________________ तद्देसचिन्तणे होज वंजणं जड़ तओ न समयम्मि। पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज न वंजणं तम्हा // 241 // [संस्कृतच्छाया:- तद्-देशचिन्तने भवेद् व्यञ्जनं यदि ततो न समये। प्रथम एव समये गृह्णीयाद्, न व्यञ्जनं तस्मात्॥] स चासौ स्वकायहृदयादिदेशश्च तस्य चिन्तनं तस्मिन् सति स्याद् मनसो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः। यदि किम्?, इत्याह-'जड़ तओन समयम्मि पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज त्ति'। यदि तद् मनः प्रथमः एव समये तं स्वकीयहृदयादिकमर्थं न गृह्णीयाद् नावगच्छेदिति। एतच्च नास्ति, यस्माद् मनसः प्रथमसमय एवार्थाऽवग्रहः समुत्पद्यते, न तु श्रोत्रादीन्द्रियस्येव प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः, तस्य हि क्षयोपशमापाटवेन प्रथममर्थानुपलब्धिकालसंभवाद् युक्तो व्यञ्जनावग्रहः, मनसस्तु पटुक्षयोपशमत्वाच्चक्षुरिन्द्रियस्येवाऽर्थानुपलम्भकालस्यासंभवेन प्रथममेवाऽर्थावग्रह एवोपजायते। अपेक्षा से ही करना उपयुक्त होगा। मन द्वारा बाह्य अर्थ को अप्राप्त (अस्पृष्ट) करते हुए भी उसका ग्रहण होता है, इसलिए वहां (कोई) व्यभिचार नहीं है (अर्थात् मन की अप्राप्यकारिता ही है, उसका. . अभाव नहीं है)। स्वकीय हृदय आदि से सम्बन्धित चिन्तन में भले ही मन की प्राप्यकारिता हो, किन्तु उस का व्यञ्जनावग्रह तो सम्भव नहीं होता” –इसी तथ्य को स्पष्ट करने हेतु (भाष्यकार) कह रहे हैं // 241 // तद्देसचिन्तणे होज्ज वंजणं जइ तओ न समयम्मि / पढमे चेव तमत्थं गेण्हेज्ज न वंजणं तम्हा // [(गाथा-अर्थ :) (स्वशरीर-हृदय आदि) उस देश के चिन्तन करते समय, व्यञ्जन (व्यञ्जनावग्रह तब स्वीकार्य) होता, बशर्ते प्रथम समय में (उस हृदयादिक को) वह ग्रहण नहीं करता होता। किन्तु ऐसा होता नहीं, इसलिए (उस मन का) व्यञ्जन (व्यञ्जनावग्रह) नहीं होता।] ___ व्याख्याः- वह यानी स्वकाय-हृदय आदि देश, उसका चिन्तन होने पर मन का व्यञ्जन यानी व्यञ्जनावग्रह (तब) सम्भव था (यदि....) / (प्रश्न-) यदि क्या? उत्तर दिया- (यदि ततो न समये प्रथम एव तदर्थं गृह्णीयात् -इति)। (अर्थात्) यदि प्रथम समय में ही मन अपने हृदय आदि अर्थ को ग्रहण नहीं करता, नहीं जानता होता। किन्तु ऐसा होता नहीं, क्योंकि प्रथम समय में ही मन का अर्थावग्रह हो जाता है। ऐसा नहीं होता कि (जैसे श्रोत्रादि इन्द्रिय का प्रथमतः व्यअनावग्रह होता है, उसी) श्रोत्रादि इन्द्रिय की तरह ही प्रथम समय में पहले व्यञ्जनावग्रह हो (और फिर अर्थावग्रह हो), क्योंकि (श्रोत्रादि की) क्षयोपशम-पता (अपेक्षित बोध-क्षमता) नहीं होती, और पहले (समय में) ही अर्थ की उपलब्धि नहीं हो पाती, अतः (उन श्रोत्रादि का तो) व्यञ्जनावग्रह होना युक्तियुक्त होता है। किन्तु, चूंकि मन क्षयोपशम-पटु (जानने में सक्षम) होता है, इसलिए उसके लिए चक्षु इन्द्रिय की तरह ही, अर्थअनुपलब्धि का (कोई) काल संभव नहीं हो पाता, और प्रथम समय में ही उसको (व्यञ्जनावग्रह न होकर) अर्थावग्रह ही हो जाता है। Ma 352 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------