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________________ स्वयं मङ्गलं न भवेत् तदाऽन्यमङ्गलाऽव्याप्तत्वात् क्वापि तदमङ्गलं भवेत्, यदा तु सर्वमपि स्वयमेव तद् मङ्गलम्, तदा क्वापि तस्याऽमङ्गलता न युक्तेति भावः // इति गाथार्थः॥१९॥ अथ प्रेरकः प्राह जइ मंगलं सयं चिय सत्थं तो किमिह मंगलग्गहणं?। सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेत्तं तदभिहाणं // 20 // [संस्कृतच्छाया:- यदि मङ्गलं स्वयमेव शास्त्रं, तदा किमिह मङ्गलग्रहणम्? शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधानम्॥] .. यदि हि स्वयमेव शास्त्रं मङ्गलमिष्यते तदा'तं मंगलमाईए मझे' इत्यादिवचनात् किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते?, स्वत एव मङ्गले मङ्गलविधानस्याऽनर्थकत्वादिति भावः। इति परेण प्रेरिते गुरुराह-'सिस्सेत्यादि / शिष्यस्य मतिः शिष्यस्य मतिः शिष्यमतिस्तस्या मङ्गलपरिग्रहः सोऽर्थः प्रयोजनमस्य तत् तथा तदर्थमेव शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधानं मङ्गलाभिधानमित्यर्थः; इदमुक्तं भवति-शास्त्रादनान्तरभूतमेव मङ्गलमुपादीयते, नार्थान्तरमिति प्रागेवोक्तम्, नन्दिर्हि मङ्गलत्वेनाभिधास्यते, सा.च पञ्चज्ञानात्मिका; अतः इसकी अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं है, और इस प्रकार मङ्गलात्मक शास्त्र के तीन भाग करने पर भी मध्य के अन्तराल को अमङ्गल बताना (कथमपि) युक्तियुक्त नहीं ठहरता / यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप नहीं हो, तब तो अन्य मङ्गल के न होने से, वह कहीं भी अमङ्गलरूप हो सकता था, किन्तु जब समस्त शास्त्र ही मङ्गलरूप है, तब कहीं भी उसकी अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं हो सकती- यह तात्पर्य है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // अब पुनः आक्षेपकर्ता कहता है (और आचार्य उसका यहां समाधान भी कर रहे हैं) (20) जइ मङ्गलं सयं चिय, सत्यं तो किमिह मङ्गलग्गहणं। सीसमइमङ्गलपरिग्गहत्यमेत्तं तदभिहाणं॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप है तो फिर उसके लिए मङ्गल का ग्रहण (कथन) क्यों किया गया है? (उत्तर-) शिष्य की बुद्धि में शास्त्र की मङ्गलता स्थापित करने हेतु उस (मङ्गल) का ग्रहण (कथन) किया गया है।] व्याख्या:- यदि समस्त शास्त्र स्वयं ही मङ्गल है-ऐसा (आप) मानते हैं, तब 'तत् मङ्गलमादौ' इत्यादि (गाथा-13) में कथन कर, 'मङ्गल' का ग्रहण (निर्देश) क्यों किया गया है? जो स्वतः मङ्गल है, उसके लिए मङ्गल का विधान अनर्थक (ही) है- यह (आक्षेपकर्ता का) तात्पर्य है। इस प्रकार, पर (यानी आक्षेपकर्ता) द्वारा कहने पर गुरुवर्य कहते हैं- शिष्यमति (इत्यादि)। शिष्य की जो मति या बुद्धि, उसमें मङ्गल का परिग्रह कराना ही जो प्रयोजन, उस प्रयोजन के लिए ही उसका, यानी मङ्गल का, अभिधान या कथन किया गया है। तात्पर्य यह है- शास्त्र से मङ्गल कोई पृथक् पदार्थ नहीं हैयह पहले कहा जा चुका है, अतः मङ्गल जो किया जाता है, वह शास्त्र से भिन्न नहीं है। 'नन्दी' (सूत्र) को मङ्गलरूप (आगे) कहा जाएगा क्यों उसमें पांच ज्ञानों का वर्णन है। इसलिए आवश्यक आदि 44 -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - -- - - --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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