SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रविलोक्य काक-कारण्डव-कादम्ब-क्रौञ्च-कीर-शकुन्त-कुल-निलयनम्, कृतश्चेतसि हेतुव्यापारः, यथा स्थाणुरयम्, वल्ल्युत्सर्पणकाकादिनिलयनोपलभ्भात्। तथा संभवपर्यालोचनं च व्यधायि, तद्यथा- अस्ताचलान्तरिते सवितरि, प्रसरति चेषत्तमिने महारण्येऽस्मिन् स्थाणुरयं संभाव्यते, न पुरुषः, शिर:कण्डूयन-कर-ग्रीवाचलनादेस्तद्-व्यवस्थापकहेतोरभावात्, ईदृशे च प्रदेशेऽस्यां वेलायां प्रायस्तस्याऽसंभवात् / तस्मात् स्थाणुनाऽत्र सद्भूतेन भाव्यम्, न पुरुषेण / तदुक्तम् "अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो न चाऽधुना संभवतीह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना"॥१॥ एतच्चेदृशं चित्तं'ईहा' इत्युच्यते, निश्चयाभिमुखत्वेन संशयादुत्तीर्णत्वात्, सर्वथानिश्चयेऽपायत्वप्रसङ्गेन निश्चयादधोवर्तित्वाच्च। इति संशयेहयोः प्रतिविशेषः॥ इति गाथाद्वयार्थः // 183 // 184 // हुआ कि यह वृक्ष है या कोई पुरुष है? यह स्थिति 'संशय' होने से 'अज्ञान' है। तदनन्तर, इस व्यक्ति को उस वृक्ष पर दिखाई दिया कि वहां लताएं चढ़ रही हैं, यह भी दिखाई दिया कि उस वृक्ष पर कौए, बत्तख, कलहंस, बगुले ,तोते आदि पक्षियों के समूहों के घोंसले बने हुए हैं। तब उस व्यक्ति के मन में 'हेतु'-विषयक यह व्यापार-(वैचारिक क्रिया) प्रारम्भ हुआ कि यह तो वृक्ष (ही लगता) है, क्योंकि चढ़ती हुई लताएं और कौओं आदि पक्षियों के घोंसले -इनकी यहां उपलब्धि हो रही है। इसी तरह, उसने संगति (औचित्य) का भी विचार किया, जैसे कि सूर्य के अस्तंगत होने पर, यहां थोड़ा अन्धकार फैला है, ऐसे इस महावन में इस (वृक्ष) का होना (अधिक) संभावित है, पुरुष का होना नहीं. क्योंकि सिर खजलाने. हाथ व गर्दन हिलाने आदि क्रियाएं जो परुष होने में साधक हैं. उनका यहां अभाव (भी) है, और ऐसे प्रदेश में, वह भी इस (रात्रि-प्रारम्भ के) समय यहां किसी पुरुष का होना संभव नहीं है। अतः इसे सद्भूत पदार्थ 'वृक्ष' ही होना चाहिए, न कि पुरुष। कहा भी है (एक तो) यह जंगल है, (दूसरे) सूर्य (भी) अस्त हो रहा है, इस समय प्रायः किसी पुरुष का होना यहां संभव नहीं है। अतः पक्षियों से युक्त यह पदार्थ कामदेव शत्रु (शिव) के नाम वाला, अर्थात् स्थाणु (वृक्ष) होना चाहिए। उक्त प्रकार का चित्त 'ईहा' कहा जाता है, क्योंकि वह ज्ञान निश्चय की ओर अभिमुख होने से, संशय से तो ऊपर उठ चुका है (अर्थात् संशय की स्थिति तो इसे कह नहीं सकते), किन्तु सर्वथा निश्चय भी नहीं है, अन्यथा 'अपाय' की कोटि में परिगणित हो जाता, अतः निश्चय (अपाय) की कोटि से थोड़ा नीचे है। इस प्रकार, संशय व ईहा में विशेष भेद (समझने योग्य) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 183-184 // MA 270 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy