________________ अत्र प्रयोगः- इह यस्य ज्ञेयसंबन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो नास्ति, न तस्य व्यञ्जनावग्रहो दृष्टः, यथा चक्षुषः, नास्ति चार्थसंबन्धे सत्यनुपलब्धिकालो मनसः, तस्माद् न तस्य व्यञ्जनावग्रहः, यत्र त्वयमभ्युपगम्यते न तस्य ज्ञेयसबन्धे सत्यनुपलब्धिकालासंभवः, यथा श्रोत्रस्येति व्यतिरेकः। तदेवं परोक्तपक्षद्वयेऽपि मनसो व्यञ्जनावग्रहं निराकृत्योपसंहरति- 'नवंजणं तम्ह त्ति'। तस्मादुक्तप्रकारेण मनसो न व्यञ्जनावग्रहसंभवः॥ इति गाथार्थः // 241 // कस्माद् न मनसो व्यञ्जनावग्रह इत्याशङ्कयाऽत्रार्थे विशेषवतीमुपपत्तिमाह समए समए गिण्हइ दव्वाइं जेण मुणइ य तमत्थं / जं चिंदिओपओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते॥२४२॥ होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ। होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न प्पवत्तेजा // 243 // [संस्कृतच्छाया:- समये समये गृह्णाति येन जानाति च तदर्थम् / यच्च इन्द्रियोपयोगेऽपि व्यञ्जनावग्रहे अतीते॥ - इस प्रसंग में युक्ति (अनुमान) इस प्रकार है:- जिसका ज्ञेय के साथ सम्बन्ध हो, तब यदि (अर्थ की) अनुपलब्धि का कोई काल नहीं होता तो उसके व्यञ्जनावग्रह नहीं देखा जाता, जैसे चक्षु के (व्यञ्जनावग्रह नहीं होता)। अर्थ के साथ सम्बन्ध होने पर मन का (भी) कोई अनुपलब्धि-काल नहीं होता, इसलिए उसका व्यअनावग्रह नहीं होता। किन्तु वहां व्यअनावग्रह का होना माना जाता है, उसका ज्ञेय के साथ सम्बन्ध होने पर अनुपलब्धि-काल असंभव नहीं होता, जैसे श्रोत्र में (अनुपलब्धिकाल) असंभव होता है और इसलिए व्यअनावग्रह नहीं होता) -यह व्यतिरेक दृष्टान्त है। इस प्रकार, पर (पूर्वपक्ष) द्वारा कहे गये दोनों पक्षों (कथनों) में ही मन के व्यअनावग्रह का निराकरण करने के बाद, (भाष्यकार) उपसंहार रूप से कह रहे हैं- (न व्यञ्जनं तस्मात्) / इसलिए उक्त रीति से मन का व्यअनावग्रह संभव नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 241 // मन का व्यञ्जनावग्रह किस कारण से नहीं होता -इस आशंका को मन में रख कर (भाष्यकार) इस सम्बन्ध में विशेष युक्ति का कथन कर रहे हैं || 242-243 // समए समए गिण्हइ दव्वाइंजेण मुणइ य तमत्थं / जं चिंदिओपओगे वि वंजणावग्गहे ऽतीते || होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ। होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न प्पवत्तेज्जा // [(गाथा-अर्थ :) (व्यक्ति) प्रत्येक समय में (मनो-) द्रव्यों को ग्रहण करता है जिससे वह उस (ज्ञेय) अर्थ को जानता है। इन्द्रियों के उपयोग (के समय) में भी व्यञ्जनावग्रह (का काल) बीत जाने पर प्रथम समय से ही मन का अर्थावग्रह रूप व्यापार होता (रहता) है, अन्यथा उस (मन) की प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी।] --------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 353 2