________________ अथ वैयधिकरण्यमङ्गीकृत्याह-'तस्य वेत्यादि / वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, तस्येति मनसः, पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययाः, धर्मा इत्यनर्थान्तरमिति; आदिशब्दात् पर्यव-पर्ययपरिग्रहः, ततश्चायमर्थ:- अथवा तस्य मनसो ग्राहस्य संगन्धिनो बाहावस्तुचिन्तनानुगुणा ये पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययास्तेषां तेषु वा 'इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम्' इत्येवंरूपं ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं, मनःपर्ययज्ञानं चेति ज्ञानशब्देन सह व्यधिकरणः समासः। अत एव "पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं" इत्यत्र प्रायोग्रहणं करिष्यति॥ इति गाथार्थः॥८३॥ अथ केवलज्ञानविषयं शब्दार्थमाह केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च। पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं // 44 // [संस्कृतच्छाया:- केवलमेकं शुद्धं सकलमसाधारणमनन्तं च। प्रायश्च ज्ञानशब्दो नामसमानाधिकरणोऽयम्॥] . है? इसलिए कहा- मनसि, मनसो वा- अर्थात् वह पर्याय भी ग्राह्य मन में होती है अतः उसे मनःपर्याय कहते हैं, या मन-सम्बन्धी जो पर्याय, वह भी मनःपर्याय है। वह ज्ञानरूप है, अतः उसे मनःपर्याय ज्ञान कहा जाता है। यहां तक का कथन ज्ञान शब्द के साथ पर्याय या पर्ययन के सामानाधिकरण्य को दृष्टि में रखते हुए कहा गया है। ____ अब वैयधिकरण्य को स्वीकार कर (उसे दृष्टि में रखकर) कहा जा रहा है- तस्य वा-। यहां 'वा' शब्द पक्षान्तर (पूर्वोक्त से पृथक्- भिन्न मत) की सूचना दे रहा है। उसका यानी मन का पर्याय / पर्याय, पर्यव, पर्यय, धर्म- ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। पर्यायादिज्ञान इस पद में आए आदि पद से पर्यव व पर्यय का भी संग्रह होता है। इस प्रकार फलित अर्थ यह हुआ- अथवा उस ग्राह्य मन के सम्बन्धी- अर्थात् मन में होने वाले बाह्य वस्तु के चिन्तनरूप जो पर्याय, पर्यव या पर्यय हैं, उनका या उनमें इस व्यक्ति द्वारा 'यह' और 'इस प्रकार' सोचा गया है- इस रूप में जो ज्ञान है, वह मनःपर्याय ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान या मनःपर्यय ज्ञान है। इस प्रकार यहां ज्ञान शब्द से मनःपर्यय आदि का व्यधिकरण समास हुआ है। इसी दृष्टि से आगे की गाथा में प्रायः शब्द के साथ यह कथन किया जाने वाला है- 'प्रायः ज्ञानशब्द का ज्ञानसम्बन्धी नामों के साथ सामानाधिकरण्य है' // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 3 // अब 'केवल ज्ञान' सम्बन्धी व्युत्पत्ति कह रहे हैं 84 // केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च / पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं // [(गाथा-अर्थः) एक, शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारण और अनन्त (जो) ज्ञान (है, वह) केवलज्ञान' (कहा जाता) है। (उक्त पांचों ज्ञानों की व्युत्पत्तियों में) प्रायः ज्ञान शब्द की उन-उन नामों के साथ समानाधिकरणता है।] Ma 132 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------