________________ केवलमिति व्याख्येयं पदम्। ततः केवलमिति कोऽर्थः?, इत्याह- एकमसहायमिन्द्रियादिसाहाय्यानपेक्षित्वात्, तद्भावे शेषच्छाद्मस्थिकज्ञाननिवृत्तेर्वा, शुद्धं निर्मलं सकलावरणमलकलङ्कविगमसंभूतत्वादिति। सकलं परिपूर्णं संपूर्णज्ञेयग्राहित्वात्, असाधारणमनन्यसदृशं तादृशाऽपरज्ञानाभावात्, अनन्तम्, अप्रतिपातित्वेनाऽविद्यमानपर्यन्तत्वात्, इत्येकादिष्वर्थेषु केवलशब्दोऽत्र वर्तते, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति समासः। आह- नन्वाभिनिबोधिकादीनि ज्ञानवाचकानि नामान्येव भाष्यकृता "अत्थाभिमुहो नियओ" इत्यादौ सर्वत्र व्युत्पादितानि, ज्ञानशब्दस्तु न क्वचिदुपात्तः, स कथं लभ्यते?, इत्याशङ्कयाह- 'पायं चेत्यादि / प्रक्रमलब्धो ज्ञानशब्द आभिनिबोधिकश्रुतादिभिर्ज्ञानाभिधायकैर्नामभिः समानाधिकरणः स्वयमेव योजनीयः, स च योजित एव, तद्यथा- आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च, श्रुतं च तज्ज्ञानं चेत्यादि। क्वचिद् वैयधिकरण्यसमासोऽपि संभवतीति प्रायोग्रहणम्। स च मनः पर्यायज्ञाने दर्शित एव, अन्यत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यः॥ इति गाथार्थः॥४४॥ . व्याख्याः- 'केवल' इस पद की व्याख्या अपेक्षित है। इसलिए (पहली जिज्ञासा यह है कि) 'केवल' इस पद का अर्थ क्या है? इसके उत्तर में कहा- (1) एक यानी असहाय (बिना किसी की सहायता से उत्पन्न), क्योंकि उसमें इन्द्रिय आदि की सहायता अपेक्षित नहीं होती। उस (ज्ञान) के होने पर शेष छद्मस्थ ज्ञान (मति, श्रुत आदि) निवृत्त हो जाते हैं, इसलिए वह 'एक' है। (2) वह शुद्ध है, क्योंकि समस्त आवरण रूपी मल-कलंक के विनष्ट हो जाने से वह निर्मल होता है। (3) वह ज्ञान 'सकल' है यानी परिपूर्ण है, क्योंकि वह सम्पूर्ण (व समस्त) ज्ञेय पदार्थों का (युगपद्- एक साथ) ग्राहक होता है। (4) वह असाधारण है क्योंकि उस जैसा कोई दूसरा ज्ञान नहीं होने से अनन्यसदृश हैं। (5) वह कभी नष्ट नहीं होता, और उसका कभी अन्त नहीं है, इसलिए वह 'अनन्त' है। इस प्रकार एक, शुद्ध आदि अर्थों में केवल' शब्द यहां प्रयुक्त है। केवल जो ज्ञान वह 'केवल ज्ञान', इस प्रकार यहां (कर्मधारय) समास है। .. यहां शंकाकार कहता है- भाष्यकार ने 'अर्थाभिमुखो नियतः' इत्यादि (पूर्व) गाथाओं द्वारा ज्ञानवाचक अभिनिबोधिक आदि नामों की ही व्युत्पत्ति की है, ज्ञान शब्द का तो कहीं उल्लेख आया नहीं है, ऐसी स्थिति में वे ज्ञान रूप हैं- यह अर्थ कहां से उपलब्ध होता है? इस शंका को दृष्टि में रखकर कहा- 'प्रायः च' इत्यादि / अर्थात् प्रकरणलब्ध ज्ञान शब्द की, (पूर्वोक्त) आभिनिबोधिक, श्रुत आदि (ज्ञान-सम्बन्धीत) नामों के साथ समानाधिकरणता को स्वयं ही नियोजित कर लेना चाहिए, और उसे योजित भी किया (यानी करके बताया) जा चुका है। जैसे- आभिनिबोधिक जो ज्ञान, श्रुत जो ज्ञान इत्यादि रूप में (ज्ञान शब्द के साथ उन-उन नामों को जोड़कर उनका सामानाधिकरण्य दर्शाया गया है)। 'प्रायः' यह पद यह बताने के लिए दिया गया है कि कहीं वैयधिकरण्य रूप में भी समास सम्भव है। इस (वैयधिकरण्य) का निदर्शन (भी) मनःपर्यय ज्ञान के निरूपण में किया जा चुका है। अन्य ज्ञानों में भी यथासम्भव उसी तरह (वैयधिकरण्य को) समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 4 // Ho ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 133