूप द्रव्य होता है। तथा भव्यं भावस्य। अर्थात् जो होने वाला है, उसे 'भाव' कहते हैं, उस भाव के, यानी भावी पर्याय (की प्राप्ति) के लिए जो 'भव्य' यानी योग्य होता है, वह भी 'द्रव्य' है, जैसे (भविष्य में)राज्य (के शासकत्वरूप) पर्याय के योग्य वर्तमान राजकुमार को, भावी राजा होने के योग्य होने से, 'द्रव्य राजा' कहा जाता है, उसी तरह / तथा-भूतभावं च / अर्थात् 'भूत' यानी पहले हो चुका, 'भाव' यानी पर्याय वह 'भूतभाव' भी 'द्रव्य' है। जैसे, पहले घृत का आधार रह चुके, और बाद में उससे रिक्त हो चुके घट को ‘घी का घड़ा' कहते हैं, उसी तरह। 'च' शब्द से भूत और भावी-दोनों पर्यायों से युक्त भी 'द्रव्य' है -ऐसा समझना चाहिए। जैसे, भूत में घृताधारता से रिक्त होने वाले घड़े की तरह। ------ 55 -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदपि भूतभावं तथा भूतभविष्यद्भावं च कथंभूतं सद् द्रव्यम्?, इत्याह- यद् योग्यम्, भूतस्य भावस्य भूतभविष्यतोश्च भावयोरिदानीमसत्त्वेऽपि यद् योग्यमहँ तदेव द्रव्यमुच्यते, नाऽन्यत्, अन्यथा सर्वेषामपि पर्यायानामनुभूतत्वादनुभविष्यमाणत्वाच्च सर्वस्याऽपि पुद्गलादेर्द्रव्यत्वप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 28 // आह विनेयः- ननु सामान्येन द्रव्यलक्षणमवगतम्, परं द्रव्यमङ्गलं किमभिधीयते? इति प्रस्तुतं निवेद्यताम्, इत्याह आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिसहिओ वि नोवउत्तोत्ति तो दव्वं // 29 // [संस्कृतच्छाया:- आगमतोऽनुपयुक्तो मङ्गलशब्दानुवासितो वक्ता। तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽपि नोपयुक्त इति तस्माद् द्रव्यम्॥] इह द्रव्यमङ्गलं तावद् द्विधा भवति- आगमतः- आगममाश्रित्य, नोआगमतश्च-नोआगममाश्रित्य, तत्राऽऽगमो मङ्गलशब्दार्थज्ञानस्वरूपोऽत्राऽभिप्रेतः, तमाश्रित्य 'द्रव्यं' द्रव्यमङ्गलमिति पर्यन्ते संबन्धः। कोऽसौ?, इत्याह- वक्ता मङ्गलशब्दार्थप्ररूपकः। (प्रश्न-) यह 'भूतभाव' और 'भूतभविष्यद्भाव' भी किस रूप में 'द्रव्य' है? (अर्थात् मात्र भूतपर्याय वाला होना या भावी पर्यायवाला होना ही 'द्रव्य' का लक्षण है या इसमें कुछ शर्त है?) (इस प्रश्न को दृष्टि में रखकर) कहा -(उत्तर-) जो भूत (अतीत) भाव तथा भावी भाव-ये दोनों वर्तमान में न रहें, फिर भी जो उसे (भूत या भविष्य में) प्राप्त करने के योग्य या लायक हो- वही द्रव्य कहलाता है, अन्य नहीं। अन्यथा (अर्थात् वर्तमान में अविद्यमान-यह शर्त न लगाएं तो) सभी पुद्गल आदि को द्रव्यरूपता प्राप्त (होने की दोषपूर्ण स्थिति) होने लगेगी | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 28 // द्रव्यमङ्गल (आगमतः व नोआगमतः) जिज्ञासु शिष्य ने पूछा- द्रव्य का सामान्य लक्षण तो समझ में आगया, किन्तु यह बताइए कि 'द्रव्यमङ्गल' किसे कहते हैं? इस (के समाधान के लिए कहते हैं- . (29) आगमओऽणुवजुत्तो, मङ्गलसद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिसहिओ वि, नोवउत्तो त्ति तो दव्वं // [(गाथा-अर्थः) जिसका मन मङ्गलशब्द से अनुवासित है, और सम्बन्धित ज्ञान-लब्धि से युक्त (भी) है, फिर भी (मङ्गल-शब्दार्थ में) उपयोगरहित है, मङ्गलसम्बन्धी उपयोग से रहित (और मङ्गल-शब्दार्थ का) ऐसा वक्ता (प्ररूपक) 'आगम से द्रव्यमङ्गल' है।] व्याख्याः- यहां द्रव्यमङ्गल दो प्रकार का है -(१)आगमतः यानी आगम का आश्रय लेकर (उसे दृष्टि में रखकर) और (२)नो-आगमतः अर्थात् नो-आगम का आश्रय लेकर (उसे दृष्टि में रखकर निरूपित)। मङ्गल-शब्दार्थ जो ज्ञान है, वही यहां 'आगम' रूप में अभिप्रेत है। उस (आगम) का A 56 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं सर्वोऽपि?, न, इत्याह- अनुपयुक्तः तदुपयोगशून्यः। किं विशिष्ट :?, इत्याह- मङ्गलशब्दानुवासितः मङ्गलशब्दार्थज्ञानावरणक्षयोपशमसंस्कारानुरञ्जितमनाः, तज्ज्ञानलब्धिमानिति यावत् / ननु यदि तज्ज्ञानलब्धिमांस्तर्हि किमिति द्रव्यम्?, इत्याह- 'तन्नाणेत्यादि' तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽपि मङ्गलशब्दार्थज्ञानावरणक्षयोपशमवानपि, नोपयुक्तस्तत्र मङ्गलशब्दार्थे यस्मादसौ, 'तो त्ति' तस्माद् द्रव्यमङ्गलम्। इदमुक्तं भवति- 'अनुपयोगो द्रव्यम्' इति वचनाद् मङ्गलशब्दार्थं जानन्नपि तत्रानुपयुक्तस्तं प्ररूपयंस्तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलमेव // इति गाथार्थः॥२९॥ अत्राह कश्चित्- ननु कोऽयमागमो यमाश्रित्य द्रव्यमङ्गलमिदमभिधीयते?। अत्रोच्यते- मङ्गलशब्दार्थज्ञानमत्राऽऽगमः। तर्हि प्रेर्यते, किम्?, इत्याह जइ नाणमागमो तो कह दव्वं दव्वमागमो कह णु?। आगमकारणमाया देहो सद्दो यतो दव्वं // 30 // आश्रय कर (अर्थात् उसे दृष्टि में रखकर निरूपण करें तो) -उक्त कथन का सम्बन्ध गाथा के अंत में स्थित ‘दव्वं' पद से है (अतः उक्त कथन के बाद 'वह द्रव्यमङ्गल है' यह कथन जुडेगा और तब वाक्य पूर्ण होगा)। (प्रश्न-) (द्रव्यमङ्गल से विवक्षित) वह कौन-सा पदार्थ (प्रकृत में) है? इस (प्रश्न के समाधान के लिए कहा –वक्ता / यानी मङ्गल-शब्दार्थ की प्ररूपणा करने वाला (द्रव्यमङ्गल है)। (प्रश्न-) क्या सभी मङ्गलशब्दार्थ-प्ररूपक द्रव्यमङ्गल हैं? (उत्तर-) नहीं। इसीलिए (गाथा में) कहा -अनुपयुक्तः / अर्थात् (सम्बन्धित) उपयोग से रहित / (प्रश्न-) पुनः वह (द्रव्यमङ्गल रूप वक्ता) कैसा है? (उत्तर में) कहा -मङ्गलशब्दानुवासित ।यानी मङ्गलशब्दार्थ-सम्बन्धी ज्ञानावरण के क्षयोपशमसंस्कार से अनुरञ्जित मन वाला, और तत्सम्बन्धी ज्ञान-लंब्धि से युक्त भी। (प्रश्न-) यदि वह सम्बन्धित ज्ञान-लब्धि से युक्त है तो वह 'द्रव्य' क्यों है? (उत्तर में) कहा -तज्ज्ञानलब्धि-सहितः / अर्थात् सम्बन्धित ज्ञान-लब्धि से युक्त होने पर भी, तथा मङ्गलशब्दार्थ-सम्बन्धी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से युक्त होने पर भी, चूंकि वह मङ्गल शब्दार्थ में उपयोगरहित है। तस्मात् इति / अर्थात्, इसलिए वह द्रव्यमङ्गल है। कहने का भाव यह है कि 'अनुपयोगो द्रव्यम'-इस कथन के अनुसार, मङ्गलशब्दार्थ को जानता हुआ भी, चूंकि उसमें उपयोगरहित है, इसलिए उस (मङ्गल-शब्दार्थ) की प्ररूपणा करने वाला, तत्सम्बन्धी ज्ञान-लब्धि से संपन्न होने पर भी 'आगमतः द्रव्यमङ्गल' ही है || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 29 // यहां किसी ने प्रश्न किया- आखिर यह 'आगम' क्या है, जिसके आश्रय से 'द्रव्यमङ्गल' का अभिधान (निरूपण) किया जा रहा है? (30) जह नाणमागमो तो कह दव्वमागमो कह णु। आगमकारणमाया देहो सद्दो यतो दव्वं || ----- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 57 - AM Ba ----- Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- यदि ज्ञानमागमः तस्मात्कथं द्रव्यं, द्रव्यमागमः कथं नु? / आगमकारणमात्मा देहः शब्दो यतो द्रव्यम्॥] यदि मङ्गलशब्दार्थज्ञानमागमः, तर्हि तद्वक्ताऽसौ कथं द्रव्यमङ्गलम्?, आगमस्य भावमङ्गलत्वेन द्रव्यमङ्गलत्वानुपपत्तेः। अथ द्रव्यम्- द्रव्यमङ्गलमसौ तर्हि आगमः कथम्? येनाऽऽगमत आगममाश्रित्येत्युच्यते, द्रव्ये आगमस्याऽभावात्, भावे वा ' भावमङ्गलत्वप्रसङ्गात्। तस्मादागमतो द्रव्यमङ्गलमिति दूरविरुद्धमिदम् / इति परेणोक्ते आचार्यः प्राह- आगमेत्यादि। इदमुक्तं भवति- आगमत इत्युक्तेनैतद् भवता बोद्धव्यं यदुत- न साक्षादेवाऽऽगमोऽत्राऽस्ति, किं तर्हि?, आगमस्य. मङ्गलशब्दार्थज्ञानलक्षणस्य यत् कारणं निमित्तं तदेवेह विद्यत इत्यवगन्तव्यम्। किं पुनस्तदागमस्य कारणमिहाऽवसेयम्?, इत्याहअनुपयुक्तस्य वक्तुःसंबन्धी आत्मा, जीवो, देहः शब्दश्च, जीवशरीरे हि तावदागमस्य कारणम्, तदाधारविरहितस्याऽऽगमस्याऽसंभवात्। शब्दोऽपि प्रत्याय्य शिष्यगताऽऽगमस्य कारणमेव, तमन्तरेण तस्याऽभावात्। यच्च कारणं तद् द्रव्यं भवत्येव "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके, तद् द्रव्यम्" इत्यादिवचनात्, इत्याह- 'तो त्ति-' यत एवम्, तस्माद् द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमिदमित्यर्थः।। [(गाथा-अर्थः) यदि ज्ञान आगम है तो फिर वह 'द्रव्य' कैसे? यदि वह 'द्रव्य' है तो 'आगम' किस प्रकार से है? (उत्तर-) आत्मा, देह और (जीव-) शब्द- ये आगम के कारणं हैं, इसलिए ये 'द्रव्य' हैं। व्याख्याः- यदि मङ्गलशब्दार्थ-सम्बन्धी ज्ञान 'आगम' है तो उसका वक्ता (प्ररूपण-कर्ता) कैसे 'द्रव्यमङ्गल' हुआ? क्योंकि आगम तो भावमङ्गलरूप होता है, उसमें द्रव्यमङ्गलपना संगत नहीं होता। और चलो मान भी लिया कि वह द्रव्य यानी द्रव्यमङ्गल है, तो फिर वह 'आगम' कैसे? (और आगम नहीं, तो) उसका आश्रयण कर (ज्ञानवान् को) 'आगमतः द्रव्यमङ्गल' कहना कैसे संगत है? क्योंकि यदि वह 'द्रव्य' है तो (उसमें) आगमता का अभाव होगा, और यदि वह भावरूप है तो (द्रव्यमङ्गल न होकर, उसमें) भावमङ्गलपना प्रसक्त होगा। इसलिए 'आगम से द्रव्यमङ्गल' यह कहना अत्यन्त अन्तर्विरोधपूर्ण है। किसी अन्य द्वारा ऐसा (प्रश्न) कहने पर आचार्य (भाष्यकार) ने . . (समाधान-हेतु) कहा- आगमकारणमात्मा। आचार्य का कथन (तात्पर्य) यह है कि 'आगम' कहने से आप यह समझें कि यहां साक्षात् आगम नहीं है। (प्रश्न-) तो फिर क्या है? (उत्तर-) आगम यानी मङ्गल-शब्दार्थ सम्बन्धी ज्ञान, उसका कारण या निमित्त जो है, वही यहां (आगमरूप से अभिप्रेत) है- ऐसा समझें। (प्रश्न-) तो फिर यह बताएं कि आगम का कौन-सा कारण यहां लेना है? इस (प्रश्न के समाधान के लिए कहाअनुपयुक्त (उपयोगरहित) वक्ता से सम्बन्धित आत्मा, जीव, देह व (जीव-) शब्द (-ये आगम के कारण हैं, आधारभूत हैं)। (इनमें) जीव और शरीर तो आगम के कारण हैं ही, क्योंकि उनके बिना (आगम) सम्भव नहीं है। शब्द भी शिष्य को (अर्थ) समझा कर शिष्यगत 'आगम' का कारण है। और जो भी कारण होता है, वह 'द्रव्य' होता ही है, क्योंकि कहा गया है कि 'भूत व भावी भाव का जो भी लोक में कारण होता है, वह 'द्रव्य' होता है'। इसी बात को (गाथा में) कहा- यतो (द्रव्यम्)। अर्थात् चूंकि ऐसा है (अर्थात् वे आगम के कारण हैं), इसलिए (वे) द्रव्य यानी द्रव्यमङ्गल हैं- यह भाव है। Ma 58 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यागमकारणमेवेह विद्यते, तर्हि कथमिदमागमो येनाऽऽगमतो द्रव्यमङ्गलं स्यात्? इति चेत् / उच्यते- आगमस्य कारणभूता आत्मादयोऽपि कारणे कार्योपचारादागमत्वेनोच्यन्ते, भवति च कारणे कार्यव्यपदेशः, यथा- 'तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः' / तस्मादागमतो द्रव्यमङ्गलं न विरुद्ध्यते // इति गाथार्थः॥३०॥ अथ- "नत्थि नयेहिं विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि। आसज्ज उ सोयारं नये नयविसारओ बूया"[नास्ति नयैर्विहीनं सूत्रमर्थश्च जिनमते किञ्चित्। आसाद्य तु श्रोतारं नयेन च विशारदो ब्रूयात् // ] इति वचनाज्जिनमते सर्वेऽपि पदार्था नयैर्विचारणीयाः, इत्यतो द्रव्यमङ्गलमपि नयैर्विचारयन्नाह एगो मंगलमेगं णेगा णेगाइं णेगमनयस्स। संगहनयस्स एक्कं सव्वं चिय मंगलं लोए॥३१॥ [संस्कृतच्छाया:- एको मङ्गलमेकमनेकेऽनेकानि नैगमनयस्य। संग्रहनयस्यैकं सर्वमेव मङ्गलं लोके // ] (प्रश्न-) यदि (आगम न होकर) आगम का कारण यहां है तो फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि 'आगम से द्रव्यमङ्गल है'। (उत्तर के रूप में) कह रहे हैं- आगम के कारणभूत आत्मा आदि भी जो कारण हैं, उनमें 'कार्य' का उपचार करके उन (कारणों) को 'आगम' रूप से कहा जाता है। कारण में कार्य का व्यपदेश (लोक में सर्वत्र) होता है। जैसे- 'मेघ चावलों की वर्षा कर रहे हैं' (या 'चावल बरस रहा है' -ऐसा कहा जाता है, यहां चावलों की उत्पत्ति में कारणभूत वर्षा-जल को चावलरूपी कार्य रूप में कह दिया जाता है)। इसलिए, आगम से द्रव्यमङ्गलपना विरोधपूर्ण नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 30 // (सामान्य व विशेष नय) . अस्तु, ऐसा कहा गया है कि “जिन-शासन में कोई भी सूत्र या अर्थ नयों के बिना नहीं है, इसलिए नयज्ञ श्रोता को प्राप्त कर, नयविशारद (वक्ता) शास्त्र-कथन (व्याख्यान) करे"। अतः जिनमत में सभी पदार्थ नयों से विचारणीय होते हैं, इस दृष्टि से 'द्रव्यमङ्गल' के विषय में भी नयों के माध्यम से विचार करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं (31) एगो मङ्गलगं, णेगा णेगाइं गमनयस्स / संगहनयस्स एक्कं, सव्वं चिय मङ्गलं लोए // [(गाथा-अर्थः) नैगम नय की अपेक्षा से यदि एक (अनुपयुक्त, मङ्गलशब्दार्थ का वक्ता) है तो एक द्रव्यमङ्गल है, और यदि अनेक (वैसे) वक्ता हैं तो द्रव्यमङ्गल अनेक हैं। किन्तु संग्रहनय की अपेक्षा से समस्त लोक में केवल एक ही द्रव्यमङ्गल है।] ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 59 EEE Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्ष्यमाणशब्दार्थस्य नैगमनयस्य मतेनैकोऽनुपयुक्तो मङ्गलशब्दार्थप्ररूपक एकं द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्तास्तत्प्ररूपका अनेकानि द्रव्यमङ्गलानि। अयं हि नयः सामान्यं विशेषांश्चाऽभ्युपगच्छत्येव, तत्र विशेषवादित्वपक्षे एकोऽनुपयुक्त एकं द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्ता अनेकानि द्रव्यमङ्गलानीत्युपपद्यत एव, विशेषाणां पृथग्भिन्नत्वादिति। संग्रहनयस्य तु वक्ष्यमाणस्वरूपस्य केवलसामान्यवादिनो मतेन सर्वस्मिन्नपि लोके एकमेव द्रव्यमङ्गलम्, सर्वेषां द्रव्यमङ्गलत्वसामान्यादव्यतिरिक्तत्वात्, व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलत्वप्राप्तेः, सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वात् // इति गाथार्थः॥३१॥ एतदेवाह एक्कं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसो खपुष्कं व॥३२॥ [संस्कृतच्छाया:- एकं नित्यं निरवयवमक्रियं सर्वगं च सामान्यम्। निःसामान्यत्वाद् नास्ति विशेषः खपुष्पमिव // ] . एकमद्वितीयत्वादेकसंख्योपेतं सामान्यम्। एकमपि क्षणिकं स्यात्, तत्राह-नित्यमनपायि। नित्यमप्याकाशवत् साबयवं स्यात्, तन्निरवयवत्वे सवितुरुदयाऽस्तमनाऽयोगात्, इत्यत्राह-निरवयवमनंशं, पूर्वापरकोटिशून्यत्वादिति / निरवयवमपि परमाणुवत् व्याख्याः - नैगम नय के शब्दार्थ का निरूपण आगे करने वाले हैं, उनकी संमति में (या अपेक्षा से यदि) उपयोगरहित व मङ्गलशब्दार्थ का प्ररूपक (वक्ता) एक हो तो द्रव्यमङ्गल एक है। यदि उसके अनेक अनुपयुक्त प्ररूपक (वक्ता) हैं तो द्रव्यमङ्गल अनेक होते हैं। यह (नैगम) नय सामान्य व विशेष- दोनों को ही (पृथक्-पृथक्) स्वीकार करता है। यहां विशेषवादी पक्ष में, चूंकि सभी विशेष पृथक्-पृथक् भिन्नता लिए होते हैं, अतः एक अनुपयुक्त (उपयोगरहित वक्ता) के होने पर एक द्रव्यमङ्गल, और अनेक अनुपयुक्त (उपयोगरहित वक्ता) के होने पर अनेक द्रव्यमङ्गल हैं- यह (कहना) युक्तियुक्त ही है। किन्तु संग्रहनय, जिसका स्वरूप आगे कहेंगें, मात्र सामान्यवादी है। उसके मत में समस्त लोक में एक ही द्रव्यमङ्गल है। चूंकि त्रिभुवन में 'सामान्य' एक है, इसलिए द्रव्यमङ्गल 'सामान्य' से अव्यतिरिक्त (अ-पृथक्) नहीं है, (इसलिए वह भी एक ही है)। यदि (इन दोनों में) व्यतिरेक (पार्थक्य) मानें तो द्रव्यमङ्गलत्व ही नहीं रहेगा |यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 31 // भाष्यकार पूर्वोक्त (व्याख्यागत तथ्य) को ही आगे कह रहे हैं (32) एक्कं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसो खपुष्पं व // [(गाथा-अर्थः) 'सामान्य' एक, नित्य, निरवयव, अक्रिय, सर्वगत होता है, और 'सामान्य' के बिना 'विशेष' 'आकाशपुष्प' की तरह अस्तित्वहीन है।] व्याख्याः - वह 'सामान्य' एक है। चूंकि वह अद्वितीय है, अतः 'सामान्य' एक संख्या वाला ही है। एक होते हुए भी कहीं वह क्षणिक हो सकता है- इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहानित्यमनपायि। (अर्थात् वह नित्य व अविनश्वर-शाश्वत है।) नित्य होते हुए भी कहीं वह आकाश की Na 60 --- / -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्रियं स्यात्, अत आह- अक्रिय क्रियारहितम्, परिस्पन्दविनिर्मुक्तत्वादिति / अक्रियमपि दिगादिवत् सर्वगतं न स्यात्, अत्राहसर्वगंच सकललोकाऽवाससत्ताकम्। इदमित्थंभूतं सामान्यमेवाऽस्ति, न तु विशेषः कश्चनाऽपि विद्यते। कुत इत्याह-निःसामान्यत्वात् सामान्यविरहितत्वात्, खपुष्पवत्, यच्चाऽस्ति तत् सामान्यविरहितं न भवति, यथा घटः। तस्मादेकस्माद् द्रव्यमङ्गलसामान्यादव्यतिरिक्तत्वाद् तद्व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलताप्रसङ्गात् सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वादेकमेव संग्रहनयमते द्रव्यमङ्गलम्, इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 32 // अत्र विशेषवादिनयमतस्थितः कश्चिदाह- ननु कथमनेकानि द्रव्यमङ्गलानि न संभवन्ति?, यथा हि वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षगुल्म-लता-वीरुदादयो विशेषा एव प्रतीयन्ते, न पुनस्तदतिरिक्तः कश्चिद् वनस्पतिः, एवमिहाऽपि द्रव्यमङ्गलमित्युक्तेऽनुपयुक्ततत्प्ररूपकलक्षणा विशेषा एवाऽवगम्यन्ते, न तु तदधिकं किञ्चित् सामान्यम्, अतः किं शून्य इवाऽस्मिन् जगत्येवमभिधीयते'निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसा खपुष्पं व' इति? तरह सावयव हो, क्योंकि आकाश को यदि निरवयव माना जाय तो सूर्य के उदय व अस्त (के व्यवहार में कथन) की संगति नहीं होगी। (आकाश की तरह सामान्य भी कहीं सावयव हो-) इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहा- वह निरवयव (अवयवहीन), अंश-शून्य है, क्योंकि उस (सामान्य) में पूर्व कोटि, पर कोटि-इस तरह विभाग नहीं किया जाता। जैसे परमाणु (नित्य व) निरवय होता हुआ, भी सक्रिय होता है, वैसे कहीं सामान्य भी सक्रिय हो-इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहा-वह अक्रिय है, क्रियारहित है, क्योंकि उसमें परिस्पन्द नहीं है। जैसे दिशा (नित्य व) निष्क्रिय होती हई भी. सर्वगत (सर्वव्यापी) नहीं होती. उसी तरह. सामान्य भी सर्वव्यापी न हो- इस (सम्भावना को नकारने के लिए कहा- सर्वगं च / अर्थात् सामान्य की समस्तलोकव्यापी सत्ता है। उक्त तरह की विशेषताओं (नित्यता, अवयवहीनता, निष्क्रियता व सर्वव्यापिता) से युक्त 'सामान्य' ही है, कोई विशेष ऐसा नहीं है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? इस (प्रश्न के उत्तर के लिए कहानिःसामान्यत्वात् / अर्थात् निःसामान्यता यानी 'सामान्य से रहित' होने से, जिस प्रकार आकाश-पुष्प (अस्तित्वहीन) होता है, उसी प्रकार जो भी घट, पट आदि पदार्थ अस्तित्व वाले हैं, वे सामान्य-रहित नहीं होते। इसलिए, द्रव्यमङ्गल भी सामान्य से अभिन्न है, क्योंकि उसे भिन्न मानें तो द्रव्यमङ्गलता का ही लोप हो जाएगा। चूंकि 'सामान्य' त्रिभुवन में एक ही है, अतः संग्रहनय के मत में एक ही द्रव्यमङ्गल है- यह सिद्ध हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 32 // अब, विशेषवादी नय को मानने वाला कोई (आक्षेपकर्ता) प्रश्न कर रहा है- क्योंजी! द्रव्यमङ्गल अनेक क्यों नहीं हो सकते? (हमारे विचार से उसकी अनेकता सम्भव है।) जैसे कि 'वनस्पति' ऐसा कहने पर, वृक्ष, गुल्म, लता, शाखा आदि 'विशेष' ही प्रतीति में आते हैं, उनसे अतिरिक्त तो कोई वनस्पति होती नहीं, इसी तरह यहां भी 'द्रव्यमङ्गल' कहने पर उपयोगरहित, मङ्गलशब्दार्थप्ररूंपक रूप (व्यक्ति-) विशेष ही समझ में आते हैं, उनसे भिन्न कोई और 'सामान्य' तो होता नहीं, अतः, शून्यवादी की तरह पूरे जगत् के लिए यह आप कैसे कह रहे हैं कि 'सामान्यरहित होने के कारण, कोई विशेष होता नहीं, आकाशपुष्प की तरह'। --------- विशेषावश्यक भाष्य - - Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -इति विशेषवादिना प्रोक्ते सामान्यवादी संग्रहः प्राह- ननु यत एव वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षादयः प्रतीयन्ते, अत एव ते तदनन्तरभूताः, हस्तस्येवाऽङ्गुलयः, इह यस्मिन्नुच्यमाने यत् प्रतीयते, तत् ततो व्यतिरिक्तं न भवति, यथा हस्त इत्युक्तेऽङ्गुल्यादयः प्रतीयमाना हस्ताद् न व्यतिरिक्ताः, प्रतीयन्ते च वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षादयः, इत्यमी न वनस्पतिव्यतिरिक्ताः, ततो न सामान्यादतिरिक्तः कोऽपि विशेषः समस्ति, इत्येकमेव सर्वत्र द्रव्यमङ्गलमिति / अथोपपत्त्यन्तरेणाऽपि सामान्यवाद्येव वृक्षादीनां सर्वेषामपि वनस्पतिसामान्यरूपतां समर्थयन्नाह चूओ वणस्सइच्चिय मूलाइगुणो त्ति तस्समूहो व्व। गुम्मादओ वि एवं सव्वे न वणस्सइविसिट्ठा // 33 // [संस्कृतच्छाया:- चूतो वनस्पतिरेव मूलादिगुण इति तत्समूह इव। गुल्मादयोऽप्येवं सर्वे न वनस्पतिविशिष्टाः॥] 'चूतः' आम्रो वनस्पतिरेव वनस्पतिसामान्यं न व्यभिचरतीत्यर्थः, इति प्रतिज्ञा, मूल-कन्द-स्कन्ध-त्वक्-शाखा-प्रवालपत्र-पुष्प-फल-बीजादिगुणत्वादिति हेतुः, चूतसमूहवदिति दृष्टान्तः, इह यो यो मूलादिगुणः स स वनस्पतिसामान्यरूप एव, यथा विशेषवादी की ओर से (उपर्युक्त) प्रश्न पूछने पर सामान्यवादी संग्रह (के समर्थक) ने कहा- चूंकि 'वनस्पति' ऐसा कहने पर वृक्ष आदि की प्रतीति होती है, इसलिए वे (वृक्ष आदि) वनस्पति से उसी तरह अभिन्न, अ-पृथक् हैं, जैसे हाथ से अंगुलियां / यहां जिसके उच्चारण करने पर जो प्रतीति में आता है, वह उससे पृथक् नहीं होता, जैसे 'हाथ' कहने से अंगुलि आदि की प्रतीति होती है जो हाथ से पृथक् नहीं होती। इसी प्रकार, 'वनस्पति’ ऐसा कहने पर, वृक्ष आदि की प्रतीति होती है, अतः वृक्ष आदि भी वनस्पति से पृथक् नहीं हैं, इसलिए 'सामान्य' से भिन्न कोई 'विशेष' नहीं होता, इस तरह सर्वत्र एक ही द्रव्यमङ्गल है (यह सिद्ध हुआ)। अब, अन्य युक्ति के द्वारा सामान्यवादी ही सभी वृक्षों आदि की वनस्पतिसामान्यरूपता का समर्थन करते हुए जो कह रहा है (उसे भाष्यकार प्रस्तुत गाथा द्वारा कह रहे हैं) (33) चूओ वणस्सइच्चिय मूलाइगुणो त्ति तस्समूहो व्व / गुम्मादयो वि एवं सब्वे न वणस्सइविसिट्ठा // [(गाथा अर्थः) जिस प्रकार, आम्र-वृक्षों का समूह वनस्पति-सामान्य है, वैसे ही मूल, स्कन्ध आदि गुणों वाला होने से आम्र वृक्ष वनस्पति-सामान्य ही है। इसी प्रकार, गुल्म आदि भी सभी (वनस्पति-सामान्य ही हैं, और इनमें से कोई भी) वनस्पति-विशेष रूप नहीं हैं।] व्याख्याः- चूत यानी आम्र (का विशेष वृक्ष) वनस्पति ही है, अर्थात् वह वनस्पति-सामान्य से कभी रहित नहीं होता। (इसमें युक्ति निम्न प्रकार है-) मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज- ये गुण जिनमें होते हैं, वे वनस्पति-सामान्य ही कहे जाते हैं। जैसे, आम्र-वृक्षों का समूह उन मूल, (स्कन्ध) आदि गुणों से युक्त होने के कारण वनस्पति-सामान्य ही है। आम्र वृक्ष Mia 62 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूतसमूहः, मूलादिगुणश्च चूतः, तस्माद् वनस्पतिसामान्यरूप एव, गुल्मादयोऽप्येवं वाच्याः, तथाहि- विशेषवादिना विशेषतयाऽभ्युपगम्यमानो गुल्मोऽपि वनस्पतिसामान्यरूप एव, मूलादिगुणत्वात्, गुल्मसमूहवत्, इति / एवमन्येषामपि लतादिविशेषाणां वनस्पतिसामान्यादव्यतिरिक्तत्वं साधनीयम्। तव्यतिरेके सर्वत्र मृन्मयत्वादिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम्। तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति, न विशेषाः।। इति गाथार्थः॥३३॥ किञ्च सामनाउ विसेसो अन्नोऽणन्नो व होज, जइ अण्णो। सो नत्थि खपुष्पं पिवऽणण्णो सामन्नमेव तयं // 34 // [संस्कृतच्छाया:- सामान्याद् विशेषोऽन्योऽनन्यो वा भवेत्, यद्यन्यः। स नास्ति खपुष्पमिव, अनन्यः सामान्यमेव तत्॥] भो विशेषवादिन् ! सामान्याद् विशेषोऽन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा?, इति विकल्पद्वयम् / यद्याद्यो विकल्पः, तर्हि नास्त्येव विशेषः, नि:सामान्यत्वात्, खपुष्पवत्-इह यद् यत् सामान्यविनिर्मुक्तं तत् तद् नास्ति, यथा गगनारविन्दम, सामान्यविरहितश्च विशेषवादिना विशेषोऽभ्युपगम्यते, तस्माद नास्त्येवाऽयमिति। भी मूल आदि गुणों वाला है, इसलिए वह भी वनस्पति-सामान्य रूप ही है। इसी प्रकार, गुल्म, लता आदि के विषय में भी, उसकी वनस्पतिसामान्यरूपता का कथन करना चाहिए। तो, विशेषवादी द्वारा जो जो गुल्म आदि को विशेष रूप में स्वीकार किया जा रहा है, वह भी (वस्तुतः) वनस्पति-सामान्य रूप ही है, क्योंकि वह भी मूल आदि गुणों वाला है, (वह उसी प्रकार है) जैसे गुल्मों का समूह वनस्पति-सामान्य है। इसी तरह, लता आदि अन्य विशेषों को वनस्पति-सामान्य से अभिन्न सिद्ध किया जा सकता है। यदि उन्हें वनस्पति-सामान्य से भिन्न. माना जाये तो उनकी मृन्मयरूपता का प्रसंग (का दोष) आता है, किन्तु उन्हें मृन्मयरूप मानने में (प्रत्यक्ष) प्रमाण बाधक है। अतः 'सामान्य' की ही सत्ता है, विशेष की नहीं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 33 // और भी (34) सामन्नाउ विसेसो अन्नोऽणण्णो न होज्ज, जइ अण्णो। सो नत्थि खपुष्पं पिवऽणण्णो सामन्नमेव तयं // [(गाथा अर्थः) सामान्य से विशेष या तो अन्य (पृथक्) होगा या अनन्य (अभिन्न)। उसे अन्य मानेगें तो वह आकाश-पुष्प की तरह अस्तित्वहीन ही हो जाएगा। और यदि उसे अनन्य (अभिन्न) मानें तो वह सामान्य-रूप ही (सिद्ध) होगा (अर्थात् दोनों ही स्थितियों में 'विशेष' का अस्तित्व खण्डित होता है, सामान्य का नहीं। अतः 'सामान्य' ही सत् है, 'विशेष' नहीं)।] व्याख्याः- (सामान्यवादी की ओर से विशेषवादी को कहा जा रहा है-) हे विशेषवादी! भला यह बताएं कि आपके द्वारा स्वीकृत 'विशेष' सामान्य से अन्य हैं या अनन्य (अभिन्न)? (आपके V ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 63 र Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाऽनन्य इति द्वितीय: पक्ष: कक्षीक्रियते, हन्त! तर्हि सामान्यमेवाऽसौ, तदनन्यत्वात्, सामान्यात्मवत्, यद् यस्मादनन्यत् तत् तदेव, यथा सामान्यस्यैवाऽऽत्मा, अनन्यश्च सामान्याद् विशेषः, इति सामान्यमेवाऽयमिति / यदि चाऽतिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न ह्यपचारेणोच्यमानो भेदस्तात्त्विकमेकत्वं बाधितुमलम्, तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति न विशेषः। इति संग्रहनयमतेन सर्वत्रैकमेव द्रव्यमङ्गलम्॥ इति गाथार्थः // 34 // तदेवं संग्रहेण स्वाभिमते सामान्य प्रतिष्ठते विशेषवादिनौ नैगमव्यवहारावाहतु: न विसेसत्यंतरभूअमत्थि सामण्णमाह ववहारो। उवलंभववहाराभावाओ खरविसाणं व॥३५॥ सामने) ये दो विकल्प हैं। यदि प्रथम विकल्प को स्वीकार करते हैं (अर्थात् विशेष को सामान्य से / भिन्न मानते हैं) तो आकाश-पुष्प की तरह वह सामान्यरहित होने के कारण, 'विशेष' ही नहीं रहता (अर्थात् उसकी सत्ता ही खण्डित हो जाती है) क्योंकि जो-जो वस्तु सामान्य-रहित है, वह-वह वस्तु अस्तित्वहीन है, जैसे आकाश-कमल / और आपने विशेष को सामान्य से रहित माना है, इसलिए उसे अस्तित्वहीन ही मानना पडेगा। अच्छा चलो, यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करते हैं, तब तो (और भी) दुःख की बात है! फिर तो (आपका) विशेष सामान्य से अनन्य होने से उसी प्रकार सामान्यरूप है जैसे सामान्य के आत्मस्वरूप को सामान्य ही माना जाता है, कुछ अन्य नहीं। क्योंकि (यह नियम है कि) जो जिससे अनन्य होता है, वह उसी रूप (तद्रूप) होता है, जैसे सामान्य (के स्वयं) का आत्मीय रूप / विशेष भी यदि सामान्य से अनन्य है तो वह 'सामान्य'-रूप ही है, (विशेषरूप नहीं)। हां, यदि आप अपने मत में विशेष आग्रह रखते हुए, सामान्य में ही विशेष का उपचार करना चाहते हैं, तो कोई क्षति नहीं, क्योंकि उपचार से कहा जाने वाले भेद कभी तात्त्विक एकत्व (अभेद) का बाधक नहीं हो पाता, इसलिए (सिद्ध हुआ कि) 'सामान्य' ही है, 'विशेष' (की सत्ता) नहीं है। इस प्रकार, संग्रह नय के मत में सर्वथा एक ही द्रव्यमङ्गल है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 34 // . इस प्रकार, संग्रह नय द्वारा अपना अभिमत (दृष्टिकोण) प्रस्तुत कर दिये जाने पर, विशेषवादी नैगम नय और व्यवहार नय (के मानने वालों) ने (जो) कहा (उसे प्रस्तुत गाथा में आचार्य भाष्यकार कह रहे हैं) (35) न विसेसत्यंतरभूअमत्थि सामण्णमाह ववहारो। उवलंभ-ववहाराभावाओ खरविसाणं व॥ Na 64 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छायाः-न विशेषार्थान्तरभूतमस्ति सामान्यमाह व्यवहारः। उपलम्भव्यवहाराभावात् खरविषाणमिव॥] ननु भोः सामान्यवादिन् ! भवताऽपि वनस्पतिसामान्यं बकुलाऽशोक-चम्पक-नाग-पुन्नागा-ऽऽम्र-सर्जाऽर्जुनादिविशेषेभ्योऽर्थान्तरं वाऽभ्युपगम्येत, अनर्थान्तरं वा? / यद्यर्थान्तरम्, तर्हि नास्त्येव तद् विशेषव्यतिरेकेण, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्योपलम्भ-व्यवहाराभावात्, खरविषाणवत्। क एवमाह?, व्यवहारनयः, उपलक्षणत्वाद् विशेषवादी नैगमश्च। एतौ हि लोकव्यवहारानुयायिनौ, तद्व्यवहारश्च प्रायो विशेषनिष्ठ एव, इति विशेषानेव समर्थयत इति भावः। अथानुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदभ्युपगम्यते, तथाऽपि नास्ति, विशेषेभ्यः सर्वथाऽन्यत्वात्, गगनकुसुमवदिति / अथ विशेषेभ्योऽनन्तरं तदिति द्वितीयपक्षः, तर्हि विशेषा एव तत्, तेभ्योऽनर्थान्तरभूतत्वात्, विशेषाणामात्मस्वरूपवदिति। यदि च विशेषेष्वपि सामान्योपचारः क्रियते, तर्हि न काचित क्षतिः,न ह्यौपचारिकमेकत्वं तात्त्विकमनेकत्वं बाधते // इति गाथार्थः॥३५॥ [(गाथा-अर्थः) व्यवहार नय का कहना है कि जो 'सामान्य' है वह 'विशेष' से अर्थान्तरभूत यानी 'कोई भिन्न वस्तु' नहीं है, क्योंकि (विशेष से भिन्न पृथक् रूप में) उस (सामान्य) की न तो उपलब्धि होती है और न ही व्यवहार में वह (सामान्य) उपयोगी है, अतः वह गधे के सींग की तरह (अस्तित्वहीन) है।] व्याख्याः- (विशेषवादी की ओर से कहा जा रहा हैः-) हे सामान्यवादी! आप भी बताएं कि वनस्पति-सामान्य को बकुल, अशोक, चम्पक, नाग (केसर), पुन्नाग (जायफल), आम, सर्ज (साल), अर्जुन आदि वृक्ष-विशेषों से अतिरिक्त व पृथक् पदार्थ मानते हैं या अनन्य-अभिन्न? यदि वह विशेषों से भिन्न व पृथक् पदार्थ है, तब तो वह विशेष से रहित होने के कारण, अस्तित्वहीन ठहरता है, क्योंकि जो उपलब्धि के लक्षण से युक्त होते हुए भी उपलब्ध नहीं होता या व्यवहारोपयोगी नहीं होता, वह गधे के सींग की तरह अस्तित्वहीन ही होता है। . (प्रश्न-) उपर्युक्त कथन किस (नय) का है? (उत्तर-) व्यवहार नय का (कथन) है। उपलक्षण से यहां विशेषवादी नैगम नय का भी कथन इसे समझ लेना चाहिए, क्योंकि ये दोनों (व्यवहार व नैगम) ही नय लोकव्यवहार का अनुसरण करते हैं (उसे प्रधानता देते हैं), और व्यवहार प्रायः 'विशेष' पर ही आश्रित होता है (जैसे व्यवहार में एक विशेष घड़े को ही उठाया जा सकता है, न कि संसार के सभी घड़ों को एक साथ) -यह तात्पर्य है। सामान्य के उपलब्ध न होने पर भी यदि उसका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, तो भी विशेषों से सर्वथा अनन्य (अभिन्न) होने के कारण उसका अस्तित्व आकाश-पुष्प की तरह, निराकृत हो जाता है। अच्छा चलो, सामान्य विशेषों से पृथक नहीं है- ऐसा द्वितीय पक्ष स्वीकार करते हो, तो भी, विशेष से अनन्य होने के कारण, उस (सामान्य) की विशेषरूपता ही सिद्ध होगी, क्योंकि जैसे विशेषों का (अपना) आत्मीय स्वरूप (विशेष से अनन्य होने से) विशेष रूप ही होता है, न कि अन्य पदार्थरूप, वैसे ही 'सामान्य' भी 'विशेष' से अनन्य होने से Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 65 र Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदेव समर्थयते चूयाईएहिंतो को सो अण्णो वणस्सई नाम?। नत्थि विसेसत्थंतरभावाओ सो खपुष्पं व॥३६॥ [संस्कृतच्छाया:- चूतादिभ्यः कः सोऽन्यो वनस्पतिर्नाम? नास्ति विशेषार्थान्तरभावात् स खपुष्पमिव॥] चूतादिभ्यो विशेषेभ्योऽन्यः को नाम वनस्पतिः, यो व्रण-पिण्डी-पादलेपादिके लोकव्यवहारे उपयुज्येत? न कोऽपीत्यर्थः। तस्मात् समस्तलोकसंव्यवहारानुपयोगित्वाद् नास्ति सामान्यम्, खपुष्पवत् इति पूर्वोक्तमेवार्थं निगमनद्वारेणाह-'नत्थीत्यादि' तस्माद् नास्त्यसौ सामान्यवादिनाऽभ्युपगम्यमानो वनस्पतिः सद्रूपेभ्यो विशेषेभ्योऽर्थान्तरभावात् खपुष्पवत्, सद्रूपेभ्यो हि विशेषेभ्योऽर्थान्तरं भवत् असद्रूपमेव भवति, तथाभूतं च नास्त्येव खपुष्पवत् / / इति गाथार्थः // 36 // विशेषरूप ही (सिद्ध) होगा। हां, यदि विशेषों में भी 'सामान्य’ का उपचार किया जाता है, तब कोई क्षति (आपत्ति) नहीं है, क्योंकि औपचारिक एकत्व से तात्त्विक अनेकता (वास्तविक रूप में विशेषों की अनेकता) बाधित नहीं होती। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 35 // __ पूर्वोक्त विशेषवादी मत का ही समर्थन करते हुए कह रहे हैं (36) चूयाईएहिंतो को सो वणस्सई नाम? नत्थि विसेसत्यंतरभावाओ सो खपुष्पं व // [(गाथा-अर्थः) आम्र आदि (रूप में जो विशेष वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, उन) से अन्य या पृथक् आखिर कौन-सा वनस्पति-नामक तत्त्व है? (वास्तविकता तो यह है कि) विशेषों से पृथक् माने जाने के कारण, (वनस्पति-सामान्य तत्त्व) आकाश-पुष्प की तरह असत् रूप या अस्तित्वहीन ही (सिद्ध होता) है।] व्याख्याः - आम्र आदि (वृक्ष-विशेषों) से अन्य या पृथक् और कौन-सीं वनस्पति है जो घाव पर लगाने या उबटन या पांव पर लेप आदि लगाने के काम में आती है? (अर्थात् अन्य कोई नहीं है।) इसलिए, समस्त लोक-व्यवहार में उपयोगी न होने के कारण, आकाश-पुष्प की तरह (ही) 'सामान्य' भी अस्तित्वहीन है- इस पूर्वोक्त अर्थ को ही निगमन-द्वार से कह रहे हैं- न अस्ति। इसलिए, सामान्यवादी द्वारा स्वीकृत वनस्पति, चूंकि सद्-रूप विशेषों से पृथक् अन्य पदार्थ है, इसलिए, आकाश-पुष्प की तरह ही, अस्तित्वहीन है, क्योंकि जो भी सद्-रूप विशेषों से पृथक्-अन्य पदार्थ (बताया जाता) है, वह (वास्तव में) आकाश-पुष्प की तरह (अस्तित्व में) होता ही नहीं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥३६॥ Me 66 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं पुनः कारणं येन नैगमव्यवहारौ विशेषान् समर्थयतः?, इत्याह जं नेगमववहारा लोअव्ववहारतप्परा सो य। ___ पाएण विसेसमओ तो ते तग्गाहिणो दो वि॥३७॥ [संस्कृतच्छाया:- यद् नैगमव्यवहारौ लोकव्यवहारतत्परौ, स च। प्रायेण विशेषमयस्तस्मात् तौ तद्ग्राहिणौ द्वावपि॥] यद् यस्माद् नैगमव्यवहारौ लोकव्यवहारतत्परौ, स च लोकव्यवहारस्त्यागाऽऽदानादिकः प्रायेण विशेषमयो विशेषनिष्ठ एव दृश्यते, सामान्यस्य व्रणपिण्ड्यादौ लोकेऽनुपयोगात्। वनं"सेना' इत्यादौ क्वचित् कश्चित् कथञ्चित् सामान्यस्याऽपि दृश्यते उपयोगः, इति प्रायोग्रहणम्। यत एवम्, तस्मात् तौ नैगमव्यवहारौ द्वावपि तद्ग्राहिणौ विशेषाभ्युपगमपरौ // इति गाथार्थः // 37 // अत्र परः प्राह तेसिंतुल्लमयत्ते को णु विसेसोऽभिहाणओ अन्नो?। तुल्लत्ते वि इहं नेगमस्स वत्थंतरे भेओ॥३८॥ आखिर वह क्या कारण है जिससे नैगम नय और व्यवहार नय 'विशेषों' का समर्थन करते हैं- (प्रश्न के उत्तर के) लिए कहा (37) ... जं नेगम-ववहारा लोअ-व्ववहारतप्परा सो य। पाएण विसेसमओ तो ते तग्गाहिणो दो वि // [(गाथा-अर्थः) चूंकि नैगम नय व व्यवहार नय (दोनों ही) लोकव्यवहार में तत्पर होते हैं, और लोकव्यवहार भी विशेषमय (यानी विशेषों पर ही आश्रित) होता है, इसलिए वे (दोनों नय) भी विशेषग्राही (माने गए) हैं।] ____ व्याख्याः - (जं=) चूंकि, नैगम व व्यवहार (-ये दोनों) नय लोकव्यवहार में तत्पर रहते हैं, और छोड़ना-लेना आदि रूप वह लोकव्यवहार भी प्रायः विशेषमय यानी विशेषों पर ही टिका हुआ दृष्टिगोचर होता है, लोक में (लौकिक व्यवहार, जैसे) व्रण-लेप आदि में सामान्य का उपयोग नहीं होता / प्रायः' इसलिए कहा, क्योंकि वन, सेना इत्यादि कथन में कहीं-कहीं, किसी दृष्टि से, सामान्य का उपयोग होता है जैसे, 'वन' कहने से एक वृक्ष का नहीं, वृक्ष-समूह का, तथा 'सेना' कहने से सैनिक आदि के समूह (सामान्य) का बोध होता है। चूंकि ऐसा होता है (अर्थात् लोकव्यवहार विशेषआधारित होता है), इसलिए वे नैगम व व्यवहार (ये दोनों) नय भी उस (विशेष) के ग्राहक होते हैं, (अर्थात्) विशेष के ही अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 37 // - यहां, किसी अन्य (प्रश्नकर्ता-) ने पूछा (38) तेसिं तुल्लमयत्ते को णु विसेसोऽभिहाणओ अन्नो? तुल्लत्ते वि इहं नेगमस्स वत्यंतरे भेओ || ---- विशेषावश्यक भाष्य / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- तयोस्तुल्यमतत्वे को नु विशेषोऽभिधानतोऽन्यः? तुल्यत्वेऽपीह नैगमस्य वस्त्वन्तरे भेदः॥] / तयोगमव्यवहारयोस्तुल्यमतत्वे उक्तन्यायेन विशेषवादितया सदृशाभिप्रायत्वे सति 'णु' वितर्के, अभिधानं नाम ततोऽन्यस्तद् वर्जयित्वाऽपरः को विशेष:? न कश्चिदित्यर्थः। एको नैगमः, अपरस्तु व्यवहार इत्येवमनयो मैव भिद्यते न त्वभिप्राय इति भावः। आचार्य आह- 'तुल्लत्ते' इत्यादि, इह विशेषाऽभ्युपगमे यद्यपि नैगमस्य व्यवहारेण सह तुल्यत्वं सदृशाभिप्रायत्वम्, तथापि तस्मिन् सत्यपि वस्त्वन्तरे सामान्यादिके भेदो नानात्वमस्त्येव // इति गाथार्थः // 38 // अथवा नैगमव्यवहारयोरनेन तुल्यमतत्वाऽऽख्यापनेन सामान्यविशेषग्राहकस्य नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावः सूचितो द्रष्टव्य इति दर्शयन्नाह जो सामण्णग्गाही स नेगमो संगहं गओ अहवा। इयरो ववहारमिओ जो तेण समाणनिहेसो॥३९॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्नः) यदि (नैगम व व्यवहार-इन) दोनों नयों का तुल्य (एक जैसा) अभिप्राय है, तो इन दोनों में नाम-भेद के सिवा क्या कोई अन्य अन्तर है? (उत्तर-) यद्यपि नैगम नय व्यवहार नय के समान (ही विशेषग्राही) है, तथापि 'अन्य वस्तु' (सामान्य को विशेष से अन्य वस्तु मानने के विषय) में, उसका (व्यवहार नय से) भेद है।] ____ व्याख्याः - नैगम व व्यवहार नय (-ये दोनों) तुल्य मत वाले हैं, अर्थात् विशेषवादी के रूप में दोनों का एक जैसा अभिप्राय (दृष्टिकोण) है। 'नु' यह वितर्क (सन्देह) का वाचक है अर्थात् यहां सन्देह प्रस्तुत किया गया है कि जब दोनों नय तुल्य अभिप्राय वाले हैं तो फिर अभिधान यानी नाम (-संबन्धी) भेद को छोड़कर क्या कोई दूसरा अन्तर भी है? अर्थात् कोई अन्तर नहीं है- यह तात्पर्य है। एक (का नाम) नैगम है तो दूसरा 'व्यवहार' नाम वाला है, इस प्रकार नामों में ही भिन्नता है, अभिप्राय तो दोनों का एक ही है- यह भाव है। (उक्त कथन में संशोधन-हेतु) आचार्य कह रहे हैंतुल्यत्वेऽपि / अर्थात् विशेष का ही अस्तित्व स्वीकार करने में यद्यपि नैगम की व्यवहार नय से समानता है और दोनों का एक जैसा अभिप्राय (दृष्टिकोण) है, तथापि (अन्तर यह है कि) नैगम नय को भी वस्त से पथक मानता है. इसलिए इन दोनों में भेद या नानात्व है ही। (अर्थात नैगम नय सामान्य व विशेष-दोनों का ग्रहण करता है, और व्यवहार नय मात्र विशेष का, साथ ही वह कुछ स्थानों में सामान्य को 'वस्त्वन्तर' (पृथक् वस्तु) मानता है, जब कि व्यवहार नय ऐसा नहीं) // यह गाथा का अर्थ हुआ // 38 // ___ अथवा नैगम व व्यवहार- इन दोनों को तुल्यमत घोषित करते हुए यह सूचित किया गया है कि सामान्य-विशेष-उभय ग्राहक जो नैगम नय है, वह संग्रह-व्यवहार इन दोनों में अन्तर्भूत हो जाता है। इसी तथ्य के निरूपण हेतु (भाष्यकार प्रस्तुत गाथा) कह रहे हैं (39) जो सामण्णग्गाही स नेगमो संगहं गओ अहवा। इयरो ववहारमिओ जो तेण समाणनिद्देसो // a 68 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- यः सामान्यग्राही स नैगमः संग्रहं गतोऽथवा। इतरो व्यवहारमितो यस्तेन समाननिर्देशः॥] अथवेति प्रकारान्तरेण समाधानमुच्यत इत्यर्थः। तत्र नैगमस्तावत् सामान्यं मन्यते विशेषांश्च / ततो यः सामान्यग्राही नैगमः स संग्रहं गतः प्राप्तोऽन्तर्भूत इति यावत्, इतरस्तु विशेषग्राही स व्यवहारनयमितः प्राप्तोऽन्तर्गतो यो नैगमनयस्तेन सह व्यवहारनयस्याऽयं समाननिर्देशः 'जं नेगमववहारा' इत्यादिना तुल्यनिर्देशः। ततश्च तेसिंतुल्लमयत्ते को णु विसेसो' इत्यादिना यदेकत्वं परेण प्रेरितं तदस्माकं न क्षतिमावहति, नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावस्येष्टत्वेन सिद्धसाधनादिति भावः। यद्येवं नैगमः संख्यायास्त्रुट्यति, तथा च सति षडेव नयाः प्रसजन्तीति चेत्।मौत्सुक्यं भजस्व, सर्वमत्रार्थे पुरस्ताद् वक्ष्यामः॥ इति गाथार्थः॥३९॥ [(गाथा-अर्थः) अथवा जो सामान्यग्राही नैगम है वह संग्रह नय में अन्तर्भूत है। और जो दूसरा (विशेषग्राही) नैगम है, वह व्यवहार में अन्तर्भूत है। इसलिए इनका समानरूप में निर्देश किया जाता है।] व्याख्याः- (यहां) अन्य प्रकार से समाधान प्रस्तुत किया जा रहा है, यह 'अथवा' से तात्पर्य है। इनमें जो नैगम नय है, वह 'सामान्य' को तो स्वीकार करता ही है, विशेष को भी स्वीकार करता है। इसलिए, जब नैगम सामान्यग्राही होता है, तब वह 'संग्रहन नय' रूपता को प्राप्त होता है, अर्थात् संग्रह नय में अन्तर्भूत हो जाता है, और जब वह अन्य रूप में, यानी विशेषग्राही होता है, तब वह व्यवहाररूपता को प्राप्त होता है अर्थात् व्यवहार नय में अन्तर्भूत हो जाता है, इसलिए नैगम नय के साथ व्यवहार नय की समानता का निर्देश किया जाता है। पूर्व में (37वीं गाथा में) 'यद् नैगमव्यवहारौ' -इत्यादि कथन द्वारा उन्हें तुल्य बताया (भी) गया है। इसलिए (गाथा-38 में) 'तयोः तुल्यमतयोः को नु विशेषः?' कहा, अर्थात् दोनों के समान होने पर भी इनमें आखिर विशेषता (अन्तर) ही क्या है? इत्यादि कथन द्वारा इन दोनों की एकता का कथन (किसी) अन्य (प्रश्नकर्ता) द्वारा किया गया है, उससे हमारे कथन में कोई क्षति नहीं होती, अर्थात् नैगम नय को संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर्भूत किया जाना हमें भी (कथंचिद्) इष्ट है, इसलिए सिद्धान्त की पुष्टि ही . (प्रश्नकर्ता ने) की है- यह भाव है।। (प्रश्न-) यदि नैगम नय ऐसा है (अर्थात् वह संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर्भूत हो सकता है) तब (नयों की जो निर्धारित सात संख्या मानी गई है, उस) संख्या टूटती है (अर्थात् तब नयों की संख्या छः ही रह जाएगी)। (उत्तर-) (अधिक) उत्सुक (उतावले) न हों, इस सम्बन्ध में सभी (अपेक्षित अन्य समाधानपरक) बातें हम आगे कहने वाले हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 39 // Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 69 र Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ऋजुसूत्रनयमतेन द्रव्यमङ्गलं विचारयितुमाह उज्जुसुअस्स सयं संपयं च जं मंगलं तयं एक्कं। नातीतमणुप्पन्नं मंगलमिटुं परक्कं व॥४०॥ [संस्कृतच्छाया:-ऋजुसूत्रस्य स्वकं साम्प्रतं च यद् मङ्गलं तदेकम्। नातीतमनुत्पन्नं मङ्गलमिष्टं परकीयं वा॥] ऋजु अतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिहारेण वाऽकुटिलं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रो नयस्तस्य स्वकमात्मीयमेव, तथा सांप्रतं च वर्तमानक्षणभाव्येव यद् द्रव्यमङ्गलं तदेवैकमभिमतम्। अनभिमतप्रतिषेधमाह- नातीतम्, अतिक्रान्तसमयभावि, नाऽप्यनुत्पन्नं भविष्यत्समयभावि द्रव्यमङ्गलम्, अस्येष्टम्। परक्कं व' परकीयं वा यद् द्रव्यमङ्गलं तदप्यस्य नेष्टम, विवक्षितैकप्रज्ञापकस्याऽऽत्मानं विहाय यत् परस्मिन् वर्तते तदपि द्रव्यमङ्गलमसौ नेच्छतीत्यर्थः। मन्दमतिशिक्षावबोधार्थश्चाऽनभिमतप्रतिषेधः, अन्यथा ह्यभिमते कथितेऽनभिमतमर्थापत्तितो गम्यत एव॥ इति गाथार्थः॥४०॥ चज मङ्गल तयं एक्कं। विविध नयों से (आगमतः) द्रव्यमङ्गल अब, ऋजुसूत्रनय के दृष्टिकोण से 'द्रव्यमङ्गल’-सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करने हेतु कह रहे हैं (40) उज्जुसुअस्स सयं संपयं च जं मङ्गलं तयं एकं। . नातीतमणुप्पन्नं मङ्गलमिटुं परकं व // [(गाथा अर्थः) ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में जो स्वकीय व वर्तमान मङ्गल है, वही एक द्रव्यमङ्गल (मान्य) है। जो अतीत है, अनुपलब्ध (भावी) है और जो परकीय है, वह मङ्गल इसे अभीष्ट नहीं है। ] व्याख्याः- ऋजुसूत्र नय अतीत व अनागत (भावी) का परिहार करके, अथवा परकीय वस्तु का परिहार कर के 'ऋजु' यानी अकुटिल (सीधे सादे रूप में, सामने विद्यमान) वस्तु का सूत्रण (ग्रहण) करता है, अतः जो (ऋजुता की दृष्टि से) उसका स्वकीय व आत्मीय हो-ऐसा ही, तथा जो वर्तमानक्षणस्थायी है, ऐसा (ही) एक 'द्रव्यमङ्गल' उसे स्वीकृत है। जो उसे अभीष्ट नहीं है, उसका प्रतिषेध करने हेतु कह रहे हैं- जो अतीत न हो, अर्थात् व्यतीत समयवर्ती न हो, और जो अनुत्पन्न अर्थात् भविष्यकालीन भी न हो- ऐसा ही द्रव्यमङ्गल इस (नय) को अभीष्ट होता है। परकीयं चअर्थात् जो द्रव्यमङ्गल परकीय हो, वह भी इसे अभीष्ट नहीं है। तात्पर्य यह है कि विवक्षित एकमात्र प्रज्ञापक (वक्ता) की आत्मा को छोड़कर जो दूसरे में रहता हो, उस द्रव्यमङ्गल को भी यह नहीं चाहता (स्वीकार करता) है। यह (उक्त नय के) जो अनभीष्ट (प्रतिषिद्ध) वस्तु का प्रतिषेध यहां बताया गया है, वह मन्दमति शिष्यों को दृष्टि में रखकर किया गया है, अन्यथा (किसी) नय का अभीष्ट जो कह दिया गया तो उसके अनभिमत का अर्थापत्ति से बोध हो ही जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 40 // Mia 70 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुमेवार्थं प्रयोगोपदर्शनद्वारेण समर्थयन्नाह नातीतमणुप्पन्नं परकीयं वा पओअणाभावा। दिद्रुतो खरसिंगं परधनमहवा जहा विफलं॥४१॥ [संस्कृतच्छाया:- नातीतमनुत्पन्नं परकीयं वा प्रयोजनाभावात् / दृष्टान्तः खरशृङ्ग परधनमथवा यथा विफलम् // ] अतीतमनुत्पन्नं च वस्तु नास्तीति प्रतिज्ञा, प्रयोजनस्य विवक्षितफलस्य तत्राऽभावात् सर्वप्रयोजनाऽकरणादित्यर्थ इत्ययं हेतुः, दृष्टान्तस्तु खरशृङ्गम्, असत्त्वे चातीताऽनागतयोर्द्रव्यमङ्गलता दूरोत्सारितैव, धर्मिसत्त्व एव धर्माणामुपपद्यमानत्वादिति। द्वितीयप्रयोगः क्रियते- परकीयमपि यज्ञदत्तसंबन्ध्यपि वस्तु देवदत्तापेक्षया नास्त्येव, प्रयोजनाऽकरणात् खरविषाणवदिति हेतुदृष्टान्तौ तावेव, अथवा यथा परस्य यज्ञदत्तस्य धनं देवदत्तापेक्षया विफलं प्रयोजनाऽसाधकं सद् नास्ति, तथा सर्वमपि परकीयं नास्तीति द्वितीयो दृष्टान्तः। इति कुतः परकीयस्याऽपि द्रव्यमङ्गलत्वम्? // इति गाथार्थः॥४१॥ _ अब, अनुमान-प्रयोग के प्रदर्शन (प्रस्तुतीकरण) द्वारा पूर्वोक्त कथन का समर्थन करते हुए (आचार्य आगे) कह रहे हैं (41) नातीतमणुप्पणं परकीयं वा पओअणाभावा। दिटुंतो खरसिंगं परधणमहवा जहा विफलं || [(गाथा अर्थः) अथवा (अभीष्ट) प्रयोजन की सिद्धि नहीं करा सकने के कारण अतीत (भूत) व अनुत्पन्न (भावी)-दोनों ही (वस्तु) खर-शृंग (गधे के सींग) की तरह (असद् रूप) हैं। इसी तरह, परकीय वस्तु भी उसी तरह निष्फल (निरर्थक) होती है, जिस प्रकार परकीय धन।] व्याख्याः- यह जो वस्तु अतीत व अनुत्पन्न है, वह (वस्तुतः) है ही नहीं -यह (अनुमानवाक्यगत) प्रतिज्ञा है। 'प्रयोजन रूप विवक्षित फल के अभाव होने से', अर्थात् 'समस्त प्रयोजन की सिद्धि न कर पाने के कारण'-यह ‘हेतु' है। 'खरशृंग'-यह दृष्टान्त है। जब वह वस्तु है ही नहीं, तब उस अतीत व अनागत की द्रव्यमङ्गलता की बात तो दूर छूट जाती है, क्योंकि धर्मी के होने पर ही तो धर्मों की संगति हो सकती है। द्वितीय (अनुमान-) प्रयोग प्रस्तुत किया जा रहा है- परकीय वस्तु, जैसे यज्ञदत्त की वस्तु देवदत्त की अपेक्षा (अर्थात् देवदत्त के लिए) परकीय है और इसलिए (देवदत्त के लिए) असत् रूप ही है, क्योंकि वह वस्तु (देवदत्त के) किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं करती, जैसे गधे के सींग, उपर्युक्त हेतु व दृष्टान्त पूर्वोक्त (अनुमान-प्रयोग) की तरह ही हैं। अथवा, जैसे परकीययज्ञदत्त का धन देवदत्त की अपेक्षा से विफल यानी 'प्रयोजन का असाधक' है, इसलिए वह असद्प है, उसी प्रकार, समस्त परकीय वस्तु असद्रूप है- यह दूसरा दृष्टान्त है। इसलिए, (असत्) परकीय वस्तु की द्रव्यमङ्गलता भी किस प्रकार (संभव) हो सकती है?॥ यह गाथा का अर्थ हुआ // 41 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 71 र Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-समभिरूद्वैवंभूतास्तु विशुद्धनयत्वादागमतो द्रव्यमङ्गलं नेच्छन्त्येव, कस्मात्?, इत्याह जाणं नाणुवउत्तोऽणुवउत्तो वा न याणइ जम्हा। जाणंतोऽणुवउत्तोत्ति बिंति सद्दादयोऽवत्थु // 42 // [संस्कृतच्छाया:- जानन् वाऽनुपयुक्तः अनुपयुक्तो वा न जानाति यस्मात् / जाननुपयुक्त इति ब्रुवते शब्दादयोऽवस्तु॥] जम्हा इति यस्मात् जानन्नवबुध्यमानो 'मङ्गलं' इति गम्यते, नानुपयुक्तो न तज्ज्ञानोपयोगशून्यो भवति, ज्ञायकस्य ज्ञानोपयोगेनान्तरीयकत्वात्। अनुपयुक्तो वा तत्र न तज्जानीते न तस्य ज्ञायकोऽसौ व्यपदिश्यते, अज्ञायकत्वाभिमतवत्, काष्ठादिवद् वेत्यर्थः। तस्माज्जानन्ननुपयुक्तश्चेत्येतदप्यवस्तु असदभाव इति यावत्, एतद् ब्रुवते शब्दादयः शब्द-समभिरूद्वैवंभूतनयाः॥ इति गाथार्थः॥४२॥ शब्द, समभिरूढ़ व एवम्भूत नय तो विशुद्ध नय होने से 'आगम से द्रव्यमङ्गल' को चाहते ही नहीं हैं (उसे विषय नहीं बनाते)। ऐसा क्यों? इस (प्रश्न के समाधान के) लिए कहा (42) जाणं नाणुवउत्तोऽणुवउत्तो वा न याणइ जम्हा। जाणंतोऽणुवउत्तो त्ति बिंति सद्दादयोऽवत्थु // [(गाथा-अर्थः)शब्द आदि नयों का, अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ व एवम्भूत नय का कहना हैचूंकि जो (मङ्गल शब्द को) जानता है, किन्तु उपयोग-सहित नहीं है, और जो उपयोगिरहित है, वह (जानता है-ऐसा कहा नहीं जाता है, इसलिए वह) जानता नहीं है। इसलिए, जानता हुआ उपयोगरहित (जो भी है, वह) अवस्तु है।] व्याख्याः- जम्हा-चूंकि / (मङ्गल-शब्द-अर्थ) को जानता हुआ, उसका बोध प्राप्त करता हुआ ही, 'मङ्गल' इस रूप में जाना जाता है, किन्तु जो उपयोगरहित है, यानी (मङ्गल-सम्बन्धी) ज्ञानोपयोग से शून्य है, वह 'मङ्गल' नहीं कहा जाता / क्योंकि ज्ञानोपयोग होने से ही ज्ञायकता सम्पन्न होती है। अथवा उपयोगरहित होने से वह 'नहीं जानता है', अतः उसे 'ज्ञायक' के रूप में अभिहित नहीं किया जाता। यह उसी प्रकार है जैसे किसी अज्ञायक को या फिर (अचेतन) काष्ठ आदि को ज्ञायक नहीं कहा जाता- यह तात्पर्य है। इसलिए, जानता हुआ उपयोगरहित जो भी है, वह अवस्तु है, असत् है, उसकी सत्ता नहीं है- ऐसा शब्दादि नयों का, अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ एवं एवम्भूत नय का, कहना है। यह गाथा का अर्थ हुआ॥४२॥ Na 72 --- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राऽर्थे उपपत्तिमाह हेऊ विरुद्धधम्मत्तणा हि जीवो व्व चेअणारहिओ। न य सो मङ्गलमिटुं तयत्थसुन्नोत्ति पावं व॥४३॥ [संस्कृतच्छाया:- हेतुर्विरुद्धधर्मत्वाद् हि जीव इव चेतनारहितः। न च स मङ्गलमिष्टं तदर्थशून्य इति पापमिव॥] जानन्ननुपयुक्तश्चेत्येतदवस्तु इत्यस्यामनन्तरातिक्रान्तगाथापर्यन्तकृतप्रतिज्ञायामयं हेतुः। क:?, इत्याह- 'विरुद्धधम्मत्तणा हि त्ति' विरुद्धौ धौ यत्र तत् तथा तद्भावस्तस्माद् विरुद्धधर्मत्वादिति। दृष्टान्तमाह- यथा जीवश्चेतनारहितः। इदमुक्तं भवति- यथा जीवश्चेतनारहितश्च, माता च वन्ध्या चेत्यादि विरुद्धधर्माध्यासादवस्तु, एवं ज्ञायकश्चाऽनुपयुक्तश्चेत्येतदप्यवस्त्वेव। भवतु वा ज्ञायकोऽनुपयुक्तश्च, तथापि नास्माकमसौ मङ्गलत्वेनेष्टः, तदर्थशून्यत्वाद् मङ्गलार्थशून्यत्वात्, पापवदिति। भावमङ्गलग्राहिणो ह्यमी कथं द्रव्यमङ्गलमिच्छन्ति?, इति भावः। इति गाथार्थः॥४३॥ पूर्वोक्त कथन में (उचित हेतु, दृष्टान्त आदि के रूप में) युक्ति प्रस्तुत की जा रही है (43) हेऊ विरुद्धधम्मत्तणा हि जीवो व्व चेअणारहिओ। .. न य सो मङ्गलमिटुं तयत्थसुन्नोत्ति पावं व // [(गाथा-अर्थः) (पूर्वोक्त कथन में) विरूद्धधर्मत्व हेतु है। दृष्टान्त है- चेतनारहित जीव-ऐसाकहना। (अर्थात् जीव है और वह चेतनारहित है- यह कथन विरूद्धधर्मयुक्त होने से असद्रूप है, वैसे ही 'ज्ञायक है और उपयोगरहित है'-यह कथन भी असद्-रूप है।) उस (ज्ञायक व उपयोगरहित वक्ता) की द्रव्यमङ्गलता, चूंकि वह मङ्गलार्थ से शून्य है, इसलिए उसी तरह इष्ट नहीं है जिस तरह 'पाप' (की मङ्गलता इष्ट नहीं है)। . व्याख्या:- जानता हुआ भी उपयोगरहित है- यह 'अवस्तु' (अवास्तविक) है- इस पूर्वोक्त गाथा में की गई प्रतिज्ञा में यह हेतु है। वह क्या है? इस (प्रश्न के समाधान) के लिए कहाविरूद्धधर्मत्वात् / विरूद्ध जो परस्पर दो धर्म, वह जहां हो, ऐसा होना- यह हेतु है। दृष्टान्त का कथन किया जा रहा है- जैसे, 'जीव चेतनारहित है' यह कथन / कहने का तात्पर्य यह है- जैसे 'जीव चेतनारहित है' और 'माता वन्ध्या है' -ये कथन अवस्तु हैं, वैसे ही 'ज्ञायक है और वह उपयोगरहित है' यह कथन भी अवस्तु-विषयक है। चलो, ज्ञायक और उपयोगरहित कोई हो भी, तो भी वह मङ्गल-अर्थ से शून्य होने से, पाप की तरह, 'मङ्गल' के रूप में हमें अभीष्ट नहीं है। भावमङ्गल को ग्रहण करने वाले (ये नय) द्रव्यमङ्गल को कैसे चाहेंगे? (अर्थात् कभी नहीं) -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 43 // विशेषावश्यक भाष्य - ---- 73 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं विचारितं नयैर्द्रव्यमङ्गलम्, तथा च सति समर्थितमागमतो द्रव्यमङ्गलम्। अथ नोआगमतस्तदभिधीयते। तच्च ज्ञशरीरभव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा / तत्र ज्ञशरीर-भव्यशरीरलक्षणभेदद्वयमाह मंगलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवोत्ति। नोआगमओ दव्वं आगमरहिओ त्ति जं भणिअं॥४४॥ [संस्कृतच्छायाः- मङ्गलपदार्थज्ञायकदेहो भव्यस्य वा सजीव इति। नोआगमतो द्रव्यमागमरहित इति यद् भणितम् // ] ... 'नोआगमओ दव्वं त्ति' नोआगमतो ज्ञशरीरं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। कः? इत्याह- मङ्गलपदार्थज्ञस्य देहः, इदमुक्तं भवतिइह मङ्गलपदार्थः पूर्वं येन स्वयं सम्यग् विज्ञातः, परेभ्यश्च प्ररूपितः, तस्य संबन्धी जीवविप्रमुक्तः सिद्धशिलातलादिगतो देहोऽतीतकालनयानुवृत्त्याऽतीतमङ्गलपदार्थज्ञानाऽऽधारत्वाद् नोआगमतो द्रव्यमङ्गलमुच्यते। नोशब्दस्येह सर्वनिषेधवचनत्वात्, आगमस्य च सर्वथाऽत्राऽभावाद नोआगमता द्रष्टव्या, अतीतमङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणाऽऽगमपर्यायकारणत्वात् तु द्रव्यमङ्गलता, यथाऽतीतघृताधारपर्यायकारणत्वाद् रिक्तघृतकुम्भे घृतघटतेति। 'भव्वस्स व त्ति' वाशब्दो द्वितीयपक्षसमुच्चये, भव्यस्य च (ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यमङ्गल) इस प्रकार, नयों की अपेक्षा से 'द्रव्यमङ्गल' का विचार किया गया, और इस तरह 'आगम से द्रव्यमङ्गल' का समर्थन किया गया। अब ‘नो आगम द्रव्यमङ्गल' का निरूपण किया जाएगा। यह ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तदतिरिक्तशरीर- इस प्रकार तीन प्रकार का है। इनमें ज्ञशरीर व भव्यशरीर (नो-आगम द्रव्यमङ्गल) के लक्षण और भेद का निरूपण करने हेतु कह रहे हैं (44) मङ्गलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवो त्ति। नोआगमओ दवं आगमरहिओ त्ति जं भणिअं॥ [(गाथा-अर्थः) मङ्गल पदार्थ के ज्ञाता का देह, अथवा भविष्य में मङ्गल पदार्थ के ज्ञाता बालक का सजीव शरीर, चूंकि आगम (रूपी मङ्गल) से रहित है, इसलिए 'नो आगम से द्रव्यमङ्गल' कहा जाता है। व्याख्याः- नोआगमतो द्रव्यम् / इसका अर्थ है- नोआगम से ज्ञ-शरीर 'द्रव्य मङ्गल' है। वह किसका है? इस (प्रश्न के समाधान के लिए कहा- मङ्गल पदार्थ के ज्ञाता का शरीर / तात्पर्य यह है कि मङ्गल पदार्थ को पहले जिसने अच्छी तरह स्वयं जाना, उसे औरों को भी बताया- समझाया, सिद्धशिलातल में गए हुए उस ज्ञाता का जो जीवरहित शरीर है, वह अतीत काल के आधार पर, अतीत में मङ्गल पदार्थ के ज्ञान का आधार होने से, 'नोआगम द्रव्यमङ्गल' कहा जाता है। 'नो' शब्द यहां सर्वप्रकार के निषेध का वाचक है, इसलिए आगम का सर्वथा अभाव होने से 'नोआगमता' दृष्टिगोचर है ही। जिस प्रकार, अतीत में घृत के आधारभूत घट-पर्याय का कारण होने से घृत से रिक्त घड़ा भी ‘घी का घड़ा' कहा जाता है, इसी प्रकार अतीत में मङ्गलपदार्थ के ज्ञानरूपी आगमपर्याय का Ma 74 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलपदार्थज्ञानयोग्यस्य सम्बन्धी 'देहः' इति वर्तते, सजीवः सचेतनो नोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमित्यर्थः / इदमत्र हृदयम्- य इदानीं मङ्गलपदार्थ न जानीते, भविष्यति तु काले ज्ञास्यति, तस्य संबन्धी सचेतनो देहो भविष्यत्कालनयाऽनुवृत्त्या भविष्यन्मङ्गलपदार्थज्ञानाधारत्वाद् नोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमिति। अत्रापि नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात्, आगमस्य चेदानीमभावाद् नोआगमता समवसे या। भविष्यत्काले मङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणस्याऽऽगमस्य कारणत्वात् तु द्रव्यमङ्ग लता, यथा भविष्यद्धृताधारपर्यायकारणत्वाद् रिक्तघृतकुम्भे घृतघटता। नोआगमत इत्येतद् विवृण्वन्नाह- 'आगमरहिओ इत्यादि' नोशब्दस्य सर्वनिषेधवचनत्वाद् नोआगमत इत्यनेनैतदुक्तं भवति, किम्?, इत्याह- मङ्गलपदार्थज्ञस्य भव्यस्य च संबन्धी अचेतनः सचेतनश्च देहो वर्तमानकाले सर्वथैवाऽऽगमरहितः॥ इति गाथार्थः॥४४॥ तदेवं सर्वनिषेधवचनत्वे नोशब्दस्यैवमुदाहरणमुपदर्शितम्, यदि वा देशनिषेधपरेऽपि नोशब्दे एतत् संबध्यत एवेति दर्शयन्नाह अहवा नोदेसम्मि, नोआगमओ तदेगदेसाओ। भूयस्स भाविणो वाऽऽगमस्स जंकारणं देहो॥४५॥ कारण होने से वहां 'द्रव्यमङ्गलता' (भी) है। भव्यस्य वा। यहां 'वा' शब्द द्वितीय पक्ष के समुच्चय का बोधक है। भविष्य में मङ्गल-पदार्थ के ज्ञान की योग्यता रखने वाले भव्य का जो देह सजीव सचेतन है, वह 'नोआगम से भव्यशरीर द्रव्यमङ्गल है' -यह तात्पर्य है। यहां सारभूत बात यह है कि वर्तमान में जो मङ्गलपदार्थ का ज्ञाता नहीं है, किन्तु भविष्य में जो जानेगा, उसका सचेतन देह, भविष्यकाल की दृष्टि से, भविष्य में मङ्गल पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान का आधार होने से 'नोआगम से भव्यशरीर द्रव्यमङ्गल' है। यहां भी 'नो' शब्द सर्वथा निषेध का वाचक है। चूंकि वर्तमान में आगम का सर्वथा अभाव है. अतः 'नोआगमता' का निश्चय कर लेना चाहिए। जैसे, भविष्य में घत-आधार रूप पर्याय का कारण होने से (वर्तमान में) खाली घडे में 'घतघटता' (घत का घडा कहलाने की योग्यता) है. उसी तरह भविष्य में 'मङ्गल पदार्थ-सम्बन्धी ज्ञानरूप आगम' के कारण होने से द्रव्यमङ्गलता यहां है। 'नोआगमतः' इस शब्द का स्पष्टीकरण करने हेतु कहा- आगमरहितः। नोशब्द सर्वथा निषेध का वाचक है, इसलिए 'नोआगम' से यह अर्थ प्रकट होता है। (प्रश्न-) कौन-सा अर्थ प्रकट होता है? इस (प्रश्न के समाधान के लिए कहा- मङ्गल पदार्थ के ज्ञाता भव्य का जो अचेतन या सचेतन देह, जो वर्तमान में सर्वथा आगम से रहित है (वह 'नोआगम भव्यशरीर-द्रव्यमङ्गल' है)॥ यह गाथा का अर्थ हुआ // 44 // इस प्रकार, सर्वथा निषेधवाचक 'नो' शब्द का उदाहरण दिया गया / यदि उसे देश (आंशिक)निषेध का वाचक भी मानें तो भी इसका सम्बन्ध संगत ही होता है- यह बताने के लिए कह रहे हैं (45) अहवा नोदेसम्मि, नोआगमओ तदेगदेसाओ। भूयस्स भाविणो वाऽगमस्स जं कारणं देहो // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 752 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- अथवा नोदेशे नोआगमतस्तदेकदेशात्। भूतस्य भाविनो वाऽऽगमस्य यत् कारणं देहः॥] अथवा 'नो' इति नोशब्दः 'देसम्मि त्ति' देशनिषेधवचनो विवक्ष्यत इत्यर्थः। ततश्च नोआगमत इति कोऽर्थः?, इत्याहतदेकदेशादागमैकदेशादागमैकदेशमाश्रित्य द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। किं पुनस्तत्? इति चेत्। मङ्गलपदार्थज्ञस्याऽचेतनः, भव्यस्य तु सचेतनो देह इत्यनुवर्तमानं संबध्यते। कः पुनरिहाऽऽगमस्यैकदेशो यमाश्रित्य नोआगमतो द्रव्यमङ्गलमिदं स्यात्? इति। अत्रोच्यतेयथोक्तो ज्ञभव्यशरीररूपो देह एवाऽत्राऽऽगमैकदेशः। ननु जडस्य देहस्य कथमागमैकदेशता?, इति। अत्राह- 'भूयस्सेत्यादि' यद् यस्मादचेतनो देहो भूतस्याऽतीतस्य मङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणस्याऽऽगमस्य कारणं हेतुः, सचेतनस्तु भव्यदेहो भाविनो यथोक्तस्याऽऽगमस्य कारणम्, तस्माद् निजकार्यस्याऽऽगमस्यैकदेशे वर्तत एव, कारणं हि कार्यस्यैकदेशे वर्तत एव, यथा मृत्तिका घटस्य। अभेद एव / घट-मृत्तिकयोरिति चेत् / नैवम्, भेदाऽभेदयोरेव जैनैरिष्टत्वात्, यद वक्ष्यति नत्थि पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो। जं पुण घडो त्ति पुव्वं नासी पुढवी तओ अण्णो॥१॥ [नास्ति पृथिवीविशिष्टो घट इति यत् तेन युज्यतेऽनन्यः। यत् पुनर्घट इति पूर्वं नासीत् पृथिवी ततोऽन्यः॥] [(गाथा-अर्थः) अथवा 'नो' शब्द आंशिक (देश-)निषेध का वाचक है, इसलिए भूत या भावी आगम का कारण जो शरीर है, वह 'नोआगम से द्रव्यमङ्गल' है, क्योंकि वह शरीर आंगमरूप ज्ञान का कारण होता है।] ___व्याख्याः - अथवा 'नो' यानी 'नो' शब्द देश अर्थात् आंशिक निषेध के अर्थ में (भी) यहां विवक्षित है- यह भाव है। (प्रश्न-) 'नो-आगम से' इसका क्या अर्थ हुआ? इस (के समाधान के) के लिए (उत्तर) कहा- तदेकदेश रूप में, आगम के एकदेश (आंशिक) रूप में, यानी आगम के एकदेश : का आश्रयण कर 'द्रव्यमङ्गल है'- यह अर्थ हुआ। (प्रश्न-) वह (द्रव्यमङ्गल) क्या है? (उत्तर-) मङ्गलपदार्थ के ज्ञाता का अचेतन, और भविष्य में ज्ञाता होने वाले का सचेतन देह, इस (कथन) की अनुवृत्ति कर पूर्व वाक्य में जोड़ना चाहिए। (प्रश्न-) यहां फिर 'आगम का एकदेश' क्या है जिसका आश्रय कर 'नोआगम से द्रव्यमङ्गल'-यह कथन किया गया? यहां (उत्तर रूप में) कह रहे हैं- जैसा पहले कहा गया था- वह ज्ञाता का भव्य शरीर रूपी देह ही यहां आगमैकदेश है। (प्रश्न-) जड़ देह की आगम-एकदेशता कैसे हुई? यहां (उत्तर में) कहा- भूतस्य | चूंकि अचेतन देह भूत यानी अतीत मङ्गलपदार्थ-ज्ञान रूप आगम का कारण या हेतु है, और सचेतन भव्य-देह (भी) भावी (पूर्वोक्त मङ्गलपदार्थज्ञान रूपी) आगम का कारण है, इसलिए निजकार्यरूप आगम के एकदेश में (अंशतः) वह विद्यमान है ही, कयोंकि कारण (अपने) कार्य के एकदेश में रहता ही है, जैसे मृत्तिका घट के (एकदेश में रहती है)। (प्रश्न-) घट व मिट्टी का तो अभेद ही है फिर वह घट के एकदेश में रही कैसे कही जा सकती है? (उत्तर-) ऐसा नहीं है। जैनों को भेद-अभेद, ये दोनों ही अभीष्ट हैं। क्योंकि आगे (2104 गाथा में) कहा गया है “पृथिवी यानी मृत्तिका से विशिष्ट यानी पृथक् कोई (पार्थिव) घड़ा नहीं होता, अतः वह मृत्तिका से अनन्य संगत होता है। किन्तु (साथ ही,) घट (अपने निर्माण से) पूर्व में नहीं था, मात्र पृथिवी-मिट्टी ही थी, इसलिए वह (घट) पृथिवी से भिन्न (भी) है।" NA 76 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- ननु मङ्गलपदार्थज्ञानस्य परिणामिकारणं जीव एव, ततस्तस्य स्वकार्यैकदेशे वृत्तिरस्तु, यथा मृत्तिकायाः, शरीरं त्वागमस्य परिणामिकारणं न भवति, अतः कथं तस्य तदेकदेशवृत्तिता?। सत्यम्, किन्तु “अण्णोण्णाणुगयाणं इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं, जह खीरपाणियाणं" [अन्योन्यानुगतानामिदं च तच्चेति विभाजनमयुक्तम्, यथा क्षीरपानीययोः] इत्यादिवचनात् संसारिणो जीवस्य शरीरेण सहाऽभेद एव व्यवह्रियते, अतो जीवस्य परिणामिकारणत्वे शरीरस्याऽपि तद् विवक्ष्यते, इत्यस्याऽऽगमैकदेशता न विरुध्यते / भवत्वेवम्, तथाप्यागमतो द्रव्यमङ्गलं प्राग् यदुक्तं तेन सहाऽस्य को भेदः?, तत्रापि हि "आगमकारणमाया देहो सद्दो य" इति वचनाच्छरीरमेव द्रव्यमङ्गलमुक्तम्, अत्रापि च तदेव, इति कथं नैकत्वम्? / सत्यम्, किन्तु प्रागुपयोगरूप एवाऽऽगमो नास्ति, लब्धितस्तु विद्यत एव, अत्र तूभयस्वरूपोऽपि नास्ति, कारणमात्रस्यैव सत्त्वात्, इति विशेषः॥ इति गाथार्थः॥४५॥ तदेवं दर्शितं ज्ञशरीर-भव्यशरीरलक्षणं नोआगमतो द्रव्यमङ्गलभेदद्वयम्, सांप्रतं ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तस्वरूपं तत्तृतीयभेदमुपदर्शयन्नाह जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिह दव्वमङ्गलं होइ। जा मङ्गल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउत्तो॥४६॥ अब कोई (प्रश्नकर्ता पुनः प्रश्न) कह रहा है- मङ्गल पदार्थ के ज्ञान का परीणामी कारण जीव है, अतः, जैसे मृत्तिका की घड़े के एकदेश में वृत्ति होती है उसी तरह, उस (जीव) की-अपने कार्य के एकदेश में वृत्ति हो तो हो, किन्तु शरीर तो आगम का परिणामी कारण नहीं है, इसलिए उस (शरीर) की आगम के एकदेश में वृत्ति कैसे सम्भव है? (उत्तर-) आपका कथन सही है, किन्तु 'जो पदार्थ दूध व पानी की तरह एक दूसरे में अनुगत हैं', उनमें 'यह' और 'वह'- इस प्रकार से विभाजन युक्तियुक्त नहीं होता'- इत्यादि कथन से, संसारी जीव की शरीर के साथ अभिन्नता ही (लौकिक) व्यवहार में मानी जाती है। इसलिए, जीव के परिणामी कारण होने पर शरीर की भी वह (आगम-एकदेशवृत्ति) विवक्षित है। इस तरह, इस (शरीर) की आगमैकदेशता विरुद्ध नहीं है। (प्रश्न-) चलो इसे मान लिया, किन्तु जो पहले 'आगम से द्रव्यमङ्गल' कहा था, उससे इस कथन में क्या अन्तर हुआ? क्योंकि वहां (पहले) भी आत्मा, देह व शब्द को आगम-कारण होने से शरीर को ही 'द्रव्यमङ्गल' कहा था, और यहां भी यही कहा गया है, इसलिए दोनों (कथन) एक कैसे नहीं है? (उत्तर-) सत्य है। किन्तु पहले, उपयोगरूप से ही 'आगम' का अभाव (बताया गया) है, लब्धिरूप से तो वह है ही, और यहां वह (आगम) उभय रूप (उपयोग व लब्धि-दोनों रूपों) में नहीं है, अपितु कारण-मात्र रूप से ही उसका सद्भाव है- यह विशेषता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 45 // इस प्रकार, शरीर व भव्यशरीर दोनों रूपों में 'नोआगम से द्रव्यमङ्गल' के दो भेदों का निर्देशन किया गया है, अब ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न तीसरे भेद के निरूपण हेतु कहा (46) जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिह दव्वमङ्गलं होइ। जा मङ्गल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउत्तो॥ Na ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 777 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- ज्ञायकभव्यशरीरातिरिक्तमिह द्रव्यमङ्गलं भवति / या मङ्गल्या क्रिया तां कुर्वाणोऽनुपयुक्तः॥] . इह तावद् भावतः परमार्थतो मङ्गलं द्विविधम्-जिनप्रणीत आगमः, तत्प्रणीता मङ्गल्या प्रत्युपेक्षणादिक्रिया च। इतश्च पूर्वमागमतो नोआगमतश्च यद् द्रव्यमङ्गलमुक्तं तत्सर्वमागममङ्गलापेक्षमेव, ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यमङ्गलं मङ्गल्यक्रियामेवाऽऽश्रित्य भणिष्यत इति परिभावनीयम्।अथ गाथार्थो व्याख्यायते- तत्र ज्ञशरीर-भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तमिह द्रव्यमङ्गलं भवति। कः?, इत्याह- अनुपयुक्तः, तां कुर्वाणो या। किम्?, इत्याह-या प्रत्युपेक्षण-प्रमार्जनादिका मङ्गल्या क्रिया। इदमुक्तं भवतियोऽनुपयुक्तो जिनप्रणीतां मङ्गलरूपां प्रत्युपेक्षणादिक्रियां करोति, स नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरातिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्, उपयोगरूपोऽत्राऽऽगमो नास्तीति नोआगमता। ज्ञशरीर-भव्यशरीरयोर्ज्ञानापेक्षा द्रव्यमङ्गलता. अत्र त क्रियापेक्षा. अतस्तदव्यति अनुपयुक्तस्य क्रियाकरणात् तु द्रव्यमङ्गलत्वं भावनीयम्, उपयुक्तस्य तु क्रिया यदि गृह्येत तदा भावमङ्गलतैव स्यादिति भावः॥ इति गाथार्थः॥४६॥ अथ प्रकारान्तरेणापि प्रस्तुतमङ्गलमाह [(गाथा-अर्थः) उपयोगरहित होकर मङ्गल-क्रिया करने वाले को ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न, 'नो-आगम से द्रव्यमङ्गल' कहा जाता है।] व्याख्याः- यहां 'भाव' से, यानी परमार्थतः मङ्गल दो प्रकार का है- (१)जिनप्रणीत आगम, और (२)जिन-प्रणीत प्रत्युपेक्षा आदि ‘मंगल्य' क्रिया। इससे पूर्व, 'आगम से' तथा 'नो-आगम से' जिस द्रव्यमङ्गल का निरूपण किया गया, वह सारा, आगम रूप मङ्गल की अपेक्षा से ही है। किन्तु : ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न जो (तीसरा) द्रव्यमङ्गल है, वह मंगल्य क्रिया का आश्रय करके ही कहा जा रहा है- यह समझ लेना चाहिए। अब गाथा के अर्थ का व्याख्यान किया जा रहा है- यहां ज्ञशरीर से भिन्न द्रव्यमङ्गल (का कथन) है। वह द्रव्यमङ्गल आखिर कौन है? इस (जिज्ञासा के समाधान के) लिए कहा- अनुपयुक्तः / उपयोगरहित होकर उसे करता हुआ। (प्रश्न-) किसे (क्या) करता हुआ? अतः (उत्तर में) कहा- (मङ्गल्या क्रिया, ताम्)। प्रत्युपेक्षा, प्रमार्जना आदि जो मंगल्य (मङ्गलकारी) क्रिया है, उसे (करता हुआ)। तात्पर्य यह है कि जो उपयोगरहित होकर जिनप्रणीत (जिन उपदिष्ट) प्रत्युपेक्षा आदि मंगल्य क्रिया करता है, वह नो-आगम से ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न, द्रव्यमङ्गल है। चूंकि यहां उपयोगरूप आगम (का सद्भाव) नहीं है, इसलिए 'नो-आगमता' है। ज्ञशरीर व भव्यशरीर तो ज्ञान की अपेक्षा से 'द्रव्यमङ्गल' है, किन्तु यहां वह 'क्रिया' की अपेक्षा से कहा गया है इसलिए उन (ज्ञशरीर व भव्यशरीर) से भिन्नता है। उपयोगसहित की क्रिया को (मङ्गलता की दृष्टि से) देखें तो उसकी भावमङ्गलता ही (मान्य) होगी- यह तात्पर्य है| यह गाथा का अर्थ हुआ // 46 // अब प्रकार से प्रस्तुत मङ्गल (नो-आगम से द्रव्यमङ्गल) का, निरूपण किया जा रहा है VA 78 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं भूयभावमङ्गलपरिणामं तस्स वा जयं जोग्गं। जं वा सहावसोहणवन्नाइगुणं सुवण्णाइ॥४७॥ तं पि य हु भावमङ्गलकारणओ मङ्गलं ति निद्दिटुं। नोआगमओ दव्वं, नोसद्दो सव्वपडिसेहे // 48 // [संस्कृतच्छाया:- यद् भूतभाविमङ्गलपरिणामं, तस्य वा यद् योग्यम्। यद् वा स्वभावशोभनवर्णादिगुणं सुवर्णादि। तदपि च यस्माद् भावमङ्गलकारणतो मङ्गलमिति निर्दिष्टम्। नोआगमतो द्रव्यं नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे॥] नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थ इति द्वितीयगाथोत्तरार्धे संबन्धः। किं तत्?, इत्याह- यद् भूतभावमङ्गलपरिणामम्, इह भावमङ्गलशब्देन चरणकरणक्रियाकलापोऽभिप्रेतः, तस्य परिणमनं परिणतिः प्रवृत्ति वमङ्गलपरिणामः, भूतः पूर्व संजातो भावमङ्गलपरिणामो यस्य तद् भूतभावमङ्गलपरिणामम्, सांप्रतं तु तच्छून्यम्, तत्पुनः कस्यापि शरीरं जीवद्रव्यं वा, तद्नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलं बोद्धव्यम्। तस्स वा जयंजोग्गंति' अथवा तस्य यथोक्तस्य भावमङ्गलपरिणामस्य यद् योग्यमहँ शरीरं जीवद्रव्यं वा, तद् नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्। अथवा यत् स्वभावत एव शोभनवर्णादिगुणं (47-48) जं भूयभावमङ्गलपरिणामं तस्स वा जयं जोग्गं / * जं वा सहावसोहणवन्नाइगुणं सुवण्णाइ॥ तं पि य हु भावमङ्गलकारणओ मङ्गलं ति निद्दिढ़। नो आगमओ दव्वं, नोसद्दो सव्वपडिसे हे || [(गाथा-अर्थः) जो भूतकाल के भावमङ्गल का परिणामी कारण हो, अथवा भविष्य में भावमङ्गल होने के योग्य हो, अथवा स्वभाव से सुन्दरवर्ण आदि गुणों से युक्त सुवर्ण आदि जो (द्रव्य) हो, ये (सभी) भावमङ्गल के कारण होने से 'नोआगम से' (ज्ञशरीर आदि से भिन्न) 'द्रव्यमङ्गल' कहे गए हैं। यहां 'नो' शब्द सर्वथा प्रतिषेध का वाचक है।] ... व्याख्याः - नो-आगम से, ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न, 'द्रव्य' यानी द्रव्यमङ्गल है- यह दूसरी गाथा के उत्तरार्ध से सम्बद्ध है। (प्रश्न-) वह द्रव्यमङ्गल कौन-कौन सी वस्तु हैं? अतः (उत्तर में) कहा- यद् भूतभावमङ्गलपरिणामम् / यहां भावमङ्गल शब्द से चरण व करण क्रियाओं का समूह अभिप्रेत है। उसका परिणाम, परिणति यानी प्रवृत्ति (ही) भावमङ्गल-परिणाम है। 'भूत' यानी जो पूर्व में हो चुका, भावमङ्गलरूप परिणाम जिसका, वह है भूतभावमङ्गलपरिणाम / वर्तमान में (जो) उस परिणाम से शून्य है, वह चाहे किसी का भी शरीर हो या जीवद्रव्य हो, उसे 'नो-आगम' से ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न द्रव्यमङ्गल समझना चाहिए। तस्य वा यद् योग्यम्- अथवा उसके, यानी पूर्वोक्त भावमङ्गल परिणाम के, जो योग्य या लायक शरीर हो या जीव द्रव्य हो, वह नो-आगम से ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न द्रव्यमङ्गल है। अथवा जो स्वभाव से ही सुन्दर वर्ण-आदि वाली सुवर्ण आदि वस्तु, यहां आदि पद से रत्न, दधि, अक्षत, कुसुम, मङ्गल-कलश आदि का ग्रहण करना चाहिए, यह ------ विशेषावश्यक भाष्य -------- 79 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्णादिकं वस्तु, आदिशब्दाद् रत्न-दध्य-ऽक्षत-कुसुम-मङ्गलकलशादिपरिग्रहः, तदेज्ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्। ननु कथं तद् मङ्गलम्?, इत्याह- 'तं पीत्यादि' हुर्यस्मादर्थे, यस्मात् तदपि सुवर्णादिकं कस्यापि भावमङ्गलकारणत्वाद् मङ्गलं निर्दिष्टम्। यच्च कारणं तद् “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके, तद् द्रव्यम्" इत्यादिवचनाद् द्रव्यतयाऽपि व्यपदिश्यते, अतो द्रव्यमङ्गलं भवति। नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे, आगमस्येह सर्वथैवाऽभावादिति। पूर्वं ज्ञ-भव्यशरीरयोः केवलमागमाभावापेक्षं द्रव्यमङ्गलत्वमुक्तम्, अत्र तु क्रियाऽभावमाश्रित्येति भावनीयम् // इति गाथाद्वयार्थः॥४७॥४८॥ तदेवं प्रतिपादितमागमतो नोआगमतश्च द्रव्यमङ्गलम्। अथ भावमङ्गलमुच्यते, तस्य च लक्षणं नाम-स्थापना-द्रव्याणामिव भाष्यकता केनापि कारणेन नोक्तम। तच्चेत्थमवगन्तव्यम "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः।सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियाऽनुभवात्"॥इति। अत्राऽयमर्थः- भवनं विवक्षितरूपेण परिणमनं भावः, अथवा भवति विवक्षितरूपेण संपद्यते इति भावः। कः पुनरयम्?, इत्याह- वक्तुर्विवक्षिता इन्दन-ज्वलन-जीवनादिका या क्रिया तस्या अनुभूतिरनुभवनं तया युक्तो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तः, सर्वज्ञैः समाख्यातः। (=पूर्वोक्त) सब, ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न (तीसरा) द्रव्यमङ्गल है। (प्रश्न-) वह (पूर्वोक्त वस्तुसमूह) द्रव्यमङ्गल कैसे है? इस (जिज्ञासा के समाधान) के लिए कहा- तदपि / 'यस्मात्' (हु) का अर्थ हैचूंकि / अर्थात् चूंकि वह सुवर्णादिक वस्तु भी किसी के लिए भावमङ्गल की कारण है, इसलिए उन्हें 'मङ्गल' कहा जाता है। लोक में 'जो भूत या भावी परिणामों का कारण होता है, वह 'द्रव्य' होता है'इस कथन के अनुसार, चूंकि व द्रव्यरूप में कही जाती हैं, अतः 'द्रव्यमङ्गल' हैं। 'नो'-शब्द सर्वथा प्रतिषेध का वाचक है, और यहां (उक्त द्रव्यमङ्गल में) 'आगम' का सर्वथा अभाव है। पहले ज्ञशरीर व भव्यशरीर -इन दोनों की द्रव्यमङ्गलता कही गई थी, वह केवल आगम के अभाव को दृष्टि में रखकर थी, किन्तु यहां क्रिया के अभाव को आश्रित कर (द्रव्यमङ्गलता) कही गई है- यह समझना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 47-48 // (भावमङ्गल) इस प्रकार, 'आगम से और नो-आगम से द्रव्यमङ्गल' का निरूपण हो गया / अब, भावमङ्गल का निरूपण किया जाएगा, उसका लक्षण, नाम-स्थापना-द्रव्य की तरह, भाष्यकार द्वारा किसी कारणवश नहीं कहा गया है। उसे इस प्रकार समझना चाहिए " जैसे 'इन्दन' (ऐश्वर्य) आदि क्रिया के अनुभव के कारण, इन्द्र आदि कहे जाते हैं, उसी प्रकार, सर्वज्ञों ने विवक्षित क्रिया की अनुभूति से युक्त को 'भाव' कहा है।' यहां (गाथा का शाब्दिक) अर्थ इस प्रकार है- 'भाव' से तात्पर्य है- होना, विवक्षित रूप में परिणमन / अथवा- जो होता है, विवक्षित रूप से संपन्न (परिणत) होता है। यह कौन है? समाधानवक्ता द्वारा विवक्षित इन्दन-ज्वलन आदि जो क्रिया, उसकी अनुभूति या अनुभवन, उससे युक्त, (जो) 'विवक्षितक्रियानुभूतियुक्त' है (वह 'भाव' है)- ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। ---- विशेषावश्यक भाष्य --- Ma 80 -- Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क इव?, इत्याह-'इन्द्रादिवत्' स्वर्गाधिपादिवत्, आदिशब्दाज्ज्वलन-जीवनादिपरिग्रहः। सोऽपि कथं भाव:?, इत्याह'इन्दनादिक्रियानुभवात्' इति, आदिशब्देन ज्वलन-जीवनादिक्रियास्वीकारः। विवक्षितेन्दनादिक्रियाऽन्वितो लोके प्रसिद्धः पारमार्थिकपदार्थो भाव उच्यते। भावश्चासौ मङ्गलं च भावमङ्गलम्, भावतो वा परमार्थतो मङ्गलं भावमङ्गलमिति प्रस्तुतयोजना॥ एतदपि द्विविधम्आगमतः, नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतस्तावदाह मंगलसुयउवउत्तो आगमओ भावमंगलं होइ। नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ॥४९॥ [संस्कृतच्छाया:- मङ्गलश्रुतोपयुक्तः आगमतो भावमङ्गलं भवति। नोआगमतो भावः सुविशुद्धः क्षायिकादिकः॥] मङ्गलं च तच्छ्रुतं च मङ्गलश्रुतं मङ्गलशब्दार्थज्ञानमित्यर्थः, तस्मिन्नुपयुक्तो 'वक्ता' इति गम्यते, आगमतो भावमङ्गलं भवति। किसकी तरह (यानी दृष्टान्त क्या है)? (उत्तर-) इन्द्र आदि की तरह, अर्थात् स्वर्गाधिप आदि की तरह। आदि पद से ज्वलन-जीवत्व आदि का ग्रहण समझना / (अर्थात् ज्वलन क्रिया के अनुभवन संयुक्त 'अग्नि', तथा जीवन-क्रिया-अनुभवयुक्त जीव- ये 'भाव' हैं।) उसे 'भाव' क्यों कहा जाता है? (समाधान-) कहा- इन्दन आदि क्रिया के अनुभव की विद्यमानता होने से / आदि पद से जीवन आदि क्रियाओं का ग्रहण करना चाहिए। विवक्षित इन्दन आदि क्रियाओं से अन्वित (युक्त) जो लोक में प्रसिद्ध होता है, वह पारमार्थिक पदार्थ 'भाव' होता है। (आगमतः भावमङ्गल) भाव और (वही) मङ्गल, वह हुआ भावमङ्गल / भाव से, अथवा परमार्थ रूप में जो मङ्गल है, वह 'भावमङ्गल' है- ऐसी वाक्ययोजना समझनी चाहिए। यह (भावमङ्गल) भी दो प्रकार का हैआगम से, और नो-आगम से / इन (दो भेदों) में 'आगम से भावमङ्गल' का निरूपण कर रहे हैं (49) मङ्गलसुयउवउत्तो आगमओ भावमङ्गलं होइ। नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ || [(गाथा-अर्थः) मङ्गल सम्बन्धी श्रुत-उपयोग वाला (वक्ता) 'आगम से भावमङ्गल' है, और विशुद्ध क्षायिक आदि भाव 'नोआगम से भावमङ्गल' है।] व्याख्याः - मङ्गल जो श्रुत वह मङ्गल श्रुत, अर्थात् मङ्गलशब्द व उसके अर्थ का ज्ञान / उसमें उपयोग वाला यानी 'वक्ता', वह 'आगम से भावमङ्गल' होता है। ---- विशेषावश्यक भाष्य -------- 81 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह- ननु मङ्गलपदार्थज्ञानोपयोगमात्रेण कथं सर्वोऽपि वक्ता भावमङ्गलमुच्यते?, तदुपयोगमात्रस्येव तद्रूपताया युक्तिसंगतत्वात्, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवितुमर्हति, दाह-पाकादिक्रियाकरणप्रसङ्गादिति। अत्रोच्यते- उपयोगः, ज्ञानं, संवेदनं, प्रत्यय इति तावदनान्तरम्, अर्थाभिधानप्रत्ययाश्च लोके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः, बाह्यः पृथुबुधनोदराऽऽकारोऽर्थोऽपि घट उच्यते, तद्वाचकमभिधानमपि घटोऽभिधीयते, तज्ज्ञानरूपः प्रत्ययोऽपि घटो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा हि लोके वक्तारो भवन्ति- किमिदं पुरतो दृश्यते?, घटः, किमसौ वक्ति?, घटम्, किमस्य चेतसि स्फुरति? घटः। एवं च सति यद् घट इति ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा यदि ज्ञानज्ञानिनोरव्यतिरेको न स्यात् तदा ज्ञाने सत्यपि ज्ञानी नोपलभेत वस्तुनिवहम्, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत्, पुरुषान्तरवद्। न चाऽनाकारं तज्ज्ञानम्, पदार्थान्तरवद् विवक्षितपदार्थस्यांऽप्यपरिच्छेदप्रसङ्गात्। अपि च, घटादिज्ञान-तद्वतोर्व्यतिरेके (कर्म-) बन्धाद्यभावः प्राप्नोति, यथा हि ज्ञाना-ऽज्ञान-सुखदुःखादिपरिणामस्याऽन्यत्वे आकाशस्य बन्धादयो न भवन्ति, एवं जीवस्यापि न भवेयुरिति भावः॥ यहां आशंकाकार का कथन है- मङ्गल पदार्थ सम्बन्धी ज्ञानोपयोग होने मात्र से समस्त वक्ता कैसे भावमङ्गल कहे जा सकते हैं? अगर कहा जाय तो अग्नि के ज्ञान-उपयोग मात्र से कोई व्यक्ति अग्निरूप कहा जाएगा, किन्तु (व्यवहार में ऐसा होता नहीं देखा जाता)।अग्निज्ञान-उपयोगयुक्त माणवक (बालक) अग्नि ही होता हो -ऐसा नहीं होता, अन्यथा उस (माणवक) से दाह व पाक क्रिया का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। - इसका समाधान इस प्रकार कहा जा रहा है- उपयोग, ज्ञान, संवेदन, प्रत्यय -ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं (पर्याय हैं)। पदार्थ, उनके नाम तथा उनकी प्रतीति (ज्ञान) - इन तीनों को लोक में सर्वत्र एक ही नाम से पुकारा जाता हैं। (जैसे-) चौड़े फैलाव वाले उदर के आकार से युक्त पदार्थ को भी 'घट' कहते हैं, उस घट पदार्थ के अभिधायक शब्द को भी 'घट' कहते हैं, और घट-ज्ञान रूप भी 'घट' कहा जाता है। इसीलिए. लोक में ऐसा लोग (बोलचाल में प्रश्नोत्तर रूप में) बोलते हैं- (प्रश्न) यह सामने क्या दिखाई दे रहा है? (उत्तर-) घट / (प्रश्न) यह क्या बोल रहा है? (उत्तर-) घट। (प्रश्न) इसके हृदय में क्या स्फुरित हो रहा है? (उत्तर-) घट। इस प्रकार, 'घट' इस प्रकार का जो ज्ञान है, उसका ज्ञाता उस ज्ञान से अभिन्न है, इसलिए वह ज्ञान-लक्षण वाला ज्ञाता भी 'घट' रूप में जाना जाता है। अन्यथा यदि ज्ञान व ज्ञानी में अभेद न माना जाय तो ज्ञान होने पर भी व्यक्ति को वस्तु-समूह का ग्रहण (ज्ञान) नहीं हो पाएगा, क्योंकि ज्ञानसंपन्न (होने पर भी वह) व्यक्ति ग्रहणयोग्य वस्तुविशेष से तन्मय नहीं है। उदाहरणार्थ- (तन्मय न होने पर ही) प्रदीप हाथ में लिए हुए (भी) अन्धा व्यक्ति उस प्रदीप को देख नहीं पाता। इसी तरह (पदार्थ-विशेष के ज्ञाता से भिन्न) किसी अन्य पुरुष को भी (उक्त पदार्थ-विशेष का) ज्ञान नहीं हो पाता। (किसी वस्तु विशेष का ज्ञान तभी होता है, जब व्यक्ति का ज्ञान गुण उस वस्तु-विशेष से जुड़ कर 'तदाकार' हो जाता है।) यदि ज्ञान को (वैसा न मान कर) 'अनाकार' रूप में भी उसका होना माना जाय तो जैसे (ज्ञेय पदार्थ से भिन्न) अन्य पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही विवक्षित (इच्छित) पदार्थ के ज्ञान न होने की स्थिति उत्पन्न 9 82 --....,82 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- यदि घटोपयोगानन्यत्वाद् देवदत्तोऽपि घटः, अन्युपयोगानन्यत्वाच्च माणवकोऽप्यग्निः, तर्हि जलाहरण-दाहपाकाद्यर्थक्रियाप्रसङ्गः। तदयुक्तम्, न हि सर्वोऽपि घटो जलाहरणं करोति, नापि समस्तोऽप्यग्निर्दाह-पाकाद्यर्थक्रियां साधयति, कोणेऽवाङ्मुखीकृतघटेन भस्मच्छावह्निना च व्यभिचारात्। न चाऽसौ न घटः, नाग्निर्वा, लोकप्रतीतिबाधाप्रसङ्गात्। तस्माद् मङ्गलपदार्थज्ञानोपयोगाऽनन्यत्वादागमतस्तदुपयुक्तो भावमङ्गलमिति स्थितम् // नोआगमतस्तु आगमस्य सर्वनिषेधमाश्रित्य सुविशुद्धः प्रशस्तः क्षायिक-क्षायोपशमिकादिको भावो भावमङ्गलम्, भाव एव मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्वा। उपलक्षणव्याख्यानादागमवर्जज्ञानचतुष्टय-दर्शन-चारित्राणि च नोआगमतो भावमङ्गलतया वाच्यानि; भावतः परमार्थतो मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्वा // इति गाथार्थः॥४९॥ होगी। दूसरी बात, घट आदि ज्ञान और (उसका) ज्ञाता- इन दोनों को भिन्न माना जाय तो कर्म-बंध आदि का सद्भाव खण्डित हो जाएगा। क्योंकि, जैसे आकाश को कर्म-बंध नहीं होता- इसका कारण यह है कि वह ज्ञान, अज्ञान, सुख व दुःख आदि परिणाम से अनन्य नहीं है, उसी प्रकार, जीव को भी (कर्म-) बन्ध का अभाव होना मानना पड़ेगा (इसलिए ज्ञान व ज्ञानी को अभिन्न मानना पड़ेगा ही)। -यह तात्पर्य है। यह शंकाकार कहता है- यदि घटोपयोग से अनन्य-अभिन्न होने के कारण देवदत्त को 'घट' कहा जाए, तो अग्नि-उपयोग से अभिन्न होने के कारण माणवक (बालक) को भी अग्नि कहा जाएगा, तब तो उस घटात्मक देवदत्त से जल-आहरण की क्रिया होने लगेगी, और वह माणवक भी दाह व भोजन-पाक आदि क्रिया करने लगेगा? (किन्त ऐसा होना प्रत्यक्षविरुद्ध है)। (उक्त आशंका का समाधान-) उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है। सभी घट जल-आहरण आदि क्रिया नहीं कर पाते, और न ही सारी अग्नियां दाह व पाक सम्बन्धी क्रियाएं करती हैं, क्योंकि किसी कोने में टेढ़े या उल्टे मुख किए हुए घट से जल-आहरण क्रिया का व्यभिचार (असद्भाव) देखा जाता है, इसी तरह भस्म से ढकी अग्नि भी दाह या पाक की क्रिया नहीं करती। किन्तु व्यवहार में वह घड़ा-घड़ा ही है, अग्निअग्नि ही हैं, अन्यथा लोकप्रतीति बाधित होने लगेगी। . इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मङ्गल पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान-उपयोग से अभिन्न होने के कारण, उक्त ज्ञानोपयोग से युक्त (वक्ता) 'भावमङ्गल' है। चूंकि विशुद्ध, प्रशस्त क्षायिक, क्षायोपशमिक आदि भाव में 'आगम' का सर्वथा अभाव है- इस दृष्टि से वह 'नो आगम से भावमङ्गल' है। जो भाव है, वही मङ्गल है, इसलिए उसे 'भावमङ्गल' कहा गया है। यह व्याख्यान 'उपलक्षण' रूप है, इसलिए आगमहीन ज्ञान-चतुष्टय, दर्शन व चारित्र -ये भी, चूंकि ये भावतः यानी परमार्थ रूप में मङ्गल हैं, इस दृष्टि से, 'नोआगम से भावमङ्गल' कहे जा सकते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥४९॥ ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 83 Log Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारान्तरेणाऽपि नोआगमतो भावमङ्गलमाह अहवा सम्मइंसण-नाण-चरित्तोवओगपरिणामो। नोआगमओ भावो नोसद्दो मिस्सभावम्मि॥५०॥ [संस्कृतच्छाया:- अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रोपयोगपरिणामः। नोआगमतो भावो नोशब्दो मिश्रभावे॥] अथवा प्रतिक्रमण-प्रत्युपेक्षणादिक्रियां कुर्वाणस्य यो ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपयोगपरिणामः, स नोआगमतो भावो भावमङ्गलं भवति। नोशब्दश्चाऽत्र मिश्रववचनः, यस्माद् नाऽसौ ज्ञान-दर्शन-चारित्रपयोगपरिणाम: केवल एवाऽऽगमः, चारित्रादेरपि सद्भावात्, नाऽप्यनागम एव, ज्ञानस्याऽपि विद्यमानत्वात्, इति मिश्रता // इति गाथार्थः॥५०॥ अथाऽन्येन प्रकारेणाह अहवेह नमुक्काराइनाण-किरिआविमिस्सपरिणामो। नोआगमओ भण्णइ, जम्हा से आगमो देसे॥५१॥ (नोआगम भावमङ्गल) प्रकारान्तर से भी नो आगम से भावमङ्गल का कथन कर रहे हैं (50) अहवा सम्मइंसण-नाण-चरित्तोवओगपरिणामो। नोआगमओ भावो नोसद्दो मिस्सभावम्मि // [(गाथा-अर्थः) अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र का उपयोग रूप परिणाम 'नो आगम से भावमङ्गल' है। यहां 'नो' शब्द 'मिश्र' अर्थ में प्रयुक्त है (ऐसा समझना चाहिए)।] व्याख्याः- अथवा प्रतिक्रमण-प्रतिलेखन आदि क्रिया करने वाले का जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र उपयोग परिणाम है, वह 'नो आगम से भाव' यानी भावमङ्गल है। यहां 'नो' शब्द मिश्र अर्थ का वाचक है। चूंकि उक्त परिणाम केवल आगम-रूप ही नहीं है, क्योंकि वहां चारित्र आदि का भी सद्भाव है। और उक्त परिणाम सर्वथा 'अनागम' भी नहीं है, क्योंकि वहां 'ज्ञान' की भी विद्यमानता है। अतः (ज्ञान रूप आगम व ज्ञानेतर चारित्र आदि के होने से) यहां मिश्र रूप है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 50 // अब अन्य प्रकार से भी (भावमङ्गल का) कथन कर रहे हैं (51) अहवेह नमोक्काराइनाण-किरिआविमिस्सपरिणामो। नोआगमओ भण्णई, जम्हा से आगमो देसे // Ma 84 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- अथवेह नमस्कारादिज्ञानक्रियाविमिश्रपरिणामः। नोआगमतो भण्यते यस्मात् तस्याऽऽगमो देशे // ] अथवेह नोआगमतो भावमङ्गलाधिकारे नमस्करणं नमस्कारोऽर्हदादिप्रणतिरित्यर्थः, स आदिर्येषां स्तोत्रादीनां ते नमस्कारादयस्तेषु ज्ञानोपयोगो नमस्कारादिज्ञानम्, क्रिया शिरसि करकमलमुकुलविधानादिका, नमस्कारादिज्ञानं च क्रिया च नमस्कारादिज्ञानक्रिये, ताभ्यां विमिश्रश्चासौ परिणामश्च / स किम्?, इत्याह- 'नोइत्यादि'। चैत्यवन्दनाद्यवस्थायां यो नमस्कारादिज्ञान-क्रियामिश्रितपरिणामः स नोआगमतो भावमङ्गलं भण्यत इत्यर्थः। कुतः?, इत्याह- यस्मात् 'से' तस्यैव भावतः परिणामस्याऽऽगमो नमस्कारादिज्ञानोपयोगलक्षणो देशे एकदेशेऽवयवे वर्तते, नोशब्दश्चेहैकदेशवचनः॥ इति गाथार्थः // 51 // तदेवमुपदर्शितं नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदतश्चतुर्विधं मङ्गलम्। एतेषु च नामादिमङ्गलेष्वाद्यत्रयस्याऽन्योन्यमभेदं पश्यन् परःप्रेरयति अभिहाणं दव्वत्तं तयत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाई। * को भाववजिआणं नामाईणं पइविसेसो? // 52 // [(गाथा-अर्थः) अथवा ज्ञान-क्रिया मिश्र परिणाम रूप जो नमस्कार आदि (क्रिया) हैं, उन्हें नोआगम से भावमङ्गल कहा जाता है, क्योंकि उक्त परिणाम में आगम का सद्भाव एकदेश (रूप) में (ही) है।] : व्याख्याः- अथवा, इस 'नोआगम से भावमङ्गल' के प्रकरण में नमस्कार यानी अर्हन्त आदि के प्रति प्रणति / वह है आदि में जिन स्तोत्र आदि के, उन नमस्कार आदि में ज्ञानोपयोग यानी नमस्कारादि का ज्ञान / क्रिया से तात्पर्य है- मस्तक पर हस्तरूपी कमल को मुकुलवत् (आधा बन्द) स्थापित करना आदि। नमस्कारादिज्ञान तथा (उक्त) क्रिया-दोनों से मिश्रित परिणाम | वह परिणाम क्या है? इसमें समाधान हेतु कहा- नोआगमतः इत्यादि। ... तात्पर्य यह है कि चैत्यवन्दन आदि की स्थिति में जो नमस्कारादिज्ञान व क्रिया से मिश्रित जो (आत्म-) परिणाम है, वह नोआगम से 'भावमङ्गल' कहा जाता है। ऐसा कैसे? इसके उत्तर में कहाचूंकि, उसी भावात्मक परिणाम के देश यानी एकदेश में, अवयव में, नमस्कारादि ज्ञानलक्षण रूप 'आगम' का सद्भाव है, यहां 'नो' शब्द एकदेशवाची है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 51 // . इस प्रकार, नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव रूप से चतुर्विध मङ्गल का निदर्शन हुआ। इन नाम आदि मङ्गलों में प्रथम तीन (मङ्गलों) में परस्पर अभिन्नता (समानता) को दृष्टि में रखकर कोई अन्य (जिज्ञासु शिष्य या शंकाकार) प्रश्न उपस्थित कर रहा है (52) अभिहाणं दव्वत्तं, तयत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाइ। को भाववज्जिआणं नामाईणं पइविसेसो? // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 852 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- अभिधानं द्रव्यत्वं तदर्थशून्यत्वं च तुल्यानि। को भाववर्जितानां नामादीनां प्रतिविशेष:?] भाववर्जितानां भावमेकं वर्जयित्वा शेषाणां नामादीनां नाम-स्थापना-द्रव्याणामित्यर्थः, कः प्रतिविशेषः? न कश्चिदित्यर्थः। कुतः?, इति चेत् / उच्यते- यत एतानि त्रिष्वपि तुल्यानि। कानि पुनस्तानि?, इत्याह- अभिधानं तावद् नाम त्रिष्वपि तुल्यम्, नामवति पदार्थे, स्थापनायां, द्रव्ये च मङ्गलाभिधानमात्रस्य सर्वत्र भावात्। तथा द्रव्यत्वमपि त्रिष्वपि तुल्यम्, यतो "जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा मंगलं ति नाम कीरइ" इत्यादिवचनाद् नामनि तावद् द्रव्यमेवाऽभिसंबध्यते, स्थापनायामपि “यत् स्थाप्यते" इति वचनाद् द्रव्यमेवाऽऽयोज्यते, द्रव्ये तु द्रव्यत्वं विद्यत एव, इति त्रिष्वपि द्रव्यत्वस्य तुल्यता। तथा तदर्थशून्यत्वं च भावार्थशून्यत्वं च त्रिष्वपि समानम्, नाम-स्थापना-द्रव्येषु भावमङ्गलस्याऽभावात्। तस्मादभिधान-द्रव्यत्व-भावार्थशून्यत्वानां समानत्वाद् नाम-स्थापना-द्रव्याणां परस्परमभेदः, भावे तु तदर्थशून्यत्वं नास्ति, इत्येतावताऽसौ नामादिभ्यो विशेष्यत इति भावः॥ इति गाथार्थः॥५२॥ परेणैवमविशेषे प्रेरिते यो विशेषः, तमभिधित्सुः सूरिराह [(गाथा-अर्थः) भावमङ्गल को छोड़कर (अवशिष्ट) नाम आदि तीन मङ्गलों में, अभिधान (नाम), द्रव्यत्व व तदर्थशून्यता -ये तीनों समान रूप से हैं, अतः इन (नामादि तीन मङ्गलों) में (परस्पर) कौन सी विशेषता- भिन्नता है?] व्याख्याः- 'भाव' रहित यानी एक 'भाव' को छोड़कर, शेष नामादि, यानी नाम मङ्गल, स्थापनामङ्गल व द्रव्यमङ्गल, इनमें कौन सी विशेषता-भिन्नता है? अर्थात् कोई भी भिन्नता नहीं है। कैसे? बता रहे हैं- चूंकि ये तीनों (मङ्गल) इन तीन बातों में समान हैं? कौन-सी.तीन बातें? बता रहे हैं- अभिधान यानी नाम तीनों में समान है, क्योंकि नामयुक्त पदार्थ में, स्थापना में तथा द्रव्य में 'मङ्गल' यह नाम सर्वत्र समान रूप से व्यवहृत है। इसी प्रकार, द्रव्यत्व भी तीनों में समान है, क्योंकि “जिस जीव या अजीव का' 'मङ्गल' यह नाम रखा जाता है" (द्रष्टव्य, पूर्व गाथा-२६) इस वचन से नाम (निक्षेप) में द्रव्य का ही सम्बन्ध होता है, स्थापना (निक्षेप) में भी 'जो स्थापित किया जाता है। इस वचन से द्रव्य का सम्बन्ध है. द्रव्य (निक्षेप) में तो द्रव्यत्व (स्वतः) है ही. अतः तीनों में द्रव्यत्व समानरूप से है। तथा 'तदर्थशून्यता' यानी भावमङ्गलरहितता तीनों में समान रूप से है, क्योंकि नाम-स्थापना-द्रव्य -इन तीनों में भावमङ्गल का अभाव है। इसलिए, अभिधान, द्रव्यत्व व भावशून्यता- इन तीनों के समानरूप से रहने के कारण, नाम, स्थापना व द्रव्य में परस्पर अभिन्नता है, भाव में तो तदर्थशून्यता नहीं है, इसलिए वह (प्रथम तीन) नाम आदि से भिन्न है- यह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 92 // इस प्रकार किसी अन्य (शिष्य आदि) द्वारा अविशेषता यानी समानता बताये जाने पर इनमें जो भिन्नता-विशेषता है, उसे आचार्य कह रहे हैं Ma 86 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरिया फलं च पाएण। जह दीसइ ठवणिंदे न तहा नामे न दव्विंदे॥५३॥ [संस्कृतच्छाया:- आकारोऽभिप्रायो बुद्धिः क्रिया फलं च प्रायेण / यथा दृश्यते स्थापनेन्द्रे न तथा नाम्नि न द्रव्येन्द्रे // ] यथा स्थापनेन्द्रे आकारो लोचनसहस्र-कुण्डल-किरीट-शचीसंनिधान-करकुलिशधारण-सिंहासनाऽध्यासनादिजनितातिशयो देहसौन्दर्यभावो दृश्यते, तथा स्थापनाकर्तुश्च यथा सद्भूतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, तथा द्रष्टश्च यथा तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिरुपजायते, यथा चैनमुपसेवमानानां तद्भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिका क्रिया संवीक्ष्यते, फलं च यथा प्रायेणोपलभ्यते पुत्रोत्पत्त्यादिकम्, न तथा नामेन्द्रे, नाऽपि द्रव्येन्द्रे / ततो नाम-द्रव्याभ्यां तावद् व्यक्त एव भेदः स्थापनाया इति भावः॥ इति गाथार्थः॥५३॥ तदेवं स्पष्टतया लक्ष्यमाणत्वादादावेव नाम-द्रव्याभ्यां स्थापनाया भेदमभिधाय नाम-स्थापनाभ्यां द्रव्यस्य भेदमभिधित्सुराह भावस्स कारणं जह दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ। उवओग-परिणइमओ न तहा नामं न वा ठवणा॥५४॥ (53) आगारोऽभिप्पाओ, बुद्धी किरिया फलं च पाएण। जह दीसइ ठवणिंदे, न तहा नामे न दविंदे // [(गाथा-अर्थः) आकार, अभिप्राय, बुद्धि व क्रिया- ये (चारों) जिस प्रकार स्थापना-इन्द्र में दिखाई देती हैं, उस तरह से नाम व द्रव्य (इन्द्र) में दिखाई नहीं देतीं (इसीलिए नाम व द्रव्य से स्थापना कुछ भिन्न सिद्ध होती है)।] व्याख्याः- जिस प्रकार, स्थापना-इन्द्र में तदाकारता यानी सहस्रलोचन, शची (इन्द्राणी) की समीप स्थिति, हाथ में वज्र-धारण, सिंहासन पर विराजना आदि से जनित अतिशय एवं दैहिक सौन्दर्य दिखाई देता है, उसी प्रकार स्थापना-कर्ता की दृष्टि से उस (स्थापित इन्द्र) में इन्द्रत्व का सद्भाव रूप अभिप्राय भी दृष्टिगोचर होता है, तथा जिस प्रकार दर्शक को भी तदाकारता के दर्शन से इन्द्रत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस (स्थापना-इन्द्र) की सेवा कर रहे भक्ति-परिणत बुद्धि बालों की नमस्कार आदि की क्रिया भी दिखाई देती है, साथ ही (उस सेवा से) पुत्रोत्पत्ति आदि फल का होना भी देखा जाता है, वैसी तदाकारता, अभिप्राय, बुद्धि आदि का दर्शन किसी नाम-इन्द्र या द्रव्य इन्द्र में नहीं होता। अतः नाम व द्रव्य की अपेक्षा स्थापना का भेद या वैशिष्ट्य (स्वतः सिद्ध) हैयह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥५३॥ इस प्रकार, नाम व द्रव्य से स्थापना के स्पष्ट लक्षित भेद का निरूपण कर नाम व स्थापना से द्रव्य की जो भिन्नता-विशेषता है, उसे कह रहे हैं (54) भावस्स कारणं जह, दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ। उवओग-परिणइमओ, न तहा नामं न वा ठवणा // --------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- भावस्य कारणं यथा द्रव्यं भावश्च तस्य पर्यायः। उपयोगपरिणतिमयो न तथा नाम न वा स्थापना // ] यथाऽनुपयुक्तवत्कृप्रभृतिकं साधुद्रव्येन्द्रादिकं वा द्रव्यं भावस्योपयोगरूपस्य भावेन्द्रपरिणतिरूपस्य वा यथासंख्येन कारणं निमित्तं भवति, यथा च 'उवओग-परिणइमओत्ति', उपयोगमयो भावेन्द्रपरिणतिमयश्च भावो यथासंख्येन तस्याऽनुपयुक्तवक्तप्रभृतिकस्य साधुद्रव्येन्द्रादिकस्य वा द्रव्यस्य पर्यायो.धर्मो भवति, न तथा नाम, नाऽपि स्थापनेति। इदमुक्तं भवति- यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तत्वकाले तस्योपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, सोऽपि वोपयोगलक्षणो भावस्तस्याऽनुपयुक्तवक्तरूपस्य द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सन् भावेन्द्ररूपाया: परिणते: कारणं भवति, सोऽपि वा भावेन्द्रपरिणतिरूपो भावस्तस्य साधुजीवद्रव्येन्द्रस्य पर्यायो भवति, न तथा नाम-स्थापने। अतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेदः, नाम्नस्तु स्थापना-द्रव्याभ्यां भेदः सामर्थ्यादेवाऽवसीयत इति / तदेवं यद्यपि परप्रेरितप्रकारेण नाम-स्थापना-द्रव्याणामभेदः, तथाप्युक्तरूपेण प्रकारान्तरेण भेदः सिद्ध एव, न हि दुग्ध-तक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिनाऽपि न भेदः, अनन्तधर्माध्यासितत्वाद् वस्तुन इति भावः॥ इति गाथार्थः // 54 // [(गाथा-अर्थः) जिस प्रकार द्रव्य भाव का कारण है और उपयोग व परिणतिमय जो 'भाव' है, वह उस (द्रव्य) का (आगम व नोआगम-इन दोनों प्रकार से) पर्याय (धर्म) है, उस प्रकार की समानता (यानी भाव का कारण होना, या द्रव्य का पर्याय होना) नाम व स्थापना (निक्षेप) में नहीं है] व्याख्याः- जिस प्रकार, उपयोगशून्य वक्ता आदि, (कालान्तर में) उपयोग रूप भाव का तथा द्रव्य इन्द्र रूप साधु द्रव्य भावइन्द्र-परिणति का कारण या निमित्त होता है, और जिस प्रकार उक्त उपयोगमय व भाव-इन्द्रपरिणतिरूप जो भाव है, वह क्रम से (कालान्तर में) उस उपयोगशून्य वक्ता आदि का तथा द्रव्य इन्द्र रूप साधु द्रव्य का पर्याय यानी धर्म होता है, वैसी स्थिति नाम व स्थापना में नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार उपयोग-रहित वक्ता रूपी द्रव्य (कालान्तर में) उपयोग रूप भाव का कारण बन (जाता या बन) सकता है और वह उपयोग रूप भाव भी उस उपयोगशून्य वक्ता रूप द्रव्य का पर्याय होता है, अथवा जिस प्रकार, (भविष्य में इन्द्र रूप से उत्पन्न होने की योग्यता वाले) साधु का जीव, जो द्रव्य-इन्द्र है, वह (कालान्तर में) भाव-इन्द्र रूप परिणति का कारण होता है और वह भाव-इन्द्र परिणतिरूप भाव भी द्रव्य-इन्द्र रूप साधु-जीव का पर्याय होता है। किन्तु उस प्रकार (का कारण-कार्य भाव) नाम व स्थापना में नहीं होता, (अर्थात् नाम व स्थापना- ये किसी जीव के कारण या कार्य नहीं होते), इसलिए नाम व स्थापना से द्रव्य का (तथा द्रव्य से स्थापना का) भेद या वैशिष्ट्य (स्वतः स्पष्ट) है। नाम (निक्षेप) का स्थापना व द्रव्य (निक्षेपों) से भेद तो सामर्थ्य से (स्वतः ही) सिद्ध है। (क्योंकि नाम में साकारता व कारणरूपता नहीं है)। इस प्रकार, यद्यपि शंकाकार द्वारा प्रस्तुत दृष्टि से नाम, स्थापना व द्रव्य में भले ही अभेद हो, तथापि उक्त प्रकारान्तर से भेद या वैशिष्ट्य सिद्ध ही हो जाता है। तात्पर्य यह है कि दुग्ध व तक्र (छाछ) आदि में श्वेतता (सफेदी) की दृष्टि से अभेद होने पर भी, माधुर्य आदि से भी भेद न हो -ऐसा नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं (उसी प्रकार, नाम, स्थापना व द्रव्य में परस्पर भेद भी है)| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ॥५४॥ VA 88 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं भेदव्याख्यापक्षे समर्थिते भूयोऽप्यपरेण प्रकारेणाऽऽह परः . इह भावो च्चिय वत्थु तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं?। नामादओ वि भावा जं ते विहु वत्थुपज्जाया॥५५॥ [संस्कृतच्छाया:- इह भाव एव वस्तु तदर्थशून्यैः किं वा शेषैः। नामादयोऽपि भावा यत् तेऽपि खलु वस्तुपर्यायाः॥] इह नामादिविचारे प्रक्रान्ते भाव एव वस्तु, विवक्षितार्थक्रियासाधकत्वात्, उभयसंमतवस्तुवत्, न हि भावेन्द्रवद् - विवक्षितार्थसाधनसमर्था गोपालदारकाद्या नामेन्द्रादयः, अत: किमत्र शेषैर्भावार्थशून्यैर्नामादिभि:? न किञ्चिदित्यर्थः। अत्रोत्तरमाह- 'नामादओ इत्यादि'। इदमुक्तं भवति- यदि सामान्येनैव भावो वस्तुत्वेनाऽभ्युपगभ्यते, तदा सिद्धसाध्यता, यतो नामादयोऽपि, आदिशब्दात् स्थापना-द्रव्यपरिग्रहः, भावाः भावविशेषा इत्यर्थः। कुतः?, इत्याह- यद् यस्मात् तेऽपि नामादयो इस प्रकार, भेदपरक व्याख्या पक्ष का समर्थन किये जाने पर भी कोई अन्य (जिज्ञासु या शंकाकार) पुनः अन्य प्रकार से (जिज्ञासा या शंका का) कथन कर रहा है (55) . इह भावोच्चिय वत्थु, तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं?| ... नामादओ वि भावा, जं ते वि हु वत्थुपज्जाया // [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) जब 'भाव' ही (तात्त्विक रूप से) वस्तु है, तब 'भाव' रूप अर्थ से शून्य (तत्त्वरहित) अन्य अवशिष्ट (नाम, स्थापना, द्रव्य-इन तीनों) के कथन का क्या प्रयोजन या लाभ है? (अर्थात् कोई प्रयोजन या लाभ नहीं, यानी उनका निरूपण निरर्थक है)। (उत्तर-) नाम आदि भी भाव (तात्त्विक) हैं, क्योंकि वे (नाम आदि) भी वस्तु के पर्याय (धर्म) हैं।] व्याख्याः- यहां शंकाकार का कथन है- यहां नाम आदि (निक्षेपों) का विचार चल रहा है, इन (चारों) में, 'भाव' ही वस्तु है, क्योंकि वही विवक्षित (अभीप्सित) अर्थक्रिया में साधन होता है (अर्थात् उसी से प्रयोजन की सिद्धि होती है), जैसे अन्य उभयसंमत (वादी व प्रतिवादी-दोनों द्वारा निर्विवाद रूप में स्वीकृत) वस्तु / (उदाहरणार्थ-) जिस प्रकार भाव-इन्द्र (दानव-नाश आदि) विवक्षित अर्थक्रिया की सिद्धि में समर्थ होता है, उस तरह गोपाल बालक नाम-इन्द्र (उक्त कार्य में) समर्थ नहीं होते। अतः भाव-अर्थशून्य नाम आदि के यहां निरूपण से क्या प्रयोजन है? अर्थात् कोई प्रयोजन (या सार्थकता) नहीं है। ... इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं- नामादयः इत्यादि / तात्पर्य यह है कि सामान्यतया 'भाव' को 'वस्तु' माना जाता हो तो सिद्धसाध्यता (अर्थात् जो हमें अभीष्ट है, वह सिद्ध हो ही गई, उसे सिद्ध करने के लिए तर्कादि की आवश्यकता नहीं) है, क्योंकि नाम आदि भी, आदि रूप से स्थापना व द्रव्य का ग्रहण करना चाहिए, (यानी नाम, स्थापना व द्रव्य- ये तीनों ही) भाव अर्थात् भावविशेष ही हैं। Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 89 र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुनः पर्याया धर्माः, तथाहि- अविशिष्टे इन्द्रवस्तुन्युच्चरिते नामादिकं भेदचतुष्टयमपि प्रतीयते- किमनेन नामेन्द्रो विवक्षितः, आहोस्वित् . स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः, भावेन्द्रो वा? इति। ततः सामान्यस्येन्द्रवस्तुनश्चत्वारोऽप्यमी पर्यायाः, इति नामादयोऽपि भावविशेषा एव, इति भावस्य वस्तुत्वसाधने न किञ्चिद् नः सूयते, पर्यायः, भेदः, भाव इत्यनर्थान्तरत्वात्। अथ विशिष्टार्थक्रियासाधकं भावेन्द्रादिकं भावमाश्रित्य वस्तुत्वं साध्यते, तथापि न काचित् क्षतिः, यतो भावेन्द्रादेर्भावस्य विशिष्टार्थक्रियानिवर्तकत्वे नामेन्द्रादिपर्यायाणामपि तद्रष्टव्यमेव, द्रव्यरूपतया पर्यायाणां परस्परमभेदात् / / इति गाथार्थः॥५५॥ अथवा भावमङ्गलादिकारणत्वाद् नामादीन्यपि भावमङ्गलादिरूपाण्येव, इति दर्शयन्नाह अहवा नाम-ठवणा-दव्वाइं भावमङ्गलंगाई। पाएण भावमङ्गलपरिणामनिमित्तभावाओ॥५६॥ [संस्कृतच्छाया:- अथवा नाम-स्थापना-द्रव्याणि भावमङ्गलाङ्गानि / प्रायेण भावमङ्गलपरिणामनिमित्तभावात् // ] कैसे? उत्तर है- चूंकि वे नाम आदि भी वस्तुतः वस्तु के पर्याय या धर्म ही तो हैं। जैसे- कोई सामान्य रूप से 'इन्द्र' इस शब्द को कहे तो (श्रोता को) नाम आदि चारों भेदों की प्रतीति संभावित है। वह सोचता है कि (वक्ता) नामइन्द्र, स्थापना-इन्द्र, द्रव्य-इन्द्र या भाव-इन्द्र -इनमें से किसको कहना चाहता है। इसलिए सामान्य इन्द्र वस्तु के ये चारों ही पर्याय हुए, और इस दृष्टि से नाम आदि भी भाव-विशेष ही सिद्ध होते हैं। इस प्रकार, 'भाव' को वस्तु मानने में हमारी कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि पर्याय, भेद, भाव -ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। अब यदि विशिष्ट अर्थक्रिया-साधक भावइन्द्र आदि-भाव को लेकर वस्तुत्व की सिद्धि की जाती है (यदि भावइन्द्र रूपी भाव को वस्तु माना जाता है) तो भी कोई क्षति या हानि नहीं है, कारण यह है कि जब भाव-इन्द्र आदि में विशिष्ट अर्थक्रिया-साधकता है तो वह नामइन्द्र आदि पर्यायों में भी है- ऐसा मानना होगा, क्योंकि द्रव्यदृष्टि से सभी पर्याय परस्पर अभिन्न होते हैं (अर्थात् द्रव्य में पर्याय अभिन्न रूप से रहते हैं)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 15 // (नाम आदि की भावमङ्गलरूपता) ___ अथवा भावमङ्गल के कारण होने से नाम आदि भी भावमङ्गल रूप ही हैं- यह (आगे की गाथा में) कह रहे हैं (56) अहवा नाम-ठवणा-दव्वाइं भावमङ्गलंगाइं। पाएण भावमङ्गलपरिणामनिमित्तभावाओ || [(गाथा-अर्थः) अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य भी भावमङ्गल ही हैं, क्योंकि वे प्रायः भावमङ्गल परिणाम में निमित्त होते हैं।] No- 90 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा नाम-स्थापना-द्रव्याणि भावमङ्गलस्यैवाऽङ्गानि कारणानि।कुतः?, इत्याह-'पाएण इत्यादि / भावमङ्गलपरिणामो भावमङ्गलोपयोगो भावमङ्गलसाध्वादिपरिणतिरूपो वा, तन्निमित्तभावात् तत्कारणत्वादित्यर्थः। यच्च यस्य कारणं तत् तद्व्यपदेशं लभत एव, यथा 'आयुर्घतम्''रूपको भोजनम्' इत्यादि। क्लिष्टकर्मणां केषाञ्चिद् नामादीनि भावमङ्गलकारणानि न भवन्त्यपि, इति प्रायो ग्रहणम्। मङ्गलविचारश्चेह प्रकान्तः, तेन भावमङ्गलकारणानि नामादीन्युक्तानि, यावता भावेन्द्रादेरपि तानि कारणत्वेन द्रष्टव्यान्येव। तस्माद् भावमङ्गलादिकारणत्वाद् नामादीन्यपि तद्रूपाण्येव, इति भावस्य वस्तुत्वसाधने नामादीनामपि तत्कारणत्वात् तद् न सूयते // इति गाथार्थः // 56 // अथ नामादीनां भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणान्याह-, जह मङ्गलाभिहाणं सिद्धं विजयं जिणिंदनाम च। सोऊण, पेच्छिऊण य जिणपडिमालक्खणाईणि॥५७॥ व्याख्याः -अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य -ये भावमङ्गल के ही अंग हैं। कैसे? इसे बता रहे हैंप्रायेण इत्यादि / तात्पर्य यह है कि भावमङ्गल परिणाम, या भावमङ्गल-उपयोग या भावमङ्गल साधु आदि परिणति- इनमें (वे नाम आदि) निमित्त होते हैं, कारण होते हैं। जो जिस (कार्य) का कारण होता है, वह (कारण) उस (कार्य) के रूप में भी (पुकारा जाता है या) व्यवहृत होता है, जैसे (घृत आयु का कारण है, और भोजन सुन्दर-असुन्दर, स्थूल-कृश रूप आदि का कारण है तो) घृत को आयु या भोजन को रूपक (रूपकारी) कहा जाता है, इत्यादि। (इसी प्रकार, नाम आदि कारण में भाव रूपी कार्य का उपचार कर, पूर्वोक्त नाम, स्थापना व द्रव्य को भी भावमङ्गल रूप कहा जाता है।) चूंकि क्लिष्ट कर्म वाले जीवों के नाम आदि भावमङ्गल के कारण नहीं भी होते, इसलिए कहा- प्रायः। मङ्गल-सम्बन्धी विचार यहां चल रहा है, इसलिए नाम आदि को भावमङ्गल का कारण बताया गया है, इसलिए भाव-इन्द्र आदि के भी वे (नाम इन्द्रादि) कारण हैं- ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार, भावमङ्गल आदि के कारण होने से नाम आदि भी तद्रूप (भावमङ्गलरूप) ही हैं, अतः भाव को वस्तु मानने पर 'भाव' के कारणभूत उन नाम आदि में भी, वह (भावमङ्गलता) अक्षुण्ण (निर्विवाद रूप से विद्यमान) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 16 // . अब नाम आदि की भावमङ्गल में कारणता (को स्पष्ट करने हेतु उस) के उदाहरण बता रहे हैं // 17 // जह मङ्गलाभिहाणं, सिद्धं विजयं जिणिंदनाम च। सोऊण पेच्छिऊण य, जिणपडिमालक्खणाईणि // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 91 52 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिव्वुयमुणिदेहं भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई। दठूण भावमङ्गलपरिणामो होइ पाएण॥५८॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा मङ्गलाभिधानं सिद्धं विजयं जिनेन्द्रनाम च। श्रुत्वा प्रेक्ष्य च जिनप्रतिमालक्षणादीनि॥ परिनिर्वृतमुनिदेहं भव्ययतिजनं सुवर्णमाल्यादि। दृष्ट्वा भावमङ्गलपरिणामो भवति प्रायेण॥] यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, तद्यथेत्यर्थः। मङ्गलमितिशब्दरूपमभिधानम्, तथा 'सिद्धं' सिद्धाभिधानम्, विजयाभिधानम्, जिनेन्द्रादिनाम च केनचिदुच्चरितं श्रुत्वा कस्यचित् प्रायेण सम्यग्दर्शनादिको भावमङ्गलपरिणामो भवति, इति नाम्नो भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम्। तथा प्रेक्ष्य चाऽवलोक्य जिनप्रतिमालक्षणादीनि जिनप्रतिमा-स्वस्तिकादीनीत्यर्थः, आदिशब्दादनगारपदादिपरिग्रहः, भावमङ्गलपरिणामो भवतीत्यत्राऽपि संबध्यते। एतत्तु स्थापनाया भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम्। अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे दृष्टान्तमाह- परिनिर्वृतो मुक्तिं गतो योऽसौ मुनिस्तद्देहम्, तथा भव्ययतिर्भविष्यद्यतिपर्यायो योऽसौ जनस्तम्, तथा सुवर्णमाल्यादि च दृष्ट्वा प्रायेण सम्यग्दर्शनादिभावमङ्गलपरिणामो भवतीति / अतस्तत्कारणत्वाद् नामादीन्यपि भावमङ्गलानि, इति स्थितम् // इति गाथाद्वयार्थः / / 57 // 58 // // 58 // परिनियमुणिदेहं, भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई। द₹ण भावमङ्गलपरिणामो होइ पाएण॥ [(गाथा-अर्थः) जैसे मङ्गलार्थक सिद्ध, विजय, या जिनेन्द्र-नाम सुनकर, तथा जिनेन्द्रप्रतिमा के लक्षणादि को, एवं निर्वाणप्राप्त मुनि के देह को, भव्य यतियों को या सुवर्ण-माला आदि को देखकर प्रायः भावमङ्गल रूप परिणाम होता (देखा जाता) है।] व्याख्याः - 'यथा' यह पद उदाहरण-प्रदर्शन का सूचक है। तात्पर्य है- उदाहरणार्थ / 'मङ्गल' यानी 'मङ्गल' यह शब्द रूप, उसका अभिधान यानी कथन / सिद्ध यानी 'सिद्ध' (आत्मा) का वाचक, विजय यानी विजय का वाचक (शब्द), जिनेन्द्र (अर्हन्त) आदि का नाम, ये किसी के द्वारा उच्चरित हों, उन्हें सुनकर प्रायः किसी-किसी को सम्यग्दर्शन आदि रूप भावमङ्गलात्मक (आत्मीय) परिणति होती है- यह नाम की भावमङ्गल में कारणता का उदाहरण है। इसी प्रकार, जिन-प्रतिमालक्षण आदि यानी जिन-प्रतिमा व स्वस्तिक आदि, 'आदि' पद से साधु के पद-चिन्ह आदि का ग्रहण होता है। इन्हें देखकर भावमङ्गलात्मक (आत्मीय) परिणति होती है। यह स्थापना की भावमङ्गल में कारणता का उदाहरण है। अब 'द्रव्य' की भावमङ्गल में कारणता का दृष्टान्त प्रदर्शित कर रहे हैं- परिनिर्वृत यानी मुक्ति को प्राप्त जो मुनि, उसके शरीर को, तथा भव्ययति यानी भविष्य में यति पर्याय प्राप्त करने वाले व्यक्ति को, तथा सुवर्ण की माला को देखकर प्रायः सम्यग्दर्शन आदि रूप भावमङ्गल-परिणति हो जाती है। इसलिए भावमङ्गलपरिणति के कारण होने से नाम आदि भी भावमङ्गल हैं- यह सिद्ध हो जाता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 57-58 // a 92 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------- Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु नामादीन्यपि यदि भावमङ्गलानि, तर्हि किं तान्यपि तीर्थकरादिवत् पूज्यानि?, इत्याशक्याह किं पुण तमणेगंतियमच्चन्तं चनजओऽभिहाणाई। तव्विवरीअं भावे तेण विसेसेण तं पुजं // 59 // [संस्कृतच्छाया:- किं पुनः तदनैकान्तिकमत्यन्तं च न यतोऽभिधानादि। तद्विपरीतं भावे तेन विशेषेण तत् पूज्यम्॥] नामादीन्यप्युक्तयुक्त्या भावमङ्गलानि। किं पुनः?, यो विशेषः स उच्यते- तदभिधानादित्रयमनैकान्तिकम्, समीहितफलसाधने निश्चयाभावात्, तथाऽऽत्यन्तिकं च यतो न भवति, आत्यन्तिकप्रकर्षप्राप्ततथाविधविशिष्टफलसाधकत्वाभावात्। भावे भावविषयं तु मङ्गलमुक्तविपरीतस्वरूपम्, तेन विशेषतो यथा तत् पूज्यम्, नैवमितराणि // इति गाथार्थः॥५९॥ नाम आदि भी यदि भावमङ्गल हैं, तब क्या वे भी तीर्थंकर आदि की तरह पूज्य हैं? इस आशंका को (ध्यान में रख कर, समाधान) प्रस्तुत कर रहे हैं // 59 // किं पुण तमणेगंतियमतच्चंतं च न जओऽभिहाणाइं। तव्विवरीअं भावे, तेण विसे सेण तं पुज्जं // [(गाथा-अर्थः) किन्तु (यहां विशेष ज्ञातव्य यह है कि) चूंकि इन नाम आदि तीन की (भावमङ्गलादि परिणति में) कारणता एकान्तिक (निश्चित) नहीं, और आत्यन्तिक भी नहीं (अर्थात् पूर्णतया फलप्राप्ति होती हो-ऐसा भी नहीं), और भाव में इससे विपरीत बात है (अर्थात् भावमङ्गल की परिणति में उसकी कारणता निश्चित है, और उससे पूर्णतया फलप्राप्ति भी होती है), इसलिए इस विशेषता के कारण वह नाम आदि तीन की तुलना में (ही) पूज्य (माना जाता) है (नामादि तीन पूज्य नहीं है)।] र व्याख्याः- नाम आदि भी उपर्युक्त रीति से भावमङ्गल हैं। किन्तु (इनकी अपेक्षा 'भाव' की) जो विशेषता है, वह बताई जा रही है- वे नाम आदि तीन अनैकान्तिक हैं, क्योंकि अभीप्सित फल की सिद्धि में उनकी साधनता अनिश्चित है, इसी प्रकार वे आत्यन्तिक भी नहीं है, क्योंकि अत्यन्त प्रकर्ष (उत्कृष्टता) वाले वैसे विशिष्ट फल के साधक नहीं हो पाते (जैसा फल 'भाव' से मिलता है)। भाव यानी भावविषयक मङ्गल तो उपर्युक्त (नामादि त्रय के) स्वरूप से विपरीत है, इस कारण से वह विशेष रूप से पूज्य है, अन्य नामादि तीन (पूज्य) नहीं हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // ------ विशेषावश्यक भाष्य -------- 93 2 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं भिन्नवस्तुषु विशेषतश्चिन्त्यमानानां नामादीनां प्रधानेतरभावो दर्शितः, सामान्यतः पुनर्विचिन्त्यमानानां सर्ववस्तुषु प्रत्येकं चतुर्णामप्यमीषां सद्भावः प्राप्यत एव, इति दर्शयन्नाह अहवा वत्थुभिहाणं नाम, ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दव्वं, कजावन्नं तयं भावो॥६०॥ [संस्कृतच्छाया:- अथवा वस्त्वभिधानं नाम, स्थापना च यस्तदाकारः। कारणता तस्य द्रव्यं, कार्यापन्नं तद् भावः॥] अथवा सर्वस्यापि घट-पटादिवस्तुनो यदात्मीयमभिधानं तद् नाम, यथोर्ध्वकुण्डलेष्वायतवृत्तग्रीवो घट:, आतानवितानीभूततन्तुसन्तान: पट इत्यादि। स्थापना पुनर्यस्तस्यैव सर्वस्य वस्तुनो निज आकारः। भाविकपालादिकार्यापेक्षया तु या 'से' तस्य सर्वस्यापि वस्तुनः कारणता हेतुता तद् द्रव्यम्, "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके, तद् द्रव्यम्" इति वचनात् / मृत्पिण्डादिवस्तुनस्तु कार्यापन्नं जन्यत्वापन्नं तदेव घटादिकं सर्वं वस्तु भावोऽभिधीयते, भवनं भाव इति कृत्वा / [नाम आदि के लक्षण] इस प्रकार, भिन्न-भिन्न (नाम आदि) वस्तुओं में विशेष रूप से विचार करते हुए, उनमें प्रधानता-मुख्यता व गौणता का निदर्शन करा दिया गया। अब सामान्यतः विचार करते हुए सब वस्तुओं में प्रत्येक में नाम आदि इन चारों का सद्भाव मिलता ही है- इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कह रहे हैं // 60 // अहवा वत्थुभिहाणं नामं, ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो || [(गाथा-अर्थः) अथवा वस्तु का वाचक शब्द 'नाम' है, उसका आकार 'स्थापना' है, (परिणामी कार्य की) कारणता 'द्रव्य' है और जो कार्यरूप परिणति है वह 'भाव' है।] व्याख्याः - अथवा घट-पट आदि समस्त वस्तुएं जो हैं, उनमें (नाम आदि चारों पर्याय हैं, जैसे) जो उनका वाचक शब्द है वह 'नाम' है, जैसे ऊपर कुण्डल जैसा (मुख), सरल विस्तार के गोल ग्रीवा वाले (पात्र) का नाम 'घड़ा', ताने-बाने से युक्त तन्तुओं के समूहरूप का नाम ‘कपड़ा' इत्यादि / उसी समस्त वस्तु का जो अपना आकार है, वह 'स्थापना' है। भावी कपाल आदि कार्य की अपेक्षा से (अर्थात् भावी पर्याय को दृष्टि में रखें तो) उस समस्त वस्तु में जो निहित कारणता, हेतुता है, वह 'द्रव्य' है, क्योंकि 'लोक में भूत या भावी (पर्याय) का जो कारण है, वह 'द्रव्य' है -ऐसा कथन प्राप्त होता है। भवन (होना, कार्य रूप में में होना) ही 'भाव' है- इस दृष्टि से मिट्टी के पिण्ड के पिण्डआदि वस्तु (रूप कारण) से जन्य या कार्य रूप में परिणत जो घट आदि है, वही 'भाव' है। Ma 94 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं सर्व वस्तु चतूरूपाऽविनाभूतं दृष्टम्, एवमेव सम्यग्दर्शनव्यवस्थानात्, सर्वनयसमूहात्मकत्वाजिनमतस्य / तदेवं सर्वस्यापि वस्तुनश्चतूरूपतायां किमुच्यते इह भावो च्चिय वत्थु तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं' [इह भाव एव वस्तु तदर्थशून्यैः किं वा शेषैः?] इत्यादि? न होकस्मिन्नेव वस्तुन्येककालं विद्यमानानां पर्यायाणां मध्ये 'अयं वस्तु' 'अपरस्त्ववस्तु' इति वक्तुं शक्यते, द्रव्यरूपतया सर्वेषामपि तेषामेकत्वादिति भावः॥ इति गाथार्थः॥६० // अस्मिंश्च नामादिरूपचतुष्टये नामनयः प्रधानं नामैव मन्यते। तत्र ये सुगतमतानुसारिणो "न ह्यर्थे शब्दाःसन्ति" इत्यादिवचनाद् नाम्नो वस्तुधर्मत्वमेव नेच्छन्ति, तान् प्रति नामनयः प्राह वत्थुसरूवं नामं तप्पच्चयहेउओ सधम्म व्व। वत्थुनाऽणभिहाणा होजाऽभावो विवाऽवच्चो॥६१॥ [संस्कृतच्छाया:- वस्तुस्वरूपं नाम तत्प्रत्ययहेतुतः स्वधर्म इव। वस्तु नाऽनभिधानात् भवेदभाव इवाऽवाच्यः॥] नामनयस्याऽयमभिप्राय:- वस्तुनः स्वरूपं नाम, तत्प्रत्ययहेतुत्वात्, स्वधर्मवत्। इह यद् यस्य प्रत्ययहेतुस्तत् तस्य धर्मः, यथा घटस्य स्वधर्मा रूपादयः / यच्च यस्य धर्मो न भवति न तत् तस्य प्रत्ययहेतुः, यथा घटस्य धर्माः पटस्य / संपद्यते च घटाभिधानाद् इस प्रकार, समस्त (या प्रत्येक) वस्तु अपने (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव-इन) चार रूपों से अविनाभूत देखी जाती है, और इसी प्रकार से ही सम्यग्दर्शन की स्थिति होने से जिन-मत समस्त नयों का समूह रूप सिद्ध होता है। इस तरह, जब समस्त वस्तु (उक्त) चार रूपों वाली है, तब यह (पूर्व गाथा-55 में) 'भाव ही वस्तु है, और तदर्थशून्य अन्य नाम आदि का निरूपण क्यों' आदि कथन (स्वतः) असंगत है। (वस्तुतः)। किसी एक वस्तु में एक काल में विद्यमान पर्यायों के मध्य ‘यह वस्तु है, दूसरी अवस्तु है' यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन सभी (पर्यायों) में द्रव्यरूप से एकत्व होता है (यदि एक में वस्तुत्व है तो सभी में वस्तुत्व मानना होगा) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 60 // (नाम आदि वस्तु सत् है, बौद्ध मत का खण्डन) .. नामनय आदि चारों में 'नाम' को ही प्रमुख मानता है। तब जो बौद्धमत के अनुयायी हैं वे 'अर्थ में, पदार्थ में, शब्द नहीं है' इत्यादि कथन कर नाम को वस्तु-धर्म ही नहीं मानते, उनको लक्ष्य कर 'नामनय' का यह कथन है (61 वत्थुसरूवं नामं, तप्पच्चयहेउओ सधम्म व्व / वत्थु नाऽणभिहाणा, होज्जाऽभावो विवाऽवच्चो॥ [(गाथा-अर्थः) वस्तु की प्रतीति में हेतु होने से, स्वधर्म की तरह (ही) नाम (भी) वस्तु-स्वरूप है। नाम के बिना वस्तु होती नहीं, यदि हो तो वह अवाच्य वस्तु की तरह अभावरूप-असत्रूप हो जाए। व्याख्याः- नाम-नय का यह अभिप्राय है- जिस प्रकार-वस्तु का धर्म, वस्तु-प्रतीति में कारण होने से, वस्तु-स्वरूप माना जाता है, उसी प्रकार नाम भी वस्तु प्रतीति में हेतु होने से वस्तु. ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 954 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटे संप्रत्ययः, तस्मात् तत् तस्य धर्मः। सिद्धश्च हेतुरावयोः [हेतुरनयोः], घटशब्दात् पटादिव्यवच्छेदेन घट (इति) प्रतिपत्त्यनुभूतेः। सर्वं च वस्तु नामरूपतां न व्यभिचरतीति दर्शयन्नाह- 'वत्थुमित्यादि'। यदि वस्तुनो नामरूपता न स्यात् तदा तद् वस्त्वेव न भवेदिति संबन्धः। कुतः?, इत्याह- अनभिधानादभिधानरहितत्वादित्यर्थः। अवाच्योऽभिधानरहितत्वेनाऽनभिधेयो योऽसावभावः षष्ठभूतादिलक्षणस्तद्वदिति दृष्टान्तः, इह यदभिधानरहितं तद् वस्त्वेव न भवति, यथाऽभिधानरहितत्वेनाऽवाच्यः षष्ठभूतलक्षणोऽभावः, अभिधानरहितं च वस्त्वभ्युपगम्यते परैः, ततोऽवस्तुत्वमेवाऽस्य भवेद्, अवस्तुत्वे च कुतस्तत्प्रत्ययहेतुत्वलक्षणस्य हेतोवृत्तिः, येनाऽनैकान्तिकता स्यात् / तत्र तवृत्तौ वा तस्याऽपि वस्तुत्वमेव भवेत्, स्वप्रत्ययजनकत्वात्, घटादिवदिति। विपक्ष एव वृत्तेरभावाद् विरुद्धताऽप्यसंभविनीति / तस्माद् वस्तुधर्म एव नामेति स्थितम्। स्वरूप ही है। जो जिसकी प्रतीति में हेतु होता है, वह उसका धर्म होता है, जैसे रूप आदि पट के स्वधर्म हैं। जो जिसका धर्म नहीं होता, वह उसकी प्रतीति में हेतु भी नहीं होता, जैसे घट के धर्म पट . की प्रतीति में हेतु नहीं होते, अतः वे पट के धर्म नहीं होते (पट के ही होते हैं)। 'घट' इस नाम से ही 'घट' की प्रतीति होती है, इसलिए ('घट' यह नाम) घट का धर्म है। (घट का वाचक घट का ही धर्म है, पट का धर्म नहीं है) इन दोनों कथनों का हेतुत्व प्रतीतिसिद्ध है, क्योंकि घट शब्द से (घटेतर) पट आदि का व्यवच्छेद (निषेध) करते हुए 'घट' की ही प्रतिपत्ति (ज्ञानोपलब्धि) होती है- यह अनुभव में आता है। सभी (या प्रत्येक) वस्तु नाम व रूप से व्यभिचरित (रहित) नहीं होती- इसे बताने हेतु कहा- 'वस्तु नानभिधानात्' इत्यादि / यदि वस्तु नामरूपात्मक न हो तो वह 'वस्तु' नहीं (होकर अवस्तु ही) हो जाएगी- इस कथन से, 'वस्तु नाम बिना नहीं होती' इस कथन का सम्बन्ध है। (यह कथन समीचीन) कैसे? (उत्तरः-) अनभिधान यानी नाम-रहित होने सेः- यह तात्पर्य है। अभिधानरहित होने से अवाच्य वस्तु, अभाव रूप (असत्प) होती है, जैसे पृथ्वी आदि पांच भूतों के वाचक शब्द हैं, छठे भूत का कोई वाचक शब्द नहीं है, इसलिए अवस्तुभूत छठे भूत का असद्भाव है। अतः जो अभिधान-रहित होता है, वह 'वस्तु' ही नहीं होता, जैसे कि- अभिधानरहित अवाच्य छठे भूत का अभाव माना जाता है। अन्य (बौद्ध आदि) दार्शनिक वस्तु को अभिधानरहित (नामरहित) मानते हैं, तो- (उनके द्वारा स्वीकृत) उस वस्तु की अवस्तुता ही सिद्ध होगी। नामरहित पदार्थ की अवस्तुता सिद्ध होने पर, वहां 'वस्तु-प्रतीतिहेतुता' रूप हेतु का सद्भाव किसी तरह नहीं रह सकता, इसलिए 'अनैकान्तिक' दोष नहीं है। [तात्पर्य यह है कि जैनों की ओर से नाम को वस्तु-धर्म सिद्ध करने के लिए अनुमान-वाक्य प्रस्तुत किया गया था- नाम, वस्तुस्वरूप (वस्तुधर्म) है, वस्तु की प्रतीति में हेतु होने से। यहां 'नाम' पक्ष है, वस्तुस्वरूपता या वस्तुधर्मता साध्य है। वस्तु की प्रतीति में हेतु होना- यह हेतु है। जब विपक्ष में भी हेतु रहे तो वहां अनैकान्तिक दोष होता है, और तब अनुमान-वाक्य के भी दूषित होने से वह अपने मत की सिद्धि नहीं कर पाता। यहां विपक्ष- ‘अवस्तु' है, क्योंकि अवस्तु में वस्तुधर्मता रूप साध्य नहीं रह सकता है। यहां बौद्ध आदि जैनेतर की ओर से उपर्युक्त अनुमान-वाक्य में हेतु को NA 96 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न च 'नद्यास्तीरे गुडभृतशकटम्' इत्यादिशब्दात् प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तेरवस्तुधर्मता तस्येत्याशङ्कनीयम्, प्रत्यक्षादिप्रमाणानामपि तत्प्रसङ्गात्- तेभ्योऽपि हि प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तेः। अबाधितेभ्यस्तेभ्यः प्रवृत्तौ भवत्येवाऽर्थप्राप्तिरिति चेत्। तदेतदिहाऽपि समानम्, सुविवेचितादाप्तप्रणीतशब्दाद् वस्तुप्राप्तेरत्राऽप्यवश्यंभावित्वात्, इत्यादि बह्वत्र वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्, अन्यत्रोक्तत्वाच्च // इति गाथार्थः॥११॥ अनैकान्तिक दोषयुक्त होने का आरोप लगाया जा सकता है, क्योंकि वे नामरहित को वस्तु मानते हैं। जैनों का कथन है कि उक्त दोष कथमपि नहीं है। क्योंकि नामरहित पदार्थ तो 'अवस्तु' सिद्ध हो गया, वह स्वतः असद्भूत है तो उसमें 'वस्तु-प्रतीतिहेतुता' हेतु भी कैसे रहेगा? अतः उक्त अनुमान-वाक्य अनैकान्तिक-दोष से रहित है।] यदि अवस्तु में भी वस्तु-प्रतीति हेतुता का होना मानें तो वह अवस्तु भी उसी तरह 'वस्तु' ही सिद्ध होगी, जिस तरह स्वप्रतीतिजनक होने से घट आदि। इसी तरह 'विरुद्ध' दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि विपक्ष में ही वृत्ति (सद्भाव) (-इस विरुद्ध दोष) का अभाव है। [तात्पर्य यह है कि जो हेतु विपक्ष में ही रहे, सपक्ष आदि में न रहे, वहां विरुद्ध दोष होता है। जब विपक्ष ही असद्भूत-अवस्तु है, तो वहां किसी हेतु का सद्भाव भी कैसे सिद्ध किया जाएगा?] (यहां पुनः कोई शंका कर रहा है कि) 'नदी के तीर पर गुड़ से भरा शकट (छकड़ा-गाड़ी) है' इत्यादि शब्द (के श्रवण) से प्रवृत्त किसी व्यक्ति को कभी (गुड़ से भरे शकट) वस्तु की प्राप्ति नहीं भी होती देखी जाती है, ऐसी स्थिति में उस वाक्य में या नाम-समूह में 'वस्तुधर्मता' का अभाव ही हुआ, अतः हेतु व साध्य की व्याप्ति में दोष उपस्थित हो जाता है। (उत्तर-) उक्त आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस तरह की विसंगति तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों में भी देखी जाती है. क्योंकि (भ्रान्तिवश) कभी-कभी चांदी समझकर लोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु वहां चांदी नहीं, शुक्ति उपलब्ध होती है। (पुनः शंकाकार-) उक्त स्थिति तो- पूर्व ज्ञान के बाधित होने से घटित होती है, किन्तु अबाधित प्रमाणों में उक्त विसंगति नहीं होती। (शंकाकार-) तो अबाधित प्रमाण की स्थिति में तो यथाप्रतीत वस्तु की उपलब्धि होती ही है। (उत्तर-) तो उक्त समाधान की तरह ही यहां भी वही समाधान कर लेना चाहिए। [अर्थात् किसी के द्वारा हंसी-मजाक में, या रागद्वेषादिवश यह कह दिया गया कि जाओ, देखो, नदी-तीर पर गुड़ से भरी गाड़ी है, किन्तु यह सुनकर जब कुछ लोग लोभ-वश जाते हैं तो गुड़ से भरी गाड़ी नहीं मिलती, यह पूर्वज्ञान के बाधित होने की प्रतीति का उदाहरण है। यहां भले ही वस्तुधर्मता का अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है, तथापि जहां बाधित ज्ञान/प्रतीति नहीं है, वहां तो संकेतित वस्तु की प्राप्ति होती ही है।] सुविवेकयुक्त आप्त (रागद्वेषरहित, मध्यस्थ) व्यक्ति द्वारा प्रणीत (उच्चारित) शब्द से तो संकेतित वस्तु की प्राप्ति अवश्यंभाविनी है, इत्यादि बहुत कुछ कहना (बाकी) है, किन्तु ग्रन्थगहनता (ग्रन्थविस्तार की अधिकता) हो जाएगी, और अन्यत्र इस सम्बन्ध में कहा भी गया है, इसीलिए (और अधिक) नहीं कह रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 61 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 97 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च संसयविवजया वाऽणज्झवसाओऽहवा जदिच्छाए। होजत्थे पडिवत्ती न वत्थुधम्मो जया नामं // 12 // [संस्कृतच्छाया:- संशयंविपर्ययौ वाऽनध्यवसायोऽथवा यदृच्छया। भवेदर्थे प्रतिपत्तिर्न वस्तुधर्मो यदा नाम॥] यदा वस्तुधर्मो नाम नेष्यते तदा वक्त्रा घटशब्दे समुच्चारिते श्रोतुः किमयमाह?' इत्येवं संशय एव स्यात्, न घटप्रतिपत्तिः। अथवा घटशब्दे प्रोक्ते पटप्रतिपत्तिलक्षणो विपर्यय: स्यात् / अथवा 'न जाने किमप्यनेनोक्तम्' इति चित्तव्यामोहेन वस्त्वप्रतिपत्तिरूपोऽनध्यवसायः स्यात्। यदि वा यदृच्छयाऽर्थे प्रतिपत्तिर्भवेत्- कदाचिद् घटस्य, कदाचित् पटस्य, कदाचित्तु स्तम्भस्येत्यादि, न चैवं भवति। तस्माद् वस्तुधर्म एव नाम // इति गाथार्थः॥१२॥ अपि च वत्थुस्स लक्ख-लक्खण-संववहाराऽविरोहसिद्धीओ। अभिहाणाऽहीणाओ बुद्धी सद्दो य किरिया य॥६३॥ और, // 62 // संसयविवज्जया वाऽणज्झवसाओऽहवा जदिच्छाए। होज्जत्थे पडिवत्ती न वत्थुधम्मो जया नामं // [(गाथा-अर्थः) यदि 'नाम' वस्तु का धर्म न हो तो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय या यदृच्छाअर्थप्रतिपत्ति होने लगे (किन्तु ऐसा नहीं होता है)।] व्याख्याः- जब 'नाम' को वस्तु-धर्म न माना जाय तो घट आदि (संज्ञावाचक) शब्दों के बोलने पर श्रोता को 'इसने क्या कहा?' इस प्रकार 'संशय' ही होगा, (कदापि) घट का बोध नहीं होगा / अथवा घट शब्द के बोलने पर, पट का बोध रूप 'विपर्ययज्ञान' होगा / अथवा 'न जाने, इसने क्या कहा है' इस प्रकार (श्रोता को) चित्त-व्यामोह होगा और (फलस्वरूप) वस्तु के बोध न होने से 'अनध्यवसाय' होगा / अथवा यदृच्छा-अर्थ का बोध होगा, अर्थात् कभी घड़े का, कभी कपड़े का, कभी स्तम्भ (खम्भे) आदि का बोध होगा। किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसलिए 'नाम' वस्तु-धर्म ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 62 // और भी // 63 // वत्थुस्स लक्ख-लक्खण-संववहाराऽविरोहसिद्धीओ। अभिहाणाऽहीणाओ, बुद्धी सद्दो य किरिया य॥ Na 98 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- वस्तुनो लक्ष्य-लक्षण-संव्यवहाराऽविरोधसिद्धयः। अभिधानाधीनाः बुद्धिः शब्दश्च क्रिया च॥] ... वस्तुनो जीवादेः। किम्?, इत्याह- अभिधानाऽधीना नामाऽऽयत्ताः। का:?, इत्याह- लक्ष्यं च लक्षणं च संव्यवहारश्च लक्ष्य-लक्षण-संव्यवहारास्तेषामविरोधेनाऽविपर्ययेण सिद्धयः प्रतिष्ठाः / तत्र लक्ष्यं जीवत्वादि, लक्षणमुपयोगः, संव्यवहारोऽध्येषणप्रेषणादिः। तथा बुद्धि-शब्द-क्रियाश्च 'अभिधानाऽधीनाः' इत्यत्राऽपि संबध्यते। तत्र बुद्धिर्वस्तुनिश्चयरूपा, शब्दो घटादिध्वनिरूपः, क्रिया चोत्क्षेपणाऽवक्षेपणादिका / तस्मादभिधानमेव वस्तु सत्, तदाऽऽयत्ताऽऽत्मलाभत्वात् सर्वव्यवहाराणाम् // इति गाथार्थः॥६३॥ तदेवं शब्दनयेन निजमते स्थापिते स्थापनानयः प्राह आगारो च्चिय मइ-सद्द-वत्थु-किरिया-फलाऽभिहाणाई। ___ आगारमयं सव्वं जमणागारं तयं नत्थि॥६४॥ [संस्कृतच्छाया:- आकार एव मति-शब्दवस्तु-क्रिया-फला-ऽभिधानादि। आकारमयं सर्वं यदनाकारं तद् नास्ति // ] [(गाथा-अर्थः) (जगत् में) वस्तु लक्ष्य, लक्षण, संव्यवहार-इनकी निर्विरोध सिद्धि, एवं बुद्धि, शब्द व क्रिया- ये (सभी) 'नाम' के अधीन हैं।] व्याख्याः- वस्तु यानी जीव आदि पदार्थ, उसके (लक्ष्य, लक्षण आदि)। अभिधान यानी नाम के अधीन हैं। कौन-कौन अधीन हैं? (उत्तर-) लक्ष्य, लक्षण एवं संव्यवहार, इनकी निर्विरोध रूप से सिद्धि यानी प्रतिष्ठा / इनमें लक्ष्य जैसे जीवत्व आदि, लक्षण जैसे (जीव का) उपयोग, संव्यवहार यानी अध्येषण-प्रेषण आदि। तथा बुद्धि, शब्द व क्रिया -ये भी 'नाम' के अधीन हैं (उस पर आश्रितआधारित हैं)। इनमें बुद्धि यानी निश्चय, शब्द यानी घटादि ध्वनि रूप, क्रिया यानी उत्क्षेपण-अवक्षेपण आदि / इसलिए अभिधान यानी नाम ही वस्तु है, सत् है, क्योंकि समस्त व्यवहार उसी के अधीन अनुष्ठित/क्रियान्वित हो पाते हैं (ऐसा नाम-नय का अभिमत है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 63 // * (स्थापना नय) इस प्रकार शब्दनय द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट करने पर, स्थापना-नय का इस प्रकार कथन है // 64 // आगारो च्चिय मइ-सद्द-वत्थु-किरिया-फलाऽभिहाणाई। आगारमयं सव्वं, जमणागारं तयं नत्थि // .. [(गाथा-अर्थः) मति, शब्द, वस्तु, क्रिया, फल व अभिधान (नाम)- ये (सभी) आकार रूप (ही) हैं। समस्त वस्तु आकारमय है, जो अनाकार है, वह (वस्तुरूप ही) नहीं है।] -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 99 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकार एव आकारमात्ररूपाण्येव / कानि?, इत्याह-मतीत्यादि, मतिश्च शब्दश्चेत्यादिद्वन्द्वः। तत्र मतिस्तावज्ज्ञेयाऽऽकारग्रहणपरिणतत्वादाकारवती, तदनाकारवत्त्वे तु 'नीलस्येदं संवेदनं न पीतादेः' इति नैयत्यं न स्यात्, नियामकाभावात्, नीलाद्याकारो हि नियामकः, यदा च स नेष्यते तदा 'नीलग्राहिणीयं मतिर्न पीतादिग्राहिणी' इति कथं व्यवस्थाप्यते?, विशेषाभावात्, तस्मादाकारवत्येव मतिरभ्युपगन्तव्या। शब्दोऽपि पौद्गलिकत्वादाकारवानेव। घटादिकं वस्त्वाकारवत्त्वेन प्रत्यक्षसिद्धमेव। क्रियाऽप्युत्क्षेपणाऽवक्षेपणादिका क्रियावतोऽनन्यत्वादाकारवत्येव। फलमपि कुम्भकारादिक्रियासाध्यं घटादिकं मृत्पिण्डादिवस्तुपर्यायरूपत्वादाकारवदेव। अभिधानमपि शब्दः, स च पौद्गलिकत्वादाकारवानित्युक्तमेव। तस्माद् यदस्ति तत् . सर्वमाकारमयमेव, यत्त्वनाकारं तद् नास्त्येव, वन्ध्यापुत्रादिरूपत्वात् तस्य // इति गाथार्थः // 64 // अथ प्रयोगद्वारेणाऽनाकारं वस्तु निराचिकीर्षुराह- . न पराणुमयं वत्थु आगाराऽभावाओ खपुष्कं व। उवलंभ-व्ववहाराऽभावाओ नाणागारं च॥६५॥ व्याख्याः- आकाररूप हैं यानी आकार मात्र रूप वाली हैं। वे कौन हैं? (उत्तर-) मति इत्यादि / मति, शब्द इत्यादि में द्वन्द्व समास है। इनमें मति यानी ज्ञेय पदार्थ का आकार ग्रहण कर (तदाकार) परिणत होने वाली (सविकल्पक बुद्धि), यदि उसे निराकार माना जाय तो यह संवेदन नील का है, पीत का नहीं- इस प्रकार निश्चयात्मकता नहीं हो पाएगी, क्योंकि कोई (अन्य) नियामक नहीं है, यदि नियामक है तो वह नीलादि आकार ही है। जब उस (आकारवत्ता) को न माना जाय तो 'यह बुद्धि नीलग्राहिणी है, पीतादिग्राहिणी नहीं है' इसकी व्यवस्था किस प्रकार सम्भव हो पाएगी? क्योंकि (आकार के अभाव में) कोई 'विशेष' तो (कुछ वहां) होगा नहीं, इसलिए मति (बुद्धि) को साकार ही मानना पड़ेगा। शब्द भी पौद्गलिक होने से आकारवान् है ही। घट आदि वस्तु आकारवान् है- यह प्रत्यक्षसिद्ध ही है। उत्प्रेक्षण (ऊपर फेंकना) व अवक्षेपण (बिखेर देना) आदि- क्रिया भी क्रियावान् से अभिन्न होने से आकारवान् ही हैं। कुम्भकार आदि की क्रिया से होने वाला घट आदि रूप फल भी, मृत्पिण्ड आदि (कारणभूत) वस्तु का पर्याय होने से आकारवान् ही है- यह पहले कह चुके हैं। इस प्रकार, जो (कुछ भी) है, वह सब आकारवान् ही है और जो अनाकार (आकारशून्य) है, वह वन्ध्यापुत्र आदि की तरह असद् रूप है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 64 // / अब प्रयोग (अनुमान) के माध्यम से अनाकार वस्तु (के सद्भाव) का निराकरण करने हेतु कह रहे हैं // 65 // न पराणुमयं वत्थु, आगाराऽभावाओ खपुष्पं व। उवलंभ-व्यवहाराऽभावाओ नाणागारं च // A 100 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- न परानुमतं वस्तु आकाराऽभावात् खपुष्पमिव। उपलम्भ-व्यवहाराऽभावाद् नाऽनाकारं च॥] .. परस्याऽऽकारवद्वस्तुनिषेधकस्याऽनुमतमभिप्रेतं सामर्थ्याद् यदनाकारं वस्तु तद् नास्ति, आकाराभावात्, खपुष्पवत्। अपरमपि हेतुद्वयमाह-'उवलंभेत्यादि / 'नाणागारमिति' -नास्त्यनाकारं वस्तु, सर्वथैवाऽनुपलभ्यमानत्वात्, तेनाऽणीयसोऽपि व्यवहारस्याऽभावाच्च, इति पर्यन्तवर्ती चकारोऽत्र योजनीयः, खपुष्पवदिति दृष्टान्तो हेतुद्वयेऽपि स एव // इति गाथार्थः // 65 // तदेवं स्थापनानयेनोक्ते द्रव्यनयः प्राह दव्वपरिणाममित्तं मोत्तूणाऽऽगारदरिसणं किं तं?। उप्पायव्वयरहिअं दव्वं चिय निव्वियारं तं॥६६॥ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यपरिणाममात्रं मुक्त्वाऽऽकारदर्शनं किं तत्? उत्पादव्ययरहितं द्रव्यमेव निर्विकारं तत्॥] [(गाथा-अर्थः) अन्य (दार्शनिक) द्वारा स्वीकृत पदार्थ, आकारहीनता के कारण, आकाशपुष्प की तरह 'अवस्तु' है। अनाकार वस्तु कोई है ही नहीं, (आकाशपुष्प की तरह) उसकी, (कहीं) उपलब्धि नहीं होती है और न ही उससे (कोई लौकिक) व्यवहार हो सकता है।] व्याख्याः- आकारवान् वस्तु को नहीं मानने वाले अन्य (दार्शनिक) द्वारा स्वीकृत-अभीष्ट पदार्थ / वह युक्ति सामर्थ्य से असद्प ठहरता है, क्योंकि जो निराकार है, वह आकारहीनता के कारण आकाश-पुष्प की तरह ही अवस्तु (असद्) रूप है। इस प्रसंग में अन्य दो हेतु भी दिये जा रहे हैं- उपलंभव्यवहार-अभाव के कारण। ... (कोई भी) वस्तु अनाकार नहीं होती, क्योंकि वैसी अनाकार वस्तु (कहीं) उपलब्ध नहीं होती, और उससे अणुमात्र भी व्यवहार नहीं हो सकता। गाथा में 'च' पद (अंतिम वाक्य में भी) रखना चाहिए, (अर्थात् 'अनाकार वस्तु की अनुपलब्धि' और 'अनाकार वस्तु से व्यवहार का सम्भव न होना' इन दोनों हेतुओं को 'च' जोड़ता है।) इसी तरह 'आकाश-पुष्प की तरह'- यह दृष्टान्त भी उपर्युक्त दोनों हेतुओं में नियोजित करना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 65 // - (द्रव्यनिक्षेप नय) इस प्रकार स्थापना-नय द्वारा (अपना पक्ष) कहने पर द्रव्यनय (अपने पक्ष को) कह रहा है // 66 // दव्वपरिणाममित्तं मोत्तूणाSSगारदरिसणं किं तं / उप्पायव्वयरहिअं, दव्वं चिय निव्वियारं तं // [(गाथा-अर्थः) जो आकार-दर्शन है, वह द्रव्य के परिणाम मात्र को छोड़कर (अर्थात् उससे अतिरिक्त) क्या है? वह उत्पादव्ययरहित निर्विकार द्रव्य रूप (वस्तु) ही तो है।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 101 2 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को हि नाम स्थापनानयस्याऽऽकारग्रहः?, यस्माद् द्रवतीति द्रव्यमनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाधारं मृदादि पूर्वपर्यायमात्रतिरोभावेऽग्रेतनपर्यायमात्राऽऽविर्भावः परिणामो द्रव्यस्य परिणामो द्रव्यपरिणामः स एव तन्मात्रं तद् मुक्त्वा किमन्यदाऽऽकारदर्शनम्, येनोच्यते 'आगारो च्चिय मइ-सद्द-वत्थु-' इत्यादि?। ननु द्रव्यमेव तत्। किंविशिष्टम्?, उत्पाद-व्ययरहितं, निर्विकारं- उत्फण-विफण-कुण्डलिताकारसमन्वितसर्पद्रव्यवद् विकाररहितम्, किं हि नाम तत्राऽपूर्वमुत्पन्नम्, विद्यमानं वा विनष्टम्, येन विकारः स्यात्?, इति भावः॥ इति गाथार्थः॥६६॥ ननु कथमुत्पादादिरहितमुच्यते, यावता सादिके द्रव्ये उत्फण-विफणादयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्तमानाश्च प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते?, इत्याह आविब्भाव-तिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं। निच्चं बहुरूवं पि य नडो व्व वेसंतरावन्नो॥६७॥ [संस्कृतच्छाया:- आविर्भाव-तिरोभावमात्रपरिणामकारणमचिन्त्यम्। नित्यं बहुरूपमपि च नट इव वेषान्तरापन्नः॥]... व्याख्याः- स्थापना-नय का आकारग्रहण क्या है? द्रव्य यानी जो द्रवण अर्थात् अनादि काल से, देखी (होती) जा रही पर्यायों की श्रृंखला के मध्य परिणमन करता रहे, जैसे मिट्टी आदि द्रव्य में पूर्व पर्याय का तिरोभाव (नाश) तथा अग्रिम (भावी) पर्याय मात्र का आविर्भाव (अभिव्यक्ति) रूप परिणमन जो द्रव्य-परिणाम है, उसके सिवा 'आकार-दर्शन' क्या है जो आप ‘मति, शब्द आदि आकार ही है' इत्यादि कथन कर रहे हैं। वस्तुतः वह द्रव्यरूप ही है, उससे विशिष्ट-भिन्न कुछ नहीं। उत्पाद-व्यय रहित द्रव्य तो निर्विकार रहता है, तात्पर्य यह है कि फण को ऊंचा उठाए रहे, या (उससे भिन्न स्थिति में) फण नहीं उठाए, या कुंडली मारकर बैठे, इन सभी स्थितियों में विभिन्न आकारों वाला होते हुए भी सर्प द्रव्य जैसे विकाररहित (अखण्डित, अक्षुण्ण-ध्रुव) है, क्योंकि वहां (उस द्रव्य से भिन्न) कोई अपूर्व वस्तु न तो उत्पन्न हुई और न नष्ट ही हुई जो उसमें विकार माना जाय / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 66 // पुनः कोई शंका कर रहा है कि द्रव्य को उत्पाद आदि से रहित आप कैसे कह रहे हैं? क्योंकि सर्प आदि द्रव्य में कभी फण को उठाए रहना, कभी फण नहीं उठाना आदि रूप पर्यायों को उत्पन्न व निवर्तमान (नष्ट) होते हुए प्रत्यक्ष में देखा जाता है? इस आशंका को ध्यान में रख कर भाष्यकार कह रहे हैं // 67 // आविब्भाव-तिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं / निच्चं बहुरूवं पि य, नडो व्व वेसंतरावन्नो // __ [(गाथा-अर्थः) (नवीन पर्याय का) आविर्भाव और (पूर्व पर्याय का) तिरोभाव-यही तो परिणाम है, जिसका कारण अचिन्त्य (स्वभावी) द्रव्य (ही) होता है। वह बहुरूपता को प्राप्त करता हुआ भी उसी प्रकार 'नित्य' है जिस प्रकार कोई नट विभिन्न वेशों को धारण करता हुआ सदैव मूलतः (निर्विकार) रहता है।] IAL 102 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----- Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आविर्भावश्च तिरोभावश्च तावेव तन्मात्रं तदेव परिणामस्तस्य कारणं द्रव्यम्, यथा सर्प उत्फण-विफणावस्थयोरिति, न ह्यत्राऽपूर्वे किञ्चिदुत्पद्यते, किं तर्हि?, छन्नरूपतया विद्यमानमेवाऽऽविर्भवति। नाऽप्याविर्भूतं सद् विनश्यति, किन्तु च्छन्नरूपतया तिरोभावमेवाऽऽ सादयति। एवं च सत्याविर्भाव-तिरोभावमात्र एव कार्योपचारात् कारणत्वमस्यौपचारिकमेव। तस्मादुत्पादादिरहितं द्रव्यमुच्यत इति। आह- ननु यद्येकस्वभावं निर्विकारं द्रव्यम्, त_नन्तकालभाविनामनन्तानामप्याविर्भाव-तिरोभावानामेकहेलयैव कारणं किमिति न भवति?, इत्याह- अचिन्त्यमचिन्त्यस्वभावं द्रव्यम्, तेनैकस्वभावस्याऽपि तस्य क्रमेणैवाऽऽविर्भाव-तिरोभावप्रवृत्तिः, सर्पादिद्रव्येष्वेकस्वभावेष्वप्युत्फण-विफणादिपर्यायक्रमप्रवृत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति। ननु यद्येवम्, उत्फण-विफणादिबहुरूपत्वात् पूर्वाऽवस्थापरित्यागेन चोत्तरावस्थाऽधिष्ठानाद् अनित्यता द्रव्यस्य किमिति न भवति? इति चेत्, इत्याह- वेषान्तरापन्ननटवद् बहुरूपमपि द्रव्यं नित्यमेव। व्याख्याः- आविर्भाव और तिरोभाव- इन दोनों को ही परिणाम कहा जाता है, उसका कारण 'द्रव्य' है। जैसे ऊंचे फण या बिना फण -इन दोनों स्थितियों में 'सर्प' (कारण है), इन (दोनों स्थितियों) में कोई अपूर्व (वस्तु) उत्पन्न नहीं होती। तो क्या होता है? (उत्तर-) जो अव्यक्त- (प्रच्छन्न) रूप से, स्थित था, उसी का आविर्भाव होता है (और कुछ नहीं)। (इसी तरह) जो आविर्भूत हुआ, वह (भी) नष्ट नहीं होता, (मात्र) तिरोभूत हो जाता है। इस प्रकार, आविर्भाव व तिरोभाव मात्र (जो हो रहा है, उस) में 'कार्य' का उपचार करते हैं और (उस कार्य का) द्रव्य को कारण मानना भी औपचारिक ही है। अतः द्रव्य को उत्पाद आदि से रहित कहा जाता है। - यहां शंकाकार पुनः शंका कर रहा है- यदि द्रव्य एकस्वभाव वाला व निर्विकार है, तो वह अनन्त काल तक होते रहने वाले अनन्त आविर्भाव-तिरोभावों (रूप परिणामों) का एक काल में ही कारण क्यों नहीं हो जाता? इस शंका का समाधान कर रहे हैं- वह द्रव्य 'अचित्य' है- अर्थात् अचिन्त्य स्वभाव वाला है, इसलिए एक स्वभावी होते हुए भी उस द्रव्य में क्रम से ही आविर्भाव व तिरोभावों की प्रवर्तना (परम्परा-प्रवाह) होती है, यह उसी प्रकार है जैसे एक स्वभाव वाले सर्प आदि द्रव्यों में भी ऊंचा फण करना, फण को फैलाना आदि पर्यायों की क्रमिक प्रवर्तना होती प्रत्यक्ष देखी जाती है। अब पुनः शंका की जा रही है- अच्छा, यदि ऐसी बात है तो फण फैलाना, फण सिकुड़ना आदि बहुविध रूपों में पूर्व स्थिति का त्याग होकर उत्तर अवस्था प्रतिष्ठित होती (सत्ता में आती) है, तब तो इस से द्रव्य की अनित्यता (मानी जानी चाहिए, वह) क्यों नहीं मानी जाती? इस शंका का समाधान किया जा रहा है- (उत्तर-) वेशान्तर को प्राप्त नट की तरह, बहुरूपी द्रव्य भी नित्य ही है (अनित्य नहीं)। Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 103 2 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- यथा नायक-विदूषक-कपि-राक्षसादिपात्रावसरेषु वेषान्तराण्यापन्नो वेषान्तरापन्नो नटो बहुरूपः, एवमुत्फणविफणादिभावैर्यद्यपि द्रव्यमपि बहुरूपम्, तथापि नित्यमेव, स्वयमविकारित्वात्, आकाशवत्- यथा हि घट-पटादिसंबन्धेन बहुरूपमप्याकाशं स्वयमविकारित्वाद् नित्यम्, एवं द्रव्यमपीति भावः॥ इति गाथार्थः // 67 // कारणमेव च सर्वत्र त्रिभुवने विद्यते, न क्वचित् कार्यम्, यच्च कारणं तत् सर्वं द्रव्यमेव, इति दर्शयन्नाह पिंडो कारणमिटुं पयं व परिणामओ तहा सव्वं। आगाराइ न वत्थु निक्कारणओ खपुष्पं व॥६८॥ [संस्कृतच्छाया:-पिण्ड: कारणमिष्टं पय इव परिणामतस्तथा सर्वम्। आकारादिर्न वस्तु निष्कारणतः खपुष्पमिव॥] मृदादिपिण्डः कारणमिष्टं कारणमात्रमेवाऽभ्युपगभ्यते। कुतः?, इत्याह- परिणामित्वात् परिणमनशीलत्वात्, पयोवद् दुग्धवत् / यथा च पिण्डः, तथाऽन्यदपि सर्वं स्थास-कोश-कुशूलादिकं त्रैलोक्यान्तर्गतं वस्तु कारणमात्रमेव, परिणामित्वात्, पयोवत्। यद् यत् कारणं तत् सर्वं द्रव्यमेव, इति द्रव्यनयस्य स्वपक्षसिद्धिः। तात्पर्य यह है कि, जैसे नायक, विदूषक, वानर, राक्षस आदि पात्र (के अभिनय करने) के अवसरों पर दूसरे-देसरे वेशों को धारण करता हुआ बहुरूपिया नट (स्वयं अविकारी, एकस्वभावी रहता) है, और ऊंचे फण वाली तथा उससे भिन्न आदि स्थितियों में यद्यपि (सर्प) द्रव्य बहुरूपवाला होता है, तथापि वह नित्य है, क्योंकि वह द्रव्य उसी प्रकार अविकारी है जिस प्रकार, घट-पट आदि (विविध) पदार्थों के सम्बन्ध से (घटाकाश, पटाकाश आदि रूप में परिणत होने से) बहुरूपी आकाश स्वयं नित्य व अविकारी बना रहता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 67 // इस त्रिभुवन में 'कारण' ही सर्वत्र है, कहीं भी (घटाकाश आदि नवीन पदार्थों की उत्पत्ति रूप) कार्य नहीं है, और जो कारण है वह द्रव्य है- इस तथ्य को भाष्यकार प्रतिपादित कर रहे हैं // 68 // पिंडो कारणमिटुं, पयं व परिणामओ तहा सव्वं। . आगाराइ न वत्थु, निक्कारणओ खपुप्फं व // [(गाथा-अर्थः) अपने परिणामीपने के कारण जिस प्रकार दूध (दही, मक्खन आदि का) कारण है, उसी तरह (मिट्टी का) पिण्ड और इसी प्रकार (अन्य) समस्त द्रव्य (भी) (अपने-अपने पर्यायों के) 'कारण' रूप से (हमें) मान्य हैं। जिस प्रकार आकाश-पुष्प निष्कारण होने से अवस्तु है, उसी तरह आकार आदि भी (अवस्तु) हैं।] व्याख्याः- मिट्टी आदि का पिण्ड 'कारण' यानी कारण मात्र ही है- यह हम मान रहे हैं। किस आधार पर? (उत्तर-) परिणामी यानी परिणामशील होने से दुग्ध की तरह। मृत्पिण्ड की तरह ही, स्थान, कोश, कुशूल आदि समस्त वस्तु कारणमात्र ही है, परिणामी होने से, दूध की तरह। जो जो कारण है, वह सब द्रव्य ही है- इस प्रकार द्रव्यनय द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि होती है। Via 104 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु मृत्पिण्डादीनां कार्यभूताः स्थास-कोश-कुशूल-घटादयः प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते, संबन्धिशब्दश्च कारणशब्दः सर्वदैव कार्यापेक्ष एव प्रवर्तते, तत् कथं कारणमात्रमेवाऽस्ति, न कार्यम्?, इति चेत्। नैवम्, आविर्भाव-तिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्, उपचारस्य चाऽवस्तुत्वात्। इति स्वपक्षं व्यवस्थाप्य परपक्षं दूषयितुमाह-'आगारेत्यादि / द्रव्यमानं विहाय स्थापनादिनयैर्यदाऽऽकारादिकमभ्युपगभ्यते, तत् सर्वमवस्तु। कुतः?, इत्याह- निष्कारणत्वात् कारणमात्ररूपतयाऽनभ्युपगमात्, तदभ्युपगमे त्वस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात्, इह यत् कारणं न भवति तद् न वस्तु, यथा गगनकुसुमम्, अकारणं च परैरभ्युपगम्यते सर्वमाकारादिकम्, अतोऽवस्तु // इति गाथार्थः // 68 // तदेवं द्रव्यनयेन स्वपक्षे व्यवस्थापिते भावनयः प्राह भावत्थंतरभूअं किं दव्वं नाम भाव एवायं / भवनं पइक्खणं चिय भावावत्ती विवत्ती य॥१९॥ (अब शंकाकार पुनः शंका करता है-) स्थास-कोश-कुशूल व घट आदि पदार्थ मृत्-पिण्ड आदि के कार्य हैं- ऐसा प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है, और 'कारण' शब्द भी सम्बन्ध-सहित होता है, कार्य की अपेक्षा रखकर ही 'कारण' शब्द व्यवहार में प्रयुक्त होता है, इसलिए आपका यह कथन कि 'कारणमात्र का ही सद्भाव है, कार्य का नहीं' किस प्रकार संगत है? इस शंका का समाधान दे रहे हैं- आपकी शंका संगत नहीं है, क्योंकि मात्र आविर्भाव व तिरोभाव में ही कार्य का उपचार किया जाता है और उपचार 'अवस्तु' ही होता है। . इस प्रकार स्वपक्ष को स्थापित कर, परकीय पक्ष में दोष प्रदर्शित करने हेतु कहा- आकारादि वस्तु नहीं है- इत्यादि / द्रव्यमात्र को छोड़कर, स्थापना आदि नयों द्वारा जो आकार आदि स्वीकारे जाते है, वह सब (चूंकि इन्हें 'कारण' नहीं माना जाता, और आकार आदि का कोई कार्य भी नहीं है, इसलिए) 'अवस्त' है। कैसे (अवस्त है)? उत्तर दिया-कारण न होने से. अर्थात उसे मात्र कारण रूप से स्वीकारा नहीं जाता है, इसलिए / यदि (आकार आदि को) कारणमात्र रूप से स्वीकारा जाय तो हमारे पक्ष की ही स्थिति (सिद्धि) हो जाएगी। क्योंकि इस संसार में जो कारण नहीं होता, वह वस्तु भी नहीं होता, जैसे आकाशपुष्प / अन्य पक्ष ने समस्त आकार आदि को अकारण माना है, अतः वह ‘अवस्तु' ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 68 // (भावनय) इस प्रकार, द्रव्यनय की ओर से अपना-पक्ष प्रस्तुत कर दिये जाने पर, 'भावनय' का कथन इस प्रकार है // 69 // भावत्थंतरभूअं किं दव्वं नाम? भाव एवायं / __ भवनं पइक्खणं चिय, भावावत्ती विवत्ती य॥ ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 105 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- भावार्थान्तरभूतं किं द्रव्यं नाम, भाव एवायम्। भवनं प्रतिक्षणमेव भावापत्तिर्विपत्तिश्च // ] भावेभ्यः पर्यायेभ्योऽर्थान्तरभूतं भिन्नं किं नाम द्रव्यम्, येनोच्यते- 'दव्वपरिणाममित्तमित्यादि'?। ननु भाव एवाऽयं यदिदं दृश्यते त्रिभुवनेऽपि वस्तुनिकुरम्बमिति / यदि हि किञ्चिदनादिकालीनमवस्थितं सद् वस्तु वस्त्वन्तरारम्भे व्याप्रियेत तदा न्याय्या स्यादियं कल्पना, यावता प्रतिक्षणं भवनमेवाऽनुभूयते। किमुक्तं भवति?, इत्याह- भावस्यैकस्य पर्यायस्याऽऽपत्तिरुद्भूतिः, अपरस्य तु विपत्तिर्विनाशः। "न निहाणगया भग्गा पुञ्जो नत्थि अणागए। निव्वुया नेय चिटुंति आरग्गे सरसवोवमा"[न निधानगता भग्ना पुञ्जो नास्त्यनागते।निर्वृत्ता नैव तिष्ठन्ति आराने सर्षपोपमाः॥]॥ इति वचनात् पूर्वस्य क्षणस्य निवृत्तिः, अपरस्य तूत्पत्तिरित्यर्थः॥ . इति गाथार्थः॥६९॥ आह- ननु ये भावस्याऽऽपत्ति-विपत्ती प्रोच्येते, ते तावद्धत्वन्तरमपेक्ष्य भवतः, यच्च हेत्वन्तरमपेक्षते तदेवाऽवस्थितं कारणं, तदेव द्रव्यम्, अतो 'भावत्थंतरभूअं किं दव्वं' इत्यादिनाऽयुक्तमेव द्रव्यमपाक्रियते, इत्याशङ्क्याह [(गाथा-अर्थः) भाव से पृथक् या भिन्न द्रव्य (नामक पदार्थ) क्या है? (वस्तुतः) वह (द्रव्य) तो 'भाव' ही है। 'भाव' यानी होना अर्थात् प्रतिक्षण भाव की उत्पत्ति और विनाश का होना।] व्याख्याः- 'द्रव्य-परिणाम मात्र को छोड़कर आकार क्या है?'- इस प्रकार (पूर्वोक्त गाथा 66 में) आप जो कह रहे हैं, तो यह बताएं कि भाव यानी पर्यायों से पृथक् या भिन्न 'द्रव्य' क्या है? (अर्थात् है ही नहीं)। वस्तुतः जो कुछ भी त्रिभुवन में वस्तु-समूह दिखाई देता है, वह 'भाव' रूप ही है (अन्य कुछ नहीं)। कोई अनादिकालीन विद्यमान सद्वस्तु यदि किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति का व्यापार करती, तब तो उक्त कल्पना न्यायसंगत होती, किन्तु प्रतिक्षण होना यानी भाव का ही सद्भाव अनुभव में आता है। कहने का भाव यह है कि प्रत्येक समय यही अनुभव में आता है कि एक भाव की उत्पत्ति होती है तो अन्य भाव का विनाश होता है (अतः भाव से अतिरिक्त कोई द्रव्य जैसी वस्तु नहीं है)। __ “मूल द्रव्य नष्ट नहीं होती, भावी काल में (पदार्थों का) पुंज (एकत्रित) नहीं हो पाता, क्योंकि आरा मशीन के अग्र भाग पर स्थित सरसों के दानों की तरह (पर्याय) सत्ता में आते ही, उत्पन्न होते ही, (अगले ही क्षण) नष्ट हो जाते है"। इस वचन के अनुसार, पूर्व क्षण की जो निवृत्ति है, वही अन्य क्षण की उत्पत्ति है- यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 69 // (यहां भाववादी के समक्ष द्रव्यनयवादी शंका उपस्थित कर रहा है-) जो भाव (पर्याय) की उत्पत्ति व विनाश आप बता रहे हैं, वे दोनों अन्य हेतु की अपेक्षा रखते हैं, और वह अन्य हेतु 'कारण' और वही द्रव्य है। इसलिए "भाव से भिन्न या पृथक् अवस्था वाला द्रव्य क्या है?"