________________ कः पुनरसौ स्थविरकल्पक्रमः? इत्याह पव्वजा सिक्खावयमत्थग्गहणंच अनिअओवासो। निप्फत्ती य विहारो सामायारीठिई चेव // 7 // [संस्कृतच्छाया:- प्रव्रज्यां शिक्षापदमर्थग्रहणं चानियतो वासः। निष्पत्तिश्च विहारः सामाचारीस्थितिश्चैव॥] व्याख्या- इह स्थविराणामयं क्रमो यदुत-प्रथमं तावद् योग्याय विनीतशिष्याय विधिवद्दापिताऽऽलोचनाय प्रशस्तेषु द्रव्यादिषु. स्वयं गुणसुस्थितेन गुरुणा विधिनैव प्रव्रज्या प्रदातव्या। ततः शिक्षापदमिति, शिक्षायाः पदं स्थानं शिक्षापदम्, शिक्षैव वा पदं स्थानं शिक्षापदम, विधिना प्रव्रजितस्य शिष्यस्य, ततः शिक्षाधिकारी भवतीत्यर्थः। सा च शिक्षा द्विविधा-ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च। तत्र द्वादश वर्षाणि यावत् सूत्रं त्वयाऽध्येतव्यमित्युपदेशो ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा तु प्रत्युपेक्षणादिक्रियोपदेशः। आह च-"सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा। गहणे सुत्ताहिज्झण आसेवण तिप्पकप्पाई"॥ [सा पुनः द्विविधा शिक्षा, . ग्रहणे आसेवने च ज्ञातव्या / ग्रहणे सूत्राध्ययनं आसेवनं त्रिप्रकल्पादि।] (स्थविरकल्प क्रम) फिर किस प्रकार का 'स्थविरकल्प का क्रम' है? (उत्तर में भाष्यकार) कह रहे हैं पव्वज्जा सिक्खावयमत्थग्गहणं च अनिअओ वासो। निप्फत्ती य विहारो सामायारीठिई चेव // [(गाथा-अर्थः) प्रव्रज्या, शिक्षापद (या शिक्षा, व्रत), अर्थग्रहण, अनियत वास, निष्पत्ति, विहार और सामाचारी में स्थिति (यह सात प्रकार का स्थविरकल्प का क्रम है)।] . व्याख्याः- यहां (अनुयोग-प्रदान के सम्बन्ध में) स्थविरों का यह क्रम है कि सर्वप्रथम किसी योग्य व विनयशील शिष्य को, जिसे विधिपूर्वक आलोचना दिला दी गई है, प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल व भाव की स्थिति में, गुणों में स्थिरता से सम्पन्न गुरु द्वारा स्वयं विधिपूर्वक प्रव्रज्या दी जाती है। उसके बाद शिक्षापद (दिया जाता है)। शिक्षापद का अर्थ है- शिक्षा का पद यानी स्थान, अथवा शिक्षा ही जो पद रूप है। तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक प्रव्रज्या-प्राप्त को ही शिक्षापद देय है, क्योंकि उस (प्रव्रज्या) के बाद ही शिष्य शिक्षा का अधिकारी होता है। वह शिक्षा दो प्रकार की है- ग्रहणशिक्षा और आसेवनाशिक्षा / इनमें, 12 वर्षों तक 'तुम्हें अमुक सूत्र पढ़ना है' इस प्रकार उपदेश ‘ग्रहणशिक्षा' है। प्रत्युपेक्षा आदि क्रियाओं (आचार) का जो उपदेश है, वह आसेवनाशिक्षा है। कहा भी है- 'सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा ।गहणे सुत्ताहिज्झण आसेवण तिप्पकप्पाई' अर्थात् वह शिक्षा ग्रहण व आसेवण -इस प्रकार से दो प्रकार की है-ऐसा ज्ञातव्य है। सूत्रों का अध्ययन 'ग्रहण' है और त्रिविध विरति व प्रतिक्रमण आदि में स्थित कराना 'आसेवन' है। Na 18 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------