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________________ अथाऽपायधारणागतविप्रतिपत्तिनिराचिकीर्षया परमतमुपदर्शयन्नाह केई तयण्णविसेसावणयणमेत्तं अवायमिच्छन्ति। सब्भूयत्थविसेसावधारणं धारणं बेंति // 185 // [संस्कृतच्छाया:- केचित् तदन्यविशेषापनयनमात्रमपायमिच्छन्ति। सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणां ब्रुवते॥] तच्छब्दस्याऽनन्तरगाथोक्तो भूतोऽर्थः संबध्यते, तस्मात् तत्र भूता विद्यमानात् स्थाण्वादेर्योऽन्यस्तत्प्रतियोगी तत्राऽविद्यमानः पुरुषादिस्तद्विशेषाः शिरःकण्डूयन-चलन-स्पन्दनादयस्तेषां पुरोवर्तिनि सद्भूतेऽर्थेऽपनयनं निषेधनं तदन्यविशेषापनयनं तदेव तन्मात्रम्, अपायमिच्छन्ति, केचनाऽपि व्याख्यातार:- अपायनमपनयनमपाय इति व्युत्पत्त्यर्थविभ्रमितमनस्का इति भावः। अवधारणं धारणा इति च व्युत्पत्त्यर्थभ्रमितास्ते धारणां ब्रुवते। किं तत्? इत्याह- सद्भूतार्थविशेषावधारणं सद्भूतस्तत्र विवक्षितप्रदेशे विद्यमानः स्थाण्वादिरर्थविशेषस्तस्य स्थाणुरेवाऽयं' इत्यवधारणं सद्भूतार्थविशेषावधारणमिति समासः॥ इति गाथार्थः॥१८५॥ (अपाय व धारणा सम्बन्धी पूर्वपक्ष) अब अपाय व धारणा से सम्बन्धित मत-भिन्नता (या उठाई गई आपत्तियों) का निराकरण करने के उद्देश्य से परकीय मत को उपस्थापित कर रहे हैं // 185 // केई तयण्णविसेसावणयणमेत्तं अवायमिच्छन्ति। सब्भूयत्थविसे सावधारणं धारणं बेंति // ___ [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) लोग सद्भूत वस्तु से भिन्न वस्तु में रहने वाले विशेषों (धर्मो) के अपनयन या निषेध मात्र को 'अपाय' कहते हैं। वे सद्भूत पदार्थ के विशेषों के अवधारण को 'धारणा' (नाम से) कहते हैं।] __व्याख्याः - गाथा में प्रयुक्त 'तत्' (वह) पद पूर्व गाथा में कहे गये भूतार्थ को (संकेतित करते हुए यहां उसे) जोड़ रहा है। अतः ('तदन्यविशेषापनयन' पद का अर्थ हुआ कि) उससे, अर्थात् सद्भूत पदार्थ से, जो अन्य है, या उसका प्रतियोगी- (जो वहां) अविद्यमान पुरुष है, उसके विशेष (धर्म) हैंसिर खुजलाना, चलना-हिलना-स्पन्दित होना आदि, उनका सन्मुखस्थित सद्भूत पदार्थ में अपनयन यानी निषेध करना / बस इसी को, इतने मात्र को ही, 'अपाय' कहते हैं। (प्रश्न-) कौन (कहते हैं)? उत्तर- कुछ व्याख्याता हैं (जो वैसा कहते हैं)। अर्थात् 'अपनयनम् अपायः' (अपनयन, अन्य वस्तु का निषेध ही 'अपाय' है) -इस व्युत्पत्ति से अभिहित अर्थ (को स्वीकार करने) के कारण जिनका मन भ्रमयुक्त हो गया है। इसी प्रकार, वे 'अवधारणमेव धारणा' (अवधारण ही धारणा है) -इस व्युत्पत्ति से अभिहित अर्थ (को स्वीकार करने) के कारण भ्रमित होने वाले (व्याख्याता) धारणा को भी वैसा (अपाय की तरह) ही कहते हैं। (प्रश्न-) उनके मत में धारणा का स्वरूप क्या है? उत्तर दिया- सद्भूतार्थ-विशेषावधारण (ही धारणा है)। इस समस्त पद का अर्थ इस प्रकार है- सद्भूत ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------271 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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