- ऐसा आप (भाववादी) की ओर से जो द्रव्य (की सत्ता) का निराकरण किया जा रहा है. वह यक्तिसंगत नहीं है इस शंका को मन में रखकर (भाववादी) इस प्रकार कह रहा हैMa 106 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न य भावो भावन्तरमवेक्खए किन्तु हेउनिरवेक्खं। उप्पज्जइ तयणन्तरमवेइ तमहेउअं चेव // 70 // [संस्कृतच्छाया:- न च भावो भावान्तरमपेक्षते किन्तु हेतुनिरपेक्षम्। उत्पद्यते तदनन्तरमपैति तदहेतुकं चैव॥] न च भावो घटादिरुत्पद्यमानो भावान्तरं मृत्पिण्डादिकमपेक्षते, किन्तु हेतुनिरपेक्ष एवोत्पद्यते। अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव भवति। न च मृत्पिण्डादिकारणकाले घटादि कार्यमस्ति, अविद्यमानस्य चाऽपेक्षायां खरविषाणस्याऽपि तथाभावप्रसङ्गात्। यदि चोत्पत्तिक्षणात् प्रागपि घटादिरस्ति, तर्हि किं मृत्पिण्डाद्यपेक्षया?, तस्य स्वत एव विद्यमानत्वात्। अथोत्पन्नः सन् घटादिः पश्चाद् मृत्पिण्डादिकमपेक्षते। हन्त! तदिदं मुण्डितशिरसो दिनशुद्धिपर्यालोचनम्, यदि हि स्वत एव कथमपि निष्पन्नो घटादिः, किं तस्य पश्चाद् मृत्पिण्डाद्यपेक्षया?। अथोत्पद्यमानतावस्थायामसौ तमपेक्षते। केयं नामोत्पद्यमानता?। न तावदनिष्पन्नावयवता, स्वयमनिष्पन्नस्य खरविषाणस्येवाऽपेक्षाऽयोगात्। नापि निष्पन्नावयवता,स्वयं निष्पन्नस्य परापेक्षावैयर्थ्यात्। नाप्यर्धनिष्पन्नावयवता, वस्तुनः सांशताप्रसङ्गात्ः, // 70 // न य भावो भावंतरमवेक्खए किंतु हेउनिरवेक्खं / उप्पज्जड तयणंतरमवेड तमहेउअं चेव / __ [(गाथा-अर्थः) भाव (नवीन उत्पादरूप पर्याय) किसी अन्य भाव की अपेक्षा नहीं रखता, किन्तु हेतु-निरपेक्ष ही उत्पन्न होता है और उस (अपनी उत्पत्ति) के बाद, अहेतुक (हेतुनिरपेक्ष) ही नष्ट भी हो जाता है।] - व्याख्याः- उत्पद्यमान घटादि रूप भाव मृत्पिण्ड आदि अन्य भाव की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु हेतु-निरपेक्ष होते हुए ही उत्पन्न होता (सत्ता में आता) है। अपेक्षा विद्यमान की ही होती है। मृत्पिण्ड आदि कारण के समय घटादि कार्य तो रहता नहीं। यदि अविद्यमान की अपेक्षा रखे, तब तो 'गधे के सींग' की भी कार्यता होने लगेगी। यदि घट का सद्भाव उसके उत्पत्तिक्षण से पहले भी होता हो तो (उस स्वतः विद्यमान घट को अपनी उत्पत्ति के लिए) मृत्पिण्ड की अपेक्षा ही क्यों हो? क्योंकि वह तो स्वतः विद्यमान है ही। - यदि ऐसा कहो कि घट आदि उत्पन्न होकर, बाद में मृत्पिण्ड आदि (कारणों) की अपेक्षा रखता है, तो यह तो वैसी ही असंगतिपूर्ण बात हुई जैसे कोई सिर मुंडनकर, बाद में शुद्ध दिन होने (के मुहूर्त) का विचार करे। यदि यह कहो कि घट आदि स्वतः ही किसी तरह उत्पन्न हो जाते हैं तो (उत्पत्ति के बाद) मृत्पिण्ड आदि की अपेक्षा की क्या जरूरत है? यदि ऐसा कहो कि उत्पन्न होने की प्रक्रिया-अवस्था में घट आदि मृत्पिड की अपेक्षा रखता है तो आप यह बताएं कि उत्पन्न होने की स्थिति से आपका क्या तात्पर्य है? यदि आपका तात्पर्य 'अनिष्पन्न अवयव वाली स्थिति' से है तो जो स्वयं अनिष्पन्न है, उसे किसी की उसी प्रकार अपेक्षा --------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 107 र Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र चाऽवयविकल्पनादावनेकदोषोपनिपातसंभवात् / किञ्च, सांशतायामपि किमनिष्पन्नोंऽशः कारणमपेक्षते, निष्पन्नो वा, उभयं वा?। न तावदाद्यपक्षद्वय निष्पन्नाऽनिष्पन्नयोरपेक्षायाः प्रतिषिद्धत्वात्। उभयपक्षोऽपि न श्रेयान्, उभयपक्षोक्तदोषप्रसङ्गात्। तस्माद् मृत्पिण्डाद्युत्तरकालं भवनमेव घटादेस्तदपेक्षा, मृत्पिण्डादेरपि कार्यत्वाभिमताद् घटादेः प्राग्भावित्वमेव कारणत्वम्, न पुनर्घटादिजन्मनि व्याप्रियमाणत्वम्। व्यापारो हि तद्वतो भिन्नः, अभिन्नो वा?। यदि भिन्नः, तर्हि तस्य निर्व्यापारताप्रसङ्गः। अथाऽभिन्नः, तर्हि व्यापाराऽभावः। कारणव्यापारजन्यं जन्मापि जन्मवतो भिन्नम्, अभिन्नं वा?। भेदे जन्मवतोऽजन्मप्रसङ्गः। अभेदे तु, जन्माभावः। तस्मात् पूर्वोत्तरकालभावित्वमात्रेणैवाऽयं कार्य-कारणभावो वस्तूनां लोके प्रसिद्धः, न जन्य-जनकभावेन / यदपि मृत्पिण्डघटादीनां पूर्वोत्तरकालभावित्वम्, तदप्यनादिकालात् तथाप्रवृत्तक्षणपरम्परारूढम्, न पुनः कस्यचित् केनचिद् निर्वर्तितम्, इति न कस्यचिद् भावस्य कस्यापि संबन्धिन्यपेक्षा। ततो हेत्वन्तरनिरपेक्ष एव सर्वो भावः समुत्पद्यत इति स्थितम् / नहीं होगी जैसे गधे के सींग को (किसी की अपेक्षा नहीं होती)। यदि आपका तात्पर्य 'निष्पन्न अवयव की स्थिति' से है तो जो स्वयं निष्पन्न (उत्पन्न) हो चुका हो, उसके लिए दूसरे की अपेक्षा निरर्थक ही है। यदि आपका तात्पर्य 'अर्धनिष्पन्न अवयव की स्थिति' से है तो तब वस्तु की सांशता माननी पड़ेगी और वस्तु में अवयवों की कल्पना आदि से अनेक दोषों के प्रादुर्भूत होने की (संकटापन्न) स्थिति हो जाएगी। दूसरी बात, 'सांशता' पक्ष में भी ये प्रश्न उठ खड़े होते हैं- क्या वह अनिष्पन्न अंश कारण की अपेक्षा रखता है, या निष्पन्न अंश कारण की अपेक्षा रखता है या फिर निष्पन्न-अनिष्पन्न-उभयात्मक किसी कारण की अपेक्षा रखता है? इनमें प्रथम पक्ष व द्वितीय पक्ष श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि जो निष्पन्न है, या जो अनिष्पन्न है, उन दोनों को किसी की अपेक्षा हो ही नहीं सकती, (ऐसा पूर्व में कहा जा चुका है)। उभय-पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि इसमें भी वही (पूर्वोक्त) दोष उत्पन्न होगा। इसलिए वह सिद्ध हुआ कि मृत्पिण्ड आदि का उत्तरवर्तीकाल में जो होना है, उसकी ही घटादि को अपेक्षा है। मृत्पिण्ड आदि का, अपने भावी कार्य की दृष्टि से, घटादि से पूर्ववर्ती होना ही उस (मृत्पिण्ड) की कारणता है, न कि घटादि की उत्पत्ति में व्यापाररत होना, अन्यथा यहां प्रश्न उठेगाक्या वह व्यापार अपने व्यापारवान से अभिन्न है या भिन्न है? यदि भिन्न है तो उसके निर्व्यापारपना' सिद्ध हो जाएगा। यदि अभिन्न है तो व्यापार का (मृत्पिण्ड से पृथक् सत्ता न होने से, उस व्यापार का) अभाव हो जाएगा। और फिर, कारण के व्यापार से होने वाली घटादि की उत्पत्ति उत्पत्तिमान् (उत्पन्न) से भिन्न है कि अभिन्न? यदि भिन्न कहोगे तो जन्मवान् को उत्पत्ति से रहित मानना पड़ेगा। अभिन्न मानने पर तो उत्पत्ति (जन्म) का ही अभाव हो जाएगा। इसलिए, यह सिद्ध हुआ कि वस्तुओं में परस्पर कार्य-कारण भाव जो प्रसिद्ध है, उसका आधार यह सिद्धान्त है कि जो कारण है वह पूर्ववर्ती है और जो कार्य है वह परवर्ती है, न कि जन्मजनकता के रूप से उनमें कार्य-कारणभाव युक्तिसंगत ठहरता है। और, मृत्पिण्ड व घट आदि में जो पूर्व-उत्तरकालवर्तिता है, वह स्वतः प्रवर्तमान क्षण-परम्परा पर आधारित है, उसे किसी के लिए किसी ने वैसा बनाया नहीं है, अतः किसी भी भाव को किसी अन्य भाव की अपेक्षा नहीं होती। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि समस्त भाव अन्य हेतु से निरपेक्ष रह कर ही उत्पन्न होते हैं। . Ma 108 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनश्यति तर्हि कथम्? इत्याह-'तयणन्तरमित्यादि' तदनन्तरमुत्पत्तिसमनन्तरमेवाऽपैति विनश्यति भावः। तदपि च विनशनमहेतुकमेव। मुद्गरोपनिपातादिसव्यपेक्षा एव घटादयो विनाशमाविशन्तो दृश्यन्ते, न निर्हेतुकाः, इति चेद्। नैवम्, विनाशहेतोरयोगात्, तथाहि- मुद्गरादिना विनाशकाले किं घटादिरेव क्रियते, आहोस्वित् कपालादयः, उत तुच्छरूपोऽभावः? इति त्रयी गतिः। तत्र न तावद् घटादिः, तस्य स्वहेतुभुतकुलालादिसामग्रीत एव उत्पतेः। नापि कपालादयः, तत्करणे घटादेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात्, न ह्यन्यस्य करणेऽन्यस्य निवृत्तियुक्तिमती, एकनिवृत्तौ शेषभुवनत्रयस्यापि निवृत्तिप्रसङ्गात्। नापि तुच्छरूपोऽभावः, खरशृङ्गस्येव नीरूपस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात्, करणे वा घटादेस्तदवस्थताप्रसङ्गात्, अन्यकरणेऽन्यनिवृत्त्यसंभवात्। घटादिसंबन्धेनाऽभावो विहितस्तेन घटादेर्निवृत्तिः, इति चेत्। न, संबन्धस्यैवाऽनुपपत्तेः, तथाहि- किं पूर्वं घटः पश्चादभावः, पश्चाद् वा घटः पूर्वमभावः, समकालं वा घटाभावौ? इति विकल्पत्रयम्। तत्राऽऽद्यविकल्पद्वयपक्षे संबन्धानुपपत्तिरेव, संबन्धस्य और विनष्ट कैसे होते हैं? (उत्तर-) उसके बाद, उत्पत्ति के तुरन्त बाद ही नष्ट होते हैं, यह तात्पर्य है। वह विनाश भी अहेतुक ही होता है। यहां आप ऐसी शंका करें कि मुद्गर के गिरने आदि की अपेक्षा से ही, अर्थात् उस कारण से ही घट आदि को विनष्ट होते देखा जाता है, निर्हेतुक नष्ट होते तो नहीं, तो (उत्तर-) हमारा कहना है कि विनाश की क्रिया में विनाश और हेतु का (परस्पर) सम्बन्ध नहीं होता। देखें- मुद्गर आदि से (घट के) विनाश के समय क्या घट आदि को (अर्थात् उसका . उत्पाद) किया जाता है, या कपाल आदि को किया जाता है या तुच्छता रूप अभाव किया जाता है? इन तीनों में से कौन सा विकल्प आपको मान्य है? इनमें (मुद्गर आदि से) घट आदि का उत्पाद तो सम्भव नहीं, क्योंकि वह (घट) तो अपने हेतुभूत आदि सामग्री से ही उत्पन्न होता है। कपाल आदि का (उत्पाद) भी नहीं किया जाता, क्योंकि यदि (कपाल आदि) को करता है तो घड़े को अविनष्ट स्थिति में आ जाना चाहिए, क्योंकि 'किया कोई और जाय और उत्पन्न कोई और हो जाय' यह कहना-मानना . युक्तिसंगत नहीं, अन्यथा किसी एक (वस्तु) के निर्माण से समस्त त्रिभुवन (की वस्तुओं) का निर्माण होने लगेगा। ___(मुद्गर से) तुच्छतारूप अभाव भी नहीं किया जाता, क्योंकि तुच्छरूप अभाव तो गधे के सींग की तरह रूप-रहित है, उसे (उत्पन्न) नहीं किया जा सकता; यदि किया जा सके तो घट आदि की तदवस्थता (विनाशरहित स्थिति) हो जाएगी, क्योंकि अन्य के करने पर अन्य की निवृत्ति असंभव है। यदि ऐसा कहो कि घटादि सम्बन्ध से अभाव को किया गया, जिससे घटादि की निवृत्ति (विनाश-स्थिति) हो जाती है, तो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि उक्त सम्बन्ध का ही होना संभव नहीं है। (जरा बतावें-) क्या पहले घट था, बाद में अभाव हुआ, या पहले अभाव हुआ और बाद में घट हुआ, या घट और उसका अभाव- ये दोनों समकालीन थे? इन तीन विकल्पों में कौनसा * ---------- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 109 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विष्ठत्वेन भिन्नकालयोस्तदसंभवात्, अन्यथा भविष्यच्छङ्कचक्रवादीनामतीतैः सगरादिभिरपि संबन्धप्राप्तेः। तृतीयविकल्पपक्षेऽपि घटाऽभावयोर्यदि क्षणमात्रमपि सहावस्थितिरभ्युपगम्यते, तसंसारमप्यसौ स्यात्, विशेषाभावात्, तथा च सति स एव घटादेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गः। घटाधुपमर्दैनाऽभावो जायते, अतो घटादिनिवृत्तिः, इति चेत्। ननु कोऽयमुपमर्दो नाम? / न तावद् घटादिः, तस्य स्वहेतुत एवोत्पत्तेः। नापि कपालादयः, तद्भावे घटादेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गात्। नापि तुच्छरूपोऽभावः, एवं हि सति घटाद्यभावेन घटाद्यभावो जायत इत्युक्तं स्यात्, न चैतदुच्यमानं हास्यं न जनयति, आत्मनैवाऽत्मभवनानुपपत्तेः। तस्माद् मुद्गरादिसहकारिकारणवैसदृश्याद् विसदृशः कपालादिक्षण उत्पद्यते, घटादिस्तु क्षणिकत्वेन निर्हेतुकः स्वरसत एव निवर्तते, इत्येतावन्मात्रमेव शोभनम् / अतो हेतुव्यापारनिरपेक्षा एव समुत्पन्ना भावाः क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनश्यन्ति, न हेतुव्यापारात्, इति स्थितम्। विकल्प (पक्ष) आपको मान्य है? यदि आदि के दो पक्ष मानते हैं तो सम्बन्ध ही नहीं ठहरता क्योंकि सम्बन्ध द्विष्ठ होता है, अतः भिन्न-भिन्न काल में रहने वाली दो वस्तुओं का परस्पर सम्बन्ध असम्भव है, अन्यथा भावी शंख चक्रवर्ती आदि का अतीत के सगर आदि के साथ भी सम्बन्ध होने लगेगा। तीसरे विकल्प (मुगद्रादि से तुच्छता रूप अभाव होता है- ऐसा) मानने में भी दोष यह आएगा कि यदि घट और अभाव की क्षणमात्र भी साथ विद्यमानता मानी जाए तो संसार-स्थिति तक उसे रहना चाहिए, क्योंकि उसके न होने का कोई विशेष कारण नहीं है, और ऐसा होने पर घटादि की तदवस्थता रूप पूर्वोक्त दोष आ जाएगा। - “घट आदि के उपमर्द (घट पर मुद्गर के दबाव, आघात आदि) से (घट का) अभाव होता है, इसके फल स्वरूप घट आदि की निवृत्ति हो जाती है"- ऐसा कहना भी युक्तियुक्त नहीं। क्योंकि यहां प्रश्न उठेगा कि यह 'उपमर्द' क्या है? वह घटादि तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह (मुद्गर से नहीं, अपितु) अपने नियत हेतुओं से ही उत्पन्न होता है। कपाल आदि भी नहीं है, क्योंकि ऐसा हो तो घट आदि की 'तदवस्थता' (पूर्ववत् अविनष्ट बने रहने) का दोष आ जाएगा। वह (उपम) तुच्छरूप अभाव भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब 'घटादि के अभाव से घटादि का अभाव होता है' यह कथन फलित होगा. वैसा कहना हास्यास्पद नहीं है- यह नहीं है. (अर्थात हास्यास्पद ही सिद्ध होगा). क्योंकि स्वयं अपने द्वारा स्वयं को उत्पन्न करना असंगत है। इसलिए, मुद्गर आदि सहकारी कारण से विसदृश (तुल्यता न रहने वाले, विलक्षण) कपालादि क्षण ही उत्पन्न होता है, घटादि तो क्षणिक होने से स्वतः ही निवृत्त हो जाता है- ऐसा कहना ही ठीक रहेगा / अतः यह सिद्ध हुआ कि हेतु-व्यापार की अपेक्षा न रखते हुए ही 'भाव' उत्पन्न होते हैं और क्षणिक होने के कारण स्वतः विनष्ट हो जाते हैं, (उत्पत्ति व विनाश- दोनों) में होने के कारण स्वतः विनष्ट हो जाते हैं, उस (उत्पत्ति व विनाश-दोनों) में कोई हेतु-जनित व्यापार कारण नहीं है। Ma 110 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्माज्जन्म-विनाशयोन किञ्चित् केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाच्च न किञ्चित् कस्यचित् कारणम्। तथा च सति न किञ्चिद् द्रव्यम्, किन्तु पूर्वापरीभूताऽपरापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्त इति। अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताभयात्, सुगतशास्त्रेषु विस्तरेणोक्तत्वाच्च // इति गाथार्थः॥७० // यदपि द्रव्यवादिना 'पिण्डो कारणमिटुं पयं व परिणामओ' इत्याद्युक्तम्, तत्राऽस्माभिरप्येतद् वक्तुं शक्यत एवेति। किम्?, इत्याह पिण्डो कजं पइसमयभावाउ जह दहिं तहा सव्वं। कजाभावाउ नत्थि कारणं खरविसाणं व॥७१॥ [संस्कृतच्छायाः- पिण्डः कार्य प्रतिसमयभावाद् यथा दधि तथा सर्वम्। कार्याभावाद् नास्ति कारणं खरविषाणमिव॥] मृदादिपिण्डः कार्यमेव, न तु कारणम्। कुतः?, इत्याह- प्रतिसमयमपरापरक्षणरूपेण भावात्, दध्यादिवदिति / प्रतिसमयमपरापरक्षणभवनमसिद्धमिति चेत्। न, वस्तूनां पुराणादिभावाऽन्यथानुपपत्तेः। उक्तं च इस प्रकार, जन्म और विनाश- दोनों में कोई किसी की अपेक्षा नहीं रखता, और अपेक्षा न रखने से कोई किसी (की उत्पत्ति व विनाश) में कारण नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई 'द्रव्य' (ऐसा पृथक् तत्त्व) नहीं है, अपितु पूर्व- पर (एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा इत्यादि) रूप में स्थित क्षणपरम्परा रूप पर्याय ही हैं। यहां यद्यपि बहुत कुछ कहना है, किन्तु ग्रन्थ की गहनता (विस्तार) के भय से नहीं कह रहे हैं, बौद्ध शास्त्रों में विस्तार से (इस सम्बन्ध में) कहा जा चुका है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |70 // . द्रव्यवादी द्वारा (गाथा-६८ में) “मृदादि पिण्ड कारणमात्र ही स्वीकारा गया है, क्योंकि वह परिणामी है, दूध की तरह" -इत्यादि कथन किया गया है, उस सम्बन्ध में हम (भाववादी) भी (प्रत्युत्तर रूप में) इस प्रकार कह सकते हैं // 71 // पिण्डो कज्जं पइसमयभावाउ जह दहिं तहा सव्वं / कज्जाभावाउ नत्थि कारणं खरविसाणं व // [(गाथा-अर्थः) (मिट्टी आदि का) पिण्ड 'कार्य' ही है क्योंकि वह प्रतिक्षण नये-नये पर्याय रूप में हो रहा है, इसी प्रकार समस्त वस्तुएं (कार्य) हैं। 'कारण' (जिसे द्रव्यवादी ‘कारण' इस रूप में मान रहा है, वह), चूंकि कार्य रूप नहीं है, इसलिए उसी प्रकार असद्रूप है जिस प्रकार गधे के सींग।] . व्याख्याः - मिट्टी आदि का पिण्ड 'कार्य' ही है, 'कारण' नहीं है। कैसे? उत्तर यह है कि वहां प्रतिक्षण (एक के बाद दूसरा) पूर्वक्षण व अपरक्षण- इस क्रम से 'भाव' का ही सद्भाव है, दही आदि की तरह। प्रतिक्षणं पर-अपर क्षण का होना सिद्ध नहीं होता- ऐसा तुम्हारा कहना भी असंगत है, क्योंकि वैसा माने बिना वस्तु में पुरानापना (अधिक पुरानापना आदि का व्यवहार) संगत नहीं होगा। कहा भी हैVA---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- 111 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसमयं यदि न भवेदपरापररूपतेह वस्तूनाम्। न स्यात् पुराणभावो न युवत्वं नापि वृद्धत्वम्॥१॥ जन्मानन्तरसमये न स्याद् यद्यपररूपताऽर्थानाम् / तर्हि. विशेषाभावाद् न शेषकालेऽपि सा युक्ता // 2 // किं पिण्ड एव कार्यम्?।न, इत्याह- तथा सर्वं, यथा प्रतिसमयं भावात पिण्ड: कार्य तथा सर्वमपि घटपटादिकं वस्तुनिकरम्बम, तत एव हेतोः कार्यत्वमपि द्रष्टव्यमित्यर्थः। अनभिमतप्रतिषेधमाह- 'कज्जाभावाउ इत्यादि। पराभ्युपगतं कारणं कारणाख्यं वस्तु नास्ति। कुतः?, इत्याह- कार्याभावात्, तत्र कार्यत्वाऽभ्युपगमाभावात् प्रतिसमयभवनानभ्युपगमादित्यर्थः / इह यत् प्रतिसमयमपरापररूपेण न भवति तद् वस्तु नास्ति, यथा खरविषाणम्। प्रतिसमयमभवन्तश्चाऽभ्युपगम्यन्ते परैर्मृत्पिण्डादयः, तस्माद् न सन्तीति भावः॥ इति गाथार्थः // 71 // तदेवं नामादिनयानां परस्परविप्रतिपत्तिमुपदोपसंहारपूर्वकं मिथ्येतरभावं दर्शयितुमाह प्रतिक्षण यदि वस्तु में पर, अपर भाव न हो तो उनमें पुराना होना, युवा होना, वृद्ध होना, आदि व्यवहार असंगत हो जाएंगे // 1 // जन्म के बाद के क्षणों में यदि पदार्थ की अपररूपता (प्रतिक्षण परिणतिरूप भिन्नता) न हो तो 'विशेष' के अभाव से शेष काल में भी वह (अपररूपता) युक्तिसंगत नहीं होगी // 2 // (प्रश्न-) क्या (मिट्टी का) पिण्ड ही कार्य है? (उत्तर-) नहीं। उसी तरह समस्त घट, पट आदि वस्तु-समूह कार्य हैं, इसी कारण से 'कार्यत्व' भी उनमें है। इस मत से विरुद्ध मत के निषेष हेतु कहा- चूंकि (कारण) 'कार्य' रूप नहीं है- इत्यादि। अन्य मत द्वारा स्वीकृत कारण यानी ‘कारण' नामक वस्तु नहीं है- असद्प है। (प्रश्न) कैसे? (उत्तर-) 'कार्य' न होने से। तात्पर्य यह है कि उसमें 'कार्यत्व' (का सद्भाव) नहीं माना जा रहा है, यानी प्रतिक्षण (नव-नव पर्याय रूपों में होना- यह) 'भाव' नहीं माना गया है। इस संसार में जिस भी वस्तु में प्रतिक्षण पर, अपर (पूर्वभावी क्षण, पश्चाद्भावी क्षण आदि) भाव नहीं होता, वह नहीं है, असद्प है, उसी प्रकार जैसे गधे के सींग। अन्य मत में मृत्पिण्ड आदि (कारण) में प्रतिक्षण 'भाव' (कार्य) नहीं स्वीकारा गया है, इसलिए वे असद्भूत हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 71 // (मिथ्या व सम्यक् नय) इस प्रकार, नाम आदि में परस्पर विरोध को प्रदर्शित कर, उपसंहार रूप में 'वे मिथ्या व सम्यक् कैसे होते हैं'- इसका निदर्शन कर रहे हैं Via 112-------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ----- Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विवयंति नया मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवज्जमच्चंतं // 72 // [संस्कृतच्छाया:- एवं विवदन्ति नया मिथ्याभिनिवेशतः परस्परतः / इदमिह सर्वनयमयं जिनमतमनवद्यमत्यन्तम्॥] एवमुक्तप्रकारेण परस्परतो मिथ्याभिनिवेशाद् विवदन्ते विवादं कुर्वन्ति नामनयादयो नयाः। ततश्च मिथ्यादृष्टय एते, असंपूर्णार्थग्राहित्वात्, गजगात्रभिन्नदेशसंस्पर्शने बहुविधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवत् / यदि नामैते मिथ्यादृष्टयः, तर्हि निर्मिथ्यं किम्? इत्याह- इदमिहैव लोके वर्तमानमनुभवप्रत्यक्ष-सिद्धं जिनमतं जैनाभ्युपगमरूपम्। कथंभूतम्?, सर्वनयमयं निःशेषनयसमूहाभ्युपगमनिवृत्तम्, अत्यन्तमनवद्यं नामादिनयपरस्परोद्भाविताऽविद्यमाननिःशेषदोषं, संपूर्णार्थग्राहित्वात्, चक्षुष्मतां समन्तात् समस्तहस्तिशरीरदर्शनोल्लापवत् // इति गाथार्थः // 72 // तथा च संपूर्णार्थग्रहरूपं जिनमतमेव दर्शयति // 72 // एवं विवयंति नया, मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। - इयमिह सव्वनयमयं, जिणमयमणवज्जमच्चंतं // [(गाथा-अर्थः) इस प्रकार सभी नय, मिथ्या अभिनिवेश के कारण परस्पर विवाद करते हैं, किन्तु जिनमत तो सर्वनयात्मक है और (इसलिए) वह (निर्विवाद और) निर्दोष है।] - व्याख्याः- इस तरह उक्त प्रकार से नाम आदि नय परस्पर मिथ्या-अभिनिवेश के कारण (एक दूसरे को मिथ्या ठहराने के दुराग्रह से) विवाद करते हैं। इसलिए वे मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि प्रत्येक नय असंपूर्ण पदार्थ को ग्रहण (विषय) करता है। यह उसी प्रकार की स्थिति है जैसे हाथी के भिन्न-भिन्न अंग-अवयव को छू कर कुछ जन्मान्ध व्यक्ति (अपने द्वारा स्पृष्ट अंग के रूप में हाथी का स्वरूप समझ कर) परस्पर विविध प्रकार के विवाद में उलझ रहे हों। (प्रश्न-) यदि- ये (नय) मिथ्यादृष्टि हैं तो मिथ्यात्वरहित यानी समीचीन नय क्या होगा? (उत्तर-) लोक में यह जो प्रत्यक्षसिद्ध जिनमत है, वह (समीचीन) है। वह जिनमत कैसा है? सर्वनयमय है, यानी सर्वनयात्मक है, समस्त नयों की मान्यताओं का एक समन्वित रूप है, अतः अत्यन्त निर्दोष है। नाम आदि नयों द्वारा परस्पर प्रदर्शित दोषों का उसमें अभाव है, क्योंकि वह सम्पूर्ण अर्थ का उसी प्रकार ग्रहण करता है, जिस प्रकार आंख वाले व्यक्तियों को हाथी का सम्पूर्ण शरीर प्रत्यक्ष नेत्रगोचर होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||72 // अब सम्पूर्ण अर्थ-ग्राही स्वरूप वाले जिनमत को ही बता रहे हैं ----------- विशेषावश्यक भाष्य -- -- ---- 113 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाइभेअसहत्थबुद्धिपरिणामभावओ निययं। जं वत्थुमत्थि लोए चउपज्जायं तयं सव्वं // 73 // [संस्कृतच्छाया:- नामादिभेदशब्दार्थ-बुद्धिपरिणामभावतो नियतम्। यद् वस्त्वस्ति लोके चतुष्पर्यायं तत् सर्वम॥] घट-पटादिकं यत् किमपि वस्त्वस्ति लोके, तत् सर्वं प्रत्येकमेव नियतं निश्चितं चत्वारः पर्याया नामाऽऽकार-द्रव्यभावलक्षणा यत्र तच्चतुष्पर्यायम्, न पुनर्यथा नामादिनयाः प्राहुर्यथा-केवलनाममयं वा, केवलाकाररूपं वा, केवलद्रव्यताश्लिष्टं वा, केवलभावात्मकं वेति भावः। कुतश्चतुष्पर्यायमेव?, इत्याह- 'नामाइभेअ-इत्यादि / नामादिभेदेष्वेकत्वपरिणतिसंवलितनामाऽऽकारद्रव्य-भावेष्वेवेत्यर्थः, शब्दश्चाऽर्थश्च बुद्धिश्च शब्दाऽर्थबुद्धयस्तासां परिणामस्तस्य भावः सद्भावस्तस्मात्, नामादिभेदेषु समुदितेष्वेव योऽयं शब्दाऽर्थ-बुद्धीनां परिणामसद्भावस्तस्माद्धेतोः सर्वं चतुष्पर्यायं वस्त्वित्यर्थः। प्रयोगः- यत्र शब्दाऽर्थ-बुद्धिपरिणामसद्भावः, तत् सर्वं चतुष्पर्यायम्, चतुष्पर्यायत्वाभावे शब्दादिपरिणामभावोऽपि न दृष्टः, यथा शशशृङ्गे, तस्माच्छब्दादिपरिणामसद्भावे सर्वत्र चतुष्पर्यायत्वं निश्चितमिति भावः। // 73 // नामाइभेअसद्दत्थ-बुद्धिपरिणामभावओ निययं। . जं वत्थुमत्थि लोए, चउपज्जायं तयं सव्वं // [(गाथा-अर्थः) जो कुछ भी संसार में 'वस्तु' है, वह सब निश्चित ही चतुष्पर्यायात्मक है, क्योंकि नाम आदि (चतुर्विध) भेदात्मक (एकत्व-संवलित) वस्तु में ही शब्द, अर्थ, बुद्धि -इनकी परिणति (सम्भव) होती है।] व्याख्याः- घट-पट आदि जो कुछ भी वस्तु लोक में है, वह सब प्रत्येक वस्तु निश्चित रूप से चतुष्पर्यायात्मक है, अर्थात् नाम, आकार, द्रव्य व भाव -इन चार पर्यायों का समुदित रूप है, न कि जैसा (प्रत्येक) नाम आदि नय जैसा बता रहे हैं कि वस्तु केवल नामनय है, या केवल आकाररूप है या केवल द्रव्यतायुक्त (द्रव्यता रूप) है या केवल भाव-रूप है। (प्रश्न-) क्यों चतुष्पर्यायात्मक ही है? उत्तर है- 'नामादिभेदात्मक' इत्यादि / अर्थात नाम आदि (चार) भेदों में एकत्वपरिणति से युक्त नाम, आकार, द्रव्य व भावों में ही, शब्द, अर्थ, बुद्धि -इन (तीनों) के परिणाम का भाव यानी सद्भाव है, इसलिए। तात्पर्य यह है कि चूंकि नाम आदि समुदित भेदों में ही यह जो शब्द, अर्थ या बुद्धि के परिणाम का सद्भाव है, इसलिए समस्त वस्तु चतुष्पर्यायात्मक है। यहां (साधक अनुमान का) प्रयोग इस प्रकार है- जहां शब्द, अर्थ व बुद्धि के परिणामों का सद्भाव है, वह सभी चतुष्पर्यायात्मक है, चतुष्पर्यायरूपता के न होने पर शब्द आदि परिणाम नहीं दृष्टिगोचर होते, जैसे खरगोश के सींग में / अतः (इस अनुमान के आधार पर) शब्दादि परिणाम के सद्भाव में सर्वत्र चतुष्पर्यायता निश्चित होती है- यह तात्पर्य है। Na 114 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- अन्योऽन्यसंवलितनामादिचतुष्टयात्मन्येव वस्तुनि घटादिशब्दस्य तदभिधायकत्वेन परिणतिर्दृष्टा, अर्थस्यापि पृथुबुध्नोदराद्याकारस्य नामादिचतुष्टयात्मकतयैव परिणामः समुपलब्धः, बुद्धेरपि तदाकारग्रहणरूपतया परिणतिस्तदात्मन्येव - वस्तुन्यवलोकिता। न चेदं दर्शनं भ्रान्तम्, बाधकाभावात्। नाप्यदृष्टाशङ्कयाऽनिष्टकल्पना युक्तिमती, अतिप्रसङ्गात्। न हि दिनकराऽस्तमयोदयोपलब्धरात्रिन्दिवादिवस्तूनां बाधकसंभावनयाऽन्यथात्वकल्पनासंगतिमावहति। न चेहापि दर्शनाऽदर्शने विहायाऽन्यद् निश्चायकं प्रमाणमुपलभामहे। . तस्मादेकत्वपरिणत्यापन्ननामादिभेदेष्वेव शब्दादिपरिणतिदर्शनात् सर्वं चतुष्पर्यायं वस्त्विति स्थितम्। इति गाथार्थः॥७३॥ आह- ननु यदि नामादिचतुष्पर्यायं सर्वं वस्तु, तर्हि किं नामादीनां भेदो नास्त्येव?, इत्याह इय सव्वभेअसंघायकारिणो भिन्नलक्खणा एते। उप्पाया इति यं पिव धम्मा पइवत्थुमाउजा॥७४॥ (यहां) यह बताया गया है कि अन्योन्यसंवलित (एक-दूसरे के साथ समन्वित) नाम आदि चतुष्टयात्मक वस्तु में ही, घट आदि शब्द की तद्वाचक रूप में परिणति दृष्टिगोचर होती है। पृथुबुध्नोदर (मोटे तल भाग व विस्तृत मध्य भाग वाले) आदि आकार रूप अर्थ की भी परिणति नामादिचतुष्टयात्मकता के साथ ही उपलब्ध होती है। इसी प्रकार, बुद्धि की भी तदाकारग्रहणरूप से परिणति नामादिचतुष्टयात्मक वस्तु में ही प्रत्यक्ष (सिद्ध) है। ऐसा दिखाई देना (अनुभव में आना) भ्रमपूर्ण भी नहीं है, क्योंकि उस प्रत्यक्ष अनुभव का कोई बाधक नहीं है (भ्रम वहीं माना जाता है, जहां पूर्व ज्ञान का कोई उत्तरवर्ती * ज्ञान बाधक हो)। किसी अदृष्ट (बाधक) की आशंका से अनिष्ट (यानी उक्त अनुभूति को भ्रम मानने की) कल्पना युक्तियुक्त नहीं होगी, अन्यथा (अनेक दोषों की) अतिप्रसक्ति होने लगेगी। सूर्य के अस्त होने और उसके उदय से होने वाले रात-दिन आदि वस्तुओं (घटनाओं) के भी (किन्हीं) बाधकों की संभावना से, उन्हें अन्यथा (धान्तिपूर्ण) मानना कथमपि संगत नहीं होगा। दिखाई देने या नहीं दिखाई देने को छोड़कर अन्य कोई निश्चयकारक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होता। इसलिए, एकत्वपरिणति प्राप्त नाम आदि भेदों में ही शब्द आदि की परिणति दिखाई पड़ती है, अतः सभी वस्तु चतुष्पर्यायात्मक है- यह सिद्ध होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 73 // ___अच्छा, यदि सभी वस्तु 'नाम आदि चतुष्पर्याय रूप' है, तो क्या नाम आदि में (परस्पर) भेद नहीं है? इस आशंका को दृष्टिगत रखकर भाष्यकार कह रहे हैं // 74 // इय सव्वभेयसंघायकारिणो भिन्नलक्खणा एते। उप्पाया इति यं पिव, धम्मा पइवत्युमाउज्जा // Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------115 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- इति सर्वभेदसंघातकारिणो भिन्नलक्षणा एते। उत्पादा इति यदिव धर्मा प्रतिवस्तु आयोज्याः॥] , इत्येवं ये पूर्वं भिन्नलक्षणा भिन्नस्वरूपा धर्मा नामादयः प्रोक्तास्ते प्रतिवस्त्वायोज्या आयोजनीया इति संबन्धः। कथंभूताः सन्तः?, इत्याह- भेदश्च संघातश्च भेदसंघातौ, सर्वस्य स्वाश्रयभूतवस्तुनो भेदसंघातौ तौ कर्तुं शीलं येषां ते सर्वभेदसंघातकारिणो निजाश्रयस्य सर्वस्याऽपि वस्तुनः कथञ्चिद् भेदकारिणः, कथञ्चित्त्वभेदकारिण इत्यर्थः। तथाहि- केनचिदिन्द्र इत्युच्चरितेऽन्यः प्राह- किमनेन नामेन्द्रो विवक्षितः, आहोस्वित् स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः, भावेन्द्रो वा?। नामेन्द्रोऽपि द्रव्यतः किं गोपालदारक: हालिकदारकः, क्षत्रियदारकः ब्राह्मणदारकः वैश्यदारकः शद्रदारको वा? इत्यादि क्षेत्रतोऽपि नामेन्द्रः किं भारतः, ऐरावतः, महाविदेहजो वा? इत्यादि। कालतोऽपि किमतीतकालसंभवी, वर्तमानकालभावी, भविष्यन् वा? इत्यादि, अतीतकालभाव्यपि किमितोऽनन्ततमसमयभावी, असंख्याततमसमयभावी, संख्याततमसमयभावी वा? इत्यादि। भावतोऽपि किं कृष्णवर्णः, गौरवर्णः, दीर्घः, मन्थरो वा? इत्यादि। [(गाथा-अर्थः) ये (नाम आदि चारों नय) परस्पर भिन्न-भिन्न लक्षण वाले हैं, किन्तु (वस्तुतः) अपने आश्रयभूत समस्त वस्तु के (कथंचिद्) भेद व संघात (अभेद) के कारक हैं। उत्पाद आदि की तरह ही इन (चारों) को प्रत्येक वस्तु में आयोजित-नियोजित करना चाहिए।] ___ व्याख्याः - इस प्रकार, वे पूर्वोक्त जो भिन्न-भिन्न लक्षण (स्वरूप) वाले नाम आदि कहे गए हैं, उन्हें प्रत्येक वस्तु में आयोजित-नियोजित करना चाहिए। इन्हें किस रूप में वैसा करना चाहिए? (उत्तर-) अपने आश्रयभूत समस्त (प्रत्येक) वस्तु में भेद व संघात (अभेद) करना इनका स्वभाव हैइस रूप में, अर्थात् ये प्रत्येक वस्तु में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद स्थापित करते हैं। जैसे-किसी ने 'इन्द्र' ऐसा उच्चारण किया, तब अन्य ने (मन में) कहा- यह क्या नाम-इन्द्र को कहना चाहता है, या स्थापना-इन्द्र को, या द्रव्य इन्द्र को या फिर भाव-इन्द्र को? नाम-इन्द्र को कहना चाहता है तो द्रव्य की दृष्टि से ग्वाले के लड़के को, या किसान के बेटे को, या क्षत्रिय के बेटे को, या वैश्य के बेटे को या शूद्र के बेटे को कहना चाहता है? क्षेत्र की दृष्टिं से भी यह नाम-इन्द्र भारतवर्षीय है, या ऐरावतक्षेत्रीय है या महाविदेह में उत्पन्न है? इत्यादि-इत्यादि / काल की दृष्टि से भी यह अतीत काल में हुए इन्द्र को कहना चाहता है या वर्तमान काल के इन्द्र को या भावी इन्द्र को? इत्यादि / अतीतकाल के इन्द्रों में भी यह अब से अनन्त-अनन्त समय पहले होने वाले को या संख्याततम समय पहले होने वाले इन्द्र को? इत्यादि। भाव दृष्टि से भी यह कृष्ण वर्ण वाले को कहना चाहता है या गौर वर्ण वाले को, या लम्बे चौड़े आकार वाले को या मन्थर (टेढ़े, वक्र, झुके शरीर वाले) को? इत्यादि। Ma 116 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमेकोऽपि नामेन्द्रस्याऽऽश्रयभूतोऽर्थस्तावद् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाधिष्ठितोऽनन्तभेदत्वं प्रतिपद्यते। तथा स्थापनाद्रव्य-भावाश्रयस्याऽप्युक्तानुसारतः प्रत्येकमनन्तभेदत्वमनुसरणीयम्। इत्येवमेते नामादयो भेदकारिणः। अभेदकारिणस्तर्हि कथम? इति चेत्। उच्यते- यदैकस्मिन्नपि वस्तुनि नामादयश्चत्वारोऽपि प्रतीयन्ते तदाऽभेदविधायिनः, तथाहि- एकस्मिन्नपि शचीपत्यादौ 'इन्द्र' इति नाम, तदाकारस्तु स्थापना, उत्तरावस्थाकारणत्वं तु द्रव्यत्वम्, दिव्यरूप-संपत्ति-कुलिशधारण-परमैश्वर्यादिसंपन्नत्वं तु भाव इति चतुष्टयमपि प्रतीयते। तस्मादेवं सर्वस्य स्वाऽऽश्रयभूतस्य वस्तुनो भेद-संघातकारिणो भिन्नलक्षणा एते नामादयो धर्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्रिकवत् प्रतिवस्तु आयोजनीयाः परस्पराऽविनाभाविनः प्रतिवस्तु द्रष्टव्या इति तात्पर्यम्॥ इति गाथार्थः // 4 // "नत्थि नएहिं विहणं सुत्तं अत्थो अजिणमए किंचि। आसज उ सोआरं नएण य विसारओ बूया॥" [नास्ति नयैर्विहीनं सूत्रमर्थश्च जिनमते किंचित्। आसाद्य तु श्रोतारं नयेन च विशारदो ब्रूयात् // ] -इति वचनाजिनमते सर्वं वस्तु प्रायो नयैर्विचार्यते, अतो नाम-स्थापनादीनपि प्रस्तुतान् नयैर्विचारयन्नाह इस प्रकार, नाम-इन्द्र की आश्रयभूत एक भी वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेदों से अधिष्ठित होकर अनन्तभेद वाली होती है- यह जानें। इस प्रकार नाम आदि (चारों) भेदकारी हैं। (प्रश्न) तो फिर इन्हें अभेदकारी भी कहा है, वह कैसे? (उत्तर-) जब एक ही वस्तु में नाम आदि चारों की ही प्रतीति होती है, तब ये अभेदकारी होते हैं। उदाहरणार्थ- एक ही शचीपति (इन्द्र) में 'इन्द्र' यह "नाम' है, उसका आकार 'स्थापना' है, उत्तरवर्ती अवस्था (इन्द्रत्व) का कारण होना यह 'द्रव्य' है और दिव्य रूप, दिव्य संपत्ति, वज्रधारण व परम ऐश्वर्यसम्पन्नता यह 'भाव' है, इस प्रकार चारों की ही प्रतीति होती है। ___ इसलिए भिन्न-भिन्न लक्षण वाले ये नाम आदि धर्म अपने आश्रयभूत समस्त वस्तु में भेद व अभेद (दोनों) के कारक होते हैं। प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य -इस त्रयरूपता की तरह इनकी आयोजना करनी चाहिए, अर्थात् परस्पर-अविनाभूत रूप में प्रत्येक वस्तु में इनका सद्भाव देखना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 74 // जैसा कि कहा गया है- “जैन मत में (कोई भी) सूत्र या उसका अर्थ नयों से रहित नहीं है। इसलिए श्रोता को अपने सामने प्राप्त कर निपुण (वक्ता) 'नय' का आश्रय लेकर ही प्रवचन करे।" इस कथन से स्पष्ट है कि जिन-मत में समस्त वस्तु प्रायः नयों के माध्यम से ही विचारित/आलोचितप्रत्यालोचित होती है, अतः प्रस्तुत नाम, स्थापना आदि (नयों) की भी नयों के माध्यम से विचारणा (करने की दृष्टि से कथन) कर रहे हैं ----- विशेषावश्यक भाष्य - ----117 र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाइतियं दव्वट्टियस्स भावो य पजवनयस्स। संगह-व्यवहारा पढमगस्स सेसा य इयरस्स // 75 // [संस्कृतच्छाया:- नामादित्रिकं द्रव्यास्तिकस्य भावश्च पर्यवनयस्य। संग्रहव्यवहारौ प्रथमकस्य शेषाश्चेतरस्य॥] एतेषु नामादिषु मध्ये नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेपत्रयं द्रव्यास्तिकनयस्यैवाऽभिमतं न पर्यायास्तिकस्य, नामादिनिक्षेपत्रयस्य विवक्षितभावशून्यत्वात्, पर्यायास्तिकस्य तु भावग्राहित्वादिति। भावो' भावनिक्षेपः पुनः पर्यायास्तिकनयस्याऽभिमतो नेतरस्य, तस्य द्रव्यमात्रग्राहित्वेन भावाऽनवलम्बित्वादिति। आह- ननु नया नैगमादयः प्रसिद्धाः, ततस्तैरेवाऽयं विचारो युज्यते, अथ तेऽत्रैव द्रव्यपर्यायास्तिकनयद्वयेऽन्तर्भवन्ति, तर्जुच्यतां कस्य कस्मिन्नन्तर्भाव:?, इत्याशङ्क्याह- 'संगहेत्यादि' ।नैगमस्तावत् सामान्यग्राही संग्रहेऽन्तर्भवति, विशेषग्राही तु व्यवहारे, संग्रहव्यवहारौ तु प्रस्तुतनयद्वयस्य मध्ये प्रथमकस्य द्रव्यास्तिकस्य मतमभ्युपगच्छतः- द्रव्यास्तिकमतेऽन्तर्भवत इति तात्पर्यम्। शेषास्तु ऋजुसूत्रादय इतरस्य द्वितीयस्य पर्यायास्तिकस्य मतमभ्युपगच्छन्तोऽत्रैवाऽन्तर्भवन्तीति हृदयम्। // 75 // नामाइतियं दव्वट्ठियस्स भावो य पज्जवनयस्स। . संगह-ववहारा पढमगस्स, सेसा य इयरस्स // [(गाथा-अर्थः) नाम आदि तीन (नयों) को द्रव्यास्तिक नय स्वीकार करता है और 'भाव' (नय) को पर्यायास्तिक नय / (नय के द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक- इन दो प्रमुख भेदों में) द्रव्यास्तिक नय को संग्रह व व्यवहार अनुसरण करते हैं तो शेष (ऋजुसूत्र आदि नय) अन्य (पर्यायास्तिक नय) का (अनुसरण करते हैं)।] . व्याख्याः- इस नाम आदि में नाम, स्थापना व द्रव्य- ये तीन निक्षेप द्रव्यास्तिक नय द्वारा मान्य या समर्थित हैं, पर्यायास्तिकनय द्वारा नहीं, क्योंकि नामादि तीनों निक्षेप विवक्षित 'भाव' से शून्य हैं, जब कि पर्यायास्तिक नय तो भावग्राही है। भाव यानी भावनिक्षेप पर्यायास्तिक नय द्वारा अभिमत या मान्य है, किसी अन्य नय का नहीं, क्योंकि अन्य नय (द्रव्यास्तिक नय) द्रव्यमात्र को ग्रहण (विषय) करता है, भाव का अवलम्बन नहीं लेता। ___(शंका-) नैगम आदि नय प्रसिद्ध हैं, अतः उन्हीं के आधार पर नयों का विचार करना संगत है (द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक नय के आधार पर क्यों विचार किया गया है?)? यदि यह कहा जाय कि नैगम आदि नय द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक-इन (मूलभूत) दो नयों में अन्तर्भूत हैं, अतः उन्हीं के आधार पर नयों का विचार किया जा रहा है तो आप यह बताएं कि कौन-कौन नय (द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक-इन दोनों में से) किसमें अन्तर्भूत हैं? इस प्रश्न का उत्तर देने हेतु कहा-संग्रह और व्यवहार इत्यादि / सामान्य मात्र का ग्राहक जो नैगमनय है, वह संग्रह नय में अन्तर्भूत है, और जो विशेषग्राही (नैगमनय) है, वह व्यवहार नय में अन्तर्भूत है। संग्रह व व्यवहार नय तो प्रस्तुत दो नयों a 118 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यसिद्धसेनमतेन चेह ऋजुसूत्रस्य पर्यायास्तिकेऽन्तर्भावो दर्शितः, सिद्धान्ताभिप्रायेण तु संग्रह-व्यवहारवद् ऋजुसूत्रस्याऽपि द्रव्यास्तिक एवाऽन्तर्भावो द्रष्टव्यः, तथा चोक्तं सूत्रे- "उजुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगं दव्वावस्सयं पुहत्तं नेच्छइ" [ऋजुसूत्रस्य एकोऽनुपयुक्त आगमत एकं द्रव्यावश्यकं पृथक्त्वं नेच्छति।] इति। तदनेनाऽस्य द्रव्यवादित्वं दर्शितम्, इति कथं पर्यायास्तिकेऽन्तर्भावः स्यात? // इति गाथार्थः॥७५ // आह- ननु संग्रहादिनया नामनिक्षेपं सर्वमप्येकत्वेनेच्छन्ति, भेदेन वा?, एवं स्थापनादिनिक्षेपेष्वपि प्रत्येकं वक्तव्यम्, इत्याशङ्कयाह . जं सामन्नग्गाही संगिण्हइ तेण संगहो निययं। जेण विसेसग्गाही ववहारो तो विसेसेइ // 76 // में प्रथम यानी द्रव्यास्तिक नय द्वारा मान्य सिद्ध होते हैं, अर्थात् द्रव्यास्तिक नय में अन्तर्भूत होते हैंयह तात्पर्य है। शेष ऋजुसूत्र नय आदि तो अन्य, यानी दूसरे पर्यायास्तिक नय द्वारा मान्य हैं, अर्थात् उसी में अन्तर्भूत हैं। यह जो ऋजुसूत्र नय का पर्यायास्तिक नय में अन्तर्भाव दिखाया है, वह आचार्य सिद्धसेन * के मत का अनुसरण कर किया गया है। सिद्धान्ततः तो संग्रह व व्यवहार की तरह ऋजुसूत्र भी द्रव्यास्तिक नय में ही अन्तर्भूत है- ऐसा मानना चाहिए। : सूत्र (आगम-अनुयोगद्वार) में कहा भी गया है:- [ऋजुसूत्र नय के मत में उपयोगशून्य बहुत से हो सकते हैं, तो भी संग्रह नय की तरह] ऋजुसूत्र नय के मत में भी एक 'उपयोग-रहित' ही 'आगम से द्रव्यावश्यक' है और ऋजुसूत्र (अनेक उपयोगशून्य वक्ताओं में भी) पृथक्त्व (जुदापन) नहीं चाहता (मानता), (अर्थात् अतीत-अनागत भेद से तथा परकीय भेद से उनमें परस्पर भिन्नता नहीं चाहता, अपितु वर्तमानकालीन को ग्रहण करता है)। इस तरह इस (ऋजुसूत्र) का (आगम में) द्रव्यवादी होना बताया गया है, तो इसका पर्यायास्तिक में अन्तर्भाव कैसे हो सकता है? (अर्थात् नहीं हो सकता ) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 75 // (नाम आदि भेद निक्षेप- अभेदकारी) (संग्रह नय आदि सम्मत नाम आदि निक्षेप) __अच्छा, संग्रह आदि नय सभी (नाम आदि) को एक-सा मानते हैं, तो क्या भेदपूर्वक मानते हैं? इसी प्रकार का स्पष्टीकरण स्थापना आदि निक्षेपों में भी प्रत्येक में करना अपेक्षित है- इस आशंका के समाधान हेतु भाष्यकार कह रहे हैं 76 // जं सामन्नग्गाही संगिण्हइ, तेण संगहो निययं / जेण विसे सग्गाही ववहारो तो विसे सेइ॥ ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 119 4 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहुज्जुसुया पज्जायवायगा भावसंगहं बेति। उवरिमया विवरीआ भावं भिदंति तो निययं // 77 // [संस्कृतच्छाया:- यद् सामान्यग्राही संगृण्हाति तेन संग्रहो नियतम्। येन विशेषग्राही व्यवहारस्तस्माद् विशेषयति॥ शब्द-ऋजुसूत्रौ पर्यायवाचकौ भावसंग्रहं ब्रूतः। उपरितनौ विपरीतौ भावं भिन्तः तस्माद् नियतम्॥] यद् यस्मात् कारणात् संग्रहनयः सामान्यग्राही सामान्यवादी, तेन कारणेन संग्रहात्येकत्वेनाऽध्यवस्यति प्रत्येकं त्रितयं नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेपलक्षणं, यानि कानिचिद् नाममङ्गलानि तत् सर्वमप्येकं नाममङ्गलम्, तथा स्थापनामङ्गलान्यशेषाण्यप्येकं स्थापनामङ्गलम्, एवं द्रव्यमङ्गलान्यपरिशिष्टान्यप्येकं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। व्यवहारनयस्तु येन कारणेन विशेषग्राही, ततो नामादिनिक्षेपान् विशेषयति भेदेनेच्छति- नाममङ्गलानि सर्वाण्यपि पृथग नाममङ्गलत्वेनेच्छति, एवं स्थापनादिनिक्षेपेष्वपि वाच्यम्। 'सहुज्जुसुया इत्यादि'। शब्द-ऋजुसूत्रनयौ पुनः पर्यायैरेकार्थभिन्नाभिधानैर्वस्तु वक्तुं शीलं ययोस्तौ पर्यायवाचिनौ सन्तौ नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेप-परिहारेणैकस्यैव भावस्य भावनिक्षेपस्य संगृहीति: संग्रहोऽभिन्नत्वमेकत्वं भावसंग्रहस्तं ब्रूतः प्रतिपादयतः। 77 // सहुज्जुसुया पज्जायवायगा भावसंगहं बेति। उवरिमया विवरीआ, भावं भिदंति तो निययं // [(गाथा-अर्थः) संग्रह नय चूंकि सामान्यग्राही है, अतः वह (नाम, स्थापना व द्रव्य-इन तीनों को) निश्चित रूप से 'एक रूप' से ग्रहण करता है और व्यवहार नय विशेषग्राही है, अतः वह (उन्हें) : विशेष रूप से, भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करता है // 76 // शब्द और ऋजुसूत्र पर्यायवादी हैं, इसलिए वे ‘भाव का संग्रह करते हुए (वस्तु-) कथन करते हैं तथा ऊपर के (समभिरूढ़ व एवंभूत-ये) दो नय (शब्दनय की अपेक्षा) विपरीत हैं और नियत रूप से भाव को (एक रूप में नहीं, अपितु भेद-दृष्टि रखकर) भिन्न रूप करते हैं // 77 // ] ___व्याख्याः- चूंकि संग्रहनय सामान्यग्राही अर्थात् सामान्यवादी है, इसलिए (वह) नाम, स्थापना व द्रव्य- इन तीनों निक्षेपों में प्रत्येक को संगृहीत करता है अर्थात् एकत्वरूप में ग्रहण करता है। जैसे- जो कोई भी नाममङ्गल हैं, उन सबको एक नाममङ्गल रूप में, इसी प्रकार अशेष (अनेक) स्थापना मङ्गलों को भी एक स्थापना मङ्गल रूप में, इसी प्रकार समस्त (अनेक) द्रव्य मङ्गलों को भी एक द्रव्यमङ्गल रूप में ग्रहण करता है- यह तात्पर्य है। किन्तु चूंकि व्यवहार नय विशेषग्राही है, इसलिए वह नाम आदि निक्षेपों को विशेषता यानी भेद-दृष्टि से (ग्रहण करना) चाहता है, अर्थात् वह समस्त नाम-मङ्गलों को पृथक्-पृथक् नाम-मङ्गल के रूप में ग्रहण करना चाहता है, इसी प्रकार स्थापना आदि निक्षेपों में भी समझ लेना चाहिए। शब्द और ऋजुसूत्र- ये दो नय तो पर्यायवाचक हैं, अर्थात् भले ही एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न पर्यायों से वाच्य-कथनीय हो, फिर भी वे दोनों नाम, स्थापना व द्रव्य निक्षेप- इन तीनों का परिहार Yo 120 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- ऋजुसूत्रशब्दनयौ पूर्वनयेभ्यो विशुद्धत्वात् नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेपं तावद् नेच्छतः, किन्त्वेकमेव भावनिक्षेपमभ्युपगच्छतः, केवलं समभिरूढैवंभूतनयाऽपेक्षयाऽविशुद्धत्वाद् विभिन्नानेकपर्यायाभिधेयत्वेऽपि भावनिक्षेपस्य संग्रहमेकत्वमेव प्रतिपद्येते, न भिन्नत्वमिति भावः। ततश्चैतन्मतेन यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलं प्रत्यूहोपशमकाऽनिष्टविघातकृद्विघ्नापहरणादिशब्दानामपि तदेव वाच्यम, न भिन्नम, इति तात्पर्यम्। 'उवरिमया विवरीआ-इत्यादि'। उपरितनौ तु समभिरूद्वैवंभूतौ नयौ ऋजुसूत्र-शब्दनयाऽपेक्षया विपरीतौ, भिन्नानेकपर्यायाऽभिधेयस्य भावस्यैकत्वं नेच्छतः, किन्तु भिन्नत्वमभ्युपगच्छतः। तथाहि- समभिरूढमतेनाऽन्यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलम्, अन्यच्च प्रत्येकं प्रत्यूहोपशमकादिपर्यायवाच्यम्। एवम्भूतस्याऽप्येवमेव, केवलमयं पूर्वस्माद् विशुद्धत्वादेकपर्यायाभिधेयमपि भावमङ्गलं भावमङ्गलकार्यं कुर्वदेव मन्यते, नाऽन्यदा, यथा धर्मोपकरणान्वितः सम्यक्चारित्रोपयोगे वर्तमानः साधुरिति। तदेवमृजुसूत्र-शब्दनयाऽभ्युपगमापेक्षया विपरीताभ्युपगमपरत्वाद् विपरीतावेतौ ।'तोत्ति'-तस्माद् भावं भावमङ्गलादिकमर्थं नियतं निश्चितं पर्यायभेदा भिन्त:- भेदेनेच्छत-इत्यर्थः, यदि हि पर्यायभेदेऽपि वस्तुनो न भेदः, तर्हि घट-पटादीनामपि स न स्यादित्यादियुक्तेः पर्यायभेदेन भिन्नमेव भावमङ्गलमभ्युपगच्छत इति भावः // इति गाथाद्वयार्थः // 76 // 77 // कर, एकमात्र भाव यानी भावनिक्षेप का संग्रहण करते हैं अर्थात् अभिन्न व एकत्व के साथ वस्तु का कथन-प्रतिपादन करते हैं। तात्पर्य यह है कि पूर्व नयों से ऋजुसूत्र व शब्द नय -ये दोनों नय विशुद्ध हैं, इसलिए नाम, स्थापना व द्रव्य- इन तीन निक्षेपों को वे (स्वीकार करना) नहीं चाहते, किन्तु एकमात्र भावनिक्षेप को ही. (स्वीकार करना) चाहते हैं। किन्तु समभिरूढ़ व एवंभूतनय की अपेक्षा से अविशुद्ध होने के कारण. अनेक पर्यायों के कथन करने योग्य भाव निक्षेप का, उसका संग्रह यानी एकत्व के साथ ही प्रतिपादन करते हैं, अर्थात् भिन्नता का प्रतिपादन नहीं करते हैं। इस प्रकार इन दोनों के मत में विघ्न के उपशमन, अनिष्टविघातक व विघ्न-अपहर्ता इत्यादि विविध शब्दों से जो एक ही अर्थ वाच्यकथनीय होता है, वह (एक) भावमङ्गल ही (अनेक) मङ्गल शब्दों का वाच्य है, भिन्न-भिन्न नहीं- यह तात्पर्य है। ऊपर के जो दो, समभिरूढ़ व एवंभूत नय हैं, वे ऋजूसूत्र व शब्दनय की तुलना में विपरीत हैं, अर्थात् वे विभिन्न अनेक पर्यायों से वाच्य होने वाले भाव की एकता नहीं (ग्रहण करना) चाहते, किन्तु उनमें भिन्नता ही स्वीकारते हैं। जैसे कि समभिरूढ़ नय के मत में मङ्गलशब्द से वाच्य भावमङ्गल कुछ और (पृथक) है और प्रत्यूह-उपशमक (विघ्न-शमक) आदि विभिन्न (पृथक्-पृथक्) पर्यायों के, और उनमें से प्रत्येक के वाच्य भिन्न-भिन्न (पृथक्-पृथक्) हैं। एवंभूत नय का भी यही मत है, केवल यह पूर्व नय से विशुद्ध होने से, एक पर्याय से वाच्य भावमङ्गल को भी, तभी मान्य करता है जब वह भावमङ्गल (वर्तमान में) किया जा रहा हो, अन्य को नहीं, जैसे वह 'धर्मोपकरण से युक्त सम्यक् चारित्र उपयोग में वर्तमान साधु' को ही भावमङ्गल रूप से मानता है। इस प्रकार ऋजूसूत्र व शब्द नय की मान्यता को यदि दृष्टि में रखें तो उनसे विपरीत मान्यता के कारण (समभिरूढ़ व एवंभूत नय-) ये दोनों विपरीत हैं। इसलिए ये भावमङ्गल आदि अर्थ में भी ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 121 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमवसितं प्रासङ्गिकम्। प्रकृतमुच्यते, तच्चेदम्- पूर्वं नोआगमतो भावमङ्गलं नोशब्दस्य सर्वनिषेधवचनत्वे विशुद्धः क्षायिकादिर्भाव उक्तः, मिश्रवचनत्वे तस्य ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपयोगः, एकदेशवचनत्वे पुनस्तस्याऽर्हन्नमस्कारादिज्ञानक्रियाविमिश्रपरिणामः प्रोक्तः। सांप्रतं नो-शब्दस्यैकदेशवाचित्वे नोआगमतो भावमङ्गलं ज्ञानपञ्चकरूपा नन्द्यपि भवतीति दर्शयन्नाह मङ्गलमहवा नन्दी चउव्विहा मङ्गलं च सा नेया। दव्वे तूरसमु ओ भावम्मि य पञ्च नाणाई॥७८॥ [संस्कृतच्छाया:- मङ्गलमथवा नन्दी चतुर्विधा मङ्गलं च सा ज्ञेया। द्रव्ये तूर्यसमुदयो भावे च पञ्च ज्ञानानि // ] सूत्रस्य सूचकत्वाद् नोआगमतो भावमङ्गलस्यैव च प्रस्तुतत्वाद् मङ्गलशब्देनेह नोआगमतो भावमङ्गलमिति द्रष्टव्यम्। अथवा-शब्दस्तु पूर्वोक्तपक्षत्रयापेक्षया विकल्पार्थः, ततश्चायमर्थ:- यदि वा नोआगमतो भावमङ्गलमन्यद् द्रष्टव्यम्। किं तत्?, इत्याह पर्याय-भेद के कारण, उन-उन वस्तुओं में भी निश्चित रूप से भेद करते हैं यानी भेद के साथ चाहते हैं। यदि पर्याय-भेद होने पर भी वस्तु में भेद न माना जाय तो घट-पट आदि में भी भेद न होगाइत्यादि युक्तियों के आधार पर पर्याय-भेद से भावमङ्गल को भी (ये नय) भिन्न मानते हैं- यह तात्पर्य है। यह गाथा-द्वय का अर्थ पूर्ण हुआ !76-77 // (भावमङ्गल रूपनन्दी) __इस प्रकार प्रासंगिक रूप से जो कहना था, वह कह दिया गया। अब प्रस्तुत विषय पर आ रहे हैं। पहले 'नो-आगम से भावमङ्गल' का कथन किया, उसमें 'नो' शब्द को सर्व-निषेध का वाचक बता कर विशुद्ध क्षायिक आदि भाव को 'नो आगम से भावमङ्गल' का निरूपण किया। फिर, 'नो' शब्द को मिश्र वचन के अर्थ में कहकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र उपयोग को 'नो आगम से भावमङ्गल' कहा। इसके बाद, नो शब्द को एकदेश अर्थ में प्रयुक्त बता कर, अर्हन्त को नमस्कार किये बिना ज्ञान व क्रिया दोनों से मिश्रित परिणाम को ही 'नो आगम से भावमङ्गल' कहा / अब 'नो' शब्द को एकदेश वाचक अर्थ में प्रयुक्त मानकर, पांच ज्ञान रूप नन्दी भी 'नो आगम से भावमङ्गल' है- ऐसा (आगे की गाथा में) बता रहे हैं 78 // मङ्गलमहवा नन्दी, चउविहा मङ्गलं च सा नेया। दव्वे तूरसमुदओ भावम्मि य पञ्च नाणाई॥ [(गाथा-अर्थ) अथवा नोआगम से भावमङ्गल रूप नन्दी है और वह मङ्गल की तरह चार प्रकार की है। द्रव्यनन्दी में तूर्य (वाद्य) का समुदाय, और भावनन्दी में पांच ज्ञान (समाहित, परिगणित) हैं।] व्याख्याः - यहां 'मङ्गल' शब्द से 'नो-आगम से भावमङ्गल' अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि 'भावमङ्गल' का ही प्रकरण है और सूत्र मात्र सूचक होता है (अर्थात् सूत्र द्वारा संक्षेप में सूचना दी जाती है, अतः यहां 'मङ्गल' पद भावमङ्गल का सूचक है)। (गाथा में प्रयुक्त) 'अथवा' यह -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - ---- Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नंदी'नन्दनं नन्दी, नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भव्यप्राणिनोऽनयेति वा नन्दी, इयं च सूत्रे सामान्योक्तावपि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरिह ज्ञानपञ्चकरूपा गृह्यते। सामान्यरूपेण तु चिन्त्यमानाऽसौ मङ्गलवद् नामादिचतुर्विधा भवति। एतदेवाह- 'चउव्विहेत्यादि'। तत्र 'नन्दी' इति यत् कस्यचिद् नाम क्रियते सा नामनन्दी। अक्षादिषु स्थापिता स्थापनानन्दी। द्रव्यनन्दी तु द्विविधाआगमतः, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतो नन्दीपदार्थज्ञोऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञ-भव्यशरीर-उभयव्यतिरिक्ता द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकारस्तूर्यसमुदयः, तद्यथा "भंभा-मुगुन्द-मद्दल-कडंब-झल्लरि-हुडुक्क-कंसाला। काहल-तलिमा वंसो संखो पणवो य बारसमो"॥ [भम्भा-मुकुन्द-मर्दल-कडम्ब-झल्लरी-हुडुक्क-कंसालाः। काहल-तलिमौ वंशः शंखः पणवश्च द्वादशः॥] इह च 'दव्वे तूरसमुदओ' इत्यनेन ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यनन्दी सूत्रेऽपि दर्शिता, नामनन्द्यादिस्वरूपं तु पूर्वोक्तनाममङ्गलाद्यनुसारेण सुज्ञेयत्वाद् नोक्तमिति। शब्द पूर्वोक्त तीन पक्षों से अन्य विकल्प का वाचक है, जिससे (फलित) अर्थ इस प्रकार होगाअथवा 'नोआगम से भावमङ्गल' (पूर्वोक्त पक्षों से पृथक) अन्य भी है, वह क्या है? इस शंका के समाधान हेतु कहा- नन्दी। जो नन्दन (समृद्धिदायक) है वह 'नन्दी' होती है, अथवा जिससे भव्य प्राणी संवर्द्धित होते हैं, समृद्धि प्राप्त करते हैं- वह (भी) नन्दी है। यद्यपि 'नन्दी' का सूत्र में सामान्य रूप से कथन कर भी दिया गया है, तथापि 'व्याख्यान से विशेष का ज्ञान होता है' इस उक्ति के अनुसार, नन्दी शब्द से पांच ज्ञानों का ग्रहण किया जाना चाहिए। सामान्य रूप से विचार करें तो नन्दी भी 'मङ्गल' की तरह (नामनन्दी आदि भेदों से) चार प्रकार की है, इसी बात को 'चतुर्विधा' आदि कथन से कहा गया है। - इनमें जिस किसी का 'नन्दी' यह नाम रख दिया जाय, वह 'नामनन्दी' है। मोहरे, पाशे आदि में स्थापित 'स्थापनानन्दी' है। द्रव्यनन्दी तो दो प्रकार की है- (1) आगम से, और (2) नो आगम से। उनमें 'आगम से (द्रव्य) नन्दी' है- नन्दीपदार्थ का ज्ञाता, तत्सम्बन्धी उपयोग से रहित व्यक्ति। इसी प्रकार 'नो आगम से द्रव्यनन्दी' है- (नन्दी पदार्थ के) ज्ञाता का शरीर, तथा भविष्य में ज्ञाता होने वाला बालक। इन दोनों से अतिरिक्त द्रव्यनन्दी है- बारह प्रकार के वाद्यों का समूह जो निम्नलिखित रूप में इस प्रकार कहे गए हैं भंभा (वाद्य-विशेष), मुकुन्द (ढोल), मर्दल (विशेष प्रकार का ढोल), कडम्ब (वाद्यविशेष) झल्लरी (झांझ), हुडुक्क (छोटे आकार का ढोल), कंसाल (झांझ, करताल), काहल (बड़ा ढोल), तलिम (ताल वाद्य), वंश (बांसुरी), और बारहवां पणव (वाद्यविशेष)। - द्रव्य (नन्दी) में तूर्यों (वाद्यों) का समुदाय- इस कथन से यह संकेत किया गया है कि ज्ञाता व भव्य शरीर से पृथक् द्रव्यनन्दी का सूत्र (गाथा) में कथन किया जा रहा है, नामनन्दी आदि का स्वरूप तो पूर्वकथित नाम-मङ्गल के अनुसार सरलता से ज्ञेय है ही, इसलिए उसका निरूपण नहीं किया गया है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 123 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनन्द्यपि द्विधा- आगमतः, नोआगमतश्च। आगमतो नन्दिपदार्थज्ञस्तत्रोपयुक्तः। नोआगमतस्त्वाह- 'भावम्मि येत्यादि। भावे भावनन्द्यां विचार्यमाणायां पुनः 'नोआगमतो भावनन्दी' इति शेषः। का पुनरियम्?, इत्याह- पञ्च ज्ञानानि। आगमस्य ज्ञानपञ्चकैकदेशत्वात् नोशब्दस्य चेहाप्येकदेशवाचित्वादिति भावः / इयमेव चेह नोआगमतो भावमङ्गलत्वेन प्रस्तुतगाथादौ निर्दिष्टा // इति गाथार्थः॥७८ // कानि पुनस्तानि पञ्च ज्ञानानि?, इत्याह[नियुक्ति-गाथाः (1)] आभिणिबोहियनाणंसुयनाणंचेव ओहिनाणंच। तहमणपज्जवनाणं केवलनाणंच पंचमयं // 79 // [संस्कृतच्छाया:- आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं चैवावधिज्ञानं च। तथा मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं च पञ्चमकम्॥] भावनन्दी भी दो प्रकार की है- (1) आगम से, और (2) नो- आगम से / आगम से भावनन्दी है- नन्दी पदार्थ का ज्ञाता और तत्सम्बन्धी उपयोग से युक्त व्यक्ति। नो आगम से भावनन्दी का निरूपण करने हेतु कहा- भाव (नन्दी) में (पांच ज्ञान हैं)। भाव में यानी विचारणीय भाव नन्दी में, यहां (प्रसंग के औचित्य की दृष्टि से) 'नो आगम से भावनन्दी'- यह पद जोड़ना चाहिए। वह (नो आगम से भावनन्दी) क्या है? (उत्तर-) पांच ज्ञान (नो-आगम से भावनन्दी) हैं। 'नो' शब्द एकदेशवाची है। चूंकि आगम (श्रुत ज्ञान) पांच ज्ञानों के एकदेश (अंश) हैं, इसलिए पांच ज्ञानों का निरूपण करने वाली नन्दी- 'नो आगम से भावनन्दी' है, इसी का निरूपण आगे की गाथा (नियुक्ति) में किया गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 78 // [ज्ञान-पंचक] वे पांच ज्ञान कौन से हैं? इसके समाधान हेतु (नियुक्तिकार) कह रहे हैं 79 // आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव ओहिनाणं च / तह मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च पंचमयं // 1 // [(गाथा-अर्थः) आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और पांचवां केवलज्ञान है। Mar 124-------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिनिबोधिकज्ञानम्, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मनःपर्ययज्ञानम्, केवलज्ञानमिति पञ्च ज्ञानानि / एतानि च भाष्यकारो विस्तरतः स्वयमेव व्याख्यास्यति // 79 // तत्राऽऽभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्थं दर्शयन्नाह अत्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो। सो चेवाऽऽभिणिबोहिअमहव जहाजोगमाउजं // 8 // [संस्कृतच्छाया:- अर्थाभिमुखो नियतो बोधो यः स मतोऽभिनिबोधः। स चैवाभिनिबोधिकमथवा यथायोगमायोज्यम्॥] बोधनं बोधः, 'ऋगतौ' अर्यते गम्यते ज्ञायत इत्यर्थः, तस्याभिमुखस्तद्ग्रहणप्रवण:- अर्थबलाऽऽयातत्वेन तन्नान्तरीयकोद्भव इत्यर्थः, अयमभिशब्दस्याऽर्थो दर्शितः, एवंभूतश्च बोधः क्षयोपशमाद्यपाटवेऽनिश्चयात्मकोऽपि स्यात्, अतो नियतो निश्चित इति, निशब्देन विशिष्यते- रसाद्यपोहेन रूपमेवेदं' इत्यवधारणात्मक इत्यर्थः। उक्तं च "एवमवग्रहोऽपि निश्चितमवगृह्णाति, कार्यत उपलब्धेः" अन्यथाऽवग्रहकार्यभूतोऽपायोऽपि निश्चयात्मको न स्यादिति भावः। व्याख्याः - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और केवलज्ञान- ये पांच ज्ञान हैं। भाष्यकार स्वयं ही इन पांचों का व्याख्यान (आगे) करेंगे // 79 // इन (पांच ज्ञानों) में आभिनिबोधिक ज्ञान का शब्दार्थ बता रहे हैं Ikoll अत्याभिमुहो नियओ, बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो। सो चेवाऽऽभिणिबोहियमहव जहाजोगमाउज्जं // . [(गाथा-अर्थः) अर्थाभिमुख होते हुए जो नियत (संशयादि रहित) बोध है, वह 'अभिनिबोध' है। वही आभिनिबोधिक ज्ञान है। अथवा यथायोग्य (अर्थात् अन्य उचित व्युत्पत्तियों के अनुरुप) इसे नियोजित कर लेना चाहिए।] .. व्याख्या:- बोध यानी बोधन (वस्तु-ज्ञान)। 'अर्थ' इस पद की सिद्धि गत्यर्थक (ज्ञानार्थक) 'ऋ' धातु से हुई है, जो प्राप्त किया जाय यानी जाना जाय, वह 'अर्थ' है। उस अर्थ के प्रति अभिमुख यानी उस पदार्थ के ग्रहण या ज्ञान के प्रति समर्थ ज्ञान, इसमें 'अभि' उपसर्ग के सामर्थ्य से अर्थ हुआ- अर्थ-बल से उत्पन्न होने के कारण बिना किसी व्यवधान के प्रादुर्भूत होने वाला ज्ञान / ऐसा जो बोध होता है, वह (कभी-कभी) क्षयोपशम आदि निपुणता (की कमी या अभाव) के कारण अनिश्चयात्मक भी हो सकता है, अतः (उसका निराकरण करने हेतु) कहा- नियत यानी निश्चित / 'निबोध' पद में भी 'नि' उपसर्ग इसी निश्चितता को सूचित करता है, अर्थात् रस आदि अपोह का (निराकरण) करते हुए 'यह रूप ही है'- ऐसा 'अवधारण' (निश्चय रूप) ज्ञान- यह ज्ञान यहां (अभीष्ट) है। इसीलिए कहा भी है- 'इस प्रकार अवग्रह भी निश्चित अर्थ को ग्रहण करता है, क्योंकि 'कार्य' में (उस निश्चितता की) उपलब्धि होती है, अन्यथा अवग्रह (को अनिश्चित माना जाए तो उस) के कार्य 'उपाय' को भी अनिश्चयात्मक मानना पड़ेगा -यह भाव है। a ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 125 4 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- ननु नियतोऽर्थाभिमुख एव भवति, ततो नियतत्वविशेषणमेवाऽस्तु. किमाभिमुख्यविशेषणेन? / तदयुक्तम्, द्विचन्द्रज्ञानस्य तैमरिकं प्रति नियतत्वे सत्यप्यर्थाभिमुख्याभावादिति। एवं च सति अर्थाभिमुखो नियतो यो बोधः स तीर्थकर-गणधरादीनामभिनिबोधो मतोऽभिप्रेतः। 'सो चेवाभिणिबोहियमिति' स एवाऽभिनिबोध एवाऽऽभिनिबोधिकम्, विनयादिपाठादभिनिबोधशब्दस्य "विनयादिभ्यष्ठक" [पा.-५/४/३४] इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययः, यथा विनय एव वैनयिकमिति / अहव जहाजोगमाउजंति' अथवा नेह स्वार्थिकप्रत्ययो विधीयते, किन्तु यथायोगं यथासंबन्धमायोजनीयं- घटमानसंबन्धानुसारेण स्वयमेव वक्तव्यमित्यर्थः, . तद्यथा- अर्थाभिमुखे नियते बोधे भवमाभिनिबोधिकम, तेन वा निर्वृत्तं, तन्मयं वा, तत्प्रयोजनं वाऽऽभिनिबोधिकम, तच्च तज्ज्ञानं चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानम् // इति गाथार्थः // 8 // (शंका-) 'नियत' तो वही होता है जो अर्थाभिमुख हो, तो फिर 'नियत' इतना ही कहना पर्याप्त था, 'अभिमुख' यह विशेषण पृथक् क्यों दिया गया? (उत्तर-) आपका प्रश्न युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि (यदि 'अर्थाभिमुख' यह नहीं कहते तो) तैमरिक (तैमरिक यानी आंख में अंधेरा आने आदि के दोष से युक्त) व्यक्ति को जैसे आकाश में दो चन्द्र दिखाई देते हैं, वहां नियतता होते हुए भी 'अर्थाभिमुखता' नहीं है, [अर्थात् वहां दो चन्द्र रूप अर्थ वस्तुत हैं ही नहीं, अतः उनके प्रति अभिमुखता कैसे हो सकती है?] अतः वहां भी सत्य 'ज्ञान' की अतिव्याप्ति होने लगेगी। इस प्रकार अर्थाभिमुख और नियत दोनों विशेषणों से युक्त ज्ञान ही तीर्थंकर-गणधर आदि द्वारा 'अभिनिबोध' ज्ञान रूप से स्वीकृत है। वह अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक है। अभिनिबोध शब्द का (संस्कृत व्याकरण शास्त्र में) विनयादि गण में पाठ किया गया है। (विनय और वैनयिक- इन दोनों का एक ही अर्थ है। 'विनय' शब्द से, उसके स्वाभाविक अर्थ में ही, उक्त सूत्र से 'ठक्' प्रत्यय होता है और 'ठक्' के स्थान पर 'इक', तथा विनय के 'इ' को वृद्धि- 'ऐ' होकर वैनयिक' शब्द सिद्ध किया जाता है।) इसलिए जैसे 'विनय ही वैनयिक' के अनुसार 'अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक' कहा जाता है। यानी अभिनिबोध पद से स्वार्थ में 'विनयादिभ्यः ठक्' (पाणिनिसूत्र-5/4/34) इस सूत्र से ठक् प्रत्यय होकर 'आभिनिबोधिक' पद की सिद्धि होती है। अथवा यथायोग्य नियोजित करना चाहिए- अर्थात् यहां स्वार्थिक प्रत्यय न मान कर भी आभिनिबोधिक पद की यथायोग्य, अर्थात् जैसा घटित होता दिखाई दे, तदनुरूप स्वयं सिद्धि की जा सकती है, जैसे- अर्थाभुिख नियत बोध 'अभिनिबोध' में होने वाले ज्ञान को आभिनिबोधिक कहा जा सकता है (यहां 'तत्र भवः' इस सूत्र से 'वहां होने वाला' इस अर्थ में प्रत्यय माना गया है)। इसी प्रकार, अभिनिबोध द्वारा निर्मित, या तन्मय (अभिनिबोधमय) या अभिनिबोध रूप प्रयोजन वाला- इन अर्थों में भी प्रत्यय करते हुए 'आभिनिबोधिक' पद की सिद्धि की जा सकती है, और उसे 'ज्ञान' का विशेषण माना जा सकता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 8 // a 126 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमाभिनिबोधिकशब्दवाच्यं ज्ञानमुक्तम्। अथवा ज्ञानम्, क्षयोपशमः, आत्मा वा तद्वाच्य इति दर्शयन्नाह तं तेण तओ तम्मि व सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं। तं तेण तओ तम्मि व सुणेइ सो वा सुअं तेणं॥८१॥ [संस्कृतच्छाया:- तद् तेन ततस्तस्मिन् वा स वाऽभिनिबुध्यते ततो वा तत् / तत् तेन ततस्तस्मिन् वा शृणोति स वा श्रुतं तेन।] 'तंति' आभिमुख्येन निश्चितत्वेनाऽवबुध्यते संवेदयते आत्मा तदित्यभिनिबोधोऽवग्रहादिज्ञानं, स एवाऽऽभिनिबोधिकम्। अथवा आत्मा तेन प्रस्तुतज्ञानेन, तदावरणक्षयोपशमेन वा करणभूतेन घटादि वस्त्वभिनिबुध्यते, तस्माद् वा प्रकृतज्ञानात्, क्षयोपशमाद्वाऽभिनिबुध्यते, तस्मिन् वाऽधिकृतज्ञाने, क्षयोपशमे वा सत्यभिनिबुध्यतेऽवगच्छतीत्यभिनिबोधो ज्ञानं, क्षयोपशमो वा। 'सो वाऽभिणिबुज्झएत्ति' अथवाऽभिनिबुध्यते वस्त्वभिगच्छतीत्यभिनिबोधः / असावात्मैव, ज्ञान-ज्ञानिनोः कथञ्चिदव्यतिरेकादिति, स एवाऽऽभिनिबोधिकम्। इस प्रकार, 'आभिनिबोधिक' इस शब्द का अर्थ बताया गया। अथवा ज्ञान, क्षयोपशम या . आत्मा -ये भी 'आभिनिबोधिक' शब्द के अर्थ हैं- इसका प्रतिपादन (आगे की गाथा में) कर रहे हैं // 81 // तं तेण तओ तम्मि व सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं / तं तेण तओ तम्मि व सुणेइ सो वा सुअं तेणं // . [(गाथा-अर्थः) अथवा उसको, उसके द्वारा, उससे (अनन्तर), उसके होने से या उसके होने पर (आत्मा) जानता है, या (आत्मा द्वारा) वस्तु जानी जाती है- इस कारण से वह 'आभिनिबोधिक' ज्ञान (कहा जाता है। इसी प्रकार, उसको, उसके द्वारा, उर के होने से या उसके होने पर (आत्मा द्वारा) सुना जाता है या (आत्मा) सुनता है- इस कारण से वह 'श्रुत' (कहा जाता) है।] - व्याख्याः- (तत् तेन...) (ज्ञेय पदार्थ की ओर) अभिमुखता व निश्चयात्मकता के साथ आत्मा जिसका संवेदन करता है-उस अवग्रह आदि बान को 'अभिनिबोध' और उसे ही 'अ (रूप में, पूर्व गाथा द्वारा) कहा गया है। अथवा (पूर्वोक्त व्युत्पत्ति के अतिरिक्त भी व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं, जैसे-) उस प्रस्तुत (पूर्व वर्णित) ज्ञान या तदावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम रूपी करण (साधन) द्वारा, या उस (प्रकृत ज्ञान या तत्सम्बन्धी क्षयोपशम) के (अव्यवहित) अनन्तर, या उसके होने पर आत्मा घट आदि वस्तु को जानता है, वह ज्ञान या तत्सम्बन्धी क्षयोपशम (भी) 'अभिनिबोध' (कहा जाता) है। (स वा अभिनिबुध्यते) अथवा जो वस्तु को जानता है, वह अभिनिबोध' है, वह (ज्ञान) भी आत्मा ही है, क्योंकि ज्ञान व ज्ञानी में अभेद है, अतः वह (आत्मा) भी 'आभिनिबोधिक' (शब्द का वाच्य) है। --------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 127 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तओवातमिति' -न केवलं'अत्थाभिमुहो नियओ' इत्यादिव्युत्पत्त्याऽऽभिनिबोधिकमुक्तम्, किन्तु यतः'तं तेण तओ तम्मि' इत्यादि व्युत्पत्त्यन्तरमस्ति, ततोऽपि कारणात् तदाभिनिबोधिकमुच्यत इत्यर्थः। नन्वात्म-क्षयोपशमयोराभिनिबोधिकशब्दवाच्यत्वे ज्ञानेन सह कथं समानाधिकरणता स्यात्?। सत्यम्, किन्तु ज्ञानस्याऽऽत्माश्रयत्वात्, क्षयोपशमस्य च ज्ञानकारणत्वादुपचारतोऽत्रापि पक्षे आभिनिबोधिकशब्दो ज्ञाने वर्तते, ततश्चाऽऽभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानमिति समानाधिकरणसमास इत्यदोषः। अथ श्रुतव्युत्पत्तिमाह- 'तं तेणेत्यादि' श्रूयत आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः, अथवा श्रूयतेऽनेन श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमेन, श्रूयते तस्मात् क्षयोपशमात्, श्रूयते तस्मिन् क्षयोपशमे सतीति श्रुतं क्षयोपशमः। 'सुणेइ सो वत्ति' ति शृणोतीति श्रुतम्, असावात्मेति वा व्युत्पत्तिरित्यर्थः। 'सुयं तेणेति' येनैवं व्युत्पत्तिस्तेन कारणेन श्रुतमुच्यत इत्यर्थः। इह च शब्दस्य श्रुतज्ञानकारणत्वात् क्षयोपशमस्य तद्धेतुत्वादात्मनश्च कथञ्चित् तदव्यतिरेकादुपचारतः श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् // इति गाथार्थः // 81 // “(ततो वा तत्) यहां 'वा' (अथवा) इस पद (से पूर्वोक्त व्युत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य विकल्पों के उपस्थापन का संकेत है, वह इस प्रकार) से सूचित है- (अभि=) अर्थाभिमुख, (नि=) जो नियत (निश्चित) बोध है- वह अभिनिबोध (या आभिनिबोधिक) है"-ऐसी व्युत्पत्ति करते हुए (पूर्व गाथा में) आभिनिबोधिक शब्द का जो अर्थ बताया गया है, उतना ही अर्थ नहीं है, अपितु अन्य व्युत्पत्तियां भी हैं, और उसके कारण या उसके आधार पर भी 'आभिनिबोधिक' का निर्वचन किया जाता है। ___ (यहां शंका की जा रही है-) यदि आभिनिबोधिक शब्द के ये दो अर्थ हैं- आत्मा व क्षयोपशम, तो ज्ञान के साथ उनकी समानाधिकरणता कैसे सम्भव है (और तब आभिनिबोधिक ज्ञान यह प्रयोग कैसे होगा)? इस शंका का समाधान इस प्रकार है- आपका कथन ठीक है, किन्तु चूंकि आत्मा ज्ञान का आश्रय है और क्षयोपशम भी ज्ञान का कारण है, इसलिए उपचार से ज्ञान को भी आभिनिबोधिक पद से कहा जाता है। फलस्वरूप, (समानाधिकरणता के कारण) आभिनिबोधिक जो ज्ञान- यानी आभिनिबोधिक ज्ञान -यह कथन निर्दोष (सिद्ध होता) है। . अब श्रुत की व्युत्पत्ति की जा रही है- (तत् तेन) जो आत्मा द्वारा सुना जाए, उस शब्द को 'श्रुत' कहते हैं। अथवा जिससे सुना जाय, या जिसके (अव्यवहित अनन्तर) होने से सुना जाय, वह श्रुतज्ञानावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम भी श्रुत (कहा जाता) है। (श्रृणोति सः वा) अथवा जो सुनता है, वह यानी आत्मा श्रुत है- यह भी व्युत्पत्ति है, यह तात्पर्य है। (श्रुतं तेन-) चूंकि उक्त व्युत्पत्ति है। इस कारण से (आत्मा या क्षयोपशम को) श्रुत कहा गया है। शब्द श्रुत-ज्ञान का कारण है और (श्रुतज्ञानावरणसम्बन्धी) क्षयोपशम भी ज्ञान में हेतु है, और ज्ञान व आत्मा का कथंचिद् अभेद है, इस दृष्टि से उपचार से ज्ञान को 'श्रुत' कह दिया जाता है और श्रुत जो ज्ञान वह श्रुतज्ञान- यह कथन संगत होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 81 // Ma 128 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाऽवधेर्युत्पादनार्थमाह तेणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहित्ति // 82 // [संस्कृतच्छाया:- तेनावधीयते तस्मिन् वाऽवधानं ततोऽवधिः स च मर्यादा। यत् तेन द्रव्यादि परस्परं जानाति ततोऽवधिः॥] ततः कारणादवधिरित्युच्यते। यतः किम्?, इत्याह- 'तणावहीयए त्ति' अवशब्दस्याऽव्ययत्वेनाऽनेकार्थत्वादधोऽधो विस्तृतं धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेन ज्ञानेनेत्यवधिः, अथवा अव-मर्यादया एतावत्क्षेत्रं पश्यन्, एतावन्ति द्रव्याणि, एतावन्तं कालं पश्यतीत्यादिपरस्परनियमितक्षेत्रादिलक्षणया धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेनेत्यवधिः। तम्मि व त्ति' अथवा अवशब्दस्यार्थद्वयं तथैवाऽवधीयते जीवेन तस्मिन् सति वस्त्वित्यवधिः। अकारस्य लुप्तस्याऽदर्शनात् 'अवहाणं' ति वा शब्दोऽनुवर्तते, ततश्चाऽथवाऽवधानमवधिः साक्षादर्थपरिच्छेदनमित्यर्थः, अथवाऽवधीयते तस्माज्जीवेन साक्षाद् वस्त्वित्यवधिरित्युपलक्षणव्याख्यानात् स्वयमेव द्रष्टव्यम्। सो यमज्जायत्ति' स चोक्तस्वरूपोऽवधिर्मर्यादयाऽर्थपरिच्छेदने प्रवर्तमानत्वादुपचारतो मर्यादा। एतदेवाह- 'जं तीए इत्यादि'। पुंलिङ्गोप्यवधिशब्दः प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वेन निर्दिष्टः। अब ‘अवधि' (शब्द) की व्युत्पत्ति का कथन (निर्वचन) कर रहे हैं 82 // तेणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। ___जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहित्ति // [(गाथा-अर्थः) जिसके द्वारा या जिसके होने पर 'अवधान' (ठहराव, सीमा) हो- वह 'अवधि' है जो मर्यादा रूप (अर्थ को वहन करता) है। अतः (चूंकि) जो द्रव्यादि को परस्पर मर्यादा के साथ जानता है, इस कारण उसे 'अवधि' (ज्ञान) कहा जाता है।] व्याख्याः - इस कारण से 'अवधि' कहा जाता है। किस कारण से? उत्तर है- (तेन अवधीयते)अवधि में 'अव' यह अव्यय है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। यहां (ग्राह्य) अर्थ है- नीचे-नीचे विस्तृत। जिस ज्ञान से अव नीचे-नीचे विस्तृत रूप में, धि रूपी पदार्थ को जानता है, इसलिए उसे अवधि (ज्ञान) कहते हैं। अथवा, (अव=) यानी मर्यादित रूप में, -जैसे इतना (मर्यादितसीमित) क्षेत्र, इतने द्रव्य, या इतने कालपर्यन्त- इत्यादिरूप में नियत क्षेत्र आदि रूप में- (धि यानी) जिसके द्वारा 'रूपी' वस्तु जानी जाती है, वह अवधि (ज्ञान) है। (तस्मिन् वा-) अथवा अव शब्द के बताए गए दो अर्थों (मर्यादित, नीचे-नीचे विस्तृत) के अनुरूप, जिसके सद्भाव में जीव (आत्मा) द्वारा वस्तु जानी जाती है, वह अवधि है। (वाऽवधानम् इस पद में सन्धि-नियमों के अनुसार) अवधान के आदि अकार का लोप हो गया है। अवधान के बाद 'वा' (इस पद) की अनुवृत्ति की जाती है, इसलिए अर्थ होगाअवधि या अवधान, जिसका तात्पर्य है- साक्षात् अर्थ-बोध / पूर्ण वाक्यार्थ होगा- अथवा जिसके द्वारा जीव वस्तु को साक्षात् जानता है, वह अवधि है, इत्यादि अर्थ को प्रस्तुत उपलक्षणात्मक व्याख्यान के ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 129 र Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्च यद् यस्मात् कारणात् तेनाऽनन्तरोक्तेनाऽवधिना जीवो द्रव्यादि 'मुणति' जानाति। कथंभूतं सत्?, इत्याह- परस्परं नियमितमिति शेषः। वक्ष्यति च अंगुलमावलिआणं भागमसंखेज दोसु संखेजा। अंगुलमावलिअन्तो आवलिआ अंगुलपुहत्तं॥ हत्थम्मि मुहुत्तन्तो दिवसंतो गाउयम्मि बोधव्वे" [अङ्गलावलिकयोर्भागमसंख्येयं द्वयोः संख्येयौ। अङ्गु लावलिकान्तरावलिका अङ्गु लपृथक्त्वम् // हस्ते मुहूर्तान्तर्दिवसान्तर्गव्यूते बोद्धव्यः] इत्यादि। तस्मादनया परस्परोपनिबन्धलक्षणया मर्यादया यतो जीवस्तेनाऽवधिना द्रव्यादिकं 'मुणति' (जानाति), ततोऽवधिरप्युपचाराद् . मर्यादेति भावः। अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम्, इति प्रक्रमलब्धेन ज्ञानशब्देन समासः॥ इति गाथार्थः // 82 // . आधार पर स्वयं ही समझ लेना चाहिए। (स च मर्यादा-) उपर्युक्त स्वरूप वाला अवधि ज्ञान मर्यादा के साथ अर्थ-ज्ञान में प्रवृत्त होता है, इसलिए उसे ज्ञान को भी उपचार से मर्यादा कहा जाता है -इसी बात को 'यत् तेन' इत्यादि तीसरे चरण द्वारा यहां बताया गया है। अवधि शब्द पुल्लिङ्ग है, फिर भी चूंकि प्राकृत में प्रयुक्त होने से लिङ्ग-विपर्यय भी होता है, इस कारण से यहां वह स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार, इस पूर्वोक्त स्वरूप वाले अवधि द्वारा जीव चूंकि द्रव्य आदि को जानता है इसलिए उसे अवधि कहते हैं। किस रूप में द्रव्य आदि को जानता है? इसके उत्तर में कहा- परस्पर नियमित मर्यादित रूप में जानता है। इसी सम्बन्ध में आगे भाष्यकार द्वारा इस ग्रन्थ की 608 आदि गाथाओं द्वारा कहा गया है "क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल के असंख्यातवें भाग को देखता हुआ, काल की अपेक्षा से आवलिका के असंख्यात भाग तक अवधिज्ञानी देखता है। अंगुल के संख्यात भाग को देखता हुआ, काल की अपेक्षा से आवलिका के संख्यात भाग पर्यन्त देखता है। अंगुल प्रमाण सम्पूर्ण क्षेत्र को देखता हुआ काल की दृष्टि से आवलिका के अन्तर्भाग पर्यन्त देखता है। आवलिका के पूर्ण काल तक देखने वाला क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-पृथक्त्व [पृथक्त्व= 2 से 9 तक की संख्या को देखता है। हस्तप्रमाण क्षेत्र को देखता हुआ, अवधिज्ञानी काल की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त तक देखता है। इत्यादि। अतः तात्पर्य यह है कि इस परस्पर-निबद्धता रूप मर्यादा के साथ चूंकि जीव उक्त अवधि से द्रव्य आदि को जानता है, इसलिए अवधि को भी उपचार से 'मर्यादा' इस नाम से अभिहित किया गया है। अवधि ही है ज्ञान, वह हुआ अवधिज्ञान / इस प्रकार अवधि व ज्ञान में परस्पर समानाधिकरणता की संगति होने से प्रकरणगत ज्ञान शब्द के साथ अवधि शब्द का कर्मधारय समास होना उपयुक्त है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 82 // V 130 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मन:पर्यायज्ञानविषयां व्युत्पत्तिमाह पजवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा। तस्स व पज्जायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं // 83 // [संस्कृतच्छाया:- पर्यवनं पर्ययनं पर्यायो वा मनसि मनसो वा। तस्य वा पर्यायादिज्ञानं मन:पर्यवं ज्ञानम्।] 'पज्जवणं ति''अव गत्यादिषु' इति वचनादवनं गमनं वेदनमित्यवः, परिः सर्वतोभावे, पर्यवनं समन्तात् परिच्छेदनं पर्यवः / काऽयम्? इत्याह- 'मणम्मि मणसोवत्ति' मनसि मनोद्रव्यसमुदाये ग्राहो, मनसो वा ग्राह्यस्य संबन्धी पर्यवो मनःपर्यवः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम्। अथवा 'पज्जयणं ति''अय वय मय'- इत्यादिदण्डकधातुः, अयनं गमनं वेदनमित्ययः, परिः पर्ययनं सर्वतः परिच्छेदनं पर्ययः। क्व पनरसौ?. इत्याह- 'मणम्मि मणसो व त्ति' मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य संबन्धी पर्ययो मनःपर्ययः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानम्। पजाओ वत्ति' अथवा 'इण् गतौ' अयनं, आयः, लाभः, प्राप्तिरिति पर्यायाः, परिस्तथैव, समन्तादायः पर्यायः। व?, इत्याह मणम्मि मणसो वत्ति' मनसि ग्राहो, मनसो वा ग्राह्यस्य पर्यायो मनःपर्यायः, संचासौ ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम्। एवं तावज्ज्ञानशब्देन सह सामानाधिकरण्यमङ्गीकृत्योक्तम्॥ - अब मनःपर्यव ज्ञान से सम्बन्धित व्युत्पत्ति का कथन कर रहे हैं 83 // . पज्जवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा। तस्स व पज्जायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं // [(गाथा-अर्थः) मन में, या मन से सम्बन्धित पर्यवन, पर्ययन या पर्याय को, अथवा (उक्त) पर्याय आदि के ज्ञान को 'मनःपर्यव ज्ञान' कहा जाता है।] व्याख्याः- (पर्यवनम्-) अव धातु गति आदि अर्थों में प्रयुक्त होती है- इस व्याकरण-सम्बन्धी वचन से अवन या अव का अर्थ है- गमन, ज्ञान, वेदन / परि उपसर्ग सम्पूर्ण अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः पर्यवन या पर्यव का अर्थ है- सम्पूर्ण रूप में जान लेना / यह कहां संभव, उत्पन्न होता है? इसके उत्तर में कहा- मनसि, मनसो वा / मन में यानी ग्राह्य ज्ञानविषय मन-द्रव्यरूपी समुदाय में, अथवा मन का यानी ग्राह्य मन द्रव्य-समुदाय का जो पर्यय है, उसे कहते हैं- मनःपर्यव / वह ज्ञान रूप (ही) है, इसलिए उसे मनःपर्यव ज्ञान कहा जाता है। अथवा पर्ययनम्- अय, वय, मय इत्यादि दण्डक पंक्तिबद्ध धातुपाठ में पठित धातुओं में जो अय धातु है, उससे निष्पन्न हैं- अयन और अय शब्द, जिनके भी वही अर्थ हैं- गमन, ज्ञान, वेदन / परि= सर्वतोभावेन, सम्पूर्ण रूप से, तो पर्ययन व पर्यय का अर्थ हुआ-सम्पूर्ण रूप से होने वाला ज्ञान / वह ज्ञान कहां समुत्पन्न या सम्बद्ध होता है? इसलिए कहा- मनसि, मनसः वा- ग्राह्य मन में, या मन से सम्बन्धित होकर उत्पन्न होने वाली पर्यय, वही ज्ञान है, इसलिए उसे मनःपर्यय ज्ञान कहा जाता है। पर्यायो वा- अथवा इण् गतौ इस गत्यर्थक 'इ' धातु से आय शब्द की निष्पत्ति होती है, जिसके पर्याय हैं- अयन, लाभ, प्राप्ति / परि का अर्थ वही 'सर्वतोभावेन' है। अतः सम्पूर्ण रूप से होने वाली जो आय या प्राप्ति है- वह पर्याय है। वह कहां होती ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 131 की Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ वैयधिकरण्यमङ्गीकृत्याह-'तस्य वेत्यादि / वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, तस्येति मनसः, पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययाः, धर्मा इत्यनर्थान्तरमिति; आदिशब्दात् पर्यव-पर्ययपरिग्रहः, ततश्चायमर्थ:- अथवा तस्य मनसो ग्राहस्य संगन्धिनो बाहावस्तुचिन्तनानुगुणा ये पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययास्तेषां तेषु वा 'इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम्' इत्येवंरूपं ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं, मनःपर्ययज्ञानं चेति ज्ञानशब्देन सह व्यधिकरणः समासः। अत एव "पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं" इत्यत्र प्रायोग्रहणं करिष्यति॥ इति गाथार्थः॥८३॥ अथ केवलज्ञानविषयं शब्दार्थमाह केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च। पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं // 44 // [संस्कृतच्छाया:- केवलमेकं शुद्धं सकलमसाधारणमनन्तं च। प्रायश्च ज्ञानशब्दो नामसमानाधिकरणोऽयम्॥] . है? इसलिए कहा- मनसि, मनसो वा- अर्थात् वह पर्याय भी ग्राह्य मन में होती है अतः उसे मनःपर्याय कहते हैं, या मन-सम्बन्धी जो पर्याय, वह भी मनःपर्याय है। वह ज्ञानरूप है, अतः उसे मनःपर्याय ज्ञान कहा जाता है। यहां तक का कथन ज्ञान शब्द के साथ पर्याय या पर्ययन के सामानाधिकरण्य को दृष्टि में रखते हुए कहा गया है। ____ अब वैयधिकरण्य को स्वीकार कर (उसे दृष्टि में रखकर) कहा जा रहा है- तस्य वा-। यहां 'वा' शब्द पक्षान्तर (पूर्वोक्त से पृथक्- भिन्न मत) की सूचना दे रहा है। उसका यानी मन का पर्याय / पर्याय, पर्यव, पर्यय, धर्म- ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। पर्यायादिज्ञान इस पद में आए आदि पद से पर्यव व पर्यय का भी संग्रह होता है। इस प्रकार फलित अर्थ यह हुआ- अथवा उस ग्राह्य मन के सम्बन्धी- अर्थात् मन में होने वाले बाह्य वस्तु के चिन्तनरूप जो पर्याय, पर्यव या पर्यय हैं, उनका या उनमें इस व्यक्ति द्वारा 'यह' और 'इस प्रकार' सोचा गया है- इस रूप में जो ज्ञान है, वह मनःपर्याय ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान या मनःपर्यय ज्ञान है। इस प्रकार यहां ज्ञान शब्द से मनःपर्यय आदि का व्यधिकरण समास हुआ है। इसी दृष्टि से आगे की गाथा में प्रायः शब्द के साथ यह कथन किया जाने वाला है- 'प्रायः ज्ञानशब्द का ज्ञानसम्बन्धी नामों के साथ सामानाधिकरण्य है' // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 3 // अब 'केवल ज्ञान' सम्बन्धी व्युत्पत्ति कह रहे हैं 84 // केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च / पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं // [(गाथा-अर्थः) एक, शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारण और अनन्त (जो) ज्ञान (है, वह) केवलज्ञान' (कहा जाता) है। (उक्त पांचों ज्ञानों की व्युत्पत्तियों में) प्रायः ज्ञान शब्द की उन-उन नामों के साथ समानाधिकरणता है।] Ma 132 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलमिति व्याख्येयं पदम्। ततः केवलमिति कोऽर्थः?, इत्याह- एकमसहायमिन्द्रियादिसाहाय्यानपेक्षित्वात्, तद्भावे शेषच्छाद्मस्थिकज्ञाननिवृत्तेर्वा, शुद्धं निर्मलं सकलावरणमलकलङ्कविगमसंभूतत्वादिति। सकलं परिपूर्णं संपूर्णज्ञेयग्राहित्वात्, असाधारणमनन्यसदृशं तादृशाऽपरज्ञानाभावात्, अनन्तम्, अप्रतिपातित्वेनाऽविद्यमानपर्यन्तत्वात्, इत्येकादिष्वर्थेषु केवलशब्दोऽत्र वर्तते, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति समासः। आह- नन्वाभिनिबोधिकादीनि ज्ञानवाचकानि नामान्येव भाष्यकृता "अत्थाभिमुहो नियओ" इत्यादौ सर्वत्र व्युत्पादितानि, ज्ञानशब्दस्तु न क्वचिदुपात्तः, स कथं लभ्यते?, इत्याशङ्कयाह- 'पायं चेत्यादि / प्रक्रमलब्धो ज्ञानशब्द आभिनिबोधिकश्रुतादिभिर्ज्ञानाभिधायकैर्नामभिः समानाधिकरणः स्वयमेव योजनीयः, स च योजित एव, तद्यथा- आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च, श्रुतं च तज्ज्ञानं चेत्यादि। क्वचिद् वैयधिकरण्यसमासोऽपि संभवतीति प्रायोग्रहणम्। स च मनः पर्यायज्ञाने दर्शित एव, अन्यत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यः॥ इति गाथार्थः॥४४॥ . व्याख्याः- 'केवल' इस पद की व्याख्या अपेक्षित है। इसलिए (पहली जिज्ञासा यह है कि) 'केवल' इस पद का अर्थ क्या है? इसके उत्तर में कहा- (1) एक यानी असहाय (बिना किसी की सहायता से उत्पन्न), क्योंकि उसमें इन्द्रिय आदि की सहायता अपेक्षित नहीं होती। उस (ज्ञान) के होने पर शेष छद्मस्थ ज्ञान (मति, श्रुत आदि) निवृत्त हो जाते हैं, इसलिए वह 'एक' है। (2) वह शुद्ध है, क्योंकि समस्त आवरण रूपी मल-कलंक के विनष्ट हो जाने से वह निर्मल होता है। (3) वह ज्ञान 'सकल' है यानी परिपूर्ण है, क्योंकि वह सम्पूर्ण (व समस्त) ज्ञेय पदार्थों का (युगपद्- एक साथ) ग्राहक होता है। (4) वह असाधारण है क्योंकि उस जैसा कोई दूसरा ज्ञान नहीं होने से अनन्यसदृश हैं। (5) वह कभी नष्ट नहीं होता, और उसका कभी अन्त नहीं है, इसलिए वह 'अनन्त' है। इस प्रकार एक, शुद्ध आदि अर्थों में केवल' शब्द यहां प्रयुक्त है। केवल जो ज्ञान वह 'केवल ज्ञान', इस प्रकार यहां (कर्मधारय) समास है। .. यहां शंकाकार कहता है- भाष्यकार ने 'अर्थाभिमुखो नियतः' इत्यादि (पूर्व) गाथाओं द्वारा ज्ञानवाचक अभिनिबोधिक आदि नामों की ही व्युत्पत्ति की है, ज्ञान शब्द का तो कहीं उल्लेख आया नहीं है, ऐसी स्थिति में वे ज्ञान रूप हैं- यह अर्थ कहां से उपलब्ध होता है? इस शंका को दृष्टि में रखकर कहा- 'प्रायः च' इत्यादि / अर्थात् प्रकरणलब्ध ज्ञान शब्द की, (पूर्वोक्त) आभिनिबोधिक, श्रुत आदि (ज्ञान-सम्बन्धीत) नामों के साथ समानाधिकरणता को स्वयं ही नियोजित कर लेना चाहिए, और उसे योजित भी किया (यानी करके बताया) जा चुका है। जैसे- आभिनिबोधिक जो ज्ञान, श्रुत जो ज्ञान इत्यादि रूप में (ज्ञान शब्द के साथ उन-उन नामों को जोड़कर उनका सामानाधिकरण्य दर्शाया गया है)। 'प्रायः' यह पद यह बताने के लिए दिया गया है कि कहीं वैयधिकरण्य रूप में भी समास सम्भव है। इस (वैयधिकरण्य) का निदर्शन (भी) मनःपर्यय ज्ञान के निरूपण में किया जा चुका है। अन्य ज्ञानों में भी यथासम्भव उसी तरह (वैयधिकरण्य को) समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 4 // Ho ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 133 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं ज्ञानपञ्चकस्याप्यभिधानार्थे कथिते आह कश्चित्- नन्वादौ मतिश्रुतोपन्यासः किमर्थ:? इति / अत्राऽऽचार्यः प्राह जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं। तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मइ-सुयाइं // 5 // [ संस्कृतच्छाया:- यत् स्वामि-काल-कारण-विषय-परोक्षत्वैस्तुल्यानि। तद्भावे शेषानि च तेनाऽऽदौ मति-श्रुते॥] तेन कारणेनादौ मति-श्रुते निर्दिष्टे / येन, किम्?, इत्याह- 'जं सामीत्यादि' इति संटङ्कः। मतिशब्दोऽत्राऽऽभिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टव्यः, आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद् मतिरित्यप्युच्यते। यद् यस्मात् कारणात् स्वामि-काल-कारण-विषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये समानस्वरूपे मति-श्रुते, तेनाऽऽदौ निर्दिष्टे इत्यर्थः। तत्र स्वामी तावदनयोरेक एव "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं" इत्याद्यागमवचनादिति / कालोऽपि द्विधा- नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च। स चाऽयं द्विविधोऽप्यनयोस्तुल्य एव, नानाजीवापेक्षया द्वयोरपि सर्वकालमनुच्छेदाद, एकजीवापेक्षया तुभयोरपि (मति आदि ज्ञानों की क्रमिकता का कारण) इस प्रकार, पांचों ज्ञानों के नामों का अर्थ बताये जाने पर कोई शंकाकार कह रहा है- (पांच ज्ञानों में) सबसे पहले मति व श्रुत का उपन्यास (कथन, उपस्थापन) क्यों किया गया है? तब (इस शंका के समाधान हेतु भाष्यकार) आचार्य कह रहे हैं (85) जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं। तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मइ-सुयाइं // [(गाथा-अर्थः) ये दोनों ज्ञान स्वामी, काल, कारण, विषय और परोक्षपने की दृष्टि से (परस्पर) समान हैं, इसलिए सबके आदि में उनका कथन (निरूपण) किया गया है।] व्याख्याः - उस कारण से मति व श्रुत-ज्ञान इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। वह कारण क्या है? इसका उत्तर है- (यत् स्वामिकाल-इत्यादि)- (अर्थात् इनके सबसे पहले कथन में) स्वामी, काल इत्यादि कथित, (युक्तिरूप) आधार हैं। यहां मति शब्द को आभिनिबोधिक का पर्याय समझना चाहिए। आभिनिबोधिक ज्ञान को ही औत्पत्तिकी मति आदि की प्रधानता के कारण ‘मति' (ज्ञान) भी कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि चूंकि स्वामी, काल, कारण, विषय, परोक्षता- इन दृष्टियों से मति व श्रुत दोनों समान स्वरूप वाले हैं, इसलिए उनका पहले निर्देश किया जाता है। उनमें, इन दोनों का स्वामी एक ही है, क्योंकि, 'जहां-जहां मतिज्ञान है, वहां-वहां श्रुतज्ञान है' यह आगम-वचन है। काल (का विचार) दो प्रकार का होता है- (1) नाना जीवों की अपेक्षा से और, (2) एक जीव की अपेक्षा से। ये दोनों प्रकार के काल भी इन (दोनों) के समान ही हैं, क्योंकि नाना जीवों की अपेक्षा से ये दोनों ही ज्ञान सर्वदा अविच्छिन्न रूप से रहते हैं, और एक जीव की अपेक्षा Na 134 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरन्तरसातिरेकसागरोपमषट्षष्टिस्थितिकत्वेनाऽत्रैवाऽभिधास्यमानत्वादिति। कारणमपीन्द्रिय-मनोलक्षणं स्वावरणक्षयोपशमस्वरूपं च द्वयोरपि समानम्। उभयस्याऽपि सर्वद्रव्यादिविषयत्वाद् विषयतुल्यता। परनिमित्तत्वाच्च परोक्षत्वसमता। ननु यद्येवमनयोः परस्परं तुल्यता, तर्खेकत्र द्वयोरप्युपन्यासोऽस्तु, आदावेव तु तदुपन्यासः कथम्?, इत्याह- 'तब्भावे इत्यादि / तद्भावे मति-श्रुतज्ञानसद्भाव एव शेषाण्यवध्यादीनि ज्ञानान्यवाप्यन्ते, नान्यथा, न हि स कश्चित् प्राणी भूतपूर्वः, अस्ति, भविष्यति वा, यो मति-श्रुतज्ञाने अनासाद्य प्रथमेवाऽवध्यादीनि शेषज्ञानानि प्राप्तवान्, प्राप्नोति, प्राप्स्यति वेति भावः। ततस्तदवाप्तौ शेषज्ञानाऽवाप्तेश्चादौ मति-श्रुतोपन्यासः॥ इति गाथार्थः॥८५॥ भवतु तादौ मति-श्रुतोपादानम्, केवलं पूर्वं मतिः, पश्चात्तु श्रुतमित्यत्र किं कारणम्, यावता विपर्ययोऽपि कस्माद् न भवति?, इत्याह मइपुव्वं जेण सुयं तेणाईए मई, विसिट्ठो वा। मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं // 86 // से भी दोनों की स्थिति निरन्तर साधिक 66 (छियासठ) हजार सागर काल तक की होती है- ऐसा इसी ग्रंथ में कहा जाएगा। अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम तथा इन्द्रिय व मन रूपी कारणता भी दोनों में समान हैं। चूंकि दोनों ही सर्वद्रव्य को विषय करते हैं, अतः विषय भी दोनों के समान हैं। 'पर' (यानी इन्द्रिय व मन) के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण उन (दोनों) की परोक्षता भी समान है। . (यहां शंकाकार कह रहा है-) यदि इन दोनों में परस्पर समानता है, तो (इस आधार पर) . इन (दोनों) का एक जगह (एक साथ) निर्देश तो युक्तिसंगत ठहरता है, किन्तु (सब के) आदि में जो उन्हें रखा गया है, ऐसा क्यों? इस प्रश्न के समाधान हेतु कहा- (तदभावे इत्यादि)- अर्थात् उनके, यानी मति व श्रुत के होने पर ही अवधि आदि शेष ज्ञान प्राप्त होते हैं, अन्यथा प्राप्त नहीं होते। तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई प्राणी न कभी हुआ है, न (कहीं) है, और न ही भविष्य में होगा जो मति व श्रुत ज्ञान को प्राप्त किये बिना, पहले अवधि आदि ज्ञानों को ( अतीत में) प्राप्त कर चुका हो, या प्राप्त कर रहा हो या प्राप्त करेगा। इसलिए इन दोनों की प्राप्ति होने पर ही, शेष ज्ञानों की प्राप्ति होती है, अतः मति व श्रुत- इन दोनों को अन्य (सब ज्ञानों) के पहले रखा गया है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 85 // चलो, मान लिया कि मति व श्रुत को पहले रखना चाहिए, किन्तु इन दोनों में भी पहले मति और बाद में श्रुत को रखा- इसमें क्या कारण है, क्या पहले श्रुत को और बाद में मति को नहीं रख सकते? इस शंका के समाधान हेतु कह रहे हैं (86) मइपुलं जेण सुयं तेणाईए मई, विसिट्ठो वा। मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं // ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 135 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- मतिपूर्व येन श्रुतं तेनादौ मतिः विशिष्टो वा। मतिभेदश्चैव श्रुतं तस्माद् मतिसमनन्तरं भणितम् // ] मतिः पूर्वं प्रथममस्येति मतिपूर्व येन कारणेन श्रुतज्ञानं, तेन श्रुतस्यादौ मतिः, तीर्थकर-गणधरैरुक्तेति शेषः, न ह्यवग्रहादिरूपे मतिज्ञाने पूर्वमप्रवृत्ते क्वापि श्रुतप्रवृत्तिरस्तीति भावः। "विसिट्ठो वा मइभेओ चेव सुयं ति' यदि वा इन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तद्वारेणोपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव, केवलं परोपदेशादागमवचनत्वाच्च भवन् विशिष्टः कश्चिद् मतिभेद एव श्रुतं, नान्यत्। ततो मूलभूताया मतेरादौ विन्यासः तद्भेदरूपं तु श्रुतज्ञानं तत्समनन्तरं भणितमित्यदोषः। 'मइपुव्वं जेण सुयं' इत्यादिकश्चाऽर्थः पुरतः प्रपञ्चेन भणिष्यते // इति गाथार्थः॥८६॥ अथ मतिश्रुतानन्तरमवधेः, तत्समनन्तरं च मन:पर्यायज्ञानस्योपन्यासे कारणमाह काल-विवज्जय-सामित्त-लाभसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छउमत्थ-विसय-भावादिसामण्णा॥८७॥ [(गाथा-अर्थः) मति-पूर्वक श्रुत होता है, इसलिए मति को आदि में (श्रुत से पहले) रखा गया है। अथवा मतिज्ञान का ही विशिष्ट भेद श्रुतज्ञान है, इसलिए भी मति को पहले तथा श्रृंत ज्ञान को बाद में कहा जाता है।] .. व्याख्याः - श्रुतज्ञान चूंकि मतिपूर्वक होता है (अर्थात् पहले मति और उसके बाद श्रुत ज्ञान होता है), इस कारण से श्रुत के पहले मति है- (इस कथन का) अवशेष कथन है कि ऐसा तीर्थंकरों व गणधरों ने कहा है। तात्पर्य यह है कि ऐसा कहीं नहीं होता है कि अवग्रह आदि रूप मतिज्ञान पहले प्रवृत्त न हो और श्रुत की प्रवृत्ति हो। (विशिष्टः वा मतिभेदः चैव श्रुतम्-) अथवा इन्द्रिय व मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला श्रुत ज्ञान मतिज्ञान ही है, अतः जो श्रुतज्ञान है, वह मात्र परोपदेश व आगम-वचन के रूप में उपलब्ध होकर विशिष्टता को प्राप्त होता हुआ मतिज्ञान का ही भेद है, और कुछ नहीं। अतः मूलभूत मति का आदि में (सर्वप्रथम) कथन किया गया है और उसके भेद रूप ज्ञान का कथन उसके बाद है, इसमें कोई दोष नहीं है। (मतिपूर्वं येन श्रुतम्-) श्रुत की मतिपूर्वता आदि के सम्बन्ध में आगे विस्तार से बताया जायेगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 86 // अब, मति व श्रुत के बाद अवधि को, और उसके बाद मनःपर्ययज्ञान को रखने में क्या कारण है- इसका निरूपण भाष्यकार कर रहे हैं (87) काल-विवज्जय-सामित्त-लाभसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छउमत्थ-विसय-भावादिसामण्णा // Ma 136 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छायाः- काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः। मानसमितः छद्मस्थ-विषयभावादिसामान्यात् / ] ततो मति-श्रुताभ्यामनन्तरमवधिनिर्दिष्टः। कुतः?, इत्याह- काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधर्म्यात्। तत्र नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च मति-श्रुताभ्यां सहाऽवधेः समानस्थितिकालत्वात् कालसाधर्म्यम् / यथा च मिथ्यात्वोदये मतिश्रुतज्ञाने अज्ञानरूपं विपर्ययं प्रतिपद्येते, तथाऽवधिरपि, इति विपर्ययसाधर्म्यम्। य एव च मति-श्रुतयोः स्वामी स एवाऽवधेरपि, इति स्वामिसाधर्म्यम् / लाभोऽपि कदाचित् कस्यचिदमीषां त्रयाणामपि ज्ञानानां युगपदेव भवति, इति लाभसाधर्म्यम्। ___ 'माणसमित्तो इत्यादि' इतोऽवधेरनन्तरं मनोविषयत्वाद मनसि भवं मानसं मन:पर्यायज्ञानं युक्तम्। कुतः?, इत्याहछग्रस्थ-विषय-भावादिसामान्यात्, आदिशब्दात् प्रत्यक्षत्वादिसामान्यं गृह्यते, समानस्य भावः सामान्यं साम्यं तस्मादित्यर्थः। तत्र यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्यैव भवति तथा मनःपर्यायज्ञानमपीतिच्छद्मस्थसाम्यम्। उभयोरपि पुद्गलमात्रविषयत्वाद् विषयसाम्यम्। द्वयोरपि क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाद् भावसाम्यम्। द्वितयस्याऽपि साक्षाद्दर्शित्वात् प्रत्यक्षत्वसाम्यम्। एवमन्यापि प्रत्यासत्तिरभ्यूह्या // इति गाथार्थः // 7 // __ [(गाथा-अर्थः) काल, विपर्यय, स्वामित्व और लाभ- इनकी (अपेक्षा से) समानधर्मता होने के कारण (मति व श्रुत के) बाद में 'अवधि' का कथन है, और उसके बाद मनःपर्यय ज्ञान का, क्योंकि छद्मस्थता, विषय और भाव की अपेक्षा से इनमें (अवधि ज्ञान के साथ मनःपर्यय ज्ञान की) समानता (साम्य) है।] .. व्याख्याः- इस कारण से मति व श्रुत के बाद 'अवधि' का कथन किया गया है। किस कारण से? बता रहे हैं- (काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधात्)- नाना जीव की अपेक्षा से या एक जीव की अपेक्षा से मतिश्रुत और अवधि (ज्ञान)- इनका स्थिति-काल समान है, इसलिए (इन तीनों में) काल-साधर्म्य है। इसी तरह, मिथ्यात्व के उदय में जिस प्रकार मति, श्रुत ज्ञान (कुमति, कुश्रुत रूप) 'अज्ञान' रूप विपरीतता, प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार अवधि ज्ञान भी (विभंग ज्ञान रूप) विपरीतता प्राप्त कर लेता है, असलिए (इन तीनों में) विपर्यय-साधर्म्य भी है। मति व श्रुत का जो स्वामी होता है, वह अवधि का भी हो सकता है- इस प्रकार (इन तीनों में) स्वामि-साधर्म्य भी है। इनका एक साथ ही लाभ भी किसी-किसी को कभी होता है- इसलिए लाभ-साधर्म्य भी है। ... (मानसम् इतः इत्यादि)- मन को विषय करने वाले, मन में होने वाले 'मानस' मनःपर्यय ज्ञान का कथन अवधि के बाद करना युक्तिसंगत है। कैसे? उत्तर दे रहे हैं- (छद्मस्थविषयभावादिसामान्यात्)- अर्थात् छद्मस्थता, विषय, भाव आदि की दृष्टि से (अवधि व मनःपर्ययज्ञान में) परस्पर-समानता है। 'आदि' पद से प्रत्यक्षत्व आदि की समानता लेनी चाहिए। 'सामान्य' यानी समानता, साम्य, उसके कारण (अवधि के बाद मनःपर्यय का निर्देश हुआ है)- यह तात्पर्य है। जैसे अवधिज्ञान छद्मस्थ को ही होता है, वैसे ही मनःपर्ययज्ञान भी छद्मस्थ को होता है- इसलिए दोनों में --------- विशेषावश्यक भाष्य - -- -----137 र Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ केवलज्ञानस्य सर्वोपरिनिर्देशे कारणमाहअन्ते केवलमुत्तम-जइसामित्तावसाणलाभाओ। एत्थं च मइ-सुयाई परोक्खमियरं च पच्चक्खं // 88 // [ संस्कृतच्छाया:- अन्ते केवलमुत्तम-यतिस्वामित्वाऽवसानलाभात् / अत्र च मतिश्रुते परोक्षमितरच्च प्रत्यक्षम्॥] अन्ते सर्वज्ञानानामुपरि केवलज्ञानमभिहितम्। कुतः?, इत्याह- भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य-उत्तमत्वात्, सर्वोत्तमं हि केवलज्ञानम्, . अतीता-ऽनागत-वर्तमाननिःशेषज्ञेयस्वरूपावभासित्वादिति / यथा च मनःपर्यायज्ञानस्य यतिरेव स्वामी, तथा केवलज्ञानस्यापि, ततो . यतिस्वामित्वसाम्याद् मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानमभिहितम्। तथा समस्तापरज्ञानानामवसान एवाऽस्य लाभादवसान एव निर्देश इति। छद्मस्थसाम्य है। दोनों ही चूंकि पुद्गल को ही विषय करते हैं, अतः (दोनों में) विषय-साम्य है। दोनों ही क्षायोपशमिक भाव रूप हैं, इसलिए (दोनों में) भाव-साम्य भी है। ये दोनों ही साक्षात् ज्ञाता हैं (आत्मा द्वारा इन दोनों के माध्यम से, बिना इन्द्रियादि की परतन्त्रता के, साक्षात् ज्ञान होता है), इसलिए प्रत्यक्षत्व-साम्य भी है। इसी प्रकार, अन्य भी समानता समझ लेनी चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |87 // अब, सब ज्ञानों के अंत में केवल ज्ञान के निर्देश का क्या कारण है- यह बता रहे हैं (88) अन्ते केवलमुत्तम-जइसामित्तावसाणलाभाओ। , एत्थं च मइ-सुयाइं परोक्खमियरं च पच्चक्खं // [(गाथा-अर्थः) चूंकि 'केवलज्ञान' सर्वोत्तम है, क्योंकि यह (अप्रमत्त) यति को होता है और यह सबसे अंत में प्राप्त होता है, इसलिए उसे (सब के) अंत में कहा गया है। इन (पांचों) ज्ञानों में मति, श्रुत- ये दो ज्ञान परोक्ष हैं, बाकी (तीनों) ज्ञान प्रत्यक्ष (माने जाते) व्याख्याः- अन्त में, अर्थात् सभी ज्ञानों के बाद, 'केवलज्ञान' का कथन किया गया है। ऐसा क्यों? उत्तर दे रहे हैं- निर्देश में भाव (की उत्तमता) को प्रमुखता दी जाती है, और भाव (स्वरूप) की दृष्टि से केवलज्ञान उत्तम है। वह अतीत-भविष्य व वर्तमान -इन तीनों कालों के समस्त प्रमेय पदार्थों के स्वरूप का ज्ञाता होता है, इसलिए वह (सब ज्ञानों में) सर्वोत्तम है। जैसे मनःपर्यय ज्ञान का स्वामी (अप्रमत्त) यति होता है, वैसे ही केवलज्ञान भी (अप्रमत्त यति को होता है), इस तरह यतिस्वामित्वरूपी साधर्म्य के कारण मनःपर्यायज्ञान के तुरन्त बाद 'केवलज्ञान' कहा गया है। केवलज्ञान' की प्राप्ति(अन्य) समस्त ज्ञानों का अंत होने के बाद होती है- इसलिए 'केवलज्ञान' का अंत में निर्देश किया गया है। Mia 138 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमुपन्यासक्रमे समर्थिते सत्याह कश्चित्-नन्वेतानि पञ्च ज्ञानानि किं परोक्षस्वरूपाणि, आहोस्वित् प्रत्यक्षाणि? इति। अत्राह- 'एत्थं चेत्यादि' एतेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मध्ये मति-श्रुते परोक्षे, इतरत् त्ववध्यादि ज्ञानत्रयं प्रत्यक्षम् // इति गाथार्थः // 88 // तत्र प्रत्यक्षस्य लक्षणमाह जीवो अक्खो अत्थव्वावण-भोयणगुणण्णिओ जेण। तं पइ वट्टइ नाणं जं पच्चक्खं तयं तिविहं // 89 // [संस्कृतच्छाया:- जीवोऽक्षोऽर्थव्यापन-भोजनगुणान्वितो येन / तं प्रति वर्तते ज्ञानं यत् प्रत्यक्षं तकत् त्रिविधम्॥] अक्षस्तावजीव उच्यते / केन हेतुना?, इत्याह- 'अत्थव्वावणेत्यादि' अर्थव्यापन-भोजनगुणान्वितो येन, तेनाऽक्षो जीवः, इदमुक्तं भवति- 'अशू व्याप्तौ' अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीत्युणादिनिपातनादक्षो जीवः, अथवा 'अश भोजने' अश्नाति समस्तत्रिभुवनाऽन्तर्वर्तिनो देवलोकसमृद्ध्यादीनर्थान् पालयति भुङ्क्ते वेति निपातनादक्षो जीवः, अश्नातेर्भोजनार्थत्वाद्, भुजेश्च पालनाऽभ्यवहारार्थत्वादिति भावः। इत्येवमर्थव्यापन-भोजनगुणयुक्तत्वेन जीवस्याऽक्षत्वं सिद्धं भवति। तमक्षं जीवं प्रति साक्षाद्गतमिन्द्रियनिरपेक्षं वर्तते यज्ज्ञानं तत् प्रत्यक्षम्। इस प्रकार, सब ज्ञानों के निर्देश में जो क्रम रखा गया है, उसके समर्थन के बाद, किसी (शंकाकार) ने पूछा कि ये पांचों ज्ञान क्या परोक्ष स्वरूप वाले हैं या प्रत्यक्ष हैं? इस प्रश्न के समाधान हेतु कहा- (अत्र च)- इन पांचों ज्ञानों में मति व श्रुत- ये दो ज्ञान परोक्ष हैं, और अवधि आदि अन्य तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 8 // (प्रत्यक्ष व परोक्ष के लक्षण) अब (भाष्यकार अग्रिम गाथा में) 'प्रत्यक्ष' का लक्षण बता रहे हैं (89) जीवो अक्खो अत्थव्वावण-भोयणगुणण्णिओ जेण / तं पइ वट्टइ नाणं जं पच्चक्खं तयं तिविहं // [(गाथा-अर्थः) चूंकि जीव पदार्थों में व्याप्त होता है और पदार्थों का भोग करता (भोक्ता होता) है, इसलिए जीव को 'अक्ष' कहा जाता है। अक्ष (रूप आत्मा) के प्रति जो ज्ञान (साक्षात्) वर्तता है (आत्मा द्वारा साक्षात्, प्राप्त होता है), वह 'प्रत्यक्ष' कहलाता है। वह प्रत्यक्ष (ज्ञान) तीन प्रकार का है।] व्याख्याः- जीव को 'अक्ष' कहा जाता है। किस कारण से? उत्तर है- (अर्थव्यापन- इत्यादि) पदार्थ में व्याप्त होने तथा पदार्थों के भोक्ता होने के गुण से युक्त होने के कारण (जीव को 'अक्ष' कहा जाता है)। तात्पर्य यह है कि 'अक्ष' की निष्पत्ति 'अशू व्याप्तौ' इस धातु से या 'अश् भोजने' इस धातु से औणादिक निपातन करते हुए होती है। आत्मा चूंकि 'ज्ञान'- के माध्यम से समस्त पदार्थों में व्याप्त हो जाता है, इसलिए वह 'अक्ष' है। अथवा अश् धातु भोजन अर्थ में है। भोजन के दो अर्थ होते हैंपालन व भोग / चूंकि जीव समस्त त्रिभुवन में वर्तमान देवलोक की समृद्धि आदि पदार्थों का पालन ----------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 139 र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चाऽवधि-मनःपर्याय-केवलज्ञानभेदात् त्रिविधं त्रिप्रकारम, तस्यैव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति साक्षाद वर्तमानत्वात् // इति गाथार्थः॥४९॥ अथ परोक्षज्ञानस्वरूपमाह अक्खस्स पोग्गलकया जं दव्विन्दिय-मणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व॥१०॥ [संस्कृतच्छाया:- अक्षस्य पुद्गलकृतानि यद् द्रव्येन्द्रियमनांसि पराणि तेन / तैस्तस्माद् यज्ज्ञानं परोक्षमिह तदनुमानमिव // ] . यद् यस्माद् द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च, अक्षस्य जीवस्य पराणि भिन्नानि वर्तन्ते। कथंभूतानि पुनर्द्रव्येन्द्रिय-द्रव्यमनांसि?, इत्याह- पुद्गलकृतानि पुद्गलस्कन्धनिचयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चेदं विशेषणं द्रष्टव्यम्-पुद्गलकृतत्वाद, येन द्रव्येन्द्रिय-मनांसि जीवस्य परभूतानि, तेन तेभ्यो यद् मति-श्रुतलक्षणं ज्ञानमुत्पद्यते, तत् तस्य साक्षादनुत्पत्तेः परोक्षम्, अनुमानवदिति। (स्वामित्वपूर्वक रक्षण आदि) करता है और कभी भोजन (या भोग-उपभोग) करता है, इसलिए . . निपातन (व्याकरण-प्रक्रिया) से उसे 'अक्ष' कहा जाता है- यह तात्पर्य है। इस प्रकार पदार्थ-व्याप्ति व भोजन गुणवत्ता- इनके कारण जीव की 'अक्ष' संज्ञा सिद्ध (संगत) होती है। इस अक्ष या जीव के प्रति जो ज्ञान इन्द्रिय-निरपेक्ष व साक्षात् होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष' है। वह प्रत्यक्षज्ञान (1) अवधि, (2) मनःपर्यय व (3) केवलज्ञान -इस प्रकार से तीन प्रकार का है, क्योंकि प्रत्यक्ष ही पदार्थों का साक्षात् ज्ञायक (ग्राहक) होते हुए जीव के प्रति साक्षात् वर्तमान रहता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||89 // भाष्यकार परोक्ष ज्ञान के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं (90) अक्खस्स पोग्गलकया जं दविन्दिय-मणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व // [(गाथा-अर्थः) चूंकि पुद्गल से निर्मित द्रव्येन्द्रिय व द्रव्य मन अक्ष से 'पर' यानी भिन्न हैं, अतः उनके 'पर' होने से, उनके माध्यम से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह उसी तरह परोक्ष है, जिस तरह अनुमान (परोक्ष है)।] व्याख्याः - (यद्) चूंकि द्रव्येन्द्रिय व द्रव्यमन 'अक्ष' रूप जीव से 'पर' यानी भिन्न हैं। द्रव्येन्द्रिय व द्रव्यमन कैसे हैं? इसके उत्तर में कहा- (पुद्गलकृतानि)- पौलिक स्कन्धसमूह से निष्पन्न (बने हुए) हैं। इस ‘पुद्गल-कृतानि' को हेतुपरक रूप में विशेषण समझना चाहिए, अर्थात् (इसे 'पुद्गलकृतत्वात्' इस रूप में पढ़ना चाहिए)- चूंकि ये पुद्गलनिर्मित हैं, इसलिए (अजीवात्मक होने के कारण) परभूत हैं, और चूंकि ये परभूत हैं, इसलिए और उनके माध्यम से होने वाला मतिश्रुत लक्षण जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह जीव के साक्षात् उत्पन्न न होने से 'परोक्ष' ही है, उसी तरह जैसे 'अनुमान' को परोक्ष माना जाता है। Ma 140 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- अपौद्गलिकत्वादमूर्तो जीवः, पौद्गलिकत्वात् तु मूर्तानि द्रव्येन्द्रिय-मनांसि, अमूर्ताच्च मूर्तं पृथग्भूतम्, ततस्तेभ्यः पौद्गलिकेन्द्रिय-मनोभ्यो यद् मति-श्रुतलक्षणं ज्ञानमुपजायते, तद् धूमादेरग्न्यादिज्ञानवत् परनिमित्तत्वात् परोक्षमिह जिनमते परिभाष्यते // इति गाथार्थः॥१०॥ ये तु वैशेषिकादयोऽक्षमिन्द्रियं प्रति गतं प्रत्यक्षम्, शेषं तु परोक्षमिति मन्यन्ते, तद्दर्शनमपाकर्तुमाह केसिंचि इंदिआई अक्खाई, तदुवलद्धि पच्चक्खं। तन्नो, ताइं जमचेअणाइं जाणंति न घडो व्व॥११॥ [संस्कृतच्छाया:- केषांचिदिन्द्रियाणि अक्षाणि, तदुपलब्धिः प्रत्यक्षम्। तन्न, तानि यदचेतनानि जानन्ति न घट इव॥] केषांचिद् वैशेषिकादीनां मतेनाऽक्षाणि स्पर्शनादीनीन्द्रियाण्युच्यन्ते, न जीव इति भावः। तदुवलद्धि पच्चक्खं ति' तेषामिन्द्रियाणां येयं साक्षाद्धटाद्यर्थोपलब्धिघटादिज्ञानं तत् प्रत्यक्षम्, अन्यत् तु परोक्षमिति। तात्पर्य यह है कि जीव तो अमूर्त है क्योंकि वह पौद्गलिक नहीं है। किन्तु (इससे विपरीत) द्रव्येन्द्रिय व द्रव्य मन पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। अमूर्त से मूर्त पृथक् होता है। अतः उन पौद्गलिक द्रव्येन्द्रिय व द्रव्यमन से जो मति-श्रुत संज्ञक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह जिन-मत में उसी तरह ‘परोक्ष' रूप में परिभाषित किया जाता है जिस प्रकार धूम आदि को देख कर अग्नि आदि का जो अनुमानज्ञान होता है, उसे परनिमित्तक (धूम-आधारित) होने से परोक्ष माना जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 10 // (इन्द्रियों को ज्ञान नही) . वैशेषिक आदि दर्शनों के मत में ऐसा माना जाता है कि जो अक्ष यानी इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है, वह प्रत्यक्ष है, और शेष परोक्ष ज्ञान हैं। इस मत का भाष्यकार निराकरण कर रहे हैं (91) केसिंचि इंदिआइं अक्खाई, तदुवलद्धि पच्चक्खं / तन्नो, ताई जमचेअणाइं जाणंति न घडो व्व // . [(गाथा-अर्थः) किन्हीं (दार्शनिकों) के मत में अक्ष का अर्थ 'इन्द्रिय' किया जाता है, और उनसे होने वाली उपलब्धि (अर्थात्, जहां इन्द्रियां जानती है, उस बोध) को प्रत्यक्ष माना जाता है। किन्तु यह मानना ठीक नहीं, (अर्थात्, जहां इन्द्रियां जानती है, उस बोध को प्रत्यक्ष माना जाता है। किन्तु यह मानना ठीक नहीं) क्योंकि इन्द्रियां घट (आदि पदार्थ) की तरह अचेतन होने के कारण नहीं जानतीं (वे किसी पदार्थ को जान ही नहीं सकतीं)] व्याख्याः- किन्हीं अर्थात् वैशेषिक आदि दार्शनिकों के मत से 'अक्ष' का अर्थ किया जाता हैस्पर्शन आदि इन्द्रियां। तात्पर्य है कि (उनके मत में अक्ष का) 'जीव' अर्थ नहीं किया गया है। (तदुपलब्धिः प्रत्यक्षम् इति)- उन इन्द्रियों द्वारा साक्षात् की जाने वाली 'घट आदि पदार्थ की उपलब्धि' यानी घटादि का जो ज्ञान है, वह प्रत्यक्ष, बाकी तो परोक्ष है (ऐसा वैशेषिक आदि का मानना है)। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------141 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गीक्रियतां तर्हि तन्मतमित्याह- 'तन्नो इत्यादि' तदेतद् वैशेषिकादिमतं न युक्तम्, यतस्तानीन्द्रियाण्यचेतनानि, ततश्च न जानन्ति न वस्तुस्वरूपमुपलभन्ते, घटवत्। तथाहि- यदचेतनं तत् सर्वमपि न जानाति, यथा घटादि, अचेतनानि चेन्द्रियाणि, इति / कुतस्तेषामुपलब्धिः? या प्रत्यक्षं स्यादिति भावः। तथा इन्द्रियाणां ज्ञानशून्यत्वे मूर्तिमत्त्व-स्पर्शादिमत्त्वादयोऽपि हेतवो वाच्याः॥ इति गाथार्थः॥९१ // नन्विन्द्रियाणि न जानन्ति, इति प्रत्यक्षविरोधिनी प्रतिज्ञा, तेषां साक्षात्कारेणाऽर्थोपलब्धेरनुभवप्रत्यक्षेण प्रतिप्राणि प्रसिद्धत्वात्, इत्याशङ्क्याह उवलद्धा तत्थाऽऽया तव्विगमे तदुवलद्धसरणाओ। गेहगवक्खोवरमे वि तदुवलद्धाऽणुसरिया वा // 12 // [संस्कृतच्छाया:- उपलब्धा तत्राऽऽत्मा तद्विगमे तदुपलब्धस्मरणात्। गेहगवाक्षोपरमेऽपि तदुपलब्धाऽनुस्मर्ता वा (इव)॥] 'तत्थ त्ति' तत्र चक्षुरादीन्द्रिये करणतया व्याप्रियमाणे उपलब्धा वस्तूनां बोद्धा आत्मैव द्रष्टव्यः, न त्विन्द्रियम्। कुतः?; इत्याह- 'तव्विगमेत्यादि / तस्य चक्षुरादीन्द्रियस्य विगमेऽभावेऽपीत्यर्थः, तदुपलब्धस्य पराभ्युपगमेनेन्द्रियोपलब्धस्याऽर्थस्य स्मरणात्। . तब फिर उनके मत को स्वीकार कर (मान) लिया जाय? इसके उत्तर में कहा- (तन्न)। यह जो वैशेषिक आदि दर्शनों का मत है, वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वे इन्द्रियां तो अचेतन हैं, इसलिए वे 'घट' की तरह (किसी भी) वस्तु के स्वरूप को जानती नहीं। जैसे कि जो-जो अचेतन हैं, वे सभी नहीं जानते हैं, जैसे घट आदि। इन्द्रियां भी अचेतन हैं, तो उन्हें भी पदार्थ-उपलब्धि (बोध) का होना कैसे सम्भव हो सकता है? जब कोई ऐसी उपलब्धि ही नहीं, तो उसे प्रत्यक्ष कहना भी युक्तिसंगत नहीं -यह तात्पर्य है। इसी प्रकार, मूर्तिमत्ता, स्पर्शादियुक्तता आदि को भी इन्द्रियों की ज्ञानशून्यता का हेतु (आधार) बताया जा सकता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 11 // इन्द्रियां नहीं जानतीं- यह आपकी प्रतिज्ञा तो प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। प्रत्येक प्राणी को इन्द्रियों के माध्यम से पदार्थों का साक्षात्कार कर अर्थोपलब्धि होती है- यह अनुभवप्रत्यक्षं होने से प्रसिद्ध हैइस शंका को मन में रखकर भाष्यकार कहते हैं (92) उवलद्धा तत्थाऽऽया तविगमे तदुवलद्धसरणाओ। गेहगवक्खोवरमे वि तदुवलद्धाऽणुसरिया वा // [(गाथा-अर्थः) जैसे घर के गवाक्ष (झरोखे) से देखे पदार्थ का स्मरण, उस गवाक्ष के समाप्त (हटने या बन्द) होने के बाद भी, पूर्वदर्शक को होता है, उसी तरह इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को आत्मा इन्द्रियों के अभाव में भी याद कर सकता है (अतः वस्तुतः आत्मा ही ज्ञाता है, इन्द्रियां नहीं)] व्याख्याः- (तत्र आत्मा इति)- चक्षु आदि इन्द्रियां तो करण (यानी प्रमुख साधन) के रूप में व्यापाररत होती हैं, किन्तु वस्तुओं का ज्ञाता तो आत्मा ही है- ऐसा समझना चाहिए, इन्द्रिय को ज्ञाता a 142 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क इव?, इत्याह- तेन गृहगवाक्षेण करणभूतेनोपलब्धस्य योषिदाद्यर्थस्य योऽनुस्मर्ता देवदत्तादिः स इव, वाशब्दस्येवाऽर्थत्वात्। क्व सति?, इत्याह- गृहगवाक्षस्योपरमेऽप्यभावेऽपि सतीत्यर्थः। अत्र प्रयोगः- इह यो येषूपरतेष्वपि तदुपलब्धानर्थाननुस्मरति स तत्रोपलब्धा दृष्टः, यथा गृहगवाक्षोपलब्धानामर्थानां तद्विगमेऽप्यनुस्मर्ता देवदत्तादिः, अनुस्मरति चेन्द्रियविगमेऽपि तदुपलब्धमर्थमात्मा, तस्मात् स एवोपलब्धा, यदि पुनरिन्द्रियाण्युपलम्भकानि स्युः, तदा तद्विगमे कस्याऽनुस्मरणं स्यात्? / न ह्यन्येनोपलब्धेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात्, अस्ति चाऽनुस्मरणम्। तस्माद् 'न जानन्तीन्द्रियाणि' इति स्थितेयं प्रतिज्ञा, तद्-बाधकत्वेनोक्तस्याऽनुभवप्रत्यक्षस्य यथोक्तानुमानबाधितत्वेन भ्रान्तत्वादिति // अत्राह- कस्येदं दर्शनं यत् स्वतन्त्राणीन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति?, वयं हि ब्रूमः- यदिन्द्रिय-मनोनिमित्तमात्मनो ज्ञानमुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षम् “आत्मा मनसा युज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियं चार्थेन" इति वचनादिति। हन्त! एवं सति परनिमित्तत्वादनुमानवत् नहीं समझना चाहिए। ऐसा क्यों? इसके उत्तर में कहा- (तद्विगमे अपि)- उन चक्षु आदि इन्द्रिय के नष्ट होने पर भी, उन इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थ का, जो 'पर' द्वारा जाना गया है, आत्मा को स्मरण होता है- यह भाव है। किस की तरह? इसके उत्तर में कहा- जैसे देवदत्त नाम का व्यक्ति गवाक्ष के जरिये स्त्रियों आदि पदार्थों को देखता है, वह उस (देखने में करणभूत) गवाक्ष के बन्द होने पर भी, उस (दृश्य) का स्मरण कर लेता है, ठीक उसी तरह। यहां 'वा' शब्द 'इव' अर्थ का वाचक है (अर्थात् देवदत्त के स्मरण को दृष्टान्त की तरह समझें- यह बताता है)। देवदत्त को कब स्मरण होता है? उत्तर दिया- गवाक्ष (झरोखे) के हटने या उसके अभाव होने पर भी। इस संदर्भ में एक (उक्त प्रतिज्ञा का पोषक) अनुमान-वाक्य इस प्रकार है:- (अर्थोपलब्धि करने वालों के विनाश आदि होने पर भी, उनके द्वारा उपलब्ध पदार्थों को जो स्मरण करता है, उसे (वास्तविक) 'ज्ञाता' माना जाता है, जैसे घर के झरोखे द्वारा उपलब्ध (दृष्ट) पदार्थों की, उस झरोखे के हटने (या नष्ट होने) पर भी देवदत्त आदि को, (जो व्यवहार में निर्विवाद रूप से द्रष्टा है) स्मृति होती (देखी जाती) है। इसी तरह इन्द्रिय-उपलब्ध पदार्थों को, इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी आत्मा स्मरण है, इसलिए वही (वस्तुतः) ज्ञाता है। यदि इन्द्रियां ही ज्ञाता होतीं तो उन (इन्द्रियों) के नष्ट होने पर, (इन्द्रियों से भिन्न) किस व्यक्ति को स्मरण होगा? क्योंकि ऐसा नहीं होता कि ज्ञान किसी को हो और स्मरण किसी और को होता हो, अन्यथा अतिप्रसंग होगा (अर्थात् देवदत्त को ज्ञान होगा तो यज्ञदत्त को स्मरण होने लगेगा, जो कभी होता नहीं)। किन्तु आत्मा को स्मरण होता है, इसलिए 'इन्द्रियां नहीं जानतीं' यह प्रतिज्ञा अखण्डित है, और उसका बाधक जो अनुभव-प्रत्यक्ष (इन्द्रियों द्वारा ज्ञान आदि) बताया गया है, वह भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि पूर्वोक्त अनुमान से वह बाधित होता है। यहां कोई शंकाकार कहता है- 'इन्द्रियां स्वतंत्र रूप से पदार्थों की उपलब्धि करती हैं' यह दर्शन (मत) किसका है? इसके उत्तर में हमारा कहना यह है कि (वैशेषिक दर्शन के मत में) इन्द्रिय व मन के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'प्रत्यक्ष' है, क्योंकि वे यह कहते हैं कि आत्मा का Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------143 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षत्वमस्य प्रागेव 'अक्खस्स पोग्गलकया जंदव्विंदिय-मणा परा तेणं' [अक्षस्य पुद्गलकृतानि यद् द्रव्येन्द्रिय-मनांसि पराणि तेन] इत्यादिग्रन्थेनोक्तम्, इति कुतस्तस्य प्रत्यक्षता?। अथ ज्ञानशून्येऽपीन्द्रियज्ञाननिमित्तत्वेन साक्षाद् व्याप्रियमाणत्वादुपचारेण 'अक्षमिन्द्रियं प्रति वर्तते' इति प्रत्यक्षता प्रोच्यते। हन्त! तर्हि 'इन्द्रियोपलब्धिः प्रत्यक्षम्' इत्येतल्लक्षणमिह न घटते, जीवोपलब्धित्वादस्याः / संव्यवहारमात्रेण तु प्रत्यक्षत्वमस्याऽस्माभिरप्यनन्तरमभ्युपगंस्यते, इति सिद्धसाध्यतैव॥ इति गाथार्थः // 12 // तदेवमिन्द्रिय-मनोनिमित्तज्ञानस्य परोक्षतां प्रतिपाद्य प्रयोगोपन्यासेन तामेव द्रढयन्नाह इंदिय-मणोनिमित्तं परोक्खमिह संसयादिभावाओ। तक्कारणं परोक्खं जहेह साभासमणुमाणं // 13 // [संस्कृतच्छाया:- इन्द्रियमनोनिमित्तं परोक्षमिह संशयादिभावात्। तत्कारणं परोक्षं यथेह साभासमनुमानम्॥] मन से संयोग होता है, मन इन्द्रिय के साथ जुड़ता है और इन्द्रिय का पदार्थ से संयोग होता है। उनका मत (दोषपूर्ण होने से) शोचनीय है, क्योंकि वैसा मानने पर वह ज्ञान उसी प्रकारं परोक्ष (कोटि में) हो जाएगा जिस प्रकार (उनके ही मत में) अनुमान को परोक्ष माना जाता है। इस तथ्य को हम पहले ही (पूर्व गाथा-90 में) 'अक्षस्य पुद्गलकृतानि' इत्यादि गाथा द्वारा (स्पष्ट) कह भी चुके हैं, ऐसी स्थिति में उस (इन्द्रियज ज्ञान) की प्रत्यक्षता कैसे मानी जा सकती है? यदि इन्द्रियों के ज्ञानशून्य होने पर भी, चूंकि इन्द्रियां ज्ञान में निमित्त होते हुए साक्षात् व्यापाररत होती हैं- इस आधार पर उनसे होने वाले ज्ञान को उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाये, तब तो और भी अधिक दुःख की बात यह है कि 'इन्द्रिय द्वारा की गई उपलब्धि प्रत्यक्ष प्रमाण है' ऐसा उनका लक्षण भी घटित नहीं हो पाएगा, क्योंकि यह उपलब्धि तो जीव को होती है (न कि इन्द्रिय को)।हां, मात्र संव्यवहार की दृष्टि से इन्द्रियनिमित्तक उपलब्धि की प्रत्यक्षता तो हम भी आगे स्वीकार करेंगे, अतः वह सिद्ध-साध्यता ही है (अर्थात् हमारी मानी हुई बात को ही सिद्ध करने का उनका प्रयास है)। यह गाथा अर्थ पूर्ण हुआ // 12 // (मति व श्रुत की परोक्षरूपता) इस प्रकार, इन्द्रिय-मनोनिमित से होने वाले ज्ञान की परोक्षता का प्रतिपादन कर, अनुमान की उपस्थापना द्वारा उसी बात को दृढ़ करने हेतु आगे कह रहे हैं (93) इंदिय-मणोनिमित्तं परोक्खमिह संसयादिभावाओ। तक्कारणं परोक्खं जहेह साभासमणुमाणं || [(गाथा-अर्थः) इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला (ज्ञान) परोक्ष है क्योंकि उसमें संशय (विपर्यय, अनिश्चय) आदि होते हैं। जिस प्रकार, साभास अनुमान (अनुमानाभास, असम्यक् अनुमान) और (सम्यक्) अनुमान के कारण भूत ज्ञान को परोक्ष माना जाता है, उसी तरह इस (तथाकथित इन्द्रियमनोनिमित्त-जनित ज्ञान) का कारण (भी) परोक्ष ही है।] Ma 14-------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदिन्द्रिय-मनोनिमित्तं ज्ञानमुपजायते तदात्मनः परोक्षम्। कुतः?, इत्याह- संशयादिभावादिति, आदिशब्दाद् विपर्ययाऽनध्यवसाय-निश्चयपरिग्रहः। तत्कारणमिति तानीन्द्रिय-मनांसि कारणं यस्य साभासानुमानस्य सम्यगनुमानस्य च तत् तत्कारणं ज्ञानमन्यत्राऽपि परोक्षं दृष्टम्, यथा साभासमनुमानं सम्यगनुमानं चेत्येवं लुप्तचकारस्य दर्शनाद् दृष्टान्तद्वयमिह द्रष्टव्यम्। तत्र संशय-विपर्ययाऽनध्यवसायसंभवलक्षणे हेतौ प्रथमो दृष्टान्तः, निश्चयसंभवस्वरूपे तु हेतौ द्वितीयो दृष्टान्तः। तथाहि प्रयोगः- यदिन्द्रिय-मनोनिमित्तं ज्ञानं तत् परोक्षम्, संशय-विपर्ययाऽनध्यवसायानां तत्र संभवात्, इन्द्रिय-मनोनिमित्ताऽसिद्धा-उनैकान्तिकविरुद्धानुमानाभासवत्, इति प्रथमः प्रयोगः। यदिन्द्रिय-मनोनिमित्तं ज्ञानं तत् परोक्षम्, तत्र निश्चयसंभवात्, धूमादेरग्न्याद्यनुमानवत्, इति द्वितीयः। यत् पुनः प्रत्यक्षं तत्र संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय-निश्चयाः न भवन्त्येव, यथाऽवध्यादिषु, इति विपर्ययः। ननु निश्चयसंभवलक्षणो हेतुरवध्यादिष्वपि वर्तत इत्यनैकान्तिक इति चेत्। नैवम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, संकेतस्मरणादिपूर्वको हि निश्चयोऽत्र विवक्षितः, तादृशश्चाऽयमवध्यादिषु नास्ति, ज्ञानविशेषत्वात् तेषाम्, इत्यदोषः / इति गाथार्थः॥१३॥ व्याख्याः- इन्द्रिय व मन के निमित्त से जो आत्मा को ज्ञान होता है, वह परोक्ष (ही) है। क्यों? उत्तर- (संशयादिभावात्) -अर्थात् उसमें संशय आदि होते हैं, इसलिए। आदि पद से विपर्यय, अनध्यवसायं व (संकेतस्मरण पूर्वक बाद में होने वाले) निश्चय का ग्रहण करना चाहिए। साभास अनुमान यह दृष्टांत है। 'च' पद से 'सम्यक् अनुमान' का भी (दृष्टान्त रूप से) ग्रहण कर दो दृष्टान्तों का निदर्शन यहां समझना चाहिए। जैसे- साभास अनुमान (अनुमानाभास) और सम्यक् अनुमान के कारण इन्द्रिय व मन हैं, उनसे होने वाले ज्ञान की परोक्षता अन्यत्र देखी (मानी) जाती है। - वहां (उक्त दो दृष्टांतों में) संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय के सद्भाव रूपी हेतु को प्रथम (साभास अनुमान) दृष्टान्त में विपर्यय, अनध्यवसाय का सद्भाव रूप हेतु प्रयुक्त है, और निश्चय का सद्भाव रूप हेतु द्वितीय (सम्यक् अनुमान) दृष्टान्त में प्रयुक्त समझना चाहएि। अब (दोनों) अनुमानवाक्य इस प्रकार हैं- जो इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान है, वह परोक्ष है, चूंकि वहां संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की वहां संभावना है, इन्द्रियमनोनिमित्तक असिद्ध, अनैकान्तिक व विरुद्ध (दोषों से युक्त) अनुमानाभास की तरह। यह प्रथम अनुमान-दृष्टान्त है। अब द्वितीय अनुमान-दृष्टान्त (सम्यक् अनुमान) इस प्रकार है- जो इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान है, वह परोक्ष है, क्योंकि वहां (बाद में) निश्चय होता है, धूम आदि हेतु से होने वाले अग्नि आदि के (सम्यक्) अनुमान की तरह। अब व्यतिरेक (विपर्यय) दृष्टान्त इस प्रकार है- जो प्रत्यक्ष होता है, वहां संशय, विपर्यय अनध्यवसाय नहीं होते और (बाद में) निश्चय भी नहीं होता, जैसे अवधि आदि ज्ञान। . (शंकाकार-) निश्चय का सद्भाव रूप हेतु तो अवधि आदि में भी है, इसलिए आप का (द्वितीय दृष्टान्तरूप) अनुमान (प्रयोग) 'अनैकान्तिक' दोष से दूषित है (अर्थात् विपक्ष में भी जो हेतु रहे, वह 'अनैकान्तिक' दोषयुक्त होता है। अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञान के उदाहरण 'विपक्ष' हैं, वहां निश्चय रूप हेतु विद्यमान है)। (उत्तर-) यह दोष नहीं घटित होता। क्योंकि 'निश्चय' से हमारा जो तात्पर्य है- उसे आपने नहीं समझा | हमारा तात्पर्य उस निश्चय से है जो संकेत-स्मरण आदि के बाद ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 145 AM Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमविशेषितमिन्द्रिय-मनोनिमित्तं ज्ञानं पक्षीकृत्य संशयादिसंभवहेतुद्वारेण परोक्षत्वं साधितम्। सांप्रतं विशेषत एव मतिश्रुते पक्षीकृत्य हेत्वन्तरेणापि तत् सिसाधयिषुराह होन्ति परोक्खाइं मइ-सुयाइंजीवस्स परनिमित्ताओ। पुत्वोवलद्धसंबंधसरणाओ वाणुमाणं व॥१४॥ [संस्कृतच्छाया:- भवतः परोक्षे मतिश्रुते जीवस्य परनिमित्तात्। पूर्वोपलब्धसम्बन्धस्मरणाद् वाऽनुमानमिव॥] मति-श्रुते जीवस्य परोक्षे, परनिमित्तत्वात्, पूर्वोपलब्धसंबन्धस्मरणद्वारेण जायमानत्वाद् वा, अनुमानवत् // इति गाथार्थः // 14 // आह- नन्विन्द्रिय-मनोनिमित्तं ज्ञानं परोक्षमिति यदुक्तं तदुत्सूत्रमेव, यतः सूत्रे प्रोक्तम्- "पच्चक्खं दुविहं पन्नत्तं, तं जहाइन्दियपच्चक्खं च नोइंदियपच्चक्खं च" इति। सत्यम्, किन्तु येयमिन्द्रियजज्ञानस्य प्रत्यक्षता प्रोक्ता सा संव्यवहारमात्रत एव, परमार्थतस्तु परोक्षमेवेदम्। तथा च भाष्यकारो विषयविभागमुपदर्शयन्निदमेवाह होता है, वही निश्चय यहां विवक्षित है। और वैसा निश्चय अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों में नहीं होता है, क्योंकि वे विशिष्ट ज्ञान हैं, (अतः अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञान प्रारम्भ से ही निश्चयात्मक होते हैं, कुछ समय बाद संकेतस्मरणपूर्वक निश्चय होता हो- ऐसा नहीं)। इसलिए अनुमान-प्रयोग दोषरहित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 13 // इस प्रकार, इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को (अनुमान-वाक्य में) ‘पक्ष' बना कर, संशयादि की सद्भावना रूप हेतु के द्वारा 'परोक्षता' (रूप साध्य) की सिद्धि की गई। अब मति व श्रुत (ज्ञान) को पक्ष बनाकर, अन्य हेतु द्वारा उस (परोक्षता) की सिद्धि करने की इच्छा से भाष्यकार कह रहे हैं (94) होन्ति परोक्खाई मइ-सुयाई जीवस्स परनिमित्ताओ। पुव्वोवलद्धसंबंधसरणाओ वाणुमाणं व॥ [(गाथा-अर्थः) जीव को मति व श्रुतज्ञान पर-निमित्तक होते हैं, अतः वे परोक्ष हैं, अथवा पूर्व में उपलब्ध (पदार्थ) से सम्बन्धित स्मरण के द्वारा होते हैं (अतः वे परोक्ष हैं) अनुमान की तरह।] व्याख्याः- मति व श्रुतज्ञान परनिमित्तक होने, अथवा पूर्वोपलब्ध सम्बन्ध के स्मरण के आधार पर उत्पन्न होने के कारण परोक्ष हैं, अनुमान की तरह- यह गाथा का अर्थ है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 14 // (संव्यवहार प्रत्यक्ष) यहां शंकाकार ने कहा- इन्द्रिय-मन से होने वाले ज्ञान को जो परोक्ष बताया गया है, वह आगमविरुद्ध है, क्योंकि आगम में कहा गया है कि प्रत्यक्ष दो प्रकार का है- (1) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, और A 146 -------- विशेषावश्यक भाष्य - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगंतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं। इंदिय-मणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // 15 // [संस्कृतच्छायाः- एकान्तेन परोक्षं लैङ्गिकमवध्यादिकं च प्रत्यक्षम्। इन्द्रियमनोभवं यत् तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम् // ] 'एगंतेण परोक्खं लिंगियमिति'। बाह्ये धूमादौ लिने भवं लैङ्गिकं यज्ज्ञानं तदेकान्तेनाऽऽत्मन इन्द्रिय-मनसां चाऽसाक्षात्कारेणोपजायमानत्वादेकान्तपरोक्षम्- इन्द्रिय-मनोभिर्गृहीते बाह्ये धूमादौ लिङ्गेऽग्न्यादिविषयं यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदेकान्तेन परोक्षम्, इन्द्रियमनसामात्मनश्च तद्ग्राह्यार्थस्यैकान्तेन परोक्षत्वात्, इति भावः। 'ओहाइयं च पच्चक्खमिति' 'एकान्तेन' इत्यत्राऽपि वर्तते, ततश्चाऽवधिमनःपर्याय-केवललक्षणं ज्ञानत्रयमेकान्तेनाऽऽत्मनः प्रत्यक्षम्, बाह्यलिङ्गमन्तरेणेन्द्रिय-मनोनिरपेक्षत्वेन च जीवस्य वस्तुसाक्षात्कारित्वादिति। 'इंदियमणोभवमित्यादि'। यत्पुनरिन्द्रिय-मनोभवं ज्ञानं तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम्, लिङ्गमन्तरेणैव यदिन्द्रिय-मनसां वस्तुसाक्षात्कारित्वेन ज्ञानमुपजायते तत् तेषां प्रत्यक्षत्वाल्लोकव्यवहारमात्रापेक्षया प्रत्यक्षमुच्यते, न परमार्थत इत्यर्थः, इन्द्रिय-मन:सु (2) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष। (उत्तर-) आपका आगमिक कथन सही है किन्तु वहां इन्द्रियजनित ज्ञान की जो प्रत्यक्षता कही गई है, वह केवल व्यावहारिक प्रत्यक्षता (का कथन) ही है, परमार्थ- (वास्तविक) रूप से तो वह (इन्द्रियजनित ज्ञान आदि) परोक्ष ही है। उसी बात को भाष्यकार दोनों (प्रत्यक्ष व परोक्ष) ज्ञानों के विषयगत विभाजन का निदर्शन करते हुए (अग्रिम गाथा में) कह रहे हैं (95) एगंतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं / इंदिय-मणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // [(गाथा-अर्थः) लैंगिक (यानी अनुमान) ज्ञान एकान्ततः परोक्ष है और अवधि आदि (तीन) ज्ञान (एकान्ततः) परोक्ष हैं। (किन्तु) इन्द्रिय व मन से जनित जो ज्ञान है, वह (मात्र) व्यवहारप्रत्यक्ष है।] . * व्याख्याः- (एकान्तेन परोक्षम्...) बाह्य धूम आदि लिङ्ग (हेतु) से होने वाला जो लैङ्गिक ज्ञान है, वह एकान्त (रूप से) परोक्ष है, क्योंकि वह आत्मा व इन्द्रिय-मन को साक्षात् उत्पन्न नहीं होता। तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय व मन द्वारा गृहीत बाह्य धूम आदि लिङ्ग (हेतु) के प्रत्यक्ष होने पर (पर्वत आदि में) अग्नि आदि विषयक जो (अनुमान) ज्ञान उत्पन्न होता है, वह एकान्त रूप से परोक्ष है, क्योंकि उस (ज्ञान) से गृहीत (अग्नि आदि) पदार्थ इन्द्रिय, मन व आत्मा के लिए परोक्ष ही होता है। - (अवध्यादिकं च)- 'एकान्त से' इस पद की अनुवृत्ति यहां भी की जानी चाहिए। इसलिए अर्थ यह निकला-अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान-ये तीनों ज्ञान एकान्त रूप से आत्मा के लिए प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे बाह्य लिङ्ग (हेतु) के बिना और इन्द्रिय व मन की अपेक्षा के बिना ही जीव को पदार्थ का साक्षात्कार कराते हैं। (इन्द्रिय-मनोभवम् इत्यादि)- किन्तु इन्द्रिय व मन से उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। तात्पर्य यह है कि लिङ्ग (हेतु) का आधार लिये बिना इन्द्रिय व मन VA ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------147 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेतनत्वेन ज्ञानवृत्तेरभावादिति प्रागेवोक्तम् / एतामेव च संव्यवहारप्रत्यक्षतामपेक्ष्याऽऽगमेऽपीन्द्रियप्रत्यक्षमित्युक्तम्, परमार्थतस्त्ववध्यादिकमेव प्रत्यक्षम्, आत्मनः प्रत्यक्षत्वात्, इदं तु तस्य परोक्षम्, परनिमित्तत्वात्, अनुमानादिवत्, इत्यनेकधा प्रोक्तमेव॥ आह- ननु भाष्यकारेणाऽपि कुत एतल्लब्धं यदुत- इन्द्रियमनोभवं ज्ञानं संव्यवहारत एव प्रत्यक्षम्, न परमार्थतः?, न ह्यत्र सूत्रे किमप्येवं विशेषतः प्रोक्तमस्ति 'इन्द्रियप्रत्यक्षम्' इति सामान्येनैव निर्देशात्। सत्यम्, किन्तु प्रदेशान्तरे प्रोक्तम्- 'परोक्खं दुविहं पन्नत्तं,तं जहा-आभिणिबोहिअनाणं परोक्खं च, सुयनाणं परोक्खं च' इति। न चाऽऽभिनिबोधिक-श्रुताभ्यामन्यदिन्द्रियनिमित्तं ज्ञानमस्ति यत् परमार्थतः प्रत्यक्षं स्यादिति॥ आह- यद्येवम्, तर्हि यल्लिङ्गमन्तरेणैव साक्षादिन्द्रियनिमित्तं ज्ञानमुत्पद्यते तत् परमार्थतः प्रत्यक्षमस्तु, यत्तु धूमादिलिङ्गादग्न्यादिविषयं लैङ्गिकं ज्ञानं तत् परोक्षस्वरूपे आभिनिबोधिक-श्रुते इष्यताम्, इत्यगमस्य प्रदेशद्वयोक्तमपि समर्थित भवति। तदयुक्तम्, धूमादिलिङ्गादग्न्यादिविषयलैङ्गिकज्ञानस्येन्द्रियनिमित्तत्वाभावात्, इन्द्रियं हि प्रत्युत्पन्नकालमात्रभाव्येव वस्तु गृह्णाति, लिङ्गात् तु वन्हि-आदिरर्थस्त्रिकालविषयोऽप्यनुमीयते / तस्माल्लैङ्गिकं ज्ञानं मनोनिमित्तमेव भवति, नेन्द्रियनिमित्तम्, इन्द्रिय-मनोनिमित्ते च मति-श्रुते अत्रैव वक्ष्येते, इति कथं केवलमनोविषयस्य लैङ्गिकज्ञानस्यैव मति-श्रुतरूपता स्यात्?। ... .. को वस्तु का साक्षात्कार रूप जो ज्ञान होता है, वह उन (इन्द्रियादि) के लिए प्रत्यक्ष होने से, मात्र लोक-व्यवहार की दृष्टि से प्रत्यक्ष कहा जाता है, किन्तु परमार्थ रूप से (वस्तुतः प्रत्यक्ष) नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय व मन अचेतन हैं और इसलिए उनमें ज्ञान-वृत्ति का सद्भाव नहीं हो (सक)ता- यह पहले ही कहा जा चुका है। इसी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षता को दृष्टि में रख कर आगम में भी इन्हें 'इन्द्रिय-प्रत्यक्ष' (रूप में) कहा गया है। परमार्थ रूप में तो अवधि आदि ही प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि आत्मा के लिए (वे ही) प्रत्यक्ष हैं। किन्तु ये (मति-श्रुत) ज्ञान तो आत्मा के लिए परोक्ष ही हैं, क्योंकि वे परनिमित्तक हैं, अनुमान आदि की तरह। इस तथ्य को अनेक प्रकार से पहले प्रतिपादित किया ही जा चुका है। (शंकाकार कहता है-) इन्द्रियमनोजन्य ज्ञान मात्र सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, परमार्थतः (प्रत्यक्ष) नहीं- यह तथ्य भाष्यकार को कैसे अवगत हुआ? सूत्र में तो सामान्यतः उन्हें मात्र इन्द्रियप्रत्यक्ष कहा गया है, और विशेष रूप से (सांव्यवहारिक नाम से) तो कुछ कहा नहीं गया है। (इस शंका का समाधान इस प्रकार है-) आपकी बात सही है। किन्तु आगम में (नन्दी सूत्र में ही) अन्य स्थल पर कहा गया है- “परोक्ष दो प्रकार का होता है- (1) आभिनिबोधिक परोक्ष ज्ञान, और (2) श्रुत परोक्ष ज्ञान / ' इन आभिनिबोधिक व श्रुत ज्ञान से पृथक्/भिन्न अन्य कोई इन्द्रियनिमित्तक ज्ञान नहीं है ताकि उन्हें पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाय। (पुनः शंकाकार कहता है-) यदि ऐसी बात है, तो लिङ्ग (हेतु) के बिना ही साक्षात् इन्द्रियज ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे तो परमार्थतः प्रत्यक्ष मान लें। हां, जो धूम आदि लिङ्ग से अग्नि आदि विषयक लैङ्गिक (अनुमान) ज्ञान होता है, उसे परोक्ष रूप आभिनिबोधिक-श्रुत में (परिगणित) कर लें, इस प्रकार उक्त दोनों स्थलों पर कहे गए (एक स्थल पर मति-श्रुत की परोक्षता, और दूसरी जगह Ma 148 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च, इन्द्रियजज्ञानस्य मति-श्रुताभ्यां पार्थक्ये षष्ठज्ञानप्रसङ्गः स्यात्। तस्मादिन्द्रियजज्ञानस्य मति-श्रुतयोरेवाऽन्तर्भावः, तथा च सति मति-श्रुतयोः परोक्षत्वे तस्याऽपि पारमार्थिकं परोक्षत्वमेव, मनोनिमित्तस्यापि ज्ञानस्य परनिमित्तत्वादनुमानवत् परोक्षत्वं प्रागेवोक्तम्।नच वक्तव्यम्-आगमे तत् तस्य न क्वचिद् विशेषतोऽभिहितम, यतो मति-श्रुतयोरागमे परोक्षत्वस्य विशेषतोऽभिधानात, मनोनिमित्तस्याऽपि च ज्ञानस्य तदन्तःपातित्वादिन्द्रियजज्ञानस्येव परोक्षत्वं सिद्धमेव॥ आह- ननु 'इंदियपच्चक्खं च नोइंदियपच्चक्खं च' इत्यत्र मनोनिमित्तज्ञानस्य सिद्धान्ते प्रत्यक्षत्वमुक्तम्, यतो नोइन्द्रियं तत्र मन उच्यते, तस्येन्द्रियैकदेशवृत्तित्वात्, नोशब्दस्य चैकदेशवचनत्वात्। ततश्च नोइन्द्रियनिमित्तं प्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षमिति व्युत्पत्त्या मनोनिमित्तज्ञानस्य प्रत्यक्षतैव स्यात्, कथं परोक्षता? इति। तदयुक्तम्, आगमार्थाऽपरिज्ञानात्। इन्द्रियज ज्ञान की प्रत्यक्षता-इन) आगमिक सिद्धान्तों का भी समर्थन हो जाएगा। (इस शंका का समाधान कर रहे हैं-) आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि इन्द्रियां वर्तमान काल की ही वस्तु को ग्रहण करती हैं, किन्तु लिङ्ग (हेतु) से तो अग्नि आदि त्रिकालवर्ती पदार्थ का अनुमान-ज्ञान होता है, अतः लैङ्गिक ज्ञान मनोनिमित्तक होता है, इन्द्रियनिमित्तक नहीं होता। मति-श्रुत -ये दोनों ही इन्द्रिय व मन -इन दोनों के निमित्त से होते हैं, जिसे यहीं आगे (स्पष्ट) कहेंगे, ऐसी स्थिति में मात्र मनोनिमित्तक लैङ्गिक ज्ञान को ही मति-श्रुत रूप कैसे कहा जा सकता है? . - दूसरी बात, इन्द्रियजनित ज्ञान को मति-श्रुत से पृथक् माना जाय तो एक छठे ज्ञान का अंतिप्रसंग हो जायेगा (अर्थात् पांच ज्ञान के अस्तित्व सम्बन्धी सिद्धान्त का खण्डन होगा, क्योंकि तब छः ज्ञान मानने पड़ेंगें)। इसलिए (यही उचित है कि) इन्द्रियजनित ज्ञान को मति व श्रुत में ही अन्तर्भूत माना जाय, और तब मति-श्रुत की परमार्थतः परोक्षता होने के कारण, इन्द्रियजनित ज्ञान की भी परमार्थतः परोक्षता ही. (सिद्ध) हुई। मनोनिमित्तक ज्ञान भी परनिमित्तक होने से (लैङ्गिक) अनुमान की तरह परोक्ष है- यह पहले ही कह चुके हैं। “आगम में मनोनिमित्तक ज्ञान की परोक्षता का कोई विशेष कथन नहीं हुआ है"- यह भी कहना ठीक नहीं, क्योंकि मति व श्रुत की परोक्षता का आगम में स्पष्ट कथन है, और मनोनिमित्तक ज्ञान भी उसी (मति व श्रुत) में अन्तर्भूत है, इसलिए इन्द्रियजनित ज्ञान की परोक्षता सिद्ध हो जाती है। (नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष) .. (शंकाकार का पुनः कथन-) इन्द्रियप्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष- इस (आगमिक) वचन में मनोनिमित्तक ज्ञान की प्रत्यक्षता को सिद्धान्त रूप से बताया गया है, क्योंकि वहां 'नो-इन्द्रिय' शब्द में 'नो' पद एकदेश का वाचक है और मन चूंकि इन्द्रिय-एकदेश है, इसलिए नो-इन्द्रिय का अर्थ 'मन' है। तब नोइन्द्रियनिमित्तक जो (यानी मनोनिमित्तक) प्रत्यक्ष-इस व्युत्पत्ति से मनोनिमित्तक ज्ञान की प्रत्यक्षता ही सिद्ध होती है, उसे परोक्ष कैसे कहा जाता है? (शंका का समाधान-) आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आगम के अर्थ को आप समझ नहीं पा रहे हैं। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------149 र Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र हि नोशब्दः सर्वनिषेधवचनः, ततश्चेन्द्रियाभाव एव नोइन्द्रियमच्यते, तथा च सति नोइन्द्रियेणेन्द्रियाभावेनाऽऽत्मनः प्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षमिति समासः, सर्वथेन्द्रियप्रवृत्तिरहितानि चाऽऽत्मनः प्रत्यक्षाण्यवधि-मन:पर्याय-केवलान्येव भवन्ति, न पुनर्मनोनिमित्तं ज्ञानम्। यदि पुनर्नोइन्द्रियं तत्र मनो व्याख्यायेत, तदा नोइन्द्रियनिमित्तं प्रत्यक्षमिति मनोनिमित्तमेवाऽवध्यादि ज्ञानं प्रत्यक्षं स्यात्, तथा च सति मन:पर्याप्त्याऽपर्याप्तस्य मनुष्य-देवादेरवधिज्ञानं न स्यात्, मनसोऽभावात्, तच्चाऽयुक्तम्, 'चुएमि त्ति जाणइ' इति सिद्धान्ते तस्याऽवधिज्ञानाभ्युपगमात्। किंच, सिद्धानामपि प्रत्यक्षज्ञानाभावः स्यात्, अमनस्कत्वात् तेषाम्। अपरं च, मनोनिमित्तं ज्ञानं मनोद्रव्यद्वारेणैव जायते, ततश्च परनिमित्तत्वादनुमानवत् परोक्षमेव तत् कथं प्रत्यक्षं स्यात्?। किञ्च, यद्येतत् परमार्थतः प्रत्यक्षं स्यात् तदा परोक्षत्वेनोक्तयोर्मति-श्रुतयोर्नान्तर्भवेत्, ततश्च मतेरष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वं न स्यात्, मनोज्ञानसंबन्धिनामवग्रहादिभेदानां पार्थक्यप्रसङ्गात्, तत्पार्थक्ये षष्ठज्ञानाऽवाप्तिश्च स्यादिति। (1) वहां ज्ञान के प्रसंग में नो-शब्द सर्वनिषेधवाचक है (न कि एकदेश का वाचक), अतः नोइन्द्रिय का अर्थ है- इन्द्रिय-अभाव / इस प्रकार, नो-इन्द्रिय से प्रत्यक्ष का अर्थ हुआ- सर्वथा इन्द्रियअभाव से, यानी साक्षात् आत्मा को जो प्रत्यक्ष होता है, वह ज्ञान / सर्वथा इन्द्रियप्रवृत्ति से रहित आत्मा को साक्षात् होने वाले ज्ञान ये तीन ही हैं- अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, और ये ही नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं, न कि मनोनिमित्तक ज्ञान / (2) यदि नो-इन्द्रिय का अर्थ 'मन' ही करेंगे तो नो-इन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष उन्हीं अवधि व मनःपर्यय ज्ञान को माना जा सकेगा जहां मन की निमित्तता हो, किन्तु तब मनःपर्याप्ति से रहित देव व मनुष्य को अवधि-ज्ञान प्रत्यक्ष का अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि वहां तो मन का सद्भाव ही नहीं है। परन्त वैसा (मनःपर्याप्ति से रहित को अवधिज्ञान का अभाव) मानना (आगमविरुद्ध होने से) अयुक्त (अनुचित) है, क्योंकि “मैं (स्वर्ग से) च्युत हूं- ऐसा जिनेन्द्र तीर्थंकर भगवान् महावीर जानते हैं'- ऐसा( आगमिक) वचन मिलता है, इसलिए सिद्धान्त रूप में (मनः-अपर्याप्ति दशा में भी) उन (देव-मनुष्यों) को अवधिज्ञान होना मानना पड़ेगा। (3) यदि मनोनिमित्तक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना जाय तो सिद्धों को प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि उन (सिद्धों) के मन तो होता नहीं। ___ (4) इतना ही नहीं, मनोनिमित्तक ज्ञान जो होता है, वह द्रव्य मन के द्वारा ही होता है, ऐसी स्थिति में वह अनुमान की तरह ही परनिमित्तक (अर्थात् आत्मा से भिन्न जो द्रव्यमन, उसके निमित्त से प्रादुर्भूत) होने से परोक्ष ही सिद्ध होगा, उसकी प्रत्यक्षता कैसे सिद्ध होगी? __(5) यदि यह (मनोनिमित्तक ज्ञान) परमार्थ से प्रत्यक्ष होता तो परोक्ष (प्रमाण) रूप में कहे गए मति व श्रुत में इसे अन्तर्भूत नहीं होना चाहिए, और तब मति के 28 भेद भी घटित नहीं होंगे, a 150 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मादिन्द्रिय-मनोभवं ज्ञानं परनिमित्तत्वात् परोक्षम्, मति-श्रुतान्तर्भावाच्च परमार्थतः परोक्षम्, संव्यवहारतस्तु प्रत्यक्षमिति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१५॥ तदेवं ज्ञानपञ्चके यत् प्रत्यक्षं यच्च परोक्षं तद् दर्शितम्, सांप्रतं 'जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई' इति यदुक्तं प्राक्, तदुपजीव्य परः प्राह सामित्ताइविसेसाभावाओ मइसुएगया नाम। लक्खण-भेआदिकयं नाणत्तं तयविसेसे वि॥१६॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वामित्वादिविशेषाभावात् मतिश्रुतैकता नाम। लक्षणभेदादिकृतं नानात्वं तदविशेषेऽपि॥] परः प्राह- ननु पूर्वं मति-श्रुतयोः स्वामि-कालादिभिस्तुल्यत्वमभिदधानैर्भवद्भिः स्वहस्ताङ्गाराकर्षणमनुष्ठितम्, यत एवं सति स्वामित्वादिभिर्विशेषाभावाद् मति-श्रुतयोरेकतैव प्राप्ता, न भेदः स्यात्। तथा च न ज्ञानपञ्चकसिद्धिः, धर्मभेदे हि वस्तूनां भेदः स्यात्, तदभेदे तु घट-तत्स्वरूपयोरिवाऽभेद एवं श्रेयानिति भावः। क्योंकि मानसिक ज्ञान अवग्रह आदि भेदों को (उन अट्ठाईस भेदों में से) पृथक् करना पड़ेगा, और ऐसा होने पर एक छठे ज्ञान को मानने का संकट खड़ा हो जाएगा। इसलिए, यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय व मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परनिमित्तक होने से परोक्ष है, मति व श्रुत में अन्तर्भूत होने से भी परमार्थतः परोक्ष है, किन्तु मात्र सांव्यवहारिक दृष्टि से वह प्रत्यक्ष (कहा जा सकता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 15 // (मति व श्रुत में लक्षण आदि की दृष्टि से भेद का निरूपण) - इस प्रकार; पांच ज्ञानों में जो प्रत्यक्ष है और जो परोक्ष है-उसका निदर्शन करा दिया गया। अब स्वामी, काल, कारण आदि की दृष्टि से मति व श्रुत की समानता का कथन पहले (गाथा सं. 85 में) कहा गया था, उसे दृष्टि में रख कर शंकाकार या जिज्ञासु की ओर से कथन (और आचार्य की ओर से उसका समाधान भी) प्रस्तुत किया जा रहा है (96) सामित्ताइविसेसाभावाओ मइसुएगया नाम / लक्खण-भेआदिकयं नाणत्तं तयविसेसे वि || ___ [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्ष-) स्वामित्व, काल आदि की अपेक्षा से कोई विशेषता यानी भेद नहीं होने से मति व श्रुत की एकता बताई, किन्तु गई है। (उत्तरपक्ष-) किन्तु भले ही वे दोनों समान हों, लक्षण-भेद आदि की दृष्टि से (तो) उनमें नानात्व (भिन्नता) है।] . . व्याख्याः- किसी (जिज्ञासु या शंकाकार) ने कहा- आपने मति व श्रुत की स्वामी, काल आदि की अपेक्षाओं से तुल्यता पहले बताई, किन्तु वैसा करते हुए आपने अपने हाथ में जलते अंगारे ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------151 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राऽऽचार्यः प्रत्युत्तरमाह- 'लक्खणेत्यादि / तेषां स्वामित्वादीनामविशेषस्तदविशेषस्तत्र सत्यपि मति-श्रुतयो नात्वं भिन्नत्वमस्ति। किंकृतम्?, इत्याह- लक्षणभेदादिकृतं, आदिशब्दाद् वक्ष्यमाणकार्यकारणभावादिपरिग्रहः। इदमुक्तं भवति- यद्यपि स्वामि-कालादिभिर्मतिश्रुतयोरेकत्वम्, तथापि लक्षण-कार्यकारणभावादिभिर्नानात्वमस्त्येव, घटाकाशादीनामपि हि सत्त्वप्रमेयत्वाऽर्थक्रियाकारित्वादिभिः साम्येऽपि लक्षणादिभेदाद् भेद एव। यदि पुनर्बहुभिर्धर्मं दे सत्यपि कियद्धर्मसाम्यमात्रादेवाऽर्थानामेकत्वं प्रेर्यते, तदा सर्वं विश्वमेकं स्यात, किं हि नाम तद् वस्त्वस्ति यस्य वस्त्वन्तरैः सह कैश्चिद् धर्न साम्यमस्ति? / तस्मात् स्वाम्यादिभिस्तुल्यत्वेऽपि लक्षणादिभिर्मति-श्रुतयोर्भेदः // इति गाथार्थः॥१६॥ तान्येव लक्षणादीनि पुरतो विस्तराभिधेयात् संपिण्ड्यैकगाथया दर्शयति ले लेने जैसा (स्वघाती) कार्य किया है, क्योंकि (यदि आपकी बात मान ली गई) फिर तो स्वामित्व / आदि अपेक्षाओं से मति व श्रुत की एकता ही स्थापित हो जाती है, और (पांच संख्या का व्याघात होने से) पांच ज्ञान की सिद्धि नहीं हो पाएगी, क्योंकि धर्म के भेद होने पर ही वस्तु का भेद माना जाता है (और मति व श्रुत में धर्म-भेद न होने पर दोनों को एक मानना पड़ेगा)। तात्पर्य यह है कि धर्म-भेद न होने पर भी वस्त की भिन्नता मानी जाय तो घट व घटस्वरूप-इन दोनों को भिन्न माना जाने लगेगा, इसलिए जैसे घट व घट-स्वरूप में अभेद माना जाता है, वैसे ही मति व श्रत में अभेद ही मानना श्रेयस्कर होगा। अब (उपर्युक्त शंका का समाधान हेतु) आचार्य अपने प्रत्युत्तर में कह रहे हैंक्षणभेदादिकतम-) यद्यपि स्वामित्व आदि की दृष्टि से उनमें अभेद है, फिर भी मति व श्रत में नानात्व है और दोनों भिन्न-भिन्न हैं। क्यों भिन्न हैं? उत्तर दिया- लक्षण-भेद आदि के कारण। 'आदि' पद से आगे कहे जाने वाले कार्यकारणभाव आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्वामित्व व काल आदि की अपेक्षाओं से मति व श्रुत की एकता (अभिन्नता) है, तथापि लक्षण व कार्यकारणभाव आदि की अपेक्षा से दोनों में नानात्व उसी प्रकार ही है, जिस प्रकार घटाकाश व पटाकाश आदि में यद्यपि सत्त्व, प्रमेयत्व, अर्थक्रियाकारित्व आदि की दृष्टि है, तथापि लक्षण आदि की भिन्नता के कारण उनमें (स्पष्ट) भेद ही (माना जाता है। यदि बहुत से धर्मों की भिन्नता होने पर भी, कुछ धर्मों की समता के आधार पर पदार्थों में एकत्व माना जाय तो समस्त विश्व ही एक हो जाएगा। ऐसी कौन सी वस्तु है जो अन्य वस्तुओं के साथ कछ धर्मों के आधार पर साम्य नहीं रखती? इसलिए स्वामी आदि की अपेक्षा से तुल्यता होने पर भी, लक्षण आदि की अपेक्षा से मति व श्रुत में भिन्नता (ही) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 16 // अब (मति व श्रुत में भिन्नता को पुष्ट करने वाले) लक्षण आदि को आगे विस्तार से कहने के पहले उन्हें एकत्रित कर एक गाथा के माध्यम से बता रहे हैं से Ma 152 -------- विशेषावश्यक भाष्य - ----- Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्खणभेआ हेऊफलभावओ भेयइन्दियविभागा। वागक्खरमूएयरभेआ भेओ मइ-सुयाणं // 17 // [संस्कृतच्छाया:- लक्षणभेदाद् हेतुफलभावाद् भेदेन्द्रियविभागात् / वल्काक्षरमूकेतरभेदाद् भेदो मतिश्रुतयो॥॥] लक्षणभेदाद् भिन्नलक्षणत्वाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। तथा मतिज्ञानं हेतुः, श्रुतं तु तत्फलं तत्कार्यम्, इति हेतुफलभावात् तयोर्भेदः। तथा 'भेअत्ति'। विभागशब्दोऽत्रापि योज्यते, ततश्च भेदानां विभागो विशेषो भिन्नत्वं भेदविभागः, तस्मादपि मति-श्रुतयोर्भदः। अवग्रहादिभेदादष्टाविंशत्यादिभेदं हि मतिज्ञानं वक्ष्यते 'अक्खर सन्नी सम्म' इत्यादि वक्ष्यमाणवचनाच्चतुर्दशादिभेदं च श्रुतज्ञानम्, इति भेदविभागात् तयोर्भेद इति भावः। 'इंदियविभाग त्ति'। तत्त्वतः श्रोत्रविषयमेव श्रुतज्ञानम्, शेषेन्द्रियविषयमपि मतिज्ञानम्, इत्येवं वक्ष्यमाणादिन्द्रियविभागाच्च तयोर्भेदः। 'वागेत्यादि / वल्कश्चाऽक्षरं च मूकं च वल्कादिप्रतिपक्षभूतानीतराणि च वल्काऽक्षर-मूकेतराणि तैर्योऽसौ भेदस्तस्मादपि मति-श्रुतयोर्भेद इत्यर्थः। (97) लक्खणभेआ हेऊफलभावओ भेयइन्दियविभागा। * वागक्खरमूएयरभेआ भेओ मइ-सुयाणं // [(गाथा-अर्थः) लक्षण-भेद से, हेतु-फल भाव से, भेद-विभाग से, इन्द्रिय-विभाग से, तथा वल्क, अक्षर, मूक-अमूक सम्बन्धी भिन्नता से, मति व श्रुत में भेद (भिन्नता) है।] व्याख्याः- दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं, अतः लक्षण-भेद के कारण मति व श्रुत में परस्पर भेद है। इसी तरह, मतिज्ञान हेतु है और श्रुत उसका फल यानी कार्य है, अतः हेतु-फलरूपता के कारण भी इन दोनों में भेद है। (भेद-इन्द्रियविभागात्-) विभाग पद को भेद व इन्द्रिय -इन दोनों से जोड़ना चाहिए, अतः भेदविभाग व इन्द्रियविभाग- दोनों के आधार पर भिन्नता है। अवग्रह आदि भेदों के कारण मतिज्ञान के 28 आदि भेद हैं तो 'अक्षरं संज्ञि सम्यक्' इत्यादि आगे कहे जाने वाले वचनों से श्रुतज्ञान के 24 आदि भेद हैं, इस प्रकार दोनों की प्रकार-भिन्नता होने से भी उनमें भिन्नता है। इन्द्रियविभाग के कारण, अर्थात् वस्तुतः श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय का ही विषय है, जबकि मतिज्ञान शेष इन्द्रियों का भी विषय है, इस प्रकार आगे कहे जाने वाले इन्द्रिय-सम्बन्धी विभाग के कारण भी उन दोनों (मति व श्रुत) में भिन्नता है। . (वल्काक्षरमूकेतरभेदात्-) तात्पर्य यह है कि वल्क, अक्षर, मूक और इनसे इतर यानी प्रतिपक्षी अर्थात् अवल्क, अनक्षर व अमूक-इन के आधार पर जो इनमें परस्पर भेद है, उसके कारण भी दोनों में भिन्नता है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 153 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाहि-'अन्ने मग्गंति मई वग्गसमा सुंबसरिसयं तु सुत्तं' इत्यादिना ग्रन्थेन कारणत्वाद् वल्कसदृशं मतिज्ञानं, सुंबसदृशं तु श्रुतज्ञानं कार्यत्वादित्यत्रैव वक्ष्यते। तत्र वल्कः पलाशादित्वग्रूपः, शुम्बं त्वितरशब्देनेहोपात्तं तज्जनिता दवरिकोच्यते। ततश्चायमभिप्रायः- यथा वलनादिसंस्कृतो विशिष्टावस्थापन्नः सन् वल्को 'दवरिका' इत्युच्यते, तथा परोपदेशाहद्वचनसंस्कृतं विशिष्टावस्थाप्राप्तं सद् मतिज्ञानं श्रुतमभिधीयते, इत्येवं वल्केतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। तथा- अन्ने अणक्खरक्खरविसेसओ मइसुयाइं भिदन्ति / जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // -इत्यादिग्रन्थेन . वक्ष्यमाणादक्षरेतरभेदात् तयोर्भेदः। तथा- सपरप्पच्चायणओ भेओ मूयेयराण वाऽभिहिओ। जं सुयं मइनाणं सपरप्पच्चायगं सुत्तं // -इत्याद्यभिधास्यमानवचनाद् मूकेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। इति गाथासंक्षेपार्थः, विस्तरार्थं तु भाष्यकार: स्वत एव वक्ष्यति। इयं च गाथा बहुष्वादशॆषु न दृश्यते, केवलं क्वचिदादर्शेऽपि दृष्टा, अतीव सोपयोगा च, इत्यस्माभिः किञ्चिद्व्याख्यातेति // 27 // उदाहरणार्थ- आगे 154वीं गाथा ‘अन्ये मन्यन्ते मतिः वल्कसमा' के द्वारा "श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान वल्कल (छाल) के समान है, और श्रुतज्ञान कार्य होने से अवल्क रूप-सुंब या शुम्ब है' जिसका निरूपण आगे किया जाएगा। यहां वल्क का अर्थ है- पलाश आदि की छाल, और अवल्क रूप 'शुम्ब' जो यहां प्रयुक्त है, उसका अर्थ है उस छाल से बनी 'दवरिका' (छाल को गूंथकर बनाई हुई दरी, चटाई या लड़ी)। इस प्रकार कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे गूंथने आदि से. परिष्कृत होकर छाल एक विशिष्ट रूप को प्राप्त कर ‘दवरिका' (दरी) कही जाती है, उसी तरह परोपदेश यानी अर्हद्-वचन के रूप में सुसंस्कृत होकर मतिज्ञान ही विशिष्ट स्थिति (स्वरूप) को प्राप्त होता हुआ श्रुतज्ञान के रूप में जाना जाता है, इस प्रकार वल्क-अवल्क के रूप में इनकी भिन्नता होने से भी मति व श्रुत में भिन्नता है। तथा आगे 162वीं गाथा में कहा गया है कि “कुछ लोग अक्षर व अनक्षर रूप में मति व श्रुत में भिन्नता मानते हैं क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर है और श्रुतज्ञान उससे भिन्न अक्षरात्मक है।" अतः अक्षर व अनक्षर- इन रूपों के आधार पर भी इन दोनों (मति व श्रुत) में भिन्नता है। तथा आगे (171वीं गाथा द्वारा) यह कहा गया है कि “मति ज्ञान मूक है और श्रुत स्वपरप्रत्यायक (स्व और पर को प्रतीति कराने वाला) होने से अमूक (मुखर) है।'' अतः मूक व मूकेतर (यानी मुखर) रूप में परस्पर भेद होने से भी इन (मति व श्रुत) में भिन्नता है। यह गाथा का संक्षिप्त अर्थ हुआ, विस्तृत अर्थ तो भाष्यकार स्वयं ही आगे कहेंगें। __ यह गाथा अनेक प्रतियों में उपलब्ध नहीं है, केवल किसी एक प्रति में दृष्टिगोचर होती है, किन्तु चूंकि यह अत्यन्त उपयोगी है, इसलिए हमने इसकी कुछ व्याख्या की है॥१७॥ Ma 154 ---- --- विशेषावश्यक भाष्य-- Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र 'यथोद्देशं निर्देशः' इति कृत्वा लक्षणभेदं तावदाह जमभिनिबुज्झइ तमभिनिबोहो जं सुणइतं सुयं भणियं। सदं सुणइ जइ तओ नाणं तो नाऽऽयभावो तं॥१८॥ [संस्कृतच्छाया:- यदभिनिबुध्यते तदभिनिबोधः, यत् श्रृणोति तत् श्रुतं भणितम्। शब्दं शृणोति यदि सको ज्ञानं ततो नात्मभावस्तत्॥] . यज्ज्ञानं कर्तृ, वस्तु कर्मताऽऽपन्नमभिनिबुध्यतेऽवगच्छति तज्ज्ञानमभिनिबोधस्तदाभिनिबोधिकं तद् मतिज्ञानमिति यावत्, 'जं सुणईत्यादि'। यत् पुनर्जीवः शृणोति तच्छृतम्, इत्येवं सूत्रोक्तलक्षणभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः / तथा च सूत्रम्- 'जइ वि सामित्ताईहिं अविसेसो, तह वि पुणोऽत्थाऽऽयरिआ नाणत्तं पण्णवयंति, तं जहा- अभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियं, सुणेइ त्ति सुयं' इत्यादि। अब भाष्यकार 'यथोद्देश निर्देश के अनुरूप (अर्थात् मति-श्रुत के परस्पर-भेद के कारणों को जिस क्रम से उद्दिष्ट-संकेतित किया गया है, उसी के अनुरूप, क्रमप्राप्त प्रथम कारण) लक्षण-भेद का निरूपण कर रहे हैं (98) ___ जमभिनिबुज्झइ तमभिनिबोहो जं सुणइ तं सुयं भणियं / सदं सुणइ जइ तओ नाणं तो नाऽऽयभावो तं // (गाथा-अर्थः) जो ज्ञान (वस्तु को) जानता है, वह 'अभिनिबोध' है और जिसे जीव सुनता है (यानी जो सुना जाता है) वह 'श्रुत' है (इस प्रकार इन दोनों का लक्षण-भेद है)। . (शंकाकार-) जिसे जीव सुनता है, वह यदि 'श्रुत' ज्ञान है तो वह आत्म-परिणाम नहीं सिद्ध .