________________ . [ संस्कृतच्छाया:- मधुरादिगुणत्वतः शङ्खस्यैव इति यत् न शृङ्गस्य / विज्ञानं सोऽपायः अनुगम-व्यतिरेकभावात्॥] 'मधुर-स्निग्धादिगुणत्वात् शङ्खस्यैवाऽयं शब्दः, न शृङ्गस्य' इत्यादि यद् विशेषविज्ञानम्, सोऽपायो निश्चयज्ञानरूपः। कुतः?, इत्याह- पुरोवर्त्यर्थधर्माणामनुगमभावादस्तित्वनिश्चयसद्भावात्, तत्राऽविद्यमानार्थधर्माणां तु व्यतिरेकभावाद् नास्तित्वनिश्चयसत्त्वात्। अयं च व्यवहारावग्रहानन्तरभावी अपाय उक्तः, निश्चयावग्रहानन्तरभावी तु स्वयमपि द्रष्टव्यः। तद्यथा- श्रोत्रग्राह्यत्वादिगणतः 'शब्द एवाऽयं, न रूपादिः' इति / ईहाऽपायविषयाश्च विप्रतिपत्तयः प्रागपि निराकृताः, इति नेहोक्ताः // इति गाथार्थः // 290 // अथ चतुर्थो मतिज्ञानभेदो धारणा, इयं चाऽविच्युति-वासना-स्मृतिभेदात् त्रिधा भवति, अतः सभेदामपि तामाह तयणंतरं तयथाविच्चवणं, जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥२९१॥ [संस्कृतच्छाया:- तदनन्तरं तदर्थ-अविच्यवनं यश्च वासनायोगः। कालान्तरे च यत् पुनरनुस्मरणं धारणा सा तु॥] [ (गाथा-अर्थ :) मधुरता आदि गुणों के कारण, यह शङ्ख का ही शब्द है, शृंगी वाद्य का नहीं -इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक निश्चय के आधार पर जो विशेष ज्ञान होता है, वह 'अपाय' है।] - व्याख्याः- मधुरता व स्निग्धता आदि गुणों के कारण, यह शब्द शङ्ख का ही है, शृंगी वाद्य का नहीं -इत्यादि जो विशेष ज्ञान है, वह निश्चयज्ञानात्मक रूप (होने से) 'अपाय' है। (प्रश्न) किस युक्ति से? उत्तर दिया- (अनुगम-व्यतिरेकभावात्)। सम्मुख स्थित पदार्थ में रहने वाले धर्मों का अनुगम (या अन्वय) होने से, अर्थात् उनका अस्तित्व निश्चय होने के कारण, तथा उसमें अविद्यमान पदार्थधर्मों के व्यतिरेक भाव होने से, अर्थात् उनका नास्तित्व निश्चय होने से (वह निश्चयात्मक 'अपाय' है)। व्यवहार अर्थावग्रह के बाद होने वाला 'अपाय' यह बताया गया है, निश्चय अवग्रह के बाद होने वाले 'अपाय' को स्वयं समझ लेना चाहिए। जैसे- श्रोत्रग्राह्यता आदि गुणों से 'वह शब्द ही है, रूप आदि नहीं है'। ईहा व अपाय को लेकर की जाने वाली आपत्तियों का पहले निराकरण किया जा चुका है, इसलिए यहां उसका कथन नहीं कर रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 290 // (धारणा का व्याख्यान) मतिज्ञान का चतुर्थ भेद है- धारणा, जो अविच्युति, वासना व स्मृति -इन भेदों के कारण तीन प्रकारों वाली है, अतः अब उसका भी भेदसहित निरूपण करने जा रहे हैं // 291 // तयणंतरं तयत्याविच्चवणं, जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ [(गाथा-अर्थ :) उस (अपाय) के बाद (1) उस (सम्बद्ध) अर्थ से (उपयोग) की च्युति का (नाश) जो न होना है, तथा (2) जो वासना का जीव के साथ योग (सम्बन्ध) है, और जो (3) उस Mi 422 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------