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________________ आवश्यकानुयोगप्रदानेऽप्ययमेव विधिरित्यावेदयितुमाह तेणेव याऽणुओगं कमेण तेणेव याऽहिगारोऽयं। जेण विणेयहियत्थाय थेरकप्पक्कमो एसो॥६॥ [संस्कृतच्छाया:- तेनैव चानुयोगं क्रमेण तेनैव चाधिकारोऽयम्। येन विनेयहितार्थं स्थविरकल्पक्रम एषः॥] व्याख्या- चकारोऽपिशब्दार्थः, भिन्नक्रमश्च, ततस्तेनैव पञ्चनमस्कारकरणादिना क्रमेणाऽनुयोगमपि सूत्रव्याख्यानरूपम्, ददत्याचार्या इति वर्तते, अनयोश्च सूत्रप्रदानक्रमाऽनुयोगप्रदानक्रमयोर्मध्ये तेनैव प्रस्तुतगाथाप्रक्रान्तेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणाऽयमस्मदभिमतोऽधिकारः, अनुयोगस्यैवेह प्रस्तुतत्वात्, इति भावः। कुतः पुनरिहानुयोगप्रदानक्रमेणैवाऽधिकारः?, इत्याहयेन कारणेन विनेयहितार्थं शिष्यवर्गस्योत्तरोत्तरगुणप्राप्तिमपेक्ष्येत्यर्थः, स्थविराणां गच्छवासिनां साधूनां योऽसौ कल्पः समाचारविशेषस्तस्यैषोऽनन्तरगाथावक्ष्यमाणलक्षण:क्रमः परिपाटीरूपः, तेन कारणेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणैवेहाऽधिकारोऽयमिति // 6 // (अनुयोग-प्रदान विधि) (आवश्यक की तरह) आवश्यक-अनुयोग के देने में भी यही विधि (करणीय) है-इसे बताने हेतु (भाष्यकार) कह रहे हैं (6) तेणेव याऽणुओगं कमेण तेणेव याऽहिगारोऽयं / जेण विणेयहियत्थाय थेरकप्पक्कमो एसो // [(गाथा-अर्थः) (सूत्र-प्रदान का जो क्रम है) उसी क्रम से (आचार्य) अनुयोग को भी (प्रदान करते हैं)। अनुयोग-प्रदान के क्रम से सम्बन्धित यह अधिकार (प्रकरण) है। इसलिए विनेय (शिष्य) के हित की दृष्टि से स्थविरकल्प से सम्बद्ध क्रम (का निरूपण कर रहे हैं, जो) इस प्रकार है :-] व्याख्याः- 'च' पद 'भी' अर्थ को तो कहता ही है, क्रम की भिन्नता (पूर्ववर्णित विषय से कुछ अधिकता या भिन्नता) को भी व्यक्त करता है। इस तरह (अर्थ हुआ कि) पञ्चनमस्कार करने आदि की विधि रूप (जो क्रम पूर्वोक्त है,) उसी क्रम से आचार्य अनुयोग का भी प्रदान करते हैं। सूत्र-प्रदान का क्रम और अनुयोग-प्रदान का क्रम- इन दोनों के मध्य में हमारा यह 'अधिकार' (प्रकरण) प्रस्तुत गाथा में निरूपित अनुयोग-प्रदान के क्रम से ही सम्बद्ध है। तात्पर्य यह कि अनुयोग ही हमारा प्रकृत में निरूपणीय विषय है। (शंका-) अनुयोग-प्रदान-क्रम का ही यह अधिकार (प्रकरण) है- ऐसा किसलिए कह रहे हैं? इसलिए कहा- (उत्तर) चूंकि (इसी प्रकरण से सम्बन्धित आगे का निरूपण है जिसमें) विनेय (शिष्य) के हित (कल्याण) की सिद्धि हेतु अर्थात् शिष्यवर्ग को उत्तरोतर गुणों की प्राप्ति हो- इस के लिए स्थविर यानी गच्छवासी साधु, उनका जो यह कल्प यानी समाचारी-विशेष है, उसमें स्वीकृत क्रम या परिपाटी को आगे की गाथा में कहा जा रहा है, इसीलिए (यह कहा है कि) अनुयोग-प्रदान के क्रम का यह अधिकार (प्रकरण) है॥ 6 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 17 1
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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