होगा (और ऐसी स्थिति में आगमिक विरोध का संकट आएगा)।] - व्याख्याः- (यत् अभिनिबुध्यते-) (जो जानता है- इस कथन में) ज्ञान कर्ता है, जानने की क्रिया की कर्मभूत वस्तु उस ज्ञान का विषय है। वस्तु को जो जानता है वह ज्ञान अभिनिबोध है, उसे ही आभिनिबोधिक कहते हैं और वही मतिज्ञान है- यह तात्पर्य है। (यत् शृणोति-) और जिसे जीव सुनता है, वह 'श्रुत' है- इस प्रकार आगमोक्त लक्षण-भेद होने के कारण मति व श्रुत में भिन्नता है। आगम का वचन है- “यद्यपि स्वामित्व आदि की दृष्टि से इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है, तथापि आचार्य इनमें नानात्व (भिन्नता) का इस प्रकार निरूपण करते हैं- जो अभिनिबोधन करता है, वह आभिनिबोधिक है और जो सुनता है वह 'श्रुत' है'। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------155 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह प्रेरक:- यदि नाम यदाऽऽत्मा शृणोति तच्छ्रुतमिति श्रुतज्ञानस्य लक्षणमुच्यते, हन्त! तर्हि शब्दमेव शृणोति जीव / इति सकलजगत्प्रतीतमेव। ततः किं झूयते?, इत्याह- 'जइ तओ इत्यादि' यदि च सकः स शब्दो ज्ञानं श्रुतरूपम्, 'तो त्ति' ततो नात्मनो जीवस्य भावः परिणामस्तच्छ्रुतं प्राप्नोति, शब्दस्य श्रुतत्वेनेष्टत्वात्, तस्य च पौद्गलिकत्वेन मूर्तत्वात्, आत्मनस्त्वमूर्तत्वात्, मूर्तस्य चामूर्तपरिणामत्वायोगात्, आत्मनः परिणामश्च श्रुतज्ञानमिष्यते तीर्थंकरादिभिः, इति कथं न विरोधः? इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८॥ अत्राचार्य: प्रत्युत्तरयति सुयकारणं जओ सो सुयं च तक्कारणं ति तो तम्मि। कीरइ सुओवयारो सुयं तु परमत्थओ जीवो॥१९॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रुतकारणं यतः स श्रुतं च तत्कारणमिति ततस्तस्मिन् / क्रियते श्रुतोपचारः श्रुतं तु परमार्थतो जीवः॥] यतो यस्मात् कारणात् स शब्दो वक्त्राऽभिधीयमानः श्रोतृगतस्य श्रुतज्ञानस्य कारणं निमित्तं भवति, श्रुतं च वक्तृगतश्रुतोपयोगरूपं व्याख्यानकरणादौ तस्य वक्त्राऽभिधीयमानस्य शब्दस्य कारणं जायते, इत्यतस्तस्मिन् श्रुतज्ञानस्य कारणभूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते। ततो न परमार्थतः शब्दः श्रुतम्, किन्तपचारत इत्यदोषः। यहां (कोई) शंकाकार कह रहा है- जिसे आत्मा सुनता है, वह 'श्रुत' है- यदि श्रुतज्ञान का यह लक्षण कह रहे हैं, तब तो बड़े खेद की बात है, क्योंकि शब्द को ही जीव सुनता है- यह समस्त लोक में स्पष्ट (अनुभूत) है। तो यह मानने से क्षति क्या हुई? (तब शंकाकार ने) कहा- (यदि सकः) यदि वह शब्द ही श्रुत रूप है, (ततः-) तो वह श्रुत आत्म-परिणाम नहीं रह जाता, क्योंकि शब्द को आप 'श्रुत' मान रहे हैं और शब्द तो पौद्गलिक होने से मूर्त है और आत्मा तो अमूर्त है, मूर्त वस्तु अमूर्त का परिणाम नहीं होती। किन्तु (सिद्धान्त में तो) तीर्थंकर आदि ने श्रुतज्ञान को आत्म-परिणाम रूप से माना है, अतः (आगम से, सिद्धान्त से) विरोध कैसे नहीं हुआ? अर्थात् अवश्य होता है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 98 // (शब्द उपचारतः श्रुत) उक्त शंका का उत्तर आचार्य (भाष्यकार) दे रहे हैं (99) सुयकारणं जओ सो सुयं च तक्कारणं ति तो तम्मि / कीरइ सुओवयारो सुयं तु परमत्थओ जीवो // [(गाथा-अर्थः) वह (शब्द) श्रुत का कारण है, और श्रुत भी शब्द का कारण होता है, इसलिए शब्द में 'श्रुत' का 'उपचार' किया जाता है, परमार्थतः (वस्तुतः) तो जीव ही 'श्रुत' है।] व्याख्याः- (यतः) जिस कारण से, वह शब्द वक्ता द्वारा बोला हुआ, श्रोता के (आन्तरिक) श्रुत-ज्ञान का कारण यानी निमित्त होता है। वक्ता का (आन्तरिक) श्रुतोपयोग रूप 'श्रुत' भी, व्याख्यान via 156 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थतस्तर्हि किं श्रुतम्?, इत्याह- 'सुयं त्वित्यादि' परमार्थतस्तु जीवः श्रुतम्, ज्ञान-ज्ञानिनोरनन्यभूतत्वात्। तथा च पूर्वमभिहितम्- शृणोतीति श्रुतमात्मैवेति। तस्मात् श्रूयत इति श्रुतमिति कर्मसाधनपक्षे द्रव्यश्रुतमेवाभिधीयते, शृणोतीति श्रुतमिति, कर्तृसाधनपक्षे तु भावश्रुतमात्मैव, इति न काचिदनात्मभावता श्रुतज्ञानस्य ॥इति गाथार्थः॥१९॥ अथ प्रकारान्तरेणापि मति-श्रुतयोर्लक्षणभेदमाह इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं // 100 // [संस्कृतच्छाया:- इन्द्रियमनोनिमित्तं यद् विज्ञानं श्रुतानुसारेण / निजकार्योक्तिसमर्थं तद् भावश्रुतं मतिः शेषम्॥] इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि मनश्च, इन्द्रिय-मनांसि, तानि निमित्तं यस्य तदिन्द्रियमनोनिमित्तम्, इन्द्रिय-मनोद्वारेण यद् विज्ञानमुपजायत इत्यर्थः। आदि करते समय, वक्ता द्वारा बोले जाने वाले शब्द का कारण होता है- इसलिए श्रुतज्ञान के कारणभूत या कार्यभूत उस शब्द में 'श्रुत' का उपचार किया जाता है। इसलिए, परमार्थ रूप से शब्द 'श्रुत' नहीं है, मात्र उपचार से ही है, अतः कोई दोष नहीं। (प्रश्न-) तो परमार्थ से 'श्रुत' क्या है? (उत्तर रूप में) कहा- (श्रुतं तु-) परमार्थ से तो जीव ही श्रुत है, क्योंकि ज्ञान व ज्ञानी में अनन्यता (तदात्मता, अभिन्नता) है। जैसा कि पहले भी कहा गया हैजो सुनता है, वह आत्मा ही श्रुत है। इसलिए जब 'जो सुना जाय, वह श्रुत है' –यह कर्मपरक अर्थ करते हैं तो वहां 'द्रव्यश्रुत' का कथन किया गया जानना। जो सुनता है, वह श्रुत है' इस कर्तृसाधनता की विवक्षा में (श्रुत शब्द से) भावश्रुत रूप आत्मा ही अभिहित होता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान की कोई अनात्मपरिणामता (आत्म-परिणाम न होने की आपत्ति) नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // अब भाष्यकार अन्य प्रकार से भी मति व श्रुत के लक्षण-भेद (यानी दोनों के भिन्न-भिन्न लक्षण) को बता रहे हैं (100) इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं / निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं || [(गाथा-अर्थः) (घटादि शब्द रूप) श्रुत का अनुसरण कर इन्द्रिय व मन से उत्पन्न होने वाला विज्ञान- जिसमें अपने में निहित अर्थ को कहने की सामर्थ्य होती है, वह- भावश्रुत है, शेष मति ज्ञान है। व्याख्याः- स्पर्श आदि (पांच इन्द्रियां),और मन, ये जिस ज्ञान में निमित्त हैं, वह इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान है, वह ज्ञान इन्द्रिय व मन के द्वारा उत्पन्न होता है -यह तात्पर्य है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 157 ol Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् किम्?, इत्याह- तद् भाव श्रुतं श्रुतज्ञानमित्यर्थः। इन्द्रिय-मनोनिमित्तं च मतिज्ञानमपि भवति, अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह'श्रुतानुसारेणेति'। श्रूयत इति श्रुतं द्रव्यश्रुतरूपं शब्द इत्यर्थः, स च संकेतविषयपरोपदेशरूपः, श्रुतग्रन्थात्मकश्चेह गृह्यते, तदनुसारेणैव यदुत्पद्यते तत् श्रुतज्ञानम्, नान्यत्। इदमुक्तं भवति- संकेतकालप्रवृत्तं श्रुतग्रन्थसंबन्धिनं वा घटादिशब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याद्यन्त ल्पाकारमन्तःशब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियादिनिमित्तं यज्ज्ञानमुदेति ज्ञानमिति। तच्च कथंभूतम्? इत्याह- 'निजकाऽर्थोक्तिसमर्थमिति'। निजकः स्वस्मिन् प्रतिभासमानो योऽसौ घटादिरर्थस्तस्योक्तिः परस्मै प्रतिपादनं तत्र समर्थं क्षमं निजकाऽर्थोक्तिसमर्थम्, अयमिह भावार्थ:- शब्दोल्लेखसहितं विज्ञानमुत्पन्नं स्वप्रतिभासमानार्थप्रतिपादकं शब्दं जनयति, तेन च परः प्रत्याय्यते, इत्येवं निजकाऽर्थोक्तिसमर्थमिदं भवति, अभिलाप्यवस्तुविषयमिति यावत्। स्वरूपविशेषणं चैतत, शब्दानुसारेणोत्पन्नज्ञानस्य निजकार्थोक्तिसामर्थ्याऽव्यभिचारादिति। 'मई सेसं ति'। शेषमिन्द्रियमनोनिमित्तमश्रुतानुसारेण यदवग्रहादिज्ञानं, तद् मतिज्ञानमित्यर्थः॥ (प्रश्न-)यह क्या है? (उत्तर-) वही भावश्रुत है यानी श्रुतज्ञान है। चूंकि इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान तो मतिज्ञान भी होता है, अतः उस (की मतिज्ञानता) के निराकरण हेतु कहा- (श्रुतानुसारेण-) जो सुना जाय, वह शब्द 'द्रव्यश्रुत' रूप है, वह (दो प्रकार का होता है- इसलिए) संकेत विषयक परोपदेश रूप और शास्त्र रूप भी होता है। यहां श्रुत रूप से दोनों ही प्रकार ग्राह्य हैं। इस प्रकार के 'श्रुत' के अनुसार जो उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान है, और कुछ ( यानी मतिज्ञान) नहीं। तात्पर्य यह है कि संकेत-समय प्रयुक्त शब्द का या फिर श्रुत-शास्त्र से सम्बन्धित घट आदि शब्द का अनुसरण कर (उसे सुनकर), (मन में) वाच्य-वाचक भाव से (अर्थात् सुने हुए शब्द का वाच्य अर्थ यह है, और इस अर्थ का वाचक अमुक शब्द है- इस प्रकार) संयोजित कर ‘घट घट है' (यह घट शब्द है, यह घट पदार्थ उसका वाच्य है) इत्यादि आन्तरिक रूप से होने वाले 'अन्तर्जल्प' के आकार वाला, अन्तःकरण में शब्दोल्लेखसहित, इन्द्रियादिनिमित्तक जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान है। वह कैसा होता है? इसलिए कहा- (निजकार्थ- उक्तिसमर्थम-) जो अपना, यानी स्वयं में प्रतिभासमान जो घटादि पदार्थ, उसके कथन में, यानी दूसरे को प्रतीति कराने में समर्थ होता है। तात्पर्य यह है कि शब्दोल्लेखसहित जो विज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वयं में अन्तर्निहित प्रतीयमान अर्थ के प्रतिपादक शब्द को उत्पन्न करता है, जिससे दूसरा व्यक्ति (वक्ता के भाव को) समझता है, इस प्रकार यह ज्ञान अपने अर्थ की प्रतीति कराने में समर्थ होता है, अर्थात् उस ज्ञान का विषय उसका अपना कथनीय पदार्थ होता है। 'स्वकीय-अर्थ-प्रतिपादनसमर्थ' यह ज्ञान का स्वरूप-विशेषण है, क्योंकि शब्दानुसारी उत्पन्न ज्ञान अव्यभिचरित (निश्चित) रूप से स्वकीय-अर्थ-प्रतिपादनसमर्थ होता ही है। (मतिःशेषम्-) अवशिष्ट -------- विशेषावश्यक भाष्य - - Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह कश्चित्- ननु यदि शब्दोल्लेखसहितं श्रुतज्ञानमिष्यते, शेषं तु मतिज्ञानम्, तदा वक्ष्यमाणस्वरूपोऽवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न पुनरीहाऽपायादयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात्, मतिज्ञानभेदत्वेन चैते प्रसिद्धाः, तत् कथं श्रुतज्ञानलक्षणस्य नाऽतिव्याप्तिदोषः? कथं च न मतिज्ञानस्याव्याप्तिप्रसङ्गः?। अपरं च, अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिषु 'अक्खर सन्नी सम्मं साईअं खलु सपज्जवसियं च' इत्यादिषु च श्रुतभेदेषु मतिज्ञानभेदस्वरूपाणामवग्रहेहादीनां सद्भावात् सर्वस्यापि तस्य मतिज्ञानत्वप्रसङ्गात्, मतिज्ञानभेदानां चेहाऽपायादीनां साभिलापत्वेन श्रतज्ञानत्वप्राप्तेरुभयलक्षणसंकीर्णतादोषश्च स्यात् // अत्रोच्यते- यत् तावदुक्तम्- अवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न त्वीहादयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात्। तदयुक्तम्, यतो यद्यपीहादयः साभिलाषाः, तथापि न तेषां श्रुतरूपता, श्रुतानुसारिण एव साभिलापज्ञानस्य श्रुतत्वात्। अथाऽवग्रहादयः श्रुतनिश्रिता एव सिद्धान्ते प्रोक्ताः, युक्तितोऽपि चेहादिषु शब्दाभिलापः सङ्केतकालाद्याकर्णितशब्दानुसरणमन्तरेण न सङ्गच्छते, अतः कथं न तेषां श्रुतानुसारित्वम्?। तदयुक्तम्, पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतेरेवैते समुपजायन्त इति अवग्रहादि जो ज्ञान इन्द्रिय-मनोनिमित्तक होता हुआ श्रुतानुसारी नहीं होता, वह मतिज्ञान ही होता है- यह तात्पर्य है। - यहां कोई शंकाकार कहता है- यदि 'शब्दोल्लेख ज्ञान श्रुतज्ञान है, शेष मतिज्ञान है' ऐसा माना जाय तो अवग्रह, जिसका स्वरूप आगे बताया जाने वाला है, केवल वही मतिज्ञान कहा जाएगा, और ईहा, अपाय आदि (मतिज्ञान के भेद) मतिज्ञान नहीं कहे जा सकेंगे, क्योंकि वे तो शब्दोल्लेख सहित होते हैं, किन्तु वे तो मतिज्ञान के ही भेद रूप में प्रसिद्ध हैं। और तब श्रुतज्ञान के लक्षण में अंतिव्याप्ति दोष क्या नहीं लगेगा? और साथ ही मति ज्ञान के लक्षण में भी अव्याप्ति दोष क्या नहीं आएगा? ___ दूसरी बात, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि, तथा अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत आदि जो भेद (आगामी 454वीं आदि गाथाओं में) श्रुतज्ञान के बताये गए हैं, उनमें (पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार) मतिज्ञान के रूप में परिगणित होने वाले अवग्रहादि के समाहित हो जाने से समस्त श्रुतज्ञान की मतिज्ञानरूपता हो जाएगी, और मतिज्ञान के भेद ईहा-अपाय आदि का शब्दोल्लेखसहित होने से उनकी श्रुतज्ञानता हो जाएगी, इस प्रकार (मति व श्रुत-इन) दोनों के लक्षणों में सांकर्य दोष आ जाएगा। उपर्युक्त शंका का समाधान किया जा रहा है- पहले तो आपने जो यह कहा कि 'अवग्रह ही मतिज्ञान हो पाएगा, और शब्दोल्लेखहित होने के कारण ईहा आदि मतिज्ञान नहीं कहे जा सकेंगे', यह कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यद्यपि ईहा आदि ज्ञान शब्दोल्लेखसहित हैं, तथापि वे श्रुतज्ञान इसलिए नहीं कहे जाएंगे क्योंकि शब्दोल्लेखसहित ज्ञान तभी श्रुतज्ञान कहलाता है जो श्रुतानुसारी हो। (शंकाकार की ओर से सम्भावित प्रश्न-) अवग्रह आदि को सिद्धान्त में श्रुतनिश्रित ही कहा गया है, युक्ति से भी सोचें तो संकेत-काल आदि में सुने गये शब्द का अनुसरण न हो तो ईहा आदि में ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 159 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते, न पुनर्व्यवहारकाले श्रुतानुसारित्वमेतेष्वस्ति, वक्ष्यते च- 'पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं, तं सुयनिस्सियं' इत्यादि। यदपि युक्तितोऽपि चेत्याद्युक्तम्, तदपि न समीचीनम्, संकेतकालाद्यकर्णितशब्दपरिकर्मितबुद्धीनां व्यवहारकाले तदनुसरणमन्तरेणाऽपि विकल्पपरम्परापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात्, न हि पूर्वप्रवृत्तसंकेताः, अधीतश्रुतग्रन्थाश्च व्यवहारकाले प्रतिविकल्पन्ते- एतच्छब्दवाच्यत्वेनैतत्पूर्वं मयाऽवगतमित्येवंरूपं संकेतम्, तथाऽमुकस्मिन् ग्रन्थे एतदित्थमभिहितमित्येवं श्रुतग्रन्थं चाऽनुसरन्तो दृश्यन्ते, अभ्यासपाटववशात् तदनुसरणमन्तरेणाऽप्यनवरतं विकल्पभाषणप्रवृत्तेः। यत्र तु श्रुतानुसारित्वं तत्र श्रुतरूपताऽस्माभिरपि न निषिध्यते। तस्मात् श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतत्वाभावादीहाऽपायधारणानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वाद् न मतिज्ञानलक्षणस्याऽव्याप्तिदोषः, श्रुतरूपतायाश्च श्रुतानुसारिष्वेव साभिलापज्ञानविशेषेषु भावाद् न श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽतिव्याप्तिकृतो दोषः। अपरं चाङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिश्रुतभेदेषु मतिपूर्वमेव श्रुतमिति वक्ष्यमाणवचनात् प्रथमं शब्दाद्यवग्रहणकालेऽवग्रहादयः समुपजायन्ते, एते चाऽश्रुतानुसारित्वाद् मतिज्ञानम्, यस्तु तेष्वङ्गाऽनङ्गप्रविष्टश्रुतभेदेषु श्रुतानुसारी ज्ञानविशेषः स श्रुतज्ञानम्। शब्दोल्लेख होना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता, अतः उनका श्रुतानुसारी होना कैसे सम्भव है? (उपर्युक्त प्रश्न का समाधान-) आपका यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि पहले श्रुत-सम्बन्धी संस्कारप्राप्त मतिज्ञान वाले व्यक्ति को ही जो अवग्रह आदि होते हैं, उन्हें श्रुतनिश्रित कहा गया है, न कि व्यवहार-काल में उनमें श्रुतानुसारित्व नहीं है। इसी दृष्टि से आगे (गाथा-169 में) कहा गया है"व्यवहारकाल से पूर्व 'श्रुत' से संस्कारित बुद्धि वाले को, व्यवहारकाल में जो श्रुत-निरपेक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवग्रह आदि ज्ञान श्रुतनिश्रित है"। और जो आपने कहा कि युक्ति से भी ईहादि की श्रुतानुसारिता असंगत है, तो वह कथन भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि संकेत-काल में सुने हुए शब्द से संस्कारित बुद्धि वालों की, व्यवहार-काल में शब्द के अनुसरण के बिना भी विकल्पपरम्परापूर्वक वचन-सम्बन्धी विविध प्रवृत्तियां होती देखी जाती हैं। जिन्हें पहले संकेत-ज्ञान हो चुका है, या श्रुत-ग्रन्थों का जो अध्ययन कर चुके हैं, उन्हें व्यवहार-काल में ऐसे विकल्पादि नहीं उत्पन्न होते कि अमुक शब्द से वाच्य यह अमुक वस्तु मैंने पूर्व में जानी है और इस प्रकार संकेत का अनुसरण वे नहीं करते, इसी तरह 'अमुक ग्रन्थ में ऐसा कहा गया हैं- इस प्रकार के श्रुतग्रन्थ का अनुसरण भी वे नहीं करते, किन्तु अभ्यास-पटुता के कारण उक्त संकेत व श्रुत के अनुसरण के बिना भी, निरन्तर उनकी विकल्पसहित भाषण की प्रवृत्ति होती है। जहां-जहां श्रुतानुसारिता है, वहां श्रुतरूपता का निषेध हम भी नहीं करते। इसलिए ईहा, अपाय व धारणा- इनमें श्रुतानुसारिता न होने से श्रुतज्ञानता नहीं है जिससे वे सामुदायिक रूप से मतिज्ञान (में ही परिगणित) होते हैं, अतः मतिज्ञान के लक्षण की अव्याप्ति का दोष नहीं होता। इसी तरह, श्रुतानुसारी व शब्दोल्लेखसहित ज्ञान-विशेषों में ही श्रुतरूपता का सद्भाव है, इसलिए श्रुतज्ञान के लक्षण की अतिव्याप्ति का दोष भी नहीं रहता। दूसरी बात, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि श्रुत के जो भेद हैं, उनमें 'मतिपूर्वक श्रुतज्ञान होता है'- ऐसा आगे कहा जाएगा। अतः 'प्रथमतः शब्दादि के अवग्रह' के समय जो अवग्रह आदि उत्पन्न होते हैं, वे श्रुतानुसारी न होने के कारण मतिज्ञान ही हैं, हां अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि श्रुत 160-...---- विशेषावश्यक भाष्य ---------- EL NA 160 -.. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्चाङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिश्रुतभेदानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वाभावात्, ईहादिषु च मतिभेदेषु श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतज्ञानत्वासंभवाद् नोभयलक्षणसंकीर्णतादोषोऽप्युपपद्यत इति सर्वं सुस्थम्। न चेह मति-श्रुतयोः परमाणु-करिणोरिवाऽऽत्यन्तिको भेदः समन्वेषणीयः, यतः प्रागिहैवोक्तम्-विशिष्टः कश्चिद मतिविशेष एव श्रुतम्, पुरस्तादपि च वक्ष्यते- वल्कसदृशं मतिज्ञानं तज्जनितदवरिकारूपं श्रुतज्ञानम्, न च वल्क-शुम्बयोः परमाणुकुञ्जरवदात्यन्तिको भेदः, किन्तु कारणकार्यभावकृत एव, स चेहापि विद्यते, मते: कारणत्वेन, श्रुतस्य तु कार्यत्वेनाऽभिधास्यमानत्वात्। न च कारण-कार्ययोरैकान्तिको भेदः, कनककुण्डलादिषु, मृत्पिण्डकुण्डादिषु च तथाऽदर्शनात्। तस्मादवग्रहापेक्षयाऽनभिलापत्वात्, ईहाद्यपेक्षया तु साभिलापत्वात् साभिलापाऽनभिलापं मतिज्ञानम्, अश्रुतानुसारि च, संकेतकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दस्य व्यवहारकालेऽननुसरणात् / श्रुतज्ञानं तु साभिलापमेव, श्रुतानुसार्येव च, संकेतकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दरूपस्य श्रुतस्य व्यवहारकालेऽवश्यमनुसरणादिति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१०० // के भेदों में जो श्रुतानुसारी ज्ञानविशेष है, वह श्रुतज्ञान है। इस प्रकार, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि समस्त श्रुत-भेदों की मतिज्ञानता का दोष नहीं रह जाता, और ईहा आदि मति-भेदों में श्रुतानुसारिता के न होने से श्रुतज्ञानता संभव ही नहीं है तो (मति व श्रुत -इन) दोनों ज्ञानों के लक्षण की संकीर्णता का (अर्थात् लक्षण-सांकर्य का) दोष भी हट जाता है, और सब कुछ समीचीन (दोषरहित) हो जाता है। (विशेष ज्ञातव्य यह है कि) मति व श्रुत में वैसा भी आत्यन्तिक भेद नहीं मानना चाहिए जैसा भेद परमाणु व हाथी में होता है, क्योंकि यहीं हमने पहले कहा है- विशिष्ट दशा को प्राप्त हुआ विशेष मतिज्ञान वल्क (छाल) की तरह है, और उस (छाल) से बनी 'दवरिका' रूप (दरी, गूंथी हुई लड़ी आदि के समान) श्रुतज्ञान है, और छाल व दवरिका में अणु व हाथी जैसा आत्यन्तिक (पूर्णतया एवं जमीन-आसमान का) अन्तर नहीं होता, किन्तु जैसा कारण व कार्य के आधार पर जो भेद होता है, वैसा ही इन दोनों में भेद है, क्योंकि मति कारण है और श्रुत (मति का) कार्य है, जिसका निरूपण आगे क़रेंगे। कारण व कार्य में ऐकान्तिक भेद नहीं होता, जैसे सोने और उससे बने कुण्डल आदि में, तथा मिट्टी के पिण्ड और उससे बने कुण्ड (पात्र) आदि में परस्पर ऐकान्तिक भेद नहीं देखा जाता (माना जाता)। . इसलिए, यह (निष्कर्षतः) निश्चित हुआ कि अवग्रह की अपेक्षा से मतिज्ञान 'अनभिलाप्य' (शब्दोल्लेख-शून्य) है, ईहा आदि की अपेक्षा से साभिलाप्य (शब्दोल्लेखसहित) है, इस तरह मतिज्ञान साभिलाप्य-अनभिलाप्य दोनों प्रकार का है तथा अ-श्रुतानुसारी भी है, क्योंकि संकेतकाल में प्रवृत्त शब्द या श्रुतग्रन्थ सम्बन्धी शब्द का अनुसरण लिए बिना मतिज्ञान व्यवहार-काल में प्रवृत्त होता है। (इसके विपरीत) श्रुतज्ञान तो साभिलाप्य (शब्दोल्लेखसहित) और श्रुतानुसारी होता है, क्योंकि (श्रुतज्ञान के) व्यवहार-काल में ऐसा देखा जाता है कि वहां संकेत-काल में प्रवृत्त या श्रुतग्रन्थ-सम्बन्धी शब्द रूप श्रुत का अनुसरण अवश्य होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 100 // Sa----------- विशेषावश्यक भाष्य --------161 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽव्याप्तिदोषमुद्भावयन्नाह पर: जइ सुयलक्खणमेयं तो न तमेगिंदियाण संभवइ। दव्वसुयाभावम्मि वि भावसुयं सुत्तजइणो व्व॥१०१॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि श्रुतलक्षणमेतत् ततो न तदेकेन्द्रियाणां संभवति / द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावश्रुतं सुप्तयतेरिव // ] यदि श्रुतज्ञानस्येदमनन्तरगाथोक्तं लक्षणमिष्यते- श्रुतानुसारि ज्ञानं यदि श्रुतमभ्युपगम्यत इत्यर्थः, तदा तदेकेन्द्रियाणां न सम्भवति न घटते, शब्दानुसारित्वस्य तेष्वसम्भवात्, तदसम्भवश्च मन:प्रभृतिसामाग्र्यभावात्, इष्यते चाऽऽगमे ‘एगिन्दिया नियम दुयन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य' इति वचनादेकेन्द्रियाणामपि श्रुतमात्रम्, इत्यव्यापकमेवैतद् लक्षणम्। अत्रोत्तरमाह- ‘दव्वसुयेत्यादि / द्रव्यश्रुतं शब्दस्तस्याऽभावेऽप्येकेन्द्रियाणां भावश्रुतमभ्युपगन्तव्यम्, सुप्तयतेरिव। इदमुक्तं भवति- यद्यप्येकेन्द्रियाणां कारणवैकल्याद् द्रव्यश्रुतं नास्ति, तथापि स्वापाद्यवस्थायां साध्वादेरिवाऽशब्दकारणं, अशब्दकार्यं च . (एकेन्द्रियों में श्रुत कैसे?) अब श्रुतज्ञान के लक्षण में अव्याप्ति दोष की उद्भावना करते हुए शंकाकार की ओर से कथन (तथा अपनी ओर से उसका समाधान भी) प्रस्तुत कर रहे हैं (101) जइ सुयलक्खणमेयं तो न तमेगिंदियाण संभवइ। दव्वसुयाभावम्मि वि भावसुयं सुत्तजइणो व्व // [(गाथा-अर्थः) यदि श्रुतज्ञान का ऐसा (पूर्वोक्त) लक्षण किया जाएगा तो एकेन्द्रियों में श्रुतज्ञान घटित नहीं हो सकेगा (फलस्वरूप अव्याप्ति दोष प्रसक्त होगा)। . . (उत्तर-) उन (एकेन्द्रियों) में भले ही द्रव्यश्रुत न हो, किन्तु भावश्रुत तो उसी प्रकार है जिस प्रकार सोए हुए यति में (भावश्रुत होता है)।] व्याख्याः- श्रुतज्ञान का यह अभी कहा गया लक्षण माना जाय, अर्थात् श्रुतानुसारी ज्ञान को 'श्रुत' माना जाय, तो एकेन्द्रियों में वह श्रुतज्ञान घटित (संगत) नहीं होगा, क्योंकि उनमें शब्दानुसारिता सम्भव नहीं है। वह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि वहां (उसके लिए अपेक्षित) मन आदि सामग्री नहीं होती है; किन्तु आगम में “एकेन्द्रिय नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं, जैसे- मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी' इत्यादि वचन मिलते हैं जिससे उन एकेन्द्रियों को भी श्रुत होना माना गया है, इस प्रकार श्रुतज्ञान का लक्षण अव्याप्ति-दोषयुक्त ही है। अब (पूर्वोक्त शंका का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं (द्रव्यश्रुत-अभावे-) द्रव्यश्रुत का अर्थ हैशब्द / उसके अभाव में भी, एकेन्द्रियों में भावश्रुत का सद्भाव मानना चाहिए, सोये हुए यति (साधु) की तरह। तात्पर्य यह है कि यद्यपि एकेन्द्रियों में अपने कारणों (शब्द आदि) के न होने से द्रव्यश्रुत का सद्भाव नहीं है, तथापि जैसे निद्रा में स्थित साधु में, कार्यकारण रूप शब्द के बिना भी श्रुतावरण a 162 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावरणक्षयोपशममात्ररूपं भावश्रुतं केवलिदृष्टममीषां मन्तव्यम्, न हि स्वापाद्यवस्थायां साध्वादिः शब्दं न शृणोति, न विकल्पयतीत्येतावन्मात्रेण तस्य श्रुतज्ञानाभावो व्यवस्थाप्यते, किन्तु स्वापाद्यवस्थोत्तरकालं व्यक्तीभवद् भावश्रुतं दृष्ट्वा पयसि सर्पिरिव प्रागपि तस्य तदासीदिति व्यवह्रियते, एवमेकेन्द्रियाणामपि सामग्रीवैकल्याद् यद्यपि द्रव्यश्रुताभावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपशमरूपं भावश्रुतमवसेयम्, परमयोगिभिर्दृष्टत्वाद्, वल्ल्यादिष्वाहार-भय-परिग्रह-मैथुनसंज्ञादेस्तल्लिङ्गस्य दर्शनाच्चेति॥ आह- नन सुप्तयतिलक्षणदृष्टान्तेऽपि तावद् भावश्रुतं नावगच्छामः, तथाहि- श्रुतोपयोगपरिणत आत्मा शृणोतीति श्रुतम्, श्रूयते तदिति वा श्रुतमित्यनयोर्मध्ये कया व्युत्पत्त्या सुप्तसाधोः श्रुतमभ्युपगम्यते? / तत्राद्यः पक्षो न युक्तः, सुप्तस्य श्रुतोपयोगाऽसंभवात् / द्वितीयोऽपि न संगतः, तत्र शब्दस्य वाच्यत्वात, तस्याऽपि च स्वपतोऽसंभवादिति। सत्यम्, किन्तु शृणोत्यनेन, अस्माद्, अस्मिन् वेति व्युत्पत्तिरिहाश्रीयते, एवं च श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमो वाच्यः संपद्यते, स च सुप्तयतेः, एकेन्द्रियाणां चाऽस्तीति न किञ्चित् परिहीयते // इति गाथार्थः // 101 // क्षयोपशम रूप भावश्रुत के सद्भाव को केवली भगवान् ने देखा है, वैसा ही इन एकेन्द्रियों में भी मानना चाहिए। निद्रादि की स्थिति में साधु न तो कोई शब्द सुनता है और न ही तद्विषयक विकल्प भी उसे होता है, किन्तु इतने मात्र से उसके श्रुतज्ञान का अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि निद्रा (से उठने पर, अर्थात् उस) के उत्तरकाल में भावश्रुत की अभिव्यक्ति होती हुई देखी जाती है, और उसके आधार पर, जैसे व्यवहार में ऐसा माना जाता है कि (सुप्त यति के भी) पहले भावश्रुत था, इसी प्रकार से एकेन्द्रियों में भी यद्यपि अपेक्षित सामग्री के न होने से द्रव्यश्रुत का अभाव है, फिर भी वहां आवरण-क्षयोपशम रूप भावश्रुत का सद्भाव मानना चाहिए, क्योंकि परमयोगी (केवली-सर्वज्ञ) तीर्थंकरों ने ऐसा (अपने ज्ञान में) देखा है, और वल्ली (लता, वृक्ष) आदि में आहार-भय-परिग्रहमैथुन संज्ञाओं आदि का तथा उनके चिन्ह का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है। किसी (प्रश्नकर्ता) ने कहा- आपने जो सोए हुए साधु का जो दृष्टान्त दिया, किन्तु हम तो वहां भी भावश्रुत का सद्भाव नहीं मानते, क्योंकि श्रुतोपयोग से परिणत आत्मा जो सुनता है वह श्रुत है, या जो सुना जाय वह श्रुत है- इन दोनों व्युत्पत्तियों में से किस व्युत्पत्ति के आधार पर सोए हुए साधु में श्रुत का सद्भाव मान्य हो सकता है? प्रथम व्युत्पत्ति के पक्ष को मानें तो भी 'श्रुत' का सद्भाव युक्तियुक्त नहीं होता क्योंकि सोए हुए में श्रुतोपयोग सम्भव नहीं है। दूसरी व्युत्पत्ति के पक्ष को मानें तो भी 'श्रुत' का सद्भाव संगत नहीं होता, क्योंकि सोए हुए व्यक्ति के (जो सुना जा सकेऐसे) किसी वाच्य शब्द की सम्भावना नहीं की जा सकती। (समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं-) आपका कहना सही है। किन्तु हमें 'श्रुत' की यह व्युत्पत्ति यहां स्वीकार है- जिसके द्वारा, जिससे या जिसमें सुनता है- वह श्रुत है। इस प्रकार, 'श्रुत' का (उक्त व्युत्पत्ति के अनुरूप) अर्थ 'श्रुतज्ञानावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम' होता है, और वह सोए हुए यति में भी है, और वही (क्षयोपशम रूप श्रुत) एकेन्द्रियों में भी है- इसलिए उक्त लक्षण में किसी प्रकार की क्षति (दोष-सम्भावना) नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 101 // Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 163 र (स Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोत्तरमाह जह सुहुमं भाविन्दियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं॥१०३॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा सूक्ष्मं भावेन्द्रिय ज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतं पृथ्व्यादीनाम्॥] इह केवलिनो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तोक-बहु-बहुतर-बहुतमादितारतम्यभावेन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्स्वपि लब्धीन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमः समस्त्येवेति परममुनिवचनम् / ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां श्रोत्र-चक्षुर्घाणरसनलक्षणानां प्रत्येकं निर्वृत्यु- पकरणरूपाणां द्रव्येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्मावृतत्वादवरोधेऽप्यभावेऽपि सूक्ष्ममव्यक्तं लब्ध्युपयोगरूपं श्रोत्रादिभावेन्द्रियज्ञानं भवति, लब्धीन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभूताऽणीयसी ज्ञानशक्तिर्भवतीत्यर्थः। तथा तेनैव प्रकारेण द्रव्यश्रुतस्य द्रव्येन्द्रियस्थानीयस्याऽभावेऽपि भावश्रुतं भावेन्द्रियज्ञानकल्पं पृथिव्यादीनां भवतीति प्रतिपत्तव्यमेव। दूसरों को समझाने तथा अन्य-उच्चारित शब्द को सुनने रूप किया गया कार्य देखा जाता है, उसको देख कर यह अनुमान करते हैं कि सोए हुए में भी लब्धि रूप से भावश्रुत का सद्भाव रहा है। किन्तु एकेन्द्रिय (रूप दार्टान्तिक) में तो भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि दोनों ही नहीं हैं, अतः कथमपि भावश्रुत का कार्य उपलब्ध नहीं होता, तब फिर उसमें भावश्रुत का सद्भाव कैसे घटित होता है? (घटित न होने पर लक्षण में अव्याप्ति पुनः ज्यों की त्यों रह ही गई) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 102 // : अब पूर्वोक्त शंका का प्रत्युत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं (103) जह सहुमं भाविन्दियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं // [(गाथा-अर्थः) जैसे द्रव्येन्द्रिय-सम्बन्धी अवरोध के होने पर भी, सूक्ष्म भावेन्द्रियज्ञान होता ही है, वैसे ही द्रव्यश्रुत के अभाव में भी पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में भावश्रुत का सद्भाव है।] . व्याख्याः- केवलियों को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों में द्रव्येन्द्रियों के न रहने पर भी, न्यूनाधिक तर-तमभाव (तारतम्य) से किसी में बहुत कम, किसी में बहुत, किसी में अधिक बहुत या अत्यधिक बहुत मात्रा में पांच लब्धि' रूप ‘पंचेन्द्रियावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम' (रूप भावश्रुत) होता ही है- ऐसा परममुनि (जिनेन्द्र देव) का कथन है। इस प्रकार, जैसे, यानी जिस प्रकार से, पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों के श्रोत्र-नेत्र-प्राण-रसना- इन चार इन्द्रियों में से प्रत्येक के निर्वृत्ति-उपकरण रूप द्रव्येन्द्रियों का, उनके प्रतिबन्धक कर्मों के आवरण होने के कारण, अवरोध यानी अभाव होने पर भी सूक्ष्म- अव्यक्त लब्धि-उपयोग रूप श्रोत्र आदि भावेन्द्रिय रूप ज्ञान का सद्भाव है, अर्थात् लब्धीन्द्रियसम्बन्धी आवरण के क्षयोपशम से होने वाली अणीयसी (सूक्ष्मतम, अप्रकट) ज्ञानशक्ति का सद्भाव है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में द्रव्येन्द्रिय-तुल्य द्रव्यश्रुत के अभाव होने पर भी, भावेन्द्रियतुल्य भाव श्रुत का सदभाव होता है-ऐसा मानना ही पड़ेगा। ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 165 12 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोत्तरमाह जह सुहुमं भाविन्दियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं॥१०३॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा सूक्ष्म भावेन्द्रिय ज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतं पृथ्व्यादीनाम् // ] इह केवलिनो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तोक-बहु-बहुतर-बहुतमादितारतम्यभावेन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्स्वपि लब्धीन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमः समस्त्येवेति परममुनिवचनम्। ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां श्रोत्र-चक्षुर्घाणरसनलक्षणानां प्रत्येकं निर्वृत्यु- पकरणरूपाणां द्रव्येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्मावृतत्वादवरोधेऽप्यभावेऽपि सूक्ष्ममव्यक्तं लब्ध्युपयोगरूपं श्रोत्रादिभावेन्द्रियज्ञानं भवति, लब्धीन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभूताऽणीयसी ज्ञानशक्तिर्भवतीत्यर्थः। तथा तेनैव प्रकारेण द्रव्यश्रुतस्य द्रव्येन्द्रियस्थानीयस्याऽभावेऽपि भावश्रुतं भावेन्द्रियज्ञानकल्पं पृथिव्यादीनां भवतीति प्रतिपत्तव्यमेव। दूसरों को समझाने तथा अन्य-उच्चारित शब्द को सुनने रूप किया गया कार्य देखा जाता है, उसको देख कर यह अनुमान करते हैं कि सोए हुए में भी लब्धि रूप से भावश्रुत का सद्भाव रहा है। किन्तु एकेन्द्रिय (रूप दार्टान्तिक) में तो भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि दोनों ही नहीं हैं, अतः कथमपि भावश्रुत का कार्य उपलब्ध नहीं होता, तब फिर उसमें भावश्रुत का सद्भाव कैसे घटित होता है? (घटित न होने पर लक्षण में अव्याप्ति पुनः ज्यों की त्यों रह ही गई) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 102 // . अब पूर्वोक्त शंका का प्रत्युत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं (103) जह सुहुमं भाविन्दियनाणं दबिंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं // .. [(गाथा-अर्थः) जैसे द्रव्येन्द्रिय-सम्बन्धी अवरोध के होने पर भी, सूक्ष्म भावेन्द्रियज्ञान होता ही है, वैसे ही द्रव्यश्रुत के अभाव में भी पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में भावश्रुत का सद्भाव है।] . व्याख्याः- केवलियों को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों में द्रव्येन्द्रियों के न रहने पर भी, न्यूनाधिक तर-तमभाव (तारतम्य) से किसी में बहुत कम, किसी में बहुत, किसी में अधिक बहुत या अत्यधिक बहुत मात्रा में पांच लब्धि' रूप पंचेन्द्रियावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम' (रूप भावश्रुत) होता ही है- ऐसा परममुनि (जिनेन्द्र देव) का कथन है। इस प्रकार, जैसे, यानी जिस प्रकार से, पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों के श्रोत्र-नेत्र-प्राण-रसना- इन चार इन्द्रियों में से प्रत्येक के निर्वृत्ति-उपकरण रूप द्रव्येन्द्रियों का, उनके प्रतिबन्धक कर्मों के आवरण होने के कारण, अवरोध यानी अभाव होने पर भी सूक्ष्म- अव्यक्त लब्धि-उपयोग रूप श्रोत्र आदि भावेन्द्रिय रूप ज्ञान का सद्भाव है, अर्थात् लब्धीन्द्रियसम्बन्धी आवरण के क्षयोपशम से होने वाली अणीयसी (सूक्ष्मतम, अप्रकट) ज्ञानशक्ति का सद्भाव है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में द्रव्येन्द्रिय-तुल्य द्रव्यश्रुत के अभाव होने पर भी, भावेन्द्रियतुल्य भावश्रुत का सद्भाव होता है- ऐसा मानना ही पड़ेगा। - ---------- विशषावश्यक भ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- एकेन्द्रियाणां तावच्छ्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गोपलम्भात्, तथाहि- कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गार श्रवणात् सद्यः कुसुम-पल्लवादिप्रसवो विरहकवृक्षादिषु श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्तं लिङ्गमवलोक्यते। तिलकादितरुषु पुनः कमनीयकामिनीकमलदलदीर्घशरदिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य, चम्पका_हिपेषु तु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकात् तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य, बकुलादिभूरुहेषु तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छसुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्वादनात् तदाविष्करणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य, कुरबकादिविटषिष्वशोकादिद्रुमेषु च घनपीनोन्नतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापभ्राजितकुम्भीनकुम्भरणन्मणिवलयक्वणत्कङ्कणाभरणभूषित-भव्यभामिनीभुजलताऽवगृहनसुखाद् निष्पिष्टपद्मरागचूर्णशोणतलतत्पादकमलपाणिप्रहाराच्च झगिति प्रसून-पल्लवादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते। ततश्च यथैतेषु द्रव्येन्द्रियासत्त्वेऽप्येतद् भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्धमस्ति, तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतमपि भविष्यति। दृश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा, संकोचनवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्याऽवयवसंकोचनादिभ्यो भयसंज्ञा. तात्पर्य यह है कि एकेन्द्रियों के श्रोत्र आदि द्रव्येन्द्रियां नहीं होतीं, फिर भी उनमें कुछ न कुछ भावेन्द्रिय-ज्ञान दृष्टिगोचर होता ही है, वनस्पति आदि (एकेन्द्रियों) में तो स्पष्ट ही उसका चिन्ह प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ- कोयल की मधुर पंचम तान सुनकर तुरन्त कुसुम व पल्लव आदि का प्रादुर्भूत हो जाना, विरहक आदि विशेष वृक्षों में जो होता देखा जाता है वह उनमें श्रवणेन्द्रिय ज्ञान के होने का स्पष्ट चिन्ह है। इसी तरह, सुन्दर कामिनी के कमल-पत्र के समान विशाल एवं शरत्कालीन चन्द्र के समान नेत्र-कटाक्ष के कारण तिलक आदि वृक्ष-विशेषों में फूल आदि का प्रादुर्भाव होना उनमें चक्षुरिन्द्रिय-ज्ञान होने का ही (पोषक) चिन्ह है। चम्पक आदि वृक्षों में विविध सुगन्धित वस्तु-समूह से मिश्रित निर्मल-शीतल जल का सिञ्चन करने पर (पुष्प) खिल जाते हैं और ऐसा होना उनमें घ्राणेन्द्रिय ज्ञान के होने का चिन्ह ही है। इसी तरह, रम्भा से भी बढ़-चढ़कर उत्कृष्ट सुन्दर रूप वाली तरुण नारियां जब स्वच्छ-सुस्वादिष्ट व सुगन्धित मदिरा को अपने मुख से बकुल (मौलसिरी) वृक्ष पर कुल्ला करती हुईं (जलधार) छोड़ती हैं, तब उसके आस्वादन से उनसे मंजरी फूट पड़ती है और ऐसा होना उनमें रसनेन्द्रिय-ज्ञान होने का एक चिन्ह ही है। इसी तरह, कुरबक (सदाबहार) आदि के वृक्षों को जब ऐसी सुन्दर स्त्रियां, जो अपने घन-सुपुष्ट-उन्नत कुच रूपी कुम्भ की शोभा से हस्ति-कुम्भ को भी निस्तेज कर सकती हों और मणि-वलयों के कारण झनझनाते कंकण आभरण से भूषित हों, अपनी भुजलता में आवेष्टित (आलिङ्गित) करती हैं, या अशोक आदि वृक्षों पर जब वे स्त्रियां पीसे हुए पद्मराग के चूर्ण से रक्त किये गए तल वाले चरण-कमल का जोरदार प्रहार करती हैं, तब उनमें उक्त क्रिया से मानों सुख उपजता है और उनमें तुरन्त पुष्प व पल्लव आदि का प्रादुर्भाव हो जाता है, और ऐसा होना उनमें भी स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञान होने का एक स्पष्टतया चिन्ह है। इसलिए, जिस प्रकार इन (वृक्षादि) में द्रव्येन्द्रिय के न होने पर भी भावेन्द्रिय-जनित उक्त ज्ञान होने की बात सभी लोगों में प्रसिद्ध है, उसी तरह द्रव्यश्रुत के अभाव में भी भावश्रुत का सद्भाव Ma 166 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- एवं सर्वप्रसङ्गः, न तदावरणानामक्षयोपशमात्। मतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमतो मति-श्रुते // ] . यदि भाषा-श्रोत्रलब्धिरहितानामपि काष्ठकल्पानां पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां स्पष्टं किमप्यनुपलभ्यमानमपि केनापि वागाडम्बरमात्रेण ज्ञानं व्यवस्थाप्यते, तर्हि सर्वेषामपि केवलज्ञानपर्यन्तानां पञ्चानामपि ज्ञानानां प्रसङ्गः सद्भावस्तेषां प्राप्नोतीत्यर्थ:- पञ्चापि ज्ञानान्येकेन्द्रियाणां . सन्ति, इत्येतदपि कस्माद् नोच्यते?, स्पष्टानुपलम्भस्य विशेषाभावादिति भावः। ___ अत्रोत्तरमाह- तदेतन्न। कुतः?, इत्याह- तदावरणानामवधि-मन:पर्याय-केवलज्ञानावारककर्मणामक्षयोपशमादिति, अक्षयाच्चेति स्वयमपि द्रष्टव्यम्। इदमुक्तं भवति- केवलज्ञानं तावत् स्वाऽऽवारककर्मणः क्षय एव जायते, अवधि-मन:पर्यायज्ञाने तु तस्य क्षयोपशमे भवतः, एतच्चैकेन्द्रियाणां नास्ति, तत्कार्यादर्शनात्, आगमेऽनुक्तत्वाच्च, इति न सर्वज्ञानप्रसङ्गः। मति-श्रुते अपि तर्हि मा भूताम्, इति चेत् / इत्यत्राह- 'मईत्यादि' मति-श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्त्वेकेन्द्रियाणामस्त्येव, तत्कार्यदर्शनात्, सिद्धान्तेऽभिहितत्वाच्च। ततश्च तत्क्षयोपशमसद्भावाद् मति-श्रुते भवत एव तेषाम् // इति गाथार्थः // 104 // __ [(गाथा-अर्थः) (शंका-) यदि (एकेन्द्रियों में सूक्ष्म रूप से श्रुतज्ञान है) ऐसा माना जाए तो उनमें सभी ज्ञानों के (सूक्ष्मरूप में) सद्भाव का प्रसंग आ जाएगा? (समाधान-) (अवधिज्ञान आदि) अन्य ज्ञानों के आवरण का न तो उनमें क्षय है और न ही उसका उपशम है (इसलिए समस्त ज्ञानों के सद्भाव की बात स्वतः निरस्त हो जाती है)। वहां मति- . श्रुत -इन दो ज्ञानों के आवरण का (ही) क्षयोपशम है, इसलिए उनमें (मात्र) मति व श्रुत ज्ञान हैं।] व्याख्याः- तात्पर्य है कि भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि से रहित, काष्ठ (लकड़ी) जैसे (मूकवत्) पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों में स्पष्ट अनुपलब्ध ज्ञान का भी अपने किसी वचन-आडम्बर से सद्भाव यदि सिद्ध करते हैं, तब तो समस्त प्राणियों में केवल-ज्ञान' तक के पांचों ज्ञानों के होने का प्रसंग (दोष) आ खड़ा होगा। एकेन्द्रियों को पांचों ही ज्ञान हैं- यही (सीधे-सीधे) क्यों नहीं कह देते? क्योंकि जो स्पष्ट अनुपलब्धि की दृष्टि से सभी ज्ञान समान हैं (अर्थात् स्पष्ट अनुपलब्धि-जैसे श्रुतज्ञान की है, वैसी ही अन्य ज्ञानों की है)। __ अब (पूर्वोक्त शंका का समाधान रूप) उत्तर इस प्रकार है- (एकेन्द्रियों में मति-श्रुत के अलावा अन्य ज्ञान के होने की) वैसी बात नहीं है। कैसे? उत्तर है- अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान -इन कर्मों के आवरण का क्षयोपशम उनके नहीं है, अपितु उन कर्मों का अक्षय ही है, (सद्भाव ही है) -यह भी स्वतः देखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञान तो अपने आवरक कर्म के क्षय होने पर ही होता है, अवधि व मनःपर्यय ज्ञान भी अपने (आवरण के) क्षयोपशम से ही होते हैं, और वह (क्षय या क्षयोपशम) एकेन्द्रियों में नहीं है, क्योंकि उसका कोई कार्य (चिन्ह रूप) दृष्टिगोचर भी नहीं होता, और आगम Sa 168 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----- Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- एवं सर्वप्रसङ्गः, न तदावरणानामक्षयोपशमात् / मतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमतो मति-श्रुते // ] , यदि भाषा-श्रोत्रलब्धिरहितानामपि काष्ठकल्पानां पृथिव्याघेकेन्द्रियाणां स्पष्टं किमप्यनुपलभ्यमानमपि केनापि वागाडम्बरमात्रेण ज्ञानं व्यवस्थाप्यते, तर्हि सर्वेषामपि केवलज्ञानपर्यन्तानां पञ्चानामपि ज्ञानानां प्रसङ्गःसद्भावस्तेषां प्राप्नोतीत्यर्थ:- पञ्चापि ज्ञानान्येकेन्द्रियाणां सन्ति, इत्येतदपि कस्माद् नोच्यते?, स्पष्टानुपलम्भस्य विशेषाभावादिति भावः। अत्रोत्तरमाह- तदेतन्न। कुतः?, इत्याह- तदावरणानामवधि-मन:पर्याय-केवलज्ञानावारककर्मणामक्षयोपशमादिति, अक्षयाच्चेति स्वयमपि द्रष्टव्यम्। इदमुक्तं भवति- केवलज्ञानं तावत् स्वाऽऽवारककर्मणः क्षय एव जायते, अवधि-मन:पर्यायज्ञाने तु तस्य क्षयोपशमे भवतः, एतच्चैकेन्द्रियाणां नास्ति, तत्कार्यादर्शनात्, आगमेऽनुक्तत्वाच्च, इति न सर्वज्ञानप्रसङ्गः। मति-श्रुते अपि तर्हि मा भूताम्, इति चेत् / इत्यत्राह- 'मईत्यादि' मति-श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्त्वेकेन्द्रियाणामस्त्येव, तत्कार्यदर्शनात्, सिद्धान्तेऽभिहितत्वाच्च / ततश्च . तत्क्षयोपशमसद्भावाद् मति-श्रुते भवत एव तेषाम् // इति गाथार्थः // 104 // ___ [(गाथा-अर्थः) (शंका-) यदि (एकेन्द्रियों में सूक्ष्म रूप से श्रुतज्ञान है) ऐसा माना जाए तो उनमें सभी ज्ञानों के (सूक्ष्मरूप में) सद्भाव का प्रसंग आ जाएगा? (समाधान-) (अवधिज्ञान आदि) अन्य ज्ञानों के आवरण का न तो उनमें क्षय है और न ही उसका उपशम है (इसलिए समस्त ज्ञानों के सद्भाव की बात स्वतः निरस्त हो जाती है)। वहां मतिश्रुत -इन दो ज्ञानों के आवरण का (ही) क्षयोपशम है, इसलिए उनमें (मात्र) मति व श्रुत ज्ञान हैं।] व्याख्याः - तात्पर्य है कि भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि से रहित, काष्ठ (लकड़ी) जैसे (मूकवत्) पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों में स्पष्ट अनुपलब्ध ज्ञान का भी अपने किसी वचन-आडम्बर से सद्भाव यदि सिद्ध करते हैं, तब तो समस्त प्राणियों में 'केवल-ज्ञान' तक के पांचों ज्ञानों के होने का प्रसंग (दोष) आ खड़ा होगा। एकेन्द्रियों को पांचों ही ज्ञान हैं- यही (सीधे-सीधे) क्यों नहीं कह देते? क्योंकि जो स्पष्ट अनुपलब्धि की दृष्टि से सभी ज्ञान समान हैं (अर्थात् स्पष्ट अनुपलब्धि-जैसे श्रुतज्ञान की है, वैसी ही अन्य ज्ञानों की है)। अब (पूर्वोक्त शंका का समाधान रूप) उत्तर इस प्रकार है- (एकेन्द्रियों में मति-श्रुत के अलावा अन्य ज्ञान के होने की) वैसी बात नहीं है। कैसे? उत्तर है- अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान -इन कर्मों के आवरण का क्षयोपशम उनके नहीं है, अपितु उन कर्मों का अक्षय ही है, (सद्भाव ही है) -यह भी स्वतः देखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञान तो अपने आवरक कर्म के क्षय होने पर ही होता है, अवधि व मनःपर्यय ज्ञान भी अपने (आवरण के) क्षयोपशम से ही होते हैं, और वह (क्षय या क्षयोपशम) एकेन्द्रियों में नहीं है, क्योंकि उसका कोई कार्य (चिन्ह रूप) दृष्टिगोचर भी नहीं होता, और आगम Vie 168 -------- विशेषावश्यक भाष्य - ----- Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं सप्रसङ्गः प्रदर्शितो लक्षणभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं हेतुफलभावात् तमुपदर्शयन्नाह मइपुव्वं सुयमुत्तं न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं / पुव्वं पूरण-पालणभावाओ जं मई तस्स // 105 // [ संस्कृतच्छाया:- मतिपूर्वं श्रुतमुक्तं न मतिः श्रुतपूर्विका, विशेषोऽयम्। पूर्वं पूरण:पालनभावाद् यद् मतिस्तस्य॥] ___ "मइपुव्वं सुत्तं'' इति वचनादागमे मतिः पूर्वं यस्य तद् मतिपूर्वं श्रुतमुक्तम्, न पुनर्मतिः श्रुतपूर्विका, इत्यनयोरयं विशेषः। यदि ह्येकत्वं मति-श्रुतयोर्भवेत्, तदैवंभूतो नियमेन पूर्व-पश्चाद्भावो घट-तत्स्वरूपयोरिव न स्यात्, अस्ति चायम्, ततो भेद इति भावः। में भी उनके उन (अवधि आदि) ज्ञानों का सद्भाव नहीं कहा गया है। अतः एकेन्द्रियों में (श्रुतज्ञान मानने पर) अन्य ज्ञानों के सद्भाव का प्रसंग नहीं बनता। (प्रश्न-) तो फिर एकेन्द्रियों में मति-श्रुतइन दोनों का भी अभाव क्यों न मान लिया जाय? (इस सम्बन्ध में) उत्तर इस प्रकार है(मतिश्रुतज्ञानावरण-)। (उन एकेन्द्रियों में) मति-श्रुत- इन दोनों के ही आवरण से सम्बन्धित क्षयोपशम है, उसी का कार्य भी दिखाई देता है और सिद्धान्त में उनका (ही) सद्भाव बताया गया है। अतः अपने क्षयोपशम का सद्भाव होने से मति-श्रुत ही उन (एकेन्द्रियों) में हैं (अन्य ज्ञान नहीं)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 104 // (हेतु व फल की दृष्टि से मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार, अब तक प्रसङ्गसहित लक्षण-भेद के आधार पर मति-श्रुत में भेद स्थापित कर दिया गया। अब हेतु-फलभाव के आधार पर मति-श्रुत का परस्पर भेद बताया जा रहा है (105) मइपुव्वं सुयमुत्तं न मई सुयपुब्बिया विसेसोऽयं / पुव्वं पूरण-पालणभावाओ जं मई तस्स // ... [(गाथा-अर्थः) चूंकि मतिज्ञान (श्रुतज्ञान के) पूर्व में रह कर, उस (श्रुतज्ञान) का पूरण व पालन करता है, इसलिए मतिपूर्वक श्रुतज्ञान तो कहा, किन्तु श्रुतपूर्वक मतिज्ञान नहीं, बस यही इन दोनों में अन्तर है।] . व्याख्याः- ‘मतिपूर्वक श्रुतज्ञान' इस आगमिक वचन के रूप में श्रुतज्ञान के पूर्व मतिज्ञान का होना आगम में बताया गया है, किन्तु श्रुतपूर्वक मतिज्ञान होता है- ऐसा नहीं, यही इन दोनों में अन्तर है। यदि मति व श्रुत में एकता होती तो उनमें मति का पूर्वभावी और श्रुत का अनन्तरभावी होना उसी तरह नियत नहीं होता जिस तरह घट और उसका स्वरूप -इन दोनों में (एकत्व होने पर, उनमें से किसी का पूर्ववर्ती होना या परवर्ती होना) नहीं संभव होता। किन्तु ऐसा (मति व श्रुत में, पूर्वपश्चाद्भाव) है, इसलिए इनमें भेद है- यह तात्पर्य है। -- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 169 र Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिति पुनर्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तस्य श्रुतस्य मतिः पूर्वं प्रथममेवोपपद्यते। कुतः?, इत्याह- 'पूरणेत्यादि'। पृधातुः पालन-पूरणयोरर्थयोः पठ्यते, तस्य च पिपर्तीति पूर्वम्, इति निपात्यते। ततश्च श्रुतस्य पूरणात् पालनाच्च मतिर्यस्मात् पूर्वमेव युज्यते, तस्माद् मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्। पूर्वशब्दश्चायमिह कारणपर्यायो द्रष्टव्यः, कार्यात् पूर्वमेव कारणस्य भावात्, “सम्यग्ज्ञानपूर्विका (सर्व)पुरुषार्थसिद्धिः" इत्यादौ तथादर्शनाच्च। ततश्च मतिपूर्वं श्रुतमिति कोऽर्थ:?, श्रुतज्ञानं कार्यम्, मतिस्तु तत्कारणम्, कार्य-कारणयोश्च मृत्पिण्ड-घटयोरिव कथञ्चिद् भेदः प्रतीत एवेति भावः // इति गाथार्थः // 105 // पूरणादिधर्मानेव मतेर्भावयन्नाह पूरिजिइ पाविजइ दिजइ वा जं मईए नाऽमइणा। पालिजइ य मईए गहियं इहरा पणस्सेज्जा // 106 // [संस्कृतच्छाया:- पूर्यते प्राप्यते दीयते वा यद् मत्या नाऽमत्या। पाल्यते च मत्या गृहीतमितरथा प्रणश्येत्॥] . (श्रुत की मतिपूर्वकता का विचार) (प्रश्न-) श्रुत को मतिपूर्वक ही क्यों कहा गया है? (उत्तर-) चूंकि श्रुतज्ञान से पूर्व ही मतिज्ञान उत्पन्न होता है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? उत्तर दे रहे हैं- (पूरणपालनभावात्-) पालन व पूरण अर्थ में 'पृ' धातु प्रयुक्त होती है, जो पूरण या पालन करता है- इस अर्थ में 'निपातन' (व्याकरण-प्रक्रिया) से 'पूर्व' शब्द की निष्पत्ति होती है। चूंकि मतिज्ञान श्रुतज्ञान का पूरण (पोषण) या पूर्ति करता है, और वह उसका पालन (स्थिरीकरण) भी करता है, इसलिए उसका श्रुतज्ञान के पूर्व ही होना उपयुक्त होता है। यही कारण है कि 'मतिपूर्वक श्रुत' ऐसा कहा गया। यहां 'पूर्व' पद कारण के पर्याय रूप में प्रयुक्त है- और 'सम्यग्ज्ञानपूर्वक समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि होती है' इत्यादि कथन में 'पूर्व' शब्द का वैसा (कारणभूत सम्यग्ज्ञान का पूर्व में होनायह सूचित करने वाला) प्रयोग देखा भी जाता है। इस तरह, ‘मतिपूर्वक श्रुत' इसका अर्थ क्या है? (उत्तर) श्रुतज्ञान कार्य है, मति उसका कारण है। मिट्टी के पिण्ड और (उसके कार्य) घट की तरह, उक्त कारण (मति) व कार्य (श्रुत) में कथंचिद् (दृष्टिविशेष से) भेद प्रतीत ही है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 105 // मतिज्ञान के पूरणकर्तृत्व आदि धर्मों का ही निदर्शन अग्रिम गाथा में भाष्यकार कर रहे हैं- . (106) पूरिज्जिइ पाविज्जइ दिज्जइ वा जं मईए नाऽमइणा। पालिज्जइ य मईए गहियं इहरा पणस्सेज्जा // [(गाथा-अर्थः) चूंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञान द्वारा ही पूरित (पोषित), गृहीत और (अन्य को) प्रदत्त किया जाता है, मतिज्ञान के बिना नहीं। मतिज्ञान के बिना तो वह नष्ट ही हो जाएगा।] Na 170 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षादिकालेऽभ्यूह्य श्रुतपर्यायवर्धनेन मत्यैव श्रुतज्ञानं पूर्यते पोष्यते पुष्टिं नीयत इत्यर्थः, तथा मत्यैवाऽन्यतस्तत् प्राप्यते गृह्यते, तथा मत्यैव तदन्यस्मै दीयते व्याख्यायते, नाऽमत्या न मतिमन्तरेणेत्यर्थः, प्राकृतत्वात् पुलिङ्गनिर्देशः। तथा गृहीतं सदेतत् परावर्तन-चिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थिरीक्रियते, इतरथा मत्यभावे तद् गृहीतमपि प्रणश्येदेवेत्यर्थः। श्रुतज्ञानस्यैते पूरणादयोऽर्था विशिष्टाभ्यूहधारणादीनन्तरेण कर्तुं न शक्यन्ते, अभ्यूहादयश्च मतिज्ञानमेव, इति सर्वथा श्रुतस्य मतिरेव कारणम्, श्रुतं तु कार्यम्, कार्य-कारणभावश्च भेदे सत्येवोपपद्यते, अभेदे पट-तत्स्वरूपयोरिव तदनुपपत्तेः। तस्मात् कारणकार्यरूपत्वाद् मति-श्रुतयोर्भेदः॥ इति गाथार्थः // 106 // अथ श्रुतस्य मतिपूर्वतां विघटयन्नाह नाणाणण्णाणि य समकालाई जओ मइ-सुयाई। तो न सुयं मइपुव्वं मइणाणे वा सुयनाणं॥१०७॥ व्याख्याः- अनुप्रेक्षा (पुनरावर्तन) आदि के समय, विचारणा के द्वारा श्रुतपर्याय की वृद्धि होने से, मति द्वारा ही श्रुतज्ञान का पूरण, पोषण होता है। मति से ही श्रुत पुष्ट होता है- यह तात्पर्य है। इसी प्रकार, मति द्वारा ही वह प्राप्त होता है- गृहीत होता है, तथा मति द्वारा ही वह अन्य को दिया जाता है- व्याख्यायित होता है, अन्यथा -यानी मति के बिना, वैसा (श्रुतज्ञान) नहीं हो पाता है- यह भाव है। प्राकृत में प्रयुक्त होने के कारण, मतिशब्द यहां पुंलिङ्ग में प्रयुक्त हुआ है। गृहीत होता श्रुतज्ञान परावर्तन व चिन्तन के माध्यम से मतिज्ञान द्वारा ही पालित होता है अर्थात् श्रुतज्ञान का स्थिरीकरण होता है, अन्यथा -अर्थात् मतिज्ञान के अभाव में, वह गृहीत होकर भी विनाश को ही प्राप्त होगा- यह तात्पर्य है। - श्रुतज्ञान के पूरण आदि अर्थ (का क्रियान्वयन), विशिष्ट विचार व धारणा आदि के बिना नहीं किया जा सकता, और वे विशिष्ट विचार आदि तो मतिज्ञान रूप ही हैं, इसलिए मतिज्ञान ही सर्वतोभावेन श्रुतज्ञान का कारण है, (मतिज्ञान का ही) श्रुत कार्य है, यह कार्य-कारणभाव (दोनों में) तभी संगत हो सकता है जब दोनों में भेद ही माना जाय, अभेद मानने पर तो वह कार्य-कारण भाव उसी तरह असंगत होता है जिस प्रकार घट व घट-स्वरूप के मध्य (कार्यकारण भाव नहीं बनता, क्योंकि दोनों में तादात्म्य, अभेद ही है)। इसलिए, कारण-कार्यभाव की दृष्टि से मति व श्रुत में भेद (ही सिद्ध होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 106 // अब शंकाकार की ओर से श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता का निराकरण प्रस्तुत किया जा रहा है (107) नाणाणण्णाणि य समकालाइं जओ मइ-सुयाइं। तो न सुयं मइपुव्वं मइणाणे वा सुयन्नाणं // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------171 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- ज्ञाने अज्ञाने च समकाले यतो मतिश्रुते। ततो न श्रुतं मतिपूर्वं मतिज्ञाने वा श्रुताज्ञानम्॥] इह मति-श्रुते वक्ष्यमाणयुक्त्या द्विविधे-सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानस्वरूपे, मिथ्यादृष्टेस्त्वज्ञानस्वभावे। तत्र ज्ञाने अज्ञाने चैते प्रत्येक समकालमेव भवतः, तत्क्षयोपशमलाभस्याऽऽगमे युगपदेव निर्देशात् / यतश्चैते ज्ञाने अज्ञाने च मति-श्रुते पृथक् समकाले भवतः, ततो न श्रुतं मतिपूर्वं युज्यते, नहि सममेवोत्पन्नयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव पूर्व-पश्चाद्भावः संगच्छते। अथोत्सूत्रोऽप्यसदाग्रहवशात् स न त्यज्यते, इत्याह- 'मइणाणे वा इत्यादि' / इदमुक्तं भवति-मतिज्ञाने समुत्पन्ने तत्समकालं च श्रुतज्ञानेऽनभ्युपगम्यमाने श्रुत-अज्ञानं जीवस्य प्रसज्यते, श्रुतज्ञानानुत्पादेऽद्यापि तदनिवृत्तेः, न च ज्ञानाऽज्ञानयोः समकालमवस्थितिरागमे क्वचिदप्यनुमन्यते, विरोधात्-ज्ञानस्य सम्यग्दृष्टिसंभवित्वात्, अज्ञानस्य तु मिथ्यादृष्टिभावित्वात् // इति गाथार्थः // 107 // [(गाथा-अर्थः) मति-श्रुत ज्ञान और मतिश्रुत-अज्ञान (-ये दोनों आगे-पीछे नहीं, अपितु) समकाल में ही होते हैं, अतः श्रुत मतिपूर्वक नहीं है, अन्यथा मतिज्ञान के होने पर भी श्रुत-अज्ञान का सद्भाव मानना पड़ेगा।] व्याख्याः- आगे जैसा कहा जाएगा, उस रीति से यहां मति व श्रुत के दो प्रकार (विवक्षित) हैं- (1) सम्यग्दृष्टि के होने वाले (सम्यक्) ज्ञान-स्वरूप (मतिज्ञान व श्रुतज्ञान), (2) मिथ्यादृष्टि के होने वाले (मति-अज्ञान व श्रुत-अज्ञान) अज्ञानस्वरूप / इनमें (सम्यक्) ज्ञान रूपता या अज्ञानरूपता, प्रत्येक की एक दूसरे की समकालीन होती है (अर्थात् जिस समय मतिज्ञान होगा, उसी समय श्रुतज्ञान होगा, जिस समय मति-अज्ञान होगा, उसी समय श्रुत-अज्ञान होगा), क्योंकि आगम में उन दोनों के क्षयोपशम का साथ ही होना बताया गया है। चूंकि ये मति-श्रुत ज्ञान या अज्ञान रूप में समकाल में ही होते हैं, अतः 'श्रुत मतिपूर्वक है' यह कहना संगत नहीं होता, क्योंकि समकाल में उत्पन्न होने वाले दो पदार्थों में पूर्व-उत्तरकालीनता उसी प्रकार संगत नहीं होती, जिस प्रकार बाएं व दाएं सींग में (पूर्व-उत्तरकालीनता संगत या मान्य नहीं होती)। ___ अपने असद् आग्रह के कारण, आगम-विरुद्ध कथन को आप छोड़ना नहीं चाहते- इसे (शंकाकार की ओर से) प्रतिपादित किया जा रहा है- (मतिज्ञाने वा-)। तात्पर्य है कि (सम्यक्) मतिज्ञान के उत्पन्न होने पर, उसके समकाल में ही (सम्यक्) श्रुत ज्ञान को उत्पन्न हुआ नहीं माना जाय तो जीव को (सम्यक् मतिज्ञान के सद्भाव में भी) श्रुत-अज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) का प्रसंग आ खड़ा होगा, क्योंकि जब तक (सम्यक्) श्रुतज्ञान न हो, तब तक श्रुत-अज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा मानना आगम-विरुद्ध है। ज्ञान व अज्ञान की (अर्थात् मतिज्ञान व श्रुत-अज्ञान की) समकालस्थिति का कहीं भी आगम में अनुमोदन (समर्थन) नहीं है, क्योंकि इन दोनों में परस्पर- विरोध है, जैसे -ज्ञान सम्यग्दृष्टि को होता है और अज्ञान मिथ्यादृष्टि को (ऐसा नियम है)।यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 107 // Ma 172 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र प्रतिविधानमाह इह लद्धिमइ-सुयाइं समकालाइं, न तूवओगो सिं। मइपुव्वं सुयमिह पुण सुओवओगो मइप्पभवो॥१०८॥ [संस्कृतच्छाया:- इह लब्धिमतिश्रुते समकाले न तूपयोगोऽनयोः। मतिपूर्वं श्रुतमिह पुनः श्रुतोपयोगो मतिप्रभवः॥] ननु ध्यान्ध्यविजृम्भितमिदं परस्य, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि- द्विविधे मति-श्रुते तदावरणक्षयोपशमरूपलब्धितः, उपयोगतश्च। तत्रेह लब्धितो ये मति-श्रुते ते एव समकालं भवतः, यस्त्वनयोरुपयोगः स युगपद् न भवत्येव, किन्तु केवलज्ञानदर्शनयोरिव तथास्वाभाव्यात् क्रमेणैव प्रवर्तते। अत्र तर्हि लब्धिमङ्गीकृत्य मतिपूर्वता श्रुतस्योक्ता भविष्यतीति चेत् / नैवम्, इत्याहमतिपूर्व श्रुतम्, इह तु श्रुतोपयोग एव मतिप्रभवोऽङ्गीक्रियते, न लब्धिरिति भावः। श्रुतोपयोगो हि विशिष्टमन्त ल्पाकारं श्रुतानुसारि ज्ञानमभिधीयते, तच्चाऽवग्रहेहादीनन्तरेणाऽऽकस्मिकं न भवति, अवग्रहादयश्च मतिरेव, इति तत्पूर्वता श्रुतस्य न विरुध्यते // इति गाथार्थः // 108 // अब भाष्यकार (पूर्वोक्त शंका का) प्रत्युत्तर दे रहे हैं (108) ... इह लद्धिमइ-सुयाइं समकालाई, न तूवओगो सिं। मइपुव्वं सुयमिह पुण सुओवओगो मइप्पभवो // - [(गाथा-अर्थः) यहां मति-श्रुत को जो समकाल कहा गया है, वह लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए, इनका उपयोग समकाल नहीं है। ‘मतिपूर्वक श्रुत' का अर्थ है- श्रुत का उपयोग मतिपूर्वक है।] .. व्याख्याः- शंकाकार का उक्त कथन निश्चित ही उसकी बौद्धिक दिवालियेपन से उपजा है, क्योंकि उसने हमारे अभिप्राय को (ठीक तरह) समझा ही नहीं है। जरा समझें- तदावरणीयक्षयोपशम रूप लब्धि की दृष्टि से और उपयोग की दृष्टि से मति व श्रुत दो-दों प्रकार के हैं। उनमें जो मति-श्रुत समकाल में होते हैं, वे लब्धि की दृष्टि से हैं, किन्तु इनका जो (पृथक्-पृथक्) उपयोग है, वह समकालीन कभी नहीं होता, किन्तु केवल-ज्ञान व केवल-दर्शन की तरह स्वभावतः क्रमशः ही प्रवर्तित होता है। 'यहां लब्धि-को दृष्टि में रखकर श्रुत की मतिपूर्वता कही होगी' –यह बात नहीं है। "मतिपूर्वक श्रुत' के कथन द्वारा ‘मतिपूर्वक श्रुतोपयोग' का ही कथन हमें मान्य है, लब्धि की दृष्टि से नहीं- यह भाव है। श्रुतोपयोग - जो विशिष्ट अन्तर्जल्प रूप में होता है- (वह) श्रुतानुसारी ज्ञान कहा जाता है, वह अवग्रह, ईहा आदि के बिना आकस्मिक उत्पन्न नहीं हो जाता, और ये अवग्रह आदि मतिज्ञान ही हैं, इसलिए श्रुत की मतिपूर्वता में कोई विरोध नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 108 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 173 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं मतिपूर्वं श्रुतमिति समर्थितम्, परस्तु मतेरपि श्रुतपूर्वताऽऽपादनेनाऽविशेषज्ञमुद्भावयन्नाह सोऊण जा मई भे सा सुयपुव्व त्ति तेण न विसेसो। __सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि // 109 // [संस्कृतच्छाया:- श्रुत्वा या मनिर्भवतां सा श्रुतपूर्वेति तेन न विशेषः। सा द्रव्यश्रुतप्रभवा भावश्रुताद् मतिर्नास्ति // ] परस्माच्छब्दं श्रुत्वा तद्विषया 'भे' भवतामपि या मतिरुत्पद्यते सा श्रुतपूर्वा श्रुतकारणैव, शब्दस्य श्रुतत्वेन प्रागुक्तत्वात्, तस्याश्च मतेस्तत्प्रभवत्वेन भवतामपि सिद्धत्वात्। ततश्च न विसेसो त्ति'। अन्योन्यपूर्वभावितायां मति-श्रुतयोर्न विशेष इत्यर्थः। तथा च सति 'न मई सुयपुब्विय त्ति' यदुक्तं प्राक्, तदयुक्तं प्राप्नोतीति भावः॥ अत्रोत्तरमाह- परस्माच्छब्दमाकर्ण्य या मतिरुत्पद्यते,सा हन्त! शब्दस्य द्रव्यश्रुतमात्रत्वाद् द्रव्यश्रुतप्रभवा, न भाव श्रुतकारणा, एतत् तु न केनापि वार्यते, किन्त्वेतदेव वयं ब्रूमो यदुत- भावश्रुताद् मतिर्नास्ति, भावश्रुतपूर्विका मतिर्न भवतीत्यर्थः, द्रव्यश्रुतप्रभवा तु भवतु, को दोषः? // इति गाथार्थः // 109 // . इस प्रकार श्रुत मतिपूर्वक होने का समर्थन कर दिया गया। किन्तु फिर भी शंकाकार मति को श्रुतपूर्वक सिद्ध करते हुए दोनों में कोई भेद नहीं है, ऐसा बता रहा है (भाष्यकार उसके कथन को पूर्वपक्ष में रखते हुए, उसका समाधान भी प्रस्तुत कर रहे हैं) (109) सोऊण जा मई भे सा सुयपुव्व त्ति तेण न विसेसो। सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि॥ [(गाथा-अर्थः) (शंका-) (अन्य से) शब्द सुनकर भी आपके मत में मतिज्ञान उत्पन्न होता है, अतः (दोनों में) कोई भेद नहीं है। (उत्तर-) (शब्द सुनकर होने वाला मतिज्ञान) द्रव्यश्रुत से उत्पन्न होता है, भावश्रुत से (उत्पन्न) नहीं होता] / ___ व्याख्याः - (प्रश्न-) दूसरे के शब्द को सुनकर, किसी के मतिज्ञान होना आपके मत में भी (मान्य) है, वह मतिज्ञान श्रुतपूर्वक (ही तो) है, क्योंकि शब्द को श्रुत (आप द्वारा) पहले कहा गया है। इस प्रकार मतिज्ञान भी श्रुतपूर्वक है -ऐसा आपकी मान्यता के अनुरूप सिद्ध होता है। दोनों जब एक-दूसरे से उत्पन्न हैं या एक-दूसरे को उत्पन्न करते हैं, तब दोनों में कुछ अन्तर कहां रहा? अर्थात् कोई अन्तर नहीं है। और इस स्थिति में, आपने पहले जो यह कहा- “श्रुतपूर्वक मतिज्ञान नहीं होता" वह भी असंगत ठहर जाता है। अब भाष्यकार उत्तर दे रहे हैं-दूसरे से शब्द को सुनकर जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो मात्र द्रव्यश्रुत से उत्पन्न है क्योंकि शब्द को द्रव्यश्रुत कहा गया है, अतः वह मतिज्ञान भावश्रुत से उत्पन्न नहीं होता। द्रव्यश्रत से मतिज्ञान की उत्पत्ति का तो खण्डन कोई नहीं करता। किन्त हमारा तो यह कहना है कि भावश्रुत से मति उत्पन्न नहीं होती अर्थात् भावश्रुतपूर्वक मति नहीं होती। वह द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हो तो दोष क्या है? (अर्थात् कोई दोष नहीं है।) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 109 // Ma 174 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु भावश्रुतादूर्ध्वं मतिः किं सर्वथा न भवति?, इत्याह कज्जतया, न उ कमसो कमेण को वा मई निवारेइ?। जं तत्थावत्थाणं चुयस्स सुत्तोवओगाओ॥११०॥ [संस्कृतच्छाया:- कार्यतया, न तु क्रमशः क्रमेण को वा मतिं निवारयति? / यत् तत्रावस्थानं च्युतस्य श्रुतोपयोगतः॥] भावश्रुताद् मतिः कार्यतयैव नास्तीत्यनन्तरोक्तगाथावयवेन संबन्धः। न उ कमसो त्ति'। क्रमशस्तु मतिर्नास्तीत्येवं न, किं तर्हि?, क्रमशः साऽस्ति, इत्येतत् सर्वोऽपि मन्यते, अन्यथा आमरणावधि श्रुतमात्रोपयोगप्रसङ्गात् / यदि क्रमशः साऽस्ति, तर्हि क्रमेण भवन्त्यास्तस्या भवन्तः किं कुर्वन्ति?, इत्याह- 'कमेणेत्यादि / वाशब्दः पातनार्थे, सा च कृतैव, क्रमेण भवन्तीं मतिं को निवारयति?, मत्या श्रुतोपयोगो जन्यते, तदुपरमे तु निजकारणकलापात् सदैव प्रवृत्ता पुनरपि मतिरवतिष्ठते, पुनस्तथैव श्रुतं, तथैव च मतिः, इत्येवं क्रमेण भवन्त्या मतेनिषेधका वयं न भवाम इत्यर्थः। पुनः शंकाकार कह रहा है कि भावश्रुत के बाद क्या मति ज्ञान सर्वथा नहीं होता? इस शंका को दृष्टि में रखकर, उसका उत्तर अग्रिम गाथा में भाष्यकार प्रस्तुत कर रहे हैं . (110) , कज्जतया, न उ कमसो कमेण को वा मइं निवारेइ?। जं तत्थावत्थाणं चुयस्स सुत्तोवओगाओ // - [(गाथा-अर्थः) (भावश्रुत के बाद, उसके) कार्यरूप में मतिज्ञान नहीं होता, मात्र क्रमशः होना हमें अस्वीकार नहीं है। उनके क्रमशः होने को कौन मना कर रहा है? क्योंकि श्रुतोपयोग से च्युत होकर मतिज्ञान में अविस्थिति तो हो ही सकती है।] व्याख्या:- 'कार्यतया' पद का परवर्ती उक्त 'न' पद के साथ सम्बन्ध है, अतः अर्थ हुआभावश्रुत से कार्य रूप में मतिज्ञान प्रकट नहीं होता। (न तु क्रमशः-) इसी प्रकार 'न क्रमशः' का भी 'न' के साथ सम्बन्ध है, अतः अर्थ हुआ- 'श्रुतज्ञान के बाद अनुक्रम में मतिज्ञान नहीं होता'- ऐसा भी हमारा नहीं (कहना) है। तब क्या कहना है? (उत्तर-) श्रुतज्ञान के बाद क्रम से मतिज्ञान हो (सक)ता है- इसे तो (हम) सभी मानते हैं, अन्यथा आजीवन श्रुतमात्र-सम्बन्धी उपयोग बने रहने का प्रसंग खड़ा होगा। (प्रश्न-) यदि क्रमशः मतिज्ञान होता है तो क्रम से होने वाले मतिज्ञान के विषय में क्या अभिप्राय है? इसका उत्तर दिया- (कमेण क:- इत्यादि)। 'वा' पद अपने मत को रखने का संकेत देता है। अर्थात् वह (मतिज्ञान) तो होता ही है, क्योंकि अनुक्रम से हो रहे मतिज्ञान को कौन रोक रहा है? तात्पर्य यह है- मतिज्ञान से श्रुतोपयोग उत्पन्न होता है, श्रुतोपयोग की विरति के बाद, अपने कारण-समूह के बल पर सदा प्रवर्तमान होने वाला मतिज्ञान पुनः प्रकट होता है, पुनः उसी प्रकार श्रुतज्ञान, और पूर्वोक्तरीति से पुनः मतिज्ञान प्रकट होता है- इस क्रम में होने वाले मतिज्ञान का निषेध तो हम भी नहीं करते। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 175 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिति?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तत्र तस्यां मतौ अवस्थानं स्थितिर्भवति, श्रुतोपयोगाच्च्युतस्य ततः क्रमेण मतिं न निषेधयामः। इदमुक्तं भवति- यथा सामान्यभूतेन सुवर्णेन स्वविशेषरूपाः कङ्कणाऽङ्गलीयकादयो जन्यन्ते, अतस्ते तत्कार्यव्यपदेशं लभन्त एव, सुवर्णं त्वतज्जन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यवह्रियते, तस्य कारणान्तरेभ्यः सिद्धत्वात्, कङ्कणादिविशेषोपरमे तु सुवर्णावस्थानं क्रमेण न निवार्यते, एवं मत्याऽपि सामान्यभूतया स्वविशेषरूपश्रुतोपयोगो जन्यते, अतस्तत्कार्यं स उच्यते, मतिस्त्वतजन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यपदिश्यते, तस्या हेत्वन्तरात् सदा सिद्धत्वात्, स्वविशेषभूतश्रुतोपयोगोपरमे तु क्रमायातं मत्यवस्थानं न निवार्यते, आमरणान्तं केवलश्रुतोपयोगप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 110 // तदेवं भावश्रुतं मतिपूर्वं व्यवस्थाप्य मतान्तरमुपदर्शयन्नाह दव्वसुयं मइपुव्वं भासइ जं नाविचिंतियं केइ। भावसुयस्साभावो पावइ तेसिं न य विसेसो॥१११॥ (प्रश्न-) ऐसा क्यों? इसके उत्तर में कहा- (यत् तत्र-) श्रुतोपयोग से च्युत (पतित) होने वाले का अवस्थान (ठहराव) मतिज्ञान में होता है, और क्रम से होने वाले मतिज्ञान का हम निषेध नहीं करते। तात्पर्य यह है कि जैसे (विविध आभूषणों में) 'सामान्य' रुप द्रव्य सुवर्ण होता है और उससे कंकण व अंगूठी आदि 'विशेष' कार्यभूत स्वरूपों की उत्पत्ति होती है, अतः वे (कंकण आदि) उस (सुवर्ण) के 'कार्य' कहलाते ही हैं, किन्तु सुवर्ण को व्यवहार में (उन कंकणों से उत्पन्न न होने के कारण) उन (कंकणादि) का कार्य नहीं माना जाता, क्योंकि उस (सुवर्ण) का अन्य कारणों से सत्ता में आना सिद्ध ही है। फिर भी कंकण आदि विशेष रूपों के नष्ट होने पर, पुनः,मात्र सुवर्ण (सामान्य रूप में) रह जाता है, अतः इस क्रम से होने वाली सुवर्ण की स्थिति का निषेध नहीं किया जाता। उसी प्रकार मतिज्ञान सामान्य रूप है, चंकि उससे उसका विशेष रूप श्रतोपयोग उत्पन्न होता है. इसलिए श्रुतोपयोग उस मतिज्ञान का कार्य कहा जाता है। किन्तु मति को श्रुतं का कार्य नहीं कहा जाता, क्योंकि मतिज्ञान श्रुतज्ञान से उत्पन्न नहीं होता और उस (मतिज्ञान) का अन्य कारणों से होना भी सर्वदा सिद्ध है। किन्तु श्रुतोपयोग से विरत होने पर व्यक्ति की क्रम से प्राप्त मतिज्ञान में अवस्थिति का निषेध नहीं किया जा रहा हैं, अन्यथा (यदि श्रुतज्ञान से हट कर कभी मतिज्ञान में स्थिति होना नहीं माना जाय तो) आजीवन श्रुतोपयोग के ही रहने का प्रसंग उठ खड़ा होगा | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 110 // इस प्रकार, भावश्रुत को मतिपूर्वक सिद्ध कर, इस सम्बन्ध में अन्य मत को प्रस्तुत कर रहे हैं (111) दव्वसुयं मइपुव्वं भासइ जं नाविचिंतियं केइ। भावसुयस्साभावो पावइ तेसिं न य विसेसो // NAL 176 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यश्रुतं मतिपूर्वं भाषते यद् नाऽविचिन्तितं केचित् / भावश्रुतस्याभावः प्राप्नोति तेषां न च विशेषः॥] 'केइ त्ति "मतिपूर्वं श्रुतम्' इत्यत्रागमवचने केचिदेवं व्याचक्षते / किम्?, इत्याह- द्रव्यश्रुतं शब्दरूपं मतिपूर्वम्, न भावश्रुतम्। तत्र युक्तिमाह- 'भासइ जनाविचिंतियं ति'। यद् यस्मात् कारणात् अविचिन्तितमविवक्षितं न कोऽपि भाषते न शब्दमुदीरयति, यच्च विवक्षाज्ञानं तत् किल मतिरिति तेषामभिप्रायः, ततश्च मतिपूर्वं द्रव्यश्रुतं सिद्धं भवति। एतस्मिन् व्याख्याने दोषमाह तेषामेवं व्याख्यातॄणां भावश्रुतस्य सर्वथैवाऽभावः प्राप्नोति, यतो वक्तृगतं विवक्षोपयोगज्ञानं तैरेव मतित्वेन व्याख्यातम्, अन्यथा शब्दस्य मतिपूर्वकत्वाभावात्, श्रोतुरपि शब्दं श्रुत्वा प्रथमं यदवग्रहादिज्ञानं तत् तावद् मतिरेव, ऊर्ध्वमपि च तस्या भावश्रुतं नाभ्युपगन्तव्यम्, 'मतिपूर्वं भावश्रुतम्' इत्यस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात्। यदशृण्वतोऽभाषमाणस्य चाऽनुप्रेक्षादिष्वन्तर्जल्पारूपितं ज्ञानं विपरिवर्तते तद्भावश्रुतं भविष्यतीति चेत् / तदयुक्तम्, यतस्तदपि यद्यवग्रहाद्यात्मकमतिपूर्वं तदा भावश्रुतं नेष्टव्यम्, अस्मत्पक्षाभ्युपगमप्राप्तेरेव। अथ मतिपूर्वं तद् नेष्यते, तथापि तत् सविकल्पकत्वेन __ [(गाथा-अर्थः) द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है क्योंकि बिना चिन्तन किये कोई नहीं बोलता- ऐसा किसी का कहना है। किन्तु (ऐसा मानने पर) भावश्रुत का (सर्वथा) अभाव हो जाएगा और (फलस्वरूप) (मति व श्रुत में) कोई अन्तर या भेद भी (विचारणीय) नहीं रहेगा।] ___ व्याख्याः- (केचित्-) 'मतिपूर्वक श्रुत' इस आगम-वाक्य का कुछ लोग इस प्रकार व्याख्यान करते हैं। वह (व्याख्यान) क्या है? वह इस प्रकार है- शब्द रूप द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है, न कि भावश्रुत / इसमें युक्ति उनकी यह है- (भाषते यद्...)। चूंकि बिना चिन्तन किये, अनचाहे कोई नहीं बोलता अर्थात् शब्दों का उच्चारण करता है, और क्या बोलना है -इस विषय का जो चिन्तन है वह तो मतिज्ञान ही है- यह तात्पर्य है। इस तरह, उनके मत में द्रव्यश्रुत की मतिपूर्वता सिद्ध होती है। उक्त व्याख्यान में क्या दोष है- इसे बता रहे हैं.. (तेषाम् इत्यादि-)। उन व्याख्यान-कर्ताओं के मत में भावश्रुत का सर्वथा अभाव हो जाएगा, क्योंकि वक्ता का जो भाषण-इच्छा सम्बन्धी उपयोग रूप ज्ञान है, उसे उन्होंने अपनी व्याख्या में स्वयं मति रूप में स्वीकार किया है, अन्यथा शब्द की मतिपूर्वता नहीं हो पाएगी। तथा श्रोता को शब्द सुन कर जो अवग्रह आदि ज्ञान होता है. वह मति ही तो है. उसके बाद भी भावत का होना नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'मतिपूर्वक भावश्रुत' इस हमारे मत को ही वे मान रहे होते हैं (और तब अपने पक्ष से च्युत होने का दोष उन पर आ जाता है)। ... (पूर्वपक्ष-) न सुनने वाले और न बोलने वाले के विचार करते समय अन्तर्जल्प रूप जो ज्ञान परिणमित होता है, वह भावश्रुत है, (इस प्रकार भावश्रुत के अभाव का दोष निरस्त हो जाता है)। (उत्तर-) आपका यह कहना युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि उक्त (अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान) भी यदि अवग्रहादि रूप मतिज्ञानपूर्वक है, तब तो उसे भावश्रुत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर आप हमारे ----- विशेषावश्यक भाष्य - - ---- 177 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिरेव, शब्दविवक्षाज्ञानवत्, शब्दविवक्षाज्ञानेऽपि हि शब्दविकल्पोऽस्ति, तमन्तरेण शब्दाभिधानासंभवात्, न चासौ भावश्रुतत्वेनेष्टः, तस्माद् मतेरनन्तरं सर्वत्र शब्दमात्रस्यैवोत्थानम्, न भावश्रुतस्य, अस्मत्पक्षाङ्गीकरणप्रसङ्गात्, विकल्पज्ञानानि च विवक्षाज्ञानवद् मतित्वेनोक्तान्येव, इति सर्वत्र भावश्रुताभावः प्रसजति। भवतु स तर्हि, इति चेत् / इत्याह-'नय विसेसो त्ति'। भावश्रुताभावे मति-श्रुतयोर्विशेषो भेदश्चिन्तयितव्यो न स्यात्, स हि द्वयोरेवोपपद्यते / यदा च मतिरेवास्ति, न भावश्रुतम् , तदा तस्याः केन सह भेदचिन्ता युज्येत? इति भावः। द्रव्यश्रुतरूपेण शब्देन सह मतेर्भेदचिन्ता भविष्यतीति चेत् / तदयुक्तम्, ज्ञानपञ्चकविचारस्येहाऽधिकृतत्वात्, तदधिकारे च शब्देन सह भेदचिन्ताया अप्रस्तुतत्वात् / चिन्त्यतां वा 'मतिपूर्वं द्रव्यश्रुतम्' इत्येवं मतेः शब्देनापि सह विशेषः, किन्तु सोऽपि न घटते॥ इति गाथार्थः॥१११॥ ही मत (मतिपूर्वक भावश्रुत) को स्वीकार कर लेते हैं। ‘हम मतिज्ञानपूर्वक’ उसे नहीं मानते यह कहना भी आपका ठीक नहीं होगा, क्योंकि वह (अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान) सविकल्पक होने के कारण उसी प्रकार मतिज्ञान ही है जिस प्रकार शब्द को बोलने की इच्छा रूप ज्ञान (मतिज्ञान ही) होता है। और शब्दविवक्षा-ज्ञान में शब्दात्मक विकल्प ही होता है, क्योंकि उस (विकल्प) के बिना शब्द का उच्चारण सम्भव नहीं हो पाएगा। उस (शब्दात्मक विकल्प) को भावश्रुत नहीं माना जा सकता है। इसलिए, सिद्ध यह हुआ कि मतिज्ञान के बाद सर्वत्र शब्दमात्र की ही उत्पत्ति होती है, न कि भावश्रुत की, अन्यथा हमारे मत को स्वीकार करने (तथा स्वपक्ष-च्युत होने का) संकट आ खड़ा होगा। विकल्प ज्ञानों को -बोलने की इच्छा से सम्बन्धित ज्ञान की तरह- मतिज्ञान रूप ही कहा ही जा चुका है। इसलिए 'द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है' इस व्याख्यान में सर्वत्र भावश्रुत के अभाव का प्रसंग (दोष) आ जाता है। (अन्यमत-व्याख्याता की ओर से प्रश्न-) वह (भावश्रुत का अभाव) हो तो हो, हानि क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा- (न च विशेषः)। भावश्रुत के अभाव से मति व श्रुत में विशेष, भेद का विचार ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि भेद तो दो वस्तुओं में किया जाता है, और जब मति ज्ञान ही है, भावश्रुत है ही नहीं, तब (मतिज्ञान के) भेद का विचार किसके साथ किया जा सकेगा- यह भाव है। (अन्य मत-व्याख्याता की ओर से पुनः प्रश्न-) शब्द रूप द्रव्यश्रुत के साथ मतिज्ञान के भेद का विचार किया जा सकता है। (उत्तर)- आपका उक्त कथन ठीक नहीं। पांच ज्ञानों के विचार का यह प्रकरण है, उस प्रकरण में (किसी ज्ञान को छोड़कर) शब्द के साथ मतिज्ञान के भेद का विचार करना प्रकरणोचित नहीं होगा। अथवा -भले ही 'मतिपूर्वक द्रव्यश्रुत' ऐसा व्याख्यान कर मतिज्ञान का शब्द के साथ भी भेद का विचार करें तो भी वह भेद घटित नहीं होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 111 // Mar 178 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतो न घटते?, इत्याह दव्वसुयं बुद्धीओ सा वि तओ जमविसेसओ तम्हा। भावसुयं मइपुव्वं दव्वसुयं लक्खणं तस्स // 112 // [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यश्रुतं बुद्धेः साऽपि ततो यदविशेषतस्तस्मात् / भावश्रुतं मतिपूर्वं द्रव्यश्रुतं लक्षणं तस्य॥] यदिति यस्मात् कारणाद् यथा द्रव्यश्रुतं शब्दो बुद्धेर्मतेः सकाशाद् भवतीति भवद्भिः प्रतिपाद्यते, तथा हन्त! साऽपि बुद्धिस्ततः शब्दात् श्रोतुर्भवत्येव। ततश्च 'मइपुव्वं सुयमुत्तं न मई सुयपुब्विया विसेसोऽयं' इति-श्रुतयोर्भेदप्रतिपादनार्थं योऽसौ विशेषोऽत्र प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, स द्वयोरप्यन्योन्यं पूर्वभावितायाः समानत्वाद् न प्राप्नोति, इत्यनन्तरगाथापर्यन्तावयवेन संबन्धः / तस्मात् तेषां मतेऽविशेषतः कारणाद् यदस्माभिः प्राक् समर्थितम्- भावश्रुतं मतिपूर्वमिति, तदेव युक्तियुक्तम्। शब्दलक्षणं तु द्रव्यश्रुतं तस्य भावश्रुतस्य लक्ष्यते गम्यतेऽनेनेति लक्षणं लिङ्गम् // इति गाथार्थः॥११२॥ मतिज्ञान का शब्द के साथ भी भेद क्यों नहीं घटित होता? इस शंका को दृष्टि में रखकर उसका प्रत्युत्तर दे रहे हैं (112) * दव्वसुयं बुद्धीओ सा वि तओ जमविसेसओ तम्हा। ... * भावसुयं मइपुव्वं दव्वसुयं लक्खणं तस्स // [(गाथा-अर्थः) द्रव्यश्रुत मति ज्ञान से होता है और मतिज्ञान भी द्रव्यश्रुत से होता है, अतः इन दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। इसलिए (यही कहना युक्तियुक्त है कि) भावश्रुत मतिपूर्वक है, और द्रव्यश्रुत तो उस (भावश्रुत) का लक्षण (लिङ्ग) है।] - . व्याख्याः- (यत्) चूंकि वस्तुस्थिति तो यह है कि जिस प्रकार शब्द रूप द्रव्यश्रुत बुद्धि यानी मतिज्ञान से उत्पन्न होता है- ऐसा आप प्रतिपादन करते हैं, तो (दया के पात्र! यह भी तो समझो कि) श्रोता.को वह मतिज्ञान भी तो उस शब्द से होता (दृष्टिगोचर) है। तब तब श्रुत को मतिपूर्वक कहा गया है, मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता, यही इन दोनों में अन्तर है' -इस प्रकार मति व श्रुत में परस्पर भेद के प्रतिपादन हेतु जो अन्तर (पूर्वगाथा-105 में) आपने बताया, वह अन्तर तो उनमें घटित नहीं होता, क्योंकि एक दूसरे की पूर्वभाविता की दृष्टि से दोनों (मति व श्रुत) समान हैं- इस कथन का सम्बन्ध पूर्वोक्त गाथा में आए 'न च विशेषः' (कोई भेद नहीं रहता) इस पद के साथ समझना चाहिए। इसलिए (निष्कर्ष यह है कि) उन (शंकाकारों यानी अन्य व्याख्याताओं) के मत में कोई ऐसा कारण नहीं है जो मति व श्रुत में भेद प्रतिपादित कर सके, अतः मतिपूर्वक भावश्रुत है, यह कथन, जिसका हमने पहले समर्थन किया है, (वही) युक्तियुक्त है। शब्दात्मक द्रव्यश्रुत तो उस भावश्रुत का लक्षण है, अर्थात् उस (भावश्रुत) को जानने के लिए (उसके अस्तित्व का साधक) एक साधन या चिन्ह है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 112 // -- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 179 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतस्तत् तस्य लक्षणम्?, इत्याह सुयविण्णाणप्पभवं दव्वसुयमियं जओ विचिंते। पुव्वं, पच्छा भासइ लक्खिजइ तेण भावसुयं // 113 // [संस्कृतच्छाया:- श्रुतविज्ञानप्रभवं द्रव्यश्रुतमिदं यतो विचिन्त्य। पूर्व, पश्चाद् भाषते लक्ष्यते तेन भावश्रुतम्॥] श्रुतविज्ञानप्रभवं सविकल्पकविवक्षाज्ञानकार्य शब्दरूपं द्रव्यश्रुतमिदं यत् परैर्मतिपूर्वत्वेनेष्यते, कथं पुनस्तद्भावश्रुतप्रभवं विज्ञायते?, इत्याह- यतः सर्वोऽपि पूर्वं विचिन्त्य वक्तव्यमर्थं चित्ते विकल्प्य पश्चात् शब्दं भाषते, यच्च तच्चिन्ताज्ञानं तच्छ्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतम्, इति भावश्रुतप्रभवता द्रव्यश्रुतस्य विज्ञायते, यच्च यस्मात् प्रभवति तत् तस्य कार्यम्, अतस्तेन कार्यभूतेन द्रव्यश्रुतेन स्वकारणभूतं भावश्रुतं लक्ष्यत इति तत् तस्य लक्षणमुक्तम्, अस्ति भावश्रुतमत्र, तत्कार्यस्य शब्दस्य श्रवणात्, इत्येवं तेन भावश्रुतस्य लक्ष्यमाणत्वादिति। (मति व श्रुत में कार्यकारण भाव का विचार) द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण किस तरह है? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु (भाष्यकार अग्रिम गाथा में) कह रहे हैं (113) सुयविण्णाणप्पभवं दव्सुयमियं जओ विचिंतेउं / पुव्वं, पच्छा भासइ लक्खिज्जइ तेण भावसुयं // [(गाथा-अर्थः) श्रुतविज्ञान से द्रव्यश्रुत उत्पन्न होता है, क्योंकि पहले (व्यक्ति) विचारता है और बाद में बोलता है, इस प्रकार उस (द्रव्यश्रुत) से भावश्रुत लक्षित होता है (अतः द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण है)।] व्याख्याः- (प्रश्न-) अन्य (व्याख्याता) लोग श्रुत को मतिपूर्वक मानते हैं क्योंकि श्रुतविज्ञान से द्रव्यश्रुत होता है। किन्तु द्रव्यश्रुत भावश्रुत से उत्पन्न होता है- यह कैसे ज्ञात (निर्णीत) होता है? (उत्तर-) चूंकि (बोलने से पूर्व) क्या बोलना है- इस विषय में सभी लोग पहले मन में सोचते हैं, और उसके बाद ही शब्द उच्चारित करते हैं। वह जो सोचना है, वह चिन्तनात्मक ज्ञान श्रुतानुसारी होने के कारण 'भावश्रुत' (ही) है, अतः द्रव्यश्रुत की भावश्रुत से उत्पत्ति हुई है- ऐसा ज्ञात होता है। चूंकि जिससे जो उत्पन्न होता है, वह उसका कार्य कहा जाता है, अतः उस कार्यभूत द्रव्यश्रुत के आधार पर उसका कारणभूत भावश्रुत लक्षित होता है- ज्ञात होता है, इसलिए वह द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण (सिद्ध होता) है। जैसे- भावश्रुत (का सद्भाव) है क्योंकि उसके कार्यरूप शब्द का श्रवण हो रहा हैइस प्रकार (के अनुमान) से भावश्रुत का सद्भाव लक्षित होता है। 20 180 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यश्रुतस्य च भावश्रुतलक्षणता मतान्तरवादिनां विपर्यस्तत्वप्रतिपादनार्थमुपदर्शिता, भावश्रुतप्रभवस्यापि शब्दस्य तैर्मतिपूर्वत्वप्रतिपादनात् / / इति गाथार्थः॥११३॥ अथ यथा मति-श्रुतयोः कार्य-कारणभावाद् भेदः, तथा तयोः प्रत्येकं स्वस्थानेऽपि सम्यक्त्व-मिथ्यात्वपरिग्रहाद् भेद एवेत्यनुषङ्गतो दर्शयितुं नन्द्यध्ययनागमे मति-श्रुतयोः कार्य-कारणभावेन भेदप्रतिपादनानन्तरमिदं सूत्रमस्ति, तद् यथा "अविसेसिया मई मइनाणं च मइअन्नाणं च, विसेसिया मई-सम्मद्दिट्ठिस्स मई मइनाणं, मिच्छादिविस्स मई मइअन्नाणं, एवं अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं च, विसेसियं सुयं-सम्मदिट्ठिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छादिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं" [अविशेषिता मतिर्मतिज्ञानं च मत्यज्ञानं च विशेषिता मतिः- सम्यग्दृष्टेर्मतिर्मतिज्ञानम्, मिथ्यादृष्टेर्मतिः मत्यज्ञानम्, एवम् अविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं च श्रुत-अज्ञानं च, विशेषितं श्रुतम्- सम्यग्दृष्टेः श्रुतं श्रुतज्ञानम्, मिथ्यादृष्टेः श्रुतं श्रुत-अज्ञानम्।] सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिसंबन्धतोऽविशेषितेन मतिशब्देन मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च द्वे अपि प्रतिपाद्यते, सम्यग्दृष्टित्वविशेषितेन तु मतिध्वनिना मतिज्ञानमेवोच्यते, मिथ्यादृष्टित्वविशेषितेन तु तेनैव मत्यज्ञानमेवाऽभिधीयते, एवं श्रुतेऽपि वाच्यमिति सूत्रभावार्थः। तदेतदानुषङ्गिकं सूत्रोक्तमनुवर्तमानो भाष्यकारोऽप्याह ___ 'द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण है'- यह कह कर अन्य मत वालों के कथन की विपरीतता को दर्शाया गया है क्योंकि भावश्रुत से उत्पन्न होने वाले शब्द को भी वे मतिपूर्वक मानते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 113 // (ज्ञान-अज्ञान विचार) . अब, मति व श्रुत में कार्य-कारण रूप से भी भेद है, तथा उनमें से प्रत्येक भी स्वगत सम्यक्त्व या मिथ्यात्व (के ग्रहीता) होने के कारण भी भेद है- इसे प्रासंगिक रूप में बताना चाहते हैं। इसी सम्बन्ध में, नन्दी सूत्र में भी कार्य-कारणभेद से उनके भेद प्रतिपादित करने के बाद एक सूत्र (जिसका अर्थ यह है-) प्रस्तुत है- "अविशेषित मति मतिज्ञान व मति-अज्ञान है, परन्तु विशेषित मति जब सम्यक्दृष्टि के हो तो मतिज्ञान है और जब मिथ्यादृष्टि के हो तो मति-अज्ञान है। इसी प्रकार अविशेषित श्रुत (श्रुत-)ज्ञान व (श्रुत-)अज्ञान है, किन्तु विशेषित श्रुत जब सम्यक्दृष्टि को हो तो श्रुत-ज्ञान, किन्तु मिथ्यादृष्टि के हो तो श्रुत-अज्ञान होता है। इस सूत्र का भावार्थ यह है कि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा न रखकर (उसके भेद को गौण कर) सामान्य रूप से मतिशब्द के द्वारा दोनों- मतिज्ञान व मति-अज्ञान का प्रतिपादन होता है, किन्तु जैसे सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ‘मति' शब्द से मति-ज्ञान ही कहा जाता है और मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से उसी मतिशब्द से मतिअज्ञान कहा जाता है, इसी प्रकार श्रुत के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। इसी सूत्र में प्रतिपादित एवं आनुषङ्गिक अर्थ को दृष्टि में रखते हुए भाष्यकार अग्रिम गाथा में कह रहे हैं -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 181 - - - - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविसेसिया मइ च्चिय सम्मदिट्ठिस्स सा मइण्णाणं। मइअन्नाणं मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं पि एमेव॥११४॥ [संस्कृतच्छाया:- अविशेषिता मतिरेव सम्यग्दृष्टेः सा मतिज्ञानम्। मत्यज्ञानं मिथ्यादृष्टे : श्रुतमपि एवमेव // ] सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिभावेनाऽविशेषिता मतिर्मतिरेवोच्यते, न तु मतिज्ञानं मत्यज्ञानं चेति निर्धार्य व्यपदिश्यते, सामान्यरूपायां तस्यां ज्ञानाऽज्ञानविशेषयोर्द्वयोरप्यन्तर्भावात् / यदा तु सम्यग्दृष्टेरेव संबन्धिनी सा मतिर्विवक्ष्यते, तदा मतिज्ञानमिति निर्दिश्यते / यदा तु मिथ्यादृष्टिसंबन्धिनी तदा मत्यज्ञानम्। एवं श्रुतमप्यविशेषितं श्रुतमेव, विशेषितं तु सम्यग्दृष्टेः श्रुतज्ञानं, मिथ्यादृष्टेस्तु श्रुताज्ञानम्, सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो बोधस्य सर्वस्यापि ज्ञानत्वात्, मिथ्यादृष्टिसत्कस्य त्वज्ञानत्वात् // इति गाथार्थः॥११४॥ ननु यथा मति-श्रुताभ्यां सम्यग्दृष्टिर्घटादिकं जानीते, व्यवहरति च, तथा मिथ्यादृष्टिरपि, तत् किमिति तस्य सत्कं सर्वमप्यज्ञानमुच्यते?, इत्याशङ्कयाह (114) अविसेसिया मइ च्चिय सम्मद्दिहिस्स सा मइण्णाणं। मइअन्नाणं मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं पि एमेव // [(गाथा-अर्थः) भेद-रहित मति (मात्र) मति ही है, किन्तु वही मतिज्ञान सम्यकदृष्टि के होने पर ‘मतिज्ञान' होता है और मिथ्यादृष्टि के हो तो मति-अज्ञान कहा जाता है। इसी प्रकार 'श्रुत' भी है।] __व्याख्याः- सम्यग्दृष्टि (वाली) या मिथ्यादृष्टि (वाली)- इन भेदों से रहित जो मति है, वह मात्र मति ही कही जाती है। मतिज्ञान या मति-अज्ञान- इस रूप में निर्धारित कर उसका कथन 'मति' (मात्र ‘मति') शब्द नहीं करता, क्योंकि सामान्य (भेदरहित) रूप में तो ज्ञान व अज्ञान- ये दोनों ही रूप उसी में अन्तर्भूत हैं। किन्तु जब सम्यग्दृष्टि वाली मति -इस प्रकार कहा जाना हो तो उसे मतिज्ञान शब्द (संज्ञा) द्वारा कहेंगे। और जब मिथ्यादृष्टि वाली मति- इस प्रकार कहा जाना हो तो उसे मति-अज्ञान शब्द (संज्ञा) से कहेंगे। इसी प्रकार अविशेषित (भेदरहित) श्रुत मात्र श्रुत है, वही विशेषित (भेदापन्न) होकर सम्यग्दृष्टि के हो तो श्रुत-ज्ञान, और मिथ्यादृष्टि के हो तो श्रुत-अज्ञान कहा जाता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान (सम्यक्)ज्ञान रूप ही होते हैं और मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञान अज्ञान (मिथ्याज्ञान) रूप ही होते हैं। यह गाथा का अर्थ सम्पूर्ण हुआ // 114 // जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति व श्रुत से घटादि को जानता है, और (तदनुरूप) व्यवहार करता है, मिथ्यादृष्टि भी तो उसी प्रकार से (जानता व व्यवहार) करता है, तो वह क्या कारण है कि मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञानों को अज्ञान रूप में कहा जाता है?- इस शंका को दृष्टि में रखकर (समाधान रूप में) भाष्यकार कह रहे हैं Ma 182 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदसदविसेसणाओ भवहेउ-जदिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठिस्स अण्णाणं // 115 // [संस्कृतच्छाया:- सद्-असद्-अविशेषणाद् भवहेतु-यदृच्छोपलम्भात् / ज्ञानफलाभावाद् मिथ्यादृष्टे: अज्ञानम्॥] सच्चाऽसच्च सद-सती तयोरविशेषणमविशेषस्तस्माद् हेतोः, मिथ्यादृष्टेः संबन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमुच्यते, सतो ह्यसत्त्वेनाऽसद् विशिष्यते, असतोऽपि च सत्त्वेन सद् भिद्यते। मिथ्यादृष्टिश्च घटे सत्त्व-प्रमेयत्व-मूर्तत्वादीन्, स्तम्भरम्भाऽम्भोरुहादिव्यावृत्त्यादींश्च पटादिधर्मान् सतोऽप्यसत्त्वेन प्रतिपद्यते, 'सर्वप्रकारैर्घट एवायम्' इत्यवधारणात् / अनेन ह्यवधारणेन सन्तोऽपि सत्त्व-प्रमेयत्वादयः पटादिधर्मा न सन्तीति प्रतिपद्यते, अन्यथा सत्त्व-प्रमेयत्वादिसामान्यधर्मद्वारेण घटे पटादीनामपि सद्भावात् 'सर्वथा घट एवायम्' इत्यवधारणानुपपत्तेः, कथञ्चिद् घट एवाऽयम्' इत्यवधारणे त्वनेकान्तवादाभ्युपगमेन सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गात्, (115) सदसदविसेसणाओ भवहेउ-जदिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिहिस्स अण्णाणं // [(गाथा-अर्थः) (चूंकि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान) सत्-असत् के विवेक से रहित है, भव (-भ्रमण) का हेतु है, स्वतन्त्र (निरंकुश, अमर्यादित) प्रवृत्ति वाला है, और ज्ञान के (पारमार्थिक) फल से रहित है, इसलिए मिथ्यादृष्टि का (ज्ञान) अज्ञान (रूप ही) है।] व्याख्याः- चूंकि मिथ्यादृष्टि सत् व असत् में भेदरूप विवेक नहीं रखता, इस कारण से उसका बोध 'व्यवहार' दृष्टि से ज्ञान कहलाता हुआ भी 'निश्चय' (पारमार्थिक) दृष्टि से 'अज्ञान' ही कहा जाता है, (क्योंकि) वह (कभी-कभी) सत् को भी असत् रूप से और असत् को भी, सत् रूप से विवेक कर लेता है। जैसे- मिथ्यादृष्टि व्यक्ति घट में सत्त्व, प्रमेयत्व, मूर्तत्व आदि धर्मों को, तथा स्तम्भ, रम्भा, कमल आदि से व्यावृत्ति (भेद) कराने वाले- अस्तम्भत्व, अकमलत्व आदि अनन्त धर्म जो पट में हैं, वे ही घट में भी हैं, उन धर्मों को असत् रूप मानता है। (घट में घट के अपने विशेष धर्म तो हैं ही, किन्तु सत्त्व, प्रमेयत्व आदि धर्म, जो पट आदि में है और वे घट में भी हैं।) इसी प्रकार, घट में स्व-द्रव्य की दृष्टि से अस्तित्व धर्म है तो पर-द्रव्य की दृष्टि से 'नास्तित्व' धर्म भी है, किन्तु मिथ्यादृष्टि (अनेकान्तवाद व स्याद्वाद से अपरिचित होता है, या श्रद्धारहित होता है, इसलिए) घट को 'सर्वथा घट है ही' इस रूप में, 'एकान्त' दृष्टि से मन में निश्चित करता है (अर्थात् जानता है समझता है, और तदनुरुप व्यवहार भी करता है)। इस (एकान्त) रूप में किये गए ‘अवधारण' से सत्त्व, प्रमेयत्व रूप पट आदिगत धर्मों का- जो घट में भी हैं- अभाव मानता है। यदि वह घट में सत्त्व, प्रमेयत्व आदि सर्वसामान्य धर्मों के रूप में सद्भाव मान रहा होता, तो उसे 'सर्वथा घट ही है' यह निश्चय नहीं हो सकता था, किन्तु यदि वह (उक्त घटादिगत धर्मों का घट में अस्तित्व मान रहा हो और फलस्वरूप 'यह घट कथंचित् है' (स्यात् अस्ति घटः) इस रूप में जान रहा हो, तब उसे, अनेकान्तवाद Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 183 2 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा पट-पुट-शकटादिरूपं घटेऽसदपि सत्त्वेनाऽयमभ्युपगच्छति सर्वैः प्रकारैर्घटोऽस्त्येव' इत्यवधारणात्, स्यादस्त्येव घटः' इत्यवधारणे तु स्याद्वादाश्रयणात् सम्यग्दृष्टित्वप्राप्तेः। तस्मात् सद्-असतोर्विशेषाभावादुन्मत्तकस्येव मिथ्यादृष्टेर्बोधोऽज्ञानम्। तथा विपर्यस्तत्वादेव भवहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम्। तथा पशुवधहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम्। तथा पशुवध-तिलादिदहनजलाधवगाहनादिषु संसारहेतुषु मोक्षहेतुत्वबुद्धेः, दया-प्रशम-ब्रह्मचर्याऽऽकिञ्चन्यादिषु तु मोक्षकारणेषुभवहेतुत्वाध्यवसायतो यदृच्छोपलम्भात् तस्याऽज्ञानम् / तथा विरत्यभावेन ज्ञानफलाभावाद् मिथ्यादृष्टेरज्ञानम् // इति गाथार्थः // 115 / / तदेवं प्रसङ्गः प्रतिपादितो हेतु-फलभावादपि मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं भेदभेदात् तयोस्तमभिधातुमाह को स्वीकार करने के कारण सम्यग्दृष्टि मानना पड़ेगा। इसी प्रकार, वह पट (वस्त्र), पुट (दोना, प्याला), नट (नर्तक आदि), शकट (गाड़ी) आदि रूपों का- जिनका घट में सद्भाव नहीं हैसद्भाव भी स्वीकार करता है, क्योंकि वह 'सर्वथा, सभी दृष्टियों से, यह घट है ही'- इस प्रकार निश्चय किए हुए होता है (अर्थात् नास्तित्व धर्म को असद्भूत मान रहा होता है)। यदि उसे 'स्यात्कथंचित् (किसी दृष्टिविशेष की अपेक्षा से) घट है ही'- ऐसा अवधारण (निश्चयात्मक ज्ञान) हो तो स्यादवाद के आश्रयण कर लेने के कारण उसे सम्यग्दृष्टि मानना पड़ेगा। इसलिए (यह सिद्ध हआ कि) सत्-असत् में विवेक नहीं होने से उन्मत्त (विक्षिप्त-मन, पागल) व्यक्ति की तरह ही मिथ्यादृष्ठि का बोध अज्ञान रूप ही (सिद्ध होता) है। इसी तरह चूंकि मिथ्यादृष्टि का बोध सम्यक्ज्ञान (सन्मार्ग, मोक्षमार्ग से) विपरीत होने के कारण संसार-भ्रमण का कारण है, इसलिए वह अज्ञान रूप है। यह अज्ञानरूप बोध उसे पशु-वध आदि कार्यों में प्रवृत्ति का कारण बनता है, इसलिए भी वह 'अज्ञान' रूप ही है। इसी तरह, पशु-वध, तिल आदि दहन (द्रव्ययज्ञ), व जलादिस्नान (तीर्थस्नान) आदि को-जो संसार-भ्रमण के हेतु हैं, उन्हें मोक्ष- प्राप्ति का हेतु मानता है, और दया, प्रशम (शांति), ब्रह्मचर्य- आकिञ्चन्य (अपरिग्रह) आदि जो मोक्ष के कारण हैं, उन्हें संसार का हेतु मानता है, इस प्रकार यादृच्छिक (मनमाने ढंग से, कभी समीचीन-सम्यक् को सही जानता है, कभी उसे असम्यक् भी मान लेता है इस रूप में घटादि की) उपलब्धि किये जाने से उसका ज्ञान 'अज्ञान' ही है। इसी तरह, विरति (पापादि से विरति, निवृत्ति) के अभाव होने से, ज्ञान का जो (वास्तविक) फल होता है, उससे रहित होने के कारण, उस मिथ्यादृष्टि का बोध 'अज्ञान' ही (कहा जाता) है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 115 // (स्वभेदों की भिन्नता से मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार मति व श्रुत में हेतु-फल की दृष्टि से जो भेद या अन्तर है, उसे सप्रसंग प्रतिपादित कर दिया गया। अब भेद के भी उपभेदों के आधार पर उन दोनों के भेद का निरूपण (आगे की गाथा में भाष्यकार द्वारा) किया जा रहा है May 184 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ----- Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेयकयं च विसेसणमट्ठावीसइविहंगभेयाइ। इंदियविभागओ वा मइ-सुयभेयो जओऽभिहियं // 116 // [संस्कृतच्छाया:- भेदकृतं विशेषणम् अष्टाविंशतिविध-अङ्गभेदादि / इन्द्रियविभागतो वा मति-श्रुतभेदो यतोऽभिहितम्॥] भेदा अवग्रहादयः, अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टत्वादयश्च, तत्कृतं वा मति-श्रुतयोर्विशेषणं भेदः, यतोऽवग्रहादिभेदादष्टाविंशत्यादिविधं मतिज्ञानं 'वक्ष्यते' इति शेषः, श्रुतज्ञानं त्वङ्गाऽनङ्गप्रविष्टत्वादिभेदमभिधास्यते। अथवा इन्द्रियविभागाद् मति-श्रुतयोर्भेदः, यतोऽन्यत्र पूर्वगतेऽभिहितम् // इति गाथार्थः॥११६ // किमभिहितम्?, इत्याह सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। मोत्तूण दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु॥११७॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्भवति श्रुतं, शेषकं तु मतिज्ञानम् / मुक्त्वा द्रव्यश्रुतमक्षरलाभश्च शेषेषु॥] (116) भेयकयं च विसेसणमट्ठावीसइविहंगभेयाइ। * इंदियविभागओ वा मइ-सुयभेयो जओऽभिहियं // 1 [(गाथा-अर्थः) मतिज्ञान के अवग्रह आदि अठाईस भेद, तथा श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट-अनंगप्रविष्ट (आदि चौदह) भेद होते हैं, इसलिए भेदकृत भी दोनों (मति व श्रुत) में भेद (अन्तर) है। अथवा इन्द्रियसम्बन्धी विभाग के आधार पर भी मति व श्रुत में भेद (अन्यत्र) बताया गया है।] _ व्याख्याः - अवग्रह आदि (मतिज्ञान के) भेद हैं, (श्रुतज्ञान के) अंग-प्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि (चौदह आदि) भेद हैं, इनके कारण मति व श्रुत में परस्पर वैशिष्ट्य अर्थात् अन्तर है। चूंकि अवग्रहादि भेद के आधार पर मति ज्ञान के 28 आदि भेद, इसके बाद 'आगे कहे जाएंगे'- यह वाक्य अध्याहृत कर लेना चाहिए। श्रुतज्ञान के भी अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि (14 आदि भेद) आगे कहे जाएंगे। अथवा इन्द्रिय-सम्बन्धी विभाजन के कारण भी मति व श्रुत में भेद हैं, क्योंकि इसका निरूपण भी पूर्व में किया गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 116 // (श्रुतोपलब्धि श्रुत है, शेष मति है) इन्द्रिय-विभाग के सम्बन्ध में क्या कहा गया है? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु कह रहे हैं (117) . सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं / मोत्तूण दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु // __ [(गाथा-अर्थः) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि 'श्रुत' है और शेष मतिज्ञान है। द्रव्यश्रुत के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों में अक्षरोपलब्धि श्रुत है।] Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 185 En Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रो जीवस्तस्येदमिन्द्रियम्, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्, तच्च तदिन्द्रियं चेति श्रोत्रेन्द्रियम्, उपलम्भनमुपलब्धिर्ज्ञानम्, श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति तृतीयासमासः, श्रोत्रेन्द्रियस्य वोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति षष्ठीसमासः, श्रोत्रेन्द्रियद्वारकं ज्ञानमित्यर्थः, श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्येति बहुव्रीहिणाऽन्यपदार्थे शब्दोऽप्यधिक्रियते। ततश्चाद्यसमासद्वये श्रोत्रेन्द्रियद्वारकमभिलापप्लावितोपलब्धिलक्षणं भावश्रुतमुक्तं द्रष्टव्यम्, बहुव्रीहिणा तु तस्यां भाव श्रुतोपलब्धावनुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतम्, तदुपयुक्तस्य तु वदत उभयश्रुतमभिहितं वेदितव्यम्। इह च व्यवच्छेदफलत्वात् सर्वं वाक्यं सावधारणं भवति, इष्टश्चाऽवधारणविधिः प्रवर्तते, ततः 'चैत्रो धनुर्धर एव' इत्यादिष्विवेहाऽयोगव्यवच्छेदेनाऽवधारणं द्रष्टव्यम्, तद्यथा- श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव, न तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेति, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिस्तु श्रुतं मतिर्वा भवति, यथा धनुर्धरश्चैत्रोऽन्यो वेति, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेरवग्रहेहादिरूपाया मतित्वात्, श्रुतानुसारिण्यास्तु श्रुतत्वादिति। व्याख्याः- इन्द्र का अर्थ है- जीव / जो इन्द्र यानी जीव का है, वह इन्द्रिय है। जिससे सुना जाय वह श्रोत्र है। उपलब्धि का अर्थ है- उपलम्भन या ज्ञान / श्रोत्रेन्द्रिय और उपलब्धि -इन दोनों का तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तो दोनों का अर्थ होगा- श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होने वाला ज्ञान / यहां श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा उपलब्धि है जिसको- इस प्रकार बहुब्रीहि समास भी सम्भव है जिससे अन्य पदार्थ की प्रधानता होने से 'शब्द' अर्थ भी यहां अधिकृत (अर्थात् ग्राह्य) होगा। पहले के दो समासों (तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष) में श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा शब्दोल्लेख-सहित उपलब्धि रूप भावश्रुत अर्थ अभिहित होता है। बहुब्रीहि समास करने पर, अर्थ होगा- भावश्रुत की उपलब्धि में उपयोगरहित वक्ता का द्रव्यश्रुत; या उसमें उपयोगयुक्त वक्ता का दोनों (द्रव्यश्रत व भाव) श्रृत। सभी वाक्य अवधारण-सहित ('ही' अर्थवाले) होते हैं, क्योंकि उनकी सफलता/ सार्थकता अपने से विपरीत का निवारण करने से ही होती है। वह अवधारण-विधि अभीष्ट प्रयोजन के अनुरूप होती है। जैसे- 'चैत्र धनुर्धर है' इस कथन से यह संकेतित किया जाना अभिप्रेत होता है कि 'चैत्र धनुर्धर ही है, क्योंकि इन वाक्यों में अयोग-व्यवच्छेद' (अयोग= इतर विशेषण का, व्यवच्छेद= निराकरण) करते हुए अवधारण (निर्णय) करना होता है- यह ज्ञातव्य है। (उक्त रीति से) यहां अर्थ होगा- श्रुत श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही है, न कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है -यह अर्थ। क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि तो श्रुत भी हो सकती है और मतिरूप भी, यह उसी प्रकार है जैसे कि धनुर्धर चैत्र भी हो सकता है और कोई दूसरा भी। श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि अवग्रह-ईहा आदि रूप में मतिज्ञान रूप भी है, और श्रुतानुसारी हों तो श्रुत रूप भी। तात्पर्य यह है कि यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है -ऐसा अर्थ किया जाए तो उक्त उपलब्धि की मतिज्ञानरूपता पूर्णतः निराकृत हो जाएगी, किन्तु किसी-किसी श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि की मतिज्ञानरूपता भी अभीष्ट है। Via 186 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि पुनः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेत्यवधार्यते, तदा तदुपलब्धेर्मतित्वं सर्वथैव न स्यात्, इष्यते च कस्याश्चित् तदपीति भावः। यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, तर्हि शेषं किं भवतु?, इत्याह-'सेसयं त्वित्यादि / श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिं विहाय शेषकं यच्चक्षुरादीन्द्रियचतुष्टयोपलब्धिरूपं तद् मतिज्ञानं भवति' इति वर्तते। तुशब्दः समुच्चये, स चैवं समुच्चिनोति, न केवलं शेषेन्द्रियोपलब्धिर्मतिज्ञानम्, किन्तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवग्र हेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानं भवति, तथा च सत्यनन्तरमवधारणव्याख्यानमुपपन्नं भवति। 'सेसयं तु मइनाणं' इति सामान्येनैवोक्ते शेषस्य सर्वस्याऽप्युत्सर्गेण मतित्वे प्राप्ते सत्यपवादमाह- 'मोत्तूणं दव्वसुयं ति'। पुस्तकादिलिखितं यद् द्रव्यश्रुतं तद् मुक्त्वा परित्यज्यैव शेषं मतिज्ञानं द्रष्टव्यम्, पुस्तकादिन्यस्तं हि भावश्रुतकारणत्वात् शब्दवद् द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं मतिज्ञानं स्यात्?, इति भावः। न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, किन्तु यश्च शेषेषु चतुर्यु चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसाभिलापविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः सोऽपि श्रुतम्, न त्वक्षरलाभमात्रम्, तस्येहाऽपायाद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद्भावादिति // आह- यदि चक्षुरादीन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतम्, तर्हि यदाद्यगाथावयवे ' श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम्' इत्यवधारणं कृतम्, तद् नोपपद्यते, शेषेन्द्रियोपलब्धेरपीदानीं श्रुतत्वेन समर्थितत्वात् / नैतदेवम्, शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्यापि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरूपत्वात्, स हि __ (प्रश्न-) यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत है तो शेष क्या है? समाधान इस प्रकार है- (शेषकं तु)। श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि को छोड़कर शेष चक्षुरादि-इन्द्रियोपलब्धियां तो मतिज्ञान (रूप) हैं। इस कथन के आगे 'है' (भवति) इस पद की अनुवृत्ति करनी चाहिए। 'तु' यह पद समुच्चयवाचक है, जो यह अर्थ ध्वनित करता है कि न केवल शेष-इन्द्रियोपलब्धि (ही) मतिज्ञान है, किन्तु कोई-कोई अवग्रह-ईहा आदि मात्र श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी मतिज्ञान होती है। इसी अर्थ से पूर्वोक्त अवधारण-सम्बन्धी व्याख्यान की संगति भी बैठ पाती है। शेष सब मतिज्ञान है'- ऐसा सामान्यतया कहने पर, शेष सभी ज्ञान निरपवाद रूप से मतिज्ञान कहे जाने लगेंगे, इसलिए 'अपवाद' का निरूपण भी किया जा रहा है- (मुक्त्वा द्रव्यश्रुतम्)। तात्पर्य है कि पुस्तकादि में लिखित जो द्रव्यश्रुत है, उसे छोड़ कर ही शेष को मतिज्ञान जानें। पुस्तकादि में व्यस्त (स्थित) श्रुत तो उसी प्रकार द्रव्यश्रुत ही है जिस प्रकार भावश्रुत में कारण होने से शब्द को द्रव्यश्रुत माना जाता है, अतः उसे मतिज्ञान कैसे कहा जा सकता है (अर्थात् नहीं कहा जा सकता, इसीलिए 'उसे छोड़कर' यह कहा)। केवल श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत नहीं है, किन्तु शेष, यानी चक्षु आदि चार इन्द्रियों से, श्रुतानुसारी शब्दोल्लेखसहित ज्ञान रूप जो अक्षरलाभ है, वह भी श्रुत है, किन्तु मात्र अक्षरलाभ श्रुत नहीं है क्योंकि ईहा-अपायरूप मतिज्ञान में भी, उस (अक्षरलाभ) का सद्भाव होता है। - (प्रश्न-) चक्षु आदि इन्द्रियों से हुए अक्षर लाभ को भी श्रुत कहा जाता है तो पूर्व की गाथा में आपने 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है' ऐसा अवधारित (निर्णीत) किया गया है, वह संगत नहीं ठहरता, क्योंकि शेषइन्द्रियोपलब्धि को भी अभी आपने 'श्रुत' के रूप में समर्थित किया है। (उत्तर-) ऐसी बात नहीं है, शेष-इन्द्रिय-अक्षरलाभ भी श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही होता है, क्योंकि उसमें - ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 187 RA Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतानुसारिसाभिलापज्ञानरूपोऽत्राधिक्रियते, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि चैवंभूतैव श्रुतमुक्ता। ततश्च साभिलापविज्ञानं शेषेन्द्रियद्वारेणाऽप्युत्पन्नं योग्यतया श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव मन्तव्यम्, अभिलापस्य सर्वस्यापि श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यत्वादिति // अत्राह- ननु 'सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं' तथा 'अक्खरलम्भो य सेसेसु' इत्युभयवचनाच्छ्रुतज्ञानस्य सर्वेन्द्रियनिमित्तता सिद्धा, तथा सेसयं तु मइनाणं' इति वचनात्, तुशब्दस्य समुच्चयाच्च मतिज्ञानस्यापि सर्वेन्द्रियकारणता प्रतिष्ठिता, भवद्भिस्त्विन्द्रियविभागाद् मति-श्रुतयोर्भेदः प्रतिपादयितुमारब्धः, स चैवं न सिध्यति, द्वयोरपि सर्वेन्द्रियनिमित्ततायास्तुल्यत्वप्रतिपादनादिति / अत्रोच्यते-साधूक्तं . भवता, किन्तु यद्यपि शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातत्वात् तदक्षरलाभः शेषेन्द्रियोपलब्धिरुच्यते, तथाऽप्यभिलापात्मकत्वादसौ श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्य एव, ततश्च तत्त्वतः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवाऽयम्। तथा च सति परमार्थतः सर्वं श्रोत्रविषयमेव श्रुतज्ञानम्, मतिज्ञानं तु तद्विषयं शेषेन्द्रियविषयं च सिद्धं भवति, अत इत्थमिन्द्रियविभागाद् मति-श्रुतयोर्भेदो न विहन्यते, इत्यलं विस्तरेण // इति पूर्वगतगाथासंक्षेपार्थः // 117 // अथ विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्यकार एव परेण पूर्वपक्षं कारयितुमाह अक्षर लाभ माना गया है, वह श्रुतानुसारी शब्दोल्लेखहित ज्ञान रूप यहां अधिकृत (गृहीत) है, और वैसी ही जो श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि होती है, वही 'श्रुत' कही गई है। इसलिए शब्दोल्लेखसहित शेष (चक्षु आदि) इन्द्रियों से उत्पन्न होकर भी वह उपलब्धि योग्यता (क्षमता) की दृष्टि से, श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही है-ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि समस्त शब्दोल्लेख श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होते हैं। अब किसी ने प्रश्न किया- 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि श्रुत होती है' और 'शेष इन्द्रियों से भी होने वाला अक्षरलाभ श्रुत है'- इन दोनों कथनों से यह सिद्ध होता है कि श्रुतज्ञान सभी (श्रोत्र या अन्य) इन्द्रियों के निमित्त से होता है। दूसरी तरफ 'शेष इन्द्रियों की उपलब्धि तो श्रुतज्ञान है' इस कथन में समुच्चयबोधक 'तो' पद से मतिज्ञान में भी सभी इन्द्रियों की कारणता सिद्ध होती है। ऐसी स्थिति में (दोनों की समानता के सिद्ध होने से) आपने इन्द्रिय-विभाग के आधार पर मति-श्रुत के भेद का प्रतिपादन प्रारम्भ किया, वही असिद्ध हो जाता है, क्योंकि दोनों ही ज्ञान इन्द्रिय-कारणता की दृष्टि से समान हैं- ऐसा आप द्वारा (अभी) प्रतिपादित किया जा रहा है। इसका उत्तर यहां दिया जा रहा हैआपने ठीक कहा, किन्तु, यद्यपि शेष इन्द्रियों से प्राप्त होने से उस अक्षरलाभ को शेषइन्द्रियोपलब्धि रूप कहा जाता है, तथापि (वस्तुतः तो) शब्दोल्लेखसहित होने से श्रोत्रेन्द्रिय-ग्रहणयोग्य ही है, जिसके फलस्वरूप (वस्तुतः) तात्त्विक दृष्टि से वह श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही है। ऐसी स्थिति में परमार्थ रूप में समस्त श्रोत्रविषय श्रुतज्ञान है, जबकि मतिज्ञान श्रोत्रेन्द्रियविषय और शेषइन्द्रियविषय- दोनों प्रकार का सिद्ध होता है। इसलिए उक्त रीति से इन्द्रिय-विभाग की दृष्टि से मति व श्रुत में होने वाले भेद या अन्तर का निराकरण नहीं होता। अब अधिक विस्तार में लिखने की जरूरत नहीं है। यह पूर्व की गाथा का संक्षिप्त अर्थ है // 117 // अब पूर्व की गाथा के अर्थ को विस्तार से कहने की इच्छा रखते हुए भाष्यकार स्वयं ही किसी अन्य की ओर से पूर्वपक्ष (शंका) प्रस्तुत कर रहे हैंMa 188 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी। अह बुद्धीओ न सुयं अहोभयं संकरो नाम॥११८॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रोत्रोपलब्धिः यदि श्रुतं न नाम श्रोत्रावग्रहादयो बुद्धिः। अथ बुद्धयो न श्रुतम्, अथोभयं संकरो नाम // ] 'श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम्' इत्यवधारणार्थमनवगच्छतः श्रुतमेव तदुपलब्धिः ' इत्येवं च तदर्थमवबुध्यमानस्य परस्य वचनमिदम्, तद्यथा- यदि श्रोत्रोपलब्धिः श्रुतमेव, तहि 'नाम' इति कोमलामन्त्रणे, अहो! श्रोत्रेन्द्रियद्वारोत्पन्ना अवग्रहेहादयो बुद्धिर्मतिज्ञानं न प्राप्नुवन्ति, तदुपलब्धेः सर्वस्या अपि श्रुतत्वेनाऽवधारणात्। मा भूवंस्ते मतिज्ञानम्, किं नः श्रूयते? इति चेत् / नैवम्, तथा सति तस्य वक्ष्यमाणाऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वहानेः। अथैतद्दोषभयाद् बुद्धिस्तेऽभ्युपगम्यन्ते, ततस्तर्हि न ते श्रुतम्, तथा च सति 'सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं' इत्यसंगतं प्राप्नोति। अथोभयदोषपरिहारार्थं 'उभयं' बुद्धिश्च श्रुतं च ते इष्यन्ते / तद्देवं सत्येकस्थानमीलितक्षीर-नीरयोरिव संकरः संकीर्णता मति-श्रुतयोराप्नोति, न पृथग्भावः। अथवा' यदेव मतिस्तदेव श्रुतं, यदेव च श्रुतं तदेव मतिः' इत्येवमभेदोऽप्यनयोः स्यात्, इति स्वयमेव द्रष्टव्यम्, भेदश्चेह तयोः प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, तदेतच्छान्तिकरणप्रवृत्तस्य वेतालोत्थानम्॥ इति प्रेरकगाथार्थः // 118 // (118) सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी। ___ अह बुद्धीओ न सुयं अहोभयं संकरो नाम // [(गाथा-अर्थः) यदि श्रोत्र-उपलब्धि श्रुत ही है तो श्रोत्रेन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले अवग्रहादि मतिज्ञान नहीं रह पाएंगें, यदि वे मतिज्ञान हैं तो श्रोत्रोपलब्धि को श्रुत कहना असंगत होगा, और उक्त उपलब्धि को मति-श्रुत उभयरूप मानेंगे तो सांकर्य दोष पैदा हो जाएगा।] व्याख्याः- यह शंका उस व्यक्ति की ओर से प्रस्तुत है जो ‘श्रोत्रेन्द्रिय उपलब्धि श्रुत है' इस वाक्य का जो 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है'- यह (वास्तविक) अर्थ है, उससे अनभिज्ञ है और उस . वाक्य का अर्थ यह समझ बैठा है कि 'श्रुत ही श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि है'। यहां गाथा में 'नाम' यह अव्यय पद कोमल, अनादररहित सम्बोधन का सूचक है- (अतः शंकाकार का कथन इस प्रकार होगा-) मान्यवर! यदि श्रोत्रोपलब्धि श्रुत ही है, तो श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा उत्पन्न होने वाले अवग्रह-ईहा रूप ज्ञान मतिज्ञान नहीं रह पाएंगे, क्योंकि उस समस्त उपलब्धि को 'श्रुत' रूप में निर्णीत किया है। यदि ऐसा कहें कि वे मतिज्ञान न कहलाएं तो क्या हानि है? तो वह भी असंगत है क्योंकि उन्हें मतिज्ञान न मानने पर, मतिज्ञान के अवग्रह आदि जो 28 भेद कहे जाने वाले हैं, वे असंगत हो जाएंगे (अर्थात् उसके भेदों की उतनी संख्या नहीं रह पाएगी)। और यदि उक्त दोष के भय से, उन्हें मतिज्ञान मानते हैं तो वे 'श्रुत' नहीं कहे जा सकते, और तब ‘श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि श्रुत (ही) है' यह कथन असंगत हो जाएगा | अब यदि दोनों दोषों के परिहार (निराकरण) हेतु उन्हें मति व श्रुत- दोनों रूप माना जाए, तब तो एक ही स्थान (क्षेत्र) में दूध व पानी (के मिश्रण) की तरह मति व श्रुत की Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 189 र Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेतत् प्रेय केचिद् यथा परिहरन्ति, तथा तावद् दर्शयन्नाह केई बेन्तस्स सुयं सद्दो सुणओ मइ त्ति, तं न भवे। जंसव्वो च्चिय सद्दो दव्वसुयं तस्स को भेयो?॥११९॥ [संस्कृतच्छाया:- केचिद् ब्रुवतः श्रुतं शब्दः शृण्वतो मतिरिति, तद् न भवेत्। यत् सर्व एव शब्दो द्रव्यश्रुतं तस्य को भेदः? // ] 'सोइंदिओवलद्धी' इत्यत्र श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्येति केवलबहुव्रीह्याश्रयणात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः शब्द एवेति केचिद् मन्यन्ते, . स च प्रज्ञापकस्य ब्रुवतः श्रूयत इति कृत्वा श्रुतम्, शृण्वतस्तु श्रोतुरवग्रहेहाऽपायादिरूपेण मन्यते ज्ञायत इति मतिः। एवं च सत्युभयमुपपन्नं भवति, श्रोतृगताऽवग्रहादीनां च श्रुतत्वं परिहृतं भवति। संकीर्णता-सांकर्य-दोषयुक्तता हो जाएगी, और तब दोनों का भेद या पार्थक्य (ही) नहीं रह जाएगा। अथवा- जो (ज्ञान) मति है, वही श्रुत (भी) है, जो श्रुत है, वही मति (भी) है- इस प्रकार अभेदं ही सिद्ध होगा- यह स्वयं विचार करें। आप तो उनमें भेद प्रतिपादित करने चले थे, किन्तु प्रतिपादित हो गया- अभेद; यह तो वही बात हुई कि वेताल की शांति का प्रयत्न करने चले, किन्तु (उल्टे) वह वेताल (और भी अधिक) उत्थित- जागृत (शक्तिशाली होकर प्रकट) हो गया! इस प्रकार शंकाकार की ओर से प्रस्तुत गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 118 // . उक्त शंका का कुछ लोगों द्वारा एक समाधान- वस्तुतः जो पूर्णविज्ञ नहीं है, उनकी ओर से दोषपूर्ण समाधान- प्रस्तुत किया जाता है, उसका निरूपण कर रहे हैं (119) केई बेन्तस्स सुयं सद्दो सुणओ मइ त्ति, तं न भवे। जं सव्वो चिय सद्दो दव्वसुयं तस्स को भेयो? // [(गाथा-अर्थः) वक्ता का शब्द (सुने जाने के कारण) 'श्रुत' है, वही (शब्द) श्रोता के लिए 'मति' है- ऐसा कुछ लोग समाधान करते हैं। किन्तु यह समाधान युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जो भी शब्द है, वह द्रव्यश्रुत ही है, उसमें (वक्ता के लिए श्रुत, श्रोता के लिए मति- इस प्रकार का) भेद कैसे?] __ व्याख्याः- श्रोत्रेन्द्रिय से उपलब्धि है जिसकी- इस बहुब्रीहि समास के आधार पर श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि का अर्थ 'शब्द' ही है- ऐसा कुछ लोग मान रहे हैं। उनकी दृष्टि से यह समाधान प्रस्तुत है- वह शब्द वक्ता की अपेक्षा से श्रुत है क्योंकि वह (श्रोता द्वारा) सुना जाता है, किन्तु वही श्रोता के लिए अवग्रह-ईहा-अपायादि रूप से जाना जाता है, अतः मतिज्ञान है। ऐसा मानने पर दोनों कथनों की संगति हो जाती है और श्रोतृगत अवग्रहादि की श्रुतरूपता (दोष) का परिहार भी हो जाता है। a 190 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यः प्राह-'तं न भवे त्ति'। तदेतत् केषाञ्चिद् मतं युक्तं न भवति। कुतः?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणाद् ब्रुवतः श्रोतुश्च संबन्धी सर्व एव शब्दो द्रव्यश्रुतम्, द्रव्यश्रुतमात्रत्वेन च सर्वत्र तुल्यस्य सतस्तस्य शब्दस्य को भेदः को विशेषः, येनासौ वक्तरि श्रुतं, श्रोतरि तु मतिः स्यात्? / यदपि श्रूयत इति श्रुतं' 'मन्यत इति मतिः' उच्यते, तत्रापि धात्वन्तरमात्रकृत एव विशेषः, शब्दस्तु स एव श्रूयते स एव मन्यते, इति न क्वचिदुभयं दृश्यते // इति गाथार्थः // 119 // दूषणान्तरमप्याह किंवा नाणेऽहिगए सद्देणं जइ य सद्दविन्नाणं। गहियं तो को भेयो भणओ सुणओ व जो तस्स?॥१२०॥ [संस्कृतच्छाया:-किं वा ज्ञानेऽधिकृते शब्देन यदि च शब्दविज्ञानम्। गृहीतं ततः को भेदो भणतः शृण्वतश्च यस्तस्य // ] यदि वा ज्ञाने ज्ञानविचारेऽधिकृते किं पुद्गलसङ्घातरूपेण शब्देन गृहीतेन कार्यम्, अप्रस्तुतत्वात्? अथ श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्देन शब्दविज्ञानं गृह्यत इति। अत्राह-'जइ येत्यादि'। यदि च श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेः शब्दस्य कारणभूतत्वात् कार्यभूतत्वाच्चोपचारतो वक्तृगतं श्रोतृगतं च शब्दविज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्दवाच्यत्वेन गृहीतम्, तच्च ब्रुवतः श्रुतं शृण्वतस्तु मतिरित्युच्यते। अब इस दोषपूर्ण समाधान को नकारते हुए, अमान्य करते हुए, आचार्य कह रहे हैं- (तद् न भवेत्)। यह समाधान जो किन्हीं लोगों द्वारा दिया गया है, वह युक्तिसंगत नहीं है। क्यों? (उत्तर-) चूंकि बोलने वाला हो या श्रोता हो, दोनों के लिए शब्द मात्र द्रव्यश्रुत ही है, और सर्वत्र समान होने से उसका भेद किस प्रकार यक्तिसंगत है कि वक्ता के लिए जो श्रत है. श्रोता के लिए वही मतिरूप है? जो सुना जाए, वह 'श्रुत' है और जो जाना जाय वह ‘मति' है- ऐसा जो कहा जाता है, उसमें भी दो धातुओं (श्रवण व मनन-इन्हीं) का ही अन्तर है, वस्तुतः तो जो शब्द सुना जाता है, वही जाना जाता है एवं उससे भिन्न कोई न सुना जाता है और न मनन किया जाता है। (अर्थात् श्रवण भी तो एक मतिज्ञान है)- अतः कहीं भी उस शब्द में उभयरूपता (मति व श्रुत उभयरूपता) दृष्टिगोचर (अनुभूत, प्रतीतिसिद्ध) नहीं होती। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 119 // पूर्वोक्त दोषपूर्ण समाधान में एक अन्य दोष का भी निरूपण कर रहे हैं (120) किंवा नाणेऽहिगए सद्देणं जइ य सद्दविन्नाणं। गहियं तो को भेयो भणओ सुणओ व जो तस्स? // . [(गाथा-अर्थः) अथवा यहां का अधिकार (प्रकरण) है, इसमें शब्द का क्या काम? यदि शब्द को भी ज्ञान रूप में ग्रहण किया जाय तो उसमें वक्ता व श्रोता की दृष्टि से भेद फिर क्या हो सकता है?] व्याख्याः- अथवा (ज्ञाने) ज्ञानसम्बन्धी अधिकार (प्रकरण) में पुद्गल-संघात रूप शब्द को लेकर क्या काम (बनेगा)? क्योंकि वह तो अप्रस्तुत अर्थात् अप्रासंगिक है। श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि शब्द से शब्दविज्ञान का ग्रहण करें (तब तो वह प्रासंगिक हो जाएगा)- यदि ऐसा कहें तो? इस शंका को NA ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 191 52 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हन्त! ततस्तर्हि तस्य विज्ञानस्य ब्रुवतः शृण्वतो वा यो भेदो विशेषः, स कः? इति कथ्यताम्, येन तद् वक्तुः श्रुतं, श्रोतुश्च मति: स्यात्? इति नास्त्यसौ विशेषः, शब्दविज्ञानत्वाविशेषादिति भावः। किञ्च, एवं सति श्रोतुरपि कदाचिच्छ्रुत्यनन्तरमेव ब्रुवतः सैव शब्दजनिता तन्मतिरवशिष्टा श्रुतं प्रसजति बेन्तस्स सुयं' 'सुणओ मई' इत्यभ्युपगमात्, ततश्च तदेवैकत्वं मति-श्रुतयोः, इति कोऽतिशयः कृतः स्यात्? इति। किञ्च, यदि शृण्वतः सर्वदैव मतिरित्ययमेकान्तः, तर्हि यदेतद् व्यक्तं सर्वत्रोच्यते- आचार्यपारम्पर्येणेदं श्रुतमायातमिति, तदसत् प्राप्नोति, तीर्थकरादर्वाक् सर्वेषामपि श्रोतृत्वेन मतिज्ञानस्यैवोपपत्तेः। अथ नैवम्, तर्खेकत्वं मति-श्रुतयोः // इति गाथार्थः // 120 // तदेवं केई बेन्तस्स सुयं' इत्यादि दूषयित्वा प्रस्तुतप्रकरणोपसंहारव्याजेन परमेव शिक्षयन्नाह रखते हुए, उसका प्रत्युत्तर भी दे रहे हैं- (यदि च)। (शंकाकार-) यदि ऐसा कहो कि चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि शब्द में कारणभूत भी है और कार्यभूत भी है, इसलिए उपचार से श्रोत्रेन्द्रियउपलब्धि शब्द से वक्तृगत व श्रोतृगत शब्दविज्ञान का ग्रहण हो जाता है (और वह शब्दविज्ञान तो प्रासंगिक है ही), और वह शब्दविज्ञान वक्ता के लिए 'श्रुत' है और श्रोता के लिए मति है। (भाष्यकार का प्रत्युत्तर-) (आपकी अज्ञानता पर) बड़ा खेद है। आप जरा यह स्पष्ट करें कि आपके कथन के अनुसार उस शब्दविज्ञान को बोलते या सुनते हुए जो अन्तर हुआ है, वह आखिर क्या है जिसके कारण वह वक्ता के लिए 'श्रुत' और श्रोता के लिए ‘मति' हो जाता है? अर्थात् वस्तुतः वैसा कोई अन्तर है ही नहीं, क्योंकि शब्द-ज्ञान तो भेदरहित ही होता है- यह तात्पर्य है। . दूसरी बात, आपकी (वक्ता के लिए जो श्रुत, वही श्रोता के लिए मति-यह) बात मान भी ली जाय तो कभी श्रोता शब्द-श्रवण के बाद ही बोलने लगे तो वहां शब्दजनित भेदरहित मति से श्रुत की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि आप तो 'बोलने वाले के लिए श्रुत, और सुनने वाले के लिए मति'ऐसा अभी स्वीकार कर चुके हैं। तब मति व श्रुत की एकता ही सिद्ध होगी, उनमें अन्तर क्या रहा? एक और बात, यदि सुनने वाले को सर्वदा ‘मति' ज्ञान ही होता है- ऐसी आपकी एकान्त मान्यता है तो यह जो स्पष्ट रूप से (व्यवहार में) कहा जाता है कि “आचार्य-परम्परा से मुझे यह 'श्रुत' प्राप्त हुआ"- यह असत्य होने लगेगा, और तीर्थंकर के बाद सभी श्रोता हैं, उन्हें (आपके अनुसार तो) मतिज्ञान का होना ही संगत होगा, श्रुत ज्ञान तो नहीं। और अगर ऐसा नहीं, (तीर्थंकर के परवर्ती श्रोताओं को श्रुतज्ञान का भी होना मान्य है, तब) तो मति व श्रुत की एकता ही सिद्ध हुई। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 120 // ___ इस प्रकार, कुछ लोगों द्वारा प्रस्तुत समाधान में दोष बताकर, प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार करते हुए तथा उसके माध्यम से भाष्यकार शंकाकार को उपदेश (या सीख) भी दे रहे हैं May 192 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ------ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणओ सुणओ व सुयं तं जमिह सुयाणुसारि विण्णाणं।। * दोण्हं पि सुयाईयं जं विन्नाणं तयं बुद्धी // 121 // [संस्कृतच्छाया:- भणतः शृण्वतो वा श्रुतं तद् यदिह श्रुतानुसारि विज्ञानम्। द्वयोरपि श्रुतातीतं यद् विज्ञानं तद् बुद्धिः॥] तस्माद् ‘ब्रुवतः श्रुतं, शृण्वतस्तु मतिः' इत्येतद् न युक्तम्, उक्तदूषणात्, अनागमिकत्वाच्च। किं तर्हि युक्तम्? इति चेत् / उच्यते- भणतः शृण्वतो वा यत् किमपि श्रुतानुसारि परोपदेशार्हद्वचनानुसारि विज्ञानं, तदिह सर्वं श्रुतम्, यत् पुनर्द्वयोरपि वक्तृश्रोत्रोः श्रुतातीतं हृषीक-मनोमात्रनिमित्तमवग्रहादिरूपं विज्ञानं, तत् सर्वं बुद्धिर्मतिज्ञानमित्यर्थः। तदेवं द्वयोरपि वक्तृ-श्रोत्रोः प्रत्येकं मति-श्रुते यथोक्तस्वरूपे अभ्युपगन्तव्ये, न पुनरेकैकस्यैकमिति भावः // इति गाथार्थः॥१२१॥ भवत्वेवम्, किन्तु 'सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादिना यः परेण पूर्वपक्षो व्यधायि, तस्य तर्हि कः परिहारः? इत्याशक्य भाष्यकार एवेदानीं सोइंदिओवलद्धी होइ सुर्य' इत्यादिमूलगाथां विवृण्वन्नाह (121) भणओ सुणओ व सुयं तंजमिह सुयाणुसारि विण्णाणं।। दोण्हं पि सुयाईयं जं विन्नाणं तयं बुद्धी // [(गाथा-अर्थः) वस्तुतः यहां जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रोता और वक्ता के लिए श्रुतज्ञान है, और जो श्रुतरहित (अ-श्रुतानुसारी) है, वह (दोनों के लिए) मतिज्ञान है।] व्याख्याः- उक्त कारण से, आपका यह कहना कि 'वक्ता के लिए 'श्रुत' है और श्रोता के लिए 'मति है' युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उसमें पूर्वोक्त दोष तो है ही, वह आगमसमर्थित भी नहीं है। (प्रश्न) तब फिर क्या कहना युक्तियुक्त है? (उत्तर-) कह रहे हैं- बोलने वाला हो या सुनने वाला, उसका जो कुछ भी श्रुतानुसारी, परोपदेश या अर्हद्वचन का अनुसारी 'विज्ञान' है, वह सन् यहां (इस प्रकरण में) श्रुत' है, इसी प्रकार वक्ता व श्रोता- दोनों का जो श्रुत-अतीत, मात्र इन्द्रिय व मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला अवग्रह आदिरूप विज्ञान है, वह सब 'बुद्धि' यानी मतिज्ञान है- यह भाव है। इसलिए वक्ता व श्रोता- दोनों में मति व श्रुत का होना मानना चाहिए, न कि किसी एक (वक्ता) के लिए श्रुत और दूसरे (यानी श्रोता) के लिए 'मति'- ऐसा मानना चाहिए- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 121 // * चलो मान लिया। किन्तु "श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि यदि श्रुत है तो श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले अवग्रह आदि भेद मतिज्ञान के नहीं कहलाएंगे" ऐसी जो शंका पूर्व गाथा (सं.118) में उठाई गई थी, उसका परिहार कहां हुआ? इस शंका को दृष्टि में रखते हुए स्वयं भाष्यकार उक्त शंका को प्रस्तुत करने वाली मूलगाथा (सं.118) के अर्थ को स्पष्ट करते हैं (तथा उसका प्रत्युत्तर भी दे रहे हैं) Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 193 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं न उ तई सुयं चेव।। सोइंदिओवलद्धी वि काइ जम्हा मइन्नाणं॥१२२॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्चैव श्रुतं न तु सा श्रुतं चैव। श्रोत्रोन्द्रियोपलब्धिरपि काचिद् यस्मात् मतिज्ञानम्॥] इह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्दस्य तृतीया-षष्ठीसमासः, बहुव्रीहिश्च,आद्यसमासद्वयेन भावश्रुतम्, बहुव्रीहिणा तु भावश्रुतानुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतम्, तदुपयुक्तस्य तु ब्रुवत उभयश्रुतं गृहीतमिति प्राग्वृत्तौ दर्शितं सर्वं द्रष्टव्यम्। अवधारणविधिमपि प्रागपदर्शितमाह'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतं' इत्येवमवधारणीयम्।'न उ तई ति' न पुनः सा श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेव' इति / कुतो नैवमवधार्यते?, इत्याह- यस्माच्छ्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिदश्रुतानुसारिणी अवग्रहेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानमेव, अतः 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेव' इति नावधार्यत इति भावः / एवं च सति 'न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादि परेण यत् प्रेरितं, तत् परिहतं भवति, श्रोत्रावग्रहादीनामपि बुद्धिरूपतायाः समर्थितत्वात् // इति गाथार्थः॥१२२॥ (122) सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं न उ तई सुयं चेव / / . सोइंदिओवलद्धी वि काइ जम्हा मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है, न कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है- ऐसा कहना चाहिए। क्योंकि कोई-कोई (अ-श्रुतानुसारिणी) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी मतिज्ञान रूप होती है।]. व्याख्याः- यहां श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि शब्द में तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष समास, और बहुब्रीहि समास भी है। पहले दो समासों में भावश्रुत अर्थ अभिहित होता है और बहुब्रीहि समास में तो 'भावश्रुत के उपयोग से रहित वक्ता का द्रव्यश्रुत' अर्थ अभिहित होता है, भावश्रुत के उपयोग से रहित वक्ता के दोनों- (भाव व द्रव्य) श्रुत होते हैं- यह सब पहले इस वृत्ति में बताया जा चुका है, उसे (पहले) समझ लें। 'अवधारण' (एवकार यानी 'ही' अर्थ के साथ वाक्यार्थ को समझने) की विधि, जो पहले बताई जा चुकी है, उसी के अनुरूप जो यह कथन है- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है- वही मन में पक्का करना चाहिए। (न तु सा-) 'वह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है'- इस प्रकार उसे मन में निश्चित नहीं करना चाहिए। उक्त निर्णय क्यों नहीं करना चाहिए? उत्तर कह रहे हैं- (यस्मात्-) चूंकि कोई-कोई श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि भी- जो श्रुतानुसारिणी नहीं होती और मात्र अवग्रह आदि रूप होती है, अतः ‘श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है' यह निर्धारित (निश्चित) नहीं किया जाता- यह तात्पर्य है। इस (विवेचन के परिप्रेक्ष्य में) “श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले अवग्रहादि ‘मति' नहीं कहला सकेंगें' -इस प्रकार जो आपत्ति शंकाकार द्वारा रखी गई थी, उसका (स्वतः) परिहार हो जाता है, क्योंकि श्रोत्रनिमित्तक अवग्रहादि को मतिज्ञान के रूप में स्वीकारा गया है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 122 // NR 194 -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमवधारणविधिना श्रोत्रावग्रहादीनां मतित्वं समर्थितम्, यदि वा 'सेसयं तु मइनाणं' इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः, ततोऽपि तेषां तत् समर्थ्यत इति दर्शयन्नाह तुसमुच्चयवयणाओवकाई सोइन्दिओवलद्धी वि।। मइरेवं सइ सोउग्गहादओ हुन्ति मइभेया॥१२३॥ [संस्कृतच्छाया:- तुसमुच्चयवचनाद् वा काचित् श्रोत्रोन्द्रियोपलब्धिरपि। मतिरेवं सति श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः॥] 'सेसयं तु मइनाणं' इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः समुच्चयवचनः, ततश्च किमुक्तं भवति?-शेषकं मतिज्ञानं, काचिदनपेक्षितपरोपदेशार्हद्वचना श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च मतिज्ञानमित्येवं वा श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः। तथा च सति मतेरष्टाविंशतिभेदत्वं न परिहीयते, ततश्च 'न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादि परप्रेर्यं प्रतिक्षिप्तमेव // इति गाथार्थः॥१२३॥ मूलगाथाया व्याख्यातशेष व्याख्यानयन्नाह इस प्रकार 'अवधारणा-विधी' के द्वारा श्रोत्रावग्रह आदि की मतिज्ञानरूपता का समर्थन कर दिया गया। (गाथा-117 में कहे गए) 'शेष तो मतिज्ञान हैं' इस कथन में आए 'तो' शब्द से भी उन (अवग्रहादि) की मतिज्ञानरूपता का समर्थन होता है- इसी तथ्य को (अग्रिम गाथा में) कह रहे हैं (123) तुसमुच्चयवयणाओ व काई सोइन्दिओवलद्धी वि / / मइरेवं सइ सोउग्गहादओ हुन्ति मइभेया | [(गाथा-अर्थः) (पूर्व गाथा-117 में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि को छोड़कर शेष ज्ञान तो मतिज्ञान है। इस कथन में आए) समुच्चयवाचक 'तो' इस पद से यह बता चुके हैं कि कोई श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी ‘मति' ज्ञानरूप होती है, ऐसी स्थिति में श्रोत्र-अवग्रहादि मतिभेद (के रूप में संगत) होते हैं।] .:: व्याख्याः - (पूर्व गाथा सं.117 में) 'शेष तो मतिज्ञान हैं' इस कथन में जो 'तो' पद है, वह समुच्चवाचक है। वैसा होने से क्या तात्पर्य निकलता है? (तात्पर्य यह निकलता है कि) शेष मतिज्ञान है, अर्थात् परोपदेश या अर्हद्वचन की अपेक्षा से रहित कोई श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि भी मतिज्ञान है, इस प्रकार श्रोत्र-अवग्रहादि मतिभेद (संगत) हो जाते हैं। इसी तरह, मति के भेदों की अट्ठाईस संख्या का भी व्याघात (निराकरण) नहीं होता। अतः ‘श्रोत्र-अवग्रहादि मति नहीं कहला पाएंगें' -इस प्रकार (गाथा-117 में) जो आक्षेप शंकाकार की ओर से लगाए गए हैं, उसका प्रत्युत्तर हो ही जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 123 // पूर्वोक्त मूल गाथा (117) के 'शेष' पद की व्याख्या की जा चुकी है, अब उस गाथा की (कुछ और अधिक अपेक्षित) व्याख्या कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------195 र Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ताइगयं सुयकारणं ति सद्दो व्व तेण दव्वसुयं। भावसुयमक्खराणं लाभो सेसं मइन्नाणं॥१२४॥ [संस्कृतच्छाया:- पत्रादिगतं श्रुतकारणमिति शब्द इव तेन द्रव्यश्रुतम्। भावश्रुतमक्षराणां लाभः शेषं मतिज्ञानम्॥] मूलगाथायां ' श्रोत्रावग्रहादयः, शेषकं च मतिज्ञानम्', इत्युक्ते शेषस्य सर्वस्याऽप्युत्सर्गतो मतित्वे प्राप्ते, अपवाद:- 'मोत्तूणं दव्वसुयं ति' इत्युक्तम्। तत्र किं तद् द्रव्यश्रुतं यदिह वय॑ते?, इत्याह भाष्यकार:- पत्रादिगतं पुस्तक-पत्रादिलिखितम्, तेन कारणेन द्रव्यश्रुतं, येन किं?, इत्याह- श्रुतकारणमिति / किंवत्?, इत्याह- शब्दवदिति / यथा भावश्रुतकारणत्वाच्छब्दो द्रव्यश्रुतम्, तथा पुस्तकपत्रादिन्यस्तमपि तत्कारणत्वाद् द्रव्यश्रुतमित्यर्थः। तद् मुक्त्वा शेषं शेषचक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं मतिज्ञानम्। भावसुयमक्खराणमित्यादि'। न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, यश्च श्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतं भावश्रुतरूपः शेषेषु चक्षुरादीन्द्रियेष्वक्षराणां लाभः परोपदेशार्हद्वचनानुसारिण्यक्षरोपलब्धिरित्यर्थः, सोऽपि श्रुतम्, इत्येवं मूलगाथायां संबन्धः कार्य इति हृदयम्, स च प्राग् वृत्तौ कृत एव। तस्माच्चाक्षरलाभाच्चक्षुरादीन्द्रियेषु यच्छेषमश्रुतानुसार्यवाहेहाद्युपलब्धिरूपं, तद् मतिज्ञानम्, इत्येवमिहाप्येतत् संबध्यते // इति गाथार्थः॥१२४॥ (124) पत्ताइगयं सुयकारणं ति सद्दो व्व तेण दव्वसुयं / / . भावसुयमक्खराणं लाभो सेसं मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) शब्द की तरह (भाव) श्रुत का कारण होने से, पत्र, पुस्तक आदि में निहित . (लिखित, मुद्रित आदि) लेखादि द्रव्यश्रुत है। (श्रुतानुसारी जो) अक्षर-लाभ है, वह भावश्रुत है। शेष मतिज्ञान है।] व्याख्याः- (पूर्वोक्त गाथा-117 में) 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि से अतिरिक्त शेष सब मतिज्ञान है'ऐसा कहे जाने से, शेष समस्त ज्ञानों की सामान्यतया मतिज्ञानरूपता प्राप्त हो गई (और कई दोषों की सम्भावना बढ़ी-) इसलिए 'अपवाद' रूप में कहा गया- 'द्रव्यश्रुत को छोड़कर'। तब प्रश्न उठा कि द्रव्यश्रुत क्या है जिसे छोड़ने के लिए कहा जा रहा है? इसके समाधान हेतु भाष्यकार कह रहे हैं(पत्रादिगतम्)। वह द्रव्यश्रुत है। किस कारण से? उत्तर है- (श्रुतकारणम्)। श्रुत-कारण होने से। अर्थात् पुस्तक, पत्र, (कागज) आदि में लिखित सामग्री भावश्रुत की कारण होने से उसी प्रकार द्रव्यश्रुत है जिस प्रकार कोई शब्द (भावश्रुत में कारण होने से) द्रव्यश्रुत माना जाता है। उस द्रव्यश्रुत को छोड़कर, शेष यानी चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाली उपलब्धि 'मतिज्ञान' है। (भावश्रुत-) अर्थात् न केवल श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत है, किन्तु जो शेष चक्षु आदि इन्द्रियों से जो अक्षर-लाभ है अर्थात् परोपदेश या अर्हद्वचन की अनुसारिणी अक्षरोपलब्धि है, वह भी श्रुतानुसारी होने से भावश्रुत रूप है-इसे भी मूल गाथा (117) में जोड़ लेना चाहिए, जिसे पहले हमने वृत्ति में भी निर्दिष्ट कर दिया है। इसलिए, अक्षर-लाभ से अवशिष्ट- चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाला जो अ-श्रुतानुसारी अवग्रहईहादि उपलब्धि रूप- ज्ञान है, वह मतिज्ञान है- इस प्रकार के कथन को यहां भी जोड़ना उचित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 124 // Ma 196 ---- ---- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परः पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाह जइ सुयमक्खरलाभो न नाम सोओवलद्धिरेव सुर्य।। सोओवलद्धिरेवक्खराइं सुइसंभवाउ ति॥१२५॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि श्रुतमक्षरलाभो न नाम श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम्। श्रोत्रोपलब्धिरेवाक्षराणि श्रुतिसंभवादिति // ] इयमपि प्राग् मूलगाथावृत्तौ दर्शिताथैव, तथापि विस्मरणशीलानामनुग्रहार्थं किञ्चिद् व्याख्यायते। ननु यद्युक्तन्यायेन शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतम्, तर्हि 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम्' इति यदवधारणं कृतं, तदसङ्गतं प्राप्नोति, शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्यापि श्रुतत्वात्। अत्रोत्तरमाह- 'सोओवलद्धिरेवेत्यादि'। यद्यसौ शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्न स्यात्, तदा स्यादेवाऽवधारणमसंगतम्, तच्च नास्ति, यतः शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातज्ञानेऽपि प्रतिभासमानान्यक्षराणि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव॥ अब शंकाकार पूर्वापर-विरोध दिखाकर उसका भी समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं (125) जइ सुयमक्खरलाभो न नाम सोओवलद्धिरेव सुयं / / सोओवलद्धिरेवक्खराइं सुइसंभवाउ ति॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) (श्रोत्रेतर इन्द्रियों से प्राप्त) अक्षर-उपलब्धि भी 'श्रुत' है, तब श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है- ऐसा जो अवधारणात्मक कथन जो पहले किया है, वह कैसे संगत होगा?] ___ (उत्तर-) (श्रोत्रेतर इन्द्रियज्ञान में प्रतिभासमान होने वाले) अक्षर भी, श्रोत्र द्वारा श्रवणयोग्य होने के कारण श्रोत्रोपपलब्धि रूप ही हैं।] व्याख्याः- इस गाथा की बात पहले भी कही जा चुकी है, फिर भी विस्मृति के स्वभाव वाले लोगों पर अनुग्रह कर कुछ व्याख्यान किया जा रहा है। (शंका-) उक्त न्याय से यदि शेष इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ भी श्रुत है तो 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है' यह जो अवधारणात्मक कथन किया है, वह असंगत हो जाता है, क्योंकि शेष-इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ को भी 'श्रुत' कहा जा रहा है। - अब (पूर्वोक्त) शंका का उत्तर दिया जा रहा है- (श्रोत्रोपब्धिः एव)। यदि शेष इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ भी श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि नहीं होता, तभी तो उक्त अवधारणात्मक कथन असंगत होता। किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि शेष इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान में भी प्रतिभासित अक्षर श्रोत्रेन्द्रियउपलब्धि ही है। Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----197 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो! महदाश्चर्य, यतो यदि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः, कथं श्रोत्रोपलब्धि:?, सा चेत्, कथं शेषेन्द्रियाक्षरलाभ:?, इत्याशङ्कयाह-' 'सुइसंभवाउ त्ति'। शेषेन्द्रियज्ञानप्रतिभासभाञ्जि अक्षराणि श्रोत्रोपलब्धिरेव। कुत:?, इत्याह- तेषां श्रुतेः श्रवणस्य संभवात्। इदमुक्तं भवति- अभिलापरूपाणि ह्येतान्यक्षराणि, अभिलापश्च तस्मिन् वा विवक्षिते काले, अन्यदा वा, तत्र वा विवक्षिते पुरुषे, अन्यत्र वा श्रवणयोग्यत्वाच्छ्रोत्रेणोपलभ्यते। अतः श्रोत्रोपलम्भयोग्यत्वेन श्रुतिसंभवात् सर्वोऽप्यभिलापः श्रोत्रोपलब्धिरेव, इति न किञ्चिदवधारणं विरुध्यते // इति गाथार्थः // 125 // किं सर्वोऽपि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः श्रुतम्, आहोस्वित् कश्चिदेव?, इत्याह सोऽवि हु सुयक्खराणं जो लाभो तं सुयं मई सेसा। जइ वा अणक्खरच्चिय सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा // 126 // [संस्कृतच्छाया:- सोऽपि खलु श्रुताक्षराणां लाभस्तत् श्रुतं मतिः शेषः। यदि वाऽनक्षरैव सा सर्वा न प्रवर्तेत॥] (प्रश्न-) अहो! महान् आश्चर्य! (उक्त कथन तो आपने अत्यन्त विरुद्ध कर दिया!) यदि वह शेषइन्द्रिय-अक्षरलाभ है तो श्रोत्रोपलब्धि कैसे? यदि श्रोत्रोपलब्धि है तो शेषइन्द्रिय-अक्षरलाभ कैसे? इस आशंका को ध्यान में रखकर उत्तर दे रहे हैं- (श्रुतिसंभवात्)। शेष इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान में प्रतिभासमान अक्षर श्रोत्रोपलब्धि ही है। कैसे? उत्तर है- उनका श्रवण होने के कारण / तात्पर्य यह है कि ये अक्षर साभिलाप (शब्दोल्लेखहित) हैं, उसी काल में या विवक्षा (बोलने की इच्छा) के काल में, या किसी अन्य समय में, अथवा जिस पुरुष को लक्ष्य कर कहा जा रहा है उस व्यक्ति में, या अन्य पदार्थ में भी, शब्दोल्लेख होता है जो श्रवणयोग्यता के कारण श्रोत्र से उपलब्ध होता है। अतः श्रोत्र द्वारा उपलब्धि के योग्य होने के कारण, श्रवण से उत्पन्न होता हुआ समस्त शब्दोल्लेख श्रोत्र-उपलब्धि रूप ही है। इस प्रकार उक्त अवधारणात्मक कथन किसी भी तरह (पूर्वापर-) विरुद्ध नहीं सिद्ध होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 125 // क्या शेष इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला समस्त अक्षर-लाभ (अक्षरोपलब्धि) श्रुत है, या कोईकोई (अक्षरलाभ ही श्रुत है)- इस शंका का समाधान करते हुए कह रहे हैं (126) सोऽवि हु सुयक्खराणं जो लाभो तं सुयं मई सेसा / जइ वा अणक्खरच्चिय सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा // __ [(गाथा-अर्थः) (अक्षरलाभ में भी) जो श्रुताक्षरलाभ है, वह 'श्रुत' है और जो अनक्षर है वह मतिज्ञान माना जाये तो (सभी अनक्षर ज्ञान को मति मानने से) ईहा आदि सभी का मतित्व नहीं रह जाएगा (इसलिए श्रुतानुसारी होने वाला अक्षरलाभ ही श्रुत है, शेष मतिज्ञान है)।] Sa 198 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऽपि च शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स एव श्रुतं, यः किम्?, इत्याह- यः श्रुताक्षराणां लाभः, न सर्वः, य: संकेतविषयशब्दानुसारी, सर्वज्ञवचनकारणो वा विशिष्टः श्रुताक्षरलाभः, स एव श्रुतम्, न त्वश्रुतानुसारी, ईहाऽपायादिषु परिस्फुरदक्षरलाभमात्रमित्यर्थः / जइ व त्ति'। यदि पुनरक्षरलाभस्य सर्वस्यापि श्रुतेन क्रोडीकरणादनक्षरैव मतिरभ्युपगम्येत, तदा सा यथाऽवग्रहेहाऽपायधारणारूपा सिद्धान्ते प्रोक्ता, तथा सर्वाऽपि न प्रवर्तेत, सर्वाऽपि मतित्वं नानुभवेदित्यर्थः, किन्त्वनक्षरत्वादवग्रहमात्रमेव मतिः स्यात्, न त्वीहादयः, तेषामक्षरलाभात्मकत्वात्। तस्माच्छ्रुतानुसार्येवाऽक्षरलाभः श्रुतम्, शेषं तु मतिज्ञानम् // इति गाथार्थः // 126 // तदेवं व्याख्याता भाष्यकृताऽपि सोइंदिओवलद्धी' इत्यादिगाथा, सांप्रतं त्वस्यां यः श्रुतविषयः पर्यवसितोऽर्थः प्रोक्तो भवति, तं संपिण्ड्योपदर्शयति दव्वसुयं भावसुयं उभयं वा किं कहं व होज त्ति। को वा भावसुयंसो दव्वाइसुयं परिणमेजा?॥१२७॥ व्याख्याः- क्या शेष इन्द्रियों से होने वाला वह अक्षरलाभ भी श्रुत है? वह कौन? जो श्रुतअक्षर-सम्बन्धी लाभ (ज्ञान) है, किन्तु वैसा सभी नहीं, अपितु जो संकेत के विषयभूत शब्द का अनुसरण करने वाला होता है या सर्वज्ञ के वचन रूपी कारण से होने वाला जो विशिष्ट श्रुत-अक्षर लाभ होता है, मात्र वही श्रुत है, किन्तु जो श्रुतानुसारी नहीं है, अर्थात् जो ईहा-अपाय आदि में प्रतिभासित मात्र अक्षर लाभ है (वह श्रुत नहीं होता)। (यदि वा-) यदि सभी अक्षरलाभ को श्रुत रूप में अन्तर्गर्भित मान लिया जाय तो मति अनक्षर हो जाएगी और तब अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणा रूप मति का जो कथन सिद्धान्त में किया गया है, वह सारी अप्रवृत्त रह जाएगी अर्थात् मतिरूप में अनुभूतं नहीं मानी जाएगी, किन्तु अनक्षर होने से मात्र अवग्रह रूप में ही मति (सीमित) रह जाएगी, ईहा आदि रूप में नहीं, क्योंकि वे (ईहा आदि) अक्षरलाभ रूप होते हैं। इसलिए, (निर्विवाद सिद्धान्त यह हुआ कि) श्रुतानुसारी होने वाला अक्षरलाभ ही श्रुत है, शेष मतिज्ञान है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 126 // (द्रव्यश्रुत आदि क्या है?) इस प्रकार, भाष्यकार ने भी 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः भवति' इत्यादि (117 वीं) गाथा का व्याख्यान कर दिया, अब इस गाथा से जो श्रुतविषयक निष्कर्ष या तात्पर्य रुप अर्थ फलित होता है, उसे संक्षिप्त व समुदित कर प्रस्तुत कर रहे हैं (127) दव्वसुयं भावसुयं उभयं वा किं कहं व होज त्ति / को वा भावसुयंसो दव्वाइसुयं परिणमेज्जा? // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------199 5 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-द्रव्यश्रुतं भावश्रुतमुभयं वा किं कथं वा भवेदिति। को वा भावश्रुतांशो द्रव्यादिश्रुतं परिणमेत् // ] ' इह 'सोइंदिओवलद्धी' इत्येतस्यां गाथायां 'मोत्तूर्ण दव्वसुयं' इत्यनेन पुस्तकादिन्यस्तं द्रव्यश्रुतमुक्तम्, अक्षरलाभवचनात्तु भावश्रुतम्, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिवचनेन तु शब्दः, तद्विज्ञानं चेत्युभयश्रुतमुक्तम्। तत्राऽनन्तरवक्ष्यमाणपूर्वगतगाथायामेतच्चिन्त्यते- किं तद् द्रव्यादिश्रुतम्?, कथं वा तद् भवति?,को वा कियान् वेत्यर्थः, भावश्रुतस्यांशो भागो द्रव्यश्रुतं द्रव्यश्रुतरूपतया, आदिशब्दादुभयश्रुतरूपतया वा परिणमेत्? // इति गाथार्थः // 127 // का पुनरसौ पूर्वगतगाथा?, इत्याह बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं। इयरत्थ वि होज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेजा॥१२८॥ [संस्कृतच्छाया:- बुद्धिदृष्टेऽर्थे यान् भाषते तत् श्रुतं मतिसहितम्। इतरत्रापि भवेत् श्रुतमुपलब्धिसमं यदि भणेत् // ] [(गाथा-अर्थः) द्रव्यश्रुत, भावश्रुत व उभयश्रुत (का निरूपण किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में इस पर विचार करेंगे कि वह श्रुत) क्या है; कैसे होता है, और भावश्रुत का कौन सा या कितना भाग द्रव्य आदि श्रुत में परिणत होता है?] ___ व्याख्याः- 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः' इत्यादि (117वीं) पूर्व गाथा में 'द्रव्यश्रुत को छोड़कर' यह कह कर पुस्तक आदि में व्यस्त (लिखित) को 'द्रव्यश्रुत' बताया। 'अक्षर-लाभ' इस वचन (के व्याख्यान) से भावश्रुत का निरूपण किया। 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि' इस वचन (के व्याख्यान) द्वारा शब्द और उसके विज्ञान को उभयश्रुत बताया। अब आगे प्रस्तुत की जा रही 'पूर्वगत' ('पूर्व'-शास्त्र से सम्बद्ध) गाथा में इस बात का विचार किया जा रहा है कि वह द्रव्यादिश्रुत क्या है? वह कैसे होता है? भावश्रुत का कौन सा या कितना भाग द्रव्यश्रुत आदि रूप में, परिणत होता है। यहां 'आदि पद से' उभयश्रुत रूप ग्रहण किया गया है (जिससे अर्थ होगा कि भावश्रुत का कौन सा व कितना भाग उभयश्रुत रूप में परिणमित होगा?) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण होगा // 127 // आखिर इस 'पूर्व-गत' (117वीं) गाथा क्या है? उसे बता रहे हैं (128) बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं / इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा // [(गाथा-अर्थः) बुद्धि (श्रुत) द्वारा दृष्ट अर्थ में (से कुछ को) जिन्हें (वक्ता) बोलता है, वह मतिसहित (उभयरूप) श्रुत है। इनसे अन्यत्र भी यदि उपलब्धि-समान (जितना जाना, उतना) बोल पाए तो वह, (भाव) श्रुत होगा।] Na 200 -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति-श्रुतयोर्भेदोऽत्र विचार्यत्वेन प्रस्तुतः, इत्यतः केचिदेतां गाथां तदनुयायित्वेन व्याख्यानयन्ति, भाष्यकारस्तु तेनाऽपि प्रकारेण पश्चाद् व्याख्यास्यति, सांप्रतं तु प्रस्तावनाऽनुयायित्वेन तावद् व्याख्यायते- तत्र बुद्धिः श्रुतरूपेह गृह्यते, तया दृष्टा गृहीताः पर्यालोचिता बुद्धिदृष्टा अभिलाप्या अर्थाः पदार्थाः, ते च बहवः सन्ति, अतस्तन्मध्याद् वक्ता यान् भाषते वक्ति तच्छ्रुतम्। कथं यान् भाषते?, इत्याह- मतिः श्रुतोपयोगरूपा तत्सहितं यथा भवति, एवं यान् भावान् भाषते तच्छ्रुतमुभयरूपमित्यर्थः / इदमुक्तं भवतिश्रुतात्मकबुद्ध्युपलब्धानांस्तदुपयुक्तस्यैव वदतो द्रव्यश्रुतभावश्रुतरूपमुभयश्रुतं भवति, तच्छ्रुतमित्युक्तेऽपि सामर्थ्यादुभयश्रुतं लभ्यते, 'जे भासइ' इत्यनेन शब्दरूपस्य द्रव्य श्रुतस्य सूचितत्वात् , 'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यनेन, 'मईसहियं' इत्यनेन च भावश्रुतस्याऽभिधित्सितत्वादिति। तदेतावता 'सोइंदिओवलद्धी' इत्यादिगाथोक्तस्योभयश्रुतस्य स्वरूपमुक्तम्। यान् पुनः प्रथमं श्रुतबुद्ध्या दृष्टानपि पश्चादभ्यासबलादेवाऽनुपयुक्तो वक्ति तद् द्रव्यश्रुतम्, इत्येतावद् गाथायामनुक्तमपि सामर्थ्याद् गम्यते। तथा यान् श्रुतबुध्या पश्यत्येव, न तु मनास स्फुरतोऽपि भाषते तद् भावश्रुतम्, इतीदमपि स्वयमेवाऽवगन्तव्यम्। तदेतावता किं तद् द्रव्यादिश्रुतम्?, कथं वा तद् भवति?, इत्येवं चिन्तितम्। व्याख्याः - मति व श्रुत में भेद या अन्तर के विषय में यहां विचार चल रहा है। इसलिए कुछ (व्याख्याता) उक्त गाथा का भेद-समर्थक के रूप में व्याख्यान करते हैं, भाष्यकार भी उसी प्रकार से बाद में व्याख्यान प्रस्तुत करेंगे, किन्तु अभी प्रस्तावित विषय के समर्थन में उनके द्वारा किये व्याख्यान को वे प्रस्तुत कर रहे हैं- यहां बुद्धि से श्रुत रूप अर्थ ग्रहण किया गया है। उस (श्रुत रूप बुद्धि) से देखे गए, ग्रहण किये गए, पर्यालोचित किए जो (बुद्धिदृष्ट) अभिलाप्य (कथनीय) पदार्थ तो बहुत होते हैं, अतः उनमें से (कुछ पदार्थों को ही वक्ता बोलता है, और ऐसे) जिन पदार्थों को बोलता है, वह श्रुत है। उन्हें किस प्रकार बोलता है? इसके उत्तर में कहा- (मतिसहितम्)- श्रुतोपयोगरूप मति के साथ यह 'श्रुत' होता है, तदनुरूप जिन पदार्थों को बोलता है- वह श्रुत उभयरूप है। तात्पर्य यह है कि श्रुतात्मक बुद्धि से ग्रहण किये हुए जिन अर्थों को श्रुतात्मक बुद्धि से उपयोग-सहित होकर ही बोलता है, उसी के द्रव्यश्रुत व भावश्रुत -ये दोनों श्रुत होते हैं। यद्यपि यहां गाथा में मात्र श्रुत कहा है, किन्तु व्याख्यानगत सामर्थ्य से उसका अर्थ उभयश्रुत ग्रहण किया गया है। (उभयश्रुतता अर्थ कैसे संगत होता है? इसे बता रहे हैं-) यान् भाषते- यानी 'जिन्हें बोलता है' इस कथन के माध्यम से शब्दरूप द्रव्यश्रुत सूचित है और 'बुद्धिदृष्टे अर्थे' यानी 'बुद्धि में (श्रुत) दृष्ट या गृहीत' तथा 'मतिसहित' इन दोनों कथनों के माध्यम से भावश्रुत का कथन अभीष्ट है। इस तरह अभी तक किये गये कथन से 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि'- इत्यादि गाथा में प्रतिपादित उभयश्रुत का स्वरूप बता दिया गया। .. यहां श्रुतबुद्धि से प्रथमतः दृष्ट या गृहीत पदार्थों को, जब बाद में उपयोगरहित होकर, अभ्यास बल से ही, वक्ता बोलता है, तो वह (बोला गया) द्रव्यश्रुत होता है। यहां तक का उक्त कथन, यद्यपि गाथा में नहीं है, फिर भी व्याख्यानसामर्थ्य से जाना जाता है। और जिन्हें वह (वक्ता) श्रुतबुद्धि से देखता ही है, मन से स्फुरित होने पर भी, नहीं बोलता, वह भावश्रुत है- यह कथन भी यहां किया गया स्वतः जान लेना चाहिए। इस प्रकार यहां तक द्रव्यादिश्रत क्या है- इसका विचार किया गया। