________________ अथ व्यवहारार्थावग्रहानन्तरसंभविन्याः स्वरूपमाह- 'को होज वेत्यादि / वा इत्यथवा, व्यवहारावग्रहेण शब्दे गृहीत इत्थमीहा प्रवर्तते-शाङ्ख-शार्ङ्गयोर्मध्ये कोऽयं भवेत् शब्द:- शाङ्खः शार्हो वा? इति। ननु किं शब्दः, अशब्दो वा?' इत्यादिकं संशयज्ञानमेव कथमीहा भवितुमर्हति? / सत्यम्, किन्तु दिङ्मात्रमेवेदमिह दर्शितम्, परमार्थतस्तु व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरः, अन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायाभिमुख एव बोध ईहा द्रष्टव्या, तद्यथा अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो न चाधुना संभवतीह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना॥१॥ इति। एतच्च प्रागुक्तमपि मन्दमतिस्मरणार्थं पुनरप्युक्तम् // इति गाथार्थः // 289 // अथ मतिज्ञानतृतीयभेदस्याऽपायस्य स्वरूपमाह महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेव त्ति जं न सिंगस्स। विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगम-वइरेगभावाओ॥२९०॥ - अब, व्यवहार अर्थावग्रह के बाद होने वाली ईहा का स्वरूप बता रहे हैं- (को भवेद् वा?)। 'वा' यानी अथवा | व्यवहार अवग्रह से शब्द का ग्रहण होने पर इस प्रकार से ईहा प्रवृत्त होती है"शङ्ख-शब्द और श्रृंगी-वाद्य-शब्द -इन (दोनों) में से यह शब्द कौन सा है- शङ्खीय है या शृंगीय है?" __ (शङ्का-) 'यह शब्द है या अशब्द' -यह (विमर्श) तो संशय ज्ञान ही हुआ, ईहा कैसे कहा जाता है? (उत्तर-) आपका कहना (पूछना) सही है, किन्तु यह तो नमूने के तौर पर कहा गया है, परमार्थ रूप से (वस्तुतः) तो 'व्यतिरेक' (नहीं पाये जाने वाले) धर्मों के निराकरण करने हेतु तत्पर और अन्वय (पाये जाने वाले) धर्मों के घटित होने की ओर प्रवृत्त एवं अपायाभिमुख (निश्चय की ओर बढ़ता हुआ) जो ज्ञान है, उसे ही 'ईहा' समझना चाहिए। जैसे “यह जंगल है, सूर्य भी अस्त हो गया, इस स्थिति में अभी किसी मानव का यहां होना संभव नहीं / प्रायः इसे पक्षियों से युक्त स्मर-शत्रु (यानी 'शिव') के समान (पर्यायवाची) नाम वाला कोई वृक्ष (अर्थात् स्थाणु यानी ढूंठ वृक्ष) होना चाहिए।" - यह श्लोक पहले भी (गाथा 183-184 के व्याख्यान में) कहा जा चुका है, फिर भी मन्दबुद्धियों को स्मरण दिलाने हेतु पुनः कहा है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 289 // (अपाय का व्याख्यान) .... अब, मतिज्ञान के तृतीय भेद (क्रम) 'अपाय' का स्वरूप बता रहे हैं // 290 // महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेव त्ति जं न सिंगस्स। विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगम-वइरेगभावाओ // ----- विशेषावश्यक भाष्य -- -