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________________ अत्राह प्रेरक:- यदि नाम यदाऽऽत्मा शृणोति तच्छ्रुतमिति श्रुतज्ञानस्य लक्षणमुच्यते, हन्त! तर्हि शब्दमेव शृणोति जीव / इति सकलजगत्प्रतीतमेव। ततः किं झूयते?, इत्याह- 'जइ तओ इत्यादि' यदि च सकः स शब्दो ज्ञानं श्रुतरूपम्, 'तो त्ति' ततो नात्मनो जीवस्य भावः परिणामस्तच्छ्रुतं प्राप्नोति, शब्दस्य श्रुतत्वेनेष्टत्वात्, तस्य च पौद्गलिकत्वेन मूर्तत्वात्, आत्मनस्त्वमूर्तत्वात्, मूर्तस्य चामूर्तपरिणामत्वायोगात्, आत्मनः परिणामश्च श्रुतज्ञानमिष्यते तीर्थंकरादिभिः, इति कथं न विरोधः? इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८॥ अत्राचार्य: प्रत्युत्तरयति सुयकारणं जओ सो सुयं च तक्कारणं ति तो तम्मि। कीरइ सुओवयारो सुयं तु परमत्थओ जीवो॥१९॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रुतकारणं यतः स श्रुतं च तत्कारणमिति ततस्तस्मिन् / क्रियते श्रुतोपचारः श्रुतं तु परमार्थतो जीवः॥] यतो यस्मात् कारणात् स शब्दो वक्त्राऽभिधीयमानः श्रोतृगतस्य श्रुतज्ञानस्य कारणं निमित्तं भवति, श्रुतं च वक्तृगतश्रुतोपयोगरूपं व्याख्यानकरणादौ तस्य वक्त्राऽभिधीयमानस्य शब्दस्य कारणं जायते, इत्यतस्तस्मिन् श्रुतज्ञानस्य कारणभूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते। ततो न परमार्थतः शब्दः श्रुतम्, किन्तपचारत इत्यदोषः। यहां (कोई) शंकाकार कह रहा है- जिसे आत्मा सुनता है, वह 'श्रुत' है- यदि श्रुतज्ञान का यह लक्षण कह रहे हैं, तब तो बड़े खेद की बात है, क्योंकि शब्द को ही जीव सुनता है- यह समस्त लोक में स्पष्ट (अनुभूत) है। तो यह मानने से क्षति क्या हुई? (तब शंकाकार ने) कहा- (यदि सकः) यदि वह शब्द ही श्रुत रूप है, (ततः-) तो वह श्रुत आत्म-परिणाम नहीं रह जाता, क्योंकि शब्द को आप 'श्रुत' मान रहे हैं और शब्द तो पौद्गलिक होने से मूर्त है और आत्मा तो अमूर्त है, मूर्त वस्तु अमूर्त का परिणाम नहीं होती। किन्तु (सिद्धान्त में तो) तीर्थंकर आदि ने श्रुतज्ञान को आत्म-परिणाम रूप से माना है, अतः (आगम से, सिद्धान्त से) विरोध कैसे नहीं हुआ? अर्थात् अवश्य होता है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 98 // (शब्द उपचारतः श्रुत) उक्त शंका का उत्तर आचार्य (भाष्यकार) दे रहे हैं (99) सुयकारणं जओ सो सुयं च तक्कारणं ति तो तम्मि / कीरइ सुओवयारो सुयं तु परमत्थओ जीवो // [(गाथा-अर्थः) वह (शब्द) श्रुत का कारण है, और श्रुत भी शब्द का कारण होता है, इसलिए शब्द में 'श्रुत' का 'उपचार' किया जाता है, परमार्थतः (वस्तुतः) तो जीव ही 'श्रुत' है।] व्याख्याः- (यतः) जिस कारण से, वह शब्द वक्ता द्वारा बोला हुआ, श्रोता के (आन्तरिक) श्रुत-ज्ञान का कारण यानी निमित्त होता है। वक्ता का (आन्तरिक) श्रुतोपयोग रूप 'श्रुत' भी, व्याख्यान via 156 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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