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------201 FEL Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ 'को वा भावसुयंसो' इत्यादि चिन्त्यते- तत्र भावश्रुतमुभयश्रुताद् द्रव्यश्रुताच्चाऽनन्तगुणम्, एतस्मात्तूभयश्रुतं द्रव्यश्रुतं चानन्ततमे भागे वर्तत इति भावनीयम्, वाचः क्रमवर्तित्वात्, आयुषश्च परिमितत्वात् सर्वेषामपि भावश्रुतविषयभूतानामनामनन्ततममेव भागं वक्ता भाषत इति भावः। ततश्च भावश्रुतस्याऽनन्ततम एव भागो द्रव्यश्रुतत्वेनोभयश्रुतत्वेन च परिणमतीत्युक्तं भवति। एतच्च सर्वमनन्तरमेव भाष्यकार: स्वयमेव विस्तरतो भणिष्यतीत्यलं विस्तरेण। आह- ननु यानुपयुक्तो भाषते तदुभयश्रुतम्, यांस्त्वनुपयुक्तो वक्ति तद्रव्यश्रुतमित्युक्तम्, यांस्तर्हि न भाषते, केवलं श्रुतबुद्ध्या . पश्यत्येव, तत्रापि द्रव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता च किमिति नेष्यते?, इत्याशक्याह- 'इयरत्थ वीत्याधुत्तरार्धं"जे भासइ तं सुयं' इत्युक्ते तत्प्रतियोगिस्वरूपमभाषमाणावस्थाभावि भावश्रुतमेव इतरत्र शब्दवाच्यं भवति / ततश्चायमर्थ:- द्रव्यश्रुतोभयश्रुताभ्यामितरत्रापि भावश्रुते भवेत् श्रुतं-द्रव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता वा भवेदित्यर्थः। यदि किं स्यात्?, इत्याह- उपलम्भनमुपलब्धिस्तत्समं तत्प्रमाणं यदि भणेत् -यावद् वस्तुनिकुरम्बमुपलभते तावत्सर्वमुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यदि वदेदित्यर्थः, एतच्च नास्ति, श्रुतोपलब्ध्या उपलब्धानामनामनन्तत्वात्, वाचः क्रमवर्तित्वात्, आयुषश्च परिमितत्वादिति। तस्मादभिलाप्यानां श्रुतोपलब्ध्या समुपलब्धानां भावानां मध्यात् सर्वेणाऽपि जन्मनाऽनन्ततममेव भागं भाषते वक्ता, अतस्तत्रैवाऽनुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतरूपता, उपयुक्तस्य तु वदत उभयश्रुतरूपता भवेत्, नेतरत्र भावश्रुते, भाषणस्यैवाऽसंभवात् // इति पूर्वगतगाथार्थः॥ 128 // अब, ‘भावश्रुत का कौन सा अंश' इत्यादि का विचार किया जा रहा है। उन (सभी श्रुतों) में द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत की तुलना में भावश्रुत अनन्तगुना अधिक है, अतः इन दोनों (द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत) की स्थिति भावश्रुत के अनन्तवें भाग जितनी है- यह जानना चाहिए, (ऐसा इसलिए है) क्योंकि वाणी क्रम से प्रवृत्त होती है और आयु परिमित काल की ही होती है, अतः भावश्रुत के विषयभूत पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही वक्ता बोलता (यानी बोल पाता) है- यह तात्पर्य है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि भावश्रुत का अनन्तवां भाग ही द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत रूप से परिणत होता है- यह भाव है। इन सब का निरूपण भाष्यकार स्वयं विस्तार से आगे करेंगे, अतः अधिक विस्तार से कहने की जरूरत नहीं है। (प्रश्न-) जिन्हें उपयोगसहित होकर बोलता है, वह उभयश्रुत है और जिन्हें उपयोग रहित होकर बोलता है, वह द्रव्यश्रुत है। किन्तु जिन्हें नहीं बोलता, केवल श्रुतबुद्धि से देखता जानता ही है, वहां भी द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत क्यों नहीं कहते? इस शंका को दृष्टिगत रखकर कहा- (इतरत्र अपि)। अर्थात् जिन्हें बोलता है वह श्रुत है -ऐसा आगे कहा गया है, इसलिए उसका प्रतियोगी (विपक्षी) स्वरूप वाला- बिना बोले रहा हुआ भावश्रुत यहां 'इतरत्र' (अन्यत्र) स्वरूप पद से ग्राह्य है। तब (सम्पूर्ण वाक्यनियोजित) अर्थ इस प्रकार होगा- द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत से अन्यत्र यानी भावश्रुत में भी, भाव व (द्रव्य) श्रुत हो सकते हैं, अर्थात् द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत का सद्भाव हो सकता है। परन्तु ऐसा कब हो सकता है? उत्तर दिया- (उपलब्धिसमम्) / उपलब्धि, उपलम्भन के समान प्रमाण को बोल पाए, अर्थात् जितने वस्तुसमूह को जाने, उतने समस्त वस्तु-समूह को उपयोग-रहित या a 202 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं व्याख्याताऽस्माभिरियं गाथा, सांप्रतं भाष्यकारस्तद्व्याख्यानमाह जे सुयबुद्धिढेि सुयमइसहिओ पभासई भावे। तं उभयसुयं भन्नइ दव्वसुयं जे अनुवउत्तो॥१२९॥ [संस्कृतच्छाया:- यान् श्रुतबुद्धिदृष्टे श्रुतमतिसहितः प्रभाषते भावान् / तद् उभयश्रुतं भण्यते द्रव्यश्रुतं चानुपयुक्तः॥] गतार्थेव, नवरं सुखार्थं किञ्चिद् व्याख्यायते-श्रुतरूपा यका बुद्धिस्तया दृष्टाः पर्यालोचिता ये भावास्तन्मध्याद् 'मईसहियं' इत्यस्य तात्पर्यव्याख्यानमाह- श्रुतात्मकमतिसहितः श्रुतोपयुक्त इति यावत्, यान् भावान् प्रभाषते तद् द्रव्य-भावरूपमुभयश्रुतं भण्यते। यान् पुनरनुपयुक्तो भाषते तद् द्रव्यश्रुतं शब्दमात्रमेवेत्यर्थः / यांस्तु श्रुतबुद्ध्या पर्यालोचयत्येव केवलं, न तु भाषते, तद् भावश्रुतमित्यर्थाद् गम्यते // इति गाथार्थः॥१२९॥ उपयोगरहित होकर बोल पाए तो। किन्तु ऐसा हो नहीं पाता। क्योंकि श्रुतोपलब्धि से गृहीत पदार्थ तो अनन्त होते हैं, और वाणी की क्रम से ही (वर्णन करने में) प्रवृत्ति हो पाती है, जब कि आयु सीमित ही है। इसलिए, वक्ता अपना सम्पूर्ण जीवन भी लगावे, तब भी, श्रुतोपलब्धि से गृहीत-उपलब्ध पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है, अतः उस (अनन्तवें भाग) में ही उपयोगरहित बोले तो द्रव्यश्रुत, और उपयोगसहित बोले तो उभयश्रुतरूप होगा, अन्यत्र (ये दोनों श्रुत) नहीं होते, क्योंकि (उन सब का) भाषण ही असम्भव है। यह पूर्वोक्त गाथा का (अन्यसमर्पित) व्याख्यान पूर्ण हुआ // 128 // . इस प्रकार हमने इस गाथा का व्याख्यान किया है। अब भाष्यकार, पूर्वोक्त (117 वीं) गाथा का स्वयंकृत व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे हैं (129) जे सुयबुद्धिद्दिढे सुयमइसहिओ पभासई भावे। तं उभयसुयं भन्नइ दव्वसुयं जे अनुवउत्तो // [(गाथा-अर्थः) श्रुत-बुद्धि में दृष्ट पदार्थों में से श्रुतात्मक मति के साथ जिन भावों को वक्ता कहता है, वह उभयश्रुतात्मक होता है, इनमें जो उपयोगरहित होकर बोलता है, वह द्रव्यश्रुत है।] ..व्याख्याः- गाथा का अर्थ स्वतः स्पष्ट है। फिर भी कुछ व्याख्या की जा रही है- श्रुतरूप जो बुद्धि है, उसके द्वारा दृष्ट यानी पर्यालोचित जो पदार्थ होते हैं, उनमें से ही, ‘मतिसहित' होते हुएइसका तात्पर्यरूप व्याख्यान करते हुए कह रहे हैं- श्रुतमतिसहित। अर्थात् श्रुतोपयोग के साथजिन पदार्थों को वक्ता बोलता है, वह द्रव्यश्रुत व भावश्रुत दोनों रूप होता है। जिन्हें उपयोग रहित होकर बोलता है, वह शब्दमात्र होने से द्रव्यश्रुत है, और जिन्हें श्रुत-बुद्धि से केवल पर्यालोचित ही करता है, बोलता नहीं, वह भावश्रुत है- यह अर्थतः (अर्थ-संगति के आधार पर) ज्ञात होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 129 // --- ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 203 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरार्धव्याख्यानमाह इयरत्थ विभावसुये होज तयं तस्समंजइ भणिज्जा। नय तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥१३०॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरत्रापि भावश्रुते भवेत् तत् तत्समं यदि भणेत् / न च तरति (शक्नोति) तावत्स यदनेकगुणं तत् ततः॥] यद् भाषते तदुभयश्रुतं द्रव्यश्रुतं वेत्युक्ते भावश्रुतमेवेतरत्र-शब्दवाच्यं गम्यते। ततश्चेतरत्राऽपि भावश्रुते भवेत् तद् द्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वा, यदि तत्सममुपलब्धिसमं भणेत्, तच्च नास्ति, यस्माच्छ्रुतज्ञानी स्वबुद्ध्या यावदुपलभते तावद् वक्तुं 'न तरति' न शक्नोति। कुतः?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् ततो भाषाविषयीकृताच्छ्रुतात् तदशक्यभाषणक्रियं भावश्रुतमनेकगुणमनन्तगुणम्, अतो नोपलब्धिसमं भणति // इति गाथार्थः॥१३०॥ उपलब्धिसममित्येतस्य समासविधिमाह अब पूर्वोक्त (117वीं) गाथा के उत्तरार्द्ध का व्याख्यान कर रहे हैं (130) इयरत्थ वि भावसुये होज्ज तयं तस्समं जइ भणिज्जा / न य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥ [(गाथा-अर्थः) अन्यत्र भी भावश्रुत (द्रव्य श्रुत व उभयश्रुत) हो सकता है, यदि उपलब्धिप्रमाण बोला जा सके। किन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं, क्योंकि उस (द्रव्यश्रुत या उभयश्रुत) से वह (नहीं बोला गया पदार्थ-समूह) अनेक गुना (अनन्तगुना) होता है।] व्याख्याः - जो बोलता है, वह द्रव्यश्रुत या उभयश्रुत है- ऐसा कहने के बाद 'अन्यत्र' यह कहने से अन्यत्र का अर्थ होगा द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत से अन्य स्थिति में। तब पूरा वाक्यार्थ होगाअन्यत्र भी भाव व श्रुत- यानी द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत हो सकते थे, यदि तत्प्रमाण, उपलब्धि के समान, बोला जा सके। किन्तु ऐसा बोल पाना सम्भव नहीं होता, क्योंकि श्रुतज्ञानी अपनी बुद्धि से जितना जानता है, उतना बोल नहीं पाता, बोल ही नहीं सकता। क्यों? उत्तर है- चूंकि भाषा के विषयभूत (बोले गए) श्रुत से, नहीं बोला जा सकने वाला भावश्रुत, अनेकगुना यानी अनन्तगुना होता है, अतः उपलब्धिसमान नहीं बोल पाता || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 130 // 'उपलब्धिसम' इस पद से सम्बन्धित समास, तथा तदनुरूप तात्पर्य का निरूपण कर रहे हैं Ma 204 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह उवलद्धीए वा उवलद्धिसमं तया व जंतुल्लं। . जंतस्समकालं वान सव्वहा तरइवोत्तुंजे॥१३१॥ [संस्कृतच्छाया:-सहोपलब्ध्या वोपलब्धिसमं तया वा यत् तुल्यम्।यत् तत्समकालं वा न सर्वथा तरति (शक्नोति) वक्तुम्॥] यद् भाषणमुपलब्ध्या सह वर्तते तदुपलब्धिसमम्, प्राकृतशैलीनिपातनात् सहस्य समभावः, या या श्रुतोपलब्धिस्तया तया सह यद् भाषणं तदुपलब्धिसममित्यर्थः, 'तया व जं तुल्लं ति'। तया वोपलब्ध्या यत्तुल्यं समानं तदुपलब्धिसमं- यावती काचिच्छुतोपलब्धिस्तत्तुल्यं तत्संख्यं यद्भाषणं तद् वोपलब्धिसममित्यर्थः। 'जं तस्समकालं वेति'। तयोपलब्ध्या समकालं वा यद् भाषणं तदुपलब्धिसमम्, यथा मध्ये शूलं वेदयतस्तत्समकालमेवाऽन्यस्मै तद्व्यथाकथनम्, एवमन्तः सर्वामपि श्रुतोपलब्धिमनुभवतस्तत्समकालमेव यद् भाषणं तद् वोपलब्धिसममिति भावः। किं बहुना?, सर्वथा सर्वस्मिन्नपि समासविधावयं तात्पर्यार्थः। कः?, इत्याह- श्रुतज्ञानी यावच्छ्रुतबुद्ध्या समुपलभते, तावत् सर्वं न तरति न शक्नोति वक्तुम्। 'जे' इत्यलङ्कारमात्रे // इति गाथार्थः॥१३१॥ . (131) सह उवलद्धीए वा उवलद्धिसमं तया व जंतुल्लं। जं तस्समकालं वा न सव्वहा तरइ वो जे॥ [(गाथा-अर्थः) उपलब्धि के साथ, या उपलब्धि के तुल्य या उपलब्धि के (समान) काल में, किसी भी रूप में (समास-विधि करने पर) (श्रुतज्ञानी समस्त श्रुतबुद्धि-उपलब्ध पदार्थों को) कह नहीं सकता।] व्याख्याः - (उपलब्धिसम पद में अनेक समास सम्भव हैं, जैसे-) जो 'उपलब्धि के साथ विद्यमान हो'। यहां प्राकृतशैली के अनुरूप 'सह' (साथ) के स्थान पर 'सम' यह निपातनरूप आदेश हुआ है। अर्थ होगा कि जो-जो श्रुतोपलब्धि है, उस-उसके साथ बोलना। (तया वा यत् तुल्यम्)(दूसरी समासविधि के अनुसार) श्रुतोपलब्धि के समान, (इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास है), अर्थात् उपलब्धि के जो तुल्य, समान हो। अर्थ होगा- जितनी मात्रा या संख्या में, जो कोई भी श्रुतोपलब्धि है, उसके तुल्य मात्रा या संख्या में होने वाला भाषण। (यत् तत्समकालम्-) (तीसरा अर्थ यह होगा) उस उपलब्धि के समकाल में किया जाने वाला भाषण, जैसे ज्यों ही शूल-वेदना हुई, ठीक उसी समय अन्य को अपनी व्यथा को कह देना। तात्पर्य यह है कि अन्दर जो भी श्रुतोपलब्धिअनुभूतं हुई, उसी अनुभव के समय में ही जो बोलना है, वह उपब्धिसम भाषण है। अधिक क्या कहें? सर्वथा समस्त समास-विधियों के स्वीकार करने पर, अर्थात् कोई भी समासविधि स्वीकार करें, तो भी -यह तात्पर्य है। कौन क्या नहीं कर सकता? इसी को स्पष्ट कर रहे हैं- श्रुतज्ञानी जितना श्रुतबुद्धि से (ज्ञान) उपलब्ध करता है, उन सभी को- जो उपलब्धिसम है- बोल नहीं सकता || गाथा में (अन्त में आए) 'जे' यह पद आलंकारिक है, उसका कोई अर्थ नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 131 // / -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 205 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कथं पुनरन्ये एतां गाथां मति-श्रुतभेदार्थे व्याख्यानयन्ति?, इत्याह केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ सुयं, तत्थ। किं सद्दो मइरुभयं भावसुयं सव्वहाऽजुत्तं // 132 // [संस्कृतच्छाया:- केचिद् बुद्धिदृष्टान् मतिसहितान् भाषमाणस्य श्रुतं तत्र / किं शब्दो मतिरुभयं भावश्रुतं सर्वथाऽयुक्तम् // ] इह केचनाऽप्याचार्या मति-श्रुतयोर्भेदं प्रतिपिपादयिषवो बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ' इत्यादिमूलगाथायां 'बुद्धिः श्रुतबुद्धि:' इति न व्याख्यानयन्ति, किन्तु 'बुद्धिर्मतिः' इति व्याचक्षते / ततश्च बुद्ध्या मत्या दृष्टेषु बहुष्वर्थेषु मध्ये कांश्चित् तदृष्टानर्थान् मतिसहितान् भाषमाणस्य श्रुतं भवति॥ आह- ननु मतिज्ञान्येव मतिसहितो भवति, तत् कथमर्थानां मतिसहितत्वं विशेषणम्?। सत्यम्, किन्तु मूलगाथायां 'मई सहियं' इति वचनाद् मत्युपयोगे वर्तमानोऽत्र वक्ता गृह्यते, अतस्तस्य मत्युपयोगसहितत्वादानामप्युपचारतस्तत्सहितत्वमुच्यते / तस्माद् मतिज्ञानदृष्टानांस्तदुपयुक्तस्यैव भाषमाणस्य श्रुतं भवतीति तात्पर्यम्, अनुपयुक्तस्य तु वदतो द्रव्यश्रुतम्, पारिशेष्यादभाषमाणस्य पदार्थपर्यालोचनमात्ररूपं मतिज्ञानम्, इति मति-श्रुतयोर्भेदः। (भाष्यमाण शब्द मति है या श्रुत है या उभय?) तो फिर अन्य लोग इस (117वीं) गाथा की मति-श्रुत के अन्तर को स्पष्ट करने के प्रसंग में किस प्रकार व्याख्या करते हैं? इस जिज्ञासा को दृष्टि में रखकर कह रहे हैं (132) केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ सुयं, तत्थ। किं सद्दो मइरुभयं भावसुयं सव्वहाऽजुत्तं // [(गाथा-अर्थः) कुछ आचार्य, बुद्धि-दृष्ट अर्थ का जो मतिसहित भाषण है, उसे 'श्रुत' कहते हैं। (किन्तु वे यह बताएं कि) वह बोला जाने वाला शब्द क्या भावश्रुत है या मतिज्ञान है या फिर उभयरूप है? (किसी भी अर्थ में, किसी भी प्रकार से) सर्वथा, भावश्रुत अयुक्त (असत्) सिद्ध होता है।] व्याख्याः- यहां, मति-श्रुत में अन्तर प्रतिपादित करने के इच्छुक कुछ आचार्य पूर्वोक्त (128 वीं) मूल गाथा में आये बुद्धि का अर्थ 'श्रुतबुद्धि' इस प्रकार व्याख्यान नहीं करते, किन्तु 'बुद्धि' का अर्थ ‘मति' (ज्ञान)- इस रूप में व्याख्यान करते हैं। तब (उनके अनुसार व्याख्यान होगा-) बुद्धि यानी मति द्वारा देखे गए, ज्ञात किये गये बहुत-से अर्थों में से कुछ देखे गए पदार्थों को मतिसहित बोलने वाले के 'श्रुत' होता है। यहां (कोई शंकाकार) कहता है- मतिज्ञानी ही मतिसहित होता है, तब पदार्थों का ‘मतिसहित' यह विशेषण क्यों दिया? (क्योंकि पदार्थों के साथ वह विशेषण घटित नहीं होता।) (उत्तर दे रहे हैं-) आपका कथन सही है। किन्तु मूल गाथा (128) में 'मतिसहित' इस विशेषण के आधार पर यहां मति-उपयोग में वर्तमान वक्ता का ग्रहण होता है, अतः उसके (वक्ता) मत्युपयोगयुक्त होने से, उपचार 6-------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं कैश्चिद् मूलगाथायाः पूर्वार्धे व्याख्याते सूरिर्दूषणमाह- 'तत्थ किं सद्दी इत्यादि'। तत्र तैरेवं व्याख्याते भावश्रुतं सर्वथैवाऽयुक्तं स्यात्, सर्वथा तदभावः प्राप्नोतीत्यर्थः, तथाहि- किं भाष्यमाणःशब्दो भावश्रुतम्, मतिर्वा, उभयं वा? इति त्रयी गतिः। अस्य च त्रितयस्य मध्ये भावश्रुतं युक्तमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१३२॥ कथम्?, इत्याह सद्दो ता दव्वसुयं मइराभिणिबोहियं न वा उभयं। जुत्तं, उभयाभावे भावसुयं कत्थ तं किं वा?॥१३३॥ [संस्कृतच्छाया:- शब्दस्तावद् द्रव्यश्रुतं मतिराभिनिबोधिकं न बोभयम्। युक्तं, उभयाभावे भावश्रुतं क्व तत् किं वा? // ] मत्युपयुक्तस्य शब्दमुदीरयतो यस्तावच्छब्दः स द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं भावश्रुतं स्यात्?, मतिस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानम्। भवतु तर्हि मति-शब्दलक्षणमुभयं समुदितं भावश्रुतम्, इत्याह- 'न वा उभयं जुत्तं ति'। नैव यथोक्तमुभयं समुदितमपि भावश्रुतं युक्तम्, से पदार्थों का भी वह विशेषण कह दिया गया है। इसलिए तात्पर्य यह समझें कि मतिज्ञान में दृष्ट पदार्थों का वक्ता जब मतिज्ञान-उपयोग से युक्त होकर जो बोले वह तो द्रव्यश्रुत होता है, इसलिए उनसे अवशिष्ट, यानी नहीं बोल रहे व्यक्ति का जो मात्र पदार्थ-पर्यालोचन रूप ज्ञान है, वह मतिज्ञान ही है। इस प्रकार मति व श्रुत में भेद या अन्तर (स्पष्ट) है। इस प्रकार, मूल गाथा के पूर्वार्द्ध का जो व्याख्यान किया गया, आचार्य ने उसमें दोष प्रदर्शित करते हुए कहा- (तत्र किं शब्दः)। जो इस प्रकार व्याख्या कर रहे हैं, उनके मत में भावश्रुत का सर्वथा अभाव होने लगेगा- यह भाव है। उदाहरणार्थ- (कृपया वे बताएं कि) बोला जाने वाला शब्द भावश्रुत है, या मति है या उभयात्मक है? ये तीन ही विकल्प उनके सामने खुले हैं। इन तीनों विकल्पों में से किसी भी विकल्प के मानने पर भावश्रुत का सद्भाव संगत -युक्तियुक्त नहीं ठहरता // यह गाथा का अर्थ (पूर्ण) हुआ // 132 // वह भावश्रुत कैसे असंगत ठहरता है- इसके उत्तर में कह रहे हैं (133) सद्दो ता दव्वसुयं मइराभिणिबोहियं न वा उभयं / जुत्तं, उभयाभावे भावसुयं कत्थ तं किं वा? // ___[(गाथा-अर्थः) शब्द तो द्रव्यश्रुत है और मति आभिनिबोधिक है और (शब्द व मति) दोनों का मिल कर भी भावश्रुत होना युक्तियुक्त नहीं। इस प्रकार दोनों में भावश्रुत न होने से (शब्दादि में) कहां व कौन सा भावश्रुत है?] व्याख्याः- मति-उपयोगयुक्त व्यक्ति जो शब्द बोलता है, वह तो द्रव्यश्रुत ही है, वह भावश्रुत कैसे हो सकता है? और मति आभिनिबोधिक ज्ञान है (तो वह भी भावश्रुत नहीं हो सकता)। ऐसा यदि ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 2074 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येकावस्थायां तद्भावाभावात्, न हि प्रत्येकं सिकताकणेष्वसत् तैलं समुदितावस्थायामपि भवतीति भावः। तदेवमुभयस्य स्वतन्त्रस्याऽस्वतन्त्रस्य वा भावश्रुतत्वेनाऽभावे सति तद् भावश्रुतं क्व शब्दादौ?, किं वा तत्?, न किञ्चिदिति भावः // इति गाथार्थः॥१३३॥ अथ भाषापरिणतिकाले मतेः किमप्याधिक्यमुपजायते, इत्युभयस्य श्रुतत्वं न विरुध्यते, इत्याह भासापरिणइकाले मईए किमहियमहण्णहत्तं वा?। भासासंकप्पविसेसमेत्तओ वा सुयमजुत्तं // 134 // [संस्कृतच्छाया:- भाषापरिणतिकाले मत्या किमधिकमथान्यथात्वं वा? भाषासंकल्पविशेषमात्रतो वा श्रुतमयुक्तम्॥] मतेरन्तर्विज्ञानविशेषस्य भाषापरिणतिकाले शब्दप्रारम्भवेलायां पूर्वावस्थातः किमधिकं रूपं संपद्यते?, येनोभयावस्थायां सा ज्ञानान्तरं स्यात् श्रुतव्यपदेशः स्यादित्यर्थः। कहो कि मति व शब्द- दोनों समुदित (मिल कर संयुक्त) होकर भावश्रुत हों, तो तुम्हारा यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि (जब दोनों मिलने वालों में प्रत्येक भावश्रुत नहीं है, तो मिलकर भी वे उसी प्रकार भावश्रुत नहीं हो सकते जिस प्रकार बालू के (प्रत्येक कण तैलरहित होते हैं तो) सभी कण मिल भी जाएं तो भी उनमें तैल का सद्भाव नहीं हो सकता- यह तात्पर्य है। इस प्रकार, शब्द व मति - इनमें प्रत्येक स्वतंत्र हों या परस्पर मिल जाएं तो भी भावश्रुत नहीं हो सकता, ऐसी स्थिति में यह बताएं कि भावश्रुत इनमें कहां है? और (है तो) क्या (या किस रूप में) है? // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 133 // (पूर्वपक्ष का कथन-) (भले ही मति व श्रुत में पृथक्-पृथक् श्रुतरूपता न हो, फिर भी) भाषापरिणति के समय, मति में कुछ अधिकता, विशेषता आ जाती है जिससे दोनों (मति व शब्द) मिल कर श्रुत हों- अतः यदि ऐसा मान लें तब तो कोई विरोध नहीं? उक्त पूर्वपक्षी के कथन का प्रत्युत्तर दे रहे हैं (134) भासापरिणइकाले मईए किमहियमहण्णहत्तं वा?। भासासंकप्पविसे समेत्तओ वा सुयमजुत्तं // [(गाथा-अर्थः) भाषापरिणति के समय ‘मति' में अधिकता या अन्यथाभाव (अन्यरूपान्तरण) आखिर क्या हो सकता है? (अर्थात् कोई नहीं)। मात्र भाषा-सम्बन्धी संकल्प-विशेष होने से उनका भावश्रुत होना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता।] व्याख्याः- मति रूप जो आन्तरिक विज्ञान है उसका भाषा-परिणति के समय, शब्द की प्रारम्भ-वेला में, अपनी पूर्व अवस्था की अपेक्षा वह कौन-सा अधिक रूप है जिससे दोनों की मिलित (उभय-) अवस्था में वह ज्ञानान्तर हो जाता है या उसका श्रुत व्यपदेश (भावश्रुत रूप में कहा जाना संभव) होता है? WA 208 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अहण्णहत्तं वेति'। अथवा अन्यथात्वं किं मतेर्भाषापरिणतिकाले निर्मूलत एवाऽन्यथाभावः कः, येन श्रुतत्वं स्यात्?, न कश्चिदिति भावः। भाषाऽऽरम्भ एवाऽत्र विशेषः, इति चेत्, इत्याह- 'भासेत्यादि'। भाषायाः संकल्पप्रारम्भः स एव विशेषमात्रं, मात्रशब्दो मनागपि विकारभवननिषेधार्थः, तस्माद् भाषासंकल्पविशेषमात्राद् मतेः श्रुतत्वमयुक्तम्। एतदुक्तं भवति- अन्तर्विज्ञानस्य स्वयमविशिष्टस्य बाह्यक्रियारम्भादत्यन्तजातिभेदाभ्युपगमे धावन-वल्गन-करास्फोटनादिबाह्यक्रियाऽऽनन्त्याद् मतेरानन्त्यमेव स्यात्, स्वयं चाऽनुपजातविशेषाणां ज्ञानानां शब्दपरिणतिसंनिधानमात्रत एव ज्ञानान्तरत्वेऽतिप्रसङ्गः स्यात्, अवध्यादिष्वपि तथाप्राप्तेः॥ इति गाथार्थः॥१३४॥ तदेवं कैश्चिद् विहितं मूलगाथायाः पूर्वार्धव्याख्यानं दूषितम्, अथोत्तरार्धव्याख्यानमुपदर्श्य दूषयितुमाह इयरत्थ वि मइनाणे होज सुयं ति किह तं सुयं होइ?। किह व सुयं होइ मई सलक्खणावरणभेयाओ? // 135 // [संस्कृतच्छाया:- इतरत्रापि मतिज्ञाने भवेत् श्रुतमिति कथं तत् श्रुतं भवति? कथं वा श्रुतं भवति मतिः स्वलक्षणावरणभेदात्? // ] (अन्यथात्वं वा-) अथवा भाषापरिणति के समय, मति का ऐसा क्या समूल रूपान्तरण जैसा अन्य स्वरूप हो जाता है जिससे कि वह 'भावश्रुत' हो जाता है? अर्थात् कोई भी ऐसा भाव नहीं है? यदि कहो कि भाषा-आरम्भ ही वह वैशिष्ट्य है तो भी (उक्त आधार पर उसका श्रुतपना) असंगत है। (भाषासंकल्पः)- भाषा-सम्बन्धी संकल्प का प्रारम्भ होने मात्र से, अर्थात् अन्य कुछ भी विकार न होने और मात्र भाषा-संकल्प होने से, मति को भावश्रुत कहना (या मति का भाव श्रुत होना) युक्तियुक्त नहीं होता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अविशिष्ट अन्तर्विज्ञान को किसी बाह्य क्रिया के आरम्भ मात्र से अत्यन्त भिन्न जाति का मान लिया जाय तो दौड़ना-बोलना-हाथ हिलाना आदि बाह्य क्रिया की अनन्तता से मति की अनन्तरूपता माननी पड़ेगी, और स्वयं विशेष-रहित ज्ञानों की शब्दपरिणति मात्र से ही ज्ञानान्तरता मानने पर अतिव्याप्ति हो जाएगी, क्योंकि अवधि आदि में वैसी (रूपान्तरता की) स्थिति माननी पड़ेगी (जो सर्वथा इष्ट, सम्मत नहीं है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 134 // _इस प्रकार, पूर्वोक्त मूल गाथा के पूर्वार्द्ध का जो व्याख्यान अन्य लोगों ने किया, उसमें दोष अभी दिखाया गया, अब उत्तरार्द्ध सम्बन्धी व्याख्यान को प्रस्तुत कर उसमें दोष प्रदर्शित कर रहे हैं (135) इयरत्थ वि मइनाणे होज्ज सुयं ति किह तं सुयं होइ?। किह व सुयं होइ मई सलक्खणावरणभेयाओ? | ___ [(गाथा-अर्थः) अन्य मतिज्ञान में भी श्रुत हो सकता है (-ऐसा जो व्याख्यान किया गया) तो यह बताएं कि वह मति (ज्ञान) श्रुत कैसे होगा? जबकि (मति व श्रुत -इनमें से प्रत्येक का पृथक्पृथक् लक्षण तथा अपना-अपना पृथक्-पृथक् आवरण-कर्म, और उसका क्षयोपशम माना जाता है, इस प्रकार) उनमें आवरण-कर्म सम्बन्धी भेद है, इस कारण मति कभी श्रुत कैसे हो सकती है?] Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 209 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यत्र बुद्धिर्मतिज्ञानं व्याख्यातम्, तन्मतेन 'इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा' इत्युत्तरार्धगतस्येतरत्रशब्दस्य मतिज्ञानमेव वाच्यम्, शब्दसहितमतेर्द्रव्यभावश्रुतत्वेनोक्तत्वात्, तदितरस्य मतिज्ञानस्यैव तत्र संभवात्। ततश्च तद्व्याख्यानमनूद्य दूषयति- इतरत्रापि मतिज्ञाने श्रुतं भवेद् यधुपलब्धिसमं भाषेत इति यत्तैरुच्यते, तदयुक्तम्, यतो हन्त! यद् मतिज्ञानं, तत् कथं श्रुतं भवितुमर्हति?। श्रुतं चेत्, कथं वा तद् मतिर्भवेत्?। कुतः पुनरित्थं न भवति?, इत्याह- मतिश्रुतयोर्यत् स्वकीयं लक्षणं, कर्म चाऽऽवारकं, तयोर्भेदेनाऽऽगमे प्रतिपादनात्। यदि च यदेव मतिज्ञानं तदेव श्रुतम्, यदेव च श्रुतं तदेव मतिज्ञानं स्यात्, तदा लक्षणाऽऽवरणभेदोऽपि तयोर्न स्यात् // इति गाथार्थः॥ 135 // / तदेव 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ' इत्यादिमूलगाथां मति-श्रुतभेदप्रतिपादनपरतया व्याचिख्यासोः परस्य ‘मति वश्रुतं न युज्यते' इति प्रतिपादितम्। यदि तु द्रव्यश्रुतं साऽभ्युपगम्यते तदा न दोषः, इत्युपदर्शयन्नाह--- अहव मई दव्वसुयत्तमेउ भावेण सा विरुज्झेजा। जो असुयक्खरलाभो तं मइसहिओ पभासेज्जा॥१३६॥ ___ व्याख्याः - (गाथा-128 में) बुद्धि-दृष्ट अर्थ इत्यादि कथन में बुद्धि को मतिज्ञान रूप में मान कर जो व्याख्यान किया गया, उसमें 'अन्यत्र श्रुत हो सकता है यदि उपलब्धि के समान ज्ञान को कहा जा सके' इस उत्तरार्द्ध कथन में आए 'अन्यत्र' का 'अन्य प्रकार के मतिज्ञान में' यही अर्थ है, क्योंकि वहीं शब्दसहित मति का द्रव्यश्रुत व भावश्रुत रूप में होना कहा गया है, अतः उससे अन्यत्र . का ‘अन्य मतिज्ञान में' यही अर्थ संगत हो सकता है। अब अन्य व्याख्यान को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करते हुए उसमें दोष बता रहे हैं- उन्होंने जो यह कहा कि 'अन्य मतिज्ञान में भी श्रुत' हो सकता है, बशर्ते उपलब्धि-सम को बोला जा सके- यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि जो मति ज्ञान है, वह श्रुत कैसे हो सकता है? यदि वह श्रुत है तो मतिज्ञान कैसे है? ऐसा किस प्रकार नहीं हो सकता- इसमें (तर्क या हेतु) कहा- मति व श्रुत का जो अपनाअपना लक्षण है- अपने-अपने आवरण कर्म से युक्त होना, इस प्रकार दोनों में परस्पर भेद आगम में प्रतिपादित किया गया है। यदि जो मतिज्ञान है, वही श्रुतज्ञान होता, और जो श्रुत होता वही मतिज्ञान . होता तो लक्षण व आवरण सम्बन्धी भेद नहीं (प्रतिपादित) होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 135 // इस प्रकार मति व श्रुत सम्बन्धी अन्तर के प्रतिपादन की दृष्टि से (128वीं) मूल गाथा का किसी अन्य द्वारा जो व्याख्यान किया, उसको लक्ष्य कर यह सिद्ध किया कि मति का भावश्रुत होना युक्तिसंगत नहीं है। हां, यदि उस (मति) को द्रव्यश्रुत रूप में स्वीकार करें तो कोई दोष (विरोध) नहीं है- इसी बात को अग्रिम गाथा में कह रहे हैं (136) अहव मई दव्वसुयत्तमेउ भावेण सा विरुज्झेज्जा / जो असुयक्खरलाभो तं मइसहिओ पभासेज्जा // Ma 210 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- अथवा मतिर्द्रव्यश्रुतत्वमेतु भावेन सा विरुद्ध्यते / योऽश्रुताक्षरलाभस्तं मतिसहितः प्रभाषेत॥] अथवा मतिर्द्रव्यश्रुतत्वमेतु-आगच्छतु न तत्र वयं निषेद्धारः, केवलमेतदेव निर्बन्धेनाऽभिदध्मो यदुत- भावेन भावश्रुतत्वेन सा मतिर्विरुध्येत दर्शितन्यायेन विरोधमनुभवेत्, इदमुक्तं भवति- 'केइ बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ सुयं' इत्यत्र गाथार्धे योऽसौ श्रुतशब्दः स यदि द्रव्यश्रुतवाचित्वेन व्याख्यायते तदा विरोधो न भवति। कथम्?, इति चेत्। उच्यते- बुद्धिर्मतिस्तदृष्टान् मत्युपयोगसहितानर्थान् भाषमाणस्य सा मतिः शब्दलक्षणस्य द्रव्यश्रुतस्य कारणत्वाद् द्रव्यश्रुतम्, अभाषमाणस्य तु मतिज्ञानम्, इत्येवं मति-द्रव्यश्रुतयोर्भेदः प्रोक्तो भवति, न तु मति-श्रुतज्ञानयोः केवलं विरोधपरिहारमात्रमित्थमुपकल्पितं भवति॥ अत्राह कश्चित्- ननु यदि मत्युपयोगे वर्तमानो भाषेत कश्चित्, तदा द्रव्यश्रुतकारणत्वाद् मतिः स्याद् द्रव्यश्रुतम्, एतच्च न भविष्यति, इत्याह- 'जो असुयेत्यादि'। योऽश्रुतानुसार्यक्षरलाभः, तं मत्युपयोगे वर्तमानो भाषेत वक्ता, नात्र कश्चित् संदेहः, यस्तु श्रुतानुसार्यक्षरलाभस्तं श्रुतोपयोगे एव वर्तमानो भाषेत, अतो न तच्छब्दस्य मतिः कारणम्, श्रुतपूर्वत्वात् तस्येति भावः, इदमुक्तं भवतियः परोपदेशार्हद्वचनलक्षणं श्रुतमनुसृत्याऽक्षरलाभोऽन्तः स्फुरति तं श्रुतोपयोगे एव वर्तमानो भाषते, यस्त्वश्रुतानुसारी स्वमत्यैव पर्यालोचित ईहाऽपायेषु स्फुरत्यक्षरलाभः, तं यदा मत्युपयोगसहित एव भाषते, तदा तस्य शब्दलक्षणस्य द्रव्यश्रुतस्य कारणत्वाद् भवत्येव मतिर्द्रव्यश्रुतम् // इति गाथार्थः // 136 / / [(गाथा-अर्थः) अथवा मति ज्ञान द्रव्यश्रुत रूप को प्राप्त करे (इसमें कोई विरोध नहीं,) किन्तु उसके भावश्रुत होने में विरोध है। क्योंकि जो अश्रुतानुसारी अक्षर-लाभ है, उसे तो (वक्ता) मति सहित (मति-ज्ञानोपयोगयुक्त होकर) बोल सकता है।] * व्याख्याः- अथवा मतिज्ञान द्रव्यश्रुत रूपता को प्राप्त करे- इसका हम निषेध नहीं करते, किन्तु वहां दृढ़ता के साथ इतना ही कहना चाहते हैं कि भावश्रुत होने में उसका विरोध होगा, अर्थात् पूर्वोक्त सिद्धान्त की दृष्टि से वैसा मानना विरुद्ध होगा। तात्पर्य यह है- पूर्वोक्त (गाथा-128) के आधे भाग में जो 'श्रुत' शब्द आया है, यदि 'द्रव्यश्रुत' के अर्थ में व्याख्यायित हो तो कोई विरोध (की बात) नहीं है। किस कारण से विरोध नहीं? उत्तर है- बुद्धि यानी मति द्वारा देखे गए पदार्थों को मतिउपयोगसहित होकर बोल रहे वक्ता का मतिज्ञान. (शब्द रूप) द्रव्यश्रत का कारण है, इसलिए वह द्रव्यश्रुत है, नहीं बोल रहा हो तो वह मतिज्ञान है- इस रीति से मति व द्रव्य श्रुत में भेद का तो प्रतिपादन होता है, किन्तु उक्त रीति से तो मति व श्रुत ज्ञान में विरोध का परिहार ही कल्पित या निरूपित होता है। . यहां किसी ने कहा- “यदि कोई वक्ता मति-उपयोग में रहता हुआ बोले, तब द्रव्यश्रुत का कारण होने से मतिज्ञान द्रव्यश्रुत हो सकता है"- (इसका खण्डन करते हुए कह रहे हैं) कि ऐसा नहीं होता। यही बात कह रहे हैं- (यः अश्रुताक्षरलाभः)। जो अश्रुतानुसारी अक्षर-लाभ है, उसे मतिज्ञानोपयोग में रहते हुए वक्ता बोलता है- इसमें कोई संदेह नहीं है, किन्तु श्रुतानुसारी जो अक्षरलाभ है, उसे तो श्रुतोपयोग में रहते हुए ही वक्ता बोलेगा, अतः वहां बोले गए शब्द का कारण मतिज्ञान नहीं, क्योंकि वह श्रुतपूर्वक है। तात्पर्य यह है कि परोपदेश या तीर्थंकर-वचन रूप श्रुत का अनुसरण via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 211 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाऽस्मिन्नेव मतेर्द्रव्यश्रुतत्वपक्षे 'इयरत्थ वि होज्ज सुर्य' इत्यादौ मूलगाथाया उत्तरार्धे योऽर्थः संपद्यते, तमाचार्यः प्रदर्शयन्नाह इयरम्मि वि मइनाणे होज्ज तयं तस्समं जइ भणेज्जा। न य य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥१३७॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरस्मिन्नपि मतिज्ञाने भवेत् तत् तत्समं यदि भणेत्। न च तरति (शक्नोति) तावत्स यदेनेकगुणं तत् ततः॥] भाषमाणस्य मतिर्द्रव्यश्रुतमित्युक्तम्, अतोऽभाषमाणावस्थाभावि मतिज्ञानमितरत्रशब्दवाच्यं भवति। ततश्चेतरत्राप्यभाषमाणावस्थाभाविनि मतिज्ञाने भवेत् तद् द्रव्यश्रुतं यदि तत्समं मतिज्ञानोपलब्धिसमं भणेत, यावद् मतिज्ञानेनोपलभते तावत् सर्वं वदेदित्यर्थः, एतच्च नास्ति / कुतः? इत्याह- न च नैव 'तरति' शक्नोति स यावद् मतिज्ञानेनोपलभते तावद् वक्तुम्। कुतः? इत्याहयद् यस्मात् ततो वक्तुं शक्यात् तत् सर्वमपि मतिज्ञानोपलब्धमनेकगुणमनन्तगुणम् // इति गाथार्थः // 137 // कर जो आन्तरिक अक्षर-लाभ होता है, उसे वक्ता श्रुतोपयोग में रहकर ही बोलता है। हां, जो अश्रुतानुसारी, अर्थात् अपनी मति से ही पर्यालोचित पदार्थों के ईहा, अपाय रूप ज्ञान (क्रम) में जो अक्षरलाभ स्फुरित होता है, वह शब्दरूप द्रव्यश्रुत का कारण होने से (उस वक्ता का उक्त मतिज्ञान) द्रव्यश्रुत होता ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 136 // (अभिलाप्य व अनभिलाप्य का विचार) उसी पूर्वोक्त गाथा के उत्तरार्ध में 'अन्यत्र भी श्रुत हो सकता है' इस कथन का जो तात्पर्यार्थ ढोता है, उसे आचार्य कह रहे हैं (137) इयरम्मि वि मइनाणे होज्ज तयं तस्समंजइ भणेज्जा। न य य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो // [(गाथा-अर्थः) अन्य मतिज्ञान में भी द्रव्यश्रुत सम्भव है, बशर्ते तत्प्रमाणसमान (जितना ज्ञात हुआ है, उतना सब) बोला जाए। किन्तु ऐसा करना शक्य नहीं, क्योंकि (बोले जाने योग्य पदार्थों के)उस (ज्ञान) की अपेक्षा (नहीं बोले जा सके पदार्थों का) वह ज्ञान अनेकगुना (अनन्तगुना) होता है।] ___ व्याख्याः - बोलने वाले (व्यक्ति) का मति ज्ञान द्रव्यश्रुत है- ऐसा कहा गया / नहीं बोलने की स्थिति में रहने वाला मतिज्ञान इतर (अन्य) मतिज्ञान शब्द से यहां कहा गया है। (अतः अर्थ हुआ कि) अन्य मतिज्ञान यानी न बोलने की स्थिति वाला मतिज्ञान द्रव्यश्रुत के रूप में अभिव्यक्त हो सकता है बशर्ते मतिज्ञान-उपलब्धिसम को बोला जा सके, अर्थात् जितना मतिज्ञान से जाना, उस सब को बोले। किन्तु ऐसा नहीं होता / क्यों नहीं होता? उत्तर दिया- (न च तरति)- जितना मतिज्ञान से प्राप्त करता है, उस सब को (वक्ता) नहीं बोल सकता। ऐसा क्यों? उत्तर दिया- चूंकि जितना बोला जा सकता है, उस की अपेक्षा (अवशिष्ट) मतिज्ञान-उपलब्ध ज्ञान अनेकगुना होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 13 // Mar 212 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र विनेयः प्राह कह मइ-सुओवलद्धा तीरंति न भासिउं, बहुत्ताओ। सव्वेण जीविएण वि भासइ जमणंतभागं सो॥१३८॥ [संस्कृतच्छाया:- कथं मतिश्रुतोपलद्धाः तीर्यन्तेन भाषितुं बहुत्वात् / सर्वेण जीवितेनाऽपि भाषते यदनन्तभागं सः॥] नन्वनन्तरगाथायां मत्युपलब्धाः सर्वेऽपि वक्तुं न शक्यन्त इत्युक्तम्, पूर्वं तु श्रुतोपलब्धा अपि सर्वेऽभिधातुं न पार्यन्त इत्यभिहितम्, तदेतत् कथं, यद् मति-श्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते भाषितुम्? / अत्राह- बहुत्वात् प्राचुर्यात् / तत्रैतत् स्यात्- कुतः पुनरेतावद् बहुत्वं तेषां निश्चितम्? इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् सर्वेणाऽप्यायुषा स मति-श्रुतज्ञानी समुपलब्धानामनामनन्ततममेव भागं भाषत इत्यागमे निर्णीतम्, तस्मादृ बहुत्वावगमः॥ इति गाथार्थः // 138 // अथ मत्याधुपलब्धार्थानां सामस्त्येनाऽभिधानाशक्यत्वे पूर्वोक्तम्, अपरमपि च हेतुं विषयविभागेनाऽभिधित्सुराह . तीरंति न वोत्तुं जे सुओवलद्धा बहुत्तभावाओ। सेसोवलद्धभावा साभव्वबहुत्तओऽभिहिया॥१३९॥ यहां किसी शिष्य ने पूछा (138) . . . कह मइ-सुओवलद्धा तीरंति न भासिउं, बहुत्ताओ। सव्वेण जीविएण वि भासइ जमणंतभागं सो // [(गाथा-अर्थः) मतिश्रुत से उपलब्ध सभी पदार्थों को कहा नहीं जा सकता है- ऐसा क्यों? (उत्तर-) मति-श्रुत से ज्ञात ज्ञान (इतना) अधिक है कि सम्पूर्ण जीवन में भी, उस (ज्ञान) के अनन्तवें भाग को भी वह (मतिश्रुतज्ञानी) नहीं बोल सकता।] व्याख्याः- (प्रश्न-) पूर्व की गाथा (137) में तो कहा था कि मति से उपलब्ध सभी पदार्थों का बोलना सम्भव नहीं, और पूर्व गाथा (130) में कहा- कि श्रुत से उपलब्ध सभी पदार्थों को बोलना सम्भव नहीं। (अस्तु) मति व श्रुत से उपलब्ध सभी पदार्थों को कह पाना क्यों सम्भव नहीं है? उत्तर है- (बहुत्वात्)। दोनों का ही बहुत्व या प्राचुर्य है। ठीक है, किन्तु उनका बहुत्व किस प्रकार निर्णीत होता है? उत्तर है- चूंकि सम्पूर्ण आयु पर्यन्त भी वह मति-श्रुतज्ञानी उपलब्ध (ज्ञात) पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है- ऐसा आगम में सिद्धान्त रूप में कहा गया है। इसलिए इनका बहुत्व ज्ञात होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१३८॥ ____मति आदि से उपलब्ध समस्त पदार्थों को पूर्व में अनभिलाप्य (नहीं कह सकने योग्य) बताया। इसी संदर्भ में विषय-विभागपूर्वक अन्य (पृथक्-पृथक्) हेतु की विवक्षा से कह रहे हैं (139) तीरंति न वो जे सुओवलद्धा बहुत्तभावाओ। सेसोवलद्धभावा साभव्वबहुत्तओऽभिहिया॥ ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 213 र Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ संस्कृतच्छाया:- तीर्यन्ते न वक्तुं श्रुतोपलब्धाः बहुत्वभावात् / शेषोपलब्धभावाः स्वाभाव्य-बहुत्वतोऽभिहिताः॥] . सर्वेऽपि श्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते न पार्यन्ते वक्तुम्। 'जे' इति पूर्ववदेव। कुतस्ते वक्तुं न पार्यन्ते?, इत्याह- बहुत्वभावाद् बहुत्वसद्भावादेवेत्यवधारणीयम्, न तु तत्स्वाभाव्यादित्यभिप्रायः। 'सेसोवलद्धभावा साभव्वत्ति' / शेषं श्रुतादन्यत् प्रस्तुतं मतिज्ञानं, समानवक्तव्यताप्रस्तावलब्धानि मत्यऽवधि-मन:पर्याय-केवलानि वा शेषाणि तेन तैर्वा उपलब्धा ज्ञाता: शेषोपलब्धास्ते च ते भावाश्चेति समासः, स्वाभाव्यादेवाऽनभिलाप्यात्मकत्वादेव न तीर्यन्ते भाषितुम्॥ आह- नन्वेते यथाऽनभिलाप्यत्वादभिधातुं न शक्यन्ते, तथा बहुत्वादपि, तत् किमित्यनभिलाप्यस्वभावत्वमेवैकमत्र हेतुत्वे नोच्यते? / सत्यम्, किन्त्वभिलाप्यत्वे सति बहुत्वाऽल्पत्वचिन्ता क्रियमाणा विभ्राजते, ये तु मूलत एवाऽनभिलाप्यास्तेषु बहुत्वलक्षणो हेतुरुच्यमानोऽपि निष्फल एव, अनभिलाप्यात्मकत्वेनैवाऽभिधानाशक्यत्वस्य सिद्धत्वादिति॥ किञ्च, 'बहुत्तओऽभिहियं त्ति' बहुत्वाच्छेषोपलब्धा भावा यथा वक्तुं न शक्यन्ते तथा 'कह मइसुओवलद्धा तीरन्ति न भासिउं, बहुत्ताओ' इत्याद्यनन्तरगाथायामभिहिता एव, इति किं बहुत्वहेतूपन्यासेन?, पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् / शेषज्ञानेषु मध्ये मतिरेव स [(गाथा-अर्थः) श्रुतज्ञान से उपलब्ध समस्त पदार्थों को कह पाना इसलिए अशक्य है क्योंकि उनकी बहुलता है। शेष (ज्ञानों-मति, अवधि, मनःपर्यय व केवल) ज्ञानों द्वारा उपलब्ध पदार्थ इसलिए अनभिलाप्य हैं क्योंकि उनका वैसा स्वभाव और (उससे जुड़ी उनकी) बहुलता है।] व्याख्याः- सभी श्रुतोपलब्ध पदार्थ बोले नहीं जा सकते। गाथा में आया 'जे' पद पूर्ववद् (आलंकारिक) है (उसका कोई अर्थ नहीं है)। वे क्यों नहीं बोले जा सकते? उत्तर दिया- (बहुत्वभावात्)। तात्पर्य यह है कि नहीं बोले जा सकने में उनकी बहुलता ही कारण है, स्वभाव कारण नहीं है। (शेषोपलब्धाः) शेष यानी श्रुतज्ञान से अवशिष्ट, (कौन सा ज्ञान?, उत्तर-) मतिज्ञान ग्राह्य है, अथवा सामान्यतया पांचों ही ज्ञानों का वर्णन किया जा रहा है, इसलिए 'शेषोपलब्ध' पद से अवधि, मनः पर्यय व केवल ज्ञान से उपलब्ध पदार्थों का भी ग्रहण कर सकते हैं। 'शेषोपलब्ध' जो भाव यानी पदार्थ- यहां (कर्मधारय) समास है। (तब अर्थ हुआ-) वे समस्त पदार्थ अपने अनभिलाप्य स्वभाव के कारण ही बोले नहीं जा सकते। यहां किसी ने प्रश्न किया- यदि (शेषोपलब्ध) अनभिलाप्य स्वभाव के ही कारण कहे नहीं जा सकते, उसी तरह बहुलता के कारण भी नहीं कहे जा सकते (ऐसा गाथा में तो कहा किन्तु उनके अनभिलाप्य होने में मात्र वैसे स्वभाव को ही (उपर्युक्त व्याख्यान में) कारण बताया, ऐसा क्यों? (उत्तर दे रहे हैं-) आपका कहना सही है। किन्तु अभिलाप्य होने पर ही उनके बहुत्व व अल्पत्व का विचार किया जाना उचित ठहरता है, किन्तु जो मूलतया (मौलिक रूप से, अपने स्वभाव में ही) अनभिलाप्य हैं, उनके सम्बन्ध में बहुत्वरूप हेतु निष्फल ही है, क्योंकि अनभिलाप्यता रूप स्वभाव के कारण ही उनका नहीं कहा जा पाना सिद्ध है। दूसरी बात, (बहुत्वाद् अभिहिताः-) शेषोपलब्ध भाव बहुलता के कारण नहीं कहे जा सकतेयह बात पूर्व की (138वीं) गाथा में कह ही दी गई है, पुनः उसे कहना पुनरुक्ति दोष होगा। (शंका) Vie 214 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र प्रोक्तः, अत्र त्ववध्यादीन्यपि गृहीतानि सन्ति, अतस्तदर्थमयमिहापि वक्तव्य इति चेत् / नैवम्, मतेरुपलक्षणत्वेनाऽवध्यादिष्वप्यसौ तत्र द्रष्टव्य इत्यदोषः। यद्येवम्, तर्हि श्रुतस्याऽपि बहुत्वलक्षणो हेतुः प्रागुक्त एव, किमितीह पुनरप्युच्यत? इति चेत् / सत्यम्, किन्तु श्रुतोपलब्धा बहुत्वात्, शेषोपलब्धास्तु तत्स्वाभाव्याद् न शक्यन्तेऽभिधातुम्, इति विषयविभागदर्शनार्थं तस्येह पुनरुपन्यासः॥ अपरस्त्वाह- ननु मत्याधुपलब्धानामपि केषाञ्चिदभिलाप्यत्वात् किमुच्यते 'सेसोवलद्धभावा साभव्वत्ति'?। सत्यम, किन्त तेषां श्रुतविषयत्वेनैवाऽभिधानाशक्यत्वस्योक्तत्वाददोषः॥ इति गाथार्थः॥ 139 // विनेयः पृच्छति कत्तो एत्तियमेत्ता भावसुय-मईण पज्जया जेसिं?। भासइ अणंतभागं, भण्णइ जम्हा सुएऽभिहियं // 140 // पूर्व की (138वीं) गाथा में मात्र मति श्रुत को बहुलता के कारण अनभिलाप्य बताया था, किन्तु यहां अवधि आदि ज्ञानों का भी ग्रहण अभीष्ट है, अतः उन्हें अनभिलाप्य होने में ‘बहुलता' को पुनः कारण बताना तो पुनरुक्तिदोष नहीं होगा। (शंका का उत्तर-) यह कहना सही नहीं है। ‘मति' शब्द तो उपलक्षण है, उसके द्वारा अवधि आदि ज्ञानों का ग्रहण भी (पूर्व की 138वीं गाथा में) वहां जानना चाहिए, इसलिए (पुनरुक्ति-दोष से बचने के लिए पुनः 'बहुलता' रूपी कारण को महत्त्व न देकर 'स्वभाव' को महत्त्व दिया गया है, अतः) कोई दोष नहीं है। (पुनः शंका-) यदि ऐसी बात है, तब तो 'श्रुत' का भी (अनभिलाप्यता सम्बन्धी बहुलतारूपी) कारण पहले कहा ही गया है, फिर बहुलता को ' प्रस्तुत गाथा में कारण रूप से क्यों कहा गया (और पुनरुक्ति दोष का विचार क्यों नहीं किया गया)? (शंका का उत्तर-) आपका कहना ठीक है। किन्तु श्रुतज्ञान से उपलब्ध (ज्ञात) पदार्थ बहुलता के कारण, और शेष ज्ञानों से प्राप्त पदार्थ अपने निजी (अनभिलाप्य) स्वभाव के कारण कहे नहीं जा सकते- इस प्रकार विषय-विभाजन को समझाने की दृष्टि से पुनः (बहुत्वात्) बहुलता रूप कारण का निर्देश किया गया है। किन्तु दूसरे शंकाकार ने कहा- मति आदि से उपलब्ध पदार्थों में से कुछ तो अभिलाप्य (कहे जा सकते योग्य) हैं ही, तो फिर 'शेषोपलब्ध पदार्थ निज स्वभाव के कारण अनभिलाप्य हैं' ऐसा क्यों कहा? (उत्तर-) आपका कथन सही है, किन्तु 'वे (मति आदि ज्ञात पदार्थ) श्रुत के विषय रूप में ही कहे नहीं जा सकते' (मति के विषय रूप में तो कहे जा सकते हैं)- इस रूप में वैसा (यानी सभी को अनभिलाप्य) कहा गया है, अतः कोई दोष नहीं रह जाता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 139 // -शिष्य पूछता है (140) कत्तो एत्तियमेत्ता भावसुय-मईण पज्जया जेसिं?| भासइ अणंतभागं, भण्णइ जम्हा सुएऽभिहियं // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------215 dte Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-कुत एतावत्मात्रा भावश्रुतमत्योः पर्याया येषाम् / भाषतेऽनन्तभागं भण्यते यस्मात् श्रुतेऽभिहितम्॥] कुतः पुनरेतावन्तो भावश्रुत-मत्योः पर्याया उपलब्धार्थविषया विशेषाः, येषां सर्वेणापि जन्मनाऽनन्तभागमेव भाषत इति प्रागुक्तम्?। अत्र गुरुराह- भण्यतेऽत्रोत्तरम्- यस्मात् सूत्रे आगमे वक्ष्यमाणमभिहितम्, तस्मात्तयोरेतावन्तः पर्यायाः॥ इति गाथार्थः // 140 // किं तत् सूत्रेऽभिहितम्? इत्याह पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो॥१४१॥ [संस्कृतच्छाया:- प्रज्ञापनीया भावाः अनन्तभागस्तु अनभिलाप्यानाम्। प्रज्ञापनीयानां पुनः अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः॥] प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्त इति प्रज्ञापनीया वचनपर्यायत्वेन श्रुतज्ञानगोचरा इत्यर्थः। के? भावा ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान्तर्निविष्टभू भवन-विमान-ग्रह-नक्षत्र-तारकाऽर्केन्द्रादयस्ते सर्वेऽपि मिलिताः। किम्? इत्याह- अनन्ततम एव भागे बर्तन्ते। केषाम्?, अत्राह __ [(गाथा-अर्थः) भावश्रुत और मतिज्ञान के इतने अधिक (अनन्त आदि) पर्याय किस कारण से कहे जाते ( या माने जाते) हैं कि (वक्ता, सम्पूर्ण जीवन में भी) उनके अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है? (उत्तर-) ऐसा इसलिए कहा (या माना) जाता है क्योंकि श्रुत (आगम) में वैसा कहा गया है।] व्याख्याः- भावश्रुत व मतिज्ञान के द्वारा उपलब्ध पदार्थों की विशेष अवस्था रूप इतने (अधिक) पर्याय किस कारण से हैं जो यह पहले कहा गया है कि पूरा जन्म व्यतीत कर भी वक्ता उनका अनन्तवां भाग ही बोल पाता है? यहां गुरु ने (शंका के समाधान हेतु) उत्तर दिया- (यस्मात्)। चूंकि सूत्र या आगम में कहा गया है- जिसका इस ग्रन्थ में भी आगे की गाथा में निरूपण किया जा रहा है- अतः उनके इतने (अधिक, अनन्त) पर्याय माने गए हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 140 // (प्रश्न-) तो फिर सूत्र (या आगम) में क्या गया हैं? इसके उत्तर में कह रहे हैं (141) पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं / पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो // __ [(गाथा-अर्थः) प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) पदार्थ अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं, और जो श्रुत-निबद्ध (हो पाया) है, वह प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) पदार्थों का अनन्तवां भाग ही है।] व्याख्याः-जो प्रज्ञापित किये जाएं, प्ररूपित किए जाएं-वे पदार्थ प्रज्ञापनीय अर्थात् वचनपर्याय होकर श्रुतज्ञानगोचर होते हैं। वे कौन हैं? (उत्तर है-) ऊर्ध्वलोक, अधोलोक व मध्यलोक में विद्यमान पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूर्य, इन्द्र आदि जितने भी पदार्थ हैं, उन सभी को मिलाकर (भी देखें), तो Ma 216 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनभिलाप्यानामर्थपर्यायत्वेनाऽवचनगोचरापन्नानामित्यर्थः, अनभिलाप्यवस्तुराशेरभिलाप्यपदार्थसार्थः सर्वोऽप्यनन्ततम एव भागे वर्तत इत्यर्थः / प्रज्ञापनीयपदार्थानां पुनरनन्तभाग एव चतुर्दशपूर्वलक्षणे श्रुते निबद्धो भगवद्भिर्गणधरैः साक्षाद् ग्रथितः।। इति गाथार्थः॥१४१ / / कुतः पुनरेतद् विज्ञायते यदुत- प्रज्ञापनीयानामनन्तभाग एव श्रुतनिबद्धः?, इत्याह जं चोद्दसपुव्वधरा छट्ठाणगया परोप्परं होंति। तेण उ अणंतभागो पण्णवणिज्जाण, जं सुत्तं // 142 // [संस्कृतच्छाया:- यच्चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानगताः परस्परं भवन्ति / तेन तु अनन्तभागः प्रज्ञापनीयानां, यत् सूत्रम्॥] यद् यस्मात् कारणाच्चतुर्दशपूर्वधराः षट् स्थानपतिताः परस्परं भवन्ति, हीनाधिक्येनेति शेषः, तथाहिसकलाभिलाप्यवस्तुवेदितया य उत्कृष्टश्चतुर्दशपूर्वधरः, ततोऽन्यो हीन-हीनतरादिः, आगमे इत्थं प्रतिपादितः, तद्यथा- 'अणंतभागहीणे वा, असंखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अणंतगुणहीणे वा'। यस्तु सर्वस्तोकाऽभिलाप्यवस्तुज्ञायकतया सर्वजघन्यः, ततोऽन्य उत्कृष्ट उत्कृष्टतरादिरप्येवं प्रोक्तः, तद्यथा 'अणंतभागब्भहिए वा, क्या हो? उत्तर दिया वे सब अनन्तवें भाग में ही है। किनके? उत्तर दिया- जो अनभिलाप्य हैं अर्थात् जो अर्थपर्याय रूप में वचन के विषय नहीं हो पाने वाले हैं, उनके / तात्पर्य है कि जो कहा जाने वाला पदार्थ-समूह है वह समस्त भी अनभिलाप्य वस्तु-समूह के अनन्तवें भाग में ही स्थित (जैसा) है। और उन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवां भाग ही चौदहपूर्व रूप 'श्रुत' में भगवान् गणधरों द्वारा साक्षात् निबद्ध हो पाया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 141 // (चतुर्दशपूर्वी परस्पर (उनमें हीनाधिकता) षस्थानपतित है) ... (प्रश्न-) यह कैसे जाना जाता है कि प्रज्ञापनीय पदार्थों का अनन्तवां भाग ही श्रुत में निबद्ध है? इसका समाधान दे रहे हैं (142) ___जं चोद्दसपुव्वधरा छट्ठाणगया परोप्परं होति। तेण उ अणंतभागो पण्णवणिज्जाण, जं सुत्तं // __ [(गाथा-अर्थः) चूंकि चौदहपूर्वधारी परस्पर (न्यूनाधिक रूप में) षट्स्थानपतित होते हैं, इसलिए प्रज्ञापनीय पदार्थों का जो अनन्तवां भाग है, वह सूत्र (में निबद्ध) है।] . व्याख्याः- (यत्) जिस कारण से, चूंकि, चौदहपूर्व के धारक परस्पर में षट्स्थानपतित (हानि-वृद्धि वाले) होते हुए हीन या अधिक होते हैं। उदाहरणार्थ- समस्त अभिलाप्य (कथनीय) वस्तुओं का ज्ञाता जो उत्कृष्ट चतुर्दशपूर्वधर है, उससे दूसरा हीन या हीनतर होता है। आगम में (षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि का) इस प्रकार निरूपण किया गया है- अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन, व अनन्तगुणहीन / (इनमें) जो सबसे कम अभिलाप्य वस्तु का ज्ञाता है, वह सर्वजघन्य (चतुर्दशपूर्वधर) है, उससे दूसरा उत्कृष्ट या ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------217 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेज्जभागब्भहिए वा, संखेजभागब्भहिए वा, संखेजगुणब्भहिए वा, असंखेज्जगुणब्भहिए वा, अणंतगुणब्भहिए वा'। तदेवं यतः परस्परं षट्स्थानपतिताश्चतुर्दशपूर्वविदः, तस्मात् कारणात् यत् सूत्रं चतुर्दशपूर्वलक्षणं तत् प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्तभाग एवेति। यदि पुनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि सूत्रे निबद्धा भवेयुः, तदा तद्वेदिनां तुल्यतैव स्यात्, न षट्स्थानपतितत्वमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१४२॥ आह- ननु यदि सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, तर्हि कथं तेषां परस्परं हीनाधिक्यम्? इत्याह अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होंति मईविसेसेहिं। ते वि य मईविसेसे सुयनाणब्भंतरे जाण॥१४३॥ [संस्कृतच्छाया:-अक्षरलाभेन समा: ऊनाधिकाः भवन्ति मतिविशेषैः / तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि // ] चतुर्दशपूर्वगतसूत्रलक्षणेनाऽक्षरलाभेन समास्तुल्याः सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, ऊनाधिकास्ते मतिविशेषैर्भवन्ति क्षयोपशमवैचित्र्याद्, यथोक्ताक्षरलाभानुसारिभिरेव तैस्तैर्गम्यार्थविषयैर्विचित्रैर्बुद्धिविशेषै-नाधिका भवन्तीत्यर्थः। इह च मतिशब्दोपादानविभ्रमात् ते मतिविशेषा मा भूवन्नाभिनिबोधिकज्ञानविशेषाः, इत्यत आह- 'ते वि येत्यादि'। इदमुक्तं भवति- मतिशब्देनेह उत्कृष्टतर आदि भी होता है- ऐसा भी (आगम में) कहा गया है, जैसे अनन्तभाग-अधिक, असंख्यातभाग-अधिक, संख्यातभाग- अधिक। चूंकि इस प्रकार चतुर्दशपूर्वज्ञानी परस्पर में 'षट्स्थानपतित' हैं, इस कारण से (ऐसा कहा जाता है कि) जो चतुर्दशपूर्व रूपी श्रुत है, उसमें प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग ही (निबद्ध) है। यदि जितने भी प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं, उतने सभी श्रुत में निबद्ध होते तो उनके ज्ञानियों की भी तुल्यता कही जाती, और षस्थानपतित उन्हें नहीं बताया जाता- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 142 // (शंका-) यदि चौदहपूर्वो के ज्ञाता हैं तो उनमें परस्पर हीनाधिकता कैसे? इस शंका को दृष्टि में रखकर भाष्यकार कह रहे हैं (143) अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होति मईविसेसेहिं। ते वि य मईविसे से सुयनाणभंतरे जाण // [(गाथा-अर्थः) सभी चतुर्दशपूर्वधर अक्षर-लाभ की दृष्टि से समान हैं, परन्तु मति-विशेष से हीनाधिक होते हैं। उन मतिविशेषों को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत ही जानें।] व्याख्याः- चतुर्दशपूर्व रूपी जो अक्षर-लाभ है, उसकी दृष्टि से सभी चतुर्दशपूर्वधारी समान हैं, उनमें जो हीन या अधिक होते हैं, वे मतिविशेषों के कारण होते हैं, अर्थात् वे क्षयोपशम-विचित्रता के कारण होते हैं, अर्थात् वे पूर्वोक्त अक्षरलाभ का अनुसरण करते हुए भी उन-उन ज्ञेय पदार्थों को विषय बनाने वाले विचित्र बुद्धि-विशेषों के कारण हीन या अधिक होते हैं। यहां मति-विशेष में आये Ma 218 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतमतिर्विवक्षिता, न त्वाभिनिबोधिकमतिः। ततश्च यैश्चतुर्दशपूर्वविदो हीनाधिकास्तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि श्रुतज्ञानान्त विन एव विद्धि, न त्वाभिनिबोधिकान्तर्वर्तिन इति भावः। यद्येवं ते वि य मईविसेसे सुयनाणं चेव जाणाहि' इत्येवमेव प्रगुणं कस्माद् नोक्तम्, किमभ्यन्तरशब्दोपादानक्लेशेन? / नैतदेवम्, अस्यापि न्यायस्य दृष्टत्वात्, अङ्गाभ्यन्तरादिव्यपदेशवत्, यथा ह्यङ्गमेवाऽङ्गाभ्यन्तरम्, एवं श्रुतमेव श्रुताभ्यन्तरमित्युक्तं भवति, अथवा छन्दोभङ्गभयादभ्यन्तरग्रहणम्, यदि वा 'सुयनाण-' इत्यनेन चतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतमधिक्रियते, ततश्च तानपि गम्यान् मतिविशेषांश्चतुर्दशपूर्वाक्षरलाभरूपस्य श्रुतस्यैवाऽभ्यन्तरे जानीहि त्वं, न व्यतिरिक्तानिति शिष्योपदेशः, चतुर्दशभिरपि हि पूर्वैः कश्चित् साक्षात्, कश्चित्तु गम्यतया सर्वोऽप्यभिलाप्यः पदार्थोऽभिधीयत एव, ततश्च गम्या अपि मतिविशेषास्तदन्त विन एव, तदनुसारित्वात् // इति गाथार्थः॥१४३॥ चतुर्दशपूर्वलक्षणश्रुतानुसारित्वेन यदेतद् मतिविशेषाणां तदन्त वित्वमुक्तम्, तदेव समर्थयन्नाह 'मति’ पद को भ्रान्तिवश मतिज्ञान समझ कर मतिविशेष का अर्थ कहीं 'आभिनिबोधिकज्ञानविशेष' न समझ लिया जाय- इसलिए कहा- (ते अपि च)। तात्पर्य है कि यहां ‘मति' पद से श्रुत-मति विवक्षित है, न कि आभिनिबोधिक मति / इस प्रकार, जिनके कारण चतुर्दशपूर्वधारी (परस्पर में) हीन-अधिक हैं, उन मति-विशेषों को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत जानना, अर्थात् श्रुत ज्ञान के अन्तर्गत ही समझना, आभिनिंबोधिक ज्ञान के अन्तर्गत मत समझना / (प्रश्न-) यदि ऐसा है तो यही कह देते कि “उन मति-विशेषों को श्रुतज्ञान जानना'। 'अन्तर्गत’ -यह शब्द देने का कष्ट क्यों किया? (उत्तर) यह बात नहीं है, क्योंकि यह भी एक न्याय है जिसका यहां उपयोग किया गया है। वह न्याय है कि अंग को ही अंग के अन्तर्गत कहा जाता है, उसी प्रकार श्रुत को 'श्रुत के अन्तर्गत' रूप में कहा गया है। अथवा-छन्दोभंग के भय से (अर्थात् छन्द-रचना की सुविधा को ध्यान में रखकर) आभ्यन्तर यानी 'अन्तर्गत' पद को प्रयुक्त किया गया है। अथवा 'श्रुतज्ञान' इस पद से चतुर्दशपूर्व रूपी श्रुत का ग्रहण किया गया है, तदनन्तर, उन गम्यार्थों को ग्रहण करने वाले मति-विशेषों को चतुर्दशपूर्व-अक्षर-लाभ रूप श्रुत के अन्तर्गत ही जानना, न कि उनसे अतिरिक्त या पृथक्- इस प्रकार शिष्य को उपदेश दिया गया है। चौदह पूर्वो द्वारा भी कोई तो साक्षात्, तो कोई परम्परया ज्ञेय रूप में, इस प्रकार समस्त अभिलाप्य पदार्थ का कथन होता ही है, इसलिए ज्ञेय मतिविशेष भी उसी श्रुत के अन्तर्भूत हैं, क्योंकि वे भी श्रुतानुसारी हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 143 // .. चतुर्दशपूर्व रूप श्रुत के अनुसारी होने से मति-विशेषों का श्रुत-अन्तर्गत होना जो अभी बताया गया है, उसी का समर्थन करते हुए कह रहे हैं ---- विशेषावश्यक भाष्य ---- 219 र Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे अक्खराणुसारेण मईविसेसा तयं सुयं सव्वं / जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धं चिय तं मइन्नाणं॥१४४॥ [संस्कृतच्छाया:- येऽक्षरानुसारेण मतिविशेषास्तत् श्रुतं सर्वम्। ये पुनः श्रुतनिरपेक्षाः शुद्धमेव तत् मतिज्ञानम्॥] येऽक्षरानुसारेण श्रुतग्रन्थमनुसृत्य जायन्ते मतिविशेषास्तत् सर्वं श्रुतमेव, इत्यसकृदुक्तम्। ये तु यथोक्तश्रुतनिरपेक्षाः स्वयमेवोत्प्रेक्षितवस्तु तत्त्वा मतिविशेषाः समुत्पद्यन्ते तच्छुद्धं मतिज्ञानमेव, इत्येतदप्यनेकधा प्रागप्यभिहितम् / तस्माच्चतुर्दशपूर्वगताक्षरानुसारेण जायमानाः प्रस्तुतमतिविशेषाः सर्वे श्रुतमेव // इति गाथार्थः॥ 144 // तदेवं द्रव्यश्रुतादिश्रुतस्वरूपप्रतिपादनप्रकारेण बुद्धिढेि अत्थे जे भासइ' इत्यादिमूलगाथां व्याख्याय केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ' इत्यादिना दर्शितमपि विशेषदूषणाभिधित्सया पुनरपि मतान्तरमुपदर्शयन्नाह केइ अभासिजन्ता सुयमणुसरओ वि जे मइविसेसा। मन्नंति ते मइच्चिय भावसुयाभावओ, तन्नो // 145 // (144) जे अक्खराणुसारेण मईविसेसा तयं सुयं सव्वं / जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धं चिय तं मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) जो अक्षरानुसारी मतिविशेष होते हैं, वे सभी 'श्रुत' हैं। किन्तु जो श्रुतनिरपेक्ष है, वह तो शुद्ध मतिज्ञान है।] व्याख्याः- जो अक्षरानुसारी होकर, श्रुतग्रन्थ का अनुसरण करते हुए मतिविशेष उत्पन्न होते हैं, वे सब ‘श्रुत' ही हैं- यह बारबार कहा गया है। किन्तु जो पूर्वोक्त श्रुत की अपेक्षा न रखते हुए, वस्तु-तत्त्व का निरीक्षण कर मतिविशेष उत्पन्न होते हैं, वह शुद्ध मतिज्ञान ही है- यह भी अनेक बार पहले कहा जा चुका है। इसलिए, चतुदर्शपूर्वगत-अक्षरों का अनुसरण करते हुए उत्पन्न जो मतिविशेष हैं, वे सब 'श्रुत' ही हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||144 // . इस प्रकार, द्रव्यश्रुत आदि के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए पूर्वोक्त (128वीं) मूल गाथा का व्याख्यान किया, उसके बाद, पूर्वोक्त (132वीं) गाथा द्वारा मतान्तर-सम्मत व्याख्यान का तथा उसमें दोष का निरूपण किया गया, तथापि विशेष दोष बताने की इच्छा से उस मतान्तर को पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं (145) केइ अभासिज्जन्ता सुयमणुसरओ विजे मइविसेसा। मन्नंति ते मइच्चिय भावसुयाभावओ, तन्नो // Ma 220 --- -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- केचिदभाष्यमाणाः श्रुतमनुसरतोऽपि ये मतिविशेषाः। मन्यन्ते ते मतिरेव भावश्रुताभावतः, तद् न // ] . केचिद् व्याख्यातारः 'मन्नति ते मइ च्चियत्ति' तान् मतिविशेषान् श्रुतमनुसरतोऽपि मतिरेवेति मन्यन्ते। ये किम्? इत्याहयेऽभाष्यमाणा येषुशब्दप्रवृत्तिर्नास्तीत्यर्थः, श्रुतानुसारिणोऽपि मतिविशेषा ये शब्दप्रवृत्तिरहिताः केवलं हृद्येव विपरिवर्तन्ते ते मतिज्ञानमेवेति केचिद् मन्यन्त इति भावः। तदेतद् न / कुतः?, इत्याह- भावश्रुताभावप्रसङ्गात्, तदभावश्च किं सद्दो मइरुभयं भावसुयं सव्वहाऽजुत्तं' 'सद्दो ता दव्वसुर्य मइराभिणिबोहियं न वा उभयं' इत्यादिपूर्वोक्तग्रन्थाद् भावनीयम् // इति गाथार्थः॥ 145 // किञ्च किह मइ-सुयनाणविऊछट्ठाणगया परोप्परं होजा?। भासिजंतं मोत्तुं जइ सव्वं सेसयं बुद्धी॥१४६॥ [संस्कृतच्छाया:-कथं मतिश्रुतज्ञानविदः षट्स्थानगताः परस्परं भवेयुः? भाष्यमाणं मुक्त्वा यदि सर्वं शेषकं बुद्धिः॥] ___ [(गाथा-अर्थः) कुछ व्याख्याता उन मति-विशेषों को- जो श्रुतानुसारी तो हैं, किन्तु अभाषित (वचन-प्रवृत्ति में नहीं आते) हैं- 'मति' ही मानते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर तो भावश्रुत के अभाव का प्रसंग (अनिष्ट दोष) आ जाएगा।] व्याख्याः- कुछ व्याख्यानकर्ता (मन्यन्ते तान्) श्रुतानुसारी होने वाले मति-विशेषों को ‘मति' ही मानते हैं। कैसे मतिविशेषों को? (अभाष्यमाणाः) जिनमें शब्द-प्रवृत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह है कि श्रुतानुसारी होने वाले भी जो मति-विशेष, शब्दप्रवृत्ति से रहित होते हैं, केवल हृदय में ही स्फुरित होते रहते हैं, वे मतिज्ञान ही हैं- ऐसा मानते हैं। किन्तु उनका यह मानना समीचीन नहीं। क्यों? उत्तर दिया- (भावश्रुताभावतः)। (वैसा मानने पर तो) भावश्रुत का ही अभाव हो जाएगा। उसका अभाव किस प्रकार है, वह पहले (गाथा-132-133 में) कहा जा चुका है, वहीं से समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 145 // और भी (दूषण जो पूर्वोक्त व्याख्यान में हैं, वह इस प्रकार है) (146) किह मइ-सुयनाणविऊछट्ठाणगया परोप्परं होज्जा?| भासिज्जंतं मोतुं जइ सव्वं सेसयं बुद्धी // [(गाथा-अर्थः) यदि भाष्यमाण (शब्दप्रवृत्तिरहित) को छोड़कर सभी शेषबुद्धि मति-ज्ञान (के रूप में मान्य) हो. तो फिर मति-श्रुतज्ञानधारी परस्पर षस्थानपतित कैसे होते (कहे जाते)?] ------ विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 221 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि भाष्यमाणं मुक्त्वा शेषकं सर्वमपि बुद्धिर्मतिज्ञानमित्यर्थः, तर्हि मति-श्रुतज्ञानाभ्यां विदन्तीति मति-श्रुतज्ञानवेदिनः परस्परं स्वस्थाने परस्थाने च कथं षट्स्थानपतिताः स्युः? न कथञ्चिदित्यर्थः, तथाहि- सर्वेणाऽपि जन्मना मतिश्रुतोपलब्धानामर्थानामनन्तभाग एव भाष्यत इति प्रागिहैवोक्तम्। ततश्च मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनः सकाशात् सदैवाऽनन्तगुणाधिकः, श्रुतज्ञानी त्वितरस्माद् नित्यमनन्तगुणहीन एव प्राप्नोति, इति न तावत् परस्थाने षट्स्थानपतितत्वम्। स्वस्थानेऽपि श्रुतज्ञानी अन्यस्मात् श्रुतज्ञानिनः संख्यातेनैव हीनोऽधिको वा स्यात्, न त्वसंख्यातेन, अनन्तेन वा, भाषकचतुर्दशपूर्वविदां संख्येयवर्षायुष्कत्वेनाऽसंख्येयस्याऽनन्तस्य वा भाषणस्यैवाऽसंभवादिति / अस्यैव च विशेषणदूषणस्याऽभिधानार्थं पुनरत्रेदं मतान्तरमुपन्यस्तम्, अन्यथा हि 'केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ सुयं' इत्यादिना सर्वमिदं प्रागभिहितमेव // इति गाथार्थः॥१४६ // तदेवं 'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यादिपूर्वगतगाथा श्रुतस्वरूपाभिधायिना प्रकारेण व्याख्याता, मति-श्रुतयोश्च भेदस्य व्याख्येयत्वेन प्रस्तुतत्वात् तदभिधायकत्वेनापि मतान्तरेण व्याख्याता, तच्च व्याख्यानमयुक्तत्वाद् दूषितम्। अथाऽऽत्माभिमतेन निरवद्यमतिश्रुतभेदप्रकारणैतां व्याख्यातुमाह सामन्ना वा बुद्धी मइ-सुयनाणाई तीए जे दिट्ठा। भासइ, संभवमेत्तं गहियं न उ भासणामेत्तं // 147 // व्याख्याः- यदि भाष्यमाण को छोड़कर शेष समस्त ही बुद्धि मतिज्ञान होती तो मति व श्रुत से जानने वाले मतिश्रुतज्ञानवेत्ता परस्पर स्वस्थान व परस्थान की अपेक्षा से षट्स्थानपतित कैसे होते? अर्थात् कथमपि नहीं होते। चूंकि समस्त जन्म व्यतीत कर भी मति-श्रुत से उपलब्ध पदार्थों का अनन्तवां भाग ही कहा जा सकता है- यह हमने पहले बताया ही है। इस स्थिति में श्रुतज्ञानी की अपेक्षा मतिज्ञानी सदैव अनन्तगुण अधिक होता, श्रुतज्ञानी भी अन्य श्रुतज्ञानी से सर्वदा अनन्तगुण हीन ही होता, अतः परस्थान की दृष्टि से 'षट्स्थानपतितता' नहीं होती। स्वस्थान में भी श्रुतज्ञानी अन्य श्रुतज्ञानी से संख्यातगुना ही हीनाधिक होता, न कि असंख्यातगुना या अनन्तगुना हीनाधिक होता क्योंकि वक्ता चतुर्दशपूर्वधारी संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं, इसलिए वे असंख्यात व अनन्त पदार्थों का भाषण कर ही नहीं सकते। इसी दोष को बताने के लिए यहां इस (पूर्वोक्त अन्यकृत व्याख्यान) को मतान्तर रूप में प्रस्तुत किया है, अन्यथा 'केचिद् बुद्धिदृष्टान्' इत्यादि गाथा (सं. 132) द्वारा बाकी सब तो इसी रूप में कहा गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 146 // ___इस प्रकार 'श्रुत' के स्वरूप को बताने की दृष्टि से 'बुद्धिदृष्टान् अर्थान्' इत्यादि गाथा (सं. 128) का व्याख्यान किया गया, उस व्याख्यान को युक्तिसंगत न होने के कारण दोषयुक्त बताया गया। अब (उस गाथा का वास्तविक व्याख्यान क्या है-इसे बता रहे हैं अर्थात्) अपने निजी अभिमत के अनुरूप, निर्दोष रूप से मति-श्रुत के भेद बताने की दृष्टि से, इस गाथा का व्याख्यान कर रहे हैं (147-148) सामन्ना वा बुद्धी मइ-सुयनाणाई तीए जे दिट्ठा / भासइ, संभवमेत्तं गहियं न उ भासणामेत्तं // NAL 222 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मइसहियं भावसुयं तं निययमभासओ वि मइरन्ना। मइसहियं ति जमुत्तं सुओवउत्तस्स भावसुयं // 148 // [संस्कृतच्छाया:- सामन्या वा बुद्धिर्मतिश्रुतज्ञाने तया ये दृष्टाः। भाषते, संभवमात्रं गृहीतं न तु भाषणामात्रम् // मतिसहितं भावश्रुतं तद् नियतमभाषमाणस्यापि मतिरन्या। मतिसहितमिति यदुक्तं श्रुतोपयुक्तस्य भावश्रुतम्॥] स्वविहितप्रथमव्याख्यानापेक्षया वाशब्दो यदिवेत्यर्थः, 'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यत्र येयं बुद्धिः, असौ सामान्या गृह्यते, ततः किम्? इत्याह- 'मइ-सुयनाणाई ति' / मति-श्रुतज्ञाने द्वे अपि बुद्धिरिहेत्यर्थः, तया मतिश्रुतज्ञानात्मिकया बुद्ध्या ये दृष्टा भावास्तेषु मध्ये यान् भाषते तद् भावश्रुतमित्युत्तरगाथायां संबन्धः। भाषत इत्यत्र च भाषणस्य संभवमात्रं गृहीतम्, न तु भाषणमात्रम्। ततश्चेदमुक्तं भवति- तत्राऽन्यत्र वा देशे, तदाऽन्यदा वा काले, स चाऽन्यो वा पुरुषः, सति सामग्रीसंभवे निश्चयेनैतान् भाषत एव, इत्येवं यान् भावानन्तर्विकल्पे प्लवमानान् भाषणयोग्यतायां व्यवस्थापयति, तेऽभाष्यमाणा अपि भाषणयोग्याः सन्तो भावश्रुतं भवन्ति, न तु - मइसहियं भावसुयंतं निययमभासओ वि मइरन्ना। 'मइसहियं ति जमुत्तं सुओवउत्तस्स भावसुयं // [(गाथा-अर्थः) वहां 'बुद्धि' सामान्य अर्थ में गृहीत है (अतः वह मति व श्रुत -इन दोनों का वाचक शब्द है)। मति व श्रुत ज्ञान रूप ‘मति' से देखे पदार्थों को बोलता है (वह भावश्रुत है), यहां 'बोलना' इस पद को (बोले जाने की योग्यता, या) संभावना मात्र अर्थ यहां गृहीत है। 'भाषण' मात्र (जितना बोला गया)- यह अर्थ गृहीत नहीं है। भले ही न बोले, किन्तु जो मति-सहित (मति-श्रुतसहित) है, उसके भावश्रुत है ही। उससे जो अन्य है, वह मति ज्ञान है। ‘मतिसहित' यह जो कहा गया है- इसका तात्पर्य है कि श्रुत-उपयोग वाले को ही भावश्रुत होता है।] व्याख्याः- (वा) स्वकत इस प्रथम व्याख्यान को प्रस्तत करने की दृष्टि से कहा- अथवा। 'बुद्धिदृष्ट' इस पद में आए 'बुद्धि' शब्द को सामान्य (ज्ञान) अर्थ में लिया गया है। उसका फल क्या हुआ? उत्तर दिया- (मतिश्रुत-ज्ञाने)। 'बुद्धि' का अर्थ हुआ- मति व श्रुत-ये (दोनों) ज्ञान / उसे मतिश्रुतज्ञानात्मिका बुद्धि द्वारा गृहीत जो पदार्थ हैं, उनमें से जिन्हें बोलता है, वह ‘भावश्रुत' है- इस प्रकार उत्तर गाथा से जोड़ना चाहिए। यहां 'बोलता है' इस कथन से 'भाषण की संभावना' अर्थ गृहीत है न कि 'मात्र बोलना' अर्थ। इस तरह तात्पर्य यह हुआ- वहां या किसी अन्य देश में, उस समय या किसी अन्य समय में, वह या अन्य पुरुष, (अपेक्षित) सामग्री मिलने पर निश्चय ही इन (मतिश्रुत ज्ञानोपलब्ध पदार्थों) का भाषण करता ही है (अर्थात् वे भाषणयोग्य तो हैं ही)। इस वस्तुस्थिति के अनुरूप वक्ता में तैरने वाले जिन पदार्थों को भाषण-योग्य रूप में व्यवस्थित (सुस्थिर) करता है, वे नहीं बोले गए होने पर भी भाषणयोग्य होने से भावश्रुत (रूप में स्वीकृत) होते हैं, न कि बोले गए या बोले जा रहे पदार्थ ही (भावश्रुत) होते हैं। इस प्रकार, मति-उपलब्ध जो पदार्थ अनभिलाप्य SA ---------- विशेषावश्यक भाष्य -- -- .-----223 - -- Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाणा एवेति भावः। एवं च सति मत्युपलब्धानामनभिलाप्यानामर्थानां भाषणायोग्यत्वाद् भावश्रुतत्वमपाकृतं भवति, भाषणयोग्यानां त्वभाष्यमाणानामपि सर्वेषां विकल्पप्रतिभासिनामर्थानां भाव श्रुतत्वमावेदितं भवति / अत एव पर्यवसितमर्थं द्वितीयगाथयामाह-नियतं निश्चितं तद् भावश्रुतमभाषमाणस्यापि भवति, योग्यतामात्रेणैव भाषणस्य गृहीतत्वादिति भावः॥ . आह- ये सामान्यबुद्धिदृष्टा अर्था ये भाषणयोग्याः, यदि तेषां भावश्रुतत्वम्, तर्हि मतिज्ञानान्तर्वयंपायविकल्पावभासिनामपि तत्प्रसङ्गः, न हि तेऽपि न भाषणयोग्याः, इत्याशङ्कयाह-'मतिसहितमिति'। अस्य व्याख्यानमाह- 'मइसहियं तीत्यादि'।मतिसहितमिति यदुक्तं तस्य कः तात्पर्यार्थः? इत्याह- श्रुतोपयुक्तस्यैव भाषमाणस्याभाषमाणस्य वा भावश्रुतं भवति, नाऽन्यस्य। इदमुक्तं भवतिमतिसहितमिति श्रुतमतिसहितं यथा भवति, एवं यान् भाषते त एव भाव श्रुतम्, नाऽन्ये (न द्रव्योभयश्रुते)। ततश्च श्रुतोपयुक्तस्यैव भाषणयोग्यानर्थान् विकल्पयतो भावश्रुतं सिद्धं भवति। एवं च सति श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तत्वस्याऽसंभवाद् मतिविवः यस्य भाषणयोग्यत्वे सत्यपि कुतो भावश्रुतत्वम्? इति॥ हैं, वे चूंकि भाषण-अयोग्य होते हैं, इसलिए उनका भावश्रुतपना निराकृत (अस्वीकृत) हो जाता है, किन्तु जो भाषणयोग्य हैं, ऐसे (आन्तरिक) विकल्पों में प्रतिभासित होने वाले सभी पदार्थों का, यद्यपि वे बोले नहीं गए, तथापि भावश्रुतपना ज्ञात होता है। इसीलिए निष्कर्ष रूप अर्थ को द्वितीय गाथा में बताया (नियतम् अभाषमाणस्यापि)- चूंकि यहां योग्यता मात्र ही भाषण अभिप्रेत/अभीष्ट है, इसीलिए न बोले गए (उक्त) पदार्थों का भावश्रुतपना निश्चित ही होता है- यह तात्पर्य है। किसी (प्रश्नकर्ता) ने कहा- जो सामान्य बुद्धि से दृष्ट पदार्थ हैं, उनमें जो भाषणयोग्य हैं, यदि वे 'भावश्रुत' हैं तो मतिज्ञान के अन्तर्गत अपाय रूप विकल्प में अवभासित होने वाले पदार्थ को भी भावश्रुत मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी तो भाषणयोग्य होते ही हैं। इस आशंका के उत्तर में कहा (मतिसहितम्)। [पूर्वोक्त गाथा (128) में ‘मतिसहित' यह विशेषण दिया है, जिससे 'अपाय' आदि मतिज्ञान में 'भावश्रुत' होने की अतिव्याप्ति नहीं होगी। मतिसहित' इस विशेषण का व्याख्यान कह रहे हैं- (मतिसहितं भावश्रुतम्)। 'मतिसहित' यह विशेषण जो कहा, उसका तात्पर्य क्या हुआ? उत्तर है- श्रुतोपयोग से युक्त व्यक्ति के ही, चाहे (वे उपलब्ध पदार्थ) भाषित हों या न भी हों, ‘भावश्रुत' हो सकता है, किन्तु अन्य व्यक्ति के भावश्रुत नहीं होगा। तात्पर्य है कि ‘मतिसहित' यानी श्रुतमतिसहित जो उपलब्ध पदार्थ हों, वैसे जिन पदार्थों को बोलता है, (या बोलने योग्य बनाता है) वे ही 'भावश्रुत' हो सकते हैं, न कि अन्य (द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत)। इसलिए भाषणयोग्य अर्थों को विकल्पित करने वाले (जिसके अन्तर्जल्प में वचनयोग्य पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, उसी) श्रुतोपयोगी व्यक्ति के भावश्रुत का होना सिद्ध होता है। यह निर्णीत जब हो गया, तब श्रुतानुसारी न होने से श्रुतोपयोग-रहित जो मतिविकल्प हैं, वे भाषणयोग्य होने पर भी भावश्रुत कैसे हो सकते हैं? (अर्थात् नहीं। अतः शंकाकार द्वारा उठाया गया अतिव्याप्ति दोष निरस्त हो जाता है।) Ra 224 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- ननु सामान्या बुद्धिरिह गृहीता, श्रुतोपयुक्तत्वे च गृह्यमाणे कथं मतिदृष्टत्वमर्थानां संभवति?, श्रुतबुद्धिदृष्टत्वस्यैव तत्र संभवात् / नैतदेवम्, मतिपूर्वं हि श्रुतम्, ततो यत्र श्रुतबुद्धिदृष्टत्वं तत्र मतिदृष्टत्वमस्त्येव, इति न काचित् क्षतिः, इत्यलमतिचर्चितेन। तदेवं श्रुतज्ञानोपयुक्तः सामान्यबुद्धिदृष्टानर्थान् संभवतो यान् भाषते तद् भावश्रुतमिति स्थितम्। नन्वर्थानां कथं भावश्रुतत्वम्? ज्ञानस्यैव तत्संभवात् / सत्यम्, किन्तु विषय-विषयिणोरभेदोपचाराद् भावश्रुते प्रतिभासमाना अर्था अपि भावश्रुतम्, इत्यदोषः। _ 'मइरन्नत्ति'। यथोक्ताद् भावश्रुतादन्या व्यतिरिक्ता मतिर्द्रष्टव्या। इदमुक्तं भवति- येऽभिलाप्या अपि सन्तो घटादयः श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तैर्न विकल्प्यन्ते, ये चाऽर्थपर्यायत्वेन वाचकध्वनेरभावाद् मूलत एवाऽभिलपितुमशक्या अनभिलाप्याः, ते यस्यां विज्ञप्तौ प्रतिभासन्ते, सा मतिरित्यवगन्तव्या, न तु श्रुतम्, अभिलाप्यवस्तुविषयायां (विज्ञप्तौ) श्रुतानुसारित्वाभावात, अनभिलाप्यवस्तुविषयायां विज्ञप्तौ तु भाषणायोग्यत्वात् // इति गाथाद्वयार्थः॥१४७॥१४८॥ अथेष्टतोऽवधारणविधिमपदर्शयन्नाह पुनः शंकाकार ने प्रश्न पूछा- आपने 'बुद्धि' पद से सामान्य बुद्धि (मति व श्रुत दोनों) का ग्रहण बताया है। यदि 'श्रुतोपयोग सहित' पदार्थों का ग्रहण करेंगे तो पदार्थों का ‘मतिदृष्ट' होना कैसे सम्भव होगा? श्रुतबुद्धिदृष्ट होना ही संगत होगा। इसका समाधान इस प्रकार है- ऐसी बात नहीं है। श्रुत मतिपूर्वक ही होता है, अतः जो ‘श्रुतबुद्धिदृष्ट' होता है, वह ‘मतिदृष्ट' होगा ही, अतः कोई दोष नहीं है। इसलिए और अत्यधिक चर्चा की अब जरूरत नहीं रहती। - इस प्रकार अब यह निर्णय हुआ कि श्रुतज्ञानोपयोग से युक्त व्यक्ति सामान्य बुद्धि (मति-श्रुत) में देखे गए (उपलब्ध) पदार्थों में से यथासंभव जिन्हें बोलता है, वह 'भावश्रुत' है। शंका- पदार्थों का भावश्रुतपना कैसे? वह तो ज्ञान का ही हो सकता है? उत्तर- ठीक है, किन्तु विषय व विषयी में अभेद उपचार से भावश्रुत में प्रतिभासित पदार्थों को भी भावश्रुत कह दिया गया है, अतः कोई दोष नहीं। .. (मतिःअन्या-) पूर्वोक्त भावश्रुत से अन्यथा पृथक् जो (ज्ञान) है, वह ‘मति' (ज्ञान) है। तात्पर्य यह है कि जो अभिलाप्य (भाषणयोग्य) होते हुए भी, जो घटादि पदार्थ, श्रुतानुसारी न होने के कारण श्रुतोपयोग-सहित विकल्पित नहीं होते (वे मति ज्ञान हैं), या जो अर्थपर्यायरूप के कारण वाचकध्वनि से रहित हैं, इसलिए मौलिक रूप से ही भाषणयोग्य नहीं है, अनभिलाप्य हैं, वे जिस ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं, उन्हें 'मतिज्ञान' जानना चाहिए, 'श्रुत' के रूप में नहीं, क्योंकि वहां अभिलाप्य वस्तुविषयक ज्ञान श्रुतानुसारी नहीं है और अनभिलाप्यवस्तु को विषय करने वाला ज्ञान तो भाषणयोग्य ही नहीं है। यह दोनों गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 147-148 // अब अभीष्ट अवधारण-विधि क्या है? इसे बता रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------225 0 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे भासइ चेय तयं सुयं तु न उ भासओ सुयं चेव। केई मईए वि दिट्ठा जं दव्वसुयत्तमुवयंति॥१४९॥ [संस्कृतच्छाया:- यान् भाषते एव तत् श्रुतं तु न तु भाषमाणस्य श्रुतमेव / केचिद् मत्याऽपि दृष्टा यद् द्रव्यश्रुतत्वमुपयान्ति॥] 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ' इत्यत्र यान् कदाचित् संभवमात्रेण भाषत एव तच्छुतमित्येवमेवावधारणीयम्, न तु भाषमाणस्य श्रुतमेवेति यान् भाषते तच्छ्रुतमेवेत्येवं (तच्छ्रुतमित्येतद्) नावधार्यत इत्यर्थः। कुतः? इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् कारणात् केचिदभिलाप्याः पदार्था मत्याऽपि दृष्टा अवग्रहेणाऽवगृहीताः, ईहया त्वीहिताः, अपायविकल्पेन तु निश्चिता इत्यर्थः, द्रव्यश्रुतत्वमुपयान्ति शब्दलक्षणेन द्रव्यश्रुतेन भाष्यन्त इत्यर्थः। यदि च भाषमाणस्य श्रुतमेवेत्यवधार्येत, तदैषामपि श्रुतत्वं स्यात्, न चैतदिष्यते, श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तत्वस्य तेष्वसंभवात्, तस्माद् यथोक्तमेवाऽवधारणम् // इति गाथार्थः।।१४९ / / अथ यथोक्तव्याख्यानलब्धमति-श्रुतभेदोपदर्शनपूर्वकमुपसंहरन्नाह (149) जे भासइ चेय तयं सुयं तु न उ भासओ सुयं चेव / केई मईए वि दिट्ठा जं दव्वसुयत्तमुवयंति // [(गाथा-अर्थः) जो बोला ही जाता है वही श्रुत है (यह कहना तो ठीक है), किन्तु बोलने वाले के श्रुत ही है- ऐसा (कहना ठीक) नहीं। क्योंकि मतिज्ञान से कुछ दृष्ट पदार्थ भी 'द्रव्यश्रुत' रूप को प्राप्त होते हैं।]. व्याख्याः - (पूर्वोक्त गाथा 128 में आए) 'बुद्धिदृष्ट जिन पदार्थों को बोलता है' इस कथन का अर्थ "जिन बुद्धिदृष्ट पदार्थों का भाषण संभव हो, उन्हें जो बोलता है, उसी के ही 'श्रुत' होता है"- इस प्रकार अवधारण सहित श्रुत को समझें। बोलने वाले के श्रुत ही होता है, या जिन्हें बोलता है, वह श्रुत ही है- इस प्रकार अवधारण नहीं करना चाहिए। ऐसा क्यों? उत्तर है- क्योंकि कुछ अभिलाप्य (वचन द्वारा कहे जाने योग्य) ऐसे भी पदार्थ हैं जो मतिज्ञान.द्वारा भी दृष्ट (ज्ञात) होकर, 'अवग्रह' से अवगृहीत, ईहा से ईहित तथा अपाय रूप विकल्प से निर्णीत स्थिति को प्राप्त होते हैं और 'द्रव्यश्रुतपने' को प्राप्त होते हैं, अर्थात् शब्दरूप द्रव्यश्रुत द्वारा कहे जाते हैं। यदि बोलने वाले के 'श्रुत' ही है- ऐसा अवधारण किया जाय तो वे (पूर्वोक्त अपाय रूप) को भी श्रुतज्ञान मानना पड़ेगा। किन्तु यह अभीष्ट नहीं है, क्योंकि श्रुतानुसारी न होने से उनमें श्रुतोपयोग का अभाव है, इसलिए यथोक्त रूप से ही अवधारण ('ही' का प्रयोग) करना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 149 // अब पूर्वोक्त व्याख्यान के आधार पर मति व श्रुत में जो परस्पर भेद है उसे उपरांहार रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं --- विशेषावश्यक भाष्य Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं धणिपरिणामं सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं। जं भिन्नसहावाई ताई तो भिन्नरूवाई॥१५०॥ [संस्कृतच्छाया:- एवं ध्वनिपरिणामं श्रुतज्ञानमुभयथा मतिज्ञानम्। यद् भिन्नस्वभावे ते ततो भिन्नरूपे॥] एवं प्रागुक्तप्रकारेण केवलाऽभिलाप्यार्थविषयत्वात् सर्वमपि श्रुतज्ञानं ध्वनिपरिणाममेव, ध्वनेः शब्दस्य परिणमनं विपरिवर्तनं परिणामो यत्र तद् ध्वनिपरिणामं भवत्येव, श्रुतानुसारित्वेनोत्पन्नमेव ह्येतदिष्यते, श्रुतं च संकेतकालभाविपरोपदेशरूपः, श्रुतग्रन्थरूपश्च द्विविधः शब्दोऽत्राऽधिकृतः, तदनुसारेण चोत्पन्ने ज्ञाने ध्वनिपरिणामो भवत्येवेति। मतिज्ञानं तूभयथाऽपि भवति- शब्दपरिणामम्, अशब्दपरिणामंच, अभिलाप्यानभिलाप्यपदार्थविषयं ह्येतत् / ततश्च श्रुतानपेक्षस्वमत्यैव विकल्प्यमानेष्वभिलाप्येषु ध्वनिपरिणामोऽस्मिन्नपि प्राप्यते। अनभिलाप्यविषयतायां तु नासौ तत्र लभ्यते, अनभिलाप्यपदार्था हि स्वयमेव बुध्यमाना अपि वाचकध्वनेरभावाद् विकल्पयितुं, परस्मै प्रतिपादयितुं वा न शक्यन्ते, यथा नालिकेरद्वीपाऽऽयातस्य वढ्यादयः क्षीरेक्षु-गुड-शर्करादिमाधुर्यतारतम्यादयो वा, इति कुतस्तद्विषयतायां ध्वनिपरिणाम:?। अभिलाप्यपदार्थेभ्योऽनन्तगणाश्चाऽनभिलाप्याः सन्ति। ततोऽभिलाप्याऽनभिलाप्यवस्तुविषयत्वाच्छब्दाऽशब्दंपरिणामं मतिज्ञानमिति स्थितम्। (150) ... एवं धणिपरिणामं सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं / जं भिन्नसहावाइं ताई तो भिन्नरूवाइं॥ [(गाथा-अर्थः) इस प्रकार श्रुतज्ञान ध्वनिपरिणाम (होता) वाला है, किन्तु मतिज्ञान (ध्वनि, अध्वनि) दोनों परिणाम वाला है। चूंकि इस प्रकार ये भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं, इसलिए भिन्न-भिन्न रूप वाले भी हैं। ___ व्याख्याः- इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से यह सिद्ध हुआ कि मात्र अभिलाप्य पदार्थों को विषय करने वाला समस्त श्रुतज्ञान ध्वनिपरिणाम रूप ही होता है, क्योंकि जहां ध्वनि यानी शब्द का परिणमन हो वह ध्वनिपरिणामरूप होता ही है और ऐसा होना इसलिए माना गया है क्योंकि वह श्रुतानुसारी रूप में उत्पन्न होता है। यहां 'श्रुत' से तात्पर्य लिया गया- संकेतकालीन परोपदेश रूप (शब्द) और ग्रन्थ रूप (शब्द)- इस प्रकार द्विविध शब्द / अतः ऐसे श्रुत का अनुसरण करने वाले ज्ञान में ध्वनिपरिणाम होता ही है। किन्तु मतिज्ञान दोनों प्रकार का होता है- शब्दपरिणामी और अशब्दपरिणामी भी, क्योंकि यह अभिलाप्य व अनभिलाप्य- दोनों पदार्थों को विषय करता है। अतः श्रुत की अपेक्षा न रखते हुए, स्वमति से ही, जो अन्तर्विकल्प में अभिलाप्य पदार्थ आते हैं, उनमें ध्वनिपरिणमन प्राप्त होता है। किन्तु यदि वहां विषयभूत पदार्थ अनभिलाप्य होते हैं तब ध्वनिपरिणमन नहीं होता, क्योंकि अनभिलाप्य पदार्थ स्वतः ज्ञात होकर भी -चूंकि उनकी वाचक ध्वनि का अभाव हैइसलिए, विकल्प-योग्य नहीं होते, और दूसरे को प्रतिपादन करने योग्य भी नहीं हो पाते, जैसे कोई नारिकेल (नारियल-बहुलता वाले) द्वीप से आया हो, उसके लिए (पूर्णतः अज्ञात) वह्नि (आग) आदि, ----- विशेषावश्यक भाष्य --------227 र Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथोपसंहरति-'तो त्ति'। तस्मात् ते मतिश्रुते स्वामि-कालादिभिरविशेषेऽपि भिन्नरूपे भेदवती मन्तव्ये। कुतः? इत्याहयद् यस्मात् कारणाद् द्वे अपि भिन्नस्वभावे- उक्तन्यायेनैकस्य ध्वनिपरिणामित्वात्, अपरस्य तूभयस्वभावत्वात् // इति गाथार्थः॥१५० // तदेवं मूलगाथायां 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं' इत्येतत् पूर्वार्धं 'सामण्णा वा बुद्धी' इत्यादिना व्याख्यातम् / अथ इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेजा' इत्येतदुत्तरार्धं व्याचिख्यासुराह- . इयर त्ति मइन्नाणं तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो। तो तम्मि वि किं न सुयं भासइ जं नोवलद्धिसमं?॥१५१॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरदिति मतिज्ञानं ततोऽपि यदि भवति शब्दपरिणामः। ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतं भाषते यद् नोपलब्धिसमम्॥] अथवा (किसी भी व्यक्ति के लिए) दूध, ईख, गुड़, शर्करा आदि में जो माधुर्य की तरतमता (हीनाधिकता, परस्पर-विशेषता) (अनभिलाप्य पदार्थ ही हैं)। इसलिए उक्त पदार्थों के ज्ञान-विषय (ज्ञेय) होने पर भी, वहां ध्वनि-परिणमन कैसे हो सकता है? अभिलाप्य पदार्थों से अनन्तगुने अनभिलाप्य पदार्थ होते हैं। इसलिए अभिलाप्य व अनभिलाप्य- दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने के कारण, शब्दपरिणमनयुक्त व अ-शब्दपरिणमनयुक्त (दो प्रकार का) मतिज्ञान है- यह सिद्ध हुआ। अब उपसंहार कर रहे हैं (ततः)- इसलिए, वे मति व श्रुतज्ञान, यद्यपि स्वामी, काल आदि की दृष्टि से समान हैं, तथापि परस्पर भेद वाले हैं- ऐसा जानना चाहिए। क्यों? उत्तर है- (यत्) चूंकि वे दोनों ही भिन्न स्वभाव वाले हैं, क्योंकि उनमें एक (श्रुत) ध्वनिपरिणमन वाला है और दूसरा (मति) उभयस्वभाव वाला (ध्वनिपरिणामी, तथा अ-ध्वनिपरिणामी) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 150 // __ इस प्रकार पूर्वोक्त गाथा (सं.128) के पूर्वार्ध (बुद्धिदृष्ट जिन पदार्थों को मति-श्रुतसहित बोलता है, वह श्रुत है- यहां तक) का व्याख्यान पूर्वोक्त गाथा (सं.147 आदि) द्वारा किया गया। अब इसी (128वीं) गाथा के उत्तरार्ध (अन्यत्र भी श्रुत हो सकता है... इत्यादि) का व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे हैं (151) इयर त्ति मइन्नाणं तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो। . तो तम्मि वि किं न सुयं भासइ जं नोवलद्धिसमं? // [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) इतर (अन्य) यानी पूर्वोक्त से अवशिष्ट मतिज्ञान, यदि उसमें भी शब्दपरिणमन होता है, तब भी वहां 'श्रुत' रूपता क्यों नहीं है? (उत्तर-) क्योंकि उपलब्धि-समान बोलना नहीं होता। 2 228 --- -- विशेषावश्यक भाष्य Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इयरत्थ वि होज सुयं' इति मूलगाथोत्तरार्धे इतरशब्दस्य किं वाच्यम्?, इत्याह- इतरदिति मतिज्ञानं तत्राऽभिसंबध्यते, इत्याचार्येणोक्ते परः प्राह- 'तओ वि जड होइ सहपरिणामो तो तम्मि वि किं न सयंति'। तत इति सप्तम्यन्तात तस्प्रत्ययः, ततश्च 'उभयहा मइन्नाणं' इति वचनाद् यदि तस्मिन्नपि मतिज्ञाने शब्दपरिणामो भवति, ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतं-तदपि भावश्रुतरूपतां किं न प्रतिपद्यते? इत्यर्थः, शब्दपरिणामस्य श्रुतत्वेनोक्तत्वादिति भावः। अत्राऽऽचार्य उत्तरमाह- 'भासइ जं नोवलद्धिसमं ति'। यद् यस्मात् कारणादुपलब्धिसमं मतिज्ञानी न भाषते, ततो न मतिज्ञानस्य श्रुतरूपता // इति गाथार्थः॥ 151 // कथं पुनरुपलब्धिसममसौ न भणति? इत्याह अभिलप्पाऽणभिलप्पा उवलद्धा तस्समं च नो भणइ। तो होउ उभयरूवं उभयसहावं ति काऊण // 152 // [संस्कृतच्छाया:-अभिलाप्यानभिलाप्या उपलब्धास्तत्समं च न भणति / ततो भवतूभयरूपमुभयस्वभावमिति कृत्वा॥] व्याख्याः - मूल गाथा (128)में आए 'इतरत्र' के 'इतर' शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर है- 'इतर' का अर्थ है- अन्य, मतिज्ञान / आचार्य द्वारा ऐसा कहने पर शंकाकार पूछता है- उस (मतिज्ञान) में भी यदि शब्द-परिणमन होता है तो भी उसमें श्रुतपना क्यों नहीं है? 'ततः' इस पद में सप्तम्यन्त अर्थ में तस् प्रत्यय हुआ है, अतः अर्थ हुआ- उसमें। (गाथा-150 में) मतिज्ञान को उभयस्वभावी (शब्दपरिणामी, शब्दपरिणमनरहित) बताया गया है, अतः प्रश्नकर्ता का आशय यह है . कि उस मतिज्ञान में भी यदि शब्दपरिणमन होता है, तब उसमें भी श्रुतरूपता क्यों नहीं, अर्थात् वह भी भावश्रुतरूप (में परिणत) क्यों नहीं हो पाता? क्योंकि शब्दपरिणमन को श्रुतरूप माना गया है। यहां आचार्य उत्तर दे रहे हैं- (भाषते यत्) / चूंकि मतिज्ञानी उपलब्धिसम को नहीं बोल पाता है, इसलिए मतिज्ञान की श्रुतरूपता नहीं बन पाती // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 151 // .. वह (मतिज्ञानी) उपलब्धिसम भाषण क्यों नहीं कर पाता? इसके उत्तर में (दो गाथाएं) कह (152) अभिलप्पाडणभिलप्पा उवलद्धा तस्समं च नो भणइ। __ तो होउ उभयरूवं उभयसहावं ति काऊण // [(गाथा-अर्थः) अभिलाप्य व अनभिलाप्य पदार्थ मतिज्ञान द्वारा उपलब्ध होते हैं, अतः (मतिज्ञानी) उक्त उपलब्धिसम भाषण नहीं कर पाता। (प्रश्न-) यदि ऐसा है तो उसे उभयस्वभावी स्वीकार कर उभयरूप (मतिरूप और श्रुतज्ञानरूप क्यों नहीं) मान लिया जाय?] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 229 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागुक्तन्यायेनाऽभिलाप्याऽनभिलाप्याः पदार्था मतिज्ञानोपलब्धाः, एवंभूतोपलब्ध्या च समं भणितुं न शक्नोत्येव, अनभिलाप्यानां सर्वथैव वक्तुमशक्यत्वादिति भावः // अत्र परः प्राह-'तोहोउ इत्यादि / ततस्तर्हि भवतु मतिज्ञानमुभयरूपं श्रुत-मतिरूपम्।कुत:?, इत्याह- उभयस्वभावमिति कृत्वा, अभिलाप्याऽनभिलाप्यवस्तुविषयत्वेन द्विस्वभावत्वादित्यर्थः। इदमुक्तं भवति- यदभिलाप्यपदार्थानुपलभते भाषते च, तत् श्रुतज्ञानमस्तु, अनभिलाप्यपदार्थांस्तु भाषणाऽयोग्यान् यदवगच्छति, तद् मतिज्ञानं भवति // इति गाथार्थः // 152 // अत्रोत्तरमाह जं भासइ तं पि जओ न सुयादेसेण किन्तु समईए। न सुओवलद्धितुल्लं ति वा जओ नोवलद्धिसमं // 153 // [संस्कृतच्छाया:- यद् भाषते तदपि यतो न श्रुतादेशेन किन्तु स्वमत्या। न श्रुतोपलब्धितुल्यमिति वा यतो नोपलब्धिसमम्॥] व्याख्या:- पूर्वोक्त रीति से मतिज्ञान अभिलाप्य और अनभिलाप्य-दोनों प्रकार के पदार्थों को उपलब्ध करता (जानता) है, और उक्त उपलब्धि के समान बोलना शक्य नहीं, क्योंकि अनभिलाप्य पदार्थ तो होते ही हैं सर्वथा अवाच्य अर्थात् उन्हें बोला ही नहीं जा सकता। यहां शंकाकार कहता है (ततो भवतु)- तो फिर मतिज्ञान को उभयरूप यानी मतिरूप भी और श्रतरूप भी (दोनों प्रकार का) क्यों नहीं मान लेते? किस प्रकार? उत्तर-उसे द्विस्वभावी मान कर। अर्थात् अभिलाप्य वस्तु को विषय करने वाला तथा अनभिलाप्य वस्तु को विषय करने वालाऐसा मान कर। प्रश्नकर्ता का कहना यह है- जो अभिलाप्य पदार्थ हैं, उन्हें उपलब्ध कर (तो बोलना संभव है ही, अतः उन्हें) बोलता है, उसे तो श्रुतज्ञान मान लिया जाय, और जो भाषण के अयोग्य अनभिलाप्य पदार्थ हैं, उनका ज्ञान मतिज्ञान मान लिया जाय (तो क्या आपत्ति है?) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१५२ // (पूर्व गाथा में प्रश्नकर्ता द्वारा प्रस्तुत की गई मान्यता. का- मतिज्ञान की उभयरूपता कानिराकरण करने के उद्देश्य से) अब उत्तर दे रहे हैं (153) जं भासइ तं पि जओ न सुयादेसेण किन्तु समईए। न सुओवलद्धितुल्लं ति वा जओ नोवलद्धिसमं // [(गाथा-अर्थः) चूंकि वह जो (कुछ भी) बोल रहा है, वह श्रुतानुसरण करके नहीं बोलता है अपितु स्वमति से ही बोलता है, अतः श्रुतोपलब्धितुल्य या उपलब्धिसम नहीं बोलता (अतः मतिज्ञान में श्रुतरूपता संभव नहीं)।] Mar 230 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदपि किञ्चिदभिलाप्यवस्तूपलब्धं मतिज्ञानी भाषते तदपि यतो न श्रुतादेशेन, किन्तु स्वमत्या, अतो न तत् श्रुतमिति। इदमुक्तं भवति- परोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते, तदादेशेन तु तदनुसारेण विकल्प्य यदा भाषते, तदा श्रुतोपयुक्तस्य भाषणात् श्रुतमुपपद्यत एव, यत्र तु स्वमत्यैव पर्यालोच्य भाषते न तु श्रुतानुसारेण, तत्र श्रुतोपयुक्तत्वाभावाद् मतिज्ञानमेव। तदेवं 'भासइ जं नोवलद्धिसमं' इत्यस्य गाथावयवस्य 'अभिलप्पाणभिलप्पा उवलद्धा' इत्यादिना व्याख्यानं कुर्वताऽऽचार्येण मतिज्ञानी मतिज्ञानोपलब्ध्या समं न भाषते, अतस्तत्रोपलब्धिसमं भाषणं न भवति, इत्यतो न मतिज्ञाने श्रुतरूपतेत्युक्तम्, श्रुतज्ञानी त्वभिलाप्यानुपलभते, तांश्च भाषते, अतस्तत्रैवोपलब्धिसमत्वस्य सद्भावात् श्रुतरूपतेति भावः॥ सांप्रतं तु मतिज्ञानी श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं समं न भाषत इत्येवमुपलब्धिसमत्वाभावमुपदर्शयन्नाह- 'न सुओवलद्धीत्यादि'। वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः, ततश्च न श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं मतिज्ञानी भाषत इति वा, यतो यस्मात् कारणाद् नोपलब्धिसमं मतिज्ञानिनो भाषणम्, तस्माद् न तत्र श्रुतरूपता। इदमुक्तं भवति- श्रुतोपलब्धौ परोपदेशार्हद्वचनलक्षणश्रुतानुसारेणोपलब्धानर्थान् भाषते, मत्युपलब्धौ तु तदुपलब्धानेव, इत्यतो न मतिज्ञानिनो भाषणं श्रुतोपलब्धिसमम् / ततश्च न तत्र श्रुतसंभवः॥ इति गाथार्थः // 153 // व्याख्याः - मतिज्ञानी जो कुछ भी उपलब्ध वस्तु को कहता है, वह भी चूंकि श्रुतानुसरण कर नहीं कहता, अपितु स्वमति से ही कहता है, अतः वह 'श्रुत' नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि परोपदेश व श्रुतात्मक ग्रन्थ -ये ही यहां 'श्रुत' रूप में मान्य हैं। उक्त 'श्रुत' का अनुसरण कर जब कोई बोलता है, तभी श्रुतोपयोग-सहित भाषण होने से 'श्रुत' ज्ञान का सद्भाव संगत होता है। किन्तु जब कोई अपनी ‘मति' से ही पर्यालोचित कर बोलता है, श्रुतानुसरण करके नहीं, तब श्रुतोपयोगरहित होने से वह मतिज्ञान ही है। इस प्रकार, 'उपलब्धि समान नहीं बोलता' (गाथा-151 में) आए इस कथन को (गाथा-152 में आए) 'अभिलाप्य-अनभिलाप्य उपलब्ध पदार्थों को' इस कथन के साथ जोड़कर व्याख्यान कर रहे आचार्यश्री ने यह बता दिया कि चूंकि मतिज्ञानी मतिज्ञानसम्बन्धी उपलब्धि के समान नहीं बोलता, इसलिए वहां उपलब्धिसम भाषण न हो पाने से मतिज्ञान की श्रुतरूपता नहीं हो पाती। श्रुतज्ञानी तो अभिलाप्य पदार्थों को उपलब्ध करता है, और उन्हें बोलता भी है, अतः वहां उपलब्धिसम भाषण के होने से श्रुतरूपता संभव होती है- यह भाव है। . अब मतिज्ञानी श्रुतोपलब्धि से तुल्य या तत्समान नहीं बोलता, इस प्रकार वहां उपलब्धिसमत्व के अभाव को निदर्शित करते हुए कह रहे हैं- (न श्रुतोपलब्धितुल्यम्)। 'वा' शब्द 'अथवा' अर्थ को, यानी दूसरे प्रकार से कथन करने को सूचित कर रहा है। अतः अर्थ हुआ- अथवा मतिज्ञानी श्रुतोपलब्धिसमान नहीं बोलता है, चूंकि उसका उपलब्धिसम भाषण नहीं होता, इसलिए (उसका ज्ञान) श्रुतरूप नहीं है। तात्पर्य यह है कि श्रुत-उपलब्धि में, परोपदेश या अर्हद्वचन रूप श्रुत का अनुसरण करते हुए उपलब्ध पदार्थों को वक्ता बोलता है, किन्तु मति-उपलब्धि में मति-उपलब्ध पदार्थों को ही बोलता है, इस कारण से मतिज्ञानी का भाषण श्रुतोपलब्धिसम नहीं है, इसलिए वहां 'श्रुत' के होने की संभावना भी नहीं हो सकती। यह गाथा का अर्थ पर्ण हआ॥१५३॥ via ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------231 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं 'सोइंदिओवलद्धी होइ सुर्य' इत्यादिमूलगाथाया तत्त्वतः श्रोत्रेन्द्रियविषयमेव श्रुतज्ञानम्, सर्वेन्द्रियविषयं च मतिज्ञानमित्येवं मति-श्रुतयोर्भेदः प्रतिपादितः, तत्प्रतिपादनक्रमे च 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ' इत्यादिगाथा समायाता, सा च द्रव्यभावोभयश्रुतरूपाऽभिधायकत्वेन मतिश्रुतयोर्भेदाभिधानपरतया च व्याख्याता, तद्व्याख्याने चाऽवसिते इन्द्रियविभागादपि मति-श्रुतयोर्भेदः। सांप्रतं वल्क-शुम्बोदाहरणात् तमभिधित्सुराह अन्ने मन्नंति मई वग्गसमा सुंबसरिसयं सुत्तं / दिट्ठन्तोऽयं जुत्तिं जहोवणीओ न संसहइ॥१५४॥ [संस्कृतच्छाया:- अन्ये मन्यन्ते मतिर्वल्कसमा शुम्बसदृशं श्रुतम् / दृष्टान्तोऽयं युक्तिं यथोपनीतौ न संसहते॥] अन्ये केचनाऽप्याचार्या मन्यन्ते। किम्?, इत्याह-वल्कसमा वल्कसदृशी मतिः, ततः सैव यदा शब्दतया संदर्भिता भवतितज्जनितो यदा शब्द उत्तिष्ठतीत्यर्थः, तदा तदुत्थशब्दसहिता श्रुतमुच्यते, तच्च शुम्बसदृशं वल्कजनितदवरिकातुल्यं श्रुतं भवति। इस प्रकार 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत होती है' इत्यादि (117वीं) मूल गाथा द्वारा प्रतिपादित किया गया कि तात्त्विक (वास्तविक) रूप से श्रोत्रेन्द्रियविषय ही श्रुतज्ञान है, किन्तु मतिज्ञान सर्वेन्द्रियविषय है, इस प्रकार मति व श्रुत में भेद या अन्तर होता है। इसी तथ्य के प्रतिपादन के प्रसंग में (128वीं) 'बुद्धिदृष्ट' इत्यादि गाथा आई, उसका भी व्याख्यान करते हुए बताया गया कि द्रव्यश्रुत, भावश्रुत व उभयश्रुत के कथन के साथ-साथ यह गाथा मति व श्रुत में भेद का प्रतिपादन करती है। इस व्याख्यान के समाप्ति में यह प्रतिपादित किया कि इन्द्रिय-विभाग के आधार पर भी मति व श्रुत में भेद है। (मति व श्रुत में वल्क व शुम्ब का दृष्टान्त) अब वल्क-शुम्ब के उदाहरण के माध्यम से मति व श्रुत में भेद का कथन कर रहे हैं (154) अन्ने मन्नंति मई वग्गसमा सुंबसरिसयं सुत्तं / दिट्ठन्तोऽयं जुत्तिं जहोवणीओ न संसहइ॥ [(गाथा-अर्थः) अन्य (आचार्य, विद्वान्) मति को वल्क (छाल) के समान तथा श्रुत (या सूत्र) को शुम्ब (दरी, गूंथी हुई छाल आदि) मानते हैं। (किन्तु) इस दृष्टान्त को जिस प्रकार वे रखते हैं, वह युक्तिसंगत नहीं ठहरता।] व्याख्याः - अन्य कोई-कोई आचार्य (ऐसा) मानते हैं। क्या मानते हैं? वल्क के समान, वल्क जैसी मति होती है, वही जब शब्द से संदर्भित (मिश्रित) हो जाती है, अर्थात् जब उससे शब्द उत्पन्न/प्रकट होता है, उस उत्पन्न शब्द के साथ जब मति होती है, तब 'श्रुत' कहलाती है। वह श्रुत ऐसा * ही है जैसे शुम्ब हो, यानी जैसे वल्क से बनी कोई दवरिका (दरी, चादर आदि) हो। a 232 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं तदभ्युपगमः शोभन इति चेत्। नैवमित्याह- 'दिटुंतोऽयमित्यादि'। अयं वल्कशुम्बदृष्टान्तो यथा तैरुपनीत:उक्तप्रकारेण प्रकृते योजितः, तथा युक्तिं न सहते- न क्षमते, अन्यथा त्वस्मदभिमतवक्ष्यमाणप्रकारेणोपनीयमान एषोऽपि युक्तिक्षमो भविष्यतीति भावः // इति गाथार्थः॥१५४॥ कुतो न संसहते? इत्याह भावसुयाभावाओ संकरओ निव्विसेसभावाओ। पुव्वुत्तलक्खणाओ सलक्खणावरणभेयाओ॥१५५॥ [संस्कृतच्छाया:- भावश्रुताभावात् संकरतो निर्विशेषभावात्। पूर्वोक्तलक्षणात् स्वलक्षणावरणभेदात् // ] नैष दृष्टान्तो युक्तिं क्षमत इति सर्वत्र साध्यम्, मतेरनन्तरं शब्दमात्रस्यैव भावेन भावश्रुतस्याऽभावप्रसङ्गात् / अथ मतिसहितोऽयं शब्दो न केवल इति तत्र भावश्रुतत्वं भविष्यति / तदयुक्तम् / कुतः? इत्याह- संकरः सांकर्यं, संकीर्णत्वम्, मिश्रत्वमिति यावत्, मतिश्रुतयोस्तस्य प्राप्तेः। निर्विशेषभावाद् वा-यदेव मतिज्ञानम्, तदेव भावश्रुतमिति प्रतिपादनादेकमेव किञ्चित् स्यात्, नोभयमिति भावः। अस्तु विशेषाभाव इति चेद् / नैवम् / कुतः? इत्याह- स्वलक्षणावरणभेदात्। कथंभूतात्? इत्याह- पूर्वोक्तलक्षणात् 'किह व सुर्य होइ मई सलक्खणावरणभेयाओ' इति पूर्वाभिहितगाथावयवोक्तस्वरूपात्। (प्रश्न-) क्या उनकी यह मान्यता समीचीन है? उत्तर दिया- नहीं समीचीन है- (दृष्टान्तोऽयम्)। वल्क और शुम्ब सम्बन्धी यह दृष्टान्त जिस तरह उनके द्वारा रखा गया है, अर्थात् प्रकृत विषय से जोड़ कर प्रस्तुत किया है, वह युक्ति (की कसौटी) पर ठहर नहीं पाता। हां, हम जैसा चाहते हैं, उस (आगे) कहे जाने वाले प्रकार से, यह दृष्टान्त भी युक्तिसंगत सिद्ध हो सकेगा- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 154 // उक्त दृष्टान्त क्यों नहीं युक्तिसंगत ठहरता? इस प्रश्न के उत्तर में कह रहे हैं (155) भावसुयाभावाओ संकरओ निव्विसेसभावाओ। पुव्वुत्तलक्खणाओ सलक्खणावरणभेयाओ || [(गाथा-अर्थः) भावश्रुत का अभाव, सांकर्य दोष, दोनों में भेद समाप्त होना, पूर्वोक्तलक्षण वाले स्वकीय आवरण सम्बन्धी भेद का होना- इन सब कारणों से (उक्त दृष्टान्त युक्तिसंगत नहीं ठहरता)।] व्याख्याः - (गाथा में आए ‘भावश्रुत-अभाव' आदि अनेक हेतु दिए गए हैं, उनमें प्रत्येक हेतु के साथ, पूर्व गाथा में आया) 'यह दृष्टान्त युक्तियुक्त नहीं ठहरता' यह कथन सर्वत्र (जोड़ना चाहिए, क्योंकि यही प्रत्येक हेतु द्वारा प्रतिपादित किया जाने वाला) साध्य है। (भावश्रुताभावात्-) मति के बाद शब्दमात्र के ही सद्भाव मानने से भावश्रुत के अभाव का प्रसंग (संकट) आ जाएगा। (इसलिए उक्त दृष्टान्त युक्तियुक्त नहीं ठहरता)। (शंकाकार-) केवल शब्द को नहीं, किन्तु मतिसहित शब्द को भावश्रुत मान लेंगे (तब तो उक्त आपत्ति नहीं होगी)। (उत्तर-) यह भी युक्तियुक्त नहीं है। (प्रश्न-) क्यों? ----- विशेषावश्यक भाष्य --------233 E Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिकम्, श्रूयत इति श्रुतम्, इत्यादिकं मति-श्रुतयोर्यत् स्वकीयं स्वकीयं लक्षणम्, आवारकं च कर्म, तयोर्भेदात् पूर्वाभिहितस्वरूपाद् मतिश्रुतयोर्निर्विशेषभावो न युज्यते। यदि हि तयोर्निर्विशेषता-एकत्वं स्यात्, तदा लक्षणभेदः, आवरणभेदश्च पूर्वोक्तस्वरूपो न स्यादिति भावः॥ इति गाथार्थः // 155 // अथ द्रव्य-भावश्रुतयोरनेन दृष्टान्तेन भेदः प्रतिपाद्यते, सोऽपि न युक्त इति दर्शयन्नाह कप्पेज्जेज्ज व सो भाव-दव्वसुत्तेसु तेसु वि न जुत्तो। मइ-सुयभेयावसरे जम्हा किं सुयविसेसेणं? // 156 // [संस्कृतच्छायाः- कल्प्यते वा स भाव-द्रव्यश्रुतयोस्तयोरपि न युक्तः। मतिश्रुतभेदावसरे यस्मात् किं श्रुतविशेषेण // ] (उत्तर) (इसलिए कि तब दूसरा दोष आ जाएगा, वह है-) (संकरतः) तब मति व श्रुत में संकर यानी सांकर्य व मिश्रण रूप दोष आ जाएगा। (फलस्वरूप) (निर्विशेषभावात्-) जो मतिज्ञान है, वही भावश्रुत है- ऐसा मानने से कोई एक ही तत्त्व रह जाएगा, दोनों की स्थिति नहीं रहेगी- यह तात्पर्य है। (शंकाकार) दोनों निर्विशेष हो जाएं, अर्थात् दोनों एक हो जाएं तो क्या हानि है? (उत्तर-) यह भी मानना युक्तियुक्त नहीं है। (प्रश्न-) क्यों? उत्तर है (-स्वलक्षणावरणभेदात्)- (दोनों ज्ञानों का पृथक्पृथक् लक्षण- निर्धारक पृथक्-पृथक् आवरण है, इसलिए दोनों का एक हो जाना आगमविरुद्ध होगा) स्वलक्षण-आवरण सम्बन्धी भेद कैसा है? इसके समाधानार्थ (विशेषण रूप में) कहा(पूर्वोक्तलक्षणात्) / अर्थात् पूर्वोक्त गाथा (सं.135) में जिनका पृथक्-पृथक् स्वरूप कहा गया है, उसके कारण (दोनों का एक होना युक्तियुक्त नहीं)। ___ तात्पर्य यह है कि जो अभिनिबोध में आए, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है और जो सुना जाय * वह श्रुत है- इत्यादि रूप में दोनों में से प्रत्येक ज्ञान का अपना-अपना लक्षण है, इसी तरह दोनों का पृथक्-पृथक् आवरक कर्म भी है, इस प्रकार पूर्व में कहे गए 'भेद' वाले मति व श्रुत में निर्विशेषता यानी अन्तर मिट जाना (कथमपि) युक्तियुक्त नहीं है। यदि दोनों में अन्तर नहीं रहेगा तो उनका जो लक्षण-भेद व आवरण-भेद कहा गया है, वह नहीं रहेगा (निरस्त हो जाएगा) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१५५॥ अब, उक्त दृष्टान्त के आधार पर द्रव्यश्रुत व भावश्रुत के परस्पर भेद का जो प्रतिपादन किया जाए, तो वह भी युक्तिसंगत नहीं होगा- इसे बता रहे हैं (156) कप्पेज्जेज्ज व सो भाव-दव्वसुत्तेसु तेसु वि न जुत्तो / मइ-सुयभेयावसरे जम्हा किं सुयविसेसेणं? // [(गाथा-अर्थः) भावश्रुत व द्रव्यश्रुत में यदि वह भेद प्रतिपादित किया जाय तो वह भी युक्तिसंगत नहीं होगा। क्योंकि मति व श्रुत के परस्पर-भेद के प्रसंग में श्रुत-संबंधी भेद का क्या प्रयोजन है? (अर्थात् निरर्थक है।)] VO 234 -- ----- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि वा भाव-द्रव्यश्रुतयोः सः-वल्क-शुम्बोदाहरणाद्भेदः कल्प्येत- भावश्रुतं हि कारणत्वात् किल वल्कसदृशं, शब्दलक्षणं तु द्रव्यश्रुतं कार्यत्वात् शुम्बप्रतिमम्, इत्येवमनयोर्भेद इध्येतेति भावः। तयोरप्यसौ न युक्तः। कुतः? इत्याह- यस्माद् मतिश्रुतयोर्भेदाभिधानेऽवसरप्राप्ते 'किं सुयविसेसेणं ति'। श्रुतयोर्द्रव्य-भावश्रुतलक्षणयोर्विशेषो भेदः श्रुतविशेषस्तेनाऽभिहितेन किं? - असंबद्धत्वाद् न किञ्चिदित्यर्थः // इति गाथार्थः॥१५६ // अथाऽन्यथा पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राह असुयक्खरपरिणामा व जा मई वग्गकप्पणा तम्मि। दव्वसुयं सुम्बसमं किं पुण तेसिं विसेसेणं? // 157 // [संस्कृतच्छाया:- अश्रुताक्षरपरिणामा वा या मतिर्वल्ककल्पना तस्याम्। द्रव्यश्रुतं शुम्बसमं किं पुनस्तयोर्विशेषेण? // ] श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामो यस्यां सा श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामा न तथा- श्रुतानुसारित्वरहितशब्दमात्रपरिणामाऽन्विता या मतिरित्यर्थः, तस्यां वा वल्ककल्पना क्रियते, तज्जनितशब्दरूपं तु द्रव्यश्रुतं शुम्बसदृशम्, अतस्तयोः प्रस्तुतोदाहरणाद् भेदो युक्तियुक्तो भविष्यति। व्याख्या:- यदि वल्क (छाल) व शुम्ब (गूंथी हुई दरी आदि) के उदाहरण के आधार पर भावश्रुत व द्रव्यश्रुत में भेद प्रकल्पित किया जाय, अर्थात् भावश्रुत कारण होने से 'वल्क' है और शब्दात्मक द्रव्यश्रुत कार्य होने से 'शुम्ब' है- इस प्रकार दोनों में भेद बताना अभीष्ट हो तो वह भी युक्तिसंगत नहीं है.। (प्रश्न-) क्यों? (उत्तर-) इसलिए कि यहां मति-श्रुत में परस्पर भेद का प्रसंग चल रहा है, उसमें (किं श्रुतविशेषेण?) श्रुत का यानी भावश्रुत व द्रव्यश्रुत की परस्पर विशेषता या भिन्नता के निरूपण से क्या लाभ है? अर्थात् विषय से असम्बद्ध होने के कारण उसका कोई लाभ नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 156 // अब, इसी संदर्भ में किसी पूर्वपक्षी के अभिप्राय (अर्थात् सम्भावित प्रश्न-) को शंका के रूप में रख कर भाष्यकार अपना उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं (157) असुयक्खरपरिणामा व जा मई वग्गकप्पणा तम्मि। दव्वसुयं सुम्बसमं किं पुण तेसिं विसेसेणं? // [(गाथा-अर्थः) अथवा अश्रुताक्षर परिणाम वाली मति 'वल्क' के समान है और (शब्दात्मक) द्रव्यश्रुत शुम्ब के समान है- ऐसा कहा जाय, तो भी उन (दोनों मति व द्रव्यश्रुत) में भेद (के विचार) से क्या लाभ है? (अर्थात् वैसा करना भी निष्प्रयोजन होने से त्याज्य है।)] व्याख्याः - (शंकाकार का कथन-) श्रुत के अनुसार अक्षर-परिणाम जिसमें न हो, अर्थात् श्रुतानुसारिता से रहित, मात्र शब्दपरिणाम वाली जो मति, उसमें 'वल्क' की कल्पना की जाय, और उससे उत्पन्न शब्दरूप जो द्रव्यश्रुत है, वह शुम्ब के समान माना जाय, इस तरह दोनों में प्रस्तुत दृष्टान्त के द्वारा भेद बताया जाय तो क्या हानि है? यहां यह जान लें कि मति का विशेषण ----- विशेषावश्यक भाष्य --- -- 235 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामा मति वश्रुतमेव स्यात्, अतः पूर्वस्माद् न विशिष्येत, इत्यश्रुताक्षरपरिणामित्वं विशेषणम्। सा ,च पर्युदासाश्रयणादश्रुतानुसारिणा शब्देनैवाऽन्विता गृह्यते, न तु शब्दपरिणामरहिताऽवग्रहरूपा, तस्याः (अवग्रहरूपाया मत्याः) शब्दजनकत्वाभावेनाऽनन्तरं शुम्बसदृशद्रव्यश्रुताभावादिति // अत्रोत्तरमाह- 'किं पुण तेसिं विसेसेणं ति'। किं पुनस्तयोर्यथोक्तमति-द्रव्यश्रुतयोर्विशेषेण भेदेनोक्तेन? -अप्रस्तुतत्वाद् न किञ्चिदित्यर्थः। श्रुतज्ञानेनैव सहाऽत्र मतेर्भेदो विचारयितुं प्रक्रान्तः, इत्यतः किं द्रव्यश्रुतेन सह तच्चिन्तया? इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१५७॥ एतदेव भावयन्नाह इहइं जेणाहिकओ नाणविसेसो न दव्व-भावाणं। न य दव्व-भावमेत्ते वि जुज्जए सोऽसमंजसओ॥१५८॥ [संस्कृतच्छाया:- इह येनाधिकृतो ज्ञानविशेषो न द्रव्यभावयोः। न च द्रव्यभावमात्रेऽपि युज्यते सोऽसमञ्जसतः॥] 'अश्रुताक्षरपरिणाम वाली' जो दिया गया है, उसके पीछे कारण है। वह यह है- यदि यह विशेषण न दिया जाय तो श्रुतानुसारी अक्षर परिणाम वाला ज्ञान तो भावश्रुत होगा, तब इस कथन में और पूर्व में कहे गए कथन से कुछ अन्तर नहीं रह जाता, अतः 'अश्रुतानुसारी अक्षरपरिणामवाली' यह विशेषण दिया गया। यहां 'अ' निषेध पर्युदास निषेध (तद्भिन्न-तत्सदृशग्राही) का वाचक है, इस आधार पर अश्रुतानुसारी शब्द से युक्त मति का तो ग्रहण होता है, किन्तु शब्दपरिणामरहित अवग्रहरूप मति का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि अवग्रहात्मक मति शब्दजनक नहीं होती, अतः अनन्तर काल में शुम्ब समान द्रव्यश्रत (का भी उत्पन्न होना. वहां संगत) नहीं होता। पूर्वोक्त शंका का उत्तर यहीं (इसी गाथा में) दे रहे हैं- (किं पुनः तयोः)। इन दोनोंतथाकथित 'मति' व 'द्रव्यश्रुत' में विशेष या भेद के निरूपण का यहां क्या अवसर या प्रयोजन है? अर्थात् अप्रासंगिक होने से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि श्रुतज्ञान के साथ मतिज्ञान के भेद का यह प्रकरण चल रहा है, अतः द्रव्यश्रुत के साथ मतिज्ञान के भेद का चिन्तन यानी विचार करने से क्या लाभ है? यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 157 // . इसी (पूर्वोक्त) बात को ही (अन्य प्रकार से) समझाते हुए कह रहे हैं (158) इहइं जेणाहिकओ नाणविसेसो न दव्व-भावाणं / न य दव्व-भावमेत्ते वि जुज्जए सोऽसमंजसओ || [(गाथा-अर्थः) इस प्रक्रम में चूंकि ज्ञानों (मति व श्रुत -इन) के भेद का विचार चल रहा है, न कि द्रव्यश्रुत व भावश्रुत (के भेद) का / और मात्र द्रव्य व भाव (श्रुत) में भी उक्त दृष्टान्त युक्तियुक्त नहीं ठहरता, क्योंकि तब असमंजस (दृष्टांत व दार्टान्तिक के वैषम्य) की स्थिति बनती है।] Na 236 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ....----- Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहास्मिन् प्रक्रमे येन कारणेन ज्ञानयोरेव मति-श्रुतलक्षणयोर्विशेषो भेदोऽधिकृतो न तु द्रव्य-भावयोर्मतिज्ञान-द्रव्यश्रुतलक्षणयोः, इत्यतः किं तद्भेदाऽभिधानेन? इति।नच यथोक्तद्रव्य-भावयोरप्यसौ युज्यते। कुतः? इत्याह- असमञ्जसतो दृष्टान्त-दान्तिकयो(सदृश्यात्॥ इति गाथार्थः॥१५८॥ तथाहि जह वग्गा सुबत्तणमुवेंति सुंबं च तं तओऽणण्णं। न मई तहा धणित्तणमुवेइ जं जीवभावो सा॥१५९॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा वल्काः शुम्बत्वमुपयान्ति शुम्बं च तत् ततोऽनन्यत्। न मतिस्तथा ध्वनित्वमुपैति यज्जीवभावः सः॥] यथा वल्काः शुम्बत्वमुपयान्ति-आत्माऽव्यतिरिक्तशुम्बपरिणामापन्नाः शुम्बमित्युच्यन्ते, न तु शुम्बाद् व्यतिरिक्ताः, तदपि च शुम्बं तेभ्यो वल्केभ्योऽनन्यरूपमव्यतिरिक्तम्, न तथा मतिर्ध्वनित्वमुपैति, यद् यस्मात् कारणात् सा मतिराभिनिबोधिकज्ञानत्वेन जीवभावो जीवपरिणामः, शब्दस्तु मूर्तत्वाद् न जीवभावः, इत्यतः कथममूर्तपरिणामा मतिर्मूर्तध्वनिपरिणाममुपगच्छेत्? अमूर्तस्य मूर्तपरिणामविरोधात्। तस्माद् दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोर्वैषम्यादिदमपि व्याख्यानमुपेक्षणीयम् // इति गाथार्थः॥ 159 // ___ व्याख्याः - यहां जो प्रकरण चल रहा है, उसमें चूंकि मति व श्रुत- इन दो ज्ञानों के भेद या वैशिष्ट्य का निरूपण प्रसंगोचित है। मतिज्ञान व द्रव्यश्रुत रूप में द्रव्य व भाव (के भेद) का प्रकरण यह नहीं है, इसलिए उनके भेद का निरूपण करने से क्या लाभ? (दूसरी बात यह कि) पूर्वोक्त द्रव्य व भाव में भी वह दृष्टांत सही नहीं ठहरता / क्यों? उत्तर है- असमंजसता के कारण, अर्थात् दृष्टान्त व दान्तिक के परस्पर-वैषम्य होने से (वह दृष्टान्त भी युक्तियुक्त नहीं ठहरता) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 158 // (दृष्टान्त व दार्शन्तिक की विषमता को समझाते हुए कह रहे हैं-) उदाहरणार्थ (159) जह वग्गा सुंबतणमुति सुंबं च तं तओऽणण्णं / न मई तहा धणित्तणमुवेइ जं जीवभावो सा॥ [(गाथा-अर्थः) जिस प्रकार वल्क (छाल) ही शुम्बरूपता को प्राप्त होती है, वह शुम्ब वल्क से भिन्न (कोई वस्तु) नहीं होता। किन्तु मति उस तरह (अनन्य रूप से) ध्वनिरूपता को प्राप्त नहीं करती, क्योंकि मति तो जीव का स्वभाव है (और ध्वनि पुद्गल का)।] व्याख्याः- जिस प्रकार वल्क (छाल) ही शुम्ब रूपता को प्राप्त करती है, अर्थात् वल्क ही अपने से अनन्य शुम्बपरिणाम को प्राप्त होकर 'शुम्ब' रूप से कहा जाता है, वह वल्क उस शुम्ब से कोई अलग वस्तु नहीं होती, और वह शुम्ब भी उन वल्कों से अनन्य होता है अर्थात् उससे अन्य पृथक् कोई वस्तु नहीं होता। किन्तु मति ज्ञान उस रूप में (अनन्य रूप में) ध्वनिरूपता को नहीं प्राप्त 0 ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 237 2 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः परवचनमाशङ्कय तस्यैव शिक्षणार्थमाह अह उवयारो कीरइ पभवइ अत्थंतरं पि जं जत्तो। तं तम्मयं ति भण्णइ, तो मइपुव्वं जओ भणियं // 16 // भावसुयं, नेण मई वग्गसमा सुबसरिसयं तं च / जं चिंतिऊण तया तो सुयपरिवाडिमणुसरइ॥ 161 // [संस्कृतच्छाया:- अथ उपचारः क्रियते प्रभवत्यर्थान्तरमपि यद् यस्मात् / तत् तन्मयमिति भण्यते, ततो मतिपूर्वं यतो भणितम्॥ भावश्रुतं तेन मतिर्वल्कसमा शुम्बसदृशं तच्च / यच्चिन्तयित्वा तया ततः श्रुतपरिपाटिमनुसरति॥] करता / चूंकि वह मतिज्ञान आभिनिबोधिकज्ञान रूप होता है और इस रूप में वह जीव का भाव या परिणाम ही है, किन्तु शब्द तो मूर्त होने से जीवरूप नहीं है, इसलिए अमूर्तपरिणाम वाला मतिज्ञान कैसे मूर्त ध्वनिपरिणाम को प्राप्त करेगा? क्योंकि अमूर्त का मूर्तपरिणाम प्राप्त करना विरुद्ध है / अतः दृष्टान्त व दान्तिक में वैषम्य होने से यह व्याख्यान भी उपेक्षणीय (महत्त्वहीन मानने लायक) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 159 // पुनः भाष्यकार (किसी पूर्वपक्षी के कथन को शंका के रूप में मानकर, उसको (प्रत्युत्तर द्वारा) सीख देने तथा उसके दोष को बता कर उसे सही मार्ग पर लाने) हेतु कह रहे हैं (160-161) अह उवयारो कीरइ पभवइ अत्यंतरं पि जं जत्तो। - तं तम्मयं ति भण्णइ, तो मइपुव्वं जओ भणियं // भावसुयं, तेण मई वग्गसमा शुबसरिसयं तं च / जं चिंतिऊण तया तो सुयपरिवाडिमणुसरइ // . [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्षी की ओर से समाधान-) यहां हम उपचार का आश्रयण लेते हैं। जो जिससे उत्पन्न होता है, वह (कार्य) अर्थान्तर होता हुआ भी (उपचार से) तन्मय (कारण रूप) कहा जाता है (अतः मतिज्ञान व ध्वनि परिणमन में उपचार से तन्मयता संगत की जा सकती है, इस तरह दृष्टान्त व दार्टान्तिकता की विषमता समाप्त हो जाती है)। (आचार्य की ओर से सुझावपरक प्रत्युत्तर-) चूंकि भावश्रुत को मतिपूर्वक कहा गया है, अतः मति को वल्क के समान तथा भावश्रुत को शुम्ब के समान मानें, क्योंकि वक्ता मति से सोच कर, श्रुतसम्बन्धी परम्परा का अनुसरण करता है। (अर्थात् उपचार का आश्रय लेने की अपेक्षा तो जिस प्रकार से हमने समझाया है, उस प्रकार से दृष्टान्त व दार्टान्तिक में सामञ्जस्य बिठाना अधिक उचित होगा।)] 238 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथोपचारः क्रियते- उपचारविधिराश्रीयते, ततश्चाऽर्थान्तरमपि यद् यस्माद् प्रभवति तत् तन्मयमिति भण्यते, यथा 'तदपथ्यमियन्तं विक्रियाविस्तरमुपगतम्', 'तदेकं वचनमेतावन्तं विपाकमापन्नम्' इत्यादि, ततश्चाऽतन्मयेऽपि ध्वनौ मतिगता ज्ञानमयतोपचर्यते। तथा च सति वल्क-शुम्बसादृश्येन मति-श्रुतयोरयं भेदः सिद्धो भवति // . एवमुक्ते आचार्यः सुहृद् भूत्वा परं शिक्षयति- 'तो मइपुव्वमित्यादि'। हन्त ! यधुपचारवादी भवान्, ततो मतिपूर्वं भावश्रुतं यस्मादागमे भणितं, तेन कारणेन मतिर्वल्कसमा, तच्च भावश्रुतं शुम्बसदृशम्, इत्येवं दृष्टान्तोपनयं कुरु, येनोपचारमन्तरेणाऽपि सर्वं सुस्थं भवति, यथा हि वल्काः शुम्बकारणं, तथा मतिरपि भावश्रुतस्य, यथा च शुम्बं वल्कानां कार्यं तथा भावश्रुतमपि मतेः। कुतः? इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तया मत्या चिन्तयित्वा ततः श्रुतपरिपाटिमनुसरति- वाच्यवाचकभावेन परोपदेशश्रुतग्रन्थयोजनां वस्तुनि करोति, तस्माद् मतिश्रुतयोर्वल्कशुम्बयोरिव कार्यकारणभावाद् भेदसिद्धिः, इत्येवं दृष्टान्तोपनयो युक्तिं संसहते, न तु परोक्तप्रकारेण // इति गाथाद्वयार्थः // 160 // 161 // व्याख्याः - (पूर्वपक्ष की ओर से कथन-) यहां हम 'उपचार' करते हैं, अर्थात् उपचार-विधि का सहारा लेते हैं। (उपचार विधि के अनुसार) जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, वह अर्थान्तर होते हुए भी उस रूप मानी जाती है (अर्थात् कार्य को कारणरूप माना जाता है), जैसे- “यह अपथ्य (अनुचित भोजन) इतनी विक्रिया (दुष्परिणाम रूप विकृति) को प्राप्त हो गया” या “एक ही वचन इतने बड़े विपाक (सुफल या कुफल) को प्राप्त हो गया" (इत्यादि कथन में उपचार से कारण व कार्य की अनन्यता कही जाती है यद्यपि वहां कारण से कार्य अर्थान्तर- अन्य पदार्थ होता है)। इस प्रकार, यद्यपि मति से ध्वनि तन्मय (अनन्य) रूप नहीं है, तथापि ध्वनि में मतिसम्बन्धी ज्ञान रूपता का * उपचार किया जाता है, और ऐसा स्वीकार करने पर वल्क व शुम्ब की तरह ही मति व श्रुत में भेद सिद्ध हो जाता है। उपर्युक्त पूर्वपक्षी कथन के प्रत्युत्तर में आचार्य मित्र-भाव से उसे सीख दे रहे हैं (ततो मतिपूर्वम्)। भाई! आप उपचारवादी क्यों हो रहे हो? (बिना उपचार के भी संगति क्यों नहीं बिठाते? देखो-) आगम में चूंकि मतिपूर्वक भावश्रुत का सद्भाव कहा है, इसलिए मति तो हुई वल्क समान, भावश्रुत हुआ शुम्ब-समान, इस तरह दृष्टान्त की संगति बिठाओ, क्योंकि उपचार (जैसी गौरवपूर्ण कल्पना) के बिना भी सब कुछ ठीक-ठाक हो जाता है, उदाहरणार्थ- जैसे वल्क शुम्ब (कार्य) का कारण है, वैसे ही मति भी भावश्रुत ज्ञान की कारण है, और जैसे वल्क का कार्य शुम्ब है, वैसे ही मति का कार्य भावश्रुत है, कैसे? उत्तर है- (यत् चिन्तयित्वा) चूंकि उस मति से चिन्तन करता है, उसके बाद, श्रुत की परिपाटी (सरणी) का अनुसरण करता है- अर्थात् वाच्यवाचक भाव रूप में परोपदेश या श्रुतग्रन्थ का वस्तु के साथ नियोजन करता है, इस तरह वल्क व शुम्ब की तरह ही मति व श्रुत में कार्यकारणभाव होने से परस्पर भेद की सिद्धि हो सकती है, और इस रीति से (वल्क व शुम्ब के) दृष्टान्त का उपनय (दार्टान्तिक में घटित किया जाना) युक्तियुक्त होता है, न कि पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत रीति से // यह दोनों गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 160-161 // Mi ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------239 AM Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं वल्क-शुम्बोदाहरणादप्यभिहितो मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं त्वक्षराऽनक्षरभेदात् तमभिधित्सुः पराभिप्राय तावदुपन्यस्यत्राह अन्ने अणक्खरऽक्खरविसेसओ मइ-सुयाई भिंदंति। जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // 162 // [संस्कृतच्छाया:- अन्ये अनक्षर-अक्षरविशेषतो मतिश्रुते भिन्दन्ति / यत् मतिज्ञानमनक्षरमक्षरमितरच्च श्रुतज्ञानम्॥] अन्ये केचनापि सूरयोऽनक्षराऽक्षरवद्विशेषतो मति-श्रुते भिन्दन्ति, यद् यस्मात् किल मतिज्ञानमनक्षरम्, श्रुतज्ञानं त्वक्षरवद् भवति, इतरच्चाऽनक्षरवदुच्छ्वसितादीत्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥१६२॥ अत्राचार्यो दूषणमाह जइ मइरणक्खरच्चिय भवेज नेहादओ निरभिलप्पे। थाणु-पुरिसाइपजायविवेगो किह णु होज्जाहि?॥१६३॥ (मति अनक्षर भी, साक्षर भी) इस प्रकार, वल्क व शुम्ब के उदाहरण के आधार पर मति च श्रुत का भेद बताया गया, अब अक्षर व अनक्षर के भेद के आधार पर उक्त भेद का कथन करना चाहते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में किसी अन्य व्याख्याता विद्वानों के अभिप्राय को प्रस्तुत करने हेतु भाष्यकार अग्रिम गाथा कह रहे हैं (162) अन्ने अणक्खरऽक्खरविसेसओ मइ-सुयाइं भिंदंति। जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // [(गाथा-अर्थः) अन्य (कुछ) विद्वान् अनक्षर व अक्षर (युक्त)- इन दो भेदों के आधार पर मति व श्रुत का भेद करते हैं, क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर है और दूसरा श्रुतज्ञान अक्षरयुक्त और (साथ ही) अनक्षर (भी) है।] ___ व्याख्याः - अन्य कुछ विद्वान् अनक्षर व अक्षरयुक्त -इस रूप में मति व श्रुत में भेद करते हैं क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर होता है, जबकि श्रुतज्ञान अक्षरयुक्त होता है और (साथ ही कभी) उच्छ्वासआदि के रूप में अनक्षरतुल्य भी होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 162 // पूर्वोक्त मान्यता में आचार्य दोष बता रहे हैं (163) जइ मइरणक्खरच्चिय भवेज नेहादओ निरभिलप्पे। थाणु-पुरिसाइपज्जायविवेगो किह णु होज्जाहि?॥ Mn 240 ----- -- विशेषावश्यक भाष्य ------- Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- यदि मतिरनक्षरैव भवेत् नेहादयो निरभिलाप्ये / स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेकः कथं नु भवेत्॥] यदि हन्त! मतिरनक्षरव स्यात्- अक्षराभिलापरहितैव भवताऽभ्युपगम्यते, तर्हि निरभिलाप्येऽप्रतिभासमानाभिलापे स्थाण्वादिके वस्तुनि ईहादयो न प्रवर्तेरन्। ततः किम्?, इत्युच्यते- तस्यां मतावनक्षरत्वेन स्थाण्वादिविकल्पाभावात्, 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्यादिपर्यायाणां वस्तुधर्माणां विवेको वितर्कोऽन्वय-व्यतिरेकादिना परिच्छेदो न स्यात्, तथाहि- यदनक्षरं ज्ञानं न तत्र स्थाणुपुरुषपर्यायादिविवेकः, यथाऽवग्रह, तथा चेहादयः, तस्मात् तेष्वपि नासौ प्राप्नोति // इति गाथार्थः॥१६३॥ अथ विभ्रान्तस्य परस्योत्तरमाह सुयनिस्सियवयणाओ अह सो सुयओ मओ न बुद्धीओ। जइ सो सुयवावारो तओ किमन्नं मइन्नाणं? // 164 // [संस्कृतच्छाया:- श्रुतनिश्रितवचनादथाऽसौ श्रुततो मतो न बुद्धेः। यदि स श्रुतव्यापारः ततः किमन्यद् मतिज्ञानम्॥] [(गाथा-अर्थः) यदि मति निरक्षर है तो निरभिलाप्य (शब्दोल्लेखरहित मति) होने से उस में ईहा आदि नहीं हो पाएंगे और तब स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष में विवेक (अन्तर) किस प्रकार (निर्णीत) हो पाएगा?] - व्याख्याः - (दया के पात्र!) यदि आप मति को अनक्षर यानी अक्षरस्फुरण से रहित ही मान रहे हैं तो निरभिलाप्य-जिसमें अभिलाप प्रतिभासमान नहीं होता, ऐसे मतिज्ञान में 'ईहा' आदि (भेद या क्रम) नहीं हो पाएंगें (शब्दोल्लेख वाले ईहादि को मतिज्ञान के अन्तर्गत कैसे मान सकेंगे, क्योंकि मतिज्ञान को तो निरक्षर ही मान रहे हैं)। इससे क्या (क्षति है)? उत्तर है- मति के अनक्षर होने से 'स्थाणु' आदि विकल्पों का अभाव मानना पड़ेगा, और तब 'यह स्थाणु है या पुरुष है? इत्यादि रूप वस्तुधर्मात्मक पर्यायों का विवेक- यानी अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर वितर्क होकर निर्णय- नहीं होगा। क्योंकि जो अनक्षर ज्ञान है, वहां स्थाणु व पुरुष पर्याय आदि का विवेक नहीं हो सकता, जिस प्रकार अवग्रह में (उक्त विवेक नहीं होता), ईहा आदि भी अनक्षर ही हैं, अतः उनमें भी उक्त विवेक नहीं हो पाएगा.॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 163 // - अब (सम्भावित समाधान प्रस्तुत करने वाले) विभ्रान्त (मति-विबम से ग्रस्त) पूर्वपक्षी को लक्ष्य कर आचार्य प्रत्युत्तर दे रहे हैं (164) सुयनिस्सियवयणाओ अह सो सुयओ मओ न बुद्धीओ। जइ सो सुयवावारो तओ कि मन्नं मइन्नाणं? // [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत समाधान-) श्रुतनिश्रित भाषण रूप श्रुत से वह (विवेक) होता है, न कि (अनक्षर) मति से। (ऐसा मान लें तब तो कोई दोष नहीं।) (उत्तर-) यदि वह (विवेक) श्रुतव्यापार है तो (सिवाय अवग्रह के) मतिज्ञान और क्या रहा? (अर्थात् ईहा आदि रूपों में मतिज्ञान के अस्तित्त्व की ही समाप्ति हो जाएगी।)] ------ विशेषावश्यक भाष्य --------241 2 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमे मतिज्ञानं द्विधा प्रोक्तम्- श्रुतनिश्रितमवग्रहेहादिचतुष्कम्, अश्रुतनिश्रितं चौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम्। ततश्च सूरिरित्थं / पराभिप्रायमाशङ्कते- अथैवं परो ब्रूयात्- आगमे श्रुतनिश्रितत्वेनापि मतिज्ञानस्य भणनात् श्रुतात् श्रुततोऽक्षरात्मकादसौ स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेको मतः, न बुद्धेर्न मतेः सकाशात्, तस्याः स्वयमनक्षररूपत्वात्। अत्रोत्तरमाह- 'जइ सो इत्यादि'। यदि हन्त! स स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकः श्रुतव्यापारः, तीवग्रहं मुक्त्वा किमन्यद् मतिज्ञानम्? न किञ्चिदित्यर्थः। यदि स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकोऽक्षरात्मकत्वात् श्रुतव्यापार इष्यते, तदेहाऽपायादयो मतिभेदाः सर्वेऽप्यक्षरात्मकत्वात् श्रुतत्वमापन्नाः, इत्यतोऽक्षराऽभिलापरहितमवग्रहं मुक्त्वा शेषस्येहादिभेदभिन्नस्य सर्वस्याऽपि मतिज्ञानस्याऽभावप्रसङ्ग इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१६४॥ अथाऽन्यथा परस्य वचनमाशङ्कय दूषयितुमाह अह सुयओ वि विवेगं कुणओ न तयं सुयं सुयं नत्थि। जो जो सुयवावारो अन्नो वि तओ मई जम्हा॥१६५॥ .. व्याख्याः- आगम में मतिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है- श्रुतनिश्रित, जैसे ईहा आदि चार, तथा अश्रुतनिश्रित, जैसे औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां। अब आचार्य (भाष्यकार) (उक्त मति-भेद के आधार पर) पूर्वपक्षी की ओर से संभावित या अभिप्रेत आशंका को ध्यान में रखकर कह रहे हैं- यदि पूर्वपक्षी इस प्रकार कहे कि आगम में तो मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित भी कहा है, तो श्रुत से यानी अक्षरात्मक (से निश्रित) मतिज्ञान से स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय का विवेक होना मान लेते हैं, न कि बुद्धि यानी मति से, क्योंकि वह तो अनक्षर रूप है। (इस प्रकार पूर्व गाथा में दिया गया दोष दूर हो जाता है।) उक्त आशंका का प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (यदि सः)। अरे दया के पात्र! (अर्थात् तुम्हारे अज्ञान पर तरस आती है!) स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय सम्बन्धी विवेक को यदि श्रुतव्यापार के रूप में मान रहे हो, तब तो अवग्रह से अतिरिक्त कुछ और मतिज्ञान क्या रहा? अर्थात् कुछ भी नहीं रहा। तात्पर्य यह है कि स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय सम्बन्धी विवेक अक्षरात्मक है, इसलिए उसे श्रुत का व्यापार स्वीकार कर रहे हैं, तब तो ईहा, अपाय आदि सभी मति-भेदों को भी अक्षरात्मक होने से 'श्रुत' रूप मानेंगे, और ऐसी स्थिति में अक्षराभिलाप रहित मात्र अवग्रह (तो मतिज्ञान रहेगा, उक्त) के अतिरिक्त ईहादि भेद युक्त मतिज्ञान का अभाव हो जाएगा || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 164 // अब भाष्यकार पूर्वपक्षी के कथन में अन्य प्रकार से भी दोष दिखा रहे हैं - (165) अह सुयओ वि विवेगं कुणओ न तयं सुयं सुयं नत्थि। जो जो सुयवावारो अन्नो वि तओ मई जम्हा // Ma242-------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-अथ श्रुततोऽपि विवेकं कुर्वतो न तत् श्रुतं श्रुतं नास्ति। यो यः श्रुतव्यापारः अन्योऽपि सको मतिर्यस्मात् // ] - अथ श्रुतादपि स्थाणु-पुरुषादिविवेकं कुर्वतः प्रमातुर्न तत् श्रुतम्, किन्तु मत्यभावभीत्या मतित्वेनाऽभ्युपगयम्ते, हन्त ! तकत्र संधिसतोऽन्यतः प्रच्यवते, यत एवं सति श्रुतं क्वचिदपि नास्ति- श्रुताभावः प्राप्नोतीत्यर्थः। कुतः? इत्याह- यो पसरणकरणादिप्रतिपादनलक्षणोऽन्योऽपि श्रुतस्याऽऽचारादेर्व्यापारः सकोऽसौ यस्माद् मतिज्ञानमेव, अक्षरात्मकत्वात्, स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेकवत् // इति गाथार्थः॥१६५॥ अथ स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेको मतिश्च, श्रुतं च भविष्यति, अतो नैकस्याऽप्यभावप्रसङ्ग इत्याह मइकाले वि जइ सुयं तो जुगवं मइ-सुओवओगा ते। अह नेवं एगयरं पवज्जओ जुज्जए न सुयं // 166 // . .. [(गाथा-अर्थः) और यदि 'श्रुत' से विवेक करने वाले प्रमाता के 'श्रुत' को 'श्रुत' नहीं (मानकर, मति) मानते हों, तब इस रीति से जो-जो अन्य भी श्रुतव्यापार हैं, वे ‘मति' रूप हो जाएंगे। __व्याख्याः- अब (पूर्वपक्षी ऐसा यदि कहे कि) श्रुत से स्थाणु-पुरुष आदि का विवेक तो होता है, किन्तु ज्ञाता का वह श्रुत नहीं है, अपितु, ‘मति' रूप ही है। (आचार्य का कथन है-) ऐसा जो तुम मान रहे हो, वह इसलिए कि न मानने पर मति का अभाव हो जाएगा। अरे दया के पात्र! तब एक जगह का समाधान करना चाहते हो तो दूसरी जगह (दोष आ जाने के संकट से ग्रस्त हो जाते हो और सिद्धान्त से) च्युत (पतित, संकटग्रस्त) हो जाते हो / क्योंकि (उस विवेक को भी मति मानने पर) श्रुत तो कहीं भी नहीं रहेगा, अर्थात् श्रुत का अभाव हो जाएगा। कैसे? उत्तर दिया- तब फिर आचार सम्बन्धी चरण-करण आदि का प्रतिपादन जो श्रृत का व्यापार माना जाता है. वह भी उसी रीति से अक्षरात्मक होने से, स्थाणुपुरुषादि पर्याय-विवेक की तरह ही, मतिज्ञान ही होने लगेगा (इस तरह, एक बिगड़े काम को आपने ठीक किया तो दूसरा काम बिगाड़ लिया) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 165 // स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय का विवेक ‘मति' भी है और 'श्रुत' भी, अतः उन दोनों में से किसी के भी अभाव का प्रसंग नहीं आएगा- इस (पूर्वपक्षी की ओर से संभावित समाधान) को दृष्टि में रख कर कह रहे है (166) मइकाले वि जइ सुयं तो जुगवं मइ-सुओवओगा ते। अह नेवं एगयरं पवज्जओ जुज्जए न सुयं // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------243 FREE Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-मतिकालेऽपि यदि श्रुतं ततो युगपद् मतिश्रुतोपयोगौ ते। अथ नैवमेकतरं प्रपद्यमानस्य युज्यते न श्रुतम्॥] स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकलक्षणे मतिकालेऽपि यदि श्रुतव्यापार इष्यते, ततो युगपदेव मति-श्रुतोपयोगौ ते तव प्रसज्येते, न चैतद् युक्तम्, समकालं ज्ञानद्वयोपयोगस्य निषिद्धत्वात्। अथैतद्दोषभयाद् नैवमुपयोगद्वयं युगपदभ्युपगभ्यते, तइँकतरं प्रतिपद्यमानस्यस्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेककाले मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं वेच्छतो भवत इत्यर्थः, किम्? इत्याह- 'जुज्जए न सुयं ति'। श्रुतमिह प्रतिपत्तुं न युज्यते, किन्तु मतिज्ञानमेव। इदमुक्तं भवति- 'सावकाशाऽनवकाशयोरनवकाशो विधिर्बलवान्' इति न्यायादन्यत्राऽनवकाशं मतिज्ञानमेवैकं तवैकतरं प्रतिपद्यमानस्येह प्रतिपत्तुं युज्यते, न तु श्रुतम्, तस्याऽन्यत्र श्रुतानुसारिण्याचारादिज्ञानविशेषे सावकाशत्वात्। एवं च सति स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेको मतेरेव, न तु श्रुतात्, स चाऽक्षराभिलापसमनुगत एव, इति नैकान्तेन मतिज्ञानमनक्षरमिति भावः॥इति गाथार्थः // 166 // [(गाथा-अर्थः) मति के काल में श्रुत यदि मानते हो तो मति-श्रुत- इन दोनों उपयोगों को युगपद्भावी (समकालीन) मानना पड़ेगा (जो सिद्धान्तविरुद्ध है)। और जो इन दोनों में से एक का ही सद्भाव मानोगे तो फिर 'श्रुत' (का अस्तित्व) युक्तियुक्त नहीं ठहरेगा (अर्थात् उसका अभाव हो जाएगा)] व्याख्या:- स्थाणु व पुरुष आदि पर्यायों के विवेक रूप मतिज्ञान के समय भी यदि श्रुतव्यापार मान रहे हो तो तुम्हारे मत में, मति व श्रुत- इन दोनों उपयोगों की युगपद्भाविता (समानकालता) प्रसक्त होगी (माननी पड़ेगी), किन्तु ऐसा युक्तियुक्त नहीं होगा, क्योंकि (आगम में) दो ज्ञानों के एक समय होने का निषेध किया गया है। अब, इस दोष के भय से, (उससे बचने हेतु) दोनों उपयोगों का एक साथ होना नहीं मानते हो तो फिर दोनों में से किसी एक (के सद्भाव) को मानना पड़ेगाअर्थात् स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय सम्बन्धी विवेक के समय या तो मतिज्ञान मानना पड़ेगा या श्रुतज्ञान मानना पड़ेगा। तब क्या (दोष) होगा? इसे ही बता रहे हैं- (युज्यते न श्रुतम्)। तो श्रुत का सद्भाव मानना युक्तियुक्त नहीं होगा, किन्तु मतिज्ञान ही मानना ठीक रहेगा। तात्पर्य यह है- 'सावकाश व अनवकाश में जो विधि अनवकाश होती है, वह बलवान् होती है'- यह एक प्रसिद्ध न्याय (नीतिनिर्देशक नियम) है [यहां सावकाश का अर्थ है जो अपनी सार्थकता या उपयोगिता सिद्ध कर चुका है, इसके विपरीत अनवकाश या निरवकाश होता है।] जब इन दोनों में किसी एक को (ही) मानने का प्रसंग हो तो इस नियम के अनुसार, मतिज्ञान चूंकि अन्यत्र कहीं सावकाश नहीं है, अतः, वही (अर्थात् उसका ही अस्तित्व) युक्तियुक्त है, न कि श्रुतज्ञान, क्योंकि (श्रुतज्ञान तो) श्रुतानुसारी आचारशास्त्रादि सम्बन्धी विशेष ज्ञान में सावकाश है। फलस्वरूप, स्थाणुपुरुष आदि के पर्याय का विवेक 'मति' का ही कार्य है, न कि 'श्रुत' का। वह मति वहां अक्षरअभिलाप से युक्त ही है, अतः 'एकान्त रूप से मतिज्ञान अनक्षर ही है'- यह कथन ठीक नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 166 // Ma 244 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किश, अक्षरानुगतत्वमात्रमुपलभ्य स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेको भवता श्रृतनिश्रित उक्तः, एवं चातिप्रसङ्गः प्राप्नोतीति दर्शयति जइ सुयनिस्सियमक्खरमणुसरओ तेण मइचउक्कं पि। सुयनिस्सियमावन्नं तुह तं पि जमक्खरप्पभवं॥१६७॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि श्रुतनिश्रितमक्षरमनुसरतस्तेन मतिचतुष्कमपि। श्रुतनिश्रितमापन्नं तव तदपि यदक्षरप्रभवम् // ] यदि स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकविधानेनाऽक्षरमनुसरतः प्रमातुर्ज्ञानं श्रुतनिश्रितं भवता प्रोच्यते, तेन तात्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कमपि तव श्रुतनिश्रितमापन्नम्, यस्मात् तदप्यक्षरप्रभवं वर्णाऽऽलिङ्गितमित्यर्थः- तदपि हि नेहादिविरहेण जायते, ईहादयश्च न वर्णाभिलापमन्तरेण संभवन्ति। तस्माद् मतिचतुष्कमपि त्वदभिप्रायेण श्रुतनिश्रितमायातम्, न चैतदस्ति, आगमेऽश्रुतनिश्रितत्वेन तस्याऽभिधानात्। तस्माद् देवानांप्रियेणाऽद्यापि श्रुतनिश्रितस्य स्वरूपमेव नाऽवगम्यते, तत् किं वयं ब्रूमः? पति गावार्थः॥ 167 // . (श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित मति) ___और दूसरी बात, स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय के विवेक को, मात्र इस आधार पर कि वह अक्षरानुसारी है, आपने श्रुत-निश्रित कहा, किन्तु इस प्रकार तो अतिव्याप्ति दोष आएगा- इसी तथ्य को आगे की गाथा में भाष्यकार कह रहे हैं (167) जइ सुयनिस्सियमक्खरमणुसरओ तेण मइचउक्कं पि। सुयनिस्सियमावन्नं तुह तं पि जमक्खरप्पभवं // [(गाथा-अर्थः) यदि आप श्रुतानुसारी होने के आधार पर ज्ञान को श्रुतनिश्रित मानते हैं, तब तो (औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि) मति-चतुष्क भी आपके मत में श्रुतनिश्रित माना जाएगा, क्योंकि वह भी अक्षरप्रसूत है।] व्याख्याः- यदि स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय से सम्बन्धित विवेक के द्वारा प्रमाता का ज्ञान अक्षरानुसारी होने से श्रुतनिश्रित है- ऐसा आप मानते हैं, तब तो आपके मत में औत्पत्तिकी आदि चारों मतियां श्रुतनिश्रित होने लगेंगी, क्योंकि वह (मतिचतुष्क) भी ईहा आदि के अभाव में नहीं होता और ईहा आदि भी वर्णोच्चारण के बिना संभव नहीं होते, अतः वह (मतिचतुष्क) ज्ञान भी अक्षरप्रसूत अर्थात् वर्णसंयुक्त है। इस प्रकार मति-चतुष्क तुम्हारे मत में श्रुतनिश्रित हो जाता है, किन्तु ऐसा (कथमपि मान्य) नहीं, क्योंकि आगम में उस (मति-चतुष्क का) अश्रुतनिश्रित रूप में कथन किया गया है। अतः आप (देवानांप्रिय यानी) निरे मूर्ख ही हैं जो श्रुतनिश्रित के स्वरूप को ही नहीं समझ पाए हैं, इस (आपकी मूर्खता) पर हम आखिर क्या कहें? (न बोलना ही अच्छा है।) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 167 // ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 245 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं श्रुतनिश्रितवचनश्रवणमात्राद् विभ्रान्तस्तत्स्वरूपमजानानः परो युक्तिभिर्निराकृतोऽपि विलक्षीभूतः प्राह- . जइ तं सुएण न तओ जाणइ सुयनिस्सियं कहं भणियं?। जं सुयकओवयारं पुव्विं इण्डिं तयणवेक्खं // 168 // [संस्कृतच्छाया:- यदि तत् श्रुतेन न सको जानाति, श्रुतनिश्रितं कथं भणितम्। यत् श्रुतकृतोपचार पूर्वमिदानीं तदनपेक्षम्॥] यदि तं स्थाणु-पुरुषादिपर्यायसंघातं श्रुतेन न जानाति सकोऽसौ ज्ञानी, तर्हि श्रुतनिश्रितमेवावग्रहादिकं सूत्रे कथं केन. प्रकारेण भणितम्? -मतिः स्वयमनक्षरैव, यस्त्विहाऽक्षरोपलम्भः स यदि श्रुतनिश्रितो नेष्यते, तर्हि कथमन्यथाऽसौ घटिष्यते?। इति विस्मयभयाऽऽपूरितहदयस्य परस्याऽयं प्रश्न इति भावः॥ अत्रोच्यते- ननु भवानेव प्रष्टव्यो योऽसमीक्षितमित्थं प्रभाषते- योऽक्षरोपलम्भः स सर्वोऽपि श्रुतनिश्रयेति / अथ न ज्ञायते भवता, तर्हि वयमेव ब्रूमः, श्रूयताम्- 'जं सुयेत्यादि / श्रुतं द्विविधम्-परोपदेशः, आगमग्रन्थश्च / व्यवहारकालात् पूर्वं तेन श्रुतेन कृत इस प्रकार, 'श्रुतनिश्रित' मात्र इस वचन को सुनकर ही भ्रमित हो जाने वाले, और श्रुतनिश्रित के स्वरूप से अनभिज्ञ शंकाकार (पूर्वपक्षी) का यद्यपि युक्तिपूर्वक निराकरण किया जा चुका है, फिर भी निर्लज्ज होकर वह पुनः जो कहना चाह रहा है, उसे (भाष्यकार) प्रस्तुत कर उसका प्रत्युत्तर भी दे रहे हैं (168) जइ तं सुएण न तओ जाणइ सुयनिस्सियं कहं भणियं?। जं सुयकओवयारं पुल्लिं इण्हिं तयणवेक्खं // [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्षी) यदि ज्ञानी उस (उक्त विवेक) को श्रुत से नहीं जानता है तो फिर उसे श्रुतनिश्रित क्यों कहा गया? __(आचार्य का उत्तर-) (उसे श्रुतनिश्रित इसलिए कहा जाता है) क्योंकि पहले उस श्रुत द्वारा उस ज्ञान का संस्काराधान रूप उपकार किया गया है किन्तु अब वह उसकी अपेक्षा से रहित हो चुका है।] व्याख्याः- यदि वह ज्ञानी स्थाणु व पुरुष आदि पर्यायों (स्वरूपों) के विवेक को 'श्रुत' से नहीं जानता है, तब तो (आगम में) अवग्रहादिक (मतिज्ञान) को 'श्रुतनिश्रित' किस प्रकार से कहा गया? मति तो स्वयं अनक्षर ही है, वहां जो अक्षर-लाभ है उसे श्रुतनिश्रित नहीं माना जाय तो उसकी (अक्षरयुक्तता की) संगति कैसे घटित हो पाएगी? इस प्रकार विस्मय व भय से पूर्ण हृदय वाले पूर्वपक्षी की ओर से यह प्रश्न है- यह तात्पर्य है। यहां (पूर्वोक्त पूर्वपक्षी प्रश्न का उत्तर) कहा जा रहा है- पहले तो आपके कथन पर ही प्रश्नचिन्ह लगता है, क्योंकि आप बिना सोचे-विचारे ऐसा कह रहे हैं कि जो-जो अक्षर-लाभ है, वह May 246 --- -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकार: संस्काराधानरूपो यस्य तत् कृतश्रुतोपकारं, यज्ज्ञानमिदानीं तु व्यवहारकाले तस्य पूर्वप्रवृत्तस्य संस्काराधायकश्रुतस्याऽनपेक्षमेव प्रवर्तते तत् श्रुतनिश्रितमुच्यते, न त्वक्षराभिलापयुक्तत्वमात्रेणेति भावः // 168 // एतदेव भावयन्नाह पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं॥१६९॥ [संस्कृतच्छाया:- पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतेर्यत् सांप्रतं श्रुतातीतम्। तद् निश्रितमितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत्॥] व्यवहारकालात् पूर्वं यथोक्तरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यत् सांप्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षं ज्ञानमुपजायते तच्छु तनिश्रितमवग्रहादिकं सिद्धान्ते प्रतिपादितम् / इतरत् पुनर श्रुतनिश्रितम्, तच्चौत्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कं द्रष्टव्यम्, श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात् तस्य॥ सभी श्रुतनिश्रित है। आपको (अपनी ग़लती) यदि नहीं मालूम हो तो हम ही बता देते हैं, (ध्यान से) सुनें- (यत् श्रुतकृतोपकारम्) / श्रुत दो प्रकार का है- परोपदेश व आगमग्रन्थ / व्यवहार-काल से पूर्व, जिस (ज्ञान) का उस श्रुत से संस्कार-आधान रूप उपकार किया जा चुका हो, ऐसा ज्ञान, अब यानी व्यवहार-काल में जो पूर्वप्रवृत्त संस्कार-आधान करने वाले 'श्रुत' की अपेक्षा नहीं रखते हुए ही प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान 'श्रुतनिश्रित' कहलाता है, किन्तु मात्र इस आधार पर कि 'वह अक्षर-लाभ से युक्त है' वह ज्ञान श्रुतनिश्रित नहीं कहलाता- यह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 168 // - पूर्वोक्त कथन को ही (और अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से) आगे बढ़ाते हुए कह रहे हैं (169) पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं // [(गाथा-अर्थः) पूर्व में श्रुत से संस्कारित 'मति' वाला जो ज्ञान, वर्तमान में श्रुतातीत (श्रुतनिरपेक्ष) रूप में प्रवृत्त होता है, वह 'श्रुतनिश्रित' होता है, बाकी जो मतिचतुष्क (औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां) तो अश्रुतनिश्रित होता है।] व्याख्याः- व्यवहार-काल से पूर्व में पूर्वोक्त स्वरूप वाले श्रुत के द्वारा परिकर्मित अर्थात् संस्कारित मति वाले जिस साधु आदि का वर्तमान में जो श्रुतातीत यानी श्रुतनिरपेक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, उस अवग्रह आदि ज्ञान को आगम में श्रुतनिश्रित (कहकर) प्रतिपादित किया गया है। इससे अन्य-भिन्न ज्ञान अश्रुतनिश्रित है जो औत्पत्तिकी आदि मति-चतुष्टय है- ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि वही श्रुतसंस्कार की अपेक्षा नहीं रखते हुए सहज रूप से उत्पन्न होता है। Mi ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 247 र Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह- ननु 'भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। उभओलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥ [भरनिस्तरणसमर्था त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतप्रमाणा। उभयलोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः॥] ' इत्यादिवचनात् तत्रापि मतिचतुष्के वैनयिकी मतिः श्रुतनिश्रिता समस्ति / सत्यम्, किन्तु सकृच्छ्रुतनिश्रितत्वे सत्यपि बाहुल्यमङ्गीकृत्याऽश्रुतनिश्रितं तदुच्यत इत्यदोषः। तस्माद् यदुक्तम्- 'जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं' (यत् मतिज्ञानमनक्षरमितरं च श्रुतज्ञानम्) इति। तदयुक्तम्, मतेरनक्षरत्वे स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकाभावप्रसङ्गात्, श्रुतनिश्रितत्वस्य चाऽन्यथा समर्थितत्वादिति स्थितम्॥ इति गाथार्थः / / 169 // यद्यनक्षरा मतिर्न भवति, तर्हि 'लक्खणभेया हेऊफलभावओ' इत्यादिगाथायां प्रतिज्ञातोऽक्षराऽनक्षरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः कथं गमनीयः? इत्याह उभयं भावक्खरओ अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ। मइनाणं सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ॥१७०॥ यहां (शंकाकार ने) कहा- “कठिनातिकठिन कार्य को पूरा करने में समर्थ, त्रिवर्ग (धर्मअर्थ-काम) के (अर्जनादि के निरूपक) सूत्र व अर्थ के सार को ग्रहण करने वाली एवं उभयलोक सम्बन्धी फल को सम्पन्न कराने वाली विनय-उत्पन्न अर्थात् वैनयिकी बुद्धि होती है"- इस आगमवचन के द्वारा उक्त मति-चतुष्टय में वैनयिकी बुद्धि को श्रुतनिश्रित कहा गया है (किन्तु आप तो उसे अश्रुतनिश्रित बता रहे हैं) यह कैसे? (आचार्य का उत्तर-) आपका कहना सही है। किन्तु उसके एक बार श्रुतनिश्रित होने पर भी बहुलता की दृष्टि से (उसकी अश्रुतनिश्रितता को ध्यान में रखकर-) उसे अश्रुतनिश्रित कहा गया है- इसलिए हमारा कथन निर्दोष है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आपने (गाथा-162 के रूप में) जो यह कहा है कि “मतिज्ञान अनक्षर है, और श्रुतज्ञान तो अक्षरयुक्त है और अनक्षर भी है" यह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि मति को अनक्षर मानने पर उससे स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय सम्बन्धी विवेक नहीं हो पाएगा, और अन्य रीति से उसके श्रुतनिश्रितपने का समर्थन दृष्टिगोचर होता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 169 // (द्रव्याक्षर की अपेक्षा से मति व श्रुत में साक्षर व अनार का भेद) ___ यदि मति अनक्षर नहीं होती, तो पहले जो यह कहा कि "दोनों में लक्षण-भेद है, और दोनों में एक हेतु (कारण) है और दूसरा फल (कार्य)-इन दोनों दृष्टियों से मति व श्रुत में अन्तर है" -इत्यादि (97वीं) गाथा में कहकर अक्षर व अनक्षर के रूप में मति व श्रुत में भेद जो बताया, उसकी संगति कैसे हो पाएगी? -इस आशंका को मन में रखकर अब आचार्य (प्रत्युत्तर रूप में) कह रहे हैं (170) उभयं भावक्खरओ अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ। मइनाणं सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ // Ma 248 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- उभयं भावाक्षरतोऽनक्षरं भवेद् व्यञ्जनाक्षरतः। मतिज्ञानं सूत्रं पुनरुभयमपि अनक्षराऽक्षरतः॥] इहाऽक्षरं तावद् द्विविधम्-द्रव्याक्षरम्, भावाक्षरं च। तत्र द्रव्याक्षरं पुस्तकादिन्यस्ताऽकारादिरूपम्, ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा, एतच्च व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनाक्षरमप्युच्यते। भावाक्षरं त्वन्तःस्फुरदकारादिवर्णज्ञानरूपम्। एवं च सति भावक्खरओ त्ति'। भावाक्षरमाश्रित्य मतिज्ञानं भवेत् / कथंभूतम्? इत्याह- 'उभयं ति' उभयरूपम्- अक्षरवत्, अनक्षरं चेत्यर्थः, मतिज्ञानभेदे ह्यवग्रहे भावाक्षरं नास्तीति तदनक्षरमुच्यते, ईहादिषु तु तद्भेदेषु तदस्तीति मतिज्ञानमक्षरवत् प्रतिपाद्यत इति भावः। 'अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ त्ति'। व्यञ्जनाक्षरं द्रव्याक्षरमित्यनर्थान्तरम्, तदाश्रित्य मतिज्ञानमनक्षरं भवेत्, न हि मतिज्ञाने पुस्तकादिन्यस्ताकारादिकं शब्दो वा व्यञ्जनाक्षरं विद्यते, तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन रूढत्वात, द्रव्यमतित्वेनाऽप्रसिद्धत्वादिति। सुत्तं पुणेत्यादि'। सूत्रं श्रुतज्ञानं, पुनरुभयमपिद्रव्यश्रुतम्, भावश्रुतं चेत्यर्थः, प्रत्येकमनक्षरतः, अक्षरतश्च भवेत्। इदमुक्तं भवति- "ऊससियं नीससियं निच्छूढं खासियं च छीयं च। निस्सिंघियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईअं" // 1 // [उच्छवसितं निःश्वसितं निक्षिप्तं कासितं च क्षुतं च। नि:सिवितमनुस्वारमनक्षरं सेण्टितादिकम्॥] इत्यादिवचनाद् द्रव्यश्रुतमनक्षरम् [(गाथा-अर्थः) भावाक्षर के कारण मतिज्ञान (अनक्षर व साक्षर -इन) दोनों प्रकार का होता है और व्यञ्जनाक्षर के कारण वह (मतिज्ञान) अनक्षर होता है। सूत्र (द्रव्य व भाव -यह द्विविध श्रुतज्ञान) अनक्षर व साक्षर -इन रूपों में दोनों प्रकार का होता है।] व्याख्याः - यहां अक्षर के दो प्रकार हैं- द्रव्याक्षर व भावाक्षर। इनमें जो पुस्तक आदि में निहित अकार आदि रूप, अथवा तालु आदि कारणों से जन्य शब्द- यह द्रव्याक्षर है, इसे ही 'जिससे अर्थ की व्यञ्जना (अभिव्यक्ति) की जाए' इस व्युत्पत्ति के आधार पर 'व्यञ्जनाक्षर' भी कहा जाता है। और अन्तःकरण में स्फुरित (प्रतिभासित) जो अकारादि वर्ण-सम्बन्धी ज्ञान है, वह भावाक्षर है। (भावाक्षरतः)- इस प्रकार भावाक्षर के कारण (अर्थात् इस की अपेक्षा) से मतिज्ञान होता है। क्या होता है? उत्तर दिया- (उभयमपि) अक्षरयुक्त व अनक्षर-इन दोनों प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है किं अवग्रह रूप जो मतिज्ञान (का) भेद है, उसमें भावाक्षर नहीं होता, इसलिए वह अनक्षर है, किन्तु ईहा आदि जो मतिज्ञान के (तीन) भेद हैं, उनमें भावाक्षर होता है, इसलिए वे साक्षर हो जाते हैं। (अनक्षरं भवेत)- व्यअनाक्षर कहें या द्रव्याक्षर कहें- एक ही बात है। उसके आश्रयण से (उसक अपेक्षा से) तो मतिज्ञान अनक्षर ही है, क्योंकि मतिज्ञान में पुस्तक आदि में प्रयुक्त अकार आदि व्यंजन का या शब्द रूप व्यंजनाक्षर का सद्भाव नहीं होता। वे व्यंजन या शब्द तो द्रव्यश्रुत रूप से रूढ़ हैं, द्रव्यमति रूप में तो अप्रसिद्ध हैं। (सूत्रं पुनः) सूत्र यानी श्रुतज्ञान, वह तो द्रव्यश्रुत व भावश्रुत- इन दोनों प्रकार का है, और उनमें से प्रत्येक भी अनक्षर व साक्षर- इस रूप से दो-दो प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि "उच्छ्वास, निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, सूंघना, खुरटि लेना, नाक से आवाज करना, आदि अनक्षर हैं” इत्यादि वचनों के आधार पर द्रव्यश्रुत अनक्षर होता है, किन्तु वही पुस्तक आदि में लिखित हो या शब्दरूप (परिणत) हो तो वह साक्षर भी होता है। भावश्रुत ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 249 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकादिन्यस्ताक्षररूपम्, शब्दरूपं च, तदेव साक्षरं भावश्रुतमपि श्रुतानुसार्यकारादिवर्णविज्ञानात्मकत्त्वात् साक्षरम्, पुस्तकादिन्यस्ताकाराद्यक्षररहितत्वाच्छब्दाभावाच्च तदेवाऽनक्षरम्, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरस्य शब्दस्य च द्रव्यश्रुतान्त:पातित्वेन भावश्रुतेऽसत्त्वात्। तदेवं मते वश्रुतस्य च साक्षराऽनक्षरकृतो नास्ति विशेषः, प्रत्येकं द्वयोरप्यक्षरानक्षररूपत्वेनोक्तत्वात्, केवलं सामान्येन 'श्रुतं' इत्युक्ते तन्मध्ये द्रव्यश्रुतं लभ्यत इति कृत्वा तत्र द्रव्यश्रुतमाश्रित्य द्रव्याक्षरमस्ति, मतौ तु तन्नास्ति, तस्या द्रव्यमतित्वेनाऽरूढत्वादिति। एवमनयोर्द्रव्याक्षरापेक्षया साक्षराऽनक्षरत्वकृतो भेदः॥ इति गाथार्थः // 170 // तदेवमक्षरेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदमभिधाय मूकेतरभेदात् तमभिधित्सुराह स-परप्पच्चायणओ भेओ मूएयराण वाऽभिहिओ। जं मूयं मइनाणं स-परप्पच्चायगं सुत्तं // 171 // [संस्कृतच्छाया:- स्व-परप्रत्यायनतो भेदो मूकेतरयोरिवाऽभिहितः। यद् मूकं मतिज्ञानं स्व-परप्रत्यायकं श्रुतम्॥] . भी श्रुतानुसारी अकारादि वर्ण-विज्ञानरूप होने से साक्षर है, वही पुस्तक आदि में लिखे गए अकार आदि अक्षरों से रहित होने से या शब्दरूप न होने से अनक्षर है, क्योंकि पुस्तक आदि में लिखे गए अक्षर या शब्द का द्रव्यश्रुत के अन्तर्गत परिगणन होता है, भावश्रुत में नहीं। इस प्रकार, मति और भावश्रुत- दोनों में साक्षरता व अनक्षरता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं रह जाता, क्योंकि दोनों में से प्रत्येक के साक्षर व अनक्षर रूप से भेद कहे जा चुके हैं। 'श्रुत' इतना मात्र कहें तो भी, चूंकि उसमें द्रव्यश्रुत अन्तर्भूत है, इस दृष्टि से यानी 'द्रव्यश्रुत' की अपेक्षा से भी, श्रुत में तो द्रव्याक्षर का सद्भाव है, मति में तो वह द्रव्याक्षर होता ही नहीं, क्योंकि द्रव्यमति के रूप में उसका प्रयोग रूढ़ नहीं है। इस तरह, (मति व श्रुत-) इन दोनों का द्रव्याक्षर की दृष्टि से साक्षरता व अनक्षरता की दृष्टि से भेद है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 170 // (मूक व मुखर की तरह मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार, साक्षर व अनक्षर रूप में मति व श्रुत में भेद प्रतिपादित कर, मूक व अमूक-इन दो रूपों में भी उनकी भिन्नता का निरूपण कर रहे हैं (171) स-परप्पच्चायणओ भेओ मूएयराण वाऽभिहिओ। जं मूयं मइनाणं स-परप्पच्चायगं सुत्तं // ___ [(गाथा-अर्थः) मूक (गूंगा) व अमूक (मुखर) की तरह इन (मति व श्रुत) दोनों के 'स्वप्रत्यायकमात्र' (मात्र अपनी प्रतीति करने वाला) तथा 'स्वपरप्रत्यायक' (दूसरे को भी प्रतीति कराने वाला) -इस प्रकार भी भेद कहा गया है, क्योंकि मतिज्ञान (मात्र स्वप्रत्यायक होने से) मूक है, जब कि सूत्र (श्रुतज्ञान) स्व-पर (उभय)- प्रत्यायक (होने से अमूक यानी मुखर) है।] Ma 250 ----- -- विशेषावश्यक भाष्य Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यैस्तु कैश्चिदाचार्यैः स्व-परप्रत्यायनतो मति-श्रुतयोर्भेदोऽभिहितः। कयोरिव? इत्याह- मूकेतरयोरिव- यथा हि मूकः स्वमात्मानमेव प्रत्याययति प्रतीतिपथं नयति, न तु परम्, तत्प्रत्यायनहेतुवचनाभावात्, इतरस्त्वमूकः स्वं परं च प्रत्याययति, वचनसद्भावात्। तथा च सति यथा मूक-मुखरयोर्भेदः, एवं मति-श्रुतयोरपि।यद्यस्मात् परप्रत्यायनहेतुद्रव्याक्षराभावाद् मूकं मतिज्ञानम्, मुखरं तु श्रुतज्ञानम्, कुत:?, स्व-परप्रत्यायकत्वात्- द्रव्याक्षरसद्भावेन परप्रत्यायकत्वस्याऽपि तत्र लभ्यमानत्वादिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१७१॥ एतदाचार्यो मति-श्रुतयोस्तुल्यताऽऽपादनेन किञ्चिद् दूषयितुमाह सुयकारणं ति सद्दो सुयमिह सो य परबोहणं कुणइ। मइहेयवो वि हि परं बोहेति कराइचिट्ठाओ॥