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________________ अत्र परः प्राह जुजइ पत्तविसयया फरिसण-रसणे न सोत्त-घाणेसु। गिण्हंति सविसयमिओ जं ताई भिन्नदेसं पि॥२०५॥ [संस्कृतच्छाया:- युज्यते प्राप्तविषयता स्पर्शनरसने न श्रोत्रघ्राणयोः। गृह्णीतः स्वविषयमितो यत् ते भिन्नदेशमपि॥] प्राप्तः स्पृष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो ययोस्ते प्राप्तविषये तयोर्भावः प्राप्तविषयता सा युज्यते घटते / कस्मिन्?, इत्याह- स्पर्शनं च रसनं चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन्, स्पर्शन-रसनेन्द्रियद्वय इत्यर्थः। अनभिमतप्रतिषेधमाह- न श्रोत्र-घ्राणयोः प्राप्तविषयता युज्यते, यद् यस्मात् कारणादितो विवक्षितात् स्वदेशाद् भिन्न देशमपि स्वविषयमेते गृहीतः, अस्याऽर्थस्याऽनुभवसिद्धत्वात्। न हि शब्दः कश्चिच्छोत्रेन्द्रिये प्रविशन्नुपलभ्यते, नापि श्रोत्रेन्द्रियं शब्ददेशे गच्छत् समीक्ष्यते। न चाभ्यामन्येनाऽपि प्रकारेण विषयस्पर्शनं घटते, 'दूर एष कस्याऽपि शब्दः श्रूयते' इत्यादिजनोक्तिश्च श्रूयते / कर्पूर-कुसुम-कुङ्कुमादीनां तु दूरस्थानामपि गन्धो निर्विवादमनुभूयते, दृश्यते च / तस्माच्छ्रोत्र-घ्राणयोः प्राप्तविषयता न युज्यत एव // इति गाथार्थः॥२०५ // (श्रोत्र व घ्राण का विषय-सम्पर्क) (अब) इस (प्राप्यकारिता के) सम्बन्ध में पूर्वपक्षवादी की ओर से कहा जा रहा है: // 205 // जज्जइ पत्तविसयया फरिसण-रसणे न सोत्त-घाणेस। गिण्हंति सविसयमिओ जं ताई भिन्नदेसं पि॥ . [ (गाथा-अर्थ :) प्राप्तविषयता (प्राप्यकारिता) त्वचा व रसना (इन्द्रिय) में तो उपयुक्त (प्रतीत होती) है, न कि श्रोत्र व घ्राण में / क्योंकि वे (श्रोत्र व घ्राण) इन्द्रियां तो भिन्न-भिन्न (अन्य, दूरवर्ती) देश में स्थित स्वविषय पदार्थ को भी ग्रहण कर लेती हैं। व्याख्याः- प्राप्त या स्पृष्ट होकर, ग्राह्य वस्तु जिन इन्द्रियों की विषय बनती हैं, वे इन्द्रियां हैंप्राप्तविषय / प्राप्तविषय होना ही प्राप्तविषयता (या प्राप्यकारिता) है। यह घटित होती है- (युज्यते)। (प्रश्न-) कहां (घटित होती है)? (उत्तर-) स्पर्शन (त्वचा) व रसना-इन दो इन्द्रियों में ही घटित होती है। अनभिमत (जहां वह घटित नहीं होती, उस) का निषेध करने हेतु कहा- (न श्रोत्रघ्राणयोः)। श्रोत्र व घ्राण में प्राप्तविषयता (मानना) उपयुक्त नहीं है। (यद्) क्योंकि ये (दोनों) विवक्षित स्वदेश से (भिन्नदेशम् अपि) भिन्न देश में स्थित भी स्वविषय को ग्रहण कर लेती हैं -यह बात अनुभवसिद्ध (ही) है। कोई शब्द किसी श्रोत्रेन्द्रिय में प्रविष्ट होता हुआ उपलब्ध नहीं होता, और न ही कोई श्रोत्रेन्द्रिय शब्द के (दूरवर्ती) देश में जाती (स्पृष्ट होती) हुई देखी जाती है। इन दोनों का किन्हीं अन्य उपायों से भी विषय से स्पृष्ट होना घटित नहीं होता। (इसलिए) लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि 'यह तो कोई दूरस्थ शब्द सुनाई पड़ रहा है' इत्यादि / दूरस्थित कर्पूर, पुष्प, कुंकुम आदि की सुगन्ध भी (घ्राणेन्द्रिय को) अनुभव में आती है और अनुभव में आते हुए देखा भी जाता है। इसलिए श्रोत्र व घ्राण (इन्द्रिय) की प्राप्तविषयता (प्राप्यकारिता) घटित ही नहीं होती // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 205 // MA 300-------- विशेषावश्यक भाष्य ----- -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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