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________________ या विचारबिन्दुओं की भी प्रस्तुति की जाती है। उक्त नियुक्तिपरक अनुयोगव्याख्यान-पद्धति अत्यन्त प्राचीन है क्योंकि इसे तीर्थंकर व गणधरों ने कर्तव्य रूप से स्वीकार किया है। अनुयोग' का अर्थ है- सूत्र को, उसी के अनुरूप या अनुकूल अर्थ से संयुक्त करना, या 'अणु' (संक्षिप्त रूप में कथित) सूत्र को उसी के सुसंगत अर्थ के साथ कहना। अनुयोग' एक व्यापक व्याख्यान पद्धति है जिसमें नियुक्ति, नय, निक्षेप आदि समाविष्ट होते हैं। शास्त्र रूपी नगर में प्रवेश करने का एकमात्र द्वार है- अनुयोग। जैसे बिना द्वार के नगर में प्रवेश करना कठिन होता है, वैसे ही 'अनुयोग' रूपी द्वार से सूत्र के हार्द तक पहुंचा जा सकता है। अनुयोगरूपी द्वारों की संख्या चार हैं, अर्थात् उस 'अनुयोग' के चार क्रमिक अंग हैं :- (1) उपक्रम, (2) निक्षेप, (3) अनुगम, और (4) नय। इनमें 'उपक्रम' प्रथम द्वार है। इन चारों का सूत्र व्याख्यान में नियोजन हो तो शास्त्र में प्रवेश करना अल्प समय में, सुगमता से हो जाता है।" इन चारों का क्रम नियत है, पहले 4. सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ नि त्तिमीसओ भणिओ। तईओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे (वि. भाष्य, गाथा-566)॥ ततश्च सूत्रार्थ एव प्रथमः, प्रथम-वारायामनुयोगो गुरुणा कर्तव्यः / द्वितीयस्तु द्वितीयवारायां सूत्रस्पर्शिक-नियुक्तिमिश्रक: कर्तव्यतया भणित: तीर्थंकरगणधरैः / तृतीयस्तु तृतीयवारायां प्रसक्त-अनुप्रसक्तमपि उच्यते यस्मिन, स एवं लक्षणो निरवशेषो भणितः। कः इत्याह- सूत्रस्य निजेन अभिधेयेन सार्धमनुकूलो योगोऽनुयोगः सूत्रस्य अर्थात्वाख्यानम् इत्यर्थः / (वि. भाष्य गाथा, 566 पर बृहवृत्ति)। 5....सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रक: कर्तव्यतया भणितः तीर्थंकरगणधरैः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य गा, 566) / 6. अणुवयणमणुओगो सुयस्स नियएण जमभिहेएणं।वावारो वा जोगो जोऽणुरूवोऽणुकूलो वा ॥अहवा जमत्थओ थोवपच्छभावेहि सुयमणु तस्स।अभिहिए वावारो जोगो तेणं व संबंधो॥(वि. भाष्य, गा. 841-842) / यत् सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन अनुयोजनमनुसम्बन्धनम् असौ अनुयोग: इत्यर्थः / अथवा योऽनुरूपोऽनुकूलो वा घटमानः सम्बध्यमानो व्यापारः प्रतिपादनलक्षण: सूत्रस्य निजार्थविषयेऽयमनुयोगः। अथवा, यद् यस्माद् अर्थतः अर्थात् सकाशाद् अणु सूक्ष्म लघु सूत्रम्...तस्माद् तस्य अणोः सूत्रस्य वा यः स्वकीयाभिधेये योगो व्यापारः, तेन वा अणुना सूत्रेण सह यः सम्बन्धो योगः, असौ अनुयोगः इति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गा. 841-842) / 7. अणुओगद्दाराई महापुरस्सेव तस्स चत्तारि / अणुओगो त्ति तदत्थो दाराई तस्स उ मुहाई (वि. भाष्य, गाथा-907)। 8. अकयद्दारमनगरं कएगदारं पि दुक्खसंचारं / चउमूलद्दारं पुण सपडिदारं सुहाहिगम (वि. भाष्य, गाथा-908)॥ 9. ताणीमाणि उवक्क-निक्खेवाणुगम-नय-सनामाई। (वि. भाष्य, गाथा-910)। 10. तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथममुपक्रम एव, ततो यथाक्रमं निक्षेपादयः एव, इत्येवंरूपो योऽसौ नियतः क्रमः स युक्त्या अभिधानतो निर्देष्टव्यः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-2)। 11. एवं सामायिकमहापुरमपि अर्थाधिगमोपायभूतद्वारशून्यम् अशक्याधिगमम्, कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छेण द्राघीयसा च कालेन अधिगम्यते। विहितसप्रभेद-उपक्रमादिद्वारचतुष्टयं पुन: अयत्नेन अल्पीयसा च कालेन अधिगम्यते (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-909)। RBOORBOORBO@ROOR [38] ROORBORO OBROBOOR /
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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