१७२॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रुतकारणमिति शब्दः श्रुतमिह स च परबोधनं करोति। मतिहेतवोऽपि हि परं बोधयन्ति करादिचेष्टाः॥] व्याख्याः- अन्य कुछ आचार्यों ने स्वपरप्रत्यायन (स्व-पर प्रतीति कराने की क्षमता) के आधार पर मति व श्रुत में भेद का कथन किया है। किन की तरह? उत्तर है- (स्वपरप्रत्यायन-क्षमता से रहित) मूक व्यक्ति और (उक्त क्षमता से युक्त) अमूक व्यक्ति की तरह। जैसे कोई मूक (गूंगा) व्यक्ति मात्र स्वयं को, अपने को ही प्रतीति करा पाता है, किसी दूसरे को नहीं, क्योंकि उसके पास वैसी प्रतीति कराने में समर्थ वाणी नहीं होती। किन्तु इससे विपरीत अमूक (बोलने में समर्थ) व्यक्ति स्वयं को तथा दूसरे को भी प्रतीति कराता है, क्योंकि उसके पास वाणी का सद्भाव है। इस प्रकार जैसा मूक व मुखर व्यक्ति में भेद (अन्तर) होता है, उसी प्रकार मति व श्रुत में भी भेद है। चूंकि (मतिज्ञान में) दूसरों को प्रतीति कराने वाले 'द्रव्याक्षर' का अभाव है, इसलिए मतिज्ञान 'मूक' है, किन्तु श्रुतज्ञान मुखर है। क्यों? उत्तर है- (वह मुखर इसलिए है) क्योंकि स्वयं को और दूसरों को प्रतीति कराने की क्षमता, अर्थात् द्रव्याक्षर के सद्भाव से (उसमें एक अतिरिक्त क्षमता-) परप्रतीतिक्षमता (दूसरों को समझा पाने की क्षमता) भी वहां होती है- यह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 171 // (मति व श्रुत की भिन्नता के सन्दर्भ में शंका व समाधान) उक्त कथन से तो व श्रुत में समानता प्रकट होती है- इस रूप में आचार्य पूर्वोक्त कथन में दोष प्रदर्शित कर रहे हैं (172) सुयकारणं ति सद्दो सुयमिह सो य परबोहणं कुणइ। मइहेयवो वि हि परं बोहेंति कराइचिट्ठाओ // [ (गाथा-अर्थ :) शब्द चूंकि दूसरे को बोध कराता है, इस प्रकार (परतः, न कि स्वतः) श्रुत का कारण होने से वह श्रुत (कहा जाता है) है, इस तरह तो मति की हेतुभूत करादि-चेष्टाएं भी दूसरों को (परतः) बोधित करती ही हैं (अतः दोनों की समानता ही हुई)।] . ----- विशेषावश्यक भाष्य --------251 2 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह तावद् भवन्तं पृच्छामः- हन्त! शब्दः श्रुतमुच्यते, उपलक्षणत्वात् पुस्तकादिन्यस्ताऽक्षरविन्यासश्च श्रुतमभिधीयते,' 'सुयकारणं ति' श्रुतकारणत्वात्- कारणे कार्योपचारादिति भावः। स च शब्दः, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च परबोधनं परप्रत्यायनं करोतीत्येवं परतः श्रुतज्ञानं परप्रत्यायकमुच्यते, न तु स्वतः, इति तावद् भवतोऽभिप्रायः। एतच्च मतिज्ञानेनाऽपि समानम्। कुतः? इत्याह- हि यस्माद् मतिहेतवोऽपि मतिजनका अपि करादिचेष्टाविशेषाः परं बोधयन्त्येव। तथाहि- अक्षरात्मकत्वात् किल शब्दः, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च श्रुतस्य कारणम्, कर-शीर्षादिचेष्टास्तु अक्षररहितत्वात् किल मतिज्ञानस्य हेतवः-कर-वक्त्रसंयोगे हि कृते भुजिक्रियाविषया किल मतिरुत्पद्यते, शीर्षे च धूनिते निवृत्तिप्रवृत्तिविषया सा समुपजायते, इत्येवं मतिहेतवः करादिचेष्टा अपि परप्रबोधिका एव // इति गाथार्थः॥१७२ // यदि मतिहेतवोऽपि परं प्रबोधयन्ति, ततः किम्? इत्याह न परप्पबोहयाइं जं दो वि सरूवओ मइ-सुयाई। तक्कारणाइं दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं॥१७३॥ व्याख्याः- यहां हमारी खेद पूर्वक आपके समक्ष एक शंका है- सम्भवतः आपका यह अभिप्राय है- शब्द को श्रुत कहा गया है। 'शब्द' यह उपलक्षण है, अतः (श्रुत शब्द से) पुस्तक आदि में निहित अक्षर-विन्यास का भी ग्रहण करना चाहिए। (अतः अर्थ हुआ- शब्द और ग्रन्थादि में निहित अक्षर-विन्यास- ये दोनों श्रुत हैं। ये दोनों 'श्रुत' रूप इसलिए हैं) क्योंकि यहां कारण में कार्य का उपचार किया जाता है, और शब्द व अक्षरादि श्रुतज्ञान में कारण हैं, अर्थात् वे स्वतः तो दूसरों को बोध नहीं कराते, किन्तु ‘परतः' (दूसरों को बोध कराने वाले श्रुत-ज्ञान के कारण होकर, परम्परया) बोध कराते हैं। किन्तु ऐसी समान स्थिति तो मतिज्ञान में भी है। कैसे? उत्तर दिया- (हि मतिहेतवः)- चूंकि मति की हेतु अर्थात् मति की जनक होने पर भी 'कर' (हाथ) आदि की विशेष चेष्टाएं दूसरों को बोध कराती ही हैं। जैसे, शब्द और पुस्तकादि में लिखे अक्षर अक्षरात्मक होने से श्रुत के कारण हैं। हाथ व सिर की चेष्टाएं तो अक्षररहित होने से मतिज्ञान की हेतु हैं, क्योंकि हाथ व मुख के संयोग की क्रिया भोजन-विषयक मति (ज्ञान) को उत्पन्न करती है, सिर हिलाने से निवृत्ति या प्रवृत्ति सम्बन्धी मतिज्ञान उत्पन्न होता है, इस प्रकार हाथ आदि की चेष्टाएं भी मति-हेतु होती हुईं अन्य-बोधक (भी) होती ही हैं (इस प्रकार मति व श्रुत में अन्तर कहां रहा?)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 172 // यदि (करादि चेष्टाएं) मति-हेतु होते हुए भी अन्य को बोध कराती हैं, तो इससे क्या सिद्ध हुआ? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु कह रहे हैं (173) न परप्पबोहयाइं जं दो वि सरूवओ मइ-सुयाइं। तक्कारणाई दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं॥ AMD 252 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-न परप्रबोधके यद् द्वे अपि स्वरूपतो मति-श्रुते / तत्कारणानि द्वयोरपि बोधयन्ति ततो न भेदोऽनयोः॥] * मतिहेतूनामपि परप्रबोधकत्वे सति 'न भेओ सिं' अनयोर्मति-श्रुतयोर्न भेदः। कुतः? इत्याह- 'तउ त्ति' ततस्तस्मात् कारणात्। कस्मात्? इत्याह- यद् यस्माद् द्वे अप्येते मति-श्रुते स्वरूपतो विज्ञानाऽऽत्मना न परप्रबोधके, विज्ञानस्य मूकत्वेन परप्रबोधकत्वायोगात्, अवध्यादिवदिति। अथ श्रुतस्य यत् कारणं शब्दादिकं तत् परप्रबोधकम्, इत्येतावता मतिज्ञानाद् विशिष्यते श्रुतज्ञानम्। नन्वेतद् मतिज्ञानेऽपि समानम्, तत्कारणस्याऽपि करचेष्टादेः परावबोधकत्वादिति। एतदेवाह- तानि च तानि पूर्वोक्तरूपाणि कारणानि च तत्कारणानि द्वयोरपि मति-श्रुतज्ञानयोर्यथासंख्यं शब्दादीनि, करचेष्टादीनि च परं बोधयन्त्येव, इति कोऽनयोर्विशेषः?, न कश्चिदित्यर्थः। इति किमुच्यते- मूकेतरभेदाद् भेदः? // इति गाथार्थः // 173 // तदेवं परोक्ते व्यभिचारिते ततो निरुत्तरं विलक्षीभूतं तूष्णीम्भावमापन्नं परमवलोक्य संजातकारुण्यः स्वयमेव सूरिरुत्तरमाह . [(गाथा-अर्थ :) चूंकि स्वरूपतः मति व श्रुत -ये पर-प्रबोधक नहीं हैं, इन दोनों के कारण (शब्द व करचेष्टा आदि) पर-प्रबोधक हैं, अतः इनमें परस्पर भेद नहीं है।] व्याख्याः - इस प्रकार जब मति (ज्ञान) के हेतु भी पर-प्रबोधक हैं (दूसरों को बोध कराते हैं) तो फिर इन मति व श्रुत में (कोई) भेद नहीं रहा। क्यों? उत्तर दिया (ततः)। इसी कारण से। किस कारण से? (यद् द्वे अपि) चूंकि दोनों ही ये मति व श्रुत स्वरूपतः, विज्ञानरूप से पर-प्रबोधक नहीं हैं, क्योंकि विज्ञान तो 'मूक' होता है, उसमें पर-प्रबोधक होने की क्षमता नहीं होती, अवधि आदि ज्ञान की तरह। - यदि ऐसा कहो कि 'श्रुत' का कारण जो 'शब्द' आदि है, वह पर-प्रबोधक है, इसलिए वह 'श्रुतज्ञान' 'मतिज्ञान' से विशिष्ट (भिन्न) है, तो (भी मतिज्ञान से भेद सिद्ध नहीं होता, क्योंकि) यह समानता तो मतिज्ञान में भी है, क्योंकि मतिज्ञान के कारणभूत करचेष्टा आदि भी पर-प्रबोधक हैं। इसी तथ्य को कहा- (तत्कारणानि)। (मति व श्रुत के) पूर्वोक्त वे वे कारण, जैसे मति व श्रुत ज्ञान के क्रमशः कारण कर चेष्टा व शब्द आदि, पर-प्रबोधक हैं ही, इस प्रकार इन दोनों में फिर भेद क्या रहा? अर्थात् कोई भेद नहीं रहा -यह तात्पर्य है। इसलिए आप यह कैसे कह सकते हैं कि इन दोनों में मूक व अमूक -इस प्रकार भेद है? | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 173 // ___इस प्रकार, परकीय कथन में व्यभिचार-दोष बताया गया तो वादी निरुत्तर, हक्काबक्का और चुप हो गया। ऐसे वादी (की दयनीय दशा) को देखकर करुणायुक्त होते हुए आचार्य स्वयं उत्तर (समाधान) प्रस्तुत कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------253 2 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव्वसुयमसाहारणकारणओ परविबोहयं होज्जा। रूढं ति व दव्वसुयं सुयं ति रूढा न दव्वमई // 174 // [संस्कृतच्छाया:-द्रव्यश्रुतमसाधारणकारणतः परविबोधकं भवेत् / रूढमिति वा द्रव्यश्रुतं श्रुतमिति रूढा न द्रव्यमतिः॥] द्रव्यश्रुतं पुस्तकन्यस्ताक्षरशब्दरूपं श्रुतज्ञानस्यैव कारणम्, न तु मतेः, इति श्रुतज्ञानं प्रत्यसाधारणकारणत्वाद् द्रव्यश्रुतं परप्रबोधकं भवेत्, न तु करादिचेष्टाः, तासां मतिश्रुतोभयकारणत्वेन साधारणकारणत्वादिति भावः। इदमुक्तं भवति- पुस्तकादिन्यस्ताक्षररूपं, शब्दात्मकं च द्रव्यश्रुतम्, श्रुतज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वाद् यद्यप्यानन्तर्येणाऽवग्रहेहादीन्. जनयति, तथाऽप्यक्षररूपत्वाद् मुख्यतया श्रुतज्ञानस्यैव किलाऽसाधारणं कारणमुच्यते, कारणत्वेनोपचारतः श्रुतज्ञानेऽन्तर्भवति, परप्रबोधकत्वेन च तत् सर्वस्याऽपि विदितमिति। एवं कारणस्य परप्रबोधकत्वाच्छूतज्ञानं परप्रबोधकं घटते, करादिचेष्टास्तु मतिज्ञानस्याऽसाधारणकारणं न भवन्ति, श्रुतज्ञानहेतुत्वादपि करवकासंयोगादिकायां हि करचेष्टायां दृष्टायां न केवलं तद्विषया अवग्रहादय उत्पद्यन्ते, किन्तु 'भोक्तुमिच्छत्ययम्' इत्यादिश्रुतानुसारिविकल्पात्मकं श्रुतज्ञानमप्युपजायत इति। अतोऽसाधारणकारणत्वाभावात् करादिचेष्टाः परमार्थतो मतिज्ञानस्य कारणमेव न संभवन्ति, ततश्च न तत्रान्तर्भवन्ति, तथा च सति न मतिज्ञानं परप्रबोधकम्। (174) दव्वसुयमसाहारणकारणओ परविबोहयं होज्जा। रूढं ति व दव्वसुयं सुयं ति रूढा न दव्वमई॥ [(गाथा-अर्थ :) (श्रुतज्ञान के प्रति) असाधारण कारण होने से द्रव्यश्रुतं तो पर-प्रबोधक होता : है, किन्तु (करादिचेष्टा रूप) द्रव्यमति (उस तरह मति रूप में) रूढ़ नहीं है।] व्याख्याः- पुस्तकों में लिखित अक्षर-शब्दरूप द्रव्यश्रुत श्रुतज्ञान का ही कारण है, मति का नहीं, इसलिए श्रुतज्ञान के प्रति असाधारण कारण होने से द्रव्यश्रुत पर-प्रबोधक होता है, किन्तु . करादिचेष्टाएं (परप्रबोधक) नहीं, क्योंकि वे मति व श्रुत दोनों की साधारण कारण हैं, यह भाव है। तात्पर्य यह है कि पुस्तक आदि में निहित अक्षर रूप जो शब्दात्मक द्रव्यश्रुत है वह, यद्यपि श्रुतज्ञान के मतिपूर्वक होने से, अनन्तर (अर्थात् प्रथमतया) अवग्रह, ईहा आदि को उत्पन्न करता है, तथापि अक्षर रूप होने से प्रमुखतया श्रुतज्ञान का ही असाधारण कारण कहा जाता है, और कारण में कार्य का उपचार करने से वह (शब्दात्मक द्रव्यश्रुत) श्रुतज्ञान में अन्तर्गत माना जाता है और परप्रबोधक रूप से भी वह सभी को ज्ञात है। इस प्रकार, कारण के पर-प्रबोधक होने से श्रुतज्ञान की परप्रबोधकता घटित हो जाती है। किन्तु करादि-चेष्टाएं मतिज्ञान की असाधारण कारण नहीं हैं, क्योंकि वे श्रुतज्ञान की भी हेतु हैं, इसलिए हाथ व मुख के संयोग आदि की करादिचेष्टाओं को देखकर, तद्विषयक अवग्रह आदि ही उत्पन्न नहीं होते, किन्तु 'यह भोजन करना चाहता है' इत्यादि श्रुतानुसारी विकल्पात्मक श्रुतज्ञान भी होता है। अतः करादि-चेष्टाएं मति-ज्ञान की असाधारण कारण न होने से परमार्थतः उनमें मतिज्ञान की कारणता ही सम्भव नहीं है, इसलिए वे मतिज्ञान अन्तर्भूत नहीं होतीं, और इस स्थिति में मतिज्ञान पर-प्रबोधक नहीं होता। Ma 254 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा 'दव्वसुयमसाहारणकारणउत्ति'। द्रव्य श्रुतं पुस्तकादिन्यस्ताऽऽ चारादिग्रन्थाक्षररूपम् , गुरुजनोदीरितदेशनाशब्दस्वरूपं च परप्रबोधकं भवेत्। कुतः? इत्याह- असाधारणस्य मोक्षं प्रत्यनन्यसाधारणकारणस्य क्षायिकज्ञानदर्शन-चारित्रलक्षणस्य वस्तुकलापस्य कारणत्वाद् हेतुत्वात्, ततश्च तद्द्वारेण श्रुतज्ञानमपि परप्रबोधकं घटते, करादिचेष्टास्तु यद्यपि मतिज्ञानस्य कारणम्, तथापि यथोक्तो विशिष्टः परप्रबोधस्तासु प्रायो न संभवति, अतो विशिष्टपरप्रबोधाभावाद् न ताः परप्रबोधिकाः, तथा च सति न तद्द्वारेणाऽपि मतिज्ञानं परप्रबोधकम् / इति सूत्रस्य सूचकत्वात् सोपस्कारः पूर्वार्धस्याऽर्थोऽवसेयः॥ अथोत्तरार्धस्य व्याख्या प्रस्तूयते- 'रूढं ति वेत्यादि' वेत्यथवा, भवतु मतिज्ञानस्य कारणं करादिचेष्टा, तथापि सा 'द्रव्यमतिः' इत्येवमागमे क्वचिदपि न रूढा, द्रव्यश्रुतं पुनः पूर्वोक्तस्वरूपं श्रुतं' इत्येवं सर्वत्र रूढम्। ततश्च यद्यपि करादिचेष्टा मतिज्ञानस्य कारणं, परप्रबोधिका च, तथापि द्रव्यमतित्वेनाऽरूढत्वात् कारणे कार्योपचारतो मतिरूपतया न व्यवह्रियते। अतो मतिज्ञानात् तस्याः पृथग्भूतत्वाद न तदद्वारेण तस्य परप्रबोधकत्वम्, द्रव्यश्रुतं तु कारणे कार्योपचारतः श्रुतज्ञानत्वेन प्ररूप्यते, इति तद्द्वारेणाऽस्य परप्रबोधकत्वमुपपद्यत एव। इति युक्तो मूकेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। ततश्च तक्कारणाइं दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं' इत्येतदपास्तं भवति // इति गाथार्थः // 174 / / अथवा (द्रव्यश्रुतम् असाधारणकारणतः- इसकी अन्य व्याख्या इस प्रकार भी समझनी चाहिए), पुस्तक आदि में निहित आचारांग आदि ग्रन्थात्मक अक्षर 'द्रव्यश्रुत' है, वह गुरुजनों द्वारा उच्चारित उपदेशात्मक शब्द के रूप में पर-प्रबोधक हो सकता है। कैसे? बता रहे हैं- असाधारण रूप मोक्ष के प्रति अनन्य असाधारण कारण जो क्षायिक ज्ञान-चारित्र रूप कारण-सामग्री है, उस का वह कारण या हेतु है। इसलिए इस रीति से श्रुतज्ञान भी परप्रबोधक हो जाता है। किन्तु करादि चेष्टाएं, यद्यपि वे मतिज्ञान की कारण हैं, तथापि पूर्वोक्त विशिष्ट परप्रबोधकता उनमें प्रायः संभव नहीं होतीं, अतः विशिष्ट पर-प्रबोधक न होने से वे पर-प्रबोधक नहीं हैं। इस स्थिति में. इस रीति से (अर्थात परम्परया भी) मतिज्ञान परप्रबोधक नहीं होता। इस प्रकार 'सूत्र' मात्र संकेतकारक होता है, अतः (इस गाथा के) पूर्वार्ध का अर्थ उपस्कार सहित (अर्थात् वाक्याध्याहार करते हुए, अतिरिक्त पदादि को जोड़ते हुए) समझना चाहिए। .. अब (गाथा के) उत्तरार्ध की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है- (रूढ़मिति वा)। वा=अथवा। भले ही करादिचेष्टाएं मतिज्ञान की कारण हों, तथापि वह आगम में कहीं भी 'द्रव्यमति' इस रूप में रूढ़ (प्रयुक्त) नहीं दृष्टिगोचर होतीं, किन्तु पूर्वोक्तस्वरूप वाला द्रव्यश्रुत तो 'श्रुत' इस रूप में सर्वत्र रूढ़ है। इसलिए यद्यपि करादि-चेष्टा मतिज्ञान की कारण है और परप्रबोधिका भी है, फिर भी 'द्रव्यमति' रूप में रूढ़ न होने के कारण, कारण में कार्य का उपचार करते हुए वह मति रूप से व्यवहृत नहीं होती। अतः मतिज्ञान से उस (करादि चेष्टा) के पृथक् होने से, वह परम्परया (मतिज्ञान की) परप्रबोधक नहीं होती, किन्तु द्रव्यश्रुत तो कारण में कार्य का उपचार करते हुए 'श्रुतज्ञान' रूप से निरूपित होता है, इसलिए परम्परया (उस श्रुतज्ञान का) परप्रबोधक होना (द्रव्यश्रुत में) संगत हो ही जाता है। इस प्रकार, मति व श्रुत में मूक व अमूक होने सम्बन्धी भेद युक्तिसंगत होता है। अतः -- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 255 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं करादिचेष्टाया मतिकारणत्वमभ्युपगम्योक्तम्, सांप्रतं सा मते: कारणमेव न भवति, किन्तु श्रुतस्येति दर्शयन्नाह सा वा सहत्थो च्चिय तया वि जं तम्मि पच्चओ होइ॥ ___ कत्ता वि हु तदभावे तदभिप्पाओ कुणइ चिट्ठ॥१७५॥ [संस्कृतच्छाया:- सा वा शब्दार्थ एव तयाऽपि यत् तस्मिन् प्रत्ययो भवति। कर्तापि खलु तदभावे तदभिप्रायः करोति चेष्टाम्॥] यदि वा सा करादिचेष्टा कर-वक्त्रसंयोगादिलक्षणा / किम्? इत्याह- शब्दार्थ एव शब्दो वक्तृसमुदीरितवचनरूपस्तस्याऽर्थः शब्दार्थः श्रोतृगतज्ञाने प्रतिभासमानतदभिधेयवस्तुरूपः श्रुतज्ञानमिति तात्पर्यम्। किमित्यसौ शब्दार्थ एव? इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तयाऽपि कर्ता विहितया तस्मिन् शब्दार्थे भोजनेच्छादिलक्षणे प्रतिपत्तुः प्रत्ययो भवति। तथा कर्ताऽपि तदभावे शब्दाभावे जिह्वारोगादिसद्भावात् शब्दोदीरणसामर्थ्याभाव इत्यर्थः, 'तदभिप्पाउ त्ति'। तस्मिन् शब्दार्थे भोजनेच्छादिलक्षणे परस्मै प्रतिपादयितव्येऽभिप्रायो मनोविकल्पो यस्यासौ तदभिप्रायः करोति चेष्टां कर-वक्त्रसंयोगादिलक्षणाम्। (गाथा-173 में कथित) 'दोनों के कारण भी पर-प्रबोधक हैं, अतः इन दोनों में भेद नहीं है - यह कथन खण्डित हो जाता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१७४॥ इस प्रकार, करादि-चेष्टा को मतिज्ञान का कारण स्वीकार करते हुए उक्त निरूपण किया गया। अब यह बताया जा रहा है कि “वह (करादि-चेष्टा) 'मतिज्ञान' की कारणभूत ही नहीं है" (175) सा वा सद्दत्थो च्चिय तया वि जं तम्मि पच्चओ होइ।। कत्ता वि हु तदभावे तदभिप्पाओ कुणइ चिटुं | [(गाथा-अर्थ :) अथवा वह (करादिचेष्टा) शब्दार्थ रूप (श्रुतज्ञान) ही है, क्योंकि उसके द्वारा उस (भोजनेच्छा आदि शब्दार्थ) में प्रतीति होती है। उस (शब्द) के अभाव में उस (भोजनेच्छा आदि रूप) अभिप्राय वाला कर्ता (करादि) चेष्टा करता है।] व्याख्याः - (वा) अथवा वह हाथ व मुख के संयुक्त होने की (जो) करादि-चेष्टा है (वह)। क्या है? उत्तर दिया- (शब्दार्थ एव) वह शब्दार्थ है- अर्थात् वह शब्द यानी वक्ता द्वारा बोले गए वचन रूप, उसका अर्थ है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह श्रोता को होने वाले ज्ञान में प्रतिभासित होने वाले और (वक्ता के) शब्द द्वारा अभिव्यक्त होने वाले (शब्दगत) अभिधेय पदार्थ रूप 'श्रुतज्ञान' है। यह शब्दार्थ किस प्रकार (सिद्ध होता) है? उत्तर दिया (यत् तया अपि)- चूंकि कर्ता द्वारा की गई उस करादि-चेष्टा से भोजनेच्छादि रूप शब्दार्थ (कथनीय अभिप्राय) में ज्ञाता को प्रतीति (ज्ञान) होती है। तथा कर्ता भी उस 'शब्द' के अभाव में, अर्थात् जिह्वादि-रोग के कारण शब्दोच्चारण की शक्ति के अभाव में, (तदभिप्रायः)- किसी दूसरे को भोजनेच्छादि रूप शब्दार्थ का प्रतिपादन करने का मानसिक विकल्प रूप अभिप्राय जिस (व्यक्ति) का होता है, वैसा व्यक्ति हाथ व मुंह के संयोग रूप चेष्टा भी करता है। 24 256 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- यद्यपि करादिचेष्टाऽनन्तरभावेनाऽवग्रहादीन् जनयति, तथापि शब्दार्थ एव सा श्रुतज्ञानमेवेत्यर्थः, यस्मात् तयापि विहितया तत्र शब्दार्थप्रत्ययो भवति। अतः शब्दार्थप्रत्ययजनकत्वात् कारणे कार्योपचारात् शब्दार्थप्रत्यय एव सा, न पुनर्मतिः, तथा कर्तापि 'भोक्तुमिच्छत्यसौ' इत्यादि प्रतिपत्ता जानात्वित्यभिप्रायवानेव भाषणशक्त्यभावे करादिचेष्टां करोति। ततश्च कर्ताऽपि शब्दार्थद्योतनाभिप्रायेण क्रियमाणत्वात् करादिचेष्टा शब्दार्थ एव। ततश्चैषाऽपि श्रुतकारणत्वात् श्रुत एवान्तर्भवति, शब्दवत्, न मतौ, तथा च सत्येषा परमार्थतो मतेः कारणमेव न भवति, अत: कारणद्वारेणाऽपि न परप्रत्यायकं मतिज्ञानम्, श्रुतं तु तद्द्वारेण परावबोधकम्। इति युक्तो मूकेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः॥ इति गाथार्थः॥१७५ // ॥मति-श्रुतयोर्भेदचिन्ताधिकारः समाप्तः॥ कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि करादि चेष्टा- अनन्तर-अव्यवहित रूप से (अपने होने के तुरन्त बाद) अवग्रह आदि को उत्पन्न करती है, तथापि वह (वस्तुतः) शब्दार्थ ही है- अर्थात् श्रुतज्ञान ही है। क्योंकि उसके किये जाने पर शब्दार्थ की प्रतीति (ज्ञान) होती है। शब्दार्थ-प्रतीति कराने वाली होने से, कारण में कार्य का उपचार करते हुए, वह (करादिचेष्टा) शब्दार्थ-प्रतीति (श्रुतज्ञानात्मक ही) है, न कि मति। भाषण-शक्ति न होने पर, 'वह भोजन करना चाहता है' इस बात को ज्ञात कराने के अभिप्राय वाला व्यक्ति ही उस करादिचेष्टा को करता है। चूंकि करादिचेष्टा शब्दार्थ के ज्ञान कराने के अभिप्राय से की जाती हैं, इसलिए वे शब्दार्थरूप ही है। इस प्रकार, श्रुत की कारण होने से वह करादिचेष्टा भी 'श्रुत' में ही अन्तर्भूत होती है, जैसे शब्द (श्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत में अन्तर्भूत होता है)। किन्तु वह (चेष्टा) 'मति' में अन्तर्भूत नहीं होती। इस स्थिति में जब यह (करादिचेष्टा) वस्तुतः मति की कारण ही नहीं है, तब फिर कारण-परम्परा से भी वह मतिज्ञान पर-प्रबोधक नहीं होता, किन्तु श्रुत (ज्ञान) तो कारण-परम्परा से पर-प्रबोधक है। ...इसलिए मति व श्रुत में मूक व अमूक -इस प्रकार से भेद किया जाना युक्तिसंगत है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 175 // [मति व श्रुत के भेद सम्बन्धी चिन्तन का अधिकार समाप्त हुआ।] Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 257 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं स्वामि-काल-कारणादिभिरभेदेऽपि लक्षण-भेद-हेतुफलभावादिभिर्मति-श्रुतयोर्विस्तरतो भेदमभिधायोपसंहरन्नाह मइसुयनाणविसेसो भणिओ तल्लक्खणाइभेएणं॥ पुव्वं आभिणिबोहियमुद्दिष्टुं तं परूवेस्सं // 176 // [संस्कृतच्छाया:- मतिश्रुतज्ञानविशेषो भणितः तल्लक्षणादिभेदेन। पूर्वमाभिनिबोधिकमुद्दिष्टं तत् प्ररूपयिष्ये॥] मति-श्रुतज्ञानयोर्विशेषो भेदो भणितः। केन? इत्याह- तयोर्लक्षणादिभिर्भेदः, अथवा स चासौ अनन्तरोक्तो लक्षणादिभेदश्च तल्लक्षणादिभेदस्तेन / सांप्रतं त्वाभिनिबोधिकज्ञानं प्ररूपयिष्ये विस्तरतो व्याख्यास्यामि। शेषश्रतादिपरिहारेण किमित्याभिनिबोधिकं प्रथमं प्ररूप्यते? इत्याह- यस्माज्ज्ञानपञ्चके पूर्वमादौ तदुद्दिष्टमुपन्यस्तम्, तस्माद् "यथोद्देशं निर्देशः" इति कृत्वा तत् प्रथमं व्याख्यास्यामि // इति गाथार्थः॥ 176 // (आभिनिबोधिक ज्ञान के निरूपण की प्रस्तावना) ___इस प्रकार, मति व श्रुत में (उनके) स्वामी, काल व कारण आदि दृष्टियों से भेद न होने पर भी, लक्षण-भेद तथा हेतु-फल भाव आदि दृष्टियों से इनमें भेद है- इस तथ्य को विस्तार से प्रतिपादन करने के बाद, उपसंहार रूप में कह रहे हैं (176) मइसुयनाणविसेसो भणिओ तल्लक्खणाइभेएणं / / पुव्वं आभिणिबोहियमुद्दिठें तं परूवेस्सं // [(गाथा-अर्थ :) लक्षण आदि भेद के आधार पर मति व श्रुत-इन (दोनों ज्ञानों) में (परस्पर) अन्तर बता दिया गया। (अब,) पूर्व में उद्दिष्ट जो आभिनिबोधिक ज्ञान है, उसका निरूपण करूंगा।] व्याख्याः- (यहां तक) मति व श्रुत ज्ञान -इन दोनों का अन्तर बताया गया। (प्रश्न-)किस तरह? (उत्तर-) उनके लक्षण आदि भेद का निरूपण करते हुए। अथवा मति व श्रुत ज्ञान (इन दोनों का) और (साथ ही) अभी अभी कहे गए (उनके) लक्षण आदि भेद का निरूपण करते हुए। अब तो मैं आभिनिबोधिक ज्ञान का विस्तार से व्याख्यान करूंगा। शेष श्रुत आदि ज्ञान (के व्याख्यान) को छोड़ कर, आभिनिबोधिक ज्ञान की प्ररूपणा पहले क्यों की जा रही है? उत्तर है- चूंकि पांचों ज्ञानों में उसी का प्रथमतः निर्देश पहले किया गया है। इसलिए 'उद्देश के अनुरूप ही निर्देश करना चाहिए' -इस दृष्टि से उस (आभिनिबोधिक ज्ञान) का ही व्याख्यान करूंगा। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 176 // Mar 258 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व-भेद-पर्यावैध व्याख्या, तत्र तत्त्वं लक्षणम्, तच्च प्रागेवोक्तम्। अथ तद्भेदनिरूपणार्थमाह इन्दिय-मणोनिमित्तं तं सुयनिस्सियमहेयरं च पुणो।। तत्थेक्के क्कं चउभेयमुग्गहोप्पत्तियाईयं // 177 // [संस्कृतच्छाया:- इन्द्रिय-मनोनिमित्तं तच्छुतनिश्रितमथेतरच्च पुनः। तत्रैकैकं चतुर्भेदमवग्रहौत्पत्तिक्यादिकम्॥] इन्द्रिय-मनोनिमित्तं यत् प्रागुक्ताभिनिबोधिकज्ञानम्, तद् द्विभेदं भवति-श्रुतनिश्रितम्, इतरच्चाऽश्रुतनिश्रितम्। अथशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः। तत्र श्रुतं संकेतकालभावी परोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च, पूर्वं तेन परिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले तदनपेक्षमेव यदुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितम्, यत्तु श्रुतापरिकर्मितमतेः सहजमुपजायते तदश्रुतनिश्रितम्। तत्र तयोः श्रुतनिशिताऽतनिनितयोर्मध्ये एकचतुर्भदम्। कथम्? इत्याह- यथासंख्यमवग्रहादिकम्, औत्पत्तिक्यादिकं व- अवग्रोहापायधारणाभेदात् श्रुतनिश्रितं चतुर्विधम्, औत्पत्तिकी-वैनयिकी-कर्मजा-पारिणामिकीलक्षणबुद्धिभेदात्त्वश्रुतनिश्रितं (आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद) तत्त्व (स्वरूप), भेद पर्याय -इस क्रम से व्याख्या की जाती है। इनमें तत्त्व का अर्थ हैलक्षण, जिसका कथन पहले (अब तक) कर दिया गया है। अतः तत्सम्बन्धी भेद का निरूपण कर : रहे हैं (177) इन्दिय-मणोनिमित्तं तं सुयनिस्सियमहेयरंच पुणो।। तत्थेक्केक्कं चउभेयमुग्गहोप्पत्तियाईयं // [(गाथा-अर्थ :) इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाला आभिनिबोधिक ज्ञान (1) श्रुतनिश्रित व (2) अश्रुतनिश्रित रूप से (दो प्रकार का) है। इन (दोनों) में प्रत्येक के अवग्रहादि, और औत्पत्तिकी आदि क्रमशः चार-चार भेद हैं।] व्याख्याः- इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाला आभिनिबोधिक ज्ञान है, जिसका पहले निरूपण हो चुका है। वह दो प्रकार का है- (पहला) (1) श्रुतनिश्रित, और दूसरा (2) अश्रुतनिश्रित। 'अथ' शब्द वाक्यगत अलंकार हेतु (प्रयुक्त) है। यहां 'श्रुत' से तात्पर्य है- संकेत काल में होने वाला परोपदेश और श्रुत ग्रंथ। 'श्रुत' से परिकर्मित (संस्कारित) मति जिसकी पहले हो चुकी है, ऐसे व्यक्ति को व्यवहार काल में, उस (श्रुत) की अपेक्षा किये बिना ही जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'श्रुतनिश्रित' है। 'श्रुत' से परिकर्मित (संस्कारित) मति जिसकी पहले नहीं हुई है, ऐसे व्यक्ति को सहज ही जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो 'अश्रुतनिश्रित' है। ---- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 259 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यप्यौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेऽप्यवग्रहादयो विद्यन्ते, तथापि 'पुव्वमदिट्ठमसुयमवेइ य तक्खणविसुद्धगहियत्था' इत्यादिवक्ष्यमाणवचनात् परोपदेशाद्यनपेक्षत्वात् ते श्रुतनिश्रिता न भवन्ति, शेषास्त्ववग्रहादयः पूर्वं श्रुतपरिकर्मणाऽनन्तरेण न संभवन्ति, ईहादिगताभिलापस्य परोपदेशाद्यन्तरेणाप्युपपत्तेः, इति ते श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते। औत्पत्तिक्यादिषु त्वीहाधभिलापस्य तथाविधकर्मक्षयोपशमजत्वात् परोपदेशाद्यन्तरेणाऽप्युपपत्तेरिति भावः॥ इति गाथार्थः // 177 // तत्र श्रुतनिश्रितानवग्रहादींस्तावद् नियुक्तिकारः प्राह[नियुक्ति-गाथाः (2)] उग्गहो ईहअवाओ य धारणा एव होंति चत्तारि। आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्थू समासेणं // 178 // अब, श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित -इन दोनों ज्ञानों के (भी) प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। किस तरह? (उत्तर दिया-) क्रमशः इनके भेद हैं- अवग्रह आदि (चार), तथा औत्पत्तिकी बुद्धि आदि (चार)। अर्थात् अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा के भेद से श्रुतनिश्रित (ज्ञान) के चार भेद हैं। (इसी तरह) औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा व पारिणामिकी -इन बुद्धि-भेदों के आधार पर 'अश्रुतनिश्रित' ज्ञान के (भी) चार भेद हैं। यद्यपि औत्पत्तिकी आदि चारों बुद्धियों में भी अवग्रह आदि (चारों) होते हैं, फिर भी 'पूर्वमदृष्टमश्रुतम् अवैति च तत्क्षणविशुद्धगृहीतार्था' (नन्दी सूत्र, 38/2) (अर्थात् पहले से अदृष्ट, अश्रुत, अनालोचित अर्थ को तत्क्षण यथार्थ रूप से ग्रहण करने वाली औत्पत्तिकी बुद्धि होती है) इत्यादि किये जाने वाले कथन के अनुसार, वे (अवग्रहादि) परोपदेश आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं और (अत एव) श्रुतनिश्रित नहीं होते हैं (अर्थात् अश्रुतनिश्रित होते हैं)। चूंकि ईहा आदि के रूप में अभिलाप की, परोपदेश आदि के बिना भी, उत्पत्ति हो सकती है, इसलिए अवशिष्ट अवग्रहादि ज्ञानों की उत्पत्ति, पहले श्रुतपरिकर्मित हुए बिना नहीं हो सकती, इस दृष्टि से वे 'श्रुतनिश्रित' कहे जाते हैं। तात्पर्य यह है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों (वाले व्यक्तियों) में, तदनुरूप कर्मसंबंधी क्षयोपशम से जनित होने के कारण, परोपदेश आदि के बिना भी, ईहा आदि अभिलाप की संगति होती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 177 // उन (इन्द्रियमनोनिमित्तक आभिनिबोधिक ज्ञान के भेदों) में श्रुतनिश्रित अवग्रह आदि के विषय में नियुक्तिकार कह रहे हैं // 178 // उग्गहो ईहअवाओ य धारणा एव होति चत्तारि। आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्थू समासेणं॥ . IMA 260 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-अवग्रह ईहाऽपायश्च धारणैव भवन्ति चत्वारि / आभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि समासेन // 178 // ] रूप-रसादिभेदरनिर्देश्यस्याऽव्यक्तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याऽवग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः। तेनाऽवगृहीतस्यार्थस्य भेदविचारणं वक्ष्यमाणगत्या विशेषान्वेषणमीहा। तयेहितस्यैवाऽर्थस्य व्यवसायस्तद्विशेषनिश्चयोऽपायः। चशब्दोऽवग्रहादीनां पृथक् पृथक् स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, तेनैतदुक्तं भवति- अवग्रहादेरीहादयः पर्याया न भवन्ति, पृथग्भेदवाचकत्वादिति। निश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युत्यादिरूपेण धरणं धारणा। एवकारः क्रमद्योतनपरः, अवग्रहादीनामुपन्यासस्याऽयमेव क्रमो नान्यः, अवगृहीतस्यैवेहनात्, ईहितस्यैव निश्चयात्, निश्चितस्यैव धारणादिति। एवमेतान्याभिनिबोधिकज्ञानस्य चत्वार्येव भेदवस्तूनि समासेन संक्षेपेण भवन्ति, विस्तरतस्त्वष्टाविंशत्यादिभेदभिन्नमिदं वक्ष्यत इति भावः। तत्र भिद्यन्ते परस्परमिति भेदा विशेषास्त एव वस्तूनि भेदवस्तूनीति समासः // इति गाथार्थः // 178 // [(गाथा-अर्थ :) संक्षेप में आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा -ये चार भेद रूप हैं।] व्याख्याः-रूप रस आदि भेदों से अनिर्दिष्ट, अव्यक्त स्वरूप 'सामान्य' अर्थ का जो ग्रहणज्ञान है, उसे 'अवगृह' कहा जाता है। उस 'अवग्रह' से गृहीत-ज्ञात अर्थ के भेद के सम्बन्ध में जो विचार होता है, आगे कहे जाने वाली रीति से किये जाने वाले 'विशेष' के अन्वेषण को 'ईहा' कहते हैं। उस ईहा से ईहित पदार्थ का जो निर्णय- (अर्थात पदार्थ का जो) विशेषात्मक निश्चय होता है, वह 'अपाय' है। (गाथा में प्रयुक्त) 'च' पद अवग्रह आदि (प्रत्येक) के पृथक्-पृथक् स्वातन्त्र्य का द्योतन (संकेत) करता है। इस प्रकार, उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि अवग्रह के ईहा आदि पर्याय नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पृथक्-पृथक् कहा गया है। निश्चित रूप से ज्ञात वस्तु का ही 'अविच्युति' आदि रूप से (निरन्तर के साथ) धारण करना 'धारणा' होती है। गाथा में 'एव' पद इनमें (एक निश्चित) क्रम को द्योतित कर रहा है, अतः अवग्रहादि को उपस्थापित करने का यही क्रम है, इनमें अन्य कोई (दूसरा, भिन्न) क्रम मान्य नहीं है, क्योंकि अवग्रह-गृहीत की ही ईहा होती है, ईहित वस्तु का ही निश्चय (अपाय) होता है और निश्चित रूप से जानी गई वस्तु की ही धारणा होती है। - इस प्रकार, आभिनिबोधिक ज्ञान के संक्षेप में ये चार ही भेद होते हैं। विस्तार करने की दृष्टि से तो आगे 28 भेदों को कहा जाएगा- यह भाव है। भेद और वस्तु -इन दो पदों का समास कर 'भेदवस्तु' शब्द बना है। इसका अर्थ है- भेद यानी परस्पर भेद रखने वाले जो 'विशेष' हैं, वे ही वस्तुस्वरूप हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ॥ 178 // ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 261 - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [नियुक्ति-गाथाः (3)] अथ नियुक्तिकार एवाऽवग्रहादीन् व्याख्यानयन्नाह अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं। ववसायंच अवार्यधरणं पुणधारणंति॥१७९॥ [संस्कृतच्छाया:-अर्थानामवग्रहणमवग्रहं तथा विचारणमीहाम्। व्यवसायं चाऽपायं धरणं पुनर्धारणां ब्रवते // 179 // ] अर्थानां रूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरमेवाऽवग्रहणमवग्रहं ब्रुवत इति संबन्धः। तथा विचारणं पर्यालोचनं 'अर्थानाम्' इति वर्तते, ईहनमीहा तां ब्रुवते। इदमुक्तं भवति- अवग्रहादुत्तीर्णोऽपायात् पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषत्यागसंमुखश्च, प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इति मतिविशेष ईहेति। विशिष्टोऽवसायो . व्यवसायो निश्चयस्तं व्यवसायम्, अर्थानाम्' इतीहापि वर्तते, अवायमपायं वा ब्रुवते। (अवग्रह आदि के स्वरूप) अब नियुक्तिकार ही (स्वयं) अवग्रहादि का व्याख्यान कर रहे हैं[नियुक्ति-गाथाः (3)] ||179 // अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं। ववसायं च अवायं धरणं पुण धारणं बेति // . ' [(गाथा-अर्थ :) पदार्थों का अवग्रहण (इन्द्रियविषय के रूप में ग्रहण) 'अवग्रह' है, विचारणा 'ईहा' है, निर्णय ‘अपाय' है तथा उसे धारण करना 'धारणा' है।] . व्याख्याः - यहां 'कहते हैं' (ब्रुवते) का ईहा आदि के साथ भी सम्बन्ध करणीय है। इसी क्रम से पदार्थों की विचारणा या पर्यालोचना जो होती है, उसे 'ईहन' (पर्यालोचन) रूप होने से 'ईहा' कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अवग्रह से आगे बढ़ कर, तथा अपाय से पूर्व सद्भूत (वस्तुतः विद्यमान) पदार्थ से सम्बद्ध 'विशेष' को ग्रहण करने हेतु अभिमुख, और असद्भूत (अविद्यमान) पदार्थ से सम्बद्ध 'विशेष' का त्याग करने हेतु संमुख, जैसे (संमुखदृष्ट पदार्थ में) प्रायः कौओं के घोंसले आदि स्थाणु (वृक्ष) सम्बन्धी धर्म तो दिखाई पड़ रहे हैं, किन्तु सिर खुजलाने आदि पुरुषगत धर्म नहीं, (ऐसी स्थिति में यह क्या है?) इस प्रकार का जो विशेष मतिज्ञान है, वह 'ईहा' है। (ईहा के बाद जो) विशिष्ट अवसाय, व्यवसाय या निश्चय हो जाना है, यह निश्चय पदार्थों का होता है, इस अवसायादि को ही 'अवाय' या 'अपाय' कहते हैं। Ma 262 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- ------ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदुक्तं भवति-स्थाणुरेवाऽयमित्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवायः, अपायो वेति, चशब्द एवकारार्थः, व्यवसायमेवाऽवायम्, अपायं वा हुवत इत्यर्थः। धृतिर्षरणम्, अर्थानाम्' इति वर्तते, अपायेन विनिश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणमेव धारणा सक्त इत्यर्थः। पुन:शब्दस्याऽवधारणार्थत्वाद् ब्रुवत इत्यनेन शास्त्रस्य पारतन्त्र्यमुक्तम्- इत्थं तीर्थंकर-गणधरा ब्रुवत इति // अन्ये त्वेवं पठन्ति- "अत्थाणं उग्गहणम्मि उग्गहो" इत्यादि। तत्राऽर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिभेद इत्येवं ब्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यम्, भावार्थस्तु पूर्ववदेव। अथवा प्राकृतशैल्याऽर्थवशाद् विभक्तिपरिणाम इति सप्तमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या॥ इति गाथार्थः॥१७९॥ अथैतदेवाऽवग्रहादिस्वरूपं भाष्यकारो विवृण्वन्नाह तात्पर्य यह है कि यह वृक्ष (स्थाणु) ही है -इस प्रकार का जो अवधारणात्मक (निर्णयात्मक) अनुभव है, वह अंपाय या अवाय है। 'च' शब्द यहां 'ही' अर्थ में प्रयुक्त है। अतः अर्थ हुआ कि जो व्यवसाय (निर्णय) है, उसे ही अपाय या अवाय कहते हैं। (तदनन्तर) पदार्थों की धृति, या उनका धरण होता है, अर्थात् अपाय द्वारा निश्चित की गई वस्तु के ही अविच्छिन्न रूप से स्मृति-वासना रूप धारण को ही 'धारणा' कहते हैं। 'पुनः' शब्द यहां अवधारणात्मक 'ही' अर्थ का वाचक है। 'कहते हैं। इस कथन से प्रकृत शास्त्र की परतन्त्रता (अ-स्वच्छन्दता) का संकेत किया गया है, अर्थात् तीर्थंकर व गणधरों ने (ही) इसी प्रकार कहा है- [अर्थात् अवग्रह आदि के जो स्वरूप यहां बताये गये हैं, उन्हें ग्रन्थकार * ने अपनी ओर से नहीं कहा है। किन्तु तीर्थंकर व गणधर देवों ने ही इसी प्रकार प्रतिपादित किया है, और ग्रन्थकार द्वारा किया गया निरूपण उन्हीं का अनुसरण है, न कि स्वमतिपरिकल्पित / इस दृष्टि से ग्रन्थकार के निरूपण में तीर्थंकरादि की परतन्त्रता संगत है।] - अन्य (कुछ आचार्य) गाथा को इस प्रकार-पढ़ते हैं- 'अर्थानाम् अवग्रहणे अवग्रहः', अर्थात् पदार्थों का अवग्रह होने पर जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान का ही 'अवग्रह' नाम का एक भेद होता है। इसी तरह, ईहा, आदि के निरूपण में भी समझ लेना चाहिए (अर्थात् पदार्थों की ईहा होने पर ईहा, निश्चय होने पर अपाय, धरण (या धारण) होने पर धारणा -इस प्रकार कथन कर लेना चाहिए)। इस (दूसरी तरह से किये गये निरूपण) में भी भावार्थ तो पूर्ववत् ही है (भावार्थ की भिन्नता नहीं है)। अथवा 'प्राकृत' व्याकरण में अर्थ के औचित्य के अनुरूप विभक्ति-परिणाम (भी) होता है, अतः यहां द्वितीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है- ऐसा समझ लेना चाहिए। [तब ‘अवग्रहणे अवग्रहः' इस कथन में प्रयुक्त सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति कर पढा जाना चाहिए- 'अर्थानाम् अवग्रहणं अवग्रहः', भावार्थ तो पूर्ववत् होगा- अर्थात् ‘पदार्थों के अवग्रहण को 'अवग्रह' कहते हैं'।] || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 179 // अवग्रहादि के इस (पूर्वोक्त) स्वरूप को भाष्यकार स्पष्ट करने हेतु (गाथा) कह रहे हैं ------ विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 263 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा। तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स // 180 // [संस्कृतच्छाया:- सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमहा। तस्यावगमोऽपायोऽविच्युतिर्धारणा तस्य // 180 // ] अन्तर्भूताऽशेषविशेषस्य केनापि रूपेणाऽनिर्देश्यस्य सामान्यस्याऽर्थस्यैकसामयिकमवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणम्, अथवा सामान्येन सामान्यरूपेणाऽर्थस्याऽवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो वेदितव्यः। अथाऽनन्तरमीहा प्रवर्तते। कथम्भूतेयम्? इत्याहभेदमार्गणम्-भेदा वस्तुनो धर्मास्तेषां मार्गणमन्वेषणं विचारणं- प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इत्येवं वस्तुधर्मविचारणमीहेत्यर्थः। तस्यैवेहयेहितस्य वस्तुनस्तदनन्तरमवगमनमवगमः स्थाणुरेवाऽयमित्यादिरूपो निश्चयोऽवायोऽपायो वेति। तस्यैव निश्चितस्य वस्तुनोऽविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणं धारणा, सूत्रेऽविच्युतेरुपलक्षणत्वात् // इति गाथार्थः॥ 180 // ||180 // सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा। तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स || [(गाथा-अर्थ :) सामान्य अर्थ-अवग्रहण (सन्मात्र पदार्थ, या पदार्थ का सामान्य रूप से अवग्रहण) 'अवग्रह' है, (उसी के) भेदों (विशेषों) की मार्गणा (अन्वेषणा) 'ईहा' है। उसी (ईहित पदार्थ) का (निश्चयात्मक) अवगम 'अपाय' है और उसी (निर्णयात्मक ज्ञान) की अविच्छिन्न रूप से स्थिति 'धारणा' कही जाती है।] __व्याख्याः- जो समस्त विशेषों को अपने अन्दर समेटे हुए होता है, तथा किसी भी रूप से जो निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है, ऐसे 'सामान्य' (सन्मात्र) पदार्थ का एक समय में जो अवग्रह है, अथवा सामान्य रूप से अर्थ का ग्रहण, अर्थात् जो 'सामान्य अर्थावग्रहण' है, उसे 'अवग्रह' जानना चाहिए। (अवग्रह) इसके बाद 'ईहा' की प्रवृत्ति होती है। वह ईहा कैसी होती है? उत्तर दियाभेदमार्गणा रूप 'ईहा' है, अर्थात् भेद यानी वस्तुगत धर्म, उनकी जो मार्गणा यानी अन्वेषणा, विचारणा है, वह 'ईहा' है। जैसे 'कौए के घोंसले आदि वृक्षगत धर्म प्रायः यहां (दृष्टिगोचर हो रहे) हैं, सिर खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म यहां (दृष्टिगोचर) नहीं हैं, इस प्रकार वस्तु-विषयक धर्मों की विचारणा 'ईहा' है। ईहा के बाद, ईहा से ईहित उसी पदार्थ का अवगमन या निर्णय होना- जैसे 'यह वृक्ष ही है' इत्यादि रूप निश्चय हो जाना -यह अपाय या अवाय है। उसी निश्चित वस्तु की जो अविच्युति (निर्णीत ज्ञानधारा का निरन्तर बने रहना) है, वह 'धारणा' है। यहां 'अविच्युति' पद उपलक्षण है, इसलिए (इसका कुछ विशेष अर्थ अभीष्ट है, अतः अर्थ यह होगा कि) वस्तु का जो अविच्छिन्न स्मृति-वासना रूप धारण है, वह 'धारणा' है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 180 // A 264 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ------ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र चाऽवग्रहादारभ्य परैः सह विप्रतिपत्तयः सन्ति, इत्यवग्रहविषयां तां तावद् निराकर्तुमाह सामण्णविसेसस्स वि केई उग्गहणमुग्गहं बेति। जं मइरिदं तयं ति च, तं नो बहुदोसभावाओ॥१८१॥ [संस्कृतच्छाया:- सामान्यविशेषस्याऽपि केचिदवग्रहणमवग्रहं ब्रुवते। यद् मतिरिदं तदिति च, तद् नो बहुदोषभावात् // 181 // ] सामान्यं चासौ विशेषश्च सामान्यविशेषस्तस्याऽपि, न केवलं सामान्यार्थस्य, इत्यपिशब्दः, अवग्रहणमवच्छेदनं केचन व्याख्यातारोऽवग्रहं ब्रुवते। किं कारणम् ? इत्याह - 'जं मइरिदं तयं ति चेति' यद् यस्मात् कारणादमुतः शब्दादिलक्षणसामान्यविशेषग्राहकाऽवग्रहादनन्तरमिदं, तदिति च, इति विमर्शलक्षणा मतिरनुधावति- ईहा प्रवर्तते इत्यर्थः, यदनन्तरं चेहादिप्रवृत्तिः सोऽवग्रह एव, यथा व्यञ्जनावग्रहानन्तरभावी अव्यक्ताऽनिर्देश्यसामान्यमात्रग्राही अवग्रहः, प्रवर्तते च शब्दादिसामान्यविशेषग्राहकाऽवग्रहानन्तरमीहादिः, तस्मादवग्रह एवाऽयम् / तथाहि- दूरात् शङ्खादिसंबन्धिनि शब्दे सामान्यविशेषात्मके इस निरूपण में 'अवग्रह' (से लेकर धारण तक) के विषय में अन्यवादियों की ओर से विप्रतिपत्तियां (आपत्ति, आक्षेप, मतभिन्नता) उठाई गई हैं, अतः (भाष्यकार) अवग्रह-विषयक विप्रतिपत्ति का निराकरण करने जा रहे हैं // 181 // सामण्णविसेसस्स वि केई उग्गहणमुग्गहं बेति। जं मइरिदं तयं ति च, तं नो बहुदोसभावाओ // _ [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) लोग सामान्यविशेषात्मक पदार्थ का जो अवग्रहण हैजैसे 'यह वह है' इस प्रकार का जो मतिज्ञान होता है, उसे भी अवग्रह कहते हैं। उनका कथन ठीक नहीं है, क्योंकि (यदि उनके मत को माने) तब अनेक दोष उद्भावित होंगें।] . व्याख्याः- न केवल सामान्य पदार्थ का, अपितु सामान्य जो विशेष, उस सामान्यविशेष पदार्थ का भी जो अवग्रहण है, ज्ञान है, उसे कुछ व्याख्याता 'अवग्रह' कहते हैं। उनके कथन के पीछे क्या कारण (युक्ति) है? उत्तर दिया- 'यत् मतिः इदं तद्' इति। चूंकि 'यह वह है' इस प्रकार का जो मतिज्ञान होता है, अर्थात् चूंकि शब्द आदि रूप सामान्यविशेष ग्राहक इस अवग्रह के बाद 'यह वह है' इस प्रकार का विमर्शरूप मतिज्ञान अर्थात् ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है, यह ईहा ज्ञान, जिस (ज्ञान) के बाद हुआ है, वह अवग्रह ही है। जैसे- व्यञ्जनावग्रह का उत्तरकालभावी अव्यक्त, अनिर्देश्य सामान्य मात्र का ग्राहक अवग्रह होता है, इस शब्दादि सामान्य विशेष-ग्राहक अवग्रह के बाद 'ईहा' आदि ज्ञान प्रवृत्त भी होते हैं, उदाहरणार्थ- दूर से शंख आदि से सम्बद्ध शब्द को (शब्देतर) रूपादि से भिन्न 'सामान्यविशेषात्मक शब्द' का ग्रहण होता है [यहां शब्द सामान्य का ग्रहण होता है तो वहीं रूपादि का ग्रहण नहीं भी है, इसलिए इसे विशेषात्मक ग्रहण भी कहा जा सकता है], उसके होने पर यह विमर्श. प्रारम्भ होता है कि यह शब्द (तो है, किन्तु यह) शंख का है, या भैंस के सींग (से वने वाद्य) Me ---------- विशेषावश्यक भाष्य - --- --- -265 - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपादिभ्यो भिन्ने गृहीते प्रवर्तते एवायं विमर्श:- किमयं शाङ्खः शा? वा शब्द?।शार्ङ्गश्चेत् किं महिषीशृङ्गोद्भवः, महिषशृङ्गजो वा?। महिषीशृङ्गसंभवश्चेत्, किं प्रसूतमहिषीशृङ्गसंभवः, अप्रसूतमहिषीशृङ्गसमुद्भूतो वा? इत्यादि। यतश्चानन्तरमित्थं विमर्शेनेहाप्रवृत्तिर्न भवति, अन्तप्राप्तेः, क्षयोपशमाभावाद् वा, स पुनरपायः॥ तदेतत् परोक्तं दूषयितुमाह-'तं नो इत्यादि' तदेतत् परोक्तं न। कुतः? इत्याह- बहवश्च ते दोषाश्च तेषां भाव उपनिपातस्तस्मात्, एवं हि सर्वायुषाऽप्यपायप्रवृत्तिर्न स्यात्, यथोक्तविमर्शप्रवृत्तेरनिष्ठितत्वात्। न च पूर्वमनीहिते प्रथमोऽपि शब्दनिश्चयो युक्तः, यतश्च पूर्वमीहा प्रवर्तते नाऽसाववग्रहः, किन्त्वपाय एवेत्यादि सर्वं पुरस्ताद् वक्ष्यते॥ इति गाथार्थः॥१८१॥ अन्ये त्वीहायां विप्रतिपद्यन्ते, तन्मतमुपन्यस्य दूषयत्राह ईहा संसयमेत्तं केई, न तयं तओ जमन्नाणं। मइनाणंसा चेहा कहमन्नाणं तई जुत्तं?॥१८२॥ [संस्कृतच्छाया:- ईहा संशयमानं केचित्, न तत् सको यदज्ञानम्। मतिज्ञानांशश्चेहा कथमज्ञानं सा युक्तम्? // 182 // ] का है, या भैंसे के सींग (से बने किसी वाद्य) का शब्द है? यदि वह शब्द भैंस के सींग (वाले वाद्य) से उत्पन्न है तो प्रसूत (बच्चा पैदा कर चुकी) भैंस के सींग का है या अप्रसूत भैंस के सींग (के वाद्य) का है? इत्यादि। जिस (विमर्श) के बाद या तो अंतिम निर्णय हो जाए, या फिर ज्ञान का ऐसा क्षयोपशम हो (कि ईहा ज्ञान की अपेक्षा ही न रहे) तो ईहा की प्रवृत्ति नहीं होती, वह तो 'अपाय' (ही) है। उपर्युक्त परकीय मत को दूषित सिद्ध करने हेतु कह रहे हैं- (तद् नो)। अर्थात् परकीय मत (उचित/यथार्थ) नहीं, (प्रश्न) क्यों? उत्तर दिया- चूंकि बहुत से दोष यहां संभावित हैं, इसलिए (परकीय मत निर्दोष नहीं है)। क्योंकि (परकीय मत को माना जाये तो) सारी आयु-काल में भी 'अपाय' की प्रवृत्ति नहीं हो पाएगी, क्योंकि उक्त विमर्श की प्रवृत्ति की कोई काल-सीमा नहीं है। जिस पदार्थ की पहले ईहा नहीं की गई हो, उसका शब्द-निश्चय मानना युक्तियुक्त नहीं, चूंकि जिसके पहले ईहा प्रवृत्त होती है, वह अवग्रह नहीं (हो सकता), किन्तु वह अपाय ही है- इत्यादि सारी बातें आगे कहेंगे॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 181 // (ईहा व संशय में अन्तर) (कुछ) दूसरे लोग 'ईहा' को लेकर आपत्ति उठाते हैं, उनके मत को उपस्थापित करते हुए, उसमें दूषण उद्भावित कर रहे हैं // 182 // ईहा संसयमेत्तं केई, न तयं तओ जमन्नाणं / मइनाणंसा चेहा कहमन्नाणं तई जुत्तं? // [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) ईहा को संशय कहते हैं, किन्तु जो (संशय रूप) अज्ञान होगा, वह ईहा ज्ञान कैसे हो सकता है? ईहा जब मतिज्ञान का अंश है, और वह (संशय रूप) अज्ञान भी है- ऐसा कैसे हो सकता है)?] MMS 266 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमयं स्थाणुः, आहोस्वित् पुरुषः? इत्यनिश्चयात्मकं संशयमात्रं यदुत्पद्यते तदीहेति केचित् प्रतिपद्यन्ते / तदेतद् न घटते। कुतः? इत्याह-पद्यस्मात् कारणात्। 'तड ति' असौ संशयोऽज्ञानम्। भवतु तर्हाज्ञानमपीहा, इति चेत्, इत्याह- 'मईत्यादि' ममिसिलतपेदहा वर्तते। न च ज्ञानभेदस्याऽज्ञानरूपता युज्यते, एतदेवाह- 'कहमित्यादि / कथं केन प्रकारेणाऽज्ञानं युखम् नकशिदित्यर्थः केयमित्याह-'तइति / असौ मतिज्ञानांशरूपेहा, संशयस्य वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वेनाऽज्ञानात्मकत्वात्, ईहायास्तु ज्ञानभेदत्वेन ज्ञानस्वभावत्वात्, ज्ञानाऽज्ञानयोश्च परस्परपरिहारेण स्थितत्वाद् नाऽज्ञानरूपस्य संशयस्य ज्ञानांशात्मकेहारूपत्वं युक्तमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८२॥ आह- ननु संशयेहयोः किं कश्चिद् विशेषोऽस्ति, येनेहारूपत्वं संशयस्य निषिध्यते? इत्याशङ्कय तयोः स्वरूपभेदमुपदर्शयन्नाह जमणेगत्थालंबणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सव्वप्पयओ तं संसयरूवमन्नाणं॥१८३॥ व्याख्याः- यह स्थाणु (वृक्ष) है या कोई पुरुष? इस प्रकार का अनिश्चयात्मक संशय मात्र जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'ईहा' है- ऐसा कुछ (व्याख्याता) लोग प्रतिपादित करते हैं। किन्तु उनका वह कथन उपयुक्त नहीं ठहरता। (प्रश्न) क्यों? उत्तर दिया- (न तत्)। चूंकि वह संशय तो अज्ञान है। (प्रश्न-), ईहा अज्ञान हो तो हानि क्या है? इस शंका को दृष्टिगत रख कर कहा(मतिज्ञानांशः)। ईहा मतिज्ञान का अंश या भेद (ही) है। जो ज्ञान का (एक) भेद होता है, उसकी अज्ञानरूपता संगत नहीं हो सकती। इसी बात को कह रहे हैं- (कथम् अज्ञानम्)। ईहा ज्ञान का अज्ञान (संशय) होना कैसे, किस प्रकार से संगत हो सकता है? अर्थात् किसी भी प्रकार से संगत नहीं हो सकता। (प्रश्न-) आखिर वह ईहा क्या है? उत्तर दिया- (सा युक्तम्)। यह ईहा मतिज्ञान की अंश रूप है (जब कि संशय तो) वस्तु की अप्रतिपत्ति (अनुपलब्धि) रूप होने के कारण अज्ञान रूप है। ईहा ज्ञान का (ही) एक प्रकार है, क्योंकि वह ज्ञान स्वभावी है। ज्ञान या अज्ञान -ये दोनों (परस्परविरुद्ध होने के कारण) एक दूसरे को छोड़कर रहते हैं (जहां ज्ञानत्व है, वहां अज्ञानत्व नहीं रहेगा), इसलिए अज्ञान रूप संशय का ज्ञानांश-आत्मक ईहा रूप होना संगत नहीं हैहै। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 182 // .. "संशय व ईहा में आखिर क्या अन्तर है जो आप ईहा की संशयरूपता को नकार रहे हैं" -इस शंका को दृष्टि में रखकर -इन दोनों के स्वरूप-सम्बन्धी भेद का निरूपण करने जा रहे हैं // 183 // जमणेगत्थालंबणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सव्वप्पयओ तं संसयरूवमन्नाणं // ----- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 267 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं चिय सयत्थहे ऊववत्तिवावारतप्परममोहं। भूयाऽभूयविसेसायाण-च्चायाभिमुहमीहा॥१८४॥ [संस्कृतच्छाया:- यदनेकार्थालम्बनमपर्युदासपरिकुण्ठितं चित्तम्। शेत इव सर्वात्मतस्तत् संशयरूपमज्ञानम् // 183 // तदेव सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परममोघम्। भूताऽभूतविशेषाऽऽदान-त्यागाभिमुखमीहा // 184 // ] / यच्चित्तं यन्मनोऽनेकार्थालम्बनमनेकार्थप्रतिभासाऽऽन्दोलितम्, अत एव पर्युदसनं पर्युदासो निषेधो न तथाऽपर्युदासोऽनिषेधस्तेन, तथोपलक्षणत्वादविधिना च परिकुण्ठितं जडीभूतं सर्वथाऽवस्तुनिश्चयरूपतामापन्नम्, किं बहुना? 'सेय इवेत्यादिशेत इव स्वपितीव सर्वात्मना न किञ्चिच्चेतयते, वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वात्, तदेवंविधं चित्तं संशय उच्यत इत्यर्थः, तच्चाऽज्ञानम्, ||184 // तं चिय सयत्थहेऊववत्तिवावारतप्परममोहं / भूयाऽभूयविसे सायाण-चायाभिमुह मीहा // [(गाथा-अर्थ :) अनेक पदार्थ (-कोटियों) का आलम्बन करने वाला, (किसी भी कोटि के) निषेध (के साधक) के न होने से परिकुण्ठित (जड़वत् स्थित) जो चित्त (की स्थिति) है, वह, चूंकि सर्वतोभावेन सुप्त (वस्तु-उपलब्धि रहित) जैसा होता है, इसलिए संशय रूप अज्ञान (की स्थिति ही) . __ (किन्तु) वही (चित्त) जब भूतार्थ (सद्भूत पदार्थ) का ग्रहण तथा अभूतार्थ (असद्भूत पदार्थ) का त्याग करने की ओर अभिमुख होता है और सत्पदार्थ की हेतु व उपपत्ति के आधार पर व्यापार युक्त (सचेष्ट होता हुआ अमोघ) (सार्थक, अनिर्णय की स्थिति से पार होकर, निर्णय की ओर अग्रसर) हो जाता है, तो वही 'ईहा' है।] व्याख्याः- जो चित्त या मन अनेकार्थालम्बन वाला होता है, अर्थात् अनेक अर्थों की प्रतीति में आन्दोलित (किसी एक पर स्थिर नहीं, अस्थिर) होता है, इसीलिए वह 'अपर्युदास-परिकुंठित' होता है। पर्युदास यानी निषेध, अपर्युदास यानी अनिषेध / अनिषेध शब्द का उपलक्षण से यहां अर्थ 'अबोधि' (अस्तित्व साधक का अभाव) अभिप्रेत है, अतः अपर्युदास यानी निषेधाभाव, उससे परिकुंठितजड़ीभूत, सर्वथा वस्तु सम्बन्धी निश्चय के अभाव को प्राप्त होता है। [तात्पर्य यह है कि इस स्थिति में न तो किसी वस्तु का साधक और न ही बाधक प्रमाण स्थिरता में आता है, इसलिए चित्त कभी इस वस्तु की सत्ता की ओर तो कभी दूसरी वस्तु की सत्ता की ओर आन्दोलित, अस्थिर बना रहता है, कोई निर्णय ले नहीं पाता।] अधिक क्या कहें- (शेते इव)। वह (चित्त) मानों सोया हुआ हो जाता है। उसे सर्वात्मना (पूर्ण रूप से) कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि वस्तु की प्रतिपत्ति (निर्णयात्मक उपलब्धि) नहीं हो पाती। इस प्रकार के चित्त की स्थिति ‘संशय' कही जाती है, वह अज्ञान रूप ही है, Ma 268 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्ववबोधरहितत्वादिति। यत् पुनस्तदेव चेतो वक्ष्यमाणस्वरूपं तदीहेति संबन्धः। कथंभूतं सत्? इत्याह- 'भूयाभूयेत्यादि'। भूतः क्वचिद् विवक्षितप्रदेशे स्थाण्वादिरर्थः, अभूतस्तत्राऽविद्यमानः पुरुषादिः, तावेव पदार्थान्तरेभ्यो विशिष्यमाणत्वाद् विशेषौ, तयोरादानत्यागाभिमुखं- भूतार्थविशेषोपादानस्याऽभिमुखम्, अभूतार्थत्यागस्याऽभिमुखमिति यथासंख्येन संबन्धः। यतः कथंभूतम्? इत्याह- सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परं हेतुद्वारेणेदं विशेषणम्- सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परत्वाद् भूताऽभूतविशेषादानत्यागाभिमुखमिति भावः, तत्र हेतुः साध्यार्थगमकं युक्तिविशेषरूपं साधनम्, उपपत्तिः संभवघटनम्- विवक्षितार्थस्य संभवव्यवस्थापनम्। ततश्च हेतुश्चोपपत्तिश्च हेतूपपत्ती सदर्थस्य विवक्षितप्रदेशेऽरण्यादौ विद्यमानस्य स्थाण्वादेरर्थस्य हेतूपपत्ती सदर्थहेतूपपत्ती तद्विषयो व्यापारो घटनं चेष्टनं सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारस्ततस्तत्परं तनिष्ठमिति समासः। अत एवाऽमोघमर्थबलायातत्वेनाऽविफलममिथ्यास्वरूपम्, तदेवंभूतं चेतः 'ईहा' इति संबन्धः कृत एव। इदमुक्तं भवति- केनचिदरण्यदेशं गतेन सवितुरस्तमयसमये ईषदवकाशमासादयति तमिस्र दूरवर्ती स्थाणुरुपलब्धः, ततोऽस्य विमर्शः समुत्पन:- किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा? इति। अयं च संशयत्वादज्ञानम्। ततोऽनेन तस्मिन् स्थाणौ दृष्ट्वा वल्ल्यारोहणम्, क्योंकि वस्तु का कोई बोध वहां नहीं होता। किन्तु आगे कहे जाने वाले स्वरूप वाला जो चित्त है, वह 'ईहा' है (यह संशय व ईहा में अन्तर है)। उस (ईहात्मक) चित्त का क्या स्वरूप है? उत्तर दिया('भूताभूतविशेषादान' इत्यादि)। भूत यानी किसी विवक्षित प्रदेश में स्थाणु (वृक्ष) आदि पदार्थ, अभूत यानी वहां अविद्यमान पुरुषादि, ये (वृक्ष व पुरुष) दोनों ही अन्य पदार्थों की अपेक्षा विशिष्यमाण (भिन्न, इतर-व्यावृत्त) होने से विशेष हैं, इन दोनों के आदान व त्याग की ओर अभिमुख, अर्थात् भूतार्थ पदार्थ के आदान तथा अभूतार्थ पदार्थ के त्याग की ओर (इस प्रकार क्रमशः) प्रवृत्त जो चित्त है (वह ईहा है)। (प्रश्न-) क्या कारण है कि वह ऐसा (ईहा रूप) है? उत्तर दिया- उसके ऐसा होने में हेतु यह है कि वह सद्भूत पदार्थ का ज्ञान कराने वाले हेतु व संगति (औचित्य विचार) की क्रिया में तत्पर होता है। तात्पर्य यह है कि सद्भूत पदार्थ के आदान एवं असद्भूत पदार्थ के त्याग की ओर अभिमुख इसलिए है क्योंकि वह सद्भूत पदार्थ (के अस्तित्व) से सम्बन्धित (समर्थक) 'हेतु' और उसकी संगति बैंठाने की क्रिया में तत्पर है। यहां 'हेतु' से तात्पर्य है- साध्य (अभीष्ट) पदार्थ का बोधक युक्तिविशेष रूप साधन / उपपत्ति (संगति) का अर्थ है- उसके अस्तित्व की संगति बैठाना। इस प्रकार, विवक्षित प्रदेश अरण्य (जंगल) आदि में विद्यमान स्थाण (वक्ष) आदि पदार्थ से सम्बन्धित जो हेतु व उपपत्ति हैं, उस विषय की प्रवृत्ति को क्रियान्वित करना या तद्रूप में परिणत होना, यह हुआ 'तदर्थ हेतु-उपपत्ति-व्यापार', उसमें तत्पर या उक्त व्यापार में निरत, यह समासगत अर्थ हुआ। इसी (उक्त व्यापार में रत होने) के कारण, जो (चित्त) 'अमोघ' है। यहां अमोघ पद अपने शब्दसामर्थ्य से विशेष अर्थ को बता रहा है, वह अर्थ है- जो विफल न हो, मिथ्या स्वरूप न हो, उस प्रकार का जो चित्त है, इस कथन के आगे यह वाक्य जोड़ना चाहिए- वह (ही) ईहा है। - तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति जंगल में गया। सूर्यास्त के समय जब थोड़ा अन्धकार भी छाने लगा, ऐसे समय उसे दूरस्थित वृक्ष (जैसा पदार्थ) दिखाई दिया। उस व्यक्ति को यह विचार उत्पन्न ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 269 20 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रविलोक्य काक-कारण्डव-कादम्ब-क्रौञ्च-कीर-शकुन्त-कुल-निलयनम्, कृतश्चेतसि हेतुव्यापारः, यथा स्थाणुरयम्, वल्ल्युत्सर्पणकाकादिनिलयनोपलभ्भात्। तथा संभवपर्यालोचनं च व्यधायि, तद्यथा- अस्ताचलान्तरिते सवितरि, प्रसरति चेषत्तमिने महारण्येऽस्मिन् स्थाणुरयं संभाव्यते, न पुरुषः, शिर:कण्डूयन-कर-ग्रीवाचलनादेस्तद्-व्यवस्थापकहेतोरभावात्, ईदृशे च प्रदेशेऽस्यां वेलायां प्रायस्तस्याऽसंभवात् / तस्मात् स्थाणुनाऽत्र सद्भूतेन भाव्यम्, न पुरुषेण / तदुक्तम् "अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो न चाऽधुना संभवतीह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना"॥१॥ एतच्चेदृशं चित्तं'ईहा' इत्युच्यते, निश्चयाभिमुखत्वेन संशयादुत्तीर्णत्वात्, सर्वथानिश्चयेऽपायत्वप्रसङ्गेन निश्चयादधोवर्तित्वाच्च। इति संशयेहयोः प्रतिविशेषः॥ इति गाथाद्वयार्थः // 183 // 184 // हुआ कि यह वृक्ष है या कोई पुरुष है? यह स्थिति 'संशय' होने से 'अज्ञान' है। तदनन्तर, इस व्यक्ति को उस वृक्ष पर दिखाई दिया कि वहां लताएं चढ़ रही हैं, यह भी दिखाई दिया कि उस वृक्ष पर कौए, बत्तख, कलहंस, बगुले ,तोते आदि पक्षियों के समूहों के घोंसले बने हुए हैं। तब उस व्यक्ति के मन में 'हेतु'-विषयक यह व्यापार-(वैचारिक क्रिया) प्रारम्भ हुआ कि यह तो वृक्ष (ही लगता) है, क्योंकि चढ़ती हुई लताएं और कौओं आदि पक्षियों के घोंसले -इनकी यहां उपलब्धि हो रही है। इसी तरह, उसने संगति (औचित्य) का भी विचार किया, जैसे कि सूर्य के अस्तंगत होने पर, यहां थोड़ा अन्धकार फैला है, ऐसे इस महावन में इस (वृक्ष) का होना (अधिक) संभावित है, पुरुष का होना नहीं. क्योंकि सिर खजलाने. हाथ व गर्दन हिलाने आदि क्रियाएं जो परुष होने में साधक हैं. उनका यहां अभाव (भी) है, और ऐसे प्रदेश में, वह भी इस (रात्रि-प्रारम्भ के) समय यहां किसी पुरुष का होना संभव नहीं है। अतः इसे सद्भूत पदार्थ 'वृक्ष' ही होना चाहिए, न कि पुरुष। कहा भी है (एक तो) यह जंगल है, (दूसरे) सूर्य (भी) अस्त हो रहा है, इस समय प्रायः किसी पुरुष का होना यहां संभव नहीं है। अतः पक्षियों से युक्त यह पदार्थ कामदेव शत्रु (शिव) के नाम वाला, अर्थात् स्थाणु (वृक्ष) होना चाहिए। उक्त प्रकार का चित्त 'ईहा' कहा जाता है, क्योंकि वह ज्ञान निश्चय की ओर अभिमुख होने से, संशय से तो ऊपर उठ चुका है (अर्थात् संशय की स्थिति तो इसे कह नहीं सकते), किन्तु सर्वथा निश्चय भी नहीं है, अन्यथा 'अपाय' की कोटि में परिगणित हो जाता, अतः निश्चय (अपाय) की कोटि से थोड़ा नीचे है। इस प्रकार, संशय व ईहा में विशेष भेद (समझने योग्य) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 183-184 // MA 270 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाऽपायधारणागतविप्रतिपत्तिनिराचिकीर्षया परमतमुपदर्शयन्नाह केई तयण्णविसेसावणयणमेत्तं अवायमिच्छन्ति। सब्भूयत्थविसेसावधारणं धारणं बेंति // 185 // [संस्कृतच्छाया:- केचित् तदन्यविशेषापनयनमात्रमपायमिच्छन्ति। सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणां ब्रुवते॥] तच्छब्दस्याऽनन्तरगाथोक्तो भूतोऽर्थः संबध्यते, तस्मात् तत्र भूता विद्यमानात् स्थाण्वादेर्योऽन्यस्तत्प्रतियोगी तत्राऽविद्यमानः पुरुषादिस्तद्विशेषाः शिरःकण्डूयन-चलन-स्पन्दनादयस्तेषां पुरोवर्तिनि सद्भूतेऽर्थेऽपनयनं निषेधनं तदन्यविशेषापनयनं तदेव तन्मात्रम्, अपायमिच्छन्ति, केचनाऽपि व्याख्यातार:- अपायनमपनयनमपाय इति व्युत्पत्त्यर्थविभ्रमितमनस्का इति भावः। अवधारणं धारणा इति च व्युत्पत्त्यर्थभ्रमितास्ते धारणां ब्रुवते। किं तत्? इत्याह- सद्भूतार्थविशेषावधारणं सद्भूतस्तत्र विवक्षितप्रदेशे विद्यमानः स्थाण्वादिरर्थविशेषस्तस्य स्थाणुरेवाऽयं' इत्यवधारणं सद्भूतार्थविशेषावधारणमिति समासः॥ इति गाथार्थः॥१८५॥ (अपाय व धारणा सम्बन्धी पूर्वपक्ष) अब अपाय व धारणा से सम्बन्धित मत-भिन्नता (या उठाई गई आपत्तियों) का निराकरण करने के उद्देश्य से परकीय मत को उपस्थापित कर रहे हैं // 185 // केई तयण्णविसेसावणयणमेत्तं अवायमिच्छन्ति। सब्भूयत्थविसे सावधारणं धारणं बेंति // ___ [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) लोग सद्भूत वस्तु से भिन्न वस्तु में रहने वाले विशेषों (धर्मो) के अपनयन या निषेध मात्र को 'अपाय' कहते हैं। वे सद्भूत पदार्थ के विशेषों के अवधारण को 'धारणा' (नाम से) कहते हैं।] __व्याख्याः - गाथा में प्रयुक्त 'तत्' (वह) पद पूर्व गाथा में कहे गये भूतार्थ को (संकेतित करते हुए यहां उसे) जोड़ रहा है। अतः ('तदन्यविशेषापनयन' पद का अर्थ हुआ कि) उससे, अर्थात् सद्भूत पदार्थ से, जो अन्य है, या उसका प्रतियोगी- (जो वहां) अविद्यमान पुरुष है, उसके विशेष (धर्म) हैंसिर खुजलाना, चलना-हिलना-स्पन्दित होना आदि, उनका सन्मुखस्थित सद्भूत पदार्थ में अपनयन यानी निषेध करना / बस इसी को, इतने मात्र को ही, 'अपाय' कहते हैं। (प्रश्न-) कौन (कहते हैं)? उत्तर- कुछ व्याख्याता हैं (जो वैसा कहते हैं)। अर्थात् 'अपनयनम् अपायः' (अपनयन, अन्य वस्तु का निषेध ही 'अपाय' है) -इस व्युत्पत्ति से अभिहित अर्थ (को स्वीकार करने) के कारण जिनका मन भ्रमयुक्त हो गया है। इसी प्रकार, वे 'अवधारणमेव धारणा' (अवधारण ही धारणा है) -इस व्युत्पत्ति से अभिहित अर्थ (को स्वीकार करने) के कारण भ्रमित होने वाले (व्याख्याता) धारणा को भी वैसा (अपाय की तरह) ही कहते हैं। (प्रश्न-) उनके मत में धारणा का स्वरूप क्या है? उत्तर दिया- सद्भूतार्थ-विशेषावधारण (ही धारणा है)। इस समस्त पद का अर्थ इस प्रकार है- सद्भूत ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------271 2 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेतद् दूषयितुमाह कासइ तयन्नवइरेगमेत्तओऽवगमणं भवे भूए। सब्भूयसमण्णयओ तदुभयओ कासइ न दोसो॥१८६॥ . [संस्कृतच्छाया:- कस्यचित् तदन्यव्यतिरेकमात्रतोऽवगमनं भवेद् भूते। सद्भूतार्थसमन्वयतस्तदुभयतः कस्यचिद् न दोषः॥] 'भूएत्ति'।तत्र विवक्षितप्रदेशे भूते विद्यमानेऽर्थे स्थाण्वादौ कासइत्ति'।कस्यचित् प्रतिपत्तुस्तदन्यव्यतिरेकमात्रादवगमनं निश्चयो भवति- तस्मात् स्थाण्वादेर्योऽन्यः पुरुषादिरर्थस्तस्य व्यतिरेकः स एव तदन्यव्यतिरेकमात्रं तस्मात् स्थाण्वाद्यर्थनिश्चयो भवतीत्यर्थः। तद्यथा- यतो नेह शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा दृश्यन्ते; ततः स्थाणुरेवाऽयमिति। कस्यापि सद्भूतसमन्वयतः सद्भूतस्तत्र प्रदेशे विद्यमानः स्थाण्वादिरर्थस्तस्य समन्वयतोऽन्वयधर्मघटनाद् भूतेऽर्थेऽवगमनं निश्चयो भवेत्, यथा स्थाणुरेवाऽयम्, वल्ल्युत्सर्पण यानी विवक्षित प्रदेश में विद्यमान वृक्ष आदि पदार्थ-विशेष, उसे 'यह वृक्ष ही है' -इस रूप में अवधारण करना 'धारणा' है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 185 // उक्त मत की दोषपूर्णता का निरूपण कर रहे हैं // 186 // कासइ तयन्नवइरेगमेत्तओऽवगमणं भवे भूए। सब्भूयसमण्णयओ तदुभयओ कासइ न दोसो // [(गाथा-अर्थ :) किसी व्यक्ति को तो सद्भूत पदार्थ में तद्भिन्न के व्यतिरेक (अभाव) मात्र (के बोध) से अवगम यानी निश्चय हो जाता है, किसी को सद्भूत पदार्थ में रहने वाले अन्वय-धर्मों (सहभावी धर्मों) के समन्वय (घटित) होने मात्र से, तो किसी को (तदन्यव्यतिरेक व तद्गत अन्वयधर्मसमन्वय -इन) दोनों से निश्चय (अपाय) होता है तो ऐसा होने में कोई दोष नहीं माना जाता है (किन्तु परकीय व्याख्यान में दोष की सम्भावना है, अतः वह व्याख्यान उपयुक्त नहीं)।] व्याख्याः-(भूते) भूत यानी 'वहां विवक्षित प्रदेश में स्थित वृक्ष आदि पदार्थ' / उसमें (कस्यचित्)। किसी ज्ञाता को तदन्यव्यतिरेक मात्र के बोध से निर्णय हो जाता है, अर्थात् तदन्य यानी उस वृक्ष से अन्य पदार्थ (घट-पटादि), उनके व्यतिरेक (अभाव) मात्र (के बोध) से वृक्षादि पदार्थ का निश्चय हो जाता है। उदाहरणार्थ- 'यह वृक्ष ही है' :-ऐसा निश्चय होता है, क्योंकि उस (पदार्थ) में वृक्ष से भिन्न पुरुष में रहने वाले धर्म -सिर खुजलाना आदि नहीं दिखाई देते। किसी को सद्भूत समन्वय से (निश्चय होता है), सदभत यानी 'उस प्रदेश में विद्यमान वक्ष आदि पदार्थ'. उसके समन्वय से, उसमें पाये जाने वाले अन्वय-धर्मों (वृक्ष के सहभावी धर्मों) के (वहां) समन्वय (बैठ जाने) से, अर्थात् उसमें रहने वाले अन्वय-धर्मों के वहां घटित होने से- उदाहरणस्वरूप, लता-आरोहण, पक्षियों के घोंसलों Ma 272 --------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. वयोनिलयनादिधर्माणामिहाऽन्वयादिति / कस्यचित् पुनस्तदुभयादन्वय-व्यतिरेकोभयात् तत्र भूतेऽर्थेऽवगमनं भवेत्। तद्यथा- यस्मात् पुरुषधर्माः शिर:कण्डूयनादयोऽत्र न दृश्यन्ते, वल्ल्युत्सर्पणादयस्तु स्थाणुधर्माः समीक्ष्यन्ते, तस्मात् स्थाणुरेवाऽयमिति। न चैवमन्वयात्, व्यतिरेकात्, उभयाद् वा निश्चये जायमाने कश्चिद् दोषः, परव्याख्यानेन तु वक्ष्यमाणन्यायेन दोष इति भावः।। इति गाथार्थः // 186 // कथं पुनस्तद्-व्याख्याने न दोष:?, इत्याह सव्वो वि य सोऽवाओ भए वा होंति पंच वत्थूणि। __ आहेवं चिय चउहा मई तिहा अन्नहा होइ // 187 // [संस्कृतच्छाया:- सर्वोऽपि च सोऽपायो भेदे वा भवन्ति पञ्च वस्तूनि। आहैवमेव चतुर्धा मतिस्त्रिधाऽन्यथा न भवति // ] आदि धर्मों का वहां समन्वय (सद्भाव) है -ऐसा भान हो जाने से 'यह वृक्ष ही है' -ऐसा निश्चय हो जाता है। इसी तरह, किसी (दूसरे) को उक्त दोनों प्रकारों से, अन्वय व व्यतिरेक -इन दोनों के आधार पर, जैसे 'चूंकि यहां सिर खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म यहां दिखाई नहीं पड़ते, (किन्तु) लता-अवरोहण आदि वृक्षगत धर्म दिखलाई देते हैं, इसलिए 'यह वृक्ष ही है' -इस रूप में सद्भूत पदार्थ का निश्चय हो सकता है। (इन तीनों प्रकारों-) अन्वय, व्यतिरेक तथा तदुभय -(यानी अन्वय व व्यतिरेक, दोनों) से निश्चय होने में कोई दोष नहीं मान जाता, किन्तु परकीय व्याख्या को मानने पर तो आगे कही जाने वाली रीति से दोष प्रसक्त होगा | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 186 // आखिर उक्त (आपके) व्याख्यान में दोष क्यों नहीं है? -इस (प्रकार की परकीय) आशंका को दृष्टि में रखकर (उत्तर) कह रहे हैं // 187 // - सव्वो वि य सोऽवाओ भए वा होति पंच वत्थूणि। आहे व चिय चउहा मई तिहा अन्नहा होइ // [(गाथा-अर्थ :) (अन्वय, व्यतिरेक आदि के आधार पर किया जाने वाला) वह समस्त (निर्णयात्मक) ज्ञान ‘अपाय' है। यदि (अपाय व धारणा में) भेद मानेंगे तो (मति ज्ञान के) पांच भेद होने लगेगें (या मानने पड़ेंगें)। (भाष्यकार द्वारा उक्त प्रकार से अपने व्याख्यान की निर्दोषता तथा परकीय व्याख्यान की सदोषता का संकेत किये जाने पर, अन्य रीति से व्याख्यान करने वालों की ओर से) आक्षेप :(हमारे व्याख्यान के अनुसार तो) मति चतुर्विध ही होती है (पांच नहीं), (उलटे) अन्यथा (अन्य तरीके से किये गये आपके व्याख्यान के अनुसार) तो वह (मति) त्रिविध ही रह जाएगी।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 273 2 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्माद् व्यतिरेकाद्, अन्वयाद्, उभयाद् वा भूतार्थविशेषावधारणं कुर्वतो योऽध्यवसायः, स सर्वोऽप्यपाय: प्रस्तुतस्थाण्वादिवस्तुनिश्चयः, न तु सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणेति भावः, तस्माद् न दोषः॥ आह- ननु यथा मया व्याख्यायते- सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणा, तथा किं कश्चिद् दोषः समुपजायते, येनाऽऽत्मीयव्याख्यानपक्षे इदमित्थमभिधीयते 'न दोषः' इति?। एतदाशङ्क्याह- 'भेए वेत्यादि'। वाशब्दः पातनायां गतार्थः। व्यतिरेकोऽपायः, अन्वयस्तु धारणा, इत्येवं मतिज्ञानतृतीयभेदस्याऽपायस्य भेदेऽभ्युपगम्यमाने पञ्च वस्तूनि पञ्च भेदा भवन्ति, 'आभिनिबोधिकज्ञानस्य' इति गम्यते। तथाहिंअवग्रहेहाऽपायधारणालक्षणाश्चत्वारो भेदास्तावत् त्वयैव पूरिताः, पञ्चमस्तु भेदः स्मृतिलक्षणः प्राप्नोति- अविच्युतेः स्वसमानकालभाविन्यपायेऽन्तर्भूतत्वात्, वासनायास्तु स्मृत्यन्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात्, स्मृतेरनन्यशरणत्वाद् मतेः पञ्चमो भेदः प्रसज्ज्यत इति भावः॥ व्याख्याः - चूंकि व्यतिरेक, अन्वय या 'अन्वय व व्यतिरेक' -इन दोनों के आधार पर सद्भूत पदार्थ के विशेषों का अवधारण करते हुए व्यक्ति का जो अध्यवसाय है, अर्थात् प्रस्तुत वृक्षादि वस्तु से सम्बन्धित समस्त निश्चय 'अपाय' है, सद्भूतपदार्थ के विशेष का अवधारण रूप धारणा नहीं है, अतः कोई दोष नहीं [किन्तु 'तदन्यविशेष-अपनयन मात्र' को अपाय मानने वाले परकीय व्याख्यान में उस 'सद्भूतपदार्थविशेष-अवधारण' को 'अपाय' न मान कर 'धारणा' माना जा रहा है, अतः दोष संभावित है।] (अब 'सद्भूतार्थविशेष-अवधारण तो धारणा है' -इस व्याख्यान के पक्षधरों की ओर से) यहां शंका की जा रही है- जैसा हमने व्याख्यान किया है कि सद्भूत पदार्थ के विशेष का अवधारण 'धारणा' है, उसमें कोई दोष कैसे है? और आप भी ऐसा दृढ़ता (इदमित्थं) पूर्वक कैसे कह सकते हैं कि आपके व्याख्यान में कोई दोष नहीं है (जब कि जैसा दोष आप हमारे व्याख्यान में बता रहे हैं, वैसा ही दोष तो आपके व्याख्यान में भी संभावित है)। उपर्युक्त आशंका (पूर्वपक्षीय कथन) को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार) कह रहे हैं- भेदे वा इत्यादि। यहां 'वा' शब्द की सार्थकता नवीन विकल्प प्रस्तुत करने (पातना) का सूचक है, अतः उसकी यहां सार्थकता है। व्यतिरेक 'अपाय' है, अन्वय 'धारणा' है -इस प्रकार मति ज्ञान के तृतीय भेद 'अपाय' के दो भेद मानने पर तो (पंच वस्तूनि) आभिनिबोधिकज्ञान के पांच भेद हैं- ऐसा ज्ञात (सिद्ध) होता है। अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा -ये चार भेद तो आपने पूर्ण कर लिये, ऐसी स्थिति में स्मृतिलक्षण रूप पांचवां भेद प्रसक्त होता है (अर्थात् मानना पड़ सकता है)। तात्पर्य यह है कि अविच्युति तो स्वसमानकालभावी 'अपाय' में अन्तर्भूत हो गई, वासना का भी स्मृति के अन्तर्गत ही होना विवक्षित है, अब स्मृति के लिए कोई अन्य शरण नहीं होने से, उसे मति का पांचवां भेद मानना पड़ेगा। - 274 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आहेत्यादि' पुनरप्याह पर:- ननु यथैव मया व्याख्यायते- व्यतिरेकमुखेन निश्चयोऽपायः, अन्वयमुखेन तु धारणा, इत्येवमेव चतुर्धा चतुर्विधा मतिर्भवति युक्तितो घटते। अन्यथा तु व्याख्यायमाने- अन्वय-व्यतिरेकयोर्द्वयोरप्यपायत्वेऽभ्युपगम्यमाने - इत्यर्थः। किम्?, इत्याह- त्रिधा-अवग्रहेहाऽपायभेदतस्त्रिभेदा मतिर्भवति, न पुनश्चतुर्धा, धारणाया अघटमानकत्वादिति भावः।। इति गाथार्थः॥१८७॥ कथं पुनर्धारणाऽभावः?, इत्याह काऽणुवओगम्मि धिई पुणोवओगे य सा जओऽवाओ?। तो नत्थि धिई, भण्णइ इदं तदेवेति जा बुद्धी॥१८८॥ नणु साऽवायब्भहिया जओ य सा वासणाविसेसाओ। जा याऽवायाणन्तरमविच्चुई सा धिई नाम // 189 // (आह-) (अब अन्यथा व्याख्यान करने वाले विरोधियों की ओर से पुनः शंका प्रस्तुत की जा रही है-) जैसे जिस प्रकार से हमने व्याख्यान किया है कि व्यतिरेक (के निश्चय) के आधार पर किया जाने वाला निर्णय 'अपाय' है, और अन्वय के आधार पर किया जाने वाला निर्णय 'धारणा' है, इस प्रकार (हमारे व्याख्यान में) मति ज्ञान के चार ही प्रकार सयुक्तिक घटित होते हैं (अतः मति के पांच भेद होने का दोष कैसे दे रहे हैं? दूसरी बात यह कि हमारे व्याख्यान से भिन्न, आपके द्वारा भिन्न व्याख्यान करने पर, अर्थात् अन्वय व व्यतिरेक- इन दोनों (के आधार पर किये गये निर्णय) को 'अपाय' रूप में स्वीकार करने पर भी मति ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अपाय -ये तीन ही भेद होते हैं, न कि चार, क्योंकि 'धारणा' तो इनमें घटित होती नहीं (अतः आपके व्याख्यान में मति ज्ञान के एक भेद कम होने का दोष स्पष्ट है) -यह भाव है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥ 187 // (अविच्युत वासना-स्मृति रूप धारणा) ..'धारणा' का अभाव कैसे है- इस आरोप को (विरोधी पूर्वपक्षी, जो अन्यथा व्याख्यान का - पक्षधर है, वह) स्पष्ट कर रहा है // 188 // काऽणुवओगम्मि धिई पुणोवओगे य सा जओऽवाओ? | तो नत्थि धिई, भण्णइ इदं तदेवेति जा बुद्धी॥ // 189 // नणु साऽवायब्भहिया जओ य सा वासणाविसेसाओ। जा याऽवायाणन्तरमविच्चुई सा धिई नाम || -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 275 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- काऽनुपयोगे धृतिः, पुनरुपयोगे च सा यतोऽपायः। ततो नास्ति धृतिर्भण्यते इदं तदेवेति या बुद्धिः॥ .. ननु साऽपायाऽभ्यधिक यतश्च वासनाविशेषात् / या चाऽपायानन्तरमविच्युतिः सा धृतिर्नाम॥] अनुपयोगे उपयोगोपरमे सति का धृतिः- का नाम धारणा? न काचिदित्यर्थः / इदमुक्तं भवति- इह तावद् निश्चयोपायमुखेन . घटादिके वस्तुनि अवग्रहे हाउपायंरूपतयाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाण एवोपयोगो जायते। तत्र चाऽपाये जाते या उपयोगसानत्यलक्षणाऽविच्युतिर्भवताऽभ्युपगम्यते, साऽपाय एवाऽन्तर्भूता, इति न ततो व्यतिरिक्ता। या तु तस्मिन् घटाधुपयोगे उपरते सति संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाऽभ्युपगम्यते, 'इदंतदेव' इतिलक्षणा स्मृतिश्चाङ्गीक्रियते, सा मत्यंशरूपा धारणा न भवति, मत्युपयोगस्य प्रागेवोपरतत्वात्। पुनरपि कालान्तरोपयोगे धारणा भविष्यतीति चेत्, इत्याह- 'पुणो इत्यादि'। कालान्तरे पुनर्जायमानोपयोगेऽपि याऽन्वयमुखोपजायमानाऽवधारणरूपा धारणा मयेष्यते, सा यतोऽपाय एव भवताऽभ्युपगम्यते 'सव्वो वि य सोऽवाओ' इत्यादिवचनात्; ततस्तत्रापि नास्ति धृतिर्धारणा, पुनरप्युपयोगोपरमेऽपि पूर्वोक्तयुक्त्यैव वः; तस्मादुपयोगकालेऽन्वयमुखाऽवधारणरूपाया धारणायास्त्वयाऽनभ्युपगमात्, उपयोगोपरमे च मत्युपयोगाभावात्, तदंशरूपाया धारणाया अघटमानकत्वात् त्रिधैव भवदभिप्रायेण मतिः प्राप्नोति, न चतुर्धा, इति पूर्वपक्षाभिप्रायः॥ [(गाथा-अर्थ :) अनुपयोग की स्थिति में (अर्थात् अपाय हो जाने से उपयोग की उपरति हो जाने पर) धृति (धारणा) की स्थिति कहां रही? पुनः उपयोग होने पर भी धारणा नहीं होगी, क्योंकि 'अपाय' (के रूप में) ही वह धारणा (अन्तर्भूत) है। अतः धारणा का अभाव हो गया। (उत्तर-) (बाद में) 'यह वस्तु वही है' -इस प्रकार की जो बुद्धि होती है, वह निश्चय ही पूर्ववर्ती 'अपाय' से कुछ अतिरिक्त है, अतः वही धारणा है, क्योंकि वह विशेष वासना के रूप में उत्पन्न होती है। इसी प्रकार, अपाय के अनन्तर जो अपाय-सम्बन्धी अविच्युति प्रवर्तित होती रहती है, उसका भी नाम (धारणा) है।] व्याख्याः- अनुपयोग यानी उपयोग की उपरति होने पर, कौन-सी धृति या धारणा सम्भावित है? अर्थात् कोई भी धारणा सम्भावित नहीं। तात्पर्य यह है कि घटादि वस्तु में निश्चय तक पहुंचने की प्रक्रिया में ईहा व अपाय रूप अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपयोग होता है। जब (घट-विषयक) अपाय सम्पन्न (परिपूर्ण) हो गया, तब उक्त उपयोग की निरन्तरता रूप जिस 'अविच्युति' का होना आप स्वीकारते हैं, वह (तो) अपाय में अन्तर्भूत है, अतः वह 'अपाय' से अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। घटादि उपयोग के उपरत (सम्पन) होने पर जो संख्येय या असंख्येय काल वाली जिस वासना का सद्भाव आप मानते हैं, वह 'वह यही है' इस रूप में होने वाली स्मृति के रूप में स्वीकृत है, अतः वह भी मति ज्ञान का अंश रूप धारणा (इसलिए) नहीं हा सकती, क्योंकि मति-उपयोग तो पहले ही उपरत (परिपूर्ण) हो चुका। यदि ऐसा कहें कि पुनः कालान्तर में उपयोग होने पर धारणा हो सकती है तो इसके प्रत्युत्तर में कहा-- (पुनः उपयोगे)। (अर्थात्) कालान्तर में उपयोग होने पर भी 'अन्वय' के आधार पर होने वाली अवधारणा- जो हमें धारणा रूप से अभीष्ट है, उसे तो आपने (पूर्व गाथा-187 में) 'सास्त अवधारणात्मक अत्यवसाय अपाय ही है' -कथन से 'अपाय' में ही समाविष्ट कर लिया है, -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोतरमाह- 'भण्णईत्यादि'। भण्यतेऽत्र प्रतिविधानम्। किम्?, इत्याह- 'इदं वस्तु तदेव यत् प्रागुपलब्धं मया' इत्येवंभूता कालान्तरे या स्मृतिरूपा बुद्धिरुपजायते। नन्विह सा पूर्वप्रवृत्तादपायाद् निर्विवादमभ्यधिकैव, पूर्वप्रवृत्ताऽपायकाले तस्या अभावात् / सांप्रतापायस्य तु वस्तुनिश्चयमात्रफलत्वेन पूर्वापरदर्शनानुसंधानाऽयोगात्। ततश्च साऽनन्यरूपत्वाद् धृतिर्धारणा नामेति पर्यन्ते संबन्धः। यतश्च यस्माच्च वासनाविशेषात्- पूर्वोपलब्धवस्त्वाहितसंस्कारलक्षणात् तद्विज्ञानावरणक्षयोपशमसान्निध्यादित्यर्थः, सा'इदं तदेव' इतिलक्षणा स्मृतिर्भवति।साऽपि वासनाऽपायादभ्यधिकेति कृत्वा धृतिर्नाम, इतीहापि संबन्धः। 'जा याऽवायेत्यादि'। या चाऽपायादनन्तरमविच्युतिः प्रवर्तते, साऽपि धृतिर्नाम। इदमुक्तं भवति- यस्मिन् समये 'स्थाणुरेवाऽयम्' इत्यादिनिश्चयस्वरूपोऽपायः प्रवृत्तः, ततः समयादूर्ध्वमपि स्थाणुरवाऽयम्' इत्यविच्युता याऽन्तर्मुहूर्त क्वचिदपायप्रवृत्तिः साऽप्यपायाऽविच्युतिः प्रथमप्रवृत्तापायादभ्यधिकेति धृतिर्धारणा नामेति। एवमविच्युतिवासना-स्मृतिरूपा धारणा विधा सिद्धा भवति॥ इसलिए वहां भी धृति या धारणा सम्भव नहीं। इसके बाद भी, उस उपयोग की उपरति होने पर भी, पुनः धारणा का पूर्वोक्त रीति से ही अभाव रहेगा। इस प्रकार, उपयोग-काल में अन्वयमुखी अवधारण रूप धारणा का होना आप मानते नहीं, उपयोग की उपरति में मति उपयोग ही नहीं रहता तो उसकी अंश रूपी धारणा भी घटित नहीं होगी, अतः आपके अभिप्राय से मति के तीन ही प्रकार प्राप्त होते हैं, न कि चार भेद -यह पूर्वपक्ष का अभिप्राय है। .. अब पूर्वपक्ष का उत्तर दे रहे हैं- (भण्यते)। हमारी ओर से प्रत्युत्तर इस प्रकार है। क्या उत्तर है? कह रहे हैं- 'यह वस्तु नहीं है, जिसे मैंने पहले उपलब्ध की थी' इस प्रकार की स्मृति रूप बुद्धि कालान्तर में उत्पन्न होती है (अतः धारणा के होने से मति चतुर्विध ही होगी)। निश्चय ही वह (बुद्धि) पूर्वप्रवृत्त 'अपाय' की अपेक्षा से निर्विवाद रूप से अधिक (अतिरिक्त) ही है, क्योंकि पूर्वप्रवृत्त अपाय के समय उसका अभाव है। जब अपाय हो रहा होता है, तो वह वस्तु-निर्णय रूप में फलित (सार्थक) हो जाता है, वह पूर्वकालीन व अनन्तरकालीन -दोनों दर्शनों को जोड़ने का काम नहीं करता। वह बुद्धि पूर्वापरदर्शन-अनुसंधान से भिन्न कुछ नहीं होती। इस वाक्य की पूर्ति गाथा में आए 'सा धृतिर्नाम' वाक्य से करनी चाहिए, अतः अर्थ हुआ कि उस बुद्धि का (ही) धृति या धारणा नाम है। (यतश्च-) (उक्त कथन में युक्ति यह है कि) चूंकि 'यह वही है' -इस प्रकार की जो स्मृति होती है, वह वासना विशेष रूप ही है, वह वासना अपाय से कुछ अतिरिक्त है, इसलिए उसका (ही) धृति या धारणा नाम है। (या वा अपायाभ्यधिका-) अपाय होने के बाद जो उसकी अविच्युति (निरन्तरता) प्रवर्तमान रहती है, वह भी धृति या धारणा ही है। तात्पर्य यह है कि जिस समय 'यह वृक्ष ही है' इस प्रकार का निश्चयात्मक 'अपाय' हुआ, उसके बाद भी, अन्तर्मुहूर्त तक 'यह वृक्ष ही है' इस प्रकार अविच्युति (निरन्तरता) रूप अपाय-प्रवृत्ति होती रहती है, वह भी प्रथम प्रवृत्त अपाय से अतिरिक्त होने से धृति या धारणा है। इस प्रकार (1) अविच्युति, (2) वासना (3) स्मृति -इन तीन प्रकारों वाली धारणा (का सद्भाव) सिद्ध है। - ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------277 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राह कश्चित्- नन्वविच्युति-स्मृतिलक्षणौ ज्ञानभेदौ गृहीतग्राहित्वाद् न प्रमाणम्, द्वितीयादिवारा-प्रवृत्ताऽपायसाध्यस्य वस्तनिश्चयलक्षणस्य कार्यस्य प्रथमवारा-प्रवत्तापायेनैव साधितत्वात। न च निष्पादितक्रिये कर्मणि तत्साधनायैव प्रवर्तमानं साधनं शोभा बिभर्ति, अतिप्रसङ्गात्- कुठारादिभिः कृतच्छेदनादिक्रियेष्वपि वृक्षादिषु पुनस्तत्साधनाय तेषां प्रवृत्त्याप्तेः। स्मृतेरपि पूर्वोत्तरकालभाविज्ञानद्वयगृहीत एव वस्तुनि प्रवर्तमानतया कुतः प्रामाण्यम्?। न च वक्तव्यं पूर्वोत्तरदर्शनद्वयाऽनधिगतस्य वस्त्वेकत्वस्य ग्रहणात् स्मृतिः प्रमाणम्, पूर्वोत्तरकालदृष्टस्य वस्तुनः कालादिभेदेन भिन्नत्वात्, एकत्वस्यैवाऽसिद्धत्वादिति। वासना तु किंरूपा? इति वाच्यम्। संस्काररूपेति चेत्। कोऽयं नाम संस्कारः? स्मृति-ज्ञानावरणक्षयोपशमो वा, तज्ज्ञानजननशक्तिर्वा, तद्वस्तुविकल्पो वा? इति त्रयी गतिः। तत्राद्यपक्षद्वयमयुक्तम्, ज्ञानरूपत्वाभावात्, तद्भेदानां चेह विचार्यत्वेन प्रस्तुतत्वात्। तृतीयपक्षोऽप्ययुक्त एव, संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाया इष्टत्वात्, एतावन्तं च कालं तद्वस्तुविकल्पाऽयोगात्। तदेवमविच्युति-स्मृति-वासनारूपायास्त्रिविधाया अपि धारणाया अघटमानत्वात् त्रिधैव मतिः प्राप्नोति, न चतुर्धा // यहां किसी ने (प्रश्न रूप से) कहा- अविच्युति व स्मृति रूप जो ज्ञान के प्रकार हैं, वे गृहीतग्राही होने से प्रमाण (ही) नहीं है। (यहां गृहीतग्राहिता कैसे है- यह बता रहे हैं-) दूसरी बार प्रवृत्त 'अपाय' द्वारा जो वस्तु-निश्चय रूप कार्य किया जाता है, उसे प्रथम बार प्रवृत्त 'अपाय' ने ही कर दिया होता है। जो क्रिया अपना काम (प्रयोजन) निष्पन्न कर चुकी हो तो उसी काम (या प्रयोजन) की सिद्धि हेतु ही (पुनः) प्रवृत्तः होने वाले साधन की कोई शोभा (या महत्ता) नहीं होती, अन्यथा अतिप्रसक्ति दोष आएगा, क्योंकि कुठार आदि से वृक्ष-छेदन क्रिया किये जाने पर भी, उसी क्रिया को करने के लिए उन्हीं (कुठारादि) की पुनः-पुनः प्रवृत्ति (अपेक्षित) होती रहेगी। स्मृति जिस वस्तु को लेकर प्रवृत्त होती है, वह पूर्वकालीन व उत्तरकालीन- इस द्विविध ज्ञान से गृहीत ही होती है, अतः उसकी प्रमाणता कैसे संगत है? यदि ऐसा कहो कि 'स्मृति इसलिए प्रमाण है, क्योंकि वह दोनों ज्ञानों के एकत्व को ग्रहण करती है जिसे पूर्वकालीन व उत्तरकालीन -दोनों ज्ञान ग्रहण नहीं कर पाते' तो यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि पूर्वदृष्ट व पश्चादृष्ट -दोनों वस्तुएं कालादि की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न हैं, अतः दोनों में एकत्व असिद्ध है। (और फिर) वासना (का) भी आप क्या स्वरूप (मानते) हैं? वह संस्कार रूप है- ऐसा मानते हैं तो पहले यह बताएं कि 'संस्कार' क्या है? वह स्मृतिज्ञानावरणक्षयोपशम रूप है, या स्मृतिज्ञानोत्पादक शक्ति है या सम्बद्ध वस्तु-विषयक कोई विकल्प है? इन तीनों विकल्पों में से ही आपको संस्कार का एक स्वरूप मानना पड़ेगा, और कोई दूसरा रास्ता नहीं। इनमें (ज्ञानावरणक्षयोपशम रूप तथा स्मृति-ज्ञानोत्पादनशक्ति रूप) प्रथम व द्वितीय पक्ष तो असंगत हैं, क्योंकि उनमें ज्ञानरूपता नहीं है, किन्तु यहां ज्ञानसम्बन्धी भेदों का ही विचार चल रहा है (अतः वे दोनों पक्ष अविचारणीय ठहरते हैं)। (सम्बन्धित वस्तु-विषयक विकल्प मानने का) तृतीय पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि वासना का सद्भाव संख्येय व असंख्येय काल तक अभीष्ट (माना गया) है और इतने समय तक वस्तु-सम्बन्धी विकल्प (का ठहरना) सम्भव नहीं। इस प्रकार, अविच्युति, स्मृति, वासना-इन तीनों प्रकार की धारणाओं के घटित न होने से, मति के तीन ही भेद प्रसक्त होते हैं, चार नहीं। a 278 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोच्यते- यत् तावद् गृहीतग्राहित्वादविच्युतेरप्रामाण्यमुच्यते, तदयुक्तम्, गृहीतग्राहित्वलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वात्, अन्यकालविशिष्टं हि वस्तु प्रथमप्रवृत्ताऽपायेन गृह्यते, अपरकालविशिष्टं च द्वितीयादिवारा-प्रवृत्ताऽपायेन। किञ्च,स्पष्ट-स्पष्टतर-स्पष्टतमभिन्नधर्मकवासनाजनकत्वादप्यविच्युतिप्रवृत्तद्वितीयाद्यपायविषयं वस्तु भिन्नधर्मकमेव, इति कथमविच्युतेर्गृहीतग्राहिता?। स्मृतिरपि पूर्वोत्तरदर्शनद्वयानधिगतं वस्त्वेकत्वं गृह्णाना न गृहीतग्राहिणी। न च वक्तव्यं कालादिभेदेन भिन्नत्वाद् वस्तुनो नैकत्वम्, कालादिभिर्भिन्नत्वेऽपि सत्त्व-प्रमेयत्व-संस्थानरूपादिभिरेकत्वात्। वासनाऽपि स्मृति-विज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपा, तद्विज्ञानजननशक्तिरूपा चेष्यते। सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानरूपा न भवति, - तथापि पूर्वप्रवृत्ताऽविच्युतिलक्षणज्ञानकार्यत्वात्, उत्तरकालभाविस्मृतिरूपज्ञानकारणत्वाच्चोपचारतो ज्ञानरूपाऽभ्युपगम्यते। तद्वस्तुविकल्पपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव निरस्तः। तस्मादविच्युति-स्मृति-वासनारूपाया धारणायाः स्थितत्वाद न मतेस्त्रैविध्यम, किन्तु चतुर्धा सेति स्थितम् // इति गाथाद्वयार्थः // 188 // 189 // .. इस (पूर्वोक्त आपत्ति, दोषारोपण) के सम्बन्ध में (प्रत्युत्तर रूप में) हमारा यह कहना है कि जो अपने गृहीतग्राही होने से अविच्युति की अप्रमाणता का निर्देश किया, वह युक्तिसंगत नहीं ठहरता, क्योंकि गृहीतग्राहिता लक्षण रूप हेतु वहां (अविच्युति में) असिद्ध (हेत्वाभास रूप दोष ग्रस्त) है, क्योंकि प्रथम बार में प्रवृत्त अपाय द्वारा जो वस्तु गृहीत है, वह अन्य काल की है, द्वितीय बार प्रयुक्त अपाय द्वारा गृहीत वस्तु अन्य काल की है (इस प्रकार कालकृत वस्तु-भेद होने से गृहीतग्राहिता दोष घटित नहीं होता)। ... दूसरी बात, अविच्युति रूप से प्रवृत्त द्वितीय, तृतीय आदि अपाय की विषय होने वाली वस्तुएं भिन्न-भिन्न धर्म वाली हैं, क्योंकि वे स्पष्ट, स्पष्टतर व स्पष्टतम -इस प्रकार भिन्न-भिन्न धर्मवाली वासनाओं की जनक हैं, अतः अविच्युति की गृहीतग्राहिता कैसे सिद्ध हुई? . स्मृति भी गृहीतग्राहिणी नहीं है, क्योंकि वह पूर्वकालीन व उत्तरकालीन -इस द्विविध दर्शनों के अनधिंगत (अविषयीकृत) वस्तु के एकत्व को ग्रहण करती है। “कालादि की भिन्नता से वस्तु की भिन्नता है, अतः वस्तु का एकत्व नहीं हो सकता” –यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि कालादि की अपेक्षा से वस्तु-भेद होने पर भी सत्त्व, प्रमेयत्व, संस्थान व रूप आदि की दृष्टि से वहां एकत्व है। वासना के विषय में हम मानते हैं कि वह स्मृतिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रूप है और सम्बद्ध विज्ञानोत्पादक शक्ति रूप भी है। वह (स्मृति) यद्यपि स्वयं ज्ञान रूप नहीं है, तथापि पूर्वप्रवृत्त अविच्युति लक्षण ज्ञान से जन्य है और उत्तरकालीन स्मृति रूप ज्ञान की कारण है, अतः उपचारतः उसे ज्ञानरूप भी मानते हैं। सम्बद्ध वस्तु के विकल्प वाला तृतीय पक्ष को तो हम स्वीकार ही नहीं करते, अतः वह (तत्सम्बन्धित दोष) स्वतः निरस्त हो जाता है। इसलिए अविच्युति, स्मृति, वासनारूप धारणा के - ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 279 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथैतां स्वाभिमतां धारणां व्यवस्थाप्य परं प्रत्याह तं इच्छंतस्स तुहं वत्थूणि य पंच, नेच्छमाणस्स। किं होउ सा अभावो भावो नाणं व तं कयरं? // 190 // [संस्कृतच्छाया:- तामिच्छतस्तव वस्तूनि च पञ्च, नेच्छतः। किं भवतु साऽभावो भावो ज्ञानं वा तत् कतरत्? // ] अस्मदभिमतामनन्तरप्रतिष्ठितस्वरूपां तां धारणामिच्छतस्तव पञ्च वस्तूनि- पञ्चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानभेदाः प्राप्नुवन्ति। अपायस्यैकस्याऽपि भेदद्वयरूपताभ्युपगमेन भेदचतष्टयस्य त्वयाऽपि पूरितत्वात्, पञ्चमस्य तु मदुक्तस्य धारणालक्षणस्य प्रसङ्गादिति भावः। अथास्मदभ्युपगता धारणा त्वया नेष्यते, तर्हि 'नेच्छमाणस्स किं होउ इत्यादि'। तां मदभ्युपगतां धारणामनिच्छतोऽप्रतिपद्यमानस्य तव सा मदभ्युपगता धारणा किं भवतु-अभावो-अवस्तु, आहोस्विभावो- वस्तु? इति विकल्पद्वयम्। किञ्चात:? न तावदभावः, भावत्वेनाऽनुभूयमानत्वात्। न च तथाऽनुभूयमानस्याऽभावत्वमाधातुं शक्यते, अतिप्रसङ्गात्- घटादिष्वपि तथात्वप्राप्तेः; तेऽपि ह्यनुभववशेनैव भावरूपा व्यवस्थाप्यन्ते। यदि चाऽनुभवोऽप्यप्रमाणम्, तदा घटादिष्वपि भावरूपतायामनाश्वास इति भावः। सद्भाव से मति की त्रिविधता नहीं, अपितु चतुर्विधता ही (अखण्डिता) रहती है- यह निष्कर्ष है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 188-189 // अब अपने मत के अनुरूप 'धारणा' को व्यवस्थापित कर, आचार्य अन्यमतवादी को कह रहे हैं // 190 // तं इच्छंतस्स तुहं वत्थूणि य पंच, नेच्छमाणस्स। किं होउ सा अभावो भावो नाणं व तं कयरं? // [(गाथा-अर्थ :) हमारे द्वारा अभीष्ट उस (धारणा) को आप अंगीकार करें तो आपके मत में (आभिनिबोधिक ज्ञान के) पांच भेद हो जाएंगे। और (उसे) नहीं अंगीकार करें तो धारणा क्या होगी? वह अभावरूप होगी या भाव रूप? यदि भावरूप है तो वह ज्ञान रूप है या अज्ञान रूप? यदि ज्ञान रूप है तो कौन सा (ज्ञान) है?] ___ व्याख्याः - हम अपनी मान्य धारणा का स्वरूप पूर्व में प्रतिष्ठित कर चुके हैं। उस धारणा को आप (अंगीकार करना) चाहें तो आपके मत में आभिनिबोधिक ज्ञान के पांच वस्तु (भेद) हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि आपने अपाय के दो भेद स्वीकार कर (कुल) चार भेदों की तो आपने भी पूर्ति कर ही ली है, अब, हमने जो धारणा का लक्षण बताया है, उसे (मतिज्ञानों में समाहित करने हेतु) पंचम भेद के रूप में मानना पड़ेगा। चलो, हमारे द्वारा अभीष्ट धारणा को यदि आप नहीं स्वीकार करते, तब (नेच्छतः किं भवतु), जिस धारणा को हम मानते हैं, उसे नकारने से या प्रतिपादित न करने से आपके मत में हमारी अभीष्ट धारणा का क्या होगा? (इस पर विचार करें तो) अब आपके सामने दो ही विकल्प खुले हैं, या 80 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ भावोऽसौ, तर्हि वक्तव्यम्- ज्ञानम्, अज्ञानं वा?। न तावदज्ञानम्, चिद्रूपतयाऽनुभूयमानत्वात् / अथ ज्ञानम्, तदपि मति-श्रुताऽवधि-मन:पर्याय-केवलेभ्यो ज्ञानान्तरस्याऽभावात् तेषां मध्ये कतमत्? इति वाच्यम्। न तावत् श्रुतादिचतुष्टयरूपम्, अनभ्युपगमात्, तल्लक्षणाऽयोगाच्च। मतिज्ञानं चेत्, तदपि नाऽवग्रहेहाऽपायरूपम्, तल्लक्षणासंभवात्, 'नणु साऽवायब्भहिया' इत्यादिनाऽपायाभ्यधिकत्वेन साधितत्वाच्च। तस्मादन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निश्चयः सर्वोऽप्यपायः, अविच्युति-स्मृति-वासनारूपा तु पारिशेष्यद्वारेणैव, इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१९०॥ तदेवं निरुत्तरीकृतोऽप्यविलक्षिततयाऽन्येन प्रकारेणाह तुझं बहुयरभेया भणइ मई होई धिइबहुत्ताओ। भण्णइ न जाइभेओ इट्ठो मज्झं जहा तुझं॥१९१॥ तो वह आपके मत में अभाव रूप या अवस्तु रूप होगी अथवा भावरूप या वस्तुरूप होगी। (प्रश्न-) इसमें (दोष) क्या हुआ? (कहते है-) अभाव तो आप मान नहीं सकते, क्योंकि उसकी भाव रूप में अनुभूति (प्रतीति) होती है। यदि अनुभूयमान पदार्थ का भी अभाव मानने लगें तो घटादि का भी अभाव माना जाना लगेगा और इस प्रकार (जिस किसी सद्भूत पदार्थ के भी अभाव रूप दोष होने का) अतिप्रसंग होने लगेगा। भाव यह है कि चूंकि उन घटादि पदार्थों को अनुभूति के आधार पर ही भाव रूप मानने की व्यवस्था (सर्वत्र मान्य) है और यदि अनुभव को ही प्रमाण नहीं मानेंगे तो घटादि की भी भावरूपता निराधार हो जाएगी। यदि उस ('धारणा') को भावरूप मानते हैं तो यह बताएं कि वह ज्ञान रूप है या अज्ञान रूप है? अज्ञान रूप तो आप उसे कह नहीं सकते क्योंकि उसकी 'चिद्रूप' (चैतन्यधर्मात्मक रूप में) अनुभूति होती है। यदि वह ज्ञान रूप है तो यह बताएं कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय व केवल - इन पांच से भिन्न कोई (छठा) ज्ञान तो है नहीं, तो इन पांच ज्ञानों में वह (धारणा) कौन सा ज्ञान है? श्रुत (अवधि, मनःपर्यय व केवल) आदि चार ज्ञानों में तो वह है नहीं, क्योंकि ऐसा आप नहीं और श्रुत आदि ज्ञानों (में से किसी) का भी लक्षण उस (धारणा) में मिलता नहीं। इसके अतिरिक्त, (पूर्व गाथा-189 में) 'ननु सा अपायाभ्यधिका' इत्यादि वाक्य से अपाय से अतिरिक्त उसे सिद्ध भी किया जा चुका है। अतः अन्वय व व्यतिरेक से किया जाने वाला समस्त निश्चय तो 'अपाय' ही इस दृष्टि से अविच्युति, स्मृति, वासना रूप (धारणा) तो उस अपाय से अतिरिक्त या अवशिष्ट (अर्थात् मति के भेदों में अपरिगणित) ही रह जाती है- यह निष्कर्ष है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 190 // . इस प्रकार निरुत्तर कर दिये जाने पर भी निर्व्याकुलता (निर्लज्जता) के साथ अन्य प्रकार से अन्यमतवादी कह रहा है // 191 // तुज्झं बहुयरभेया भणइ मई होई धिइबहुत्ताओ। भण्णइ न जाइभेओ इट्ठो मज्झं जहा तुझं // ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- 281 र Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- तव बहुतरभेदाः भणति मतिर्भवति धृतिबहुत्वात् / भण्यते न जातिभेद इष्टो मम यथा तव // ] . ' अत्र प्रेरको भणति। किम्?, इत्याह- 'तुज्झमित्यादि'। इत्थमाचार्य! तव बहुतरभेदा मतिर्भवति। कुतः?, इत्याहधृतेर्धारणाया बहुत्वाद् बहुभेदत्वादित्यर्थः। धारणाया एकस्या अप्यविच्युति-वासना-स्मृतिलक्षणभेदत्रययुक्तत्वादवग्रहेहाऽपायैः सह . षड्भेदा मतिः प्राप्नोतीति भावः। अत्र प्रतिविधानमाह- 'भण्णईत्यादि'। भण्यतेऽत्रोत्तरम्- जाते/दो जातिभेदो व्यक्तिपक्ष इत्यर्थः, स इह धारणाविचारे मम नेष्टो नाभिप्रेतः, किन्तु धारणासामान्यरूपा जातिरेव ममाऽभिप्रेता। कस्य यथा?, इत्याह- यथा तव 'अवग्रहविषये' इति शेषः। इदमुक्तं भवति- यथाऽवग्रहो व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदादुभयरूपोऽवग्रहसामान्यादेकस्त्वयाऽपीष्टः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वप्रसङ्गात् / तथा त्रिरूपाऽपि धारणा तत्सामान्यादेकरूपैव। इति चतुर्विधैव मतिः, न बहुतरभेदा // इति गाथार्थः // 191 // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) आपके (मत में भी) मति अनेक भेदों वाली हो जाती है, क्योंकि धारणा के अनेक भेद हो जाते हैं। उत्तर दे रहे हैं- जैसे आपको (अवग्रह के विषय में) जाति-भेद अभीष्ट नहीं है, वैसे ही हमें भी (धारणा के विषय में जाति भेद) अभीष्ट नहीं है।] व्याख्याः - अब शंकाकार (पूर्वपक्षी) का कहना है। क्या कहना है? वह इस प्रकार है- (तव बहुतरभेदाः)। आचार्यवर! इस प्रकार तो आपके मत में भी मति के अनेकानेक भेद (मति के मान्य पांच भेदों से भी अतिरिक्त भेद) हो जाते हैं। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) बता रहे हैं- धृति या धारणा के बहुविध होने से (मति के अनेक भेद हो जाते हैं)। तात्पर्य यह है कि एक धारणा के भी अविच्युति, वासना, स्मृति जैसे तीन भेदों के साथ अवग्रह, ईहा व अपाय को मिलाने से मतिज्ञान के छः भेद हो जाते हैं। (अन्य मत के) उक्त (आक्षेपपूर्ण-) कथन का प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (भण्यते)। इसका प्रत्युत्तर हमारी ओर से यह है कि जातिभेद यानी जातिगत भेद (अर्थात् एक ही जाति में होने वाले अनेक व्यक्तिगत भेदों का सद्भाव) जो होता है, वह धारणा की इस विचारणा में हमें अभीष्ट नहीं है (उन भेदों को हम उपेक्षित करते हैं), किन्तु धारणा-सामान्य रूप ही (एक भेद) हमें अभीष्ट है (और वैसा मान कर ही हम विचार कर रहे हैं, अतः अनेक भेद वाला दोष निरस्त हो जाता है)। यहां (कोई) दृष्टान्त (भी) है क्या? (उत्तर-दृष्टान्त है, उसे) बता रहे हैं- जैसे आपके मत में। 'अवग्रह के विषय में' इसे यहां (उत्तर में) जोड़ लेना चाहिए। (अर्थात् अवग्रह के विषय में, जैसे आपने जातिभेद को उपेक्षित किया है, वैसे ही हमने धारणा के विषय में जातिभेद को ध्यान में नहीं रखा है।) तात्पर्य यह है कि जैसे अवग्रह के व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह -ये भेद हैं, फिर भी आपके मत में जैसे द्विविध अवग्रह को अवग्रह सामान्य रूप में एक माना गया है, अन्यथा (अवग्रह को दो मानकर चलेंगे तो आपके मत में) मतिज्ञान चार प्रकार का हो जाएगा। उसी तरह (हमारे मत में) धारणा के तीन भेदों के होते हुए भी उसे एक माना गया है, अतः मति चतुर्विध ही ठहरती है, न कि बहुभेदों वाली (इस तरह, मतिज्ञान के छः भेद हो जाने का दोष- जो आपकी ओर से उठाया गया था- स्वतः निरस्त हो जाता है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 191 // ] Ma 282 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदेव भावयन्नाह सा भिन्नलक्खणाऽवि हु धिइसामन्नेण धारणा होइ। जह उग्गहो दुरूवो उग्गहसामन्नओ एक्को॥१९२॥ [संस्कृतच्छाया:-सा भिन्नलक्षणाऽपि खलु धृतिसामान्येन धारणा भवति / यथाऽवग्रहो द्विरूपोऽवग्रहसामान्यत एकः॥] सा धारणा, अविच्युति-वासना-स्मृतीनां भिन्नस्वरूपत्वेन भिन्नलक्षणाऽपि सती धारणासामान्याव्यतिरेकादेकैव भवति। यथाऽवग्रहो व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदाद् द्विरूपोऽप्यवग्रहसामान्याव्यतिरेकादेकः परस्याऽपि सिद्धः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वापत्तेः॥ इति - गाथार्थः // 192 // पूर्वोक्त (प्रत्युत्तर) को ही स्पष्ट करते हुए (आगे की गाथा) कह रहे हैं // 192 // सा भिन्नलक्खणाऽधि हु धिइसामन्नेण धारणा होइ। जह उग्गहो दुरूवो उग्गहसामन्नओ एक्को | [(गाथा-अर्थ :) अवग्रह के दो भेदों वाला होते हुए भी, जिस प्रकार अवग्रह सामान्य के रूप में वह एक (ही) है, उसी तरह भिन्न-भिन्न स्वरूपों वाली होने पर भी धृति-सामान्य के आधार पर 'धारणा' (एक ही) है। व्याख्याः- अविच्युति, वासना व स्मृति -इन भिन्न-भिन्न (तीन) स्वरूपों के कारण भिन्नभिन्न स्वरूपों वाली होते हुए भी धारणा सामान्य से अव्यतिरिक्त (अपृथक्, अभिन्न) होने के कारण, वह धारणा एक ही होती है। (यह उसी प्रकार है) जैसे परकीय (आप प्रतिवादी-पूर्वपक्षी) के मत में व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह -इन दो भेदों वाला भी अवग्रह, अवग्रह-सामान्य से अपृथक् होने के कारण, एक ही माना गया है, अन्यथा (उसे आप दो मानेंगे तो आपके मत में भी) मतिज्ञान के पंचविध होने की आपत्ति उठ खड़ी होगी। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 192 // -- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमवग्रहादिभेदचतुष्टयविषया निराकृताः सर्वा अपि परविप्रतिपत्तयः, तन्निराकरणप्रक्रमे चानन्तरमवग्रहो द्विरूपः प्रोक्तः। सच कथं द्विरूपो भवति? इत्याशक्य तद्विरूपताकथनव्याजेन पूर्व यान्याभिनिबोधिकज्ञानस्याऽवग्रहादीनि चत्वारि भेदवस्तून्युक्तानि, तेष्वेव मध्येऽवग्रहं तावद् व्याचिख्यासुराह तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइ वंजणत्थाणं। वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं // 193 // [संस्कृतच्छाया:- तत्रावग्रहो द्विरूपो ग्रहणं यद् भवति व्यञ्जनार्थयोः। व्यञ्जनतश्च यदर्थस्तेनादौ तकं वक्ष्ये // ] तत्राऽवग्रहणमवग्रहो द्विरूपो यथा भवति, तथा प्रोच्यते। कथम्?, इत्याह- यद यस्माद् ग्रहणं व्यञ्जनाऽर्थयोरेव भवेत, अन्यस्य ग्राह्यस्याऽभावात्। ततश्च विषयद्वैविध्यादवग्रहो द्विविध इति भावः। अपरं च, यद्यस्मात् कारणाद् वक्ष्यमाणन्यायेन प्राप्यकारिष्विन्द्रियेषु व्यञ्जनतो- व्यञ्जनावग्रहादनन्तरमेव, अर्थ:- अर्थावग्रहो भवति,तेनाऽऽदौ प्रथमतस्तकं व्यञ्जनावग्रहमेव वक्ष्ये // इति गाथार्थः॥१९३॥ [व्यअनावग्रहादि] इस प्रकार, अवग्रह आदि चार भेदों को लेकर जो शंकाएं, आपत्तियां उठाई गईं, उन सभी का निराकरण हो गया। उक्त आपत्ति-निराकरण के प्रसंग में अवग्रह के दो भेद भी बताए गए। अवग्रह की द्विविधता कैसे है? इस आशंका को दृष्टि में रखकर, पहले आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह आदि चार भेद बताए थे, उन्हीं में से (प्रथम) अवग्रह का, उसकी द्विविधता के निरूपण के. बहाने से, (उस निरूपण को माध्यम बनाते हुए) व्याख्यान करने के इच्छुक (भाष्यकार आगे की गाथा) कह रहे हैं // 193 // तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइ वंजणत्थाणं / वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं // [(गाथा-अर्थ :) उन (अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा) में अवग्रह के दो रूप (प्रकार) हैं, क्योंकि उसके ग्रहणयोग्य व्यञ्जन व अर्थ (-ये दो विषय) होते हैं। (चूंकि) व्यअनावग्रह के बाद अर्थावग्रह (घटित) होता है, इसलिए मैं पहले उस (व्यअनावग्रह) के विषय में निरूपण करूंगा।] व्याख्याः - उनमें (वस्तु में सामान्यतया) अवग्रहणात्मक ज्ञान (ही) होता है। उसके दो भेद जिस प्रकार से होते हैं, उसे कहा (स्पष्ट किया) जा रहा है। (वे दो भेद) क्यों हैं? उत्तर दिया- (यत् ग्रहणम्)। चूंकि ग्रहण (या अवग्रहण) व्यञ्जन व अर्थ (-इन दो) का होता है, (इनके अतिरिक्त) कोई अन्य ग्राह्य (अवग्रहणयोग्य) नहीं होता। इसलिए विषय की द्विविधता के कारण, अवग्रह के दो भेद हो जाते हैं- यह भाव है। दूसरी बात, चूंकि आगे किये गये निरूपण के अनुसार प्राप्यकारी इंद्रियों में व्यअनावग्रह होता है, और उसके बाद ही अर्थ यानी अर्थावग्रह होता है, इसलिए मैं सर्वप्रथम उस व्यअनावग्रह का ही निरूपण करूंगा || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 193 // - 284 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र व्यञ्जनं तावत् किमुच्यते?, इत्याह वंजिजइ जेणत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तं च। उवगरणिंदियसहाइपरिणयद्दव्वसंबंधो // 194 // [संस्कृतच्छाया:- व्यज्यते येनार्थो घट इव दीपेन व्यञ्जनं तच्च / उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणत-द्रव्यसम्बन्धः॥] व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थो येन, दीपेनेव घटः, तद् व्यञ्जनम्। किं पुनस्तत्?, इत्याह- 'तं चेत्यादि / तच्च व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धः / इन्द्रियं द्विविधम्-द्रव्येन्द्रियं, भावेन्द्रियं च। तत्र नित्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्। निर्वृत्तिश्च द्विधा- अङ्गुलासंख्येयभागादिमाना कदम्बकुसुमगोलक-धान्यमसूर-काहला-क्षुरप्राकार-मांसगोलकरूपा, शरीराकारा च श्रोत्रादीन्द्रियाणां पञ्चानामपि यथासंख्यमन्तर्निवृत्तिः, कर्णशष्कुलिकादिरूपा तु बहिर्निर्वृत्तिः। तत्र इन (दोनों अवग्रहों) में व्यञ्जनावग्रह किसे कहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में भाष्यकार कह रहे हैं // 194 // वंजिज्जइ जेणत्यो घडो व्व दीवेण वंजणं तं च। . उवगरणिंदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसं बंधो // [(गाथा-अर्थ :) जिस प्रकार दीपक द्वारा घट (पदार्थ) अभिव्यजित होता है (घट प्रकाशित, प्रकट होता है और दीपक उसमें कारण है), उसी प्रकार जिस (अवग्रह) के द्वारा अर्थ व्यक्त (प्रकाशित) हो, वह व्यंजनावग्रह है। उपकरण-इंद्रियों का शब्दादि (विषयों के रूप में) परिणत द्रव्यों के साथ जो परस्पर सम्बन्ध होता है, वह 'व्यञ्जन' है (उससे अर्थ का प्रकाशन व्यञ्जनावग्रह है)।] व्याख्याः- जिस प्रकार दीपक से घट प्रकाशित होता है, उसी प्रकार जिससे पदार्थ अभिव्यक्त या प्रकट होता है, वह 'व्यञ्जन' है। वह क्या है? उत्तर दिया- (तच्च)। वह 'व्यञ्जन' है- उपकरणइंद्रियों और (उनके विषय) शब्दादि-परिणत द्रव्य, इन दोनों का परस्पर-सम्बन्ध / इन्द्रियां दो प्रकार की होती हैं- (एक) द्रव्येन्द्रिय और (दूसरी) भावेन्द्रिय / इनमें निर्वृत्ति व उपकरण (इन्द्रियां) द्रव्येन्द्रिय (अर्थात् जातिनाम कर्म व शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न, शारीरिक प्रतिनियत आकार वाली पौद्गलिक इंद्रियां) होती हैं, और लब्धि व उपयोग रूप इन्द्रिय भावेन्द्रिय होती हैं। निर्वृत्ति (रचना) भी दो प्रकार की होती है- अन्तर्निर्वृत्ति (अपने-अपने) आवरण के क्षयोपशम से विशिष्ट आत्मप्रदेशों की इन्द्रियाकार रूप में रचना और बहिर्निवृत्ति (उन आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध स्थान में शरीर के प्रदेशों की . तदनुरूप रचना)। अंगुल के असंख्येय भाग आदि परिमाण वाली तथा कदम्बकुसुमगोलक (कदम्ब फूल के गुच्छे जैसी, श्रोत्रेन्द्रिय), धान्य मसूर (के तुल्य, चक्षुरिन्द्रिय), काहला (वाद्यविशेष के आकार वाली, घ्राणइन्द्रिय), क्षुरप्र (खुरपे की आकृति वाली मांसखण्ड रूप, रसनेन्द्रिय), तथा शरीराकार (वाली, पूरे शरीर में व्याप्त, स्पर्शनेन्द्रिय), श्रोत्र (चक्षु, घ्राण, रसना व स्पर्शन) आदि पांचों इन्द्रियों की Na'---------- विशेषावश्यक भाष्य --------285 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बकुसुमगोलकाकारमांसखण्डादिरूपाया अन्तर्निर्वृत्तेः शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुर्यः शक्तिविशेषः स उपकरणेन्द्रियम्, शब्दादिश्च , श्रोत्रादीन्द्रियाणां विषयः, आदिशब्दाद् रस-गन्ध-स्पर्शपरिग्रहः, तद्भावेन परिणतानि च तानि भाषावर्गणादिसंबन्धीनि द्रव्याणि च शब्दादिपरिणतद्रव्याणि, उपकरणेन्द्रियं च शब्दादिपरिणतद्रव्याणि च, तेषां परस्परं संबन्ध उपकरणेन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धः, एष तावद् व्यञ्जनमुच्यते। अपरं चेन्द्रियेणाऽप्यर्थस्य व्यज्यमानत्वात् तदपि व्यञ्जनमुच्यते। तथा शब्दादिपरिणतद्रव्यनिकुरम्बमपि व्यज्यमानत्वाद् व्यञ्जनमभिधीयत इति / एवमुपलक्षणव्याख्यानात् त्रितयमपि यथोक्तं व्यञ्जनमवगन्तव्यम्। ततश्चेन्द्रियलक्षणेन व्यञ्जनेन शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धस्वरूपस्य व्यञ्जनस्याऽवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा तेनैव व्यञ्जनेन शब्दादिपरिणतद्रव्यात्मकानां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः; इत्युभयत्राऽप्येकस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोपं कृत्वा समासः॥ इति. गाथार्थः॥१९४॥ क्रमशः अन्तर्निर्वृत्ति (आन्तरिक बनावट) हैं। कर्णशष्कुली (कान की झिल्ली) आदि जो रचनाएं हैं, वह तो बाह्यनिर्वृत्ति (बाह्य बनावट) है। इनमें कदम्बकुसुमगोलक की आकृति वाले मांसखण्ड आदि रूपों वाली अन्तर्निवृत्ति (आन्तरिक बनावट) को शब्द आदि विषयों का जो ज्ञान होता है, उसमें हेतु रूप जो शक्तिविशेष है, वह उपकरण-इन्द्रिय होती है। शब्द (रूप, गन्ध, रस, स्पर्श) आदि ये श्रोत्र (नेत्र, प्राण, रसना, त्वचा) आदि इन्द्रियों के विषय (इन्द्रिय ग्राह्य) हैं। 'आदि' पद से यहां श्रोत्र के विषय (शब्द) से अन्य (भिन्न) रस (रसनेन्द्रिय-विषय), गन्ध (घ्राणेन्द्रिय-विषय), स्पर्श (त्वचा-विषय) का ग्रहण करना चाहिए। उन शब्द (रस, गंध) आदि रूप से परिणत भाषावर्गणा आदि से सम्बन्धित जो (पौद्गलिक) द्रव्य हैं, वे (ही) हैं- शब्दादिपरिणत द्रव्य / उपकरण-इन्द्रिय और शब्दादि परिणत द्रव्य -इन दोनों का परस्पर जो सम्बन्ध है, वह उपकरणेन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्य-सम्बन्ध है, इसी को 'व्यञ्जन' कहा जाता है। इसके अलावा, इंद्रियों को भी 'व्यञ्जन' कहा जाता है, क्योंकि उनके द्वारा भी 'अर्थ' व्यज्यमान (अभिव्यक्त) यानी प्रकट होता है। साथ ही, जो व्यक्त किया जाता है, उसे भी 'व्यञ्जन' कहते हैं। उक्त व्याख्यान उपलक्षण (सदृश अर्थों का भी ग्रहक) रूप है, अतः उक्त (इंद्रियविषय-सम्बन्ध, इन्द्रियां, शब्दादिविषय -इन) तीनों को 'व्यञ्जन' के रूप में जानना चाहिए। __इस प्रकार, इन्द्रिय रूप व्यञ्जन से शब्दादिपरिणत द्रव्य के साथ जो व्यञ्जन रूप सम्बन्ध है, उसका अवग्रहण 'व्यअनावग्रह' है। अथवा उसी 'व्यअन' से शब्दादिपरिणत द्रव्यरूप व्यअनों का अवग्रहण 'व्यञ्जनावग्रह' है। इस प्रकार, (व्यञ्जन से व्यञ्जन का अवग्रहण अर्थ लें, या व्यञ्जन से व्यञ्जनों का अवगहण अर्थ लें) उक्त दो व्यञ्जन पदों में से एक व्यञ्जन पद का लोप मान कर समास किया गया है (और 'व्यञ्जनावग्रह' यह समस्त पद निष्पन्न हुआ है)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 194 // Mia 286 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राऽऽक्षेपं, परिहारं चाभिधित्सुराह अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणुवलंभाओ। न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं // 195 // [संस्कृतच्छाया:- अज्ञानं स बधिरादीनामिव तत्कालमनुपलम्भात्। न तदन्ते तत एवोपलम्भात् सको ज्ञानम् // ] स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं ज्ञानं न भवति, तस्योपकरणेन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धस्य कालस्तत्कालस्तस्मिन् ज्ञानस्यानुपलम्भात् स्वसंवेदनेनाऽसंवेद्यमानत्वात्; बधिरादीनामिव। यथा हि बधिरादीनामुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिविषयद्रव्यैः सह संबन्धकाले न किमपि ज्ञानमनुभूयते, अननुभूयमानत्वाच्च तन्नास्ति, तथेहाऽपीति भावः॥ अत्रोत्तरमाह- 'न तदंते इत्यादि / नासौ जड़रूपतया ज्ञानरूपेणाऽननुभूयमानत्वादज्ञानम्, किं तर्हि?, तओ-सकोऽसौ व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव।कुतः?, तदन्ते- तस्य व्यञ्जनावग्रहस्यान्ते, तत एव ज्ञानात्मकस्याऽर्थावग्रहोपलम्भस्य भावात्। तथा हि- यस्य (व्यञ्जनावग्रह में ज्ञान-मात्रा की सिद्धि) . यहां सम्भावित आक्षेप और उसके (उपयुक्त) परिहार को भी (प्रस्तुत गाथा के माध्यम से) बताने के उद्देश्य से (भाष्यकार) कह रहे हैं // 195 // अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणुवलंभाओ। न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) जिस प्रकार बहिरे लोगों को (इन्द्रिय और विषय का सम्बन्ध होने पर भी) शब्द-ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार व्यञ्जनावग्रह के समय शब्दादि वस्तु की उपलब्धि नहीं होती, अतः वह अज्ञान रूप (ही) हुआ? (उत्तर-) चूंकि व्यअनावग्रह के बाद ही, उसी के आधार पर, (अर्थावग्रह रूप) वस्तु की उपलब्धि होती है, इसलिए वह (व्यञ्जनावग्रह, ज्ञानजनक होने के कारण) ज्ञान (ही) है।] - व्याख्याः - (शंका की जा रही है कि) व्यञ्जनावग्रह (तो) अज्ञान है, ज्ञान रूप (ही) नहीं है। जिस समय उपकरणेन्द्रिय और शब्दादिपरिणत द्रव्य (यानी शब्द, रूप, रस, गंध आदि) का (परस्पर) सम्बन्ध होता है, उस समय ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि स्वसंवेदन से उसका संवेदन नहीं होता, बधिर लोगों की तरह (ही यह दशा होती है)। तात्पर्य यह है कि जैसे बधिर (बहरे) लोगों को, उनकी उपकरणेन्द्रियों का शब्दादि विषय द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होने पर भी कुछ भी ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, अनुभूति नहीं तो ज्ञान का सद्भाव भी नहीं, उसी तरह (व्यञ्जनावग्रह के होने पर . भी किसी भी ज्ञान की अनुभूति न होने से ज्ञान का अभाव) यहां भी है। पूर्वोक्त शंका का उत्तर दे रहे हैं- (न, तदन्ते) इत्यादि / जड़ रूप होने एवं ज्ञान रूप से अनुभव में न आने से यह (व्यञ्जनावग्रह) 'अज्ञान' (है, ऐसा) नहीं है। (प्रश्न-) तो वह क्या है? (उत्तर-) वह (व्यञ्जनावग्रह) 'ज्ञान' ही है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) (तदन्ते-) उस व्यञ्जनावग्रह के अंत में, उसी से Mi ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 287 24 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्यान्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात् तत एव ज्ञानमुपजायते तज्ज्ञानं दृष्टम्, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानत ईहासद्भावादर्थावग्रहो . ज्ञानम्, जायते च व्यञ्जनावग्रहस्य पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात् तत एवाऽर्थावग्रहज्ञानम्, तस्माद् व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानम् // इति गाथार्थः / / 195 // तदेवं व्यञ्जनावग्रहे यद्यपि ज्ञानं नानुभूयते, तथापि ज्ञानकारणत्वादसौ ज्ञानम्, इत्येवं व्यञ्जनावग्रहे ज्ञानाभावमभ्युपगम्योक्तम्। सांप्रतं ज्ञानाभावोऽपि तत्राऽसिद्ध एवेति दर्शयन्नाह तक्कालम्मि वि नाणं तत्थरिथ तणुं ति तो तमव्वत्तं। ___ बहिराईणं पुण सो अन्नाणं तदुभयाभावा॥१९६॥ [संस्कृतच्छाया:- तत्कालेऽपि ज्ञानं तत्रास्ति तनु इत्यतस्तदव्यक्तम्। बधिरादीनां पुनः सोऽज्ञानं तदुभयाभावात् // ] तत्कालेऽपि तस्य व्यञ्जनसंबन्धस्य कालेऽपि तत्राऽनुपह तेन्द्रियसंबन्धिनि व्यञ्जनावग्र हे ज्ञानमस्ति, केवलमेकतेजोऽवयवप्रकाशवत् तनु- अतीवाऽल्पमिति। अतोऽव्यक्तं स्वसंवेदनेनापि न व्यज्यते। / ज्ञानात्मक अर्थावग्रह की उपलब्धि होती है (इसलिए ज्ञानजनक होने से, उसे अज्ञानरूप नहीं, ज्ञानरूप ही मानना उचित है)। और भी, जिस ज्ञान के अन्त में, उस ज्ञान के (विषयभूत) ज्ञेय वस्तु का ग्रहण होता है, और उसी से (यदि) ज्ञान उत्पन्न होता है, (तो) वह (पूर्ववर्ती ज्ञान) 'ज्ञान' होता है, जैसे- अर्थावग्रह के अन्त में, उस (अर्थावग्रह) के (विषयभूत) ज्ञेय वस्तु का उपादान (ग्रहण) होकर ही 'ईहा' (ज्ञान) का सद्भाव है, इसलिए अर्थावग्रह ज्ञान है। (इसी तरह) व्यअनावग्रह के अन्त में, उसके ज्ञेय वस्तु का उपादान होकर, उसी से अर्थावग्रह ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए व्यअनावग्रह (भी अर्थावग्रह की तरह) ज्ञान (ही) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 195 // तो इस प्रकार, यद्यपि व्यअनावग्रह में ज्ञान की अनुभूति न होने पर भी, (अर्थावग्रह रूप) ज्ञान का कारण होने से वह (व्यञ्जनावग्रह) ज्ञान है। इस रीति से व्यञ्जनावग्रह में ज्ञानरूपता को मान कर निरूपण किया गया। अब. 'वहां ज्ञान-अभाव सिद्ध ही नहीं होता' इस तथ्य को स्पष्ट कर रहे हैं // 196 // तक्कालम्मि वि नाणं तत्थत्थि तणुंति तो तमव्वत्तं। बहिराईणं पुण सो अन्नाणं तदुभयाभावा // [(गाथा-अर्थ :) (व्यञ्जनावग्रह जब होता है) उस काल में भी वहां ज्ञान (है, किन्तु) अल्प है, इसलिए वह अव्यक्त रहता है। किन्तु बधिर (बहरे एवं अन्य अशक्त इन्द्रियों वालों) आदि के तो अज्ञान ही है, क्योंकि (ज्ञान-कारण एवं अव्यक्त ज्ञान -इन) दोनों का ही उनके अभाव है।] व्याख्याः - उस काल में भी अर्थात् व्यञ्जनावग्रह के समय में भी, वहां अर्थात् अनुपहत (निर्दुष्ट) इन्द्रिय से सम्बन्धित व्यञ्जनावग्रह में, ज्ञान है, किन्तु वह एक तैजस अवयव (छोटी सी छोटी चिनगारी) की तरह तनु (कृश, सीमित, अल्पतम, तुच्छ) अर्थात् अत्यन्त अल्प है। इसलिए अव्यक्त होने से वह स्वसंवेदन से भी व्यक्त नहीं होता है। Wha 288 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यव्यक्तम्, कथं तदस्तीति ज्ञायते? इति चेत्। मा त्वरिष्ठाः, 'जइ वण्णाणमसंखेजसमइसहाइदव्वसम्भावे' इत्यादिनाऽनन्तरमेव तदस्तित्वयुक्तेर्वक्ष्यमाणत्वात्। दृष्टान्ते तु ज्ञानाभावेऽविप्रतिपत्तिरिति दर्शयन्नाह- बधिरादीनाम्। आदिशब्दादुपहतघ्राणादीन्द्रियाणां पुनः स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं ज्ञानं न भवतीत्यत्राऽविप्रतिपत्तिरेव / कुतः?, इत्याह- तच्च तदुभयं च तदुभयं तस्याऽभावाज्ज्ञानकारणत्वाभावात्, अव्यक्तस्याऽपि च ज्ञानस्याऽभावात् // इति गाथार्थः।। 196 // अथ पुनरप्याक्षेपं, परिहारं चाभिधित्सुराह कहमव्वत्तं नाणं च सुत्त-मत्ताइसुहुमबोहो व्व। सुत्तादओ सयं वि य विनाणं नावबुझंति॥१९७॥ [संस्कृतच्छाया:- कथमव्यक्तं ज्ञानं च सुप्त-मत्तादिसूक्ष्मबोध इव। सुप्तादयः स्वयमपि च विज्ञानं नावबुध्यन्ते // ] (प्रश्न-) यदि वह अव्यक्त है तो उसके अस्तित्व को कैसे जानते है? (उत्तर-) जल्दबाजी न करें (जरा धीरज रखें)। उस (ज्ञान) के अस्तित्व के सम्बन्ध में युक्ति का कथन आगे ही (आने वाली) 'यदि वाऽज्ञानम्' गाथा (सं. 200) द्वारा किया जा रहा है। किन्तु (बधिर आदि के) दृष्टान्त में ज्ञानाभाव को लेकर कोई मतभेद नहीं है- इसे स्पष्ट करने हेतु कहा- (बधिरादीनाम्) आदि शब्द से (बधिरों की तरह) उपहंत (सदोष, विनष्ट या अक्षम) घ्राणादि इन्द्रिय वालों का भी यहां ग्रहण करना अभीष्ट है। बधिर आदि का जो व्यञ्जनावग्रह होता है, वह तो अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है- इस विषय में (हमारा) कोई मतभेद नहीं हैं। (प्रश्न-) किस कारण से (ऐसा कह रहे हैं)? उत्तर दिया- तदुभयाभावात् / क्योंकि वहां बधिर आदि (के व्यअनावग्रह) में उस ज्ञानकारणता का और साथ ही उसकी अव्यक्तज्ञानरूपता -दोनों का (ही) असद्भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 196 // - अब (व्यञ्जनावग्रह की अव्यक्तता व ज्ञानरूपता के विषय में) आक्षेप तथा उसके परिहार का कथन, कर रहे हैं // 197 // कहमव्वत्तं नाणं च सुत्त-मत्ताइसुहमबोहो व्व / सुत्तादओ सयं वि य विन्नाणं नावबुज्झंति // . [(गाथा-अर्थ :) (शंका की जा रही है-) ज्ञान भी हो और अव्यक्त हो -ऐसा कैसे? (उत्तर दिया जा रहा है-) सोये हुए, नशे में चूर, (एवं मूर्छित) आदि व्यक्तियों के सूक्ष्म ज्ञान की तरह (व्यञ्जनावग्रह अव्यक्त ज्ञान रूप है)। सोये हुए आदि व्यक्ति (अपने स्वकीय अतिसूक्ष्म) ज्ञान को स्वयं भी संवेदन नहीं करते हैं (फिर भी उनमें ज्ञान की सत्ता तो है ही)।] . -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 289 र Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परः सासूयमाह- ननु कथं 'ज्ञानम्, अव्यक्तं च' इत्युच्यते? तमः-प्रकाशाद्यभिधानवद् विरुद्धत्वाद् नेदं वक्तुं युज्यत इति भावः / अत्रोत्तरमनन्तरमेवोक्तम्- एकतेजोऽवयवप्रकाशवत् सूक्ष्मत्वादव्यक्तम्। अथ पुनरप्युच्यते- सुप्त-मत्त-मूर्च्छितादीनां सूक्ष्मबोधवदव्यक्तं ज्ञानमुच्यत इति न दोषः। सुप्तादीनां तदात्मीयज्ञानं स्वसंविदितं भविष्यतीति चेत्। नैतदेवमित्याह- सुप्तादयः स्वयमपि। तदात्मीयविज्ञानं नाऽवबुध्यन्ते, न संवेदयन्ति, अतिसूक्ष्मत्वात्।। इति गाथार्थः // 197 // आह- यदि तैरपि सुप्तादिभिस्तदात्मीयज्ञानं न संवेद्यते, तर्हि तत् तेषामस्तीत्येतत् कथं लक्ष्यते?, इत्याह लक्खिजइ तं सिमिणायमाणवयणदाणाइचिट्ठाहिं। जं नामइपुव्वाओ विजते वयणचिट्ठाओ॥१९८॥ [संस्कृतच्छाया:- लक्ष्यते तत् स्वप्नायमानवचनदानादिचेष्टाभ्यः। यद् नाऽमतिपूर्वा विद्यन्ते वचनचेष्टाः॥] / व्याख्याः- विरोधी (पूर्वपक्षी या आक्षेपकर्ता) असूया (गुणों में भी दोषारोपण की वृत्ति) के साथ कह रहा है- (कथमव्यक्तम्)। 'ज्ञान है, और वह अव्यक्त भी है' ऐसा कैसे कह सकते हैं? तात्पर्य यह है, कि जैसे अन्धकार व प्रकाश का एक साथ कथन विरुद्ध होने के कारण उपयुक्त नहीं होता, उसी तरह (ज्ञान होना और अव्यक्त रहना -दोनों का युगपत् कथन, प्रकाश-अंधकार की तरह विरोधपूर्ण है)। इस सम्बन्ध में प्रत्युत्तर तो अभी पीछे ही (गाथा 196 के व्याख्यान में) दिया जा चुका है कि एक तेजोऽवयव (छोटी चिनगारी) रूप प्रकाश की तरह वह सूक्ष्म होने के कारण अव्यक्त है। . (फिर भी) अब पुनः (प्रत्युत्तर) कहा जा रहा है- सोये हुए, नशे में रहे, तथा मूर्च्छित आदि व्यक्तियों को सूक्ष्म ज्ञान जैसा अव्यक्त ज्ञान का होना कहा ही जाता है, अतः (पूर्वोक्त अंधकार व प्रकाश जैसा ज्ञान व अव्यक्त में) विरोध दोष नहीं है। (शंका-) सोये हुए आदि व्यक्तियों को जो सूक्ष्म ज्ञान है, वह तो उन्हें स्वसंविदित होता होगा, (किन्तु व्यञ्जनावग्रह की स्थिति में तो ज्ञान का स्वसंवेदन नहीं होता। अतः दृष्टान्त व दार्टान्त की एकरूपता, अनुरूपता नहीं है)। (उत्तर-) ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सोये हुए आदि व्यक्तियों में भी ज्ञान इतना सूक्ष्म होता है कि वे स्वयं भी स्वकीय ज्ञान का बोध या स्वसंवेदन नहीं कर पाते // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 197 // (पुनः शंका-) यदि उन सोये हुए आदि व्यक्तियों को अपने ज्ञान का स्वसंवदेन नहीं होता, तो वहां ज्ञान का अस्तित्व है- यह कैसे मान लिया जाता है? इस शंका का उत्तर भाष्यकार दे रहे हैं // 198 // लक्खिज्जइ तं सिमिणायमाणवयणदाणाइचिठ्ठाहिं। जं नामइपुव्वाओ विजंते वयणचिट्ठाओ // [(गाथा-अर्थ :) सोये हुए व्यक्ति द्वारा वचन-दान (प्रत्युत्तर देना) आदि चेष्टाओं से यह परिलक्षित होता है कि बोलने (आदि) की चेष्टाएं मतिज्ञान पूर्वक हुए बिना नहीं हो सकतीं।] May 290 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् सुप्तादीनां ज्ञानमस्तित्वेन लक्ष्यते। कुतः?,स्वप्नायमानवचनदानादिचेष्टाभ्यः।सुप्तादयोऽपि हि स्वप्नायमानाद्यवस्थायां केचित् किमपि भाषमाणा दृश्यन्ते, शब्दिताश्चौघतो वाचं प्रयच्छन्ति, संकोच-विकोचाऽङ्गभङ्ग-जृम्भित-कूजित-कण्डूयनादिचेष्टाश्च कुर्वन्ति, न च तास्ते तदा वेदयन्ते, नापि च प्रबुद्धाः स्मरन्ति / तर्हि कथं तच्चेष्टाभ्यस्तेषां ज्ञानमस्तीति लक्ष्यते?, इत्याह-'जमित्यादि। यद् यस्मात् कारणाद् नाऽमतिपूर्वास्ता वचनादिचेष्टा विद्यन्ते, किन्तु मतिपूर्विका एव, अन्यथा काष्ठादीनामपि तत्प्रसङ्गात्; अतस्ताभ्यस्तत् तेषामस्तीति लक्ष्यत एव, धूमादग्निरिव॥ इति गाथार्थः // 198 // आह- नन्वात्मीयमपि चेष्टितं किं कश्चिद् न जानाति, येन सुप्तादीनां स्वचेष्टिताऽसंवेदनमुच्यते?, इत्याशङ्क्याह जग्गन्तो वि न जाणइ छउमत्थो हिययगोयरं सव्वं / जं तज्झवसाणाइं जमसंखेजाइं दिवसेण॥१९९॥ [संस्कृतच्छाया:- जाग्रदपि न जानाति छद्मस्थो हृदयगोचरं सर्वम् / यत् तदध्यवसानानि यदसंख्येयानि दिवसेन // ] व्याख्याः- (तत्) उस ज्ञान का अस्तित्व सोये हुए आदि व्यक्तियों में भी परिलक्षित होता है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) स्वप्न में की गई प्रत्युत्तर देने आदि की चेष्टाओं से (ज्ञान का अस्तित्व परिलक्षित होता है)। चूंकि सोये हुए आदि कुछ लोग भी स्वप्न-दर्शन की स्थिति में कुछ बोलते हुए दिखाई देते हैं। (अगर कोई) उन्हें आवाज दे तो वे (प्रत्युत्तर रूप में) 'ओघ' से (सामान्यतया, संक्षेप में अस्पष्टतया, बुदबुदाते हुए) प्रत्युत्तर भी देते हैं। (सोते हुए ही) देह को सिकोडना, फैलाना, अंगड़ाई लेना, जंभाई लेना, आवाज करना या शरीर खुजलाना आदि चेष्टाएं भी करते हैं, किन्तु उन (क्रियाओं) का न तो वे संवेदन करते हैं और न ही जागने पर उन्हें स्मरण (ही) कर पाते हैं। (प्रश्न-) तब : * चेष्टाओं से उन (व्यक्तियों) में ज्ञान है- ऐसा कैसे ज्ञात होता है? उत्तर दे रहे हैं (यत् न अमतिपूर्वा) चूंकि वे वचन-दानादि की चेष्टाएं मतिज्ञान के बिना नहीं होती (हो सकतीं), अपितु मतिज्ञान पूर्वक ही होती हैं, अन्यथा (निर्जीव) काठ (लकड़ी) में भी वे चेष्टाएं हो जानी चाहिएं। अतः उन क्रियाओं के आधार पर उन (सोये हुए आदि लोगों) में ज्ञान (का सद्भाव) लक्षित (अनुमान-गम्य, निर्णीत) उसी प्रकार होता है जैसे धूएं से आग का सद्भाव लक्षित (निर्णीत) होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 198 // (पुनः) किसी (शंकाकार) ने कहा- 'आप जो सोए हुए आदि व्यक्तियों को अपनी ही चेष्टाओं का संवेदन होना बता रहे हैं, किन्तु क्या कोई ऐसा भी व्यक्ति हो सकता है जो स्वकीय चेष्टाओं का ज्ञान (संवेदन) नहीं करता? इस आशंका को दृष्टिगत रखकर भाष्यकार कह रहे हैं ||199 // जग्गन्तो वि न जाणइ छउमत्यो हिययगोयरं सव्वं / जं तज्झवसाणाइं जमसंखेजाइं दिवसेण // [(गाथा-अर्थ :) (सोये हुए की तो बात ही क्या,) जागता हुआ छद्मस्थ व्यक्ति भी अपने हृदय में उठने वाले समस्त भावों (अध्यवसानों) को नहीं जान पाता, क्योंकि वे अध्यवसान पूरे दिन में असंख्येयं (संख्यातीत) हो जाते हैं।] -- 291 --------- विशेषावश्यक भाष्य Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयं मनो गोचर: स्थानं यस्य तद् हृदयगोचरं अध्यवसायनिकुरम्बं' इति गम्यते, तज्जाग्रदपि छद्मस्थः सर्वमपरिशेषं न जानाति- न संवेदयते, आस्तां पुनः सुप्तः। कुतः?, इत्याह- अध्यवसानानि- अध्यवसायस्थानरूपाणि केवलिगम्यानि सूक्ष्माणि, यत एकेनाऽप्यन्तर्मुहूर्तेनाऽसंख्येयानि यान्त्यतिक्रामन्ति, किं पुनःसर्वेणापि दिवसेन?। न चैतानि छद्मस्थ: सर्वाण्यपि संवेदयते। ततश्च यथैतानि छद्मस्थैरसंवेद्यमानान्यपि केवलिदृष्टत्वात् सत्त्वेनाऽभ्युपगम्यन्ते, तथा व्यञ्जनावग्रहज्ञानमपि // इति गाथार्थः // 199 // आह- ननु सुप्तादीनां ज्ञानं वचनादिचेष्टाभ्यो गम्यत इत्युक्तम्, तत्तावदभ्युपगच्छामः, व्यञ्जनावग्रहे तु ज्ञानरूपतागमकं लिङ्गं न किञ्चिदुपलभामहे, अतो जडरूपत्वाद् नासौ ज्ञानमिति ब्रूमः, इत्याशङ्क्याह जइ वऽण्णाणमसंखेजसमइसद्दाइदव्वसम्भावे। किह चरमसमयसद्दाइदव्वविण्णाणसामत्थं? // 200 // व्याख्याः - हृदय कहें या मन कहें (एक ही बात है), वह जिसका गोचर या उद्भवस्थान है, वह 'हृदयचगोचर' कहलाता है। यहां 'हृदयगोचर' शब्द से 'अध्यवसाय-समूह' अर्थ समझना चाहिए। उस सारे के सारे हृदयगोचर (अध्यवसाय-समूह) को छद्मस्थ व्यक्ति जागता हुआ भी नहीं जानता, तब फिर सोये हुए व्यक्ति की तो बात ही क्या है (वह तो जान ही कैसे सकता है)? (प्रश्न-) ऐसा कैसे? उत्तर दिया- (यत् तदध्यवसानानि)। अध्यवसाय-स्थान तो केवलिगम्य हैं (केवली-सर्वज्ञ द्वारा ही सारे जाने जा सकते हैं) और (वे इतने) सूक्ष्म हैं कि एक अन्तर्मुहूर्त में ही असंख्येय हो जाते हैं, संख्येय से परे हो जाते हैं, पूरे दिन के अध्यवसान-स्थानों की तो बात ही क्या? छद्मस्थ इन सभी अध्यवसानों को नहीं जान पाता। इसलिए, छद्मस्थों द्वारा असंवेद्यमान होने पर भी, केवलिगम्य होने के आधार पर उनका सद्भाव माना जाता है, वैसे ही व्यञ्जनावग्रह ज्ञान का अस्तित्व माना जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 199 // (व्यअनावग्रह के प्रत्येक समय में तथा समुदाय में ज्ञान-मात्रा) शंकाकार ने कहा- 'सोये हुए आदि लोगों के ज्ञान (के अस्तित्व) को उनके वचन आदि (कायिक) चेष्टाओं से जाना जाता है'- यह जो आपने कहा, उसे चलो, हम मान लेते हैं। किन्तु व्यञ्जनावग्रह में तो कोई लिङ्ग (साधक हेतु जिसके आधार पर अनुमान ज्ञान किया जा सके) हमें तो नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में व्यअनावग्रह के जड़रूप होने से वह ज्ञानरूप नहीं है- ऐसा हमारा मानना है। उक्त शंका को दृष्टिगत रखकर भाष्यकार कह रहे हैं // 200 // जइ वऽण्णाणमसंखेज्जसमइसद्दाइदव्वसब्भावे / किह चरमसमयसद्दाइदव्वविण्णाणसामत्थं?॥ Mar 292 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- यदि वाऽज्ञानमसंख्येयसमयशब्दादिद्रव्यसद्भावे / कथं चरमसमयशब्दादिद्रव्यविज्ञानसामर्थ्यम्॥] * वाशब्दः पातनासूचकः, सा च कृतैव। ततश्च हन्त! यद्यज्ञानं व्यञ्जनावग्रह : / क्व सति?, इत्याह - असंख्येयसमयशब्दादिद्रव्यसद्भावेऽपि सति, इत्यपिशब्दो गम्यते। कथं तर्हि चरमसमयशब्दादिद्रव्याणां विज्ञानजननसामर्थ्यम्? न कथञ्चिदित्यर्थः। इदमुक्तं भवति- व्यञ्जनावग्रहे तावत् प्रतिसमयमसंख्येयान् समयान् यावच्छ्रोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयद्रव्याणि संबध्यन्ते। ततश्च यद्यसंख्येयसमयान् यावच्छ्रोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयसंबन्धसद्भावेऽपि सति व्यञ्जनावग्रहरूपं ज्ञानं नाभ्युपगम्यते, कथं तर्हि चरमसमये श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबद्धानां शब्दादिविषयद्रव्याणां परेणाऽप्यर्थावग्रहलक्षणविज्ञानजननसामर्थ्य मिष्यते?, तदभ्युपगन्तुं न युज्यत इति भावः। यदि हि शब्दादिविषयद्रव्याणां श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबन्धे आद्यसमयादेवाऽऽरभ्य ज्ञानमात्रा काचित् प्रतिसमयमाविर्भवन्ती नाभ्युपगम्यते, तर्हि चरमसमयेऽप्यकस्मादेवैषा न युज्यते, तथा च सत्यर्थावग्रहादिज्ञानानामप्यनुदयप्रसङ्गः॥ इति गाथार्थः // 20 // [(गाथा-अर्थ :) अथवा, असंख्येय समय तक रहने वाले शब्दादि द्रव्य के अस्तित्व में भी यदि (आप) अज्ञान रूपता मानते हो तो चरम समय के शब्दादि द्रव्य में ज्ञान-उत्पादन की सामर्थ्य कैसे हो पाएगी?] व्याख्याः - 'वा' शब्द (नयी बात की प्रस्तावना का सूचक है जो यहां की गई है। इस प्रकार, खेद की बात है- यदि आप व्यअनावग्रह को अज्ञान कहते हैं। (प्रश्न-) क्या (अनर्थ) कर दिया कि खेद की बात है? उत्तर दिया- (असंख्येयसमय इत्यादि)। असंख्येय समय तक रहने वाले शब्दादि द्रव्य के होने पर भी (व्यञ्जनावग्रह को अज्ञान कहना, निश्चय ही खेद की बात ही है)। (यदि वह अज्ञान रूप हो तो) चरम समय में होने वाले शब्दादि द्रव्यों में ज्ञानोत्पादकता की सामर्थ्य कैसे (कहां से) आई? अर्थात् कथमपि नहीं आ सकती (ऐसी स्थिति में अर्थावग्रह की उत्पत्ति नहीं हो पाएगी)। .. तात्पर्य यह है कि व्यअनावग्रह में तो प्रतिसमय असंख्येय समय तक श्रोत्रादि इंद्रियों के साथ शब्दादि विषय-द्रव्यों का सम्बन्ध रहता है। तब यदि असंख्येय समय तक शब्दादि विषय-सम्बन्ध होने पर भी, व्यअनावग्रह को 'ज्ञान' नहीं माना जाये तो (अर्थावग्रह होने से पूर्व व्यञ्जनावग्रह के) चरम समय में श्रोत्रादि इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध शब्दादि विषय द्रव्यों में अर्थावग्रह लक्षण ज्ञान के उत्पादन की सामर्थ्य को 'पर' (यानी पूर्वपक्षी) किस आधार पर मानता है? अर्थात् उसके लिए ऐसा मानना कथमपि उपयुक्त (तर्कसंगत) नहीं लगता। यदि शब्दादि विषय-द्रव्यों को श्रोत्रादि इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध हो रहा है, तब प्रथम समय से ही ज्ञान की कुछ-न-कुछ मात्रा (सत्ता) प्रतिसमय प्रवर्तमान रहती है (ऐसा मानना पड़ेगा), यदि ऐसा नहीं मानते हैं तो चरम समय में अकस्मात् ही इस (ज्ञानोत्पादकता) का होना युक्तियुक्त नहीं है, और तब (अकस्मात् ज्ञानोत्पादकता नहीं आए तो) फिर अर्थावग्रह आदि ज्ञान का उदय भी नहीं हो सकेगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 200 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 293 र Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाहि जं सव्वहा न वीसुं सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं व। पत्तेयमणिच्छंतो कहमिच्छसि समुदए नाणं?॥२०१॥ [संस्कृतच्छाया:- यत् सर्वथा न विष्वक् सर्वेष्वपि तद्न रेणुतैलमिव। प्रत्येकमनिच्छन् कथमिच्छसि समुदये ज्ञानम्? // ] यद् वस्तु सर्वथा सर्वप्रकारैर्विष्वक् पृथक् नास्ति तत् समुदायेऽपि नाऽभ्युपगन्तव्यम्, यथा रेणुकणनिकरे प्रतिरेणुकमविद्यमानं तैलम्; एवं चेत्, तर्हि त्वमपि प्रत्येकमनिच्छन् कथं समुदये ज्ञानमिच्छसि?। इदमुक्तं भवति- यदीन्द्रियविषयसंबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य व्यञ्जनावग्रहसंबन्धिनोऽसंख्येयान् समयान् यावत् प्रतिसमयं पुष्टिमाबिभ्रती ज्ञानमात्रां काञ्चिदपि नेच्छसि, तर्हि चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धेन संपूर्णे समुदायेऽपि कथं तामिच्छसि? चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धे यदर्थावग्रहज्ञानमभ्युपगम्यते, तदपि प्रत्येकमसच्चरम-सिकताकणे तैलवद् न प्राप्नोतीति भावः। तस्मात् तिलेषु तैलवत्, सर्वेष्वपि समयेषु प्रत्येकं यच्च यावच्च ज्ञानमस्तीति प्रतिपत्तव्यम्॥ इति गाथार्थः॥२०१ / / और (इसी क्रम में अन्य युक्ति भी दे रहे हैं) 201 // जं सव्वहा न वीसुं सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं व / पत्तेयमणिच्छंतो कहमिच्छसि समुदए नाणं? // [(गाथा-अर्थ :) जो वस्तु कहीं पृथक्-पृथक् रूप से उपलब्ध न हो तो वह समस्त (समुदाय) में भी नहीं होती, जैसे धूल के कणों में तैल / (व्यञ्जनावग्रह के) प्रत्येक (समय) में ज्ञान को नहीं मान कर समुदाय में उसे कैसे मान रहे हैं?] व्याख्याः- जो वस्तु कहीं पृथक्-पृथक् रूप से किसी भी रूप में नहीं पाई जाती है तो उसका सद्भाव समुदाय में भी नहीं माना जाता, उसी तरह जैसे प्रत्येक रेणु (धूल कण) में तैल नहीं पाया जाता है तो वह रेणुओं के समूह में भी नहीं मिलता। अब, जब ऐसी वस्तुस्थिति है तो आप भी (एक तरफ) प्रत्येक (व्यअनावग्रह-क्षण) में (ज्ञान का सद्भाव) नहीं मानते हैं, किन्तु (दूसरी तरफ) समुदाय में ज्ञान का सद्भाव मानते हैं, यह कैसे? तात्पर्य यह है कि यदि इन्द्रियों व विषय का जो सम्बन्ध है, उसके प्रथम समय से ही व्यअनावग्रह के असंख्येय समयों तक प्रतिसमय संपुष्ट हो रही किसी भी ज्ञान-मात्रा के सद्भाव से आप इन्कार करते हैं तो चरम समयवर्ती 'शब्दादि इन्द्रिय विषय सम्बन्ध' से सम्पूर्ण समुदाय में ही उसे (ज्ञानमात्रा को) क्यों नहीं मानना चाहते? चरमसमयवर्ती जो शब्दादिविषयद्रव्य-सम्बन्ध है, उसमें अर्थावग्रह ज्ञान का होना आप स्वीकारते हैं, वह उसी प्रकार संगत नहीं है जैसे बालू के प्रत्येक कण में तैल नहीं होता तो समुदाय में भी वह प्राप्त नहीं होता -यह भाव है। इसलिए, तिलों में (प्रत्येक तिल में) तैल की तरह, सभी समयों में जितने भी प्रत्येक (व्यअनावग्रह) हैं, उन सब में ज्ञान का सद्भाव है- ऐसा मानना ही चाहिए // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 201 // . . Ne, 294 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च समुदाए जइ णाणं देसूणे समुदए कहं नत्थि?। समुदाए वाऽभूयं कह देसे होज्ज तं सयलं?॥ 202 // [संस्कृतच्छाया:- समुदाये यदि ज्ञानं देशोने समुदये कथं नास्ति?। समुदाये वाऽभूतं कथं देशे भवेत् तत् सकलम्?॥] समुदायज्ञानवादिन् ! यदि विषयद्रव्यसंबन्धसमयानामसंख्येयानां समुदाये ज्ञानमर्थावग्रहलक्षणमभ्युपगम्यते, तर्हि चरमसमयलक्षणो योऽसौ देशस्तेन न्यूने समुदाये- चरमैकसमयोनेष्वसंख्यातेषु समयेष्वित्यर्थः। तत् कथं नास्ति?, समस्त्येव, प्रमाणोपपन्नत्वात्। तथाहि- सर्वेष्वपि शब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयेषु ज्ञानमस्तीति प्रतिजानीमहे, ज्ञानोपकारिशब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयसमुदायैकदेशत्वादिति हेतुः, अर्थावग्रहसमयवदिति दृष्टान्तः॥ अत्राह- ननु शब्दादिविषयोपादानसमयसमुदाये ज्ञानं केनाऽभ्युपगम्यते, येन समुदायैकदेशत्वात् प्रथमादिसमयेषु सर्वेष्वपि तत् प्रतिज्ञायते?;मया होकस्मिन्नेव चरमसमये शब्दादिद्रव्योपादाने ज्ञानप्रसव इष्यते, इत्याशक्याह- 'समुदाए वाऽभूयमित्यादि। दूसरी बात- . 202 // समुदाए जइ णाणं देसूणे समुदए कहं नत्थि? | समुदाए वाऽभूयं कह देसे होज्ज तं सयलं? // . [(गाथा-अर्थ :) यदि समुदाय में ज्ञान को मानते हैं तो देशोन (कुछ कम, चरमसमय रहित) . समुदाय में वह कैसे नहीं है? अथवा जो समुदाय में नहीं है तो (उस समुदाय के) एक अंश (चरम समय) में वह (ज्ञान) समग्र रूप से (अकस्मात्) कैसे (प्रकट) हो सकता है?] ___ व्याख्याः- समुदाय में ज्ञान मानने वाले हे (महानुभाव)! यदि विषय द्रव्य से सम्बद्ध असंख्येय समयों के समुदाय में अर्थावग्रह लक्षण ज्ञान का सद्भाव स्वीकार करते हैं तो चरम समयवर्ती अंश से न्यून (रहित) समुदाय में, अर्थात् चरम समय से रहित असंख्यात समयों में, उस ज्ञान को कैसे नहीं मानते? (वस्तुतः) वह ज्ञान आखिर कैसे नहीं है? अर्थात् ज्ञान है ही, क्योंकि यही प्रमाणसंगत है (ही) -यह हमारी प्रतिज्ञा (पक्ष व साध्य का उद्घोष) है (अर्थात् 'समस्त शब्दादि द्रव्यसम्बद्ध समय' पक्ष है, और उसमें ज्ञान साध्य है, या ज्ञानयुक्त समस्त शब्दादि-द्रव्य-सम्बद्ध समय -धर्मी, धर्मविशिष्ट साध्य है)। इस (अनुमान) में हेतु है- ज्ञानोपकारी शब्दादि-द्रव्यसम्बद्ध समय-समुदाय का एकदेश होना / दृष्टान्त है- अर्थावग्रह समय की तरह। __यहां (समुदायज्ञानवादी ने) कहा (शंका)- शब्दादि विषयों के उपादान समयों के समुदाय में ज्ञान के अस्तित्व को कौन मान रहा है जो आप समुदाय-एकदेश होने से प्रथमादि सभी समयों के समुदाय में ज्ञान के अस्तित्व को कौन मान रहा है जो आप समुदाय-एकदेश होने से प्रथमादि सभी समयों में भी उस ज्ञान (के अस्तित्व) का प्रतिपादन कर रहे हैं? हम तो यह मानते हैं कि एक (मात्र) ----- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 295 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चशब्दो वाशब्दो वा पातनायाम्, सा च कृतैव। तत्र यद्येकस्मिन्नेव चरमसमये ज्ञानमभ्युपगम्यते, तदाऽसौ सर्वसमयसमुदायापेक्षया तावदेकदेश एव। ततश्चानेनैकदेशेनोने शेषसमयसमुदाये यदभूतं ज्ञानं तत्कथं हन्त! चरमसमयलक्षणे देशेऽकस्मादेव सकलमखण्डं भवेत्, अप्रमाणोपपन्नत्वात्?। तथाहि- नैकस्मिंश्चरमशब्दादिद्रव्योपादानसमये ज्ञानमुपजायते, एकसमयमात्रशब्दादिद्रव्योपादानात्, व्यञ्जनावग्रहाऽऽद्यसमयवदिति। . स्यादेतत्, चरमसमयेऽर्थावग्रहज्ञानमनुभवप्रत्यक्षेणाऽप्यनुभूयते, ततः प्रत्यक्षविरोधिनीयं प्रतिज्ञा। तदयुक्तम्, 'चरमसमय एव समग्रं ज्ञानमुत्पद्यते' इतिभवत्प्रतिज्ञातस्यैव प्रत्यक्षविरोधात्, चरमतन्तौ समस्तपटोत्पादवचनवत् / तथा, सर्वेष्वपि शब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयेषु ज्ञानमस्तीत्यादिपूर्वोक्तानुमानविरोधश्च भवत्पक्षस्य // इति गाथार्थः // 20 // चरम समय में जो शब्दादि द्रव्यों का उपादान होता है, उसमें ज्ञानोत्पत्ति होती है। इस शंका (या . पूर्वपक्षी समुदायज्ञानवादी के प्रत्युत्तर) को ध्यान में रखकर (भाष्यकार) कह रहे हैं- (समुदाये वाऽभूतम्)। 'वा' शब्द या 'च' शब्द नये कथन की प्रस्तावना के सूचक होते हैं। यहां भी 'वा' शब्द से नये कथन का प्रारम्भ किया जा रहा है। (भाष्यकार का कहना है-) वहां यदि एक ही चरम समय में ज्ञान (की उत्पत्ति) स्वीकारते हैं तो वह (चरम समय भी तो) समस्त समय-समुदाय की अपेक्षा से (उस समुदाय का) एकदेश ही (तो) है। इस प्रकार, इस एकदेश (चरम समय) से रहित शेष समयसमुदाय में जो ज्ञान नहीं रहा तो बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वह ज्ञान चरम समय रूप देश में अकस्मात् ही कैसे सकल, अखण्ड रूप में निष्पन्न हो जाएगा? (अर्थात् कभी नहीं हो सकता), क्योंकि ऐसा होना प्रमाण-संगत नहीं है। (जरा सोचिए!) जब व्यञ्जनावग्रह के प्रथम समय (में ज्ञानोत्पादन की सामर्थ्य नहीं है, उसी) की तरह शब्दादि द्रव्य- उपादान सम्बन्धी एक (मात्र) चरम समय में (भी) ज्ञान नहीं हो पाएगा, क्योंकि वहां एक समयमात्र के शब्दादि द्रव्य का उपादान हुआ है (न कि समस्त समयों का)। (शंकाकार-) चलो, आपका कहना सही हो, किन्तु चरम समय में तो अर्थावग्रह रूप ज्ञान की अनुभूति प्रत्यक्ष हो रही होती है, अतः आपकी प्रतिज्ञा (साध्य व पक्ष का कथन जो किया गया है) ही स्वतःविरुद्ध हो जाती है। (उत्तर-) आपका कहना युक्तियुक्त नहीं, 'चरम समय में ही समग्र ज्ञान उत्पन्न होता है'- यह जो आपने प्रतिज्ञात (मत-स्थापित) किया है, उसी का ही प्रत्यक्ष विरोध उसी प्रकार सिद्ध होता है जिस प्रकार चरम तन्तु में समस्त पट को उत्पन्न करने का कथन (विरुद्ध होता है)। इस प्रकार (व्यअनावग्रह) के सभी शब्दादि-द्रव्यसम्बद्ध समयों में ज्ञान है, इत्यादि जो हमारा अनुमान-वचन (प्रतिज्ञा) है,वह आपके पक्ष (प्रतिज्ञा) का विरोधी है (अर्थात् आपके पक्ष या प्रतिज्ञा का निराकरण करता है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 202 // Ma 296 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मात् किमिह स्थितम्?, इत्याह तंतू पडोवगारी न समत्तपडो य, समुदिया ते उ। सव्वे समत्तपडओ तह नाणं सव्वसमएसु॥ 203 // [संस्कृतच्छाया:- तन्तुः पटोपकारी न समस्तपटश्च समुदितास्ते। सर्वे समस्तपटकस्तथा ज्ञानं सर्वसमयेषु॥] यथैकस्तन्तुः पटोपकारी वर्तते, तमन्तरेणाऽपि समग्रस्य तस्याऽभावात्, न चासौ तन्तुरेतावता समस्तः पटो भवति, पटैकदेशत्वात् तस्य, समुदिताः पुनस्ते तन्तवः सर्वे समस्तपटव्यपदेशभाजो भवन्ति; तथाऽत्रापि सर्वेष्वपि समुदितेषु समयेषु ज्ञानं भवति, नैकस्मिंश्चरमसमये। ततश्चार्थावग्रहसमयात् पूर्वसमयेषु तदेव ज्ञानमतीवाऽस्फुटं व्यञ्जनावग्रह उच्यते; चरमसमये तु तदेव किञ्चित्स्फुटतरावस्थामापत्रमर्थावग्रह इति व्यपदिश्यते। अतो यद्यपि सुप्त-मत्त-मूर्छितादिज्ञानस्येव व्यक्तं तथाविधं व्यञ्जनावग्रहज्ञानसाधकं लिङ्गं नास्ति, तथापि यथोक्तयुक्तितो व्यञ्जनावग्रहे सिद्धं ज्ञानम् // इति गाथार्थः // 203 // तो अब निष्कर्ष क्या निकला? इसे (स्पष्टतया) कह रहे हैं 203 // तंतू पडोवगारी न समत्तपडो य, समुदिया ते उ। . सव्वे समत्तपडओ तह नाणं सव्वसमएसु // __ [(गाथा-अर्थ :) (एक-एक) तन्तु पट (के उत्पादन) में उपकारी होता है, तथापि वह (एकतन्तु) समस्त पट (रूप में व्यवहृत) नहीं हो जाता, अपितु वे सभी तन्तु समुदित होकर (ही) 'समस्त पट' (कहलाते) हैं. इसी प्रकार. (व्यञ्जनावग्रह के) समस्त समयों में (ही) ज्ञान है (न कि मात्र चरम समय में)] व्याख्याः- जैसे (प्रत्येक) तन्तु पट (के निर्माण में उस) का उपकारी होता है, क्योंकि एक के विना भी उस (पट) की समग्रता नहीं हो सकती, किन्तु ऐसा (समस्त पट का उपकारी) होने मात्र से वह (प्रत्येक तन्तु) समस्त पट नहीं हो जाता, क्योंकि वह पट का एकदेश ही है। और वे सभी तन्तु समुदित होकर 'समस्त पट' नाम धारण करते हैं, वैसे ही यहां (व्यञ्जनावग्रह में) भी सभी समुदित समयों में 'ज्ञान' स्थित है, न कि एक चरम समय में (ही)। इस प्रकार, अर्थावग्रह (होने) के समय से पूर्व के समयों में जो ज्ञान अत्यन्त अस्फुट (व्यक्त) रूप में विद्यमान है, उसी को व्यअनावग्रह कहा जाता है। चरम समय में तो वही (अस्फुट) ज्ञान थोड़ा अधिक स्फुट (स्पष्ट, व्यक्त) रूप को प्राप्त करता हुआ 'अर्थावग्रह'- इस नाम से कहा जाता है। अतः सोये हुए, मत्त (मद्य पीये हुए) व मूर्छित आदि (व्यक्तियों) में जो ज्ञान है उसके सद्भाव को सिद्ध करने वाले हेतु जितने व्यक्त (स्पष्ट) हैं, उतने (स्पष्ट) हेतु व्यञ्जनावग्रह की ज्ञानरूपता को सिद्ध करने वाले नहीं है। फिर भी, पूर्वोक्त युक्ति के आधार पर व्यअनावग्रह की ज्ञानरूपता सिद्ध हो (ही) जाती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ ||203 // 5 गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 203 // -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 297 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व-भेद-पर्यायैर्व्याख्या, तत्र तत्त्वं व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपमुक्तम्। अथ तस्य भेदान् निरूपयितुमाह नयण-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा। उवघायाणुग्गहओ जं ताई पत्तकारीणि॥ 204 // [संस्कृतच्छाया:- नयन-मनोवर्जेन्द्रियभेदाद् व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा। उपघातानुग्रहतो यत् तानि प्राप्तकारीणि॥] सच व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा भवति। कुतः?, इत्याह- नयन-मनोवर्जेन्द्रियभेदात्। इदमुक्तं भवति-विषयस्य, इन्द्रियस्य च यः परस्परं संबन्धः प्रथममुपश्लेषमात्रम्; तद्-व्यञ्जनावग्रहस्य विषयः। स च विषयेण सहोपश्लेषः प्राप्यकारिष्वेव स्पर्शन-रसन-घ्राणश्रोत्र-लक्षणेषु चतुरिन्द्रियेषु भवति, न तु नयन-मनसोः। अतस्ते वर्जयित्वा शेषस्पर्शनादीन्द्रियचतुष्टयभेदाच्चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रहो भवति। नन्विन्द्रियत्वे तुल्येऽपि केयं मुखपरीक्षिका- यच्चतुषु स्पर्शनादीन्द्रियेषु सोऽभ्युपगम्यते, नान्यत्र?, इत्याह- ‘उवधायेत्यादि'। (व्यअनावग्रह के भेद) तत्त्व (स्वरूप), उसके भेद एवं उसके पर्याय (आदि)-इनका निरूपण करना (ही) व्याख्या होती है। तो (अभी तक) व्यञ्जनावग्रह का तत्त्व यानी उसके स्वरूप का कथन तो हो चुका / अब उसके भेदों का निरूपण कर रहे हैं // 204 // नयण-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा। उवघाया-णुग्गहओ जं ताई पत्तकारीणि || [(गाथा-अर्थ :) नेत्र और मन को छोड़ कर (अवशिष्ट रहीं श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा -इन चार) इन्द्रियों के भेद से व्यअनावग्रह के चार भेद हो जाते हैं। वे (चार इन्द्रियां ही) प्राप्यकारी हैं, क्योंकि उनमें (ही) उपघात व अनुग्रह को (होते) देखा जाता है।] व्याख्याः - वह व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का होता है। (प्रश्न-) कैसे? (अर्थात् पांच प्रकार का क्यों नहीं, क्योंकि इन्द्रियां तो पांच हैं।) उत्तर दिया- नेत्र व मन -इन दो इन्द्रियों को छोड़कर (अवशिष्ट चार) इन्द्रियों के (आधार पर किये जाने वाले) भेद के कारण (चार ही भेद हैं)। तात्पर्य यह है कि विषय व इन्द्रिय का जो परस्पर सम्बन्ध (सम्पर्क) होता है, वही व्यअनावग्रह का विषय है। वह जो विषय के साथ (इन्द्रियों का) सम्पृक्त होना है, वह प्राप्यकारी इन्द्रियों- स्पर्शन (त्वचा), रसना (जिह्वा), घ्राण (नासिका), श्रोत्र (कान) -इन चार इन्द्रियों में ही होता है, नेत्र इन्द्रिय व मन में नहीं। अतः इन दोनों को छोड़ देने से, स्पर्शन (त्वचा) आदि शेष चार इन्द्रियों के आधार पर भेद (किये जाने) से व्यञ्जनावग्रह के चार ही भेद होते हैं। (शंका-) क्यों जी! इन्द्रियों के रूप में तो सभी इन्द्रियां समान हैं, फिर भी यह कौन-सी मुखपरीक्षिका (जांचने-परखने की कसौटी) है जिससे पूर्वोक्त चार इन्द्रियों (को ही प्राप्यकारी माना -------- विशेषावश्यक भाष्य -- ------ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद् यस्मात् तान्येव स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रलक्षणानि चत्वारीन्द्रियाणि प्राप्तकारीणि, न तु नयन-मनसी। ततो यथोक्तेन्द्रियचतुष्कभेदाच्चतुर्विध एवाऽसौ भवति, इति काऽत्र मुखपरीक्षिका? इति। तत्र विषयभूतं शब्दादिकं वस्तु प्राप्त संश्लेषद्वारेणाऽऽसादितं कुर्वन्ति परिच्छिन्दन्तीति प्राप्तकारीणि प्राप्यकारीणि स्पृष्टार्थग्राहिणीत्यर्थः। ___कुतः पुनरेतान्येव प्राप्यकारीणि?, इत्याह- उपघातश्चानुग्रहश्चोपघाताऽनुग्रहौ, तयोर्दर्शनात्- कर्कशकम्बलादिस्पर्शने, त्रिकटुकाद्यास्वादने, अशुच्यादिपुद्गलाऽऽघ्राणे, भेर्यादिशब्दश्रवणे, त्वक्षणनाद्युपघातदर्शनात्, चन्दनाऽङ्गना-हंसतूलादिस्पर्शने, क्षीर-शर्कराद्यास्वादने, कर्पूरपुद्गलाद्याघ्राणे, मृदु-मन्द्रशब्दाद्याकर्णने तु शैत्याद्यनुग्रहदर्शनादित्यर्थः। नयनस्य तु निशितकरपत्रसेल्ल-भल्लादिवीक्षणेऽपि पाटनाद्युपघातानवलोकनात्, चन्दनाऽगुरु-कर्पूराद्यवलोकनेऽपि शैत्याद्यनुग्रहाननुभवात्। मनसस्तु वयादिचिन्तनेऽपि दाहाद्युपघाताऽदर्शनात्, जल-चन्दनादिचिन्तायामपि च पिपासोपशमाद्यनुग्रहासंभवाच्च // इति गाथार्थः॥२०४॥ जाता है और उन्हीं) के आधार पर (व्यञ्जनावग्रह के) चार ही भेद किये जाते हैं? (उत्तर-) प्राप्तकारी या प्राप्यकारी इन्द्रियां (वे चार ही इसलिए हैं, क्योंकि वे) शब्दादिविषयभूत वस्तु को, उसके साथ संशूष-करती हुईं, प्राप्त करती हैं, उपलब्ध करती हैं और उन्हें ज्ञेय बनाती हैं। तात्पर्य यह है कि वे इन्द्रियां स्पृष्टार्थग्राहिणी (अपने साथ स्पृष्ट हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने वाली) होती हैं (अतः वे ही प्राप्यकारी हैं, नेत्र व मन नहीं)। (प्रश्न-) यह क्या कारण है कि ये चार ही इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं (अन्य, नेत्र व मन नहीं)? उत्तर दे रहे हैं- (उपघात-अनुग्रहतः)। उन (चारों में ही) उपघात व अनग्रह का होना देखा जाता है। * तात्पर्य यह है कि जैसे कठोर कम्बल के स्पर्श से, त्रिविध कटु पदार्थों (कडुवे, तीखे, चरपरे पदार्थों) के खाने (या चखने) से, अशुचि पुद्गलों (दुर्गन्धमय, अपवित्र पदार्थों) को सूंघने से, भेरी आदि (वाद्यों) की (तीव्रतम) आवाज को सुनने से, त्वचा पर आघात आदि इन्द्रियोपघात दृष्टिगोचर होता है। इसी तरह, चन्दन, कामिनी (-शरीर), हंस व (मखमली) रूई आदि के स्पर्श से, दूध-चीनी के * आस्वादन से, कपूर पुद्गलों को सूंघने से, मन्द-मन्द शब्दों (भरे संगीत आदि) को सुनने से (सम्बद्ध इन्द्रियों में) अनुग्रह (अनुकूलता का अनुभव) होता देखा जाता है। जहां तक नेत्र इन्द्रिय (की बात है, उसमें) तो तीखी धार वाले आरे, बी, भाले आदि को देखने से भी विदारित होने आदि उपघात (प्रतिकूलता प्रभाव) का होना दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी तरह, चन्दन, अगुरु (अगर), कपूर आदि को देखने से भी शैत्य आदि अनुग्रह होने की अनुभूति नहीं होती। मन के भी अग्नि आदि सम्बन्धी चिन्तन करने से दाह (जलने) आदि उपघात (प्रतिकूल प्रभाव) का होना अनूभूति में नहीं आता। उसी तरह जल व चंदन आदि के चिन्तन से प्यास बुझ जाने आदि अनुग्रह का होना संभव नहीं होता (इसलिए नेत्र व मन प्राप्यकारी इन्द्रियों में परिगणित नहीं किये गये) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 204 // -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - -29 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र परः प्राह जुजइ पत्तविसयया फरिसण-रसणे न सोत्त-घाणेसु। गिण्हंति सविसयमिओ जं ताई भिन्नदेसं पि॥२०५॥ [संस्कृतच्छाया:- युज्यते प्राप्तविषयता स्पर्शनरसने न श्रोत्रघ्राणयोः। गृह्णीतः स्वविषयमितो यत् ते भिन्नदेशमपि॥] प्राप्तः स्पृष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो ययोस्ते प्राप्तविषये तयोर्भावः प्राप्तविषयता सा युज्यते घटते / कस्मिन्?, इत्याह- स्पर्शनं च रसनं चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन्, स्पर्शन-रसनेन्द्रियद्वय इत्यर्थः। अनभिमतप्रतिषेधमाह- न श्रोत्र-घ्राणयोः प्राप्तविषयता युज्यते, यद् यस्मात् कारणादितो विवक्षितात् स्वदेशाद् भिन्न देशमपि स्वविषयमेते गृहीतः, अस्याऽर्थस्याऽनुभवसिद्धत्वात्। न हि शब्दः कश्चिच्छोत्रेन्द्रिये प्रविशन्नुपलभ्यते, नापि श्रोत्रेन्द्रियं शब्ददेशे गच्छत् समीक्ष्यते। न चाभ्यामन्येनाऽपि प्रकारेण विषयस्पर्शनं घटते, 'दूर एष कस्याऽपि शब्दः श्रूयते' इत्यादिजनोक्तिश्च श्रूयते / कर्पूर-कुसुम-कुङ्कुमादीनां तु दूरस्थानामपि गन्धो निर्विवादमनुभूयते, दृश्यते च / तस्माच्छ्रोत्र-घ्राणयोः प्राप्तविषयता न युज्यत एव // इति गाथार्थः॥२०५ // (श्रोत्र व घ्राण का विषय-सम्पर्क) (अब) इस (प्राप्यकारिता के) सम्बन्ध में पूर्वपक्षवादी की ओर से कहा जा रहा है: // 205 // जज्जइ पत्तविसयया फरिसण-रसणे न सोत्त-घाणेस। गिण्हंति सविसयमिओ जं ताई भिन्नदेसं पि॥ . [ (गाथा-अर्थ :) प्राप्तविषयता (प्राप्यकारिता) त्वचा व रसना (इन्द्रिय) में तो उपयुक्त (प्रतीत होती) है, न कि श्रोत्र व घ्राण में / क्योंकि वे (श्रोत्र व घ्राण) इन्द्रियां तो भिन्न-भिन्न (अन्य, दूरवर्ती) देश में स्थित स्वविषय पदार्थ को भी ग्रहण कर लेती हैं। व्याख्याः- प्राप्त या स्पृष्ट होकर, ग्राह्य वस्तु जिन इन्द्रियों की विषय बनती हैं, वे इन्द्रियां हैंप्राप्तविषय / प्राप्तविषय होना ही प्राप्तविषयता (या प्राप्यकारिता) है। यह घटित होती है- (युज्यते)। (प्रश्न-) कहां (घटित होती है)? (उत्तर-) स्पर्शन (त्वचा) व रसना-इन दो इन्द्रियों में ही घटित होती है। अनभिमत (जहां वह घटित नहीं होती, उस) का निषेध करने हेतु कहा- (न श्रोत्रघ्राणयोः)। श्रोत्र व घ्राण में प्राप्तविषयता (मानना) उपयुक्त नहीं है। (यद्) क्योंकि ये (दोनों) विवक्षित स्वदेश से (भिन्नदेशम् अपि) भिन्न देश में स्थित भी स्वविषय को ग्रहण कर लेती हैं -यह बात अनुभवसिद्ध (ही) है। कोई शब्द किसी श्रोत्रेन्द्रिय में प्रविष्ट होता हुआ उपलब्ध नहीं होता, और न ही कोई श्रोत्रेन्द्रिय शब्द के (दूरवर्ती) देश में जाती (स्पृष्ट होती) हुई देखी जाती है। इन दोनों का किन्हीं अन्य उपायों से भी विषय से स्पृष्ट होना घटित नहीं होता। (इसलिए) लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि 'यह तो कोई दूरस्थ शब्द सुनाई पड़ रहा है' इत्यादि / दूरस्थित कर्पूर, पुष्प, कुंकुम आदि की सुगन्ध भी (घ्राणेन्द्रिय को) अनुभव में आती है और अनुभव में आते हुए देखा भी जाता है। इसलिए श्रोत्र व घ्राण (इन्द्रिय) की प्राप्तविषयता (प्राप्यकारिता) घटित ही नहीं होती // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 205 // MA 300-------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ----- Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोच्यते पावंति सद्द-गन्धा ताई गंतुं सयं न गिण्हन्ति। जंते पोग्गलमइया सक्किरिया वाउवहणाओ॥२०६॥ धूमो व्व, संहरणओ दाराणुविहाणओ विसेसेणं॥ तोयं व नियंबाइसु पडिघायाओ य वाउ व्व॥२०७॥ [संस्कृतच्छाया:- प्राप्तुतः शब्दगन्धौ ते गत्वा स्वयं न गृह्णीतः। यत् तौ पुद्गलमयौ सक्रियौ वायुवहनात् // धूम इव, संहरणतो द्वारानुविधानतो विशेषेण। तोय इव नितम्बादिषु प्रतिघाताच्च वायुरिव॥] 'पार्वति सद्द-गन्धा ताई ति' शब्द-गन्धौ कर्तृभूतौ, ते श्रोत्र-घ्राणेन्द्रिये कर्मतापन्ने, अन्यत आगत्य प्राप्नुतः स्पृशत इति प्रतिज्ञा। अनभिमतप्रकारप्रतिषेधमाह- 'गंतुं सयं न गिर्हति त्ति'। 'ताई' इत्यत्रापि संबध्यते। ततश्च ते श्रोत्र-घ्राणे कर्तृभूते पुनः स्वयं शब्द-गन्धदेशं गत्वा न गृह्णीतः। 