________________ इय सुबहुणा वि कालेण, सव्वभेयाऽवधारणमसझं। जम्मि हवेज अवाओ, सव्वोच्चिय उग्गहो नाम॥२५६॥ [संस्कृतच्छाया:- इति सुबहुनाऽपि कालेन सर्वभेदावधारणमसाध्यम्। यस्मिन् भवेद् अपायः, सर्व एवावग्रहो नाम॥] इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः, ततश्चेदमुक्तं भवति- यथा 'शाकोऽयं शब्दः' इत्यस्यां बुद्धौ शब्दगतभेदाऽवधारणं सांप्रतमसाध्यम्, मन्द्र-मधुरत्वादितदुत्तरोत्तरभेदबाहुल्यसंभवात् / तथाच सति स्तोकत्वाद् नेयं बुद्धिरपायः, किन्त्वर्थावग्रह इत्येवं सुबहुनाऽपि कालेन सर्वेणाऽपि पुरुषायुषेण शब्दगतमन्द्रमधुरत्वाद्युत्तरोत्तरभेदावधारणमसाध्यं तद्भेदानामनन्तत्वादशक्यमित्यर्थः, यस्मिन् भेदावधारणे, किम्?, इत्याह- यस्मिन् अपायो भवेदन्यभेदाकाङ्क्षानिवृत्तेर्यस्मिन् भेदावधारणज्ञानेऽपायत्वं व्यवस्थाप्येतेति भावः। तस्मात् सर्वोऽपि भेदप्रत्यय उत्तरोत्तरापेक्षया त्वदभिप्रायेण स्तोकत्वादर्थावग्रह एव प्राप्नोति, नाऽपायः, शब्दज्ञानवत् // इति गाथार्थः // 256 // // 256 // . इय सुबहुणां वि कालेण, सवभेयाऽवधारणमसज्झं। जम्मि हवेज्ज अवाओ, सव्वो च्चिय उग्गहो नाम // ___ [(गाथा-अर्थ :) इस प्रकार, जिस (भेदात्मक ज्ञान) में 'अपाय' हो, ऐसे समस्त भेदों का निश्चय करना, अत्यन्त दीर्घ काल में भी सम्भव नहीं हो पाएगा, क्योंकि वह सभी (निश्चयात्मक) ज्ञान (उत्तरोत्तर ज्ञान की अपेक्षा से) 'अवग्रह' ही होगा (अपाय नहीं)।] व्याख्याः - 'इति' यह पद निदर्शनार्थक है (अर्थात् 'इस प्रकार से' इस अर्थ को यहां वह अभिप्रेत कर रहा है)। अतः (गाथा का) अर्थ यह होगा- जैसे 'यह शंख शब्द है' इस बुद्धि में शंखगतभेदों का अवधारण (निश्चय) कर पाना अभी अशक्य है. क्योंकि मन्द्रता. मधरता आदि उत्तरोत्तर भेदों की (अत्यधिक) बहुलता (पाई जाती) है। ऐसी स्थिति में स्तोक होने से उक्त बुद्धि 'अपाय' नहीं होगी, अपितु 'अर्थावग्रह' होगी। इस प्रकार, अत्यन्त दीर्घ काल में, समस्त पुरुषायु (मानव-जीवन) .. लगा कर भी शब्द-गत मन्द्रता, मधुरता आदि उत्तरोत्तर भेदों का निश्चय कर पाना शक्य नहीं होगा, क्योंकि (उनके) वे भेद अनन्त होते हैं- यह तात्पर्य है। (यस्मिन्) भेद-सम्बन्धी जिस निश्चय (की प्रक्रिया) में। (प्रश्न-) क्या? (आगे क्या कहना चाहते हैं?) उत्तर दिया-जिसमें 'अपाय' हो। तात्पर्य यह है कि अन्य भेदों की अपेक्षा निवृत्त होकर भेदात्मक निश्चय करते हुए जहां 'अपायता' व्यवस्थापित की जा सके (ऐसा भेद-निश्चय) अशक्य होगा। इसिलए सभी भेदात्मक ज्ञान उत्तरोत्तर भेदों की . अपेक्षा रखें तो आपके (ही) कथनानुसार 'स्तोक' होने से अर्थावग्रह ही होंगे, 'अपाय' नहीं, शब्द ज्ञान की तरह (अर्थात् जैसे शब्दात्मक बुद्धि को आपने 'स्तोक' यानी अल्प-विशेषग्राही कह कर, उसकी 'अपायता' का निराकरण किया, वैसे ही बाद के भी सभी भेदात्मक ज्ञान ‘अपाय' नहीं कहे जाएंगे, क्योंकि समस्त भेदों का ज्ञान तो, व्यक्ति की पूरी आयु भी बीत जाय तो भी, सम्भव नहीं) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 256 // ------ विशेषावश्यक भाष्य --------377 EL