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________________ उपक्रम, फिर निक्षेप, उसके बाद अनुगम और फिर नय। 'अनुयोग' को 2 प्रकारों में भी विभक्त किया गया है। वे प्रकार हैं- (1) सूत्रानुगम, और (2) नियुक्ति-अनुगम। 'नियुक्ति' इस तरह 'अनुगम' का ही एक व्याख्यानात्मक प्रकार है। 'नियुक्ति-अनुगम' को स्पष्ट करने से पूर्व, उपक्रम एवं उसके भेदादि के स्वरूप को भी समझ लेना यहां प्रासंगिक है। उपक्रम का अर्थ है- (किसी विषय की) भूमिका। उप-समीप, क्रम= ले आना। अतः उपक्रम से शास्त्र की विषयवस्तु को इतना निकट लाया जाता है ताकि वह 'निक्षेप' से समझने योग्य हो जाता है। शिष्य के लिए विषयवस्तु दूरस्थ की तरह अल्प स्पष्ट रूप में बोध्य होती है, तब यदि उसे निक्षेपों के माध्यम से समझाया जाता है तो गुरु-वचन के श्रवण हेतु शिष्य को अधिक निकट या उत्सुक बनाने की क्रिया को 'उपक्रम सम्पन्न करता है। शिष्य की विनय-वृत्ति ही गुरु को 'उपक्रम' हेतु प्रेरित करती है।" उपक्रम के भी निक्षेपानुसार छ: भेद हैं- नाम-उपक्रम, स्थापना-उपक्रम, द्रव्य-उपक्रम, क्षेत्र-उपक्रम, काल-उपक्रम, और भाव-उपक्रम। इनमें भाव-उपक्रम ही व्याख्यानपद्धति में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें वह सब कथन समाहित है जिससे शिष्य को संतुष्टि या प्रसन्नता होती है। भावोपक्रम के छ: भेद हैं- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार deg आनुपूर्वी –जिसे 'परिपाटी' भी कहा जाता है- में प्रतिपाद्य शास्त्र के अध्ययनादि विभागों की अनुलोम, प्रतिलोम या उभयविध -इन तीन प्रकार से 'आनुपूर्वी' 12. आदौ उपक्रमः, तदनन्तरं निक्षेपः, तदनन्तरं चानुगमः, ततोऽप्यनन्तरं नयः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 915-16 प्रस्तावना)। योऽसौ नियतः क्रमः, स युक्त्याऽभिधानतो निर्देष्टव्यः, युक्तिं चात्रैव वक्ष्यति। तद्यथा- न अनुपक्रांतं निक्षिप्यते, न अनिक्षिप्तम् अनुगम्यते इत्यादि (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 2) / 13. सोणुगमो दुविगप्पो नेओ निज्जुत्तिसुत्ताणं (वि. भाष्य, गाथा- 971) / स च द्विविध:- नियुक्ति-अनुगमः, सूत्रानुगमश्च। 14. नियुक्ति: अनुगमभेदत्वाद् व्याख्यानात्मिकैव भवति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 965) / 15. सत्थस्सोवक्कमणं उवक्कमो तेण तम्मि व तओ वा। सत्थ-समीवीकरणं आणयणं नासदेसम्मि (वि. भाष्य, गा.-911)। 16. उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्यं क्रियते अनेन गुरुवाग्योगेन इति उपक्रमः (वि. भाष्य, गाथा-911)। . 17. उपक्रम्यते अस्मात् विनीतविनयविनयाद् इति उपक्रमः / विनयेन आराधितो हि गुरु: उपक्रम्य निक्षेपयोग्यं शास्त्रं करोति -इति अभिप्राय: (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 911) / ___ 18. वि. भाष्य, गाथा- 922 19. इह सामायिकादि-अध्ययनार्थं बुभुत्सुना विनेयेन गुरोर्भावोपक्रमो विधेयः, केन पुनः प्रकारेण एव सुप्रसन्नः स्यादिति भावोपक्रमः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-917-921)। 20. तथा आनुपूर्वी- नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतारलक्षणैः षड्भिः भेदैः (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा917-921)। आनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतारभेदाद् उपक्रमः षोढा (बृहदवृत्ति, भा. गाथा-2)। ROOR(r)(r)ROOR@@R [39] RRB CRORORORSCRBOOR
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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