'शब्द-गन्धौ' इति विभक्तिव्यत्ययेन संबध्येते, आत्मनोऽबाह्यकरणत्वात् श्रोत्र-घ्राणयोः, स्पर्शनरसनवदिति। उपर्युक्त विषय में (भाष्यकार उत्तर रूप में) कह रहे हैं // 206 // पावति सद्द-गन्धा ताइं गंतुं सयं न गिण्हन्ति। जं ते पोग्गलमइया सक्किरिया वाउवहणाओ // // 207 // धूमो ब्व, संहरणओ दाराणुविहाणओ विसेसेणं॥ तोयं व नियंबाइसु पडिघायाओ य वाउ व्व // . [(गाथा-अर्थ :) शब्द व गन्ध (स्वयं) ही (आकर श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को) प्राप्त (स्पृष्ट) करते हैं। ये (इन्द्रियां) स्वयं जाकर (शब्द व गन्ध को) ग्रहण नहीं करतीं, क्योंकि वे (शब्द व गन्ध) पौद्गलिक और (साथ ही साथ) सक्रिय उसी तरह हो जाते हैं, जिस प्रकार कोई धूंआ वायु से नीयमान तथा किसी एक घर में पिण्डीभूत (घनीभूत) हो जाता है, या फिर जिस प्रकार पानी विशेष 'द्वारानुविधान' से (निकास-मार्ग के अनुरूप गमन करता हुआ) सहज (प्रवाहित होता रहता एवं) सक्रिय होता है, या वायु पर्वत के निचले भाग से टकराकर (प्रतिस्खलित, गति की दिशा बदलते हुए) सक्रिय होता है।] व्याख्याः- (प्राप्नुतः शब्दगन्धौ ते)। 'प्राप्त करते हैं' इस क्रिया- वचन में शब्द व गन्ध कर्ता हैं और व घ्राण इन्द्रिय कर्म (प्राप्त करने योग्य) हैं। इस प्रकार (भाष्यकार द्वारा प्रस्तुत) पक्ष इस प्रकार है- (शब्द व गन्ध ही श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को) अन्य देश से आकर प्राप्त करते हैं। अस्वीकार्य मत (पक्ष) का निराकरण करने हेतु कह रहे हैं- (गत्वा स्वयं न गृह्णीतः)। यहां भी (ते) 'वे' इस पद का सम्बन्ध करणीय है। अतः अर्थ होगा- वे (दोनों-श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय) (शब्द व गन्ध के पास) ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 301 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु शब्द-गन्धावपि श्रोत्र-घ्राणे कुतः प्राप्तुतः?, इत्याह- 'जंते पोग्गलमइया सक्किरिय त्ति'। यद् यस्मात्कारणात् तौ , शब्द-गन्धौ सक्रियौ गत्यादिक्रियावन्तौ, तस्मादन्यत आगत्य श्रोत्र-घ्राणे प्राप्तुतः। कथम्भूतौ सन्तौ सक्रियौ तौ?, इत्याह-पुद्गलमयौ। यदि पुनरपौद्गलिकत्वादमूर्ती स्याताम्, तदा यथा जैनमतेन अक्रियेष्वाकाशादिषु गतिक्रिया नास्ति, तथैतयोरपि न स्यात्, इत्यालोच्य पुद्गलमयत्वविशेषणमकारि, पुद्गलमयत्वे सति सक्रियाविति भावः / यच्चैवम्भूतम्, तत्र गतिक्रियाऽस्त्येव, यथा पुद्गलस्कन्धेष्विति॥ आह- ननु पुद्गलमयत्वेऽपि सति शब्द-गन्धयोर्गतिक्रियाऽस्तीति कुतो निश्चीयते?, इत्याह- 'वाउवहणाओ धूमो व्व त्ति'। वायुना वहनं नयनं वायुवहनं तस्मात् / इदमुक्तं भवति- यथा पवनपटलेनोह्यमानत्वाद् धूमो गतिक्रियावान्, एवं शब्द-गन्धावपि तेनोह्यमानत्वात् तद्वन्तौ / तथा, संहरणतो गृहादिषु पिण्डीभवनाद् धूमवदेव क्रियाभाजौ तौ। तथा, विशेषेण द्वारानुविधानतस्तोयवत् . तद्वन्तावेतौ। तथा, पर्वतनितम्बादिषु प्रतिघातात् प्रतिस्खलनाद्वायुवदेतौ गतिक्रियाऽऽश्रयौ। इति गाथाद्वयार्थः // 206 // 207 // जाकर उन्हें (शब्द व गन्ध को) नहीं ग्रहण करतीं, क्योंकि श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय का- (अन्य इंद्रियों) स्पर्श (त्वचा) व रसना की तरह ही- आत्मा (शरीर) से बाहर होना (पृथक् होकर अन्यत्र जाना-. आना) नहीं होता। यहां 'शब्दगन्धौ' (शब्द व गन्ध) यह पद उपर्युक्त दोनों (अभिमत पक्ष, अस्वीकार्य मत) कथनों में विभक्ति का व्यत्यय (विभक्ति-परिवर्तन) करते हुए वाक्य में नियोजित होता है (प्रथम कथन ‘पक्ष' में कर्ता अर्थ की वाचक प्रथमा-द्विवचन विभक्ति है, तो दूसरे अस्वीकृत पक्ष में वह कर्मवाचक द्वितीया-द्विवचन विभक्ति है, यहीं विभक्ति-व्यत्यय है)। (शंका-) शब्द व गन्ध भी (किस प्रकार चल कर) श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को प्राप्त करते हैं? उत्तर दिया- (यत् तौ पुद्गलमयौ, सक्रियौ)।चूंकि वे शब्द व गन्ध सक्रिय -गति आदि क्रिया वाले हैं, अतः वे अन्य प्रदेश से आकर श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को प्राप्त कर लेते हैं। (शंका-) किस रूप में आकर वे सक्रिय होते हैं? उत्तर दिया- (पुद्गलमयौ)। यदि वे अपौद्गलिक हों तो अमूर्त भी हो सकते थे, तब जैन मतानुसार अक्रिय आकाश आदि में जैसे गति क्रिया नहीं है, उसी तरह ये भी क्रियाहीन हो सकते थे -इस तथ्य को दृष्टि में रखकर सक्रिय के साथ पुद्गलमय विशेषण भी दिया। तात्पर्य यह है कि वे पुद्गलमय होने के साथ-साथ सक्रिय (भी) हैं। अब, जो वैसा (पुद्गलमय व सक्रिय-दोनों) है, उसमें गति-क्रिया वैसे ही है जैसे पौद्गलिक स्कन्धों में होती है। (शंका-) पुद्गलमय होने पर भी शब्द व गन्ध में गति क्रिया है- ऐसा कैसे निश्चित होता है? उत्तर दिया- (वायुवहनाद् धूम इव)। वायु द्वारा वहन किये जाने से / तात्पर्य यह है कि जैसे वायुपटल (साधनभूत वायु-स्कन्ध) द्वारा वहन किया जाता हुआ धुंआ गति क्रिया से युक्त हो जाता है, उसी प्रकार शब्द व गन्ध भी उस (वायु) के द्वारा वहन किये जाने पर गतिक्रिया से युक्त हो जाते हैं। इसी तरह, जैसे धुंआ किसी घर आदि में संहरण अवस्था में आने से, (किसी गृह आदि में) पिण्डीभूत (घनीभूत) हो जाता है, उसी तरह ये भी क्रियावान् हैं। इसी तरह, जैसे वायु पर्वत-नितम्ब (पर्वत की तलहटी, निचले भाग) आदि में टकराकर प्रतिस्खलित होता है (दिशा-परिवर्तन आदि कर लेता है), वैसे ही ये (शब्द व गन्ध) भी गति क्रिया वाले हो जाते हैं / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 206-207 // Na 302 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेत्वन्तरेणाऽपि शब्द-गन्धयोः सयुक्तिकं गतिक्रियावत्त्वं समर्थयन्नाह गिण्हंति पत्तमत्थं उवघायाणुग्गहोवलद्धीओ। बाहिज-पूडू-नासारिसादओ कहमसंबद्धे?॥२०८॥ [संस्कृतच्छाया:- गृह्णीतः प्राप्तमर्थमुपघातानुग्रहोपलब्धेः। बाधिर्य-पति-नासार्शआदयः कथमसम्बद्धे? // ] प्राप्तमन्यत आगत्यात्मना सह संबद्धं शब्द-गन्धलक्षणमर्थं गृहीतः 'श्रोत्र-घ्राणेन्द्रिये' इति गम्यते। एतेन शब्दगन्धयोरागमनक्रिया प्रतिज्ञाता भवति। कुतः प्राप्तमेव गृहीत:?, इत्याह- उपघातश्चानुग्रहश्चोपघाताऽनुग्रहौ तयोरुपलब्धेः। तथाहिभेर्यादिमहाशब्दप्रवेशे श्रोत्रस्य बाधिर्यरूप उपघातो दृश्यते, कोमलशब्दश्रवणे त्वनुग्रहः। घ्राणस्याऽप्यशुच्यादिगन्धप्रवेशे पूतिरोगाऽर्थो व्याधिरूप उपघातोऽवलोक्यते, कर्पूरादिगन्धप्रवेशे त्वनुग्रहः। शब्द-गन्धासंबन्धेऽपि श्रोत्र-घ्राणयोरेतावनुग्रहोपघातौ भविष्यत इति चेत्, इत्याह- 'वाहिज्जेत्यादि / बाधिर्यं च पूतिश्च नासा-कोथलक्षणो रोगविशेषः; नासाऑसि च, तानि आदिर्येषां शेषोपघातानुग्रहाणां ते तथा भूताः कथं घटामुपगच्छेयुः? / क्व सति?, इत्याह- असंबद्धे स्वहेतुभूते शब्द-गन्धलक्षणे वस्तुनि' इति गम्यते। (अब भाष्यकार) अन्य हेतु (तर्क) द्वारा भी शब्द व गन्ध में गति-क्रिया होने का युक्तियुक्त समर्थन कर रहे हैं // 208 // गिण्हंति पत्तमत्थं उवधायाणुग्गहोवलद्धीओ। बाहिज्ज-पूइ-नासारिसादओ कहमसंबद्धे ? || [(गाथा-अर्थ :) (श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय) प्राप्त (विषय-सम्बद्ध) होकर ही अर्थ-ग्रहण करती हैं, क्योंकि उन (शब्द व गन्ध) से (इन्द्रियों में) उपघात (क्षति आदि) व अनुग्रह (अनुकूल वेदन) (-इन दोनों) की उपलब्धि होती (देखी जाती) है। यदि (ये इन्द्रियां) असम्बद्ध (होकर अर्थ-ग्रहण करती) रहती हों तो उनमें बहिरापन एवं पूति (नासिका का फूलना) व नासिका का अर्श रोग आदि कैसे (सम्भव) होंगे?] - व्याख्याः- (प्राप्तम्)- अन्य स्थान से आकर सम्बद्ध होने वाले शब्द व गन्ध रूप पदार्थ को (गृह्णीतः)- ग्रहण करती हैं। (कौन?) श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय -यह (प्रसंगानुसार) ज्ञात हो जाता है। इस प्रकार, शब्द व गन्ध में आने की क्रिया होती है- यह 'स्वपक्ष' प्रस्तुत किया गया है। (शंका-) प्राप्त (शब्दादि) को ही (ये) किस प्रकार ग्रहण करती हैं? उत्तर दिया- चूंकि उन्हीं (श्रोत्र व घ्राण) में (शब्द व गन्ध से) उपघात (क्षति आदि) या अनुग्रह (अनुकूल वेदन) होना दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थभेरी आदि (वाद्यों) के महान् (तीव्रतम) शब्दों के (श्रोत्र में) प्रविष्ट होने से श्रोत्र इन्द्रिय का बहिरापन स्वरूप उपघात होता दिखाई पड़ता है और (इसी तरह) कोमल शब्दों को सुनने पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) भी (अनुभवगम्य) होता है। घ्राणेन्द्रिय में अशुचि (अपवित्र, दुर्गन्ध) आदि गन्ध के प्रविष्ट होने पर 'पूति' रोग एवं अर्श व्याधि रूप उपघात हुआ देखा जाता है, किन्तु (इसके विपरीत) कोमल गन्ध प्रविष्ट होने पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) होता है। शब्द व गंध के (श्रोत्र व घ्राण से) सम्बद्ध न होने पर ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 303 र Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- श्रोत्रघ्राणाभ्यां सह संबद्धा एव शब्द-गन्धाः स्वकार्यभूतं बाधिर्याधुपघातम्, अनुग्रहं वा जनयितुमलम्, नाऽन्यथा, सर्वस्याऽपि तज्जननप्राप्तेरतिप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 208 // तदेवं स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्राणां प्राप्यकारित्वं समर्थितम्; सांप्रतं 'नयण-मणोवजिंदियभेयाओ' इत्यादिना सूचितं नयन-मनसोरप्राप्यकारित्वमभिधित्सुर्नयनस्य तावदाह लोयणमपत्तविसयं मणो व्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति। जल-सूरालोयाइसुदीसंति अणुग्गह-विघाया॥२०९॥ [संस्कृतच्छाया:- लोचनमप्राप्तविषयं मन इव यदनुग्रहादिशून्यमिति / जलसूरालोकादिषु दृश्येते अनुग्रह-विघातौ // ] भी श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय के वे अनुग्रह या उपघात होते हैं- ऐसी मान्यता में (दोष की संभावना) बता रहे हैं- (बाधिर्यपूतिः)। बहिरापन और पूति -जो एक प्रकार का रोग है जिसमें नाक फूल जाती है, और नासिका-अर्श (रोग) आदि -इस प्रकार के उपघात व अनुग्रह का इन्द्रियों में होना कैसे संगतिपूर्ण होगा? (शंका-) क्या होने पर (असंगति होगी)? उत्तर दिया- असम्बद्ध होने पर। अर्थात् उस उपघात या अनुग्रह के हेतुभूत शब्द व गंध रूप वस्तु के (श्रोत्र व घ्राण से) असम्बद्ध ही रहने पर -यह अर्थ फलित होता है। तात्पर्य यह है कि श्रोत्र व घ्राण के साथ शब्द व गन्ध सम्बद्ध होकर ही, बहिरापन रूपी उपघात या अनुग्रह आदि कार्य को करने में समर्थ होते हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि (यदि असम्बद्ध वस्तु का भी इन्द्रियों पर सुप्रभाव या दुष्प्रभाव होना माना जाय) तब सभी (सम्बद्ध या असम्बद्ध वस्तुओं द्वारा उस (उपघात आदि) के होने से अतिप्रसंग (दोष) होने लगेगा |यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 208 // नेत्र की अप्राप्यकारिता (नेत्र में अनुग्रह-उपघात नहीं) इस प्रकार, स्पर्शन (त्वचा), रसना, घ्राण व श्रोत्र (-इन चार) इन्द्रियों की प्राप्यकारिता का समर्थन किया गया। अब ‘नयनमनोवर्जेन्द्रिय' इत्यादि (पूर्वोक्त गा. 204) द्वारा जो नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता सूचित हुई है, उसका निरूपण करने के इच्छुक भाष्यकार (प्रथमतः) नेत्र (इन्द्रिय) के विषय में कथन कर रहे हैं // 209 // लोयणमपत्तविसयं मणो ब्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति। जल-सूरालोयाइसु दीसंति अणुग्गह-विघाया // [(गाथा-अर्थ :) मन की तरह ही नेत्र भी (रूप) विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) नहीं करते हैं, क्योंकि वे (नेत्र) इन्द्रियां अनुग्रह (व विघात) आदि से रहित रहती हैं। (शंका- आपका कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि) जल व सूर (सूर्य) को देखने से (नेत्र इन्द्रिय का क्रमशः) अनुग्रह व विघात होता देखा जाता है।] / 04-------- विशेषावश्यक भाष्य Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विः / अप्राप्तोऽसंबद्धोऽसंश्लिष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो यस्य तदप्राप्तविषयं लोचनम्, अप्राप्यकारीत्यर्थः, इति प्रतिज्ञा / कुतः?, इत्याह- यद् यस्मादनुग्रहादिशून्यम्, आदिशब्दादुपघातपरिग्रहः- ग्राह्यवस्तुकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वादित्यर्थः, अयं च हेतुः / मनोवदिति दृष्टान्तः। यदि हि लोचनं ग्राह्यवस्तुना सह संबध्य तत्परिच्छेदं कुर्यात्, तदाऽग्न्यादिदर्शने स्पर्शनस्येव दाहाद्युपघातः स्यात्; कोमलतुल्याद्यवलोकने त्वनुग्रहो भवेत्, न चैवम्, तस्मादप्राप्यकारि लोचनमिति भावः। मनस्यप्राप्यकारित्वं परस्याऽसिद्धम्, इति कथं तस्य दृष्टान्तत्वेनोपन्यासः? इति चेत् / सत्यम्, किन्तु वक्ष्यमाणयुक्तिभिस्तत्र तत् सिद्धम्, इति निश्चित्य तस्येह दृष्टान्तत्वेन प्रदर्शनम्, इत्यदोषः। अथ परो हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्नाह- 'जल-सूरेत्यादि'। आदिशब्दः, आलोकशब्दश्च प्रत्येकमभिसंबध्यते। ततश्च जलादीनामालोके लोचनस्याऽनुग्रहो दृश्यते, सूरादीनां त्वालोके उपघात इति। तो 'अनुग्रहादिशून्यत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुरित्यर्थः। व्याख्याः- (अप्राप्तविषयं लोचनम्)- विषय यानी ग्राह्यवस्तु का रूप, जिस (इन्द्रिय) के लिए अप्राप्त, असम्बद्ध या असंश्रुिष्ट रहता है, उस (इन्द्रिय) को 'अप्राप्तविषय' कहा जाता है। लोचन (नेत्र) इन्द्रिय (भी) 'अप्राप्तविषय' है, अर्थात् वह 'अप्राप्यकारी है- यह ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा (स्थापित करने योग्य ‘पक्ष' या स्वमत) है। यह कैसे? (अर्थात् इस प्रतिज्ञा के समर्थन में हेतु क्या है?) उत्तर दिया(यत्) इत्यादि / चूंकि (वह) 'अनुग्रह' आदि से शून्य है। 'आदि' पद से 'उपघात' (का कथन) भी गृहीत है। नेत्र इन्द्रिय अपने ग्राह्य (विषय) वस्तु के कारण होने वाले अनुग्रह व उपघात से शून्य है, इसलिए (नेत्र अप्राप्यकारी है)- यह अभिप्राय है। यहां (अनुग्रह व उपघात से शून्य होना) यही हेतु है। मन की तरह -यह दृष्टान्त (उदाहरण कथन) है। तात्पर्य यह है कि यदि नेत्र इन्द्रिय प्राप्त वस्तु के साथ सम्बद्ध होकर उसका ज्ञान करती होती, तो अग्नि आदि के दर्शन में, स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रिय की तरह ही, उसके दाह (जल जाना) आदि उपघात होता, और कोमल जैसी वस्तु को देखने पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) होता। किन्तु ऐसी स्थिति नहीं होती, इसलिए नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। ___ (शंका-) मन की अप्राप्यकारिता (ही) प्रतिपक्ष के मत में सिद्ध नहीं है, तब उसे (नेत्र की प्राप्यकारिता में) दृष्टान्त रूप से उपस्थापित कैसे किया है? (उत्तर-) (आपका कथन) सही है, किन्तु वक्ष्यमाण (आगे कही जाने वाली) युक्तियों के द्वारा वहां उस. (मन) की वह (अप्राप्यकारिता) सिद्ध हो जाती है- ऐसा निश्चित (मान) कर, उस (मन) को दृष्टान्तस्वरूप से उपस्थापित किया गया है, अतः (हमारे कथन में, प्रतिज्ञा में) कोई दोष नहीं है। . अब पूर्वपक्षी (पूर्वप्रस्तुत 'प्रतिज्ञा' में प्रयुक्त) हेतु की असिद्धता ('असिद्ध' दोष) की उद्भावना करते हुए कह रहा है- (जलसूरालोकादिषु इत्यादि) (जलसूरालोकादिषु -इस समस्त पद में आये हुए) आदि व आलोक -ये दोनों पद प्रत्येक (अर्थात् जल व सूर) के साथ सम्बद्ध हैं। अतः (समस्त पद का अर्थ हुआ-) जल आदि के अवलोकन से (नेत्र का) अनुग्रह होता है, तथा सूर (सूर्य) आदि (तेजोयुक्त पदार्थों) के अवलोकन से नेत्र का उपघात होता है। इस प्रकार 'अनुग्रहादिशून्य' होना - यह हेतु (नेत्र में) असिद्ध (दोष से ग्रस्त) है। ----- विशेषावश्यक भाष्य --------305 32 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- जल-घृत-नीलवसन-वनस्पतीन्दुमण्डलाद्यवलोकनेन नयनस्य परमाश्वासलक्षणोऽनुग्रहः समीक्ष्यते, सूरसितभित्त्यादिदर्शने तु जलविगलनादिरूप उपघात: संदृश्यत इति / अतः किमुच्यते- 'जमणुग्गहाइसुण्णं ति' // इति गाथार्थः // 209 // अत्रोत्तरमाह डजेज पाविउं रविकराइणा फरिसणं व को दोसो?। मणेज अणुग्गहं पिव उवघायाभावओ सोम्मं // 210 // [संस्कृतच्छाया:- दह्येत प्राप्य रविकरादिना स्पर्शनमिव को दोषः? मन्येतानुग्रहमिव उपघाताभावतः सौम्यम्॥] अयमत्र भावार्थ:- अस्मदभिप्रायाऽनभिज्ञोऽप्रस्तुताभिधायी परः, न हि वयमेतद् ब्रूमो यदुत- चक्षुषः कुतोऽपि वस्तुनः सकाशात् कदाचित् सर्वथैवानुग्रहोपाघातौ न भवतः। ततो रविकरादिना दाहाद्यात्मकेनोपघातवस्तुना परिच्छेदानन्तरं (शंकाकार के कथन का) तात्पर्य यह है कि जल, घृत, नीलवस्त्र (आसमानी रंग का वस्त्र), वनस्पति, चन्द्रमण्डल आदि को देखने से आंखों को परम संतोष (शान्ति) रूप अनुग्रह का होना देखा जाता है, किन्तु सूर्य, व श्वेत (चमचमाती, चिकनी) दीवार आदि को देखने पर आंखों में पानी आने आदि रूप में उपघात (प्रतिकूल वेदन) होता होता दिखाई पड़ता है। इसलिए आपने कैसे कहा कि 'चूंकि (नेत्र) अनुग्रहादिशून्य है, इसलिए मन की तरह (ही) नेत्र भी अप्राप्यकारी है?' // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 209 // अब (नेत्र के अनुग्रहादियुक्त होने के आरोप का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं 210 // डज्जेज्ज पाविउं रविकराइणा फरिसणं व को दोसो?| मणेज अणुग्गहं पिव उवघायाभावओ सोम्मं // [ (गाथा-अर्थ :) स्पर्शन (त्वचा) इंद्रिय की तरह (यदि) सूर्य-किरणें आदि नेत्र को प्राप्त (स्पृष्ट) करते हुए (दाहादि उत्पन्न कर उसे) जलाने लगें तो (हमारे मत में) क्या दोष है? जो सौम्य (शीतल आदि पदार्थ) है, उससे (किसी प्रकार का) उपघात न होने से (नेत्र को) अनुग्रह (अनुकूल वेदन) जैसा होना मान लें (तो भी क्या दोष है? अर्थात् नेत्र की अप्राप्यकारिता की मान्यता में कोई दोष नहीं आता)] __व्याख्याः - यहां (समस्त गाथा का) भावार्थ इस प्रकार है- (वस्तुतः) 'पर' (विरोधी पक्ष) ने हमारे कथन के अभिप्राय को (ही) नहीं समझा है और वह अप्रस्तुत (अप्रासंगिक) कथन कर रहा है। हम ऐसा तो नहीं कहते कि नेत्र इन्द्रिय को किसी भी वस्तु से, कभी भी, किसी भी रूप में उपघात नहीं होता। अतः, रवि-किरणों को देखने (जानने) के बाद, जब ज्ञाता (सूर्य-किरणों को) चिरकाल तक देखता (ही) रहे तो सूर्य-किरणें आदि जो पदार्थ दाहक रूप से (नेत्रेन्द्रिय) का उपघात करने वाले ANS 306 ---- -- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चाच्चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुश्चक्षुः प्राप्य समासाद्य स्पर्शनेन्द्रियमिव दह्येत- दाहादिलक्षणस्तस्योपघातः क्रियेतेत्यर्थः। एतावता चाऽप्राप्यकारिचक्षुर्वादिनामस्माकं को दोषः? न कश्चित्, दृष्टस्य बाधितुमशक्यत्वादिति भावः। तथा यत् स्वरूपेणैव सौम्यं शीतलं शीतरश्मि वा जलघृतचन्द्रादिकं वस्तु, तस्मिंश्चिरमवलोकिते उपघाताभावादनुग्रहमिव मन्येत चक्षः,'को दोषः'? इत्यत्राऽपि संबध्यते, न कश्चिदित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥२१०।। आह- यधुक्तन्यायेनोपघातकाऽनुग्राहकवस्तुन्युपघाताऽनुग्रहाभावं चक्षुषो न ब्रूषे, तर्हि यद् ब्रूषे तत् कथय, इत्याशङ्क्याह गंतुं न रूवदेसं पासइ पत्तं सयं व नियमोऽयं / पत्तेण उ मुत्तिमया उवघायाणुग्गहा होज्जा॥ 211 // [संस्कृतच्छाया:- गत्वा न रूपदेशं पश्यति प्राप्तं स्वयं वा नियमोऽयम्। प्राप्तेन तु मूर्तिमतोपघातानुग्रहौ भवतः॥] हैं, वे (जब) ज्ञाता के नेत्रों को प्राप्त (स्पृष्ट) करते हैं, नेत्रेन्द्रिय,(रविकिरणों से झुलस जाने वाली) त्वचा (इन्द्रिय) की तरह ही, जलने लगती है, अर्थात् उन (किरणों) के द्वारा (नेत्रेन्द्रिय का) दाहादि रूप उपघात होने लगता है। किन्तु ऐसा मानने पर नेत्र को अप्राप्यकारी मानने वाले हम लोगों के मत में कौन-सा दोष (सम्भावित) है? अर्थात् कोई भी दोष नहीं, क्योंकि जो होता दिखाई पड़ रहा है, उसका निषेध (बाध) तो नहीं किया जा सकता (अतः रवि-किरणों से किये जा रहे नेत्र के उपघात का हम निषेध कहां कर रहे है?) इसी प्रकार, जो पदार्थ स्वरूपतः सौम्य, शीतल या शीतकिरण या जल, घृत व चन्द्रमा आदि हैं, उन्हें भी चिरकाल तक देखा जाय तो (नेत्र में) कोई उपघात नहीं होता, अतः नेत्र का मानों अनुग्रह होता है- ऐसा मान लेते हैं तो इस कथन के बाद भी (हमारी मान्यता में) कोई दोष नहीं है' यह वाक्य (अध्याहार कर) जोड लेना चाहिए, अर्थात् (पूर्वोक्त रीति से नेत्र का अनुग्रह मान लेने में भी हमारी मान्यता में) कोई (भी) दोष नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 210 // यदि उक्त न्याय (रीति) से 'कोई उपघातक या अनुग्राहक वस्तु नेत्र का उपघात या अनुग्रह नहीं करती'- ऐसा आप नहीं कहते, तो क्या कहते हैं? उसे (स्पष्ट रूप से) कहें- इस प्रकार (नेत्र की अप्राप्यकारिता के) विरोधी पक्ष द्वारा (सम्भावित) आशंका को दृष्टि में रखकर भाष्यकार (समाधान) कह रहे हैं // 211 // गंतुं न रूवदेसं पासइ पत्तं सयं व नियमोऽयं। पत्तेण उ मुत्तिमया उवघायाणुग्गहा होज्जा // [(गाथा-अर्थ :) (हमारा) नियम (नियत सिद्धान्त, पक्ष, प्रतिज्ञा) यह है कि (नेत्र इन्द्रिय अपने ग्राह्य विषय) रूप-देश (रूपवान् पदार्थ के प्रदेश) के पास स्वयं जाकर या उसे स्पृष्ट कर नहीं देखती / परन्तु कोई मूर्तिमान् पदार्थ उस (नेत्र) को स्पृष्ट करे तो (उस नेत्र के) उपघात व अनुग्रह हो (सक)ते हैं।] ------ विशेषावश्यक भाष्य -------- 307 . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयं नियमः- इदमेवाऽस्माभिर्नियम्यत इत्यर्थः। किं तत्?, इत्याह- रूपस्य देशो रूपदेश आदित्यमण्डलादिसमाक्रान्तप्रदेशरूपस्तं गत्वोत्प्लवनतस्तं समाश्लिष्य चक्षुर्न पश्यति न परिच्छिनत्ति, अन्यस्याऽश्रुतत्वाद् रूपम् इति गम्यते। पत्तं सयं वत्ति-स्वयं वाऽन्यत आगत्य चक्षुर्देशं प्राप्त समागतं रूपं चक्षुर्न पश्यति, किन्त्वप्राप्तमेव योग्यदेशस्थं विषयं तत् पश्यति // अत्राह पर:- नन्वनेन नियमेनाऽप्राप्यकारित्वं चक्षुषः प्रतिज्ञातं भवति। न च प्रतिज्ञामात्रेणैव हेतूपन्यासमन्तरेण समीहितवस्तुसिद्धिः। अतो हेतुरिह वक्तव्यः। 'जमणुग्गहाइसुण्णं' ति इत्यनेन पूर्वोक्तगाथावयवेन विषयकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षणोऽयमभिहित एवेति चेत्। अहो! जराविधुरितस्येव सूरेर्विस्मरणशीलता, यतो 'जमणुग्गहाइसुण्णंति' इत्यनेन विषयादनुग्रहोपघातौ चक्षुषो निषेधयति, ‘डज्जेज्ज पाविउं रविकराइणा फरिसणंव' इत्यादिना तु पुनरपि ततस्तौ तस्य समनुजानीते, अतो न विद्मः, कोऽप्येष वचनक्रम इति। व्याख्याः- (अयं नियमः) हमारी ओर से उपस्थापित 'नियम' (नियत सिद्धान्त) यही है। (प्रश्न-) वह (नियम) क्या है? (उत्तर-) कह रहे हैं- ('रुपदेशं गत्वा' इत्यादि)। रूपं (संस्थान, आकारादि) का जो देश, (प्रदेश है) (जैसे) आदित्य-मण्डल से घिरा हुआ प्रदेशात्मक जो रूप है, (उसे जब नेत्र इन्द्रिय देखती है, तो वह) उसके पास जाकर, या उड़कर, उसे आलिंगित (स्पृष्ट) कर नहीं देखती, नहीं जानती। (आदित्य-मण्डलीय प्रदेश को) 'रूप' इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि वहां रूप के सिवा कुछ और है- ऐसा सुना नहीं गया। (प्राप्तं स्वयं वा) नेत्र स्वयं अन्य (पदार्थ से पृथक् भूत अपने) स्थान से आकर, किसी देशविशेष को प्राप्त कर 'रूप' को नहीं देखती, अपितु अपने योग्य (ग्राह्य विषय) देश में स्थित (रूप) विषय को वह (दूरस्थित होकर) देखती है। __ यहां (चक्षु को अप्राप्यकारी न मानने वाले) अन्य (विरोधी) पक्ष की ओर से आगे कहा जा रहा है (शंका-): आपके उक्त नियम (स्वसिद्धान्त) से तो नेत्र इन्द्रिय की अप्राप्यकारिता उद्घोषित होती है, किन्तु (उपयुक्त) हेतु की उपस्थापना के बिना, मात्र प्रतिज्ञा-कथन से तो अभीष्ट (कथ्य, पक्ष) की सिद्धि नहीं होती। इसलिए यहां (आपको कोई उपयुक्त) 'हेतु' बताना चाहिए। यदि (नेत्र अप्राप्यकारी मानने वाले) आप कहें कि पूर्वोक्त (सं. 209) गाथा के अंशभूत 'यदनुग्रहादिशून्यम्' इस कथन से 'विषयकृत अनुग्रह व उपघात से (नेत्रेन्द्रिय का) रहित होना' (यह हेतु) कहा ही गया है, तो (निश्चय ही यह) आप 'सरि' (आचार्य) को मानों बढापे ने मार दिया है और भूलने की आदत आपकी हो गई है। क्योंकि 'यदनुग्रहादिशून्य' इस (हेतु के) कथन से (तो आप एक तरफ) नेत्र इन्द्रिय में विषय-कृत अनुग्रह व उपघात होने का निषेध कर रहे हैं, किन्तु (तुरन्त दूसरी तरफ) 'दह्यत प्राप्तुं रविकरादिना स्पर्शनमिव' (गाथा-210) इत्यादि कथन से फिर उस (अनुग्रह व उपघात) का ही समर्थन कर रहे हैं, अतः हम नहीं समझ पा रहे हैं (कि आपका वास्तविक पक्ष क्या है)। आपका (परस्पर-विरुद्ध) कथन करने का क्रम (तरीका) तो निराला ही है!! MAL 308 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतदेवम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, यतः प्रथमत एव विषयपरिच्छेदमात्रकालेऽनुग्रहोपघातशून्यता हेतुत्वेनोक्ता, पश्चात्तु चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुः प्राप्तेन रविकरादिना, चन्द्रमरीचि-नीलादिना वा मूर्तिमता निसर्गत एव केनाऽप्युपघातकेन, अनुग्राहकेण च विषयेणोपघाताऽनुग्रहौ भवेतामपीति। एतदेवाह- पत्तेण उ मुत्तिमयेत्यादि। अनेनाऽभिप्रायेण तौ पुनरपि समनुज्ञायेते, न पुनर्विस्मरणशीलतया। यदि पुनर्विषयपरिच्छित्तिमात्रमपि तमप्राप्य चक्षुर्न करोतीति नियम्यते, तदा वह्नि-विष-जलधि-कण्टक करवाल-करपत्र-सौवीराञ्जनादिपरिच्छित्तावपि तस्य दाह-स्फोट-क्लेद-पाटन-नीरोगतादिलक्षणोपघाताऽनुग्रहप्रसङ्गः। न हि - समानायामपि प्राप्तौ रविकरादिना तस्य भवन्ति दाहादयः, न वयादिभिः। तस्माद् व्यवस्थितमिदम्-विषयमप्राप्यैव चक्षुः परिच्छिनत्ति, अञ्जन-दहनादिकृता- नुग्रहोपघातशून्यत्वात्, मनोवत्। परिच्छेदानन्तरं तु पश्चात्प्राप्तेन केनाऽप्युपघातकेन, अनुग्राहकेण वा मूर्तिमता द्रव्येण तस्योपघाताऽनुग्रहौ न निषिध्येते, विष-शर्करादिभक्षणे मूर्छा-स्वास्थ्यादय इव मनस इति // (चक्षु की अप्राप्यकारिता के समर्थन में उत्तर-) ऐसी (विस्मरणशीलता व परस्पर विरुद्ध कथन वाली) कोई बात नहीं है। (वस्तुतः) आपने हमारे (दोनों कथनों के) अभिप्राय को ही नहीं जाना है, क्योंकि हमने पहले तो (यदनुग्रहादिशून्यत्व) हेतु के आधार पर यह बताया है कि विषय (रूपादिमान् व नेत्रग्राह्य) के (रूप दर्शन) के समय ही (नेत्र) अनुग्रह व उपघात से रहित होता है, किन्तु बाद में चिरकाल तक देखते रहने पर, द्रष्टा (ज्ञाता) को सूर्यकिरणें प्राप्त (स्पृष्ट) करती हैं तब, उन (सूर्यकिरणों) से, तथा मूर्तिमान् (भौतिक) चन्द्रकिरण व नील वस्त्र आदि पदार्थों को देखते रहने पर उनसे, इसी प्रकार किसी न किसी उपघातक या अनुग्राहक 'विषय' द्वारा स्वभावतः (नेत्र के) उपघात व अनुग्रह भी हो (सक)ते हैं। इसी बात को (भाष्यकार) कह रहे हैं- (प्राप्तेन तु मूर्तिमता)। इसी (उक्त) अभिप्राय से (नेत्र इन्द्रिय के) उन (उपघात व अनुग्रह) का समर्थन किया गया है, अपने पूर्वकथन को भूल जाने का स्वभाव इसमें कारण नहीं है। यदि हम ऐसा (उत्तरवर्ती) कथन न करें कि नेत्र इन्द्रिय उस विषय को बिना स्पृष्ट किये विषयज्ञान (रूपदर्शन) नहीं करती- ऐसा नियम (स्वपक्ष कथन) करें, तो अग्नि, विष, समुद्र, कण्टक, तलवार, आरा, सुरमा आदि के ज्ञान (दर्शन) में उस (नेत्र इन्द्रिय) का जल जाना, फट जाना, गीला हो जाना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना व नीरोगता आदि उपघात या अनुग्रह का सद्भाव मानना पड़ेगा (किन्तु वहां वस्तुतः उपघात या अनुग्रह होता नहीं)। एक जैसी स्थिति में (की गई) (रूप-) दर्शन की प्रक्रिया हो, तो सूर्यकिरणों से तो नेत्र का दाह आदि उपघात हो और अग्नि आदि से नहीं हो- ऐसा नहीं होता। इसलिए, सिद्धान्त यही तय हुआ कि नेत्र इन्द्रिय (अपने) विषय को बिना स्पृष्ट किये ही देखती-जानती है, वह अंजन व अग्नि आदि के कारण होने वाले अनुग्रह या उपघात (दोनों) से रहित (ही) होती है, जैसे कि मन (उपघात आदि से रहित होता है)। (हां, रूप) दर्शन के बाद (ऐसा हो सकता है कि) किसी भी उपघातक या अनुग्राहक मूर्तिमान् द्रव्य द्वारा उस (नेत्र) का उपघात या अनुग्रह हो जाए- इसका निषेध हम नहीं करते। (क्योंकि) जैसे विष, शर्करा (चीनी) के भक्षण से (अप्राप्यकारी) मन की भी क्रमशः मूर्छा या स्वस्थता होती देखी जाती है, उसी तरह (नेत्र इन्द्रिय का उपघात या अनुग्रह होना असम्भव नहीं)। -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 309 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राऽपरः प्राह- नयनाद् नायना रश्मयो निर्गत्य प्राप्य च रविबिम्बरश्मय इव वस्तु प्रकाशयन्तीति नयनस्य प्राप्यकारिता प्रोच्यते। सूक्ष्मत्वेन, तैजसत्वेन च तेषां वयादिभिर्दाहादयो न भवन्ति, रविरश्मिषु तथादर्शनात्।। तदेतदयुक्ततरम्, तेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणाग्राह्यत्वेन श्रद्धातुमशक्यत्वात्, तथाविधानामप्यस्तित्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गात्। वस्तुपरिच्छेदाऽन्यथानुपपत्तेस्ते सन्तीति विकल्प्यन्त इति चेत्। न, तानन्तरेणाऽपि तत्परिच्छेदोपपत्तेः, न हि मनसो रश्मयः सन्ति, न च तदप्राप्तं वस्तु न परिच्छिनत्ति, वक्ष्यमाणयुक्तितस्तस्य तत्सिद्धेः। न च रविरश्म्युदाहरणमात्रेणाऽचेतनानां नयनरश्मीनां वस्तुपरिच्छेदो युज्यते, नख-दन्त-भालतलादिगतशरीररश्मीनामपि स्पर्शविषयवस्तुपरिच्छेदप्रसङ्गात् / इत्यलं विस्तरेण // इति गाथार्थः // 211 // तदेवमञ्जन-ज्वलनादिविषयविहितानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षणहेतोरप्राप्यकारितां चक्षुषः प्रसाध्य हेत्वन्तरेणापि तस्य तां प्रसाधयितुमाह यहां दूसरे (विरोधी, प्रतिपक्षी) ने (पुनः आक्षेप प्रस्तुत करते हुए) कहा- (आप ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि) नेत्र से नयन-रश्मियां बाहर निकलती हैं और वे रविकिरणों की तरह (ही) वस्तु को प्रकाशित करती हैं, इस प्रकार नेत्र की प्राप्यकारिता (निर्दोष) है। यदि कहो कि देखने की क्रिया में अग्नि आदि से आंख जल नहीं जाती -इसमें आखिर क्या कारण है, तो हमारा इस सम्बन्ध में कहना यह है कि जैसा कि सूर्य-किरणों में हम देखते हैं कि (वे अग्नि आदि से नहीं जलतीं, उसी तरह इन नेत्रीय किरणों के) सूक्ष्म व तैजस होने से उनका अग्नि आदि से दाह आदि (उपघात) नहीं होता। (इस तर्क के प्रत्युत्तर में नेत्र की अप्राप्यकारिता के समर्थक भाष्यकार का कथन-) (पूर्वपक्षी का) उपर्युक्त कथन तो और भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से वह ग्राह्य (प्रमाणित) नहीं होता, इसलिए उस पर श्रद्धान (या विश्वास) नहीं किया जा सकता (अर्थात् उसे मान्य नहीं किया जा सकता)। और, यदि वैसे (अर्थात् अप्रामाणिक व अविश्वसनीय) पदार्थों के अस्तित्व की कल्पना करने लगेगें तो अनेकानेक दोष प्रसक्त होंगे। (शंका-) वस्तु के ज्ञान (रूपदर्शनादि) की संगति उन पदार्थों के अस्तित्व को मानने से ही होती है। अतः नयन-रश्मि आदि पदार्थ हैं- यह कल्पना करनी पड़ती है। (उत्तर-) यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उन (नयन-रश्मि जैसे कल्पित पदार्थों) के बिना भी विषय-ज्ञान (रूपदर्शनादि) की संगति हो जाती है। उदाहरणार्थमन की तो कोई रश्मियां हैं नहीं, (फिर भी) वह अस्पृष्ट वस्तु को नहीं जानता हो- ऐसा तो नहीं, और आगे कही जाने वाली युक्ति से अप्राप्यकारिता सिद्ध भी की जाएगी। सूर्यकिरणों के उदाहरण मात्र से अचेतन नेत्रीय रश्मियों द्वारा वस्तु-ज्ञान मानना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि (रश्मियां वस्तु-ज्ञान कराने में सक्षम है) ऐसा मानने पर तो नख, दन्त, भाल आदि शारीरिक प्रदेशों की रश्मियों द्वारा भी समस्त वस्तुओं का ज्ञान होने लगेगा (किन्तु होता नहीं)। अब, और अधिक विस्तार (से कहने) की आवश्यकता नहीं रह गई है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 211 // / इस प्रकार, 'अंजन व अग्नि आदि (ज्ञेय) विषयों द्वारा नेत्र का (नेत्र में) उपघात या अनुग्रह नहीं होना' -इस हेतु से नेत्र की अप्राप्यकारिता की सिद्धि करने के अनन्तर, अब भाष्यकार अन्य हेतु से भी उसकी सिद्धि कर रहे हैं ----- Ma 310 -- -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ पत्तं गेण्हेज उ, तग्गयमंजण-रओ-मलाईयं। पेच्छेज्ज, जंन पासइ अपत्तकारितओ चक्॥२१२॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि प्राप्तं गृह्णीयात्, तद्गतमञ्जनरजोमलादिकम्। पश्येत्, यद् न पश्यति अप्राप्तकारि ततश्चक्षुः॥] यदि तु प्राप्तं विषयं चक्षुर्गृह्णीयादित्युच्यते, तदा तद्गतमात्मसंबद्धमञ्जन-रजो-मल-शलाकादिकं पश्येदवगच्छेत्, तस्य निर्विवादमेव तत्प्राप्तत्वेनोपलब्धेः, यस्माच्च तद् न पश्यति, ततोऽप्राप्तकारि चक्षुरिति स्थितम्। यद्यप्राप्यकारि चक्षुः, तहप्राप्तत्वाविशेषात् सर्वस्याऽप्यर्थस्याऽविशेषेण ग्राहकं स्यात्, न प्रतिनियतस्येति चेत् / न, ज्ञानदर्शनावरणादेस्तत्प्रतिबन्धकस्य सद्भावात, मनसा व्यभिचाराच्च / तथाहि- अप्राप्यकारित्वे सत्यपि नाऽविशेषेण सर्वार्थेष मनः प्रवर्तते, इन्द्रियाद्यप्रकाशितेषु सर्वथाऽदृष्टाऽश्रुतार्थेषु तत्प्रवृत्त्यदर्शनात् / इत्यलं प्रसङ्गेन // इति गाथार्थः // 212 // // 212 // जइ पत्तं गेण्हेज्ज उ, तग्गयमंजण-रओ-मलाईयं / पेच्छेज्ज, जं न पासइ अपत्तकारि तओ चक्खं // [(गाथा-अर्थ :) यदि (नेत्र किसी वस्तु को) प्राप्त (स्पृष्ट) करके ही ग्रहण करती होती (एवं देखती-जानती) तो वह (नेत्र में लगे हुए अञ्जन को या रज-कण या मैल आदि को भी जान जाती)। किन्तु वह (अअनादि को) नहीं देख पाती, इसलिए (भी) नेत्र अप्राप्यकारी है (प्राप्यकारी नहीं है)।] व्याख्याः- 'नेत्र किसी विष्य को प्राप्त (स्पृष्ट) करके (ही) जानती है'- यदि ऐसा कहा (या माना) जाता है तो उसी नेत्र में लगे हुए, नेत्र के साथ ही स्पृष्ट जो अञ्जन, रज, मल, (अअन लगाने की) शलाका आदि हैं, उन्हें नेत्र देखती-जानती होती, और अअन आदि नेत्र से स्पृष्ट होते हुए नेत्र में उपलब्ध होते हैं- इसमें कोई विवाद नहीं (हो सकता), चूंकि (अअनादि को) वह (नेत्र) नहीं देखती है, इसलिए नेत्र अप्राप्यकारी (ही) है- यह निश्चित हो जाता है। . (शंका-) नेत्र यदि अप्राप्यकारी है तो फिर (यदि वह सभी अप्राप्त विषयों को जानने में सक्षम है तो) उसे समस्त पदार्थों को -जो उसके लिए सम्भवतया अप्राप्त-अस्पृष्ट हैं- समान रूप से ग्रहण कर लेना चाहिए, न कि प्रतिनियत वस्तु को ही ग्रहण करना (अर्थात् देखना) चाहिए? (उत्तर-) ऐसा (कहना ठीक) नहीं। (समस्त वस्तुओं को वह इसलिए नहीं देख पाती) क्योंकि वहां ज्ञान-दर्शनावरण आदि (कर्म) उसके प्रतिबन्धक विद्यमान रहते हैं। दूसरी बात, (अप्राप्यकारी) मन में (भी तो समस्त पदार्थों के ज्ञान) का व्यभिचार (अभाव देखा जाता) है। इसके अतिरिक्त, यद्यपि मन अप्राप्यकारी है, फिर भी वह सभी पदार्थों में समानतया (तो) प्रवृत्त नहीं होता, अपितु जिन पदार्थों को इन्द्रियादि प्रकाशित नहीं करती है, और जो पदार्थ सर्वथा अदृष्ट या अश्रुत हैं, उनमें उस (मन) की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती (उसी प्रकार, ज्ञानावरणादि के सद्भाव के कारण तथा किन्हीं अभीष्ट पदार्थों को ही नेत्र देखती है, समस्त पदार्थों को नहीं)। अतः अधिक कहना अपेक्षित नहीं // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 212 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------311 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' तदेवं व्यवस्थापित चक्षुषोऽप्राप्यकारिता।अथ दृष्टान्तीकृतस्य मनसस्तदसिद्धतां परो मन्येत, इत्यतस्तस्यापि तां सिसाधयिषुः पूर्वपक्षमुत्थापयन्नाह गंतुं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा। सिद्धमिदं लोयम्मि वि अमुगत्थगओ मणो मे त्ति॥२१३॥ [संस्कृतच्छाया:- गत्वा ज्ञेयेन मनः सम्बद्ध्यते जाग्रतो वा स्वप्ने वा। सिद्धमिदं लोकेऽपि अमुकार्थगतं मनो मे इति // ] 'गंतुं' देहाद् निर्गत्य ज्ञेयेन मेरुशिखरस्थजिनप्रतिमादिना संबध्यते संश्रुिष्यते मनः। कस्यामवस्थायाम्?, इत्याह- जाग्रतः, स्वप्ने वा। अनुभवसिद्धं चैतत्, न च ममैव, किन्तु सिद्धमिदं लोकेऽपि, यतस्तत्राऽप्येवं वक्तारो भवन्ति- अमुत्र मे मनो गतमिति / अतः प्राप्यकारि मनः॥ इति प्रेरकगाथार्थः॥२१३ // अत्रोत्तरमाह (मन की अप्राप्यकारिता) . इस प्रकार, नेत्र की अप्राप्यकारिता (की मान्यता) सुस्थिर कर दी गई। अब दृष्टान्त रूप में उपस्थापित मन की अप्राप्यकारिता को ही कहीं 'पर' (विरोधी पक्ष) नकार सकता है, इस (सम्भावित संकट के निवारण के) लिए उस (मन) की भी अप्राप्यकारिता को सिद्ध (निर्णीत) करने की भावना से (भाष्यकार) (पहले) पूर्वपक्ष को उपस्थापित करते हुए कह रहे हैं // 213 // गंतुं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा। सिद्धमिदं लोयम्मि वि अमुगत्थगओ मणो मे त्ति॥ [(गाथा-अर्थ :) जागृत अवस्था हो या स्वप्नावस्था हो, मन (अपने) ज्ञेय से जाकर जुड़ता है। यह बात (तो) लोक (के बोलचाल) में भी प्रसिद्ध है कि मेरा मन तो अमुक पदार्थ में गया हुआ है (अतः मन भी प्राप्यकारी है- यह पूर्वपक्ष का संभावित कथन हो सकता है)।] व्याख्याः - (गत्वा) देह से निकल कर मन (अपने) ज्ञेय (पदार्थों, जैसे) मेरुशिखर-स्थित जिन-प्रतिमा आदि के साथ सम्बद्ध होता है। (प्रश्न-) किस स्थिति में? (उत्तर-) कहा- जागते हुए या सोते हुए। यह (मन का जाना) अनुभवसिद्ध है, न केवल हमें ही, अपितु, लोक में भी यह सिद्ध है, क्योंकि इस विषय में लोग कहते (हुए) भी (दृष्टिगोचर होते) हैं कि यहां (अमुक विषय में) मेरा मन चला गया था (या गया हुआ है)। अतः मन प्राप्यकारी (ही) है। पूर्वपक्ष को उपस्थापित करने वाली इस गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 213 // अब (पूर्वपक्ष का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं Vo, 312 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणुग्गहोवघायाभावाओ लोयणं व, सो इहरा। तोय-जलणाइचिन्तणकाले जुजेज दोहिं पि॥२१४॥ [संस्कृतच्छाया:- न, अनुग्रहोपघाताभावाद् लोचनमिव, तदितरथा। तोयज्वलनादिचिन्तनमात्रे युज्येत द्वाभ्यामपि॥] न 'ज्ञेयेन सह संपृच्यते मनः' इति गम्यते / कुतः?, इत्याह- 'अणुग्गहोवघायाभावाउत्ति'। ज्ञेयकृतानुग्रहोपघाताभावात्, लोचनवत् / यदि तस्य ज्ञेयेन सह संपर्कः स्यात् तदा किं स्यात्?, इत्याह- 'सो इहर त्ति'। तद् मन इतरथा- ज्ञेयसम्पर्केऽभ्युपगम्यमाने, तोयज्वलनादिविषयचिन्तनकाले द्वाभ्यामप्यनुग्रहोपघाताभ्यां युज्येत- तोय-चन्दनादिचिन्तनकाले शैत्याद्यनुभवनेन स्पर्शनवदनुगृह्येत, दहन-विष-शस्त्रादिचिन्तनसमये तु तद्वदेवोपहन्येतेति भावः, न चैवम्। तस्माल्लोचनवदप्राप्यकार्येव मनः॥ इति गाथार्थः // 214 // किञ्च, मनसः प्राप्यकारितावादिनः प्रष्टव्याः। किम्?, इत्याह दव्वं भावमणो वा वएज जीवो य होइ भावमणो। देहव्वावित्तणओ न देहबाहिं तओ जुत्तो॥२१५॥ // 214 // नाणुग्गहोवघायाभावाओ लोयणं व, सो इहरा। तोय-जलणाइचिन्तणकाले जुज्जेज्ज दोहिं पि // [(गाथा-अर्थ :) वह (मन) नेत्र की तरह (ही अप्राप्यकारी है, क्योंकि उसमें विषय-कृत) अनुग्रह-उपघात नहीं होते, अन्यथा (मन को प्राप्यकारी मानें तो) जल, अग्नि आदि से सम्बन्धित चिन्तन करते हुए मन में दोनों (अनुग्रह व उपघात) होने चाहिएं (किन्तु होते नहीं, अतः मन प्राप्यकारी नहीं हो सकता)।] . व्याख्याः- 'ज्ञेय पदार्थ के साथ मन (जाकर) सम्बद्ध होता है'- ऐसा प्रतीत नहीं होता। (प्रश्न-) किस कारण (अर्थात्, किस तर्क या युक्ति के आधार) से? उत्तर दिया- (तद् इतरथा)। यदि ऐसा माने कि मन ज्ञेय के सम्पर्क में आता है, तो जल, अग्नि विषयों को चिन्तन करते समय वह दोनों- अनुग्रह व उपघात से युक्त होता (वह युक्त नहीं होता, अतः मन प्राप्यकारी नहीं है)। तात्पर्य यह है कि जल, चन्द्र आदि का चिन्तन करते समय शैत्य (ठंडक) का अनुभव कर 'अनुगृहीत' होता, और अग्नि, विष व शस्त्र आदि का चिन्तन करते समय उसी तरह उपघात से 'उपहत' होता। किन्तु ऐसा होता नहीं। इसलिए नेत्र की तरह ही मन (भी) अप्राप्यकारी ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 214 // . और, मन की प्राप्यकारिता को जो मानते हैं, उनसे हमारा प्रश्न है। वह क्या है? इसे (भाष्यकार) बता रहे हैं // 215 // दव्वं भावमणो वा वएज्ज जीवो य होइ भावमणो। देहव्वावित्तणओ न देहबाहिं तओ जुत्तो // ----- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 313 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यं भावमनो वा व्रजेद् जीवश्च भवति भावमनः। देहव्यापित्वाद् न देहबहिस्ततो युक्तः॥] . इह मनस्तावद् द्विधा- द्रव्यमनः, भावमनश्चेति। अतः सूरिः परं पृच्छति-'दव्वं ति'। द्रव्यमनः, भावमनो वा व्रजेद् गच्छेत् 'मेर्वादिविषयसन्निधौ' इति गम्यते। किमनेन पृष्टेन? इति चेत् / उभयथाऽपि दोषः, तथाहि- भावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपत्वात्, तस्य च जीवादव्यतिरिक्तत्वाज्जीव एव भावमनो भवति। जीवश्चेति चकार: तओ इत्यस्यानन्तरं सम्बन्धनीयः। ततोऽयमर्थ:- सकश्च स च भावमनोरूपो जीवो देहमात्रव्यापित्वाद् न देहाद् बहिनि:सरन् युक्तः। इह ये देहमात्रवृत्तयः, न तेषां बहिर्नि:सरणमुपपद्यते, यथा तद्गतरूपादीनाम्, देहमात्रवृत्तिश्च जीवः॥ इति गाथार्थः॥२१५ // देहमात्रव्यापित्वस्याऽसिद्धिं मन्यमानस्य परस्य मतमाशङ्कमानः सूरिराह सव्वगउ त्ति य बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ तण्ण। सव्वासव्वग्गहणप्पसंगदोसाइओ वा वि॥२१६॥ [संस्कृतच्छाया:-सर्वगत इति च बुद्धिः, कञभावादिदोषतस्तन्न। सर्वासर्वग्रहणप्रसङ्गादितो वाऽपि॥] [(गाथा-अर्थ :) द्रव्यमन या भानमन ही (ज्ञेय पदार्थ से सम्पृक्त होने हेतु) जाएगा। इनमें भावमन तो जीव (ही) है। वह देह में व्याप्त होकर रहता है, इसलिए उस (भावमन) का देह से बाहर होना युक्तियुक्त नहीं होता। ] व्याख्याः- मन दो (ही) प्रकार का होता है- द्रव्यमन और भावमन / इसलिए भाष्यकार पूछ रहे हैं- (द्रव्यं भावमनः)। यह पूछने का क्या प्रयोजन है? (ऐसा पूछने पर हमारा कहना है-) (मन के) दोनों प्रकारों में (मन की प्राप्यकारिता में) दोष सम्भावित है। उदाहरणार्थ- भावमन तो चिन्ता ज्ञान-परिणति रूप होता है। वह जीव से अभिन्न होता है, इसलिए भावमन जीव ही सिद्ध होता है। यहां 'जीवाश्च' में आए हुए 'च' पद का 'ततः' पद के बाद अन्वय करना चाहिए, फलस्वरूप यह अर्थ होगा- भावमन रूप जीव समस्त देह में व्याप्त होकर रहता है, उसका देह से बाहर निकलना युक्तियुक्त नहीं ठहरता। जिनका देहमात्र में सद्भाव रहता है, जैसे कि (देहव्यापी) जीव के रूप आदि, उनका (देह के) बाहर जीव (भावमन) भी देहमात्रवृत्ति है (इसलिए उसका भी बाहर निकलना संगत नहीं) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 215 // पूर्वपक्षी भावमन को कहीं देहव्यापी ही स्वीकार न कर ले -इस आशंका से भाष्यकार कह रहे हैं // 216 // सव्वगउ त्ति य बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ तण्ण। सव्वासव्वग्गहणप्पसंगदोसाइओ वा वि // [ (गाथा-अर्थ :) (आत्मा या भावमन) सर्वगत (सर्वव्यापी) है- यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि (वैसा मानने पर, आत्मा के) कर्तृत्व (व भोक्तृत्व आदि) के अभाव होने का दोष सम्भावित Ma 314 ---- ---- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्याद् बुद्धिः परस्य-सर्वगत आत्मा, न तु देहमात्रव्यापी, अमूर्तत्वात्, आकाशवदिति / अत्र गुरुराह- तदेतन्न / कुतः?, इत्याह- भावप्रधानत्वानिर्देशस्य कर्तृत्वाभावादिदोषत इति- सर्वगतत्वे सत्यात्मनः कर्तृत्वादयो गोपाङ्गनादिप्रतीता अपि धर्मा न घटेरन्निति भावः। तथाहि- न कर्ताऽऽत्मा, सर्वगतत्वात्, आकाशवत्। आदिशब्दादभोक्ता, असंसारी, अज्ञः, न सुखी, न दुःखी आत्मा, तत एव हेतोः, तद्वदेव, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्॥ आह पर:- नन्वात्मनो निष्क्रियत्वात् कर्तृत्वाद्यभावः सांख्यानां न बाधायै कल्पते। तथा च तैरुक्तम्- 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ताऽऽत्मा' इत्यादि। एतदप्ययुक्तम्, तस्य निष्क्रियत्वे प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलब्धभोक्तृत्वादिक्रियाविरोधप्रसङ्गात्। प्रकृतेरेव भोगादिकरणक्रिया, न पुरुषस्य, आदर्शप्रतिबिम्बोदयन्यायेनैव तत्र क्रियाणामिष्टत्वादिति चेत् / एतदप्यसङ्गतम्, प्रकृतेरचेतनत्वात्, 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' इति वचनात्; अचेतनस्य च भोगादिक्रियाऽयोगात्, अन्यथा घटादीनामपि तत्प्रसङ्गादिति। न केवलं कर्तृत्वाद्यभावतः सर्वगतत्वमात्मनो न युक्तम्, किन्तु सर्वाऽसर्वग्रहणप्रसङ्गतोऽपि च तदसङ्गतम्। होगा। इसी तरह या तो सर्वपदार्थों का ग्रहण होना (सर्वज्ञता होना) यह फिर सभी का अग्रहण होना (अर्थात् किसी का भी ग्रहण न होना) इत्यादि (अनेक) दोष भी सम्भावित हैं।] व्याख्याः- ऐसा भी हो सकता है कि पूर्वपक्षी की यह मान्यता हो कि 'आत्मा देहमात्रव्यापक नहीं, अपितु सर्वव्यापी है, क्योंकि वह अमूर्त है, आकाश की तरह'। इस सम्बन्ध में गुरुवर (भाष्यकार) ने कहा- (तद् न)। ऐसी मान्यता (समीचीन) नहीं। (प्रश्न-) क्यों (समीचीन नहीं)? उत्तर दिया- (कर्तृत्वाभावादिदोषतः)। निर्देश भावप्रधान होता है (अतः आत्मा सर्वव्यापी है- इसका तात्पर्य है कि आत्मा में 'सर्वव्यापकता' है। वह इसलिए युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि कर्तृत्व-अभावादि दोष प्रसक्त होते है)। तात्पर्य यह है कि आत्मा में सर्वव्यापकता मानने पर ग्वाल बाल, वनिता आदि को भी जो कर्तृत्व (भोक्तृत्व आदि) भाव प्रतीत (अनुभवसिद्ध) हैं, वे (सर्वव्यापकता के मानने पर) युक्तिसंगत नहीं होंगे। जैसे- आत्मा कर्ता नहीं है, सर्वव्यापी होने से, आकाश की तरह। 'आदि' शब्द से (यह भी संकेतित है कि) आत्मा अभोक्ता, असंसारी, अज्ञ, न सुखी और न दुःखी है, उसी हेतु * (सर्वव्यापकता) के आधार पर, उसी (आकाश) की तरह- इत्यादि कथन भी समझ लेना चाहिए। . अब पूर्वपक्षी (शंका के रूप में) कह रहा है- सांख्य दर्शन के अनुयायी तो आत्मा (पुरुष) को निष्क्रिय मानते हैं, अतः (उनके मत में तो) कर्तृत्व (व भोक्तृत्व) आदि का अभाव होना कोई बाधा (दोष-आपत्ति) नहीं खड़ा करता। उन्होंने कहा भी है- 'आत्मा अकर्ता व निर्गुण है' इत्यादि। (पूर्वपक्ष का भाष्यकार द्वारा खण्डन-) पूर्वोक्त कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से भोक्तृत्व आदि क्रिया का सद्भाव (ही) सिद्ध होता है, अतः उस (आत्मा) को निष्क्रिय मानने पर उस (प्रत्यक्षादि अनुभव) से विरोध की स्थिति आ खड़ी होगी। (सांख्यमतानुयायी पूर्वपक्ष का पुनः कथन) भोक्तृत्व आदि क्रिया प्रकृति (तत्त्व) में है, न कि पुरुष में। जिस तरह दर्पण में (किसी के) प्रतिबिम्ब का उदय होता है, उसी रीति से पुरुष में 'क्रिया' का होना (सांख्यों को) अभीष्ट है (अतः पुरुष में निष्क्रियता व अभोक्तृता होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से भोक्तृत्व आदि क्रिया के सद्भाव की संगति a ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------315 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- आत्मनः समात्रिभुवनगतत्वे, प्राप्यकारित्वेनाऽभ्युपगतस्य तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसोऽपि सर्वगतत्वात् / सर्वार्थप्राप्ते: सर्वग्रहणप्रसङ्गः। तथा च सर्वस्य सर्वज्ञत्वप्रसक्तिः। अथोक्तन्यायेन प्राप्तानपि सर्वार्थानभिहितदोषभयाद् न गृह्णाति इत्युच्यते, तर्हि सर्वाग्रहणप्रसङ्गः- ग्राह्यत्वेनेष्टानप्यर्थान् मा ग्रहीन भावमनः, प्राप्तत्वाविशेषात्, अग्राह्यत्वेनेष्टार्थवदिति भावः। / अथ प्राप्तत्वाविशिष्टत्वेऽपि कांश्चिदर्थानेतद् गृह्णाति, कांश्चिद् नेत्युच्यते। तर्हि व्यक्तमीश्वरचेष्टितम् न चैतद् युक्तिविचारे क्वचिदप्युपयुज्यत इति। आदिशब्दात् सर्वगतत्व आत्मनोऽन्यदपि दूषणमभ्यूह्यम्, तथाहि- यथाऽङ्गुष्ठादौ दहनदाहादिवेदनायां मस्तकादिष्वप्यसावनुभूयते, तथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः, न च भवति, तथाऽनुभवाभावात्, अननूभूयमानाया अपि भावाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। हो जाएगी)। (पूर्वपक्ष-निराकरण-) यह कथन भी असंगत है, क्योंकि प्रकृति को (तो) अचेतन माना गया है, वह इसलिए क्योंकि चैतन्य तो पुरुष का स्वरूप है -ऐसा (सांख्यों का) कथन है, और अचेतन (प्रकृति) में भोग आदि क्रियाएं नहीं हो सकतीं, अन्यथा घट आदि (अचेतन पदार्थों) में भी क्रिया का सद्भाव मानना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि यदि आत्मा को समग्र त्रिभुवन में व्यापक माना जाय तो आत्मा से अभिन्न (होने के कारण) भावमन को (भी)- जिसे प्राप्यकारी माना जा रहा है- सर्वव्यापी मानना पड़ेगा, परिणामस्वरूप, सभी पदार्थों से संस्पृष्ट होने के कारण, (भावमन से) सभी पदार्थों के ग्रहण (ज्ञान) होने का दोष प्रसक्त (संभावित) होगा, जिससे सब प्राणियों का सर्वज्ञ होना प्रसक्त (संभावित) होगा (अर्थात् सभी को सभी पदार्थ ज्ञात होंगे और सभी प्राणी सर्वज्ञ हो जाएंगे, किन्तु ऐसा तो प्रत्यक्षविरुद्ध है)। (पूर्वपक्षी की ओर से संभावित समाधान-) (सर्वज्ञता-सम्बन्धी) दोष के भय से (उस दोष से बचने हेतु) यदि आप ऐसा कहें कि यद्यपि उक्त रीति से समस्त पदार्थ स्पृष्ट हैं, फिर भी भावमन सभी पदार्थों का ग्रहण (ज्ञान) नहीं करता। (भाष्यकार द्वारा उक्त समाधान में दोषारोपण-) तक तो (ऐसा भी हो सकता है कि) भावमन समस्त पदार्थों (में से किसी) का (भी) ग्रहण न करे। तात्पर्य यह है कि अनुग्राह्य रूप से अभीष्ट पदार्थों की तरह ही ग्राह्य रूप से अभीष्ट पदार्थों को भी भावमन ग्रहण नहीं करेगा, क्योंकि दोनों में 'स्पृष्ट होना' समान रूप से उपलब्ध है। (पूर्वपक्षी की ओर से पुनः संभावित समाधान के रूप में कथन-) आप ऐसा कहें कि यद्यपि सभी पदार्थों में स्पृष्टता समान है, फिर भी भावमन कुछ पदार्थों को ग्रहण करता है, कुछ पदार्थों को नहीं। (भाष्यकार का पूर्वपक्षी के उक्त समाधान पर दोषारोपण-) तब तो भावमन में 'ईश्वरीय चेष्टा' (यथेच्छ, अनियंत्रित कर्तृत्व) का होना स्पष्ट रूप से मान लिया जा रहा) है और वह युक्तिसंगत विचार की प्रक्रिया में कहीं भी उपयुक्त नहीं है। (कर्तृत्व-अभावादि दोष में) 'आदि' पद से (यह सूचित किया गया है कि सर्वव्यापी आत्मा मानने पर (कर्तृत्व-अभाव जैसे) अन्य भी कई दोष हैं- ऐसा समझ लेना चाहिए / उदाहरणार्थ, जैसे (देहव्यापी आत्मा की स्थिति में) अंगूठे में अग्निदाह-सम्बन्धी वेदना होने पर मस्तक आदि में भी वह अनुभूत होती है, उसी तरह (आत्मा के सर्वव्यापी होने की Na 316 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च, सर्वगतत्वे पुरुषस्य नानादेशगतस्रक्-चन्दनाङ्गनादिसंस्पर्शेऽनवरतसुखासिकाप्रसङ्गः, वह्नि-शस्त्र-जलादिसम्बन्धे तु निरन्तरदाहपाटन-क्लेदनादिप्रसङ्गश्च। यत्रैव शरीरं तत्रैव सर्वमिदं भवति, नाऽन्यत्रेति चेत्। कुतः?, इति वक्तव्यम्। आज्ञामात्रादेवेति चेत्। न, तस्येहाविषयत्वात्। सहकारिभावेन तस्य तदपेक्षणीयमिति चेत्।न, नित्यस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगात्, तथाहि- अपेक्ष्यमाणेन सहकारिणा तस्य कश्चिद् विशेषः क्रियते, न वा? / यदि क्रियते, स किमर्थान्तरभूतः, अनर्थान्तरभूतो वा? / यद्याद्यः पक्षः, तर्हि तस्य न किञ्चित् कृतं स्यात्। अथापरः, तर्हि तत्करणे तदव्यतिरिक्तस्याऽऽत्मनोऽपि करणप्रसङ्गात्, कृतस्य चाऽनित्यत्वात् तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गः। स्थिति में) वह वेदना सर्वत्र होने लगेगी, किन्तु ऐसा होता नहीं, क्योंकि वैसी अनुभूति नहीं होती, और यदि किसी के अनुभूत न होने पर भी उसका सद्भाव माना जाय तो (अनेक) अतिप्रसंग (अतिव्याप्ति) दोष उठ खड़े होंगें। और (दूसरी बात), पुरुष यदि सर्वव्यापी है तो नाना देशों में स्थित पुष्पमाला, चंदन, महिलाओं आदि के स्पर्श से अनवरत सुख होना प्रसक्त होगा (वैसा सुख होने लगेगा), (इसी प्रकार) अग्नि, शस्त्र, जल आदि के सम्बन्ध (स्पर्श) से निरन्तर दाह होने, चीरे जाने, एवं गीला होने आदि की (भी) स्थिति होने लगेगी। (पूर्वपक्षी की ओर से सम्भावित समधान-) हमारा कहना यह है कि जहां शरीर होता है, वहीं (प्राप्त-स्पृष्ट पदार्थों की) वह सब (वेदना या अनुभूति) होती है, अन्यत्र नहीं (अतः सर्वत्र स्थित पदार्थों के स्पर्श न होने से पूर्वोक्त समस्त अनुभूति होने का दोष निरस्त हो जाता है)। (भाष्यकार द्वारा पूर्वपक्षी के समाधान पर दोषारोपण-) किन्तु आपको यह (भी तो) स्पष्ट करना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है कि जहां शरीर की स्थिति होती है, वहीं दाह आदि की अनुभूति होती है (अन्यत्र नहीं)? मात्र आत्मीय आज्ञा से ही ऐसा सम्भव मानें तो वह भी सम्भव नहीं, क्योंकि यह सब 'ईहा' का विषय है (और ईहा एक क्रिया है जो निष्क्रिय पुरुष में कैसे सम्भव है?) यदि (आप पूर्वपक्षी) ऐसा कहें कि शरीर (वेदना आदि में) सहकारी कारण है, अतः शरीर की अपेक्षा रहती ही है, तो वह (कथन) भी ठीक नहीं, क्योंकि नित्य पदार्थ (भावमन) के लिए किसी सहकारी (कारण) की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। और यह भी (प्रश्न है) कि अपेक्षित सहकारी कारण द्वारा उस (भावमन) का कोई 'विशेष (परिणमन आदि) किया जाता है या नहीं? यदि किया जाता है तो यह स्पष्ट करें कि वह 'विशेष' अन्य पदार्थ का किया जाता है या उसी (अनर्थान्तरभूत, भावमन) का? यदि आप प्रथम पक्ष अंगीकार करते हैं (कि विशेषरूपता भावमन से अन्य पदार्थ में होती है) तो उस (सहकारी कारण) ने भावमन का क्या 'विशेष' किया? (तब सहकारी कारण की भावमन के लिए किस प्रयोजन हेतु अपेक्षा की जाती है?) और यदि दूसरा पक्ष स्वीकारते हैं (कि विशेषरूपता 'भावमन में ही होती है) तो भावमन से अभिन्न आत्मा में ही 'विशेषरूपता' सम्पादित होगी, और चूंकि ‘कृत' अनित्य होता है, इसलिए विशेषीकृत आत्मा की अनित्यता प्रसक्त होगी (जो आपके सिद्धान्त से विरुद्ध होगी)। --- विशेषावश्यक भाष्य ---- 317 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मा भूदेष दोष इति 'न क्रियते' इत्यभ्युपगम्यते। हन्त! न तर्हि स तस्य सहकारी, विशेषाकरणात्। अथ विशेषमकुर्वन्नपि' सहकारीष्यते। तर्हि सकलत्रैलोक्यस्यापि सहकारिताप्राप्तिः, विशेषाकरणस्य तुल्यत्वात्, इति व्यर्था शरीरमात्रापेक्षा, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्। तस्माच्छरीरमात्रवृत्तिरेवाऽऽत्मा, न सर्वगत इति। अतस्तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसो न शरीराद् बहिनि:सरणमुपपद्यत इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥ 216 // अथ द्रव्यमनो विषयदेशं व्रजतीति ब्रूयात्, तत्राऽप्याह दव्वमणो विण्णाया न होइ गंतुं च किं तओ कुणउ?। अह करणभावओ तस्स, तेण जीवो वियाणेज // 217 // [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यमनो विज्ञातृ न भवति, गत्वा च किं ततः करोतु? अथ करणभावतस्तस्य, तेन जीवो विजानीयात् // ] यह अनित्यता का दोष आत्मा में नहीं आए -इसलिए यदि आप (सहकारी कारण द्वारा कोई 'विशेष') नहीं किया जाता -ऐसा स्वीकार करें तो अफसोस! उस (भावमन) का वह (शरीर) सहकारी ही नहीं रहा, क्योंकि कुछ 'विशेष' तो वह करता नहीं (तो उसे सहकारी कैसे कहा जा सकता है)? यदि कुछ 'विशेष' न करते हुए भी उस (शरीर) को सहकारी मानेंगे तब तो समस्त त्रैलोक्य (का प्रत्येक पदार्थ) सहकारी कारण (में परिगणित) हो जाएगा, क्योंकि कुछ 'विशेष' न करने का स्वभाव (शरीर व समस्त पदार्थों में) समान ही है। अतः शरीर मात्र की अपेक्षा निरर्थक सिद्ध होती है। इत्यादि और भी बहुत कुछ यहां कहा जा सकता है, किन्तु ग्रन्थ गहन (अधिक क्लिष्ट व विस्तृत) हो जाएगा, इसलिए (अधिक कुछ) नहीं कह रहे हैं। अतः आत्मा शरीरमात्र व्यापी ही है, न कि सर्वव्यापी। इसलिए उस (आत्मा) से अभिन्न भावमन का शरीर से बाहर निकलना संगत नहीं ठहरता -यह निश्चित हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 216 // (द्रव्य मन का बहिर्गमन नहीं) (भावमन भले ही अप्राप्यकारी हो,) द्रव्यमन अपने विषय देश तक जाता (स्पृष्ट होता) हैऐसा पूर्वपक्षी कह सकता है, उस मत पर भी (भाष्यकार अपना विचार) कह रहे हैं // 217 // दव्वमणो विण्णाया न होइ गंतुंच किं तओ कुणउ?| अह करणभावओ तस्स, तेण जीवो वियाणेज्ज // [(गाथा-अर्थ : द्रव्यमन तो (अचेतन होने से) ज्ञाता है नहीं, अतः वह (अन्यत्र) जाकर भी क्या करेगा? (पूर्वपक्ष की ओर से सम्भावित समाधान-) द्रव्यमान ज्ञान में करण (साधन) है, उसी से तो जीव को ज्ञान होता है (तो साधन बाहर चला जाता है, जिसके माध्यम से जीव (पदार्थों को) जानता है (-ऐसा हम कहते हैं)।] Mar 318 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काययोगसहायजीवगृहीत-चिन्ताप्रवर्तकमनोवर्गणान्तःपातिद्रव्यसमूहात्मकं द्रव्यमनः स्वयं विज्ञातृ न भवत्येव, अचेतनत्वात्, उपलशकलवत्, इत्यतो गत्वाऽपि मेर्वादिविषयदेशं किं तद् वराकं करोतु?, तत्र गतादपि तस्मादर्थावगमाभावादिति भावः॥ पराभिप्रायमाशङ्कते- 'अह करणेत्यादि / अथ मन्यसे- यद्यपि द्रव्यमनः स्वयं न किञ्चिज्जानाति, तथापि करणभावः करणत्वं तस्य द्रव्यमनसः प्रदीपादेरिव वस्तुनि प्रकाशयितव्ये समस्ति / ततो जीवः कर्ता तेन द्रव्यमनसा करणभूतेन विजानीयादवबुध्येत मेर्वादिकं वस्त्विति। अत्र प्रयोगः- बहिर्निर्गतेन द्रव्यमनसा प्राप्य विषयं जानाति जीवः, करणत्वात्, प्रदीप-मणि-चन्द्र-सूर्यादिप्रभयेव॥ इति गाथार्थः॥२१७॥ अत्रोत्तरमाह करणत्तणओ तणुसंठिएण जाणिज फरिसणेणं व। एत्तो च्चिय हेऊओ न नीइ बाहिं फरिसणं व॥२१८॥ [संस्कृतच्छाया:- करणत्वतः तनुसंस्थितेन जानीयात् स्पर्शनेनैव। इत एव हेतोर्न निर्गच्छति बहिः स्पर्शनमिव // ] व्याख्याः- जीव काययोग की सहायता से चिन्तन-प्रक्रिया की प्रवर्तक जिन मनोवर्गणा को ग्रहण करता है, उसी के अन्तर्गत जो द्रव्य-समूह है, वही द्रव्यमन है। वह स्वयं ज्ञाता नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर के टुकड़े की तरह अचेतन है। अतः मेरु आदि विषयों के प्रदेशों में जाकर भी बेचारा द्रव्यमन क्या कर लेगा? अर्थात् वहां (कथंचित्) चला भी जाए तो उसे पदार्थ-ज्ञान तो होगा नहीं। . अब (उक्त दोष के निवारण हेतु) पूर्वपक्ष (समाधान रूप में अपना) जो अभिप्राय (सम्भावित रूप से) व्यक्त कर सकता है- उसे शंका के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं- (अथ करणभावतः इत्यादि)। यदि आप (पूर्वपक्षी) ऐसा मानते हैं कि यद्यपि द्रव्यमन स्वयं कुछ नहीं जानता, तथापि जैसे वस्तु को प्रकाशित होने में प्रदीप आदि करण (साधन) होते हैं, वैसे ही (पदार्थ-बोध में) द्रव्यमन का करण भाव या करण-रूपता है, अतः (ज्ञान-प्राप्ति का) कर्ता जीव उस करणभूत द्रव्यमन (की सहायता) से मेरुप्रभृति सभी वस्तुओं को जानता है, समझता है। वहां (उक्त मत के समर्थन में अनुभव रूप) युक्ति भी (इस प्रकार) है- जीव बाहर निर्गमन करने वाले द्रव्यमन से विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) कर जानता है, क्योंकि वह (द्रव्यमन) करण है, प्रदीप, मणि, चन्द्र व सूर्य आदि की प्रभा की तरह // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 217 // - अब (भाष्यकार पूर्वपक्ष का) उत्तर दे रहे हैं // 218 // करणत्तणओ तणुसंठिएण जाणिज्ज फरिसणेणं व। एत्तो च्चिय हेऊओ न नीइ बाहिं फरिसणं व // __ [(गाथा-अर्थ :) जीव शरीर-स्थित द्रव्यमन की सहायता से जानता है, क्योंकि वह (द्रव्यमन) (शरीरस्थ) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (ही एक अन्तः) करण है (बाह्य करण नहीं है)। इसी (अन्तः करण होने) के कारण, वह (द्रव्यमन) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (कभी) बाहर नहीं निकलता।] ----- विशेषावश्यक भाष्य --------319 2 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को वैन मन्यते, यदुत- अर्थपरिच्छेदे कर्तव्ये आत्मनो द्रव्यमनः करणम्? / किन्तु करणं द्विधा भवति- शरीरगतमन्तःकरणम्, तद्वहिर्भूतं बाह्यकरणं च। तत्रेदं द्रव्यमनोऽन्तःकरणमेवाऽऽत्मनः। ततश्च ‘करणत्तणउ त्ति'। सूत्रस्य सूचामात्रत्वात्, एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वाच्चान्त:करणत्वादित्यर्थः। तनुसंस्थितेन शरीराद् बहिरनिर्गतेन जीवस्तेन जानीयाद् मेर्वादिविषयम्, स्पर्शनेन्द्रियेणेव कमलनालादिस्पर्शम्। प्रयोगः- यदन्त:करणं तेन शरीरस्थेनैव विषयं जीवो गृह्णाति, यथा स्पर्शनेन, अन्त:करणं च द्रव्य मनः। प्रदीपमणि-चन्द्र-सूर्यप्रभादिकं तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलः परोक्तदृष्टान्तः। आह- ननु शरीरस्थमपि तत् पद्मनालतन्तुन्यायेन बहिर्द्रव्यमनः किं न नि:सरति?, इत्याह-'एत्तोच्चियेत्यादि / इत एवान्त:करणत्वलक्षणाद्धेतोर्बहिर्न निर्गच्छति द्रव्यमनः स्पर्शनवत्। प्रयोगः- यदन्त:करणं तच्छरीराद् बहिर्न निर्गच्छति, यथा स्पर्शनम् // इति गाथार्थः // 218 // व्याख्याः- पदार्थ-ज्ञान में आत्मा के लिए द्रव्यमन 'करण' (साधन, माध्यम) है -इसे कौन नहीं मानता? (हम भी कहां इन्कार कर रहे हैं?) किन्तु 'करण' दो प्रकार के होते हैं- (१)अन्तःकरण, जो शरीर में ही स्थित रहता है, और (2) बाह्यकरण, जो शरीर से बाहर रहता है। (करणत्यतः)चूंकि सूत्र सूचना (संकेत) करने वाला होता है, और एकदेश (अंश) से समुदाय का बोध कराया जा सकता है, इसलिए यहां 'करण' शब्द (अन्तःकरण का) एकदेशसूचक है। (तनुसंस्थितेन-) शरीर से बिना बाहर निकले, शरीर में (ही) स्थित रहने वाले उस (अन्तःकरण रूप द्रव्यमन) के माध्यम से जीवात्मा (दूरस्थित) मेरु आदि विषयों को (भी) उसी प्रकार जान लेता है जिस प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से (बहिःस्थित) कमल-नाल आदि के स्पर्श का अनुभव वह करता है। (इसी तथ्य के समर्थक अनुमान रूप) युक्ति इस प्रकार है- जो अन्तःकरण होता है, उसे शरीरस्थ रखते हुए ही जीव (अपने) विषय को उसी तरह जानता है, जिस तरह स्पर्शन इन्द्रिय से (जानता है), द्रव्यमन एक अन्तःकरण है। (बहिर्गमन करने वाले द्रव्यमन द्वारा विषय को जानने में जो अनुमानात्मक युक्ति गाथा 217 में प्रस्तुत की गई है, उसमें) जो पूर्वपक्षी ने प्रदीपादिक दृष्टान्त दिया है, वह साधनविकल (करणत्व हेतु से रहित, अर्थात् अन्तःकरण भिन्न होने से दोषग्रस्त) है, क्योंकि प्रदीप, मणि, चन्द्र, सूर्य आदि प्रभा तो आत्मा के लिए बाह्य करण हैं। (पूर्वपक्षी की ओर से पुनः कथन-) यद्यपि द्रव्यमन शरीरस्थ ही है, किन्तु जैसे पद्मनाल का तन्तु अपने मूल शरीर से बाहर निकल जाता है, उसी तरह द्रव्यमन शरीर से बाहर क्यों नहीं निकल सकता? (भाष्यकार ने) उत्तर दिया- (इत एव हेतोः इत्यादि)। द्रव्यमन का अन्तःकरणत्व रूप लक्षण वाला होना ही वह ‘हेतु' है, जिसके कारण वह द्रव्यमन स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (शरीर से) बाहर नहीं निकलता। यहां युक्ति इस प्रकार है- जो जो अन्तःकरण होता है, वह (शरीर से) बाहर नहीं निकलता, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 218 // Mar 320 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं भावमनसो द्रव्यमनसश्च बहिश्चारिताद्यभावादप्राप्यकार्येव मन इत्युक्तम् / सांप्रतं 'नाणुग्गहोवघायाभावाओ लोयणं व' इत्यादिना मनसोऽप्राप्यकारितायाम् 'अनुग्रहोपघाताभावात्' इति यः पूर्वं हेतुरुक्तः, तस्य परोऽसिद्धिं समुद्भावयन्नाह नजइ उवघाओ से दोबल्लोरक्खयाइलिंगेहि। जमणुग्गहो य हरिसाइएहिं तो सो उभयधम्मो॥२१९॥ [संस्कतच्छाया:-ज्ञायते उपघातस्तस्य दौर्बल्योरःक्षतादिलिङ्गैः। यदनुग्रहश्च हर्षादिभिस्ततः स उभयधर्मा // ] इह मृत-नष्टादिकं वस्तु चिन्तयतः, अत्यार्त-रौद्रध्यानप्रवृत्तस्य से' तस्य मनस उपघातो ज्ञायतेऽनुमीयते। कैः?, इत्याहदौर्बल्योरःक्षतादिलिङ्गैः- दौर्बल्यं देहापचयरूपम्, उर:क्षतमुरोविघातः, हृदयबाधेति यावत्, आदिशब्दाद् वातप्रकोपवैकल्यादिपरिग्रहः। अनुग्रहश्च- यद्यस्मात् तस्येष्टसंगम-विभवलाभादिकं वस्तु चिन्तयतो हर्षादिभिरनुमीयते। तत्र वदनविकाशरोमाञ्चोद्गमादिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेषो हर्षः, आदिशब्दाद् देहोपचयोत्साहादिपरिग्रहः। तत् तस्मात्कारणात् तद् मन उपघातानुग्रहलक्षणोभयधर्मकमेव। (मन का विषयकृत अनुग्रह व उपघात नही) इस प्रकार, भाव मन व द्रव्यमन (-इन दोनों) की (शरीर से) बहिर्गति का अभाव बताकर, मन की अप्राप्यकारिता है- ऐसा (अब तक) प्रतिपादित किया गया है। किन्तु मन की अप्राप्यकारिता के प्रसंग में 'नानुग्रहोपघाताभावाद् लोचनमिव' (गाथा- 214) इत्यादि द्वारा 'अनुग्रह-उपघात-अभाव' (को) हेतु (रूप में) कहा गया था, उसमें परपक्षी (विरोधी) 'असिद्ध' दोष की उद्भावना कर रहा है // 219 // नज्जइ उवघाओ से दोबल्लोरक्खयाइलिंगेहिं।। जमणुग्गहो य हरिसाइएहिं तो सो उभयधम्मो // [(गाथा-अर्थ : (मन में) उदुर्बलता, हृदय-क्षति (हृदयरोग) आदि चिन्हों से यह ज्ञात होता है कि मन का उपघात होता है। (इसी तरह) हर्ष आदि लक्षणों से उस पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) भी होता है (-यह ज्ञात होता है)। इसलिए वह (मन) (उपघात व अनुग्रह -इन) दोनों धर्मों वाला है।] व्याख्या:- (तस्य) उस मन का, जब वह किसी मृत्युग्रस्त या नष्ट व्यक्ति (या पदार्थों) की चिन्ता करता है, और अत्यधिक आर्तध्यान व रौद्रध्यान में प्रवृत्त होता है, (तब) उपघात (होता हैऐसा) ज्ञात होता है। (प्रश्न-) किन (चिन्हों) के आधार पर? उत्तर दिया- (दौर्बल्य-उरःक्षतादिलिङ्गैः)। दुर्बलता यानी देह का क्षीण होना, उरःक्षत यानी छाती का रोग या हृदय-सम्बन्धी पीड़ा आदि। 'आदि' शब्द से (यहां) वायुप्रकोप व विकलता (हवा मार जाना, पक्षाघात, लकवा होना) आदि रोग भी परिगृहीत हैं। (अनुग्रहश्च यत्) चूंकि उस (मन) को, जब वह इष्ट जन के संगम का, तथा वैभव की प्राप्ति आदि पदार्थों के विषय में चिन्तन करता है, तब जो हर्ष आदि होते हैं- उनके आधार पर (मन का) 'अनुग्रह' (भी) होता है- ऐसा अनुमान होता है। उस स्थिति में मुख का खिलना, रोमांच होना -- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 321 र Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयमत्र भावार्थ:- यः शोकाद्यतिशयाद् देहोपचयरूपः, आादिध्यानातिशयाद् हृद्रोगादिस्वरूपश्चोपघातः, यश्च पुत्रजन्माद्यभीष्टप्राप्तिचिन्तासमुद्भूतहर्षादिरनुग्रहः, स जीवस्य भवन्नपि चिन्त्यमानविषयाद् मनसः किल परो मन्यते, तस्य जीवात् कथञ्चिदव्यतिरिक्तत्वात् / ततश्चैवं मनसोऽनुग्रहोपघातयुक्तत्वात् तच्छून्यत्वलक्षणो हेतुरसिद्धः।। इति गाथार्थः // 219 // तदेतत् सर्वं परस्याऽसम्बद्धभाषितमेवेति दर्शयन्नाह जइ दव्वमणोऽतिबली पीलिज्जा हिदि निरुद्धवाउ व्व। तयणुग्गहेण हरिसादउ व्व नेयस्स किं तत्थ? // 220 // [संस्कृतच्छाया:- यदि द्रव्यमनोऽतिबलि पीडयेत् हृत् निरुद्धवायुरिव। तदनुग्रहेण हर्षादय इव ज्ञेयस्य किं तत्र // ] आदि (शारीरिक) चिन्हों से यह ज्ञात होता है कि मन में विशेष प्रीति रूप ‘हर्ष' है, आदि शब्द से देह का उपचय (हृष्ट-पुष्ट होना) व उत्साह आदि का ग्रहण यहां अभीष्ट है (जिनके आधार पर भी मानसिक हर्ष का अनुमान लगा लिया जाता है)। (ततः) इस कारण से वह मन उपघात व अनुग्रह - इन लक्षणों वाले दोनों धर्मों से युक्त ही है। (उपर्युक्त कथन का) यहां भावार्थ यह है कि जो अत्यन्त शोक आदि के कारण देह की क्षीणता, और अत्यन्त आर्त्तध्यान से हृदय-रोग आदि रूप से मन का उपघात होता है, (इसी तरह) पुत्र-जन्म आदि अभीष्ट (वस्तु) की प्राप्ति के चिन्तन से हर्ष आदि का होना -यह अनुग्रह भी होता है। ये (वस्तुतः) तो जीवात्मा के होते हैं, तथापि विषय-चिन्तन के आधार पर होने से 'पर' (पूर्वपक्षी) उन्हें मन में मानता है, क्योंकि वह (मन) कथंचित् जीव से अभिन्न (अ-पृथक्) है। इसलिए मन के अनुग्रह व उपघात से युक्त होने के कारण ('न अनुग्रहोपघातः'-यह) हेतु (जो मन की अप्राप्यकारिता की सिद्धि में दिया गया था, वह) असिद्ध हो जाता है। (अतः 'मन प्राप्यकारी है- ऐसा मानना चाहिए' - यह पूर्वपक्ष का कथन है।) यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 219 // (द्रव्यमन-कृत जीव का अनुग्रह व उपघात) यह सब परकीय (पूर्वपक्षी का) असम्बद्ध प्रलाप मात्र है- ऐसा (भाष्यकार) बता रहे हैं // 220 // जइ दव्वमणोऽतिबली पीलिज्जा हिदि निरुद्धवाउ व्व। तयणुग्गहेण हरिसादउ व्व नेयस्स किं तत्थ? // [(गाथा-अर्थ :) यदि द्रव्यमन अत्यन्त बलिष्ठ (शक्तिशाली) हो तो वह हृदय में रुकी हुई वायु की तरह (कभी जीवात्मा को) पीड़ित करे, और उसी तरह उसी (मन) के अनुग्रह से (जीवात्मा को) हर्ष आदि (भी) हों, तो इसमें ज्ञेय (विषय) द्वारा कौन-सा अनुग्रह व उपघात हुआ? (इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञेय विषय की ओर से अनुग्रह व उपघात मन में होते हैं, वस्तुतः द्रव्य मन से जीवात्मा का अनुग्रह या उपघात होता है।)] a 322 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि नाम द्रव्यमनो मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलसमूहरूपमतिशयबलिष्ठमिति कृत्वा शोकादिसमुद्भूतपीडया जीवं कर्मतापन्नं देहदौर्बल्याद्यापादनेन पीडयेत्, हृन्निरुद्धवायुवत्- हृदयदेशाश्रितनिबिडमरुद्ग्रन्थिवदित्यर्थः। यदि च तस्यैव द्रव्यमनसो मनस्त्वपरिणतेष्टपुद्गलसंघातस्वरूपस्याऽनुग्रहेण जीवस्य हर्षादयो भवेयुः, तर्हि ज्ञेयस्य चिन्तनीयमेर्वादेर्मनसोऽनुग्रहोपघातकरणे किमायातम्? इदमत्र हृदयम्- मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलनिचयरूपं द्रव्यमनोऽनिष्टचिन्ताप्रवर्तनेन जीवस्य देहदौर्बल्याद्यापत्त्या हृनिरुद्धवायुवदुपघातं जनयति, तदेव च शुभपुद्गलपिण्डरूपं तस्याऽनुकूलचिन्ताजनकत्वेन हर्षाद्यभिनिवृत्त्या भेषजवदनुग्रहं विधत्त इति। अतो जीवास्यैतावानुग्रहोपघातौ द्रव्यमनः करोति, न तु मन्यमानमेर्वादिकं ज्ञेयं मनसः किमप्युपकल्पयति। अतो द्रव्यमनसः सकाशादात्मन एवानुग्रहोपघातसद्भावात्, मनसस्तु ज्ञेयात् तद्गन्धस्याऽप्यभावाद् मस्तकाघातविह्वलीभूतेनेवाऽसंबद्धभाषिणा परेण हेतोरसिद्धिरुद्भाविता॥ इति गाथार्थः // 220 // व्याख्याः- द्रव्यमन 'मन' रूप में परिणत अनिष्ट पुद्गलों का समूह रूप होता है और अत्यन्त बलिष्ठ होता है। इस दृष्टि से यदि वह द्रव्यमन शोक आदि से उत्पन्न पीड़ा के द्वारा शारीरिक दुर्बलता को उत्पन्न कर, हृदय में रुकी हुई वायु की तरह, अर्थात् हृदय-स्थल पर घनीभूत हुई वायुग्रन्थि (हवा के गोले) की तरह, जीवात्मा को पीड़ित करे (तो यह सम्भव है, ऐसा हो सकता है)। और वही द्रव्य मन (जब) मन रूप में परिणत इष्ट पुद्गल-समूह रूप होता है, (तब) उसी के अनुग्रह से जीव को हर्ष आदि उत्पन्न हों, तो (ऐसा होने पर भी) ज्ञेय (ज्ञान के विषयभूत) व चिन्तन के केन्द्र मेरु आदि द्वारा मन का क्या अनुग्रह या उपघात किया गया?.(अर्थात् चिन्तनीय विषय ने तो मन कोई उपघात या अनुग्रह किया नहीं, तब मन की अप्राप्यकारिता पर क्या आंच आई?) तात्पर्य यह है- (जब) द्रव्य मन 'मन' रूप से परिणत अनिष्ट (अशुभ) पुद्गल-समूह रूप होता है, (तब वह) अनिष्ट चिन्तन की प्रवृत्ति करते हुए जीव की शारीरिक दुर्बलता को उत्पन्न कर, हृदय में रूकी हुई वायु की तरह (जीवात्मा का) उपघात करता है, उसी तरह (जब वह) शुभ पुद्गलसमूह रूप (होता है तो) वही द्रव्य मन चिन्तन की प्रवृत्ति के माध्यम से हर्ष आदि उत्पन्न कर, औषधि की तरह (जीवात्मा का) अनुग्रह करते है। इसलिए (वास्तविकता यह है कि) जीवात्मा पर इन अनुग्रह व उपघात को द्रव्यमन करता है, किन्तु चिन्तन के विषयभूत मेरु आदि ज्ञेय (ज्ञान-विषय) पदार्थ मन का कुछ भी (अनुग्रह या उपघात) नहीं करते। अतः द्रव्यमन की ओर से (अनुग्रह या उपघात -इनमें से) किसी (के होने) की गंध भी नहीं है। इसलिए 'पर' (पूर्वपक्षी) मस्तक पर चोट लगने से व्याकुल हुए व्यक्ति की तरह असम्बद्ध प्रलाप कर रहा है और (मन में अनुग्रह आदि अभाव का होना -इस) हेतु' की असिद्धि उद्भावित कर रहा है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||220 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 323 2 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह- नन्वलौकिकमिदं, यद्- द्रव्यमनसा जीवस्य देहोपचय-दौर्बल्यादिरूपावनुग्रहोपघातौ क्रियेते, तथाप्रतीतेरेवाभावात्, इत्याशङ्कयाह इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे होन्ति पुट्ठि-हाणीओ। जह, तह मणसो ताओ पोग्गलगुणउ त्ति को दोसो? // 221 // [संस्कृतच्छाया:- इष्टानिष्टाहाराभ्यवहारे भवतः पुष्टिहानी। यथा, तथा मनसस्ते पुद्गलगुणतः इति को दोषः? // ] .. ननु किमिहाऽलौकिकम्?, यतो भवतो लोकस्य च सबालगोपालस्य तावत्प्रतीतमिदं यदुत- इष्टो मनोऽभिरुचितो य आहारस्तस्याऽभ्यवहारे जन्तूनां शरीरस्य पुष्टिर्भवति, यस्त्वनिष्टोऽनभिमत आहारस्तस्याऽभ्यवहारे हानिर्भवतीति / ततश्च 'जह त्ति'। यथा इष्टाऽनिष्टाहाराभ्यवहारे तत्पुद्गलानुभावाद् पुष्टि-हानी भवतः, 'तह त्ति'। तथा यदि द्रव्यमनोलक्षणात् मनसोऽपि सकाशात् 'ताउत्ति'। ते पुष्टि-हानी पुद्गलगुणतः पुद्गलानुभावाद् भवतः, तर्हि को दोषः? न कश्चिदित्यर्थः। __ अब पूर्वपक्षी (पुनः दोषारोपण करते हुए) कह रहा है- आपका कहना तो अलौकिक (ही) है (अर्थात् लौकिक प्रतीति से विरुद्ध है), क्योंकि (आपके कथनानुसार) जीव में होने वाले शारीरिक क्षीणता व दुर्बलता आदि जो अनुग्रह व उपघात हैं, वे द्रव्य मन द्वारा किये जाते हैं, किन्तु ऐसी प्रतीति ही नहीं होती- पूर्वपक्षी की ओर से संभावित इस आशंका को दृष्टिगत रख कर भाष्यकार (समाधान) कह रहे हैं // 221 // इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे होन्ति पुट्ठि-हाणीओ। . . जह, तह मणसो ताओ पोग्गलगुणउत्ति को दोसो? | [(गाथा-अर्थ :) जैसे इष्ट-अनिष्ट आहार के खाने से (शरीर की) पुष्टि या क्षति (दुर्बलता आदि) होती है, वैसे ही, चूंकि (द्रव्य) मन (भी) पौद्गलिक गुण वाला होता है, अतः उसकी ओर से भी वे (पुष्टि या हानि) होती हो तो इसमें क्या दोष है?] ___ व्याख्याः- (शंका-) (हमारे कथन में) अलौकिक-लोकविरुद्ध होने जैसी क्या बात है? क्योंकि आपको एवं बाल-गोपाल आदि सारे लोगों को यह प्रतीति होती ही है कि मनमाफिक अभीष्ट जो आहार होता है, उसके सेवन में प्राणियों के शरीर की पुष्टि होती है, और जो अनिष्ट व इच्छाविरुद्ध जो आहार होता है, उसके सेवन से (शरीर की) हानि होती है। इसलिए- (यथा इति)। जैसे इष्ट या अनिष्ट आहार के सेवन से (इष्ट या अनिष्ट) पुद्गलों के अनुभाव (शुभाशुभ परिणति) से उस (जीवात्मा) की (शारीरिक) पुष्टि या हानि होती है, (तथा इति), वैसे ही यदि द्रव्यमन रूप मन की ओर से भी (ते इति), वे पुष्टि या हानि उनके पौद्गलिक गुण (पौद्गलिक परिणति) के कारण होती हों, तो फिर इसमें दोष क्या है? (कोई दोष नहीं है अर्थात् मन की अप्राप्यकारिता वाली हमारी मान्यता में आपके आहारजनित पुष्टि या हानि वाले कथन से कोई फर्क नहीं पड़ता)। Ma 324 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाऽऽहार इष्टाऽनिष्टपुद्गलमयत्वात् तदनुभावाजन्तुशरीराणां पुष्टि-हानी जनयति, तथा द्रव्यमनोऽपि तन्मयत्वाद् यदि तेषां ते निर्वर्तयति, तदा किं सूयते, येन पुद्गलमयत्वे समानेऽपि भवतोऽत्रैवाऽक्षमा? इति भावः। तथा चोक्तम्- "चिन्तया वत्स! ते जातं शरीरकमिदं कृशम्" इति। चिन्तैव तर्हि कार्थ्याधुपघातादिजनिकेति चेत्।न, तस्या अपि द्रव्यमन:प्रभवत्वात्, अन्यथा चिन्ताया ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य चाऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च नभस इवोपघातादिहेतुत्वायोगात्, 'जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गलेहितो' इति वक्ष्यमाणत्वाच्च // इति गाथार्थः // 221 // अथोपसंहारगर्भ प्रस्तुतार्थविषये स्वाभिप्रायपरमार्थं दर्शयन्नाह नीउं आगसिउं वा न नेयमालंबइ त्ति नियमोऽयं / तण्णेयकया जेऽणुग्गहोवघाया य ते नत्थि // 222 // [संस्कृतच्छाया:-निर्गत्य आकृष्य वा न ज्ञेयमालम्बते -इति नियमोऽयम्। तज्ज्ञेयकृतौ यौ अनुग्रहोपघातौ च तौ न स्तः॥] तात्पर्य यह है कि जैसे इष्ट या अनिष्ट पुद्गलों से निर्मित होने से, आहार (अपनी अनुरूप) परिणति के कारण प्राणियों के शरीर की पुष्टि या हानि करता है, वैसे ही द्रव्य मन भी तन्मय (पुद्गलमय) होने के कारण, यदि प्राणियों के शरीर की पुष्टि या हानि सम्पन्न करे तो क्या नुकसान हैं जो दोनों (आहार व द्रव्यमन) में पुद्गलमयता समान होने पर भी आपको (द्रव्यमन कृत अनुग्रहउपघात में) आपत्ति हो रही है? कहा भी जाता है- “हे वत्स! (बच्चे!) चिन्ता के कारण तुम्हारा यह शरीर (तो) कृश हो गया !" (शंका-) तो चिन्ता को ही (शारीरिक) कृशता आदि उपघात आदि की जनक मान लें (न कि द्रव्यमन को)? उत्तर- ऐसा समीचीन नहीं। उस (चिन्ता) का भी जन्म द्रव्यमन से (ही तो) होता है, अन्यथा (यदि चिन्ता को द्रव्यमन से उत्पन्न न मानें तो) जो अमूर्त होता है उसमें आकाश की तरह उपघात आदि में हेतु बनना संगत नहीं होता, और आगे ('यदनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्यः' इत्यादि गाथा सं. 223 द्वारा) इस सम्बन्ध में (और अधिक स्पष्ट रूप से) कहा जाएगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 221 // - अब, प्रस्तुत पदार्थ-विषयक विचारणा (के क्रम) में अपने सारभूत अभिप्राय को, उपसंहार के साथ, प्रस्तुत करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं // 222 // नीउं आगसिउं वा न नेयमालंबइ त्ति नियमोऽयं / तण्णेयकया जेऽणुग्गहोवघाया य ते नत्थि // [(गाथा-अर्थ :) हमारा तो यह नियम (नियत मत) है कि (द्रव्यमन) ज्ञेय विषय को न तो (शरीर से) बाहर निकल कर, या न ही शरीरस्थ रहते हुए उस (ज्ञेय) को आकृष्ट कर, अपने ज्ञेय पदार्थ का आलम्बन (ग्रहण) करता है। इस प्रकार, ज्ञेय विषय की ओर से द्रव्यमन का अनुग्रह व उपघात -ये (दोनों) नहीं होते।] -- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 325 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह न शरीराद् 'निर्गन्तुं'(निर्गत्य) द्रव्यमनो मेदिकं ज्ञेयमर्थमालम्बते गृह्णाति, नापि तच्छरीरस्थमेव / आगसिउंति'। 'आक्रष्टुं'(आकृष्य) हठात् समाकृष्याऽऽत्मनः समीपमानीय ज्ञेयमालम्बत इति, नियमोऽस्माभिर्भुजमुत्क्षिप्य विधीयते- प्राप्यकारीदं न भवतीति नियम्यत इति तात्पर्यम्। 'तण्णेयकया जेऽणुग्गहोवघाय त्ति' / यौ च तज्ज्ञेयकृतौ- तच्च तज्ज्ञेयं च तज्ज्ञेयं तत्कृतौ, मनसोऽनुग्रहोपघातौ परैरिष्येते, तौ तस्य न स्त एवेति च नियम्यते // इति गाथार्थः॥२२२ // किं पुनर्न नियम्यते? इत्याह सो पुण सयमुवघायणमणुग्गहं वा करेज को दोसो?। जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गलेहिं तो // 223 // [ संस्कृतच्छाया:- तत्पुनः स्वयमुपघातानुग्रहौ वा कुर्यात् को दोषः? यदनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्यः॥] "से' इति प्राकृतत्वात् पुंलिङ्गनिर्देशः, एवं पूर्वमुत्तरत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यम्। तद् द्रव्यमनः पुनः स्वयमात्मनम शुभाऽशुभकर्मवशत इष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघातघटितत्वादनुग्रहोपघातौ मन्तुः कुर्यात्, को दोषः? न वयं तत्र निषेद्धारः, ज्ञेयकृतयोरेव व्याख्याः- "द्रव्यमन शरीर से (निर्गत्य) निकल कर, मेरु आदि ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन या ग्रहण नहीं करता, और न ही वह शरीर में स्थित रहते हुए ही (आकृष्य) (ज्ञेय विषय को) बलपूर्वक खींच कर, अपने समीप लाकर ज्ञेय पदार्थ का आलम्बन (ग्रहण) करता है” -इस नियम (सिद्धान्त) को हम अपनी भुजा उठा कर प्रस्तुत कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि 'वह मन प्राप्यकारी नहीं है' इसे ही हम (अंतिम) नियम (मत, सिद्धान्त) मानते हैं। (तज्ज्ञेयकृतौ यौ अनुग्रहोपघातौ इति) -द्रव्यमन और उसके ज्ञेय (मेरु पर्वपादि) द्वारा उस में होने वाले अनुग्रह व उपघात को जैसा 'पर' (पूर्वपक्षी) मानता है, वे उस (द्रव्यमन) में कभी नहीं होते- वह भी हमारा नियम (अंतिम सिद्धान्त) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 222 // (शंका-) तो फिर किस मत को नकार रहे हैं? (इस शंका को दृष्टि में रख कर भाष्यकार) इसका उत्तर कह रहे हैं // 223 // सो पुण सयमुवघायणमणुग्गहं वा करेज को दोसो?। जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गले हिं तो // [(गाथा-अर्थ :) पुनः वह (द्रव्यमन) स्वयं (ज्ञाता पर) उपघात या अनुग्रह करे (इसे हम नकारते नहीं हैं, और फिर) इसमें दोष भी आखिर क्या है? क्योंकि पुद्गलों से जीवों के अनुग्रह या उपघात (तो) होते (ही) हैं।] व्याख्याः - गाथा में प्रयुक्त 'सो' (वह) यह पद प्राकृत होने से पुंलिङ्ग में यहां प्रयुक्त हुआ है (नपुंसक लिङ्ग वाला द्रव्य मन यहां विशेषण है, अतः इसे वस्तुतः नपुंसक में ही प्रयुक्त होना चाहिए Via 326 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य तयोरस्माभिर्निषिध्यमानत्वादिति भावः। जीवस्याऽपि तौ द्रव्यमनःकृतौ किमिति न निषिध्येते?, इत्याह- 'जमणुग्गहो इत्यादि'। यद्यस्मात्कारंपादनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्य इति युक्तमेव, इष्टाऽनिष्टशब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शोपभोगादिषु तथादर्शनेनाऽस्याऽर्थस्य निषेद्धमशक्यत्वादित्यर्थः॥ आह- ननु शब्दादय इष्टाऽनिष्टपुद्गलात्मका इति प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् प्रतीमः, द्रव्यमनस्तु यदिदं किमपि भवाद्भिरुक्षुष्यते, तदिष्टाऽनिष्टपुद्गलमयमस्तीति कथं श्रद्दध्मः? इति। अत्रोच्यते- योगिनस्तावदिदं प्रत्यक्षत एव पश्यन्ति, अर्वागदर्शिनस्त्वनुमानात, तथाहि- यदन्तरेण यद् नोपपद्यते तद्दर्शनात् तदस्तीति प्रतिपत्तव्यम्, यथा स्फोटदर्शनाद् दहनस्य दाहिका शक्तिः, नोपपद्यते चेष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघातात्मकद्रव्यमनोव्यतिरेकेण जन्तूनामिष्टाऽनिष्टवस्तुचिन्तने समुपलब्धौ वदनप्रसन्नतादेहदौर्बल्याद्यनुग्रहोपघातौ, ततस्तदन्यथानुपपत्तेरस्ति यथोक्तरूपं द्रव्यमनः। था, किन्तु प्राकृत में प्रायः लिङ्ग परिवर्तित भी हो जाता है, इसलिए 'सो' यह पद पुंलिङ्ग में प्रयुक्त हुआ है -यह तात्पर्य है)। पूर्व में एवं आगे के लिए भी (लिङ्ग-परिवर्तन के उदाहरण हैं, इस दृष्टि से) इस नियम को हृदयंगम कर लेना चाहिए / पुनः वह द्रव्यमन इष्ट-अनिष्ट पुद्गल-समूह से रचित होने से शुभाशुभ कर्म-वशीभूत होकर स्वयं अपने से ज्ञाता का अनुग्रह या उपघात करे तो क्या दोष है? हम इसका निषेध नहीं करते। अर्थात् द्रव्य मन में ज्ञेय पदार्थ से होने वाले उन (अनुग्रह व उपघात) का ही निषेध करते हैं। (शंका-) द्रव्य मन से जीव का भी अनुग्रह या उपघात होता है -इसका क्या निषेध नही करते? उत्तर दिया- (यदनुग्रहोपघातौ, इत्यादि)। क्योंकि पुद्गलों द्वारा जीव के अनुग्रह व उपघात का होना युक्तियुक्त ही है, अर्थात् इष्ट-अनिष्ट शब्द-रूप-रस-गंध व स्पर्श के उपभोग आदि में वैसा (अनुग्रहव उपघात का होना) देखा जाता है, इसलिए इसका निषेध नहीं किया जा स - (शंका-) शब्द आदि इष्ट या अनिष्ट पुद्गलात्मक (समूह) होते हैं- यह तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध (ही) है. अतः इस पर तो हम विश्वास कर सकते हैं. किन्त द्रव्यमन स्वरूप आप उद्घोषित कर रहे हैं, वह भी इष्ट या अनिष्ट पुद्गलों का समूह रूप है- इस पर कैसे श्रद्धा (विश्वास) किया जाय? इसका उत्तर दिया जा रहा है- योगी जन तो इस (द्रव्यमन) को प्रत्यक्ष देखते ही हैं, छद्मस्थ जन भी इसे अनुमान से जान (सक)ते हैं। जैसे कि 'जिसके बिना जो उत्पन्न (निष्पन्न) नहीं होता, उस (उपपन्न) के दृष्टिगोचर होने से उसका सद्भाव है- ऐसा मानना उचित है, जैसे फोड़ा (फफोला) विना जलन के नहीं होता, अतः फोड़ा देखकर अग्नि में दहन शक्ति है (ऐसा विश्वास, अनुमान से किया जाता है)। उसी तरह, प्राणियों द्वारा इष्ट-अनिष्ट वस्तु का चिन्तन करते समय, जो उनमें मुख-प्रसन्नता या देहदुर्बलता आदि के रूप में अनुग्रह या उपघात होते दिखाई पड़ते हैं, वे इष्ट या अनिष्ट पुद्गल-समूहात्मक द्रव्यमन के विना उपपन्न (निष्पन्न, संगत) नहीं हो सकते, इसलिए 'अन्यथानुपपत्ति' हेतु से द्रव्यमन का उक्त स्वरूप माना जा रहा है। कछ ---- ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 327 र Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तनीयवस्तुकृतावेतौ भविष्यत इति चेत् ।न, जल-ज्वलनौदनादिचिन्तने क्लेद-दाह-बुभुक्षोपशमादिप्रसङ्गादिति। "चिन्तया / वत्स! ते जातं शरीरकमिदं कृशम्" इत्यादिलोकोक्तेश्चिन्ताज्ञानकृतौ ताविति चेत्। तदप्ययुक्तम्, तस्याऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च / कर्तृत्वायोगात्, आकाशवत्, इत्युक्तत्वात्, “चिन्तया वत्स!" इत्यादिलोकोक्तेश्च कार्ये कारणशक्त्यध्यारोपेणौपचारिकत्वात्। खेदादेस्तदुद्भूतिरिति चेत् / कोऽयं नाम खेदादिः? / किं तान्येव मनोद्रव्याणि, चिन्तादिज्ञानं वा?। आद्यपक्षे, सिद्धसाध्यता। द्वितीयपक्षस्तु विहितोत्तर एव। न च निर्हेतुकावेतौ, सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्: "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्। अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः"॥१॥इति। (शंका-) उक्त अनुग्रह या उपघात (द्रव्यमन द्वारा कृत नहीं, अपितु) चिन्तनीय वस्तु के द्वारा (किये जाते) हैं (ऐसा मानने पर, अन्यथानुपपत्ति के आधार पर द्रव्यमन को वैसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी)। (उत्तर-) आपका कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि (यदि चिन्तनीय वस्तु से अनुग्रहादि का होना मानें तो) जल, अग्नि व ओदन (भात) आदि (पदार्थों) के चिन्तन करते समय (क्रमशः, मन में) गीलापन, जलन एवं भूख की शांति आदि प्रसक्त होंगे (किन्तु ऐसा होता नहीं है, अतः चिन्तनीय वस्तु से अनुग्रहादि का होना मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है)। (शंका-) 'हे वत्स! चिन्ता से तुम्हारा यह शरीर कृश हो गया है' -इत्यादि लोकसामान्य की उक्ति के आधार पर वे (अनुग्रह या उपघात) चिन्ताज्ञान द्वारा किये हुए हैं (-ऐसा मानना चाहिए)। (उत्तर-) आपका कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि चिन्ताज्ञान तो अमूर्त है, और अमूर्त में कर्तृत्व नहीं हुआ करता जैसे आकाश में (कर्तृत्व नहीं होता) -यह (प्रत्युत्तर) पहले दिया जा चुका है। उक्त लोकोक्ति में 'चिन्ता के कारण' यह जो कहा जाता है, उसका कारण है- कार्य में कारण शक्ति (अर्थात् चिन्ताज्ञान रूपी कार्य में द्रव्यमन रूप कारण की शक्ति) का आरोप किया गया है, अतः वह औपचारिक कथन है (न कि वास्तविक)। (शंका-) खेद आदि से चिन्ता ज्ञान की उत्पत्ति मान लें (न कि द्रव्य मन से)? (प्रत्युत्तर-) पहले आप यह बताएं कि ये खेद आदि हैं क्या? क्या वे मनोद्रव्य ही हैं या चिन्ता आदि ज्ञान रूप हैं? प्रथम पक्ष (खेद व मनोद्रव्य को एक मानने) में 'सिद्धसाध्यता' दोष है (क्योंकि यह तो हम ही मान रहे हैं)। द्वितीय पक्ष (चिन्ता आदि ज्ञान व खेद आदि को एक) मानते हैं तो (जो सम्भावित दोष हैं, उनका) पहले ही उत्तर दिया जा चुका है। ये अनुग्रह व उपघात निर्हेतुक तो हो नहीं सकते, क्योंकि तब ये या तो सर्वदा होते रहेंगे या कभी नहीं होंगे। (कहा भी है-) यदि हेतु की कोई अपेक्षा न करे, तब या तो सर्वदा (कार्य का) सद्भाव होगा या (सर्वदा) असद्भाव / और, किन्तु यदि हेतु की अपेक्षा की जाती है, तभी (कार्य रूप) पदार्थों का कभी-कभी होना सम्भव होता है। NA 328 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न च जीवादिक एवाऽन्यः कोऽपि तयोर्हेतुः, तस्य सदावस्थितत्वेन तत एव सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्। एवमन्यदपि -- सुधिया स्वबुद्ध्या समाधानमिह वाच्यम्, इत्यलमतिविस्तरेण / तस्मादुक्तयुक्तिसिद्धं पुद्गलमयं द्रव्यमनो मन्तुः स्वयं कुर्यादनुग्रहोपघातौ, ज्ञेयकृतौ तु तौ मनसो न स्त एव, इति न तत्प्राप्यकारि // इति गाथार्थः // 223 // आह- ननु जाग्रदवस्थयां मा भूद् मनसो विषयप्राप्तिः, स्वापावस्थायां तु भवत्वसौ, अनुभवसिद्धत्वात्, तथाहि- 'अमुत्र मेरुशिखरादिगतजिनायतनादौ मदीयं मनो गतम्' इति सुप्तैः स्वप्नेऽनभयत एव, तथा च 'गंतं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा' इति मया प्रागेवोक्तम्, इत्याशङ्कय स्वप्नेऽपि मनसः प्राप्यकारितामपाकर्तुमाह सिमिणो न तहारूवो वभिचाराओ अलायचक्कं व। वभिचारो य सदसणमुवघायाणुग्गहाभावा॥२२४॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वप्नो न तथारूपो व्यभिचाराद् अलातचक्रमिव। व्यभिचारश्च स्वदर्शनमुपघातानुग्रहाभावात् // ] (शंका-) उक्त अनुग्रह व उपघात में जीव आदि ही कोई पृथक् कारण हो (सकता है, ऐसा क्यों न मान लें)। (उत्तर-) यह भी मानना ठीक नहीं, क्योंकि जीव तो सदा अवस्थित रहता है, इसलिए उससे सदा अनुग्रह या उपघात होना चाहिए या कभी नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार, अन्य समाधान भी यहां अपनी बुद्धि से कर लेना चाहिए। अब अधिक और कुछ कहना अपेक्षित नहीं रह गया है। इसलिए पूर्वोक्त युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि पुद्गलमय द्रव्यमन ही स्वयं ज्ञाता का अनुग्रह व उपघात करता है, किन्तु ज्ञेय पदार्थ द्वारा मन के अनुग्रह व उपघात नहीं किये जाते, अतः वह (मन) प्राप्यकारी नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 223 // (स्वप्न में भी मन का बाह्य गमन नहीं) :- (पूर्वपक्ष की ओर से) शंका- "जागृत अवस्था में भले ही मन (अपने ज्ञेय) विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) नहीं करे, किन्तु सुप्त अवस्था में तो यह (विषय से स्पृष्ट) हो(ही सकता है, क्योंकि ऐसा अनुभवसिद्ध (भी) है। जैसे- 'मेरु-शिखर आदि में स्थित इन जिनालयों में मेरा मन गया (हुआ) था -ऐसा अनुभव सोये हुए लोगों को होता ही है, और ऐसा (पूर्व में). 'गत्वा ज्ञेयेन मनः सम्बद्ध्यते, जागृतः स्वप्ने वा' इत्यादि (गाथा-213) पहले ही हम कह भी चुके हैं"। इस शंका को मन को रख * कर (अब भाष्यकार) स्वप्न में भी, मन की प्राप्यकारिता के निराकरण हेतु कथन कर रहे हैं // 224 // सिमिणो न तहारूवो वभिचाराओ अलायचक्कं व / वभिचारो य सदंसणमुवघायाणुग्गहाभावा || [(गाथा-अर्थ :) स्वप्न (वस्तुतः जैसा दिखाई देता है,) वैसा नहीं होता है, क्योंकि अलातचक्र की तरह (जो दिखाई पड़ता है, उस स्वरूप का) वहां व्यभिचार (अभाव ही) होता है। व्यभिचार इसलिए है, क्योंकि (न केवल मन को, अपितु) स्वयं (अपने शरीर) को भी (वहां गया हुआ स्वप्न में) देखता है, और (वहां जाने से होने वाले) उपघात व अनुग्रह का सद्भाव भी वहां नहीं होता।] Via---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 329 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह 'मदीयं मनोऽमुत्र गतम्' इत्यादिरूपो यः सुतैरुपलभ्यते स्वप्नः, स यथोपलभ्यते न तथारूप एव, स्वप्नोपलब्धमोदकस्तथाविधपरमाचार्यैरिव पर्न सत्य एव मन्तव्य इत्यर्थः। कुतः?, इत्याह- व्यभिचारात्- अन्यथात्वदर्शनात्। किंवद्- यथा न सत्यम्?, इत्याह- अलातचक्रमिव-अलातमुल्मुकं तवृत्ताकारतया आशु भ्रम्यमाणं भ्रान्तिवशादचक्रमपि चक्रतया प्रतिभासमानं यथा न सत्यम्, अचक्ररूपताया एव तत्राऽवितथत्वात्, भ्रमणोपरमे स्वभावस्थस्य तथैव दर्शनात्, एवं स्वप्नोऽपि न सत्यः, तदुपलब्धस्य मनोमेरुगमनादिकस्याऽर्थस्याऽसत्यत्वात् / तदसत्यत्वं च प्रबुद्धस्य स्वप्नोपरमे तदभावात्। तदभावश्च तदवस्थायां देहस्थस्यैव मनसोऽनुभूयमानत्वादिति // आह- ननु स्वप्नावस्थायां मेर्वादौ गत्वा जाग्रदवस्थायां निवृत्तं तद् भविष्यति, इति 'व्यभिचारात्' इत्यसिद्धो हेतुः, इत्याशङ्कयाह- 'वभिचारो येत्यादि'। यो मया व्यभिचारो हेतुत्वेनोक्तः, स चेत्थं सिद्धः। कथम्?, इत्याह- 'सदंसणमिति'। विभक्तिव्यत्ययात् स्वदर्शनादित्यर्थः। स्वस्याऽऽत्मनो मेर्वादिस्थितजिनगृहादिगतस्य दर्शनं स्वदर्शनं तस्मादिति। एतदुक्तं भवति- यथा ___ व्याख्याः- सोये हुए व्यक्तियों द्वारा 'मेरा यह मन यहां (अमूक स्थान में) गया था'- इस प्रकार का जो स्वप्न उपलब्ध (दिखाई) पड़ता है, वह जिस रूप में उपलब्ध होता है (वस्तुतः) उसी रूप में नहीं होता, अर्थात् स्वप्न में मोदक (लड्डू) जिस रूप में उपलब्ध होता है, वह पूर्वपक्षी आचार्यों द्वारा भी असद् ही माना जाता है। (प्रश्न-) कैसे? उत्तर दिया- व्यभिचारात्। वह अन्य रूप में ही दृष्टिगोचर होता है। (प्रश्न-) किसकी तरह वह असद् है? उत्तर दिया- (अलातचक्रमिव)। जैसे अलात (जलती लकड़ी, या मशाल) को गोलाकार में शीघ्रतया घुमाया जाय तो, यद्यपि वह चक्राकार नहीं होती, फिर भी भ्रान्तिवश चक्रवत् प्रतिभासित होती है, अतः (चक्राकार रूप में) वह सत्य नहीं होती, अपितु चक्राकार-विपरीत रूप में ही वह सत्य होती है, क्योंकि भ्रमण (गोलाकार घुमाने की क्रिया) को बन्द करने पर वह स्वाभाविक रूप में अ-चक्राकार रूप में ही (स्पष्ट) दिखाई देती है। इसी प्रकार, स्वप्न (में दृष्ट वस्तु) भी सत्य नहीं होती, क्योंकि (स्वप्न में) मेरु आदि में मन के जाने आदि (घटित) पदार्थ असद् रूप (ही) होते हैं। उनकी असत्यता इसलिए (स्पष्ट) है क्योंकि स्वप्न टूटने पर उनका सद्भाव नहीं (ही) रहता / (इसी प्रकार) उस (मन के मेरु आदि में गमन) का भी अभाव ही होता है, क्योंकि जागने पर मन की देह में ही स्थित रहने की अनुभूति होती है। (शंका-) (ऐसा भी तो हो सकता है कि) स्वप्न की स्थिति में मन मेरु आदि में जाकर, जागने की स्थिति में लौट आता (हो, और देहस्थित हो जाता) हो? तब आपने जो 'व्यभिचार' (विपरीत रूप में उपलब्ध होना -यह) हेतु दिया है, वह 'असिद्ध' हो जाता है। उक्त आशंका को दृष्टि में रखकर (भाष्यकार ने) उत्तर दिया- (व्यभिचारश्च -इत्यादि)। जो हमने 'व्यभिचार' हेतु दिया है, (वह असिद्ध नहीं, अपितु) इस प्रकार सिद्ध होता है। किस प्रकार? उत्तर दिया- (स्वदर्शनम्)। (प्रयोजनवश पदों में प्रायः) विभक्ति परिवर्तन (किया जाता है, जिस) के कारण अर्थ होगा-स्वदर्शन के आधार पर। 'स्व' अपने (शरीरादि) का (भी तो वैसा) दर्शन होता है, इसलिए / 'स्वदर्शन अर्थात् स्वयं अपने को, अपनी आत्मा को मेरु आदि में स्थित जिन-गृहों आदि में जाता हुआ देखा जाता है, Ma 330 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचिदात्मीयं मनः स्वप्ने मेर्वादौ गतं कश्चित् पश्यति, तथा कोऽपि शरीरमात्मानमपि नन्दनतरुकुसुमावचयादि कुर्वन्तं तद्गतं पश्यति, न च तत् तथैव, इहस्थितैः सुप्तस्य तस्याऽत्रैव दर्शनात्, द्वयोश्चात्मनोरसंभवात्, कुसुमपरिमलाद्यध्वजनितपरिश्रमाउनुग्रहोपघाताभावाच्च // इति गाथार्थः // 224 // एतदेव भावयन्नाह इह पासुत्तो पेच्छइ सदेहमन्नत्थ, न य तओ तत्थ। न य तग्गयोवघायाणुग्गहरूवं विबद्धस्स // 225 // [संस्कृतच्छाया:- इह प्रसुप्तः प्रेक्षते स्वदेहमन्यत्र, न च सकस्तत्र / न च तद्गत-उपघातानुग्रहरूपं विबुद्धस्य // ] इह जगति प्रसुप्तः कश्चित् स्वदेहमन्यत्र नन्दनवनादौ गतं स्वप्ने पश्यति। न च तकोऽसौ देहस्तत्र नन्दनवनादावुपपद्यते, इहस्थितैरन्यैस्तस्याऽत्रैवोपलम्भात्, इत्याद्यनन्तरोक्तयुक्ते : / न च विबुद्धस्य सतस्तद्गतयोरन्यत्र गमनगतयोरन्यत्र इसलिए (व्यभिचार हेतु सिद्ध है)। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वप्न में कभी अपने मन को मेरु आदि में गया हुआ देखता (अनुभव करता) है, वैसे ही कोई व्यक्ति अपने शरीर को (अर्थात् सशरीर स्वयं को) भी वहां जाकर (स्वर्गीय) नन्दन वन के वृक्षों से फूल एकत्रित करते हुए देखता (अनुभव करता) है, किन्तु वैसा होता नहीं। उस सोये हुए व्यक्ति को यहां लोग वहीं (पड़े हुए) देखते हैं, और आत्माएं दो तो हो नहीं सकतीं। दूसरी बात, (फूल की) सुगन्ध तथा मार्गगमन-जनित परिश्रम आदि अनुग्रह व उपघात (जो मेरु आदि में जाने वाले व्यक्ति में होने चाहिएं थे, उन) का सद्भाव नहीं देखा जाता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 224 // (स्वप्न अनुभूत क्रिया फलरहित) उपर्युक्त भावों को ही (अभिव्यक्त करते हुए भाष्यकार) कह रहे हैं // 225 // इह पासुत्तो पेच्छइ सदेहमन्नत्थ, न य तओ तत्थ / न य तग्गयोवघायाणुग्गहरूवं विबुद्धस्स // [(गाथा-अर्थ :) यहां सोया हुआ व्यक्ति अपने शरीर को अन्यत्र (गया हुआ) देखता है, किन्तु वह (शरीर वस्तुतः) वहां होता नहीं। साथ ही, जागने पर (अन्यत्र) गमन करने से होने वाले उपघात व अनुग्रह स्वरूप (का सद्भाव) भी (दृष्टिगोचर या अनुभूत) नहीं होता।] व्याख्याः- इस संसार में कोई सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में देखता है कि उसका शरीर अन्यत्र, नन्दन-वन आदि में गया हुआ है। किन्तु, चूंकि यहां विद्यमान अन्य लोगों को (उसका) वह (शरीर) यहीं उपलब्ध (दृष्टिगोचर) होता है- इत्यादि पहले कही हुई युक्ति के आधार पर (यह निर्विवाद है कि) उसका वही शरीर नन्दन वन आदि में उत्पन्न नहीं होता (पहुंच नहीं जाता)। (इतना ही नहीं,) जब वह जागता है तब, जो वहां जाने पर, अन्यत्र गमन करने पर होने वाले, जैसे कि फूलों .----- विशेषावश्यक भाष्य --------331 4 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमनविषययोरनुग्रहोपघातयो रूपं कुसुमपरिमल-मार्गपरिश्रमादिकं स्वरूपम्पलभ्यते। तस्मात् स्वापावस्थायामपि नाऽन्यत्र मनसो , गमनम्, देहगमनदर्शनेन व्यभिचारात् // इति गाथार्थः // 225 // अत्र विबुद्धस्य सतस्तद्गतानुग्रहोपघातानुपलम्भाद् इत्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावानार्थं परः प्राह: दीसंति कासइ फुडं हरिस-विसादादयो विबुद्धस्स। सिमिणाणुभूयसुह-दुक्ख-रागदोसाइलिंगाई॥२२६॥ [संस्कृतच्छाया:- दृश्यन्ते कस्यचित् स्फुटं हर्षविषादादयो विबुद्धस्य। स्वप्नानुभूत-सुखदुःखरागद्वेषादिलिङ्गानि // ] इह कस्यचित् पुरुषस्य स्वप्नोपलम्भानन्तरं विबुद्धस्य सतः स्फुटं व्यक्तं दृश्यन्ते हर्ष-विषादादयः, आदिशब्दादुन्मादमाध्यस्थ्यादि-परिग्रहः। कथंभूता ये हर्ष-विषादादयः? इत्याह- "सिमिणेत्यादि'। स्वप्ने जिनस्नात्रदर्शनादौ यदनुभूतं सुखं, समीहिताऽर्थाऽलाभादौ यदनुभूतं दुःखं, तयोर्विषये यथासंख्यं यौ राग-द्वेषौ तयोलिङ्गानि चिह्नानि- हर्षः स्वप्नानुभूतसुखं रागस्य लिङ्ग, विषादस्तु तदनुभूतदुःखद्वेषस्य लिङ्गमिति भावः। तत्रकी सुगन्धि एवं मार्ग में चलने से थकान आदि स्वरूप वाले -(जो) अनुग्रह व उपघात (होते हैं, उन) की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए (मानना चाहिए कि) सोने की स्थिति में भी मन अन्यत्र नहीं गया था, और (स्वप्न में) शरीर का (अन्यत्र) गमन जो देखा जाता है, उसमें (तो स्पष्ट) व्यभिचार है (ही)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 225 // ___ जागे हुए व्यक्ति में (स्वप्न-अनुभूत अन्यत्र) गमन से होने वाले अनुग्रह व उपघात की उपलब्धि नहीं होती -इस हेतु की असिद्धता के उद्भावन हेतु अब पूर्वपक्षी की ओर से कथन इस . प्रकार है // 226 // दीसंति कासइ फुडं हरिस-विसादादयो विबुद्धस्स। सिमिणाणुभूयसुह-दुक्ख-रागदोसाइलिंगाइं॥ [(गाथा-अर्थ :) किसी-किसी 'जागे हुए व्यक्ति में हर्ष-विषाद आदि के स्पष्ट दर्शन होते हैं जो (निश्चित ही) स्वप्न में अनुभूत सुख, दुःख, राग व द्वेष आदि के ही चिन्ह होते हैं (अतः स्वप्नानुभूति जनित अनुग्रह व उपघात का सद्भाव ही है, अतः 'अनुग्रह-उपघात-अभाव' रूप हेतु असिद्ध है)।] व्याख्याः- यहां किसी-किसी व्यक्ति को स्वप्न देखने के बाद जागने पर उसे स्पष्ट-अभिव्यक्त रूप से हर्ष, विषाद आदि होते देखे जाते हैं। 'आदि' पद से उन्माद, माध्यस्थ्य (वीतरागता) आदि का ग्रहण करना यहां अभीष्ट है। ये हर्ष व विषाद आदि कैसे हैं? उत्तर दिया- (स्वप्नानुभूत इत्यादि)। स्वप्न में जिनेन्द्र (की मूर्ति) का स्नान होते देखने आदि में जो सुख अनुभूत हुआ, या अभीष्ट पदार्थ के न मिलने पर जो दुःख अनुभूत हुआ, उनसे सम्बन्धित क्रमशः जो राग या द्वेष, उनके ही ये लिंगचिन्ह हैं। तात्पर्य यह है कि स्वप्नों में अनुभूत सुख के प्रति राग का चिन्ह है- हर्ष / और स्वप्न में अनुभूत दुःख के प्रति द्वेष का चिन्ह है- विषाद / उदाहरणार्थMa 332 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्ने दृष्टो मयाद्य त्रिभुवनमहितः पार्श्वनाथः शिशुत्वे द्वात्रिंशद्धिः सुरेन्द्ररहमहमिकया स्नाप्यमानः सुमेरौ / तस्माद् मत्तोऽपि धन्यं नयनयुगमिदं येन साक्षात् स दृष्टो द्रष्टव्यो, यो महीयान् परिहरति भयं देहिनां संस्मृतोऽपि॥१॥ इत्यादिस्वप्नानुभूतसुखरागलिङ्गं हर्षः, तथाप्राकारत्रयतुङ्गतोरणमणिप्रेवत्प्रभाव्याहता नष्टाः क्वापि रवेः करा द्रुततरं यस्यां प्रचण्डा अपि। तां त्रैलोक्यगुरोः सुरेश्वरवतीमास्थायिकामेदिनीं हा! यावत् प्रविशामि तावदधमा निद्रा क्षयं मे गता // 1 // इत्यादिकः स्वप्नानुभूतदुःखद्वेषलिङ्ग विषादः, अत्यन्तकामोद्रेकादिलिङ्गमुन्मादः, मुनेस्तु माध्यस्थ्यम्, इति "विबुद्धस्याऽनुग्रहोपघातानुपलम्भात्" इत्यसिद्धो हेतुः॥ इति गाथार्थः // 226 // अत्रोत्तरमाह "स्वप्न में मैंने देखा कि त्रैलोक्यपूज्य (जिनेन्द्र तीर्थंकर) पार्श्वनाथ शिशु अवस्था में हैं और सुमेरु पर्वत पर उन्हें 32 देवेन्द्र 'अहमहमिका' (मैं पहले, मैं पहले -इत्यादि स्पर्द्धा) के साथ नहला रहे थे। "इसलिए मुझ से भी (अधिक) धन्य मेरे दोनों नेत्र हैं जिन्होंने उन दर्शनीय (जिनेन्द्र) का साक्षात् दर्शन किया। वे (जिनेन्द्र) इतने अधिक महान् हैं कि प्राणियों द्वारा मात्र स्मरण किये जाने पर भी (प्राणियों) के भय को दूर करते हैं।' इत्यादि स्वप्न में अनुभूत सुख के प्रति राग का चिन्ह हर्ष है। और- "(अहा!) त्रैलोक्यगुरु (तीर्थंकर) की सभा-भूमि (समवसरणभूमि का क्या कहना)! जिसके तीन ‘प्राकार' (प्राचीर, विस्तृत दालान) के उच्च तोरणों में लगी मणियों की प्रभा से टकरा कर सूर्य की प्रचण्ड किरणें भी तुरन्त (न जाने) कहां नष्ट (हतप्रभ, प्रभाहीन, निष्प्रभाव) हो जाती हैं, और जहां (श्रोता व सेवक रूप में) देवेन्द्र भी स्थित हैं, उस (सभाभूमि) में मैं ज्यों ही प्रविष्ट हो रहा था, तभी मेरी अधम निद्रा (अकस्मात्) टूट गई!" _ इत्यादि स्वप्न में अनुभूत दुःख के प्रति होने वाले द्वेष का चिन्ह विषाद (उत्पन्न होता) है। (इसी तरह) अत्यन्त काम-उद्रेक आदि का चिन्ह उन्माद (भी होता) है, किन्तु मुनि (की भूमिका में स्थित) को मध्यस्थता (वीतरागता) आदि (के भाव) होते हैं। इसलिए 'जागने पर अनुग्रह व उपघात - उपलब्ध नहीं होते' -यह हेतु असिद्ध हो जाता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 226 // अब (उपर्युक्त) पूर्वपक्ष द्वारा किये गये दोषारोपण का (भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 333 र Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सिमिणविण्णाणाओ हरिस-विसासादयो विरुझंति। किरियाफलं तु तित्ती-मद-वह-बंधादओ नत्थि // 227 // [संस्कृतच्छाया:-न स्वप्नविज्ञानात् हर्षविषादादयो विरुद्धयन्ते। क्रियाफलं तु तृप्ति-मद-वध-बन्धादयो न सन्ति // ] स्वप्ने सुखानुभवादिविषयं विज्ञानं स्वप्नविज्ञानं तस्मादुत्पद्यमाना हर्ष-विषादादयो न विरुध्यन्ते-न तान् वयं निवारयामः, जाग्रदवस्थाविज्ञानहर्षादिवत्। तथाहि- दृश्यन्ते जाग्रदवस्थायां केचित् स्वमुत्प्रेक्षितसुखानुभवादिज्ञानाद् हृष्यन्तः, द्विषन्तो वा। ततश्च .. दृष्टस्य निषेद्धमशक्यत्वात् स्वप्नविज्ञानादपि नैतन्निषेधं ब्रूमः। तर्हि किमुच्यते भवद्भिः?, इत्याह-'किरियेत्यादि / क्रिया भोजनादिका तस्याः फलं तृप्त्यादिकं तत् पुनःस्वप्नविज्ञानाद् नास्त्येव, इति ब्रूमः। तदेव क्रियाफलं दर्शयति- 'तित्तीत्यादि / तत्र तृप्तिर्बुभुक्षाद्युपरमलक्षणा, मदः सुरापानादिजनितविक्रियारूपः, वधः शिरश्छेदादिसमुद्भूतपीडास्वरूपः, बन्धो निगडादिनियन्त्रणस्वभावः, आदिशब्दाज्जलज्वलनादिप्रवेशात् क्लेददाहादिपरिग्रहः। यदि ह्येतत् तृप्त्यादिकं भोजनादिक्रियाफलं स्वप्नविज्ञानाद् भवेत्, तदा विषयप्राप्तिरूपा प्राप्यकारिता मनसो युज्येत, न चैतदस्ति, तथोपलम्भस्यैवाभावात् // इति गाथार्थः // 227 // // 227 // न सिमिणविण्णाणाओ हरिस-विसासादयो विरुज्झंति। किरियाफलं तु तित्ती-मद-वह-बंधादओ नत्थि // [(गाथा-अर्थ :) स्वप्नविज्ञान (स्वप्न में की जाने वाली मनःकल्पित अनुभूति) से होने वाले हर्ष व विषाद आदि का हम विरोध नहीं करते। किन्तु (हमारा तो कहना यह है कि स्वप्न में हुई भोजनादि) क्रिया के तृप्ति, मद (नशा), वध, बन्ध आदि परिणामों का (जागे व्यक्ति में) सद्भाव नहीं होता।] व्याख्याः- स्वप्न में सुख अनुभव आदि विषयक विज्ञान (अनुभूति) ही 'स्वप्नविज्ञान' है। उस (स्वप्नविज्ञान) से हर्ष व विषाद आदि के होने का हम विरोध नहीं कर रहे हैं, (अर्थात्) जागृत अवस्था के विज्ञान से सम्बन्धित हर्ष आदि की तरह ही हम उनका निषेध नहीं कर रहे हैं। और, जागृत अवस्था में (भी) स्वतःकल्पित (उत्प्रेक्षित) सुख के अनुभव आदि ज्ञान से कई लोग हर्षित या द्वेषयुक्त होते हुए देखे जा (सक)ते हैं। इसलिए जो दृष्ट (प्रत्यक्ष) है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता, अतः स्वप्नविज्ञान से भी उनके होने का निषेध हम नहीं कर रहे हैं। (प्रश्न-) तब आप क्या कह(ना चाह) रहे हैं? उत्तर दे रहे हैं- (क्रियाफलं तु- इत्यादि)। स्वप्न में की जाने वाली भोजनादिक क्रियाएं, उसके फल- तृप्ति आदि, वे स्वप्न विज्ञान से नहीं होते -ऐसा हमारा कहना है। उसी क्रिया-फलों का निदर्शन कर रहे हैं- ('तृप्ति-मद' इत्यादि)। तृप्ति यानी भूख आदि की शांति / मद अर्थात् (स्वप्न में किये गये) मदिरा-पान आदि से होने वाला शारीरिक विकार। वध अर्थात् (स्वप्न में अनुभूत) शिरश्छेद (अपने मस्तक का कट जाना) आदि से होने वाली पीड़ा। बन्ध अर्थात् (स्वप्न में) बेड़ी से बंधना आदि (की क्रिया से युक्त होना)। 'आदि' शब्द से (स्वप्न में हुए) SA 334 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्वप्नानुभूतक्रियाफलं जाग्रदवस्थायामपि परो दर्शयन्नाह__सिमिणे वि सुरयसंगमकिरियासंजणियवंजणविसग्गो। पडिबुद्धस्स वि कस्सइ दीसइ सिमिणाणुभूयफलं // 228 // [संस्कृतच्छायाः- स्वप्नेऽपि सुरत-संगमक्रियासंजनितव्यञ्जनविसर्गः।प्रतिबुद्धस्यापि कस्यचिद् दृश्यते स्वप्नानुभूतफलम्॥] स्वप्नेऽपि सुरतार्थं सुरतार्था याऽसौ कामिनः कामिनीजनेन, कामिन्या वा कामिजनेन सह संगमक्रिया तत्संजनितो व्यञ्जनस्य शक्रपदगलसंघातस्य विसर्गो निसर्ग:स्वप्नानुभूतसुरतसंगमक्रियाफलरूपः प्रतिबद्धस्याऽपि कस्यचित् प्रत्यक्ष एव दृश्यते, तद्दर्शनाच्च स्वप्ने योषित्संगमक्रियाऽनुमीयते। तथाहि- यत्र व्यञ्जनविसर्गस्तत्र योषित्संगमेनापि भवितव्यम्, यथा वासभवनादौ, तथा च स्वप्ने, ततोऽत्रापि योषित्प्राप्त्या भवितव्यम्, इति कथं न प्राप्तकारिता मनसः? इति भावः॥ इति गाथार्थः॥२२८॥ जलप्रवेश या अग्निप्रवेश से गीला होना या शरीर-दाह होने आदि का ग्रहण अभिप्रेत है। भोजनादि क्रियाओं के उक्त तृप्ति आदि फल अगर स्वप्नविज्ञान से (जनित) होते हों, तब तो मन की विषयस्पृष्टता रूप अप्राप्यकारिता संगत हो सकती है, किन्तु वे (क्रियाफल फलित) नहीं होते, क्योंकि (जागे व्यक्ति में) इनकी उपलब्धि होती ही नहीं // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 227 // अब, पूर्वोक्त कथन के विरोध में पूर्वपक्षी की ओर से यह बताया जा रहा है कि 'स्वप्न में अनुभूत क्रिया के फल का जागृत अवस्था में भी सद्भाव है' // 228 // सिमिणे वि सुरयसंगमकिरियासंजणियवंजणविसग्गो। पडिबुद्धस्स वि कस्सइ दीसइ सिमिणाणुभूयफलं // [(गाथा-अर्थ :) स्वप्न में भी हुई सुरतरूप संगम-क्रिया के कारण किसी-किसी जागृत व्यक्ति के भी वीर्य-क्षरण का होना दृष्टिगोचर होता है जो स्वप्नानुभूति का फल (ही तो) है (तब आप जागृत अवस्था. में क्रियाफल का अभाव कैसे बता रहे हैं- ऐसा पूर्वपक्ष का कथन है)।] . व्याख्याः- स्वप्न में भी सुरत (-सुख) हेतु कामुक पुरुष की कामिनी-जन के साथ या कामिनी की कामीजन के साथ जो संगम-क्रिया होती है, उसी के कारण, किसी-किसी (नींद से) जागे व्यक्ति में व्यञ्जन यानी वीर्य रूप पुद्गल-समूह का क्षरण भी होता है, और स्वप्न में अनुभूत सुरत-संगम क्रिया का यह प्रत्यक्ष फल दृष्टिगोचर होता (ही) है, उसके दर्शन के आधार पर स्वप्न में किसी स्त्री के साथ संगम-क्रिया के होने का अनुमान होता है। जैसे- जहां वीर्य-क्षरण हुआ है तो वहां स्त्री-संगम भी होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि (जैसे यह अनुमान) निवास-गृह आदि में (सत्य होता) है, उसी तरह स्वप्न में भी (सत्य) होना चाहिए। इसलिए यहां (स्वप्न में) भी यह मानना पड़ेगा कि स्त्री-स्पर्श हुआ है। इस प्रकार, मन की प्राप्यकारिता कैसे (मान्य) नहीं है? यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 228 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 335 र Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ योषित्संगमे साध्ये व्यञ्जनविसर्गहेतोरनैकान्तिकतामपदर्शयन्नाह सो अज्झवसाणकओ जागरओ वि जह तिव्वमोहस्स। तिव्वज्झवसाणाओ होइ विसग्गो तहा सुमिणे // 229 // [संस्कृतच्छाया:-सोऽध्यवसानकृतो जाग्रतोऽपि यथा तीव्रमोहस्य। तीव्राध्यवसानाद् भवति विसर्गस्तथा स्वप्ने॥] स्वप्ने योऽसौ व्यञ्जनविसर्ग:स तत्प्राप्तिमन्तरेणाऽपि- 'तां कामिनीमहं परिषजामि' इत्यादिस्वमत्युत्प्रेक्षिततीव्राध्यवसायकृतो वेदितव्यः। कस्येव?, इत्याह- जाग्रतोऽपि तीव्रमोहस्य प्रबलवेदोदययुक्तस्य कामिनी स्मरतश्चिन्तयतो दृढं ध्यायतः प्रत्यक्षामिव पश्यतो बुद्धया परिषजतः परिभुक्तामिव मन्यमानस्य यत् तीव्राध्यवसानं तस्माद् यथा व्यञ्जनविसर्गो भवति, तथा स्वप्नेऽपि नितम्बिनीप्राप्तिमन्तरेणाऽपि स्वयमुत्प्रेक्षिततीव्राध्यवसानादसौ मन्तव्यः, अन्यथा तत्क्षण एव प्रबुद्धः सन्निहितां प्रियतमामुपलभेत, तत्कृतानि च स्वप्नोपलब्धानि नख-दन्त-पदादीनि पश्येत्, न चैवम्, तस्मादनैकान्तिकता हेतोः॥ इति गाथार्थः // 229 // अब, (पूर्वपक्ष का प्रत्युत्तर देने की दृष्टि से भाष्यकार) स्त्री-संगम रूपी साध्य की सिद्धि में वीर्य-क्षरण रूप हेतु 'अनेकान्तिक' (दोष से दूषित) है- इसे बता रहे हैं // 229 // सो अज्झवसाणकओ जागरओ विजह तिब्वमोहस्स। तिव्वज्झवसाणाओ होइ विसग्गो तहा सुमिणे // -[(गाथा-अर्थ :) जिस प्रकार जागते हुए व्यक्ति को तीव्र मोह के कारण (कामिनी-संगमसम्बन्धी) तीव्र अध्यवसान से वह (वीर्य-क्षरण) होता है, उसी प्रकार स्वप्न में भी तीव्र अध्यवसान के कारण (वीर्य का) क्षरण होता है (अतः स्त्री-स्पर्श के बिना भी वीर्य-क्षरण होने से, वीर्यक्षरण रूप हेतु की अनैकान्तिकता, अनैकान्तदोषग्रस्तता स्पष्ट है)।] व्याख्या:- स्वप्न में जो वीर्य-क्षरण होता है, वह उस (स्त्री) की प्राप्ति.(स्पर्श आदि) हुए बिना भी, 'उस कामिनी को मैं आलिंगन कर रहा हूं' इत्यादि स्वबुद्धिकल्पित तीव्र अध्यवसान (भावोद्रेक) के कारण से होता है- ऐसा जानना (समझना) चाहिए। (प्रश्न-) किस की तरह? उत्तर दिया- जिस प्रकार जागृत अवस्था में भी जो व्यक्ति तीव्र मोह से ग्रस्त एवं प्रबल 'वेद' (कामुक पुरुषत्व) के उदय से युक्त है, वह कामिनी के स्मरण-चिन्तन व दृढ़ ध्यान करते हुए, किसी स्त्री को मानों प्रत्यक्ष देखता है और उसे आलिंगन करता है और यह समझ लेता है कि उसने उस कामिनी का (भोग) उपभोग कर लिया, इस तरह उसका जो तीव्र अध्यवसान होता है, उसी के कारण वीर्य-क्षरण हो जाता है, उसी प्रकार स्वप्न में भी किसी महिला की प्राप्ति (स्पर्श) के बिना भी स्वयं कल्पित तीव्र अध्यवसान के आधार पर इस (वीर्य-क्षरण) का होना मानना चाहिए, अन्यथा (वास्तविक स्त्री-स्पर्श से जनित मानें तो) उसी क्षण ही जागृत हुए व्यक्ति को निकटस्थ प्रियतमा उपलबध होनी चाहिए, और उस Via 336 -------- विशेषावश्यक भाष्य --. ------ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च, . सुरयपडिवत्ति-रइसुह-गब्भाहाणाइ इहरहा होज्जा। सुमिणसमागमजुवईए, न यजओ ताई तो विफला॥२३०॥ [संस्कृतच्छाया:- सुरतप्रतिपत्ति-रतिसुख-गर्भाधानादि इतरथा भवेत्। स्वप्नसमागम-युवते: न च यतस्तान्यतो विफला॥] इतरथा- स्वप्ने सुरतक्रियया योऽसौ व्यञ्जनविसर्गः स यदि योषित्प्राप्त्यव्यभिचारी स्यात्, तदा सुरतोपभुक्तयुवतेरपि 'सुरतक्रियाऽमुकेन सह मयाऽनुभूता' इत्येवंरूपा सुरतप्रतिपत्तिः स्यात्, तथा, रतिसुखं, गर्भाऽऽधानादिकं च भवेत्; आदिशब्दादुदरवृद्धिदोहद-पुत्रजन्मादिपरिग्रहः। यतश्च नैतानि तस्याः समुपलभ्यन्ते, अतो विफलैव सा स्वप्नसुरतक्रिया, विशिष्ट स्य परिभुक्तकामिनीगर्भाधानादिफलस्याभावात्। संयोग-क्रिया में किये हुए तथा स्वप्न में अनुभूत नख-दन्त के चिन्ह दिखाई पड़ने चाहिएं। किन्तु ऐसा होता नहीं (वे चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते, और न ही कोई कामिनी निकटस्थ दिखाई पड़ती है)। इसलिए (वीर्य-क्षरण रूप) हेतु (स्त्री-स्पर्श के बिना भी उपलब्ध होने से) अनैकान्तिक दोष से दूषित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 229 // - और // 230 // सुरयपडिवत्ति-रइसुह-गब्भाहाणाइ इहरहा होज्जा। सुमिणसमागमजुवईए, न यजओ ताईतो विफला // [(गाथा-अर्थ :) अन्यथा (यदि स्त्री-स्पर्शादि से ही वीर्य-क्षरण होना आदि मानें तो) स्वप्न में जिस युवती से समागम (रति-सुख) अनुभूत होता है, उसी से सुरत-क्रिया की प्रतिपत्ति (समग्रतः' पूर्णता), रति-सुख व गर्भाधान आदि भी होने चाहिएं, किन्तु वे (सब) नहीं होते, अतः (स्वप्न की सुरत-क्रिया) विफल रहती है, अर्थात् उसका कोई फल या परिणाम होता ही नहीं।] व्याख्याः- (इतरथा) स्वप्न में सुरत-क्रिया से जो वीर्य-क्षरण होता है, उसे यदि स्त्री-स्पर्श के साथ अव्यभिचरित माना जाय (बिना स्त्री-स्पर्श के वीर्यक्षरण होना न माना जाय) तो सुरत-क्रिया में उपभुक्त होने वाली युवती से सम्बद्ध 'अमुक (स्त्री) के साथ मैंने रति-क्रिया का अनुभव किया है', इस प्रकार की सुरत-प्रतिपत्ति (समस्त दृष्टियों से पूर्णता) भी होनी चाहिए, तथा रति-सुख, गर्भाधान . आदि भी होने चाहिएं। 'आदि' पद से (गर्भाधान से) पेट का बढ जाना, दोहद (विशेष आहारादिअभिलाषा), पुत्र-जन्म आदि का ग्रहण अभीष्ट है। चूंकि (स्त्री-सम्बन्धी) ये (उक्त) चिन्ह उपलब्ध नहीं होते, अतः स्वप्नगत सुरत-क्रिया फलहीन ही है, क्योंकि उपभोग की गई कामिनी तथा उसमें होने वाले गर्भाधान आदि विशिष्ट फल उपलब्ध नहीं होते। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 337 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- न स्वप्ने योषित्प्राप्तिपूर्विका विशिष्टा सुरतक्रिया, नापि विशिष्टं गर्भाऽऽधानादिकं तत्फलं; या तु तीव्रवेदोदयाविर्भूताऽध्यवसायमात्रकृता निधुवनक्रिया, सा व्यञ्जनविसर्गमात्ररूपेणैव फलेन, न विशिष्टेन, इति तदपेक्षया सां 'विफला' इत्युच्यते। अतो यथोक्तविशिष्टफलाभावात् फलमात्राद् योषित्प्राप्त्यसिद्धेश्च न प्राप्यकारिता मनस इति भावः। इति गाथार्थः // 230 // पुनरप्याह पर: नणु सिमिणओ वि कोई सच्चफलो फलइ जो जहा दिट्ठो। ननु सिमिणम्मि निसिद्धं किरिया किरियाफलाई च॥२३१॥ [संस्कृतच्छाया:- ननु स्वप्नकोऽपि कश्चित् सत्यफलः फलति यो यथा दृष्टः। ननु स्वप्ने निषिद्ध क्रिया क्रियाफलानि च॥] ननु स्वप्नोऽपि कश्चित् सत्यं फलं यस्याऽसौ सत्यफलो दृश्यते। कः?, इत्याह- यो यथा येन प्रकारेण राज्यलाभादिना दृष्टस्तेनैव फलति- राज्यादिफलदायको भवतीत्यर्थः, तत् किमिति स्वप्नोपलब्धं मनसो मेरुगमनादिकं सत्यतया नेष्यते? इति भावः। अनोत्तरमाह-'नन्वित्यादि'।नन्वयुक्तोपालम्भोऽयम्, सर्वथा स्वप्नसत्यत्वस्याऽस्माभिरनिषिध्यमानत्वात्। तर्हि किं निषिध्यते?, इत्याह तात्पर्य यह है कि स्वप्न में किसी स्त्री की प्राप्ति (स्पर्श) के साथ कोई विशिष्ट सुरंत-क्रिया नहीं होती, और न ही उनका गर्भाधान आदि कोई विशिष्ट फल ही (प्रत्यक्ष होता) है। किन्तु तीव्र 'वेद' (विपरीत लिङ्ग के साथ रति-इच्छा) के उदय के कारण उत्पन्न अध्यवसाय मात्र से मैथन-क्रिया सम्पन्न होती है, वह मात्र वीर्य-क्षरण (सामान्य) फल के साथ ही सफल होती है, किन्तु विशिष्ट फल से युक्त नहीं होती, इस अपेक्षा से उसे विफल (फलरहित)। कहा जाता है। इसलिए पूर्वोक्त विशिष्ट फल का सद्भाव न होने से, मात्र (सामान्य) फल के आधार पर स्त्री-स्पर्श होना सिद्ध नहीं होता। अतः मन की प्राप्यकारिता (भी) नहीं सिद्ध होती -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 230 // अब, पूर्वपक्षी पुनः (अपने मत को पुष्ट करने के लिए) कह रहा है // 231 // नणु सिमिणओ वि कोई सच्चफलो फलइ जो जहा दिह्रो / ननु सिमिणम्मि निसिद्धं किरिया किरियाफलाइं च // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) कोई-कोई स्वप्न भी सत्यफल वाला होता है, जो जैसा देखा जाता है उसी रूप में फलित होता है। (उत्तर-) हमने स्वप्न में (मेरुगमनादि) क्रिया और उस क्रिया के (थकावट आदि) फल -इन दोनों (के सत्य होने) का ही निषेध किया है (न कि समस्त स्वप्नों की सत्यता का)] व्याख्याः- (पूर्वपक्षी की ओर से शंका-) किसी-किसी स्वप्न का भी तो फल सत्य (यथार्थ) होता देखा जाता है। कौन सा स्वप्न? उत्तर दिया- (यः यथा)। जो जिस प्रकार से, राज्य लाभ आदि रूप में देखा गया, उसी रूप में फलित (घटित) होता है, अर्थात् राज्य-लाभ देने वाला (सिद्ध) होता है। तात्पर्य यह है कि तब आप (पूर्वपक्षी, स्वप्न में) मन की मेरु-गमनादि क्रिया को भी सत्य क्यों नहीं मान लेते? (पूर्वोक्त शंका का उत्तर भाष्यकार) दे रहे हैं- (ननु स्वप्ने इत्यादि)। 'ननु' यह पद यह Via 338-------- विशेषावश्यक भाष्य -------- Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्ने क्रिया मेरुगमनादिका, अध्वश्रम-कुसुमपरिमलादीनि क्रियाफलानि च, इत्येतद्वयमस्माभिः प्रागुक्तयुक्तेःसत्यतया निषिद्धम् // इति गाथार्थः॥२३१॥ तर्हि किं तत्, यत् स्वप्ने भवद्भिर्न निषिध्यते?, इत्याह वण्णाणं तप्फलं च सि सिमिणयनिमित्तभावं फलं च तं को निवारेइ?॥२३२॥ [संस्कृतच्छाया:- यत् पुनर्विज्ञानं तत्फलं च स्वप्ने विबुद्धमात्रस्य / स्वप्नकनिमित्तभावं फलं च तत् को निवारयति॥] यत्पुनः स्वप्ने जिनस्नात्रदर्शनादिकं विज्ञानं, यच्च स्वप्ने विबुद्धमात्रस्य च हर्षादिकं तत्फलं, तदनुभवादिसिद्धत्वात्को निवारयति?, तथा, यो भविष्यत्फलापेक्षया स्वप्नस्य निमित्तभावः स्वप्ननिमित्तभावस्तं च को वा निवारयति?, यच्च तस्मात् स्वप्ननिमित्तादवश्यंभावि भविष्यत्फलं तदपि को निवारयति?। यदेव हि मेरुगमनक्रियादिकं युक्त्या नोपपद्यते तदेव निषिध्यते, न त्वेतानि विज्ञानादीनि, युक्त्युपपन्नत्वात्। न चैतैरभ्युपगतैरपि मनसः प्राप्यकारिता काचित् सिध्यतीति भावः॥ इति गाथार्थः // 232 // बता रहा है कि (शंकाकार का) यह उपालम्भ अयुक्तियुक्त (ही) है, क्योंकि हम स्वप्न की सत्यता का सर्वथा निषेध तो नहीं करते। (प्रश्न-) तो किस बात का निषेध कर रहे हैं? उत्तर दिया- (स्वप्ने क्रिया)। स्वप्न में मेरु-गमन आदि जो क्रिया होती है, और शारीरिक थकान, फूलों की सुगन्ध आदि क्रिया का फल -इन दोनों की सत्यता का हम पूर्वोक्त रीति से निषेध करते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 231 // (स्वप्न की घटना भावी फल की निमित्त) तो फिर वह क्या है जिसका आप स्वप्न में होने का निषेध करते हैं? अब (पूर्वपक्षी की इस आशंका को मन में रख कर) भाष्यकार कह रहे हैं // 232 // .' जं पुण विण्णाणं तप्फलं च सिमिणे विबुद्धमेत्तस्स। ....... सिमिणयनिमित्तभावं फलं च तं को निवारेइ? | [(गाथा-अर्थ :) स्वप्न में जो विज्ञान (अनुभूति) होती है उसका, और जागते ही उसका जो फल है, उसका, और (इसके अतिरिक्त) स्वप्न के निमित्त से होने वाला भावी फल -इन (तीनों) का कौन निषेध करता है?] व्याख्याः- फिर स्वप्न में जिनेन्द्र के स्नान की क्रिया के देखने आदि का जो विज्ञान (अनुभव) होता है, और स्वप्न से जागते ही जो हर्ष आदि फल होते हैं, वे तो अनुभव आदि से सिद्ध ही हैं, अतः उनका निषेध कौन करता है? और जो भावी फल की अपेक्षा से स्वप्न का (उस फल के प्रति जो) निमित्तपना है, उसका (भी) कौन निषेध करता है? और उस स्वप्न रूपी निमित्त से जो भावी फल अवश्य घटित होता है, उसका भी कौन निषेध करता है? किन्तु जो (स्वप्न में अनुभूत) मेरुममन आदि क्रियाएं युक्ति-संगत नहीं होतीं, उन्हीं का हम निषेध करते हैं, न कि इन युक्तिसंगत a ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 339 र Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिति पुनः स्वप्नस्य निमित्तभावो न निवार्यते?, इत्याशक्याह देहप्फुरणं सहसोइयं च सिमिणो य काइयाईणि। सगयाई निमित्ताई सुभासुभफलं निवेएंति // 233 // [संस्कृतच्छाया:- देहस्फुरणं सहसोदितं च स्वप्नश्च कायिकादीनि। स्वगतानि निमित्तानि शुभाशुभफलं निवेदयन्ति // ] स्वस्मिन्नात्मनि गतानि स्थितानि स्वगतानि निमित्तानि, एतानि शास्त्रे, लोकेऽपि च प्रसिद्धानि भविष्यच्छुभाशुभफलं निवेदयन्ति। कानि पुनस्तानि?, इत्याह- कायिकम्, आदिशब्दाद् वाचिकं, मानसं च। एतान्येव क्रमेण दर्शयति- कायिकं बाह्यादौ देहस्फुरणं भविष्यच्छुभाशुभफलं निवेदयति, वाचिकं तु सहसोदितं-सहसाऽकस्मादेवोदितं सहसोदितं सहसैव तत् किमपि वदत आगच्छति यत् भविष्यच्छुभाऽशुभफलमावेदयति, मानसं तु निमित्तं स्वप्ने, इत्येतानि को निवारयति?, लोक-शास्त्रप्रसिद्धस्य, युक्त्युपपन्नस्य च निषेधुमशक्यत्वात् // इति गाथार्थः // 233 // विज्ञान आदि का। किन्तु इनका सद्भाव स्वीकार करने पर भी मन की कोई प्राप्यकारिता सिद्ध नहीं होती -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 232 // तो आप (घटित होने वाले शुभ-अशुभ फलों में) स्वप्न के निमित्तपने का निषेध आखिर क्यों नहीं करते? (पूर्वपक्षी की ओर से प्रस्तुत) इस आशंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार स्व-मत का) कथन कर रहे हैं // 233 // देहप्फुरणं सहसोइयं च सिमिणो य काइयाईणि। , सगयाइं निमित्ताइं सुभासुभफलं निवेएंति || [(गाथा-अर्थ :) देह-स्फुरण (शरीर के किसी अङ्ग का फड़कना), अकस्मात् (मुख से) निकले वचन, एवं स्वप्न -ये कायिक (वाचिक व मानसिक) आदि स्वगत (स्वतः प्रादुर्भूत) निमित्त (भावी) शुभ-अशुभ फलों के सूचक होते (देखे जाते) हैं।] . व्याख्या:- अपने में, स्वयं में (बिना किसी अन्य प्रेरक के) होने वाले (कुछ) निमित्त (चिन्ह), जो शास्त्र व लोक में भी प्रसिद्ध हैं, भावी शुभ-अशुभ फलों की सूचना देते हैं। वे (निमित्त) कौन-कौन से हैं? उत्तर दिया- (कायिकादीनि)। कायिक आदि (निमित्त होते हैं)। 'आदि' पद से वाचिक व मानसिक का भी ग्रहण यहां अभीष्ट है। इन्हीं को क्रमशः (भाष्यकार) बता रहे हैं- बाहु आदि में देह (के किसी भाग) का स्फुरित होना कायिक (निमित्त) भावी शुभ-अशुभ फल की सूचना देता है। (इसी प्रकार,) सहसा, अकस्मात् ही, बोलते-बोलते कुछ (असम्बद्ध, अप्रासंगिक रूप में) उच्चरित हो जाना है, वह भी भावी शुभ-अशुभ फल की सूचना देता है। इन सब (कायिक आदि निमित्तों) का कौन निषेध करता हैं? क्योंकि जो लोक व शास्त्र में प्रसिद्ध हों तथा जो युक्तिसंगत हों, उनका निषेध तो (कभी) किया नहीं जा सकता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 233 // Ma 340 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आह- ननु स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये वर्तमानस्य द्विरददन्तोत्पाटनादिप्रवृत्तस्य स्वप्ने मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वको व्यञ्जनावग्रहश्च सिद्ध्यति / तथाहि- स तस्यामवस्थायां द्विरददन्तोत्पाटनादिकं सर्वमिदमहं स्वप्ने पश्यामि' इति मन्यते, इत्ययं स्वप्नः, मनोविकल्पपूर्विकां च दशनाद्युत्पाटनक्रियामसौ करोति / इति मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वकश्च मनसो व्यञ्जनावग्रहो भवत्येव, इत्याशक्याह सिमिणमिव मन्नमाणस्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया। होज व, न उसा मणसो (सा) खलु सोइंदियाईणं॥२३४॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वप्नमिव मन्यमानस्य स्त्यानगृद्धेः व्यञ्जनावग्रहता। भवेद् वा, न तु सा मनसः, (सा) खलु श्रोत्रेन्द्रियादीनाम्॥] 'होज्ज व' इत्यत्र वाशब्दः पुनरर्थे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः कार्यः, तद्यथा- अनन्तरोक्तयुक्तिभ्यः स्वप्नावस्थायामपि विषयप्राप्त्यभावाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नास्ति, स्त्यानगृद्धेः पुनः स्त्यानगृद्धिनिद्रोदये पुनर्वर्तमानस्य जन्तोरित्यर्थः, मांसभक्षणदशनोत्पाटनादि कुर्वतो गाढनिद्रोदयपरवशीभूतत्वेन स्वप्नमिव मन्यमानस्य भवेद् व्यञ्जनावग्रहता--स्याद् व्यञ्जनावग्रह इत्यर्थः, न (स्त्यानर्द्धि निद्रा के दृष्टान्त) (मन की प्राप्यकारिता के समर्थन में पूर्वपक्षी द्वारा पुनः) शंका का उपस्थापन- “स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में विद्यमान (व्यक्ति का) मन स्वप्न में हाथी के दांत को उखाड़ने में प्रवृत्त होता है, तब उसकी प्राप्यकारिता और व्यअनावग्रह का होना भी सिद्ध होता है। और, वह (स्वप्नस्थ व्यक्ति) उस स्थिति में यह भी मानता है कि 'हाथी के दांत को उखाड़ने आदि की समस्त क्रियाओं को मैं स्वप्न में देख (कर) रहा हूं' और 'यह स्वप्न है'। वह मानसिक विकल्प पूर्वक दांत आदि उखाड़ने की क्रिया करता है। इस प्रकार, मन की प्राप्यकारिता (स्पष्ट) है, और उसके कारण मन का व्यञ्जनावग्रह भी होता है" -इस आशंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार प्रत्युत्तर रूप में) कह रहे हैं // 234 // सिमिणमिव मन्नमाणस्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया। होज्ज व, न उ सा मणसो (सा) खलु सोइंदियाईणं // - [(गाथा-अर्थ :) स्त्यानगृद्धि (निद्रा) में (विद्यमान) तथा (अनुभूत घटनाओं को) स्वप्न की तरह मान रहे व्यक्ति को व्यञ्जनावग्रह हो सकता है, किन्तु वह मन का नहीं, अपितु श्रोत्र आदि इन्द्रियों का होता है।] - व्याख्याः - (भवेद् वा)। यहां आया 'वा' पद 'किन्तु' अर्थ में प्रयुक्त है, इसलिए (पूर्वकथन से) पृथक् (व्यवहित) सम्बन्ध करना चाहिए (अर्थात् आगे के कथन का पूर्वकथन से विपरीत अर्थ प्रारम्भ करना चाहिए)। जैसे- तुरन्त पूर्व में कही हुई युक्तियों से स्वप्न अवस्था में भी मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं है, क्योंकि विषय की प्राप्ति (विषय-स्पर्श) उसे नहीं होती, किन्तु स्त्यानगृद्धि में यानी स्त्यानगृद्धि निद्रा के उदय में वर्तमान प्राणी के, मांस-भक्षण व दांत उखाड़ने आदि क्रियाओं को करते हुए, चूंकि वह गाढ़ निद्रा के परवश होने के कारण, (समस्त क्रियाओं को) स्वप्न की तरह मान ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 341 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयं तत्र निषेद्धारः। सिद्धं तर्हि परस्य समीहितम्। सिध्येत्, यदि सा व्यञ्जनावग्रहता मनसो भवेत्, न पुनः सा तस्य। कस्य तर्हि सा?, इत्याह-सा खलु प्राप्यकारिणां श्रोत्रादीन्द्रियाणां श्रवण-रसन-घ्राण-स्पर्शनानामित्यर्थः। इदमुक्तं भवति-स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये प्रेक्षणक-रङ्गभूम्यादौ गीतादिकं शृण्वतः श्रोत्रेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहो भवति, कर्पूरादिकं जिघ्रतो घ्राणेन्द्रियस्य, आमिष-मोदकादिकं भक्षयतो रसनेन्द्रियस्य, कामिनीतनुलतादि स्पृशत: स्पर्शनेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहः संपद्यते, न त नयन-मनसोः, वह्नि-क्षुरिकादिविषयकृतदाहपाटनादिप्रसङ्गेन तयोर्विषयप्राप्त्यभावात्, तामन्तरेण च / भावः॥ इति गाथार्थः // 234 // आह- ननु स्त्यानद्धिनिद्रोदये स्वप्नमिव मन्यमानः किं कोऽपि चेष्टां काञ्चित् करोति, येन तत्करणे व्यञ्जनावग्रहः स्यात्?, इत्याशक्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयोदाहरणान्याह पोग्गल-मोयग-दन्ते फरुसग-वडसालभंजणे चेव। थीणद्धियस्स एए आहारणा होंति नायव्वा // 235 // रहा होता है, व्यञ्जनावग्रह हो सकता है- यह तात्पर्य है। हम उस (व्यञ्जनावग्रह) का निषेध नहीं कर रहे हैं। (प्रश्न-) तब तो पूर्वपक्षी का मत ही सिद्ध हो गया? (उत्तर-) हां, सिद्ध हो सकता था, बशर्ते वह व्यअनावग्रह मन का होता, किन्तु वह मन का नहीं होता। (प्रश्न-) फिर वह किसका होता है? उत्तर दिया- (सा खलु)। वह (व्यञ्जनावग्रह की स्थिति) तो श्रवण-रसना-घ्राण-स्पर्शन आदि प्राप्यकारी श्रोत्रादि इन्द्रियों की होती है- यह अर्थ है। तात्पर्य यह है कि स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में नाट्यशाला की दर्शक-दीर्घा में गीत आदि सुनते हुए श्रोत्र इन्द्रिय का व्यञ्जनावग्रह होता है, (इसी प्रकार) कपूर आदि सूंघते हुए घ्राणेन्द्रिय का, मांस, मोदक आदि खाते हुए रसनेन्द्रिय का तथा कामिनी-शरीर आदि को स्पर्श करते हुए स्पर्शनेन्द्रिय का व्यञ्जनावग्रह संपन्न होता है, किन्तु वह नेत्र व मन का नहीं होता, क्योंकि (नेत्र व मन का व्यअनावग्रह मानने पर, इन दो इन्द्रियों के) आग व छुरी आदि विषयों से दाह (जलना) व खण्डित होने का दोष प्रसक्त होगा, अतः दोनों इन्द्रियों को विषय-प्राप्ति (विषय-स्पृष्टता) नहीं होती (ऐसा मानना चाहिए), और विषय-प्राप्ति के बिना व्यञ्जनावग्रह संभव नहीं होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 234 // पूर्वपक्षी ने (पुनः) शंका उपस्थापित की- "स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में (अनुभूत घटनाओं को) स्वप्न की तरह मान (जान) रहा कोई व्यक्ति कौन-सी क्रियाएं किस प्रकार करता है जिसके करने में व्यञ्जनावग्रह हो जाता है?' इस आशंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार) स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय से सम्बन्धित (कुछ) उदाहरणों को प्रस्तुत कर रहे हैं ||235 // पोग्गल-मोयग-दन्ते फरुसग-वडसालभंजणे चेव / थीणद्धियस्स एए आहारणा होति नायव्वा // Mia 342 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- पौद्गल-मोदक-दन्ताः कुलाल-वटशालभञ्जने चैव।स्त्यानद्धेरैतान्युदाहरणानि भवन्ति ज्ञातव्यानि // ] स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवर्तिन एतानि पौद्गलादीन्युदाहरणानि ज्ञातव्यानि भवन्ति। तद्यथा- 'पोग्गलेत्यादि / तत्र समयपरिभाषया पौद्गलं मांसमुच्यते, तदुदाहरणं यथा एकस्मिन् ग्रामे कुटुम्बिकः कोऽप्यासीत्, स च मांसगृद्ध आमानि, पक्वानि, तलितानि, केवलानि, तीमनादिमध्यप्रक्षिप्तानि च मांसानि भक्षयति। अन्यदा च गुणातिशायिभिः स्थविरैः कैश्चित् प्रतिबोधितो दीक्षां कक्षीकृतवान्। तेन च ग्रामाऽनुग्रामं विहरता कदाचित् क्वचित् प्रदेशे मांसलुब्धैः कैश्चिद् विकृत्यमानो महिष: समीक्षाञ्चक्रे। तं च संवीक्ष्य तदामिषभक्षणे तस्याऽप्यभिलाष: समजायत। स चाऽभिलाषोऽस्य भुञ्जानस्य विचारभूमी गतस्य चरमा सूत्रपौरुषीं, प्रतिक्रमणक्रियां, प्रादोषिकपौरुषीं च कुर्वतो न निवृत्तः, किं बहुना?, तदभिलाषवर्येव प्रसुप्तोऽसौ। ततः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो जातः। तदुदये चोत्थाय ग्रामाद् बहिर्महिषमण्डलमध्ये गत्वाऽन्यं महिषमेकं विनिहत्य तदामिषं भक्षितवान्। तदुद्वरितशेषं च समानीयोपाश्रयोपरि क्षिप्त्वा प्रसुप्तः। समुत्थितश्च प्रत्युषसि स 'मयेत्थंभूतः स्वप्नो दृष्टः' इत्येवं गुर्वन्तिक आलोचयामास।साधुभिश्चोपाश्रयोपरि तदामिषमदृश्यत / ततः 'स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयोऽस्याऽस्ति' इति ज्ञातम् / तथा च संघेन लिङ्गमपहृत्य विसर्जितोऽसौ // इति स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये प्रथममुदाहरणमिति // 1 // [(गाथा-अर्थ :) पुद्गल (मांस) व मोदक (का भक्षण), दन्त (का उखाड़ना), तथा कुम्हार (जैसी क्रिया) एवं बरगद के पेड़ की शाखा का तोड़ना (आदि) -ये स्त्यानर्द्ध निद्रा (में विद्यमान व्यक्ति) के (कुछ) उदाहरण हैं -यह जानना चाहिए।] व्याख्याः-स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में विद्यमान व्यक्ति के ये पौदगल (मांसभक्षण) आदि उदाहरण यहां ज्ञातव्य हैं। जैसे (पौद्गल-मोदक इत्यादि)। इनमें आगमिक परिभाषा में 'पौद्गल' का अर्थ 'मांस' होता है। इस (से सम्बन्धित घटना) का उदाहरण इस प्रकार है (1) किसी गांव में कोई गृहस्थ (श्रावक) था। वह मांसलोभी था, अतः कच्चा, या पका कर, या तल कर, या केवल (किसी में मिश्रित न कर) या किसी झोलदार (रसदार) पदार्थ में मिला कर मांस खाया करता था। एक दिन गुणातिशयसम्पन्न (अनेक महान् गुणों से सम्पन्न) किन्हीं स्थविरों (मुनिराजों) द्वारा वह प्रतिबोधित होकर उसने (मुनि-) दीक्षा अंगीकार कर ली। एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते हुए कभी उसने किसी प्रदेश में देखा कि कुछ मांसलोभी लोग एक भैंसे को काट रहे हैं। यह देखकर उस (भैंसे) के मांस को खाने की इच्छा उस (मुनि) के भी जागृत हो गई। आहार करते हुए, शौच क्रिया हेतु जाते हए, तथा अंतिम सूत्र पौरूषी, प्रतिक्रमण क्रिया व प्रादोषिक - (सांयकालीन) पौरूषी करते हुए भी उस (मुनि) की (उक्त) अभिलाषा बनी रही। अधिक क्या कहें? उसी अभिलाषा के साथ वह सो गया। उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। उसके उदय में (नींद में ही) वह उठ कर ग्राम से बाहर भैंसों के झुण्ड में पहुंचा और किसी एक भैंसे को काट कर, उसके मांस को उसने खाया / उसने बचे हुए मांस को उपाश्रय में लाकर फेंक दिया और सो गया (लेट गया)। प्रातः जब वह उठा तो उसने 'मैंने इस तरह का स्वप्न देखा है' -इस प्रकार (कह कर) गुरु 1 ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 343 1 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयं मोदकोदाहरणमुच्यते, यथा एकः कोऽपि साधुर्भिक्षां पर्यटन क्वचिद् गृहे पटलकादिव्यवस्थापितानतिप्रचुरान् सुरभिस्निग्धमधुरमनोज्ञान् मोदकानद्राक्षीत्। तेन चोर्ध्वस्थितेन ते सुचिरमुद्वीक्षिताः। न च किमपि तन्मध्यालल्ब्धम्। ततः सोऽप्यविच्छिन्नतदभिलाष एव सुष्वाप।स्त्यानद्धिनिद्रोदये च रजन्यां तद्गृहं गत्वा, स्फोटयित्वा कपाटानि, मोदकान् स्वेच्छया भक्षयित्वा, उद्वरितांस्तु पतद्ग्रहके क्षिप्त्वोपाश्रयमागत्य पत द्ग्रहक स्थाने मुक्त्वा प्रसुप्तः। उत्थितेन च तथैवाऽऽलोचितं गुरूणाम्। ततः प्रत्युपेक्षणासमये भाजनादि प्रत्युपेक्षमाणेन साधुना पतद्ग्रहके दृष्टास्ते मोदकाः। ततो गुर्वादिभिर्जातोऽस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयः। तथैव च संघेन लिङ्गपाराञ्चिकं दत्त्वाऽयमपि विसर्जितः॥२॥ दन्तोदाहरणं तृतीयमुच्यते, यथा एकः साधुर्दिवा द्विरदेन खेदितः कथमपि पलाय्योपाश्रयमागतः। तं च दन्तिनं प्रत्यविच्छिन्नकोप एव निशि प्रसुप्तः। स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयश्च जातः। तदुदये च वज्रऋषभनाराचसंहननवतः केशवार्धबलसंपन्नता समये निगद्यते / अतो नगर-कपाटानि भक्त्वा के पास अपनी आलोचना की। (अन्य) साधुओं ने भी उपाश्रय में (फेंके हुए) मांस को देखा / तब उन्हें . ज्ञात हुआ कि इस (मुनि) के स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ था। तब संघ ने उससे साधु-वेश छीन कर संघ से उसे निकाल दिया। यह स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय से सम्बन्धित प्रथम उदाहरण है। अब दूसरा मोदक-उदाहरण कहा जा रहा है। वह इस प्रकार है (2) किसी साधु ने भिक्षा हेतु विचरण करते हुए किसी घर में पटलकों (ऊपर लटकाए गए छींकों, या कई दराजों वाली पिटारियों) में अतिप्रचुर मात्रा में संभाल कर रखे हुए, सुगन्धपूर्ण, चिकने (सरस), मधुर वह सुन्दर मोदकों (लड्डुओं) को देखा / वह ऊंचे होकर (उचक-उचक कर) उन्हें देर तक देखता रहा, किन्तु उनमें से उसके कुछ भी हाथ नहीं लग पाया। बाद में, उसी अभिलाषा को निरन्तर बनाये हुए ही वह सो गया। रात को स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में वह उसी घर में गया, दरवाजों को तोड़ कर (घुसा और) मोदकों को यथेच्छ खा कर, बचे हुए मोदकों को कचरे के डिब्बे (पतद्ग्रहक) में फेंक कर, उस डिब्बे को उसी जगह छोड़ कर, उपाश्रय में लौट आया और पुनः सो (लेट) गया। (निद्रा से) उठ कर उसने गुरुजनों के समक्ष, उसी तरह (प्रथम उदाहरण वाले साधु की तरह) आलोचना की। उसके बाद, प्रति लेखना के समय पात्र आदि की प्रतिलेखना करते हुए साधुओं को कचरे के डिब्बे में पड़े हुए मोदक दिखाई पड़े। तब, गुरुजनों आदि को यह ज्ञात हो गया कि इसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ था। उसी (पूर्व उदाहरण की) तरह ही, संघ ने उसे 'लिङ्गपाराश्चिक' (वेशत्याग आदि का दण्ड) देकर संघ से निकाल दिया // 2 // अब तीसरा दन्त-उदाहरण कहा जा रहा है। वह इस प्रकार है (3) एक साधु को दिन में (किसी) हाथी ने अधिक परेशान किया, वह (साधु) किसी तरह भाग कर उपाश्रय में आ गया। उस हाथी के प्रति उसका क्रोध अविच्छिन्न (ज्यों का त्यों) बना रहा और वह (उसी मानसिक अवस्था में ही) रात में सो गया। स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय उसे हुआ। उसका Me 344 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ये गत्वा तं हस्तिनं व्यापाद्य दन्तद्वयमुत्पाट्य स्वोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा सुप्तः। प्रबुद्धेन च 'स्वप्नोऽयम्' इत्यालोचितम्। दन्तदर्शने च ज्ञातः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयः। तथैव च लिङ्गं गृहीत्वा संघेन विसर्जितः॥३॥ फरुसगशब्देन समयप्रसिद्ध्या कुम्भकारोऽभिधीयते, तदुदाहरणं चतुर्थमुच्यते एकः कुम्भकारो महति गच्छे प्रव्रजितः। अन्यदा च सुप्तस्याऽस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो जातः। ततोऽसौ पूर्वं यथा मृत्तिकापिण्डानत्रोटयत्, तथा तदभ्यासादेव साधूनां शिरांसि त्रोटयित्वा कबन्धैः सहैवैकान्ते उज्झाञ्चकार। ततः शेषाः केचन साधवोऽपसृताः। प्रभाते च ज्ञातं सम्यगेव सर्वं तच्चेष्टितम्। संघेन तथैव विसर्जितः॥४॥ अथ वटशाखाभञ्जनोदाहरणं पञ्चममुच्यते, यथा कोऽपि साधुामान्तराद् गोचरचर्यां विधाय प्रतिनिवृत्तः। स चौष्ण्याभिहतो भृतभाजनस्तृषितो बुभुक्षितश्छायार्थी मार्गस्थो वटवृक्षस्याऽधस्तादागच्छन्नतिनीचैर्वर्तिन्या तच्छाखया मस्तके घट्टितः, गाढं च परितापितः, अव्यवच्छिन्नकोपश्च प्रसुप्तः। स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये जब उदय होता है, तब 'वज्रऋषभ नाराच' संहनन वाले व्यक्ति में केशव (वासुदेव, नारायण) का आधा बल आ जाता है- ऐसा आगम में कहा गया है। अतः उसने (नींद में ही जाकर) नगर के द्वार तोड दिये और नगर के मध्य जाकर उस हाथी को मार दिया। उसके दोनों दांतों को उखाड कर उन्हें अपने उपाश्रय के द्वार पर फेंक दिया और पुनः सो (लेट) गया। जब जागृत हुआ, तब 'यह स्वप्न था' ऐसी आलोचना की। (हाथी के पड़े हुए) दांतों को देख कर, उसे ज्ञात हो गया था कि मुझे स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ था। उस (पूर्वोक्त उदाहरण के मुनि के) तरह ही, वेश छीन कर संघ ने उस (मुनि) को निकाल दिया // 3 // 'फरुसग' (यह प्राकृत (देशी) शब्द है जो) आगमिक क्षेत्र में 'कुम्हार' का वाचक है। उस (कुम्हार) का अब चौथा उदाहरण कह रहे हैं। वह इस प्रकार है __(4) एक कुम्हार (किसी) बड़े (मुनि-) संघ में दीक्षित हो गया। एक दिन जब वह सोया था, उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। तब, उस (कुम्हार) ने, जैसे वह पूर्व (गृहस्थ जीवन में) मिट्टी के पिण्डं तोड़ा करता था, वैसे ही उस (क्रिया) के अभ्यास के कारण, साधुओं के सिर फोड़ दिये, और कबन्धों (बिना सिर के, धड़ मात्र शवों) को एकान्त में रखकर छोड़ दिया। तब कुछ साधु (किसी तरह वहां से बच कर) निकल गये थे, उन्हें प्रातःकाल (उठने पर) उसके द्वारा किये गये समस्त कार्य (का रहस्य) समझ में आया। उसी (पूर्वोक्त उदाहरण की) तरह ही संघ ने उसे (भी) निकाल दिया 4 // अब पांचवां वटशाखा तोड़ने का उदाहरण कह रहे हैं। वह इस प्रकार है (5) कोई साधु किसी अन्य ग्राम से भिक्षाचर्या कर (भिक्षा लेकर) वापस लौटने लगा। (लौटते हुए) उसे गर्मी सता रही थी। हाथ में भिक्षा से भरा पात्र लिया हुआ था | प्यास व भूख भी उसे (सता रही) थी। मार्ग में चल रहे उसने चाहा कि कहीं छाया मिले। (तो वह) किसी वट वृक्ष के नीचे ----- विशेषावश्यक भाष्य --------345 EEN Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रौ गत्वा वटशाखां भङ्क्त्वावोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा पुनः प्रसुप्तः। 'स्वप्नो दृष्टः' इत्यालोचिते, स्त्यानर्द्धयुदये च ज्ञाते लिङ्गापनयनतः संघेन विसर्जित इति // 5 // एतान्युदाहरणानि विशेषतो निशीथादवसेयानि // इति गाथार्थः॥२३५ // तदेवं 'गंतुं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा' इत्यादिपूर्वपक्षगाथायाः प्रथमार्धमपाकृतम्। सांप्रतं 'सिद्धमियं लोयम्मि वि अमुग्गत्थगओ मणो मे त्ति' एतदुत्तरार्धमपाकुर्वन्नाह जह देहत्थं चक्खं जं पइ चंदं गयं ति, न य सच्चं। रूढं मणसो वि तहान य रूढी सच्चिया सव्वा // 236 // [संस्कृतच्छाया:- यथा देहस्थं चक्षुर्यत् प्रति चन्द्रं गतमिति, न च सत्यम् / रूढं मनसोऽपि तथा, न च रूढिः सत्यका सर्वा ] से गुजरने लगा, (किन्तु उस) वृक्ष की अधिक नीची कोई शाखा (मोटी डाल) उसके माथे सें टकराई। (फलस्वरूप वह) अत्यन्त सन्तप्त (पीड़ित) हुआ। क्रोध की निरन्तरता की स्थिति में ही वह सो गया। (उसके) स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ। उसने (उसी) रात में जाकर वट-शाखा को तोड़ा और उपाश्रय के द्वार पर ही उसे फेंक कर वह पुनः सो (लेट) गया। (प्रातःकाल जागने पर) 'मैंने स्वप्न देखा' -इस प्रकार (गुरुजनों के समक्ष) आलोचना की। संघ को पता चला कि उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ था, तो उससे वेश छीन कर उसे संध से निकाल दिया // 5 // इन उदाहरणों को विशेष रूप से (जानना हो तो) निशीथ सूत्र से जानना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 235 // इस प्रकार 'गत्वा ज्ञेयेन मनः सम्बद्धयते जाग्रतो वा स्वप्ने वा’ –इत्यादि पूर्वपक्ष रूप में कही गाथा (सं. 213) के प्रथम अर्ध भाग का खण्डन कर दिया गया। अब, उसी गाथा के 'सिद्धमिदं लोकेऽपि अमुकार्थगतं मनो मे' इस उत्तरार्ध भाग के निराकरण हेत (भाष्यकार) कह रहे हैं // 236 // जह देहत्थं चक्खं जं पइ चंदं गयं ति, न य सच्चं / रूढं मणसो वि तहा न य रूढी सच्चिया सव्वा // [ (गाथा-अर्थ :) जैसे देह में (ही) स्थित रहने वाली नेत्र इन्द्रिय के विषय में 'यह चन्द्रमा पर गई है' -ऐसा कह दिया जाता है, किन्तु (वह कथन) सत्य (तो) नहीं होता, वैसे ही, मन के विषय में भी (कहा जाता है कि 'मेरा मन वहां गया हुआ है', और यह कथन) रूढ़ि (ही) है, और सभी रूढ़ियां सत्य नहीं हुआ करतीं।] A 346 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा देहस्थं देहादनिर्गतमपि चक्षुः 'चन्द्रं गतम्' इति जल्पति लोकः, न च तत् सत्यम्, चक्षुषो वयादिदर्शनेन तत्कृतदाहादिप्रसङ्गात्, तथा तेनैव प्रकारेण मनसोऽपि निर्निबन्धनं रूढमिदं यदुत- 'अमुत्र गतं मे मनः' इति। रूढिरपि सत्या भविष्यति, इत्याह-नच रूढिः सर्वाऽपि सत्या, "वटे वटे वैश्रवणश्चत्वरे चत्वरे शिवः। पर्वते पर्वते रामः सर्वगो मधुसूदनः"॥१॥ -इत्यादिकाया असत्याया अपि दर्शनात् // इति गाथार्थः // 236 // तदेवं विषयप्राप्तौ निषिद्धायां मनसोऽसद्ग्रहममुञ्चन् परः प्रकारान्तरेणाऽपि तस्य व्यञ्जनावग्रहं प्रतिपादयन्नाह विसयमसंपत्तस्स वि संविजइ वंजणोग्गहो मणसो। जमसंखेजसमइओ उवओगो जं च सव्वेसु॥२३७॥ व्याख्याः -जैसे (देहस्थ) देह में ही स्थित नेत्र इन्द्रिय के बारे में लोग बोलते हैं कि 'आंखें चांद पर गई (टिकी) हैं', और यह कथन सत्य (कथमपि) नहीं है, क्योंकि (इसे सत्य मानें तो) अग्नि आदि को देखने पर, अग्नि से नेत्र को जल जाना चाहिए, वैसे ही, उसी रीति से मन के बारे में भी बेरोकटोक यह 'रूढ कथन' (परम्परा से प्रचलित लोक-कथन) किया जाता है कि 'अमुक स्थान पर मन गया हुआ है'। (प्रश्न-) उक्त रूढ़ि सत्य ही होगी (अर्थात् मन के अन्यत्र गमन को सत्य क्यों न मान लें?)। (तो इस प्रश्न का) उत्तर दिया. (न च रूढिः)। समस्त रूढ़ियां सत्य नहीं हुआ करतीं। (जैसे यह कहा जाता है-) “वट-वट में कुबेर स्थित हैं, चौराहे-चौराहे पर शिव स्थित हैं, पर्वत-पर्वत पर राम हैं और मधुसूदन सर्वत्र स्थित हैं।" इत्यादि (उपर्युक्त) रूढि-उक्तियां असत्य भी (होती) देखी जाती हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण .हुआ // 236 // (मनःकृत व्यञ्जनावग्रह नही) इस प्रकार, मन द्वारा विषय को स्पर्श (प्राप्ति) किये जाने का निराकरण करने पर भी, अपनी असत् (असमीचीन) मान्यता को नहीं छोड़ता हुआ परपक्ष (पूर्वपक्षी, विरोधी) अन्य प्रकार से . भी उस (मन) के व्यअनावग्रह होने का प्रतिपादन कर रहा है // 237 // विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ वंजणोग्गहो मणसो। जमसंखेजसमइओ उवओगो जं च सव्वेसु // ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 347 22 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समएसु मणोदव्वाइं गिण्हए वंजणं च दव्वाई। भणियं संबंधो वा तेण तयं जुज्जए मणसो॥२३८॥ [संस्कृतच्छायाः- विषयम् असंप्राप्तस्यापि संविद्यते व्यञ्जनावग्रहो मनसः / यदसंख्येयसमयिक उपयोगो यच्च सर्वेषु / / समयेषु मनोद्रव्याणि गृह्णाति, व्यञ्जनं च द्रव्याणि। भणितं सम्बन्धो वा, तेन तद् युज्यते मनसः॥]. विषयं मेरुशिखरादिकं, जलाऽनलादिकं वा, असंप्राप्तस्याऽपि- अप्राप्य गृहृतोऽपीत्यर्थः। किम्?, इत्याह- संविद्यते युज्यते व्यञ्जनावग्रहो मनसः। कुतः?, इत्याह- 'जमसंखेज्जसमइओ उवओगो'। यद् यस्मात् कारणात् “च्यवमानो न जानाति" इत्यादिवचनात् सर्वोऽपि च्छद्मस्थोपयोगोऽसंख्येयैः समयैर्निर्दिष्टः सिद्धान्ते, न त्वेक-व्यादिभिः। 'जंच सव्वेसु समयेसुमणोदव्वाई गिण्हए त्ति'। यस्माच्च तेषूपयोगसंबन्धिष्वसंख्येयेषु समयेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवर्गणाभ्यो गृह्णाति जीवः, द्रव्याणि च, तत्संबन्धो वा प्रागत्रैव भवद्भिर्व्यञ्जनमुक्तम्, तेन कारणेन तत् तादृशं द्रव्यं, तत्संबन्धो वा व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह इति हृदयम्, युज्यते घटते मनसः। यथा हि श्रोत्रादीन्द्रियेणाऽसंख्येयान् समयान् यावद् गृह्यमाणानि शब्दादिपरिणतद्रव्याणि, तत्संबन्धो वा व्यञ्जनावग्रहः, पव्वाइ। // 238 // समएसु मणोदव्वाइं गिण्हए वंजणं च दव्वाइं। भणियं संबंधो वा तेण तयं जुज्जए मणसो // [(गाथा-अर्थ :) विषय से असंस्पृष्ट रहने वाले भी मन का व्यञ्जनावग्रह होता है, क्योंकि असंख्येय समय तक सभी समयों में उपयोग प्रवर्तमान रहता है // 237 // . उन (उपयोग-सम्बन्धी असंख्येय) समयों में मनोद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता रहता है, और चूंकि द्रव्य या उससे होने वाले सम्बन्ध को व्यञ्जन कहा गया है, इसलिए मन का वह (व्यञ्जनावग्रह) संगत होता है // 238 // ] व्याख्याः- (विषय) अर्थात् मेरु-शिखर आदि या जल व अग्नि आदि विषय को (मन द्वारा) प्राप्त या स्पृष्ट नहीं करते हुए भी। (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- मन का व्यञ्जनावग्रह होता है। (प्रश्न-) किस प्रकार से (होता है)? उत्तर दिया- (यद असंख्येयसमयिकः उपयोगः)।चूंकि 'च्यवमान नहीं जानता है' इत्यादि वचनों द्वारा सिद्धान्त (आगमों) में छद्मस्थ व्यक्ति के समस्त उपयोगों को असंख्येय समयों वाला निर्दिष्ट किया गया है, न कि (मात्र) एक, दो आदि समयों वाला / (यत् सर्वेषु समयेषु मनोद्रव्याणि गृह्णाति-इति)। चूंकि उन उपयोग-सम्बन्धी सभी असंख्येय समयों में प्रत्येक समय में जीव मनोवर्गणाओं से अनन्त मनोद्रव्यों का ग्रहण करता है। और, द्रव्य एवं उसके साथ होने वाले सम्बन्ध को यहां पहले ही आपने 'व्यञ्जन' कहा है। इस कारण से वह वैसा द्रव्य या उसके साथ होने वाला सम्बन्ध 'व्यञ्जन' या व्यञ्जनावग्रह है- यह तात्पर्य है। वह मन में घटित होता है। परपक्ष का अभिप्राय यह है:- जिस प्रकार, श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा असंख्येय समय तक ग्रहण किये जा रहे जो शब्द आदि परिणत द्रव्य हैं, या उनके साथ जो सम्बन्ध होता है, वह 'व्यञ्जनावग्रह' NA 348 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाऽत्राऽप्यसंख्येयसमयान् यावद् गृह्यमाणानां मनोद्रव्याणां, तत्संबन्धस्य वा किमिति पक्षपातं परित्यज्य मध्यस्थैर्भूत्वाऽसौ नेष्यते?, इति किल परस्याभिप्रायः॥ इति गाथाद्वयार्थः॥२३७ // 238 // तदेवं विषयासंप्राप्तावपि भङ्ग्यन्तरेण मनसो व्यञ्जनावग्रहः किल परेण समर्थितः, सांप्रतं विषयसंप्राप्त्यापि तस्य तं समर्थयन्नाह देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं विचिंतयओ। नेयस्स वि संबंधे वंजणमेवं पि से जुत्तं // 239 // [संस्कृतच्छाया:- देहाद् अनिर्गतस्यापि स्वकायहृदयादिकं विचिन्तयतः। ज्ञेयस्यापि सम्बन्धे व्यञ्जनमेवमपि तस्य युक्तम्॥] देहाच्छरीरादनिर्गतस्यापि मेर्वाद्यर्थमगतस्यापि स्वस्थानस्थितस्यापीत्यर्थः, स्वकाये, स्वकायस्य वा हृदयादिकमतीव संनिहितत्वादतिसंबद्धं विचिन्तयतो मनसो योऽसौ ज्ञेयेन स्वकायस्थितहृदयादिना संबन्धस्तत्प्राप्तिलक्षणस्तस्मिन्नपि ज्ञेयसंबन्धे, न केवलं'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जई' इत्याद्यनन्तरसमर्थितन्यायेन, इत्यपिशब्दार्थः। किम्?, इत्याह-व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः। 'से' तस्य मनसो युक्तं घटमानकं, एवमप्यनयाऽपि प्राप्यकारित्वभझ्या॥ इति गाथार्थः॥२३९॥ (माना जाता) है। उसी प्रकार, यहां (इस संदर्भ में) भी असंख्येय समयों तक गृहीत हो रहे मनोद्रव्य या उनके साथ होने वाला सम्बन्ध -इन्हें आप पक्षपात छोड़ते हुए, मध्यस्थता अपना कर (व्यञ्जनावग्रह के रूप में) क्यों नहीं स्वीकार करते? || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 237-238 // इस प्रकार, विषय से स्पृष्ट न होने पर भी अन्य कथन-रीति से परपक्ष ने मन के व्यञ्जनावग्रह का समर्थन किया, अब विषय को स्पर्श करते हुए भी उसके व्यञ्जनावग्रह का समर्थन करते हुए वह (परपक्ष) कह रहा है // 239 // देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं विचिंतयओ। ने यस्स वि संबंधे वंजणमेवं पि से जुत्तं // . [(गाथा-अर्थ :) देह से निर्गमन नहीं करने वाले मन का भी, जब वह स्वदेहस्थित हृदय आदि का चिन्तन करता है, ज्ञेय (विषय-स्वकायस्थ हृदयादि) के साथ सम्बन्ध (प्राप्यकारित्व) होता (ही) है। इस रीति से भी उस (मन) का व्यअनावग्रह युक्तियुक्त ठहरता है।] . व्याख्याः- देह यानी शरीर से निर्गमन न करने वाले का भी, मेरु आदि पदार्थों में नहीं जाने वाले का भी, अर्थात् स्वस्थान (शरीर) में ही स्थित रहने वाले का भी। अपने शरीर में (स्थित) या अपने शरीर के (भाग व अंग) हृदय आदि चूंकि अतिसंनिकट होते हैं, इसलिए अधिक सम्बद्ध (हृदयादि) का चिन्तन करते हुए मन का स्वकायस्थित हृदय आदि ज्ञेय के साथ प्राप्ति (स्पर्श) रूप जो सम्बन्ध है, उसके होने पर भी। यहां 'भी' पद का अर्थ (रहस्य, तात्पर्य) यह है- कुछ पहले ही (गाथा- 237 में जो यह कहा गया है- विषयम् असंप्राप्तस्य अपि संविद्यते अर्थात्) विषय से असंस्पृष्ट Non---------- विशेषावश्यक भाष्य --------349 FE Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं प्रकारद्वयेन मनसः परेण व्यञ्जनावग्रहे समर्थिते, आचार्यः प्रथमपक्षे तावत् प्रतिविधानमाह गिज्झस्स वंजणाणं जं गहणं वंजणोग्गहो स मओ। गहणं मणो, न गिझं को भागो वंजणे तस्स?॥२४०॥ [संस्कृतच्छाया:- ग्राह्यस्य व्यञ्जनानां यद् ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः स मतः / ग्रहणं मनः, न ग्राह्यं, को भागो व्यञ्जने तस्य // ] इह 'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ' इत्यादि यत्परेणोक्तम्, तद् निजाऽसत्पक्ष-परकीयसत्पक्षविषयप्रसर्पन्महारागद्वेषग्रहग्रस्तचेतोविह्वलतासूचकमेवावगन्तव्यम्, असंबद्धत्वात् / , तथाहि- श्रोत्र-घ्राण-रसन-स्पर्शनेन्द्रियचतुष्टयग्राह्यस्य शब्दगन्धादिविषयस्य संबन्धिनां व्यञ्जनानां तद्रूपपरिणतद्रव्याणां यद् ग्रहणमुपादानं स व्यञ्जनावग्रहोऽस्माकं संमत इति परोऽपि जानात्येव, प्रागसकृत्प्रतिपादितत्वादिति। (रहने वाले मन) का भी (व्यअनावग्रह) होता है, इसमें समर्थित युक्ति के अनुरूप / (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- (व्यअनम्)। अर्थात् व्यअनावग्रह। इस ‘प्राप्यकारिता' का निरूपण करने वाली इस युक्ति के अनुसार भी। (से) उस मन का व्यञ्जनावग्रह घटित होना युक्तियुक्त (सिद्ध होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 239 // इस प्रकार दो तरीकों (कथन-रीतियों) से पूर्वपक्ष द्वारा मन के व्यञ्जनावग्रह का समर्थन किये जाने के बाद, अब आचार्य (भाष्यकार) (पूर्वपक्ष के) प्रथम पक्ष का (निराकरण करने हेतु) उत्तर दे रहे हैं // 240 // गिज्झस्स वंजणाणं जंगहणं वंजणोग्गहो स मओ। गहणं मणो, न गिज्झं को भागो वंजणे तस्स? | [(गाथा-अर्थ :) ग्राह्य (शब्द आदि) के व्यञ्जनों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह के रूप में हम मानते (ही) हैं। किन्तु मन ‘ग्रहण' (अर्थग्रहण का साधन, कारण) है, ग्राह्य (विषय) नहीं। (अतः) व्यञ्जनावग्रह के संदर्भ में उस (ग्रहण-भूत मनोद्रव्य) का क्या कोई भाग (औचित्यपूर्ण सहभागिता, या निमित्तपना) है? (अर्थात् नहीं है।)] ___व्याख्याः- यहां (प्रस्तुत प्रकरण में) (पूर्वोक्त गाथा- 237 में पूर्वपक्ष द्वारा 'विषय के साथ अस्पृष्ट रहने वाले मन का भी (व्यञ्जनावग्रह) होता है' -इत्यादि कथन किया गया था, उसे अपने असमीचीन पक्ष के प्रति महाराग (दुराग्रह) तथा दूसरे (विरोधी) के समीचीन पक्ष के प्रति द्वेष की भावना से ग्रस्त चित्त की विह्वलता का सूचक ही (है- ऐसा) समझना चाहिए क्योंकि (उसका वह कथन) असम्बद्ध (अप्रासंगिक) है। और, श्रोत्र-रसना-स्पर्शन (त्वचा) -इन चार इन्द्रियों के शब्द, गन्ध आदि ग्राह्य विषयों से सम्बन्धित व्यञ्जनों का -यानी तद्रूपपरिणत द्रव्यों का -जो ग्रहण या उपादान है, वह व्यअनावग्रह है- इसे हम स्वीकारते हैं, इसे (पूर्वपक्ष) भी जानता ही है, क्योंकि हमने अनेक बार इसका प्रतिपादन किया है। Na 350 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोद्रव्याण्यपि तर्हि मनसो ग्राह्याणि भविष्यन्ति, ततस्तस्याऽपि श्रोत्रादेरिव व्यञ्जनावग्रहो भविष्यति, अत: किमसंबद्धम्?, इत्याह- 'गहणं मणो न गिझं ति' चिन्ताद्रव्यरूपं मनो न ग्राह्यम्, किन्तु ग्रहणं गृह्यतेऽवगम्यते शब्दादिरर्थोऽनेनेति ग्रहणम्अर्थपरिच्छेदे करणमित्यर्थः / ग्राह्यं तु मेरुशिखरादिकं मनसः सुप्रतीतमेव। अत: को भागः कोऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनोद्रव्यराशेर्व्यञ्जने व्यञ्जनावग्रहेऽधिकृते?, न कोऽपीत्यर्थः। ग्राह्यवस्तुग्रहणे हि व्यञ्जनावग्रहो भवति। न च मनोद्रव्याणि ग्राह्यरूपतया गृह्यन्ते, किन्तु करणरूपतया, इत्यसंबद्धमेव परोक्तम्॥ इति गाथार्थः // 240 // या च 'देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं' इत्यादिना मनसः प्राप्यकारिता प्रोक्ता, साऽपि न युक्ता, स्वकायहृदयादिको हि मनसः स्वदेश एव, यच्च यस्मिन् देशेऽवतिष्ठते, तत् तेन संबद्धमेव भवति, कस्तत्र विवादः?, किं हि नाम तद् वस्त्वस्ति, यदात्मदेशेनाऽसंबद्धम्? / एवं हि प्राप्यकारितायामिष्यमाणायां सर्वमपि ज्ञानं प्राप्यकार्येव, सर्वस्याऽपि तस्य जीवेन संबद्धत्वात्। तस्मात् पारिशेष्याद बाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारित्वाऽप्राप्यकारित्वचिन्ता युक्ता। स च मनसाऽप्राप्त एव गृह्यते, इति न तत्र व्यभिचारः। भवतु वा मनसः स्वकीयहृदयादिचिन्तायां प्राप्यकारिता, तथापि न तस्य व्यञ्जनावग्रहसंभव इति दर्शयन्नाह (शंका-) मनोद्रव्य भी तो मन के ग्राह्य होते ही हैं, तब श्रोत्र आदि इन्द्रियों की तरह उस मन का भी व्यअनावग्रह (संगत) हो (ही) जाता है, इसलिए हमारा कथन असम्बद्ध कैसे हुआ? (इस आशंका को दृष्टि में रख कर) उत्तर दिया- (ग्रहणं मनः, न ग्राह्यम्) / अर्थात् चिन्तन-द्रव्य रूप मन ग्राह्य (विषय) नहीं है, किन्तु ‘ग्रहण' है। 'ग्रहण' का अर्थ है- जिसके द्वारा शब्द आदि अर्थ का ग्रहण किया जाता है, अर्थात् जो अर्थ-ज्ञान में (प्रमुख) कारण होता है। मन के मेरु-शिखर आदि ग्राह्य हैंयह तो सुस्पष्ट (सुविदित) ही है। इसलिए, उस (अर्थज्ञान में) करणभूत मनोद्रव्यराशि का 'व्यञ्जन' में, अर्थात् प्रस्तुत विषय- व्यञ्जनावग्रह (के सद्भाव) में कौन (सा) भाग यानी अवसर होता है? अर्थात् कोई भी अवसर (औचित्य) नहीं है। (तात्पर्य यह है कि) व्यअनावग्रह तब होता है जब ग्राह्य वस्तु का ग्रहण (स्पर्श) हो, किन्तु मनोद्रव्यों का जो ग्रहण (स्पर्श) होता है, वह ग्राह्य वस्तु रूप से नहीं होता, अपितु 'करण' रूप से होता है। इस तरह पूर्वपक्ष का कथन असम्बद्ध (अप्रासंगिक, अनुपयुक्त) है // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 240 // "(पूर्व की 239 वीं गाथा में पूर्वपक्ष द्वारा) 'देहाद् अनिर्गतस्यापि स्वकायहृदयादिकम्' इत्यादि रूप में मन की जो प्राप्यकारिता बताई गई थी, वह युक्तियुक्त नहीं है, चूंकि स्वशरीरस्थ हृदय आदि तो मन के 'स्वदेश' ही हैं और जो जिस देश में स्थित होता है, उससे वह सम्बद्ध होता ही है, इसमें कौन-सा विवाद है? (अर्थात् यह निर्विवाद ही है।) ऐसी कौन-सी वस्तु है जो आत्म-देश से सम्बद्ध न . हो? इस प्रकार से यदि प्राप्यकारिता इष्ट है, तब (तो फिर सभी ज्ञान प्राप्यकारी ही सिद्ध हो जाएंगे, क्योंकि सभी ज्ञान जीव से जुड़े (सम्बद्ध) होते ही हैं। (सभी ज्ञानों के प्राप्यकारी हो जाने से, प्राप्यकारी-अप्राप्यकारी की विवेचना ही सम्भव नहीं होगी, अतः उस विवेचना की संगति बैठाना है) इसलिए (स्वशरीरादि-सम्बन्ध की अपेक्षा को छोड़ना होगा, और तब बाह्यार्थ सम्बन्ध की अपेक्षा ही शेष रहती है, अतः) 'पारिशेष्य' न्याय से प्राप्यकारिता व अप्राप्यकारिता का विचार बाह्य पदार्थ की ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 351 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्देसचिन्तणे होज वंजणं जड़ तओ न समयम्मि। पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज न वंजणं तम्हा // 241 // [संस्कृतच्छाया:- तद्-देशचिन्तने भवेद् व्यञ्जनं यदि ततो न समये। प्रथम एव समये गृह्णीयाद्, न व्यञ्जनं तस्मात्॥] स चासौ स्वकायहृदयादिदेशश्च तस्य चिन्तनं तस्मिन् सति स्याद् मनसो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः। यदि किम्?, इत्याह-'जड़ तओन समयम्मि पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज त्ति'। यदि तद् मनः प्रथमः एव समये तं स्वकीयहृदयादिकमर्थं न गृह्णीयाद् नावगच्छेदिति। एतच्च नास्ति, यस्माद् मनसः प्रथमसमय एवार्थाऽवग्रहः समुत्पद्यते, न तु श्रोत्रादीन्द्रियस्येव प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः, तस्य हि क्षयोपशमापाटवेन प्रथममर्थानुपलब्धिकालसंभवाद् युक्तो व्यञ्जनावग्रहः, मनसस्तु पटुक्षयोपशमत्वाच्चक्षुरिन्द्रियस्येवाऽर्थानुपलम्भकालस्यासंभवेन प्रथममेवाऽर्थावग्रह एवोपजायते। अपेक्षा से ही करना उपयुक्त होगा। मन द्वारा बाह्य अर्थ को अप्राप्त (अस्पृष्ट) करते हुए भी उसका ग्रहण होता है, इसलिए वहां (कोई) व्यभिचार नहीं है (अर्थात् मन की अप्राप्यकारिता ही है, उसका. . अभाव नहीं है)। स्वकीय हृदय आदि से सम्बन्धित चिन्तन में भले ही मन की प्राप्यकारिता हो, किन्तु उस का व्यञ्जनावग्रह तो सम्भव नहीं होता” –इसी तथ्य को स्पष्ट करने हेतु (भाष्यकार) कह रहे हैं // 241 // तद्देसचिन्तणे होज्ज वंजणं जइ तओ न समयम्मि / पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज्ज न वंजणं तम्हा // [(गाथा-अर्थ :) (स्वशरीर-हृदय आदि) उस देश के चिन्तन करते समय, व्यञ्जन (व्यञ्जनावग्रह तब स्वीकार्य) होता, बशर्ते प्रथम समय में (उस हृदयादिक को) वह ग्रहण नहीं करता होता। किन्तु ऐसा होता नहीं, इसलिए (उस मन का) व्यञ्जन (व्यञ्जनावग्रह) नहीं होता।] ___ व्याख्याः- वह यानी स्वकाय-हृदय आदि देश, उसका चिन्तन होने पर मन का व्यञ्जन यानी व्यञ्जनावग्रह (तब) सम्भव था (यदि....) / (प्रश्न-) यदि क्या? उत्तर दिया- (यदि ततो न समये प्रथम एव तदर्थं गृह्णीयात् -इति)। (अर्थात्) यदि प्रथम समय में ही मन अपने हृदय आदि अर्थ को ग्रहण नहीं करता, नहीं जानता होता। किन्तु ऐसा होता नहीं, क्योंकि प्रथम समय में ही मन का अर्थावग्रह हो जाता है। ऐसा नहीं होता कि (जैसे श्रोत्रादि इन्द्रिय का प्रथमतः व्यअनावग्रह होता है, उसी) श्रोत्रादि इन्द्रिय की तरह ही प्रथम समय में पहले व्यञ्जनावग्रह हो (और फिर अर्थावग्रह हो), क्योंकि (श्रोत्रादि की) क्षयोपशम-पता (अपेक्षित बोध-क्षमता) नहीं होती, और पहले (समय में) ही अर्थ की उपलब्धि नहीं हो पाती, अतः (उन श्रोत्रादि का तो) व्यञ्जनावग्रह होना युक्तियुक्त होता है। किन्तु, चूंकि मन क्षयोपशम-पटु (जानने में सक्षम) होता है, इसलिए उसके लिए चक्षु इन्द्रिय की तरह ही, अर्थअनुपलब्धि का (कोई) काल संभव नहीं हो पाता, और प्रथम समय में ही उसको (व्यञ्जनावग्रह न होकर) अर्थावग्रह ही हो जाता है। Ma 352 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र प्रयोगः- इह यस्य ज्ञेयसंबन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो नास्ति, न तस्य व्यञ्जनावग्रहो दृष्टः, यथा चक्षुषः, नास्ति चार्थसंबन्धे सत्यनुपलब्धिकालो मनसः, तस्माद् न तस्य व्यञ्जनावग्रहः, यत्र त्वयमभ्युपगम्यते न तस्य ज्ञेयसबन्धे सत्यनुपलब्धिकालासंभवः, यथा श्रोत्रस्येति व्यतिरेकः। तदेवं परोक्तपक्षद्वयेऽपि मनसो व्यञ्जनावग्रहं निराकृत्योपसंहरति- 'नवंजणं तम्ह त्ति'। तस्मादुक्तप्रकारेण मनसो न व्यञ्जनावग्रहसंभवः॥ इति गाथार्थः // 241 // कस्माद् न मनसो व्यञ्जनावग्रह इत्याशङ्कयाऽत्रार्थे विशेषवतीमुपपत्तिमाह समए समए गिण्हइ दव्वाइं जेण मुणइ य तमत्थं / जं चिंदिओपओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते॥२४२॥ होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ। होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न प्पवत्तेजा // 243 // [संस्कृतच्छाया:- समये समये गृह्णाति येन जानाति च तदर्थम् / यच्च इन्द्रियोपयोगेऽपि व्यञ्जनावग्रहे अतीते॥ - इस प्रसंग में युक्ति (अनुमान) इस प्रकार है:- जिसका ज्ञेय के साथ सम्बन्ध हो, तब यदि (अर्थ की) अनुपलब्धि का कोई काल नहीं होता तो उसके व्यञ्जनावग्रह नहीं देखा जाता, जैसे चक्षु के (व्यञ्जनावग्रह नहीं होता)। अर्थ के साथ सम्बन्ध होने पर मन का (भी) कोई अनुपलब्धि-काल नहीं होता, इसलिए उसका व्यअनावग्रह नहीं होता। किन्तु वहां व्यअनावग्रह का होना माना जाता है, उसका ज्ञेय के साथ सम्बन्ध होने पर अनुपलब्धि-काल असंभव नहीं होता, जैसे श्रोत्र में (अनुपलब्धिकाल) असंभव होता है और इसलिए व्यअनावग्रह नहीं होता) -यह व्यतिरेक दृष्टान्त है। इस प्रकार, पर (पूर्वपक्ष) द्वारा कहे गये दोनों पक्षों (कथनों) में ही मन के व्यअनावग्रह का निराकरण करने के बाद, (भाष्यकार) उपसंहार रूप से कह रहे हैं- (न व्यञ्जनं तस्मात्) / इसलिए उक्त रीति से मन का व्यअनावग्रह संभव नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 241 // मन का व्यञ्जनावग्रह किस कारण से नहीं होता -इस आशंका को मन में रख कर (भाष्यकार) इस सम्बन्ध में विशेष युक्ति का कथन कर रहे हैं || 242-243 // समए समए गिण्हइ दव्वाइंजेण मुणइ य तमत्थं / जं चिंदिओपओगे वि वंजणावग्गहे ऽतीते || होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ। होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न प्पवत्तेज्जा // [(गाथा-अर्थ :) (व्यक्ति) प्रत्येक समय में (मनो-) द्रव्यों को ग्रहण करता है जिससे वह उस (ज्ञेय) अर्थ को जानता है। इन्द्रियों के उपयोग (के समय) में भी व्यञ्जनावग्रह (का काल) बीत जाने पर प्रथम समय से ही मन का अर्थावग्रह रूप व्यापार होता (रहता) है, अन्यथा उस (मन) की प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी।] --------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 353 2 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति मनोव्यापारः प्रथमादेव तेन समयात् / भवति तदर्थग्रहणं तदन्यथा न प्रवर्तेत // ] 'समए समए त्ति'। प्रतिसमयमित्यर्थः / इदमुक्तं भवति- मनोद्रव्यग्रहणशक्तिसंपन्नो जीवः कस्यचिदर्थस्य चिन्तावसरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति, तं च चिन्तनीयमर्थं प्रतिसमयं 'मुणइ त्ति' जानाति येन कारणेन, तेन प्रथमसमयादेव भवति तस्य चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमिति द्वितीयगाथायां संबन्धः, प्रथमसमयादेवाऽर्थावबोधः प्रवर्तत इत्यर्थः, अर्थानुपलब्धिकालस्त्वेकोऽपि समयो नास्ति, अतो न मनसो व्यञ्जनावग्रहसंभव इति भावः॥ आह- नन्वपवरकादिव्यवस्थितो यदेन्द्रियव्यापाररहित: केवलेन रपीमनसाऽर्थान् लोचयति, तदा मा भूद् मनसो व्यञ्जनावग्रहः, यस्तु श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारे मनसोऽपि व्यापारस्तत्र प्रथममनुपलब्धिकालस्य भवद्भिरपीष्यमाणत्वात् किमिति व्यञ्जनाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नेष्यते?, इत्याशङ्कयाह- 'जं चिंदिओवओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते होइ वावारो त्ति'। यच्च यस्माच्च कारणादिन्द्रियस्य श्रोत्रादेरुपयोगेऽपि शब्दाद्यर्थग्रहणकालेऽपीत्यर्थः। किम्?, इत्याह- व्यञ्जनावग्रहेऽतीते ते मनसो व्यापारो भवति। व्याख्याः - (समये समये इति)। समय-समय में, अर्थात् प्रत्येक समय में / तात्पर्य यह है कि मनोद्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति से सम्पन्न जीव किसी अर्थ का चिन्तन करते हुए, प्रत्येक समय में मनोद्रव्यों का ग्रहण करता रहता है, और (तभी) उस चिन्तित (चिन्तन के विषयभूत, चिन्त्यमान) पदार्थ को प्रत्येक समय जानता है। (वह इसीलिए जानता है) क्योंकि वह प्रथम समय से ही उस चिन्त्यमान अर्थ का ग्रहण करता है- इस प्रकार प्रथम गाथा का द्वितीय गाथा से सम्बन्ध (कर्तव्य) है, अर्थात् प्रथम समय से ही अर्थबोध चालू हो जाता है (यह कहा जा रहा है)। तात्पर्य यह है कि यहां अर्थानुपलब्धि-काल (व्यअनावग्रह रूप) तो कोई भी समय नहीं होता, अतः मन के व्यञ्जनावग्रह सम्भव नहीं होता। (शंका-) जब कोई किसी बन्द कमरे आदि में बैठा हो और इन्द्रिय-व्यापार से रहित होने से केवल मन से पदार्थों का चिन्तन-मनन करे, तो भले ही उसके मन का व्यअनावग्रह न हो, किन्तु जब श्रोत्र आदि इन्द्रियां कार्यरत हों, और साथ ही मन का भी व्यापार हो, वहां पहले अनुपलब्धिकाल का सद्भाव है- इसे तो आप भी मानते हैं। ऐसी स्थिति में व्यञ्जन से (उस समय होने वाले व्यअनावग्रह के कारण) मन के भी व्यअनावग्रह (के सद्भाव) को आप क्यों नहीं मानते? -इस शंका को मन में रख कर (भाष्यकार ने) कहा- (यच्च इन्द्रियोपयोगेऽपि व्यञ्जनावग्रहे अतीते भवति मनोव्यापारः -इति)। अर्थात् (इस कारण से नहीं मानते) क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रिय के उपयोग की स्थिति में भी, शब्दादि पदार्थों के ग्रहण करते हुए भी। (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- (व्यअनावग्रहे अतीते, मनोव्यापारो भवति) (अर्थात् व्यञ्जनावग्रह-काल बीत जाने पर ही, मन का व्यापार प्रारम्भ होता है, पहले नहीं) 354 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- न केवलं मनसः केवलावस्थायां प्रथममर्थावग्रह एव व्यापारः, किन्तु श्रोत्रादीन्द्रियोपयोगकालेऽपि तथैव। तथाहि- श्रोत्रादीन्द्रियोपयोगकाले व्याप्रियते मनः, केवलमर्थावग्रहादेवाऽऽरभ्य, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले। अर्थावबोधस्वरूपो हि व्यञ्जनावग्रह :, तदवबोधकारणमात्रत्वात् तस्य, मनस्त्वर्थावबोधरूपमेव, मनुतेऽर्थान्, मन्यन्तेऽर्था अनेनेति वा मन सान्वर्थाभिधानाभिधेयत्वात्। किञ्च, यदि व्यञ्जनावग्रहकाले मनसो व्यापारः स्यात् तदा तस्याऽपि व्यञ्जनावग्रहसद्भावादष्टाविंशतिजातिभेदभिन्नता मतेर्विशीर्येत / तस्मात् प्रथमसमयादेव तस्याऽर्थग्रहणमेष्टव्यम्। अन्यथा किमत्र बाधकम्?, इत्याह- 'तदण्णहा न पवत्तेज्ज त्ति'। यदि हि प्रथमसमयादेव मनसोऽर्थग्रहणं नेष्यते तदा तस्य मनस्त्वेन प्रवृत्तिरेव न स्यादनुत्पत्तिरेव स्यादित्यर्थः। यथा स्वाभिधेयानर्थान् भाषमाणैव भाषा भवति, नान्यथा। यथा च स्वविषयभूताननवबुध्यमानान्येवाऽवध्यादिज्ञानान्यात्मलाभ लभन्ते, अन्यथा तेषामप्रवृत्तिरेव स्यादिति। एवं स्वविषयभूतानर्थान् प्रथमसमयादारभ्य मन्वानमेव मनो भवति, अन्यथाऽवध्यादिवत् प्रवृत्तिरेव न स्यात्। तस्मात् तस्याऽनुपलब्धिकालो नास्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् / न चैतत् स्वमनीषिकया मात्रमुच्यते, आगमेऽपि व्यञ्जनावग्रहेऽतीत एवेन्द्रियोपयोगे मनसो व्यापाराभिधानात, तथा चोक्तं कल्पभाष्ये - तात्पर्य यह है कि जहां केवल मन की (ही) प्रवृत्ति हो रही हो, मात्र वहीं, प्रतमतया अर्थावग्रह रूप व्यापार होता हो- ऐसा नहीं। किन्तु श्रोत्र आदि इन्द्रियों के उपयोग के समय में भी, वैसा (प्रथमतः अर्थावग्रह) ही होता है। और, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के उपयोग की स्थिति में भी मन व्यापाररत तो होता है, किन्तु अर्थावग्रह के काल से ही, न कि व्यञ्जनावग्रह के काल में / व्यञ्जनावग्रह वह है जहां अर्थ का अवबोध (स्पष्ट व पूर्ण) न हो, वह व्यञ्जनावग्रह तो अर्थबोध में कारण मात्र ही होता है। किन्तु मन तो अर्थ बोध रूप ही होता है, क्योंकि 'मन' एक अन्वर्थक नाम (नाम के अनुसार गुणादि वाला) है जिसका अभिधेय (कथ्य) अर्थ होता है- जो (मनुते अर्थान्) अर्थों को जाने, अथवा (मन्यन्ते अर्था अनेन) जिसके द्वारा पदार्थों का बोध (ज्ञान) हो। . दूसरी बात, यदि (श्रोत्र आदि के) व्यञ्जनावग्रह की स्थिति में (भी) मन का व्यापार (मान्य) हो तो मन के भी व्यञ्जनावग्रह होने से (मतिज्ञान के 28 भेद जो बताए गये हैं, उनमें वृद्धि हो जाएगी, और) 28 भेदों वाली ‘मति' (की मान्यता) का खण्डन हो जाएगा। इसलिए यही मानना उचित है कि प्रथम समय से ही मन का अर्थावग्रह होता है। (शंका-) अन्यथा (अर्थात् ऐसा न मानने में) क्या बाधक है? इस शंका का उत्तर दिया- (तदन्यथा न प्रवर्तेत)। अर्थात् यदि प्रथम समय से ही मन के अर्थावग्रह होना नहीं माना जाय तो उसकी 'मन' रूप से प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी। जैसे, 'भाषा' तभी कहलाती है जब वह अपने अभिधेय (कथ्य) अर्थों को कह रही हो, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार 'अवधि' आदि ज्ञानों की स्थिति तभी (मान्य) है जब वे अपने विषयभूत पदार्थों को जान रहे हों, अन्यथा उन (अवधि आदि ज्ञानों) की प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मन का (कोई) अनुपलब्धि-काल नहीं होता, इसलिए उसका व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। और, यह सब अपनी बुद्धि से, मात्र युक्ति का कथन कर रहे हों- ऐसा नहीं, क्योंकि आगम में भी कहा गया है कि (श्रोत्र a ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 355 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अस्थाणंतरचारी चित्तं निययं तिकालविसयं ति। अत्थे उ पडुप्पण्णे विणिओगं इंदियं लहइ"॥१॥ [अर्थानन्तरचारि चित्तं नियतं त्रिकालविषयमिति। अर्थे तु प्रत्युत्पन्ने विनियोगमिन्द्रियं लभते॥] अत्र व्याख्या- अर्थे शब्दादौ श्रोत्रादीन्द्रियव्यञ्जनावग्रहेण गृहीतेऽनन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चरति प्रवर्तते, इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले तस्य प्रवृत्तिरिति भावः। त्रिकालविषयं चित्तं, सांप्रतकालविषयं त्विन्द्रियम्। इत्यलं विस्तरेण // गाथार्थः // 242 // 24 // अमुमेव मनसोऽनुपलब्धिकालासंभवं सयुक्तिकं भावयन्नाह नेयाउ च्चिय जं सो लहइ सरूवं पईव-सद्द व्व। तेणाजुत्तं तस्सासंकप्पियव्वंजणग्गहणं // 244 // [संस्कृतच्छाया:- ज्ञेयादेव यत् तत् लभते स्वरूपं प्रदीप-शब्दाविव। तेन अयुक्तं तस्य असंकल्पितव्यञ्जनग्रहणम् // ] आदि इन्द्रिय-सम्बन्धी उपयोग में भी व्यअनावग्रह-काल बीत जाने पर ही, मन का व्यापार होता है। उदाहरण-स्वरूप) जैसे कल्पभाष्य में कहा गया है "अर्थ (पदार्थ को व्यञ्जनावग्रह से ग्रहण करने) के बाद ही मन का चरण (प्रवर्तन, व्यापार) होता है। नियत रूप से चित्त त्रिकालविषयग्राही होता है। इन्द्रिय की प्रवृत्ति तो तभी होती है जब अर्थ (पदार्थ) विद्यमान हो।" इस गाथा का व्याख्यान इस प्रकार है- शब्द आदि अर्थ में श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा व्यञ्जनावग्रह किये जाने के अनन्तर, अर्थावग्रह के काल से लेकर यह प्रवृत्त होता है, इसलिए मन 'अर्थानन्तरचारी' (कहा जाता) है। चित्त (मन) तो त्रिकालविषयी है, किन्तु इन्द्रियां वर्तमानकाल को ही विषय करती हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 242-243 // (मन का कोई अनुपलब्धि-काल नहीं) मन के अनुपलब्धिकाल की इस असम्भावना को ही (भाष्यकार) युक्तिपूर्वक प्रस्तुत कर रहे हैं // 244 // नेयाउ च्चिय जं सो लहइ सरूवं पईव-सद्द व्व | तेणाजुत्तं तस्सासंकप्पियव्वंजणग्गहणं // [(गाथा-अर्थ :) प्रदीप व शब्द की तरह, वह (मन, अपने) ज्ञेय वस्तु से ही स्वरूप (स्वअस्तित्व) को प्राप्त करता है। इसलिए उस (मन) द्वारा असंकल्पित (अचिन्तित) व्यञ्जनों (शब्दादि परिणत द्रव्यों) का ग्रहण (मानना) युक्तियुक्त नहीं।] Ma 356 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसमयं मनोद्रव्योपादानं ज्ञेयार्थावगमश्च मनसो भवत्येव, न पुनस्तस्यानुपलब्धिकालः संभवति। कुत:?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात्।'सो' इति प्राकृतशैल्या नपुंसकमपि मनःसंबध्यते। ज्ञायत इति ज्ञेयं चिन्तनीयं वस्तु तस्मादेव,स्वरूपमात्मसत्तास्वभावं लभते, नाऽन्यतः। ततो यदि तदेव ज्ञेयं नावगच्छेत्, तर्हि तस्मादुत्पत्तिरप्यस्य कथं स्यात्?। इदमुक्तं भवति- सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभिधेया हि मनःप्रभृतयः। तद्यथा- मनुते मन्यते वा मनः, प्रदीपयतीति प्रदीपः, शब्दयति भाषत इति शब्दः, दहतीति दहनः, तपतीति तपनः। एतानि च विशिष्टक्रियाकर्तृत्वप्रधानानि मनःप्रभृतिवस्तूनि यदि तामेवाऽर्थमनन-प्रदीपन-भाषणादिकामर्थक्रियां न कुर्युः, तदा तेषां स्वरूपहानिरेव स्यात् / तस्माद् यथा प्रदीपनीय-शब्दनीयवस्त्वपेक्षया प्रदीप-शब्दाभिधानप्रवृत्ते : प्रदीप-शब्दयोरर्थयोरप्रदीपनमशब्दनं चायुक्तम्, तथा मनसोऽपि मननीयवस्तुमननादेव मनोऽभिधानप्रवृत्तेस्तदमननं न युक्तम्। ततः किम्?, इत्याह- येनैवम्, तेनाऽसंकल्पितान्यनालोचितानि, अनवगतानीति यावत्, व्याख्याः- प्रतिसमय मनोद्रव्यों का उपादान तथा ज्ञेय का ज्ञान मन द्वारा किया जाता ही है, उसका कोई अनुपलब्धि-काल सम्भव ही नहीं। (प्रश्न-) क्यों सम्भव नहीं? उत्तर दिया- वह इस कारण से क्योंकि (स ज्ञेयादेव -इत्यादि)। [यहां गाथा में 'सो' शब्द प्रयुक्त है जो पुंलिङ्ग में है। किन्तु वह नपुंसक लिङ्ग वाले मन का विशेषण कैसे हो सकता है? इस आशंका का उत्तर दिया जा रहा हैकी] यद्यपि 'सः' पुल्लिङ्ग है, किन्तु प्राकृत भाषा की शैली के अनुरूप, नपुंसक मन के साथ सम्बद्ध होता है (अर्थात् यह नपुंसक लिङ्ग में परिवर्तित होकर मन का विशेषण होता है- ऐसा परिवर्तन प्राकृत भाषा में मान्य है- यह तात्पर्य है)। ज्ञेय यानी जो जाना जाय अर्थात् मन के चिन्तन में आने वाली वस्तु, उसी वस्तु से ही (मन अपने मनन-चिन्तनमय) स्वरूप को- अपनी आत्मीय सत्ता को प्राप्त करता है, और किसी (अन्य रीति) से नहीं। यदि वह 'मन' (होकर) भी ज्ञेय को अवगत (ज्ञात) न कर पाये तो उस ज्ञेय से उस (के सार्थक स्वरूप) की उपलब्धि कैसे सम्भव हो पाएगी? तात्पर्य यह है कि 'मन' आदि (जो) शब्द (हैं, वे) अन्वर्थक क्रियावाचक शब्द के अभिधेय अर्थ से युक्त हैं। जैसे, जो मनन यानी अवबोधन, चिन्तन करता है या जानता है, वह 'मन' होता है * (इसके विपरीत स्वरूप वाला कोई पदार्थ 'मन' नहीं कहलाता)।जो दीप्त, दीपित, प्रकाशित करता है, वह (ही) दीपक (कहलाने योग्य) होता है। जो (अक्षरात्मक) ध्वनि बनता है, यानी बोलता (या बोला जाता है), वह (ही) शब्द (कहलाता) है। (इसी प्रकार) जो जलाता है, वह दहन (अग्नि) होता है। जो तपता है, वह तपन (सूर्य) होता है। ये (सभी) (किसी न किसी) विशिष्ट क्रिया के कर्तृत्व की प्रधानता वाले 'मन' आदि पदार्थ, पदार्थ-सम्बन्धी मनन, प्रदीपन, भाषण आदि उन (अपनी सम्बद्ध विशिष्ट अर्थक्रिया को ही यदि न करें, तब तो उनके स्वरूप का नाश ही हो जाएगा। इसलिए, जिस प्रकार प्रकाशित होने वाली या शब्द रूप में प्रकट होने वाली वस्तु की अपेक्षा से प्रदीप व शब्द- ये नाम (व्यवहार में) प्रवृत्त (प्रचलित) होते हैं, और (इसलिए) प्रदीप व शब्द द्वारा प्रदीपन न करना तथा शब्द रूप प्रकट न करना युक्तियुक्त नहीं होता, उसी प्रकार 'मन' का 'मन' यह नाम तभी प्रवृत्त होगा जब वह (किसी) मननीय वस्तु का मनन कर रहा हो, और (इसलिए) उसका मनन (ज्ञान) से रहित होना युक्तियुक्त (संगत) नहीं होगा। (शंका-) इससे क्या (सिद्ध हुआ)? उत्तर दिया- (येन एवं, तेन ------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 357 - - - - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंकल्पितानि च तानि शब्दादिविषयभावेन परिणतद्रव्यरूपाणि व्यञ्जनानि च तेषां ग्रहणमसंकल्पितव्यञ्जनग्रहणं तस्य मनसोऽयुक्तम्,' किन्तु संकल्पितानामेवाऽर्थावग्रहद्वारेणाऽवगतानामेव तेषां शब्दादिद्रव्याणां ग्रहणं युक्तम्। तस्माद् न मनसोऽनुपलब्धिकालोऽस्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रहसंभव इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥२४४ // तदेवं नयन-मनसोर्विस्तरेणाऽप्राप्यकारितायां साधितायां नयनपक्षेऽद्यापि दूषणशेषमुत्पश्यन् परः प्राह जइ नयणिन्दियमपत्तकारि सव्वं न गिण्हए कम्हा?। गहणागहणं किंकयमपत्तविसयत्तसामन्ने? // 245 // [संस्कृतच्छाया:- यदि नयनेन्द्रियम् अप्राप्तकारि, सर्वं न गृह्णाति कस्मात् ? ग्रहण-अग्रहणं किं कृतम् अप्राप्तविषयत्वसामान्ये?] यद्युक्तयुक्तिभ्यो नयनेन्द्रियमप्राप्तकारि, तर्हि सर्वमपि त्रिभुवनान्तर्वर्तिवस्तुनिकुरम्बं कस्माद् न गृह्णाति, अप्राप्तत्वाविशेषात्?। एतदेव व्यक्तीकरोति-अप्राप्तो विषयो यस्य तदप्राप्तविषयं तद्भावोऽप्राप्तविषयत्वं तस्मिन् सामान्येऽविशिष्टेऽपि सति यदिदं कस्यचिदर्थस्य ग्रहणं, कस्यचिदग्रहणं, तत् किंकृतं किंनिबन्धनम्?, नेह किञ्चिद् निबन्धनमुत्पश्याम इति भावः॥ इति गाथार्थः॥२४५॥ असंकल्पित-व्यअनावग्रहणं तस्य अयुक्तम्) / उक्त कारण से, (मन द्वारा) असंकल्पित, अनालोचित, अनवगत आदि (अर्थ ग्राह्य नहीं होता)। असंकल्पित व्यञ्जन-ग्रहण, अर्थात् शब्दादि विषय रूप से परिणत द्रव्य रूप जो असंकल्पित 'व्यअन' हैं, उनका ग्रहण, उसे मन का मानना युक्तियुक्त नहीं, किन्तु अर्थावग्रह के माध्यम से अवगत हुए- स्वसंकल्पित उक्त शब्द आदि द्रव्यों का ग्रहण (मन द्वारा) किया जाना ही उपयुक्त है। इसलिए मन का कोई अनुपलब्धि-काल नहीं होता, और (इसीलिए) उसका व्यञ्जनावग्रह भी (होना) संभव नहीं है- यह सिद्ध हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 244 // (मन की अप्राप्यकारिता में सब विषयों का ग्रहण क्यों नहीं?) इस प्रकार, विस्तारपूर्वक नेत्र इन्द्रिय व मन की अप्राप्यकारिता की सिद्धि कर दी गई, किन्तु परपक्ष 'नेत्र' पक्ष में अब भी (कुछ) अवशिष्ट दोष देख रहा है और वह कह रहा है // 245 // जइ नयणिन्दियमपत्तकारि सव्वं न गिण्हए कम्हा?। गहणागहणं किंकयमपत्तविसयत्तसामन्ने ? // [(गाथा-अर्थ :) यदि नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है तो वह सभी वस्तुओं को क्यों नहीं ग्रहण करती? सामान्यतया अप्राप्तविषयता की अपेक्षा से समानता रखते हुए भी, इसमें आखिर क्या कारण है कि मन किसी का ग्रहण करता है और किसी का नहीं करता?] व्याख्याः- यदि उपर्युक्त युक्तियों के आधार पर (यह मान लें कि) नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, तो क्या कारण है कि वह तीनों लोकों के अन्दर विद्यमान वस्तु-समूह को नहीं जान पाती, क्योंकि अप्राप्तपना (अस्पृष्टपना) तो (सभी पदार्थों में) सामान्यतया है ही (अर्थात् नेत्र के लिए तो तीनों लोकों के पदार्थ 'अप्राप्त' हैं, अतः ग्राह्य होने में क्या बाधा है?) इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं- (अप्राप्तNa 358 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्माद् भो आचार्य! तस्य चक्षुषो विषयपरिमाणाऽनैयत्यमाप्नोति, इत्येतदेवाह विसयपरिमाणमनिययमपत्तविसयं ति तस्स मणसो व्व। मणसो वि विसयनियमो न कमइ जओ स सव्वत्थ // 246 // [संस्कृतच्छाया:-विषयपरिमाणमनियतम् अप्राप्तविषयम् इति तस्य मनस इव / मनसोऽपि विषयनियमः, न क्रामति यतः स सर्वत्र // ] विषयस्य ग्राह्यस्य परिमाणमनियतमपरिमितं प्राप्नोति तस्य चक्षुष इति प्रतिज्ञा / हेतुमाह- अप्राप्तविषयमिति कृत्वा / मनस इवेति दृष्टान्तः। प्रयोगः- यदप्राप्तमपि विषयं परिच्छिनत्ति, न तस्य तत्परिमाणं युक्तं, यथा मनसः, अप्राप्तं च विषयमवगच्छति च तस्माद् न तस्य तत्परिमाणं युक्तमिति। विषयसामान्ये)। जिसके लिए विषय अप्राप्त (अस्पृष्ट) होकर (भी) ज्ञात हो जाता है, उसे 'अप्राप्तविषय' कहते हैं, और उसका स्वरूप (भाव) ही 'अप्राप्तविषयता' है। जब (नेत्र में) अप्राप्तविषयता सामान्य यानी अविशेष स्वरूप है, उसके होने पर भी नेत्र किसी अर्थ को ग्रहण करता है और किसी को नहीं, तो इसमें क्या कारण (या नियामक हेतु) है? (अर्थात्) इसमें हमें तो कोई कारण दिखाई नहीं देता - -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 245 // इसलिए हे आचार्य! (अप्राप्यकारी मानने पर) उस नेत्र के विषय-परिमाण में अनियमितता (सर्वज्ञता) होने का दोष खड़ा होता है- इसी बात को पूर्वपक्ष कह रहा है (और जिसका निराकरण भी भाष्यकार यहीं कर रहे हैं) // 246 // विसयपरिमाणमनिययमपत्तविसयं ति तस्स मणसो व्व। मणसो वि विसयनियमो न कमइ जओ स सव्वत्थ // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) (अप्राप्तविषयम्) मन की तरह ही अप्राप्तविषय उस (नेत्र इन्द्रिय) के ग्राह्य विषयों का परिमाण भी असीमित होना चाहिए! (किन्तु ऐसा होता नहीं, ऐसा आखिर क्यों?) (उत्तर-) चूंकि मन भी सभी पदार्थों में संक्रमण नहीं करता, इसलिए मन के भी तो (ग्राह्य) विषय नियमित (सीमित) ही होते हैं (उसी तरह नेत्र इन्द्रिय के विषय में भी समझ लेना चाहिए)।] व्याख्याः- (नेत्र को अप्राप्यकारी मानने पर) उस नेत्र के ग्राह्य विषय का परिमाण अनियत, अपरिमित होने लगेगा -यह प्रतिज्ञा है। इसमें हेतु है- इसलिए कि वह अप्राप्तविषय (अप्राप्यकारी) है। इसमें दृष्टान्त है-मन की तरह। इस संदर्भ में युक्ति (या अनुमान-वाक्य) इस प्रकार है- जो भी (इन्द्रिय या अनिन्द्रिय) अप्राप्त (अस्पृष्ट) विषय को भी ज्ञेय बनाता है (अर्थात जानता है), उसके विषयों का परिमाण (परिमित या सीमित होना) युक्तियुक्त नहीं, जैसे मन / नेत्र इन्द्रिय भी अप्राप्त (अस्पृष्ट) होकर विषय का ज्ञान करती है, इसलिए उसके विषय के परिमाण को भी नियत (सीमित) मानना युक्तियुक्त नहीं। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 359 र Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथेह प्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यं सूरिरुपदर्शयति- मनसो दृष्टान्तीकृतस्याऽप्राप्यकारिणो विषयनियमो 'अस्त्येव' इति शेषः। कुत:?, इत्याह- यतः स त्ति'। तदपि मनः सर्वेष्वप्यर्थेषु न क्रामति न प्रसरति // इति गाथार्थः // 246 // तथाहि अत्थग्गहणेसु मुज्झइ सन्तेसु वि केवलाइगम्मेसु। तं किंकयमग्गहणं अपत्तकारित्तसामन्ने? // 247 // [संस्कृतच्छाया:- अर्थगहनेषु मुह्यति सत्स्वपि केवलादिगम्येषु / तत् किंकृतम् अग्रहणम् अप्राप्तकारित्वसामान्ये॥] अर्था एव मतेर्दुष्प्रवेशत्वाद् गहनानि अर्थगहनानि तेष्वनन्तेषु सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि। कथंभूतेषु? इत्याह- केवलं केवलज्ञानमादिर्येषामवधिज्ञानाऽऽगमादीनां तानि केवलादीनि, तैर्गम्यन्ते ज्ञायन्ते केवलादिगम्यानि तेषु। एवंभूतेष्वर्थगहनेषु सत्स्वपि कस्यचिद् मन्दमतेर्जन्तोर्मनो मुह्यति कुण्ठीभवति तदवगमाय न प्रभवति- तान् गहनभूतान् केवलादिगम्यान् सतोऽप्यर्थान् न गृह्णातीति अब (भाष्यकार उक्त पूर्वपक्ष के आरोप में दोष उद्भावित करने हेतु) उक्त युक्ति (अनुमावाक्य) में दृष्टान्त के साध्यविकलता दोष को उद्भावित कर रहे हैं- (मनसोऽपि)। दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत किये गये मन के अप्राप्यकारी होते हुए भी 'विषय-नियम' (विषय-परिमाण का नियतपना, सीमितपना) -इसके आगे जोड़े- 'नहीं ही है'। (प्रश्न-) कैसे (नहीं है)? उत्तर दिया- (सः इति)। वह मन भी तो सभी पदार्थों में संक्रमण या प्रसार नहीं करता। (अतःमन रूपी दृष्टान्त में 'विषयपरिमाणअनियतता' रूपी साध्य का सद्भाव नहीं, अपितु अभाव है, इसलिए दृष्टान्त 'साध्यविकल' है, दोषग्रस्त है। अतः नेत्र इन्द्रिय के विषय-परिमाण की अनियतता सिद्ध नहीं हो पाती ) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 246 // और // 247 // अत्थग्गहणेसु मुज्झइ सन्तेसु वि केवलाइगम्मेसु। . तं किं कयमग्गहणं अपत्तकारित्तसामन्ने ? || [(गाथा-अर्थ :) केवलज्ञान आदि से ज्ञेय (अनन्त) गहन पदार्थों के विद्यमान होने पर भी (किसी मन्दमति का मन) मोहग्रस्त (जानने में अक्षम) हो जाता है (तो आप-पूर्वपक्षी भी बताएं कि) अप्राप्यकारिता समान होते हुए (भी) वह क्या कारण है जिससे (सभी पदार्थों का) ग्रहण नहीं होता?] व्याख्याः - (अर्थगहनेषु) जो पदार्थ गहन हैं, गहनता इसलिए है कि मतिज्ञान उनमें कठिनता से प्रविष्ट होता है। ऐसे गहन पदार्थ अनन्त हैं, उनकी विद्यमानता है, फिर भी। (प्रश्न-) वे पदार्थ कैसे हैं? बता रहे हैं- (केवलादिगम्येषु) / (वे पदार्थ) 'केवल ज्ञान' आदि अर्थात् अवधिज्ञान, श्रुत ज्ञान आदि जो ज्ञान हैं, उनसे ज्ञेय हैं। ऐसे गहन पदार्थों के विद्यमान होने पर भी, किसी-किसी मन्दमति प्राणी का मन वहां मुग्ध यानी कुण्ठित हो जाता है, अर्थात् उनको जानने में वह सक्षम नहीं होता। तात्पर्य Ma 360 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्यम् / तदत्राहमपि भवन्तं पृच्छामि- तदेतद् मनसोऽग्रहणमर्थानां किंकृतं किंनिबन्धनम्?, अप्राप्तकारित्वसामान्येऽप्राप्तकारित्वे तुल्येऽपीत्यर्थः। तस्माद् मनसोऽपि विषयपरिमाणसद्भावादनन्तरगाथोक्तः साध्यविकलो दृष्टान्त इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 247 // तत् किंकृतमग्रहणमर्थानाम्?, इत्यत्र पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राह कम्मोदयओव्व सहावओव्वनणु लोयणे वितं तुल्लं। तुल्लो व उवालंभो एसो संपत्तविसए वि॥२४८ // [संस्कृतच्छाया:- कर्मोदयतो वा स्वभावतो वा लोचनेऽपि ननु तत् तुल्यम्। तुल्यो वा उपालम्भ एष संप्राप्तविषयेऽपि॥] यत् केषांचिदर्थानां मनसोऽग्रहणं तत् 'तदावरणकर्मोदयाद् वा, स्वभावाद् वा' इति परो ब्रूयात्। नन्वेतल्लोचनेऽपि तुल्यम्,यतस्तदप्यप्राप्यकारित्वे तुल्येऽपि कर्मोदयात्, तत्स्वाभाव्याद् वा कांश्चिदेवाऽर्थान् गृह्णाति न सर्वानिति। तदेवं नयनस्याऽप्राप्यकारित्वेऽतिप्रसङ्गलक्षणं प्राप्तकारिवादिना यद् दूषणमुक्तं तत्परिहृतम्। यह है कि यद्यपि यह है कि यद्यपि केवलि-ज्ञेय वे गहन पदार्थ विद्यमान भी होते हैं, फिर भी, मन उन्हें ग्रहण नहीं करता, नहीं जान पाता। अब, (इस वस्तुस्थिति में) हम भी आप (पूर्वपक्ष) से यह पूछते हैं कि मन द्वारा इन पदार्थों को ग्रहण न कर पाने में आखिर क्या कारण है, हेतु है? वहां अप्राप्यकारिता तो समान ही है- यह अर्थ है। (मन के लिए वे सभी अज्ञात पदार्थ, ज्ञात पदार्थों की तरह ही, समान रूप से अप्राप्त-अस्पृष्ट हैं, फिर क्या कारण है मन के लिए ये पदार्थ अज्ञात रह जाते हैं?) इसलिए, मन के भी विषय-परिमाण होता है (उसके विषय परिमित ही होते हैं) -इस दृष्टि से आप (पूर्वपक्ष) द्वारा मन का जो दृष्टान्त दिया गया, वह साध्य (विषय-अपरिमितता) से रहित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 247 // .. (समस्त) पदार्थों के अ-ग्रहण में क्या कारण हैं- इस विषय में पूर्वपक्ष की ओर से संभावित उत्तर को दृष्टि में रख कर भाष्यकार कह रहे हैं // 248 // कम्मोदयओ व्व सहावओ व नणु लोयणे वि तं तुल्लं / तुल्लो व उवालंभो एसो संपत्तविसए वि // [(गाथा-अर्थ :) (ज्ञानावरण आदि) कर्मों के उदय से, या स्वभाव (-गत असामर्थ्य) के कारण, (मन द्वारा) पदार्थों का अग्रहण होता है (ऐसा आप पूर्वपक्षी कहें), तो यही कारण नेत्र इन्द्रिय में भी समान रूप से कार्यकारी) है। अथवा (आपने) जो उपालम्भ दिया है, वह तो 'संप्राप्तविषय' में भी लागू होता है (अर्थात् उन्हें प्राप्यकारी मानने पर भी तो यही उपालम्भ दिया जा सकता है, अतः उक्त उपालम्भ का औचित्य नहीं रहा)।] __ व्याख्याः- मन द्वारा जो किन्हीं पदार्थों का ग्रहण नहीं होता, वह सम्बन्धित आवरण कर्म के उदय से, या अपने वैसे (सीमित) स्वभाव के कारण होता है- ऐसा परपक्ष द्वारा कहा जा सकता है, तो (हमारा कहना है कि) यही समान कारण नेत्र इन्द्रिय में भी लागू हो सकता है, क्योंकि नेत्र भी तो MA----------- विशेषावश्यक भाष्य -------- ------ 361 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा यो नयन-मनसोः प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छति, तस्याऽप्येतद् दूषणमापतत्येव, यच्च द्वयोर्दूषणं न तदेकस्य दातुमुचितम्, , इत्येतच्चेतसि निधाय प्राह- 'तुल्लो वेत्यादि'। वेत्यथवा। एषोऽतिप्रसङ्गलक्षण उपालम्भस्तुल्यः समानः। क्व?, इत्याहसंप्राप्तविषयत्वेऽपि नयन-मनसोरभ्युपगम्यमाने। तथाहि- अत्रापि शक्यते वक्तुम्- यदि प्राप्तमर्थं गृह्णाति चक्षुः, तर्हि अतिसंप्राप्तानप्यञ्जन-रजो-मल-शलाकादीन् कस्माद् न गृह्णाति?। मनोऽपि प्राप्तान् सर्वानपि किमिति न गृह्णाति?। गृह्णात्येवेति चेत्। न, ग्रहणाऽनवस्थानप्रसङ्गात्- यावद्धि घटं गृह्णाति, तावत् पटं, शङ्ख, शुक्तिकादीन् वा किमिति न गृह्णातीति?। घटप्राप्तिकाले पटादयो न प्राप्ता एवेति चेत् / न, तदप्राप्तौ हेत्वभावात्, तथाहि- न तावत् कट-कुट्यादयस्तेषामावारकाः, तैरन्तरितानामपि मेर्वादीनां मनसा परिच्छेदानुभवात् / कर्मोदयात्, स्वभावाद् वा प्रतिनियतमेव मनः प्राप्नोतीति चेत्। नन्वेतदप्राप्यकारिणो नयनस्यापि समानम्॥ इति गाथार्थः // 248 // अप्राप्यकारिता समान होने पर भी, कर्मोदय के कारण या अपने वैसे स्वभाव के कारण, कुछ . . (सीमित) पदार्थों को ही ग्रहण करती है, न कि सभी को। इस प्रकार, नेत्र इन्द्रिय की अप्राप्यकारिता में पर-पक्ष द्वारा (समस्त पदार्थ-ज्ञान आदि होने की) अतिप्रसक्ति का जो दोष बताया गया था, वह निरस्त हो जाता है। अथवा, जो लोग नेत्र व मन -इन दोनों को प्राप्यकारी मानते हैं, उनके समक्ष भी तो यही दोष सम्भावित है। (अर्थात् चाहे नेत्र व मन को प्राप्यकारी मानें या अप्राप्यकरी, कुछ को जानना और कुछ को न जानना -यह अनियमितता क्यों हैं? -यह आपत्ति व उपालम्भ दोनों पक्षों में समान रूप से है।) और, जो दोनों पक्षों में संभावित दोष होता है, उसे एक पक्ष में उठाना उचित नहीं होता- इस (तथ्य) को अपने मन में रख कर (भाष्यकार ने) कहा- (तुल्यो वा)। 'वा' यानी अथवा। यह अतिप्रसक्ति रूप उपालम्भ (दोनों पक्षों में) समान ही है। (प्रश्न-) उक्त उपालम्भ कहां-कहां समान है? उत्तर दिया- (संप्राप्तविषये अपि)। यदि नेत्र व मन -इन दोनों को प्राप्यकारी भी मानें, तो भी (उक्त उपालम्भ उसी तरह दिया जा सकता है)। जैसे, (प्राप्यकारी की जहां मान्यता है) वहां भी यह कहा जा सकता है- नेत्र प्राप्त (स्पृष्ट) विषय को (ही) ग्रहण करती है, तो (वह नेत्र) अत्यधिक स्पर्श वाले अञ्जन, रज, मल, शलाका आदि को क्यों नहीं ग्रहण कर पाती? मन भी प्राप्त (विद्यमान) सभी पदार्थों को क्यों नहीं ग्रहण करता? यह कहना कि “(मन) प्राप्त पदार्थों को ग्रहण करता ही है” समीचीन नहीं है, क्योंकि (ऐसा मानने पर) विषय-ग्रहण में अनवस्था-सम्बन्धी (अर्थात् अनियतता का) दोष आ जाएगा -(जैसे कि) जितनी देर घड़े को ग्रहण करता है, उतने ही समय वह कपड़े, शंख, या सीप आदि को क्यों नहीं ग्रहण कर पाता? 'घट की प्राप्ति के समय पट आदि प्राप्त नहीं होते, इसलिए वह पट आदि को नहीं जानता' - यह उत्तर भी समीचीन नहीं, क्योंकि पट आदि की प्राप्ति न होने में कोई हेतु नहीं है। और, चटाई की vie 362 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मात् किमिह स्थितम्?, इत्याह सामत्थाभावाओ मणो व्व विसयपरओ न गिण्हेइ। कम्मक्खओवसमओ साणुग्गहओ य सामत्थं // 249 // [संस्कृतच्छायाः- सामर्थ्याभावात् मन इव विषयपरतो न गृह्णाति। कर्मक्षयोपशमतः स्वानुग्रहतश्च सामर्थ्यम्॥] चक्षुः सिद्धान्तनिर्दिष्टनियतविषयपरिमाणात् परतो न गृह्णातीति प्रतिज्ञा / चक्षुषश्चेह कर्तृत्वं प्रक्रमाद् गम्यते, सामर्थ्याभावादिति हेतुः, मनोवदिति दृष्टान्तः। सामर्थ्याभावोऽपि नयनस्य कुतः?, इत्याह- 'कम्मक्खओ' इत्यादि। तदावरणकर्मक्षयोपशमात्, स्वानुग्रहतश्चाऽप्राप्तेष्वपि केषुचिद् योग्यदेशावस्थितेष्वर्थेषु परिच्छेदे कर्तव्ये लोचनस्य सामर्थ्यं भवति। बनी कुटी आदि को (उनकी अप्राप्ति में) आवरक हेतु नहीं माना जा सकता, क्योंकि कुटी आदि के व्यवधान होने पर भी मन (अपने ज्ञेय) मेरु आदि का ज्ञान करता है- ऐसा अनुभवसिद्ध है। "कर्मोदय के कारण, या वैसे (मर्यादित) स्वभाव के कारण मन प्रतिनियत विषयों को ही जानता हैं" -यदि ऐसा कहें, तब तो प्राप्यकारी नेत्र के लिए भी यही समाधान समान रूप से मान लेना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 248 // तब क्या सिद्ध हुआ (या निष्कर्ष निकला)? इस जिज्ञासा के समाधान में भाष्यकार कह रहे हैं // 249 // सामत्थाभावाओ मणो ब्व विसयपरओ न गिण्हेइ। कम्मक्खओवसमओ साणुग्गहओ य सामत्थं // . [(गाथा-अर्थ :) मन की तरह ही (नेत्र इन्द्रिय भी) सामर्थ्य के अभाव से विषय-सम्बन्धी नियत परिमाण से बाहर (अर्थात् अधिक) (विषय को) ग्रहण नहीं करती। वह सामर्थ्य या तो कर्मक्षयोपशम से, या (सहकारी सामग्री द्वारा) स्वयं के अनुगृहीत होने से प्राप्त होता है।] - व्याख्याः- सिद्धान्त (आगमों) में जो 'नियत विषय-परिमाण' बताया गया है, उससे आगे या अधिक (विषयों को नेत्र इन्द्रिय) ग्रहण नहीं करती -यह प्रतिज्ञा (अनुमान-वाक्य का आधारभूत अंश) है। गाथा में नेत्र इन्द्रिय का नाम निर्दिष्ट नहीं है, किन्तु प्रकरणानुसार यह जाना जाता है कि विषय-ग्रहण का कर्ता यहां नेत्र इन्द्रिय ही है। (उक्त अनुमान में) हेतु है- सामर्थ्य-अभाव / दृष्टान्त हैमन / (प्रश्न-) नेत्र की असमर्थता किस कारण से है? उत्तर दिया- (कर्मक्षयोपशमतः इत्यादि)। अर्थात् आवरणभूत सम्बन्धित कर्म के क्षयोपशम के कारण, और स्वानुग्रह (ज्ञानसामग्री-कृत सहयोग) के कारण (ही), किन्हीं अप्राप्त व योग्य देश में स्थित पदार्थों का ज्ञान करने में नेत्र की सामर्थ्य होती है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------363 4 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- अप्राप्तत्वे समानेऽपि येष्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्मक्षयोपशमो भवति, तथा, स्वस्याऽऽत्मनो रूपाऽऽलोकमनस्कारादिसामग्र्याः सकाशादनुग्रहो भवति, तेष्वर्थेषु कर्मक्षयोपशमसद्भावात्, शेषसामग्र्यनुग्रहाच्च चक्षुषो ग्रहणसामर्थ्यं भवति। येषु त्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्मक्षयोपशमः, शेषसामग्र्यनुग्रहश्च नास्ति, तेषु तस्य सामर्थ्याभाव इत्यर्थापत्तित एव गम्यते। तस्माद् व्यवस्थितमप्राप्यकारित्वं नयन-मनसोः। ततश्च स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रभेदाच्चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 249 // तदेवं 'नयन-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा' इत्येतत् समर्थितम् / अथ प्रकृतमुच्यते 'तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइं वंजणत्थाणं। वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं'। [तत्रावग्रहो द्विरूपो ग्रहणं यद् भवति व्यञ्जनार्थयोः। व्यञ्जनतश्च तदर्थः, तेनादौ तकं वक्ष्ये॥] इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिज्ञातव्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादनं चेह प्रकृतम्। तस्य च व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपं नन्द्यध्ययनागमसूत्रे प्रतिबोधक-मल्लकोदाहरणाभ्यां प्रतिपादितम्। तद्यथा तात्पर्य यह है- यद्यपि सभी पदार्थ समानरूप से अप्राप्त हैं, तथापि जिन पदार्थों के ग्रहण में आवरण बने हुए कर्म का (जितना या जैसा भी) क्षयोपशम होता है, इसी तरह जिन पदार्थों में रूपप्रकाश-मनोयोग आदि (ज्ञान-) सामग्री की ओर से अपना स्वयं का (जितना या जैसा भी) अनुग्रह (सहयोग) होता है, उन्हीं पदार्थों में कर्मक्षयोपशम होने तथा शेष सामग्री के अनुग्रह से नेत्र की विषय-ग्रहण-सम्बन्धी सामर्थ्य होती है। जिन पदार्थों के ग्रहण में (अपेक्षित) कर्मक्षयोपशम नहीं होता, और शेष (ज्ञान-) सामग्री का अनुग्रह नहीं होता, उन पदार्थों में उसकी सामर्थ्य नहीं होतीऐसा अर्थापत्ति से ज्ञात ही हो जाता है। इसलिए, नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता सिद्ध हो जाती है। फलस्वरूप, स्पर्शन, रसना, घ्राण व श्रोत्र -इन (चार) के भेद से व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का है- यह सिद्ध होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 249 // इस प्रकार, नेत्र व मन को छोड़कर (शेष चार) इन्द्रियों के भेदों के कारण (उनका) व्यञ्जनावग्रह (भी) चार प्रकार का होता है- इस तथ्य का समर्थन किया गया। अब, प्रस्तुत ((पूर्वोक्त गाथा-193 में प्रस्तावित, प्रकरण-सम्बद्ध) विषय का निरूपण किया जा रहा है “यहां अवग्रह दो प्रकार का होता है, क्योंकि इससे व्यञ्जन व अर्थ (-इन दोनों) का ग्रहण होता है। चूंकि व्यअनावग्रह के बाद ही अर्थावग्रह होता है, इसलिए मैं उस (व्यञ्जनावग्रह) को ही पहले कहूंगा (उसका निरूपण करूंगा)।" -इत्यादि रूप से इस ग्रन्थ (पूर्वोक्त गाथा सं.-193) में जिस व्यञ्जनावग्रह के स्वरूप को प्रतिपादित करने की प्रतिज्ञा (दृढ़ कथन) की गई थी, वही यहां 'प्रकृत' (निरूपणीय) विषय है। उस व्यअनावग्रह के स्वरूप को 'नन्दी अध्ययन' (नामक आगम) सूत्र में प्रतिबोधक (जगाने वाले) और मल्लक (शराव, मिट्टी का सकोरा) -इन (दो) उदाहरणों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। जैसे2a 364 ---- --- विशेषावश्यक भाष्य -- Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वंजणोग्गहस्स परूवणं करिस्सामि- पडिबोहग-दिट्टतेणं, मल्लग-दिटुंतेण यासे किं तं पडिबोहग-दिटुंतेणं? / पडिबोहगदिटुंतेणं से- जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं सुत्तं पडिबोहेज्जा-अमुग! अमुग! त्ति। तत्थ य चोयए पण्णवर्ग एवं वयासी-किं एगसमयपविट्टा पोग्गला गहणमागच्छंति, जाव संखेज-असंखेजसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति? / एवं वयंतं चोयगं पनवए एवं वयासी-नो एगसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति, जाव नो संखेजसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति, असंखेजसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति, सेत्तं पडिबोहगदिटुंतेणं। [व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणां करिष्यामि प्रतिबोधकदृष्टान्तेन, मल्लकदृष्टान्तेन च। अथ केयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन?। प्रतिबोधकदृष्टान्तेन सा- यथानामा कश्चित् पुरुषः कश्चित् पुरुषं सुप्तं प्रतिबोधयेत्- अमुक! अमुक! इति। तत्र च चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत्- किमेकसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, यावत्संख्येयाऽसंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति?। एवं वदन्तं चोदकं प्रज्ञापक एवमवादीत्- नो एकसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति यावद् नो संख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, असंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन।] से किं तं मल्लगदिटुंतेणं? / मल्लगदिटुंतेणं से- जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्खिवेज्जा, से न? / अन्ने विं पक्खित्ते, से वि नटे। अन्ने वि पक्खित्ते, से वि नटे। एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिति / होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगंसि ठाइति। होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं भरेहिति। होही मैं प्रतिबोधक व मल्लक के दृष्टान्त (के माध्यम) से व्यअनावग्रह की प्ररूपणा करूंगा। (प्रश्न-) प्रतिबोधक के दृष्टान्त से वह व्यञ्जनावग्रह किस प्रकार का है? (उत्तर-) प्रतिबोधक (जगाने 'वाले) के दृष्टान्त से व्यअनावग्रह की प्ररूपणा इस प्रकार है- जैसे कोई पुरुष जिस किसी नाम वाले * किसी सोये हुए पुरुष को 'ओ अमुक! ओ अमुक!' ऐसा कहकर जगावे। इस विषय में शिष्य गुरु को ऐसा पूछता है- भगवन्! क्या एक समय के प्रविष्ट (कर्ण में गए हुए) पुद्गल ग्रहण में आते हैं? या दो समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण किये जाते है? या यावत् दश समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में आते हैं? या संख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में आते हैं? या असंख्येय समय के कान में पड़े हुए पुद्गल ग्रहण में आते हैं? इस प्रकार पूछते हुए शिष्य को आचार्य उत्तर फरमाते हैं- एक समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहणं में नहीं आते, न दो समयके प्रविष्ट पुद्गल गहण में आते हैं, यावद् दश समय तक के पुद्गल भी ग्रहण में नहीं आते हैं, न संख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गल ही ग्रहण में आते हैं, किन्तु असंख्य समय के प्रविष्ट पुद्गल ही ग्रहण करने में आते हैं, यह प्रतिबोधक के दृष्टान्त से व्यञ्जनावग्रह स्वरूप (पूर्ण) हुआ। (प्रश्न-) मल्लक दृष्टान्त से वह व्यअनावग्रह कैसा है? (उत्तर-) शराव के दृष्टान्त से व्यञ्जनावग्रह :: का स्वरूप इस प्रकार है। जैसे- यथानाम किसी पुरुष ने किसी आपाकशीर्ष यानी कुम्हारों के भाण्ड पकाने के स्थान में लगी हुई भाण्डराशि से एक मल्लक-शराव (मिट्टी का सकोरा) लेकर उस पर पानी की एक बूंद डाली तो वह नष्ट हो गई, दूसरी बूंद डाली तो वह भी नष्ट हो गई। इस प्रकार बिंदुओं को गिराते गिराते एक वह जलबिंदु होगा जो शराव को गीला कर देगा, फिर इसी प्रकार बिंदुओं के गिरने से दूसरा वह जलबिंदु होगा जो उस शराव पर ठहरेगा, फिर निरन्तर बिन्दुओं के डालने से a ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----- 365 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उदगबिंदू जे णं तंसि मल्लगंसि न ढाहिहिति। होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं पवाहेहिति। एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहि / पोग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरियं होइ, ताहे हुं ति करेइ, नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ"। इत्यादि। [अथ केयं मल्लकदृष्टान्तेन? / मल्लकदृष्टान्तेन सा- यथानामा कश्चित् पुरुष आपाकशिरसो मल्लकं गृहीत्वा अत्रैकमुदकबिन्दं प्रक्षिपेत्, स नष्टः। अन्योऽपि प्रक्षिप्तः, सोऽपि नष्टः। अन्योऽपि प्रक्षिप्तः सोऽपि नष्टः / एवं प्रक्षिप्यमाणेषु प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकमार्द्रतां नेष्यति / भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तस्मिन् मल्लके स्थास्यति / भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं भरिष्यति। भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तस्मिन् मल्लके न स्थास्यति। भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं प्लावयिष्यति। एवमेव प्रक्षिप्यमाणैरनन्तैः पुद्गलैर्यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति तदा ‘हुं' इति करोति, नो चेव जानाति क एष शब्दादिः?] इदं सूत्रं नन्दिविवरण एवेत्थं व्याख्यातम्, तद्यथा "प्रतिबोधक-मल्लकदृष्टान्ताभ्यां व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणं करिष्यामि। तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः स एव दृष्टान्तस्तेन, तद्यथा नाम कश्चिदनिर्दिष्टस्वरूपः पुरुषः कञ्चिदन्यमनिर्दिष्टस्वरूपमेव पुरुषं सुप्तं सन्तं प्रतिबोधयेत् / कथम्?, इत्याह- अमुक! अमुक! इति। तत्र प्रेरकः प्रज्ञापकमेवमवादीत्- किमेकसमयप्रविष्टा इत्यादि। एवं वदन्तं प्रेरकं प्रज्ञापकएवमुक्तवान्- नो एकसमयप्रविष्टा' इत्यादि, प्रकटार्थं, यावद् नोसंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति। नवरमयं प्रतिषेधः शब्दविज्ञानग्राह्यतामधिकृत्य वेदितव्यः, शब्दविज्ञानजनकत्वेनेत्यर्थः, अन्यथा संबन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य पुद्गला ग्रहणमागच्छन्त्येव। 'असंखेज्ज इत्यादि'1. एक वह जलबिन्दु होगा जिससे वह शराव भर जायगा। ऐसे ही एक वह जलबिन्दु होगा जो उस शराव से बाहर बह निकलेगा। इसी प्रकार (शराव पर जलबिन्दु की तरह) कर्णेन्द्रियपर शब्दयोग्य अनन्त पुद्गलों के बारंबार निरन्तर गिराते-गिराते जब वह व्यअन (इन्द्रिय अथवा उपकरणेन्द्रिय और पुद्गलों का सम्बन्ध) पूर्ण हो जाता है यानी भर जाता है, तब वह श्रोता ‘हुं' ऐसा करता है यानी अर्थावग्रह से शब्द आदि का ग्रहण करता है, फिर भी नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है व किस का है? (तात्पर्य है कि अर्थावग्रह से पूर्व का सामान्यमात्रग्राही ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है।) इस (नन्दी) सूत्र (का उद्धरण है, उस) के 'विवरण' (नन्दीसूत्र-वृत्ति) में इस प्रकार व्याख्यान किया गया है “प्रतिबोधक व मल्लक (-इन दो) दृष्टान्तों से व्यअनावग्रह की प्ररूपणा करूंगा।जो प्रतिबोधित करता है (जगाता है), वह प्रतिबोधक (कहा जाता) है, उसी को दृष्टान्त रूप में (यहां) लिया गया है। वह इस प्रकार है- कोई -जिसका स्वरूप बताया नहीं गया ऐसा-पुरुष किसी सोये हुए अन्य पुरुष को -जिसका स्वरूप बताया नहीं गया है- जगाता है। (प्रश्न-) किस प्रकार से? (उत्तर-) बताया - 'अमुक! अमुक! (अर्थात् नाम लेकर पुकारते हुए जगाया।) इस सम्बन्ध में शिष्य ने गुरु से पूछाक्या एक समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में आते हैं? इत्यादि। ऐसा कहते हुए शिष्य को गुरु ने इस प्रकार (उत्तर) कहा- 'एक समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में नहीं आते' इत्यादि, व्याख्यान सुगम ही है। और (अंत में) 'न ही संख्येय समय तक के प्रविष्ट पुद्गल ही ग्रहण में आते हैं। यहां तक (उत्तर है)। किन्तु यह प्रतिषेध शब्द-विज्ञान की ग्राह्यता के विषय में ही है, अर्थात् शब्दविज्ञान के जनक रूप Ma 366 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसमयप्रवेशेनाऽऽदित आरभ्याऽसंख्येयसमयैः प्रविष्टा असंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गलाः शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्तिअर्थावग्रहज्ञानहेतवो भवन्तीति भावः। इह च चरमसमयप्रविष्टा एव विज्ञानजनकत्वेन ग्रहणमागच्छन्ति, तदन्ये त्विन्द्रियक्षयोपशमोपकारिण इति सर्वेषां सामान्येन ग्रहणमुक्तम्। सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणा' इति वाक्यशेषः॥ अथ केयं मल्लकदृष्टान्तेन प्ररूपणा?। तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष आपाकशिरसो मल्लकं शरावं गृहीत्वा, रूक्षमिदं भवतीत्यस्य ग्रहणम्। तत्र मल्लके एकमुदकबिन्दुं प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिणतिमापन्न इत्यर्थः। शेषं सुबोधं यावद् ‘जेणं तं मल्लगे'। 'रावेहिति' आर्द्रतां नेष्यति।शेषं सुबोधम्। नवरं 'पवाहेहिति' प्लावयिष्यतीति। एवामेवेत्यादि। अतिबहुत्वात् प्रतिसमयमनन्तैः शब्दपुद्गलैर्यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति, तदा 'हुँ' इति करोति, तमर्थं गृह्णातीत्युक्तं भवति / किं विशिष्टं?, नाम-जात्यादिकल्पनारहितम्। अत एवाऽऽह- 'नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ त्ति' न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिः? इत्यर्थः। एवं च सति सामयिकत्वादर्थावग्रहस्य, अर्थावग्रहात् पूर्वं सर्वो व्यञ्जनावग्रहः"॥ में (यह प्रतिषेध है)-ऐसा समझना चाहिए, अन्यथा मात्र सम्बन्ध की बात करें तो प्रथम समय से ही पुद्गल ग्रहण में आते ही हैं। (असंख्येय समय... इत्यादि)। अर्थात् प्रत्येक समय प्रविष्ट होते हुए असंख्येय समयों में प्रविष्ट होते रहने वाले शब्दात्मक द्रव्यविशेष रूप पुदगल प्रारम्भ से ही ग्रहण में आते हैं, वे अर्थावग्रह ज्ञान के हेतु होते हैं- यह भाव है। यहां यह बताया गया है कि चरम समय में प्रविष्ट पुद्गल ही विज्ञान-जनक के रूप में ग्रहण में आते हैं, बाकी पुद्गल तो इन्द्रिय-सम्बन्धी क्षयोपशम में उपकारी होते हैं, इस प्रकार सामान्यतया तो सभी (समयों के) पुद्गलों का ग्रहण में आना बताया गया है। 'यह तो हुई प्रतिबोधक दृष्टान्त के माध्यम से व्यञ्जनावग्रह की प्ररूपणा' -यह कथन पूरे वाक्य का शेष (अंतिम) भाग है। अब, मल्लक (मिट्टी के पात्र-सकोरे के) दृष्टान्त के माध्यम से प्ररूपणा क्या है? (वह इस प्रकार है-) जैसे कोई 'आपाकशीर्ष' (घड़े आदि पकाने के स्थान) में रखे हुए (एक) मल्लक यानी * शराव (सकोरे) को लेता है और 'यह रूखा है'- इस रूप में उसे ग्रहण करता है। वह इस शराव में जल की एक बूंद डालता है, किन्तु वह (डालते ही) नष्ट हो (सूख) जाती है, अर्थात् वहीं वह उस शराव की परिणति को प्राप्त हो जाती है। (येन तत् मल्लकम् आर्द्रतां नेष्यति)। (अर्थात्) 'जिससे यह मल्लक गीला हो जाएगा' -यहां तक का शेष पाठ सुगम है (अतः उसकी व्याख्या करना जरूरी नहीं)। किन्तु (प्लावयिष्यति)। (अर्थात्) 'इसी तरह (क्रमशः) अनन्त पुद्गलों से वह पात्र पूर्ण हो जाएगा' (डालते जा रहे जल-बिन्दुओं की तरह ही) अधिकता से प्रत्येक समय अनन्त शब्द-पुद्गलों से जब वह 'व्यअन' पूर्ण होगा, तब (श्रोता) हुँ' करता है (हुंकार भरता है) और अर्थ का ग्रहण करता है- यह कहा गया है। (प्रश्न-) वह अर्थ कैसा है? (उत्तर दिया-) नाम, जाति आदि कल्पना से रहित होता है (अर्थात् व्यञ्जनावग्रह ही होता है)। इसीलिए कहा- (नो चेन्न जानाति क एष शब्दादिः -इति), अर्थात् यह नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है? इस स्थिति के बाद (चरम समय में) एक समयवर्ती अर्थावग्रह होता है और इस अर्थावग्रह से पूर्व समस्त ज्ञान 'व्यअनावग्रह' है।" ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 367 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमस्य व्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादकस्य नन्दिसूत्रस्य शेषं प्रायः सुगममिति मन्यमानो भाष्यकारः "जाहे तं वंजणं पूरियं होइ" इत्येतद् व्याचिख्यासुराह तोएण मल्लगं पिव वंजणमापूरियं ति जं भणियं। तं दव्वमिंदियं वा तस्संजोगो व न विरुद्धं // 250 // [संस्कृतच्छाया:- तोयेन मल्लकमिव व्यञ्जनमापूरितमिति यद् भणितम्। तद् द्रव्यमिन्द्रियं वा तत्संयोगो वा न विरुद्धम्॥] 'जं भणियं' यदुक्तं नन्दिसूत्रकारेण। किं तत्?, इत्याह- व्यञ्जनमापूरितमिति। केन किंवत्?, इत्याह- तोयेन जलेन. मल्लकं शरावं तद्वदिति। तस्मिन् सूत्रकारभणिते व्यञ्जनं द्रव्यं गृह्यते, इन्द्रियं वा, तयोर्वा द्रव्येन्द्रिययोः संयोगः संबन्धः, इति सर्वथाऽप्यविरोधः। इदमुक्तं भवति- व्यञ्जनशब्देन शब्दादिविषयपरिणतपुद्गलसमूहरूपं द्रव्यं, श्रोत्रादीन्द्रियं वा, द्रव्येन्द्रिययोः संबन्धो वा गृह्यते, न कश्चिद् विरोधः, व्यज्यते प्रकटीक्रियते विवक्षितोऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमित्यस्या व्युत्पत्तेः सर्वत्र घटनात् // इति गाथार्थः // 250 // इस प्रकार व्यञ्जनावग्रह के स्वरूप को प्रतिपादन करने वाले नन्दीसूत्र (के उपर्युक्त अंश) का शेष भाग सुगम है- ऐसा समझ कर (यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति)। (अनन्त पुद्गलों के बार-बार गिराते रहने से) 'जब वह व्यंजन (इन्द्रिय व पुद्गलों का सम्बन्ध) पूर्ण हो जाता है' -इस कथन का व्याख्यान करने हेतु आगे कह रहे हैं // 250 // तोएण मल्लगं पिव वंजणमापूरियं ति जं भणियं। तं दव्वमिंदियं वा तस्संजोगो व न विरुद्धं // [(गाथा-अर्थ :) 'जल से सकोरे (मल्लक) की तरह, व्यञ्जन पूर्ण हो जाता है' -ऐसा जो (आगम में) कहा गया है, वहां व्यञ्जन से तात्पर्य है- द्रव्य या इन्द्रिय, या उन (इन्द्रिय व द्रव्य) का संयोग (न कि व्यञ्जनावग्रह)। अतः (हमारे पूर्वोक्त प्रतिपादन का उक्त आगम से) कोई विरोध हो, ऐसा नहीं है।] व्याख्याः - (यद् भणितम्)। नन्दीसूत्रकार ने जो यह कहा है। (प्रश्न-) क्या कहा है? उत्तर दिया- (व्यञ्जनम् आपूरितम्)। (जब) व्यअन आपूरित (पूर्ण) होता है। (प्रश्न-) किससे पूर्ण होता है और किसकी तरह पूर्ण होता है? उत्तर दिया (तोयेन मल्लकमिव)। जल से मल्लक यानी शराव (मिट्टी के सकोरे) की तरह। सूत्रकार के इस कथन में 'व्यअन' का अर्थ है- द्रव्य, या इन्द्रिय, या इन दोनों (द्रव्य व इन्द्रिय) का संयोग या सम्बन्ध, अतः किसी भी तरह से (अब तक किये गये हमारे प्रतिपादन से आगम का) विरोध नहीं है। तात्पर्य यह है- 'व्यञ्जन' शब्द से (ये तीन अर्थ, जैसे-) (1) शब्दादि विषय रूप परिणत होने वाले पुद्गल-समूह द्रव्य, या (2) श्रोत्र आदि इन्द्रिय, या (3) (उक्त) द्रव्य व इन्द्रिय का सम्बन्ध गृहीत है, अतः कोई विरोध वाली बात नहीं है, क्योंकि जिससे विवक्षित अर्थ (पदार्थ) व्यक्त यानी प्रकट हो, वह 'व्यञ्जन' है -यह व्युत्पत्ति (नियुक्ति) सर्वत्र (अर्थात् तीनों अर्थों में) घटित होती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 250 // Na 368 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंवलं द्रव्यादिषु त्रिष्वपि व्यञ्जनशब्दवाच्येषु प्रत्येकमापूरितत्वे विशेषो द्रष्टव्यः। कः पुनरसौ?, इत्याह दव्वं माणं पूरियमिंदियमापूरियं तहा दोण्हं / अवरोप्परसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं // 251 // [संस्कृतच्छाया:-द्रव्यं मानं पूरितमिन्द्रियमापूरितं तथा द्वयोः। परस्परसंसर्गो यदा तदा गृह्णाति तमर्थम् // ] दव्वं ति। यदा द्रव्यं व्यञ्जनमधिक्रियते तदा "जाहे तं वंजणं पूरियं होइ" इति कोऽर्थः? इत्याह- माणं पूरियं ति। मानं तस्य शब्दादिद्रव्यस्य प्रमाणं प्रतिसमयप्रवेशेन प्रभूतीकृतत्वात् स्वप्रमाणमानीतं प्रकर्षमुपनीतं स्वग्राहकज्ञानजनने समर्थीकृतमिति यावत् / यदा त्विन्द्रियमितीन्द्रियं व्यञ्जनमधिक्रियते तदा जाहे तं वंजणं पूरियं होइ इति किमुक्तं भवति?, इत्याह- 'आपूरियं ति'। आपूरितं व्याप्तं भृतं वासितमित्यर्थः। तथा, दोण्हं ति। द्वयोः श्रोत्रादीन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्ययोः संबन्धो यदि व्यञ्जनमधिक्रियते तदा जाहे तं वंजणं पूरियं होइ, इति किमुक्तं भवति?, इत्याह- अवरोप्परसंसग्गो त्ति। सम्यक् सर्गो योगः . संसर्गः सम्यक् संबन्ध इत्यर्थः। चूंकि व्यञ्जन शब्द से मात्र द्रव्य आदि (पूर्वोक्त) तीन अर्थ वाच्य (सूचित) होते हैं, अतः प्रत्येक (अर्थ) में (व्यञ्जन के) आपूरित होने पर, प्रकट हो रही विशेषता द्रष्टव्य है। वह विशेषता क्या है? इसे (भाष्यकार) बता रहे हैं // 251 // दव्वं माणं पूरियमिंदियमापूरियं तहा दोण्हं / अवरोप्परसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं // ___ [(गाथा-अर्थ :) जब 'द्रव्य' अर्थ में उसकी प्रमाणता (प्रकृष्टता) सम्पन्न हो जाती है, 'इन्द्रिय' अर्थ में जब इन्द्रिय उन द्रव्यों से पूरित (व्याप्त) हो जाती है, और 'दोनों के सम्बन्ध' अर्थ में जब दोनों का परस्पर सम्यक्-सम्बन्ध सम्पन्न हो जाता है, तब (विवक्षित शब्दादि) अर्थ को (अव्यक्त रूप में, व्यअनावग्रह रूप से) ग्रहण करता है (तब अर्थावग्रह होता है)।] व्याख्याः - (द्रव्यम् इति)। जब व्यञ्जन रूप से द्रव्य अधिकृत हो, तब 'जब वह व्यअन पूरित होता है' इस कथन का क्या अर्थ (अभीष्ट) है? उत्तर दिया- (मानं पूरितम् इति)। मान यानी उस शब्द आदि द्रव्य का 'प्रमाण', यानी प्रतिसमय प्रविष्ट होते रहने से प्रचुरता के कारण प्रकृष्टता को प्राप्त होकर अपने ग्राहक ज्ञान को उत्पन्न करने की सामर्थ्य प्राप्त कर ले। और जब व्यञ्जन रूप से इन्द्रिय अधिकृत हो तो (यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति), 'जब वह व्यञ्जन पूरित होता है' इसका क्या अर्थ (अभीष्ट) है? उत्तर दिया- (परस्परसंसर्गः इति)। अर्थात् एक दूसरे के साथ संसर्ग हो जाय, संसर्ग यानी सम्यक् सर्ग यानी सम्बन्ध / ---- विशेषावश्यक भाष्य --------369 - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमत्र हृदयम्- अस्मिन् पक्षे यदा तयोरिन्द्रिय-द्रव्ययोः परस्परमतीव संयुक्तताऽनुषक्तताऽङ्गाङ्गिभावेन परिणामो भवति, तदा प्रस्तुतसम्बन्धलक्षणं व्यञ्जनमापूरितं भवतीत्युच्यत इति। जया तया गिण्हइ तमत्थं ति। एवं यदा त्रिविधमपि व्यञ्जनं प्रकारत्रयेणाऽऽपूरितं भवति, तदा तं विवक्षितं शब्दादिकमर्थमव्यक्तं नाम-जात्यादिकल्पनारहितं गृह्णाति। एतच्च ताहे हुं ति करेइ इत्यस्य व्याख्यानम्। अर्थावग्रहश्चाऽयमेकसामयिको विज्ञेयः, इतरस्तु पूर्वमन्तर्मुहर्तं द्रव्यप्रवेशादिरूपो व्यञ्जनावग्रहोऽवसेयः॥ इति गाथार्थः॥२५१॥ किंविशिष्टं पुनस्तमर्थं गृह्णाति?, इत्याशङ्कय स्वत एव भाष्यकारस्तत्स्वरूपमाह सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं / जइ एवं जंतेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह णु? // 252 // [ संस्कृतच्छाया:- सामान्यमनिर्देश्य स्वरूप-नामादिकल्पनारहितम्। यद्येवं यत् 'तेन गृहीतः शब्दः' इति तत् कथं नु?॥] यहां तात्पर्य यह है- (जब 'व्यञ्जन' का अर्थ 'द्रव्य व इन्द्रिय का सम्बन्ध' अभीष्ट हो तो) इस पक्ष में जब इन्द्रिय व द्रव्य -इन (दोनों) का परस्पर अत्यन्त संयोग, अनुषङ्ग (संस्पर्श) या अङ्गाङ्गीभाव से परिणमन (यानी शब्द का इन्द्रियरूपी अङ्गी का अङ्ग बन जाना) संपन्न हो जाय, तब प्रस्तुत सम्बन्ध वाले व्यञ्जन को 'आपूरित हुआ' ऐसा कहा जाता है। (यदा तदा गृह्णाति तमर्थम् इति)। इस प्रकार, जब तीनों प्रकार का व्यञ्जन (उक्त) तीनों रीतियों से आपूरित हो जाये, तब उस विवक्षित शब्दादिक अर्थ को अव्यक्त (अर्थात्) नाम, जाति आदि कल्पनाओं से रहित रूप से (जीव) ग्रहण करता है। यहां तक का (व्याख्यान जो हुआ है, वह) 'तब वह हुंकार भरता है' इस कथन का व्याख्यान है। इनमें अर्थावग्रह तो एक समय की स्थिति वाला है- ऐसा जानना चाहिए, इस (अर्थावग्रह) से अतिरिक्त, पूर्ववर्ती अन्तर्मुहूर्तकाल के द्रव्य प्रवेश आदि को 'व्यञ्जनावग्रह' रूप से मानना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 251 // (अर्थावग्रह में सामान्य अर्थ का ग्रहण) उस अर्थ को वह किस रूप से ग्रहण करता है -इस आशंका (जिज्ञासा) को मन में रखकर भाष्यकार स्वतः ही उसके स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं // 252 // सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं / जइ एवं जं तेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह णु? // [(गाथा-अर्थ :) वह (एकसमयवर्ती अर्थावग्रह से गृहीत वस्तुस्वरूप) सामान्य, अनिर्देश्य, स्वरूप-नाम-जाति आदि की कल्पना से रहित होता है। (परपक्ष द्वारा प्रश्न-) यदि ऐसा है तो उस (अर्थावग्रह) से गृहीत को 'उसने शब्द ग्रहण किया' -यह जो (कथन) है, वह कैसे (संगत) है?] Na 370 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ----- Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राह्यवस्तुनः सामान्य-विशेषात्मकत्वे सत्यप्यर्थावग्रहेण सामान्यरूपमेवाऽर्थं गृह्णाति, न विशेषरूपम्, अर्थावग्रहस्यैकसामयिकत्वात्, समयेन च विशेषग्रहणायोगादिति। सामान्यार्थश्च कश्चिद् ग्राम-नगर-वन-सेनादिशब्देन निर्देश्योऽपि भवति, तव्यवच्छेदार्थमाह- अनिर्देश्य, केनापि शब्देनाऽनभिलप्यम्।कुतः पुनरेत?, इत्याह- यतः स्वरूप-नामादिकल्पनारहितम्, आदिशब्दाज्जाति-क्रिया-गुण-द्रव्यपरिग्रहः। तत्र रूप-रसाद्यर्थानां य आत्मीयचक्षुरादीन्द्रियगम्यः प्रतिनियतः स्वभावस्तत् स्वरूपम्। रूप-रसादिकस्तु तदभिधायको ध्वनिर्नाम, रूपत्व-रसत्वादिका तु जातिः। प्रीतिकरमिदं रूपं, पुष्टिकारोऽयं रसः इत्यादिकस्तु शब्दः। क्रियाप्रधानत्वात् क्रिया। कृष्णनीलादिकस्तु गुणः। पृथिव्यादिकं पुनर्द्रव्यम्। एषां स्वरूप-नाम-जात्यादीनां कल्पना अन्तर्जल्पारूपितज्ञानरूपा, तया रहितमेवाऽर्थमर्थावग्रहेण गृह्णाति यतो जीवः, तस्मादनिर्देश्योऽयमर्थः प्रोक्तः, तत्कल्पनारहितत्वेन स्वरूप-नाम-जात्यादिप्रकारेण केनापि निर्देष्टमशक्यत्वादिति। एवमुक्ते सति परः प्राह- जड़ एवमित्यादि। यदि स्वरूपनामादिकल्पनारहितोऽर्थोऽर्थावग्रहस्य विषय इत्येवं व्याख्यायते भवद्भिः, तर्हि 'जं ति', यन्नन्द्यध्ययनसूत्रे प्रोक्तम्। किम्?, इत्याहतेणं गहिए सहे ति। उपलक्षणत्वादित्थं संपूर्ण द्रष्टव्यम्- से जहा नामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेजा, तेणं सद्देत्ति उग्गहिए, व्याख्या:- यद्यपि ग्राह्य पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होता है, तथापि अर्थावग्रह से सामान्य रूप से ही वह गृहीत होता है, विशेष रूप से नहीं। क्योंकि अर्थावग्रह एक समय वाला (ही) होता है और एक समय में 'विशेष' का ग्रहण नहीं हो पाता। चूंकि कोई सामान्य पदार्थ भी, जैसे ग्राम, नगर, वन, सेना आदि शब्द से निर्देश्य होता है, अतः उसके निराकरण (अग्रहण) हेतु कहा- (अनिर्देश्यम्)। अर्थात् किसी शब्द से कहा न जा सके, ऐसा / ऐसा (अर्थात् अनिर्देश्य) वह क्यों होता है? उत्तर दिया(स्वरुपनामादिकल्पनारहितम् -इत्यादि)। चूंकि वह स्वरूप, नाम आदि कल्पनाओं से रहित होता है। 'आदि’ पद से जाति, क्रिया, गुण व द्रव्य का ग्रहण यहां अभीष्ट है। इनमें 'स्वरूप' से तात्पर्य हैरूप, रस आदि अर्थों का अपनी नेत्र आदि इन्द्रियों से गम्य (ज्ञेय) जो (वस्तु का) प्रतिनियत स्वभाव ही 'स्वरूप है।रूप. रस आदि-इस रूप में उस वस्त का अभिधायक (कथन करने वाली जो) ध्वनि (है, वह) 'नाम' है। 'जाति' तो है-रूपत्व, रसत्व आदि। वह रूप प्रीतिकारक है, वह रस पुष्टिकारक है -इत्यादि शब्द क्रियाप्रधान होने से 'क्रिया' है। कृष्ण, नील आदि, ये गुण हैं। और पृथ्वी आदि, ये द्रव्य हैं। इन स्वरूप, नाम, जाति आदि की अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान स्वरूप वाली जो कल्पना होती है, उससे रहित अर्थ को ही चूंकि जीव अर्थावग्रह रूप से ग्रहण करता है, इसलिए वह पदार्थ 'अनिर्देश्य' कहा गया है, क्योंकि स्वरूप, नाम आदि किसी भी रूप में उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। ऐसा कहने पर पूर्वपक्ष ने (प्रश्न- उपस्थित करते हुए) कहा- (यदि एवम् यत् इत्यादि)। यदि स्वरूप, नाम आदि कल्पना से रहित पदार्थ ही अर्थावग्रह का विषय होता है- ऐसी व्याख्या आप कर रहे हैं, तब नन्दीसूत्र में यह जो कहा गया है (उससे विरोध होगा)। वहां क्या कहा गया है? उत्तर दिया- (तेन गृहीतः शब्दः इति)। वह शब्द को ग्रहण करता है (इत्यादि कथन किया गया है)। यह वाक्य 'उपलक्षण' (सादृश्य से अन्य का भी वाचक) है, (वस्तुतः) वहां का सम्पूर्ण वाक्य इस प्रकार (है जो) द्रष्टव्य है। अर्थात् 'यथानाम किसी पुरुष ने' से लेकर 'यह नहीं जानता कि यह शब्द आदि ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 371 2 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न उण जाणइ के वेस सदाइ त्ति। तं किह णुत्ति। तदेतत् कथमविरोधेन नीयते? -युष्मद्-व्याख्यानेन सह विरुध्यते एवेदमित्यर्थः, तथाहि-अस्मिन्नन्दिसूत्रेऽयमर्थः प्रतीयते- यथा तेन प्रतिपत्त्राऽर्थावग्रहेण शब्दोऽवगृहीत इति। भवन्तस्तु शब्दाधुल्लेखरहितं सर्वथाऽमुं प्रतिपादयन्ति, ततः कथं न विरोध:?, इति भावः इति गाथार्थः॥२५२॥ अत्रोत्तरमाह सद्देत्ति भणई वत्ता, तम्मत्तं वा न सहबुद्धीए। जइ होइ सहबुद्धी, तोऽवाओ चेव सो होज्जा // 253 // [संस्कृतच्छाया:-शब्द इति भणति वक्ता तन्मात्रं वा, न शब्दबुद्धया। यदि भवति शब्दबुद्धिः ततोऽपाय एव स भवेत्॥] कैसा है, इस कथन तक का (नन्दीसूत्र में) जो कथन है, उससे (तत् कथं नु?)। किस प्रकार अविरोध (सामञ्जस्य, समन्वय) बैठ पाएगा? अर्थात् एक साथ (दोनों) व्याख्यानों में विरोध होता ही है। (अर्थात् आपका एक ओर यह कहना कि वह अर्थावग्रह अनिर्देश्य रूप से वस्तु को ग्रहण करता है और दूसरी ओर नन्दीसूत्र का यह कथन 'वह शब्द को ग्रहण करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि वह शब्द कैसा है?' -ये दोनों कथन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं।) तात्पर्य यह है कि नन्दी सूत्र से यह अर्थ ज्ञात होता है कि 'उस ज्ञाता ने शब्द को अर्थावग्रह से ग्रहण किया है, किन्तु (दूसरी तरफ) आप अर्थावग्रह को शब्दादि उल्लेख से रहित बता रहे हैं, इसलिए विरोध कैसे नहीं है? यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 252 // (अर्थावग्रह पूर्वक ही ईहा) इस (आक्षेप) का (भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 253 // सद्देत्ति भणई वत्ता, तम्मत्तं वा न. सद्दबुद्धीए। जइ होइ सद्दबुद्धी, तोऽवाओ चेव सो होज्जा // [ (गाथा-अर्थ :) (अर्थावग्रह में शब्द गृहीत है- ऐसा जो आगमिक नन्दीसूत्र (सूत्र-64) में कहा गया है, वहां) 'शब्द' यह कथन वक्ता (या प्ररूपणाकार आदि) का है (अर्थात् यह कथन ज्ञाता की अपेक्षा से नहीं, अपितु वक्ता, प्ररूपणाकार या सूत्रकार की ओर से है), अथवा शब्द से तात्पर्य है- शब्द तन्मात्र (विशेष ज्ञान रहित शब्द-सामान्य मात्र)। शब्द-बुद्धि से गृहीत (विशेष ज्ञान सहित) शब्द -यह (अर्थ) नहीं (ग्राह्य) है। यदि (यहां) शब्द-बुद्धि हो तो वह (अर्थावग्रह न होकर) अवाय (अपाय) ही हो जाएगा।] Me 372 -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दस्तेनावगृहीत इति यदुक्तं, तत्र 'शब्दः' इति वक्ता प्रज्ञापकः, सूत्रकारो वा भणति प्रतिपादयति, अथवा तन्मात्रं शब्दमात्रं रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्याऽनवधारितत्वाच्छब्दतयाऽनिश्चितं गृह्णातीति। एतावतांशेन शब्दस्तेनावगृहीत इत्युच्यते, न पुनः - शब्दबुद्ध्या-'शब्दोऽयं' इत्यध्यवसायेन तच्छब्दवस्तु तेनाऽवगृहीतम्, शब्दोल्लेखस्याऽऽन्तर्मुहूर्तिकत्वात्, अर्थावग्रहस्य त्वेकसामयिकत्वादसंभव एवाऽयमिति भावः। यदि पुनस्त शब्दबुद्धिः स्यात्, तर्हि को दोषः स्यात्?, इत्याशक्य सूत्रकारः स्वयमेवं दूषणान्तरमाह 'जईत्यादि'। यदि पुनरर्थावग्रहे शब्दबुद्धिः शब्दनिश्चयः स्यात्, तदाऽपाय एवाऽसौ स्यात्, न त्वर्थावग्रहः, निश्चयस्याऽपायरूपत्वात्। ततश्चार्थावग्रहेहाभाव एव स्यात्, न चैतद् दृष्टम्, इष्टं च // इति गाथार्थः॥२५३॥ __ अत्राह पर:- ननु प्रथमसमय एवं रूपादिव्यपोहेन 'शब्दोऽयम्' इति प्रत्ययोऽर्थावग्रहत्वेनाऽभ्युपगम्यताम्, शब्दमात्रत्वेन सामान्यत्वात्। उत्तरकालं तु प्रायो माधुर्यादयः शङ्खशब्दधर्मा इह घटन्ते, न तु शाङ्गधर्माः खर-ककर्शत्वादय इति विमर्शबुद्धिरीहा, तस्माच्छाल एवाऽयं शब्द इति तद्विशेषस्त्वपायोऽस्तु / तथा च सति 'तेणं सद्देत्ति उग्गहिए'। इदं यथाश्रुतमेव व्याख्यायते। 'नो चेव णंजाणइ केवेस सद्दाइ, तओ ईहं पविसइ' इत्याद्यपि सर्वमविरोधेन गच्छतीति। तदेतत् परोक्तं सूरिः प्रत्यनुभाष्य दूषयति, तद्यथा व्याख्याः - 'उस (ज्ञाता) के द्वारा शब्द का अवग्रहण हुआ है' -यह जो कहा गया है, वह वक्ता, प्ररूपणाकार या सूत्रकार की ओर से है (न कि ज्ञाता की ओर से)। अथवा ('शब्द' के अवग्रहण से उनका तात्पर्य है कि) तन्मात्र यानी रूप-रस आदि विशेष रूप से जिसका निश्चय नहीं होता, ऐसे शब्द रूप से अनिश्चित शब्द मात्र (शब्दसामान्य) को (ज्ञाता) ग्रहण करता है। इतने ही अंश में शब्द का अवग्रह होना वहां बताया गया है, न कि शब्द बुद्धि से, अर्थात् 'यह शब्द ही है' इस अध्यवसाय (निश्चय) के साथ शब्द-पदार्थ को उसने ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि शब्दोल्लेख अन्तर्मुहूर्त काल का होता है. और चंकि अर्थावग्रह एक समय मात्र का होता है, अतः उसका वहां होना संभव नहीं है -यह भाव है। यदि यहां शब्द बुद्धि होना मान लिया जाय तो क्या दोष होगा? इस आशंका को दृष्टि में रखकर सूत्रकार स्वयं ही दोष (आक्षेप) का कथन कर रहे हैं- (यदि भवति इत्यादि)। यदि अर्थावग्रह में शब्दबुद्धि यानी शब्द सम्बन्धी निश्चय हो, तब तो वह 'अपाय' (की कोटि में परिगणित) होगा, न कि अर्थावग्रह रूप से, क्योंकि निश्चय तो 'अपाय' रूप होता है। और (अपाय हो गया तो) अर्थावग्रह व ईहा का अभाव ही हो जाएगा, किन्तु ऐसा न तो देखा जाता है और न ही (हम सब को ऐसा मानना) अभीष्ट होगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 253 // यहां पूर्वपक्ष ने (पुनः) कहा- “आप ऐसा मान लें कि प्रथम समय में ही रूप आदि से रहित 'यह शब्द है' यह प्रतीति अर्थावग्रह रूप से होती है, शब्द मात्र रूप से वह ‘सामान्य' ज्ञान ही है। किन्तु परवर्ती समय में 'शंख शब्द के माधुर्य आदि धर्म यहां प्रायः घटित होते हैं, और धनुष के शब्द में रहने वाले तीक्ष्णता व कर्कशता आदि धर्म यहां घटित नहीं होते' -इस प्रकार की विमर्शात्मक बुद्धि "ईहा' होती है, उसके बाद 'यह शंख का ही शब्द है, न कि धनुष का' -यह विशेष ज्ञान 'अपाय' होता है। इस प्रकार, उस (ज्ञाता) के 'शब्द' का अवग्रह होता है -इस कथन का शाब्दिक व्याख्यान ---- विशेषावश्यक भाष्य - ---- 373 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ सद्दबुद्धिमत्तयमवग्गहो तव्विसेसणमवाओ। नणु सद्दो नासद्दो, न य रूवाइ विसेसोऽयं // 254 // [संस्कृतच्छाया:- यदि शब्दबुद्धिमात्रमवग्रहः, तद्विशेषणमवायः। ननु शब्दो नाऽशब्दो न च रूपादि विशेषोऽयम्॥] भोः पर! यदि शब्दबुद्धिमात्रं 'शब्दोऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपि भवताऽर्थावग्रहोऽभ्युपगम्यते, तद्विशेषणं तु तस्य शब्दस्य विशेषणं विशेषः 'शाल एवाऽयं शब्दः' इत्यादिविशेषज्ञानमित्यर्थः, अपायो मतिज्ञानतृतीयो भेदोऽङ्गीक्रियते। हन्त! तर्हि अवग्रहलक्षणस्य तदाद्यभेदस्याऽभावप्रसङ्गः, प्रथमत एवाऽवग्रहमतिक्रम्याऽपायाभ्युपगमात्। कथं पुनः शब्दज्ञानमपायः?, इति चेत्। उच्यते- तस्याऽपि विशेषग्राहकत्वात्, विशेषज्ञानस्य च भवताऽप्यपायत्वेनाऽभ्युपगतत्वात्। ननु 'शाङ्ख एवाऽयं शब्दः' इत्यादिकमेव तदुत्तरकालभावि ज्ञानं विशेषग्राहकं, शब्दज्ञाने तु शब्दसामान्यस्यैव (संगत) हो जाता है, और साथ ही 'वह नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है', तदनन्तर वह ईहा में प्रविष्ट होता है' -इस सारे कथन से भी कोई विरोध नहीं आता।'' पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथन को आचार्य (भाष्यकार) उपस्थापित कर, उसमें दोष इस प्रकार प्रदर्शित कर रहे हैं // 254 // जइ सद्दबुद्धिमेत्तयमवग्गहो तव्विसेसणमवाओ। नणु सद्दो नासद्दो, न य रुवाइ विसेसोऽयं // [ (गाथा-अर्थ :) यदि शब्द बुद्धि मात्र को अवग्रह, और तत्सम्बन्धी विशेष (निश्चयात्मक) ज्ञान को 'अवाय' कहा जाता है, तब तो (शब्द बुद्धि मात्र में भी) 'यह शब्द है, अशब्द नहीं है, क्योंकि वह रूप आदि नहीं है, अतः यह ज्ञान भी 'विशेष ज्ञान' ही है (इसलिए यह भी 'अपाय' ज्ञान ही कहा जाएगा, और 'अवग्रह' के लोप का ही प्रसंग हो जाएगा)।] व्याख्याः- हे भाई प्रतिपक्षी! यदि 'यह शब्द है' इस निश्चयात्मक शब्द बुद्धि मात्र को आप अर्थावग्रह के रूप में स्वीकार करते हैं, और उसी शब्द के बारे में 'यह शब्द शंख का ही है' -इस प्रकार के विशेषात्मक ज्ञान को मतिज्ञान के तृतीय ‘अपाय' के रूप में स्वीकार करते हैं, तो अफसोस! मतिज्ञान के अवग्रह-लक्षण प्रथम भेद का ही अभाव हो जाएगा, क्योंकि सर्वप्रथम ही अवग्रह के स्थान पर 'अपाय' का होना आपने मान लिया है। (प्रश्न-) शब्द ज्ञान 'अपाय' कैसे हुआ? उत्तर दे रहे हैं- क्योंकि वह ज्ञान-विशेष का ग्राहक हो गया, और 'विशेष' ज्ञान को आपने भी 'अपाय' रूप में स्वीकार किया है। (पूर्वपक्ष की ओर से कथन-) 'यह शब्द शंख का ही है' इत्यादि रूप में होने वाला उत्तरकालभावी जो ज्ञान है, वही विशेष-ग्राहक है, शब्दज्ञान में तो शब्द सामान्य ही प्रतिभासित होता है, अतः विशेष प्रतिभास कैसे हो सकता है? और (विशेष प्रतीति के अभाव में) 'अपाय' होने की प्रसक्ति कैसे हुई? (इस पूर्वपक्ष के कथन का) उत्तर दिया जा रहा है- (ननु इत्यादि)। यहां 'ननु' शब्द अक्षमा MAA 374 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभासनात् कथं विशेषप्रतिभासः, येनाऽपायप्रसङ्गः स्यात्? इत्याह 'नणु इत्यादि'। नन्वित्यक्षमायां, परामन्त्रणे वा, ननु 'शब्दोऽयं नाशब्दः' इति विशेषोऽयं विशेषप्रतिभास एवाऽयमित्यर्थः। कथं पुनर्नाऽशब्द इति निश्चीयते?, इत्याह- न च रूपादिरिति, चशब्दो हिशब्दार्थे, आदिशब्दाद् गन्ध-रसस्पर्शपरिग्रहः। ततश्चेदमुक्तं भवति- यस्माद् न रूपादिरयम्, तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन गृहीतत्वात्, अतो 'नाऽशब्दोऽयं' इति निश्चीयते, यदि तु रूपादिभ्योऽपि व्यावृत्तिर्गृहीता न स्यात्, तदा 'शब्दोऽयम्' इति निश्चयोऽपि न स्यादिति भावः। तस्मात् 'शब्दोऽयं नाशब्दः' इति विशेषप्रतिभास एवाऽयम्। तथा च सत्यस्याऽप्यपायप्रसङ्गतोऽवग्रहाभावप्रसङ्ग इति स्थितम्॥ इति गाथार्थः // 254 // अथ परोऽवग्रहाऽपाययोर्विषयविभागं दर्शयन्नाह थोवमियं नावाओ, संखाइविसेसणमवाउ त्ति। तब्भेयावेक्खाए, नणु थोवमिदं पि नावाओ॥२५५॥ [संस्कृतच्छाया:- स्तोकमिदं नापाय: शांखादिविशेषणमपाय इति / तद्भेदापेक्षायां ननु स्तोकमिदमपि नापायः॥] (असहनशीलता, तितिक्षा का अभाव) तथा पूर्वपक्षी (विरोधी) को आमंत्रित करने का सूचक है। अर्थात (उससे यह अभिप्राय व्यक्त हो रहा है कि) 'यह शब्द है, अशब्द नहीं यह ज्ञान तो 'विशेष' अर्थात् 'विशेषप्रतिभास' ही तो है। (अन्यथा, विशेष प्रतिभास नहीं मानें तो) “यह 'अशब्द' नहीं है' - यह निश्चय कैसे हो हो सकता था? इसी बात को कह रहे हैं- (न च रूपादिः इति)। 'च' का अर्थ हैचूंकि / आदि शब्द गंध, रस, स्पर्श का ग्रहण कराता है। इस प्रकार अर्थ (अभिप्राय) होगा- 'चूंकि यह रूप आदि नहीं है, उन (रूप आदि से यह व्यावृत्त) (पृथक्, भिन्न) है -इस रूप में गृहीत होता है, अतः ‘यह अशब्द नहीं है' -यह निश्चित होता है। किन्तु यदि रूप आदि से व्यावृत्ति (पार्थक्य, भिन्नता) गृहीत न हो, तो 'यह शब्द है'- यह निश्चय ही नहीं हो पाए। इसलिए 'यह शब्द है, अशब्द नहीं है' यह प्रतीति विशेष प्रतिभास ही है। ऐसी स्थिति में, इस ज्ञान के अपाय रूप होने से 'अवग्रह' का ही अभाव प्रसक्त (अर्थात् 'अवग्रह' के अभाव का संकट उपस्थित) हो जाता है- यह निश्चित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 254 // - अब पूर्वपक्षी अवग्रह व अवाय (-इन दोनों) के (पृथक्-पृथक्) विषय-विभाग का निदर्शन करा रहा है // 255 // थोवमियं नावाओ, संखाइविसेसणमवाउ त्ति / तब्भेयावेक्खाए, नणु थोवमिदं पि नावाओ || [(गाथा-अर्थ :) यह ज्ञान स्तोक (अल्प विशेष का ग्राहक) होता है, अपाय नहीं होता। अपाय तो शंखीय आदि विशेषण से युक्त (यह शंखीय शब्द है- ऐसा) ज्ञान होता है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 375 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं शब्दबुद्धिमात्रकं शब्दमात्रस्तोकविशेषावसायित्वात् स्तोकं स्तोकविशेषग्राहकम्, अतोऽपायो न भवति, किन्त्ववग्रह ... एवाऽयमिति भावः। कः पुनस्तयपायः?, इत्याह- 'संखाईत्यादि'। शाङ्खोऽयं शब्द इत्यादिविशेषणविशिष्टं यज्ज्ञानं तदपाय: बृहद्विशेषावसायित्यादिति हृदयम्। हन्त! यदि यद् यत् स्तोकं तत् तद् नाऽपायः, तर्हि निवृत्ता सांप्रतमपायज्ञानकथा, उत्तरोत्तरार्थविशेषग्रहणापेक्षया पूर्वपूर्वार्थविशेषावसायस्य स्तोकत्वात्। एतदेवाह- 'तब्भेयेत्यादि / तस्य शाङ्खशब्दस्य ये उत्तरोत्तरभेदा मन्द्र-मधुरत्वादयः, तरुणमध्यम-वृद्ध-स्त्री-पुरुषसमुत्थत्वादयश्च तदपेक्षायां सत्यामिदमपि 'शाङ्कोऽयं शब्दः' इत्यादि ज्ञानं ननु स्तोकं-स्तोकविशेषग्राहकमेव, . इति नाऽपायः स्यात्। एवमुत्तरोत्तरविशेषग्राहिणामपि ज्ञानानां तदुत्तरोत्तरभेदापेक्षया स्तोकत्वादपायत्वाभावो भावनीयः॥ इति गाथार्थः // 255 // तमेवाऽपायाभावं स्फुटीकुर्वन्नाह (पूर्वपक्षी के कथन में दोष की उद्भावना-) (आप ही के कथनानुसार) 'शंखीय शब्द' के उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से तो ('शंखीय शब्द है') यह ज्ञान भी 'स्तोक (अल्प) विशेष ग्राहक' होने से 'अपाय' नहीं होगा।] व्याख्याः- यह 'शब्द बुद्धि मात्र' ज्ञान 'शब्दमात्र स्तोक विशेष' का निश्चायक होने से (स्तोकमिदं) 'स्तोक' (अल्पविषयक) -अल्पविशेष का ही ग्राहक है, इसलिए वह 'अपाय' नहीं है, अपितु यह अवग्रह ही है -यह तात्पर्य है। (प्रश्न-) तब फिर 'अपाय' कौन सा ज्ञान है? उत्तर दिया(शाङ्खादिः इत्यादि)। यह शब्द शंख का है' इत्यादि विशेषण (विशेषता) से युक्त जो ज्ञान है, वही 'अपाय' है, क्योंकि वह अधिक विशेष-ग्राहक होता है -यह तात्पर्य है। (पूर्वपक्ष के उक्त कथन पर भाष्यकार का दोषारोपण-) बड़े खेद की बात है! जो 'स्तोक' . (अल्पविषय-ग्राहक) है, वह 'अपाय' है- यदि ऐसा मानते हैं तो (यह शंख शब्द है- इस ज्ञान के सम्बन्ध में) अपाय ज्ञान का विचार ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि उत्तरोत्तर विशेष ग्रहण की अपेक्षा से तो पूर्व-पूर्व के अर्थविशेषात्मक ज्ञान 'स्तोक' ही (सिद्ध) होते हैं। इसी बात को (भाष्यकार) कह रहे हैं- (तद्भेदापेक्षायाम्) / शंखीय शब्द के जो मन्द्र, मधुर आदि, और तरुण-मध्यम-वृद्ध-स्त्री-पुरुष -इनमें से किसी के होने आदि जो उत्तरोत्तर भेद (संभावित) हैं, उनकी अपेक्षा से 'यह शंखीय शब्द है' इत्यादि जो ज्ञान है, वह स्तोक (अल्प) विशेषग्राही होने से 'स्तोक' (अल्प) ही है, अतः वह 'अपाय' नहीं होगा। इस प्रकार, उत्तरोत्तर विशेषग्राही ज्ञानों के भी उनके उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से 'स्तोक' (अल्प) होने से, उनमें अपायरूपता का अभाव समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 25 // उक्त (प्रकार से निरूपित) 'अपाय' के अभाव को स्पष्ट करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं Via 376 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय सुबहुणा वि कालेण, सव्वभेयाऽवधारणमसझं। जम्मि हवेज अवाओ, सव्वोच्चिय उग्गहो नाम॥२५६॥ [संस्कृतच्छाया:- इति सुबहुनाऽपि कालेन सर्वभेदावधारणमसाध्यम्। यस्मिन् भवेद् अपायः, सर्व एवावग्रहो नाम॥] इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः, ततश्चेदमुक्तं भवति- यथा 'शाकोऽयं शब्दः' इत्यस्यां बुद्धौ शब्दगतभेदाऽवधारणं सांप्रतमसाध्यम्, मन्द्र-मधुरत्वादितदुत्तरोत्तरभेदबाहुल्यसंभवात् / तथाच सति स्तोकत्वाद् नेयं बुद्धिरपायः, किन्त्वर्थावग्रह इत्येवं सुबहुनाऽपि कालेन सर्वेणाऽपि पुरुषायुषेण शब्दगतमन्द्रमधुरत्वाद्युत्तरोत्तरभेदावधारणमसाध्यं तद्भेदानामनन्तत्वादशक्यमित्यर्थः, यस्मिन् भेदावधारणे, किम्?, इत्याह- यस्मिन् अपायो भवेदन्यभेदाकाङ्क्षानिवृत्तेर्यस्मिन् भेदावधारणज्ञानेऽपायत्वं व्यवस्थाप्येतेति भावः। तस्मात् सर्वोऽपि भेदप्रत्यय उत्तरोत्तरापेक्षया त्वदभिप्रायेण स्तोकत्वादर्थावग्रह एव प्राप्नोति, नाऽपायः, शब्दज्ञानवत् // इति गाथार्थः // 256 // // 256 // . इय सुबहुणां वि कालेण, सवभेयाऽवधारणमसज्झं। जम्मि हवेज्ज अवाओ, सव्वो च्चिय उग्गहो नाम // ___ [(गाथा-अर्थ :) इस प्रकार, जिस (भेदात्मक ज्ञान) में 'अपाय' हो, ऐसे समस्त भेदों का निश्चय करना, अत्यन्त दीर्घ काल में भी सम्भव नहीं हो पाएगा, क्योंकि वह सभी (निश्चयात्मक) ज्ञान (उत्तरोत्तर ज्ञान की अपेक्षा से) 'अवग्रह' ही होगा (अपाय नहीं)।] व्याख्याः - 'इति' यह पद निदर्शनार्थक है (अर्थात् 'इस प्रकार से' इस अर्थ को यहां वह अभिप्रेत कर रहा है)। अतः (गाथा का) अर्थ यह होगा- जैसे 'यह शंख शब्द है' इस बुद्धि में शंखगतभेदों का अवधारण (निश्चय) कर पाना अभी अशक्य है. क्योंकि मन्द्रता. मधरता आदि उत्तरोत्तर भेदों की (अत्यधिक) बहुलता (पाई जाती) है। ऐसी स्थिति में स्तोक होने से उक्त बुद्धि 'अपाय' नहीं होगी, अपितु 'अर्थावग्रह' होगी। इस प्रकार, अत्यन्त दीर्घ काल में, समस्त पुरुषायु (मानव-जीवन) .. लगा कर भी शब्द-गत मन्द्रता, मधुरता आदि उत्तरोत्तर भेदों का निश्चय कर पाना शक्य नहीं होगा, क्योंकि (उनके) वे भेद अनन्त होते हैं- यह तात्पर्य है। (यस्मिन्) भेद-सम्बन्धी जिस निश्चय (की प्रक्रिया) में। (प्रश्न-) क्या? (आगे क्या कहना चाहते हैं?) उत्तर दिया-जिसमें 'अपाय' हो। तात्पर्य यह है कि अन्य भेदों की अपेक्षा निवृत्त होकर भेदात्मक निश्चय करते हुए जहां 'अपायता' व्यवस्थापित की जा सके (ऐसा भेद-निश्चय) अशक्य होगा। इसिलए सभी भेदात्मक ज्ञान उत्तरोत्तर भेदों की . अपेक्षा रखें तो आपके (ही) कथनानुसार 'स्तोक' होने से अर्थावग्रह ही होंगे, 'अपाय' नहीं, शब्द ज्ञान की तरह (अर्थात् जैसे शब्दात्मक बुद्धि को आपने 'स्तोक' यानी अल्प-विशेषग्राही कह कर, उसकी 'अपायता' का निराकरण किया, वैसे ही बाद के भी सभी भेदात्मक ज्ञान ‘अपाय' नहीं कहे जाएंगे, क्योंकि समस्त भेदों का ज्ञान तो, व्यक्ति की पूरी आयु भी बीत जाय तो भी, सम्भव नहीं) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 256 // ------ विशेषावश्यक भाष्य --------377 EL Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च, 'शब्द एवायम्' इति ज्ञानं स्तोकत्वाद् यदर्थावग्रहत्वेन भवताऽभिमतम्, तत् पूर्वमीहामन्तरण न संभवति, तत्पूर्वकत्वे च तस्याऽर्थावग्रहत्वासंभव इति दर्शयन्नाह किं सद्दो किमसद्दो तऽणीहिए सद्द एव किह जुत्तं?। अह पुव्वमीहिऊणं, सद्दो त्ति मयं, तई पुव्वं // 257 // [संस्कृतच्छाया:- किं शब्दः, किमशब्दः इत्यनीहिते शब्द एव कथं युक्तम्। अथ पूर्वमीहित्वा शब्द इति मतं, सा पूर्वम्॥] "किं शब्दोऽयम्' आहोस्वित् 'अशब्दो रूपादिः' इत्येवं पूर्वमनीहिते यत् 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानम्, तदकस्मादेव जायमानं कथं युक्तम्?, विमर्शपूर्वकत्वमन्तरेण नेदं घटत इत्यर्थः। इदमुक्तं भवति- शब्दगतान्वयधर्मेषु, रूपादिभ्यो व्यावृत्तौ च गृहीतायां 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानं युज्यते, तद्ग्रहणं च विमर्शमन्तरेण नोपपद्यते, विमर्शश्चेहा, तस्मादीहामन्तेरणाऽयुक्तमेव 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानम्। - अथ निश्चयकालात् पूर्वमीहित्वा भवतोऽपि 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयज्ञानमभिमतम्। हन्त! तर्हि निश्चयज्ञानात् पूर्व 'तई' असावीहा भवद्वचनतोऽपि सिद्धा॥ इति गाथार्थः // 257 // और, 'यह शब्द ही है' इस ज्ञान को 'स्तोक' होने के कारण आपने 'अर्थावग्रह' रूप में स्वीकार किया, किन्तु वह ज्ञान अपने पूर्ववर्ती 'ईहा' के बिना सम्भव नहीं है, और ईहापूर्वक होने के कारण, उसका 'अर्थावग्रह' होना भी सम्भव नहीं होगा- इसे बता रहे हैं // 257 // किं सद्दो किमसद्दो त्तऽणीहिए सद्द एव किह जुत्तं?। ___ अह पुव्वमीहिऊणं, सद्दो त्ति मयं, तई पुव्वं // [(गाथा-अर्थ :) 'यह शब्द है या अशब्द है' -इस प्रकार (विमर्श-रूप) ईहा न हो तो 'यह शब्द ही है' -यह ज्ञान होना कैसे युक्तियुक्त होगा? और यदि (उक्त विमर्श रूप) ईहा करते हुए 'यह शब्द है' यह (निश्चय) ज्ञान हुआ -ऐसा मानते हैं तो विशेष ज्ञान से पूर्व 'ईहा' होती है (यह सिद्ध हुआ)।] व्याख्याः - यह क्या शब्द है या अशब्द (रूप आदि) है? इस प्रकार 'ईहा' न हो तो 'यह शब्द ही है' इस निश्चित ज्ञान का अकस्मात् ही उत्पन्न होना कैसे युक्तियुक्त होगा? विमर्शपूर्वक हुए बिना यह घटित नहीं हो सकता -यह भाव है। तात्पर्य यह है- 'यह शब्द ही है' यह ज्ञान तभी होता है जब शब्द-गत अन्वय-धर्मों का, तथा रूप आदि से व्यावृत्ति का ग्रहण हो, और यह ग्रहण 'विमर्श' के बिना सम्भव नहीं होता। विमर्श 'ईहा' ही है, इसलिए 'ईहा' के बिना 'शब्द ही है' -यह ज्ञान होना युक्तियुक्त नहीं। निश्चय काल से पूर्व, ईहा होने के बाद, 'यह शब्द ही है' -इस निश्चय ज्ञान का होना आपको यदि स्वीकृत है, तब तो अफसोस! निश्चय ज्ञान से पूर्व इस ईहा का होना आपके वचन से भी सिद्ध हो गया (अर्थात् आपने स्वयं मान लिया) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 257 // NAL 378 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि नाम निश्चयज्ञानात् पूर्वमीहा सिद्धा, ततः किम्?, इत्याह किं तं पुव्वं गहियं, जमीहओ सद्द एव विण्णाणं। अह पुव्वं सामण्णं, जमीहमाणस्स सद्दो त्ति // 258 // [संस्कृतच्छाया:- किं तत् पूर्व गृहीतं यदीहमानस्य शब्द एव विज्ञानम् / अथ पूर्व सामान्यं यदीहमानस्य शब्द इति // ] हन्त! यदि निश्चयज्ञानमीहापूर्वकं त्वयाऽभ्युपगम्यते, तर्हि प्रष्टव्योऽसि- नन्वीहायाः पूर्वं किं तद् वस्तु प्रमात्रा गृहीतम्, यदीदहमानस्य तस्य 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयज्ञानमुपजायते?, न हि कश्चिद् वस्तुन्यगृहीतेऽकस्मात् प्रथमत एवेहां कुरुत इति भावः। क्षुभितस्य परस्योत्तरप्रदानासामर्थ्यमालोक्य स्वयमेव तन्मतमाशङ्कते-अथ ब्रूयात् पर:- सामान्यं नाम-जात्यादिकल्पनारहितं वस्तुमात्रमीहायाः पूर्वं गृहीतं, यदीहमानस्य 'शब्दः' इति निश्चयज्ञानमुत्पद्यते॥ इति गाथार्थः // 258 // यदि निश्चय ज्ञान से पूर्व 'ईहा' का सद्भाव सिद्ध हो गया तो इससे फलित क्या हुआ? इस (प्रश्न के समाधान के) लिए भाष्यकार कह रहे हैं // 258 // .' किं तं पुव्वं गहियं, जमीहओ सद्द एव विण्णाणं / अह पुव्वं सामण्णं, जमीहमाणस्स सद्दो त्ति // ' [(गाथा-अर्थ :) (आप कृपया यह बताएं कि ईहा से) पूर्व में जिसका ग्रहण हुआ, वह क्या है जिसकी ईहा करते हुए व्यक्ति को 'यह शब्द ही है' यह विज्ञान उत्पन्न होता है? (पूर्वपक्ष की ओर से सम्भावित उत्तर-) पूर्व में 'सामान्य' (मात्र वस्तु) गृहीत होती है, जिसकी ईहा करते हुए व्यक्ति को 'यह शब्द है' -यह (विज्ञान) होता है।] ... व्याख्याः - आपकी बुद्धि पर तरस आ रहा है! यदि ईहा पूर्वक निश्चय ज्ञान का होना आप स्वीकार करते हैं तो आपसे हमारा यह पूछना है कि ज्ञाता ने ईहा से पूर्व किस वस्तु का ग्रहण किया है जिसकी ईहा करते हुए व्यक्ति (ज्ञाता) को 'यह शब्द ही है' यह निश्चय ज्ञान उत्पन्न होता है? तात्पर्य यह है कि किसी गृहीत वस्तु में ही कोई अकस्मात् प्रथमतया ईहा करता है (न कि अगृहीत वस्तु में)। (इस प्रश्न पर पूर्वपक्ष के) क्षुब्ध होने और उत्तर देने में असमर्थता को देखकर (भाष्यकार) स्वयं ही पूर्वपक्ष की ओर से विचार की आशंका (सम्भावना) को उपस्थापित कर रहे हैं- (अथ ब्रूयात् परः)। चलो, मान लिया कि (हमारे प्रश्न का समाधान) आप इस प्रकार कहें कि ईहा से पूर्व जो गृहीत होती है, वह मात्र 'सामान्य' यानी नाम-जाति आदि कल्पना से शून्य वस्तु होती है, जिसकी ईहा करते हुए 'यह शब्द है' -यह निश्चय ज्ञान उत्पन्न हो जाता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥२५८॥ ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 379 - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथेहाया: पूर्व सामान्यग्रहणे परेणेष्यमाणे सूरिः स्वसमीहितसिद्धिमुपदशर्यन्नाह अत्थोग्गहओ पुव्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं। पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अस्थपरिसुण्णो॥२५९॥ [संस्कृतच्छाया:- अर्थावग्रहतः पूर्वं भवितव्यं तस्य ग्रहणकालेन / पूर्वं च तस्य व्यञ्जनकाल: सोऽर्थपरिशून्यः॥] नन्वीहायाः पूर्व यत् सामान्यं गृह्यते, तस्य तावद् ग्रहणकालेन भवितव्यम्। स चाऽस्मदभ्युपगतसामयिकार्थावग्रहकालरूपो न भवति, अस्मदभ्युपगताङ्गीकारप्रसङ्गात्, किं तर्हि?, अस्मदभ्युपगतार्थावग्रहात् पूर्वमेव भवदभिप्रायेण तस्य सामान्यस्य ग्रहणकालेन भवितव्यम्, पूर्व च तस्याऽस्मदभ्युपगतार्थावग्रहस्य व्यञ्जनकाल एव वर्तते, व्यञ्जनानां शब्दादिद्रव्याणामिन्द्रियमात्रेणाऽऽदानकालो मध्यपदलोपाद् व्यञ्जनकालः। भवत्वेवम्, तथापि तत्र सामान्यार्थग्रहणं भविष्यति, इत्याशङ्क्याह- स च व्यञ्जनकालोऽर्थपरिशून्यः, न हि तत्र सामान्यरूपः, विशेषरूपो वा कश्चनाऽप्यर्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहितेन्द्रियमात्रव्यापारात्, तत्र चार्थप्रतिभासाऽयोगात्। तस्मात् अब, जब कि पूर्वपक्षी ईहा से पूर्व 'सामान्य वस्तु' के ग्रहण को अभीष्ट कर चुका है, भाष्यकार अपने अभीष्ट मत की सिद्धि का निदर्शन कर रहे हैं // 259 // अत्थोग्गहओ पुव्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं। . पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अत्यपरिसुण्णो // [(गाथा-अर्थ :) (गृहीत) 'सामान्य' का ग्रहण-काल होना चाहिए, और उसे अर्थावग्रह से पहले होना चाहिए। (किन्तु) उस (सामान्य-ग्रहण काल) से पहले तो व्यञ्जन-काल है और वह (सामान्य या विशेष, किसी भी प्रकार के) 'अर्थ' (की प्रतीति) से शून्य होता है।] व्याख्याः- ईहा से पूर्व, जिस 'सामान्य' का ग्रहण होता है, उसका कोई ग्रहण-काल तो होना ही चाहिए, किन्तु वह हमारे द्वारा माने गये 'एक समयवर्ती अर्थावग्रह-काल रूप नहीं होता, अन्यथा (आप उसे अर्थावग्रह काल रूप मानें तो) आप हमारे मत को ही स्वीकार कर लेंगे / (प्रश्न) तो फिर वह (ग्रहण-काल) कैसा होगा? (उत्तर-) आपके अभिप्रायानुसार तो उस सामान्य-ग्रहण काल को हमारे द्वारा स्वीकृत अर्थावग्रह से पूर्व ही होना चाहिए, किन्तु हमारे द्वारा स्वीकृत अर्थावग्रह का 'व्यञ्जन-काल' ही है, और व्यञ्जन-काल से तात्पर्य है। व्यञ्जनादान-काल / यहां मध्यमपदलोपी समास होकर 'व्यञ्जन-काल' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है- व्यञ्जन यानी शब्द आदि द्रव्यों का मात्र इन्द्रिय से ग्रहण करने का काल। (पूर्वपक्षी का उत्तर-) आपका ही कथन मान लें तो भी 'सामान्य' अर्थ का ग्रहण हो सकता है (अतः हमारे मत में आखिर दोष क्या रहा?) उक्त उत्तर की आशंका (सम्भावना) का (भाष्यकार) प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (सः अर्थपरिशून्यः)। वहां न तो कोई 'सामान्य' और न ही कोई 'अर्थ' प्रतिभासित 380 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पारिशेष्यादस्मभ्युपगतार्थावग्रह एव सामान्यग्रहणमिति गाथायामनुक्तमिति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। तदनन्तरं चाऽन्वय-व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनरूपा ईहा, तदनन्तरं च 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपायः, इति सर्वं सुस्थं भवति // इति गाथार्थः // 259 // अथ प्रथममेवाऽर्थावग्रहज्ञानेन शब्दाग्रहणे परः पुनरपि दोषमाह जइ सद्दो त्ति न गहियं, न उ जाणइ जंक एस सद्दो त्ति। तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मग्गिजइ विसेसो॥२६०॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि शब्द इति न गृहीतं न तु जानाति यत् क एष शब्द इति / तद् अयुक्तं सामान्ये गृहीते मृग्यते विशेषः॥] यद्यर्थावबोधसमये प्रथममेव 'शब्दोऽयम्' इत्येवं तद् वस्तु न गृहीतं, तर्हि 'न उण जाणइ के वेस सद्दे त्ति'। जं ति। यत् सूत्रे निर्दिष्टम, तदयुक्तं प्राप्नोति, यस्माच्छब्दसामान्ये रूपादिव्यावृत्ते गृहीते सति पश्चाद् मुग्यतेऽन्विष्यते विशेष:- 'किमयं शब्द: शाङ्कः, उत शाईगः' इति। होता है, क्योंकि वहां मन-रहित इन्द्रिय-व्यापार होता है और वहां (कोई) अर्थ-प्रतिभास नहीं होता। इसलिए, ‘पारिशेष्यन्याय' से (अर्थात् आपके सामने जो एकमात्र विकल्प यही बचा है कि आप यह मान लें कि) वह सामान्य-ग्रहण हमारे द्वारा स्वीकृत ‘अर्थावग्रह' ही है- ऐसा, यद्यपि इस गाथा में नहीं कहा गया है, तथापि, स्वयं समझ लेना चाहिए। इस (उक्त अर्थावग्रह) के बाद, अन्वय-व्यतिरेक धर्म सम्बन्धी पर्यालोचन रूप 'ईहा' होती है, उसके बाद 'यह शब्द ही है' -ऐसा निश्चय ज्ञान रूप 'अपाय' होता है। इस रीति से, सब कुछ समीचीन हो जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 259 // अब, प्रथमतः ही अर्थावग्रह ज्ञान से शब्द का ग्रहण न मापने पर पूर्वपक्षी पुनः दोष उद्भावित कर रहा है // 260 // जइ सद्दो त्ति न गहियं, न उ जाणइ जं क एस सद्दो त्ति / ___ तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मग्गिज्जइ विसेसो // ___ [(गाथा-अर्थ :) 'यह शब्द है' इस प्रकार से ग्रहण नहीं हुआ तो वह 'यह शब्द कौन-सा है'यह (भी) नहीं जान पाएगा। ('यह कौन-सा शब्द है -यह नहीं जानता') -यह (सूत्रोक्त) कथन अयुक्तियुक्त हो जाएगा, क्योंकि 'सामान्य' के ग्रहण होने पर ही 'विशेष' की मार्गणा (जानने की प्रवृत्ति) की जाती है।] व्याख्याः - यदि अर्थज्ञान के समय, प्रथमतः ('यह शब्द है'- इस रूप में उस वस्तु का ग्रहण नहीं हो, तो सूत्र में यह जो कहा गया है कि 'किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह कौन-सा शब्द है' - यह अयुक्तियुक्त (असंगत) हो जाएगा, क्योंकि रूप आदि की व्यावृत्ति (निराकरण) के साथ शब्दसामान्य के ग्रहण होने पर (ही) बाद में यह विशेष ज्ञान की अन्वेषणा होती है कि 'यह शब्द क्या शंख का है या शृङ्गी (वाद्य) का है?' ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 381 - Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- 'न उण जाणइ के वेस सद्देत्ति'। अस्मिन् नन्दीसूत्रे 'न पुनर्जानाति कोऽप्येष शाङ्ख-शााद्यन्यतरः शब्दः' इति विशेषस्यैव अपरिज्ञानमुक्तम्, शब्दसामान्यग्रहणं त्वनुज्ञातमेव, तदग्रहणे तु क एष शब्दः, किं शाङ्घः शावा? इत्येवं विशेषस्यैवाऽपरिज्ञानमुक्तम्, शब्दसामान्यमात्रग्रहणं त्वनुज्ञातमेव, तदग्रहणे तु 'क एष शब्दः' किं शाङ्खः, शाङ्गों वा? इत्येवं विशेषमार्गणमसंगतमेव स्यात्, विशेषजिज्ञासाया: सामान्यज्ञानपूर्वकत्वात्, शब्दसामान्ये गृहीत एव तद्विशेषमार्गणस्य युज्यमानत्वात्॥ इति गाथार्थः // 260 // अत्रोत्तरमाह सव्वत्थ देसयंतो, सद्दो सद्दो त्ति भासओ भणइ। इहरा न समयमेत्ते, सद्दो त्ति विसेसणं जुत्तं // 261 // [संस्कृतच्छाया:- सर्वत्र देशयन् शब्दः शब्द इति भाषको भणति / इतरथा न समयमात्रे शब्द इति विशेषणं युक्तम्॥] सर्वत्र पूर्वस्मिन्, अत्र च सूत्रावयवे, अवग्रहस्वरूपं देशयन् प्ररूपयन् 'शब्दः शब्दः' इति भाषकः प्रज्ञापक एव वदति, न तु तत्र ज्ञाने शब्दप्रतिभासोऽस्ति। इत्थं चैतत्, अन्यथा न समयमात्रेऽर्थावग्रहकाले 'शब्दः' इति विशेषणं युक्तम्, आन्तर्मुहूर्तिकत्वाच्छब्दनिश्चयस्येति प्रागेवोक्तम्। सांव्यवहारिकाऽर्थावग्रहापेक्षं वा सूत्रमिदं व्याख्यास्यते, इति मा त्वरिष्ठाः॥ इति गाथार्थः॥२६१॥ तात्पर्य यह है- 'किन्तु वह यह नहीं जानता कि यह कौन-सा शब्द है' -इस नन्दीसूत्र (के कथन) में बताया गया है कि यह शब्द शंख का है या किसी अन्य का -इस प्रकार (शब्द-सम्बन्धी) विशेष के परिज्ञान का अभाव है, किन्तु शब्द-सामान्य मात्र का ग्रहण होना तो स्वीकारा (ही) गया है, क्योंकि उस (शब्द सामान्य) के ग्रहण न होने पर तो 'यह शब्द किसका है, क्या शंख का है या शृङ्गी (सींग से बने) वाद्य का' -इस प्रकार 'विशेष' की अन्वेषणा असंगत ही हो जाएगी, क्योंकि सामान्य ज्ञान पहले हो, तभी विशेष की जिज्ञासा होती है (अर्थात्) शब्द-सामान्य के ग्रहण होने पर ही उसके 'विशेष' की जिज्ञासा का होना युक्तियुक्त होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 260 // अब, (पूर्वोक्त दोष का उत्तर (भाष्यकार) दे रहे हैं // 261 // सव्वत्थ देसयंतो, सद्दो सद्दो त्ति भासओ भणइ। इहरा न समयमेत्ते, सद्दो त्ति विसेसणं जुत्तं // [(गाथा-अर्थ :) (वस्तुतः तो ज्ञाता को) वहां 'शब्द' (विशेष बुद्धि के साथ, निश्चित रूप से) प्रतिभासित ही नहीं होता। अन्य रीति से विचार करें तो एक समय मात्र (काल के अर्थावग्रह) में 'शब्द' यह विशेषण ही युक्तियुक्त नहीं ठहरता।] ___ व्याख्याः - (सर्वत्र) सर्वत्र, अर्थात् पहले और प्रस्तुत सूत्र के अंशभूत (व्याख्यान) में, (अवग्रहस्वरूप की प्ररूपणा करते हुए 'शब्द-शब्द है' -इस प्रकार का (जो) कथन (है, वह) प्रवचनकार व MMS 382 --- --- विशेषावश्यक भाष्य Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अथ सूत्रावष्टम्भवादिनं परं दृष्टा सौत्रमेव परिहारमाह अहव सुए च्चिय भणियं, जह कोइ सुणेज्ज सहमव्वत्तं। अव्वत्तमणिद्देसं, सामण्णं कप्पणारहियं // 262 // [संस्कृतच्छाया:-अथवा श्रुत एव भणितं यथा कश्चित् शृणुयात् शब्दमव्यक्तम्। अव्यक्तमनिर्देश्यं सामान्यं कल्पनारहितम्॥] अथवा यदि तव गाढः श्रुतावष्टम्भः, तदा तत्राप्येतद् भणितं यदुत-प्रथममव्यक्तस्यैव शब्दोल्लेखरहितस्य शब्दमात्रस्य ग्रहणम्। केन पुनः सूत्रावयवेनेदमुक्तम्?, इत्याह- 'जह कोई सुणेज सहमव्वत्तं ति' / अयं च सूत्रावयवो नन्द्यध्ययने इत्थं द्रष्टव्यः'से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेज त्ति'। प्रज्ञापनाकार (सूत्रकार) का ही है (अतः वह सब के लिए शिरोधार्य है, किन्तु वहां 'शब्द' से तात्पर्य 'अवगृहीत शब्द-सामान्य' से है, और यह निरूपण भी एक प्ररूपणाकार व वक्ता की दृष्टि से है, श्रोता-ज्ञाता की दृष्टि से नहीं)। वस्तुस्थिति तो यही है, अन्यथा एकसमयवर्ती अर्थावग्रह काल में (तो) 'शब्द' यह विशेषण.ही उपयुक्त नहीं ठहरता, क्योंकि शब्द-निश्चय का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया हैयह पहले ही हम बता चुके हैं। अथवा, (आप कहेंगे कि फिर सूत्रकार ने 'शब्द-शब्द' ऐसी विशेष बुद्धि का होना अवग्रह में किस प्रकार प्रतिपादित किया? तो प्रकारान्तर से समाधान यह है कि) सांव्यवहारिक अर्थावग्रह की अपेक्षा से हम सूत्र की (आगे) व्याख्या करेंगे (और उनके कथन की संगति बैठाएंगे), इसलिए उतावले न हों | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 261 // अब, सूत्रावष्टम्भवादी (अर्थात् सूत्र के मात्र शब्दों को ही पकड़ कर व्याख्यान करने का जो आग्रही है, और जो उसमें निहित वास्तविक भाव तक उतरना नहीं चाहता, ऐसे) पूर्वपक्षी को दृष्टि में रख कर 'सौत्र' (सूत्र के शब्दों के आधार पर ही) समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं // 262 // अहव सुए च्चिय भणियं, जह कोइ सुणेज्ज सद्दमव्वत्तं / अव्वत्तमणिद्देसं, सामण्णं कप्पणारहियं // - [(गाथा-अर्थ :) अथवा श्रुत में ही कहा गया है कि जैसे कोई अव्यक्त शब्द को सुने। वहां 'अव्यक्त' (का अर्थ) है- अनिर्देश्य, सामान्य और (नाम, जाति आदि) कल्पना से रहित / ] व्याख्याः - अथवा यदि आपको श्रुत-वचन में (ही) प्रगाढ़ ‘अवष्टम्भ' (अत्यधिक आग्रह, आसक्तिभाव) हो तो (सुनिए-) वहीं (श्रुत में ही) यह कहा गया है प्रथम तो अव्यक्त (यानी) / शब्दोल्लेख-रहित शब्द मात्र का (ही) ग्रहण होता है। (प्रश्न-) ऐसा सूत्र के किस भाग द्वारा कहा गया है? उत्तर दे रहे हैं- (यथा कश्चित् शृणुयात् शब्दमव्यक्तम् -इति)। देखें- नन्दी अध्ययन (सूत्र) में यह सूत्र-भाग इस प्रकार है- (तद् यथानाम कश्चित् पुरुषः अव्यक्तं शब्दं शृणुयात् -इति)।अर्थात् 'यथानाम (अमुक नाम) वाला कोई पुरुष उस अव्यक्त शब्द को सुने'। Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 383 2 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्राव्यक्तमिति कोऽर्थः? इत्याह- अनिर्देश्यं शब्दोऽयं"रूपादिर्वा' इत्यादिना प्रकारेणाऽव्यक्तमित्यर्थः। ननु यदि शब्दादिरूपेणाऽनिर्देश्यम्, तर्हि किं तत्?, इत्याह- सामान्यम्। किमुक्तं भवति?, इत्याह- नामजात्यादिकल्पनारहितम्। न च वक्तव्यं-शाङ्ख-शाङ्गभेदापेक्षया शब्दोल्लेखस्याऽप्यव्यक्तत्वे घटमाने कुत इदं व्याख्यानं लभ्यते? इति, अवग्रहस्याऽनाकारोपयोगरूपतया सूत्रेऽधीतत्वात्, अनाकारोपयोगस्य च सामान्यमात्रविषयत्वात्, प्रथममेवाऽपायप्रसक्त्याऽवग्रहेहाभावप्रसङ्ग इत्याद्युक्तत्वाच्च // इति गाथार्थः // 262 / / अथ सूरिरेव पराभिप्रायमाशिशङ्कयिषुराह अह व मई, पुव्वं चिय सो गहिओ वंजणोग्गहे तेणं। __जवंजणोग्गहम्मि वि, भणियं विण्णाणमव्वत्तं // 263 // [संस्कृतच्छाया:- अथ वा मतिः, पूर्वमेव स गृहीतो व्यञ्जनावग्रहे तेन। यद् व्यञ्जनावग्रहेऽपि भणितं विज्ञानमव्यक्तम्॥] यहां 'अव्यक्त' का क्या अर्थ (तात्पर्य) है? उत्तर दे रहे हैं- (अनिर्देश्यम्)। वह अव्यक्त; अनिर्देश्य होता है, अर्थात् 'यह शब्द है' या 'रूप आदि है' -इस रूप में व्यक्त नहीं होता। . (शंका-) यदि वह (अव्यक्त) शब्द आदि रूप से निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है, तो वह क्या है? उत्तर है- वह सामान्य रूप होता है। इसका क्या तात्पर्य है? उत्तर है- नाम, जाति आदि कल्पना से रहित है। (पुनः शंका-) शब्द के शंखीय या शृंगीय (आदि) भेदों की अपेक्षा से शब्दोल्लेख भी 'अव्यक्त' कोटि में आता है, अतः उक्त (शब्दोल्लेख से रहित -यह) व्याख्यान किस तरह फलित हुआ? (उत्तर-) आपका ऐसा कहना (शंका प्रस्तुत करना) समीचीन नहीं है, क्योंकि सूत्र में अवग्रह को 'अनाकार उपयोग' रूप बताया गया है, और अनाकार उपयोग सामान्यमात्र का ग्राहक होता है, क्योंकि अगर प्रथम में ही 'अपाय' (शब्द-निश्चय) हो जाय तो अवग्रह व ईहा का अभाव हो जाएगा - इत्यादि कथन हम (पहले) कर चुके हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 262 // . अब, सूरि (भाष्यकार) ही परपक्ष द्वारा अभिप्रेत आशंका को दृष्टि में रख कर (उसके मत - को) कह रहे हैं // 263 // अह व मई, पुव्वं चिय सो, गहिओ वंजणोग्गहे तेणं। जं वंजणोग्गहम्मि वि, भणियं विण्णाणमव्वत्तं // [(गाथा-अर्थ :) (सम्भवतः) 'आप अपना ऐसा मत व्यक्त करें कि श्रोता को वह (अव्यक्त शब्द) तो व्यञ्जनावग्रह में (ही) गृहीत हो चुका है, क्योंकि आपने व्यञ्जनावग्रह में भी अव्यक्त विज्ञान का सद्भाव कहा है] a 384 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परस्य मतिः स्यात्। केयम्?, इत्याह- सोऽव्यक्तोऽनिर्देश्यादिस्वरूपः शब्दोऽर्थावग्रहात् पूर्वमेव व्यञ्जनावग्रहे तेन श्रोत्रा गृहीतः, तत् किमित्यर्थावग्रहेऽपि तद्ग्रहणमुद्देष्यते?। कथमिदं पुनर्जायते यदुत-असौ व्यञ्जनावग्रहे गृहीतः?, इत्याह'जमित्यादि ।यद् यस्माद् व्यञ्जनावग्रहेऽपि भवभिरव्यक्तं विज्ञानमुक्तम्, अव्यक्तविषयग्रहण एव चाव्यक्तत्वं तस्योपपद्यत इतिभावः॥ इति गाथार्थः॥२३॥ अत्रोत्तरमाह अस्थि तयं अव्वत्तं, न उ तं गेण्हइ सयं पि सो भणियं। न उ अग्गहियम्मि जुजइ, सद्दो त्ति विसेसणं बुद्धी॥२६४॥ [संस्कृतच्छाया:- अस्ति तद् अव्यक्तम्, न तु तद् गृह्णाति स्वयमपि असौ भणितम्। न तु अगृहीते युज्यते शब्द इति विशेषण-बुद्धिः॥] अस्ति तदव्यक्तं श्रोतुळञ्जनावग्रहे ज्ञानम्, न तस्याऽस्माभिरपलापः क्रियते, न पुनरसौ श्रोताऽतिसौक्ष्म्यात् तत् स्वयमपि गृह्णाति संवेदयते। एतच्च प्रागपि भणितम्। 'सुत्त-मत्ताइसहुमबोहो ब्व' इति वचनात्, तथा, 'सुत्तादओ सयं वि य विन्नाणं नावबुज्झन्ति' इति वचनाच्च। तस्माद् व्यञ्जनमात्रस्यैव तत्र ग्रहणम्, न शब्दस्य, व्यञ्जनावग्रहत्वान्यथानुपपत्तेरेवेति। ___ व्याख्याः - संभवतः विरोधी (पूर्वपक्षी) का ऐसा अभिमत हो। कैसा अभिमत हो? उत्तर दिया- (स पूर्वमेव गृहीतः)। वह अनिर्देश्य स्वरूप वाला अव्यक्त शब्द तो अर्थावग्रह से पूर्व ही व्यअनावग्रह में उस श्रोता द्वारा गृहीत हो चुका है, तब फिर अर्थावग्रह में भी उसके ग्रहण होने की आपने क्यों रट लगा रखी है? यह कैसे ज्ञात होता है कि इसका ग्रहण व्यञ्जनावग्रह में हो चुका है? उत्तर दिया- (यत् व्यअनावग्रहेऽपि)। चूंकि व्यअनावग्रह में भी आपने अव्यक्त विज्ञान होने का कथन किया है। तात्पर्य है कि अव्यक्त विषय के ग्रहण में ही उसके अव्यक्त होने की संगति बैठती है।। यह माथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 263 // / (व्यअनावग्रह व अर्थावग्रह में अन्तर) अब, (पूर्वपक्ष के संभावित पूर्वोक्त प्रश्न का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 264 // अत्थि तयं अव्वत्तं, न उतं गेण्हइ सयं पि सो भणियं। न उ अग्गहियम्मि जुज्जइ, सद्दो त्ति विसेसणं बुद्धी // - [(गाथा-अर्थ :) वहां (व्यञ्जनावग्रह में) अव्यक्त ज्ञान तो है, किन्तु (श्रोता) उसे स्वयं भी ग्रहण नहीं करता। और अगृहीत (अव्यक्त शब्द) में 'शब्द' ऐसी विशेषण बुद्धि (विशेष, निश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति) संगत नहीं होती।] व्याख्याः- श्रोता के व्यञ्जनावग्रह में वह ज्ञान 'अव्यक्त' है- हम इसका निषेध नहीं करते, किन्तु श्रोता उसे अतिसूक्ष्म होने से स्वयं भी ग्रहण या संवेदन नहीं करता -यह हमने पहले भी कहा Ba .....-..-- विशेषावश्यक भाष्य - --- ------ 385 ---- d Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न च सामान्यरूपतयाऽव्यक्ते शब्देऽगृहीतेऽकस्मादेव 'शब्दः' इति विशेषणबुद्धियुज्यते, अनुस्वारस्याऽलाक्षणिकत्वाद् विशेषबुद्धिरित्यर्थः। अस्यां च विशेषबुद्धौ प्रथममेवेष्यमाणायामादावेवाऽर्थावग्रहकालेऽप्यपायप्रसङ्गः, इत्यसकृदेवोक्तम्॥ इति गाथार्थः // 264 // ननु यदि व्यञ्जनावग्रहेऽप्यव्यक्तशब्दग्रहणं भवेत्, तदा को दोषः स्यात्?, इत्याह अत्थो त्ति विसयग्गहणं, जइ तम्मि वि सो न वंजणं नाम। अत्थोग्गहो च्चिय तओ, अविसेसो संकरो वावि॥२६५॥ [संस्कृतच्छाया:- अर्थ इति विषयग्रहणं यदि तस्मिन्नपि असौ न व्यञ्जनं नाम। अर्थावग्रह एष ततोऽविशेष: संकरो वाऽपि॥] है, क्योंकि (इसके समर्थन में) 'सुप्त-मत्त आदि के सूक्ष्म बोध की तरह' ऐसा (आगमिक) वचन प्राप्त होता है, और 'सुप्त (सोये हुए) आदि व्यक्ति स्वयं भी विज्ञान को नहीं जानते' यह कथन भी प्राप्त होता है, अन्यथा उनका व्यअनावग्रह होना ही असंगत हो जाएगा। (इसके अतिरिक्त, यह भी सच है कि) यदि सामान्य रूप में शब्द का ग्रहण न हो तो अकस्मात् ही 'शब्द' -इस विशेषण वाली बुद्धि का होना भी संगत नहीं होगा। गाथा में 'विशेषणं बुद्धिः' यह पाठ है, यहां अनुस्वार लक्षण-(व्याकरण-) सम्मत नहीं है, (अतः महत्त्वहीन है, निष्प्रयोजन है, उपेक्षणीय है)। इसलिए इसे 'विशेषण-बुद्धि' ऐसा (शुद्ध) पाठ समझना चाहिए, जिसका अर्थ होगा- विशेषण अर्थात् विशेष ज्ञानात्मक बुद्धि / यदि उस विशेष बुद्धि का सद्भाब होना हम प्रथम में ही मान लेंगे तो अर्थावग्रह के प्रथम काल में ही 'अपाय' होने का दोष प्रसक्त होगा (आ जाएगा) - यह बात कई बार बताई जा चुकी है।। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 264 // ___ यदि व्यञ्जनावग्रह में भी अव्यक्त शब्द का ग्रहण हो जाए (मान लिया जाय) तो आखिर दोष क्या है? इस शंका के समाधान हेतु (भाष्यकार) कर रहे हैं // 265 // अत्यो त्ति विसयग्गहणं, जइ तम्मि वि सो न वंजणं नाम / अत्थोग्गहो च्चिय तओ, अविसेसो संकरो वावि | [(गाथा-अर्थ :) 'अर्थ' यानी विषय-ग्रहण / यदि उसे वहां (व्यञ्जनावग्रह में) मान लिया जाय तो वह 'व्यञ्जन' नहीं रह जाता। और (यही नहीं) वह (व्यअनावग्रह) अर्थावग्रह ही हो जाएगा, और फलस्वरूप या तो दोनों में भेद समाप्त हो जाएगा या फिर (एक दूसरे के स्वरूप का मिश्रण रूप) सांकर्य दोष हो जाएगा। Ma 386 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थावग्रहे 'अर्थः' इत्यनेन तावद् विषयग्रहणमभिप्रेतं- रूपादिभेदेनाऽनिर्धारितस्याऽव्यक्तस्य शब्दादेविषयस्य ग्रहणं तत्राऽभिप्रेतमित्यर्थः। यदि च तस्मिन्नपि व्यञ्जनावग्रहेऽसावव्यक्तशब्दः प्रतिभासत इत्यभ्युपगम्यते, तदा न व्यञ्जनं नाम व्यञ्जनावग्रहो न प्राप्नोतीत्यर्थः। ततश्चेदानीं निवृत्ता तत्कथा, व्यञ्जनमात्रसम्बन्धस्यैव तत्रोक्त त्वात् , भवता च तदतिक्रान्तस्याऽ व्यक्तार्थग्रहणस्येहाभिधीयमानत्वादिति। तहव्यक्तार्थग्रहणे किमसौ स्यात्? इत्याह- अर्थावग्रह एवाऽसौ, अव्यक्तार्थावग्रहणात, ततश्च नास्ति व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः। अथाऽस्याऽपि सूत्रे प्रोक्तत्वादस्तित्वं न परिह्रियते, तर्हि द्वयोरप्यविशेष:- सोऽप्यर्थावग्रहः, सोऽपि व्यञ्जनावग्रहः प्राप्नोतीति भावः, मेचकमणिप्रभावत् संकरो वा स्यादित्थम् // इति गाथार्थः // 265 // तदेव व्यञ्जनावग्रहे व्यञ्जनसंबन्धमात्रमेव, अर्थावग्रह त्वव्यक्तशब्दाद्यर्थग्रहणं,न व्यक्तशब्दार्थसंवेदनम्, इति प्रतिपादितम्। सांप्रतमुपपत्त्यन्तरेणाऽप्यर्थावग्रहे व्यक्तशब्दाद्यर्थसंवेदनं निराचिकीर्षुराह व्याख्याः - अर्थावग्रह में 'अर्थ' पद का 'विषय-ग्रहण' अर्थ अभिप्रेत है, अर्थात् रूप आदि भेद का जहां निर्धारण नहीं हुआ हो -ऐसे अव्यक्त शब्द आदि विषयों का ग्रहण वहां अभिप्रेत (अभीष्ट) है। तात्पर्य यह है कि यदि उस व्यञ्जनावग्रह में भी यह अव्यक्त शब्द प्रतिभासित होता है -ऐसा माना जाये तो उसका व्यञ्जन (व्यञ्जनावग्रह) यह नाम ही (उपयुक्त) नहीं रहेगा। इसलिए इस सन्दर्भ में चर्चा यहीं समाप्त की जाती है, क्योंकि वहां व्यञ्जनमात्र सम्बन्ध होने का ही कथन है, और आप द्वारा भी उस व्यञ्जनावग्रह के हो चुकने के बाद अव्यक्त का ग्रहण न होना बताया गया है। (प्रश्न-) तो यदि अव्यक्त अर्थ का ग्रहण हो तो यह (व्यञ्जनावग्रह) क्या हो जाएगा? उत्तर दिया- वह 'अव्यक्त' अर्थ को ग्रहण करने के कारण 'अर्थावग्रह' ही हो जाएगा। इससे वह व्यञ्जन यानी व्यञ्जनावग्रह नहीं रहेगा। (पूर्वपक्ष-कथन-) इसका सूत्र में कथन होने से (व्यञ्जनावग्रह में भी) अव्यक्त अर्थ के ग्रहण होने का निषेध हम नहीं करते। (उत्तर-) (ऐसा मानना समीचीन नहीं होगा, क्योंकि) तब तो दोनों में भेद समाप्त हो जाएगा। तात्पर्य यह है कि वही अर्थावग्रह होगा और वही व्यअनावग्रह होगा -ऐसी स्थिति हो जाएगी। अथवा, इस तरह से मेचक (गहरी नीलवर्णी आभावाला रत्न) और मणि-प्रभा की तरह (अर्थात् इन दोनों को पास-पास रखें तो दोनों में एक दूसरे का भान होने लगता है, उसी तरह) इन दोनों (व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह में) सांकर्य दोष प्रसक्त होगा (एक में दूसरे का भान होने लगेगा) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 265 // इस प्रकार व्यञ्जनावग्रह में व्यञ्जन, सम्बन्ध मात्र होता है, अर्थावग्रह में अव्यक्त शब्द आदि वस्तु का ग्रहण होता है, किन्तु वहां व्यक्त शब्द आदि पदार्थों का संवेदन नहीं होता -यह प्रतिपादित किया गया। अब, अन्य युक्ति से भी, अर्थावग्रह में व्यक्त शब्द. आदि अर्थों के संवेदन होने का निराकरण करने हेतु (भाष्यकार) कह रहे हैं Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 387 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेणत्थोग्गहकाले, गहणेहाऽवायसंभवो नत्थि। तो नत्थि सद्दबुद्धी, अहत्थि नावग्गहो नाम // 266 // [संस्कृतच्छाया:- येन अर्थावग्रहकाले ग्रहण-ईहा-अपायसंभवो नास्ति। ततो नास्ति शब्दबुद्धिः, अथास्ति नावग्रहो नाम // ] पूर्वं तावदर्थस्य ग्रहणमात्रं, ततश्चेहा, तदनन्तरं त्वपायः, इत्येवं मतिज्ञानस्योत्पत्तिक्रमः। न चैतत्त्रितयं प्रथममेव शब्दार्थेऽवगृहीते समस्तीति। एतदेवाह- येनार्थावग्रहकालेऽर्थग्रहणेहापायानां संभवो नास्ति, ततोऽर्थावग्रहे नास्ति 'शब्दः' इतिविशेषबुद्धिः, अर्थग्रहणेहापूर्वकत्वात् तस्याः। अथाऽस्त्यसौ तत्र, तर्हि नायमर्थावग्रहः, किन्त्वपाय एव स्यात्, नैतद् युज्यते , तदभ्युपगमेऽर्थावग्रहेहयोरभावप्रसङ्गात् / / इति गाथार्थः // 266 // अपि च, अर्थावग्रहे 'शब्दः' इति विशेषबुद्धाविष्यमाणायां दोषान्तरमप्यस्ति। किं तत्?, इत्याह सामण्ण-तयण्णविसेसेहा-वजण-परिग्गहणओ से। अत्थोग्गहेगसमओवओगबाहुल्लमावण्णं // 27 // // 266 // जेणत्थोग्गहकाले, गहणेहाऽवायसंभवो नत्थि / तो नत्थि सद्दबुद्धी, अहत्थि नावग्गहो नाम // [(गाथा-अर्थ :) चूंकि अर्थावग्रह काल में अर्थग्रहण, ईहा व अपाय का होना संभव नहीं होता, इसलिए वहां शब्द बुद्धि नहीं होती, और यदि वह हो तो उसका अवग्रह नाम ही (संगत) नहीं होगा।] व्याख्याः - पहले तो अर्थ का ग्रहण मात्र, उसके बाद ईहा, उसके बाद अपाय -इस प्रकार मतिज्ञान की उत्पत्ति का क्रम है। शब्द रूप अर्थ के ग्रहण (अवग्रह) में प्रथमतः ही इन तीनों की निष्पत्ति नहीं होती। इसी बात को कह रहे हैं- (येन अर्थावग्रहकाले)। चूंकि अर्थावग्रह के समय अर्थग्रहण, ईहा व अपाय संभव नहीं होते, इसलिए अर्थावग्रह में 'यह शब्द है' ऐसी विशेष बुद्धि नहीं होती, क्योंकि वह (विशेष बुद्धि) वहां हो, तो वह अर्थावग्रह नहीं होगा, अपितु 'अपाय' ही होगा, किन्तु ऐसा युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर, अर्थावग्रह व ईहा का अभाव हो जाएगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 266 // (अर्थावग्रह में विशेषबुद्धि मानने पर दोष) और दूसरी बात, अर्थावग्रह में 'शब्द' ऐसी विशेष बुद्धि होती है- ऐसा मानने में एक अन्य दोष भी है। वह दोष क्या है? इसे ही (भाष्यकार) बताने जा रहे हैं // 267 // सामण्ण-तयण्णविसेसेहा-वज्जण-परिग्गहणओ से। अत्थोग्गहेगसमओवओगबाहुल्लमावण्णं // Na 388 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- सामान्य-तदन्यविशेषेहावर्जनपरिग्रहणतस्तस्य। अर्थावग्रहैकसमयोपयोगबाहुल्यम्॥] इह येयमर्थावग्रहैकसमये 'शब्दः' इति विशेषबुद्धिर्भवताऽभ्युपगम्यते, सा तावद् निश्चयरूपा, निश्चयश्चाकस्मादेव न युज्यते, किन्तु क्रमेण। तथाहि-प्रथमं तावद् रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दसामान्यं ग्रहीतव्यम्, ततस्तद्विशेषविषया, तदपररूपादिविशेषविषया च / एतैरतैश्च धर्मः 'किमयं शब्दः, आहोस्विद् रूपादिः' इत्येवंरूपेहा, तदनन्तरं च गृहीतशब्दसामान्यविशेषाणां ग्रहणम्, अन्येषां तु रूपादिविशेषाणां तत्राऽविद्यमानानां परिवर्जनम्, इत्येवंभूतेन क्रमेण निश्चयोत्पत्तिः। तथाच सति श्रोतुरावग्रहैकसमयेऽपि सामान्यग्रहणादिभिः प्रकारैरुपयोगबहुत्वमापद्यते, एकस्मिंश्च समये बहव उपयोगा: सिद्धान्ते निषिद्धाः, इति नार्थावग्रहे शब्दादिविशेषबुद्धिः॥ इति गाथाभावार्थः॥ अक्षरार्थस्तूच्यते- सामान्यमिह श्रूयमाणशब्दसामान्यं गृह्यते, 'तयण्णविसेसेह त्ति'। तच्छब्देनाऽनन्तरोक्तं शब्दसामान्यमनुकृष्यते, अन्यशब्देन तु तत्राऽविद्यमाना रूपादयः परिगृह्यन्ते / ततश्च तच्चाऽन्ये च तदन्ये-शब्दसामान्यं, रूपादयश्चेत्यर्थः, [(गाथा-अर्थ :) (यदि अर्थावग्रह में विशेष बुद्धि का होना मानें तो शब्द आदि वस्तु में) सामान्य का ग्रहण, उस शब्द-सामान्य और (उस शब्द में) अविद्यमान (रूप, रस आदि, -इन दोनों) के विशेष धर्मों की ईहा, फिर (हेय धर्मों का) परित्याग, और (उपादेय धर्मों का) परिग्रहण -इन (सब) के होने से एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में उपयोग-बहुलता (के दोष की स्थिति) होने लगेगी। फलस्वरूप, अर्थावग्रह को एकसमयवर्ती जो आगम में माना गया है, उससे विरोध (होने का दोष) होगा। ___ व्याख्याः- इस एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में 'यह शब्द है' -ऐसी विशेष बुद्धि का सद्भाव जो आप (परपक्षी) मान रहे हैं, वह 'विशेष बुद्धि' तो निश्चय रूप होती है, और निश्चय का अकस्मात् होना युक्तियुक्त नहीं है, अपितु वह क्रम से ही होता है। जैसे, पहले तो रूप आदि से अव्यावृत्त, अव्यक्त शब्द-सामान्य का ग्रहण होगा, उसके बाद उस 'विशेष' के सम्बन्ध में, उससे अन्य रूप आदि के विशेष के सम्बन्ध में, और इन धर्मों से 'क्या यह शब्द है या रूप आदि है। इस प्रकार (की जिज्ञासा रूप) ईहा, उसके बाद गृहीत शब्द-सामान्य के विशेषों का ग्रहण, अन्य जो रूप आदि विशेष जो वहां विद्यमान नहीं हैं, उनका त्याग, इस प्रकार क्रम से निश्चय की उत्पत्ति हो पाएगी। (किन्तु) ऐसा होने पर श्रोता के एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में भी सामान्य-ग्रहण आदि (क्रमिक ज्ञान-परम्परा के) प्रकारों से उपयोग-बहुलता हो जाएगी, किन्तु एक ही समय में बहुत से उपयोगों के होने का सिद्धान्त (आगम) में निषेध किया गया है, अतः अर्थावग्रह में शब्दादि विशेषबुद्धि नहीं हो सकती। यह तो हुआ गाथा का भावार्थ। (अब) अक्षरार्थ (अक्षरशः या शब्दशः अर्थ) कह रहे हैं- यहां 'सामान्य' पद से सुने जाने वाले शब्द का सामान्य रूप अर्थ गृहीत है। (तदन्यविशेषेहा इति)। यहां 'तत्' पद से पहले कहे गये 'शब्द-सामान्य' की अनुवृत्ति की गई है। 'अन्य' शब्द से तो वहां जो अविद्यमान रूप आदि हैं, उनका ग्रहण यहां अभिप्रेत है। तब 'तदन्य' का अर्थ है- वह शब्द सामान्य और (उससे अन्य या अविद्यमान) Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------389 52 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषां विशेषा धर्माः श्रोत्रग्राह्यत्वादयः चक्षुरादिवेद्यत्वादयश्च, तद्विषयेहा तदन्यविशेषेहा, किमत्र श्रोत्रग्राह्यत्वादयो धर्मा उपलभ्यन्ते, आहोस्विच्चक्षुरादिवेद्यत्वादयः? इत्येवंरूपो विमर्श इत्यर्थः, तदनन्तरं तु वर्जनं च तत्राऽविद्यमानरूपादिगतानां हेयधर्माणां चक्षुर्वेद्यत्वादीनाम, परिग्रहणं च तत्र गृहीतशब्दसामान्यगतानामुपादेयधर्माणां श्रोत्रग्राह्यत्वादीनाम्, इति वर्जन-परिग्रहणे त्यागाऽऽदाने। सामान्यं च तदन्यविशेषेहा च वर्जन-परिग्रहणे च सामान्य-तदन्यविशेषेहा-वर्जन-परिग्रहणानि तेभ्यस्ततः। 'से' तस्य श्रोतुः। अर्थावग्रहै कसमयेऽप्युपयोगबाहुल्यमापन्नं प्राप्तम्। तथाहि- प्रथमः सामान्यग्रहणोपयोगः यथोक्तेहोपयोगस्तु द्वितीयः, हेयधर्मवर्जनोपयोगस्तृतीयः, उपादेयधर्मपरिग्रहोपयोगश्चतुर्थः, इत्येवमर्थावग्रहैकसमयमात्रेऽपि बहव उपयोगाः प्राप्नुवन्ति / न चैतद् . युक्तम्, समयविरुद्धत्वात् / तस्माद् नार्थावग्रहे शब्दविशेषबुद्धिः, किन्तु ‘सद्देत्ति भणइ वत्ता' इत्यादि स्थितम् // इति गाथार्थः // 267 / / अथास्मिन्नेवाऽर्थावग्रहेऽपरवाद्यभिप्रायं निराचिकीर्षुराह अण्णे सामण्णग्गहणमाहु बालस्स जायमेत्तस्स। समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विसेसविनाणं॥२६८॥ रूप आदि। उनके विशेष धर्म हुए- श्रोतृग्राह्यता (सुनने योग्य होना) आदि और चक्षु.आदि (इन्द्रियों) से वेद्य (ज्ञेय, ग्राह्य) होना आदि, (तदन्यविशेषेहा) इनके विषय में 'ईहा' अर्थात् वहां श्रोत्रग्राह्यता आदि धर्म उपलब्ध हो रहे हैं या 'चक्षु आदि वेद्यता' आदि उपलब्ध हो रहे हैं -इस प्रकार का विमर्श होना / उसके बाद, परित्याग, अर्थात् वहां अविद्यमान रूप आदि से जुड़े 'चक्षुर्वेद्यता' आदि हेय धर्मों क्रा त्याग, (इसके साथ ही) गृहीत शब्द सामान्य से जुड़े श्रोत्रग्राधृता आदि उपादेय धर्मों का उपादान (ग्रहण), इस प्रकार त्याग या ग्रहण, इस प्रकार सामान्य, तदन्यविशेष -ईहा, परित्याग व उपादानं -इन सब के कारण। (तस्य) -उस श्रोता के, एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में भी उपयोगों की बहुलता (की दोषपूर्ण स्थिति) आ जाएगी। जैसे- प्रथम समय में सामान्य-ग्रहण सम्बन्धी उपयोग, पूर्वोक्त ईहा सम्बन्धी उपयोग दूसरा, हेय धर्म के त्याग से सम्बन्धित उपयोग तीसरा, उपादेय धर्म के ग्रहण से सम्बन्धित उपयोग चतुर्थ, इस प्रकार एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में भी बहुत से उपयोगों का सद्भाव होने लगेगा। किन्तु ऐसा होना (या मानना) सिद्धान्तविरुद्ध होने के कारण युक्तिसंगत (उपादेय) नहीं है। इसलिए अर्थावग्रह में शब्दविशेष बुद्धि नहीं होती, किन्तु ('शब्द' इति भणति वक्ता) वक्ता (सूत्रकार) द्वारा कहा गया 'शब्द' यह पद शब्दसामान्य का वाचक है, इत्यादि (गाथा-253 में जो निरूपित किया गया है, वही सिद्धान्तरूप में) स्थिर हुआ | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 267 // ___ अब, इसी अर्थावग्रह में दूसरे (विरोधी) वादी की ओर से संभावित अभिप्राय (को प्रस्तुत करते हुए, बाद में उस) का निराकरण कर रहे हैं // 268 // अण्णे सामण्णग्गहणमाहु बालस्स जायमेत्तस्स | समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विसेसविन्नाणं // Mar 390 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- TATAN Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- अन्ये सामान्यग्रहणमाहुः बालस्य जातमात्रस्य / समये एव परिचितविषयस्य विशेषविज्ञानम् // ] अन्ये वादिनः केचिदेवमाहः- यदेतत्सर्वविशेषमखस्याव्यक्तस्य सामान्यमात्रस्य वस्तुनो ग्रहणमालोचनं, तद् बालस्य शिशोस्तत्क्षणजातमात्रस्य भवति, नात्र विप्रतिपत्तिः, अव्यक्तो ह्यसौ संकेतादिविकलोऽपरिचितविषयः। यस्तर्हि परिचितविषयः, तस्य किम्?, इत्याह- समय एवाऽऽद्यशब्दश्रवणसमय एव विशेषविज्ञानं जायते, स्पष्टत्वात् तस्य। ततश्चाऽमुमाश्रित्य 'तेण सद्दे त्ति उग्गहिए' इत्यादि यथाश्रुतमेव व्याख्यायते, न कश्चिद् दोष इति भावः // इति गाथार्थः॥२६८ // अत्रोत्तरमाह तदवत्थमेव तं पुव्वदोसओ तम्मि चेव वा समए। संख-महुराइसुबहुयविसेसगहणं पसज्जेज्जा॥२६९॥ [संस्कृतच्छाया:- तदवस्थमेव तत् पूर्वदोषतः तस्मिन्नेव वा समये। शाख-मधुरादिसुबहुकविशेषग्रहणं प्रसज्ज्येत // ] 'जेणत्थोग्गहकाले' इत्यादिना ग्रन्थेन 'सामण्ण-तयण्णविसेसेहा' इत्यादिना च ग्रन्थेन यद् दूषितं या तस्यावस्था यत् तस्य स्वरूपम्- 'समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विसेसविन्नाणं' इति, तदेतत्परोक्तमपि तदवस्थमेव, न पुनः [(गाथा-अर्थ :) (कुछ) अन्य (वादी) कहते हैं कि तत्क्षण उत्पन्न बालक को 'सामान्य' ग्रहण होता है, किन्तु परिचित विषय वाले व्यक्ति को (तो) समय मात्र में ही 'विशेष' -ज्ञान हो जाता है।] व्याख्याः- दूसरे वादी तो ऐसा कहते हैं -यह जो समस्त विशेषों से रहित, अव्यक्त सामान्य मात्र वस्तु का ग्रहण-'आलोचन' है, वह तो तत्क्षण उत्पन्न बालक या शिशु को होता है -इसमें कोई विवाद नहीं, क्योंकि वह 'अव्यक्त' संकेत आदि से रहित, एवं 'अपरिचित विषय' होता है। किन्तु जो 'परिचितविषय' होता है, उसका (अर्थग्रहण) किस प्रकार का होता है? उत्तर दिया- एक समय में ही, प्रथम शब्द-श्रवण के समय ही, विशेष-विज्ञान हो जाता है, क्योंकि वह स्पष्ट होता है, इसलिए इस मान्यता का आश्रयण कर 'उसने शब्द का अवग्रह किया' इत्यादि व्याख्यान आगमानुरूप ही है, और कोई दोष भी नहीं रह जाता है -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 268 // अब (वादी के पूर्वोक्त मत का) उत्तर दे रहे हैं // 269 // तदवत्थमेव तं पुव्वदोसओ तम्मि चेव वा समए / संख-महुराइसुबहुयविसेसगहणं पसज्जेज्जा // . [(गाथा-अर्थ :) पूर्वोक्त दोषों के कारण (अन्य वादी का उक्त कथन भी) उसी तरह (अयुक्तियुक्त) है। (दूसरी बात, उक्त रीति से तो) उसी एक ही समय में शङ्ख का होना, मधुर होना आदि बहुत से विशेषों का ग्रहण प्रसक्त होने लगेगा।] व्याख्याः- 'चूंकि अर्थावग्रह के समय में' इत्यादि तथा 'सामान्य तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि पूर्व ग्रन्थ (में 266-267 गाथाओं) द्वारा जो दोष हमने प्रदर्शित किये हैं, उसके कारण पूर्वपक्ष के ---------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - -- 391 - - Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चिदूनाधिकावस्थम् / कुतः?, इत्याह- 'पुव्वदोसउ त्ति'। जेणत्थोग्गहकाले' इत्यादिना, 'सामण्ण-तयण्ण-' इत्यादिना च यः पूर्वं दोषोऽभिहितस्तस्मात् पूर्वदोषात्-पूर्वदोषाऽनतिवृत्तेः, तदेतत्परोक्तं तदवस्थमेव, इति नान्यदूषणाभिधान-प्रयासो विधीयत इति भावः। अथवाऽपूर्वमपि दूषणमुच्यते। किं तत्?, इत्याह- 'तम्मि चेवेत्यादि ।वा इत्यथवा, तस्मिन्नेव स्पष्टविज्ञानस्य व्यक्तस्य जन्तोर्विशेषग्राहिणि समये 'शाङ्खः, शा? वाऽयं शब्दः, स्निग्धः, मधुरः, कर्कशः, स्त्री-पुरुषाद्यन्यतरवाद्यः' इत्यादि सुबहुकविशेषग्रहणं प्रसज्ज्येत। इदमुक्तं भवति-यदि व्यक्तस्य परिचितविषयस्य जन्तोरव्यक्तशब्दज्ञानमल्लंघ्य तस्मिन्नर्थावग्रहैकसमयमात्रे शब्दनिश्चयज्ञानं. भवति, तदाऽन्यस्य कस्यचित् परिचिततरविषयस्य पटुतरावबोधस्य तस्मिन्नेव समये व्यक्तशब्दज्ञानमप्यतिक्रम्य 'शाङ्खोऽयं शब्द:' इत्यादि संख्यातीतविशेषग्राहकमपि ज्ञानं भवदभिप्रायेण स्यात्, दृश्यन्ते च पुरुषशक्तीनां तारतम्यविशेषाः। भवत्येव कस्यचित् प्रथमसमयेऽपि सुबहुविशेषग्राहकमपि ज्ञानमिति चेत् / न, 'न उण जाणइ के वेस सद्दे' इत्यस्य सूत्रावयवस्याऽगमकत्वप्रसङ्गात्। 21N कथन की जो स्थिति थी, या (जैसा दूषित) स्वरूप था, 'एक समय में ही परिचित विषय का विशेष ज्ञान हो जाता है' -इस परकीय (अन्य वादी के) कथन की भी वही ज्यों की त्यों स्थिति है, कोई कमी या अधिकता नहीं हुई है। (प्रश्न-) कैसे? उत्तर दिया- (पूर्वदोषतः इति)। (गाथा 266-267 में) पूर्व में 'चूंकि अर्थावग्रह काल में' इत्यादि, तथा 'सामान्य तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि कथन कर जो दोष प्रदर्शित किये थे, उन पूर्वोक्त दोषों का निराकरण नहीं हो पाया है, इसलिए परपक्षी द्वारा किया गया कथन ज्यों का त्यों (दूषित ही बना हुआ) है, इसलिए अन्य दोष कहने का प्रयास नहीं कर रहे हैंयह तात्पर्य है। अथवा, अपूर्व (पूर्वोक्त दोष से अन्य) दोष का कथन कर रहे हैं। (प्रश्न-) वह क्या (दोष) है? उत्तर दिया- (तस्मिन्नेव वा इत्यादि)। 'वा' का अर्थ है- अथवा, प्राणी के उत्पन्न होने वाले स्पष्ट व व्यक्त विज्ञान के उसी विशेषग्राही समय में 'यह शङ्ख का है', यह शृंगी (सींग से बने) वाद्य का है, स्निग्ध है, मधुर है, कर्कश है, स्त्री या पुरुष आदि, इनमें से अमुक द्वारा बजाया गया है- इत्यादि बहुत-बहुत से विशेषों का ग्रहण होने लगेगा। तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्त व परिचित विषय वाले प्राणी को अव्यक्त शब्द ज्ञान न होकर (सीधे ही) अर्थावग्रह के एक समय में शब्द-सम्बन्धी निश्चय ज्ञान हो जाता है, तो आपके अभिप्राय के अनुसार किसी और व्यक्ति को जो अपेक्षाकृत अधिक परिचित विषय वाला है और अपेक्षाकृत अधिक पटु ज्ञान वाला है, -उसी समय में व्यक्त शब्द ज्ञान भी न होकर (सीधे ही) 'यह शङ्ख का शब्द है' -इत्यादि असंख्य विशेषों का ग्राहक ज्ञान भी होने लगेगा, क्योंकि पुरुष की शक्तियों में तरतमताएं देखी जाती हैं। (यदि आप कहें कि इसमें क्या दोष है, अपितु यह तो वास्तविकता है, क्योंकि) 'किसीकिसी को प्रथम समय में भी बहुत से विशेषों का ग्राहक ज्ञान होता देखा जाता है। तो आपका यह 392 --- -- विशेषावश्यक भाष्य Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमध्यमशक्तिपुरुषविषयमेतत् सूत्रमिति चेत् / न, अविशेषेणोक्तत्वात्, सर्वविशेषविषयत्वस्य च युक्त्यनुपपन्नत्वात्, न हि प्रकृष्टमतेरपि शब्दधर्मिणमगृहीत्वोत्तरोत्तरबहुसुधर्मग्रहणसंभवोऽस्ति, निराधारधर्माणामनुपपत्तेः॥ इति गाथार्थः // 269 // किञ्च, समयमात्रेऽपि 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानमभ्युपगच्छतोऽन्येऽपि समयविरोधादयो दोषाः। के पुनस्ते?, इत्याह अत्थोग्गहो न समयं, अहवा समओवओगबाहुल्लं। सव्वविसेसग्गहणं, सव्वमई वोग्गहो गिज्झो॥२७०॥ एगो वाऽवाओ च्चिय, अहवा सोऽगहिय-णीहिए पत्तो। उक्कम-वइक्कमा वा, पत्ता धुवमोग्गहाईणं // 271 // सामण्णं च विसेसो, सो वा सामण्णमुभयमुभयं वा। न य जुत्तं सव्वमियं,(वा) सामण्णालंबणं मोत्तुं॥२७२॥ कथन भी संगत नहीं, क्योंकि (आपके मत को मान लेने पर) 'किन्तु वह यह नहीं जानता कि कौनसा शब्द है' इत्यादि सूत्रांश अर्थहीन (असंगत) हो जाएगा। यह सूत्र मध्यम शक्ति वाले पुरुष के सम्बन्ध में है -यह कथन भी आपका समीचीन नहीं होगा, क्योंकि वहां सामान्य कथन है (न कि किसी मध्यम या हीन शक्ति विशेष वाले व्यक्ति के लिए)। और सभी विशेषों का विषय होना युक्तियुक्त भी नहीं है, क्योंकि प्रकृष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को भी शब्द रूपी धर्मी को बिना ग्रहण किये, उत्तरोत्तर अनेक धर्मों का ग्रहण संभव नहीं होता, क्योंकि निराधार धर्मों का होना असंगत है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 269 // (सिद्धान्त-विरोध आदि दोष भी) और, समय मात्र में भी 'शब्द' ऐसे विशेषज्ञान का सद्भाव जो मानते हैं, उनके कथन में भी आगम-विरोध आदि अन्य दोष हैं। वे (दोष) कौन से हैं? इसका उत्तर (भाष्यकार) दे रहे हैं // 270 // अत्थोग्गहो न समयं, अहवा समओवओगबाहुल्लं / सव्वविसेसग्गहणं, सव्वमई वोग्गहो गिज्झो // // 271 // एगो वाऽवाओ च्चिय, अहवा सोऽगहिय-णीहिए पत्तो। उक्कम-वइक्कमा वा, पत्ता धुवमोग्गहाईणं // IFર૭૨ II सामण्णं च विसेसो, सो वा सामण्णमुभयमुभयं वा / न य जुत्तं सव्वमियं, (वा) सामण्णालंबणं मोतुं // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -- ----- 393_ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-अर्थावग्रहो न समयम् अथवा समयोपयोगबाहुल्यम्। सर्वविशेष-ग्रहणं सर्वमतिर्वा अवग्रहो ग्राह्यः॥ एको वाऽपायः एवाथवा सोऽगृहीत-अनीहितः प्राप्तः। उत्क्रम- व्यतिक्रमौ वा प्राप्तौ ध्रुवम् अवग्रहादीनाम् ॥सामान्यं च विशेष:स वा सामान्यमुभयं वा / न च युक्तं सर्वमिदं (वा) सामान्यालम्बनं मुक्त्वा // ] व्याख्या- "उग्गहो एक्कं समयं" इत्यादिवचनादर्थावग्रहः सिद्धान्ते सामयिको निर्दिष्टः, यदि चावग्रहे विशेषविज्ञानमभ्युपगम्यते तदा सामयिकोऽसौ न प्राप्नोति, विशेषज्ञानस्याऽसंख्येयसामयिकत्वात्। अथ समयमात्रेऽप्यस्मिन् विशेषज्ञानमिष्यते, तर्हि 'सामण्ण-तयण्णविसेसेहा' इत्यादिना समयोपयोगबाहुल्यं प्राप्नोति। . - अथवेत्यग्रतोऽप्यनुवर्तते / ततश्चाऽथवा परिचितविषयस्य विशेषज्ञानेऽभ्युपगम्यमाने परिचिततरविषयस्य तस्मिन्नेव समये सर्वविशेषग्रहणमनन्तरोक्तं प्राप्नोति। [(गाथा-अर्थ :) यदि वहां (अर्थावग्रह में) सामान्य के ग्रहण (की मान्यता) का त्याग कर दें (और वहां विशेष ज्ञान का सद्भाव ही मानें) तो (1) अर्थावग्रह की एक समयवर्तिता का खण्डित होना, अथवा (2) अर्थावग्रह में एक समय में ही उपयोग-बहुलता (का दोष), अथवा (3) एक ही समय में सभी विशेषों के ग्रहण का होना (दोष), अथवा (4) समस्त मति की मात्र अवग्रह में ग्राह्यता (अर्थात् ईहा आदि के अभाव होने का दोष), अथवा (5) समस्त मति का अपाय रूप मात्र ही रह जाना (मति ज्ञान के अन्य भेदों के अभाव का दोष), अथवा (6) उस अपाय का अगृहीत व अनीहित (अर्थग्रहण से तथा ईहा से रहित) हो जाना (यह दोष), अथवा (7) अवग्रह (ईहा, अपाय) आदि (के एक निश्चित क्रम) में निश्चित रूप से उत्क्रम : या व्यतिक्रम (विपरीत क्रम या अनियत क्रम) होना, अथवा (8) (वस्तुतः जो) सामान्य (है, उस) की विशेषरूपता, अथवा (9) (जिसे आप 'विशेष' कहेंगे, उस) 'विशेष' की (वस्तुतः) सामान्य रूपता, अथवा (10) दोनों की उभयरूपता (अर्थात् सामान्य व विशेष - इनमें से प्रत्येक की उभयरूपता) - ये सब (आगमविरुद्ध स्वरूप प्रसक्त) होंगे, जो उपयुक्त (समीचीन) नहीं हैं।] व्याख्याः- (1) 'अवग्रह एक समय वाला होता है' इत्यादि (आगमिक) वचन से सिद्धान्त में अर्थावग्रह को एक समय वाला निर्दिष्ट किया गया है। यदि अर्थावग्रह में विशेष ज्ञान का सद्भाव माना जाए तो फिर यह एकसमयवर्ती नहीं रहेगा, क्योंकि विशेष ज्ञान असंख्येय समय वाला होता है। (2) और, यदि एक समय वाले अर्थावग्रह में ही विशेष ज्ञान का सद्भाव मानेंगे तो (गाथा267 में) 'सामान्य-तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि रूप से पहले कहा गया 'समयोपयोगबहुलता का दोष' प्रसक्त होता है। 'अथवा' इस पद की अनुवृत्ति आगे (के दोषों में) भी होती है। इसलिए, अथवा (3) परिचितविषय वाले व्यक्ति के विशेष ज्ञान का होना मानने पर, अपेक्षाकृत अधिक परिचित विषय वाले को, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, उसी समय में समस्त विशेषों का ग्रहण होने लगेगा। 394 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवाऽवग्रहमात्रादपि विशेषपरिच्छेदेऽङ्गीक्रियमाणे ईहादीनामनुत्थानमेव। ततश्च सर्वाऽपि मतिरवग्रहो ग्राह्यः-सर्वस्यापि मतेरवग्रहरूपतैव प्राप्नोतीत्यर्थः। अथवा सर्वाऽपि मतिरपाय एवैकः, प्राप्नोति, अर्थावग्रहे विशेषज्ञानस्याऽऽश्रयणात्, तस्य च निश्चयरूपत्वात्, निश्चयस्य चापायत्वादिति। समयमात्रे चाऽस्मिन्नपाये सिद्धे 'ईहावाया मुहत्तमन्तं तु' इति विरुद्ध्यते। अथवाऽर्थेऽवगृहीते, ईहितेच, अपायः सिद्धान्ते निर्दिश्यते 'उग्गहोईहा अवाओ य' इति क्रमनिर्देशात्, यदि चाऽद्यसमयेऽपि विशेषज्ञानाऽभ्युपगमादपाय इष्यते, तीनवगृहीतेऽनीहिते च तस्मिन्नसौ प्राप्तः। 'वा' इत्यथवा, यदि तृतीयस्थाननिर्दिष्टोऽप्यपायः 'समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विण्णाणं' इति वचनात् पट्त्ववैचित्र्येण प्रथममभ्युपगम्यते, तर्हि तस्मादेव पाटववैचित्र्यादवग्रहेहाऽपाय-धारणानां ध्रवं निश्चितमत्क्रम-व्यतिक्रमौ स्याताम। तत्र पश्चानुपूर्वीभवनमुत्क्रमः, अनानुपूर्वीभावस्तु व्यतिक्रमः, तथाहि- यथा शक्तिवैचित्र्यात् कश्चित् (कस्यचित्) प्रथममेवाऽपायो भवताऽभ्युपगम्यते, तथा तत एव कस्याऽपि प्रथमं धारणा स्यात्, ततोऽपायः, ततोऽपीहा, तदनन्तरं त्ववग्रह इत्युत्क्रमः, अन्यस्य (4) अथवा अवग्रह मात्र से यदि विशेष ज्ञान मानने पर तो ईहा आदि की उत्पत्ति का अवसर ही नहीं रहेगा / फलस्वरूप, समस्त मति को अवग्रह रूप में (ही) ग्रहण करेंगे, अर्थात् समस्त मति (सिमट कर, उस) की मात्र अवग्रह रूपता रह जाएगी। (5) अथवा समस्त मति ‘एक अपाय मात्र' रह जाएगी, क्योंकि अर्थावग्रह के विशेष ज्ञान : का सद्भाव माना जा रहा है जो निश्चयरूप होता है और वह निश्चय ‘अपाय' रूप ही (तो) है। समयमात्र में भी अपाय की सिद्धि मानी जाय तो 'ईहा व अपाय -ये मुहूर्तकाल के होते हैं' -इस आगमिक कथन से विरोध प्रसक्त होगा। (6) अथवा, अर्थ का अवग्रहण होने पर, उसकी ईहा होने पर, (उसके बाद) अपाय का होना सिद्धान्त में निर्दिष्ट है, क्योंकि अवग्रह, ईहा, अपाय -यह क्रम वहां निर्दिष्ट है। अब यदि प्रथम समय * में ही विशेष ज्ञान का सद्भाव मानने से अपाय का सद्भाव मान रहे हैं तो जो पदार्थ अवग्रह से गृहीत नहीं है, और ईहा भी जिसकी नहीं हुई है, ऐसे पदार्थ में भी 'अपाय' का सद्भाव मानना पड़ेगा (जो आगम-निर्दिष्ट मतिज्ञान-क्रम से विरुद्ध होगा)। (7) 'वा' यानी अथवा | जो अपाय (मति ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम में) तीसरे स्थान पर निर्दिष्ट . है, उक्त अपाय को 'परिचित विषय वाले को एक समय में ही विज्ञान (विशेष ज्ञान) हो जाता है' इस कथन द्वारा पटुता की विचित्रता शक्ति के कारण, अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणा का निश्चित ही उत्क्रम व व्यतिक्रम हो जाएगा। इनमें उलटा क्रम होना 'उत्क्रम' होता है, और क्रम का पालन न करना (उल्लंघन करना) 'व्यतिक्रम' होता है। उदाहरणार्थ- जैसे, शक्तिविचित्रता के कारण, किसी को प्रथम ही 'अपाय' हो जाता है- ऐसा आप मान रहे हैं, उसी प्रकार प्रथम समय में ही (किसी को) धारणा हो सकती है, फिर अपाय और फिर ईहा और उसके बाद अवग्रह -इस प्रकार 'उत्क्रम' हो सकता ---------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्यचित्पुनरवग्रहमुल्लङ्घ्य प्रथममेवेहा समुपजायेत, अपरस्य तु तामप्यतिक्रम्याऽपायः, अन्यस्य तु तमप्यतिवृत्त्य धारणा स्यात्, इत्यादिव्यतिक्रमः। न चेह वयं युक्तिमाप्रच्छनीयाः, भवदभ्युपगतस्य शक्तिवैचित्र्यस्यैव पुष्टहेतोः सद्भावात्। न चैतावुत्क्रम-व्यतिक्रमौ युक्तौ, 'उग्गहो ईहा अवायो य धारणा एव होन्ति चत्तारि' इति परममुनि-निर्दिष्टक्रमस्याऽन्यथाकर्तुमशक्यत्वादिति। तथा, यदि यत् प्रथमसमये गृह्यते स विशेषः, तर्हि 'सामण्णं च विसेसो त्ति'। यत् सामान्यं तदपि विशेषः प्राप्तः, प्रथमसमये हि सर्वस्यापि वस्तुनोऽव्यक्तं सामान्यमेव रूपं गृह्यते, ततोऽस्मिन्नप्यर्थावग्रहसमये सामान्यमेव गृह्यते -इति परमार्थः। यदि वाऽत्र विशेषबुद्धिर्भवताऽभ्युपगम्यते, तर्हि यदिह वस्तुस्थित्या सामान्यं स्थितं तदपि भवदभिप्रायेण विशेषः प्राप्तः। चशब्दो / दूषणसमुच्चयार्थः। 'सो वा सामण्णं ति'। स वा भवदभिप्रेतो विशेषो वस्तुस्थितिसमायातं सामान्यं प्राप्नोतीति। 'उभयमुभयं व त्ति' अथवा, सामान्य विशेषलक्षणमुभयमप्येतत्प्रत्येकमुभयं प्राप्नोति-एकैकमुभयरूपं स्यादित्यर्थः, तथाहि-अव ईषत् सामान्यं गृह्णातीत्यवग्रह इतिव्युत्पत्या वस्तुस्थितिसमायातं यत्सामान्यं तत् स्वरूपेण तावत् सामान्यम्, भवदभ्युपगमेन है। किन्तु किसी अन्य व्यक्ति को, अवग्रह का उल्लंघन करते हुए (उसे न करते हुए ही, तथा ईहा न होकर) 'अपाय हो जाएगा, तो किसी दूसरे को, अपाय का उल्लंघन करते हए (अपाय न होकर) धारणा होने लगेगी -इत्यादि 'व्यतिक्रम' हो सकता है। आप यह न पूछे कि इस (उत्क्रम व व्यतिक्रम) में युक्ति क्या है? क्योंकि आपकी ओर से स्वीकृत 'शक्ति-विचित्रता' ही उस (उत्क्रम व व्यतिक्रम) में पुष्ट (प्रबल) कारण विद्यमान है। ये उत्क्रम व व्यतिक्रम कथमपि युक्तियुक्त नहीं हैं, क्योंकि श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा 'अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा -ये चार ही (क्रम) होते हैं। इस प्रकार जो क्रम निर्दिष्ट किया गया है, उसे नकारा नहीं जा सकता। (8) और यदि जो प्रथम समय में गृहीत होता है, वह 'विशेष' है तो (सामान्यं च विशेषः), जो (वस्ततः) 'सामान्य' है, वही 'विशेष' होने लगेगा, क्योंकि प्रथम समय में सभी वस्तओं का अव्यक्त सामान्य रूप ही गृहीत होता है, इसलिए इस अर्थावग्रह के समय में वस्तुतः तो 'सामान्य' ही गृहीत होता है। अथवा, यदि वहां विशेष बुद्धि का सदभाव आप मान रहे हैं तो जो वस्ततः 'सामान्य' है. वही आपके अभिप्रायानुसार 'विशेष' कहलाने लगेगा। 'च' शब्द दोषों के समुच्चय का द्योतक है (अर्थात् सामान्य को विशेष रूप कहना -यह एक महान दोष है)। (9) (स वा सामान्यम्)। अथवा जिसे आप 'विशेष' मान रहे हैं, वह वस्तुतः 'सामान्य' है - यह सिद्ध होता है) अर्थात् आपका अभिप्राय स्वतः खण्डित हो जाता है, जो एक दोष है। (10) अथवा (उभयमुभयं वा)। इन दोनों में प्रत्येक सामान्यविशेष उभयात्मक हो जाएगा, अर्थात् प्रत्येक ही सामान्यात्मक व विशेषात्मक -दोनों रूपों वाला हो जाएगा। और, 'अवग्रह' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- 'अव' अर्थात् ईषत् सामान्य को 'ग्रह' अर्थात् ग्रहण करने वाला, अतः वस्तुतः (अवग्रह में) जो गृहीत है, वह स्वरूपतः 'सामान्य' ही है, किन्तु आपके मतानुसार तो वह 'विशेष' M 396 -- - विशेषावश्यक भाष्य Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु विशेषः, इत्येकस्याऽपि सामान्यस्योभयरूपता। तथा योऽपि भवदभ्युपगतो विशेषः सोऽपि त्वदभिप्रायेण विशेषः वस्तुस्थित्या तु सामान्यम्, इति विशेषस्याप्येकस्योभयस्वभावता। भवत्वेवमिति चेत् / इत्याह- न च युक्तं सर्वमिदम्। किं कृत्वा?, इत्याह- सामान्यमालम्बनं ग्राह्य मुक्त्वा अर्थावग्रहस्य' इति शेषः। इदमुक्तं भवति-अर्थावग्रहस्याऽव्यक्तं सामान्यमात्रमालम्बनं परिहत्य यदन्यद् विशेषरूपमालम्बनमिष्यते, तदभ्युपगमे च 'सामण्णं च विसेसो वा सामण्णं' इत्यादि यदापतति, तत् सर्वमयुक्तम्, अघटमानकत्वात् / इह च गाथात्रये बहुषु दूषणेषु मध्ये यत् प्रागुक्तमपि किञ्चिद् दूषणमुक्तं, तत् प्रसङ्गायातत्वात्, इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् / / इति गाथार्थः॥२७० // 271 // 272 // प्रस्तुत एवार्थेऽपरमपि मतान्तरमुपन्यस्य निराकुर्वन्नाह (माना जा रहा) है, इस प्रकार एक ही 'सामान्य' की उभयरूपता होने लगेगी, तथा जिसे आपने 'विशेष' जाना है, वह भी आपके अभिप्राय से (भले ही) 'विशेष' हो, वस्तुतः तो 'सामान्य' ही है, अतः एक 'विशेष' का ही उभय स्वभाव हो जाएगा (जो सिद्धान्तविरुद्ध है और असंगत भी)। (प्रश्न-) ऐसा हो जाय तो हो (हानि क्या है)? उत्तर दिया- (न च युक्तं सर्वमिदम्)। यह सब युक्तियुक्त नहीं है। क्या करने से युक्तियुक्त नहीं है? उत्तर दिया- (सामान्यालम्बनं मुक्त्वा)। 'सामान्य आलम्बन अर्थावग्रह का ग्राह्य है -इस (मान्यता) को त्याग देने पर' -यह कथन ('सभी उपर्युक्त दोषपूर्ण परिस्थितियां युक्तियुक्त नहीं है' इस कथन का) शेष भाग है। .. तात्पर्य यह है-अर्थावग्रह के अव्यक्त सामान्य मात्र आलम्बन को छोड़ कर, जो अन्य विशेष रूप आलम्बन आप मान रहे हैं, उसको मानने पर 'सामान्य की विशेषरूपता, या विशेष की सामान्यरूपता' आदि जो (दोषपूर्ण) स्थिति आती है, वह सब अयुक्तियुक्त है, क्योंकि वह घटित होती ही नहीं (और आपके मत को मान लें तो उन असंगत व घटित न होने वाली स्थितियों का होना मानना पड़ेगा, जो दोषपूर्ण होने से युक्तियुक्त व मान्य नहीं)। इन तीन गाथाओं में बहुत से दोषों में, वे सभी दोष जो पहले कहे गये थे, उनमें से भी कुछ निर्दिष्ट किये गये हैं, क्योंकि ऐसा करना प्रसंगोचित था, अतः पुनरुक्ति दोष की आशंका नहीं करना चाहिए। यह तीन गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 270-272 // * अवग्रह में आलोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान का विचार प्रस्तुत व्याख्यान के अन्तर्गत ही एक अन्य मत को उपस्थापित करते हुए उसके निराकरण हेतु भाष्यकार कह रहे हैं विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 397 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केइदिहालोयणपुव्वमोग्गहं बेंति तत्थ सामण्णं। गहियमहत्थावग्गहकाले सद्दे त्ति निच्छिण्णं // 273 // [संस्कृतच्छाया:-केचिद् इह आलोचनपूर्वमवग्रहं ब्रुवन्ति तत्र सामान्यम्। गृहीतमथ अर्थावग्रहकाले शब्द इति निश्छिन्नम्॥] केचिद् वादिन इहाऽस्मिन् प्रक्रमेऽवग्रहं ब्रवतेऽर्थावग्रहं व्याचक्षते / किंविशिष्टम्?, इत्याह- आलोचनपूर्वं सामान्यवस्तुग्राहि ज्ञानमालोचनं तत् पूर्व प्रथमं यत्र स तथा तम्, प्रथममालोचनज्ञानं ततोऽर्थावग्रह इत्यर्थः, तथा च तैरुक्तम् 'अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् // 1 // इति॥ किं पुनस्तत्राऽऽलोचनज्ञाने गृह्यते?, इत्याह-'तत्थेत्यादि / तत्रालोचनज्ञाने सामान्यमव्यक्तं वस्तु गृहीतं 'प्रतिपत्त्रा' इति गम्यते, अथाऽनन्तरमर्थावग्रहकाले तदेव गृहीतम्' इत्यनुवर्तते। कथंभूतं सत्?, इत्याह-निच्छिन्नं पृथक्कृतं रूपादिभ्यो व्यावृत्तमित्यर्थः। केनोल्लेखेन गृहीतम्?, इत्याह- 'सद्दे त्ति' शब्दविशेषविशिष्टमित्यर्थः। ततश्च ‘से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेज' // 273 // केइदिहालोयणपुव्वमोग्गहं बेति तत्थ सामण्णं / गहियमहत्थावग्गहकाले सद्दे त्ति निच्छिण्णं // [(गाथा-अर्थ :) कुछ (वादी) लोग इस सन्दर्भ में आलोचन (सामान्य वस्तु-ग्रहण) के बाद अवग्रह का होना बताते हैं। (उनके मत में) उस (आलोचन) में सामान्य गृहीत हो जाता है और अर्थावग्रह के समय 'शब्द' -यह निश्चय होता है।] व्याख्याः- कुछ वादी इस प्रकरण में अवग्रह का कथन, अर्थात् उसका व्याख्यान (इस प्रकार) करते हैं। उन (के व्याख्यान) का क्या वैशिष्ट्य है? उत्तर दिया- वे अर्थावग्रह को सामान्यवस्तुग्राही आलोचनज्ञान-पूर्वक मानते हैं, अर्थात् पहले आलोचन ज्ञान और उसके बाद अर्थावग्रह होता है- ऐसा मानते हैं। उनका कहना है पहले निर्विकल्पक आलोचन-ज्ञान होता है, जो शुद्ध वस्तु से उत्पन्न तथा बालक व गूंगे के ज्ञान की भांति (अनिर्देश्य) होता है। (प्रश्न-) यह बताएं कि उस आलोचन ज्ञान में क्या गृहीत होता है? उत्तर दिया- (तत्र सामान्यम्)। उस आलोचन ज्ञान में सामान्य, अव्यक्त वस्तु ही ज्ञाता द्वारा गृहीत होती है (-यह उनका मत है,) -ऐसा ज्ञात होता है। फिर बाद में अर्थावग्रह के समय, 'वही गृहीत वस्तु' इसकी अनुवृति की जाती है। वह कैसी है? उत्तर दिया- निश्छन्नम् / वह निश्छन्न अर्थात् रूप आदि से व्यावृत्त, पृथग्भूत होती है। किस उल्लेख (स्वरूप) के साथ गृहीत होती है? उत्तर दिया- (शब्द इति)। अर्थात् 'शब्द' इस विशेषण से युक्त होती है। इस (व्याख्यान) से 'कोई यथानाम कोई पुरुष अव्यक्त शब्द को सुने' -इस (आगमिक कथन) को आलोचन ज्ञान की अपेक्षा से लेना चाहिए, किन्तु 'उसने शब्द का 1 398 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्येतदालोचनज्ञानापेक्षया नीयते, "तेणं सहे त्ति उग्गहिए' एतत्त्वर्थावग्रहापेक्षया, इति सर्वं सुस्थतामनुभवति। न चातः परं भवतोऽप्याचार्य! किञ्चिद् वक्तव्यमस्ति, यदि हि युक्त्यनुभवसिद्धेनाऽर्थेन सूत्रे विषयविभागव्यवस्थापितेऽपि वादी जयं न प्राप्स्यति, तदा तूष्णीमाश्रयन्तु विपश्चितः, विचारचर्यामार्गस्य स्वाग्रहतत्परेण त्वयैव लुप्तत्वात् // इति गाथार्थः // 273 // तदत्र सूरिः परस्येषद्गर्वानुविद्धामज्ञतामवलोकयन् मार्गावतारणाय विकल्पयन्नाह तं वंजणोग्गहाओ, पुव्वं पच्छा स एव वा होज्जा। पुव्वं तदत्थवंजणसंबंधाभावओ नत्थि॥२७४॥ [संस्कृतच्छाया:- तद् व्यञ्जनावग्रहात्तु पूर्वं पश्चात् स एव वा भवेत् / पूर्वं तदर्थव्यञ्जनसम्बन्धाभावतो नास्ति // ] यद्यनुपहतस्मरणवासनासन्तानस्तदर्थावग्रहात् पूर्व व्यञ्जनावग्रहो भवतीति यदुक्तं प्राक्, तद् भवानपि स्मरति। ततः किम्?, इति चेत् / उच्यते- यदेतद् भवदुत्प्रेक्षितं सामान्यग्राहकमालोचनं तत् तस्माद् व्यञ्जनावग्रहात् पूर्व वा भवेत्, पश्चाद् वा भवेत्, स एव वा व्यञ्जनावग्रहोऽप्यालोचनं भवेत्?, इति त्रयी गतिः, अन्यत्र स्थानाभावात्। किञ्चाऽतः?, इत्याह- पूर्वं तद् नास्तीति संबन्धः। अवग्रह किया' -इस (कथन) को अर्थावग्रह की अपेक्षा से लेना चाहिए, इस प्रकार सब (कुछ) समीचीन (सुसंगत) हो जाता है। इसके बाद तो हे आचार्य! आपके लिए कुछ कहना उचित नहीं होता। युक्ति व अनुभव से सिद्ध अर्थ (व्याख्यान) द्वारा सूत्र में विषय-विभाग की व्यवस्था किये जाने पर भी यदि वादी जय नहीं प्राप्त करे तो विद्वानों को चुप ही रहना चाहिए। अपने आग्रह पर अड़े हुए आपने स्वयं ही विचार-प्रक्रिया का रास्ता लुप्त (बन्द, अवरुद्ध) कर दिया है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 273 // .. अब सूरि (भाष्यकार) परपक्ष की अल्प गर्व से पूर्ण अज्ञता को देखते हुए, उसे सही मार्ग पर लाने के उद्देश्य से विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं // 274 // तं वंजणोग्गहाओ, पुव्वं पच्छा स एव वा होज्जा। पुव्वं तदत्यवंजणसंबंधाभावओ नत्थि // - [(गाथा-अर्थ :) वह (आलोचन ज्ञान) या तो व्यञ्जनावग्रह से पूर्व होगा या बाद में होगा। पूर्व में तो वह होगा नहीं, क्योंकि व्यञ्जन-सम्बन्ध का (ही) वहां अभाव है।] व्याख्याः - यदि स्मृति, वासना की परम्परा अनवरत बनी रहे तो अर्थावग्रह से पहले व्यञ्जनावग्रह होता है- यह जो आपने पहले कहा है, वह आपको तो याद ही होगा / (प्रश्न-) हां, याद है, किन्तु उससे क्या? उत्तर दे रहे हैं- यह जो आपने जिस सामान्यग्राहक आलोचन ज्ञान की उद्भावना (प्रस्तुति) की है, वह उस व्यअनावग्रह से पूर्व होगा या बाद में? या वही अर्थात् व्यञ्जनावग्रह ही आलोचन ज्ञान होगा? यही तीन विकल्प आपके सामने हैं, अन्यत्र (कोई दूसरी) आपकी स्थिति नहीं हो सकती। (प्रश्न-) तो इससे क्या हुआ? उत्तर दिया- (यदि प्रथम विकल्प मानते हैं तो --- विशेषावश्यक भाष्य -------- 399 र Mike ---------- विशषावश्यक भाष्य - Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतः? इत्याह- अर्थव्यञ्जनसंबन्धाभावादिति-अर्थः शब्दादिविषयभावेन परिणतद्रव्यसमूहः, व्यञ्जनं तु श्रोत्रादि, अर्थश्च व्यञ्जनं चाऽर्थव्यञ्जने, तयोः संबन्धस्तस्याऽभावात्, सति ह्यर्थ-व्यञ्जनसंबन्ध सामान्यार्थालोचनं स्यात्, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा तद्भावप्रसङ्गात् / व्यञ्जनावग्रहाच्च पूर्वमर्थव्यञ्जनसंबन्धो नास्ति, तद्भावे च व्यञ्जनावग्रहस्यैवेष्टत्वात् तत्पूर्वकालता न स्यादिति भावः॥ इति गाथार्थः // 274 // द्वितीयविकल्पं शोधयन्नाह अत्थोग्गहो वि जं, वंजणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि। पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होज्जा // 275 // [संस्कृतच्छाया:-अर्थावग्रहोऽपि यद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव चरमसमये। पश्चादपि अतो न युक्तम्, परिशेषं व्यञ्जनं भवेत्॥] तथा, अर्थावग्रहोऽपि यद् यस्माद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव चरमसमये भवति, इति प्रागिहापि निर्णीतम्। तस्मात् पश्चादपि दालोचनज्ञानं न युक्तम, निरवकाशत्वात / न हि व्यञ्जनाऽर्थावग्रहयोरन्तरे काल: समस्ति,यत्र तत त्वदीयमालोचनज्ञानं. व्यञ्जनावग्रह से) 'पहले वह नहीं (हो सकता) है' -इस कथन का योग यहां करणीय है। (प्रश्न-) किस प्रकार (पहले वह नहीं है)? उत्तर दिया- (अर्थव्यअनसम्बन्धाभावतः)। क्योंकि वहां अर्थ और व्यञ्जन के सम्बन्ध का अभाव है। अर्थ यानी शब्दादि विषय रूप से परिणत होने वाला द्रव्य-समूह, व्यञ्जन यानी श्रोत्र आदि (इन्द्रियां), अर्थ व व्यञ्जन -इन दोनों का जो सम्बन्ध होता है, उसका वहां सद्भाव नहीं है। अर्थ व व्यञ्जन का सम्बन्ध होने पर ही सामान्य अर्थ का आलोचन ज्ञान हो सकता है, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा उस (आलोचन ज्ञान) का सद्भाव होने लगेगा। व्यञ्जनावग्रह से पूर्व अर्थव्यञ्जन सम्बन्ध नहीं होता। उस (अर्थ व व्यञ्जन-सम्बन्ध) के होने पर व्यञ्जनावग्रह का ही सद्भाव अभीष्ट है। इस प्रकार, व्यञ्जनावग्रह से पहले आलोचन ज्ञान का होना सम्भव नहीं होगा -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 274 // अब, द्वितीय विकल्प का परिमार्जन (दोष-उद्भावन कर, उसे छोड़ने की प्रेरणा) कर रहे हैं // 275 // अत्थोग्गहो वि जं, वंजणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि / पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होज्जा // [(गाथा-अर्थ :) अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में होता है, अतः (व्यञ्जनावग्रह के) बाद भी (आलोचन ज्ञान का) होना युक्तियुक्त नहीं है, अतः अवशिष्ट विकल्प यही है कि व्यञ्जनावग्रह ही (वह आलोचन ज्ञान) है।] व्याख्याः - और, चूंकि अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में ही होता है- यह पहले यहीं निर्णीत हो चुका है। इसलिए व्यञ्जनावग्रह के बाद भी आलोचन ज्ञान का होना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'अर्थावग्रह' निरवकाश हो जाएगा (अर्थावग्रह फिर कभी नहीं हो via 400 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यात्, व्यञ्जनावग्रहचरमसमय एवाऽर्थावग्रहसद्भावात् / तस्मात् पूर्वपश्चात्कालयोनिषिद्धत्वात् पारिशेष्याद् मध्यकालवर्ती तृतीयः विकल्पोपन्यस्तो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह एव भवताऽऽलोचनाज्ञानत्वेनाऽभ्युपगतो भवेत्। एवं च न कश्चिद् दोषः, नाममात्र एव विवादात्॥ इति गाथार्थः // 275 // क्रियतां तर्हि प्रेरकवर्गेण वर्धापनकम्, त्वदभिप्रायविसंवादलाभात्, इति चेत्। नैवम्, विकल्पद्वयस्येह सद्भावात्, तथापि तद्व्यञ्जनावग्रहकालेऽभ्युपगम्यमानमालोचनं किमर्थस्यालोचनं, व्यञ्जनानां वा? इति विकल्पद्वयम् / तत्र प्रथमविकल्पमनूद्य दूषयन्नाह तं च समालोयणमत्थदरिसणं जइ, न वंजणं तो तं। अह वंजणस्स तो कहमालोयणमत्थसुण्णस्स?॥२७६ // [संस्कृतच्छाया:- तच्च समालोचनम् अर्थदर्शनं यदि न व्यञ्जनं ततस्तत् / अथ व्यञ्जनस्य ततः कथमालोचनमर्थशून्यस्य॥] पाएगा)। व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह के बीच में कोई ऐसा काल नहीं है जहां आपके (द्वारा स्वीकृत) आलोचन ज्ञान का सद्भाव हो, क्योंकि व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में ही अर्थावग्रह का सद्भाव (माना गया) है। इसलिए, पूर्व में या बाद में -दोनों कालों में (आलोचन ज्ञान का) निषेध होने पर, मध्यकालवर्ती होने का अवशिष्ट तृतीय विकल्प यही है कि व्यञ्जनावग्रह को ही आप आलोचन ज्ञान के रूप में स्वीकार करें। ऐसा करने पर कोई दोष भी नहीं है, मात्र नाम को लेकर ही विवाद (अन्तर) हो सकता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 275 // . (पूर्वपक्ष का कथन-) तब तो आचार्यवर्ग की ओर से हमें बधाई मिलनी चाहिए कि आपके मत से (हमारा) जो विसंवाद (विरोध) था, वह अब नहीं रहा / (उत्तर-) ऐसा आप न कहें। (आपने जो व्यअनावग्रह को ही आलोचन ज्ञान माना है, उस सम्बन्ध में) आपके सामने दो विकल्प प्रस्तुत हैं। जैसे- उस व्यञ्जनावग्रह-काल में जिस आलोचन ज्ञान को आप स्वीकारते हैं, वह अर्थ का आलोचन है या व्यञ्जनों का? ये दो विकल्प (आपके सामने) हैं। इनमें प्रथम विकल्प को अनूदित (जैसे है, उसी रूप में प्रस्तुत) करते हुए, उसमें दोष उद्भावित कर रहे हैं // 276 // तं च समालोयणमत्थदरिसणं जइ, न वंजणं तो तं। अह वंजणस्स तो कहमालोयणमत्थसुण्णस्स? || ... [(गाथा-अर्थ :) वह आलोचन ज्ञान यदि अर्थ (सामान्य) का दर्शन है, तब इसी कारण से वह व्यञ्जनावग्रह स्वरूप नहीं (कहा जा सकता) है। और यदि वह 'व्यञ्जन' (शब्दादि द्रव्य-सम्बन्ध) का आलोचन है तो (यह मानना भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि) अर्थशून्य का आलोचन किस प्रकार (घटित) हो सकता है?] ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- 401 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् समालोचनं यदि सामान्यरूपस्याऽर्थस्य दर्शनमिष्यते, ततस्तर्हि न व्यञ्जनं, न व्यञ्जनावग्रहात्मकं भवति, व्यञ्जनावग्रहस्य व्यञ्जनसंबन्धमात्ररूपत्वेनाऽर्थशून्यत्वात्। तथा च प्रागपि 'पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अस्थपरिसुण्णो' इत्यादिना साधितमेवेदम्। अतोऽर्थदर्शनरूपमालोचनं कथमर्थशून्यव्यञ्जनावग्रहात्मकं भवितुमर्हति?, विरोधात्। अथ द्वितीयविकल्पमङ्गीकृत्याह- 'अथ व्यञ्जनस्य शब्दादिविषयपरिणतद्रव्यसंबन्धमात्रस्य तत् समालोचनमिष्यते, तर्हि कथमालोचनं- कथमालोचकत्वं तस्य घटते?, इत्यर्थः। कथंभूतस्य सतः?, इत्याह- अर्थशून्यस्य व्यञ्जनसंबन्धमात्रान्वितत्वेन सामान्यार्थालोचकत्वानुपपत्तेरित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥२७६ // ननु शास्त्रान्तरप्रसिद्धस्याऽऽलोचनज्ञानस्य वराकस्य तर्हि का गतिः?, इत्याह आलोयण त्ति नामं, हवेज्ज तं वंजणोग्गहस्सेव। होज्ज कहं सामण्णग्गहणं तत्थत्थसुण्णम्मि?॥२७७॥ व्याख्याः- वह आलोचन ज्ञान सामान्य अर्थ का दर्शन है- ऐसा मानते हैं, तब तो वह व्यञ्जन यानी व्यअनावग्रह रूप नहीं होगा, क्योंकि व्यअनावग्रह तो व्यञ्जन-सम्बन्ध मात्र होता है, और अर्थशून्य (अर्थप्रतीति से रहित) होता है, और पहले भी (गाथा-259 में) 'उस (अर्थावग्रह) के पूर्व व्यञ्जन-काल होता है जो अर्थशून्य होता है' -इत्यादि (कथन) द्वारा इस बात को सिद्ध किया ही जा चुका है। इसलिए अर्थदर्शनरूप आलोचन किस प्रकार अर्थशून्य व्यञ्जनावग्रह स्वरूप हो सकता है? क्योंकि (दोनों में) परस्पर विरोध है। अब, द्वितीय विकल्प को स्वीकार करते हुए कहा- (अथ व्यअनस्य)। शब्दादि विषय रूप से परिणत द्रव्य-सम्बन्ध मात्र जो 'व्यञ्जन' होता है, उसका वह समालोचन है- ऐसा मानते हैं तो वह आलोचन कैसे? अर्थात् उसमें आलोचकता कैसे घटित होती है? (प्रश्न-) किस प्रकार के होने पर? उत्तर दिया- (अर्थशून्यस्य)। व्यञ्जन-सम्बन्ध मात्र से युक्त होने से वह अर्थशून्य है, इसलिए उसका सामान्य अर्थ का आलोचन करने वाला होना संगत नहीं हो सकता -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 276 // (अर्थावग्रह ही आलोचन ज्ञान) तब अन्य शास्त्र में प्रसिद्ध विचारे आलोचन ज्ञान की क्या स्थिति रही? इस (जिज्ञासा के समाधान के लिए (भाष्यकार) कह रहे हैं // 277 // आलोयण त्ति नामं, हवेज्ज तं वंजणोग्गहस्सेव / होज्ज कहं सामण्णग्गहणं तत्थत्थसुण्णम्मि?॥ Na 402 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- ------ - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- आलोचनेति नाम भवेत् तद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव। भवेत् कथं सामान्यग्रहणं तत्रार्थशन्ये॥] तस्मादोलाचनमिति यन्नाम तदन्यत्र निर्गतिकं सत् पारिशेष्याद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव द्वितीयं नाम भवेत्। न च विवक्षामात्रप्रवृत्तेषु वस्तूनां बहुष्वपि नामसु क्रियमाणेषु कोऽपि विवादमाविष्करोति? / अत एतदपि नामान्तरमस्तु, को दोषः? इति / नैतदेवम्, यस्मादिदं सामान्यग्राहकमालोचनज्ञानं भविष्यति, अर्थावग्रहस्तु विशेषग्राहक इति। एवमप्यस्माकं समीहितसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्। इत्याह'होजेत्यादि'। व्यञ्जनावग्रहस्यैव पारिशेष्यादालोचनज्ञानत्वमापन्नम्, तत्र प्रागुक्तयुक्तिभिरर्थशून्ये कथं सामान्यग्रहणं भवेत्, येन भवतः समीहितसिद्धिप्रमोदः? / इति / तस्मादविग्रह एव सामान्यार्थग्राहकः, न पुनरेतस्मादपरमालोचनाज्ञानम् / अत एव यदुक्तम्'अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्' इत्यादि, तदप्यर्थावग्रहाश्रयमेव यदि, घटते, नान्यविषयम् // इति गाथार्थः // 277 // अथ 'दुर्बलं वादिनं दृष्ट्वाऽभ्युपगमोऽपि कर्तव्यः' इतिन्यायप्रदर्शनार्थमाह गहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि। . अत्वावग्गहकाले विसेसणं एस सद्दो त्ति?॥२७८ // [(गाथा-अर्थ :) आलोचन यह नाम हो तो वह व्यञ्जनावग्रह का ही (संगत) होगा। किन्तु तब अर्थशून्य में सामान्य का ग्रहण कैसे (घटित) होगा?] व्याख्याः- इसलिए 'आलोचन' यह जो नाम है, वह अन्यत्र उपयुक्त नहीं होता हुआ अवशिष्ट व्यञ्जनावग्रह का ही दूसरा नाम होगा। विवक्षा मात्र से वस्तुओं के अनेक नाम रख दिये जाते हैं, इसलिए कोई वहां विवाद नहीं करता। इसलिए (व्यअनावग्रह का) यह भी एक अन्य नाम हो तो क्या दोष है? (उत्तर-) ऐसा नहीं है (दोष वहां है ही,) क्योंकि तब आलोचन ज्ञान तो सामान्य-ग्राहक होगा, और अर्थावग्रह विशेष-ग्राहक हो जाएगा (और ऐसा होना दोषपूर्ण, असंगत है)। (पूर्वपक्ष-) इस रीति से भी हमारा अभीष्ट सिद्ध हो जाएगा, (आपत्ति क्या है?) उत्तर है- (भवेत् कथम्)। अन्य विकल्पों के निराकरण किये जाने से अब अवशिष्ट व्यअनावग्रह को ही आलोचन ज्ञान मानना पड़ेगा, उस स्थिति में पूर्वोक्त युक्तियों द्वारा अर्थशून्य में सामान्य ग्रहण कैसे होगा, जो आप अपने अभीष्ट सिद्धि होने की खुशी मना रहे हैं? इसलिए अर्थावग्रह ही सामान्य अर्थ का ग्राहक है, इसके बाद कोई दूसरा आलोचन ज्ञान नहीं होता। इसलिए जो कहा गया है कि- 'पहले निर्विकल्पक आलोचन ज्ञान होता है' -यह तभी घटित होता है जब उसे अर्थावग्रह में होना मानें, किसी अन्य में नहीं॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 277 // * (अवग्रह, ईहा, अपाय में प्रत्येक परस्पर भिन्न) .. अब, वादी को दुर्बल (उत्तर देने में अक्षम) देख कर, 'अभ्युगम न्याय' (वादी की बात को / थोड़ी देर के लिए मान लेने पर भी अन्यान्य दोष उद्भावित करने के मार्ग) को प्रदर्शित कर रहे हैं // 278 // गहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि / अत्थावग्गह काले विसे सणं एस सद्दो त्ति? || ------- विशेषावश्यक भाष्य - - Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- गृहीतं वा भवतु तस्मिन् सामान्यं कथमनीहिते तस्मिन् / अर्थावग्रहकाले विशेषणमेष शब्दः इति // ] अथवा भवतु तस्मिन् व्यञ्जनावग्रहे सामान्यं गृहीतम्, तथापि कथमनीहितेऽविमर्शिते तस्मिन्नकस्मादेवाऽर्थावग्रहकाले 'शब्द एषः' इति विशेषणं विशेषज्ञानं युक्तम्। 'शब्द एवैषः' इत्ययं हि निश्चयः न चायमीहामन्तरेण युज्यते, इत्यसकृदेवोक्तप्रायम्। अतो नार्थावग्रहे 'शब्द' इत्यादिविशेषबुद्धियुज्यते // इति गाथार्थः // 278 // अथाऽर्थावग्रहसमये शब्दाद्यवगमेन सहैवेहा भविष्यतीति मन्यसे, तत्राऽऽह अत्थावग्गहसमए, वीसुमसंखेन्जसमइया दो वि। तक्कावगमसहावा, ईहाऽवाया कहं जुत्ता? // 279 // [संस्कृतच्छाया:- अर्थावग्रहसमये विष्वक् असंख्येयसामयिकौ द्वावपि। तर्कावगमस्वभावौ ईहा-अपायौ कथं युक्तौ // ] अर्थावग्रहसंबन्धिन्येकस्मिन् समये कथमीहाऽपायौ युक्तौ?, इति संबन्धः। कथंभूतावेतौ? यतः, इत्याह-तर्काऽवगमस्वभावौ, तर्को विमर्शस्तत्स्वभावेहा, अवगमो निश्चयस्तत्स्वभावोऽपायः, द्वावपि चैतौ पृथगसंख्येयसमयनिष्पन्नौ। [(गाथा-अर्थ :) यह मान भी लें कि उस (व्यञ्जनावग्रह) में 'सामान्य' गृहीत होता है, किन्तु बिना ईहा के ही, (अकस्मात्) अर्थावग्रह-काल में 'यह शब्द है' -यह विशेष ज्ञान (निश्चय) कैसे हो सकता है?] व्याख्याः- अथवा, चलो यह मान भी लें कि उस व्यञ्जनावग्रह में सामान्य (अर्थसामान्य) का ग्रहण होता है, फिर भी (इसका उत्तर आपके पास क्या है कि) 'ईहा' या विमर्श के बिना ही, उस अर्थावग्रह-काल में अकस्मात् ही 'यह शब्द है' यह विशेषण-विशेष ज्ञान होना किस प्रकार युक्तियुक्त है? 'यह शब्द ही है' यह तो निश्चय ज्ञान है, किन्तु यह (निश्चय) ईहा (विमर्श) के बिना झट से हो जाय -यह युक्तियुक्त नहीं -यह हम अनेकों बार प्रायः कह चुके हैं। अतः अर्थावग्रह में 'शब्द' है इत्यादि विशेष बुद्धि का होना युक्तियुक्त (संगत) नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 278 // अब, 'अर्थावग्रह के समय में शब्दादि के अवगम के साथ ही ईहा हो जाएगी' -यदि ऐसा मानते हैं, तो इस सन्दर्भ में भी (भाष्यकार उसमें दोष-प्रदर्शन हेतु) कह रहे हैं // 279 // अत्थावग्गहसमए, वीसुमसंखेज्जसमइया दो वि / तक्कावगमसहावा, ईहाऽवाया कहं जुत्ता? | [(गाथा-अर्थ :) जो (क्रमशः) पृथक्-पृथक् असंख्येय समय वाले हैं, (क्रमशः) तर्क व अवगम (निश्चय) स्वभाव वाले हैं, उन ईहा व अपाय का (एक समय वाले) अर्थावग्रह के समय में होना कैसे युक्तियुक्त होगा?] व्याख्या:- "अर्थावग्रह से जुड़े एक समय में ईहा व अपाय -ये दोनों किस प्रकार युक्तियुक्त (उपयुक्त) हैं?" -इस प्रकार पदों का सम्बन्ध है (इसी के आधार पर पूरे वाक्य का अर्थ समझना Na 404 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----- Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदुक्तं भवति-यदिदमर्थावग्रहे विशेषज्ञानं त्वयेष्यते सोऽपायः, सा चाऽवगमस्वभावो निश्चयस्वरूप इत्यर्थः। या च तत्समकालमीहाऽभ्युपेयते सा, तर्कस्वभावा, अनिश्चयात्मिकेत्यर्थः। तत एतावीहाऽपायावनिश्चयेतरस्वभावौ कथमर्थावग्रहे युगपदेव युक्तौ, निश्चयाऽनिश्चययोः परस्परपरिहारेण व्यवस्थितत्वात्, एकत्रैकदाऽवस्थानाभावेन सहोदयाऽनुपपत्तेः? इति। एषा तावद् विशेषावगमेहयोः सहभावे एकाऽनुपपत्तिः। अपरं च समयमात्रकालोऽर्थावग्रहः, ईहाऽपायौ तु 'ईहावाया मुहुत्तमंतं तु' इति वचनात् प्रत्येकमसंख्येयसमयनिष्पन्नौ कथमेकस्मिन्नर्थावग्रहसमये स्याताम्, अत्यन्तानुपपन्नत्वात्।। इति द्वितीयाऽनुपपत्तिः। * तस्मादत्यन्तासंबद्धत्वाद् यत् किञ्चिदेतत्, इत्युपेक्षणीयम्॥ इति गाथार्थः॥२७९ // तदेवं युक्तिशतैर्निराकृतानामपि प्रेरकाणां नि:संख्यात्वात् केषांचित् प्रेर्यशेषमद्यापि सूरिराशङ्कते चाहिए)। (प्रश्न-) ये दोनों कैसे हैं? (उत्तर-) बता रहे हैं- (तर्कावगमस्वभावौ)। तर्क व अवगम स्वभाव वाले हैं। तर्क यानी विमर्श, उस स्वभाव वाली 'ईहा' है, अवगम यानी निश्चय, उस स्वभाव वाला 'अपाय' है। ये दोनों ही पृथक्-पृथक् असंख्येय समयों में निष्पन्न होते हैं। ___तात्पर्य यह है कि आपने अर्थावग्रह में जो विशेष ज्ञान माना है, वह 'अपाय' (ही तो) है, वह अवगम-स्वभावी है अर्थात् निश्चयात्मक है। उसी के समकालीन जो 'ईहा' आप मानते हैं, वह तो तर्कस्वभावी है, अर्थात् अनिश्चयात्मिका है। चूंकि निश्चय व अनिश्चय -ये दोनों परस्पर-विरुद्ध होने से, परस्पर एक दूसरे के बिना ही व्यवस्थित होते हैं, एक स्थान में एक समय में उनका रहना नहीं होता, इसलिए एक साथ उदित (प्रकट) होना असंगत ही है। इस स्थिति में अनिश्चय व निश्चय स्वभाव वाले इन दोनों का एक साथ ही अर्थावग्रह में होना किस प्रकार युक्तियुक्त (संगत) हो सकता है? विशेष ज्ञान व ईहा की सहवर्तिता में यह तो एक असंगति हई। दूसरी (असंगति यह है कि अर्थावग्रह तो मात्र एक समय का होता है। किन्तु 'ईहा व अपाय -ये दोनों मुहूर्तकालवर्ती हैं' इस आगमिक वचन से, ईहा व अपाय -ये दोनों तो प्रत्येक असंख्येय समय में निष्पन्न होने वाले होते हैं, ये कैसे एक अर्थावग्रह के समय में हो सकते हैं? क्योंकि ऐसा होना अत्यन्त असंगत है- यह दूसरी असंगति हुई। इसलिए पूर्वोक्त कथन अत्यन्त असम्बद्ध होने के कारण ‘तुच्छ' है, अतः वह उपेक्षणीय है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 279 // (अवग्रह में बहु, बहुविध आदि प्रकार कैसे?) - इस प्रकार सैकड़ों युक्तियों से पराजित किये जाने पर भी, प्रेरकों (पूर्वपक्षी की भूमिका निभाने वाले वादियों) की 'निःसंख्य स्थिति' होती है (अर्थात् उनकी कोई नियत संख्या नहीं होती, अनगिनत भी होते हैं), इसलिए अब भी किन्हीं (बचे-खुचे) वादियों की ओर से कुछ प्रश्न या आक्षेप के होने की आशंका को सूरि (भाष्यकार) व्यक्त कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------405 EE Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिप्पेयराइभेओ, जमोग्गहो तो विसेसविण्णाणं। जुज्जइ विगप्पवसओ सद्दो त्ति सुयम्मि जं केई॥२८०॥ [संस्कृतच्छाया:-क्षिप्रेतरादिभेदः यदवग्रहः, ततो विशेषविज्ञानम्। युज्यते विकल्पवशत: शब्द इति सूत्रे यत् केचित् // ] 'केइ त्ति'। इहाऽर्थावग्रहे विशेषज्ञानसमर्थनाऽऽग्रहममुमुक्षवोऽद्यापि केचिद् मन्यन्ते। किम्?, इत्याह- क्षिप्रेतरादिभेदो यस्मादवग्रहो ग्रन्थान्तरे भणितः अत्रापि च विस्तरेण भविष्यते' इति गम्यते। ततः शब्दः' इति विशेषविज्ञानं युज्यते घटते 'अर्थावग्रहे' इति प्रस्तावादेव लभ्यते / यत् किम्? इत्याह- 'सुयम्मि जं ति'। 'तेण सद्दे त्ति उग्गहिए' इत्यादि- वचनात् यत् सूत्रे निर्दिष्टम् इति शेषः। कुतः पुनरिदं विशेषविज्ञानं युज्यते?, इत्याह-विकल्पवशतोऽन्यत्रोक्तनानात्ववशतः, इत्यक्षरघटना॥ एतच्चाऽत्र हृदयम्-'क्षिप्रमवगृह्णाति, चिरेणाऽवगृह्णाति, बह्ववगृह्णाति, अबह्ववगृह्णाति, बहुविधमवगृह्णाति, अबहुविधमवगृह्णाति, एवमनिश्रितम्, निश्रितं, असंदिग्धं, संदिग्धम्, ध्रुवम्, अध्रुवमवगृह्णाति' इत्यादिना ग्रन्थेनाऽवग्रहादयः शास्त्रान्तरे // 280 // खिप्पेयराइभेओ, जमोग्गहो तो विसेसविण्णाणं। जुज्जइ विगप्पवसओ सद्दो त्ति सुयम्मि जं केई॥ [(गाथा-अर्थ :) कुछ (वादी) कहते हैं कि चूंकि अवग्रह क्षिप्र, चिर आदि (अनेक) भेदों वाला (कहा गया) है, इसलिए (इन नाना) विकल्पों की अधीनता-वश 'शब्द अवगृहीत होता है' -इस प्रकार सूत्र में जो (निर्दिष्ट) है, वह विशेष विज्ञान (के रूप में भी) संगत होता है।] __ व्याख्याः - (केचित् इति)। इस अर्थावग्रह में कुछ वादी अवग्रह में विशेष ज्ञान के सद्भाव के समर्थन सम्बन्धी अपने आग्रह को छोड़ना नहीं चाहते, वे अब भी मानते हैं। (प्रश्न-) क्या (मानते हैं)? उत्तर कहा- (क्षिप्रेतरादिभेदः यत् अवग्रहः)। चूंकि ग्रन्थान्तर में अवग्रह को क्षिप्र, चिर आदि अनेक भेदों वाला बताया गया है, 'इस ग्रन्थ में भी विस्तार से कहा जाएगा' यह भी इसी कथन से ज्ञात होता है। इसलिए 'शब्द' -ऐसा जो विशेष विज्ञान है, वह संगत या घटित होता है, 'अर्थावग्रह में' -यह (उक्त कथन का शेष भाग है, ऐसा) प्रकरणानुसार प्राप्त होता है। (प्रश्न-) जो विशेष विज्ञान है, वह क्या है? उत्तर है- (सूत्रे यत् इति)। "उसने 'शब्द' इस तरह गृहीत किया" -इत्यादि (आगमिक) वचनों से, सूत्र (आगम) में जो निर्दिष्ट हुआ है- यह उक्त कथन का शेष भाग है। (प्रश्न) यह विशेष विज्ञान किस प्रकार घटित होता है? उत्तर दिया- (विकल्पवशतः)। विकल्पों के कारण, अर्थात् अवग्रह के जो नाना भेद बताए गये हैं, उनके कारण / इस प्रकार भाष्योक्त गाथा की अक्षरशः संयोजना को समझें। यहां (भाष्य-गाथा का) तात्पर्य इस प्रकार है- "शीघ्र अवग्रहण करता है, देर से अवग्रहण करता है, बहुत अवग्रहण करता है, थोड़ा अवग्रहण करता है, बहुत प्रकार का अवग्रहण करता है, अल्प प्रकार का अवग्रहण करता है, इसी प्रकार अनिश्रित, निश्रित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव व अध्रुव Via 406 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशभिर्विशेषणैर्विशेषिताः। अत्राऽपि च पुरस्तादयमर्थो वक्ष्यते। ततः 'क्षिप्रं चिरेण वाऽवगृह्णाति' इतिविशेषणान्यथानुपपत्तेर्जायतेनैकसमयमात्रमान एवाऽर्थावग्रहः, किन्तु चिरकालिकोऽपि, न हि समयमात्रमानतयैकरूपे तस्मिन् क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणमुपपद्यत इति भावः। तस्मादेतद्विशेषणबलादसंख्येयसमयमानोऽप्यर्थावग्रहो युज्यते। तथा, बहूनां श्रोतृणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थे शङ्खभेर्यादिबहुतूर्यनिर्घोषे क्षयोपशमवैचित्र्यात् कोऽप्यबहु अवगृह्णाति, सामान्यं समुदिततूर्यशब्दमात्रवमवगृह्णातीत्यर्थः। अन्यस्तु बह्रवगृह्णाति, शङ्ख-भेर्यादितूर्यशब्दान् भिन्नान् बहून् गृह्णातीत्यर्थः। अन्यस्तु स्त्री-पुरुषादिवाद्यत्व-स्निग्धमधुरत्वादिबहुविधविशेषविशिष्टत्वेन बहुविधमवगृह्णाति, अपरस्तबहुविधविशेषविशिष्टत्वादबहुविधमवगृह्णाति। अत एतस्माद् बहुविधाद्यनेकविकल्पनानात्ववशादवग्रहस्य क्वचित् सामान्यग्रहणम्, क्वचित् तु विशेषग्रहणम्, इत्युभयमप्यविरुद्धम् / अतो यत् सूत्रे 'तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए' इति वचनात 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानमुपदिष्टम, तदप्यर्थावग्रहे युज्यते एव, इति केचित् // इति गाथार्थः॥२८॥ का अवग्रहण करता है" -इत्यादि ग्रन्थ (कथन) द्वारा अन्य शास्त्र में अवग्रह आदि को 12 विशेषणों से विशेषित किया गया है। इस ग्रन्थ में (भी) आगे इस पदार्थ का निरूपण किया जाएगा। इसलिए 'शीघ्र या देरी से अवग्रहण करता है' इस विशेषण की संगति अन्यथा नहीं हो सकती, इसलिए ज्ञात होता है कि अर्थावग्रह मात्र एक समय का नहीं होता, किन्तु चिर काल का भी होता है। तात्पर्य यह है कि एक समय काल प्रमाण वाले एकरूपता वाले उस (अर्थावग्रह) में शीघ्र, विलम्ब आदि विशेषणों से सम्पन्न होना संगत नहीं होता। इसलिए इन विशेषणों के कारण यही मानना उपयुक्त है कि अर्थावग्रह असंख्येय समय प्रमाण भी होता है। और, भेरी आदि बहुत से वाद्यों की आवाज, जो बहुत से श्रोताओं को विशेषता-रहित रूप में प्राप्ति-विषय हो रही होती है, उसमें भी कोई व्यक्ति क्षयोपशमविचित्रता के कारण 'अबहु' ग्रहण करता है, अर्थात् समुदित रूप से सामान्य वाद्य शब्द का अवग्रह करता है (उस अवग्रह में उसे अनेक वाद्यों की भिन्नता का ज्ञान नहीं होता, अपितु उसे वाद्य-भेद रहित सामान्य वाद्य शब्द मात्र सुनाई देता है)। किन्तु (वहीं) दूसरा व्यक्ति 'बहु' अवग्रहण करता है, अर्थात् शङ्ख, भेरी आदि बहुत से वाद्य-शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करता है। किन्तु (इन दोनों से) अन्य व्यक्ति स्त्री द्वारा बजाया गया, पुरुष द्वारा बजाया गया, इसी तरह स्निग्धता, मधुरता आदि आदि बहत प्रकार के विशेषों (भेदों) के साथ बहुविध (वाद्य शब्द) का अवग्रहण करता है (अर्थात वह इन भिन्नताओं को भी जानता है कि यह वाद्य स्त्री द्वारा बजाया जा रहा है या पुरुष द्वारा, आवाज स्निग्ध है या रूखी है, मधुर है या कर्कश है)। किन्तु (इन तीनों से) अन्य व्यक्ति बहुत से भेदों की विशेषता से रहित 'अबहुविध' का अवग्रहण करता है। इसलिए इन (उपर्युक्त) बहु, बहुविध आदि अनेक विकल्पों की विविधता के अनुरूप ही अवग्रह का कहीं सामान्य ग्रहण, और कहीं विशेष ग्रहण होता है, ये दोनों ही निर्विरोध रूप से होते हैं। अतः सूत्र में "उसने 'शब्द' ऐसा अवग्रहण किया" -इस वचन द्वारा 'शब्द' इस रूप में होने वाले विशेष विज्ञान का जो निर्देश किया गया है, वह भी अर्थावग्रह में संगत होता है -ऐसा किन्हीं वादियों का मानना है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||280 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------407 2 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोत्तरमाह स किमोग्गहो त्ति भण्णइ, गहणेहावायलक्खणत्ते वि?। अह उवयारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सो वि॥२८१॥ [संस्कृतच्छायाः-स किमवग्रहः इति भण्यते ग्रहण-ईहा-अपायलक्षणत्वेऽपि? अथ उपचारः क्रियते ततः शृणु यथा युज्यते सोऽपि॥] इह पूर्वमनेकधा प्रतिविहितमप्यर्थं पुनः पुनः प्रेरयन्तं प्रेरकमवलोक्याऽन्तर्विस्फुरदसूयावशात् सापेक्ष काक्वा सूरिः पृच्छति'किमोग्गहो त्ति भण्णइत्ति' / किंशब्दः क्षेपे, यो बहु-बहुविधादिविशेषवशाद् विशेषावगमः स किमबुधचक्रवर्तिन् ! अवग्रहोऽर्थावग्रहो भण्यते?। क्व सत्यपि?, इत्याह- 'गहणेहित्यादि / ग्रहणं च सामान्यार्थस्य, ईहाऽवगृहीतस्य, अपायश्चेहितार्थस्य ग्रहणेहाऽपायास्तैर्लक्ष्यते प्रकटीक्रियते यः स तथा तद्भावस्तत्त्वं तस्मिन् सत्यपि, बहु-बहुविधादिग्राहको हि विशेषावगमो निश्चयः, सच सामान्याऽर्थग्रहणम्, ईहां च विना न भवति, यश्च तदविनाभावी सोऽपाय एव, कथमर्थावग्रह इति भण्यते? इति / एतत्पूर्वमसकृदेवोक्तमपि हन्त! विस्मरणशीलतया जडतया, बद्धाभिनिवेशतया वा पुनः पुनरस्मान् भाणयसीति किं कुर्मः?, पुनरुक्तमपि ब्रूमः, यद् यस्मादायासेनाऽपि कश्चिद् मार्गमासादयतीति। (अपेक्षा से अपाय-व्यावहारिक अवग्रह) अब, (पूर्वोक्त मत का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 281 // स किमोग्गहो त्ति भण्णइ, गहणेहावायलक्खणत्ते वि?। अह उवयारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सो वि॥ . [(गाथा-अर्थ :) (सामान्य अर्थ का) ग्रहण, ईहा व अपाय (-इन सब का) लक्षण प्राप्त होने पर भी, उसे आप 'अवग्रह' क्यों कहते हैं? यदि आप अवग्रह में (विशेष ज्ञान का) उपचार करते हैं तो (हमारा कहना है कि) वह उपचार भी जिस रीति से उपयुक्त हो, उसी तरह (करणीय) होता है।] व्याख्याः - इसी प्रकरण में अनेक बार निराकरण किये गये प्रश्न को भी बार-बार पूछते हुए प्रश्नकर्ता (वादी) को देख कर आविर्भूत आन्तरिक असूया (गुण में दोष-दृष्टि) के कारण, आक्षेपसहित 'काकु' (व्यंग्य) के द्वारा सूरि (भाष्यकार) पूछ रहे हैं- (किम् अवग्रहः इति भण्यते)। 'किम्' शब्द यहां 'क्षेप' यानी अनादर का सूचक है। (व्यंग्य व अनादर से पूर्ण अर्थ इस प्रकार है-) हे अज्ञानी जनों के चक्रवर्ती (सम्राट)! जिस अवग्रह-अर्थावग्रह को बहु, बहुविध आदि विशेषणों के कारण विशेष ज्ञान के रूप में आप बता रहे हैं!! (आपके इस अज्ञान पर हमें शर्म आती है)। (प्रश्न-) क्या होने पर भी? उत्तर दिया- (ग्रहण-ईहा इत्यादि)। ग्रहण, ईहा व अपाय के होने पर भी। ग्रहण यानी सामान्य अर्थ का ग्रहण, अवगृहीत की ईहा, ईहा-युक्त का अपाय (निश्चय) -इन तीनों लक्षणों के द्वारा अर्थावग्रह, ईहा व अपाय का होना व्यक्त हो रहा है, तब भी (उसे मात्र अवग्रह कह रहे हैं?) यह हम पहले कई बार कह चुके हैं, किन्तु खेद है कि भूल जाना तो (मानों) आपका स्वभाव हो गया है, इस Maa 408 ----- --- विशेषावश्यक भाष्य - Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु ग्रहणम्, ईहा च विशेषावगमस्य लक्षणं भवतु, ताभ्यां विना तदभावात्, अपायस्तु कथं तल्लक्षणम्, तत्स्वरूपत्वादेवास्य?। सत्यम्, किन्तु स्वरूपमपि भेदविवक्षया लक्षणं भवत्येव, यदाह विषाऽमृते स्वरूपेण लक्ष्येते कलशादिवत्। एवं च स्वस्वभावाभ्यां व्यज्येते खल-सज्जनौ॥१॥ आह- यदि बहु-बहुविधादिग्राहकोऽपाय एव भवति, तर्हि कथमन्यत्राऽवग्रहादीनामपि बह्वादिग्रहणमुक्तम्?। सत्यम् किन्त्वपायस्य कारणमवग्रहादयः, कारणे च योग्यतया कार्यस्वरूपमस्ति, इत्युपचारतस्तेऽपि बह्रादिग्राहकाः प्रोच्यन्ते, इत्यदोषः। यद्येवम्, तर्हि वयमप्यपायगतं विशेषज्ञानमर्थावग्रहेऽप्युपचरिष्याम इति। एतदेवाह- 'अहेत्यादि'। अथोक्तन्यायेनोपचारं कृत्वा विशेषग्राहकोऽर्थावग्रहः प्रोच्यते / नैतदेवम्, यतो मुख्याभावे सति प्रयोजने चोपचारः प्रवर्तते। न चैवमुपचारे किञ्चित् प्रयोजनमस्ति। कारण से या अपनी जड़ता या दुराग्रह के कारण बार-बार हमें कहने को प्रेरित (बाध्य) करते हैं तो हम क्या करें? पुनरुक्ति भी हमें करनी पड़ रही है ताकि प्रयास करके भी किसी को (समीचीन) मार्ग पर लाया जा सके। (पूर्वपक्षी वादी के ओर से कथन-)ग्रहण व ईहा -ये विशेष ज्ञान के लक्षण हों (तो कोई बात नहीं), क्योंकि उन दोनों (ग्रहण व ईहा) के बिना विशेष ज्ञान नहीं होता, किन्तु 'अपाय' को उस (विशेष ज्ञान) का लक्षण कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि वह (विशेष ज्ञान) तो उस अपाय का स्वरूप ही है (अतः लक्षण कैसे?)। (उत्तर-) आपकी बात सही है, किन्तु स्वरूप भी तो भेदविवक्षा (भेद दृष्टि से) लक्षण होता ही है। कहा भी है “कलश आदि की तरह ही जिस प्रकार विष या अमृत अपने-अपने स्वरूप के कारण लक्षित हो जाते (पहचाने जाते) हैं, उसी तरह खल (दुष्ट) या सज्जन (भी) अपने-अपने स्वभाव के कारण पहचाने जाते हैं।" .. __(पूर्वपक्षी वादी का) पुनः कथन- यदि बहु, बहुविध आदि (अर्थ) का ग्राहक 'अपाय' ही होता है.तो फिर अन्य ग्रन्थों में अवग्रहादि द्वारा बहु आदि का ग्रहण होना कैसे कहा गया है? (उत्तर-) आपका कहनां सही है, किन्तु अपाय के कारण अवग्रह आदि होते हैं, और कारण में योग्यता की दृष्टि से कार्य स्वरूपतः रहता है, इस दृष्टि से, औपचारिक रूप से उन कारणों को भी बहु आदि का ग्राहक कह दिया गया है, अतः (शास्त्रान्तर में प्राप्त अवग्रह के उक्त भेदों के कथन में) कोई दोष नहीं है। (पुनः पूर्वपक्षी वादी का कथन-) यदि ऐसी (उपचार कथन वाली) बात है तो हम भी अर्थावग्रह में अपायगत विशेष ज्ञान का होना उपचार से मान लेंगे। इसी (पूर्वपक्षी की) बात को कह रहे हैं- (अथ उपचारः क्रियते)। उक्त (उपचार-कथन सम्बन्धी) न्याय (सिद्धान्त) से (ही) हम उपचार से अर्थावग्रह को विशेष-ग्राहक कह रहे हैं (तो क्या दोष है?) (उत्तर-) वह इस दृष्टि से (मान्य) नहीं है, क्योंकि उपचार की प्रवृत्ति तभी की जाती है जब मुख्य अर्थ घटित नहीं होता हो, और किसी विशेष प्रयोजन को अभिव्यक्त करना हो। किन्तु इस प्रकार के उपचार में (अर्थात् अर्थावग्रह को विशेष-ग्राहक कहने में) कोई प्रयोजन (सिद्ध) नहीं (होता) है। -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - --- 409 - Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेणं सद्देत्ति उग्गहिए' इत्यादिसूत्रस्य यथाश्रुतार्थनिगमनं प्रयोजनमिति चेत् ।न, सद्दे त्ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेणाऽपि तस्य निगमितत्वात्। सामर्थ्यव्याख्यानमिदम्, न यथाश्रुतार्थव्याख्येति चेत् / तर्हि यधुपचारेणाऽपि श्रौतोऽर्थः सूत्रस्य व्याख्यायते इति तवाभिप्रायः, तर्हि यथा युज्यत उपचारः, तथा कुरु, न चैवं क्रियमाणोऽसौ युज्यते, यतः ‘सिंहो माणवकः"समुद्रस्तडागः' इत्यादाविव किञ्चित्साम्ये सत्ययं विधीयमानः शोभते। न चैतत्सामयिकेऽर्थावग्रहेऽसंख्येयसामयिकं विशेषग्रहणं कथमप्युपपद्यते। तर्हि कथमयमुपचारः क्रियमाणो घटते?, इति चेत् / अहो! सुचिरादुपसन्नोऽस्ति। ततः श्रृणु समाकर्णयाऽवहितेन मनसा, सोऽपि यथा युज्ज्यते तथा कथयामि'सद्दे ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद् व्याख्यातं सूत्रम्। यदि चौपचारिकेणाऽप्यर्थेन भवतः प्रयोजनम्, तर्हि सोऽपि यथा . घटमानकस्तथा कथ्यत इति 'अपि'-शब्दाभिप्रायः॥ इति गाथार्थः // 281 / / यथाप्रतिज्ञातमेव संपादयन्नाह (पुनः पूर्वपक्षी का कथन) “उसने 'शब्द' इस रूप में अवगृहीत किया” -इत्यादि सूत्र की आगमानुरूप संगति बैठाना -यह प्रयोजन तो है। (उत्तर-) ऐसा नहीं, क्योंकि (गाथा-253 में) “वक्ता . (के रूप में) 'शब्द' यह कहा है" -इत्यादि रीति से भी उस (सूत्र) की संगति बैठाई जा चुकी है (अतः वह प्रयोजन तो बिना उपचार के भी सिद्ध हो जाता है, ऐसी स्थिति में उपचार की कोई जरूरत नहीं रह जाती)। (पूर्वपक्षी का कथन-) आपके द्वारा (गाथा-253 में) की गई व्याख्या 'सामर्थ्य व्याख्यान' (बुद्धि-सामर्थ्य से किया गया) है, अर्थ की आगमानुरूप व्याख्या नहीं है। (उत्तर-) फिर तो, (हमारा यह कहना है कि) उपचार से भी सूत्र का श्रौत (आगमिक) अर्थ व्याख्यायित किया जाता है, यदि ऐसा आपका अभिप्राय है, तब आप (उपचार कर सकते हैं, किन्तु) जिस रीति से उपचार उपयुक्त हो, वैसा (उपचार) करें। किन्तु (यहां) उपचार किया जाना उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि 'बालक सिंह है', 'तालाब समुद्र है' इत्यादि कथनों की तरह कुछ साम्य होने पर (ही) उपचार किया जाना शोभित होता है- ठीक रहता है। किन्तु एक समय वाले 'अर्थावग्रह' में असंख्येय समय वाला विशेष-ग्रहण (विशेष ज्ञान) मानना तो किसी भी रूप में संगत नहीं है। (पूर्वपक्षी का कथन-) तब (आप ही बताइये कि) वह उपचार किस प्रकार किया जाय कि संगतिपूर्ण हो? (उत्तर-) अहो! बड़ी देर के बाद रास्ते पर आए हैं। (आप पूछ ही रहे हैं तो) सावधान मन से सुनें / वह जिस प्रकार संगत होता है, उसे बता रहे हैं- “वक्ता (के रूप में) 'शब्द' यह कह रहे हैं" -इत्यादि प्रकार से (गाथा-253 में) तो सूत्र की व्याख्या कर दी गई है। यदि (फिर भी) औपचारिक रूप अर्थ करना ही आपका प्रयोजन है तो वह भी जिस प्रकार संगत हो सकता है, वैसा बता रहा हूं -यह ('वह भी' इसमें प्रयुक्त) 'भी' (अपि) शब्द का अभिप्राय है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 281 / / (धारणा, वासना व स्मृति का काल) अपनी प्रतिज्ञा (वादे) को ही पूरा करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं विशेषावश्यक भाष्य -- ------ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णमेत्तगहणं, नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥२८२॥ सो पुणरीहावायावेक्खाओवग्गहोत्ति उवयरिओ। एस विसेसावेक्खं, सामण्णं गेण्हए जेणं // 283 // तत्तोऽणंतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स। इय सामण्ण-विसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ॥२८४॥ [संस्कृतच्छाया:- सामान्यमात्रग्रहणं नैश्चयिकः समयमवग्रहः प्रथमः। ततोऽनन्तरमीहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः॥ स पुनरीहाऽपायापेक्षातोऽवग्रह इत्युपचरितः। एष्यविशेषापेक्षं सामान्यं गृह्यते येन // ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायश्च तद्विशेषस्य। इति सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः॥]. व्याख्या- इहैकसमयमात्रमानो नैश्चयिको निरुपचरितः प्रथमोऽर्थावग्रहः। कथंभूतः?, इत्याह- सामान्यमात्रस्याऽव्यक्तनिर्देश्यस्य वस्तुनो ग्रहणं सामान्यवस्तुमात्रग्राहक इत्यर्थः, सामयिकानि हि ज्ञानादिवस्तूनि परमयोगिन एव निश्चयवेदिनोऽवगच्छन्तीति नैश्चयिकोऽयमुच्यते। // 282-284 // सामण्णमेत्तगहणं, नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसे सस्स जोऽवाओ // सो पुणरीहावायावेक्खाओवग्गहोत्ति उवयरिओ। एस विसेसावेक्खं, सामण्णं गेण्हए जेणं // तत्तोऽणंतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स / इय सामण्ण-विसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ || ... [(गाथा-अर्थ :) सामान्य मात्र ग्राहक एकसमयवर्ती प्रथम अवग्रह नैश्चयिक (अवग्रह) है, उसके बाद ईहित वस्तु के विशेष का ज्ञान (जो होता है, वह) अपाय है। किन्तु वह अपने भावी (पुनः होने वाली) ईहा व अपाय की अपेक्षा से औपचारिक अवग्रह (कहलाता) है। चूंकि वह अपने भावी 'विशेष' की अपेक्षा से 'सामान्य' का ग्रहण करता है, इसलिए उसके बाद उसके 'विशेष' की ईहा और उसका अपाय होता रहता है, इस प्रकार सामान्य व विशेष की अपेक्षा तब तक करते रहना चाहिए जब तक वस्तु का अन्तिम विशेष ज्ञात (सम्भव) हो।] व्याख्याः- एक समय मात्र काल तक रहने वाला (जो) प्रथम अर्थावग्रह (है, वह) निरूपचरित और नैश्चयिक (अर्थावग्रह) है। (प्रश्न-) वह कैसा है? उत्तर दिया- सामान्य मात्र एवं अव्यक्त - अनिर्देश्य वस्तु का ग्रहण, अर्थात् सामान्य मात्र वस्तु का ग्राहक होता है। चूंकि एकसमयमात्रवर्ती ज्ञान आदि पदार्थों को परम योगी निश्चय ज्ञाता ही जान पाते हैं, इसलिए इसे 'नैश्चयिक' कहा जाता है। -- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ छद्मस्थव्यवहारिभिरपि यो व्यवह्रियते, तं व्यावहारिकमुपचरितमर्थावग्रहं दर्शयति- 'तत्तो इत्यादि / ततो , . नैश्चयिकार्थावग्रहादनन्तरमीहितस्य वस्तुविशेषस्य योऽपायः स पुनर्भाविनीहाम्, अपायं चाऽपेक्ष्योपचरितोऽवग्रहोऽर्थावग्रह इति द्वितीयगाथायां संबन्धः। उपचारस्यैवाऽस्य निमित्तान्तरमाह- 'एस्सेत्यादि'। एष्यो भावी योऽन्यो विशेषस्तदपेक्षया येन कारणेनाऽयमपायोऽपि सन् सामान्यं गृह्णाति, यश्च सामान्यं गृह्णाति सोऽर्थावग्रहो यथा प्रथमो नैश्चयिकः। एतदिह तात्पर्यम्- प्रथमं नैश्चयिकेऽर्थावग्रहे रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दादिवस्तुसामान्यं गृहीतम्, ततस्तस्मिन्नीहिते सति शब्द एवायम्' इत्यादिनिश्चयरूपोऽपायो भवति। तदनन्तरं तु 'शब्दोऽयं किं शाङ्खः, शार्हो वा' इत्यादिशब्दविशेषविषया पुनरीहा प्रवर्तिष्यते, 'शाङ्ख एवाऽयं शब्दः' इत्यादिशब्दविशेषविषयोऽपायश्च यो भविष्यति तदपेक्षया 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयः / प्रथमोऽपायोऽपि सन्नुपचारादर्थावग्रहो भण्यते, ईहाऽपायापेक्षात इति, अनेन चोपचारस्यैकं निमित्तं सूचितम्। 'शाङ्खोऽयं शब्दः, इत्याद्येष्यविशेषापेक्षया येनासौ सामान्यशब्दरूपं सामान्यं गृह्णातीति, अनेन तूपचारस्यैव द्वितीयं निमित्तमावेदितम्। तथाहि अब, छद्मस्थ व्यवहारी (संसारी) लोगों द्वारा जो व्यवहृत होता है, उस व्यावहारिक-उपचरित. अर्थावग्रह का निदर्शन कराया जा रहा है- (ततः इत्यादि)। उस नैश्चयिक अर्थावग्रह के बाद, ईहित वस्तु-विशेष का जो अपाय (निश्चय) है, वह- अपने बाद पुनः होने वाली ईहा व अपाय की अपेक्षा से -उपचरित अवग्रह 'अर्थावग्रह' है- इस प्रकार द्वितीय गाथा (के प्रथम चरण) में (पहली गाथा के दूसरे चरण का) सम्बन्ध है। इस उपचार के ही अन्य निमित को कह रहे हैं- (एष्यविषयापेक्षम् इत्यादि)। एष्य यानी भावी, जो अन्य विशेष (ज्ञान), उसकी अपेक्षा रखी जाय, तो इस कारण से यह अपाय भी (उपचारतः) सामान्य का ग्रहण (सामान्य को ग्रहण करने वाला माना जाता) है, और जो सामान्य का ग्राहक होता है, वह अर्थावग्रह (ही) होता है, प्रथम नैश्चयिक (अवग्रह) की तरह। तात्पर्य यह है- प्रथम नैश्चयिक अर्थावग्रह में रूप आदि से अव्यावृत्त (अर्थात् गृहीत 'शब्द' रूप आदि नहीं है- ऐसे बोध से रहित) व अव्यक्त शब्द आदि वस्तु-सामान्य का ग्रहण होता है, उसके बाद उसमें 'ईहा' होती है, फिर 'यह शब्द ही है' इत्यादि निश्चय रूप 'अपाय' होता है। उसके बाद तो 'यह शब्द शङ्ख का है या शृंगी वाद्य का' -इत्यादि शब्द-गत विशेष के सम्बन्ध में पुनः ईहा प्रवृत्त होती है, तब 'यह शब्द शङ्ख का ही है' इत्यादि शब्द-गत विशेष को ग्रहण करने वाला 'अपाय' ज्ञान भी जो होगा, उसकी अपेक्षा से 'यह शब्द ही है' -यह प्रथम निश्चयात्मक ज्ञान ‘अपाय' ज्ञान होते हुए भी भावी ईहा व अपाय की अपेक्षा से (ईहा-अपाय-अपेक्षातः) उपचारतः (उपचार का आश्रय लेते हुए) 'अर्थावग्रह' कहा जाता है। ('ईहा व अपाय की अपेक्षा से' -यह जो कथन है) इससे यहां उपचार का प्रथम निमित्त (हेतु) सूचित किया गया है। यह शब्द शङ्ख का है' -इत्यादि जो भावी विशेष ज्ञान होता है, उस की अपेक्षा से 'यह शब्द ही है' -यह जो (प्रथम) अपाय ज्ञान है, वह भी सामान्य- शब्दात्मक सामान्य का (ही) ग्रहण करता है- इस कथन से उपचार का यहां दसरा निमित्त सचित किय NAL 412 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदनन्तरमीमऽपायौ प्रवर्तेते, यश्च सामान्यं गृह्णाति, सोऽर्थावग्रहः, यथाऽऽद्यो नैश्चयिकः, प्रवर्तते च 'शब्द एवाऽयम्' इत्याद्यपायाऽनन्तरमीहाऽपायौ, गृह्णाति च 'शाङ्खोऽयं' इत्यादिभाविविशेषापेक्षयाऽयं सामान्यम्। तस्मादर्थावग्रह एष्यविशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णातीत्युक्तम्। ततस्तदनन्तरं किं भवति?, इत्याह तृतीयगाथायाम्- 'तत्तोऽणन्तरमित्यादि'। ततः सामान्येन शब्दनिश्चयरूपात् प्रथमापायादनन्तरं 'किमयं शब्दः शाङ्कः शावा?' इत्यादिरूपेहा प्रवर्तते। ततस्तद्विशेषस्य शङ्कप्रभवत्वादेः शब्दविशेषस्य 'शाङ्क एवायम्' इत्यादिरूपेणाऽपायश्च निश्चयरूपो भवति। अयमपि च भूयोऽन्यतद्विशेषाकांक्षावतः प्रमातु विनीमीहामपायं चापेक्ष्य, एष्यविशेषापेक्षया सामान्यालम्बनत्वाच्चाऽर्थावग्रह इत्युपचर्यते। इयं च सामान्य-विशेषापेक्षा तावत् कर्तव्या, यावदन्त्यो वस्तुनो भेदो विशेषः। यस्माच्च विशेषात् परतो वस्तुनोऽन्ये विशेषा न संभवन्ति सोऽन्त्यः, अथवा संभवत्स्वपि अन्यविशेषेषु यतो विशेषात् परतः प्रमातुस्तजिज्ञासा निवर्तते सोऽन्त्यः, तमन्त्यं विशेषं यावद् व्यावहारिकार्थावग्रहेहाऽपायार्थं सामान्य-विशेषापेक्षा कर्तव्या।। इति गाथात्रयार्थः // 282 // 283 // 284 // . है। इसके बाद ईहा व अपाय की प्रवृत्ति होती है, और जो सामान्य का ग्रहण करता है, वह अर्थावग्रह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रथम नैश्चयिक ज्ञान (अर्थावग्रह) है। 'यह शब्द ही है' -इत्यादि अपाय के बाद ईहा व अपाय प्रवृत्त होते हैं, यह (अपाय ज्ञान) भी 'यह शङ्ख का है' इत्यादि भावी विशेष ज्ञान की अपेक्षा से ('यह शब्द ही है' -यह ज्ञान) सामान्य ही है, इसलिए यह कहा जाता है कि भावी विशेष की अपेक्षा से अर्थावग्रह सामान्य का ग्राहक होता है। उसके बाद क्या होता है? इस (प्रश्न) का उत्तर तीसरी गाथा में (ततोऽनन्तरम् -इत्यादि) है। अर्थात् इसके बाद सामान्यतया शब्दनिश्चय रूप प्रथम अपाय के बाद, 'यह शब्द क्या शङ्ख का है या शृंगी वाद्य का?' इत्यादि रूप ईहा प्रवृत्त होती है। तदनन्तर, उसके विशेष 'शङ्ख से उत्पत्ति' आदि शब्दविशेष का 'यह शङ्ख का ही है' इत्यादि रूप में निश्चय रूप अपाय होता है। यह (अपाय) भी पुनः उसके अन्य विशेष (के ज्ञान) की आकांक्षा रखने वाले ज्ञाता को, भावी ईहा व अपाय की अपेक्षा से, तथा भावी विशेष (अपाय) की अपेक्षा से, तथा सामान्य का आलम्बन लिये हुए होने से, (पूर्वोक्त 'यह शङ्ख का ही है' -यह निश्चयात्मक ज्ञान भी) उपचार से अर्थावग्रह कहा जाता है। यह सामान्य-विशेष की अपेक्षा तब तक करनी चाहिए, जब तक अन्तिम वस्तु-भेद रूप से 'विशेष' (सम्भव) हो। जिसके बाद वस्तु के अन्य 'विशेष' सम्भावित न हो, वही 'अन्तिम विशेष' है, अथवा अन्य विशेषों के सम्भव होने पर भी, जिस 'विशेष' के बाद ज्ञाता की तत्सम्बन्धी जिज्ञासा निवृत्त हो, वही 'अन्तिम विशेष' है। उस अन्तिम 'विशेष' तक व्यावहारिक अर्थावग्रह में (उत्तरोतर) ईहा व अपाय की उपलब्धि हेतु सामान्य-विशेष सम्बन्धी अपेक्षा करनी चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ // 282-284 // ---- विशेषावश्यक भाष्य - ---- 413 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह च गाथात्रयेऽपि यः पर्यवसितोऽर्थो भवति, तमाह सव्वत्थेहावाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं। संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ॥२८५॥ [संस्कृतच्छाया:-सर्वत्र ईहा-अपायौ निश्चयतो मुक्त्वा आदिसामान्यम्। संव्यवहारार्थं पुनः सर्वत्र अवग्रहोऽपायः॥] सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत ईहाऽपायौ भवतः। 'ईहा, पुनरपायः, पुनरीहा, पुनरप्यपायः' इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, तावदीहाऽपायावेव भवतः, नाऽर्थावग्रह इत्यर्थः। किं सर्वत्रैवमेव?, न, इत्याह- 'मोत्तुमाइसामण्णं ति'। आद्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकं सामयिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहाउपायौ भवतः, इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपायः, किन्त्वर्थावग्रह एवेति भावः। संव्यवहारार्थं व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पुनः सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरोत्तरेहाऽपायापेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया / चोपचारतोऽर्थावग्रहः। एवं च तावद् नेयम्, यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकाङ्क्षा प्रवर्तते // इति गाथार्थः // 285 // __ अब, इन (उपर्युक्त) तीन गाथाओं में जो अर्थ (सिद्धान्त) अन्त में स्थिर हुआ, उसे ही आगे कह रहे हैं // 285 // सव्वत्येहावाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं / संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ || [ (गाथा-अर्थ :) आद्य (प्रथम) सामान्य ज्ञान को छोड़ कर, सर्वत्र (मति ज्ञान की प्रक्रिया में) वास्तविक रूप से ईहा व अपाय (क्रम से, बारबार) होते रहते हैं। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सर्वत्र जो जो अपाय है, वह वह (भावी अपाय की तुलना में, उपचार से) अर्थावग्रह रूप होता है।] व्याख्याः - सर्वत्र विषय-ज्ञान करने में, निश्चय से, अर्थात् परमार्थतः ईहा व अपाय होते (रहते) हैं, अर्थात् ईहा, फिर अपाय, फिर ईहा व अपाय -इसी क्रम से जब तक अन्तिम विशेष हो, तब तक ईहा व अपाय होते रहते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता। (प्रश्न-) क्या यह स्थिति सर्वत्र सदा होती है? उत्तर दिया- सर्वत्र नहीं- (मुक्त्वा आदिसामान्यम् इति)। तात्पर्य यह है कि आद्य अव्यक्त सामान्य मात्र ग्राही एकसमयवर्ती ज्ञान को छोड़कर, अन्यत्र (द्वितीय, तृतीय आदि उक्त अव्यक्त ज्ञानों में) ईहा व अपाय (-ये दोनों क्रम से) होते रहते हैं, यह (आद्य अव्यक्त आदि) ज्ञान न तो ईहा होता है और न ही अपाय, किन्तु अर्थावग्रह ही होता है। व्यवहार हेतु व्यावहारिक जनों की प्रतीति की अपेक्षा से तो सर्वत्र जो जो 'अपाय' है, वह वह उत्तरोत्तर ईहा व अपाय की अपेक्षा से, तथा भावी विशेष की अपेक्षा से, उपचार से अर्थावग्रह होता है। यह क्रम तब तक चलाते रह सकते हैं जब तक तारतम्य के साथ उत्तरोत्तर विशेष की आकांक्षा प्रवृत्त होती रहे || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 285 // ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरतमयोगाभावे तु किं भवति?, इत्याह तरतमजोगाभावेऽवाउ च्चिय धारणा तदंतम्मि। सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालंतरे वि सई॥२८६॥ [संस्कृतच्छाया:- तरतमयोगाभावे अपाय एव धारणा तदन्ते। सर्वत्र वासना पुनर्भणिता कालान्तरेऽपि स्मृतिः॥] तरतमयोगाभावे ज्ञातुरग्रेतनविशेषाकाङ्क्षानिवृत्तावपाय एव भवति, न पुस्तस्याऽवग्रहत्वमिति भावः, तन्निमित्तानां पुनरीहादीनामभावादिति / यद्यग्रत ईहादयो न भवन्ति, तर्हि किं भवति?, इत्याह- तदन्तेऽपायान्ते धारणा तदर्थोपयोगाप्रच्युतिरूपा भवति। शेषस्य वासना-स्मृतिरूपस्य धारणाभेदद्वयस्य क्व संभवः?, इत्याह- 'सव्वत्थ वासणा पुणेत्यादि / वासना वक्ष्यमाणरूपा, तथा कालान्तरे स्मृतिः, सा च सर्वत्र भणिता। अयमर्थः- अविच्युतिरूपा धारणाऽपायपर्यन्त एव भवति, वासना-स्मृती तु सर्वत्र कालान्तरेऽप्यविरुद्ध // इति गाथार्थः / / 286 // एवं चाऽभिहितस्वरूपव्यावहारिकाऽवग्रहाऽपेक्षया यथाश्रुतार्थव्याख्यानमपि सूत्रस्याविरुद्धमेव, इति दर्शयन्नाह तारतम्य का योग (स्पष्ट, स्पष्टतर, स्पष्टतम, अधिक स्पष्टतम इत्यादि जिज्ञासाओं का क्रम) न हो तो क्या होगा? इस प्रश्न का समाधान किया जा रहा है // 286 // तरतमजोगाभावेऽवाउ च्चिय धारणा तदंतम्मि / सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालंतरे वि सई॥ . . [ (गाथा-अर्थ :) तारतम्य योग के अभाव में 'अपाय' ही होता और उसके अन्त में धारणा होती है। वासना व स्मृति का तो सर्वत्र अन्य काल में भी होना कहा गया है।] व्याख्याः- तारतम्य योग के न होने पर, अर्थात् आगे विशेष को जानने की आकांक्षा न होने पर, "अपाय' ही होता है, अर्थात् वह 'अवग्रह' नहीं होता, क्योंकि उस (अवग्रह) के निमित्तभूत ईहा आदि का वहां सद्भाव नहीं होता। (प्रश्न) धारणा के जो दो भेद वासना व स्मृति (बताये गये) हैं, उनका सद्भाव कहां होगा? उत्तर दिया- (सर्वत्र वासना पुनः इत्यादि)। वासना का स्वरूप आगे कहेंगे, और कालान्तर में स्मृति, इनका सर्वत्र होना कहा गया है। तात्पर्य यह है कि अविच्युति रूप धारणा 'अपाय' पर्यन्त तक ही रहती है, किन्तु वासना व स्मृति तो सर्वत्र, कालान्तर में भी निर्विरोध रूप से होती हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 286 // - इस प्रकार, व्यावहारिक अर्थावग्रह का जो स्वरूप बताया गया है, उसकी अपेक्षा से आगम के अनुरूप ही सूत्र-व्याख्यान करने में कोई विरोध भी नहीं रहता -इस तथ्य को प्रस्तुत किया जा रहा है- .. Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 415 2 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दो त्ति व सुयभणियं, विगप्पओ जइ विसेसविण्णाणं। घेप्पेज्ज तं पि जुज्जइ, संववहारोग्गहे सव्वं // 287 // [संस्कृतच्छायाः- शब्द इति वा श्रुतभणितं विकल्पतो यदि विशेषविज्ञानम्। गृह्येत तदपि युज्यते संव्यवहारावग्रहे सर्वम्॥] वाशब्दोऽथवार्थे, ततश्चायमभिप्रायः- 'सहे ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद् व्याख्यातं तेण सद्दे त्ति उग्गहिए' इत्यादि सूत्रम्। अथवा 'शब्दः' इति यत्सूत्रभणितम्- 'शब्दस्तेनाऽवगृहीतः' इति यत् सूत्रे प्रतिपादितम्, तद् यदि विकल्पतो विवक्षावशतो विशेषविज्ञानं गृह्येत, तदपि सर्वं युज्यते।कस्मिन्?, इत्याह- यथोक्त औपचारिके सांव्यवहारिकाऽर्थावग्रहे गृह्यमाणे सति। अत्र हि 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानं युज्यते, सर्वग्रहणात् तदनन्तरमीहादयश्चोपपद्यन्ते, पूर्वोक्तयुक्तेः। ततश्च ‘से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सई सुणेजा, तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए, न उण जाणइ के वेस सद्दे, तओ ईहं पविसई, तओ अवायं गच्छइ' इत्यादि सर्वं सुस्थं भवति। यद्येवम्, अयमेवाऽर्थावग्रहः कस्माद् न गृह्यते, येन सर्वोऽपि विवादः शाम्यति? इति चेत्। नैवम्, 'शब्द एवाऽयम्' इत्याद्यपायरूपोऽयमर्थावग्रहः, अपायश्च सामान्यग्रहणेहाभ्यामन्तरेण न संभवति, इत्याद्यसकृत् पूर्वमभिहितमेव। इति प्राक्तनमेव व्याख्यानं मुख्यम्। इत्यलं विस्तरेण // इति गाथार्थः // 287 // // 287 // सद्दो त्ति व सुयभणियं, विगप्पओ जइ विसेसविण्णाणं / घेप्पेज्ज तं पि जुज्जइ, संववहारोग्गहे सव्वं // [(गाथा-अर्थ :) अथवा 'शब्द' (अवगृहीत होता है-) ऐसा जो श्रुत में कहा गया है, उसे यदि विकल्प (विवक्षा) की अपेक्षा से विशेष विज्ञान के रूप में ग्रहण किया जाय, तो वह सारा (कथन) भी, उसे सांव्यवहारिक (औपचारिक) अर्थावग्रह मानने पर, सुसंगत हो जाता है।]. " व्याख्याः- 'वा' का अर्थ 'अथवा' है। इस प्रकार अभिप्राय यह है कि “उसने शब्द का अवग्रहण किया -इत्यादि सूत्र का 'शब्द' यह कथन 'वक्ता' -प्ररूपणाकार की दृष्टि से है" इत्यादि रीति से व्याख्यान किया गया / अथवा 'शब्द' -यह जो 'उसने शब्द का अवग्रहण किया है' -इस सूत्र में कहा गया है, उसे यदि विकल्प की, यानी विवक्षा की अपेक्षा से 'विशेष ज्ञान' के रूप में स्वीकार किया जाय, तो वह सब (सूत्र-कथन) संगत हो जाता है। (प्रश्न-) किस रूप में वह संगत होता है? उत्तर दिया- पूर्वोक्त जो औपचारिक या सांव्यवहारिक अर्थावग्रह है, उस रूप में उस (विशेष ज्ञान) को मान लिया जाय तो। यहां 'शब्द' यह विशेष ज्ञान के रूप में संगत है। 'वह सब संगत होता है' इस कथन में 'वह सब' यह कथन सूचित करता है कि अनन्तरभावी ईहा आदि की भी (पूर्वोक्त रीति से) संगति होती है। इसके बाद “वह यथानाम कोई पुरुष अव्यक्त शब्द को सुनता है, उसने शब्द का अवग्रहण किया, किन्तु वह नहीं जानता कि यह कौन-सा शब्द है, तब वह ईहा में प्रविष्ट होता है, तदनन्तर अपाय ज्ञान करता है” –इत्यादि समस्त सूत्रोक्त की (भी) संगति बैठ जाती है। (प्रश्न-) यदि ऐसा है तो इसे (शब्द का अवग्रहण करता है, इसे) ही अर्थावग्रह क्यों नहीं मान लेते हैं, ताकि सारा विवाद शान्त हो जाय? (उत्तर-) ऐसा नहीं। यह अर्थावग्रह तो 'शब्द ही है' Ma 416 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यावहारिकाऽर्थावग्रहाभ्युपगमे यो गुणस्तं सविशेषमुपदर्शयन्नाह खिप्पेयराइभेओ पुव्वोइयदोसजालपरिहारो। जुज्जइ संताणेण य, सामण्ण-विसेसववहारो॥२८८॥ [संस्कृतच्छाया:- क्षिप्रेतरादिभेदपूर्वोदितदोषजालपरिहारः। युज्यते संतानेन च सामान्यविशेषव्यवहारः॥] क्षिप्रेतरादिभेदं यत् पूर्वोदितदोषजालं तस्य परिहारो युज्यते 'अस्मिन् व्यावहारिकेऽर्थावग्रहे सति' इति प्रक्रमाद् गम्यते। इदमुक्तं भवति- एकसामयिकनैश्चयिकाऽर्थावग्रहव्याख्यातारं प्रति प्राग् यदुक्तम्- यद्यसावेकसामयिकः, तर्हि कथं क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणमस्योपपद्यते, तथा यद्यसौ सामान्यमात्रग्राहकः, तर्हि बह-बहविधादिविशेषणोक्तं विशेषग्रहणं कथं घटते?. तथाऽर्थावग्रहस्य विशेषग्राहकत्वे यत् समयोपयोगबाहुल्यमुक्तम्, इत्यादिकस्य दोषजालस्य परिहारो व्यावहारिकेऽर्थावग्रहे सति युज्यते। इत्यादि अपाय ज्ञान स्वरूप होता है, किन्तु अपाय तो सामान्य-ग्रहण व ईहा के बिना सम्भव नहीं होता -इत्यादि कथन हमने कई बार किया है। अतः पहले वाला (गाथा-261 तक) व्याख्यान ही मुख्य है, (इस सम्बन्ध में और) अधिक विस्तार (से कहने) की अब आवश्यकता नहीं | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 287 // (व्यावहारिक अर्थावग्रह मानने से लाभ) : व्यावहारिक अर्थावग्रह मानने पर जो गुण (उपयोगिता) है, उसे दिखला रहे हैं ___ // 288 // खिप्पेयराइभेओ पुव्वोइयदोसजालपरिहारो। जुज्जइ संताणेण य, सामण्ण-विसेसववहारो॥ [(गाथा-अर्थ :) (इस व्यावहारिक अर्थावग्रह को स्वीकारते हैं तो) क्षिप्र, चिर आदि (अवग्रह के) भेदों के सम्बन्ध में दोषों के जाल का होना जो पहले बताया गया है, उसका परिहार करना उपयुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त, सन्तान (उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान की परम्परा) रूप में जो (लोक में) सामान्य-विशेष का व्यवहार होता है, वह भी घटित (संगत) हो जाता है।] व्याख्याः- क्षिप्र, चिर आदि के रूप में दोष-जाल (दोषों के समूह) का निर्देश किया गया था, उसका परिहार सम्भव हो पाता है, इस व्यावहारिक अर्थावग्रह स्वीकार करने पर -यह प्रकरणवश ज्ञात होता है। तात्पर्य यह है- एक समय काल प्रमाण तक ही रहने वाले नैश्चलिक अर्थावग्रह के व्याख्यान करने वाले को लक्ष्य कर पहले जो (दोष) कहा गया था- दि वह एक समयवर्ती है, तब इसमें क्षिप्र, चिर आदि ग्रहणों (ज्ञानों) के विशेषण किरः प्रकार संगत हो सकते हैं? और यदि यह सामान्य मात्र का ग्राहक है तो बहु, बहुविध आदि विशेषणों से निर्दिष्ट विशेष-ग्रहण किस प्रकार घटित होता है? इसके अतिरिक्त, अर्थावग्रह यदि विशेष का ग्राहक है तो समयोपयोग की बहुलता Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----417 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाहि- नैश्चयिकावग्रहवादिनेदानीं शक्यमिदं वक्तुं यदुत-क्षिप्रेतरादिविशेषणानि व्यावहारिकावग्रहविषयाण्येतानि, ... असंख्येयसमयनिष्पन्नत्वेनाऽस्य क्षिप्र-चिरग्रहणस्य युज्यमानत्वात्, विशेषग्राहकत्वेन बहु-बहुविधादिग्रहणस्याऽपि घटमानकत्वादिति। 'सामण्ण-तयण्णविसेसेहा' इत्यादिना प्रागभिहितं समयोपयोगबाहुल्यमप्यस्मिन् निरास्पदमेव, सामान्यग्रहणेहापूर्वकत्वेन, असंख्येयसामयिकत्वेन चैकसमयोपयोगबाहुल्यस्याऽत्राऽसम्बद्ध्यमानत्वादिति। नन नैश्चयिकावग्रहे किं क्षिप्रेतरादिविशेषणकलापो न घटते, येन व्यावहारिकावग्रहापेक्षः प्रोच्यते?। सत्यम्, मुख्यतया व्यवहारावग्रहे एव घटते, कारणे कार्यधर्मोपचारात् पुनर्निश्चयावग्रहेऽपि युज्यते, इति प्रागप्युक्तम्, वक्ष्यते च। विशिष्टादेव हि कारणात् कार्यस्य वैशिष्ट्यं युज्यते, अन्यथा त्रिभुवनस्याऽप्यैश्वर्यादिप्रसङ्गः, काष्ठखण्डादेरपि रत्नादिनिचयाऽवाप्तेः, इत्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतमुच्यते-संतानेन च योऽसौ सामान्य-विशेषव्यवहारो लोके रूढः, सोऽपि 'व्यवहारावग्रहे सति युज्यते' इतीहापि / सम्बध्यते। लोकेऽपि हि यो विशेषः सोऽप्यपेक्षया सामान्यम्, यत्सामान्यं तदप्यपेक्षया विशेष इति व्यवह्रियते। तथाहि- 'शब्द . एवाऽयम्' इत्येवमध्यवसितोऽर्थः पूर्वसामान्यापेक्षया विशेषः, 'शाङ्खोऽयम्' इत्युत्तरविशेषापेक्षया तु सामान्यम्, इत्येवं यावदन्त्यो होगी (और एक समयवर्ती होना असंगत होगा) -यह कहा गया था। इन सब दोष-जाल का परिहार व्यावहारिक अर्थावग्रह को मान लेने पर सम्भव हो जाता है। नैश्चयिक अर्थावग्रह के समर्थक द्वारा अब यह कहा जा सकता है कि क्षिप्र, चिर आदि विशेषण व्यावहारिक अवग्रह के हैं, क्योंकि असंख्येय समय में इसके निष्पन्न होने से इसमें क्षिप्र या चिर ग्रहण का होना संगत होता है और विशेष-ग्राहक होने से, बहु, बहुविध आदि ग्रहणों की भी संगति हो जाती है, 'सामान्य-तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि कथन द्वारा पहले 'समयोपयोगबहुलता' का दोष दिया गया था, वह भी इसमें कोई संकट खड़ा नहीं करता, क्योंकि सामान्य ग्रहणं व ईहा के बाद होने से, तथा असंख्येय समय वाला होने से 'एकसमय में उपयोग-बहुलता' (के दोष) का यहां सम्बन्ध ही नहीं बनता। (शंका-) नैश्चयिक अवग्रह में क्या क्षिप्र, चिर आदि विशेषण-समूह घटित नहीं होता जो आप व्यावहारिक अर्थावग्रह की अपेक्षा (की वकालत) कर रहे हैं? (उत्तर-) सही है, मुख्यतया तो व्यवहार अवग्रह में ही घटित होता है -यह पहले भी हमने कहा है, आगे भी कहेंगें। कारण जब विशिष्ट हो, तभी कार्य का वैशिष्ट्य संगत होता है, अन्यथा तीनों लोक ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाएंगे और लकड़ी के टुकड़े से भी रत्न आदि के समूह की प्राप्ति होने लगेगी, अतः इस सम्बन्ध में अधिक नहीं कहना है। अब प्रस्तुत विषय पर चर्चा (प्रारम्भ) कर रहे हैं- लोक में (ज्ञान-) सन्तान के रूप में सामान्य-विशेष-सम्बन्धी जो व्यवहार है, 'वह भी व्यावहारिक अवग्रह के मानने पर ही संगत होता है' -यह कथन यहां भी सम्बद्ध होता है। लोक में भी जो 'विशेष' है, वह किसी अपेक्षा से सामान्य भी है, और जो 'सामान्य' है, वह भी अपेक्षा से 'विशेष' है- ऐसा व्यवहार में (देखा जाता) है। जैसे'यह शब्द ही है' -इस प्रकार अध्यवसित अर्थ अपने पूर्व 'सामान्य' की अपेक्षा 'विशेष' है, किन्तु 418 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष इति प्रागप्युक्तम्। अयं चोपर्युपरिज्ञानप्रवृत्तिरूपेण संतानेन लोके रूढः सामान्य-विशेषव्यवहार औपचारिकावग्रहे सत्येव घटते, नान्यथा, तदनभ्युपगमे हि प्रथमापायानन्तरमीहाऽनुत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं चाऽभ्युपगतं भवति, उत्तरविशेषाग्रहणे च प्रथमापायव्यवसितार्थस्य विशेषत्वमेव, न सामान्यत्वम् -इति पूर्वोक्तरूपो लोकप्रतीतः सामान्यविशेषव्यवहारः समुच्छिद्येत। अथ प्रथमापायानन्तरम् अभ्युपगम्यत ईहोत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं च, तर्हि सिद्धं तदपेक्षया प्रथमापायव्यवसितार्थस्य सामान्यत्वम्, यश्च सामान्यग्राहकः, यदनन्तरं चेहादिप्रवृत्तिः सोऽर्थावग्रहः, नैश्चयिकाऽऽद्यर्थावग्रहवत्, इत्युक्तमेव। इति सिद्धो व्यावहारिकार्थावग्रहः, तत्सिद्धौ च सन्तानप्रवृत्त्याऽन्त्यविशेषं यावत् सिद्धः सामान्य-विशेषव्यवहारः॥ इति गाथार्थः // 288 // ॥इति मतिज्ञानाऽऽद्यभेदलक्षणो द्विभेदोऽप्यवग्रहः समाप्त इति॥ 'यह शङ्ख का शब्द है' -इस उत्तरवर्ती विशेष की अपेक्षा से सामान्य है, इस प्रकार जब तक अन्तिम 'विशेष' है, तब तक यह (सामान्य-विशेष व्यवहार) होता है- ऐसा हमने पहले भी कहा है। यह जो एक के बाद दूसरे ज्ञान की प्रवृत्ति रूप परम्परा के रूप में लोक में सामान्य-विशेष व्यवहार रूप (प्रचलित) है, वह भी औपचारिक अवग्रह के मानने पर ही संगत होता है, अन्यथा नहीं। और, उसको स्वीकार नहीं करें तो प्रथम अपाय के बाद ईहा की प्रवृत्ति का होना ही (सम्भव) नहीं होगा, और उत्तरवर्ती विशेषों का ग्रहण न होना मान लेना पड़ेगा, और उत्तरवर्ती विशेष का ग्रहण न होना मानने पर प्रथम अपाय से निश्चित अर्थ ही 'विशेष' होगा, वह 'सामान्य' नहीं होगा -इस प्रकार पूर्वोक्त लोक-सामान्य में अनुभूत सामान्य-विशेष व्यवहार का समुच्छेद ही हो जाएगा। ...... (शंका-) प्रथम अपाय के बाद 'ईहा' होती है, और उत्तरवर्ती 'विशेष' का ग्रहण होता हैऐसा मान लें तो क्या हानि है? (उत्तर-) तब तो उस (उत्तरवर्ती विशेष) की अपेक्षा से प्रथम अपाय से निश्चित अर्थ की सामान्यरूपता सिद्ध हो ही गई, और जो सामान्य-ग्राहक है, उसके बाद ईहा आदि की प्रवृत्ति होती है, वह अर्थावग्रह है, यह कहा जा चुका है, इस प्रकार व्यावहारिक अर्थावग्रह सिद्ध हो गया, और उसके सिद्ध होने पर सन्तान-प्रवृत्ति के कारण अन्तिम 'विशेष' तक, सामान्य-विशेष का व्यवहार भी सिद्ध हो गया // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 288 // [यहां तक मति ज्ञान के प्रथम भेद 'अवंग्रह' के दोनों प्रकारों का निरूपण समाप्त हुआ॥] -- विशेषावश्यक भाष्य -- ----419 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तद्वितीयभेदलक्षणामीहां व्याचिख्यासुराह इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा सदत्थवीमंसा। किमिदं सद्दोऽसहो? को होज्ज वसंख-संगाणं?॥२८९॥ [संस्कृतच्छाया:- इति सामान्यग्रहणानन्तरम् ईहा सदर्थ-मीमांसा। किमिदं शब्दः अशब्दः को भवेद् वा शासशााणाम् // ] इतिशब्द उपप्रदर्शने, इत्येवं प्रागुक्तेन प्रकारेण नैश्चयिकाऽर्थावग्रहे यत् सामान्यग्रहणं रूपाद्यव्यावृत्त्याव्यक्तवस्तुमात्रग्रहणमुक्तम्, तथा व्यवहारार्थावग्रहेऽपि यदुत्तरविशेषापेक्षया शब्दादिसामान्यग्रहणमभिहितम्। तस्मादनन्तरमीहा प्रवर्तते। कथंभूतेयम्?, इत्याह-सतस्तत्र विद्यमानस्य गृहीतार्थस्य विशेषविमर्शद्वारेण मीमांसा विचारणा। केनोल्लेखेन?, इत्याह-किमिदं वस्तु मया गृहीतं-शब्दः, अशब्दो वा रूप-रसादिरूपः?, इदं च निश्चयार्थावग्रहाऽनन्तरभाविन्या ईहायाः स्वरूपमुक्तम्। (ईहा का व्याख्यान) अब, (मतिज्ञान के) द्वितीय भेद (क्रम) 'ईहा' का व्याख्यान करने जा रहे हैं // 289 // इय सामण्णग्गहणणंतरमीहा सदत्थवीमंसा। किमिदं सद्दोऽसद्दो? को होज्ज व संख-संगाणं? // [(गाथा-अर्थ :) इस (पूर्वोक्त) रीति से सामान्य ग्रहण के बाद, सद् (विद्यमान) अर्थ की मीमांसा (प्रारम्भ) होती है- (जैसे) क्या यह शब्द है या (उससे भिन्न) अशब्द है? अथवा (शब्द है तो) क्या यह शङ्ख का है या श्रृंगी वाद्य का?] व्याख्याः- 'इति' यह शब्द 'उपनिदर्शन' अर्थ में प्रयुक्त है, अतः यहां अर्थ होगा- पूर्वोक्त प्रदर्शित रीति से। (आगे का वाक्यांश होगा-) नैश्चयिक अर्थावग्रह में जो सामान्य का ग्रहण, अर्थात् रूप आदि की व्यावृत्ति के साथ अव्यक्त वस्तु मात्र का ग्रहण होता है-यह कहा गया है, और व्यवहार अर्थावग्रह में भी जो उत्तरवर्ती विशेष की अपेक्षा से शब्दादि सामान्य का ग्रहण होता है- यह भी कहा गया है। उसके बाद ईहा की प्रवृत्ति होती है। (प्रश्न-) वह ईहा कैसी होती है? उत्तर दिया(सदर्थमीमांसा)। सत् यानी विद्यमान गृहीत अर्थ, उसकी विशेष सम्बन्धी विमर्श के माध्यम से की गई मीमांसा यानी विचारणा / (प्रश्न-) यह मीमांसा किस रूप में उल्लेखित (शब्दों से अभिव्यक्त) होती है? उत्तर दिया- जो मैंने वस्तु गृहीत की है, वह शब्द है या अशब्द यानी रूप-रस आदि (में से कौन-सी वस्तु) है? यहां निश्चय-अर्थावग्रह के अनन्तर होने वाली ईहा का यह स्वरूप कहा गया है। Via 420 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ व्यवहारार्थावग्रहानन्तरसंभविन्याः स्वरूपमाह- 'को होज वेत्यादि / वा इत्यथवा, व्यवहारावग्रहेण शब्दे गृहीत इत्थमीहा प्रवर्तते-शाङ्ख-शार्ङ्गयोर्मध्ये कोऽयं भवेत् शब्द:- शाङ्खः शार्हो वा? इति। ननु किं शब्दः, अशब्दो वा?' इत्यादिकं संशयज्ञानमेव कथमीहा भवितुमर्हति? / सत्यम्, किन्तु दिङ्मात्रमेवेदमिह दर्शितम्, परमार्थतस्तु व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरः, अन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायाभिमुख एव बोध ईहा द्रष्टव्या, तद्यथा अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो न चाधुना संभवतीह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना॥१॥ इति। एतच्च प्रागुक्तमपि मन्दमतिस्मरणार्थं पुनरप्युक्तम् // इति गाथार्थः // 289 // अथ मतिज्ञानतृतीयभेदस्याऽपायस्य स्वरूपमाह महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेव त्ति जं न सिंगस्स। विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगम-वइरेगभावाओ॥२९०॥ - अब, व्यवहार अर्थावग्रह के बाद होने वाली ईहा का स्वरूप बता रहे हैं- (को भवेद् वा?)। 'वा' यानी अथवा | व्यवहार अवग्रह से शब्द का ग्रहण होने पर इस प्रकार से ईहा प्रवृत्त होती है"शङ्ख-शब्द और श्रृंगी-वाद्य-शब्द -इन (दोनों) में से यह शब्द कौन सा है- शङ्खीय है या शृंगीय है?" __ (शङ्का-) 'यह शब्द है या अशब्द' -यह (विमर्श) तो संशय ज्ञान ही हुआ, ईहा कैसे कहा जाता है? (उत्तर-) आपका कहना (पूछना) सही है, किन्तु यह तो नमूने के तौर पर कहा गया है, परमार्थ रूप से (वस्तुतः) तो 'व्यतिरेक' (नहीं पाये जाने वाले) धर्मों के निराकरण करने हेतु तत्पर और अन्वय (पाये जाने वाले) धर्मों के घटित होने की ओर प्रवृत्त एवं अपायाभिमुख (निश्चय की ओर बढ़ता हुआ) जो ज्ञान है, उसे ही 'ईहा' समझना चाहिए। जैसे “यह जंगल है, सूर्य भी अस्त हो गया, इस स्थिति में अभी किसी मानव का यहां होना संभव नहीं / प्रायः इसे पक्षियों से युक्त स्मर-शत्रु (यानी 'शिव') के समान (पर्यायवाची) नाम वाला कोई वृक्ष (अर्थात् स्थाणु यानी ढूंठ वृक्ष) होना चाहिए।" - यह श्लोक पहले भी (गाथा 183-184 के व्याख्यान में) कहा जा चुका है, फिर भी मन्दबुद्धियों को स्मरण दिलाने हेतु पुनः कहा है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 289 // (अपाय का व्याख्यान) .... अब, मतिज्ञान के तृतीय भेद (क्रम) 'अपाय' का स्वरूप बता रहे हैं // 290 // महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेव त्ति जं न सिंगस्स। विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगम-वइरेगभावाओ // ----- विशेषावश्यक भाष्य -- - Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ संस्कृतच्छाया:- मधुरादिगुणत्वतः शङ्खस्यैव इति यत् न शृङ्गस्य / विज्ञानं सोऽपायः अनुगम-व्यतिरेकभावात्॥] 'मधुर-स्निग्धादिगुणत्वात् शङ्खस्यैवाऽयं शब्दः, न शृङ्गस्य' इत्यादि यद् विशेषविज्ञानम्, सोऽपायो निश्चयज्ञानरूपः। कुतः?, इत्याह- पुरोवर्त्यर्थधर्माणामनुगमभावादस्तित्वनिश्चयसद्भावात्, तत्राऽविद्यमानार्थधर्माणां तु व्यतिरेकभावाद् नास्तित्वनिश्चयसत्त्वात्। अयं च व्यवहारावग्रहानन्तरभावी अपाय उक्तः, निश्चयावग्रहानन्तरभावी तु स्वयमपि द्रष्टव्यः। तद्यथा- श्रोत्रग्राह्यत्वादिगणतः 'शब्द एवाऽयं, न रूपादिः' इति / ईहाऽपायविषयाश्च विप्रतिपत्तयः प्रागपि निराकृताः, इति नेहोक्ताः // इति गाथार्थः // 290 // अथ चतुर्थो मतिज्ञानभेदो धारणा, इयं चाऽविच्युति-वासना-स्मृतिभेदात् त्रिधा भवति, अतः सभेदामपि तामाह तयणंतरं तयथाविच्चवणं, जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥२९१॥ [संस्कृतच्छाया:- तदनन्तरं तदर्थ-अविच्यवनं यश्च वासनायोगः। कालान्तरे च यत् पुनरनुस्मरणं धारणा सा तु॥] [ (गाथा-अर्थ :) मधुरता आदि गुणों के कारण, यह शङ्ख का ही शब्द है, शृंगी वाद्य का नहीं -इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक निश्चय के आधार पर जो विशेष ज्ञान होता है, वह 'अपाय' है।] - व्याख्याः- मधुरता व स्निग्धता आदि गुणों के कारण, यह शब्द शङ्ख का ही है, शृंगी वाद्य का नहीं -इत्यादि जो विशेष ज्ञान है, वह निश्चयज्ञानात्मक रूप (होने से) 'अपाय' है। (प्रश्न) किस युक्ति से? उत्तर दिया- (अनुगम-व्यतिरेकभावात्)। सम्मुख स्थित पदार्थ में रहने वाले धर्मों का अनुगम (या अन्वय) होने से, अर्थात् उनका अस्तित्व निश्चय होने के कारण, तथा उसमें अविद्यमान पदार्थधर्मों के व्यतिरेक भाव होने से, अर्थात् उनका नास्तित्व निश्चय होने से (वह निश्चयात्मक 'अपाय' है)। व्यवहार अर्थावग्रह के बाद होने वाला 'अपाय' यह बताया गया है, निश्चय अवग्रह के बाद होने वाले 'अपाय' को स्वयं समझ लेना चाहिए। जैसे- श्रोत्रग्राह्यता आदि गुणों से 'वह शब्द ही है, रूप आदि नहीं है'। ईहा व अपाय को लेकर की जाने वाली आपत्तियों का पहले निराकरण किया जा चुका है, इसलिए यहां उसका कथन नहीं कर रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 290 // (धारणा का व्याख्यान) मतिज्ञान का चतुर्थ भेद है- धारणा, जो अविच्युति, वासना व स्मृति -इन भेदों के कारण तीन प्रकारों वाली है, अतः अब उसका भी भेदसहित निरूपण करने जा रहे हैं // 291 // तयणंतरं तयत्याविच्चवणं, जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ [(गाथा-अर्थ :) उस (अपाय) के बाद (1) उस (सम्बद्ध) अर्थ से (उपयोग) की च्युति का (नाश) जो न होना है, तथा (2) जो वासना का जीव के साथ योग (सम्बन्ध) है, और जो (3) उस Mi 422 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मादपायादनन्तरं तदनन्तरं यत्, तदर्थादविच्यवनम्- उपयोगमाश्रित्याऽभ्रंशः, यश्च वासनाया जीवेन सह योगः, संबन्धः, यच्च तस्याऽर्थस्य कालान्तरे पुनरिन्द्रियैरुपलब्धस्य, अनुपलब्धस्य वा, एवमेव मनसाऽनुस्मरणं स्मृतिर्भवति, सेयं पुनस्त्रिविधाऽप्यर्थस्याऽवधारणरूपा धारणा विज्ञेया॥ इति गाथाक्षरघटना॥ भावार्थस्त्वयम्- अपायेन निश्चितेऽर्थे तदनन्तरं यावदद्यापि तदर्थोपयोगसातत्येन वर्तते, न तु तस्माद् निवर्तते, तावत् तदर्थोपयोगादविच्युतिर्नाम, सा धारणायाः प्रथमभेदो भवति। ततस्तस्याऽर्थोपयोगस्य यदावरणं कर्म तस्य क्षयोपशमेन जीवो युज्ज्यते, येन कालान्तरे इन्द्रियव्यापारादिसामग्रीवशात् पुनरपि तदर्थोपयोगः स्मृतिरूपेण समुन्मीलति। सा चेयं तदावरणक्षयोपशमरूपा वासना नाम द्वितीयस्तभेदो भवति। कालान्तरे च वासनावशात् तदर्थस्येन्द्रियैरुपलब्धस्य,अथवा तैरनुपलब्धस्याऽपि मनसिया स्मृतिराविर्भवति, सा तृतीयस्तभेद इति। एवं त्रिभेदा धारणा विज्ञेया। तुशब्दोऽवग्रहादिभ्यो विशेषद्योतनार्थः। विप्रतिपत्तयस्त्वेतद्विषया अपि प्रागेव निराकृताः॥ इति गाथार्थः // 291 // (अर्थ) की कालान्तर में (भी) स्मृति हो जाती है (-ये तीनों प्रकार जिसके बताये गये हैं), वह 'धारणा' ही तो है।] . व्याख्याः- उस अपाय के बाद जो सम्बद्ध पदार्थ से उसकी अविच्युति अर्थात् उपयोग की दृष्टि से विनष्ट न होना है, और जीव के साथ जो वासना का योग-सम्बन्ध है, और जो उस पदार्थ की कालान्तर में, इन्द्रियों से उपलब्ध होने पर या अनुपलब्ध होने पर भी, उसी तरह की मन से जो अनुस्मृति होती है -ये तीनों प्रकार की पदार्थ-सम्बन्धी अवधारणा को 'धारणा' जानना चाहिए। यह गाथा की अक्षरशः योजना करते हुए अर्थ किया गया है। भावार्थ तो इस प्रकार है- अपाय से निश्चित किये गये पदार्थ में, उस (अपाय) के होने से लेकर जब तक उस पदार्थ-सम्बन्धी उपयोग की निरन्तरता बनी रहती है, वह निवृत्त नहीं होती, तब तक उस पदार्थ से (अपाय-ज्ञान की) जो अविच्युति है, वह धारणा का प्रथम भेद है (यह प्रथम प्रकार की धारणा है)। उसके बाद, उस पदार्थ-सम्बन्धी उपयोग का जो आवरण (करने वाला) कर्म है, उसके क्षयोपशम से जीव सम्पन्न होता है, जिससे कालान्तर में इन्द्रिय-व्यापार आदि सामग्री के कारण, पुनः पदार्थ-सम्बन्धी वह उपयोग ‘स्मृति' रूप से उन्मीलित (प्रकट) हो जाता है। सम्बद्ध उपयोग के आवरण की क्षयोपशम रूप जो स्थिति है, वह 'वासना' है, यह धारणा का द्वितीय भेद है। और, कालान्तर में, वासना के कारण, उस अर्थ की, जो इन्द्रियों से उपलब्ध हो या उनसे अनुपलब्ध हो, मन में स्मृति आविर्भूत होती है, वह (धारणा का) तीसरा भेद है। इस प्रकार, धारणा के तीन भेदों को जानना चाहिए। 'तु' यह शब्द अवग्रह आदि से इस (धारणा) के अन्तर या वैशिष्ट्य को सूचित कर रहा है। इस सम्बन्ध में (संभावित) आपत्तियों का निराकरण पहले ही किया जा चुका है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 291 // Wa---------- विशेषावश्यक भाष्य - ---- 423 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , तदेवं 'से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सई सुणेज' इत्यादिसूत्रानुरोधेन शब्दमाश्रित्याऽवग्रहादयो भाविताः। अथ सूत्रकारेणैव यदुक्तम्- ‘एवं एएणं अभिलावेणं अव्वत्तं रूवं रसं गंधं फासं' इत्यादि, तच्चेतसि निधाय भाष्यकारोऽप्यतिदेशमाह सेसेसु वि रूवाइसु, विसएसु होंति सूवलक्खाई। पायं पच्चासन्नत्तणेणमीहाइवत्थूणि॥२९२॥ [संस्कृतच्छाया:- शेषेषु अपि रूपादिषु विषयेषु भवन्ति सूपलक्ष्याणि / प्रायः प्रत्यासन्नत्वेन ईहादिवस्तूनि // ] यथा शब्दे, एवं शेषेष्वपि रूपादिविषयेषु साक्षादनुक्तान्यपि सूपलक्ष्याणि कथितानुसारप्रसरत्प्रज्ञानां चतुरचेतसां सुज्ञेयानि भवन्ति / कानि?, इत्याह- ईहादीन्याभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि / केन सूपलक्ष्याणि?, इत्याह- प्रायः प्रत्यासन्नत्वेन चक्षुरादिना गृह्यमाणस्य स्थाण्वादेः, तत्राऽगृह्यमाणेन पुरुषादिना सह प्रायो बहुभिर्धमैर्यत् प्रत्यासन्नत्वं या प्रत्यासत्ति: सादृश्यमिति यावत्, तेनेहादीनि ज्ञेयानि, न पुनरत्यन्तवैलक्षण्ये स्थाण्वादेरुष्ट्रादिना सहेत्यर्थः। (रूप आदि शेष विषयों में ईहा आदि) इस प्रकार 'वह यथानाम कोई पुरुष अव्यक्त शब्द को सुनता है' इत्यादि सूत्र के अनुरोध से (उसे महत्त्व देने की दृष्टि से) 'शब्द' पर आश्रित अवग्रह आदि का निरूपण किया गया। अब, सूत्रकार ने ही जो यह कहा था- इस प्रकार, इस (शब्द सम्बन्धी) अभिलाप (निरूपण) के आधार.. पर अव्यक्त रूप-रस-गन्ध-स्पर्श का ग्रहण भी (समझना चाहिए) इत्यादि। उसे भी मन में रख कर भाष्यकार भी अतिदेश (सादृश्य के आधार पर अन्य के भी ग्रहण का अनुसरण कर रूप आदि के . . अवग्रह का) कथन कर रहे हैं // 292 // सेसेसु वि रूवाइसु, विसएसु होति सूवलक्खाई। पायं पच्चासन्नत्तणेणमीहाइवत्थूणि // [(गाथा-अर्थ :) (शब्द से) शेष रूप आदि विषयों में भी (शब्द की तरह, ईहा आदि को) समझ लेना सुगम (या सम्यक्तया ज्ञेय) है, क्योंकि (वे) ईहा आदि भेद (प्रायः) प्रत्यासन्नता (किंचित् सादृश्य) के आधार पर (ही) होते हैं।] व्याख्याः - जिस प्रकार शब्द (के अवग्रह) के विषय में कहा है, उसी प्रकार शेष रूप आदि विषयों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। यद्यपि उनका (सूत्र में) साक्षात् कथन नहीं किया गया है, फिर भी पूर्वोक्त रूप से जिनकी प्रज्ञा विस्तृत विषय (को ग्रहण करने) वाली होती है- ऐसे चतुर मन (बुद्धि) वालों के लिए वे सुज्ञेय (सुगम या सम्यक्तया जानने योग्य) हैं। (प्रश्न-) कौन सुज्ञेय हैं? उत्तर दिया- (ईहादिभेदवस्तूनि)। आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद रूप जो ईहा आदि हैं, वे (सुगम) हैं। प्रायः प्रत्यासन्नता (सादृश्य) के आधार पर, अर्थात् नेत्र आदि से गृह्यमाण ढूंठ वृक्ष आदि, और a 424 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- अवग्रहे तावत् सामान्यमात्रग्राहकत्वाद् द्वितीयवस्त्वपेक्षाऽपि न विद्यते, ईहा पुनरुभयवस्त्ववलम्बिनी, तत्र पुरोदृश्यमानस्य वस्तुनो यत् प्रतिपक्षभूतं वस्तु तत्प्रायो बहुभिर्धमैः प्रत्यासन्नं ग्राह्यम्, न पुनरत्यन्तविलक्षणम्, पुरो हि मन्दमन्दप्रकाशे दूराद् दृश्यमाने स्थाण्वादौ 'किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा' इत्येवमेवेहा प्रवर्तते, ऊर्ध्वस्थानारोह-परिणाहतुल्यतादिभिः प्रायो बहुभिर्धमैं: पुरुषस्य स्थाणुप्रत्यासन्नत्वादिति। 'किमयं स्थाणुः, उष्ट्रो वा?' इत्येवं तु न प्रवर्तते, उष्ट्रस्य स्थाण्वपेक्षया प्रायोऽत्यन्तविलक्षणत्वात्। अत एव सामान्यमात्रग्राहि-अवग्रहोऽत्रादौ न कृतः, किन्तु 'ईहादीनि' इत्येवमुक्तम्, उभयवस्त्ववलम्बित्वेन ईहाया एव 'पायं पच्चासन्नत्तणेण' इति विशेषणस्य सफलत्वात्। अपायस्याऽपि 'स्थाणुरेवाऽयं, न पुरुषः' इत्यादिरूपेण प्रवृत्तेः किञ्चिद् विशेषणस्य सफलत्वादादिशब्दोऽप्यविरुद्धः॥ इति गाथार्थः // 292 // इह 'किं शब्द:, अशब्दो वा?' इति श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रत्यासन्नवस्तूपदर्शनं कृतमेव। अथाऽशेषचक्षुरादीन्द्रियाणां विषयभूतानि प्रत्यासन्नवस्तूनि क्रमेण प्रदर्शयति अगृह्यमाण पुरुष आदि के मध्य प्रायः अनेक ऐसे धर्म हैं जिनका आधार उनमें सादृश्य होता है, उस आधार पर ईहा आदि ज्ञेय (ग्राह्य) होते हैं किन्तु अत्यन्त विलक्षण वृक्ष और ऊंट में ईहा आदि ज्ञेय (ग्राह्य) नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है- अवग्रह चूंकि सामान्य मात्र का ग्राहक होता है, अतः उसमें द्वितीय वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु ईहा उभय वस्तु का अवलम्बन करती है। वहां जो वस्तु सामने दिखाई पड़ रही होती है, उसकी प्रतिपक्ष वस्तु जो प्रायः अनेक धर्मों से प्रत्यासन्न (सदृश) होती है, वही ग्राह्य होती है, न कि अत्यन्त विलक्षण (विरुद्ध) वस्तु ग्राह्य होती है। (जैसे-) सामने मन्द-मन्द रोशनी में दूर से ढूंठ वृक्ष आदि दिखाई पड़ा, उसमें 'यह कोई ढूंठ वृक्ष है या पुरुष है' इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त होती है, क्योंकि ऊंचाई, ऊपरी उभार, चौड़ाई आदि समानता आदि बहुत से धर्मों में प्रायः ढूंठ वृक्ष व पुरुष के साथ सादृश्य होता है। (इसलिए वहां) 'यह ढूंठ वृक्ष है या ऊंट है' इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि लूंठ वृक्ष की दृष्टि से ऊंट की प्रायः अत्यन्त विलक्षणता (भिन्नता, अ-सदृशता) होती है। इसीलिए सामान्यमात्रग्राही अवग्रह को यहां (ईहा आदि से) पूर्व में उल्लिखित नहीं किया, किन्तु 'ईहा आदि' यही कहा, क्योंकि उभय वस्तु को अवलम्बन करने वाली ईहा के लिए ही 'प्रायः प्रत्यासन्नता (सदृशता) के आधार पर' यह विशेषण सफल (सार्थक) होता है (अवग्रह के लिए नहीं)। अपाय की भी 'यह ढूंठ वृक्ष ही है, पुरुष नहीं' -इस रूप में प्रवृत्ति होती है, चूंकि वहां भी 'प्रत्यासन्नता आदि' विशेषण सफल है, अतः 'आदि' शब्द (के प्रयोग) में भी कोई विरोध नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 292 // यहां 'क्या शब्द है या अशब्द है' इस ईहा में श्रोत्र इन्द्रिय की सदृश वस्तु का निदर्शन किया जा चुका है। अब नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों के विषयभूत सदृश वस्तुओं को क्रम से बता रहे हैं ------ विशेषावश्यक भाष्य --------425 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाणु-पुरिसाइ-कुठु-प्पलाइ-संभियकरिल्ल-मंसाई। सप्पु-प्पलनालाइ व्व, समाणरूवाइविसयाई // 293 // [संस्कृतच्छाया:- स्थाणुपुरुषादि-कुष्ठोत्पलादि-संभृतकरीलमांसादि। सर्पोत्पलनालादिवत् समानरूपादिविषयाणि // ] 'ईहादिवस्तूनि सूपलक्ष्याणि' इत्युक्तम्। कथंभूतानि सन्ति पुनस्तानि सूपलक्ष्याणि?, इत्याह-समानः समानधर्मा रूपरसादिविषयो येषामीहादीनां तानि समानरूपादिविषयाणीति पूर्वगाथायां संबन्धः। कः पुनरमीषां समानधर्मा रूपादिविषयः?, इत्याहस्थाणु-पुरुषादिवदिति पर्यन्ते निर्दिष्टोऽपि विषयोपदर्शनाभिद्योतको वच्छब्दः सर्वत्र योज्यते। ततश्चक्षुरिन्द्रियप्रभवस्येहादेः स्थाणुपुरुषादिवत् समानधर्मा रूपविषयो द्रष्टव्यः। आदिशब्दात् 'किमियं शुक्तिका, रजतखण्डं वा?''मृगतृष्णिका, पयःपूरो वा?', 'रज्जुः, विषधरो वा?', इत्यादिपरिग्रहः / घ्राणेन्द्रियप्रभवस्येहादेः कुष्ठोत्पलादिवत् समानगन्धो विषयः, तत्र कुष्ठंगन्धिक-हट्टविक्रेयो वस्तुविशेषः, उत्पलं पद्मम.अनयोः किल समानो गन्धो भवति / तत ईदशेन गन्धेन 'किमिदं कुष्ठम्, उत्पलं वा?' इत्येवमीहाप्रवृत्तिः, आदिशब्दात मसाइ। - // 293 // थाणु-पुरिसाइ-कुठु-प्पलाइ-संभियकरिल्ल-मंसाई। सप्पु-प्पलनालाइ व्व, समाणरूवाइविसयाई॥ . . [(गाथा-अर्थ :) (समान रूप वालों में) ढूंठ वृक्ष व पुरुष इत्यादि, (समान गन्ध वालों में) कुष्ठ (वृक्ष या वनस्पति विशेष, कूठ, पाकल) व पद्म (कमल), (समान रस वालों में) संस्कारित (साफ कर मसाले आदि मिलाये हुए वंशकरील व मांस, तथा (समान स्पर्श वालों में) सर्प व पद्मनाल -ये (क्रमशः) समान रूप (गन्ध, रस व स्पर्श) आदि के विषय होते हैं।] व्याख्याः- ईहा आदि भेद 'सूपलक्ष्य' (सम्यक्तया ज्ञेय) हैं- यह (पूर्व गाथा-292 में) कहा गया है। (प्रश्न-) वे 'सूपलक्ष्य' किस प्रकार हैं? उत्तर दिया- (समानरूपादिविषयाणि)। वे ईहा आदि (वस्तु-भेद) 'रस आदि समान धर्मी विषय' वाले होते हैं- इस कथन को पूर्व गाथा में जोड़ना चाहिए। (प्रश्न-) इन (ईहा आदि) के 'समानधर्मी रूपादि विषय' कौन-कौन से हैं? उत्तर दिया(स्थाणुपुरुषादि...वत्)। (यद्यपि) 'वत्' यह प्रत्यय अन्त में ('उत्पलनाल' शब्द के बाद) प्रयुक्त है, तथापि विषय को निर्दिष्ट करने वाले ‘वत्' प्रत्यय का योग सर्वत्र (स्थाणु-पुरुषादि, कुष्ठोत्पलादि इत्यादि सभी में करते हुए स्थाणुपुरुषादि की तरह इत्यादि अर्थ) करणीय है। फलस्वरूप (अर्थ यह है-) नेत्र आदि इन्द्रियों से होने वाले ईहा आदि ज्ञान का स्थाणु-पुरुष आदि की तरह समानधर्मी रूप आदि विषय होते हैं- यह समझना चाहिए। 'आदि' शब्द से 'यह क्या सीप है या चांदी का टुकड़ा', 'मृगतृष्णा है या जलप्रवाह है', 'रस्सी है या सांप है' इत्यादि (ईहा-स्वरूपों) का भी ग्रहण होता है। घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ईहादि ज्ञान के कुष्ठ व उत्पल आदि की तरह 'समानगन्धधर्मी विषय' होते हैं। यहां कुष्ठ (एक वृक्ष, वनस्पति विशेष) इत्र के बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु होती है और उत्पल का अर्थ पद्म (कमल) है। इन दोनों की गन्ध समान होती है। जब वैसी ही गन्ध (अनुभूत) होती है, Maa 426 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "किमत्र सप्तच्छदाः, मत्तकरिणो वा?', 'कस्तूरिका, वनगजमदो वा?' इत्यादिपरिग्रहः। रसनेन्द्रियप्रभवस्येहादेः संभृतकरील- - मांसादिवत् समानरसो विषयः। तत्र संभृतानि संस्कृतानि संधानीकृतान्युद्धृतानि यानि वंशजालिसंबन्धीनि करीलानि, तथा मांसम्, अनयोः किलाऽऽस्वादः समानो भवति। ततोऽन्धकारादावन्यतरस्मिन् जिह्वाग्रप्रदत्ते भवत्येवम्- 'किमिदं संभृतवंशकरीलम्, आमिषं वा?' इति, आदिशब्दाद् 'गुडः,खण्डं वा?', 'मृद्वीका, शुष्कराजादनं वा?' इत्यादिपरिग्रहः। स्पर्शनेन्द्रियप्रभवस्येहादे: सर्पोत्पलनालादिवत् समानस्पर्शो विषयः, सर्पोत्पलनालयोश्च तुल्यस्पर्शत्वेनेहाप्रवृत्तिः सुगमैव, आदिशब्दात् स्त्री-पुरुष-लेष्ट्रपलादिसमानस्पर्शवस्तुपरिग्रहः॥ इति गाथार्थः॥२९३॥ अथ यदुक्तं सूत्रे- ‘से जहानानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासेज्जा' इत्यादि, तदनुसृत्य स्वप्ने मनसोऽप्यवग्रहादीन् दर्शयन्नाह एवं चिय सिमिणादिसु मणसो सद्दाइएसु विसएसु। होंतिंदियवावाराभावे वि अवग्गहाईया॥२९४॥ तब 'यह कुष्ठ है या कमल है?' -इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त होती है। 'आदि' शब्द से 'क्या यह सप्तच्छद (सप्तपर्णी) है या मतवाले हाथी हैं?', या 'क्या यह कस्तूरी है या जंगली हाथी का मद है?' इत्यादि (उदाहरणों) का भी ग्रहण होता है। (इसी प्रकार,) रसनेन्द्रिय से होने वाले ईहा आदि ज्ञान के, संस्कारित (वंश) करील व मांस आदि की तरह, समानरसधर्मी विषय होते हैं। साफ कर उपयुक्त पदार्थों (मसाले आदि) के मिश्रण से परिष्कृत व चटपटा बनाया हुआ वंशकरील नामक बांस की जाली वाला एक खाद्य पदार्थ होता है, उसका और मांस का, दोनों का स्वाद एक जैसा होता है। इसलिए, अन्धकार आदि में, (इन दोनों में से किसी एक को जिव्हा के अग्रभाग पर रखा जाय तो इस प्रकार ईहा होती है कि 'क्या यह मसालेदार चटपटा वंशकरील है या मांस है?' | आदि शब्द से 'यह गुड़ है या खांड है?', 'यह द्राक्षा है या कोई सूखा ‘राजादन' (रायण, चिरौंजी, पियाल) है?' . इत्यादि (उदाहरणों) का भी ग्रहण होता है। स्पर्शनेन्द्रिय से होने वाले ईहा आदि ज्ञान के सर्प व कमलनाल आदि की तरह 'समानस्पर्शधर्मी विषय' होते हैं। सर्प व कमलनाल -इन दोनों का स्पर्श एक जैसा होता है. इसलिए ईहा की प्रवत्ति सगम ही है अर्थात 'यह सर्प है या कमलनाल? यह ईहा होती है। आदि शब्द से स्त्री व पुरुष, ढेले व पत्थर आदि जैसे समान स्पर्श वाली वस्तुओं (के उदाहरणों) का भी ग्रहण होता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 293 // ___ अब, जो सूत्र में कहा गया है कि 'कोई यथानाम कोई पुरुष अव्यक्त शब्द को सुने' इत्यादि, उसका अनुसरण करते हुए स्वप्न में होने वाले मानसिक अवग्रह आदि का भी निदर्शन (भाष्यकार) ... कर रहे हैं // 294 // एवं चिय सिमिणादिसु मणसो सद्दाइएसु विसएसु। होंतिंदियवावाराभावे वि अवग्गहाईया | .----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 427 - Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:- एवमेव स्वप्नादिषु मनसः शब्दादिषु विषयेषु / भवन्ति इन्द्रिय-व्यापाराभावेऽपि अवग्रहादयः॥] एवमेवोक्तानुसारेणेन्द्रियव्यापाराभावेऽपि स्वप्नादिषु, आदिशब्दाद् दत्तकपाट-सान्धकाराऽपवरकादीनीन्द्रियव्यापाराभाववन्ति स्थानानि गृह्यन्ते, तेषु केवलस्यैव मनसो मन्यमानेषु शब्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽवग्रहेहाऽपायधारणा भवन्तीति स्वयमभ्यूह्याः। तथाहिंस्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षामात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्दे प्रथमं सामान्यमात्रोत्प्रेक्षायामवग्रहः, 'किमयं शब्दः, अशब्दो वा?' इत्याद्युत्प्रेक्षायां त्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपायः, तदनन्तरं तु धारणा। एवं देवतादिरूपे, कर्पूरादिगन्धे, मोदकादिरसे, कामिनीकुचकलशादिस्पर्श चोत्प्रेक्ष्यमाणेऽवग्रहादयो मनस: केवलस्य भावनीयाः॥ इति गाथार्थः / / 294 // आह- नन्वेतेऽवग्रहादय उत्क्रमेण, व्यतिक्रमेण वा किमिति न भवन्ति, यद्वा, ईहादयस्त्रयः, द्वौ, एको वा किं नाऽभ्युपगम्यन्ते, यावत् सर्वेऽप्यभ्युपगम्यन्ते?, इत्याशङ्क्याह [(गाथा-अर्थ :) इसी प्रकार, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय-व्यापार के न होने पर भी, मन के शब्द आदि विषयों में अवग्रह आदि होते हैं।] व्याख्याः- (एवमेव) इसी पूर्वोक्त रीति से, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय के व्यापार न होने पर भी। 'आदि' पद से इनका ग्रहण किया जाता है- बन्द दरवाजे वाले स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में, दीवार या परदे आदि से ढके स्थान में, जहां इन्द्रिय-व्यापार का अभाव होता है (मानसिक अवग्रहादि होते हैं)। इनमें केवल मन का ही व्यापार होना माना जाता है (अर्थात् इन्द्रिय-प्रवृत्ति का प्रायः अपेक्षाकृत अभाव होता है), अतः (उस स्थिति में भी) शब्दादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा का सद्भाव होता है, जिनका (स्वरूपादि सम्बन्धी) विचार स्वयं कर लेना चाहिए। जैसे- स्वप्न आदि में चित्त की उत्प्रेक्षा (कल्पना) मात्र से गीत आदि शब्द सुनाई दे रहे हों तो (उक्त मनःकृत) उत्प्रेक्षा में प्रथमतया 'सामान्य' मात्र का अवग्रह होता है, फिर 'क्या यह शब्द है या अशब्द है?' इत्यादि उत्प्रेक्षा रूप में 'ईहा' होती है। शब्द-सम्बन्धी निश्चय होने पर अपाय, और उसके बाद धारणा होती है। इसी प्रकार, (स्वप्न में) देवता आदि के रूप दर्शन की, कर्पूर आदि पदार्थों के गन्ध-अनुभूति की, मोदक आदि के रस-आस्वादन की, स्त्री के साथ स्तनकलश आदि के स्पर्श-सुख की उत्प्रेक्षा होती है, तो केवल मन के अवग्रह आदि ज्ञानों का होना समझ लेना चाहिए // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 294 // (अवग्रह आदि की क्रमवर्तिता) पूर्वपक्षी ने शंका प्रस्तुत की -ये (मात्र मनःकृत, मानसिक,) अवग्रह आदि उत्क्रम से या व्यतिक्रम से क्यों नहीं होते? अथवा ईहा आदि तीन का ही, या (इन किन्हीं में) दो का ही, या (किसी) एक का ही होना क्यों नहीं माना जाता? क्यों सभी (अवग्रह आदि चारों) का होना माना जाता है? उक्त शंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार) कह रहे हैं a 428 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ... Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कमओऽइक्कमओ, एगाभावेऽवि वा न वत्थुस्स। जं सब्भावाहिगमो, तो सव्वे नियमियक्कमा य॥२९५॥ [संस्कृतच्छाया:- उत्क्रमतः, अतिक्रमतः एकाभावेऽपि वा न वस्तुनः। यत् स्वभावाधिगमः ततः सर्वे नियमितक्रमाश्च // ] एषामवग्रहादीनामुत्क्रमेणोत्क्रमतः, अतिक्रमेणाऽतिक्रमतः, अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वादेकस्याऽप्यभावे वा यस्माद् न वस्तुनः सद्भावाऽधिगमः, तस्मात् सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्याः, तथा नियमितक्रमाश्च- सूत्रनिर्दिष्टपरिपाट्यन्विताश्च 'भवन्त्येतेऽवग्रहादयः' इति प्रक्रमाल्लभ्यते॥ इत्यक्षरयोजना॥ भावार्थस्तूच्यते-तत्र पश्चानुपूर्वी भवनमुत्क्रमः, अनानुपूर्वीभवनं त्वतिक्रमः, कदाचिदवग्रहमतिक्रम्येहा, तामप्यतिलठ्याऽपायः, तमप्यतिवृत्त्य धारणेति, एवमनानुपूर्वीरूपोऽतिक्रम इत्यर्थः। एताभ्यामुत्क्रम-व्यतिक्रमाभ्यां तावदवग्रहादिभिर्वस्तुस्वरूपं नावगम्यते। तथा, एषां मध्ये एकस्याऽप्यन्यतरस्याऽभावे वैकल्येन वस्तुस्वभावावबोध इत्यसकृदुक्तप्रायमेव। ततः सर्वेऽप्यमी एष्टव्याः,न त्वेकः द्वौ. त्रयो वेत्यर्थः। // 295 // उक्कमओऽइक्कमओ, एगाभावेऽवि वा न वत्थुस्स / जं सब्भावाहिगमो, तो सव्वे नियमियक्कमा य॥ ___ [(गाथा-अर्थ :) चूंकि उत्क्रम से, या अतिक्रम से, या (अवग्रह आदि चारों में से) किसी एक का भी अभाव होने पर वस्तु के सद्भाव का ज्ञान नहीं होता, इसलिए सभी (अवग्रह आदि चारों होते हैं और वे) नियत क्रम से ही होते हैं।] - व्याख्याः - (उत्क्रमतः, अतिक्रमतः)। इन अवग्रह आदि (चारों) का उत्क्रम से या अतिक्रम से / 'अपि' (भी) शब्द से यह सूचित होता है कि भिन्न क्रम होने के कारण, या (चारों में से) एक का भी.अभाव होने से, चूंकि वस्तु के सद्भाव का बोध नहीं होता है, इसलिए (अवग्रह आदि) सभी चारों का होना अपेक्षित (आवश्यक) है, तथा ये अवग्रह आदि नियत क्रम से होते हैं, और सूत्र में निर्दिष्ट परिपाटी (क्रम) से युक्त होते हैं- यह प्रकरणवश अर्थ उपलब्ध होता है। यह प्रस्तुत गाथा की अक्षरशः योजना (के अनुसार अर्थ-व्याख्या) हुई। अब भावार्थ कहा जा रहा है- उत्क्रम का अर्थ है-क्रम का उलट जाना (अन्त से पीछे जाने का क्रम), और अतिक्रम का अर्थ है- आनुपूर्वी (नियत क्रम) का न होना, (जैसे-) कभी अवग्रह का अतिक्रमण कर ईहा का होना, (कभी) ईहा को भी लांघ कर अपाय का हो जाना, (कभी) उस (अपाय) का भी अतिक्रमण कर धारणा का होना / और इनके मध्य में किसी एक का भी अभाव हो जाता है तो अपरिपूर्ण रूप से वस्तु-स्वभाव का बोध होता है -इसे हम कई बार कह चुके हैं। इसलिए ये सभी होने चाहिएं, न कि एक, या दो, या तीन -यह भाव है। ------ विशेषावश्यक भाष्य -------- 429 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'उग्गहो ईह अवाओ य धारणा एव होति चत्तारि' इत्यस्यां गाथायां यथैवकारेण पूर्वमेतेषां नियमितः क्रमः, . तथैवैते नियमितक्रमा भवन्ति, नोत्क्रमाऽतिक्रमाभ्यामिति भावः॥ इति गाथार्थः // 295 // अथोत्क्रमाऽतिक्रमयोः, एकादिवैकल्ये चावग्रहादीनां वस्त्वधिगमाभावे युक्तिमाह ईहिज्जइ नाऽगहिअं, नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं। धारिज्जइ जं वत्थु, तेण कमोऽवग्गहाई उ॥२९६॥ [संस्कृतच्छाया:- ईह्यते न अगृहीतं, ज्ञायते न अनीहितं, न चाज्ञातम्। धार्यते, यद् वस्तु, तेन क्रमोऽवग्रहादिषु॥] यस्मादवग्रहेणाऽगृहीतं वस्तु नेह्यते-न तत्रेहा प्रवर्तते, ईहाया विचाररूपत्वात्, अगृहीते च वस्तुनि निरास्पदत्वेन विचाराऽयोगादिति भावः। तदनेन कारणेनाऽऽदाववग्रहं निर्दिश्य पश्चादीहा निर्दिष्टा / न चाऽनीहितमविचारितं ज्ञायते- अपायविषयतां याति, अपायस्य निश्चयरूपत्वात्, निश्चयस्य च विचारपूर्वकत्वादिति हृदयम् / एतदभिप्रायवता चाऽपायस्याऽऽदावीहा निर्दिष्टेति।न पहले इस गाथा (सं.178) में ‘एव' (ही) इस पद से जो नियत क्रम बताया गया था, उसी के अनुसार, ये नियत क्रम से होते हैं, उत्क्रम व अतिक्रम से नहीं -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 295 // अब, उत्क्रम व अतिक्रम में या किसी एक के भी न होने से अवग्रह आदि द्वारा वस्तु-ज्ञान नहीं हो पाता -इसमें क्या युक्ति है -इसे बता रहे हैं // 296 // ईहिज्जइ नाऽगहिअं, नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं। धारिज्जइ जं वत्थु, तेण कमोऽवग्गहाई उ // [(गाथा-अर्थ :) चूंकि बिना (अवग्रह से) गृहीत हुए कोई वस्तु ईहा की विषय नहीं होती, बिना ईहा के (निश्चय रूप से) वस्तु ज्ञात नहीं होती (अर्थात् उसका अपाय नहीं होता), (अपाय द्वारा निश्चित रूप से) वस्तु ज्ञात न हो तो उसकी धारणा नहीं होती, इसलिए अवग्रह आदि क्रम (पूर्वक) ही (होते) हैं।] व्याख्याः - (ईह्यते न)। चूंकि अवग्रह से जो वस्तु गृहीत नहीं हो पाती है, वह ईहित नहीं होती। तात्पर्य यह है कि वहां ईहा प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि ईहा विचार (विमर्श) रूप होती है, और अगृहीत वस्तु, चूंकि आश्रयणीय नहीं होती, इसलिए उस सम्बन्ध में विचार-विमर्श (ईहा) का होना संभव नहीं होता। इसलिए, उक्त कारण से, (मतिज्ञान के क्रमों के) आदि में अवग्रह का निर्देश कर, बाद में ईहा का निर्देश किया गया है। (न अनीहितम्) / जो (वस्तु) अनीहित हो, जिसकी ईहा नहीं हुई हो, विचार (विमर्श) नहीं हुआ हो, वह ज्ञान का, अर्थात् 'अपाय' का विषय नहीं होती, क्योंकि 'अपाय' निश्चय रूप होता है, और निश्चय विचारपूर्वक (ही) होता है- यह तात्पर्य है। इसी अभिप्राय से अपाय के पहले ईहा का निर्देश किया गया है। (इसी प्रकार) जो (वस्तु) अज्ञात है, अपाय द्वारा a 430 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाऽज्ञातम्-अपायेनाऽनिश्चितं, धार्यते धारणाविषयीभवति, वस्तुधारणाया अर्थावधारणरूपत्वात्, अवधारणस्य च निश्चयमन्तरेणाऽयोगादित्यभिप्रायः। ततश्च धारणादावपायः। ततः किम्?, इत्याह- तेनाऽवग्रहादिरेव क्रमो न्याय्यः, नोत्क्रमाऽतिक्रमौ, यथोक्तन्यायेन वस्त्ववगमाभावप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 296 // तदेवं निराकृतौ सयुक्तिकमुत्क्रमाऽतिक्रमौ। अथ यदुक्तम्- 'एगाभावे वि वा न वत्थुस्स जं सब्भावाहिगमो तो सव्वेत्ति', तत्रापीयमेव युक्तिरिति दर्शयन्नाह एतो च्चिय ते सव्वे, भवंति भिन्ना य णेव समकालं। न वइक्कमो य तेसिं, न अन्नहा नेयसब्भावो॥२९७॥ [संस्कृतच्छाया:- एतस्मादेव ते सर्वे भवन्ति भिन्नाश्च नैव समकालम्। न व्यतिक्रमश्च तेषां नान्यथा ज्ञेयसद्भावः॥] निश्चित नहीं हो पाई है, वह वस्तु 'धारित' -धारणा का विषय नहीं होती, क्योंकि वस्तु-विषयक धारणा अर्थ-अवधारण रूप होती है, और अवधारण निश्चय हुए बिना नहीं होता -यह अभिप्राय है। इसीलिए धारणा से पहले अपाय का निर्देश किया गया है। (प्रश्न-) इस (पूर्वकृत व्याख्यान) से आप क्या कहना चाहते हैं? उत्तर दिया- इसलिए अवग्रह आदि का (जैसा बताया गया है, वह) क्रम ही न्यायोचित है, उनका उत्क्रम व अतिक्रम न्यायसंगत नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त न्याय (रीति) से (उत्क्रम व अतिक्रम के होने पर) वस्तु-विषयक बोध का (ही) अभाव हो जाएगा। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 296 // (ज्ञेय का स्वभाव भी अवग्रहादि की क्रमवर्तिता में अनुकूल) .. इस प्रकार, युक्तिपूर्वक (अवग्रह आदि के) उत्क्रम व अतिक्रम का निराकरण कर दिया . , गया। अब, (गाथा सं. 295 में) जो यह कहा गया था- 'एक के अभाव में भी वस्तु के सद्भाव का ज्ञान नहीं होता, इसलिए सभी का होना उचित है' -इसमें भी वही युक्ति है (जिसका आश्रय लेकर स्वमत का समर्थन करना चाहिए)-इसी बात को स्पष्ट किया जा रहा है- . // 297 // एतो च्चिय ते सव्वे, भवंति भिन्ना य णेव समकालं / न वइक्कमो य तेसिं, न अन्नहा नेयसब्भावो // _[(गाथा-अर्थ :) इसी कारण (पूर्वोक्त युक्ति) से, वे (अवग्रह आदि) सभी (चारों) होते हैं, वे भिन्न-भिन्न रूप से होते है, समकाल में (एक साथ) नहीं होते। उनका व्यतिक्रम भी नहीं होता, और (इसके अतिरिक्त) ज्ञेय का स्वभाव भी वैसा नहीं है (कि वह ज्ञेय अवग्रहादि के उत्क्रम-अतिक्रम आदि से ज्ञान का विषय बने)।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------431 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत एव 'नाऽगृहीतमीह्यते' इत्याधुक्तम्, एतस्मादेव च तेऽवग्रहादयः सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्या भवन्ति, उक्तन्यायाद, नैकवैकल्येऽपि मतिज्ञानं संपद्यत इत्यर्थः। 'पूर्वमवगृहीतमीह्यते' इत्याधुक्तेरेव च ते भिन्नाः- परस्परमसंकीर्णा :, उत्तरोत्तराऽपूर्वभिन्नवस्तुपर्यायग्रहणादिति। 'नाऽगृहीतमीह्यते' इत्याद्युक्तेरेव च न ते समकालं, भिन्नाः सिद्धास्तेऽवग्रहादयः समकालमपि नैव भवन्ति, युगपन्न जायन्त इत्यर्थः। पूर्वमवगृहीतमेवोत्तरकालमीह्यते, ईहोत्तरकालमेव च निश्चीयते इत्याधुक्तन्यायेनैवावग्रहादीनामुत्पत्तिकालस्य भिन्नत्वाद् न युगपत् संभव इति भावः। उक्तयुक्तरेव च तेषां न व्यतिक्रमः, उपलक्षणत्वाद् 'नाऽप्युत्क्रमः' इत्यपि द्रष्टव्यम्। एतच्च ‘तेण कमोऽवग्गहाई उ' इत्यनन्तरगाथाचरमपादेन सामर्थ्यादुक्तमपि प्रस्तावात् पुनरपि साक्षादुक्तम्, इत्यदोषः। तदेवं ईहिज्जइ नागहियं' इत्यादियुक्तेर्यथोक्तधर्मका एवाऽवग्रहादयः, न विपर्ययधर्माण इति साधितम्। अथ ज्ञेयवशेनाऽप्येषां यथोक्तधर्मकत्वं सिसाधयिषरिदमाह-'न अन्नहा नेयसब्भावो त्ति'। ज्ञेयस्याऽप्यवग्रहादिग्राह्यस्य शब्द-रूपादेर्नान्यथा स्वभावोऽस्ति, येनाऽवग्रहादयस्तद्ग्राहका यथोक्तरूपतां परित्यज्याऽन्यथा भवेयुरित्यर्थः। . ___ व्याख्याः- 'चूंकि अवग्रह से गृहीत न होने पर, उसकी ईहा नहीं होती' -इत्यादि जो कहा गया है, उसी युक्ति के आधार पर उन सभी अवग्रह आदि चारों ही (मति ज्ञानों) का सद्भाव मानना पड़ेगा, अर्थात् उक्त न्याय (युक्ति, रीति) से किसी एक के भी अभाव में मतिज्ञान सम्पन्न नहीं होता है (यह निश्चित होता है)। 'पूर्व में गृहीत की ही ईहा होती है' -इत्यादि युक्ति के आधार ही, वे (अवग्रहादि) भिन्न-भिन्न रूप से, परस्पर-असंकीर्ण, पृथक्-पृथक् (अपने-अपने काल में) होते हैं, क्योंकि वे उत्तरोत्तर अपूर्व व भिन्न-भिन्न वस्तु-पर्यायों को ग्रहण करते हैं। 'अवग्रह-गृहीत न होने पर ही (यह सिद्धान्त स्थिर होता है कि) वे समकाल में भी नहीं होतें हैं, अर्थात् परस्पर भिन्न सिद्ध होने वाले वे अवग्रह आदि (चारों) एक ही समय में भी नहीं होते। 'पूर्व में अवग्रह-गृहीत वस्तु ही उत्तरकाल में ईहा का विषय होती है और ईहा के उत्तरकाल में ही निश्चय (अपाय) होता है' -इत्यादि उक्त व्याय (रीति) से ही (यह सिद्ध होता है कि) अवग्रह आदि के उत्पत्ति-काल के परस्पर भिन्न होने से, उनका एक साथ होना संभव नहीं -यह भाव है। पूर्वोक्त युक्ति के आधार पर ही (यह सिद्ध होता है कि) उनका व्यतिक्रम नहीं होता। यहां 'व्यतिक्रम' उपलक्षण-कथन है, अतः उनका उत्क्रम भी नहीं होता -यह अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इसलिए अवग्रह आदि क्रम से (ही) होते हैं' इत्यादि रूप से पूर्व गाथा (296) में अन्तिम चरण द्वारा सामर्थ्य से (स्पष्ट शब्दों के माध्यम से) यही कथन कर भी दिया गया था, किन्तु प्रकरणानुसार उसी बात को यहां पुनः साक्षात् कहा गया है, इसलिए कोई दोष नहीं है। इस प्रकार, 'अवग्रह-गृहीत न हो तो उसकी ईहा नहीं होती' इत्यादि युक्ति के आधार पर, अवग्रह आदि यथोक्त धर्म वाले ही हैं, विपरीत धर्म वाले नहीं हैं -यह भी सिद्ध हो जाता है। अब, 'ये (अवग्रह आदि) यथोक्त धर्म वाले ही ही होते हैं' -इस तथ्य को 'ज्ञेय' होने के आधार पर सिद्ध करने की इच्छा से यह कहा जा रहा है- (न अन्यथा ज्ञेयसद्भावः इति)। अर्थात् अवग्रह आदि से ग्राह्य होने वाले शब्द व रूप आदि का भी विपरीत (उक्त उत्क्रम व अतिक्रम से होने वाले अवग्रह आदि के विषय होने का) स्वभाव नहीं है कि उनके ग्राहक ये अवग्रह आदि अपने पूर्वोक्त धर्म को छोड़ कर अन्य रूप (विपरीत धर्म वाले) हो जाएं। Via 432 -------- विशेषावश्यक भाष्य Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- ज्ञेयस्याऽपि शब्दादेः स स्वभावो नास्ति, य एतैरवग्रहादिभिरेकादिविकलैरभिन्नैः, समकालभाविभिः. उत्क्रमाऽतिक्रमवद्भिश्चाऽवगम्येत, किन्तु शब्दादिज्ञेयस्वभावोऽपि तथैव व्यवस्थितो यथाऽमीभिः सर्वैर्भिन्नैः, असमकालैः, उत्क्रमाऽतिक्रमरहितैश्च संपूर्णो यथावस्थितश्चाऽवगम्यते, अतो ज्ञेयवशेनाऽप्येते यथोक्तरूपा एव भवन्ति। तदेवं'उक्कमओऽइक्कमओ एगाभावे विवा' इत्यादिगाथोक्तं प्रसङ्गतोऽन्यदपि भिन्नत्वम्, असमकालत्वं च समर्थितम् // इति गाथार्थः // 297 // अत्र परः प्राह अब्भत्थेऽवाओ च्चिय, कत्थइ लक्खिज्जए इमो पुरिसो। अन्नत्थ धारण च्चिय, पुरोवलद्धे इमं तं ति॥२९८॥ [संस्कृतच्छाया:- अभ्यस्ते अपाय एव क्वचित् लक्ष्यते असौ पुरुषः। अन्यत्र धारणैव पुरोपलब्धे इदं तद् इति // ] स्वभ्यस्तेऽनवरतं दृष्टपूर्वे, विकल्पिते, भाषिते च विषये पुनः क्वचित् कदाचिदवलोकितेऽवग्रहेहाद्वयमतिक्रम्य प्रथमतोऽप्यपाय एव लक्ष्यतेऽनुभूयते निर्विवादमशेषैरपि जन्तुभिः, यथा 'असौ पुरुषः' इति / अन्यत्र पुनः क्वचित् पूर्वोपलब्धे सुनिश्चिते दृढवासने - तात्पर्य यह है -ज्ञेय (ज्ञान के विषय होने वाले) शब्द आदि का भी यह स्वभाव नहीं है जो इन अवग्रह आदि में से किसी एक से या उनकी विकलता में अर्थात् चारों में से किसी एक का भी अभाव होने से, या उनकी अभिन्नता (संकीर्णता) की स्थिति में, एक समय में या उत्क्रम या व्यतिक्रम से होने वाले अवग्रह आदि से ज्ञेय हो जाएं। किन्तु शब्दादि का ज्ञेय होने का स्वभाव भी इस प्रकार व्यवस्थित (निश्चित) है कि वे इन सभी भिन्न-भिन्न, पृथक्-पृथक् समय में होने वाले, उत्क्रम व अतिक्रम से रहित अवग्रहादि से (ही) संपूर्णतया व यथार्थ रूप में ज्ञेय होते हैं। इसीलिए 'ज्ञेय' पदार्थ के (उसके अपने स्वभाव की विवशता के) कारण भी, ये अवग्रह आदि पूर्वोक्त स्वरूप वाले ही होते हैं। इस प्रकार, 'उत्क्रम से या अतिक्रम से, या एक के भी अभाव होने से' इत्यादि पूर्व गाथा (295) में कहे गये का तथा प्रसंगानुरूप उनकी भिन्नता का एवं उनके अलग-अलग समय में होने का समर्थन किया गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 297 // . अब पूर्वपक्षी का कथन इस प्रकार है // 298 // अब्भत्थेऽवाओ च्चिय, कत्थइ लक्खिज्जए इमो पुरिसो। अन्नत्थ धारण च्चिय, पुरोवलद्धे इमं तं ति // - [(गाथा-अर्थ :) अभ्यस्त विषय में कभी (देखने की क्रिया में) 'यह पुरुष है' इस प्रकार अपाय का ही होना अनुभूति में आता है। (कभी) पूर्वज्ञात वस्तु सामने (पुनः) उपलब्ध हो तो 'यह वह है' -ऐसी धारणा ही होती है (अतः चारों का ही होना जो आपने कहा, वह खंडित हो जाता है)।] व्याख्याः- जो निरन्तर पहले देखा जा चुका है, विकल्प का विषय भी हो चुका है और उसके बारे में कहा भी जा चुका है, ऐसे सम्यक् अभ्यस्त (परिचित) विषय में, जब वह पुनः कहीं कभी देखा ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----433 र Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयेऽवग्रहेहाऽपायानतिलछ्य स्मृतिरूपा धारणैव लक्ष्यते, यथा 'इदं तद् वस्तु यदस्माभिः पूर्वमुपलब्धम्' इति / तत् कथमुच्यते- . उत्क्रमाऽतिक्रमाभ्याम्, एकादिवैकल्ये चन वस्तुसद्भावाधिगमः? इदं च कथमभिधीयते- 'ईहिजइ नागहियं' इत्यादि? इति प्रेरकाऽभिप्रायः॥ इति गाथार्थः॥२९८॥ भ्रान्तोऽयमनुभव इति दर्शयन्नाह उप्पलदलसयवेहे व्व दुविभावत्तणेण पडिहाइ। समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे विसयाणमुवलद्धी।।२९९॥ [संस्कृतच्छाया:- उत्पलदलशतवेध इव दुर्विभावत्वेन प्रतिभाति / समयं वा शुष्कशष्कुलीदशने विषयाणामुपलब्धिः॥] 'क्वचित् प्रथममेवाऽपायः, क्वचितु धारणैव' इति यत् त्वया प्रेर्यते, तत् 'प्रतिभाति' इत्यनन्तरगाथोक्तेन संबन्धः। केनैतत् प्रतिभाति?, इत्याह- दुःखेन विभाव्यते दुर्विभावो दुर्लक्ष्यस्तद्भावस्तत्त्वं तेन दुविर्भावत्वेन-दुर्लक्ष्यत्वेन 'अवग्रहादिकालस्य' इति गम्यते। कस्मिन्निव? इत्याह- उत्पलं पद्यं तस्य दलानि पत्राणि तेषां शतं तस्य सूच्यादिना वेधनं वेधस्तस्मिन्निव। .. जाय, तो (वहां) अवग्रह व ईहा -इन दोनों का अतिक्रम होकर पहले अपाय ही होता हुआ दिखाई पड़ता है और ऐसा समस्त प्राणियों द्वारा निर्विवाद रूप से अनुभूत भी होता है कि 'यह पुरुष है'। अन्य (अपरिचित) स्थल पर, जिसका सम्यक् निश्चय हो चुका हो, और वासना दृढ़ हो चुकी हो, ऐसे पूर्व उपलब्ध विषय में कहीं अवग्रह, ईहा व अपाय का अतिक्रमण कर स्मृति रूप इस धारणा का होना ही परिलक्षित होता है कि 'जैसे यह वह वस्तु है जो हमने पूर्व में ज्ञात की थी। तब, ऐसी स्थिति में आप यह कैसे कह रहे हैं कि अवग्रह आदि में उत्क्रम व अतिक्रम होने पर या किसी एक का भी अभाव होने पर, वस्तु के सद्भाव का निश्चय नहीं होता? ऐसा कैसे कह रहे हैं कि 'अवग्रह से अगृहीत की ईहा नहीं होती' इत्यादि। यह प्रश्नकर्ता (पूर्वपक्षी) का अभिप्राय है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 298 // (पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत) यह अनुभव भ्रमपूर्ण है- इसे (भाष्यकार) स्पष्ट कर रहे हैं __ // 299 // . उप्पलदलसयवेहे व्व दुविभावत्तणेण पडिहाइ। समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे विसयाणमुवलद्धी।। __[(गाथा-अर्थ :) (अवग्रह आदि चारों सर्वत्र होते हैं, किन्तु इनमें से किसी के न होने की या आगे-पीछे होने की भ्रान्त प्रतीति इसलिए होती है कि अवग्रह आदि का) काल दुर्लक्ष्य होने से, कमल के सौ पत्तों के भेदने की तरह, अथवा सूखी पूड़ी के खाने में (सभी शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-इन) विषयों की होने वाली उपलब्धि की तरह (धान्त) प्रतीति होती है] व्याख्याः- 'कहीं' पहले ही अपाय, तो कहीं धारणा ही हो जाती है'- यह जो आपने आक्षेप प्रस्तुत किया, इस वाक्य का वहीं गाथा में पहले आए 'प्रतीत होता है' (प्रतिभाति) के साथ सम्बन्ध Ma 434 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदमुक्तं भवति- यथा तरुणः समर्थपुरुषः पद्मपत्रशतस्य सूच्यादिना वेधं कुर्वाण एवं मन्यते- मयैतानि युगपद् विद्धानि। अथ च प्रतिपत्रं तानि कालभेदेनैव भिद्यन्ते, न चाऽसौ तं कालमतिसौक्ष्म्या भेदेनाऽवबुध्यते, एवमत्राऽप्यवग्रहादिकालस्याऽतिसूक्ष्मतया दुर्विभावनीयत्वेनाऽप्रतिभासः, न पुनरसत्त्वेन। ईहादयो ह्यन्यत्र क्वचित् तावत् स्फुटमेवाऽनुभूयन्ते, यत्राऽपि स्वसंवेदनेन नाऽनुभूयन्ते, तत्राऽपि 'ईहिजड़ नागहियं नजइ नाणीहियं' इत्यादि प्रागसकृदभिहितयुक्तिकलापादवसेयाः। तस्मादुत्पलदलशतवेधोदाहरणेन भ्रान्त एवाऽयं प्रथमत एवाऽपायादिप्रतिभासः। अथोदाहरणान्तरेणाऽप्यस्य भ्रान्ततामुपदर्शयति- 'समयं वेत्यादि'। 'वा' इत्यथवा, यथा शुष्कशष्कुलीदशने समयं युगपदेव सर्वेन्द्रियविषयाणां शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानामुपलब्धिःप्रतिभाति, तथैषोऽपि प्राथम्येनाऽपायादिप्रतिभासः। है। (प्रश्न-) यह किस कारण से (वैसा) प्रतीत होता है? उत्तर दिया- (दुर्विभावत्वेन)। अवग्रह आदि के दुर्लक्ष्य होने से, यहां अवग्रह आदि के काल की दुर्लक्ष्यता का संकेत है- यह समझ में आ जाता है। (प्रश्न) कहां की तरह? उत्तर दिया- (उत्पलदलशतवेधे इव)। उत्पल यानी पद्म, उसके दल यानी पत्र, उसका शत अर्थात् सौ कमल-पत्र, उन्हें सूई आदि से वेधने की जो क्रिया होती है, उसमें जैसे (वेधने का काल दुर्लक्ष्य) होता है, उसी तरह। तात्पर्य यह है- जैसे कोई तरुण सामर्थ्यवान् व्यक्ति सैकड़ों कमलपत्रों को सूई आदि से वेधने की क्रिया करते हुए ऐसा समझता है कि मैंने इन (सैकड़ों पत्रों) को एक साथ वेधा है, किन्तु (वस्तुस्थिति तो यह होती है कि) उनमें से प्रत्येक पत्र भिन्न-भिन्न काल में ही वेधित होते हैं, किन्तु यह व्यक्ति उस (भिन्न-भिन्न) काल को अतिसूक्ष्म होने से भिन्न-भिन्न रूप में नहीं जानता। उसी तरह वहां भी अवग्रह आदि का काल भी अतिसूक्ष्म होने से दुर्लक्ष्य होता है और प्रतीति में नहीं आता, इसलिए नहीं कि वहां कालभिन्नता है ही नहीं। अन्यत्र कहीं तो ईहा आदि स्पष्ट रूप से ही (भिन्न-भिन्न) अनुभूत होते ही हैं, और जहां भी स्वसंवेदन से वे अनुभूत नहीं होते हैं तो वहां भी 'अगृहीत की ईहा नहीं होती और अनीहित का (निश्चयात्मक) ज्ञान नहीं होता' इत्यादि पहले अनेक बार कही गई युक्तियों के समूह के आधार पर (उनका होना) समझ लेना चाहिए। इसलिए कमलदलशतवेधन के उदाहरण से यह समझ लेना चाहिए कि प्रथम ही (ईहा आदि के बिना) अपाय आदि का जो प्रतिभास होता है, वह भ्रमपूर्ण है। अब अन्य उदाहरण के आधार पर इस (उक्त) प्रतीति की भ्रान्तता का निदर्शन करा रहे हैं(समयं वा इत्यादि)। 'वा' यानी अथवा / जैसे-सूखी पूड़ी को चबाने में एक समय में ही एक साथ ही सभी इन्द्रिय-विषयों -शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श की उपलब्धि होती प्रतीत होती है, उसी तरह यहां भी प्रथम में ही अपाय आदि के होने का प्रतिभास होता है। -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 435 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदुक्तं भवति- यथा कस्यचिच्छुष्कां दी| शष्कुलिकां भक्षयतः, तच्छब्दोत्थानाच्छन्दविज्ञानमुपजायते, अत एव शुष्कत्वविशेषणम्, मृद्व्यामेतस्यां शब्दानुत्थानादिति। शब्दश्रवणसमकालमेव च दीर्घत्वात् तस्या दृष्ट्या तद्रूपदर्शनं चाऽयमनुभवति, अत एव च दीर्घत्वविशेषणम्, अतिहस्वत्वे मुखप्रविष्टायास्तस्याः शब्दश्रवणसमकालं रूपदर्शनानुभवाभावादिति। रूपदर्शनसमकालं च तद्गन्धज्ञानमनुभवति, अत एव शष्कुलीग्रहणं, गन्धोत्कटत्वात् तस्याः, इक्षुखण्डादिषु तु दीर्घष्वपि तथाविधगन्धाभावादिति। गन्धादिज्ञानसमकालं च तद्रस-स्पर्शज्ञाने अनुभवति / तदेवं पञ्चानामपीन्द्रियविषयाणामुपलब्धियुगपदेवाऽस्य प्रतिभाति। न चेयं सत्या, इन्द्रियज्ञानानां युगपदुत्पादायोगात्। तथाहि-मनसा सह संयुक्तमेवेन्द्रियं स्वविषयज्ञानमुत्पादयति, नान्यथा, अन्यमनस्कस्य रूपादिज्ञानानुपलम्भात्। न च सर्वेन्द्रियैः सह मनो युगपत् संयुज्यते, तस्यैकोपयोगरूपत्वात्, एकत्र ज्ञातरि एककालेऽनेकैः संयुज्यमानत्वाऽयोगात्। तस्माद् मनसोऽत्यन्ताऽऽशुसंचारित्वेन कालभेदस्य दुर्लक्ष्यवाद् युगपत् सर्वेन्द्रियविषयोपलब्धिरस्य प्रतिभाति। परमार्थतस्त्वस्यामपि कालभेदोऽस्त्येव। ततो यथाऽसौ भान्तै!पलक्ष्यते, तथाऽवग्रहादिकालेऽपीति प्रकृतम्। दीर्घत्वविशेषणं च तात्पर्य यह है- जैसे कोई सूखी, दीर्घ पूड़ी खाता है, खाते समय वह उससे (सूखी पूड़ी के टूटने से) उत्पन्न शब्द से 'शब्द-विज्ञान' (शब्द-श्रवण) भी प्राप्त करता है, इसीलिए 'सूखी' विशेषण पूड़ी का दिया गया है, क्योंकि मुलायम पूड़ी के खाने में शब्द नहीं होता। शब्द सुनने के साथ ही, दीर्घ (बड़ी आकृति वाली) होने से, उसे देख कर उसके रूप को देखने का अनुभव होता है, इसीलिए 'दीर्घ' यह विशेषण दिया गया है, क्योंकि अत्यन्त छोटी पूड़ी को मुख में डाला जाय तो शब्द तो सुनाई पड़ता है, किन्तु उसके साथ, रूप (आकार) के दर्शन का अनुभव नहीं होता। रूप-दर्शन के साथ ही उसके गन्ध का ज्ञान भी होता है, इसीलिए पूड़ी के उदाहरण को लिया गया है क्योंकि उसकी गन्ध (अपेक्षाकृत) तेज होती है। ईख के खण्ड में, भले ही वह दीर्घ हो, वैसी गन्ध नहीं पाई जाती। गन्ध आदि ज्ञान के साथ-साथ (खाने वाला) उसके रस व स्पर्श के ज्ञान का भी अनुभव करता है। इस प्रकार, पांचों ही इन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि एक साथ होती प्रतीत होती है। किन्तु यह (प्रतीति) सत्य नहीं है, क्योंकि सभी इन्द्रियों का ज्ञान एक साथ नहीं होता। जैसे-कोई भी इन्द्रिय अपने विषय का ज्ञान उत्पन्न करती है तो वह मन के साथ संयुक्त होकर ही करती है, अन्यथा नहीं। यदि मन अन्यत्र हो (या व्यक्ति अन्यमनस्क हो) तो रूप आदि का ज्ञान नहीं होता। मन का संयोग सभी इन्द्रियों के साथ (एक साथ) नहीं होता, क्योंकि वह (एक समय में)एक ही उपयोग (चेतना का व्यापार) करता है (अतः) एक ज्ञाता का एक ही समय अनेकों (इन्द्रियों) के साथ संयोग नहीं होता। चूंकि मन अत्यन्त शीघ्र गति से संचरण करता है, इसलिए (एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय के साथ संयोग होने में) जो काल-भेद है, वह ज्ञात नहीं होता, अतः सभी इन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि युगपत् होती प्रतीत होती है। वस्तुतः वहां भी काल की भिन्नता तो रहती ही है। इस प्रकार, जैसे भ्रान्ति के कारण वह (कालभिन्नता) स्पष्ट अनुभव में नहीं होती, वैसे ही प्रकृत विषय अवग्रह (आदि) के काल के संदर्भ में भी समझ लेनी चाहिए। [अर्थात् अवग्रह आदि में से किसी एक या अनेक की a 436 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्कुलिकाया गाथायामनुक्तमप्युपलक्षणत्वाद् विहितमिति परिभावनीयम्। तदेवमवग्रहादीनां नैकादिवैकल्यम्, नाऽप्युत्क्रमातिक्रमौ, इति स्थितम्॥ इति गाथार्थः // 299 // 'डग्गहो इहअवाओ य' इत्यादिगाथायाम् 'आभिनिबोधिकज्ञानस्य चत्वारि भेदवस्तूनि समासतः' इत्युक्तम्, तत् किं व्यासतो बहुभेदमप्याभिनिबोधिकज्ञानं भवति?, इत्याशक्य तद्भेदबहुविधत्वदर्शनात् 'समासेन' इति विशेषणस्य सफलत्वमाह सोइंदियाइभेएण छव्विहा वग्गहादओऽभिहिआ। ते होंति चउव्वीसं चउव्विहं वंजणोग्गहणं / / 300 / अट्ठावीसइभेयं एवं सुयनिस्सियं समासेणं। केइ त्तु वंजमोग्गहवजे च्छोढूणमेयम्मि।।३०१॥ अस्सुयनिस्सियमेवं अट्ठावीसइविहं ति भासंति। जमवग्गहो दुभेओऽवग्गहसामण्णओ गहिओ।।३०२॥ प्रतीति न भी हो तो भी उसका अभाव नहीं मानना चाहिए। सूक्ष्म काल-भेद के कारण किसी का सद्भाव स्पष्ट प्रतीति में नहीं आता, वस्तुतः होते तो अवग्रह आदि क्रम से चारों ही हैं।] शष्कुली (पूड़ी) का दीर्घ विशेषण गाथा में कहा नहीं है, फिर भी उपलक्षण होने से (अर्थात् शुष्क पद दीर्घ का भी उपलक्षण -'सादृश्य के आधार पर वाचक' है, इसलिए व्याख्या में) दिया गया है- यह समझें। इस प्रकार अवग्रह आदि में किसी भी एक की विकलता (अभाव) नहीं होती , और न ही उनमें उत्क्रम या अतिक्रम होता है- यह सिद्ध हुआ। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 299 // (आभिनिबोधिक आदि अनेक भेद) 'अवग्रह ईहाऽपायश्च' इत्यादि (पूर्वोक्त) गाथा (नियुक्ति सं. 2, भाष्य-गाथा सं. 178) में 'आभिनिबोधिक ज्ञान के ये चार भेद संक्षेप में होते हैं' -यह कहा गया था।तो क्या उस आभिनिबोधिक ज्ञान के बहुत से भेद भी होते हैं? इस आशंका (जिज्ञासा) के उत्तर में उसके भेदों या बहुविधता को स्पष्ट करने हेतु (भाष्यकार) 'संक्षेप में इस विशेषण के फल (उसकी सार्थकता) का कथन कर रहे हैं // 300+301+302 // सोइंदियाइभेएण छविहा वग्गहादओऽभिहिआ। ते होंति चउव्वीसं चउव्विहं वंजणोग्गहणं / / अट्ठावीसइभेयं एवं सुयनिस्सियं समासेणं / के इ त्तु वंजमोग्गहवज्जे च्छोटूणमेयम्मि / / अस्सुयनिस्सियमेवं अट्ठावीसइविहं ति भासंति। जमवग्गहो दुभेओऽवग्गहसामण्णओ गहिओ।। ----- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 437 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [संस्कृतच्छाया:-श्रोत्रेन्दियादिभेदेन षड्विधा अवग्रहादयोऽभिहिताः। ते भवन्ति चतुर्विंशतिःचतुर्विधं व्यञ्चनावग्रहणम्॥ अष्टाविंशतिभेदमेतत् श्रुतनिश्रितं समासेन। केचित्तु व्यञ्जनावग्रहवर्जे क्षिप्त्वा एतस्मिन् // अश्रुतनिश्रितमेवम् अष्टाविंशतिविधमिति भाषन्ते। यदवग्रहो द्विभेदः, अवग्रहसामान्यतो गृहीतः॥] श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानामिन्द्रियाणां मनःषष्ठानां यो भेदस्तेनाऽवग्रहादयः प्रत्येकं षड्विधाश्चत्वारोऽप्यभिहिताः। ततस्तैः षभिश्चत्वारो गुणिताश्चतुर्विंशतिर्भवन्ति / अन्यच्च स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रेन्द्रियचतुष्टयभेदाद् व्यञ्जनावग्रहणं व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधो भवति / एवमेतच्छ्रुतनिश्रितमाभिनिबोधिकज्ञानं सर्वमप्यष्टाविंशतिविधं संपद्यते। एतदपि भेदाभिधानं वक्ष्यमाणबहुतरभेदकलापापेक्षयाऽद्यापि समासेन संक्षेपेण द्रष्टव्यम्॥ अन्ये त्वेतानष्टाविंशतिभेदानन्यथा पूरयन्ति, तन्मतमुपदर्शयति- 'केइ त्तित्यादि'। केचित् पुनराचार्या एतस्मिन्नेव श्रुतनिश्रिते मतिज्ञानभेदसमुदाये व्यञ्जनावग्रहभेदचतुष्टयवर्जे 'उप्पत्तिया, वेणईया, कम्मिया, पारिणामिया' इत्यादिनाऽन्यत्र, प्रागत्रापि च प्रतिपादितस्वरूपमश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयं क्षिप्त्वा मीलयित्वा, एवमष्टाविंशतिविधं सर्वमपि मतिज्ञानमिति भाषन्ते। [(गाथा-अर्थ :) श्रोत्र आदि (पांच) इन्द्रियों (एवं छठे मन) के भेद से अवग्रह आदि (चारों में प्रत्येक) के छः-छः भेद कहे गये हैं, वे (कुल) चौबीस (6x4) हो जाते हैं। इनमें चार (प्रकार के) व्यञ्जनावग्रह को जोड़ने पर श्रुतनिश्रित (आभिनिबोधिक) ज्ञान के संक्षेप में अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। कुछ आचार्य (चार प्रकार के व्यञ्जनावग्रह से रहित) इसी (24 भेदों वाले ज्ञान) में अन्य चार (चार प्रकार की बुद्धियों) को मिला कर अश्रुतनिश्रित (-सहित मतिज्ञान) के 28 भेदों का कथन करते हैं, क्योंकि वे, यद्यपि अवग्रह दो प्रकार का है, किन्तु उसे सामान्य रूप में एक ही गिनते हैं।] ___ व्याख्याः - श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों और छठे मन के आधार पर जो भेद होता है, उसको लेकर अवग्रह आदि चारों में से प्रत्येक छः-छः प्रकार कहे गये हैं। इस प्रकार, इन छहों का चार से गुणा करने पर कुल चौबीस भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, स्पर्श, रस, घ्राण, श्रोत्र -इन चार प्रकार की इन्द्रियों के भेद से व्यञ्जनावग्रह भी चार प्रकार का होता है। इस प्रकार, सम्पूर्ण श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अट्ठाईस प्रकार का हो जाता है। यह (अट्ठाईस) भेदों का कथन भी आगे कहे जाने वाले बहुत से भेद-प्रभेदों के समूह की तुलना में अभी संक्षेप कथन ही है- यह समझना चाहिए। किन्तु कुछ अन्य आचार्य (उक्त) अट्ठाईस भेदों को अन्य रीति से पूरा करते हैं। उनके मत को बता रहे हैं- केचित् तु इत्यादि / (अर्थात्) कुछ आचार्य तो इसी श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के (चौबीस) भेदों में व्यञ्जनावग्रह के चार भेदों को छोड़ कर औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी व परिणामिकी -इत्यादि गाथा रूप में अन्यत्र (नन्दी सूत्र में) और पहले इस ग्रन्थ में भी जिनका स्वरूप बताया गया है, उन अश्रुत-निश्रित औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को मिला देते हैं, और इस प्रकार समस्त मतिज्ञान अट्ठाईस भेद वाला है- ऐसा कहते हैं। Ma 438 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयं हि तेषामभिप्राय:- मतिज्ञानस्य संपूर्णस्येह भेदा:प्रतिपादयितुं प्रक्रान्ताः, यदि चाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं न गण्यते तदा श्रुतनिश्रितरूपस्य मतिज्ञानदेशस्यैवैतेऽष्टाविंशतिभेदाः प्रोक्ता भवन्ति, न तु सर्वस्यापि। यदा तूक्तन्यायेन श्रुतनिश्रितम्, अश्रुतनिश्रितं च मील्यते तदा सर्वस्याऽपि तस्य भेदाः सिद्धा भवन्ति। ननु साधूक्तं तैः, केवलमेवं सति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं क्व क्रियताम्?, न ह्येतदपि विक्रीयमाणं खलखण्डमात्रेण क्रीतम्, किन्त्विदमपि मतिज्ञानान्तर्गतमेव / ततोऽस्माद् निष्काश्यमानं वराकमिदं क्वाऽवस्थितिं बनातु?, इत्याशङ्क्याह-'जमवग्गहो इत्यादि। यद् यस्माद् व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदतो योऽयमवग्रहो द्विभेदः प्रागुक्तः, सोऽवग्रहसामान्येन गृहीतोऽवग्रहसामान्येऽन्तर्भावितः, भवति च विशेषाणां सामान्येऽन्तर्भावः, यथा सेनायां गजादीनाम्, वनादौ च धव-खदिरादीनाम्। अतोऽवग्रहस्य सामान्यरूपतयैकत्वादवग्रहहापायधारणानामिन्द्रिय-मनोभेदेन प्रत्येकं षड्विधत्वाच्छु तनिश्रितमतिज्ञानस्य चतुर्विंशतिरेव भेदाः, अश्रुतनिश्रितस्य तु बुद्धिचतुष्टयलक्षणाश्चत्वारः, इत्येवं सर्व मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं सिध्यति।इति केषांचिद् मतम्।। इति गाथात्रयार्थः॥३०० // 301 // 302 // एतच्च तन्मतमयुक्तम्। कुतः?, इत्याह - उनका यह अभिप्राय है- सम्पूर्ण मतिज्ञान के भेदों को यहां बताया जा रहा है। यदि अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियों को परिगणित नहीं किया जाय तो मतिज्ञान के एक भेद- श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ही अट्ठाईस भेद हो जाएंगे, न कि समस्त (मतिज्ञान) के। और तब उक्त रीति से श्रुतनिश्रित (के 2 चौबीस भेद) और अश्रुतनिश्रित (के चार भेद)- इनको मिला दिया जाता है तो (अट्ठाईस भेद) समस्त मतिज्ञान के हो जाते हैं। - (शंका-) उन्होंने ठीक ही तो कहा है, ऐसा मानने पर केवल यही प्रश्न उठता है कि व्यअनावग्रह के चार भेदों को कहां रखें? (मतिज्ञान की) खरीदफरोख्त में इस (भेदचतुष्टय) को खलिहान के थोड़े से अंश से तो खरीदा नहीं जा सकता (अर्थात् चारों व्यञ्जनावग्रह इतने महत्त्वहीन तो हैं नहीं कि 24 भेदों के साथ स्वतः गृहीत हो जाएं), किन्तु ये (व्यअनावग्रह) मतिज्ञान के अन्तर्गत ही हैं। इसलिए इन चारों (व्यञ्जनावग्रहों) को निकाल दिया जायेगा तो वे बिचारे कहां जगह पाएंगे? इस शंका को दृष्टि में रखकर उत्तर दे रहे हैं- (यदअवग्रहः इत्यादि)। चूंकि अवग्रह के दो भेद - व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह पहले कहे गए हैं, उन्हें अवग्रह-सामान्य के रूप में अन्तर्भूत कर लिया गया है, और विशेष (भेदों) का सामान्य में अन्तर्भूत कर लिया जाता है, जैसे सेना में हाथी आदि का और वन में धव, खदिर (खैर) आदि वृक्षों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए अवग्रह को सामान्यतया एक मान लेने से अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा -इन चारों में प्रत्येक के छः-छः भेद होने से श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चौबीस ही भेद होते हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार बुद्धि के रूप में चार भेद होते हैं। इस प्रकार समस्त मतिज्ञान अट्ठाईस भेद वाला सिद्ध होता है- यह किन्हीं का मत है। यह तीन गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 300-302 // (अट्ठाईस भेदों में बुद्धि-चतुष्टय का अन्तर्भाव युक्तियुक्त नहीं) __ उनका उक्त मत युक्तियुक्त नहीं है। किस प्रकार? इसे (भाष्यकार) स्पष्ट कर रहे हैं--- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 439 - - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवइरित्ताभावा जम्हा न तमोग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइसामण्णओ तयं तग्गयं चेव।।३०३।। [संस्कृतच्छाया:- चतुर्व्यतिरिक्ताभावाद् यस्मात् न तदवग्रहादयः। भिन्नं तेनावग्रहादिसामान्यतः तद् तद्गतमेव॥] चतुर्योऽवग्रहेहाऽपाय-धारणावस्तुभ्यो व्यतिरिक्तं चतुर्व्यतिरिक्तं तस्य चतुर्व्यतिरिक्तस्याश्रुतनिश्रितस्याभावात् कारणाद् यस्माद् यतो न तदश्रुतनिश्रितमवग्रहादिभ्यो भिन्नम्। ततः किम्?, इत्याह- तेन कारणेनावग्रहादिसामान्यादवग्रहादिसामान्यमाश्रित्य 'तयं तग्गयं चेव त्ति'। तेष्ववग्रहादिसंबन्धिष्वष्टाविंशतिभेदेष्वन्तर्गतं प्रविष्टमन्तर्भूतं तदन्तर्गतमेवाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयम्। अतः किमिति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं पातयित्वाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं पुनरपि प्रक्षिप्यते?, इत्यभिप्रायः। इदमुक्तं भवति- 'सोइंदियाइभेएण छव्विहा वग्गहादओ' इत्यादिना प्रतिपादितैरवग्रहादिसंबन्धिभिरष्टाविंशतिभेदैः किलासंगृहीतत्वाद् व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयापगमं कृत्वाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं मतान्तरवादिभिः प्रक्षिप्यते, एतच्चाऽयुक्तम्, यतः 'सोइंदियाइभेएण' इत्यादिनाऽवग्रहादीनामेवाऽष्टाविंशतिर्भेदाः प्रोक्ताः, अवग्रहादयश्च बुद्धिचतुष्टयेऽपि सन्ति, अतोऽवग्रहादिभणनद्वारेण तदप्यश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयमेतेष्वष्टाविंशतिभेदेषु संगृहीतमेव, इति किमिति तैः पुनरपि प्रक्षिप्यते? // इति गाथार्थः // 303 // .. // 303 // चउवइरित्ताभावा जम्हा न तमोग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइसामण्णओ तयं तग्गयं चेव।। [(गाथा-अर्थ :) (अवग्रह आदि) चारों से (अश्रुतविश्रित भी) चूंकि पृथक् नहीं है, इसलिए वह अवग्रहादि से भिन्न नहीं है। अतः अवग्रहादि सामान्य के रूप में वह (अश्रुतनिश्रित बुद्धिचतुष्टय) भी अवग्रहादि के अन्तर्गत ही है (अर्थात् यदि अवग्रह-सामान्य होने से व्यञ्जनावग्रह को छोड़ देते हैं, तो उसी तरह बुद्धि चतुष्टय भी तो छोड़ा जा सकता है।)] व्याख्याः- (चतुर्व्यतिरिक्ताभावात्) अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा -इन चारों से अतिरिक्त अश्रुतनिश्रित का अभाव है, इसलिए, अर्थात् चूंकि अश्रुतनिश्रित अवग्रह आदि से भिन्न नहीं है, इसलिए। (प्रश्न-) तो क्या कहना चाहते हैं? उत्तर दे रहे हैं- इसलिए अवग्रह आदि सामान्य का आश्रयण किया गया है (तद् तद्गतमेव)। तात्पर्य यह है कि अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियां मतिज्ञान के अवग्रहादि अट्ठाईस भेदों में ही प्रविष्ट हैं, अन्तर्गत हैं, अन्तर्भूत हैं। इसलिए चारों व्यअनावग्रहों को छोड़ कर अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियों को इन (अट्ठाईस भेदों) में क्यों डाल रहे हैं? तात्पर्य यह है कि 'सोइंदियाइभएण' इत्यादि (गाथा-300) के द्वारा प्रतिपादित अवग्रहादि के अट्ठाईस भेदों में असंगृहीत मान कर, चार व्यंजनावग्रहों को हटा कर अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियों को डाला जा रहा है, वह युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि उक्त गाथा से अवग्रह आदि के ही अट्ठाईस भेद कहे गए हैं, अवग्रह आदि चारों बुद्धियों में भी हैं, अतः अवग्रह के कथन से अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियों का इन अट्ठाईस भेदों में संग्रह हो ही जाता है, तब क्यों पुनः उनका संग्रह किया जा रहा है? // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 303 // Nia 440 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #508 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यक भाष्य (व नियुक्ति) की वर्णक्रमानुसार गाथाएं 268 247 गाथा सं. पृष्ठ सं. गाथा सं. पृष्ठ सं. अक्खरलंभेण समा 143 | अहवा नामं ठवणा अक्खस्स पोग्गलकया | अहवा निवायणाओ अट्ठावीसइभेयं एयं सुय अहवा नोदेसम्मि अण्णाणं सो बहिराइणं 195 अहवा वत्थुभिहाणं अण्णे सामण्णग्गहण अहवा सम्मइंसण. अत्थग्गहणेसु मुज्झइ अहवेह नमुक्काराइ अत्यन्तरे वि सइ मंगलम्मि. अह सुयओ वि विवेगं अत्थाणं उग्गहणं (नि.) | आईए नमोक्कारो अत्थाभिमुहो नियओ आगमओऽणुवउत्तो अत्थावग्गहसमये आगारोच्चिय मइसद्द. अस्थि तयं अव्वत्तं 264 | आगारोऽभिप्पाओ अत्थोग्गहओ पुव्वं 259 | आभिणिबोहियनाणं (नि.) अत्थोग्गहो न समयं 270 | आलोयणत्ति नामं अत्थोग्गहो विजं वंजणो 275 आविब्भावतिरोभाव. अत्थो त्ति विसयग्गहणं | इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे अन्ते केवलमुत्तम इन्दियमणोनिमित्तं परोक्ख. अन्ने अणक्खरक्खर . | इन्दियमणोनिमित्तं जं अन्ने मन्त्रंति मई 154 इन्दियमणोनिमित्तं तं अब्भत्थेऽवाओ च्चिय कत्थइ इयर त्ति मइन्नाणं अभिलप्पाऽणभिलप्पा इयरत्थ विभावसुए अभिहाणं दव्वत्तं इयरत्थ वि मइनाणे अविसेसिया मइच्चिय इयरम्म वि मइनाणे अंसुयक्खरपरिणामा 157 | इय सामण्णग्गहणा अस्सुयनिस्सियमेवं 302 | इय सुबहुणावि कालेण 377 अह उवयारो कीरइ 160 | इहई जेणाहिकओ 236 अहव मई दव्वसुयत्त ___210 इह पासुत्तो पेच्छइ / अह व मईपुव्वं चिय 263 384 | इह भावो च्चिय वत्थु अहव सुए च्चिय भणियं 262 383 | इह मंगलं पि मंगल. a ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------441 265 162 298 152 114 212 420 136 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं. पृष्ठ सं. 173 146 221 220 398 271 141 417 .. 403 गाथा सं. पृष्ठ सं. इह लद्धिमइसुयाई |किह मइसुयनाणविक इह सव्वभेअसंघाय. | किं तं पुव्वं गहियं ईहा संसयमेत्तं केई |किं पुण तमणेगंतिय. ईहिज्जइ नागहियं | किंवा नाणेऽहिगए उक्कमओऽइक्कमओ | किं सद्दो किमसद्दो उग्गहो ईह अवाओ (नि.) | केइ अभासिजंता उजुसुअस्स सयं केइन्दिहालोयणपुव्व उप्पलदलसयवेहे केई तयण्णविसेसा उभयं भावक्खरओ केई बुद्धिद्दिडे. उवलद्धा तत्थाऽऽया केई बेन्तस्स सुयं एक्कं निच्चं निरवयव केवलमेगं सुद्ध एगंतेण परोक्खं केसिंचि इंदिआई एगो मंगलमगं खिप्पेयराइभेओ जमोग्गहो एगो वाऽवाओ च्चिय | खिप्पेयराइभेओ पुव्वोइय एत्तो च्चिय ते सव्वे गहियं व होउ तहियं एवं चिय सुमिणाइसु | गंतुं न रूवदोसं एवं धणिपरिणाम | गंतुं नेएण मणो एवं विवयंति तया गिज्झस्स वंजणाणं एवं सव्वपसंगो गिण्हंति पत्तमत्थं कज्जतया न उ कमसो चउवइरित्ताभावा कत्तो एत्तियमेत्ता चूओ वणस्सइच्चिय कप्पेजेज व सो भाव. चूयाईएहितो कम्मोदयओव्व सहाव | जइ तं सुएण न तओ कयपंचनमोक्कारस्स जइ दव्वमणोऽतिबली कयपवयणप्पणामो जइ नयणिन्दियमप्पत्त करणत्तणओ तणुसंठिएण जइ नाणमागमो कह मइसुओवलद्धा जइ पत्तं गेण्हेज उ कहमव्वत्तं नाणं | जइ मइरणक्खरच्चिय काणुवओगाम्मि धिई जइ मंगलं सयं चिय कालविवजयसामित्त. जइ वऽण्णाणमसंखेजा कासइ तयन्नवइरेग 272 | जइ सद्दबुद्धिमत्तय Ma 442 -------- विशेषावश्यक भाष्य 322 358 57 292 374 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं. पृष्ठ सं. 288 411 284 391 352 422 415 40 268 297 गाथा सं. पृष्ठ सं. जइ सद्दो त्तिन गहियं 381 तक्कालम्मि व नाणं जइ सुयनिस्सिय. 245 | तत्तोणंतरमीहा जइ सुयमक्खरलाभो तत्थोग्गहो दुरूवो जइ सुयलक्खणमेयं तदवत्थमेव तं पुव्व जग्गन्तो वि न जाणइ तद्देसचिंतणे होज्ज जमणेगत्थालंबण तयणंतर तयत्थाबिच्चवणं जमभिनिबुज्झइ तमभि. तरतम जोगाभावेऽवाउ जह देहत्थं चक्खं तस्स पुणो सव्वसुय. जह मंगलमिह नाम तस्स फलजोगमंगल जह मंगलाभिहाणं तस्सेव य थेजत्थं जह वग्गा सुबत्तण. |तं इच्छंतस्स तुहं जह सुहुमं भाविन्दिय. तं च समालोयणमत्थ जं चोद्दसपुव्वधरा . तं चिय सयत्थहेक जं नेगमववहारा |तंतू पडोवयारी न जं पुण तयत्थसुन्न |तं तेण तओ तम्मि व जं पुण विण्णाणं तप्फलं |तं पि य हु भावमंगल. जं भासइ तं पिजओ |तं मंगलमाईए जं भूयभावमंगल. . |तं वंजणोग्गहाओ पुव्वं जं सव्वहा न वीसुं तीरंति न वोत्तुं जे जं सामन्नग्गाही तुझं बहुयरभेया जं सामि-काल-कारण. | तुसमुच्चयवयणाओ जाणयभव्वसरीरा. तेणं चिय सामाइय. जाणं नाणुवउत्तो तेणावहीयए तम्मि जीवो अक्खो अत्थव्वा. | तेणेव याणुयोगं जुजइ पत्तविसयया. तेसिं तुल्लमयत्ते जे अक्खराणुसारेण तोएण मल्लगं पिव जेणत्थोग्गहकाले थाणुपुरिसाइ कुछ जे भासइ चेव तयं | थोवमिदं नावाओ जे सुयबुद्धिद्दिढे दवए दुवए दोरवयवो जो सामण्णग्गाही दव्वपरिणाममित्तं डब्जेज पाविउं रविकराइणा दव्वमणो विण्णाया। ------- विशेषावश्यक भाष्य --- 213 368 426 101 318 10 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206301 251 207 219 189 164. गाथा सं. पष्ठसं. गाथा सं. पृष्ठ सं. दव्वसुयमसाहारण. 1744 254 | परिनिव्वुयमुणिदेहं 5892 दव्वसुयं बुद्धीओ 112. | पव्वज्जा सिक्खावय 7 18 दव्वसुयं भावसुयं 127 . 199 |पावंति सद्दगन्धा दव्वसुयं मइपुव्वं 1111 पिंडों कजं पइसमय. 71 दव्वं भावमणो वा 215 313 पिंडो कारणमिटुं 8 -104 दव्वं माणं पूरियमिन्दिय पुव्वं सुयफरिकम्मिय. 247 दीसंति कासइ फुडं 226 . 332 |पूरिज्जइ पाविज्जइ देहप्फुरणं सहसोइयं 233 | पोग्मलमोयगदन्ते देहादणिग्गयस्स वि - 349 बहुविग्घाई सेयाई धूमो व्व संहरणओ बुद्धिढेि अत्थे नज्जइ उवघाओ से भणओ सुणओ व सुयं नणु साऽवायब्भहिया भव्वस्स मोक्खमग्गा. नणु सिमिणाओऽवि कोई भावत्यंतरभू 105 न परप्पबोहयाई भावसुयं तेण मई - 238 न पराणुमयं वत्थु भावसुयं भासासोयलद्धि. नयणमणोवज्जिन्दिय भावसुयाभावाओ नय भावो भावंतर. भावस्स कारणं जह न विसेसत्यंतरभूया. भासापरिणइकाले न सिमिणाविण्णाणओ | भेयकयं च विसेसण 185 नाणकिरियाहिं मोक्खो 3 . मइकाले वि जइ सुयं 243 नाणाणण्णाणि य 107 | मइपुव्वं जेण सुयं . 135 नाणुग्गहोवघाया 214 मइपुव्वं सुयमुत्तं न नातीतमणुप्पन्न मइसहियं भावसुयं नामाइतियं दव्वट्ठियस्स मइसुयनाणविसेसो नामाइभेअसद्दत्थ. महुराइगुणत्तणओ नीऊ आगसिउं वा मंगलकरणा सत्थं नेयाइ च्चिय जं सो मंगलतियंतरालं पज्जवणं पज्जयणं 131 मंगलपयत्थजाणय. पज्जायाऽणभिधेयं | मंगलमहवा नन्दी पत्ताइगयं सुयकारणं 1% | मंगलसुयउवउत्तो . पनवणिज्जा भावा 141 216 | मंगालयइ भवाओ 24 - 48 Ma #4-------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- 70 . ॐ -208 8 क व W 202 81 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 198 249 209 .98 63. 147 222 329 172 253 113 गाथा सं. पृष्ठसं. गाथा सं. पृष्ठसं. मंगिज्जएऽधिगम्मद 22 सामण्णमेत्तगहणं 411 लक्खणभेआ हेऊफल. 97 . 153 सामण्णविसेसस्स वि 181 265 लक्खिजइ तं सिमिणा सामत्थाभावाओ मणो 363 लोयणमपत्तविसयं सामण्णमणिद्देसं 370 वत्थुसख्यं नामं सामत्ताइविसेसाभावाओ 151 वत्थुस्स लक्खलक्खण. सामनाउ विसेसो वंजिज्जइ जेणत्थो 194. 285 |सा वा सद्दत्थो 256 विसयपरिणाममनियय सामन्ना वा बुद्धी विसयमसंपत्स्स |सिमिणमिव मन्नमाणस्स 234 1 341 स किमोग्गहोत्ति भण्णइ / सिमिणे वि सुरयसंगम 228 ___ 335 सत्यऽत्यन्तरभूयम्मि सिमिणो न तहारूवो 224 सत्थे तिहा विहत्ते 19 . सुयकारणं जओ से 156 सदसदविसेसणाओ सुयकारणं ति सद्दो . 251 सहुज्जुसुया पज्जाय. सुयनिस्सियवयणाओ 164 241 सद्देत्ति भणइ वत्ता सुयविण्णाणप्पभवं 180 सद्दो ता दव्वसुयं सुरयपडिवत्तिरइसुह 230 337 सहो त्ति व सुयभणियं 416 सेसेसु विरूवाइसु 424 सपरप्पच्चायणओ सो अज्झवसाणकओ 336 समये समये गिण्हइ सो इन्दियाइभेएण 437. समयेसु मणो दव्वाई सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं 194 समुदाए जइ णाणं.. 202 सोइंदिओवलद्धी होइ 185 सव्वगउत्ति य बुद्धी सोऊण जा मई भे 109 ... 174 सव्वत्थ देसयंतों 382 | सोओवलद्धी जइ सुयं 118 189 सव्वत्येहाऽवाया सो पुणरीहावाया 283 सव्वो वि य सोऽवाओ सो पुण सयमुवघायण 326 सह उवलद्धीए वा. 131 सो विहु सुयक्खराणं 198 संसयविवज्जया 28 सो सव्वसुअक्खंध. साभित्रलक्खणा वि . ...... 283 | हेऊ विरुद्धधम्मत्तणा हि सामण्णं च विसेसो 393 होइ मणोवावारो ___ 243 353 सामण्णतयण्णविसेसेहा 267 388 होति परोक्खाइं मइ 146 सामण्णत्थावग्गहण 180 264 ---------- विशेषावश्यक भाष्य ------ ध्य -...-.--445 AM 292 28 122 117 216 261 411 223 126 NR 8 272 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं. पृष्ठ सं. गाथा सं. पृष्ठ सं. दव्वसुयमसाहारण. 254 | परिनिव्वुयमुणिदेहं | दव्वसुर्य बुद्धीओ 179 | पव्वज्जा सिक्खावय दव्वसुयं भावसुयं | पावंति सद्दगन्धा दव्वसुयं मइपुव्वं पिंडों कजं पइसमय. दव्वं भावमणो वा पिंडो कारणमिटुं दव्वं माणं पूरियमिन्दिय पुव्वं सुयपरिकम्मिय. दीसंति कासइ फुडं | पूरिज्जइ पाविजइ देहप्फुरणं सहसोइयं पोग्गलमोयगदन्ते देहादणिग्गयस्स वि बहुविग्घाई सेयाई धूमो व्व संहरणओ | बुद्धिद्दिढे अत्थे नज्जइ उवघाओ से | भणओ सुणओ व सुयं नणु साऽवायब्भहिया | भव्वस्स मोक्खमग्गा. नणु सिमिणाओऽवि कोई | भावत्थंतरभू न परप्पबोहयाई | भावसुयं तेण मई न पराणुमयं वत्थु भावसुयं भासासोयलद्धि. नयणमणोवज्जिन्दिय भावसुयाभावाओ न य भावो भावंतर. भावस्स कारणं जह न विसेसत्थंतरभूया. | भासापरिणइकाले न सिमिणाविण्णाणओ भेयकयं च विसेसण नाणकिरियाहिं मोक्खो | मइकाले वि जइ सुयं नाणाणण्णाणि य | मइपुव्वं जेण सुयं . नाणुग्गहोवघाया मइपुव्वं सुयमुत्तं न नातीतमणुप्पन्न मइसहियं भावसुयं नामाइतियं दव्वट्ठियस्स मइसुयनाणविसेसो नामाइभेअसद्दत्थ. महुराइगुणत्तणओ नीऊं आगसिउं वा मंगलकरणा सत्थं नेयाइ च्चिय जं सो मंगलतियंतरालं पज्जवणं पज्जयणं मंगलपयत्थजाणय. पजायाऽणभिधेयं मंगलमहवा नन्दी पत्ताइगयं सुयकारणं 196 मंगलसुयउवउत्तो पनवणिज्जा भावा 216 मंगालयइ भवाओ a 446 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---------- Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं. पृष्ठ सं. 282 411 153 181 249 256 222 234 329 156 251 . 164 241 113 मंगिज्जएऽधिगम्मइ लक्खणभेआ हेऊफल. लक्खिज्जइ तं सिमिणा लोयणमपत्तविसयं वत्थुसरूयं नार्म वत्थुस्स लक्खलक्खण. वंजिजइ जेणत्थो विसयपरिणाममनियय विसयमसंपत्तस्स स किमोग्गहोत्ति भण्णइ सत्थऽत्थन्तरभूयम्मि सत्ये तिहा विहत्ते सदसदविसेसणाओ सहुज्जुसुया पज्जाय० सदेसि भणइ वत्ता सदो ता दध्वसुयं सहो ति व सुवाणिवं सपरप्पचावणओ समवे समये गिण्हइ समयेसु मणो दव्वाइं. समुदाए जइ णाणं सव्वगउत्ति य बुद्धी सव्वत्थ देसयंतो सव्वत्येहाऽवाया सव्यो विय सोऽवाओ सहवलदीए वा. . संसयविवज्जया सा भिन्नलक्खणा वि सामण्णं च विसेसो सामण्णतयण्णविसेसेहा गाथा सं. पृष्ठसं. 22 सामण्णमेत्तगहणं | सामण्णविसेसस्स वि सामत्थाभावाओ मणो सामण्णमणिद्देसं सामत्ताइविसेसाभावाओ सामनाउ विसेसो 194 सा वा सहत्थो सामना वा बुद्धी सिमिणमिव मन्नमाणस्स | सिमिणे वि सुरयसंगम सिमिणो न तहारूवो सुयकारणं जओ सो सुयकारणं ति सद्दो सुयनिस्सियवयणाओ सुयविण्णाणप्पभवं 133 |सुरयपडिवत्तिरइसुह | सेसेसु विरूवाइसु सो अज्झवसाणकओ सो इन्दियाइभेएण 238 | सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं 202 295 |सोइंदिओवलद्धी होइ 314 सोऊण जा मई भे . सोओवलद्धी जइ सुयं | सो पुणरीहावाया | सो पुण सयमुवघायण सो वि हु सुयक्खराणं सो सव्वसुअक्खंध. | हेऊ विरुद्धधम्मत्तणा हि 393 | होइ मणोवावारो 388 होति परोक्खाइं मइ __264 -- विशेषावश्यक भाष्य 230 337 287 292 424 171 229 336 242 437 194 117 185 216 109 174 261 382 18 189 285 411 223 326 198 353 - 1 सामपणत्थावग्गहण ----447 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभद्र-साहित्य स्वाध्याय 200.00 (प्रेस) - (प्रेस) 50.00 15.00 15.00 25.00 20.00 सुतिः वीर स्तुति (हिन्दी पद्यानुवाद एवं व्याख्या) गुरुदेव मुनि रामकृष्ण उपासना (स्वाध्याय संकलन) भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद एवं व्याख्या) कल्याण मन्दिर स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद एवं व्याख्या) चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद एवं व्याख्या) आगमः उत्तराध्ययन सूत्र : (संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी व्याख्या) सुभद्र मुनि उत्तराध्ययन सूत्र : (हरियाणवी अनुवाद) दशवैकालिक सूत्रः (हरियाणवी अनुवाद) अन्तकृदशांग सूत्र मुक्ति के राही (अन्तकृत-सूत्र बाल-संस्करण) महावीर के उपासक (उपासकदशांग-सूत्र बाल-संस्करण) ज्ञानभरी कहानियां (ज्ञाताधर्म कथांग-सूत्र बाल संस्करण) कर्म फल की कहानियां (विपाक सूत्र-बाल संस्करण) काव्य: मन्दाकिनी (मुक्तक संग्रह) गुरुदेव मुनि रामकृष्ण ऋतम्भरा (मुक्तक संग्रह) ज्योत्स्ना (मुक्तक संग्रह) प्रकाश पर्व महावीर सुभद्र मुनि जय महाप्राण श्री महावीर कथा अन्तर्नाद (गीत संग्रह) अरुण मुनि यशोगीति (संस्कृत-काव्य) डॉ. दामोदर शास्त्री शोध/अनुसंधानः जैन एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता निबन्धः विचार वैभव गुरुदेव मुनि रामकृष्ण तृतीयनेत्र गुरुदेव मुनि रामकृष्ण भगवान महावीर : प्राची से आता प्रकाश गुरुदेव मुनि रामकृष्ण NA 448 -------- विशेषावश्यक भाष्य 20.00 20.00 20.00 100.00 (प्रेस) स्वाध्याय 100.00 सुभद्र मुनि 200.00 100.00 20.00 स्वाध्याय Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभद्र मुनि स्वाध्याय 20.00 50.00 सुभद्र 10.00 50.00 5.00 200.00 10.00 10.00 10.00 150.00 200.00 सुभद्र मुनि अमित मुनि चिन्तन के नक्षत्र (सूक्तिया) आओ जरा सोचें! स्वाध्याय : एक अनुचिंतन चरित्रः भगवान् पार्श्वनाथ विश्वबन्ध-महावीर भगवान महावीर (लघु) महाप्राण मुनि मायाराम (ग्रन्थ) तपोकेसरी श्री केसरीसिंह जी महाराज अद्भुत तपस्वी श्रमण धर्म के मुकुट (लघु) प्रज्ञा पुरुषोत्तम मुनि रामकृष्ण गुरुदेव मुनि रामकृष्ण श्रद्धार्चनम् (ग्रन्थ) अमित मुनि कथा/कहानीः गुरुदेव योगिराज की कहानियां गुरुदेव योगिराज की बोध कथाएं समय साक्षी है .' अमृत-बोध जीवन के प्रतिमान प्रकाश-पथ . पतित से पावन उजालों की ओर दया पालो सेवा धर्म मुक्ति का खेल (नाटक) नारी का प्रतिबोध बालसाहित्य: बच्चों की धार्मिक कहानियां धर्म नाव के बाल यात्री जैन कथामृतम् सुभद्र कहानियां सुभद्र कथाएं सचित्र महावीर कथा . सुख का मार्ग सुभद्र शिक्षा (5 भाग) जैनागमों की पशु-पक्षी कथाएं सुभद्र मुनि 15.00 10.00 25.00 20.00 10.00 10.00 25.00 25.00 25.00 25.00 20.00 25.00 भद्र मुनि 10.00 10.00 10.00 10.00 10.00 10.00 10.00 एक सैट 25.00 10.00 ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------449 22 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 15.00 20.00 25.00 20.00 15.00 25.00 क्षमा है धर्म हमारा जैन पर्व कथाएं सचित्र भगवान् ऋषभ देव जैन बाल रामायण जैन सचित्र कथाएं हरियाणवी जैन कथाएं प्रवचन-साहित्यः मैं महावीर को गाता हूं ते गुरु मेरे मन बसे जीवन है एक मन्दिर सूरज ढलने से पूर्व मां के आंचल में धर्म है महामंगल दुःखों से मुक्ति मैं सब का मित्र हूं मन के जीते जीत कोषः अहिंसा विश्व कोष (दो भाग) जैन चरित्र कोष जैन सूक्ति कोष 100.00 50.00 25.00 20.00 25.00 25.00 30.00 100.00 100.00 सुभद्र मुनि 2500.00 500.00 300.00 000 Ma 450 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों और अंकों में : लेखक शुभ नाम : आचार्य श्री सुभद्र मुनि जी म. जन्म : 12 अगस्त 1951 स्थान .: ग्राम रिण्ढाणा (हरियाणा) पिता : धर्मनिष्ठ श्री रामस्वरूप जैन वर्मा माता : श्रीमती महादेवी जैन वर्मा वैराग्य : 9 वर्ष की वय में बाबा गुरुदेव : योगिराज श्री रामजीलाल जी म. पूज्य गुरुदेव : संघशास्ता श्री रामकृष्ण जी म.। मुनि-दीक्षा : 16 फरवरी 1964 दीक्षा-स्थान : जीन्द शहर (हरियाणा) अध्ययन : विविध भाषाविद्, आगम, निगम, पुराण, व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, मन्त्र एवं विविध धर्म दर्शनों का गहन अध्ययन। सृजन : विविध विषयों पर शताधिक पुस्तकें। पत्रिका : श्री सम्बोधि / शिष्य :: श्री रमेश मुनि, श्री अरुण मुनि, श्री नरेन्द्र मुनि, श्री अमित मुनि, श्री हरि मुनि, श्री प्रेम मुनि। प्रशिष्य : श्री मुकेश मुनि, श्री मुदित मुनि, श्री संदीप मुनि। पद एवं : आचार्य, विद्यावाचस्पति, बहुमान विद्या-सागर (डी.लिट्), जैन रत्न, युवा मनीषी। विचरण :: पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल। 'सम्प्रति : साहित्य सृजन, बाल संस्कार निर्माण, जन-जागरण एवं जीवन-मूल्यों की स्थापना। अखिल भारतीय श्री श्वेताम्बर स्था. मुनि मायारामीय जैन संघ / आचार्य पद : 27 फरवरी 2005, गाजियाबाद।। साध्वी संघ : जैन भारती श्री सुशील कुमारी प्रमुखा जी म. (आदि ठाणे) संघ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुनि एवं प्रस्तुति विद्यावाचस्पति श्री श्री 1008 आचार्य श्री सुभद्रमुनि जी महाराज जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित विशेषावश्यक भाष्य का मध्य-युगीन भारतीय साहित्य में उच्च स्थान है। इस अनुपम ग्रन्थ में ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, कर्मवाद, स्याद्वाद प्रभृति विविध वादों तथा धर्म और दर्शन का विशद व्याख्यान हुआ है। जैन और जैनेतर विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने वाला यह ग्रन्थ आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) रचित आवश्यक नियुक्ति के भाष्य के रूप में लिखा गया। कालान्तर में मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ पर शिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति की रचना की। विगत सहस्राब्दी के सभी मनीषी विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस ग्रन्थराज पर श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री सुभद्र मुनि जी महाराज ने प्रथम बार राष्ट्र भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है। हिन्दी भाषियों पर श्रद्धेय आचार्य श्री का यह महान उपकार है।। - श्रद्धेय आचार्य श्री श्रमण-परम्परा के एक तेजस्वी, यशस्वी और वर्चस्वी श्रमण हैं। इनके बहुआयामी व्यक्तित्व को कलम की परिधियों में समेट पाना संभव नहीं है। इन द्वारा सृजित, संपादित, व्याख्यायित एवं अनुदित विशाल वाङ्मय को देखकर यह स्वतः प्रमाणित होता है कि ये एक युगस्रष्टा दार्शनिक मुनि हैं।। . श्रद्धेय आचार्य श्री की दृष्टि परम उदार है, साथ ही सत्यान्वेषक भी। सत्यान्वेषण करते हुये इनकी दृष्टि में पर, पर नहीं होता।स्व, स्व नहीं होता।स्व-पर का परिबोध नष्ट हो जाना ही मुनित्व का मूलमंत्र है। स्व और पर युगपद हैं। 'पर' रहा तो 'स्व' अस्तित्व में रहता है। 'स्व' रहेगा, तब तक 'पर' मिट नहीं सकता।दर्शन जितना गूढ, जीवन-सा सरस और मुनित्व के आनन्द में रचा है, इनका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व जितना आकर्षक है उतना ही स्नेहसिक्त भी है। व्यवहार में परम मृदु।आचार में परम निष्ठावान्। विचार में परम उदार। कटुता ने इनकी / हृदय-वसुधा पर कभी जन्म नहीं लिया है। इनका सम्पूर्ण जीवन-आचार, दर्शन का व्याख्याता है। -संपादक लोकार्पण : 8 फरवरी, 2009 मूल्य : रू. 500/ प्रकाशक मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन के.डी. ब्लॉक, पीतमपुरा, दिल्ली-110085